इस्लाम
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इस्लाम में पाकी और सफ़ाई
सफ़ाई-सुथराई और स्वच्छता और पवित्रता का संबंध केवल शरीर और बाहरी रख-रखाव से नहीं है, बल्कि इनसान का मन और मस्तिष्क भी इससे प्रभावित होता है, साथ ही व्यक्ति और समाज का स्वास्थ्य भी इससे जुड़ा है। सफ़ाई-सुथराई को हर इनसान स्वभाविक तौर पर पसन्द करता है, यह और बात है कि इसको लेकर विभिन्न समुदायों और जातियों के पैमानों और तरीक़ों में अंतर है। इस्लाम ने शरीर, आत्मा और चरित्र की सफ़ाई पर बहुत बल दिया है। किसी भी तरह की इबादत (नमाज़ आदि) के लिए शरीर, मन और स्थान की सफ़ाई, स्वच्छता एवं पवित्रता को ज़रूरी ठहराया गया है। इस पुस्तिका को पढ़ने के बाद पाठकों को न केवल यह कि सफ़ाई एवं स्वच्छता व पवित्रता के बारे में सही जानकारी हासिल होगी, बल्कि उन पर यह हक़ीक़त भी खुल जाएगी कि इस्लाम में इसका क्या महत्व है। इस बात से इसका महत्व अच्छी तरह समझा जा सकता है कि सफ़ाई-सुथराई से लापरवाह लोगों को आख़िरत के अज़ाब से सावधान किया गया है।
इस्लाम सबके लिए रहमत
हमारे आम देशबंधुओं का सामान्य विचार है कि इस्लाम ‘सिर्फ़ मुसलमानों' का धर्म है और ईश्वर की सारी रहमतें सिर्फ़ उन्हीं के लिए हैं। इसके प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद साहब हैं जो ‘सिर्फ़ मुसलमानों' के पैग़म्बर और महापुरुष हैं। क़ुरआन ‘सिर्फ़ मुसलमानों' का धर्मग्रन्थ है और जिसकी शिक्षाओं का सम्बंध भी सिर्फ़ मुसलमानों से है। और वह सिर्फ़ मुसलमानों को ही सफलता का मार्ग दिखाता है। लेकिन सच्चाई इससे भिन्न है। स्वयं मुसलमानों के रवैये और आचार-व्यवहार की वजह से यह भ्रम उत्पन्न हो गया है। वरना अस्ल बात तो यह है कि इस्लाम पूरी मानव जाति के लिए रहमत है, हज़रत मुहम्मद (ईश्वर की कृपा और शान्ति हो उन पर) सारे इंसानों के पैग़म्बर, शुभचिन्तक, उद्धारक और मार्गदर्शक हैं। वे इस्लाम के प्रवर्तक (Founder) नहीं बल्कि उस शाश्वत (Eternal) धर्म के आह्वाहक हैं, जिसे संसार के रचयिता, पालनहार और स्वामी ने समस्त मानवजाति के लिए तैयार करके भेजा है। इसी तरह क़ुरआन पूरी मानवजाति के लिए अवतरित ईशग्रन्थ और मार्गदर्शक है।
परलोक की तैयारी आज से
धार्मिक पक्ष का मूलाधार "ईश्वर में विश्वास" है। यहां, ईश्वर को स्रष्टा, स्वामी, प्रभु, पालक-पोषक, निरीक्षक, संरक्षक और इंसाफ़ करने वाला, पूज्य व उपास्य माना गया है। इस मान्यता का लाज़िमी तक़ाज़ा (Implication) है कि मनुष्य ईश्वर का आज्ञाकारी, आज्ञापालक और ईशपरायण दास हो जैसा कि किसी भी स्वामी के दास को होना चाहिए। इस मान्यता का तक़ाज़ा यह भी है कि ईश्वर के आज्ञाकारी-उपासक दासों (बन्दों) का जीवन-परिणाम, अवज्ञाकारी, उद्दण्ड, पापी, उपद्रवी, सरकश, ज़ालिम, व्यभिचारी, अत्याचारी बन्दों से भिन्न, अच्छा, सुन्दर व उत्तम हो।
इस्लाम की जीवन व्यवस्था
इस्लाम की जीवन व्यवस्था मानव के अन्दर नैतिकता की भावना एक स्वाभाविक भावना है जो कुछ गुणों को पसन्द और कुछ दूसरे गुणों को नापसन्द करती है। यह भावना व्यक्तिगत रूप से लोगों में भले ही थोड़ी या अधिक हो किन्तु सामूहिक रूप से सदैव मानव-चेतना ने नैतिकता के कुछ मूल्यों को समान रूप से अच्छाई और कुछ को बुराई की संज्ञा दी है। सत्य, न्याय, वचन-पालन और अमानत को सदा ही मानवीय नैतिक सीमाओं में प्रशंसनीय माना गया है और कभी कोई ऐसा युग नहीं बीता जब झूठ, जु़ल्म, वचन-भंग और ख़ियानत को पसन्द किया गया हो। हमदर्दी, दयाभाव, दानशीलता और उदारता को सदैव सराहा गया तथा स्वार्थपरता, क्रूरता, कंजूसी और संकीर्णता को कभी आदर योग्य स्थान नहीं मिला। इससे मालूम हुआ कि मानवीय नैतिकताएं वास्तव में ऐसी सर्वमान्य वास्तविकताएँ हैं जिन्हें सभी लोग जानते हैं और सदैव जानते चले आ रहे हैं। अच्छाई और बुराई कोई ढकी-छिपी चीज़ें नहीं हैं कि उन्हें कहीं से ढूँढ़कर निकालने की आवश्यकता हो। वे तो मानवता की चिरपरिचित चीज़ें हैं जिनकी चेतना मानव की प्रकृति में समाहित कर दी गई है। यही कारण है कि क़ुरआन अपनी भाषा में नेकी और भलाई को ‘मारूफ़’ (जानी-पहचानी हुई चीज़) और बुराई को ‘मुनकर’ (मानव की प्रकृति जिसका इन्कार करे) के शब्दों से अभिहित करता है। हमदर्दी, दया भाव, दानशीलता और उदारता को सदैव सराहागया तथा स्वार्थपरता, क्रूरता, कंजूसी और संकीर्णता को कभी आदरयोग्य स्थान नहीं मिला। धैर्य, सहनशीलता, स्थैर्य, गंभीरता, दृढसंकल्पित व बहादुरी वे गुण हैंजो सदा से प्रशंसनीय रहे है।
इस्लाम मानवतापूर्ण ईश्वरीय धर्म
यह लेख जाने-माने विद्वान लाला काशीराम चावला के उद्गार पर आधारित है। लालाजी ने जब इस्लाम का अध्ययन किया तो वे इसकी शिक्षाओं से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने यह लेख विशेष रूप से अपने उन हिन्दू भाइयों के लिए तैयार किया है, जो इस्लाम को उसके मूल स्रोत से जाने बिना ही इसके प्रति एक अवधारणा बना लेते हैं और जीवन बर उनकी गतिविधयां उसी पर आधारित रहती हैं। लालाजी के अनुसार इस्लाम का पहला उद्देश्य की पशुता को समाप्त कर उसे मानव बनाना है और फिर उस मानव को वास्तविक मानवता की ऊंचाई तक ले जाना है। लालाजी विशेष रूप से क़ुरआन की शिक्षाओं से बहुत प्रभावित हैं और जगह-जगह उन्हें कोट भी करते हैं।
सत्य धर्म
मानव-जीवन एक ऐसी इकाई है, जिसे अध्ययन की दृष्टि से विभिन्न विभागों में तो बांटा जा सकता है, लेकिन वास्तव में वे सारे विभाग एक ही सिद्धांत और नियम का पालन करते हैं। अतः मानव के सम्पूर्ण जीवन का एक ही धर्म होना चाहिए। अलग-अलग विभागों में अलग-अलग धर्मों का पालन या अलग-अलग नियमों का अनुसरण विश्वास के अस्थिर और बौद्धिक-निर्णय के विचलित होने का प्रमाण है। जब किसी धर्म के सत्य धर्म होने का पूरा विश्वास प्राप्त हो तो जीवन के समस्त विभागों में उसका अनिवार्यतः पालन होना चाहिए और केवल उसी को समस्त जीवन का धर्म होना चाहिए।
आदर्श समाज के निर्माण के लिए इस्लाम एकमात्र रास्ता
समाज-निर्माण के बहुत से क्षेत्र हैं। वे एक दूसरे से अलग-थलग नहीं बल्कि आपस में मिले हुए और एक दूसरे से संबंधित हैं। इस्लाम मानव जीवन और समाज निर्माण के सभी क्षेत्रों में मार्गदर्शन करता है। इस संक्षिप्त लेख में आध्यात्मिक, नैतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में उस रास्ते की तलाश की जा रही है जो इन्सानों को उत्तम समाज के निर्माण की ओर ले जाता है।
आप की अमानत आप की सेवा में
संसार बनानेवाले ने जब इस संसार में मनुष्य को पैदा किया तो साथ ही उस के मार्गदर्शन की वयवस्था भी की। ईश्वर चाहता है कि संसार में मनुष्य उस की मर्ज़ी के अनुसार जीवन बिताए और इस की आज्ञाओं का पालन करे। इस के बदले में ईश्वर ने मनुष्य से सदा रहने वाले स्वर्ग का वादा किया है। मनुष्य तक अपनी मर्ज़ी और अपना आदेश पहुंचाने के लिए ईश्वर ने पैग़म्बरों का एक लंबा सिलसिला चलाया। पहले मनुष्य हज़रत आदम से ले कर हज़रत मुहम्मद तक कोई सवा लाख पैग़म्बर दुनिया में आए और उन्होंने मनुष्य का मार्गदर्शन किया। आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद ने ईश्वर का पैग़ाम मनुष्य तक पहुंचाने के बाद कहा था कि मेरे बाद कोई पैग़म्बर नहीं आएगा, इस लिए मैंने जिन लोगों तक यह पैग़ाम पहुंचाया है अब यह उनकी ज़िम्मेदारी है कि वे इस पैग़ाम को उन लोगों तक पहुंचाएं, जिन लोगों तक यह नहीं पहुंचा है। कुछ समय तक तो मुसलमानों ने इस काम को बड़ी एकाग्रता से किया, लेकिन फिर वे ढीले पड़ गए। हालाँकि इस पैग़ाम को उन लोगों तक पहुंचाना बहुत ज़रूरी है जिन लोगों तक ये नहीं पहुंचा है। यह पुस्तिका इसी पैग़ाम को आगे बढ़ाने का एक प्रयास है।
इस्लाम: उत्तम समाज का निर्माण
आध्यात्मिकता इन्सान की प्रकृति में रची-बसी है। भौतिकवादी जीवन-प्रणाली के सारे भोग-विलास, ऐश व आराम सिर्फ़ शरीर को सुख देते हैं, आत्मा प्यासी रह जाती है। मानव-प्रकृति यह प्यास बुझाने के लिए व्याकुल रहती है। रहस्यवाद, सूफ़ीवाद, सन्यास, वैराग्य, संसार-त्याग और ब्रह्मचर्य आदि इसी प्यास के बुझाने के रास्ते समझे जाते हैं। लेकिन वह आत्मिक सुकून ही क्या जो दाम्पत्य, पारिवारिक व सामाजिक ज़िम्मेदारियों से भाग कर हासिल किया जाए! वह आध्यात्मिक शांति क्या जो उस सांसारिक जीवन-संघर्ष से फ़रार अख़्तियार करके प्राप्त की जाए जिसकी चुनौतियां और कठिनाइयां मनुष्य की मनुष्यता को निखारती, विकसित करती और समाज के लिए उपयोगी व लाभकारी बनाती हैं।इसके साथ, यह समस्या तो बनी ही रहती है कि कितने लोग अपने सामाजिक उत्तरदायित्व से भाग कर मठों, ख़ानक़ाहों, आश्रमों, गुफ़ाओं और पर्वतों पर ज़िन्दगी गुज़ार सकते हैं? शायद औसतन एक लाख में एक। फिर बाक़ी मानवजाति के लिए आध्यात्मिक प्यास बुझाने का क्या रास्ता है? बल्कि, रास्ता है भी या नहीं? आइए देखें वह इस्लाम क्या कहता है जिसका आह्वान है कि वह ज़िन्दगी के हर क्षेत्र, हर मामले में मार्गदर्शन भी करता है और उत्तम व श्रेष्ठ व्यावहारिक विकल्प भी पेश करता है।
पैग़म्बर की शिक्षाएं
अच्छा मनुष्य, अच्छा ख़ानदान, अच्छा समाज और अच्छी व्यवस्था-यह ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें हमेशा से, हर इन्सान पसन्द करता आया है क्योंकि अच्छाई को पसन्द करना मानव-प्रकृति की शाश्वत विशेषता है। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने इन्सान, ख़ानदान, समाज और व्यवस्था को अच्छा और उत्तम बनाने के लिए जीवन भर प्रयत्न किया और इस काम में बाधा डालने वाले कारकों व तत्वों से लगातार संघर्ष भी किया। इस प्रयत्न में उन शिक्षाओं का बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका और स्थान है जो पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने अपने समय के इन्सानों को, अपने साथियों व अनुयायियों को तथा उनके माध्यम से भविष्य के इन्सानों को दीं। ये शिक्षाएं जीवन के हर पहलू, हर क्षेत्र, अर विभाग से संबंधित हैं। ये हज़ारों की संख्या में हैं जिन्हें बहुत ही सावधानी, निपुणता, और सत्यनिष्ठा के साथ एकत्रित, संकलित व संग्रहित करके ‘हदीसशास्त्र’ के रूप में मानवजाति को उपलब्ध करा दिया गया है। इनमें से कुछ शिक्षाएं (सार/भावार्थ) यहां प्रस्तुत की जा रही हैं:
जिहाद की वास्तविकता
मानव-सभ्यता एवं नागरिकता की आधारशिला जिस क़ानून पर स्थित है उसकी सबसे पहली धारा यह है कि मनुष्य की जान और उसका रक्त सम्माननीय है। मनुष्य के नागरिक अधिकारों में सर्वप्रथम अधिकार जीवित रहने का अधिकार है और नागरिक कर्तव्यों में सर्वप्रथम कर्तव्य जीवित रहने देने का कर्तव्य है। संसार के जितने धर्म-विधान और सभ्य विधि-विधान हैं, उन सब में जान के सम्मान का यह नैतिक नियम अवश्य पाया जाता है। जिस क़ानून और धर्म में इसे स्वीकार न किया गया हो, वह न तो सभ्य लोगों का धर्म और क़ानून बन सकता है, न उसके अन्तर्गत कोई मानव-समुदाय शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकता है और न ही उसे कोई उन्नति प्राप्त हो सकती है। लेकिन कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं, जो मानव जान की इस गरिमा का आदर न करें और अपने स्वार्थ में दूसरे मनुष्य की हत्या करने लगें और धरती पर बिगाड़ फैला कर रख दें ऐसे लोगों को रोकना और दंडित करना ज़रूरी है। ज़मान को बिगाड़ से बचाने के लिए, इस्लाम ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ तलवार उठाने की अनुमति देता है। जिहाद का अर्थ होता है सतत प्रयास करना और अगर ज़रूरी हो तो इसके लिए तलवार भी उठाई जा सकती है।
इस्लाम: मानव-अधिकार
अल्लाह के रसूल ने कहा, लोगो, सारे मनुष्य आदम की संतान हैं और आदम मिट्टी से बनाए गए। अब प्रतिष्ठा एवं उत्तमता के सारे दावे, ख़ून एवं माल की सारी मांगें और शत्रुता के सारे बदले मेरे पाँव तले रौंदे जा चुके हैं। किसी अरबी को किसी ग़ैर-अरबी पर, किसी ग़ैर-अरबी को किसी अरबी पर कोई वरीयता हासिल नहीं है। न काला गोरे से उत्तम है न गोरा काले से। हाँ आदर और प्रतिष्ठा का कोई मापदंड है तो वह ईशपरायणता है। अल्लाह कहता है कि, इन्सानो, हम ने तुम सब को एक ही पुरुष व स्त्री से पैदा किया है और तुम्हें गिरोहों और क़बीलों में बाँट दिया गया कि तुम अलग-अलग पहचाने जा सको। अल्लाह की दृष्टि में तुम में सबसे अच्छा और आदरवाला वह है जो अल्लाह से ज़्यादा डरने वाला है। लोगो, तुम्हारे ख़ून, माल व इज़्ज़त एक-दूसरे पर हराम कर दी गईं हमेशा के लिए। अगर किसी के पास धरोहर (अमानत) रखी जाए तो वह इस बात का पाबन्द है कि अमानत रखवाने वाले को अमानत पहुँचा दे। लोगो, सारे इंसान आपस में भाई-भाई है। अपने गु़लामों का ख़याल रखो, हां गु़लामों का ख़याल रखो। इन्हें वही खिलाओ जो ख़ुद खाते हो, वैसा ही पहनाओ जैसा तुम पहनते हो।
ईमान’ का अर्थ
ईमान का अर्थ जानना और मानना है। जो व्यक्ति ईश्वर के एक होने को और उसके वास्तविक गुणों और उसके क़ानून और नियम और उसके दंड और पुरस्कार को जानता हो और दिल से उस पर विश्वास रखता हो उसको ‘मोमिन’ (ईमान रखने वाला) कहते हैं। ईमान का परिणाम यह है कि मनुष्य मुस्लिम अर्थात् अल्लाह का आज्ञाकारी और अनुवर्ती हो जाता है। इस लेख में इस विषय पर बात की गई है कि ईमान का अर्थ क्या है और ईमान लाने से क्या आशय है। इस्लाम के अनुसार एक अल्लाह पर ईमान लाने के साथ किन-किन चीज़ों पर ईमान लाना ज़रूरी है।
इस्लाम : एक सम्पूर्ण जीवन-व्यवस्था
इस्लाम की शिक्षाएं मानव-मित्र, व्यावहारिक और वैज्ञानिक हैं। इन शिक्षाओं ने दिन-प्रतिदिन के सांसारिक कामों को भी सम्मान और पवित्रता प्रदान की। क़ुरआन कहता है कि इन्सान को ख़ुदा की इबादत के लिए पैदा किया गया है, लेकिन ‘इबादत’ (उपासना) की क़ुरआनी परिभाषा बहुत विस्तृत है । ख़ुदा की इबादत केवल पूजा-पाठ आदि तक सीमित नहीं, बल्कि हर वह कार्य जो अल्लाह के आदेशानुसार उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने तथा मानव-जाति की भलाई के लिए किया जाए इबादत के अन्तर्गत आता है। इस्लाम ने पूरे जीवन और उससे जुड़े सारे मामलों को पावन एवं पवित्र घोषित किया है, शर्त यह है कि उसे ईमानदारी, न्याय और नेकनीयती तथा सत्य-निष्ठा के साथ किया जाए।
इस्लाम की वास्तविकता
संसार में जितने भी धर्म हैं, उनमें से अधिकतर का नाम या तो किसी विशेष व्यक्ति के नाम पर रखा गया है या उस जाति के नाम पर जिसमें वह धर्म पैदा हुआ। परन्तु इस्लाम की विशेषता यह है कि वह किसी व्यक्ति या जाति से सम्बन्धित नहीं है, बल्कि उसका नाम एक विशेष गुण को प्रकट करता है जो ‘‘इस्लाम’’ शब्द के अर्थ में पाया जाता है। इस नाम से स्वयं विदित है कि यह किसी व्यक्ति के मस्तिष्क की उपज नहीं है और न ही किसी विशेष जाति तक सीमित है। इस्लाम एक ऐसी जीवन व्यवस्था है, जो रंग, नस्ल, भाषा और क्षेत्रीयता की सीमाओं से ऊपर उठकर समस्त मानव जाति को एकता के सूत्र में पिरोती है।