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पशु-बलि: प्राचीनतम और सार्वभौमिक परम्परा

पशु-बलि: प्राचीनतम और सार्वभौमिक परम्परा

डॉ. अब्दुल रशीद अगवान

ईद-अल-अज़हा को व्यापक रूप से जानवरों की बलि के उत्सव के रूप में देखा जाता है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। यह दिन हज को पूरा करने का पैग़ाम भी देता है, हज़रत मुहम्मद (स.) के अंतिम हज के उपदेश में मानवाधिकारों की पहली नियमावली के जारी होने की याद भी दिलाता है और हज के रूप में एक जगह पर संसार की सभी जातियों और देशों के लोगों के एक वैश्विक सम्मेलन के रूप में मानव एकता का प्रतीक भी है। यह दिन हज़रत इब्राहिम, जो कि सेमेटिक लोगों के संयुक्त पूर्वज हैं, से भी पहले की कुछ परंपराओं की निरंतरता का भी स्मरण है जो हज़रत आदम और उनके परिवार से शुरू हुई थीं।

आदम के दो बेटों, हाबील (हाबिल) और क़ाबील (कैन), की कहानी बाइबिल (उत्पत्ति, 3:21, 4:4) और क़ुरआन (5:27-31) में वर्णित की गई है। इस कहानी में हाबील की दी गई क़ुर्बानी के स्वीकार होने और क़ाबील की क़ुर्बानी के अस्वीकार होने की घटना मिलती है। अपनी ग़लत सोच पर पश्चाताप करने के बजाय, नाराज़ बड़े भाई क़ाबील ने अपने छोटे भाई हाबील को क़त्ल कर दिया। शायद वह जगह मिना नाम का वही स्थान था जहां आज भी हज के मौक़े पर क़ुर्बानी दी जाती है। कपिल स्मृति (श्लोक 1) में इसी तरह का एक संदर्भ मिलता है जिसमें मनु के दो पुत्रों का नाम शौनक (अर्थात वह जिसका वद्ध हुआ हो) और कपिल मिलता है और उस स्थान का नाम जहां शौनक का वद्ध हुआ उसका नाम मीना बताया गया है। दोनों वृतांतों की समानता को देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कपिल स्मृति में जिस मीना का ज़िक्र हुआ है वह यही जगह है जहां आज भी हज के अवसर पर क़ुर्बानी दी जाती है।

मनुष्य ने जब गांव बनाकर रहना सीखा तो अपने शिकार युग के साथी कुत्ते के बाद जानवरों में सबसे पहले भेड़ और बकरी को साधा और उन्हें अपने साथ रखना शुरू किया और उनसे अपनी कुछ ज़रूरतें पूरी कीं। यह शुरूआत वर्तमान समय से लगभग 12000 साल पहले हुई थी। इनका इस्तेमाल दूध, मांस, बाल और खाल के अलावा अतिथि सत्कार, आम उत्सव और धार्मिक दायित्व को पूरा करने की परंपरा के लिए होने लगा। जानवरों की बलि का इशारा करने वाले कुछ प्राचीन पुरातत्वीय प्रमाण प्राचीन मिस्र से आते हैं। प्राचीन मिस्र के दफन जानवरों के अवशेषों की खुदाई ऊपरी मिस्र की बदरी संस्कृति से की गई है जो कि 4400 और 4000 ईसा पूर्व के बीच अपने चरम पर थी। युद्ध के लिए घोड़े की बलि प्राचीन काल में भी प्रचलित परंपरा रही थी, विशेष रूप से इंडो-यूरोपियन भाषा बोलने वालों के बीच। रथ का दफन भी एक प्राचीन अनुष्ठान था जिसमें पूरे रथ को घोड़ों के साथ या उनके बिना दफनाया जाता था। इस तरह की प्रथा को सबसे पहले 2000 ईसा पूर्व रूस के सिंताश्ता-पेरोवका संस्कृति में प्रचलित पाया गया।

विकिपीडिया के अनुसार, ‘क़ोरबान’ यहूदियों द्वारा दिए गए कई प्रकार के बलिदानों में से एक है, जैसा कि तौरात में वर्णित और आदेशित किया गया है। यहूदी परंपरा में पशुओं का सबसे आम उपयोग बलि (ज़ेवह) है, जिसमें ज़ेवह शालिम (शांति के लिए) और ज़ेवह ओलह (संकट के लिए) शामिल हैं। कोरबान का सामान्य अर्थ पशुबलि था, जैसे कि बैल, भेड़, बकरी या कबूतर जो शचीता (यहूदी अनुष्ठान वध) से गुज़रता था। इसी हिब्रू शब्द से अरबी में ‘क़ुर्बानी’ शब्द का समावेश हुआ।

नया नियम में यीशु के माता-पिता द्वारा दो कबूतरों (dove) की बलि के बारे में सूचना मिलती है (लूका 2:24)। मसीह के सलीब पर दिये गये बलिदान को बड़े पैमाने पर ईसाई परंपरा में मानवता के सभी पापों के लिए एक प्रतिस्थापन बलि के रूप में समझा गया है और इसलिए इसके बाद किसी पशुबलि की आवश्यकता महसूस नहीं की गई। फिर भी, कुछ ईसाई वर्गों ने विशेष रूप से ईस्टर के अवसर पर इसे जारी रखा। आज भी, ग्रीस के कुछ गाँवों में ‘कुर्बानिया’ नामक त्यौहार के समय रूढ़िवादी संतों के नाम पर जानवरों की बलि देने का रिवाज है। अर्मेनियाई चर्च, इथियोपिया के ट्वेहेडो चर्च और इरिट्रिया, माया लोक कैथोलिक मत, चर्च ऑफ जीसस क्राइस्ट ऑफ लैटर डे सेंट्स और कुछ अन्य समुदायों में पशुबलि की स्थापना पाई जाती है। हालांकि जानवरों की बलि ईसाइयों के बीच सर्वव्यापी नहीं है, लेकिन यह स्थिति उन्हें मांसाहारी भोजन का विकल्प चुनने के लिए प्रतिबंधित नहीं करता है।

सिंधु सभ्यता में जल-भैंस की बलि के अनुष्ठान का प्रचलन था, जो तब भारत के अन्य हिस्सों में फैल गया था। Harrapa.com पर एक ब्लॉग सूचित करता है: “शुरुआती हड़प्पा संस्कृतियां लगभग 3000 ईसा पूर्व में पूर्व और दक्षिण की ओर बढ़ने लगीं, और बाद में इन्हीं दिशाओं में इनके प्रभाव की लहरें सिंधु सभ्यता से आईं। हड़प्पाकाल में उस समय का हड़प्पाई जल-भैंस पंथ प्रायद्वीपीय भारत तक पहुँच चुका था, जिसका प्रमाण 1974 में महाराष्ट्र के दक्षिणतम स्थल दाइमाबाद की पुरातत्वीय खोज में मिली पानी की बड़ी भैंस की कांस्य की मूर्ति से मिलता है। दक्षिण भारत में, अपेक्षाकृत हाल तक, ग्राम देवियों को जल-भैंस के बलिदान के माध्यम से पूजा जाता है। देवी देवताओं को एक पुरुष देवता के साथ जोड़ा जाता है, जिन्हें भैंस राजा कहा जाता है, जो लकड़ी की चौकी या पत्थर के बने खंभे या पीपल के पेड़ के द्वारा दर्शाया जाता है।"

शाक्तमत के अनुयायी पशु बलि को अपनी आस्था का एक अभिन्न अंग मानते हैं, जो मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल और असम और भारत के कुछ पहाड़ी हिस्सों में प्रचलित है। नलगोंडा जिले में एक दूरस्थ आदिवासी बस्ती में अप्रैल 2016 में बड़े पैमाने पर पशु बलि का मामला सामने आया था। कथित तौर पर, आदिवासी लोगों ने उस समय 100 से अधिक बैलों का वध कर दिया, ताकि उनकी देवी कंकाली भवानी को प्रसन्न किया जा सके जिसे स्थानीय लोग अंकलम्मा कहते हैं। विकिपीडिया के अनुसार, राजस्थान के कुछ राजपूत समुदाय नवरात्रि पर अपने हथियारों और घोड़ों की पूजा करते हैं। हालांकि यह प्रथा अब लगभग छोड़ दी गई है, मगर पूर्व में इस अवसर पर कुलदेवी को एक बकरे की बलि की पेशकश देने का रिवाज था, जो कुछ जगहों पर अभी भी दिखाई देता है। असम और पश्चिम बंगाल में और नेपाल में भी ऐसे मंदिर हैं जहाँ बकरियों, मुर्गियों और कभी-कभी जल भैंसों की बलि दी जाती है। काल्कि पुराण क्रमशः बलि (छोटी बलि) और महाबली (महान बलि) को बकरी और हाथी की बलि के रूप में अलग अवग किया गया है। मनुस्मृति (5:22) में बलि के अनुष्ठानों का वर्णन है। यजुर्वेद, रामायण और महाभारत में अश्वमेध अनुष्ठान को एक प्राचीन प्रथा के रूप में वर्णित किया गया है। केरल में उत्तर मालाबार क्षेत्र का एक लोकप्रिय अनुष्ठान थेयम देवों के लिए रक्त की पेशकश है। नेपाल में सबसे बड़ी पशुबलि तीन दिवसीय गाधीमाई उत्सव के दौरान होती है, जिसे नेपाल सरकार ने 2015 में प्रतिबंधित कर दिया।

पारंपरिक अफ्रीकी और अफ्रीकी-अमेरिकी धर्मों में पशुबलि का काफी प्रचलन है। अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट के दो ऐतिहासिक फैसले हैं, जो पशुबलि के अनुष्ठान पर अमल करने के लिए वहां के कुछ अल्पसंख्यकों के अधिकार को बरक़रार रखते हैं।

सिखों में, केवल निहंग संप्रदाय पशु बलि देता है। पशु बलि को पूरी तरह से प्रतिबंधित करने वाले समुदाय बौद्ध और जैन हैं। हालांकि, सिख और बौद्ध अपने आहार में मांसाहार का चयन करने के लिए स्वतंत्र हैं। यह केवल जैन धर्म है जो मांसाहारी जीवन को पूरी तरह प्रतिबंद्धित करता है।

ईद-अल-अज़हा के आसपास भारत में पशुबलि एक सांप्रदायिक चर्चा का विषय बना दी जाती है। ईद के अवसर पर पशुबलि की प्रथा की आलोचना और उसे रोकने के लिए तीन वर्गों के चिंतक और कार्यकर्ता मुखर और कभी-कभी आक्रामक हो जाते हैं। इन्हें अहिंसावादी संप्रदाय, पशु अधिकारों के लिए काम करने वाले समूह और गौ रक्षा के चैंपियन के रूप में देखा जा सकते हैं। हालाँकि, उनके तर्क और आंदोलन बड़े पैमाने पर भड़काऊ और अर्द्ध-सत्य पर आधारित होते हैं।

अहिंसा के अनुयायियों का कहना है कि पशुबलि को स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह जीवन विरोधी है। यहां सरासर उनकी अज्ञानता ही उजागर होती है, जब वे इस तथ्य से इनकार करते हैं कि जीवन केवल पशुओं का मौलिक गुण नहीं है, यह पौधों और सूक्ष्मजीवों के लिए भी क़ीमती है। जब पेड़ गिराये जाते हैं, फसलों को काटा जाता है और फलों और सब्ज़ियों का इस्तेमाल होता है, बहुत सारी जीवित चीजें मानव लाभ के लिए अपनी जान गंवा देती हैं। जब एंटीबायोटिक्स दवाई ली जाती है, चाहे हर्बल सिरप के रूप में हो, अरबों-खरबों बैक्टीरिया, वायरस और अन्य जीवन रूप जो मनुष्य के लिए हानिकारक होते हैं, मारे जाते हैं। जब कोई दही खाता है या पानी पीता है या खाना पकाता है, तो अरबों जीवन रूपों का सेवन या मरण साथ साथ हो जाता है। कमोड के फ्लश में और फर्श धोने से जीवन के अरबों रूप नष्ट हो जाते हैं। आधुनिक युग के प्रथम प्रायोगिक भारतीय वैज्ञानिक जे.सी बोस को उनके इस शोध के लिए भारत में ही नजरअंदाज कर दिया गया है कि पौधे भी जीवित प्राणी हैं। हाल के कुछ अध्ययनों और प्रयोगों ने यह स्थापित किया है कि पौधों में न केवल खुशी और कष्ट के बारे में भावनाएं होती हैं बल्कि वे रासायनिक माध्यम से एक दूसरे के साथ संसाधनों का संचार और अपनी भावनाओं को साझा भी करते हैं। कुछ छद्म पर्यावरणविद् बहुत ठोस वैज्ञानिक शब्दजाल में बात कर सकते हैं, लेकिन वे एक पारिस्थितिकी तंत्र के अभिन्न अंग के रूप में ऊर्जा संचयन, खाद्य-श्रृंखला और खाद्य-पिरामिड के सिद्धांतों की अनदेखी करते हैं। वे इस बात को नज़रअंदाज़ करते हैं कि मनुष्य जैविक रूप से सर्वभक्षी है।

पशु-अधिकार कार्यकर्ता दावा करते हैं कि भोजन और अनुष्ठान के लिए जानवरों को मारना अच्छी प्रथा नहीं है। हालांकि, उनके खोखले दावों का ख़ुलासा तब होता है जब वे शायद ही कभी विभिन्न प्रकार के पालतू जानवरों की मुक्ति के लिए बोलते हों। जानवरों का दूध जो न केवल अपने आप में एक मांसाहारी उत्पाद है, बल्कि उस दूध का मानवीय इस्तेमाल स्तनपान करने वाले युवा जानवरों के साथ भी एक तरह का अन्याय है। यदि मदारी द्वारा बंदर का पालन करना पशु-अधिकार का उल्लंघन है, तो कुलीन घरों में कुत्तों का पालन कैसे पुण्य का काम है? अगर सर्कस में जानवरों का इस्तेमाल एक अत्याचार है तो पालतू जानवरों को पाल कर उनसे लाभ उठाना भी उसी स्तर का अपराध है। कुछ लोगों का यह पशु-प्रेम सिर्फ एक सांप्रदायिक अवसरवाद के रूप में सामने आता है और ईद-उल-अज़हा के मौक़े पर एक रस्म अदाइगी के रूप में भड़कता है।  

ईद-अल-अज़हा के इस अवसर पर, विभिन्न विचारों के मानने वालों को आपसी सम्मान का एक सामाजिक वातावरण बनाना चाहिए। मुसलमानों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनके अमल से उन लोगों की भावनाओं को ठेस न पहुंचे जो जानवरों की बलि को उचित नहीं मानते हैं। क़ुर्बानी को अपने घरों और इलाक़ों में सीमित करके और जानवरों की तस्वीरों और उनके रक्त को सोशल मीडिया पर प्रदर्शित न करके वे ऐसा कर सकते हैं। आखिर यह एक धार्मिक दायित्व है, दिखावे की बात नहीं है। उन्हें शाकाहार को एक अल्पसंख्यक की श्रेणी के रूप में भी देखना चाहिए, जिनके अधिकारों का बहुसंख्यकों द्वारा सम्मान किया जाना चाहिए। 7 अरब से अधिक लोगों की दुनिया में, शाकाहारी लोगों की तादाद केवल 37 करोड़ है, अर्थात केवल 5%। इसलिए 95% मांसाहारी बहुसंख्यकों को इस अल्पसंख्यक वेगेनिस्ट समुदाय की भावना का भी सम्मान करना चाहिये।

गौ-रक्षा के नाम पर सक्रीय लोग आमतौर पर जबरन वसूली करने वाले दल या सांप्रदायिक राजनीतिक समूह हैं जो स्पष्ट कारणों से पशु व्यापारियों पर हिंसक हमले करते हैं। गायों के लिए उनकी चिंता कई मामलों में नहीं देखी जाती। जब हज़ारों गायों की मौत निजी और सरकारी गौशालाओं में हो जाती है तो वे शायद ही आवाज़ उठाते हैं। वे शायद ही व्यस्त सड़कों और भीड़ भरे बाजारों में फंसी गायों के कल्याण में रुचि लेते हैं, जो अक्सर दुर्घटनाओं या बीमारियों से मर जाती हैं।

जो लोग मांसाहारी जीवन-शैली के विरोधी हैं, वे अपने विचारों को मानसिक और शारीरिक हिंसा के बिना प्रचार कर सकते हैं। वास्तव में, उनके हिंसक तरीक़े अंतत: उनके ही मिशन का महत्व कम कर देते हैं। हिंसक तरीकों से अहिंसा का प्रचार शायद ही कोई कर सकता है। इससे केवल समाज में हिंसा ही बढ़ेगी और कुछ नहीं।

पशुबलि की मूल कहानी पर लौट कर, क्या यह मुमकिन है कि मुसलमान काबिल के ख़िलाफ हाबिल द्वारा चुनी गई इस निति को आज की सांप्रदायिक घृणा और अनियंत्रित सार्वजनिक हिंसा की परिस्थितियों में चुन सकते हैं? हाबिल कहता है (क़ुरान 5:29), "यदि आप मुझे मारने के लिए मेरे ख़िलाफ अपना हाथ बढ़ाते हैं, तो मैं आपको मारने के लिए अपना हाथ कभी नहीं बढ़ाऊंगा: क्योंकि मैं अल्लाह से डरता हूं, जो  सारे संसारों का पालनहार है।" पहली क़ुर्बानी की इस कहानी से भारतीय मुसलमानों को जो सबक़ मिल सकता है, वह यह है कि उन्हें हिंसा का प्रतिकार हिंसा से नहीं करना चाहिए। बल्कि, उन्हें लोगों को यह समझाना चाहिए कि जानवरों की क़ुर्बानी पर मुसलमानों का नज़रिया क्यों जायज़ है। जरूरत पड़ने पर, उन्हें इसके लिए कानूनी रास्ता अपनाना चाहिए।

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