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इस्लाम और सामाजिक न्याय

इस्लाम और सामाजिक न्याय

मौलाना सय्यद अबुल आला मौदूदी

अनुवाद: साक़िब हुसैन

मर्कज़ी मक्तबा इस्लामी पब्लिशर्स (MMI Publishers) नई दिल्ली

बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

(अल्लाह दयावान कृपाशील के नाम से)

(यह लेख 1381 हिजरी अर्थात् सन् 1962 ई० में हज के अवसर पर मक्का में 'मोअतमर आलमे इस्लामी' की सभा में पढ़ा गया था।)

असत्य सत्य के भेष में

इनसान को अल्लाह तआला ने जो बेहतरीन शारीरिक रचना और योग्यताएँ दी हैं, उनके अद्भुत चमत्कारों में से एक यह भी है कि इनसान खुले बिगाड़ और स्पष्ट बुराइयों की ओर कम ही आकर्षित होता है और इस कारण शैतान प्राय: विवश हो जाता है कि वह बिगाड़ और बुराइयों को किसी न किसी तरह भलाई और अच्छाई का धोखा देनेवाला वस्त्र पहना कर उसके सामने प्रस्तुत करे। स्वर्ग में आदम (अलैहिस्सलाम) को शैतान यह कहकर हरगिज़ धोखा नहीं दे सकता था कि मैं तुमसे ख़ुदा की नाफरमानी कराना चाहता हूँ, ताकि तुम स्वर्ग से निकाल दिए जाओ। बल्कि उसने यह कहकर उन्हें धोखा दिया कि:

"क्या मैं तुम्हें वह वृक्ष बताऊँ जो अमर कर देनेवाला और शाश्वत सत्ता प्रदान करनेवाला वृक्ष है।" (क़ुरआन - 20:120)

इनसान की यही प्रकृति आज भी है, आज भी जितनी ग़लतियों और नासमझियों में शैतान उसको डाल रहा है वे किसी न किसी छलपूर्ण नारे और किसी न किसी झूठे लिबास के सहारे स्वीकृत हो रही हैं।

पहला धोखा: पूँजीवाद और धर्मनिरपेक्ष प्रजातन्त्र

इन्हीं धोखों में से एक बहुत बड़ा धोखा वह है जो इस ज़माने में सामाजिक न्याय (Social Justice) के नाम पर इनसानों को दिया जा रहा है। शैतान पहले एक अवधि तक दुनिया को व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Individual Liberty) और उदारतावाद (Liberalism) के नाम से धोखा देता रहा और इसके आधार पर उसने अठारहवीं सदी में पूंजीवाद (Capitalism) और धर्मनिरपेक्ष प्रजातन्त्र (Secular Democracy) की एक व्यवस्था प्रचलित करवाई। एक समय तो इस व्यवस्था की लोकप्रियता का यह हाल था कि इसे दुनिया में मानवीय उन्नति की चरम सीमा समझा जाता था और प्रत्येक व्यक्ति जो अपने आपको प्रगतिशील और तरक़्क़ीपसन्द कहलाना चाहता हो, विवश था कि इसी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और उदारवाद का नारा लगाए। लोग यह समझते थे कि मानव-जीवन के लिए यदि कोई जीवन-प्रणाली है तो वह यही पूँजीवाद और धर्मनिरपेक्ष प्रजातन्त्र है जो पश्चिम में स्थापित है। परन्तु देखते-देखते वह समय भी आ गया जब सारा संसार यह महसूस करने लगा कि इस शैतानी व्यवस्था ने पृथ्वी को अत्याचार तथा ज़ोर ज़बरदस्ती से भर दिया है। इसके बाद शैतान के लिए यह सम्भव न रहा कि वह इस नारे से और कुछ समय तक इनसानों को धोखा दे सके।

दूसरा धोखा: सामाजिक न्याय और समाजवाद

फिर कुछ अधिक देर न हुई थी कि वही शैतान एक दूसरा धोखा सामाजिक न्याय (social justice) और समाजवाद (socialism) के नाम से बना लाया और अब इस झूठ के परदे में वह दूसरी व्यवस्था स्थापित करवा रहा है। यह नई व्यवस्था इस समय तक विश्व के कई देशों को एक ऐसे भीषण अत्याचार से भर चुकी है जिसका कोई उदाहरण मानवीय-इतिहास में नहीं पाया जाता। परन्तु इसके धोखे का इतना ज़ोर है कि बहुत से देश इसे उन्नति की चरम सीमा समझकर स्वीकार करने को तत्पर हो रहे हैं। अभी इस धोखे से पर्दा पूरी तरह नहीं उठा है। (इस लेख के लिखने के 27 साल बाद न केवल यह कि इस धोखे का पर्दा उठा, बल्कि इस व्यवस्था का केन्द्र क्रेमलिन औंधे मुँह ज़मीन पर आ गया। अब पूरी दुनिया एक नई व्यवस्था की खोज में है। --प्रकाशक)

सामाजिक न्याय की वास्तविकता

मैं इस संक्षिप्त लेख में यह बताना चाहता हूँ कि वास्तव में सामाजिक न्याय किस चीज़ का नाम है और इसके लागू करने का सही उपाय क्या है। हालाँकि इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि जो लोग समाजवाद को सामाजिक न्याय की स्थापना का एक मात्र उपाय समझकर उसे लागू करने के लिए कृतसंकल्प हैं, वे अपनी ग़लती मान लेंगे और उस मार्ग से पलट आएँगे, क्योंकि अज्ञानी जब तक केवल अज्ञानी रहता है उसके सुधार की बहुत-सी सम्भावनाएँ शेष रहती हैं, परन्तु जब वह शासक हो जाता है तो वह अपने अलावा किसी को कुछ नहीं समझता और उसका यह अहम किसी समझानेवाले की बात समझने के योग्य नहीं रहने देता। लेकिन आम लोग ख़ुदा की कृपा से हर समय इस योग्य रहते हैं कि उचित ढंग से उन्हें बात समझाकर शैतान के धोखों से सावधान किया जा सके और यही आम लोग हैं जिन्हें धोखा देकर स्वयं पथभ्रष्ट होते हैं और दूसरों को पथभ्रष्ट करनेवाले यही लोग अपनी पथभ्रष्टताओं को चमकाते हैं। इसलिए मेरे इस लेख का उद्देश्य वास्तव में आम लोगों के सामने वास्तविकता को खोलकर बयान कर देना है।

इस्लाम ही में सामाजिक न्याय है

इस विषय में जो बात सबसे पहले मैं अपने मुसलमान भाइयों को समझाना चाहता हूँ, वह यह है कि जो लोग “इस्लाम में भी सामाजिक न्याय मौजूद है” का नारा लगाते हैं वे बिलकुल एक ग़लत बात कहते हैं। सही बात यह है कि इस्लाम ही में सामाजिक न्याय है। इस्लाम वह सत्यधर्म है जिसे विश्व के स्रष्टा और पालनहार ने इनसान के मार्गदर्शन के लिए अवतरित किया है और इनसानों के बीच न्याय स्थापित करना और यह तय करना कि उनके लिए क्या चीज़ न्याय है और क्या चीज़ न्याय नहीं है, इनसानों के स्रष्टा, पालनहार का ही काम है। किसी दूसरे को यह अधिकार है ही नहीं कि वह न्याय और अन्याय का मानदण्ड निर्धारित करे, और न ही किसी दूसरे में यह योग्यता पाई जाती है कि वह वास्तविक न्याय स्थापित कर सके। इनसान स्वयं अपना स्वामी और शासक नहीं है कि वह अपने लिए न्याय का मानदण्ड निर्धारित करने का अधिकारी हो। ब्रह्माण्ड में उसकी हैसियत ख़ुदा के ग़ुलाम और प्रजा की है, इसलिए न्याय के मानदण्ड को निर्धारित करना उसका अपना नहीं बल्कि उसके स्वामी और उसके शासक का काम है। फिर इनसान चाहे कितने ही उच्च स्तर का हो, और चाहे एक इनसान ही नहीं बल्कि बहुत-से उच्चस्तरीय इनसान मिलकर भी अपनी बुद्धि का प्रयोग कर लें, बहरहाल मानवीय ज्ञान की सीमितता और मानवीय बुद्धि की संकीर्णता और मानवीय सोच पर इच्छाओं और भेदभाव से छुटकारा पाने का उनके पास कोई चारा नहीं है। इस कारण इसकी कोई सम्भावना नहीं है कि इनसान स्वयं अपने लिए कोई ऐसी व्यवस्था बना सके जो वास्तव में न्याय पर आधारित हो। इनसान की बनाई हुई व्यवस्था में आरम्भ में प्रत्यक्ष रूप से कैसा ही न्याय दिखाई दे, शीघ्र ही व्यावहारिक प्रयोग यह प्रमाणित कर देता है कि वास्तव में इसमें न्याय नहीं है। इसी कारण प्रत्येक मानवीय व्यवस्था कुछ समय तक चलने के बाद खोटी साबित हो जाती है और इनसान इससे मुँह फेरकर एक दूसरे मूर्खतापूर्ण प्रयोग की ओर क़दम बढ़ाने लगता है। वास्तविक न्याय केवल उसी व्यवस्था के अन्तर्गत हो सकता है जिस व्यवस्था को एक ऐसी हस्ती ने बनाया हो जो छिपे-खुले का पूर्ण ज्ञान रखती हो, हर प्रकार की त्रुटियों से पाक हो और महिमावान भी हो।

न्याय ही इस्लाम का लक्ष्य है

दूसरी बात जो शुरू ही में समझ लेनी ज़रूरी है, वह यह है कि जो व्यक्ति “इस्लाम में न्याय है" कहता है वह वास्तविकता से न्यूनतर बात कहता है। वास्तविकता यह है कि न्याय ही इस्लाम का लक्ष्य है और इस्लाम आया ही इसी लिए है कि न्याय स्थापित करे। अल्लाह तआला क़ुरआन में फ़रमाता है:

"हमने अपने रसूलों को साफ़-साफ़ निशानियों के साथ भेजा और उनके साथ किताब और तुला अवतरित की, ताकि इनसान न्याय पर क़ायम हो सके और लोहा उतारा जिसमें बड़ा ज़ोर है और लोगों के लिए लाभ हैं, ताकि अल्लाह यह मालूम कर सके कि कौन बिना देखे उसकी और उसके रसूलों की सहायता करता है। निश्चय ही अल्लाह बड़ी शक्तिवाला और प्रभुत्वशाली है।" --57:25

ये दो बातें हैं जिनसे यदि एक मुसलमान अनभिज्ञ न हो तो वह कभी सामाजिक न्याय की खोज में अल्लाह और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को छोड़कर किसी दूसरे स्रोत की ओर ध्यान देने की भूल नहीं कर सकता। जिस क्षण उसे न्याय की आवश्यकता का एहसास होगा, उसी क्षण उसे मालूम हो जाएगा कि न्याय अल्लाह और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के अलावा किसी के पास न है और हो सकता है। और वह यह भी जान लेगा कि न्याय स्थापित करने के लिए इसके सिवा कुछ और नहीं करना है कि इस्लाम, पूरा का पूरा इस्लाम, बिना कुछ घटाए-बढ़ाए स्थापित कर दिया जाए। न्याय, इस्लाम से अलग कोई चीज़ नहीं है। इस्लाम अपने आप में न्याय है। इसका स्थापित होना या न्याय का स्थापित होना एक ही बात है।

सामाजिक न्याय

सबसे पहले हमें यह देखना चाहिए कि वास्तव में सामाजिक न्याय क्या है और वह किस प्रकार स्थापित किया जा सकता है?

मानव-व्यक्तित्व का विकास

हर मानव-समाज हज़ारों, लाखों और करोड़ों लोगों से मिलकर बनता है। इस सम्मिलित समूह का प्रत्येक व्यक्ति आत्मा, बुद्धि और विवेक रखता है। प्रत्येक व्यक्ति अपना एक अलग व्यक्तित्व रखता है, जिसे फलने-फूलने और विकसित होने के लिए उपयुक्त अवसर की आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना व्यक्तिगत शौक़ है, उसके पास अपनी कुछ इच्छाएँ और रुचियाँ हैं। उसके अपने शरीर और आत्मा की कुछ आवश्यकताएँ हैं। इन व्यक्तियों की हैसियत किसी मशीन के बेजान पुर्ज़ों की-सी नहीं है कि मुख्य चीज़ मशीन हो और ये पुर्ज़े केवल मशीन के लिए ही आवश्यक हों, और स्वयं पुर्ज़ों का अलग से कोई अस्तित्व न हो। बल्कि इसके विपरीत मानव-समाज जीते-जागते इनसानों का एक समूह है। ये व्यक्ति इस समूह के लिए नहीं, बल्कि समूह इन व्यक्तियों के लिए है, और व्यक्ति एकत्रित होकर यह समूह बनाते ही इस उद्देश्य से हैं कि एक दूसरे की सहायता से उन्हें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति और अपने मन व शरीर की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं को पूर्ण करने के अवसर प्राप्त हो।

व्यक्तिगत उत्तरदायित्व

फिर ये सारे सदस्य एक-एक करके ख़ुदा के सामने उत्तरदायी ये हैं। हर एक को इस दुनिया में परीक्षा की एक विशेष अवधि (जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग निर्धारित है) व्यतीत करने के बाद अपने ख़ुदा के सम्मुख उपस्थित होकर हिसाब देना है कि जो शक्तियाँ और योग्यताएँ उसे दुनिया में प्रदान की गई थीं, उनसे काम लेकर और जो साधन उसे प्रदान किए गए थे उनपर कार्य करके वह अपना क्या व्यक्तित्व बनाकर लाया है। ख़ुदा के सामने इनसान की यह जवाबदेही सामूहिक रूप से नहीं होगी बल्कि, व्यक्तिगत रूप से होगी। वहाँ वंश, समुदाय और जातियाँ खड़ी होकर हिसाब नहीं देंगी, बल्कि दुनिया के सारे सम्बन्धों से काटकर अल्लाह तआला प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग अपनी अदालत में हाज़िर करेगा और प्रत्येक व्यक्ति से अलग-अलग हिसाब लेगा कि तू क्या करके आया और क्या बनकर आया है।

व्यक्तिगत स्वतन्त्रता

ये दोनों बातें अर्थात् दुनिया में मानव के व्यक्तित्व का विकास और आख़िरत में इनसान का उत्तरदायी होना इस बात की अपेक्षा करती हैं कि दुनिया में व्यक्ति को स्वतंत्रता प्राप्त हो। यदि किसी समाज में व्यक्ति को अपनी पसन्द के अनुसार अपने व्यक्तित्व के निर्माण के अवसर प्राप्त न हों तो उसके अन्दर इनसानियत ठिठुर कर रह जाती है। उसका दम घुटने लगता है, उसकी शक्तियाँ और योग्यताएँ दबकर रह जाती हैं और अपने आपको चारों ओर से घिरा हुआ और बन्धनों में जकड़ा हुआ पाकर इनसान शिथिल और बेकार हो जाता है। फिर आख़िरत में इन घिरे हुए और बंदी लोगों के दोषों की अधिकतर ज़िम्मेदारियाँ उन लोगों की ओर स्थानान्तरित होनेवाली हैं जो इस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था को बनाने और चलाने के ज़िम्मेदार हों। उनसे केवल उनके अपने व्यक्तिगत कर्मों का ही हिसाब नहीं होगा। बल्कि इस बात का भी हिसाब होगा कि उन्होंने एक अत्याचारपूर्ण व्यवस्था स्थापित करके दूसरे अनगिनत इनसानों को उनकी इच्छा के विरुद्ध और अपनी इच्छानुसार अपूर्ण व्यक्तित्ववाला बनने पर विवश किया। स्पष्ट है कि कोई आख़िरत पर ईमान रखनेवाला इनसान यह भारी बोझ उठाकर ख़ुदा के सामने जाने की बात सोच भी नहीं सकता। वह यदि ख़ुदा से डरनेवाला इनसान है तो निश्चित रूप से वह लोगों को अधिक से अधिक स्वतन्त्रता देने की ओर अग्रसर होगा, ताकि हर व्यक्ति जो कुछ भी बने अपनी ज़िम्मेदारी के आधार पर बने, उसके ग़लत व्यक्तित्व बनने का दायित्व सामाजिक व्यवस्था चलानेवालों पर न हो।

सामाजिक संस्थाएँ और उनकी सत्ता

यह मामला तो है व्यक्तिगत स्वतंत्रता का। दूसरी ओर समाज को देखिए जो परिवार, क़बीलों, जातियों और पूरी मानवता के रूप में पूर्वापर क्रम से व्यवस्थित होता है। इसका आरम्भ एक पुरुष और एक स्त्री और उनकी सन्तान से होता है, जिससे परिवार बनता है। इन परिवारों से क़बीले और बिरादरियाँ बनती हैं, इनसे एक जाति का निर्माण होता है और जाति अपने सामूहिक इरादों के हित के लिए एक राज्य की व्यवस्था बनाती है। इन विभिन्न रूपों में ये सामाजिक संस्थाएँ मूलत: जिस उद्देश्य के लिए आवश्यक हैं वह यह है कि इनकी रक्षा और इनकी सहायता से व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व के निर्माण के वे अवसर प्राप्त हो सकें जो वह अकेले अपने बलबूते पर प्राप्त नहीं कर सकता। परन्तु इस मुख्य उद्देश्य की प्राप्ति इसके बिना नहीं हो सकती कि इनमें से प्रत्येक संस्था को व्यक्ति पर, और बड़ी संस्था को छोटी संस्था पर अधिकार प्राप्त हो, ताकि वे व्यक्तियों की ऐसी स्वतन्त्रता को रोक सकें जो दूसरों पर हस्तक्षेप की सीमा तक पहुँचती हो, और व्यक्तियों से वह सेवा ले सकें जो कुल मिलाकर समाज के सारे व्यक्तियों के कल्याण और उन्नति के लिए आवश्यक हो।

यही वह स्थान है जहाँ पर पहुँचकर सामाजिक न्याय का प्रश्न उठता है और वैयक्तिकता और सामूहिकता की परस्पर विरोधी माँगें एक गुत्थी का रूप धारण कर लेती हैं। एक ओर मानव-कल्याण इस बात की माँग करता है कि व्यक्ति को समाज में स्वतन्त्रता प्राप्त हो, ताकि वह अपनी योग्यताओं और अपनी पसन्द के अनुसार अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके और इसी प्रकार परिवार, क़बीले, बिरादरियाँ और विभिन्न समूह भी अपने से बड़े दायरे के भीतर इस स्वतंत्रता से लाभान्वित हो सकें, जो उनके अपने कार्यक्षेत्र में उन्हें प्राप्त होनी आवश्यक है। परन्तु दूसरी ओर मानव-कल्याण ही इस बात की भी माँग करता है कि व्यक्तियों पर परिवार का, परिवारों पर क़बीलों का और बिरादरियों का और सारे लोगों और छोटी संस्थाओं पर सरकार का शासन हो, ताकि कोई अपनी सीमा का उल्लंघन करके दूसरों पर अत्याचार और अन्याय न कर सके। फिर यही प्रश्न आगे चलकर पूरी मानवता के लिए भी पैदा होता है कि एक ओर प्रत्येक जाति और सरकार की स्वतंत्रता व सम्प्रभुता का बना रहना भी आवश्यक है और दूसरी ओर किसी उच्चतर शक्ति का होना भी आवश्यक है कि ये शक्तियाँ और हुकूमतें अपनी सीमा का अल्लंघन न कर सकें। अब सामाजिक न्याय जिस चीज़ का नाम है वह यह है कि जातियों में से प्रत्येक को व्यक्तियों, परिवारों, क़बीलों, बिरादरियों और उचित स्वतन्त्रता भी प्राप्त हो और इसके साथ अत्याचार और ज़्यादती को रोकने के लिए विभिन्न सामाजिक संस्थाओं को व्यक्तियों पर और एक दूसरे पर अधिकार भी प्राप्त रहे, और विभिन्न व्यक्तियों और समूहों से वे सेवा भी ली जा सकें जो सामाजिक कल्याण के लिए आवश्यक हैं।

पूँजीवाद और समाजवाद की त्रुटियाँ

इस वास्तविकता को जो अच्छी तरह समझ लेगा वह पहली ही नज़र में जान लेगा कि जिस प्रकार व्यक्ति की स्वतन्त्रता, उदारता, पूँजीवाद और धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र की वह व्यवस्था न्याय के विपरीत थी, जो फ़्रांस की क्रांति के परिणामस्वरूप स्थापित हुई थी, ठीक इसी प्रकार बल्कि इससे भी अधिक वह समाजवाद भी इसके बिलकुल विरुद्ध है जो कार्ल मार्कस और ऐंगिल्स की धारणाओं के अनुसरण में अपनाई जा रही है। पहली व्यवस्था का दोष यह था कि उसने व्यक्ति को उचित सीमा से अधिक स्वतन्त्रता देकर परिवार, क़बीले, बिरादरी, समाज और जाति पर अन्याय करने की खुली छूट दे दी और उससे सामाजिक कल्याण की सेवा लेने के लिए समाज की नियंत्रण-शक्ति को बहुत ढीला कर दिया। और इस दूसरी व्यवस्था का दोष यह है कि यह हुकूमत को अत्यधिक शक्ति देकर व्यक्तियों, परिवारों, क़बीलों और बिरादरियों की स्वतन्त्रता को लगभग पूर्ण रूप से समाप्त कर देती है और व्यक्तियों से समाज की सेवा लेने के लिए हुकूमत को इतनी अधिक शक्ति देती है कि लोग जीवधारी इनसानों के बजाए एक मशीन के बेजान पुर्ज़ों की हैसियत अपना लेते हैं। बिलकुल झूठ कहता है वह, जो कहता है कि इस ढंग से सामाजिक न्याय स्थापित हो सकता है।

समाजवाद सामूहिक अत्याचार की चरम सीमा है

वास्तव में यह सामूहिक अत्याचार का वह सबसे बुरा रूप है जो कभी किसी नमरूद, किसी फ़िरऔन और किसी च़गेज़ ख़ाँ के काल में भी न रहा था। आख़िर इस चीज़ को कौन बुद्धिमान सामाजिक न्याय का नाम दे सकता है कि एक व्यक्ति या कुछ लोग बैठकर अपना एक सामाजिक दर्शन गढ़ लें, फिर हुकूमत पर ज़बरदस्ती अधिकार करके और उसके असीम अधिकारों से काम लेकर इस दर्शन को एक पूरे देश के रहनेवाले करोड़ों लोगों पर ज़बरदस्ती थोप दें, लोगों की सम्पत्तियों पर क़ब्ज़ा करें, ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करें, कारख़ानों को राष्ट्रीय संपत्ति बनाएँ और पूरे देश को एक ऐसे बन्दीगृह में परिवर्तित कर दें जिसमें आलोचना, फ़रियाद, शिकायत, अपीलें और अदालती न्याय का हर द्वार लोगों के लिए बन्द हो, देश में कोई दल न हो, कोई संगठन न हो, कोई प्लेटफ़ार्म न हो जिस पर लोग ज़बान खोल सकें, कोई पुलिस न हो जिसमें लोग अपने विचार प्रकट कर सकें और कोई अदालत न हो जिसका द्वार न्याय के लिए खटखटा सकें। जासूसी की व्यवस्था इतने बड़े पैमाने पर फैला दी जाए कि हर एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से डरने लगे कि कहीं यह जासूस न हो, यहाँ तक कि आदमी अपने घर में भी मुँह खोलने से पहले चारों ओर देख ले कि कोई कान उसकी बात सुनने और कोई ज़बान उसे हुकूमत तक पहुँचाने के लिए पास मौजूद न हो। फिर प्रजातंत्र का धोखा देने के लिए चुनाव कराए जाएँ, परन्तु पूरा प्रयत्न किया जाए कि इस दर्शन से मतभेद रखने वाला कोई व्यक्ति इन चुनावों में भाग न ले सके, और न कोई ऐसा व्यक्ति उनमें भागीदार हो सके जो स्वयं अपनी कोई राय भी रखता हो और अपनी अन्तरात्मा को बेचनेवाला भी न हो।

काल्पनिक रूप से यदि इस ढंग से आर्थिक सम्पत्ति समान रूप से वितरित हो भी सके, यद्यपि आज तक कोई समाजवादी व्यवस्था ऐसा नहीं कर सकी है, तब भी क्या न्याय मात्र आर्थिक समानता का नाम है? मैं यह प्रश्न नहीं करता कि इस व्यवस्था के शासकों और प्रजा के बीच भी आर्थिक समानता है या नहीं? मैं यह भी नहीं पूछता कि इस व्यवस्था का डिक्टेटर और इसके अन्दर रहनेवाला एक किसान क्या अपने जीवन-स्तर में समान हैं? मैं केवल यह पूछता हूँ कि यदि इन सबके बीच वास्तव में पूरी आर्थिक समानता स्थापित भी हो जाए, तो क्या इसका नाम सामाजिक न्याय होगा? क्या न्याय यही है कि डिक्टेटर और उसके साथियों ने जो दर्शन गढ़ा है उसको तो वे पुलिस और फ़ौज और जासूसी व्यवस्था की शक्ति से बलपूर्वक सारी जाति पर थोप देने में भी स्वतन्त्र हों। परन्तु जाति का कोई व्यक्ति उसके दर्शन-सिद्धान्त या उसके लागू करने के किसी छोटे से छोटे आंशिक व्यवहार पर मात्र ज़बान से एक शब्द निकालने तक के लिए स्वतंत्र न हो? क्या यह न्याय है कि डिक्टेटर और उसके कुछ मुट्ठी भर हिमायती अपने सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए देश के सारे साधन व स्रोत प्रयोग करने और हर प्रकार की संस्थाएँ बनाने के अधिकारी हों, परन्तु इनसे अलग राय रखनेवाले दो व्यक्ति भी मिलकर कोई संगठन न बना सकें, किसी समूह को सम्बोधित न कर सकें, और किसी प्रेस में एक शब्द भी प्रकाशित न करा सकें? क्या यह न्याय है कि सारे ज़मींदारों और कारख़ानों के मालिकों को बेदख़ल करके पूरे देश में केवल एक ही ज़मींदार और कारख़ाने का मालिक रह जाए जिसका नाम 'हुकूमत' हो, और वह हुकूमत कुछ गिने-चुने व्यक्तियों के हाथ में हो और वे लोग ऐसी सारी युक्तियाँ अपनाएँ जिनसे पूरी जाति बेबस हो जाए और हुकूमत के अधिकारों का उनके हाथ से निकलकर दूसरों के हाथों में चला जाना बिलकुल असम्भव हो जाए? इनसान यदि केवल पेट का नाम नहीं है, और मानवीय जीवन यदि केवल आर्थिक आवश्यकताओं तक सीमित नहीं है, तो केवल आर्थिक समानता को न्याय कैसे कहा जा सकता है? जीवन के हर क्षेत्र में अत्याचार और ज़बरदस्ती लागू करके और मानवता की हर दिशा को कुंठित करके केवल आर्थिक सम्पत्ति के वितरण में लोगों को समान भी कर दिया जाए और स्वयं डिक्टेटर और उसके साथी भी अपने जीवन स्तर में लोगों के बराबर होकर रहें, तब भी इस घोर अत्याचार के द्वारा यह समानता स्थापित करना सामाजिक न्याय नहीं माना जा सकता। बल्कि यह, जैसा कि अभी मैं आपसे कह चुका हूँ, वह सबसे बुरा सामाजिक अत्याचार है जिससे मानव-इतिहास कभी इससे पहले परिचित न हुआ था।

इस्लामी न्याय

अब मैं संक्षेप में आपको बताऊँगा कि इस्लाम में जिस चीज़ का नाम न्याय है, वह क्या है? इस्लाम में इस बात की कोई गुंजाइश नहीं है कि कोई व्यक्ति या इनसानों का कोई समूह मानवीय जीवन में न्याय का कोई सिद्धान्त और उसकी स्थापना की कोई विधि बैठकर स्वयं गढ़ ले और उसे बलपूर्वक लोगों पर लागू कर दे और किसी बोलनेवाली ज़बान को हरकत न करने दे। इस्लाम में किसी डिक्टेटर के लिए कोई स्थान नहीं है। केवल अल्लाह को ही यह मक़ाम है कि इनसान उसके आदेश के आगे बिना झिझक सिर झुका दे। अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) स्वयं भी उसके आदेश के अधीन थे और रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के आदेश का पालन करना इसलिए अनिवार्य है कि वे ख़ुदा की ओर से आदेश देते थे, न कि अपनी ओर से गढ़कर कोई सिद्धान्त लाते थे। रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और उनके साथियों की शासन-व्यवस्था में सिर्फ़ अल्लाह का क़ानून आलोचनामुक्त प्रमाण था। उसके बाद प्रत्येक व्यक्ति को हर समय हर मामले में बोलने का पूरा अधिकार प्राप्त था।

व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की सीमाएँ

इस्लाम में अल्लाह तआला ने स्वयं वे सीमाएँ निर्धारित कर दी हैं जिनमें लोगों की स्वतन्त्रता को सीमित होना चाहिए। उसने स्वयं निश्चित कर दिया है कि एक मुस्लिम के लिए कौन-कौन से काम हराम हैं, जिनसे उन्हें बचना चाहिए और क्या कुछ उसपर फ़र्ज़ है जिसे उसे अदा करना चाहिए। उसके दूसरों पर क्या अधिकार हैं और दूसरों के उसपर क्या अधिकार हैं। किन साधनों से किसी वस्तु का स्वामित्व प्राप्त करना उसके लिए जायज़ है और कौन-से साधन ऐसे हैं जिनसे प्राप्त धन का स्वामी बनना जायज़ नहीं है।

लोगों की भलाई के लिए समाज के क्या कर्त्तव्य हैं और समाज की भलाई के लिए लोगों पर, परिवारों और बिरादरियों पर और पूरी जाति पर क्या पाबन्दियाँ लागू की जा सकती हैं और क्या सेवाएं अनिवार्य की जा सकती हैं। ये सारी बातें क़ुरआन व सुन्नत के स्थायी विधान में दर्ज हैं जिनका कोई संशोधन या उलट-फेर करनेवाला कोई नहीं है और जिनमें किसी को कुछ कमी व बेशी करने का कोई अधिकार नहीं है। इस दस्तूर (विधान) के अनुसार एक व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं पर जो पाबन्दियाँ लगाई गई हैं उनका उल्लंघन करने का तो उसे अधिकार नहीं है, परन्तु उन सीमाओं के अन्दर जो स्वतन्त्रता उसे प्राप्त है उसे निरस्त करने और छीनने का अधिकार भी किसी को नहीं है। धन कमाने के जिन साधनों और धन ख़र्च करने की जिन विधियों को हराम (वर्जित) कर दिया गया है, वह उनके समीप भी नहीं फटक सकता और फटके तो इस्लामी क़ानून उसे दण्ड के योग्य समझता है, परन्तु जो साधन हलाल (वैध) ठहराए गए हैं, उनसे प्राप्त होनेवाली सम्पत्ति पर उसके अधिकार सुरक्षित हैं और उसमें ख़र्च करने के जो ढंग जायज़ किए गए हैं उनसे उसे कोई वंचित नहीं कर सकता। इसी प्रकार समाज के हित के लिए जो कर्त्तव्य लोगों पर लागू किए गए हैं उनको पूरा करने को तो वह विवश है। परन्तु उससे अधिक कोई भार बलपूर्वक उसपर लादा नहीं जा सकता, सिवाए इसके कि वह स्वयं अपनी इच्छा से ऐसा करे। और यही स्थिति समाज और राज्य की भी है कि लोगों के जो हक़ उसके ज़िम्मे हैं उन्हें पूरा करना उतना ही आवश्यक है जितना लोगों से अपने हक़ प्राप्त करने के उसे अधिकार हैं। इस स्थायी नियम को यदि व्यावहारिक रूप से लागू कर दिया जाए तो ऐसा सर्वांग सामाजिक न्याय स्थापित होता है जिसके पश्चात् किसी चीज़ की आवश्यकता शेष नहीं रह जाती। यह नियम जब तक मौजूद है उस समय तक कोई व्यक्ति चाहे कितना ही प्रयत्न करे, मुसलमानों को कदापि इस धोखे में नहीं डाल सकता कि जो समाजवाद उसने किसी स्थान से उधार लिया है वही वास्तविक इस्लाम है या 'इस्लामी समाजवाद' है।

इस्लाम के इस नियम में व्यक्ति और समाज के बीच ऐसा सन्तुलन स्थापित किया गया है कि न व्यक्ति को वह स्वतन्त्रता दी गई है कि वह समाज के हित को क्षति पहुँचा सके और न समाज को ये अधिकार दिए गए हैं कि वह व्यक्ति से उसकी वह स्वतन्त्रता छीन सके जो उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है।

सम्पत्ति-स्थानान्तरण की शर्ते

इस्लाम एक व्यक्ति की ओर सम्पत्ति के स्थानान्तरण के सिर्फ़ तीन प्रकार निर्धारित कर देता है। विरासत, दान और कमाई। विरासत मात्र वह वैध तरीक़ा है जो किसी सम्पत्ति के जायज़ मालिक से उसके वारिस को इस्लामी नियमानुसार पहुँचता है। दान या अनुदान मात्र वह वैध तरीक़ा है जो किसी संपत्ति के जायज़ मालिक ने इस्लामी सीमाओं के अन्दर दिया हो। यदि यह दान किसी हुकूमत की ओर से है तो वह तभी जायज़ है जबकि वह किसी सही सेवा के बदले में या सामाजिक हित के लिए हुकूमत की संपत्ति में से यथोचित रूप से दिया गया हो। जबकि इस प्रकार का अनुदान देने का अधिकारी वह हुकूमत है, जो इस्लामी क़ानून के अनुसार परामर्श की विधि से चलाई जा रही हो और जिससे हिसाब-किताब लेने का जनता को पूरा अधिकार हो। रही कमाई, तो इस्लाम में सिर्फ़ वह कमाई जायज़ है जो किसी हराम विधि से न हो। चोरी, नाजायज़ क़ब्जा, नाप-तौल में कमी-बेशी, घोटाला, रिश्वत, ग़बन, बदचलनी, मूल्य बढ़ाने के लिए आवश्यक वस्तुएँ रोकना, ब्याज, जुआ, धोखे का सौदा, नशे की वस्तुओं की खेती और व्यापार और व्यभिचार को बढ़ावा देनेवाले व्यापार के द्वारा धन कमाना इस्लाम में हराम है। इन सीमाओं का पालन करते हुए जो धन भी किसी को मिले वह उसकी जायज़ सम्पत्ति है, चाहे वह कम हो या अधिक। ऐसी सम्पत्ति के लिए, कमी की कोई सीमा निर्धारित की जा सकती है और न अधिकता की। न उसका कम होना इस बात को जायज़ करता है कि दूसरों से छीनकर उसमें बढ़ोत्तरी की जाए और न इसका अधिक होना इस बात की दलील है कि उसे ज़बरदस्ती कम किया जाए। परन्तु जो धन इन सीमाओं का उल्लंघन करके प्राप्त हुआ हो उसके बारे में यह प्रश्न उठाने का मुसलमानों को अधिकार है कि यह तुझे कहाँ से प्राप्त हुआ?

इस धन के विषय में पहले कानूनी छानबीन होनी चाहिए, फिर यदि यह प्रमाणित हो जाए कि वह जायज़ विधि से प्राप्त नहीं हुआ है तो उसे ज़ब्त करने का इस्लामी हुकूमत को पूरा अधिकार प्राप्त है।

सम्पत्ति-उपभोग पर पाबन्दियाँ

जायज़ (वैध) विधि से प्राप्त होनेवाले धन के उपभोग के सम्बन्ध में भी व्यक्ति को बिलकुल खुली छूट नहीं दे दी गई है, बल्कि उसपर कुछ क़ानूनी पाबन्दियाँ लागू कर दी गईं हैं, ताकि कोई व्यक्ति अपनी सम्पत्ति में से किसी ऐसी विधि से ख़र्च न कर सके जो समाज के लिए हानिकारक हो, या जिसमें स्वयं उस व्यक्ति के दीन व चरत्रि की हानि होती हो। इस्लाम में कोई व्यक्ति अपने धन को फ़िजूलख़र्ची और बुराइयों में ख़र्च नहीं कर सकता। शराब पीने और जुआ खेलने का हर द्वार उसके लिए बन्द है। व्यभिचार का द्वार भी उसके लिए बन्द है। वह स्वतन्त्र मनुष्यों को पकड़कर उन्हें दास-दासियाँ बनाने और उनको बेचने और ख़रीदने का भी किसी को अधिकार नहीं देता कि धनवान लोग अपने घरों को ख़रीदी हुई दासियों से भर लें। फ़िजूलख़र्ची और सीमा से अधिक ऐश करने पर भी प्रतिबन्ध लगाता है और वह इसे भी जायज़ नहीं रखता कि तुम स्वयं ऐश करो और तुम्हारा पड़ोसी रात को भूखा सोए। इस्लाम केवल क़ानूनी और व्यवहार-सुलभ ढंग पर ही धन से लाभ उठाने का आदमी को अधिकार देता है और यदि आवश्यकता से अधिक धन को कोई व्यक्ति और अधिक धन कमाने के लिए प्रयोग करना चाहे तो वह धन कमाने के हलाल ढंग को ही अपना सकता है। उन सीमाओं का उल्लंघन नहीं कर सकता जो क़ानून ने धनोपार्जन के लिए निश्चित कर दी हैं।

सामाजिक सेवा

फिर इस्लाम समाज की सेवा के लिए हर उस व्यक्ति पर जिसके पास निसाब (ज़कात के लिए धन की निर्धारित सीमा) से अधिक माल हो, ज़कात निश्चित करता है। वह व्यापारिक धन पर, ज़मीन की पैदावार पर, पशुओं पर और कुछ दूसरे धनों पर भी एक निश्चित दर से ज़कात निर्धारित करता है। आप विश्व के किसी देश को ले लीजिए और हिसाब लगाकर देख लीजिए कि यदि इस्लामी नियमानुसार वहाँ ज़कात वसूल की जाए और उसे क़ुरआन के निर्धारित किए हुए विभागों में नियमानुसार वितरित किया जाए तो क्या कुछ वर्षों के भीतर वहाँ एक व्यक्ति भी जीवन की मौलिक आवश्यकताओं से वंचित रह सकता है?
उसके बाद जो धन किसी व्यक्ति के पास एकत्र हो गया है, इस्लाम उसकी मौत के बाद उस धन को विरासत में वितरित कर देता है, ताकि यह एकत्रित धन एक स्थायी और अटल भण्डार बनकर न रह जाए।

अत्याचार का उन्मूलन

इसके अलावा इस्लाम यद्यपि इसको पसन्द करता है कि ज़मीन के मालिक और किसान या कारख़ाने के मालिक और मज़दूर के बीच आपसी सहमति से सामान्य रीति से मामले तय हों और क़ानून के हस्तक्षेप की ज़रूरत न पड़े। परन्तु जहाँ कहीं मामलों में अत्याचार हो रहा हो वहाँ इस्लामी शासन हस्तक्षेप करने का पूरा अधिकार रखता है और क़ानून के द्वारा न्याय की सीमाएँ निर्धारित कर सकता है।

लोक-कल्याण हेतु राष्ट्रीय संपत्ति की सीमाएँ

इस्लाम इस बात को हराम नहीं करता कि किसी उद्योग या व्यापार को सरकार अपने प्रबन्ध से चलाए। यदि कोई उद्योग या व्यापार ऐसा हो जिसकी लोक-कल्याण के लिए आवश्यकता तो हो परन्तु लोग उसे चलाने के लिए तैयार न हों, या लोगों के प्रबन्ध से उसका चलना सामाजिक हित के विरुद्ध हो, तो उसे सरकार के प्रबन्ध से चलाया जा सकता है। इसी प्रकार यदि कोई उद्योग या व्यापार कुछ लोगों के हाथों में ऐसे ढंग से चल रहा हो जो सामाजिक हित को क्षति पहुँचाए तो सरकार उन लोगों को मुआवज़े देकर वह प्रबन्ध अपने हाथ में ले सकती है और किसी दूसरे उचित ढंग से उसे चलाने का प्रबन्ध कर सकती है। इन युक्तियों को अपनाने से इस्लाम मना नहीं करता। परन्तु इस्लाम इस बात को एक सिद्धांत के रूप में स्वीकार नहीं करता कि सम्पत्ति के सारे साधन सरकार के हाथ में हों और सरकार ही देश का एकमात्र उद्योगपति और व्यापारी तथा भूस्वामी हो।

बैतुलमाल (धनकोष) के उपभोग की शर्ते

बैतुलमाल के सम्बन्ध में इस्लाम का यह दो टूक फ़ैसला है कि वह अल्लाह और मुसलमानों का माल है, किसी व्यक्ति को उसका स्वामी बनकर उपभोग करने का अधिकार नहीं है। मुसलमानों के सारे कामों की भाँति बैतुलमाल का प्रबन्ध भी मुस्लिम समुदाय या उसके स्वतंत्र प्रतिनिधियों के सलाह-मशविरे से होना चाहिए। जिस व्यक्ति से भी कुछ लिया जाए, और जिस काम में भी धन ख़र्च किया जाए वह जायज़ इस्लामी क़ानून के अनुसार होना चाहिए और मुसलमानों को इसका हिसाब लेने का पूरा अधिकार है।

एक प्रश्न

इस बात को समाप्त करते हुए मैं प्रत्येक सोचनेवाले इनसान से यह प्रश्न करता हूँ कि सामाजिक न्याय केवल आर्थिक न्याय ही का नाम है तो क्या यह आर्थिक न्याय जो इस्लाम स्थापित करता है, हमारे लिए पर्याप्त नहीं है? क्या इसके बाद कोई ऐसी आवश्यकता शेष रह जाती है जिसके लिए सारे लोगों की स्वतन्त्रता छीनना, लोगों की सम्पत्ति ज़ब्त करना और एक पूरे राष्ट्र को कुछ व्यक्तियों का दास बना देना ही अनिवार्य हो? आख़िर इस बात में क्या चीज़ बाधक है कि हम मुसलमान अपने देशों में इस्लामी नियम के अनुसार शुद्ध इस्लामी हुकूमतें स्थापित करें और उनमें ख़ुदा की पूरी शरीअत (विधान) को बिना काट-छाँट के लागू कर दें। जिस दिन भी हम ऐसा करेंगे, केवल यही नहीं कि हमें समाजवाद से प्रेरणा प्राप्त करने की कोई आवश्यकता शेष न रहेगी, बल्कि स्वयं समाजवादी देशों के लोग हमारी जीवन-व्यवस्था को देखकर यह अनुभव करने लगेंगे कि जिस प्रकाश के बिना वे अन्धकार में भटक रहे थे वह उनकी आँखों के सामने उपस्थित है। 

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