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पवित्र क़ुरआन की शिक्षण-विधि - एक समीक्षा (क़ुरआन लेक्चर -1)

पवित्र क़ुरआन की शिक्षण-विधि - एक समीक्षा (क़ुरआन लेक्चर -1)

 

डॉ० महमूद अहमद ग़ाज़ी

[क़ुरआन से संबंधित ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इनमें पवित्र क़ुरआन, उसके संकलन के इतिहास और उलूमे-क़ुरआन (क़ुरआन संबंधी विद्याओं) के कुछ पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। इनमें यह बताया गया है कि क़ुरआन को समझने और उसकी व्याख्या करने की अपेक्षाएँ क्या हैं, उनके लिए हदीसों और अरबी भाषा के ज्ञान के साथ-साथ अरबों के इतिहास और प्राचीन अरब साहित्य की जानकारी भी क्यों ज़रूरी है और इस जानकारी के अभाव में क़ुरआन के अर्थों को समझने में क्या-क्या समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। ये अभिभाषण क़ुरआन के शोधकर्ताओं और उसे समझने के इच्छुक पाठकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।]

दो शब्द

पवित्र क़ुरआन, उसके संकलन के इतिहास और उलूमे- क़ुरआन (क़ुरआन संबंधी विद्याओं) के कुछ पहलुओं पर ये अभिभाषण (लेक्चर्स) अप्रैल 2003 में क़ुरआन का दर्स देनेवाली महिला प्रवक्ताओं के सामने दिए गए थे। इन अभिभाषणों की आवश्यकता का आभास सबसे पहले मेरी बहन मुहतरमा अज़रा नसीम फ़ारूक़ी को हुआ, जो यद्यपि उम्र में मुझसे कम लेकिन दीन (इस्लाम) से लगाव, निष्ठा और मात्र अल्लाह की प्रसन्नता के उद्देश्य में मुझसे बहुत आगे और मेरे जैसे बहुत-सों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। वह स्वयं एक लम्बे समय से दर्से-क़ुरआन (क़ुरआन का व्याख्यात्मक विश्लेषण) का आयोजन कर रही हैं। इंग्लैंड और मलेशिया में अपने निवास (क्रमशः 1983 से 1988 और 1990 से 1993 तक) के दौरान में उनको उच्च शिक्षित महिलाओं की सभाओं में क़ुरआन का दर्स देने का मौक़ा मिला। दर्सों की सफलता एवं प्रभाव ने उनको संबल प्रदान किया और यह सिलसिला उन्होंने 1993 से लगातार जारी रखा हुआ है।

इस पूरे अनुभव के दौरान में उनको दर्से-क़ुरआन देनेवाली महिला प्रवक्ताओं की एक बड़ी संख्या के काम को देखने और उनके विचारों को समझने का अवसर मिला। उन्होंने यह महसूस किया कि उन महिला प्रवक्ताओं की एक विशेष संख्या ऐसी है जिनकी शैक्षिक पृष्ठभूमि विशुद्ध दीनी उलूम (तफ़सीर, हदीस, फ़िक़्ह, अरबी भाषा और कलाम अर्थात् तर्क-विद्या) में विशेष योग्यता की नहीं है। इस विशिष्टता के न होने के कारण उनमें से कुछ के दर्से-क़ुरआन में कभी-कभी ऐसे पहलू रह जाते हैं, जिनमें कुछ और सुधार की गुंजाइश महसूस होती है।

दर्से-क़ुरआन के इन ग्रुपों की उपयोगिता के बारे में दो राएँ नहीं हो सकतीं। लेकिन त्रुटि रहित तो केवल अल्लाह ही है। हम जैसे क्या हैसियत रखते हैं, बड़े-बड़े विद्वानों के काम में सुधार की गुंजाइश हर समय मौजूद रहती है। इसलिए किसी भी नेक और लाभकारी काम में कमज़ोरियों की निशानदेही और उनको दूर करने के निष्ठापूर्ण प्रयासों से बचने की प्रवृत्ति को मन के दिग्रभ्रमण से मुक्त नहीं ठहराया जा सकता। सही इस्लामी नीति किसी नेक और सृजनात्मक कार्य में अनावश्यक त्रुटियाँ निकालना नहीं, बल्कि उन त्रुटियों को दूर करने में निष्ठापूर्ण सहयोग और इसके लिए दूसरे कामों के अलावा उसे पूरा करने के प्रयास भी हैं। वे प्रयास जिनका उद्देश्य किसी अच्छे और सृजनात्मक कार्य में रह जानेवाली कमी की भरपाई हो।

इस भावना के वशीभूत होकर मुहतरमा अज़रा नसीम फ़ारूक़ी ने प्रस्ताव रखा कि क़ुरआन का दर्स देनेवाली महिला प्रवक्ताओं के लिए एक दिशानिर्दश (orientation) कार्यक्रम आयोजित किया जाए, जिसमें पवित्र क़ुरआन, तफ़सीर (टीका), क़ुरआन का संकलन और उलूमे-क़ुरआन के उन पहलुओं पर अभिभाषणों का आयोजन किया जाए जो आम तौर से क़ुरआन का दर्स देनेवाली महिला वक्ताओं की दृष्टि से ओझल रहते हैं। इंसान की कमज़ोरी यह है कि उसको अपनी हर चीज़ बहुत अच्छी, बल्कि सबसे अच्छी लगती है। चुनाँचे इसी स्वभावगत मावीय दुर्बलता के वशीभूत होकर उन्होंने मुझे ही इस सेवा के लिए उचित समझा। उनका यह आग्रह तो कई वर्षों से जारी था, लेकिन इन पंक्तियों के लेखक को अपने अल्पज्ञान और तुच्छता का पूरा आभास था, इसिलए प्रस्ताव के पहले हिस्से से पूर्ण सहमति के बावजूद प्रस्ताव के इस आख़िरी हिस्से को स्वीकार करने में अत्यंत संकोच था।

इस संकोच के कारण इस कार्य में काफ़ी विलंब होता गया। अन्ततः अप्रैल 2003 में 6 से 18 तक की तारीख़ें इन अभिभाषणों के लिए निर्धारित हुईं। ये अभिभाषण संक्षिप्त नोट्स की सहायता से मौखिक दिए गए थे, जिनको बाद में मुहतरमा अज़रा नसीम फ़ारूक़ी ने टेपरिकार्ड से सुनकर लिपिबद्ध किया। इस कार्य में उनको बहुत मेहनत करनी पड़ी।

इन अभिभाषणों की भाषा-शैली लेखन की नहीं, बल्कि भाषण की है। वर्णन-शैली विद्वतापरक और शोधपरक न होकर आह्वानकर्ता की शैली है। चूँकि अभिभाषणों का कोई टेक्स्ट पहले से तैयार न था, इसिलए वर्णन-शैली में भाषण-कला का रंग कुछ अधिक ही नुमायाँ हो गया है। पुनरावलोकन के दौरान में इस शैली को बदलने में बहुत समय लगता, इसिलए इसका कोई प्रयास नहीं किया गया।

चर्चा के दौरान में जगह-जगह बहुत-से महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों और किताबों के नाम आए हैं, जो केवल याददाश्त के आधार पर बयान किए गए। पुनरावलोकन के दौरान में उन सबको अलग-अलग दोबारा चेक करने के लिए भी बहुत समय चाहिए था। इसलिए उसको छोड़ दिया गया। यही हाल उन व्यक्तियों के मृत्यु वर्ष आदि का है। घटनाओं और मृत्यु की तारीख़ें भी आम तौर पर मौखिक याददाश्त के आधार पर ही बयान कर दी गई हैं। इसलिए शोध छात्रों से निवेदन है कि वे मात्र उन अभिभाषणों में दी गई तारीख़ों और मृत्यु के सनों पर भरोसा न करें, बल्कि दूसरे विश्वसनीय स्रोतों आदि से भी सम्पर्क करें।

——महमूद अहमद ग़ाज़ी

 

पवित्र क़ुरआन की शिक्षण-विधि - एक समीक्षा

डॉ० महमूद अहमद ग़ाज़ी

अनुवादक: सनाउल्लाह  सुमन

लेक्चर-1 (07 अप्रैल, 2003)

प्रतिष्ठित बहनो!

मैं इस काम को अपने लिए बहुत बड़ा सौभाग्य समझता हूँ कि आज मुझे उन सम्मान एवं आदर की अधिकारी बहनों से बात करने का अवसर मिल रहा है जिनकी ज़िंदगी का बड़ा भाग पवित्र क़ुरआन के शिक्षण-प्रशिक्षण में व्यतीत हुवा है, जिनकी दिन रात कि दिलचस्पियाँ पवित्र क़ुरआन के प्रचार-प्रसार से जुड़ी हुई हैं और जिन्होंने अपने जीवन के अधिकतर और मूल्यवान क्षण अल्लाह कि किताब के उत्थान और उसके शिक्षण-प्रतिक्षण तथा उसकी शिक्षाओं और संदेश को समझने और समझाने में व्यतीत किये हैं। पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कि हदीस की दृष्टि से आप सब इस दुनिया में भी इस समाज का उत्तम अंग हैं और अल्लाह ने चाहा तो क़ियामत के दिन भी आपकी गणना मुस्लिम समुदाय को सर्वोत्तम निधि के रूप में होगी। इसलिए की पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन है : “तुम में से सर्वोत्तम वह है जिसने पवित्र क़ुरआन सीखा और सिखाया है।” आपने पवित्र क़ुरआन सीखा भी है और पवित्र क़ुरआन सिखाने का दायित्व भी अल्लाह की कृपा और अनुकंपा से तथा उसके असीम योगदान से संवरण कर रही है। इसलिए पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनानुसार आप इस समाज का सर्वोत्तम अंग है।

अल्लाह तआला से दुआ है कि वह आपकी इस कोशिश को अपने दरबार में क़ुबूल फ़रमाए और आपके उन क्षणों को फलदायक बनाए। आपको दुनिया और आख़िरत में उच्च पद प्रदान करे और आपकी उन सारी कोशिशों को फलीभूत करे जिनका शुभ अवसर उसने आपको प्रदान किया।

आदरणीय बहनो!

इस्लाम की नारियों की ओर से पवित्र क़ुरआन की शिक्षा सूझ-बूझ और संदेश का प्रचार-प्रसार, दूसरे शब्दों में क़ुरआन के शिक्षण का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना स्वयं इस्लाम का इतिहास, इस्लाम का इतिहास और क़ुरआन के शिक्षण का इतिहास दोनों एक दूसरे से इस प्रकार संयुक्त है कि उनको एक-दूसरे से पृथक नहीं क्या जा सकता। आपके संज्ञान में है कि क़ुरआन के अवतरण कि घटना के सर्वप्रथम अवसर पर क़ुरआन लानेवाले पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सबसे पहले सत्यापित करनेवाली महान नारी सैयिदा ख़दीजतुल-कुबरा (रज़ियल्लाहु अन्हा) मुसलमानों की सबसे बड़ी मुहसिन (उपकारक) हैं। आपने सैयिदिना उमर फ़ारुक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) के इस्लाम क़ुबूल करने की घटना पढ़ी होगी कि किस पाकबाज़ और हौसला मंद नारी के क़ुरआन पाक पढ़ाने से वह इस्लाम कि परिधि में सम्मिलित हुए। इसी घटना कि ओर संकेत करते हुए अल्लामा इक़बाल ने फ़रमाया है—

'तू नमी दानी कि सोज़-ए-क़िरअत-ए-तू,

दिगरगूँ कर्द तक़दीर-ए-उमर रा'

(ऐ इस्लाम की नारी; तू नहीं जानती कि तेरी क़ुरआन कि क़िरअत से उत्पन्न सोज़ एवं गुदाज़ ने उमर का भाग्य बदल डाला।)

इसलिए अगर आप इस चेतना और इस अनुभूति के साथ क़ुरआन-शिक्षण की गतिविधियों में वयस्त होंगी कि आप उस परम्परा का अनुसरण कर रही हैं जो सैयिदिना उमर फ़ारुक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की बहन फ़ातिमा बिन्ते ख़ताब की परम्परा थी और आप उसी तरह अपने क़िरअत (क़ुरआन-पाठ) सोज़ से बड़े-बड़े लोगों की तक़दीरों को बदल देंगी, जैसा की सैयिदिना उमर फ़ारुक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की बहन ने अपने महान भाई की तक़दीर को बदल कर रख दिया था। तब आपके अन्दर एक ऐसा असाधारण आत्मबल और प्रेरणा जागृत हो जाएगी जो आपके प्रयत्नों को चार चाँद लगा देगी।

प्रतिष्ठित नारियो!

जिहाद इस्लाम का एक आधारभूत स्तंभ है। पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हदीस के अनुसार जिहाद इस्लाम की चोटी है, जैसा कि आप मुझसे बेहतर जानती हैं, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इस्लाम को एक भवन से उपमा दी है जिसके स्तंभों और अंगो का वर्णन भी मुबारक हदीसों में मिलता है। लेकिन इस भवन का सबसे बड़ा और सबसे ऊँचा मीनार और कंगूरा जिहाद है जिसको 'ज़रवतु सनामिल इस्लाम' से अभिहित किया गया है। जिहाद सिर्फ़ तलवार ही से नहीं, बल्कि ज्ञान और विचार के हथियार से भी लड़ा जाता है। इसका अन्दाज़ और कार्यविधि हर जगह और हर समय एक जैसा नहीं होता, बल्कि परिस्थिति और आवश्यकताओं के अनुरूप इसका अन्दाज़ बदलता रहता है। वह व्यावहारिक अन्दाज़ का भी होता है और ज्ञान एवं विचारधारा के अन्दाज़ का भी होता है। तत्वदर्शिता पूर्ण क़ुरआन में जहाँ तलवार से जिहाद का वर्णन है जो जिहाद की पराकाष्टा और सर्वोच्च प्रकार है, वहीँ ज्ञानपरक और वैचारिकता पर आधारित जिहाद का भी वर्णन आया है। अल्लाह का आदेश है : 'व जाहिद हुम बिही जिहादन कबीरा।' यह अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को सम्बोधित करके कहा गया है कि आप उन लोगो के विरूद्ध अर्थात अरब के अज्ञानता में लिप्त इस्लाम-विरोधियों के विरुद्ध पवित्र क़ुरआन के द्वारा जिहाद करें। यहाँ इस जिहाद को जिहादे-कबीर (बड़ा जिहाद) कहा गया है। अतएव पवित्र क़ुरआन के द्वारा जो जिहाद किया जाएगा वह न सिर्फ़ क़ुरआन समर्थित ज्ञानात्मक और विचारात्मक जिहाद होगा, बल्कि वह 'जिहाद-ए-कबीर' (सर्वोच्च जिहाद) भी कहलायेगा।

यह जिहाद बिल क़ुरआन (क़ुरआन द्वारा जिहाद) वह जिहाद है जिसके परिणाम स्वरूप मुजाहिदीन (जिहाद करनेवालों) की एक पूरी नस्ल तैयार होती है। उसी के फलस्वरूप इस्लामी समाज की एक सुदृढ़ ज्ञानपरक, विचारात्मक और रूहानी (आत्मिक) आधार शिला तैयार होती है और उसी के फलसवरुप लोगों के पार्थिव शरीर ही नहीं, बल्कि आत्मा और दिल के दरवाज़े खुलते हैं और विजय प्राप्त होती हैं। तलवार के जिहाद से लोगों की गरदनों को जीता जा सकता है, लकिन पवित्र क़ुरआन के द्वारा जो जिहाद किया जाता है, उससे लोगों के दिल, उनकी आत्माएँ और उनका अन्तः करण और दिमाग़ (बुद्धि ) प्रभावित होते है। अतः उचित रूप से यह जिहाद-ए-कबीर कहा जाने का हक़दार है।

प्रतिष्ठित नारियो!

जब हम क़ुरआन-शिक्षण विधि की एक समीक्षा करते है तो हमें यह देखना चाहिए कि पवित्र क़ुरआन शिक्षण की कौन-कौन सी विधियाँ प्रचलित हैं, उन विधियों में कौन-कौन से उद्देश्य निहित हैं और हमारे सामने जो उद्देश्य हैं उनको प्राप्त करने के लिए क़ुरआन-शिक्षण के इस कार्य को अधिक से अधिक उपयोगी और बेहतर कैसे बनाया जाए।

कार्यविधि से तात्पर्य वे विधि है जो किसी ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए या किसी बड़े कार्य को अंतिम परिणाम तक पहुँचाने के लिए अपनायी जाती है। पवित्र क़ुरआन ने शरीअत के साथ-साथ मिनहाज (कार्य-विधि) शब्द का भी प्रयोग किया है। मिनहाज से तात्पर्य यह है कि शरीअत (क़ानून) के किसी आदेश को लागू करने के लिए जो कार्य-विधि और शैली अपनाई जाए वह कैसी हो, उसके तक़ाज़े क्या हों और उसके विवरण को कैसे संकलित और संपादित किया जाए?

क़ुरआन शिक्षण की कार्य-विधि पर चर्चा करने से पहले एक आवश्यक प्रश्न का उत्तर देना ज़रूरी है जो हमारे इस संदर्भ में बड़ा महत्त्व रखता है। वह प्रश्न यह है कि आखिर पवित्र क़ुरआन का अध्ययन क्यों किया जाए। एक गैर-मुस्लिम आपसे यह सवाल कर सकता है कि वह पवित्र क़ुरआन का अध्ययन क्यों करें। इसी प्रकार एक ऐसा मुसलमान जिसको पवित्र क़ुरआन के अध्ययन का अवसर नहीं मिला वह भी यह सवाल कर सकता है कि उसको क़ुरआन के अध्ययन कि क्या ज़रुरत है? और आख़िर क्यों नारियाँ इस काम के लिए अपने घरों को छोड़कर आएँ? क्यों लोग अपनी व्यस्तताओं को छोड़कर और अपने आवश्यक कार्यों को त्यागकर इस काम के लिए आएँ? और क्यों इस काम के लिए अपनी धन-सम्पत्ति और समय बलिदान करें?

अतः आगे बढ़ने से पहले सर्वप्रथम पहले चरण के तौर पर ज़रूरी मालूम होता है कि हम यह भी देखें कि पवित्र क़ुरआन का अध्ययन एक मुसलमान को किस ध्येय से करना चाहिए। और हम यदि एक ग़ैर-मुस्लिम से अपेक्षा करते है की वह पवित्र क़ुरआन का अध्ययन करे तो क्यों करे। जहाँ तक मुसलमान के लिए पवित्र क़ुरआन के अध्ययन का आवश्यक होने से सम्बन्ध है, इस पर बाद में चर्चा करेंगे, अभी ग़ैर-मुस्लिमों के लिए इसके महत्त्व की चर्चा करते है। एक न्याय प्रिय ग़ैर-मुस्लिम यदि पवित्र क़ुरआन पर नज़र डालेगा और पवित्र क़ुरआन के इतिहास और मानवता पर इस किताब के प्रभावों का अध्ययन करेगा तो वह इस परिणाम पर पहुँचे बिना नहीं रह सकता कि इस किताब का अध्ययन उसके लिए भी शायद उतना ही आवश्यक है जितना एक मुसलमान के लिए आवश्यक है। इसका एक बड़ा और आधारभूत कारण यह है कि विश्व के इतिहास में कोई और किताब ऐसी नहीं है, जिसने मानवता के इतिहास पर इतना गहरा और व्यापक प्रभाव डाला हो जितना पवित्र क़ुरआन ने डाला है। हमारे देश के एक प्रसिद्ध क़ानूनविद और प्रतिष्ठित विचारक और हमारे अन्तर्राष्ट्रीय विश्व विद्यालय के संस्थापक श्री ए० के० बरोही की संक्षिप्त पुस्तिका अंग्रेजी भाषा में है ; The impact of the Quran on Human History.  आप में से जिस बहन को दिलचस्पी हो वह इस किताब का अध्ययन अवश्य करे। यह एक छोटी-सी किताब है। यह वास्तव में एक लेक्चर था जो पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ है। यदि हो सके तो आप इसका अध्ययन अवश्य करें। इस लेक्चर में उन्होंने यह बताया है कि पवित्र क़ुरआन ने अपने तौर पर मानव इतिहास पर क्या प्रभाव डाले हैं और वह क्या योगदान और बख़्शिश है जो क़ुरआन की ओर से पूरी मानवजाति को प्राप्त हुई है।

इस समय विस्तार में जाने का तो अवसर नहीं है, लेकिन कुछ तथ्य ऐसे हैं जो पवित्र क़ुरआन की प्रत्यक्ष देन हैं, और आज संसार में उनका अस्तित्व पवित्र क़ुरआन का आभार हैं। पवित्र क़ुरआन और क़ुरआन के लानेवाले के ये वे योगदान हैं जिनसे पूरी मानव जाति ने लाभ उठाया है। मैं सिर्फ़ चन्द एक उदाहरण देने पर बस करता हूँ।

क़ुरआन के अवतरण से पहले संसार में एक बहुत बड़ा अंधविश्वास यह पाया जाता था (जो किसी सीमा तक अब भी पाया जाता है) कि हर वह चीज़ जो मानव को किसी प्रकार का लाभ एवं हानि पहुँचा सकती हैं, वह अपने अंदर एक विशिष्ट प्रकार की पराभौतिक (Supernatural) शक्तियाँ और प्रभाव रखती है। यह ग़लतफ़हमी मानव में बहुत पहले अल्पज्ञता और अज्ञानता के कारण उतपन्न हो गई, और वह यह समझने लगा कि प्रत्येक वह चीज़ जो उसकी दृष्टि में पराभौतिक हैसियत रखती है वह इस बात की अधिकारिणी है कि न केवल उसका आदर किया जाए, बल्कि उसकी पवित्रता के कारण उसकी आराधना भी की जाए। अतएव मानव ने हर लाभदायक और हानिकारक चीज़ को पवित्र समझना शुरू कर दिया। आगे चलकर यह आदर और पवित्रता बढ़ते-बढ़ते पूजा की श्रेणी तक जा पहुँची।

ऐसा होते-होते हर ब्रह्माण्डीय शक्ति आदरणीय और पवित्र ठहरा ली जाती है, फिर उसकी पूजा की जाने लगती है और उसको अंततः पूज्य की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया जाता है। दुनिया में एक ऐसी जाति मौजूद है जिसने करोड़ो देवता और पूज्य बना रखे हैं। उनके पूर्वजों ने अल्पज्ञता, अज्ञानता या किसी अन्य कारण से ये धारणाएँ और विश्वास अपना लिए। उन्होंने प्रथमतः बहुत-सी शक्तियों और सृष्टियों को देखा जिनसे मानव को लाभ एवं हानि पहुँचती है, उन्होंने उन सब चीज़ों को आदरणीय और पवित्र ठहराया। फिर उन्होंने उनकी पूजा शुरू कर दी, और इस प्रकार उनके देवताओं की संख्या करोड़ों तक जा पहुँची। कोई नदी है जिसके पानी से लोग तृप्त हो रहे हैं, कोई पशु है जिसके दूध और खाद्य से लोग लाभान्वित हो रहे हैं, कोई पेड़ है जिसके फल से लोग लाभ उठा रहे हैं, या उसके अतिरिक्त कोई और शक्ति ऐसी है जिसके लाभ और विनाश से लोग प्रभावित हो रहे हैं। उन सबको एक-एक करके पहले पवित्रता की श्रेणी में डाला गया और बाद में होते-होते उन सबको इंसानों का देवता स्वीकार कर लिया गया।

मानव इतिहास में पवित्र क़ुरआन वह पहली किताब है, न सिर्फ़ धार्मिक किताबों में, बल्कि हर प्रकार की किताबों में, वह पहली किताब है जिसने इंसान को यह बताया की इस ब्रह्मांड में जो कुछ है वह तुम्हारे लाभ और उपयोग के लिए पैदा क्या गया है। (वे सब तुम्हारे सेवक और अधीन हैं और तुम सृष्टि में सर्वोपरि हो) 'व सख़्ख़ र लकुम मा फिल-अरज़ि जमिआ' धरती और आकाश के बीच जो कुछ पाया जाता है, वे आकाशीय पिंड हों, वे गरजते बादल हों, वे बहती नदियाँ हों, वे चमकते तारे हों, गहरे सागर हों, वे भयंकर पशु हों या अन्य सृष्टियाँ हों— सारी की सारी चीज़ें इनसान के लाभ के लिए और उसकी सेवा के लिए पैदा की गई हैं।

संभव है कि आपके मष्तिष्क में यह सवाल उतपन्न हो कि इस आयत का पूर्व ग़लतफ़हमी से क्या सम्बन्ध है, लेकिन यदि थोड़ा चिन्तन करें तो मालूम हो जाएगा कि यह आयत पूर्व की ग़लतफ़हमी की जड़ काट कर रख देती है और इस भ्रम को सदा के लिए समाप्त कर देती है।

जब आप यह विश्वास कर ले की कोई चीज़ आपके लाभ के लिए पैदा की गई है और आप उसको हर प्रकार से उपयोग कर सकते हैं, वह आपके लिए दवा के रूप में, खाद्य के रूप में, इलाज के तौर पर, उपभोग की वस्तु के रूप में, श्रृंगार एवं प्रसाधन के रूप में या किसी भी प्रकार से आपके काम आ सकती है तो फिर आप उस पर शोध और छानबीन शरू करेंगे। उसके टुकड़े करेंगे, उसके आंतरिक तत्वों को अलग-अलग करेंगे और प्रयोगशाला में रखकर उसकी जाँच करेंगे।

पवित्रता के भाव के साथ शोध संभव नहीं है, यह हमेशा याद रखिएगा। शोध संभव है वशीभूत करने की संभावना के साथ। जिस चीज़ को वशीभूत करने की आपके अंदर ललक उत्तपन्न हो और आपको विश्वास हो कि आप उसे वशीभूत कर सकती हैं वही चीज़ आपके शोध का विषय बनेगी। लेकिन जिस चीज़ के चतुर्दिक प्रतिष्ठा और पवित्रता का घेरा छाया हुआ हो उसका शोध नहीं होता। आप में से बहुत सी नारियों का सम्बन्ध मेडिकल साइंस के विभाग से भी है। मेडिकल साइंस में मृत शरीरों (लाशों) को चीर-फाड़कर देखा जाता है, मृत शरीर पर शोध क्या जाता है और विद्यार्थियों को बताया जाता है कि मानव शरीर किस प्रकार काम करता है, लेकिन साइंस का कोई छात्र अपने बाप के मृत शरीर को इस शोध के लिए उपयोग नहीं करेगा। और यदि कोई उस से ऐसा करने के लिए कहेगा तो उस पर झगड़ेगा, फ़साद करेगा और शायद मार-पीट तक नौबत आ जाए। इसका कारण क्या है? इसका कारण सिर्फ़ यह है कि बाप के साथ जो पवित्रता और आदर का सम्बन्ध है, वह इस शोध के रास्ते में रुकावट है। किसी अजनबी इनसान के साथ वह आदर और पवित्रता का लगाव नहीं होता जो बाप की मुर्दा लाश से लगाव होता है, इसलिए उसके dissection और शोध क्रिया में कोई व्यक्ति नहीं हिचकता।

पवित्र क़ुरआन ने जब यह घोषणा कर दी कि विश्व में किसी चीज़ के चतुर्दिक पवित्रता का कोई घेरा मौजूद नहीं हैं। अगर अल्लाह तआला के बाद कोई चीज़ पवित्रता के योग्य है तो वह स्वयं मानव है जिसका दर्जा अल्लाह के बाद सबसे ऊँचा है। मानव को तो पवित्रता प्राप्त हो सकती है। उसके अतिरिक्त ब्रह्मांड कि किसी चीज़ को पवित्रता प्राप्त नहीं हों सकती। अब हर चीज़ शोध का विषय बन गई। पहाड़ भी, गृह भी, सूर्य भी और चन्द्रमा भी, नदी और समुद्र भी, पशु भी और पक्षी भी। यहाँ आप यह भी देख लीजिए कि क़ुरआन के अवतरण से पूर्व मानव का ब्रमांड की वास्तविकता से परिचय का क्या हाल था, और क़ुरआन अवतरण के बाद ब्रह्मांड की वास्तविकता से मानव के परिचित होने की स्थिति क्या है। यह एक उदहारण है जिससे आपको अन्दाज़ा हो जाएगा कि पवित्र क़ुरआन की देन और अता (उपकार) विशुद्ध ज्ञान और शोध (रिसर्च), साइंस और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में क्या है। विचार कीजिए, अगर पवित्र क़ुरआन यह बंद दरवाज़ा न खोलता तो आज शोध का क़ाफ़िला अज्ञानता की किन-किन जटिल वादियों और भ्रम तथा अन्धविश्वास की किन-किन मरुभूमियों में भटक रहा होता।

पवित्र क़ुरआन का एक महत्वपूर्ण योगदान जिससे सम्पूर्ण मानव-जाति सामान्य रूप से लाभान्वित हुई और हो रही है, मानवीय एकता और बराबरी की वह स्पष्ट धारणा और दो टूक एलान है जो पवित्र क़ुरआन के द्वारा पहली बार दुनिया को प्राप्त हुई। पवित्र क़ुरआन से पूर्व संसार के हर राष्ट्र में जातीय, भाषागत, रंगभेद, क्षेत्रीयता के आधारों पर भेदभाव का व्यवहार और ऊँच-नीच व्याप्त थी। ऐसे तथ्यों और तत्वों के आधार पर, जो मानव के अपने अधिकार में न थे, मानव-मानव के बीच भेदभाव और बंटवारे को एक स्थायी स्वरूप दे दिया गया था। संसार के राष्ट्रों के बीच भेदभाव और शत्रुता की बुनियाद किसी वैचारिक या बौद्धिक या नैतिक कारण के बदले रंग, नस्ल, भाषा और भूगोल (क्षेत्रीयता) की विविधता थी, जो मानव के अधिकार-क्षेत्र से बाहर है। कोई मानव अपनी नस्ल (जाति) स्वयं नहीं चुनता, कोई व्यक्ति अपना रंग स्वयं नहीं पसन्द करता, किसी व्यक्ति की मातृभाषा का चुनाव उसके अपने हाथ में नहीं होता। यह चीज़ें वह जन्म के समय अपने साथ लाता है। इन अधिकार-क्षेत्र से बाहर की चीजों के आधार पर गरोहों और राष्ट्रों के निर्माण को क़ुरआन  मजीद एक पहचान और परिचय मात्र के साधन के तौर पर तो स्वीकार करता है, लेकिन वह इन चीजों को मानवीय एकता और बराबरी (समानता) की राह में रुकावट और बाधा बनने की अनुमति नहीं देता।

पवित्र क़ुरआन ने सर्वप्रथम यह क्रांतिकारी उद्घोषणा की कि ईश्वरत्त्व की एकता का अनिवार्य परिणाम है कि मानवीय एकता के सिद्धांत को स्वीकार किया जाए। एक पूज्य के मुक़ाबले में शेष सभी लोगों की हैसियत सिवा बन्दे (दास) के और क्या हो सकती है? “इन कुल्लु मन फ़िस्समावति वल अर्ज़ि इल्ला आतिर्रहमानि अब्दा।” (क़ुरआन:19/93) धरती और आकाश में जितनी भी जीवधारी और बुद्धि-चेतना संपन्न सृष्टि है, उसकी रहमान (कृपालु स्रष्टा) के समक्ष सिर्फ़ एक ही हैसियत है और वह है अब्दीयत (दासता, बन्दगी, ग़ुलामी)।  इस अब्दीयत में न केवल सारे इंसान बल्कि सभी फ़रिश्ते और जिन्नात एक दूसरे के शरीक और समकक्ष हैं। इस अब्दीयत की समकक्षता में न किसी क़बीला (गोत्र) को दूसरे क़बीले के मुकाबले में कोई श्रेष्ठता या पवित्रता प्राप्त है, न किसी नस्ल को दूसरी नस्ल के मुक़ाबले में, और न किसी राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र की तुलना में, यहाँ तक कि पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के राष्ट्र और जाति को भी दूसरों पर कोई श्रेष्ठता या वर्चस्व प्राप्त नहीं। 

यह बात आज शायद इतनी महत्वपूर्ण न लगती हो, लेकिन इस बात को यदि धर्मों और समुदायों के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो इसकी असाधारण क्रांतिकारी क्षमता का सही अनुमान लगाया जा सकता है। संसार के अधिकतर प्राचीन धर्मों के आम प्रचलन के विपरीत इस्लाम में किसी नस्ल या क़बीले को कोई धार्मिक पवित्रता प्राप्त नहीं। इस्लाम के इतिहास में कोई शासक या हाकिम, बद से बदतर हालात में भी सूर्यवंशी या चंद्रवंशी कहलाने का साहस नहीं कर सका।

वर्गों की चपेट में कुचली हुई मानवता और भेदभाव के व्यवहार की मानव-जाति के लिए यह पैग़ाम (संदेश) एक बहुत बड़े परिवर्तन और क्रांति का आह्वान था कि “कुल्लुकुम अब्नाउ आदम एवं आदमु मिन तुराब।” (हदीस) अर्थात “तुम सब एक पिता आदम की संतान हो और आदम मिट्टी से बनाए गए।” (यह तथ्य स्वीकार कर लेने के बाद गर्व और श्रेष्ठता के सारे दावे धराशायी हो गए) अब न बनी-लावी के जैसे विशिष्ट धार्मिक अधिकार किसी को प्राप्त होंगे, और न ब्राह्मणों जैसी जन्मजात जातीय श्रेष्ठता और प्रभुत्व। अब हर इंसान सीधे तौर पर हर समय, हर क्षण, हर जगह और हर हालत में ब्रह्मांड के स्रष्टा से संपर्क स्थापित कर सकता है। वह (स्रष्टा) हर एक की सुनता है और हर एक की पुकार का सीधे तौर पर उत्तर देता है: उजीबु दावतद-दाई इज़ा दआन (क़ुरआन:2/186) “मैं हर पुकारनेवाले की पुकार का जवाब देता हूँ जब वह मुझको पुकारता है।” अब न तो दुआएँ और विनतियाँ स्वीकार करनेवाले माध्यमों (बिचौलियों) की जरूरत है, न मुआवज़ा (फ़ीस) लेकर गुनाहों को बख़्शवाने वालों की (और न ही तंत्र-मंत्र, पूजा सामग्री और विधि-विधान की)। पवित्र क़ुरआन ने ये सब श्रृंखलाएँ (Links) और पराश्रितता (Dependency) समाप्त कर दीं।

मानवीय एकता ही की बरकतों में एक महत्वपूर्ण बरकत और क़ुरआन की एक और बख़्शिश (अनुदान) मानवीय श्रेष्ठता की वह धारणा है जिसमें कोई अन्य धार्मिक या भौतिक किताब पवित्र क़ुरआन के समतुल्य और समकक्ष नहीं।

यह किताब आरंभ ही में मानवीय एकता और आदम की खिलाफ़त (ईश-प्रतिनिधित्व) की परिकल्पनाओं की शिक्षा देती है। वह शिक्षा जो आगे चलकर पूरी किताब में जगह-जगह नए-नए अंदाज़ और नई शैली में वर्णन की गई है। यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी की इस्लामी शरीअत के पूरे विधान संग्रह और फ़िक़्ह इस्लामी का संपूर्ण भंडार इसी मानवीय प्रतिष्ठा और गरिमा के व्यवहारिक विवरण से अभिप्रेत है।

क़ुरआन पाक की एक बड़ी देन बुद्धि और वह्य (ईश-प्रकाशना) तथा धर्म और ज्ञान के बीच वह संतुलन और समरसता है जो क़ुरआन और क़ुरआन द्वारा स्थापित शरीअत के अलावा हर जगह अनुपलब्ध है। दुनिया आज भी इस संतुलन से अपरिचित है जो मानव जीवन को सदियों से क्रियाशील खींचा-तानी से मुक्ति दिला सके, जिसमें धर्म और ज्ञान के बीच चिरकाल से उपस्थित अन्तर्विरोध और संघर्ष ने उसको घेर रखा है। संसार के इतिहास में कुछ धर्मो ने अपनी सूझ के अनुसार वह्य और रूहानियत का दामन थामा, लेकिन परिणाम यह निकला कि बुद्धि एवं विवेक की सारी मांगें धरी की धरी रह गईं और धर्म अंततः हर प्रकार की बुद्धिहीनता का संकलन बनकर रह गया। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप आधुनिक युग ने बुद्धि और विवेक के साथ जुड़े रहने का निर्णय किया और बुद्धि प्रवणता के जोश में धर्म को हर जगह से निर्वासित कर दिया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज मानव जीवन हर प्रकार के नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों से तीव्रता के साथ वंचित होता चला जा रहा है।

पवित्र क़ुरआन एकमात्र वह किताब है जिसने विशुद्ध धार्मिक मामलों में बुद्धि को और विशुद्ध सांसारिक मामलों में धार्मिक मार्गदर्शन को उचित और प्रभावकारी नेतृत्व प्रदान किया। बुद्धि एवं सूझ-बूझ तथा ज्ञान एवं चेतना पर जितना बल इस किताब में दिया गया है, किसी भी अन्य धार्मिक ग्रंथ में नहीं दिया गया। विशुद्ध धार्मिक मामलों, धारणाओं (आस्थाओं) और इबादतों की गहराई और तत्वदर्शिता (Wishdom) का वर्णन करने में बौद्धिक प्रमाणीकरण की क्रिया क़ुरआन के पृष्ठों पर  बिखरी हुई है। दूसरी ओर विशुद्ध भौतिक एवं सांसारिक तथा व्यवस्था संबंधी मामलों में धर्म और नैतिकता तथा आध्यात्मिकता (रूहानियत) के सिद्धांतों का हवाला (दृष्टांत) क़ुरआन की प्रमाणीकरण-शैली का एक अनोखा अन्दाज़ है।

ज्ञान और चिंतन की दुनिया पर क़ुरआन पाक का एक बहुत बड़ा उपकार उसकी वह वैज्ञानिक विधि और प्रमाणीकरण-शैली है जिसने आगे चलकर तर्कशास्त्र की आगमन पद्धति का विकास किया। पवित्र क़ुरआन ने तौहीद (एकेश्वरवाद) और मरणोपरांत जीवन की धारणा को लोगों के लिए बोधगम्य कराने की जो शैली अपनाई वह अंश के अध्ययन से अंशी (संपूर्ण) तक पहुँचाने की शैली है। पवित्र क़ुरआन एक बड़ी हक़ीक़त को बोधगम्य बनाने के लिए रोजमर्रा (दैनिक) जीवन से बहुत-से उदाहरण प्रस्तुत करता है। ये ऐसे उदाहरण होते हैं जिन पर गहराई से सोच-विचार करने से एक ही परिणाम उपलब्ध होता है। यह वह परिणाम होता है जो अन्ततः बड़ी हक़ीक़त (वास्तविकता) की ओर संकेत करता है जो क़ुरआन पाक बताना चाहता है।

यह शैली मक्का में अवतरित होनेवाली सूरतों (अध्यायों) में धारणाओं और आस्थाओं के विषयों के अंतर्गत अधिकता से नजर आती है। इसने विज्ञान और चिंतन का संबंध सांसारिक वास्तविकताओं से जोड़ा और यूनानी ढंग की मात्र काल्पनिक उड़ानवाली चिंतन पद्धति के विपरीत प्रत्यक्ष अनुवीक्षण और प्रयोग के महत्व को प्रतिष्ठित किया। यह वह चीज है जिसने यूनानी ढंग के निर्गमन तर्कशास्त्र के मुकाबले में एक नया तर्कशास्त्र आगमन तर्कशास्त्र को जन्म दिया। वैसे भी पवित्र क़ुरआन जैसी क्रांतिकारी किताब के लिए जो कल्पना और हवाई चिंतन से ज्यादा व्यवहार (प्रयोग) और संघर्ष पर बल देती है 'निर्गमन शैली' के मुकाबले में 'आगमन शैली' ही संतुलित और उपयुक्त हो सकती है।

पवित्र क़ुरआन की इन देनों एवं उपकारों के उदाहरण और भी दिए जा सकते हैं, लेकिन इससे बात लंबी हो जाएगी और मूल विषय से हटकर दूर चली जाएगी। इसलिए एक और उदाहरण प्रस्तुत करके यह वर्णन समाप्त करता हूँ। इसी एक उदाहरण को पर्याप्त समझें। इससे इस बात का और अधिक अंदाजा हो जाएगा कि यदि एक गैर-मुस्लिम न्यायप्रियता के साथ यह देखना चाहे कि पवित्र क़ुरआन के प्रभाव संपूर्ण मानव-जाति पर क्या पड़े हैं तो उसको बहुत जल्द यह एहसास हो जाएगा कि यह किताब मानव जगत् की सबसे बड़ी उपकारी पुस्तक है। यह एहसास ही उसको पवित्र क़ुरआन का अध्ययन करने पर संजीदगी से (दृढ़तापूर्वक) आकृष्ट कर सकता है।

वह दृष्टिकोण यह है कि इस्लाम से पहले इनसानों के धार्मिक जीवन की सारी बागडोर कुछ विशिष्ट वर्गों के हाथ में होती थी। धर्मों के इतिहास का हर अध्येता यह बात अच्छी तरह जानता है कि इस्लाम से पहले हर धर्म मैं धार्मिक जीवन पर निश्चित समूहों और विशिष्ट वर्गों का एकाधिकार होता था। यह एकाधिकार (Monopoly) यहाँ तक बढ़ गया था कि आख़िरत (परलोक) में पापों की माफ़ी (मुक्ति) तक के अधिकार धार्मिक ठेकेदार वर्गों ने अपने हाथों में ले रखे थे। ऐसे उदाहरण भी मौजूद है कि धार्मिक गुरु रिश्वतें (घूस) लेकर गुनाहों की माफ़ी के प्रमाण-पत्र जारी किया करते थे। इस्लाम के अलावा अन्य धर्मों में आज भी धार्मिक गुरु विशिष्ट अधिकार और एकाधिकार का दावेदार है। वह किसी मंदिर या मठ का पंडित या पुरोहित हो, किसी गिरजाघर का पादरी हो, कोई रिब्बी (यहूदी धर्मगुरु) हो या कोई और धार्मिक पदाधिकारी हो, अपने धर्म में वही धार्मिक जीवन का एकाधिकारी है। वह ईश्वर और मनुष्य के बीच कोई सीधा संपर्क स्थापित नहीं होने देता। कहने को तो वह मानो गुनहगार इंसानों और उनके स्रष्टा (ईश्वर) के बीच पैरवीकार की हैसियत रखता है, लेकिन वास्तव में वह ईश्वर और बंदे के बीच एक रुकावट की हैसियत रखता है। पहले भी दुनिया में हर जगह यही रीति थी, और आज भी यही रिवाज है। कल भी यही ग़लतफ़हमी पाई जाती थी और आज भी बहुत-सी जगहों पर यही ग़लतफ़हमी पाई जाती है।

पवित्र क़ुरआन वह पहली किताब है जिस ने इन सभी रुकावटों को समाप्त करके एलान किया कि “मुझे पुकारो, मैं तुम्हारी पुकार सुनूँगा।” हर इंसान जब दिल की गहराइयों के साथ दुआ करता है तो सीधे (Direct) प्रकाश-गति से भी ज्यादा तेज़ गति से उसकी दुआ अल्लाह तआला के पास जा पहुँचती है। “जब भी पुकारनेवाला मुझे पुकारता है, मैं उसकी पुकार का जवाब देता हूँ।” देखने में यह छोटी-छोटी दो आयतें हैं। लेकिन उनके महत्व पर जितना अधिक विचार करेंगे तो पता चलेगा कि विश्व में इन दो आयतों ने कितनी बड़ी क्रांति लाई है। विचार करने से ही अंदाजा होता है कि पवित्र क़ुरआन के लाई हुई इस क्रांति की श्रेष्ठता और महानता कितनी है। इस एलान ने धार्मिक ग़ुलामी के एक निकृष्टतम प्रकार को मलियामेट कर के रख दिया है। पवित्र क़ुरआन के इस क्रांतिकारी आह्वान का वर्णन करते हुए अल्लामा इक़बाल फ़रमाते हैं—

नक़्शो-क़ुरआन ता दरी आलम नशिस्त,

नक़्श-हाए काहिनो-पापा शकिस्त।

अर्थात “जबसे इस क़ुरआन का नक़्श (छाप) क़ायम हुआ है, उसने काहिनों और पॉपों के नक़्श को मिटा कर रख दिया है।” यह वह चीज़ है जिसको आज ग़ैर-मुस्लिम भी स्वीकार करते हैं। ग़ैर-मुस्लिम जातियाँ जो नई वैज्ञानिक धारणाओं से परिचित हुईं वे क़ुरआन के अवतरण के बाद की घटनाएँ है। ये पवित्र क़ुरआन के उन पहलुओं के मात्र कुछ चलते-फिरते संक्षिप्त उदाहरण हैं जिनके कारण एक ग़ैर-मुस्लिम को भी क़ुरआन का अध्ययन करना चाहिए। इन उदाहरणों से एक ग़ैर-मुस्लिम को भी यह अंदाज़ा होना चाहिए कि यह किताब साधारण किताबों की तरह की कोई किताब नहीं है, बल्कि यह तो एक ऐसी किताब है जिसने दुनिया को एक नई क्रांति, नई संस्कृति, नई सभ्यता, नए कानून, नई धारणाएँ, नई सांस्कृतिक विशिष्टता और पूरे मानव जीवन को एक नए चलन और नए ढंग वह तौर-तरीके से परिचित करवाया है। अगर लोग इस नए ढंग और नए चलन को जानना चाहते हैं तो फिर उन्हें पवित्र क़ुरआन का अध्ययन करना चाहिए।

अब इस प्रश्न के दूसरे भाग को लीजिए कि एक मुसलमान को पवित्र क़ुरआन का अध्ययन क्यों करना चाहिए? मुसलमान को क़ुरआन का अध्ययन इसलिए करना चाहिए कि पवित्र क़ुरआन ही मुसलमानों की ज़िंदगी की आधारशिला है। जिस अंतर्राष्ट्रीय समुदाय (International community) को हम 'मुस्लिम उम्मत' कहते हैं (जिसके लिए कभी-कभी 'इस्लामी मिल्लत' की पारिभाषिक शब्दावली प्रयुक्त होती है) उसकी बुनियाद सिर्फ़ पवित्र क़ुरआन है। पवित्र क़ुरआन के अतिरिक्त मुस्लिम उम्मत की कोई बुनियाद नहीं है। पवित्र क़ुरआन हमारे पास दो रूपों में आया है—

1. वाचाल क़ुरआन, अथार्त बोलता क़ुरआन

2. मूक क़ुरआन, अथार्त मौन या ख़ामोश क़ुरआन।

मूक (मौन) क़ुरआन तो यह किताब है जो ख़ुद तो नहीं बोलती, लेकिन हम उसे पढ़ते हैं और उसके द्वारा अल्लाह तआला हमें संबोधित करता है। वाचाल क़ुरआन अर्थात बोलता हुआ क़ुरआन वह महान व्यक्तित्व है (ईश्वर की कृपा और सलामती हो उसपर) जिसने क़ुरआन को दुनिया तक पहुँचाया, उसकी व्याख्या की और इस क़ुरआन को आचरण में लाकर उसका व्यावहारिक नमूना दिखाया। उस व्यक्तित्व के बारे में उसके निकटतम साथी (विदुषी पत्नी) हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने कहा था कि जनाब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का आचरण ठीक पवित्र क़ुरआन के अनुकूल था। किसी ने उनसे पूछा था की अम्माँ! अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के आचरण के बारे में कुछ बताइए। आपने प्रश्न करनेवाले से पूछा: क्या तुम पवित्र क़ुरआन नहीं पढ़ते? उसने उत्तर दिया कि जी हाँ, पढ़ता हूँ। आपने फ़रमाया : आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का नैतिक आचरण और व्यवहार ठीक वही था जो क़ुरआन कहता है और जो हमें क़ुरआन में लिखा हुआ मिलता है। अतएव पवित्र क़ुरआन मूक क़ुरआन है और पैग़म्बर का व्यक्तित्व वाचाल क़ुरआन है।

आज हमारे पास मूक क़ुरआन भी ठीक उसी तरह मौजूद है और वाचाल क़ुरआन के मुख से निकले हुए प्रवचन अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दिए गए स्पष्टीकरण आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के द्वारा स्थापित तरीके और राहें, सब कुछ उसी तरह मौजूद है जिस तरह आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपने लोगों को देकर गए थे। इसके बावजूद आज मुसलमानों के व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन में पवित्र क़ुरआन को वह प्रतिष्ठित पद प्राप्त नहीं जिसकी यह किताब हक़दार है। हमारा यह युग इस दृष्टि से अत्यंत चिन्ताजनक और कष्टकर है कि पवित्र क़ुरआन से आज हमारा वह सुदृढ़ सम्बंध टूटता हुआ दिखाई देता है जिसने हमारे सामुदायिक चरित्र को सुरक्षा प्रदान की।

आज हममें से बहुत-से लोगों का पवित्र क़ुरआन से वह संबंध नहीं रहा जो होना चाहिए। इसकी भविष्यवाणी भी क़ुरआन के अंदर मौजूद है—

“विचार करो, उस समय क्या हाल होगा जब रसूल अल्लाह के दरबार में शिकायत करेंगे कि ऐ रब! मेरी इस क़ौम ने क़ुरआन को छोड़ रखा था।” (क़ुरआन : 25/30)

पवित्र क़ुरआन को छोड़ने के विविध रूप हो सकते हैं। यह समझना कि पवित्र क़ुरआन को छोड़ने का कोई निश्चित पैमाना या मापदंड होता है, और वह अभी तक सामने नहीं आया, एक बड़ी ख़तरनाक ग़लती है। यह समझना ठीक नहीं होगा की क़ुरआन को छोड़ने और विमुख होने का पड़ाव अभी नहीं आया। क़ुरआन छोड़ने की यह ख़तरनाक स्थिति आ चुकी है। क़ुरआन छोड़ना आख़िर क्या है? यही न कि क़ुरआन के शब्दों से संबंध टूट जाए, क़ुरआन का पठन करना लोग छोड़ दें, क़ुरआन को समझने की ज़रूरत का एहसास न रहे, क़ुरआन के शिक्षण-प्रशिक्षण से रुचि समाप्त हो जाए, लोग क़ुरआन के आदेशों का पालन करना छोड़ दें, क़ुरआन को क़ानून का मौलिक एवं प्राथमिक तथा सर्वोच्च स्रोत स्वीकार करने से व्यवहारिक तौर पर इंकार कर दें— ये सारी चीज़ें क़ुरआन को छोड़ने ही के विविध आयाम हैं।

एक वह युग था की सहाबा (रसूल के अनुयायियों) ने क़ुरआन को संसार के कोने-कोने में फैलाया। इस विषय पर कल या परसों, अल्लाह ने चाहा तो विस्तृत चर्चा होगी जिसमें हम यह देखेंगे कि सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने क़ुरआन को किस-किस अन्दाज़ और किस प्रकार की मेहनत से सुरक्षित रखा, और किन-किन विधियों से काम ले कर इसको आम किया। लेकिन इस समय सिर्फ़ यह संकेत करना उद्देश्य है कि सहाबा ने ताबिईन (सहाबा से शिक्षा प्राप्त करनेवालों) कि जो नस्ल तैयार की और फिर ताबिईन ने 'तबा ताबिईन' (उनकी अगली नस्ल) जो तैयार की, उन्होंने मुसलमानों के स्वभाव, संस्कृति, और मुस्लिम समाज की जड़ों में पवित्र क़ुरआन को इस तरह रचा-बसा दिया कि जो व्यक्ति इस समाज में प्रवेश कर गया, वह पवित्र क़ुरआन के रंग में रंग गया। एक पूरी नस्ल चीन से लेकर मोरक्को तक और साइबेरिया की सीमाओं से लेकर सूडान के दक्षिण तक ऐसी पैदा हो गई जिसके सोचने-समझने का अंदाज़ क़ुरआन की शिक्षा के अनुकूल, जिसकी विचारधारा और आस्था पवित्र क़ुरआन द्वारा प्रदत चिन्तन और भावनाओं से ओत-प्रोत, जिसकी कार्यप्रणाली क़ुरआन के आदेशों पर आधारित और जिसका व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन का हर पहलू क़ुरआन के शाश्वत प्रकाश से जगमग था। वहाँ हर घर क़ुरआन का पाठशाला था, वहाँ हर मस्जिद क़ुरआन का विश्वविद्यालय था, वहाँ हर बस्ती क़ुरआन के प्रशिक्षण का केंद्र थी, वहाँ हर शिक्षण संस्थान में ज्ञान विज्ञान तथा चिन्तन एवं विचारधारा की बुनियाद अल्लाह की किताब थी।

यदि इस दृष्टि से मुसलमानों के इतिहास का परीक्षण किया जाए कि पवित्र क़ुरआन को आधार बनाकर उन्होंने ज्ञान और कला को कितनी प्रगति दी और किस प्रकार क़ुरआनी चिन्तन को सार्वजनिक किया तो अक़्ल को हैरान कर देनेवाली मानवीय चेष्टाओं के अद्भुत और दुर्लभ उदाहरण सामने आएँगे। जब इब्ने-बतूता ने विश्व का भ्रमण किया और यात्रा करते हुए वह दिल्ली पहुँचा तो दिल्ली शहर में उसने देखा कि एक हज़ार मदरसे (शिक्षण संस्थान) थे जहाँ न सिर्फ़ पवित्र क़ुरआन की शिक्षा दी जाती थी, बल्कि सारे ज्ञान-विज्ञान एवं कला की जो शिक्षा उन मदरसों में दी जाती थी वह क़ुरआन के दिए हुए पैग़ाम की व्याख्या और विश्लेषण पर आधारित थी। यह तो इब्ने-बतूता के ज़माने की बात है जो आज से लगभग आठ-नो सौ साल पहले यहाँ आया था। (इब्ने-बतूता मुहम्मद-बिन-तुग़लक़ के शासनकाल में आया था और अपनी विद्वता के कारण सर्वोच्च न्यायधीश के पद पर सुशोभित हुआ था) लेकिन आज से लगभग डेढ़-दो सौ साल पहले जब अंग्रेज आरंभिक दौर में इस इलाके में आने शुरू हुए तो ठट्ठा जैसे शहर में जो केंद्रीय सत्ता से हज़ारों कोस दूर, सांस्कृतिक केंद्र से परे और आर्थिक दृष्टि से अपेक्षाकृत एवं पिछड़ा प्रदेश था, सैकड़ों शिक्षण संस्थान स्थापित थे। वहाँ हज़ारों उच्च कोटि के उलमा (ज्ञानी) ज्ञान-विज्ञान और कलाओं के शिक्षण-प्रशिक्षण में व्यस्त थे। खुद अंग्रेज़ यात्रियों एवं पर्यटकों ने वर्णन किया कि उस युग में चार सौ मदरसे ठट्ठा में मौजूद थे। यह अट्ठारहवीं सदी के अंतिम और उन्नीसवीं सदी के आरंभिक दौर की बात है। इस आश्चर्यजनक और अनुपम शैक्षिक उन्नति एवं चहल-पहल का एकमात्र कारण यह है कि पवित्र क़ुरआन जैसी बौद्धिक एवं तार्किक किताब मुसलमानों की रगों में इस तरह रची-बसी थी कि उनका पूरा जीवन क़ुरआन की शिक्षाओं से ओत-प्रोत था।

फिर एक युग आया जब मुस्लिम संस्थान एक-एक करके कमज़ोर पड़ गए, मुसलमानों की संस्कृति धूमिल हो गई। मुसलमानों का संबंध पवित्र क़ुरआन से क्षीण होता गया और एक ऐसी नस्ल सामने आ गई जो पवित्र क़ुरआन से उसी तरह अपरिचित थी जैसे कोई ग़ैर-मुस्लिम अपरिचित होता था। सिर्फ़ सौ सवा सौ साल के अन्दर-अन्दर क्या से क्या हो गया। इसका अनुमान लगाने के लिए मेवात की हालत का निरीक्षण कीजिए। उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के आरंभ में, कहीं दूर नहीं, बल्कि दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्र में जो मुसलमानों का केंद्र था, उसके क़रीबी इलाक़े मेवात के बारे में सुना गया है कि वहाँ एक पूरी नस्ल ऐसी रहती थी जो अपने बारे में यह दावा तो करती थी कि वह मुसलमान है, लेकिन इस दावे के अतिरिक्त उनके अंदर कोई चीज़ इस्लाम से संबंधित शेष नहीं रह गई थी। उस ज़माने में तब्लीग़ी जमाअत के संस्थापक और प्रसिद्ध बुजुर्ग मौलाना मुहम्मद इलियास को वहाँ जाने का संयोग हुआ। उन्होंने उन लोगों से पूछा कि तुम मुसलमान हो या ग़ैर-मुस्लिम? उन्होंने जवाब दिया कि हम मुसलमान हैं। मौलाना ने पूछा: नमाज़ पढ़ते हो? बोले: नमाज़ तो हमने कभी नहीं पढ़ी। जब उनसे नाम पूछे गए तो ऐसे नाम बताए गए जो या तो पूरे के पूरे हिंदूआना नाम थे, या जिनमें आधे नाम इस्लामी और आधे हिंदूआना थे। जैसे मुहम्मद सिंह, हुसैन सिंह आदि। मौलाना ने पूछा कि तुम लोगों ने कभी क़ुरआन पाक पढ़ा है। जवाब मिला: पढ़ा तो नहीं, लेकिन हमारे बाप-दादा के ज़माने से चला आ रहा है। मौलाना ने फरमाया, लाकर दिखाओ। जब उन्होंने पवित्र क़ुरआन की प्रति लाकर प्रस्तुत की तो वह गाय के गोबर से लिपटा हुआ था। हिंदू गाय के गोबर को पवित्र मानते हैं, इसलिए कि वह गाय का गोबर है जो उनके लिए पवित्रता का केंद्र है। उन्होंने यह समझा कि क़ुरआन के पवित्र दर्जे और मर्तबे की यह अनिवार्यता है कि उसके ऊपर इस पवित्र गोबर को लपेट और पोत दिया जाए।

यह स्थिति थी बीसवीं सदी के आरंभ से थोड़ा पहले, जिससे यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि मुसलमानों के एक बड़े तबक़े का पवित्र क़ुरआन से संबंध कितना और किस प्रकार का रह गया था। अतएव 19वीं सदी के आरंभ, बल्कि 18वीं सदी के अंत में जब यह अनुभूति जन्म लेनी शुरू हुई कि मुसलमानों के एक वर्ग का, विशेष रूप से साधारण जनता का, पवित्र क़ुरआन से संबंध कमज़ोर पड़ता जा रहा है तो उस युग के ज्ञानवानों ने जनसाधारण को पवित्र क़ुरआन से परिचित करवाने के लिए इसी प्रकार के सार्वजनिक शिक्षण को रिवाज दिया, जिस तरह के सार्वजनिक शिक्षा देने का सौभाग्य आप में से अधिकतर लोगों को प्राप्त हो रहा है, और पहला सार्वजनिक क़ुरआन शिक्षण शाह अब्दुल अज़ीज़ (मुहद्दिस देहलवी) ने शुरू किया था। वे दिल्ली में लगभग 60 साल क़ुरआन शिक्षण का आयोजन करते रहे।

शाह अब्दुल अज़ीज़ (मुहद्दिस देहलवी) और उनका पूरा परिवार इस दृष्टि से इस उपमहाद्वीप के मुसलमानों का मुहसिन है कि उन्होंने मुसलमानों का रिश्ता क़ुरआन पाक और हदीसे-नबवी से जोड़ा। शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी और उनके पिता शाह वलियुल्लाह मुहद्दिस देहलवी ने पवित्र क़ुरआन के अध्ययन को जनसाधारण स्तर पर परिचित कराने में अत्यंत उच्च स्तर की सेवाएँ प्रदान की। दोनों व्यक्ति क़ुरआन के बड़े व्याख्याता थे।

शाह अब्दुल अज़ीज़ की तफ़सीर (क़ुरआन की टीका) “तफ़्सीरे-अज़ीज़ी” शायद आपने देखी हो, वह क़ुरआन पाक की कुछ उत्तम तफ़सीरों में से एक है, यह एक अधूरी तफ़सीर है। शुरू में सूरा फ़ातिहा और सूरा बक़रा के लगभग आधे भाग अथार्त् दूसरे पारे की आयत “व अलल्लज़ी-न युतीक़ूनहू....”(आयत:184) तक है। और फिर अंत में 29वें और 30वें पारे की तफ़सीर है जो उपलब्ध है। शेष भागों की तफ़सीर या तो हज़रत शाह साहब ने लिखी नहीं, या अब उसका अस्तित्व नहीं है।

[1857 के ग़दर में दिल्ली की ऐसी तबाही हुई की कोई चीज़ सुरक्षित न रह सकी पुस्तकें जलाई गईं, मस्जिदें तोड़ी गई, यादगारों को मिटाया गया। जान-माल की हानि की कोई सीमा न थी। फिर बाद में दिल्ली दोबारा आबाद हुई। लेकिन तफ़सीर के जितने भाग उपलब्ध हो सके हैं वह क़ुरआन के ज्ञान का अमूल्य भंडार है।———अनुवादक]

शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी ने सिर्फ़ तफ़सीर ही लिखने तक अपने काम को सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्होंने सबसे पहले उपमहाद्वीप में जनसाधारण के स्तर पर 'दर्से-क़ुरआन' (क़ुरआन का भौतिक ज्ञान प्रसार) का काम भी शुरू किया। लेकिन शाह अब्दुल अज़ीज़ के निधन के कुछ सालों बाद शीघ्र ही आज़ादी की लड़ाई का आंदोलन शुरू हो गया। अन्ततः 1857 का विकराल हंगामा शुरू हो गया। अंग्रेज इस आंदोलन को विफल करके पूर्ण रूप से क़ब्ज़ा जमाने में सफल हो गए और मुसलमानों के सारे संस्थान एक-एक करके समाप्त हो गए और यह दर्स जो शाह अब्दुल अज़ीज़ ने एक अनोखे अंदाज़ में शुरू किया था उपमहाद्वीप में आगे न बढ़ सका। उसके बाद लगभग 60-70 साल की अवधि तक क़ुरआन से संबंध जोड़ने की वह स्थिति उपमहाद्वीप में फिर समाप्त हो गई।

फिर वर्तमान पाकिस्तान के इलाक़ों में 20वीं सदी के आरंभ में कुछ बुजुर्गों ने इस काम को नए सिरे से शुरू किया, जिनमें प्रमुखता से मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी और उनके प्रसिद्ध अनुयायी मौलाना अहमद अली लाहौरी प्रमुख हैं। मौलाना अहमद अली लाहौरी ने सर्वप्रथम लाहौर में 1925 के लगभग अवामी दर्से-क़ुरआन का सिलसिला शुरू किया, जो 40-45 साल तक, जब तक मौलाना ज़िन्दा रहे, जारी रहा। उसके बाद अल्लाह ताआला का फ़ज़्ल और करम है कि पाकिस्तान के चप्पे-चप्पे में दर्से-क़ुरआन की महफ़िलें जारी हैं। और विविध स्तरों और विविध ढंग से ये कोशिशें हो रही है कि उपमहाद्वीप के मुसलमानों को सामान्य रूप से और पाकिस्तान के मुसलमानों को विशिष्ट रूप से पवित्र क़ुरआन के प्लेटफ़ार्म पर एकत्र किया जाए।

आपने सुना होगा, मैंने भी सुना है। आपने देखा होगा, मैंने भी देखा है कि हमारे कुछ परंपरागत उलमा को अवामी अंदाज़ के इस दर्से-क़ुरआन के बारे में कुछ आरक्षण हैं। वे समय-समय पर उन आरक्षणों को प्रकट भी करते रहते हैं। आरक्षणों के प्रकट करने में कभी-कभी उनमें से कुछ का विरोध कठोर और अनुचित भी होता है। लेकिन आप इससे प्रभावित न हों। अपना काम जारी रखें। अल्लाह ने चाहा तो लोगों को जो आरक्षण हैं वे समय बीतने के साथ-साथ समाप्त हो जाएँगे। पेड़ अपने फल से पहचाना जाता है, अपने नाम और शक्ल से नहीं।

जब आपकी इस मुबारक कोशिश के अच्छे फल लोगों के सामने आएँगे तो ये सारे आरक्षण स्वयमेव एक-एक करके समाप्त हो जाएँगे।

जब हम दर्से-क़ुरआन की शैली और विधि की बात करते हैं तो हमारे सामने दो चीज़ें रहनी चाहिएँ। सबसे पहली चीज़ जो विशिष्ट रूप से ध्यान और गहन चिंतन के योग्य है वह यह है कि आपके दर्से-क़ुरआन के उद्देश्य क्या हैं। अर्थात यदि आप क़ुरआन पाक का दर्स दे रही हैं तो क्यों दे रही हैं। और अगर कहीं दर्स शुरू करने का इरादा है तो क्यों है? अर्थात् दर्स दें तो क्यों दे?

फिर जब एक बार उद्देश्य का निर्धारण हो जाए तो फिर वह भी तय करना चाहिए कि आपके इस प्रस्तावित दर्से-क़ुरआन के श्रोता कौन है। सुननेवाले का निर्धारण करना सबसे प्राथमिक और सबसे महत्वपूर्ण बात है। इसका कारण यह है कि जब तक आपके किसी लेसन या भाषण या कोई श्रोता निर्धारित न हो, या कम से कम यह तय न हो कि आपके श्रोताओं की बौद्धिक क्षमता और ज्ञान एवं चिंतन का स्तर क्या है उस समय तक आपके लिए अपने दर्स, भाषण, लेखन या वार्तालाप का कोई मानक स्थिर करना और उसे सामने रखना बड़ा कठिन बल्कि असंभव होगा। जितना ऊँचा स्तर आपके श्रोता का होगा उतना ही ऊँचा मानक आपकी बौद्धिक कोशिश और प्रयत्न का होगा। पवित्र क़ुरआन के सर्वप्रथम संबोधित पैगंबर हैं। अल्लाह ताआला ने फ़रमाया, पैग़म्बर अलैहिस्सलाम ने सुना। आपके मुबारक दिल पर जिबरील अमीन लेकर नाज़िल हुए। अतः पवित्र क़ुरआन के सर्वप्रथम संबोधित का जो दर्जा और मक़ाम है वैसी ही पवित्र क़ुरआन की शान और मक़ाम है।

आपने शायद मसनवी मौलाना रूम पढ़ी होगी। और अगर नहीं पढ़ी तो नाम तो अवश्य सुना होगा। एक जमाने में मसनवी मौलाना रूम इस्लामी दुनिया की अदबियात (साहित्य) की शायद सबसे लोकप्रिय किताब थी। अगर यह कहा जाए तो शायद ग़लत न होगा कि पवित्र क़ुरआन के बाद जो कतिपय किताबें मुसलमानों में लोकप्रियता की पराकाष्ठा पर पहुँचीं उनमें से एक मसनवी मौलाना रूम भी थी। उसके बारे में किसी ने कहा था: “हस्ते-क़ुरआँ दर ज़बाने पहलवी (यह फारसी भाषा में क़ुरआन ही है)”।

जब मौलाना रूम मसनवी लिख रहे थे तो उनके संबोधित दो महान दोस्त थे। एक 'ख़्वाजा हुस्सामुद्दीन चलपी ओर एक शैख़ ज़ियाउद्दीन ज़रकूब' इन्हीं दोनों को संबोधित करके उन्होंने पूरी मसनवी लिखी। और फिर पूरी मसनवी में उनका वह मापदंड यथावत रहा, जो उनके उन दोनों संबोधित साथियों का था।

अतः दर्से-क़ुरआन की शैली और तरीक़े पर बात करते हुए हमें यह अवश्य ध्यान देना और देखना चाहिए कि हमारे इस दर्स के संबोधित कौन है। संबोधित का ख़याल रखना इसलिए भी आवश्यक है कि संबोधित लोगों के बहुत से ज्ञान और चिंतन के स्तर होते हैं। बहुत-सी पृष्ठभूमियाँ होती हैं और उन सब की अपेक्षाएँ अलग-अलग होती है। कभी-कभी दर्से-क़ुरआन को संबोधित एक सामान्य शिक्षा प्राप्त नागरिक होता है। उसकी अपेक्षाएँ और आवश्यकताएँ अलग होती है। अगर दर्से-क़ुरआन का संबोधित कोई उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति है तो उसकी अपेक्षाएँ और होंगी तथा उसका मानदंड भी और होगा। अगर कला की शिक्षा के निष्णात लोग आपके दर्स के संबोधित है, उदाहरणार्थ एक क़ानून शिक्षा का निष्णात है, एक दर्शन का निष्णात है तो ऐसे लोगों के तक़ाज़े और होंगे। लेकिन अगर आप के दर्स के संबोधित गण पवित्र क़ुरआन के निष्णात, जैसे दर्से-निज़ामी के छात्र या उलमा हैं तो उनकी आवश्यकताएँ और अपेक्षाएँ और होंगी। इसलिए पहले यह निश्चित कर लेना चाहिए कि हमारा लक्ष्य क्या है और हम किस वर्ग को संबोधित करना चाहते हैं। जिस वर्ग और जिस स्तर के लोगों से बात करनी हो उस वर्ग की बौद्धिक पृष्ठभूमि, उसके दिमाग़ में उत्पन्न होनेवाले संदेहों, उस वर्ग में उठाए जानेवाले प्रश्नों, और उन संदेहों और प्रश्नों का मंशा पहले से हमारे सामने होना चाहिए।

अतः यदि आपके संबोधित सामान्य शिक्षित लोग हैं तो दर्स का पैमाना और मानदंड और होगा और यदि उच्च शिक्षा प्राप्त लोग हैं तो उनके लिए पैमाना और मानदंड और होगा। और यदि उच्च शिक्षा प्राप्त लोग हैं तो उनके लिए दर्स का पैमाना और मानदंड भिन्न होगा, और यदि इस्लामी शिक्षा के निष्णात विद्वान होंगे तो उनके लिए अलग होगा। फिर जिस वर्ग के लिए जिस पैमाने और मानदंड का दर्स होगा उसी तरह की तैयारी भी उस दर्स के लिए करनी पड़ेगी। यह समझना कि पवित्र क़ुरआन को एक बार पढ़ लिया, या सुन लिया, या एक बार किसी कोर्स में सम्मिलित होने का अवसर मिल गया तो मानो ज्ञान की पराकाष्ठा प्राप्त हो गई और क़ुरआनी वास्तविकताओं और गहरा परिचय का सारा भंडार हमें पूर्णतः प्राप्त हो गया, और अब उसमें किसी बुद्धि की आवश्यकता नहीं रही, यह एक बहुत बड़ी ग़लती और ग़लतफ़हमी है। याद रखिए कि यह सूझ-बूझ की कमजोरी है।

अल्लाह के रसूल (सल.) से बढ़कर पवित्र क़ुरआन का विद्वान कोई नहीं हो सकता। यह संभव ही नहीं है कि कोई अन्य व्यक्ति क़ुरआन के ज्ञान में क़ुरआन लानेवाले (पैग़म्बर) से बढ़ सके। आपको आरंभ और अंत के ज्ञान और उसके गहरे भेदों से परिचित कराया गया। इसके बावजूद अल्लाह ताआला ने हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को यह दुआ सिखाई: “ ऐ रब! मेरे ज्ञान में अनवरत वृद्धि प्रदान कर।” (क़ुरआन :20/114) ज्ञान में वृद्धि की दुआ ज़ाहिर में तो अल्लाह तआला ने पैग़म्बर को सिखाई है, लेकिन वास्तव में सिखाई उनके माध्यम से हमें यह शिक्षा देने के लिए है कि हममें से कोई भी किसी समय पवित्र क़ुरआन के इल्म की उस सतह तक नहीं पहुँच सकता कि फिर उसे और अधिक किसी ज्ञान की प्राप्ति की आवश्यकता न रहे। पवित्र क़ुरआन की हिकमत (तत्वदर्शिता) और पवित्र क़ुरआन की अद्धभुतता और अनोखापन अनन्त हैं। उन अनन्त अद्धभुतता ओर अनोखापन के विविध प्रकारों का वर्णन आगे होगा और उसकी कुछ झलकियाँ हम आगे किसी वार्ता में देखेंगे। यह क्रम जब तक दुनिया है अनवरत जारी रहेगा। पवित्र क़ुरआन की सच्चाई के प्रमाण विश्व में और इन्सानों के अंदर अल्लाह ताआला दिखाता चला जाएगा, यहाँ तक कि लोगों के लिए यह बात स्पष्ट हो जाएगी की यही किताब सत्य है। (क़ुरआन : 53/41)। अब यह जो नई-नई निशानियाँ और प्रमाण तथा नए-नए भेद अल्लाह ताआला इंसानों के सामने खोलता जाएगा उनसे परिचय और उनका अनवरत अध्ययन अनिवार्य है।

इसके अतिरिक्त हर आनेवाला दिन नए सवालों को लेकर आता है। आपका हर आनेवाला विद्यार्थी एक नई उलझन और एक नया संदेह और आपत्ति लेकर आएगा। हर आनेवाले माहौल में लोग क़ुरआन पाक के बारे में नए-नए संदेह पैदा करेंगे और उनसे इंसानों की सोच प्रभावित होगी। इन सब का संक्षिप्त और मौलिक जवाब पवित्र क़ुरआन में मौजूद है। इन सब आनेवाले सवालों और संदेहों का जवाब अल्लाह के रसूल ने भी दे दिया है। लेकिन इस सैद्धांतिक और संक्षिप्त जवाब को उस ढंग से समझने और वर्तमान स्थिति पर ढालने की ज़रूरत है जिससे वर्तमान युग के संदेहग्रस्त और आपत्ति उठानेवालों की उलझन दूर हो जाए। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए पहले आपत्ति और संदेह की बुनियाद और उसके मौलिक स्रोत से अवगत होना और पवित्र क़ुरआन के मार्गदर्शन का गहन अध्ययन आवश्यक है। जब तक इस समस्या को जो पवित्र क़ुरआन में मौजूद है इस सवाल से जोड़ा नहीं जाएगा उस समय तक वह जवाब हमारे सामने इस तरह स्पष्ट छान-फटक क्या हुआ और रूपायित किया हुआ (Formalized) नहीं होगा कि उसे हम उस समस्या के समाधान के स्पष्टीकरण के तौर पर दूसरों तक पहुँचा सकें और दूसरों को उसकी शिक्षा दे सकें।

पवित्र क़ुरआन का यह काम कि इक़बाल के कथानुसार 'व आयातश आसाँ बमीरी' (जान आसानी से निकलने के लिए क़ुरआन पढ़ना) यह पवित्र क़ुरआन को उसके महत्व से डिगाने के समान है। अगर कोई इंसान दुनिया से विदा हो रहा है तो निश्चय ही हदीस की शिक्षा यह है कि उस अवसर पर सूरा यासीन (क़ुरआन का सूरा न० 36) पढ़ी जाए। लेकिन पवित्र क़ुरआन का सिर्फ़ यही एक काम रह जाए कि उसकी आयतों की बरकत से लोगों के लिए मरना आसान हो जाए तो पवित्र क़ुरआन का यह उपयोग पवित्र क़ुरआन के मक़ाम और प्रतिष्ठा के विरुद्ध है। इसलिए श्रोताओं और संबोधित लोगों के विविध स्तरों और मानकों को दृष्टि में रखकर दर्से-क़ुरआन के उद्देश्यों और तरीक़ों का निर्धारण किया जाएगा।

लेकिन कुछ उद्देश्य ऐसे हैं जो सामान्य ढंग के हैं। वही क़ुरआन पाक के अवतरण के भी उद्देश्य हैं। उनको हम तीन शब्दों में व्यक्त कर सकते हैं। यह तीन शब्द शाह वलियुल्लाह मुहद्दिस देहलवी के हैं, जिनकी एक किताब 'उलूमुल क़ुरआन' (क़ुरआन विद्या) विषय पर बहुत प्रसिद्ध है। आप में से जिन बहनों को अरबी भाषा का ज्ञान है उनके लिए मेरा परामर्श यह होगा कि वह इस किताब को अरबी भाषा में ज़रूर पढ़ें। और न सिर्फ़ पढ़ें बल्कि स्थायी रूप से दिल में बसा ले। और समय-समय पर उसका अध्ययन करें। वह किताब है: “अल-फ़ौज़ुल-कबीर फ़ी इल्मित्तफ़सीर”। इस किताब का उर्दू और अंग्रेजी अनुवाद भी मिलता है। जो बहनें अरबी नहीं जानती हैं वह इसको उर्दू में पढ़ लें। (यह किताब लेखक द्वारा फ़ारसी भाषा में लिखी गई, उसका अरबी अनुवाद ज्यादा प्रसिद्ध हुआ। अनुवादों में इसके कुछ भाग को अनावश्यक समझ कर छोड़ दिया गया है) इस किताब में शाह वलियुल्लाह साहब ने लिखा है कि पवित्र क़ुरआन के अवतरण का मूल उद्देश्य ये तीन चीजें हैं—

1. इंसानों की आत्मा को सुसंस्कृत करना, ताकि इंसानों की आत्मा के अंदर से संस्कार हो (साफ-सुथरे और अच्छे गुणों को ग्रहण करें) और इंसानों की आत्माएँ इस तरह पवित्र और साफ़-सुथरी हो जाएँ की वे सारी नैतिक और रूहानी जिम्मेदारियाँ (duties) पूरी कर सकें जो अल्लाह ने उनके ऊपर डाली हैं।

2. दूसरी चीज़ जो शाह साहब ने बयान की है वह है: बुरी और ग़लत धारणाओं का निराकरण अर्थात वे सारी असत्य और अंधविश्वासवाली धारणाएँ जो लोगों के दिलों और मस्तिष्क में मौजूद हैं — चाहे वे मुसलमानों के मस्तिष्क में हों या ग़ैर-मुस्लिमों के — इन सब अंधविश्वासों को रद्द किया जाए। दलीलों से उनकी निस्सारता प्रकट की जाए। कभी-कभी एक ग़लत ख़याल आपके श्रोता के मष्तिष्क में होता है और उसके दिमाग़ के विभिन्न कोनों में अंगड़ाइयाँ लेता रहता है। लेकिन वह ग़लत ख़याल उसके मष्तिष्क में इतना स्पष्ट नहीं होता कि वह सवाल के रूप में उसको आपके सामने प्रकट कर सके। इसलिए स्वयं तो उस सवाल को प्रस्तुत नहीं करेगा। अगर आप ख़ुद से उसका खंडन नहीं करेंगी तो वह सवाल उसके दिमाग के कोनों में कुलबुलाता रहेगा, और वह उलझन उसके मस्तिष्क में जगह बनाए रहेगी, और आपके दर्से-क़ुरआन के बावजूद उसकी वह उलझन दूर नहीं होगी। इसलिए आप पहले से उसका अन्दाज़ा और एहसास कर लें कि श्रोता के मस्तिष्क में क्या-क्या संदेह उत्पन्न हो सकते हैं। अगर दर्स देनेवाली ख़ातून (महिला) उनसे परिचित हो, और अपने दर्स में बहुत संदेह या आपत्ति का वर्णन किए बिना और यह कहे बिना कि लोगों के मस्तिष्क में इस प्रकार का सन्देह मौजूद है, वह स्वयमेव उस सन्देह या आक्षेप का जवाब ऐसे अन्दाज़ से दे कि वह आक्षेप अपने-आप ख़त्म हो जाए तो इस तरह वे सभी ग़लत धारणाएँ जो लोगों के मस्तिष्क में पाई जाती हैं एक-एक करके ख़त्म हो जाएँगी। कभी-कभी ऐसा होता है कि एक धारणा या आस्था पवित्र क़ुरआन की दृष्टि से ग़लत है, और एक ग़लत ख़याल पवित्र क़ुरआन की दृष्टि से ग़लत ख़याल है, और एक मान्यता जो लोगों के मस्तिष्क में बैठी हुई है वह ग़लत मान्यता है, लेकिन किसी कारणवश उस ग़लत धारणा, ग़लत ख़याल या ग़लत मान्यता के पक्ष में उसके माननेवालों में कोई वफ़ादारी एवं पक्षपात भी उत्पन्न हो गया और उस पक्षपात की कोई पृष्ठभूमि है, तो ऐसी स्थिति में उचित यह है कि सामान्य अन्दाज़ अपनाया जाए और क़ुरआन पाक की मान्यता की व्याख्या इस अन्दाज़ से की जाए कि वह ग़लतफ़हमी दूर हो जाए। अगर आप नाम लेकर खंडन करेंगी कि अमुक व्यक्ति या अमुक गरोह के लोगों में यह ख़याल या यह चीज़ ग़लत है तो इससे एक प्रतिक्रिया उत्पन्न होगी और एक ऐसा पक्षपात उत्पन्न हो जाएगा तो सत्य को स्वीकार करने में बाधक होगा। लगाव और पक्षपात से हठधर्मी उत्पन्न होती है। हठधर्मी अनन्तः शत्रुता का रूप धारण कर लेती है। फिर इंसान के लिए सत्य बात स्वीकार करना बहुत कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में इंसान का मन उसके ग़लत ख़याल को नए-नए अन्दाज़ में सामने लाना शुरू कर देता है। इसलिए उस आक्षेप का वर्णन किए बिना अगर आप उसका जवाब दें तो फिर पक्षपात की दीवार सामने नहीं आती। पवित्र क़ुरआन की यही शैली है। पवित्र क़ुरआन ने अधिकतर सवालों का ज़िक्र किए बिना और आक्षेप को दोहराए बिना उसका जवाब इस तरह दिया है कि पढ़नेवालों का मस्तिष्क अपने आप साफ़ हो जाता है और आक्षेपकर्ता के मस्तिष्क का टेढ़ापन अपने आप दूर हो जाता है।

पवित्र क़ुरआन की इस शैली पर भी हम आगे चल कर बात करेंगे। लेकिन उदहारण स्वरूप यहाँ सिर्फ़ इतना अर्ज़ करता हूँ कि पवित्र क़ुरआन में एक जगह आया है कि हमने धरती और आकाश को छः दिनों में पैदा किया है। अल्लाह ताआला उनको पैदा करके थका नहीं। एक और जगह है, 'हम पर कोई थकन का आरोप नहीं हुआ।' या हमें कोई थकान न छू सकी।

अब यह यहूदियों के एक ग़लत अक़ीदे (धारणा) का खंडन है। यहूदी, अल्लाह कि पनाह, यह समझते थे कि अल्लाह ताआला ने छः दिन में अमुक-अमुक चीज़े बनाईं, जैसा पवित्र बाइबल के 'पुराना नियम' के आरंभ में स्पष्ट किया गया है, और सातवें दिन वह थककर लेट गया और उसने पूरे दिन आराम किया। यहूदियों के निकट वह सातवाँ दिन सब्त (शनिवार) का दिन था। जिस दिन यहूदी छुट्टी किया करते थे। जब ईसाइयों का दौर आया तो उन्होंने सोचा की यहूदी सब्त के दिन छुट्टी करते हैं, इसलिए हमें उससे अगले दिन अर्थात रविवार को छुट्टी कर लेनी चाहिए। अतः ईसाइयों ने रविवार के दिन छुट्टी करनी शुरू कर दी। लेकिन आप विचार कीजिए पवित्र क़ुरआन ने यहूदियों के इस विश्वास की कोई चर्चा नहीं की और न कोई ऐसा संकेत किया जिससे यह पता चले की यहूदी ऐसी कोई धारणा रखते हैं। बस एक इशारा ऐसा दे दिया कि यह ग़लतफ़हमी अपने आप ही दूर हो गई। अल्लाह ताआला की क़ुदरत (सामर्थ्य) को ऐसे अन्दाज़ में बयान कर दिया कि क़ुरआन के विद्यार्थी के मस्तिष्क में यह सवाल उत्पन्न हो ही नहीं सकता। यह पवित्र क़ुरआन की खंडन-शैली और दलील देने का तरीका है। जो हमें भी अपनाना चाहिए। हमारी शैली भी ऐसी ही होनी चाहिए।

3. शाह साहब की भाषा में क़ुरआन पाक का तीसरा उद्देश्य बुरे कर्मों से इंसान को बचाना है। अर्थात जो दुष्कर्म इंसानों में प्रचलित हो गए हैं, चाहे उनकी आधारशिला किसी ग़लत धारणा पर हो या न हो, उन कर्मों की ग़लती को स्पष्ट किया जाए, और उनको मिटाने और ठीक करने की कोशिश की जाए। कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई ग़लत रीति इंसानों में प्रचलित हो जाती है और बहुत-से लोग क़ुरआन का ज्ञान रखने के बावजूद यह महसूस नहीं करते कि उनका यह रिवाज़ पवित्र क़ुरआन के आदेशों के विरुद्ध है, या इस्लामी शिक्षाओं के विपरीत है। उन्हें कभी इस बात का ख़याल ही नहीं आता। अब यदि आपने बतौर शिक्षक दर्स के पहले दिन ही लट्ठ मारने के अंदाज में यह कह दिया कि ऐ अमुक-अमुक लोगो, तुम शिर्क का काम कर रहे हो, और ऐ अमुक-अमुक लोगो, तुम बिदअत का काम कर रहे हो, और तुम ऐसे हो, और तुम ऐसे हो, तो इससे न सिर्फ़ एक घोर प्रतिक्रिया उत्पन्न होगी, बल्कि इसकी संभावनाएँ बहुत कमज़ोर हो जाएँगी कि आपका संबोधित श्रोता आपके पैग़ाम से कोई सकारात्मक प्रभाव ग्रहण करे। इस ढंग की वार्ता से सुदृढ़ गरोहबंदियाँ तो जन्म ले सकती हैं, कोई सकारात्मक परिणाम निकलना कठिन है। इस तर्ज़ के वार्तालाप से आपके और आपके श्रोता के बीच नफ़रत की एक दीवार खड़ी हो जाती है। लेकिन अगर आप सिर्फ़ पवित्र क़ुरआन की शिक्षा का वर्णन करने तक सीमित रहें कि पवित्र क़ुरआन की शिक्षा यह है, इसमें यह तत्वदर्शिता है और शिक्षा का तक़ाज़ा यह है कि अमुक-अमुक प्रकार के काम न किए जाएँ, तो तत्काल नहीं तो आगे चलकर एक न एक दिन पवित्र क़ुरआन की शिक्षा ग्रहण करने वाला छात्र आपके आह्वान को स्वीकार कर लेता है। और पवित्र क़ुरआन के अनुकूल धीरे-धीरे उसके ग़लत तौर-तरीक़े और दुष्कर्म ठीक होते चले जाते हैं।

यह तीन तो वे उद्देश्य हैं जो दर्से-क़ुरआन के मौलिक उद्देश्य हैं, और यही मौलिक उद्देश्य रहने चाहिएँ। चाहे क़ुरआन का दर्स किसी भी स्तर का हो, चाहे वह इमाम राज़ी के स्तर का हो, या हमारे और आपके स्तर का, उसके ये तीन उद्देश्य अनिवार्यतः होंगे। इंसान की आत्मा का संस्कार हो, इसकी आवश्यकता हर समय है, इसलिए कि आत्मा को सुसंस्कृत तथा विकसित करने की कोई अंतिम सीमा नहीं है। आत्मा का जितना भी संस्कार और विकास होता चला जाएगा, उससे ऊँचा एक मानक मौजूद रहेगा।

इसी तरह से जब तक इंसान दुनिया में है, ग़लत धारणाएँ भी जन्म लेती रहेंगी और नित नए संदेह भी सामने आते रहेंगे। मानव-मस्तिष्क और शैतान मिलकर नए-नए आक्षेप उत्पन्न करते रहेंगे और उन आक्षेपों के समाधान की आवश्यकता भी उत्पन्न होती रहेगी। इसी तरह बुरे कर्म भी नित नए-नए जन्म लेते रहेंगे। हमारा और आपका सबका अवलोकन है कि नित्य एक नया दुष्कर्म समाज में पैदा होता रहता है। प्रतिदिन आस्था और व्यवहार में नई-नई ख़राबियाँ और कमज़ोरियाँ जन्म लेती रहती हैं। उदाहरण स्वरूप बहुत-से बुरे कर्म ऐसे हैं जो हमारे बचपन में नहीं थे, अब उत्पन्न हो गए हैं। अभी कुछ वर्ष पूर्व तक बहुत से बुरे कर्म का अस्तित्व नहीं था, लेकिन अब हर जगह बहुतायत से दृष्टिगोचर होते हैं। इसलिए इसकी काट भी हमेशा अनिवार्य रहेगी, इन तीन चीज़ों के साथ-साथ यदि हमारे सामने तीन चीज़ें और भी रहें तो अपने आप हमारे दर्से-क़ुरआन में सार्थकता और उच्च स्तर पैदा होता चला जाएगा। श्रोता का जो स्तर होगा, उसके हिसाब से आपका सम्बोधन का तरीक़ा और शैली उन्नत होती चली जाएगी। सबसे पहले तो इस बात का दृढ़ संकल्प और इरादे की शुद्धता होनी चाहिए कि इस दर्स का एकमात्र उद्देश्य ईश-कृपा की प्राप्ति और ईश्वरीय पैग़ाम का प्रसारण है। ख़ुद ईश्वरीय पैग़ाम का प्रसारण, कि हमें इस संदेश को ज्यों का त्यों दूसरों तक पहुँचा देना है, यह हमारा प्राथमिक लक्ष्य होना चाहिए। अल्लाह ताआला का पैग़ाम पवित्र क़ुरआन में उसके अपने शब्दों में बयान हुआ है। उसकी आयतों की तिलावत (पाठ) और उसके अर्थों की व्याख्या ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के चार अनिवार्य कर्तव्यों में सम्मिलित है, जैसा कि स्वयं पवित्र क़ुरआन में कई स्थलों पर स्पष्ट किया गया है।

ईश्वरीय संदेश का यह प्रसारण श्रोता के स्तर की दृष्टि से होगा। यदि आपको किसी देहात में ऐसे लोगों से वार्तालाप और संबोधन का अवसर मिलता है जिन्होंने कभी पढ़ा-लिखा नहीं, तो उनके लिए आपका तरीक़ा भिन्न होगा, लेकिन अगर आपको किसी महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में एम०ए० और पी०एच०डी० के स्तर के लोगों को सम्बोधित करना हो तो आपका मानदंड और अन्दाज़ एवं तरीक़ा बिल्कुल भिन्न होना चाहिए यह बात इतनी स्पष्ट और दो टूक है कि इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। लेकिन ईश्वरीय संदेश का पहुँचाना और प्रसारण करना उन दोनों जगहों पर एक संयुक्त उद्देश्य के रूप में हमारे समक्ष रहेगा। फिर जैसे-जैसे पवित्र क़ुरआन के शिक्षण-प्रशिक्षण का कार्य आगे बढ़ता जाएगा, तो इसके साथ-साथ हमारे श्रोता की और ख़ुद हमारी क़ुरआन संबंधी समझ का स्तर उत्तरोत्तर ऊँचा होता चला जाएगा। इसका कारण यह है कि दर्से-क़ुरआन का सम्बोधन और लक्ष्य सिर्फ़ आपके श्रोता ही नहीं हैं, बल्कि शिक्षक या वक्ता ख़ुद भी उसका लक्ष्य है। अगर मैं दर्से-क़ुरआन दे रहा हूँ तो सबसे पहले अपने दर्स का श्रोता या सम्बोधन का पात्र मैं खुद ही हूँ। और यदि आप दर्स दे रही हैं तो सबसे पहले आप खुद उसकी सम्बोधित हैं।

सम्बोधनकर्ता और सम्बोधित (जिनको सम्बोधन किया गया) दोनों के मानसिक ढाँचे का निर्माण, दोनों की मानसिक प्रकृति की तैयारी और दोनों की इस अंदाज से ट्रेनिंग कि ग़ैर-इस्लामी ढंग और शक्ति उनके ऊपर प्रभाव न डाल सके, यही हमारे दर्से-क़ुरआन का लक्ष्य और उद्देश्य होना चाहिए। यदि हमारे दर्से-क़ुरआन के श्रोता का ईमान, आस्था, उत्साह और इस्लाम की चेतना इतनी सुदृढ़ हो जाए कि कोई बाहरी शक्ति उसको हिला न सके तो समझ ले कि दर्से-क़ुरआन परिणाम उत्पन्न करनेवाला हो रहा है। अर्थात् क़ुरआन एक ऐसा क़िला है जिसके अंदर मुसलमान क़िलाबंद हो जाता है। (क़ुरआन ही एकमात्र हक़परस्तों का सुरक्षा कवच है)। फिर बाहर की कोई शक्ति उसके दिल और दिमाग़ के ऊपर प्रभावकारी नहीं हो सकती। फिर जब एक बार धार्मिक मानसिकता और इस्लामी गुण का ढाँचा बन जाए तो फिर अल्लाह से ताल्लुक़ (सम्बन्ध) की वह स्थिति भी हासिल हो जाती है जो हर मुसलमान का लक्ष्य और दिलपसन्द है।

यहाँ तक तो सामान्य शिक्षित और उच्च शिक्षा प्राप्त श्रोताओं के लिए दिए जानेवाले दर्से-क़ुरआन के उद्देश्य और लक्ष्य सार्वजनिक थे। ये उद्देश्य सबके लिए हैं। इनमें आम मुसलमान भी सम्मिलित है और उच्च कोटि की योग्यताएँ रखनेवाले विशिष्ट लोग भी। लेकिन जब आपको किसी उच्च शिक्षा प्राप्त वर्ग से संबोधन का अवसर मिले और बहुत मिलेगा अल्लाह ने चाहा तो, और निश्चय ही मिलता भी रहता होगा, तो तीन चीज़ें आपको अतिरिक्त रूप से सामने रखनी चाहिएँ। यह तीन चीजें ऐसी हैं जो विशेष रूप से हमारे देश में शिक्षा प्राप्त वर्ग की दृष्टि से अनिवार्य हैं।

1. सबसे पहली बात तो यह है कि हम सब एक ऐसी विचारधारा और शैक्षिक परिवेश में जी रहे हैं जिसपर पाश्चात्य चिंतन, सभ्यता और संस्कृति का आक्रमण दिन प्रतिदिन तीव्रतर होता चला जा रहा है। मुसलमानों की बहुत बड़ी संख्या की विचारधारा और रहन-सहन के तौर-तरीक़े पर पाश्चात्य सभ्यता की इतनी गहरी छाप पड़ चुकी है कि दर्से-क़ुरआन में उसका नोटिस न लेना वास्तविकता का इनकार करने के बराबर है। पाश्चात्य चिन्तन का इतना गहरा प्रभाव मुसलमानों के दिलों और मानसिकताओं पर छा गया है कि एक शिक्षित मुसलमान के लिए इस्लाम की आस्थाओं और शिक्षाओं में जो चीज़ बिल्कुल दृढ़ विश्वास की होनी चाहिए थी, वह अब वैसी नहीं रही, बल्कि मात्र एक दृष्टिकोण और काल्पनिक चीज़ बनकर रह गई है। ऐसे लोगों का अभाव नहीं है जिनके लिए इस्लामी आस्थाएँ और नियमों एवं कानूनों में से बहुत से पहलू सैद्धांतिक से भी बढ़कर एक संदिग्ध चीज़ बन गए हैं। अल्लाह की पनाह!

अतः जब भी एक दीनी (धार्मिक) मानसिकता को साकार करने का सवाल पैदा होगा तो यह बात अनिवार्य होगी की आस्था और सोच कि इस दुर्बलता को सामने रखा जाए। आज पाश्चात्य विचारधाराओं से प्रभावित लोगों के दिलों और मानसिकताओं से पश्चिम के नकारात्मक प्रभाव को धोना और उसके धब्बों को मिटाकर साफ़ करना और वह दिल और दृष्टि पैदा करना जो पवित्र क़ुरआन का उद्देश्य है एक बहुत बड़ी चुनौती के तौर पर हम सबके सामने है।

दुखद बात है कि इस समय कहीं भी कोई आदर्श इस्लामी समाज मौजूद नहीं। इस समय हम किसी आदर्श मुस्लिम समाज में नहीं रहते। हमारा समाज कुछ दृष्टि से मुस्लिम समाज नहीं रहा, यद्यपि कुछ दृष्टि से यह अब भी एक मुस्लिम समाज है, लेकिन कुछ दृष्टि से हमारे इस समाज में बहुत सी ख़राबियाँ पैदा हो गई हैं। ग़ैर-इस्लामी शक्तियों ने हमारे समाज, हमारी विशिष्ट सांस्कृतिक ज़िन्दगी, यहाँ तक कि हमारी पारिवारिक ज़िन्दगी में इस प्रकार घुस-पैठ कर ली है कि जगह-जगह न सिर्फ़ बहुत सी ख़राबियाँ पैदा हो गयी हैं, बल्कि कई जगह वैचारिक, सांस्कृतिक और व्यवहारिक दरार पैदा हो गई है। इस दरार को पाटना और एक पूर्ण, समग्र और सुव्यवस्थित इस्लामी दृष्टिकोण की रचना करना हम सबका साझा दायित्व है। पाश्चात्य विचारधारा और दृष्टिकोण के नकारात्मक आक्रमण का रास्ता सिर्फ़ उसी समय बंद किया जा सकेगा जब एक परिपूर्ण समग्र और सुव्यवस्थित इस्लामी विकल्प प्रस्तुत कर दिया जाएगा। वैकल्पिक इस्लामी विचारधारा की अनुपस्थिति में मात्र उपदेशों और भाषणों से इस महाप्रलय के आगे बाँध नहीं बाँधा जा सकता।

यह वार्तालाप और यह वाद-विवाद इस दर्से-क़ुरआन का एक अनिवार्य अंग होना चाहिए, जिसका सम्बोधन-पात्र पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त लोग हों। फिर यह भी याद रखिए इंसान की बुद्धि और चेतना का जो स्तर होता है, उसी स्तर के अनुकूल उसकी वैचारिक उलझन भी होती है। इस प्रकार की हर वैचारिक उलझन का हल क़ुरआन पाक में मौजूद है। कोई वैचारिक उलझन इंसान की ऐसी नहीं है, चाहे वह किसी भी स्तर की हो, जिसका हल क़ुरआन पाक में मौजूद न हो। लेकिन जैसे एक रेडियो स्टेशन से प्रसारित होनेवाले संदेश को आपका ट्रांजिस्टर उस समय तक अपनी पकड़ में नहीं ला सकता जब तक वह उसी स्तर (frequency) पर काम न कर रहा हो जिस स्तर पर संदेश की लहरें प्रसारित की जा रही हैं। जो सम्बन्ध आप में और आपके श्रोता में है, यह वही संबंध है जो रेडियो स्टेशन और आपके ट्रांजिस्टर में है। आपके पास पवित्र क़ुरआन का ज्ञान मौजूद है। आप उसको रेडियो स्टेशन समझ लीजिए। आपका जो सम्बोधित व्यक्ति है वह मानो रेडियो सेट है। जब तक दोनों की विद्युत तरंग एक नहीं होगी उस समय तक वह आपकी तरफ़ से दी जानेवाली उस रहनुमाई और मार्गदर्शन से लाभ नहीं उठा सकता। इसलिए दोनों का एक तरंग दैर्ध्य (Wave Length) पर होना आवश्यक है। दोनों एक भाषा और एक शैली में बात करेंगे तो समझने-समझाने का उद्देश्य प्राप्त होगा। यही अर्थ है पवित्र क़ुरआन की इस आयात का जिस में कहा गया है: “अल्लाह ने जो रसूल भी भेजा है वह उस क़ौम (समुदाय) की भाषा और संस्कृति में भेजा है।” (क़ुरआन : 4/14) भाषा और संस्कृति में उसके मुहावरे, प्रमाण और तर्क पुष्टि के विशिष्ट अंदाज़ भी सम्मिलित है। (इसका उद्देश्य यह है कि पैग़म्बर जिन लोगों से सम्बोधन करे वे उनकी बातों कि तह तक पहुँच सकें। इनपर आगामी दिनों में वार्ता करेंगे कि क़ुरआन पाक ने कैसी शैली अपनाई और कैसे अपने सम्बोधित लोगों की शैली को अपनी बात पहुँचाने के लिए अपने समक्ष रखा।

2. दूसरी महत्वपूर्ण बात जो विशेष रूप से शिक्षित श्रोताओं के लिए सामने रखनी चाहिए वह पवित्र क़ुरआन और दूसरे ज्ञान-विज्ञान कलाओं के अध्ययन में अंतर को ध्यान में रखना है। जब हम दर्से-क़ुरआन की क्रिया का आरंभ करते हैं (खास तौर पर जब वह उच्च शिक्षा प्राप्त विद्वानों के लिए हो), उसमें एक बड़ी बुनियादी शर्त क़ुरआन पाक के विशिष्ट स्थिति में मक़ाम और उसके अध्ययन के विशिष्ट महत्व की चेतना है। हर उस प्रयत्न में जिसका उद्देश्य क़ुरआन का समझना और समझाना हो और उसमें इंसान की बौद्धिक मानसिक योग्यताओं के साथ-साथ उसकी आत्मिक और रूहानी योग्यताओं को भी भरपूर रूप से सम्मिलित होना चाहिए। जब तक पाठक पूर्ण रूप से क़ुरआन की गहराइयों में डूब कर उसके मोती नहीं चुनेगा उसके हाथ क़ुरआन की तत्वदर्शीता का बहुत थोड़ा-सा भाग ही आएगा। यह वह अंतर है जो पवित्र क़ुरआन के समझने-समझाने को दूसरे हर प्रकार के ज्ञान सम्बन्धी प्रयत्नों से अलग करता है।

आप दर्शन की छात्रा हों या अर्थशास्त्र की, विज्ञान की छात्रा हों या तकनीक की उनमें से हर ज्ञान सम्बन्धी क्रिया-कलापों का विशुद्ध ज्ञान सम्बन्धी या बुद्धि सम्बन्धी उद्देश्य हो सकता है। अर्थात ज्ञान सम्बन्धी क्रिया-कलाप अपने आप में अपेक्षित होते हैं। क़ुरआन पाक का अध्ययन इस प्रकार का एकांगी ज्ञान सम्बन्धी क्रिया-कलाप नहीं है। न यह कोई ज्ञानपरक चाट है या ज्ञानपरक चटनी है जिसे इनसान कभी-कभी मज़े या चटख़ारे के लिए पढ़ लिया करे, जैसे वह साहित्य पढ़ता है, उदाहरणार्थ 'दीवाने-ग़ालिब' का अध्ययन करता है। अल्लाह की पनाह! पवित्र क़ुरआन इस प्रकार की किताब नहीं है यह अल्लाह की किताब है। इसके समझने के तक़ाज़े कुछ और है। निश्चय ही इसके अध्ययन और समझ के लिए चिन्तन भी ज़रूरी है, बुद्धि भी अपेक्षित है और गहन विचार-मंथन की भी ज़रुरत है। लेकिन इसके साथ-साथ और भी बहुत कुछ अपेक्षित है। यदि यह मात्र बौद्धिक क्रिया-कलाप होती, या सिर्फ़ ऐसी ज्ञानपरक क्रिया-कलाप होती, जैसी सामान्य शैक्षिक संस्थानों में होती है तो फिर पवित्र क़ुरआन अपने बारे में यह न कहता कि “अल्लाह तआला इस क़ुरआन के द्वारा बहुत-से लोगों को पथभ्रष्ट और बर्बादी की राह पर डाल देता है, जबकि बहुत-से लोगों को इसके द्वारा सही मार्ग प्रदान करता है।” (क़ुरआन : 2/26) गुमराही की राह पर हमेशा वे लोग पड़ते हैं जो इससे लाभ उठाने के लिए नहीं, बल्कि किसी भौतिक लाभ या मात्र विद्या-व्यसन और दिल बहलाने के लिए पढ़ते हैं। और जिनकी नज़र में दीवाने-ग़ालिब और पवित्र क़ुरआन बराबर हैं कि अपने शौक़ के लिए कभी कोई किताब उठाकर पढ़ता है और कभी कोई।

यदि पवित्र क़ुरआन को इसी अंदाज़ से पढ़ा गया तो गुमराही का रास्ता ही खुलेगा। हिदायत का रास्ता खुलने के लिए आवश्यक है कि पढ़नेवाला एक दिली और रूहानी सम्बन्ध पवित्र क़ुरआन के साथ स्थापित करे। और जब तक पाठक इस गहरे सम्बन्ध के साथ पवित्र क़ुरआन की ओर उन्मुख नहीं होगा, और जब तक पूरे इरादे कि गहराई के साथ अल्लाह की किताब से संपर्क नहीं करेगा कि उसे अल्लाह तआला की बात को समझना है और समझने के बाद उसको व्यवहार में लाना है, उस समय तक पवित्र क़ुरआन अपने द्वार किसी के लिए नहीं खोलता। शायद यही वह चीज़ है जिसकी ओर अल्लामा इक़बाल ने इशारा किया है—

“तेरे ज़मीर पर जब तक न हो नुज़ूले-किताब,

गिरह कुशा है न राज़ी न साहिबे-कश्शाफ़।”

इसका वृतांत यह है कि अल्लामा इक़बाल के पिता एक बुज़ुर्ग और सूफ़ी प्रवृति के व्यक्ति थे। उनके बारे में अल्लामा ने लिखा है कि नौजवानी के ज़माने में मेरी आदत थी कि फ़ज़्र (सुबह) की नमाज़ के बाद प्रतिदिन पवित्र क़ुरआन कि तिलावत करता था। एक दिन तिलावत में व्यस्त था कि मेरे पिता सामने से गुज़रे और कहने लगे कि क्या कर रहे हो? मैंने अर्ज़ किया कि पवित्र क़ुरआन कि तिलावत कर रहा हूँ। वे यह सुनकर चुपचाप चले गए। अगले दिन फिर ऐसा ही हुआ कि मैं तिलावत कर रहा था तो गुज़रते हुए पूछा, क्या कर रहे हो? मैंने फिर वही जवाब दिया कि जी, तिलावत कर रहा हूँ। इस तरह कई दिन तक पूछते रहे। आख़िर एक दिन इक़बाल ने अर्ज़ किया कि आप प्रतिदिन पूछते हैं, जबकि आप ख़ुद देखते हैं कि में पवित्र क़ुरआन कि तिलावत कर रहा हूँ। उन्होंने कहा; देखो जब कलाम पाक पढ़ा करो तो इस चेतना और एहसास के साथ पढ़ा करो कि अल्लाह तआला ख़ुद सीधे तुम ही से बात कर रहा है और तुम ही को सम्बोधित कर रहा है। जब तुम यह समझ कर पढ़ोगे तो उस तिलावत का जो प्रभाव उत्पन्न होगा, वह सामान्य अध्ययन से उत्पन्न नहीं हो सकता।

बस यही अंतर है क़ुरआन पाक के अध्ययन में और सामान्य किताब के अध्ययन में। कोई सामान्य किताब जो उत्तम से उत्तम कोटि की हो, उसमें अल्लाह तआला (सबका स्रष्टा एवं सरंक्षक) आपसे सम्बोधन नहीं करता। जब पवित्र क़ुरआन का अध्ययन यह सोचकर करे कि अल्लाह तआला ने इस किताब को मेरे ही लिए उतारा है तो मुझे ही उसमें सम्बोधित किया है तो फिर अपने आप उसका प्रभाव दिल कि गहराइयों में उतरता चला जाएगा। यह स्थिति सिर्फ़ उसी समय प्राप्त हो सकती है जब पवित्र क़ुरआन के मार्गदर्शक पुस्तक होने का पूर्ण विश्वास हो। जितना आत्मिक सम्बन्ध के साथ और दिल कि गहराई के साथ पढ़नेवाला इसको पढ़ेगा उतना ही उसके ईमान में वृद्धि होती चली जाएगी। और जितना ईमान मज़बूत होता चला जाएगा उतना ही इस किताब से उसका अस्तित्व, उसकी सोच, उसका दृष्टिकोण, अर्थात हर चीज़ का हार्दिक लगाव बढ़ता चला जाएगा और आत्मिक तोर पर उसका अस्तित्व पवित्र क़ुरआन के अनुकूल होता चला जाएगा।

तीसरी शर्त जो अनिवार्य है वह यह कि दर्से-क़ुरआन (क़ुरआन का व्याख्यापूर्ण विवेचन) के द्वारा पवित्र क़ुरआन कि महत्ता का एहसास उतपन्न किया जाए। जब तक क़ुरआन के पाठक के दिल में इस किताब की महानता का एहसास पैदा न होगा, उस समय तक पाठक न इस किताब के रंग में रंगा जा सकता है, न इस किताब के सांचे में ढल सकता है। पवित्र क़ुरआन की महत्ता कि अनुभूति के लिए वे आयतें पर्याप्त हैं जो अभी हमारी बहन ने तिलावत की हैं कि “यदि इस किताब को पहाड़ पर उतारा जाता तो तुम देखते कि अल्लाह तआला के भय से वह चूर्ण-विचूर्ण हो जाता।” (क़ुरआन : 59/21) इस पवित्र आयत का तात्पर्य क्या है, क़ुरआन कि महत्ता का मतलब क्या है, इसका एक आरंभिक और एक विहंगम अनुमान करने के लिए कल या परसों इस विषय पर बात करेंगे।। लेकिन इस आयत से पवित्र क़ुरआन कि महत्ता का सामान्य अनुमान अवश्य हो जाता है कि यह कितनी महत्वपूर्ण किताब है। शर्त यही है कि पूरी-पूरी कोशिश और दृढ़ संकल्प के साथ अल्लाह कि किताब से संपर्क किया जाए तो फिर देखिए इस किताब के दरवाज़े और खिड़कियाँ किस तरह एक-एक करके खुलने शुरू हो जाते हैं।

अंतिम चीज़ यह है कि जितने साधन भी हमें उपलब्ध हैं, उन सबको पवित्र क़ुरआन के समझने और उसकी गहरी समझ हासिल करने के लिए उपयोग किया जाए। जो साधन हमें उपलब्ध हैं उनको तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। उनमें से दो तो अल्लाह तआला ने हमारे अंदर रख दिये हैं। एक तो ये बाहरी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, कान, नाक, ज़बान, त्वचा) हैं जो क़ुरआन पाक को समझने और याद करने के काम आते हैं। इन पाँच में से दो अर्थात सुनने की क्षमता और देखने कि क्षमता का क़ुरआन याद करने और समझने से विशिष्ट सम्बन्ध है। इनमें भी सुनने की क्षमता का अधिक महत्त्व है। यह बात याद रखिएगा कि इंसान के पास श्रवण अनुभूति सबसे तेज़ होती है। चीज़ों को याद रखने में यही अनुभूति सबसे ज़्यादा उसको काम आती है। सुनकर जो चीज़ याद होती है वह पढ़कर याद करने की तुलना में ज़्यादा स्थायी होती है। इसलिए पवित्र क़ुरआन के पढ़ने-पढ़ाने और हिफ़्ज़ (कंठाग्र) करने में श्रम शक्ति का उपयोग ज़्यादा करना चाहिए। आज कल तो रिकॉर्डिंग का साधन बहुत सरल और सर्वत्र उपलब्ध हो गया है। एक चीज़ को पाँच-दस बार सुन लें तो वह आपको पचहत्तर प्रतिशत (75 प्रतिशत) याद हो जाएगी। या काम से काम उसके महत्वपूर्ण बिंदु ज़रूर याद हो जायेंगे। इसके विपरीत यदि दस बार ख़ुद पढ़ेंगे जब भी वह चीज़ उतनी याद नहीं होगी जितनी चार-पाँच बार सुनकर याद हो जाएगी।

ये तो बाहरी अनुभूतियाँ है जो अल्लाह तआला ने ही हमें प्रदान की हैं। इसके अतिरिक्त पाँच अनुभूतियाँ आंतरिक भी प्रदान की हैं। इंसान की स्मरण-शक्ति है, सोचने-समझने की क्षमता है, चेतना और सयुंक्त अनुभूति आदि हैं। ये आंतरिक ज्ञानेन्द्रियाँ हैं जिनसे काम लेकर बाहरी अनुभूतियों से प्राप्त ज्ञान को सुरक्षित किया जा सकता है। ये सरे साधन दुनिया के हर इंसान को उपलब्ध हैं। संसाधन का तीसरा प्रकार भौतिक संसाधन का है जो आवश्यकतानुसार हर इंसान को मिलता है। जिसके पास जितने साधन उपलब्ध हैं उनको इस मार्ग में लगाने का उतना ही दायित्व है। दर्से-क़ुरआन में भी और क़ुरआन-शिक्षण में भी, क़ुरआन के अध्ययन में भी और क़ुरआन की शिक्षा में भी, लेकिन जब तक पाने की ललक न उतपन्न हो, इंसान इन सारे संसाधनों को उपयोग में लेने के लिए तैयार नहीं होता। कभी-कभी आपने देखा होगा कि सुननेवाली आपके दर्स में बैठी है, ज़ाहिर में उसकी निगाहें आपके ऊपर हैं, लेकिन उसके कान कहीं और हैं। उसका शरीर तो यहाँ है, लेकिन उसका दिमाग़ किसी दूसरी जगह क्रियाशील है। पूरा दर्स सुनने के बाद भी उसको यह पता नहीं चलता की कहनेवाले ने क्या कहा है और सुननेवालों ने क्या सुना है। इसलिए कि वहाँ पाने की दिलचस्पी नहीं थी। अगर पाने की ललक हो तो सारी ज्ञानेन्द्रियाँ — बाहरी और भीतरी — एक जगह एकत्रित होकर एक ही बैठक में इंसान को वह कुछ सिखा देती हैं जो दूसरी स्थिति में दस बैठकों में भी नहीं सीखा जा सकता। इसके लिए पाने की उत्कट अभिलाषा की आवश्यकता, हर मुसलमान के पास ज़ौक़े-तलब (पाने की दिलचस्पी) होना अत्यन्त आवश्यक है।

अल्लामा इक़बाल ने फ़रमाया—

“साहिबे-क़ुरआन हो बे-ज़ौक़े-तलब

अल-अजब, सुम्मल-अजब, सुम्मल-अजब।”

यह बात कितनी अजीब (अद्भुत) है कि पवित्र क़ुरआन का विद्यार्थी हो और उसमें ज़ौक़े-तलब (उससे ज्ञान प्राप्त करने की रुचि) न हो।

अन्त में संक्षिप्त रूप से एक और चीज़ की और संकेत करना चाहता हूँ, वह यह है कि पवित्र क़ुरआन कि बुनियाद 'वह्ये-इलाही' (ईश-प्रेकाशना) पर है। वह्य-इलाही क्या है? उसका रूप और स्रोत क्या है? ये अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है। तत्काल संक्षेप में इतना समझ लें, कि वह्ये-इलाही सबसे विश्ववसनीय, सबसे पूर्ण, सबसे सच्चे और सबसे स्थायी ज्ञान का स्रोत है। लेकिन ख़ुद वह्ये-इलाही क्या है, इसपर निरीश्वरवादी (नास्तिक) चिंतक बहुत से संदेह और आक्षेप प्रस्तुत करते है। हम वह्ये-इलाही को किस तरह समझें और बयाँन करें? और उन आक्षेपों के वातावरण में हम कैसे अपने दिल हो संतुष्ट करें? यह वार्ता ज़रा लम्बी होगी।  इसपर अल्लाह ने चाहा तो कल बात करेंगे। कल के वार्तालाप का विषय होगा ‘पवित्र क़ुरआन का एक सामान्य परिचय’ अर्थात पवित्र क़ुरआन क्या है और इसके सामान्य परिचय की आवश्यकता क्यों है? इसपर भी कल बात करेंगे और चूँकि वह्ये-इलाही क़ुरआन पाक का स्रोत है, इसलिए थोड़ी-सी बातचीत वह्य पर भी करना आवश्यक है।

प्रश्न 1 :- आपने फ़रमाया की अल-हुदा के बारे में बहुत से उलमा के आरक्षण हैं। इसका स्पष्टीकरण करना पसंद करेंगे?

उत्तर :-  वास्तव में कोई ख़ास नाम नहीं लेना चाहता था।  मेरी जो बहनें अल-हुदा से संलग्न हैं और दीन का काम कर रहीं हैं मैं उनके लिए दुआ करता रहता हूँ की अल्लाह तआला उनकी कोशिश को क़ुबूल फ़रमाए। मेरा सम्बन्ध उनके साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रहता है। वास्तव में कुछ उलमा की लिखित चीज़ें मैंने पढ़ीं जो मेरे लिए अत्यंत आदरणीय हैं। उन्होंने अल-हुदा के कार्यकर्मों के बारे में कुछ नकारात्मक विचारों को प्रकट किया। उनमें से कम से कम एक ने अपनी राय बदल ली है। इसलिए मैंने अर्ज़ किया कि अगर इस प्रकार की कोई चीज़ आपके सामने आये तो आप उसको नज़र अंदाज़ कर दीजिए। नेक काम के अपने प्रभाव और कल्याण होते हैं। प्रभाव और कल्याण को देखने के बाद लोगों के आक्षेप स्वयमेव समाप्त हो जाते हैं।

कुल उलमा के बारे में मैंने सुना है की उनका यह कहना है कि क़ुरआन शिक्षण के लिए पहले मदरसे का दस साल का कोर्स पूरा करना अत्यंत आवश्यक है। उसके बाद ही क़ुरआन शिक्षण का काम करना चाहिए। उन विद्वानों कि राय में चूँकि आधुनिक शिक्षा ग्रहण करनेवाले और नवागंतुक लोगों की बुनियाद इस दस वर्षीय पाठयक्रम के बिना सुदृढ़ नहीं होती, क़ुरआन समझने के लिए अनिवार्य है, इसलिए आम लोगों में इस प्रकार दर्से-क़ुरआन के हलक़े आयोजित करना उचित नहीं है। मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ। मैं यह समझता हूँ कि पवित्र क़ुरआन को किसी बुनियाद कि ज़रुरत है, न किसी बैसाखियों की। पवित्र क़ुरआन बुनियाद भी, दीवारे भी उपलबध करता है और शिक्षा को पूर्ण भी कर देता है।

पवित्र क़ुरआन ख़ुद अपनी जगह एक मुक्कमल किताब है। वह किसी का मोहताज नहीं है।  इसलिए मुझे इस दलील (तर्क) से सहमति नहीं है। संभव है कि कुछ लोग आपसे कहें कि आपने फ़िक़्ह और उसूले-फ़िक़ह (नियम कानून के सिद्धांत) का ज्ञान प्राप्त नहीं किया, या आपने इल्मुल कलाम (तर्क विद्या) नहीं पढ़ा, इसलिए आपको दर्से-क़ुरआन की ज़िम्मेदारी नहीं उठानी चाहिए। मुझ नाचीज़ का मशवरा यही है कि आप इस उधेड़बुन में न पड़े और अपना काम जारी रखे। में ख़ुद फ़िक़्ह (इस्लामी क़ानून) का विद्यार्थी हूँ।

फ़िक़्ही विषयों पर ही पढ़ता-पढ़ाता हूँ। लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि क़ुरआन का समझना फ़िक़्ह का मोहताज नहीं। ये सारे विषय क़ुरआन पाक के मोहताज हैं, क़ुरआन उनमें से किसी का मोहताज नहीं। अतः आप किसी कि परवाह किए बिना अपना काम जारी रखें। 

प्रश्न 2 :- लोगों को पवित्र क़ुरआन के क़रीब किस तरह लाया जाए?

उत्तर :- हर व्यक्ति की विचार धारा की पृष्ठ्भूमि देखकर उसके साथ अलग प्रयोग करना पड़ेगा।  कुछ लोग तार्किक और दार्शनिक ढंग पसंद करते हैं। कुछ लोग किसी अन्य ढंग को पसंद करते हैं। लेकिन एक चीज़ अवश्य है की कोई मनुष्य थोड़ा सा भी पवित्र क़ुरआन के क़रीब आ जाए तो उसकी महत्ता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। हमारा काम सिर्फ़ क़रीब लाना है, हिदायत देना अल्लाह के अधिकार में है। क़रीब लाने के लिए जिनको सम्बोधन करना है उनके स्वभाव और रुचि का ख़याल रखना आवश्यक है। उदाहरणार्थ यदि कोई विज्ञान का छात्र है तो उसे मोरिस बुकाय की किताब पढ़ने के लिए दीजिए। बड़ी अच्छी किताब है।

मोरिस बुकाय फ़्राँस के नव मुस्लिम आलिम हैं, पेशे की दृष्टि से मेडिकल डॉक्टर है।  एक समय फ़्राँस की मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष थे। वे मरहूम शाह फ़ैसल (सऊदी अरब) के व्यक्तिगत चिकित्सक थे। मेरी उनसे मुलाक़ात हुई है। उन्होंने ख़ुद मुझसे इस घटना का वर्णन किया है कि उन्हें एक बार शाह फ़ैसल के मेडिकल परिक्षण के लिए पैरिस से बुलाया गया। वे एक होटल में ठहरे हुए थे। इस अवधि में उन्होंने वहाँ क़ुरआन की एक प्रति रखी हुई देखी। अनमने से उसके पृष्ठों को पढ़ा तो पता चल की पवित्र क़ुरआन में कुछ वर्णन वैज्ञानिक प्रकार के भी हैं। उन्होंने वे सारे वर्णन अपने पास नोट कर लिए। समय उनका कोई इरादा इस्लाम स्वीकार करने का न था। फिर जब वे पेरिस वापस गए तो उन्होंने बाइबल से भी इस प्रकार के सभी वर्णन नोट कर लिए जो विज्ञान के दायरे में आते थे। इसके बाद उन सब वर्णनों का तुलनात्मक अध्ययन किया तो देखा की पवित्र क़ुरआन के सारे वर्णन शत-प्रतिशत ठीक थे और बाइबल के सारे वर्णन शत-प्रतिशत ग़लत। इस प्रकार उनको इस्लाम और क़ुरआन से रुचि उत्पन्न हो गई। अतएव उन्होंने इस्लाम का अध्ययन जारी रखा। अंततः उन्होंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया। इस अवधि में उन्होंने एक किताब भी लिखी “बाइबल, क़ुरआन ऐंड साइंस”। आप उनकी यह किताब किसी विज्ञान के विद्यार्थी को पढ़ने के लिए दे सकतीं हैं।

यदि कोई साहित्य का अध्येता हो तो इस पवित्र क़ुरआन के साहित्यिक सौन्दर्य की कोई किताब दीजिए। उदहारण स्वरूप सैय्यद क़ुत्ब की किताब है “मुशाहिदुल-क़ियामह फिल-क़ुरआन”। इसको पढ़कर पवित्र क़ुरआन की साहित्यिक महत्ता का आभास होगा। अल्लामा इक़बाल ने एक जगह लिखा है कि कोई व्यक्ति भी पवित्र क़ुरआन के शाब्दिक और अर्थ सम्बन्धी सौन्दर्य से प्रभावित हुऐ बिना नहीं रह सकता, यदि एक बार वह उसके दायरे में आ जाए।

हिदायत अल्लाह तआला के हाथ में है, हमारे और आपके हाथ में नहीं है। लकिन किसी भी व्यक्ति को जब आप क़ुरआन के क़रीब आने कि दावत (बुलावा) दें तो अनुवाद और व्याख्या उसके मानसिक स्तर, प्रकति एवं प्रवृत्ति तथा उसकी ज्ञान सम्बन्धी रूचि को सामने रखकर दें। अनुवाद और व्याख्या हर ढंग की मौजूद है। हमारी उर्दू भाषा में पवित्र क़ुरआन के सैंकड़ों अनुवाद और तफ़सीरें मौजूद हैं। यदि किसी ने पाश्चात्य चिंतन और विचारधाराओं का गहरा अध्ययन किया हो तो आप उसे मौलाना अब्दुल माजिद दरियाबादी की तफ़सीर पढ़ने का सुझाव दें जो एक ज़िल्द (खंड) में हैं, लेकिन बड़ी असाधारण और उत्तम तफ़सीर है। यदि कोई व्यक्ति धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करने में रूचि रखता है तो एक तफ़सीर हक़्क़ानी है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दौर के एक बुज़ुर्ग थे मौलाना अब्दुल हक़ हक़्क़ानी, यह उनकी तफ़सीर है। यदि कोई अंग्रेजी साहित्य का रसिया है और पश्चिमी सभ्यता की मानसिकता का अध्येता है तो फिर आप उसे अब्दुल्लाह यूसुफ़ अली का अंग्रेजी अनुवाद और तफ़सीर दें। कहने का तात्पर्य यह है कि पहले आदमी की रुचि और प्रवृत्ति देख लें और उसके अनुकूल उसे पढ़ने के लिए किताबें दें। अगर उसके दिल में हिदायत (सत्य मार्ग पाने) का बीज है और अल्लाह तआला का इरादा है तो निश्चय ही उसे हिदायत हासिल होगी।

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