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इस्लाम क्या है ?

इस्लाम क्या है ?

मुहम्मद फ़ारूक़ ख़ाँ

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम।
‘‘ईश्वर के नाम से जो अत्यन्त कृपाशील, बड़ा ही दयावान है।''

आदरणीय सभापति महोदय, परम माननीय राजमाता तथा सज्जनों व देवियो!

यह अत्यन्त सराहनीय बल्कि कई सन्दर्भो में तो अनुकरणीय है कि माननीया राजमाता ने अपने परम माननीय पति जयपुर नरेश महाराजाधिराज सवाई 1008 श्री मानसिंह जी की पुण्य तिथि के अवसर पर सर्वधर्म सम्मेलन तथा विभिन्न सम्प्रदायों एवं मतों के विद्वानों के प्रवचनों का आयोजन किया। इस प्रकार राजमाता जयपुर ने जहाँ अपने पति महोदय के प्रति अपने अगाध प्रेम और अपार श्रद्धा का प्रदर्शन किया है, वहीं उन्होंने एक भारतीय नारी होने के नाते अपनी उस विशाल-हृदयता का भी परिचय दिया है, जिसका सम्बन्ध विभिन्न मतों एवं सम्प्रदायों को समान दृष्टि से देखने से है। जीवन को वास्तविक एवं व्यापक दृष्टि से देखने का कार्य, चाहे वह किसी भी बहाने से हो सराहनीय ही है। 
इस अवसर पर दूसरें मतों और धर्मों के साथ इस्लाम के विषय में भी विचार प्रकट करने का आदेश मिला है। यह हमारे लिए सौभाग्य की बात है। इस्लाम क्या है? इस विषय पर हम अत्यन्त संक्षेप में प्रकाश डालने की कोशिश करेंगें। 

इस्लाम का उद्देश्य

भाइयो! इस्लाम भारत में जितना मशहूर हुआ है उतना ही उसे समझने का प्रयास कम हुआ है।
इस्लाम पर विचार उसके विभिन्न पहलुओं से किया जा सकता है और किया भी जाता है। लेकिन इस बात को साधारणतया भुला दिया जाता है कि उसके सभी पहलुओं का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है उनमें से किसी एक को भी अलग करके उसका अध्ययन करना सम्भव नहीं। इस्लाम का एक विशेष पहलू यह है कि वह हमारे व्यक्तित्व की पूर्णता का ही दूसरा नाम है। क़ुरआन के अध्ययन से एक विशेष ईश्वरीय नियम का पता चलता है और वह नियम है: वस्तु का अपने अभिप्राय और उद्देश्य की ओर अग्रसर होना। इस नियम के अन्तर्गत जहाँ वस्तुए अपने लक्ष्य को प्राप्त होती हैं वही इस नियम के अन्तर्गत वे पूर्ण और त्रुटियों से रहित भी होती हैं। क़ुरआन में इस नियम का उल्लेख इन शब्दों में हुआ है।

अल्लज़ी आता कुल-ल शैइन ख़लक़हू सुम-म हदा। (20: 50)

‘‘ईश्वर ने हर चीज़ को उसकी गढ़न और बनावट प्रदान की, फिर उसका मार्गदर्शन किया।''

संसार में हर चीज़ को जो बनावट, रूप-रंग, गुण (Nature) और विशेषता प्राप्त है वह वास्तव में ईश्वर की ही देन है। और ईश्वर ही हर एक को उसकी राह दिखाता और उसके दिशा-निर्देशन का प्रबन्ध करता है। चिड़ियों को ईश्वर की ओर से पंख ही नहीं मिले, बल्कि उन्होंने हवा में उड़ना भी उसी से सीखा, मछलियों को जल में तैरना और मधुमक्खी को मधु संचित करने की सीख उसी ने दी। यदि वह राह न दिखाए तो कोई भी चीज़ अपनी सृष्टि के उद्देश्य को पूरा न कर सके। फिर ऐसी दशा में न तो वन-उपवन में फूल खिल सकेंगे और न धरती में कहीं हरियाली दिखाई दे सकती है। फूलों से उसकी सुगन्ध जाती रहेगी, कोयल अपनी सुन्दर बोली भूल जायेगी । इस विशेष नियम की ओर क़ुरआन में एक दूसरे स्थान पर इन शब्दों में संकेत किया गया है:

‘‘सब्बिहिस-म रब्बिकल आला, अल्लज़ी ख़-ल़-क़ फ़सव-व वल्लज़ी, क़द्द-र फ़-हदा वल्लज़ी अख़रजल मरआ, फ़-ज-अ-लहु ग़ुसाअन अहवा''

अर्थात् ‘‘ महिमागान करो अपने सर्वोच्च पालनकर्ता प्रभु के नाम का, जिसने पैदा किया, फिर नख-शिख से संवारा, और जिसने अन्दाज़ा रखा फिर मार्ग दिखाया, जिसने चारा उगाया, फिर उसे घना और हरा-भरा कर दिया।''

सारांश यह है कि उसने पैदा ही नहीं किया, अच्छी गढ़न भी प्रदान की। फिर उसने चीज़ों को सुन्दर गढ़न, और सुन्दर स्वभाव और सुन्दर गुण ही नहीं दिए, बल्कि उद्देश्य और लक्ष्य की ओर भी उन्हें अग्रसर भी किया। हम देखते हैं वह धरती में घास और चारा उगाता है और फिर उनमें जो योग्यताएं और क्षमताएं निहित होती हैं उन्हें विकसित होने की व्यवस्था भी वह करता है। फिर हम देखते हैं कि नन्हे-नन्हे अंकुर बढ़ कर अत्यन्त घने, हरे-भरे और लुभावने हो जाते हैं। 

इस्लाम का अर्थ

इस व्यापक ईश्वरीय नियम से मानव अलग नहीं है। ईश्वर ने मानव की केवल सृष्टि ही नहीं की बल्कि अस्तित्व प्रदान करके उसे उसके उद्देश्य पथ से परिचित भी कराया है। उसने मानव को उस मार्ग का ज्ञान प्रदान किया है जिस पर चल कर वह अपने वास्तविक अभिप्राय को प्राप्त कर  सकता और अपने जीवन को पूर्ण बना सकता है। यही मार्ग-दर्शन और इसका अनुसरण और पालन ही वह चीज़ है जिसे अरबी भाषा में ‘‘इस्लाम'' की संज्ञा दी गई है। अब आप ने समझ लिया होगा कि इस्लाम इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि वह ईश्वरीय इच्छा का पालन और उसकी योजना के अनुकूल आचरण करने और उसे फलीभूत देखने की मनोकामना का दूसरा नाम है। ईश्वर की इच्छा सत्य, शिव और सुन्दर है, इसी के अनुसार मानव की रचना हुई है। ईश्वरीय इच्छा और उसकी योजना का परिचय स्वयं मानव के अस्तित्व से मिलता है। दूसरे शब्दो में ईश्वर को हमसे जो कुछ अभीष्ट है वही हमारा स्वभाव है। इसी को क़ुरआन में इन शब्दों में व्यक्त किया गया है: 

‘‘फ़ितरतल्लाहिल-लती फ़-तरन-ना-स अलैहा ला तबदी-ल लिख़लक़िल्लाहि ज़ालिकद्दीनुल क़ैयिम''

अर्थात् ‘‘ ईश्वर की प्रकृति जिस पर उसने मानव की रचना की! ईश्वर की प्रकृति में कोई परिवर्तन नहीं होने का, यही ठीक और सही दीन अथवा धर्म है।''

मतलब यह कि यह धर्म मानव जाति का स्वाभाविक धर्म है। यह धर्म हमारी प्रकृति एवं स्वभाव को नष्ट नहीं करता। इसका ज्ञान वास्तव में अपने स्वभाव और अपनी वास्तविक प्रकृति का ज्ञान है। इसके विरुद्ध जाना अपने निर्मल स्वरूप को नष्ट करना है। इसी बात को हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इन शब्दों में व्यक्त किया है:

‘‘हर बच्चा जो पैदा होता है, अपनी प्रकृति पर पैदा होता है। (साधारणतया पथभ्रष्ट उसे उसके माता-पिता कर देते हैं।)'' फिर आपने बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए बताया, ‘‘यह ठीक उसी प्रकार होता है जैसे जानवर के पेट से पूरा-पूरा भला-चंगा जानवर पैदा होता है। कोई बच्चा कटे हुए कान लेकर नहीं आता। बाद में लोग अन्धविश्वास के कारण उसका कान काट कर उसे कनकटा बना देते हैं।''
इस उदाहरण से होता है कि अपने स्वाभाविक और ईश्वर द्वारा निर्घारित धर्म को त्याग कर मानव अपने ही व्यक्तित्व को आघात पहुँचाता है।  

मानव का कोमल अंग

मानव अस्तित्व का सबसे कोमल अंग उसका हृदय है। मानव स्वभावतः चाहता है कि वह जीवन में वही पद्धति एवं प्रणाली (Way of Life) अपनाए जिससे उसके मधुरतम और कोमल अंग की रक्षा हो सके। इस्लाम की वास्तविकता और उसके मूल तत्व को समझ लेने के पश्चात् इस बात का पूर्ण विश्वास हो जाता है कि स्वाभाविक धर्म होने के नाते वह हमारी इस मांग को पूर्णरूपेण पूरा करता है। वह यही नहीं कि हमारे जीवन के कोमल से कोमल और मधुर पक्षों का रक्षक है बल्कि जैसा कि पहले संकेत किया जा चुका है वह उन्हें विकसित एवं पूर्णता की स्थिति में देखना चाहता है। क़ुरआन में स्पष्ट शब्दों में इस तथ्य पर प्रकाश डाला गया है। क़ुरआन के शब्द ये हैं:

‘‘क़द अफ़ल-ह मन ज़क्काहा व क़द ख़ा-ब मन दस्साहा।'' (99: 7-90)

अर्थात् ‘‘सफल हो गया जिसने उस (अपनी आत्मा) को निखारा, और असफल हुआ जिसने उसे दबाया और ख़राब किया।''

मानव के लिए सबसे बड़ा और अक्षम्य अपराध यह है कि वह अपनी आत्मा को विकसित न होने दे और उसे दूषित और विकृत कर के छोड़े। 

पंखुड़ियाँ बिखरने न पायें

इस्लाम मानव के व्यक्तित्व और कोमलतम पक्षों का रक्षक है। वह उन्हें विकसित होने का अवसर प्रदान करता है। इसी में उसकी सार्थकता और इसी से उसका अपना अस्तित्व भी है। इस्लाम ईश-इच्छा का पालन है। कहने के लिए तो यह अत्यन्त सरल सी बात है परन्तु इसी में जीवन का सारा रहस्य सिमट आया है। जीवन की वास्तविक सरसता, सुन्दरता और महानता वास्तव में इसी पर निर्भर करती है। इस सरल और सीधी-सी बात को भुला दीजिए तो जीवन-पुष्प की पंखुड़ियाँ बिखर कर रह जायेंगी। कोई चीज़ न होगी जो हम में एकात्मता का आधार बन सके। कोई न होगा जो जगत् को एक सूत्र में बांध सके। फिर यह कदापि सम्भव न हो सकेगा कि अनेकता में एकता के शुभदर्शन हो सकें। इस प्रकार इस्लाम मन का सूक्ष्म एवं मधुरतम व्यापार है, इसका रुख़ जब ईश्वर की ओर होता है तो इसे ईश-भय ईश-प्रेम, दास्य-भाव, आत्मसर्मपण, आदेशानुपालन आदि नामों से अभिव्यंजित करते हैं और जब इसका रुख़ दूसरे मानवों और प्राणियों की ओर होता है तो इसे प्रेम भाव, भाईचारा, लोक सेवा, परोपकार, दया भावना आदि नाम दिया जाता है। इस्लाम जीवन की सच्चाई, जीवन की वास्तविक व्याख्या और जीवन की सुन्दरतम अनुभूति और मधुरतम क्रिया है। वह जीवन का कोई शुष्क पक्ष कदापि नहीं। वह जीवन की उमंग और जीवन का वास्तविक रसास्वादन है।

फिर ध्यान रहे इस्लाम मन का सूक्ष्म और मधुर व्यापार मात्र बन कर ही नहीं रहता बल्कि स्वभावतः वह व्यक्ति सम्पूर्ण जीवन, समाज के प्रत्येक अवयव, बल्कि इस  से आगे सम्पूर्ण मानवता को आच्छादित कर लेता है। मानव जीवन का कोई विभाग भी इससे वंचित नहीं रहता । यही कारण है कि इस्लाम ने जीवन के समस्त मामलों में मानव का मार्गदर्शन किया है। विचार एवं धारणाराओं से लेकर नैतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक आदि प्रत्येक क्षेत्र में वह हमारा पथ-प्रदर्शन करता है। वह बताता है कि व्यक्ति और समाज का निर्माण कैसे हो? आदर्श समाज की रूप-रेखा क्या होती है? लोगों के पारस्परिक सम्बन्ध कैसे होने चाहिए? आर्थिक विषयों में संतुलित और न्यायसंगत प्रणाली क्या हो सकती है? किस प्रकार सारे मानव समान और भाई-भाई एक ईश्वर के बन्दे और एक पिता की सन्तान हैं?

फिर वह बताता है कि राज्य की व्यवस्था कैसे हो? शासन को व्यवस्थित और न्यायानुकूल चलाने के लिए कौन सा विधान और प्रणाली मानव के लिए ग्राह्य होनी चाहिए और कौन सी प्रणाली मानव-मात्र के लिए शुभ और न्यायानुकूल नहीं है? मानव-मात्र को संगठित करने का आधार क्या है? मानव समाज में न्याय की स्थापना कैसे हो सकती है? इन सभी समस्याओं के विषय में इस्लाम स्पष्ट रूप से प्रकाश डालता है और इस प्रकार वह एक जीवन व्यवस्था के रूप में उभर कर सामने आता है। 

मौलिक धारणाएं

मौलिक रूप से इस्लाम की मुख्य धारणाएं तीन है। वह एक ईश्वर की ओर लोगों को आमंत्रित करता है। उसका कहना है कि यह जगत् अपने-आप नहीं बन गया है बल्कि इसका एक रचयिता है। वह एक है। वही इस जगत् का नियंता और चलाने वाला है। कण-कण में उसकी निशानियाँ फैली हुई हैं। ब्रह्माण्ड में विभिन्न रूपों में उसकी दयालुता, शक्ति एवं सामर्थ्य का प्रदर्शन हो रहा है। काग़ज़ के ऊपर अलल-टप टाइप के अक्षर बिखेर देने से कोई कविता या कहानी तैयार नहीं हो सकती, फिर यह कैसे संभव है कि किसी बुद्धि, ज्ञान और शक्तिशाली ईश्वर के बिना ऐसा ब्रह्माण्ड वुजूद में आ गया हो, जिसमें आश्चर्यजनक रीति से सारे कार्य व्यवस्थित रूप में हो रहे हैं। 

वही एक अकेला

फिर ईश्वर दो या अधिक नहीं हो सकते। ईश्वर है और वह एक ही है। दो या अधिक ख़ुदा मानने का अर्थ यह होगा कि कोई ख़ुदा भी अपार शक्ति का मालिक नहीं है। इस रूप में शक्ति एंव सत्ता विभक्त होकर रह जायेगी। ईश्वर वह है जो सदैव से हो जिसका कोई स्रष्टा न हो। वह अमर हो। इसके लिए पूर्ण होना आवश्यक है। शक्ति और सत्ता के विभाजन की स्थिति में पूर्णता एंव कुशलता नष्ट हो जाती है। इसलिए मानना पड़ेगा कि एकेश्वरवाद की धारणा ही सत्य है।

मार्गदर्शन

इस्लाम की दूसरी मुख्य धारणा वह है जिसे क़ुरआन में नुबूवत या रिसालत अर्थात ईशदूतत्व का नाम दिया गया है। ईश्वर ने आरम्भ से ही जब मानव ने धरती पर क़दम रखा, उसके मार्गदर्शन का प्रबन्ध किया। इसके लिए उसने नबियों और रसूलों को भेजा और उनका यह दायित्व बताया कि वे लोगों को बताएं कि जीवन का लक्ष्य क्या है? और ईश्वर को उनसे कौन सी सेवा लेना अभीष्ट है? मरने के बाद क्या होगा? मानव जीवन में कौन-सी पद्धति अपनाएं? वह ज़िन्दगी के लिए क़ानून और नियम कहाँ से प्राप्त करे? आदि विषयों पर नबियों ने स्पष्ट रूप से प्रकाश डाला है। 

ईश्वर ने मानव के मार्गदर्शन के लिए अपने रसूलों पर किताबें अथवा अपनी वाणी भी उतारी। ये नबी या रसूल विभिन्न देशों और कालों में हुए। इनकी भाषाएं और जिन जातियों में ये हुए, वे भले ही भिन्न रही हों परन्तु उनकी मौलिक शिक्षाओं में कई अन्तर नहीं पाया गया। लोगों ने आज्ञानवश उनका विरोध भी किया। उनके पश्चात् उनकी शिक्षाओं को बिगाड़ा भी। स्वयं उनके चरित्र को दाग़दार सिद्ध करने की भी कोशिश की गई लेकिन ईश्वर एक के बाद दूसरा रसूल या नबी भेजकर सत्य और असत्य को लोगों के समक्ष स्पष्ट करता रहा। नबियों का यह क्रम उस समय तक चलता रहा जब तक सारी दुनिया के एक होने की सम्भावना नहीं पाई गई। यातायात के साधनों आदि के द्वारा निकट भविष्य में सम्पूर्ण संसार के एक होने की सम्भावना के पश्चात् ईश्वर ने रिसालत या नुबूवत के सिलसिले को समाप्त कर दिया और अपने अन्तिम नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) द्वारा इस बात की घोषणा कर दी कि संसार में अब कोई नया नबी पधारने वाला नहीं है। उसने अपने नबी पर अपना ग्रन्थ भी उतार दिया। यह ग्रन्थ वही है जो क़ुरआन के नाम से आज भी मौजूद है। इसके साथ ही ईश्वर ने इसका वादा भी किया कि अब अपनी किताब और ‘‘मानवता के नाम अपने संदेश'' की रक्षा वह स्वयं करेगा। ईश्वर का यह वादा पूरा होकर रहा। आज लोग क़ुरआन का पालन भले ही न करें लेकिन वह ईश्वरीय संदेश को विकृत या गड्ड-मड्ड नहीं कर सकते। ईश्वरीय मार्गदर्शन आज भी क़ुरआन और हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के आदर्श जीवन के रूप में मौजूद है और प्रलय तक मौजूद रहेगा।

ऊपर जो कुछ कहा गया उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस्लाम का इतिहास हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से आरम्भ नहीं होता बल्कि इसका इतिहास अत्यन्त प्राचीन है।

क़ुरआन कोई नया ग्रन्थ नहीं और न उसकी शिक्षाएं मौलिक रूप में नवीन हैं, बल्कि वह तो ईशग्रन्थों का अन्तिम संस्करण मात्र है। क़ुरआन में पिछले सभी ग्रन्थों का सारांश आ गया है। उसने अपने में सभी ग्रन्थों को समेट रखा है। यही कारण है कि ईश्वर ने उसे ‘‘ मुहैमिन" अर्थात संरक्षक की उपाधि दी है (5:48)। जिसका अर्थ यह होता है कि इसके द्वारा विगत काल में अवतरित किताबों का सरंक्षण हुआ है। वह उनकी पुष्टि करता है और उनकी शिक्षाओं को विशुद्ध रूप में जगत् के समक्ष प्रस्तुत करने का कार्यभार संभाले हुए है। 

इस ग्रन्थ के द्वारा जिस धर्म का प्रस्तुतीकरण होता है वह किसी जाति के लिए कोई आयातित (Imported Religion) धर्म नहीं है। बल्कि उसका अपना ही सनातन और वास्तविक धर्म है जिसको या तो उसने भुला दिया है या काल के चक्र में पड़ कर उसका रूप बदल गया है। यही कारण है कि ये शिक्षाएं हम भारतवासियों के लिए नवीन नहीं हैं। वह जिस सत्य का प्रतिपादन करता है उसके चिन्ह किसी-न-किसी रूप में यहाँ के ग्रन्थों और परम्पराओं में मिल जाते हैं। क़ुरआन सत्य और असत्य की कसौटी बनकर हमारे सामने आता है जिससे खरे-खोटे को परखना हमारे लिए सम्भव हो जाता है। फिर उसके द्वारा जीवन की स्पष्ट पद्धति एवं प्रणाली सामने आती है जो ईश्वर को हमारे लिए अभीष्ट है।

मैंने ऊपर कहा है कि इस्लाम का इतिहास उस समय से आरम्भ होता है जब से मानव ने धरती पर क़दम रखा और इस्लाम ही सारे मानव का ईश्वर की ओर से निर्धारित धर्म रहा है, चाहे विभिन्न भाषाओं में इसका नाम भिन्न रहा हो। बल्कि यदि आप व्यापक दृष्टि से विचार करें तो इस्लाम का इतिहास इससे भी प्राचीन सिद्ध होगा। इस्लाम अपनी आत्मा और स्वभाव की दृष्टि से आज्ञापालन है। 

यह आज्ञापालन का निर्वाह जिस तरह जीवन के उस भाग में स्वभावतः हो रहा है जिसे हम जीवन का प्राकृतिक पक्ष कहते हैं, जिसके अन्तर्गत सीने में हमारा हृदय धड़कता और हमारी ज़बान बोलने का कार्य करती है और हमारे फेफड़े वायु को भीतर लेते और बाहर निकालते हैं। ईश्वरीय आज्ञा का पालन जीवन के उस भाग में भी अभीष्ट है जिसमें मानव अपने को स्वतंत्र महसूस करता है अर्थात विचार, कल्पना, आचरण और कर्म के क्षेत्र में वह कौन सी नीति ग्रहण करे और कौन सा मार्ग अपनाए। यह समस्या उसके सामने अत्यन्त प्रबल रूप से आती  है। इस्लाम यह है कि जीवन के इस क्षेत्र में भी मानव ईश्वर का आज्ञाकारी बने। ईश्वर की आज्ञा और उसके आदेशों का ज्ञान उसे नबियों के द्वारा प्राप्त होगा और प्रामाणिक एवं पूर्ण रूप से इस सिलसिले के ईश्वरीय आदेश ईश्वर के अन्तिम रसूल की शिक्षाओं और ईश्वर की ओर से प्रस्तुत किए हुए ग्रन्थ क़ुरआन में माजूद हैं।

प्राकृतिक क्षेत्र में ब्रहमाण्ड की सभी वस्तुएं ईश्वरीय आदेश का पालन कर रही हैं। और उस समय से कर रही हैं जब से उन्हें अस्तित्व मिला है। बल्कि उन्हें यह अस्तित्व ही आदेशानुपालन स्वरूप ही प्राप्त हुआ है। हमारे और संसार की सभी वस्तुओं के अस्तित्व का मूल तत्व आदेशानुवर्तन और आत्म समर्पण ही है। यदि अस्तित्व की संभावना ईश्वरीय योजना का पालन न करती तो किसी वस्तु का आविर्भाव सम्भव न था। सृष्टि-योजना के पीछे कोई अनिष्ट ओर अप्रिय उद्देश्य नहीं बल्कि इसके पीछे अत्यन्त मधुर उद्देश्य काम कर रहा है। कहा भी गया है:

आनन्दाद्येव सर्वानि भूतानि जायन्ते

अर्थात, "प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति आनन्द से होती है।" इस पहलू से इस्लाम का इतिहास सृष्टि से जुड़ा हुआ है।  
सच्चे धर्म में जीवन की सुन्दरता का निरीक्षण किया जा सकता है। सच्चा धर्म मानव की केवल कर्म साधना ही नहीं सौन्दर्य साधना भी होती है:
True sweet hearting leads to true religion.
अर्थात्, "सत्य और मधुर हृदय सत्य धर्म की ओर ले जाता है।" 

आख़िरत या परलोकवाद

तीसरी मुख्य धारणा इस्लाम की वह है जिसे ‘आख़िरत', परलोकवाद या जीवन-मृत्यु के पश्चात् के नाम से याद किया जाता है। आख़िरत से अभिप्रेत वह जीवन है जो मृत्यु के पश्चात् मानव को प्रदान किया जायेगा। आख़िरत की धारणा के बिना संसार खेल-तमाशा और क्रीड़ा मात्र होकर रह जाता है। पुष्प के जीवन का अभिप्राय भले ही इस से पूरा हो जाता हो कि वह पुष्पित होकर अपनी सुगन्ध बिखेर कर सदैव के लिए धूल में मिल जाए, परन्तु मानव केवल भौतिक अस्तित्व ही नहीं रखता, उसका आत्मिक अस्तित्व भी है। मनुष्य ऐसी बहार का स्वप्न देखता है जो बाक़ी रहे, और सदैव बाक़ी रहे। उसे ऐसा जीवन अभीष्ट है जो समाप्त न हो। वह ईश्वर के दर्शन का अभिलाषी है, वह ईश्वर से अपना ऐसा सम्पर्क स्थापित करना चाहता है जो कभी विछिन्न न हो सके। वह अपने हृदय को जिस ईश अनुराग से परिपूर्ण करता है, चाहता है कि वह उसका रस सदैव लेता रहे। इसी तरह वह अपने पिछड़े हुए प्रियजनों से मिलना चाहता है जिन्हें मृत्यु ने उससे अलग कर दिया। वह ब्रह्माण्ड और जीवन के निहित रहस्यों को खुली आँखों से देखना चाहता है। वह चाहता है कि संसार में जिन्हें इंसाफ़ न मिल सका, उन्हें इंसाफ मिले। वह चाहता है कि अत्याचारियों को उनके किए का मज़ा चखाया जाये। उसकी मांग है कि उन पीड़ितों की फ़रियाद सुनी जाए जिनकी फ़रियाद दुनिया में नहीं सुनी जा सकी। 

वह चाहता है कि सत्यप्रिय व्यक्तियों और ईश्वर तक की हँसी उड़ाने वाले जान लें कि वे कितने बड़े अत्याचारी थे और अत्याचार का फल अच्छा नहीं होता। वह चाहता है कि उन सत्य-प्रिय आज्ञाकारियों को उनके कर्मों के फलस्वरूप पुरस्कार मिले और यदि उन्हें दुनिया ने सम्मान नहीं दिया तो ईश्वर उन्हें सम्मानित करे, जिसके वे वास्तव में अधिकारी हैं।

यह लोक नहीं, वह लोक

ये सारी बातें इस लौकिक संसार में पूरी होती नहीं दीख पड़तीं। ऐसा अकारण नहीं है। इसका मुख्य कारण यह है कि यह लोक परीक्षास्थल मात्र है। यह लोक उस नियम और सिद्धान्त के पालन करने का लोक है जिसके फलस्वरूप आगे आने वाले लोक में आत्माओं अथवा व्यक्तियों के विकास और पूर्णता का प्रदर्शन सम्भव होगा। आगे आने वाले लोक में जिसे इस्लाम आख़िरत कहता है, वे असफल दिखाई देंगे जो परीक्षा के दायित्व का निर्वाह नहीं करेंगे। आख़िरत कहते ही हैं उसको जो बाद में स्थायी रूप से आये। आख़िरत अथवा परलोक वास्तव में इस वर्तमान लोक से असम्बद्ध कोई लोक नहीं है। वह इसी लोक का परिणाम मात्र है। किसी वस्तु विशेष के परिणाम का उस वस्तु से गहरा सम्बन्ध हुआ करता है। यही कारण है कि विवेकशील और मनीषी व्यक्ति किसी वस्तु के परिणाम को स्वयं उस वस्तु विशेष में ही आंक लिया करते हैं। उन्हें हर वस्तु में उसके परिणाम, उसके अन्तिम रूप और उसके अन्तिम गति की अनुभूति हो जाती है। क़ुरआन में भी इस तथ्य की ओर स्पष्ट संकेत मिलता है:

‘सक़ुलत फ़िस्समावाति वल-अर्ज़'
अर्थात, ‘‘वह (आख़िरत) आकाशों और धरती में भारी पड़ रही है।"
सम्पूर्ण सृष्टि उससे बोझल हो रही है। यदि सूझ-बूझ हो तो उसकी यथार्थता को इसी जगत् में आंका जा सकता है। 
महाकवि इक़बाल ने कितना सुन्दर कहा है:
क़नाअत न कर आलमे-रंगो-बू पर,
ज़मीं और भी, आसमाँ और भी हैं।

अर्थात, तू इसी वर्तमान लोक का आश्रय न ले। तेरी यात्रा का अन्त यहाँ कदापि नहीं होता। तू किसी और लोक का प्राणी है। तेरे लिए इससे भी विस्तृत क्षेत्र है। तुझे विराम कहीं और पाना है। इस जीवन को सब कुछ समझ बैठना भूल है। अभी वह जीवन प्राप्त ही नहीं हो सका है, जो हमें अभीष्ट है। अभी तो हमारे अभीष्ट जीवन का निर्माण हो रहा है और इस निर्माण कार्य में हमें अपना योगदान देना है। इस दायित्व के निर्वाह के प्रति यदि हम असावधान रहें तो इसके बुरे परिणाम से हमें कोई बचाने वाला न होगा।

 स्रोत

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