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बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है

दो शब्द

तलखीस तफ़हीमुल-क़ुरआन (हिन्दी) भाग-1 को पेश करते हुए हमें बहुत खुशी हो रही है। तफ़हीमुल-क़ुरआन मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी (रह.) द्वारा क़ुरआन पर लिखा गया वृहद भाष्य है, जो उर्दू में विस्तृत छः खण्डों में संकलित है। उन्हीं छः खण्डों पर फैले वृहद भाष्य को दिया गया संक्षिप्त रूप का नाम तलखीस तफ़हीमुल क़ुरआन है।

मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी (रह.) के द्वारा रचित विश्व प्रसिद्ध क़ुरआन-टीका एवं भाष्य "तफ़हीमुल-कुरआन" आज की एक अत्युत्तम टीका है। यह टीका वर्तमान समय के ज़ेहन को क़ुरआन और उसके द्वारा बयान किए गए तथ्यों और शिक्षाओं के बारे में जिस प्रकार विश्वास और सन्तोष की ठण्डक से लाभान्वित करती है वह उसी का हिस्सा है। यह पढ़नेवालों के अन्दर केवल क़ुरआन की समझ ही नहीं पैदा करती है, बल्कि सत्य के अभिलाषियों को ईमान की ताज़गी प्रदान करती और कर्म की ओर उत्प्रेरित भी करती है और उनके अन्दर सत्य के प्रचार-प्रसार की भावनाओं को जगाती है।

धर्म का हित और इस्लाम का आवाहक-स्वभाव अपेक्षा करता है कि ऐसी बहुमूल्य टीका का प्रकाशन बड़े-से-बड़े पैमाने पर हो और वह अधिक-से-अधिक हाथों तक पहुँचे। परन्तु एक तो यह टीका उर्दू भाषा में है, दूसरे छह विशालकाय खण्डों में फैली हुई है। इन दोनों बातों के परिणामस्वरूप उर्दू से अनभिज्ञ वर्ग तो इससे लाभ उठा ही नहीं सकता और उर्दू जाननेवालों के लिए भी इसकी उपयोगिता व्यवहारतः उतनी नहीं हो रही, जितनी होनी चाहिए। इसी कारण तय किया गया कि इस विस्तृत टीका का एक व्यापक संक्षिप्त रूप तैयार कराया जाए और उसे केवल उर्दू ही में नहीं, बल्कि देश की दूसरी समस्त महत्वपूर्ण भाषाओं में भी अनुवाद कराके प्रकाशित किया जाए, ताकि उससे लाभान्वित होने के मार्ग की कठिनाइयाँ दूर हो जाएँ। लोगों के लिए उसे प्राप्त करना ही नहीं, बल्कि साधारणतया पास रखना एवं उसका पाठ करना (अर्थात् तिलावते -क़ुरआन) भी आसान हो जाए।

यह गम्भीर और कठिन काम अल्लाह की कृपा से मौलाना सदरुद्दीन इस्लाही (रह.) के हाथों पूरा हुआ।

इस संक्षिप्तीकरण में यह ढंग अपनाया गया है –

(1) 'तफ़हीमुल-क़ुरआन' की टिप्पणियों में जो बहुत संक्षिप्त प्रकार की टिप्पणियाँ हैं वे इस संक्षिप्तीकरण में, किसी काट-छांट के बिना, ज्यों-की-त्यों पूर्ववत रखी गई हैं। ऐसी टिप्पणियाँ समस्त टिप्पणियों का लगभग 55 प्रतिशत भाग हैं।

(2) मध्यम दर्जे की टिप्पणियों में से भी जो कुल टिप्पणियों का लगभग 30 प्रतिशत भाग है, कुछ को उनके विशिष्ट महत्व और आवश्यकता के कारण पूर्ववत शेष रखा गया है, जबकि अधिकतर टिप्पणियों को आवश्यकतानुसार संक्षिप्त कर दिया गया है, अर्थात् उनके कुछ अंशों को निकाल दिया गया है। परन्तु इन निकाले गए अंशों की हैसियत चूँकि आमतौर पर केवल 'तद्धिक व्याख्या की है इसलिए उनके निकाल दिए जाने के उपरान्त भी टिप्पणियों के मूल विषयों में कोई विशेष कमी पैदा नहीं हुई है।

(3) शेष बची हुई टिप्पणियाँ, जो बहुत लम्बी-लम्बी हैं और संख्या में कुल टिप्पणियों का लगभग 15 प्रतिशत भाग है, उनमें से कुछ को ज्यों-का-त्यों ले लिया गया है और उनका कोई अंश नहीं छोड़ा गया है। ऐसा उनके किसी-न-किसी विशेष महत्व के कारण किया गया है। शेष को काफी हद तक संक्षिप्त कर दिया गया है। संक्षिप्त की गई ये टिप्पणियाँ साधारणतया वे टिप्पणियाँ हैं, जिनमें या तो (i) कर्म-काण्ड सम्बन्धी (अर्थात् फ़िक़ही) या ऐतिहासिक विवरणों का उल्लेख हुआ है या (ii) क़ुरआनी आयतें, या तौरात या इंजील के एक के बाद एक कई-कई उद्धरण दिए गए हैं, या फिर (iii) उनको विषय-वस्तु का उल्लेख पिछली अन्य टिप्पणियों में हो चुका है।

(4) संक्षिप्त की हुई टिप्पणियाँ दो प्रकार की है: एक प्रकार की टिप्पणियाँ तो वे हैं जिनके कुछ अंशों का परित्याग एवं संक्षेप करने के बाद भी मूल लेखक मौलाना मौदूदी (रह०) के अपने ही शब्दों में पूर्ववत है। उनमें किसी प्रकार की कोई अभिवृद्धि नहीं की गई है। दूसरा प्रकार उन टिप्पणियों का है, जिनमें किसी-न-किसी जगह एक-दो शब्द या एकाध वाक्य मौलाना इस्लाही के बढ़ाए हुए हैं। इस अभिवृद्धि की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि इस प्रकार की टिप्पणियों के कुछ अंशों को निकाल दिए जाने के पश्चात शेष इबारते असंबद्ध होकर रह जाती थी। उनकी इस क्रमहीनता को दूर करने के लिए ये अभिवृद्धियाँ की गई।

(5) लेखक ने 'तफ़हीमुल क़ुरआन' के पूर्ण होने और प्रकाशन के बाद अपने जीवन के अन्तिम चरण में "तर्जुमा क़ुरआन मजीद, मय मुख्तसर हवासी" (अर्थात् अनूदित क़ुरआन मजीद-संक्षिप्त टीका सहित) के नाम से क़ुरआन मजीद का जो सम्पूर्ण अनुवाद (उर्दू मे) अत्यंत संक्षिप्त व्याख्यापूर्ण टिप्पणियों के साथ अलग से एक खण्ड में प्रकाशित किया था, उसकी टिप्पणियाँ यद्यपि “तफ़हीमुल क़ुरआन" ही की टिप्पणियों का संक्षिप्त रूप हैं, लेकिन उसमें उन्होंने कुछ टिप्पणियाँ बिल्कुल नए सिरे से भी लिखी हैं, जो "तफ़हीमुल क़ुरआन" में नहीं थीं और न अब है। मौलाना इस्लाही (रह०) ने मौलाना मौदूदी (रह०) के मन्तव्य के अनुसार इस 'संक्षिप्तीकरण' में उन नई टिप्पणियों को भी सम्मलित कर दिया है।

(6) क़ुरआन की सूरा 4 (अन-निसा) की आयत 3 के प्रथम वाक्य "और यदि तुम्हें आशंका हो. तीन-तीन या चार-चार से" के अनुवाद पर जो व्याख्यात्मक टिप्पणी माननीय लेखक (रह०) ने "तर्जुमा क़ुरआन" में लिखी है, वह "तफ़हीमुल क़ुरआन" की टिप्पणी कुछ भिन्न प्रकार की है। केवल यही एक स्थान है जहाँ दोनों की व्याख्यात्मक टिप्पणियाँ एक दूसरे से पूरी तरह अनुरूपता नहीं रखती। चूंकि इन दोनों टिप्पणियों में से एक को लेना और एक को छोड़ देना उचित न होता इसलिए इस "तफ़हीमुल क़ुरआन के सार-ग्रंथ" में दोनों ही को अंकित कर दिया गया है। पहले “तफ़हीमुल क़ुरआन" वाली टिप्पणी को फिर दूसरी टिप्पणी को दोनों को स्पष्ट कर देने के लिए इस दूसरी टिप्पणी को एक विवरणात्मक नोट के साथ इस प्रकार []के कोष्ठक अर्थात् बड़े कोष्ठक के अन्दर कर दिया है।

 

(7) विद्वान लेखक (रह०) ने "तर्जुमा क़ुरआन मजीद-मय मुख्तसर हवाशी" (अर्थात् अनूदित क़ुरआन मजीद-संक्षिप्त टीका सहित) में देने के लिए "तफ़हीमुल क़ुरआन" की टिप्पणियों को केवल संक्षिप्त ही नहीं किया है बल्कि उनमें से कुछ के अन्दर थोड़ी-बहुत शाब्दिक काट-छाँट एवं परिवर्तन भी किया है। चूँकि इन परिवर्तनों की हैसियत स्पष्ट रूप से पुनरावलोकित तथा संशोधित लेख को हस्तलिपि की है, इसलिए "संक्षिप्तीकरण" में "तफहीमुल क़ुरआन" की मूल इबारतों के बजाय इन्हीं बदली हुई इबारतों को लिया गया है।

(8) जहाँ तक क़ुरआन मजीद के अनुवाद का सम्बन्ध है, यद्यपि “तफ़हीमुल क़ुरआन" ही का अनुवाद "तर्जुमा क़ुरआन" (अनूदित क़ुरआन) में भी दिया गया है, परन्तु कहीं-कहीं छोटे-मोटे शाब्दिक परिवर्तनों के साथ दिया गया है। चूँकि इन परिवर्तनों की हैसियत भी संशोधनों की है, इसलिए “संक्षिप्तीकरण" में "तफ़हीमुल क़ुरआन" से क़ुरआन का अनुवाद लेते समय इन परिवर्तनों एवं संशोधनों का भी ध्यान रखा गया है। दूसरे शब्दों में, यह कि "संक्षिप्तीकरण" में क़ुरआन का वह अनुवाद लिया गया है जो मूल भाष्यकार ने संक्षिप्त टीकावाले क़ुरआन में (अर्थात् तर्जुमा क़ुरआन मजीद में) लिखा है। अलबत्ता कुछ आयतों का मामला इससे भिन्न है। इस भिन्नता का कारण यह है कि "तफ़हीमुल क़ुरआन" में इन आयतों के अनुवादों पर जो दो अलग-अलग टिप्पणियाँ दी गई हैं। "तर्जुमा क़ुरआन मजीद" में उन्हें टिप्पणी के रूप में देने के बजाय लेखक (रह०) ने मूल अनुवाद हो के अन्दर कोष्ठक में दे दिया है। अब यदि "संक्षिप्तीकरण" के अन्दर इस विधि को अपनाया जाता तो फिर इन आयतों के अनुवादों पर “तफ़हीमुल क़ुरआन" में दी गई टिप्पणियाँ यहाँ निरस्त कर देनी पड़ती और यह बात उस उद्देश्य के विरुद्ध होती जिसका "तफ़हीमुल क़ुरआन" की टिप्पणियों के बारे में पूरी तरह ध्यान रखा गया है, अर्थात् यह कि "संक्षिप्तीकरण" में "तफ़हीमुल क़ुरआन" की कोई एक टिप्पणी भी पूरी तरह छूटने न पाए।

इस "संक्षिप्तीकरण" के लेख-विन्यास में निम्न रीति अपनाई गई है (1) इस संक्षिप्तीकरण" में जहाँ कहीं भी जो कुछ मौलाना इस्लाही की ओर से अभिवृद्धि की गई या जोड़ा गया है, तो वे शब्द या वाक्य बड़े कोष्ठक [] के अन्दर रखे गए हैं, ताकि बढ़ाए हुए शब्द मूल लेखक (रह०) के शब्दों से बिल्कुल अलग और स्पष्ट दिखाई दें।

(2) "इस ग्रंथ" में मूल टीकाकार की लिखी हुई जो टिप्पणियां "तर्जुमा क़ुरआन मजीद" से ली गई हैं वे अतिरिक्त नम्बर लगाकर लिखी गई हैं। उदाहरणार्थ, यदि "तफ़हीमुल क़ुरआन" की किसी टिप्पणी का नम्बर 6 था और उसके बाद किसी नई लिखी हुई टिप्पणी की अभिवृद्धि की गई है तो उसपर 6-अ का नम्बर लगा दिया गया है।

(3) "तर्जुमा क़ुरआन मजीद-मय मुख्तसर हवाशी" (अनूदित कुरआन मजीद- संक्षिप्त टीका सहित) से लेकर इस "संक्षिप्तीकरण" में जिन नई टिप्पणियों की अभिवृद्धि की गई है उनको भी, और जिन परिवर्तित व संशोधित इबारतो को लिया गया है उनको भी निरन्तर अर्थात् किसी पृथकता प्रकट करनेवाले चिह्न के बिना रखा गया है। क्योंकि ये नई टिप्पणियाँ और ये संशोधित इबारतें दोनों चीजें लेखक महोदय (रह०) की अपनी ही है, न कि किसी अन्य की, इसलिए इन्हें किसी विशिष्ट संकेत चिह्न के द्वारा स्पष्टतया पृथक कर देने की बिल्कुल कोई आवश्यकता नहीं थी। "तफ़हीमुल क़ुरआन" में उनके मौजूद न होने के उपरांत भी वस्तुत: उन्हें "तफ़हीम" ही का अंग समझना चाहिए। "तफ़हीमुल क़ुरआन" के इस सार-ग्रंथ अर्थात् तलखीस का अध्ययन करते समय इन सारी बातों को अवश्य सामने रखना चाहिए।

उर्दू तलखीस का हिन्दी अनुवाद करने का श्रेय आदरणीय डॉ० कौसर यजदानी नदवी को प्राप्त हुआ है। इस अनुवाद को बेहतर से बेहतर बनाने में जनाब नसीम गाज़ी फलाही साहब, कौसर लईक साहब, खालिद निज़ामी साहब, मुहम्मद इलियास हुसैन साहब, जफ़र अहमद फलाही साहब, अब्दुल्लाह साहब और मुहम्मद यूनुस साहब का विशेष सहयोग मिला। जनाब हाफिज मुहियुद्दीन खान साहब से मूल अरबी पढ़वाकर इत्मीनान कर लिया गया है।

हम इन सब सज्जनों के लिए खैर व भलाई की दुआ करते हैं।

हमारी पूरी कोशिश रही है कि इस ग्रन्थ में प्रूफ़ आदि की कोई ग़लती न हो, परन्तु अगर पाठकगण कहीं कोई ग़लती पाएं तो हमें अवश्य सूचित करें ताकि आगामी संस्करण में उसे सुधारा जा सके। हम उनके आभारी होंगे।

अल्लाह तआला इस ग्रंथ को हम सबके लिए लाभकारी बनाए। आमीन!

- प्रकाशक

भूमिका

भूमिका शब्द देखकर किसी को यह भ्रम न हो कि मैं क़ुरआन की भूमिका लिख रहा हूँ। यह क़ुरआन की नहीं 'तफ़हीमुल क़ुरआन (क़ुरआन-प्रबोध) की 'भूमिका' है और इसके लिखने के मेरे सामने दो उद्देश्य है।

एक यह कि क़ुरआन का अध्ययन शुरू करने से पहले एक सामान्य पाठक उन बातों को अच्छी तरह जान ले, जिन्हें आरम्भ ही में समझ लेने से क़ुरआन समझने की राह आसान हो जाती है, वरना ये बातें पढ़ते समय बराबर खटकती रहती हैं और कभी-कभी तो इन्हें न समझने के कारण एक व्यक्ति वर्षों क़ुरआन के अर्थों की ऊपरी सतह पर घूमता रहता है और गहराई में उतरने का रास्ता उसे नहीं मिलता।

दूसरे यह कि उन प्रश्नों के उत्तर पहले ही दे दिए जाएं, जो क़ुरआन को समझने की कोशिश करते समय आम तौर से लोगों के मन में पैदा हुआ करते हैं। मैं इस भूमिका में केवल उन प्रश्नों का उत्तर दूँगा, जो स्वयं मेरे मन में प्रथमतः पैदा हुए थे, या जिनसे बाद में मेरा वास्ता पड़ा । इनके अलावा अगर कुछ और प्रश्न भी उत्तर देने के लिए बाक़ी रह गए हो, तो उनसे मुझे अवगत कराया जाए उनका उत्तर, अगर अल्लाह ने चाहा तो, अगले संस्करण में सम्मलित कर दिया जाएगा।

क़ुरआन की वर्णन-शैली एवं अभिव्यंजना

साधारणतया हम जिन पुस्तकों के पढ़ने के आदी है, उनमें एक निर्धारित विषय पर संबंधित जानकारियों, विचारों और दलीलों को एक विशेष क्रम के साथ लिख दिया जाता है। इसी कारण, जब एक ऐसा व्यक्ति, जो क़ुरआन से अभी तक अपरिचित रहा है, पहली बार इसके अध्ययन का इरादा करता है, तो वह यह आशा लिए हुए आगे बढ़ता है कि 'पुस्तक' होने की हैसियत से इसमें भी सामान्य पुस्तकों की भांति पहले विषय का निर्धारण होगा, फिर मूल विषयों को खण्डों और अध्यायों में बाँटकर एक क्रम के साथ एक-एक पहलू पर वार्ता की जाएगी और इसी प्रकार जीवन के एक-एक पहलू को भी अलग-अलग लेकर उसके बारे में आदेश व निर्देश लिखे होंगे। मगर जब वह पुस्तक खोलकर अध्ययन शुरू करता है, तो यहाँ उसे अपनी आशा के बिल्कुल विपरीत एक दूसरी ही वर्णन-शैली से वास्ता पड़ता है, जिससे वह अब तक बिल्कुल अपरिचित था। यहाँ वह देखता है कि विश्वास से सम्बन्धित बातें, नैतिक आदेश, शरई हुक्म (धर्म-विधान सम्बन्धी आदेश), सन्देश, उपदेश शिक्षा सामग्री, आलोचना, निन्दा डरावा, शुभ-सूचना, तसल्ली दलीलें, गवाहियाँ, ऐतिहासिक कहानियाँ, ब्रह्माण्ड में फैली निशानियों की ओर संकेत, बार-बार एक-दूसरे के बाद आ रहे हैं। एक ही विषय विभिन्न तरीकों से विभिन्न शब्दों में दुहराया जा रहा है। एक विषय के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा अचानक शुरू हो जाता है, बल्कि एक विषय के बीच में दूसरा विषय एकाएक आ जाता है। सम्बोधित करनेवाला और वह जिसे सम्बोधित किया जा रहा है, बार-बार बदलते हैं और सम्बोधन रह-रहकर विभिन्न दिशाओं में फिरता है। अध्यायों और खण्डों में किसी प्रकार का कोई विभाजन नहीं। इतिहास है तो इतिहास की शैली में नहीं, दर्शन व पराप्राकृतिक बात है, तो तर्क व दर्शनशास्त्र की भाषा में नहीं; मानव और भौतिक वस्तुओं का उल्लेख है तो भौतिक विज्ञान के ढंग पर नहीं; सभ्यता और संस्कृति, अर्थ व सामाजिकता की बातें हैं तो सामाजिक विज्ञान के तरीक़े पर नहीं, क़ानून और उसके हुक्मों का बयान है तो क़ानूनदानों के ढंग से बिल्कुल अलग; नैतिकता की शिक्षा है तो नीति-दर्शन के पूरे साहित्य से उसकी शैली भिन्न- यह सब कुछ 'पुस्तक' के बारे में अपनी पिछली कल्पनाओं के विपरीत पाकर आदमी परेशान हो जाता है और उसे ऐसा आभास होने लगता है मानो यह एक अक्रमबद्ध असम्बद्ध तथा बिखरी हुई वाणी है जो शुरू से लेकर आखिर तक अगणित छोटे-बड़े विभिन्न बोलों पर आधारित हैं, मगर जिसे क्रमागत वाक्य के रूप में लिख दिया गया है। विरोधी दृष्टिकोण से देखनेवाला इसी पर नाना प्रकार की आपत्तियों व सन्देहों की नींव रख देता है और हिमायती दृष्टिकोण रखनेवाला कभी अर्थ की ओर से आँखें बन्द करके सन्देहों से बचने की कोशिश करता है। कभी इस प्रत्यक्ष क्रमहीनता के कुछ कारण बताकर अपने मन को समझा लेता है। कभी कृत्रिम रूप से क्रम खोजकर विचित्र नतीजे निकालता है और कभी 'छोटे-छोटे अंश' सरीखे सिद्धान्त को स्वीकार कर लेता है, जिसके कारण हर आयत अपने सन्दर्भ से हटकर ऐसे-ऐसे अर्थों का योग बन जाती है जो कहनेवाले के अभिप्राय के विपरीत होती है।

फिर एक पुस्तक को अच्छी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि पढ़नेवाले को उसका विषय मालूम हो, उसके उद्देश्य व ध्येय और उसके केन्द्रीय विषय का ज्ञान हो, उसकी वर्णन-शैली की जानकारी हो, उसकी पारिभाषिक भाषा और उसके विचार व्यक्त करने के विशेष ढंग से परिचित हो और उसके वर्णन अपने स्पष्ट वाक्यों के पीछे जिन परिस्थितियों व मामलों से सम्बन्ध रखते हों, वे भी नज़रों के सामने रहें। साधारण रूप से जो पुस्तकें हम पढ़ते हैं, उनमें ये चीजें आसानी से मिल जाती हैं, इसलिए उनके विषयों की तह तक पहुँचने में हमें कोई बड़ी कठिनाई नहीं होती, परन्तु क़ुरआन में ये चीजें उस तरह नहीं मिलती जिस तरह हम दूसरी पुस्तकों में इन्हें पाने के आदी रहे हैं। इसलिए एक सामान्य पाठक की-सी मनोवृत्ति लेकर जब हममें का कोई व्यक्ति क़ुरआन का अध्ययन शुरू करता है तो उसे किताब के विषय, ध्येय और केन्द्रीय विषय का पता नहीं मिलता, उसकी वर्णन शैली और उसके विचार व्यक्त करने का ढंग भी उसे कुछ अजनबी सा जान पड़ता है और अधिक स्थानों पर उसके वाक्यों की पृष्ठभूमि भी उसकी निगाहों से ओझल रहती है। नतीजा यह होता है कि विभिन्न आयतों में तत्त्वदर्शिता के जो मोती बिखरे हुए हैं, उनसे कमोबेश फ़ायदा उठाने के बावजूद एक व्यक्ति अल्लाह के कलाम (ईश-वाणी) की मूल आत्मा तक पहुँचने से वंचित रह जाता है और ग्रन्थ का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के स्थान उसे ग्रन्थ के कुछ बिखरे से फायदों पर ही संतोष कर लेना पड़ता है, बल्कि अधिकतर लोग जो कुरआन का अध्ययन करके सन्देहों के शिकार हो जाते हैं, उनके भटकने का एक कारण यह भी है कि क़ुरआन के समझने की इन आवश्यक आरम्भिक बातों से अनभिज्ञ रहते हुए जब वे इसका अध्ययन करते हैं तो उसके पन्नों पर विभिन्न विषय उन्हें बिखरे हुए नज़र आते हैं, अधिकांश आयतों का अर्थ उनपर स्पष्ट नहीं होता, बहुत-सी आयतों को देखते हैं कि वे स्वतः तत्त्वदर्शिता की ज्योति से जगमगा रही हैं, मगर आयत के सन्दर्भ में बिल्कुल बेजोड़ महसूस होती हैं। अनेक स्थानों पर अर्थ-बोध और वर्णन-शैली से अनभिज्ञता उन्हें मूल अर्थ से हटाकर किसी और ही ओर ले जाती है और अधिकतर अवसरों पर पृष्ठभूमि का सही ज्ञान न होने से भारी ग़लतफहमियाँ पैदा हो जाती हैं।

क़ुरआन किस प्रकार की पुस्तक है? इसके उतरने का विवरण और उसके क्रम का रूप क्या है? इसकी वार्ता का विषय क्या है? इसकी वार्ताओं का मूलोउद्देश्य क्या है? किस केन्द्रीय विषय के साथ इसके ये अगणित और विभिन्न प्रकार के विषय सम्बद्ध हैं? इसने अपने विचार व्यक्त करने के तर्क का क्या ढंग और क्या वर्णन-शैली अपनायी है? ये और ऐसे ही कुछ दूसरे ज़रूरी प्रश्न हैं जिनका उत्तर साफ़ और सीधे ढंग से अगर मनुष्य को आरम्भ हो में मिल जाए तो वह बहुत-से खतरों से बच सकता है और उसके लिए सोचने-समझने और ग़ौर करने की राहें खुल सकती हैं। जो व्यक्ति क़ुरआन में लेखन-क्रम खोजता है और वहाँ उसे न पाकर पुस्तक के पन्नों में भटकने लगता है, उसकी परेशानी का मूल कारण यही है कि वह क़ुरआन अध्ययन की आरम्भिक बातों से अनभिज्ञ होता है। वह इस विचार को लेकर अध्ययन शुरू करता है कि वह "धर्म के विषय पर एक पुस्तक' पढ़ रहा है। 'धर्म का विषय' और 'पुस्तक' के बारे में उसके मस्तिष्क में धारणा वही होती है जो आमतौर से 'धर्म' और 'पुस्तक' के बारे में मस्तिष्कों में पाई जाती है। मगर जब वहां उसे अपनी मानसिक धारणा से बिल्कुल भिन्न एक चीज़ मिलती है तो वह अपने अन्दर उसके प्रति रुचि उत्पन्न नहीं कर पाता और विषय का सिरा हाथ न आने के कारण पंक्तियों में यों भटकना शुरू कर देता है मानो वह एक अजनबी मुसाफ़िर है जो किसी नए शहर की गलियों में खो गया है। उसे इस प्रकार के भटकाव एवं विमार्गता से बचाया जा सकता है, यदि उसे पहले ही यह बता दिया जाए कि जिस पुस्तक को वह पढ़ने जा रहा है, वह पूरे संसार के साहित्य में अपने ढंग की एक ही पुस्तक है। इसकी 'रचना' संसार की समस्त पुस्तकों से बिल्कुल भिन्न रूप से हुई है, अपने विषय और क्रम की दृष्टि से भी वह एक अनोखी चीज़ है, इसलिए तुम्हारे मस्तिष्क का वह 'पुस्तकीय ढाँचा' जो अब तक के पुस्तक अध्ययनों से बना है, इस पुस्तक के समझने में तुम्हारी सहायता न करेगा, बल्कि उलटी रुकावट डालेगा। इसे समझना चाहते हो तो अपनी पहले से बनी हुई परिकल्पनाओं को मस्तिष्क से निकालकर इसकी अनोखी विशेषताओं से परिचय प्राप्त करो।

इस सिलसिले में सबसे पहले पाठक को क़ुरआन की वास्तविकता से परिचित होना चाहिए। वह चाहे इस पर ईमान लाए या न लाए मगर इस पुस्तक को समझने के लिए उसे आरम्भ-बिन्दु के रूप में इसकी वही वास्तविकता माननी होगी जो स्वयं इसने और इसके पेश करनेवाले (अर्थात मुहम्मद सल्ल०) ने बताई है और वह यह है :-

1. विश्व स्वामी ने, जो सम्पूर्ण सृष्टि का पैदा करनेवाला, स्वामी और शासक है, अपने असीम राज्य के इस भाग में, जिसे पृथ्वी कहते हैं, मनुष्य को पैदा किया उसे जानने और सोचने-समझने की शक्तियाँ दी, भले और बुरे में अन्तर करने की योग्यता दी, चयन और निश्चय की आज़ादी दी, वस्तुओं के उपभोग के अधिकार दिए और बड़ी हद तक एक प्रकार का स्वाधिकार (Autonomy) देकर उसे पृथ्वी में अपना खलीफा (नायब, प्रतिनिधि) बनाया।

2. इस पद पर मनुष्य को नियुक्त करते समय विश्व स्वामी ने अच्छी तरह उसके कान खोलकर यह बात उसके मस्तिष्क में डाल दी थी कि तुम्हारा और समस्त संसार का स्वामी, उपास्य और शासक मैं ही हूँ। मेरे इस राज्य में न तुम स्वाधीन हो, न किसी दूसरे के दास हो और न मेरे सिवा कोई तुम्हारी भक्ति, आज्ञापालन और उपासना का अधिकारी है। संसार का यह जीवन, जिसमें तुम्हें अधिकार देकर भेजा जा रहा है, वास्तव में तुम्हारे लिए एक परीक्षा की मुद्दत है, जिसके बाद तुम्हें मेरे पास वापस आना होगा और मैं तुम्हारे कर्मों की जाँच करके फ़ैसला करूँगा कि तुममें से कौन परीक्षा में सफल रहा है और कौन असफल तुम्हारे लिए सही रवैया यह है कि मुझे अपना एकमात्र उपास्य और शासक मानो, जो निर्देश में भेजूं उसके अनुसार संसार में काम करो और संसार को परीक्षा-स्थल समझते हुए इस चेतना के साथ जीवन बिताओ कि तुम्हारा मूल उद्देश्य मेरे अन्तिम निर्णय में सफल होना हो। इसके विपरीत तुम्हारे लिए हर वह नीति ग़लत है। जो इससे भिन्न हो, अगर पहली नीति अपनाओगे (जिसे अपनाने के लिए तुम स्वतंत्र हो) तो तुम्हें संसार में शान्ति सन्तोष प्राप्त होगा और जब मेरे पास पलटकर आओगे तो मैं तुम्हे शाश्वत सुख-चैन का वह घर दूँगा, जिसका नाम 'जन्नत' है और अगर दूसरी किसी नीति पर चलोगे (जिस पर चलने के लिए भी तुमको स्वतंत्रता प्राप्त है) तो संसार में तुमको बिगाड़ और अशान्ति का मज़ा चखना होगा और इस लोक से गुजर कर परलोक (आखिरत) में जब आओगे, तो शाश्वत दुख व कष्ट के उस गढ़े में फेंक दिए जाओगे जिसका नाम 'दोजख' है।

3. यह समझाने के बाद विश्व स्वामी ने मानव जाति को ज़मीन में जगह दी और इस जाति के सबसे पहले व्यक्तियों (आदम और हव्वा) को वे निर्देश भी दे दिए जिनके अनुसार उन्हें और उनकी औलाद को ज़मीन में काम करना था। ये प्रथम मानव अज्ञानता और अन्धकार की स्थिति में पैदा नहीं हुए थे, बल्कि अल्लाह ने पृथ्वी पर उनके जीवन का आरम्भ पूरे प्रकाश में किया था। वे सत्य से परिचित थे। उन्हें उनका जीवन-विधान बता दिया गया था। उनका जीवन बिताने का तरीक़ा अल्लाह का आज्ञापालन (अर्थात् इस्लाम) था और वे अपनी औलाद को यही बात सिखाकर गए कि वे अल्लाह के आज्ञापालक (मुस्लिम) बनकर रहे लेकिन बाद की सदियों में धीरे-धीरे मनुष्य उस सही जीवन-व्यवस्था से हटकर विभिन्न प्रकार की ग़लत नीतियों की ओर चल पड़े। उन्होंने ग़फ़लत से इसे गुम भी किया और दुष्टता के साथ इसका रूप भी बदल दिया। उन्होंने अल्लाह के साथ जमीन व आसमान की विभिन्न मानवीय व अमानवीय काल्पनिक व भौतिक चीज़ों को अल्लाह का शरीक ठहरा लिया। उन्होंने अल्लाह के दिए हुए सत्य-ज्ञान में भाँति-भांति के अन्धविश्वासों, धारणाओं और सिद्धान्तों की मिलावट करके असंख्य धर्म पैदाकर लिए। उन्होंने अल्लाह की निर्धारित संस्कृति व सभ्यता के सर्वथा संतुलित एवं कल्याणकारी नियमों (शरीअत) को छोड़कर या उन्हें विकृत करके अपनी मनोकामनाओं और अपने अनुचित पक्षपातों के अनुसार जीवन के ऐसे नियम गढ़ लिए जिनसे अल्लाह की ज़मीन ज़ुल्म (अन्याय व अत्याचार) से भर गई।

4. अल्लाह ने जो सीमित स्वाधीनता मनुष्य को दी थी, उसके साथ यह बात मेल न खाती थी। कि वह स्रष्टा होने के अधिकार का इस्तेमाल करके इन बिगड़े हुए मनुष्यों को ज़बरदस्ती सही नीति की ओर मोड़ देता और उसने संसार में काम करने के लिए जो मुहलत इनके लिए और इनको विभिन्न जातियों के लिए तय की थी, उसके साथ यह बात भी मेल न खाती थी कि इस विद्रोह के पैदा होते ही वह मनुष्यों को हलाक कर देता। फिर जो काम आदिकाल से उसने अपने जिम्मे लिया था कि मनुष्य की स्वाधीनता को बाक़ी रखते हुए उसकी कार्यविधि में, उसके मार्गदर्शन का प्रबन्ध वह करता रहेगा। अतएव अपनी इस स्वतः डाली हुई ज़िम्मेदारी को अदा करने के लिए उसने मनुष्यों ही में से ऐसे व्यक्तियों को इस्तेमाल करना शुरू किया जो उस पर ईमान रखनेवाले और उसकी इच्छा का पालन करनेवाले थे। उसने उनको अपना नुमाइन्दा बनाया, अपने सन्देश उनके पास भेजे, उन्हें सत्य ज्ञान दिया, उन्हें सही जीवन-विधान दिया और उन्हें इस काम पर नियुक्त किया कि आदम के बेटों को उसी सत्य मार्ग की ओर पलटने को कहें, जिससे वे हट गए थे।

5. ये पैग़म्बर विभिन्न जातियों और देशों में आते रहे, हजारों वर्ष तक उनके आने का सिलसिला चलता रहा, हजारों की संख्या में वे भेजे गए उन सभी का एक ही धर्म था, अर्थात् वह सही रीति, जो पहले दिन ही मनुष्य को बता दी गई थी। वे सब एक ही आदेश का पालन करनेवाले थे, अर्थात् नैतिकता व संस्कृति के वे आदिकालिक व अनन्त विधान जो आरम्भ ही में मनुष्य के लिए निश्चित कर दिए गए थे और उन सबका एक ही मिशन था, अर्थात् यह कि इस धर्म और इस मार्गदर्शन की ओर अपनी जातिवालों को बुलाएँ फिर जो लोग इस आमंत्रण को स्वीकार कर लें, उन्हें संगठित करके एक ऐसा गिरोह बनाएँ जो स्वयं अल्लाह के क़ानून का पाबन्द हो और संसार में ईश्वरीय-विधान की स्थापना एवं उसके नियमों के उल्लंघन को रोकने के लिए संघर्ष करे। पैग़म्बरों ने अपने-अपने काल में अपने इस मिशन को भली-भांति पूरा किया, मगर सदैव यही होता रहा कि मनुष्यों की एक बड़ी संख्या तो उनके आह्वान को स्वीकार करने के लिए तैयार हो न हुई और जिन्होंने इसे स्वीकार करके आज्ञापालक गिरोह का रूप धारण कर लिया, वे कालांतर में धीरे-धीरे स्वयं बिगड़ते चले गए यहाँ तक कि इनमें से कुछ गिरोह ईश्वरीय आदेश को बिल्कुल हो भुला बैठे और कुछ ने ईश्वरीय-निर्देशों को अपने संशोधनों और मिलावटों से बिगाड़कर रख दिया।

6. अन्त में विश्व स्वामी ने अरब भू-भाग में हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को उसी काम के लिए भेजा, जिसके लिए पिछले नबी आते रहे। वे जनसाधारण को भी सम्बोधित करते थे और पिछले नबियों के बिगड़े हुए अनुयायियों को भी सबको सही रीति की ओर बुलाना, सबको फिर से अल्लाह का मार्गदर्शन पहुंचाना और जो इस आह्वान और मार्गदर्शन को स्वीकार करें, उन्हें एक ऐसा गिरोह बना देना उनका काम था जो एक और स्वयं अपने जीवन की व्यवस्था अल्लाह के आदेशानुरूप स्थापित करें और दूसरी ओर संसार के सुधार के लिए संघर्ष करे उस आह्वान व मार्गदर्शन की पुस्तक यह क़ुरआन है जिसे अल्लाह ने हजरत मुहम्मद (सल्ल०) पर उतारा।

क़ुरआन की इस वास्तविकता के मालूम हो जाने के बाद पाठकों के लिए यह समझना आसान हो जाता है कि इस पुस्तक का विषय क्या है? इसका केन्द्रीय विषय क्या है? और इसका उद्देश्य क्या है?

क़ुरआन की विषय-वस्तु

क़ुरआन का विषय मनुष्य है, इस दृष्टि से कि वास्तव में मनुष्य का हित और अहित किस चीज़ में है-प्रमुख रूप से वर्णित है।

मनुष्य ने बाह्य रूप को देखकर या अनुमान के आधार पर जो राय बना लो या इच्छा के वश में हो जाने के कारण अल्लाह और सृष्टि व्यवस्था, अपने अस्तित्व और अपने सांसारिक जीवन के बारे में जो धारणाएँ स्थापित की हैं और उन धारणाओं के आधार पर जो रीति अपना ली है, वह सब वास्तविकता की दृष्टि से ग़लत और परिणाम की दृष्टि से स्वयं मनुष्य हो के लिए विनाशकारी है। वास्तविकता वह है जो मनुष्य को खलीफा (प्रतिनिधि) बनाते समय अल्लाह ने स्वयं बता दी थी और इस वास्तविकता के मुताबिक मनुष्य के लिए वह रीति सही और सफल है, जिसका पिछले पृष्ठों में हम 'सही रीति' के नाम से उल्लेख कर चुके हैं।

 

उसका उद्देश्य मनुष्य को उस सही रीति की ओर बुलाना और अल्लाह के उस मार्गदर्शन स्पष्ट रूप से पेश करना है, जिसे मनुष्य अपनी ग़फ़लत से गुम और अपनी दुष्टता से उसका रूप विकृत करता रहा है।

इन तीन बुनियादी बातों को मस्तिष्क में रखकर कोई व्यक्ति क़ुरआन को देखे तो उसे साफ

को दीख पड़ेगा कि यह ग्रंथ कहीं भी अपने विषय अपने उद्देश्य और केन्द्रीय विषय से बाल बराबर भी नहीं हटा है। आरम्भ से लेकर अन्त तक उसके नाना प्रकार के विषय उसके केन्द्रीय विषय के साथ इस तरह जुड़े हुए हैं जैसे छोटे-बड़े रंग-बिरंग के हीरे-मोती हार की लड़ी में पिरोए हुए होते है। वह ज़मीन व आसमान की बनावट पर मनुष्य की पैदाइश पर, सृष्टि के चिह्नों के निरीक्षण पर और पिछली जातियों की घटनाओं पर वार्ता करता है, विभिन्न जातियों के विश्वास व धारणाओं, चरित्र व आचरण पर टिप्पणी करता है; अनैसर्गिक मामलों व समस्याओं की व्याख्या करता है और बहुत-सी दूसरी चीज़ों का उल्लेख भी करता है, परन्तु इसलिए नहीं कि उसे भौतिकी या इतिहास या दर्शन या किसी अन्य कला की शिक्षा देनी है, बल्कि इसलिए कि उसे वास्तविकता के बारे में मनुष्य की ग़लतफहमियों दूर करनी है, मूल वास्तविकता लोगों के मन में बिठानी है, सत्य विरोधी रीति की ग़लती और दुष्परिणाम को स्पष्ट करना है और उस रीति की ओर बुलाना है जो वास्तविकता के अनुसार और अच्छे परिणामवाली है। यही कारण है कि वह हर वस्तु का उल्लेख केवल उस सीमा तक और उस शैली में करता है जो उसके उद्देश्य के लिए आवश्यक है। सदैव इन विषयों का वर्णन आवश्यकतानुसार करने के बाद, अनावश्यक विस्तारों में जाए बिना अपने उद्देश्य और केन्द्रीय विषय की ओर पलट आता है और उसका पूरा बयान बड़ी ही एकरूपता के साथ 'सन्देश' की धुरी पर घूमता रहता है।

पृष्ठभूमि

मगर क़ुरआन की वर्णन-शैली, इसके क्रम और इसके बहुत से विषयों को मनुष्य उस समय तक अच्छी तरह नहीं समझ सकता जब तक कि वह इसके अवतरण की स्थिति को भी भली-भांति न समझ ले।

यह क़ुरआन ऐसी पुस्तक नहीं है कि अल्लाह ने एक ही समय में इसे लिखकर मुहम्मद (सल्ल०) को दे दिया हो और कह दिया हो कि इसे प्रकाशित करके लोगों को एक विशेष जीवन पद्धति की ओर बुलाएँ। साथ ही यह इस प्रकार की पुस्तक भी नहीं है कि इसमें लेखकीय शैली पर पुस्तक के विषय के बारे में वार्ता की गई हो। यही कारण है कि इसमें न लेखकीय क्रम पाया जाता है और न पुस्तकों जैसी शैली वास्तव में यह ऐसी पुस्तक है कि अल्लाह ने अरब के नगर मक्का में अपने एक बन्दे को पैग़म्बरी की सेवा के लिए चुना और उसे हुक्म दिया कि अपने शहर और अपने क़बीले (क़ुरैश) से सन्देश पहुँचाने की शुरुआत करे। यह काम शुरू करने के लिए आरम्भ में जिन निर्देशों की जरूरत थी, केवल वही दिए गए और वे अधिकतर तीन विषयों पर आधारित थे:

 

एक, पैग़म्बर को इस बात की शिक्षा कि वह स्वयं अपने आपको इस महान कार्य के लिए किस तरह तैयार करे और किस ढंग से काम करे। दूसरे, वास्तविकता के बारे में आरम्भिक जानकारियाँ और उसके बारे में उन ग़लतफहमियों का सारतः खण्डन, जो आस-पास के लोगों में पाई जाती थी जिनके कारण उनका रवैया ग़लत हो रहा था।

तीसरे, सही रवैये की ओर आह्वान और ईश्वरीय सन्मार्ग के उन मूल नैतिक सिद्धांतों का वर्णन जिनके अनुपालन में मनुष्य का कल्याण और सौभाग्य है।

आरंभिक परिस्थिति में क़ुरआन

शुरू-शुरू के ये सन्देश आह्वान की आरम्भिक स्थिति की अनुकूलता से कुछ छोटे-छोटे संक्षिप्त बोलों पर आधारित होते थे जिनकी भाषा अति परिष्कृत, अत्यंत मधुर एवं प्रभावकारी और सम्बोधित जाति की रुचि के अनुसार अति साहित्यिक रंग लिए हुए होती थी, ताकि दिलों में ये बोल तीर और नश्तर की तरह उतर जाएँ, कान स्वतः उनके स्वर माधुर्य से आकृष्ट हो और जुबाने उनके सुसन्तुलित होने के कारण, अनचाहे उन्हें दुहराने लगे। फिर उनमें स्थानीय वातावरण का प्रभाव अधिक था। यद्यपि वर्णन तो हो रहा था विश्वव्यापी तथ्यों का पर उनके लिए दलीले गवाहियां और उदाहरण उस निकटतम वातावरण से लिए गए थे जिससे सम्बोधित वर्ग अच्छी तरह परिचित था। उन्हीं का इतिहास, उन्हीं की परिपाटियाँ, उन्हीं के रोजाना के तजुर्वे में आनेवाली निशानियाँ और उन्हीं के विश्वास संबंधी दुर्गुणों पर और नैतिक व सामूहिक दोषों पर सारी वार्ताएँ होती थी, ताकि वे उससे प्रभावित हो सकें।

आह्वान का यह आरम्भिक काल लगभग चार-पाँच वर्ष तक जारी रहा और इस काल में नबी (सल्ल0) के प्रचार की प्रतिक्रिया तीन रूपों में प्रकट हुई –

1. कुछ सदाचारी लोग इस आह्वान को स्वीकार करके 'मुस्लिम' (आज्ञाकारी) गिरोह बनने के लिए तैयार हो गए।

2. एक बड़ी संख्या अज्ञानता या स्वार्थवश या बाप-दादाओं की रीति से लगाव के कारण विरोध पर तत्पर हो गई।

3. मक्का और कुरैश की सीमाओं से निकलकर इस नए सन्देश की आवाज़ अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत क्षेत्र में पहुँचने लगी।

मक्का में अवतरित सूरतों (अध्यायों) की पृष्ठभूमि

यहां से उस आह्वान का दूसरा चरण शुरू होता है। इस चरण में इस्लाम के इस आन्दोलन और पुरानी अज्ञानता के बीच एक कठोर प्राणघातक संघर्ष शुरू हुआ, जिसका सिलसिला आठ-नौ वर्ष तक चलता रहा। न केवल मक्का में न केवल क़ुरैश के क़बीले में, बल्कि अरब के अधिकांश भागों में भी जो लोग पुरानी अज्ञानता को बाक़ी रखना चाहते थे, वे इस आन्दोलन को बलपूर्वक मिटाने पर तुल गए। उन्होंने इसे दबाने के लिए सारी चालें चल डाली, झूठा दुष्प्रचार किया, आरोपों, सन्देहों और आपत्तियों की वर्षा की, जनसाधारण के दिलों में भांति-भांति के भ्रम पैदा किए, अनजान लोगों को नबी (सल्ल0) की बात सुनने से रोकने की कोशिशें कॉ, इस्लाम स्वीकार करनेवालों पर अति बर्बरतापूर्ण अत्याचार किए, उनका आर्थिक व सामाजिक बहिष्कार किया और उन्हें इतना सताया कि उनमें से बहुत से लोग दो बार अपने घर छोड़कर हब्शा (इथोपिया) की ओर हिजरत कर जाने पर विवश हुए और अन्ततः तीसरी बार उन सबको मदीना की ओर हिजरत करनी पड़ी। परन्तु इस प्रवल और दिन-प्रतिदिन बढ़ते विरोधों के उपरांत भी यह आन्दोलन जोर पकड़ता गया। मक्का में कोई परिवार और कोई घर ऐसा न रहा, जिसके किसी-न-किसी सदस्य ने इस्लाम स्वीकार न कर लिया हो। इस्लाम के अधिकांश विरोधियों के विरोध और शत्रुता में उम्रता और कटुता पैदा होने का कारण यही था कि उनके अपने भाई, भतीजे, बेटे, बेटियाँ, बहने और बहनोई इस्लामी सन्देश के न केवल माननेवाले, बल्कि प्राण तक न्यौछावर करनेवाले और समर्थक हो गए। थे और उनके अपने दिल और जिगर के टुकड़े ही उनसे संघर्ष करने पर उतारू थे। फिर जो लोग पुरानी अज्ञानता से टूट-टूटकर इस नव-अंकुरित आन्दोलन की ओर आ रहे थे, वे पहले भी अपने समाज के सबसे अच्छे लोग समझे जाते थे और इस आन्दोलन में शामिल होने के बाद तो इतने नेक इतने सच्चरित्र और इतने सदाचारी इनसान बन जाते थे कि संसार उस सन्देश की श्रेष्ठता महसूस किए बिना रह नहीं सकता था, जो ऐसे लोगों को अपनी ओर खींच रहा था और उन्हें यह कुछ बना रहा था।

इस दीर्घकालीन और प्रबल संघर्ष के समय में अल्लाह अवसर और आवश्यकता के अनुसार अपने नबी पर ऐसे जोशीले भाषण अवतरित करता रहा जिनमें नदी जैसा बहाव, बाढ़ जैसी शक्ति और धधकती आग जैसा प्रभाव था उन भाषणों में एक ओर ईमानवालों को उनके आरम्भिक कर्तव्य बताए गए उनके भीतर सामूहिक चेतना पैदा की गई, उन्हें संयम, चारित्रिक महत्व और आचरण की शुद्धता की शिक्षा दी गई, उन्हें सत्य-धर्म के प्रचार के तरीक़े बताए गए सफलता के वादों और जन्नत की शुभ-सूचनाओं से उनमें हिम्मत बँधाई गई, उन्हें जमाव, ठहराव और उत्साह के साथ अल्लाह की राह में संघर्ष करने पर उभारा गया और जान पर खेल जाने का ऐसा प्रबल जोश और हौसला उनमें पैदा किया गया कि वे हर कष्ट को झेल जाने और विरोध की बड़ी से बड़ी आंधियों का मुक़ाबला करने के लिए तैयार हो गए। दूसरी ओर विधर्मियों, सन्मार्ग से विमुख होनेवालों और ग़फ़लत की नींद सोनेवालों को उन जातियों के दुष्परिणामों से डराया गया जिनका इतिहास वे स्वयं जानते थे, उन नष्ट-विनष्ट हो जानेवाली आबादियों के चिह्नों से शिक्षा लेने को कहा गया, जिनको खण्डहरों पर से रात-दिन अपनी-अपनी यात्राओं में उनका गुज़र होता था, तौहीद (एकेश्वरवाद) और आखिरत (परलोक) की दलीलें उन खुली खुली निशानियों से दी गई जो रात दिन पृथ्वी और आकाश में उनकी आँखों के सामने मौजूद थीं और जिन्हें वे अपने जीवन में भी हर समय देखते और महसूस करते थे, शिर्क (बहुदेववाद), स्वच्छन्दता का दावा, आखिरत से इंकार और पूर्वजों की रीतियों पर अनुगमन सरीखो ग़लतियाँ ऐसी खुलो दलीलों से स्पष्ट की गई, जो मन में बैठ जाने और मस्तिष्क में उतर जानेवाली थी। फिर उनके एक-एक भ्रम का निवारण किया गया, एक- एक आपत्ति का उचित उत्तर दिया गया एक-एक उलझन, जिसमें वे स्वयं पड़े हुए थे, या दूसरों को उलझाने की कोशिश करते थे, साफ की गई और हर ओर से घेर कर अज्ञानता को इतनी सख्ती से पकड़ा गया कि बुद्धि व विवेक के जगत में उसके लिए ठहरने की कोई जगह बाक़ी न रही। इसके साथ फिर उनको अल्लाह के प्रकोप, क़ियामत की भयावहता और जहन्नम के अज़ाब से डराया गया, उसके दुराचारों, ग़लत जीवन-रीतियों, अज्ञानतापूर्ण रस्मों, सत्य को शत्रुता और ईश्वर के समर्पित लोगों अर्थात् मुसलमानों को कष्ट पहुँचाने पर उनकी निन्दा की गई और संस्कृति व सभ्यता के वे बड़े-बड़े मौलिक सिद्धान्त उनके सामने पेश किए गए जिन पर सदा से अल्लाह की प्रिय शुद्ध सभ्यताओं का निर्माण होता चला आ रहा है।

यह चरण स्वतः विभिन्न मंजिलों पर आधारित था, जिनमें से हर मंजिल में इस्लाम का आह्वान अधिक विस्तृत होता चला गया, जिद्दोजहद के साथ-साथ विरोध में भी तेजी आ गई, विभिन्न विश्वासों, धारणाओं और नाना प्रकार की कार्य-पद्धतियों के रखनेवाले गिरोहों से वास्ता पड़ता गया और उसी के अनुसार अल्लाह की ओर से आनेवाले सन्देशों में विषयों की विविधता बढ़ती गई – यह है क़ुरआन मजीद की मक्की सूरतों की पृष्ठभूमि।

मदीना में अवतरित सूरतों (अध्यायों) की पृष्ठभूमि

मक्का में इस आन्दोलन को अपना काम करते हुए तेरह वर्ष बीत चुके थे कि एकाएक मदीना में उसको एक ऐसा केन्द्र मिल गया, जहाँ उसके लिए यह सम्भव हो गया कि अरब के तमाम भागों से अपने अनुयायियों को समेटकर एक जगह अपनी शक्ति जुटा ले। अतएव नबी (सल्ल०) और इस्लाम के अधिकतर अनुयायी हिजरत करके मदीना पहुँच गए इस तरह यह आह्वान तीसरे चरण में प्रवेश कर गया।

इस चरण में परिस्थितियों का रूप बिल्कुल बदल गया मुस्लिम समुदाय विधिवत रूप से एक राज्य की नींव डालने में सफल हो गया। पुरानी अज्ञानता के ध्वजावाहकों से सशस्त्र मुक़ाबला शुरू हुआ, पिछले नबियों की उम्मतों (यहूदियों एवं ईसाइयों) का भी सामना करना पड़ा। स्वयं मुस्लिम उम्मत को आन्तरिक व्यवस्था में विभिन्न प्रकार के कपटाचारी (मुनाफ़िक़) घुस आए और उनसे भी निबटना पड़ा और दस साल के घोर संघर्ष से गुजर कर अन्ततः यह आन्दोलन सफलता की उस मंजिल पर पहुँचा कि पूरा अरब उसके अधीन हो गया और विश्वव्यापी आह्वान एवं सुधार के द्वार उसके सामने खुल गए इस चरण की भी विभिन्न मंजिलें थी और हर मंजिल में इस आन्दोलन की विशिष्ट आवश्यकताएँ थीं। इन आवश्यकताओं के अनुसार अल्लाह की ओर से ऐसे वक्तव्य नबी (सल्ल०) पर अवतरित होते रहे जिनकी शैली कभी जोशीले वक्ताओं की कभी राजकीय आदेशों की, कभी शिक्षकों के शिक्षा देने की, कभी सुधारकों के समझाने-बुझाने की होती थी। इनमें बताया गया कि समाज, राज्य और शुद्ध संस्कृति का निर्माण किस तरह किया जाए। जीवन के विभिन्न विभागों को किन नियमों व सिद्धान्तों पर व्यवस्थित किया जाए कपटाचारियों (मुनाफ़िकों) से क्या व्यवहार हो, राज्य के ग़ैर-मुस्लिमों से क्या बर्ताव हो, किताबवालों (यहूदियों और ईसाइयों) से सम्बन्धों का क्या रूप रहे, लड़ रहे शत्रुओं और समझौता कर लेनेवाली जातियों के साथ क्या नीति अपनाई जाए और ईमानवालों का यह सुसंगठित गिरोह संसार में अल्लाह के प्रतिनिधित्व (खिलाफत) का कर्तव्य निभाने के लिए अपने आपको किस तरह तैयार करे इन वक्तव्यों में एक ओर मुसलमानों को शिक्षित प्रशिक्षित किया जाता था, उनको कमज़ोरियों पर उन्हें सचेत किया जाता था, उनको अल्लाह की राह में जान-माल से संघर्ष करने पर उभारा जाता था, उनको विजय और पराजय, सुख-दुख, खुशहाली-बदहाली, शांति और भय, तात्पर्य यह कि हर स्थिति में उसी के अनुकूल नैतिकता व सदाचार का पाठ पढ़ाया जाता था और उन्हें इस तरह तैयार किया जाता था कि वे नबी (सल्ल०) के बाद आपके उत्तराधिकारी बनकर आह्वान और सुधार के इस काम को पूरा कर सकें। दूसरी ओर उन लोगों को जो ईमानवाले नहीं थे किताबवाले, मुनाफ़िक़ (कपटाचारी), अधर्मी और बहुदेववादी, सबको अलग-अलग हालात के मुताबिक़ समझाने, के नरमी से इस्लाम की ओर बुलाने सख्ती से निन्दा करने और उपदेश देने, अल्लाह के अज़ाब से डराने और शिक्षाप्रद घटनाओं व स्थितियों से शिक्षा दिलाने की कोशिश की जाती थी, ताकि हर पहलू से स्पष्ट होकर बात उनके सामने आ जाए। यह है क़ुरआन मजीद की उन सूरतों (अध्यायों) की पृष्ठभूमि जो मदीना में अवतरित हुई है।

क़ुरआन की अपनी विशिष्ट शैली की सार्थकता

उपर्युक्त विवरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि क़ुरआन एक आह्वान के साथ उतरना शुरू हुआ और वह आह्वान अपने आरम्भ से लेकर अपने पूर्ण होने तक 23 साल की मुद्दत में जिन-जिन चरणों और मंजिलों से गुजरता रहा, उनको विभिन्न आवश्यकताओं के अनुसार क़ुरआन के विभिन्न अंश उतरते रहे स्पष्ट है कि ऐसी पुस्तक में वह लेखकीय क्रम नहीं हो सकता जो डाक्ट्रेट की डिग्री लेने के लिए किसी शोध-पत्र में अपनाया जाता है। फिर इस आह्वान के प्रसार के साथ-साथ क़ुरआन के जो छोटे और बड़े अंश अवतरित हुए वे भी लेखों के रूप में प्रकाशित नहीं किए जाते थे, बल्कि भाषणों के रूप में वर्णित होते और इसी रूप में फैलाए जाते थे। इसलिए उनकी शैली भी लेख जैसी न थी, बल्कि भाषण शैली थी। फिर ये भाषण भी एक प्रोफेसर के व्याख्यानो जैसे नहीं, बल्कि एक आह्वाहक के वक्तव्यों जैसे थे, जिसे मन-मस्तिष्क, बुद्धि और भावना, हर एक से अपील करना होता है, जिसे हर प्रकार की मनोवृत्तियों से वास्ता पड़ता है, जिसे अपने सन्देश प्रचार व प्रसार और व्यावहारिक आन्दोलन के सिलसिले में नाना प्रकार की अगणित परिस्थितियों में काम करना पड़ता है, हर संभव तरीक़े से अपनी बात दिलों में बिठाना, विचारों की दुनिया बदलना, भावनाओं को उद्वेलित करना, विरोधियों का ज़ोर तोड़ना, साथियों को सुधारना और उन्हें प्रशिक्षित करना तथा उनमें उत्साह भरना, दुश्मनों को दोस्त, इंकारियों को इक़रारी बनाना, विरोधियों के तर्कों को काटना, उनकी नैतिक शक्ति का उन्मूलन करना, तात्पर्य यह कि उसे हर सम-विषम परिस्थितियों का सामना एवं संघर्ष करना पड़ता है। इसलिए अल्लाह ने इस काम के सिलसिले में अपने पैग़म्बर पर जो भाषण उतारे उनको शैली वही थी जो एक आह्वान के लिए उपयुक्त होती है, उनमें कॉलेज के व्याखानों जैसी शैली खोजना सही नहीं है।

विषयों की पुनरावृत्ति का औचित्य

यहीं से यह बात भी अच्छी तरह समझ में आ सकती है कि क़ुरआन में विषयों की इतनी पुनरावृत्ति क्यों है? एक आन्दोलन और उसके प्रसार का स्वाभाविक तक़ाज़ा यह है कि वह जिस समय जिस चरण में हो, उसमें वही बातें कही जाएं जो उस चरण से मेल खाती हो। जब तक आन्दोलन एक मरहले में रहे, बाद के चरण की बात न छेड़ी जाए बल्कि उसी चरण की बातों को दुहराया जाता रहे, भले ही उसमें कुछ महीने लगे या कई वर्ष लग जाएँ। फिर अगर एक ही प्रकार की पुनरावृत्ति एक ही शैली और एक ही ढंग पर की जाती रहे तो कान उन्हें सुनते-सुनते थक जाते हैं और जी ऊबने लगते हैं, इसलिए यह भी ज़रूरी है कि हर मामले में जो बातें बार-बार कहनी हों, उन्हें हर बार नए शब्द, नई शैली, और नए ढंग से कहा जाए ताकि अति मनमोहक ढंग से वह दिलों में बैठ जाए और आन्दोलन की एक-एक मंजिल भली-भांति दृढ होती चली जाए। साथ ही यह भी ज़रूरी है कि आह्वान जिन विश्वासों और सिद्धान्तों के आधार पर हो, उन्हें पहले क़दम से आखिरी मंजिल तक किसी समय और किसी दशा में भी नजरों से ओझल न होने दिया जाए, बल्कि इनकी पुनरावृत्ति हर हाल में आह्वान के हर चरण में होती रहे। यही कारण है कि इस्लामी आन्दोलन के एक चरण में क़ुरआन की जितनी सूरतें (अध्याय) उतरी हैं, उन सब में सामान्यत: एक ही जैसे विषय-शब्द और वर्णन शैलियों बदल-बदल कर आई हैं, मगर तौहीद (एकेश्वरवाद), अल्लाह के गुण, आखिरत (परलोक) और उसकी पूछगच्छ, जज़ा व सज़ा (पुरस्कार एवं दण्ड), रिसालत (ईशदूतत्व), किताब पर ईमान, संयम, सब अल्लाह पर भरोसा और इसी प्रकार के दूसरे मौलिक विषयों की पुनरावृत्ति पूरे कुरआन में नज़र आती है, क्योंकि इस आन्दोलन के किसी चरण में भी इनसे ग़फ़लत सहन नहीं की जा सकती थी। ये मौलिक धारणाएँ अगर ज़रा भी कमज़ोर हो जाती तो इस्लाम का यह आन्दोलन अपनी सही आत्मा के साथ नहीं चल सकता था।

क़ुरआन का संकलन अवतरण क्रम के अनुसार न होने का कारण

अगर विचार किया जाए तो इसी बात से यह प्रश्न भी हल हो जाता है कि नबी (सल्ल0) ने क़ुरआन को उसी क्रम के साथ क्यों न संग्रहीत कर दिया जिसके साथ वह उतरा था?

ऊपर आपको मालूम हो चुका है कि 23 साल तक क़ुरआन उस क्रम से उतरता रहा जिससे आन्दोलन का आरम्भ और उसका प्रसार हुआ। अब यह स्पष्ट है कि आन्दोलन के पूरे हो जाने के बाद इन अवतीर्ण अंशों के लिए वह क्रम किसी प्रकार भी सही नहीं हो सकता था जो केवल सन्देश-प्रसार ही के साथ मेल खाता था। अब तो उनके लिए एक दूसरा ही क्रम चाहिए था, जो आन्दोलन समाप्ति के बाद की परिस्थितियों के लिए अधिक उपयुक्त हो, क्योंकि आरम्भ में उन लोगों को सम्बोधित किया गया था जो इस्लाम से बिल्कुल ही अनभिज्ञ थे, इसलिए उस समय बिल्कुल आरम्भ से शिक्षा उपदेश शुरू किया गया। परन्तु आन्दोलन के पूरा हो जाने के बाद अब उसके प्रथम संबोधित पक्ष के वे लोग हो गए, जो एक उम्मत (गिरोह, समुदाय) बन चुके थे और उस काम को जारी रखने के ज़िम्मेदार समझे गए थे जिसे पैग़म्बर ने विचारों व व्यवहार दोनों हैसियतों से पूर्ण करके उनके सुपुर्द किया था। अब निश्चित रूप से पहली चीज़ यह हो गई कि पहले ये लोग स्वयं अपने कर्तव्यों से अपने जीवन-सिद्धान्तों से और उन बिगाड़ों से जो पिछले पैग़म्बरों के अनुयायियों में पैदा होते रहे हैं, भली-भांति परिचित हो लें, फिर इस्लाम से अपरिचित संसार के सामने अल्लाह का सन्मार्ग स्पष्ट करने के लिए आगे बढ़ें।

इसके अलावा क़ुरआन मजीद जिस प्रकार की पुस्तक है, उसे अगर आदमी अच्छी तरह समझ ले तो उस पर स्वयं ही यह वास्तविकता प्रकट हो जाएगी कि एक-एक प्रकार के विषयों का एक-एक जगह इकट्ठा करना, इस पुस्तक के स्वभाव से ही मेल नहीं खाता। इसके स्वभाव की अपेक्षा तो यही है कि इसके पढ़नेवाले के सामने आन्दोलन के मदीनावाले चरण की बातें मक्कावाले चरण की शिक्षाओं के मध्य और मक्कावाले चरण की बातें मदीना काल वाले भाषणों के मध्य और आरम्भिक वार्ताएँ अन्त के उपदेशों के बीच में और अन्तिम काल के आदेश आरम्भिक काल की शिक्षाओं के पहलू में बार-बार आती चली जाएँ ताकि इस्लाम का पूरा और व्यापक रूप उसकी दृष्टि में रहे और किसी समय भी वह एकांगी न होने पाए।

फिर अगर क़ुरआन को उसके उतरने के क्रम पर संकलित किया जाता तो वह क्रम बाद के लोगों के लिए केवल उसी दशा में सार्थक हो सकता था, जबकि क़ुरआन के साथ उसके उतरने का पूरा इतिहास और उसके एक-एक अंश के साथ उसके उतरने का विवरण और कारण लिखकर लगा दिया जाता और वह अनिवार्य रूप से क़ुरआन का एक परिशिष्ट बनकर रहता। यह बात उस उद्देश्य के विरुद्ध थी जिसके लिए अल्लाह ने अपनी वाणी का यह संग्रह संकलित और सुरक्षित कराया था। वहाँ तो यही चीज़ सामने थी कि अल्लाह की विशुद्ध वाणी किसी दूसरी वाणी की मिलावट या मिश्रण के बिना अपने संक्षिप्त रूप में संकलित हो, जिसे बच्चे, जवान, बूढ़े, औरत, मर्द, शहरी, देहाती, जन-साधारण, विद्वान सभी पढ़ें, हर ज़माने में और हर जगह, हर हालत में पढ़ें और बुद्धि तथा विवेक के हर स्तर का व्यक्ति कम से कम यह बात ज़रूर जान ले कि उसका स्वामी उससे क्या चाहता है और क्या नहीं चाहता स्पष्ट है कि यह उद्देश्य विलुप्त हो जाता अगर ईश-वाणी के इस संकलन के साथ लम्बा-चौड़ा इतिहास भी लगा हुआ होता और उसका पढ़ना भी अनिवार्य कर दिया जाता।

सच तो यह है कि क़ुरआन के वर्तमान क्रम पर जो लोग आपत्ति करते हैं, वे लोग इसके ध्येय व उद्देश्य से न केवल अनभिज्ञ हैं, बल्कि कुछ इस भ्रम में पड़े हुए होते हैं कि यह पुस्तक मात्र इतिहास, दर्शन और सामाजिक विज्ञान के अध्ययनकर्ताओं के लिए ही उतरी है।

कुरआन में वर्णित विषयवस्तु के क्रमस्थापन के संबंध में यह बात भी पाठकों को मालूम रहनी चाहिए कि यह क्रम बाद के लोगों का बनाया हुआ नहीं है, बल्कि स्वयं अल्लाह के आदेशानुसार नबी (सल्ल०) ही ने क़ुरआन को इस रूप में संकलित किया था। नियम यह था कि जब कोई सूरा उतरती तो आप उसी समय अपने कातिबों (लिखनेवालों) में से किसी को बुलाते और उसको ठीक-ठीक लिखवा देने के बाद हिदायत कर देते कि यह सूरा फ़लाँ सूरा के बाद और फ़लाँ सूरा से पहले रखी जाए। इसी प्रकार अगर क़ुरआन का कोई ऐसा अंश उतरता जिसे स्थाई सूरा बनाना दृष्टिगत न होता तो, नबी (सल्ल०) हिदायत कर देते थे कि इसे फ़लाँ सूरा में फ़लॉ जगह लिख दिया जाए। फिर उसी क्रम से आप (सल्ल०) स्वयं भी नमाज़ में और दूसरे मौक़ों पर क़ुरआन मजीद का पाठ करते और उसी क्रम के अनुसार आपके साथी भी उसे याद करते थे। इसलिए यह एक प्रमाणित ऐतिहासिक तथ्य है कि क़ुरआन मजीद का अवतरण जिस दिन पूरा हुआ, उसी दिन उसको विषय-वस्तु का क्रमस्थापन भी हो गया। जो इसे अवतरित कर रहा था, वास्तव में वही इसे संकलित भी कर रहा था। जिस व्यक्ति पर वह उतारा गया, उसी के हाथों उसे संकलित भी करा दिया गया। कोई दूसरा इसकी क्षमता न रखना था कि उसमें हस्तक्षेप करता।

क़ुरआन की हिफ़ाज़त

चूंकि नमाज शुरू ही से मुसलमानों पर फ़र्ज़ (अनिवार्य) थी1 (स्पष्ट रहे कि पाँच वक्त की नमाज़ तो हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के नबी होने के कई साल बाद फ़र्ज़ हुई, परन्तु नमाज़ अपने आप में पहले दिन ही से फ़र्ज़ थी इस्लाम की कोई ऐसी घड़ी कभी नहीं गुज़री है जिसमें नमाज़ फ़र्ज़ न रही हो।) और क़ुरआन-पाठ को नमाज़ का एक आवश्यक अंग समझा गया था, इसलिए क़ुरआन के अवतरण के साथ ही मुसलमानों में क़ुरआन कंठस्थ करने का सिलसिला चल पड़ा और जैसे-जैसे क़ुरआन उतरता गया, मुसलमान उसे याद भी करते चले गए। इसी प्रकार क़ुरआन की सुरक्षा खजूर के उन पत्तों, और हड्डी और झिल्ली के उन टुकड़ों ही पर निर्भर न थी जिन पर नबी (सल्ल०) अपने कातिबों से उसे लिखवाया करते थे, बल्कि वह उतरते ही बीसियों, फिर सैकड़ों, फिर हजारों, फिर लाखों हृदय-पटल पर अंकित हो जाता था और किसी शैतान के लिए यह सम्भव न रहता था कि इसमें एक शब्द का भी हेर-फेर कर सके ।

नबी (सल्ल0) की मृत्यु के बाद जब अरब में धर्म-विमुखता का तूफान उठा और उसका मुक़ाबला करने के लिए सहाबियों (नबी सल्ल० के साथियों) को बड़ी घमासान की लड़ाइयाँ लड़नी पड़ी तो इन लड़ाइयों में ऐसे सहाबियों को एक बड़ी संख्या शहीद हो गई, जिन्हें पूरा क़ुरआन कंठस्थ था। इससे नबी (सल्ल0) के साथी हजरत उमर (रज़ि०) के मन में विचार आया कि क़ुरआन की सुरक्षा के मामले में केवल एक ही साधन पर भरोसा कर लेना उचित नहीं, बल्कि हृदय-पटल पर अंकित होने के साथ-साथ काग़ज़ के पन्नों पर भी उसे सुरक्षित करने का प्रबन्ध कर लेना चाहिए। अतएव इस काम की जरूरत उन्होंने हज़रत अबूबक्र (रज़ि०) से बयान की और उन्होंने सोच-विचार के बाद हज़रत जैद बिन साबित अंसारी (रज़ि) को, जो नबी (सल्ल0) के कातिब रह चुके थे, इस सेवा पर नियुक्त किया नियम यह बनाया गया कि एक ओर तो लिखे हुए वे तमाम अंश जुटाए जाएँ जो नबी (सल्ल०) ने छोड़े हैं। दूसरी ओर सहाबियों में से भी जिस-जिसके पास क़ुरआन या उसका कोई अंश लिखा हुआ मिले, वह उनसे ले लिया जाए।1 (विश्वसनीय उल्लेखों से ज्ञात होता है कि नबी (सल्ल0) के जीवन में अनेक सहाबियों ने क़ुरआन को या उसके विभिन्न अंशों को अपने पास लिख छोड़ा था। अतएव इस सिलसिले में हज़रत उस्मान, अली, अब्दुल्लाह बिन मसऊद, अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस, सालिम मौला हुजैफा, जैद बिन साबित, मुआज बिन जबल, उबई बिन कअब और अबू जैद कैस बिन सुक्कन (रज़ि०) के नामों का विवरण मिलता है।

 

और फिर क़ुरआन के हाफ़िज़ों से भी मदद ली जाए और इन तीनों साधनों की सर्वसम्मत गवाही पर, बिल्कुल सही होने का इत्मीनान करने के बाद क़ुरआन का एक-एक शब्द ग्रंथ में अंकित कर दिया जाए। इस प्रस्ताव के अनुसार क़ुरआन मजीद की एक प्रमाणित प्रति तैयार करके उम्मुल मोमिनीन (नबी सल्ल० की धर्म पत्नी) हज़रत हफ़सा (रज़ि०) के यहाँ रखवा दी गई और लोगों को आम इजाज़त दे दी गई कि जो चाहे इसकी नकल करे और जो चाहे इससे मिलाकर अपनी प्रति ठीक कर ले।

क़ुरआन के पाठ का एकत्व

अरब में विभिन्न क्षेत्रों और क़बीलों की बोलियों में वैसे ही अन्तर पाए जाते थे जैसे हमारे देश में नगर-नगर की बोली और जिले जिले की बोली में अन्तर है, हालांकि भाषा सबकी वही एक हिन्दी या उर्दू या पंजाबी या बंगाली आदि है। क़ुरआन मजीद यद्यपि उतरा उस भाषा में था जो मक्का में क़ुरैश के लोग बोलते थे, लेकिन आरम्भ में इस बात की इजाज़त दे दी गई थी कि दूसरे क्षेत्रों और क़बीलों के लोग अपनी-अपनी ध्वनि और शैली के अनुसार उसे पढ़ लिया करें, क्योंकि इस प्रकार अर्थ में कोई अन्तर नहीं पड़ता था मात्र शब्द व वाक्य उनके लिए नरम हो जाते थे, परन्तु धीरे-धीरे जब इस्लाम फैला और अरब के लोगों ने अपने रेगिस्तान से निकलकर संसार के एक बड़े भाग पर विजय प्राप्त कर ली और दूसरी जातियों के लोग भी इस्लाम में दाखिल होने लगे और बड़े पैमाने पर अरब व गैर-अरब के मेल-जोल से अरबी भाषा पर भी प्रभाव पड़ने लगा तो यह भय पैदा हुआ कि अगर अब भी दूसरी ध्वनियों और शैलियों के अनुसार क़ुरआन पढ़ने की इजाज़त बाक़ी रही तो इससे भांति-भांति के उपद्रव खड़े हो जाएंगे, जैसे यह कि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को अपरिचित स्वर में अल्लाह की वाणी का पाठ करते हुए सुनेगा और यह समझकर उससे लड़ पड़ेगा कि वह जान-बूझकर अल्लाह की वाणी में रद्दोबदल कर रहा है, या यह कि शब्दों के ये मतभेद धीरे-धीरे वास्तव में क़ुरआन में रद्दोबदल का रास्ता खोल देंगे या यह कि अरब व ग़ैर-अरब के मेल-जोल से जिन लोगों की भाषा बिगड़ेगी, वे अपनी बिगड़ी हुई भाषा के अनुसार क़ुरआन में हेर-फेर करके उसके वाणी-सौन्दर्य को विकृत कर देंगे। इन कारणों से हज़रत उस्मान (रज़ि०) ने सहाबियों के मश्विरे से यह तय किया कि तमाम इस्लामी देशों में केवल क़ुरआन को उस प्रामाणिक प्रति को छापा जाए जो हज़रत अबूबक्र (रज़ि०) के हुक्म से लिपिबद्ध की गई थी और शेष तमाम दूसरी ध्वनि एवं शैलियों पर लिखे हुए ग्रंथों या अंशों के प्रकाशन को प्रतिबन्धित ठहरा दिया जाए। आज जो क़ुरआन हमारे हाथों में हैं, यह ठीक-ठीक उसी ग्रन्थ के अनुसार है जो हज़रत अबूबक सिद्दीक (रज़ि०) ने तैयार कराया और जिसकी नक़ल हज़रत उस्मान (रज़ि०) ने सरकारी प्रबन्ध में तमाम इलाक़ों में भिजवाई थी। इस समय भी संसार के अनेक स्थानों पर क़ुरआन की वे प्रमाणित प्रतियाँ मौजूद हैं। किसी को अगर क़ुरआन के सुरक्षित होने में कुछ भी सन्देह हो तो वह अपनी संतुष्टि इस प्रकार कर सकता है कि पश्चिमी अफ्रीका में किसी पुस्तक विक्रेता से क़ुरआन की एक प्रति खरीदे और जावा में किसी हाफिज़ से ज़बानी क़ुरआन सुनकर उसका मुक़ाबला करे और फिर संसार की बड़ी-बड़ी लाइब्रेरियों में हज़रत उस्मान (रज़ि०) के समय से लेकर आज तक विभिन्न शताब्दियों के लिखे हुए जो ग्रन्थ रखे हैं, उनसे इसका मुक़ाबला करे। अगर किसी अक्षर या किसी शोशे का अन्तर वह पाए तो उसका कर्तव्य है कि संसार को इस सबसे बड़े ऐतिहासिक रहस्योद्घाटन से अवश्य सूचित करे। कोई शंकालु व्यक्ति क़ुरआन को अल्लाह की ओर से आया हुआ ग्रन्थ होने में सन्देह करना चाहे तो कर सकता है, लेकिन यह बात कि जो कुरआन हमारे हाथ में है वह बिना किसी कमीबेशी के ठीक वही कुरआन है जो अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल०) ने दुनिया के सामने पेश किया था, यह तो एक ऐसा ऐतिहासिक तथ्य है जिसमें किसी शंका की गुंजाइश ही नहीं है। मानव इतिहास में कोई दूसरी किताब ऐसी नहीं पाई जाती जो इतनी प्रामाणिक हो। अगर कोई व्यक्ति उसके सही होने में सन्देह करता है, तो वह फिर इसमें भी सन्देह कर सकता है कि रोमन एम्पायर नामक साम्राज्य भी कभी संसार में रह चुका है, कभी मुग़ल भी भारत पर राज्य कर चुके हैं और 'नेपोलियन' नाम का कोई व्यक्ति भी संसार में पाया गया है। ऐसे-ऐसे ऐतिहासिक तथ्यों पर सन्देह प्रकट करना ज्ञान का नहीं अज्ञानता का प्रमाण है।

क़ुरआन से लाभ उठाने हेतु कुछ आवश्यक सुझाव

क़ुरआन एक ऐसी पुस्तक है जिसकी ओर संसार में अगणित व्यक्ति अगणित उद्देश्य लेकर रुजू करते हैं। इन सबकी ज़रूरतों और उद्देश्यों को सामने रखकर कोई मश्विरा देना मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है। ऐसे लोगों की भीड़ में मुझे केवल उन लोगों से दिलचस्पी है, जो इसको समझना चाहते हैं और यह मालूम करने के इच्छुक है कि यह पुस्तक मनुष्य के जीवन की समस्याओं में उसका क्या मार्गदर्शन करती है। ऐसे लोगों को मैं यहां कुरआन के अध्ययन के तरीक़े के बारे में कुछ मश्विरे दूंगा और कुछ उन कठिनाइयों को दूर करने की कोशिश करूंगा जो आमतौर से इस मामले में पाठक के सामने आती हैं।

पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर क़ुरआन को पढ़ें

कोई व्यक्ति चाहे क़ुरआन पर ईमान रखता हो या न रखता हो, बहरहाल अगर वह इस पुस्तक को वास्तव में समझना चाहता है तो सबसे पहला काम उसे यह करना चाहिए कि अपने मस्तिष्क को पहले से बनाई हुई धारणाओं एवं दृष्टिकोणों से और पक्ष या विपक्ष के स्वार्थों से जिस हद तक सम्भव हो खाली कर ले और समझने का विशुद्ध उद्देश्य लेकर खुले मन से उसको पढ़ना शुरू करे। जो लोग कुछ विशिष्ट विचारों को मन में लेकर इस पुस्तक को पढ़ते हैं, वे इसकी पंक्तियों में अपने ही विचार पढ़ते चले जाते हैं, क़ुरआन की उनको हवा भी नहीं लगने पाती। अध्ययन का यह तरीक़ा किसी भी पुस्तक के पढ़ने के लिए सही नहीं है, परन्तु मुख्य रूप से क़ुरआन तो इस तरीक़े से पढ़नेवालों के लिए अपने अर्थों के द्वार खोलता ही नहीं।

क़ुरआन का अध्ययन बार-बार करें

फिर जो व्यक्ति केवल थोड़ी सुधबुध हासिल करना चाहता हो, उसके लिए तो शायद एक बार का पढ़ लेना काफ़ी हो जाए मगर जो उसकी गहराइयों में उतरना चाहे उसके लिए दो-चार बार का पढ़ना भी काफ़ी नहीं हो सकता। उसे बार-बार पढ़ना चाहिए, हर बार एक खास ढंग से पढ़ना चाहिए और एक विद्यार्थी की तरह पेन्सिल और कापी साथ लेकर बैठना चाहिए, ताकि ज़रूरी बातें नोट करता जाए। इस तरह जो लोग पढ़ने को तैयार हों उनको कम-से-कम दो बार पूरे क़ुरआन को केवल इस ध्येय से पढ़ना चाहिए कि उनके सामने समग्र रूप से आचार-विचार की वह पूरी व्यवस्था आ जाए जिसे यह ग्रन्थ सामने लाना चाहता है। इस आरम्भिक अध्ययन की अवधि में वे क़ुरआन के पूरे दृश्य पर एक व्यापक दृष्टि डालने की कोशिश करें और यह देखते जाएँ कि यह ग्रंथ कौन-सी मौलिक धारणाएँ प्रस्तुत करता है? और फिर इन धारणाओं पर किस प्रकार की जीवन-व्यवस्था का निर्माण करता है? इस बीच अगर किसी स्थान पर कोई प्रश्न मन में खटके तो उस पर वहीं उसी समय कोई फैसला न कर बैठें, बल्कि उसे नोट कर लें और सब के साथ आगे अध्ययन जारी रखें। अधिक सम्भावना इसी की है कि आगे कहीं-न-कहीं उन्हें इसका उत्तर मिल जाएगा। अगर उत्तर मिल जाए तो अपने प्रश्न के साथ उसे नोट कर लें, किन्तु यदि प्रथम अध्ययन के समय उन्हें अपने किसी प्रश्न का उत्तर न मिले, तो सब के साथ वे दूसरी बार पढ़े। मैं अपने अनुभव के आधार पर यह कहता हूँ कि दूसरी बार के गहरे अध्ययन में एकाध ही प्रश्न ऐसे रहते हैं, जिनका उत्तर अपेक्षित हो।

क़ुरआन से पूर्ण मार्गदर्शन हेतु ऐसा भी करें

इस प्रकार क़ुरआन पर एक व्यापक दृष्टि डाल लेने के बाद विस्तृत अध्ययन का आरम्भ करना चाहिए। इस सिलसिले में पाठक को क़ुरआनी शिक्षाओं का एक-एक पहलू मन में बिठाकर के नोट करते जाना चाहिए जैसे वह इस बात को समझने की कोशिश करे कि मानवता का कौन-सा आदर्श है, जिसे क़ुरआन प्रिय समझता है और किस आदर्श के लोग उसके निकट अप्रिय और तिरस्कृत हैं। इस बात को अच्छी तरह समझने के लिए उसे चाहिए कि अपनी कापी पर एक और 'प्रिय व्यक्ति' और दूसरी ओर 'अप्रिय व्यक्ति' की विशेषताएं आमने-सामने नोट करता चला जाए या जैसे वह यह मालूम करने की कोशिश करे कि क़ुरआन के नज़दीक मनुष्य का कल्याण और मुक्ति किन बातों पर निर्भर है और क्या चीजें हैं जिन्हें वह मनुष्य के लिए घाटा, तबाही और बर्बादी का कारण समझता है। इस विषय को भी सविस्तार जानने का सही तरीक़ा यह है कि मनुष्य अपनी कापी पर 'लाभ और घाटे' के कारण सरीखे दो शीर्षक एक-दूसरे के मुक़ाबले में लिख ले और क़ुरआन के अध्ययन के समय हर दिन दोनों प्रकार की चीजें नोट करता चला जाए। इसी प्रकार धारणा, नैतिकता, अधिकार कर्तव्य, सामाजिकता, संस्कृति, अर्थ, राजनीति, क़ानून, अनुशासन व्यवस्था, सन्धि, युद्ध और जीवन-संबंधी दूसरी समस्याओं में से एक-एक के बारे में क़ुरआन के आदेश आदमी नोट करता चला जाए और यह समझने की कोशिश करे कि इनमें से हर-हर विभाग का सामूहिक रूप क्या बनता है और फिर इन सबको मिलाकर जोड़ देने से पूरा जीवन-चित्र किस प्रकार का बनता है।

फिर जब मनुष्य किसी विशेष जीवन-समस्या के बारे में खोज करना चाहे कि क़ुरआन का दृष्टिकोण उसके बारे में क्या है, तो उसके लिए सबसे अच्छा तरीका यह है कि पहले वह इस समस्या के बारे में पुराने व नए साहित्य का गहरा अध्ययन करके स्पष्ट रूप से यह मालूम कर ले कि इस समस्या की मौलिक बातें क्या है, मनुष्य ने अब तक उस पर क्या सोचा और समझा है, क्या मामले इसमें हल करने के है और कहां जाकर मानव-चिन्तन की गाड़ी अटक जाती है? इसके बाद इन्हीं हल करने योग्य समस्याओं को निगाह में रखकर मनुष्य को क़ुरआन का अध्ययन करना चाहिए। मेरा अनुभव है कि इस प्रकार जब मनुष्य किसी समस्या की छानबीन के लिए क़ुरआन पढ़ने बैठता है, तो उसे ऐसी-ऐसी आयतों में अपने प्रश्नों का उत्तर मिलता है, जिन्हें वह इससे पहले बीसियों बार पढ़ चुका होता है और कभी उसके मन में भी यह बात नहीं आती कि यहाँ यह विषय भी छिपा हुआ है।

क़ुरआन की रूह से अवगत होने का तरीक़ा

लेकिन क़ुरआन समझने के इन उपायों के बावजूद मनुष्य क़ुरआन की रूह से पूरी तरह अवगत नहीं होने पाता जब तक कि वह व्यावहारिक रूप से वे काम न करे जिसके लिए क़ुरआन आया है। यह मात्र सिद्धान्तों और विचारों को पुस्तक नहीं है कि आप आराम कुर्सी पर बैठकर उसे पढ़े और उसकी सारी बातें समझ जाएँ यह संसार को आम धार्मिक धारणा के अनुसार एक कोरी धार्मिक पुस्तक भी नहीं है कि मदरसे और खानकाह में उसके सारे मर्म समझ लिए जाएँ। जैसा कि आरम्भ में बताया जा चुका है। यह एक आह्वान और आन्दोलन की पुस्तक है। इसने आते ही एक मौन प्रकृति के अति सुशील व्यक्ति को एकान्त से निकालकर अल्लाह से विमुख संसार के मुकाबले में ला खड़ा किया, असत्य के खिलाफ उसने आवाज उठवाई और समय के विधर्मियों व अवज्ञाकारियों से उसे तड़ा दिया। घर-घर से एक-एक पवित्र आत्मा और शुद्ध मनवालों को खींच-खींचकर लाई और सत्य का आह्वान करनेवाले के झण्डे तले इन सबको इकट्ठा किया। कोने-कोने से एक-एक उपद्रवी को चेलेंज देकर उठाया और सत्य के पक्षधरों से उनका संघर्ष कराया। एक अकेले व्यक्ति की पुकार से अपना काम शुरू करके अल्लाह की 'खिलाफत' (शासन) की स्थापना तक पूरे 23 साल तक यही किताब उस महान आन्दोलन की रहनुमाई करती रही और सत्य-असत्य के इस दीर्घकालीन और प्राणघातक संघर्ष के मध्य एक-एक मंज़िल और एक-एक मरहले पर इसी ने विनाश के कारण और निर्माण के तरीक़े बताए। अब भला यह कैसे संभव है कि आप सिरे से कुछ और दीन के झगड़े और इस्लाम और अज्ञानता (जाहिलियत) के संघर्ष के मैदान में क़दम हो न रखें और इस संघर्ष की किसी मंजिल से गुज़रने का आपको संयोग ही न हुआ हो और फिर मात्र क़ुरआन के शब्द पढ़-पढ़कर उसको सारी हक़ीक़ते आपके सामने खुलकर आ जाएँ। इसे तो पूरी तरह आप उसी समय समझ सकते हैं जब आप इसे लेकर उठे और अल्लाह की ओर आह्वान का काम शुरू करें और जिस-जिस तरह यह पुस्तक रहनुमाई करती जाए, उस उस तरह क़दम उठाते चले जाएँ तब वे सारे तजुर्बे आपको पेश आएँगे जो क़ुरआन उतरने के वक्त पेश आये थे। मक्का, हब्श और तायफ की मजिले भी आप देखेंगे और बद्र व उहुद से लेकर हुनैन और तबूक तक के मरहले भी आपके सामने आएँगे, अबू जहल और अबू लहब जैसे इस्लाम विरोधियों से भी आपको वास्ता पड़ेगा, मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) और यहूदी भी आपको मिलेंगे और सर्वप्रथम ईमान लानेवालों से लेकर ऐसे लोग जो अभी इस्लाम में नहीं आए हैं सभी तरह के इनसानी नमूने आप देख भी लेंगे और बरत भी लेंगे। यह एक और ही प्रकार का 'सुलूक' है जिसे मैं 'सुलूके क़ुरआनी' कहता हूँ। इस सुलूक की शान यह है कि उसकी जिस-जिस मंजिल से आप गुज़रते जाएँगे, क़ुरआन की कुछ आयतें और सूरतें स्वयं सामने आकर आपको बताती चली जाएँगी कि वे इसी मंजिल में उतरी थी और यह हिदायत लेकर आई थीं, उस समय यह सम्भव है कि शब्द, व्याकरण और भावार्थ सम्बन्धी कुछ बारीकियाँ 'सालिक' की निगाह से छिपी रह जाएँ, परन्तु यह सम्भव नहीं है कि क़ुरआन अपनी आत्मा को उसके सामने खोलकर लाने में कंजूसी कर जाए।

फिर इसी मूल सिद्धान्त के अनुसार क़ुरआन के आदेश, उसकी नैतिक शिक्षाएँ, उसके आर्थिक व सांस्कृतिक निर्देश और जीवन के विभिन्न पहलुओं के बारे में उसके बताए हुए नियम व सिद्धान्त पूर्णतः उस समय तक मनुष्य की समझ में आ ही नहीं सकते जब तक कि वह व्यावहारिक रूप से उनको बरत कर न देखे न वह व्यक्ति इस ग्रन्थ को पूर्ण रूप से समझ सकता है, जिसने अपने व्यक्तिगत जीवन को उसकी पैरवी से आज़ाद कर रखा हो और न वह क्रम इससे पूर्ण रूप से परिचित हो सकती है, जिसकी सारी ही सामूहिक संस्थाएँ उसके बताए हुए रवैये के खिलाफ़ चल रही हो।

क़ुरआन की शिक्षाएं सार्वकालिक हैं

क़ुरआन के इस दावे को हर व्यक्ति जानता है कि वह तमाम मानवजाति की रहनुमाई के लिए आया है, मगर जब कोई व्यक्ति उसको पढ़ने बैठता है तो देखता है कि उसका सम्बोधन अधिकतर अपने उतरने के समय के अरबवासियों की ओर है। यद्यपि कभी-कभी वह मानवजाति और जनसाधारण को भी पुकारता है, परन्तु अधिकतर बाते वह ऐसी कहता है, जो अरबों के स्वभाव, अरब ही के वातावरण, अरब हो के इतिहास और अरब ही की रस्म व रिवाज से सम्बन्ध रखती हैं। इन चीजों को देखकर वह सोचने लगता है कि जो चीज़ जनसाधरण की हिदायत के लिए उतारी गई थीं, उसमें सामयिक, स्थानीय और राष्ट्रीय तत्त्व इतना अधिक क्यों है? इस मामले की वास्तविकता को न समझने के कारण कुछ लोग इस सन्देह में पड़ जाते हैं कि शायद यह चीज़ असल में अपने समकालीन अरबो ही के सुधार के लिए थी, परन्तु बाद में ज़बरदस्ती खीच तानकर के इसे तमाम मनुष्यों के लिए और सदा के लिए 'हिदायत की किताब' क़रार दे दिया गया।

जो व्यक्ति आपत्ति मात्र आपत्ति के लिए नहीं करता, बल्कि वास्तव में उसे समझना चाहता है, उसे मैं मश्विरा दूंगा कि वह पहले स्वयं क़ुरआन को पढ़कर तनिक उन स्थानों पर निशान लगाए जहाँ उसने कोई ऐसा विश्वास या विचार या धारणा प्रस्तुत की हो या कोई ऐसा नैतिक सिद्धान्त, या व्यावहारिक नियम बयान किया हो जो केवल अरब ही के लिए मुख्य हो और जिसे वक़्त, ज़माने और स्थान ने वास्तव में सीमित कर रखा हो मात्र यह बात कि वह एक मुख्य जगह या ज़माना के लोगों को सम्बोधित करके उनकी अनेकेश्वरवादी धारणाओं और रस्मों का खण्डन करता है और उन्हीं के आस-पास की चीज़ों को तर्क-सामग्री के रूप में लेकर तौहीद (एकेश्वरवाद) की दलीलें ले आता है, यह निर्णय कर देने के लिए काफ़ी नहीं है कि उसका आह्वान और उसकी अपील भी सामयिक और स्थानीय है। देखना यह चाहिए कि शिर्क के खण्डन में जो कुछ वह कहता है, क्या वह संसार के हर शिर्क पर उसी तरह सही नहीं उतरता जिस तरह अरब के मुश्रिकों (बहुदेववादियों) के शिर्क पर सही उतरता था? क्या इन्हीं दलीलों को हम हर ज़माने और हर देश के मुश्किों के विचार सुधार के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते? और क्या तौहीद साबित करने के लिए क़ुरआन की तर्क पद्धति को थोड़े से रद्दोबदल साथ हर वक्त हर जगह काम में नहीं लाया जा सकता? अगर उत्तर 'हाँ' में है तो फिर कोई कारण नहीं कि एक विश्वव्यापी शिक्षा को केवल इस कारण सामयिक व स्थानीय समझ लिया जाए कि एक खास समय में एक खास जाति को सम्बोधित करके वह प्रस्तुत की गई थी। संसार का कोई भी दर्शन, कोई भी जीवन-व्यवस्था और कोई भी विचारधारा ऐसी नहीं है जिसकी सारी बातें आदि से अन्त तक भावात्मक (Abstract) शैली में पेश की गई हो और किसी निश्चित दशा रूप पर उसको फिट करके उनकी व्याख्या न की गई हो, ऐसी शैली एक तो सम्भव नहीं है और सम्भव हो भी तो जो वस्तु इस ढंग से प्रस्तुत की जाएगी वह केवल काग़ज़ के पृष्ठों पर रह जाएगो, मनुष्यों के जीवन में उसका समन्वय होकर एक व्यावहारिक व्यवस्था में तब्दील होना कठिन है।

फिर किसी वैचारिक, नैतिक और सांस्कृतिक आन्दोलन को अगर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर फैलाना हो तो इसके लिए भी अनिवार्य रूप से यह जरूरी नहीं है, बल्कि सच तो यह है कि लाभप्रद भी नहीं है कि शुरू हो से उसको बिल्कुल ही अन्तर्राष्ट्रीय बनाने की कोशिश की जाए। वास्तव में इसका सही व्यावहारिक रूप केवल एक ही है और वह यह है कि जिन विचारों, सिद्धान्तों और नियमों पर वह आन्दोलन मानव-जीवन की व्यवस्था को स्थापित करना चाहता है, उन्हें पूरी शक्ति के साथ स्वयं उस देश के सामने प्रस्तुत किया जाए जहाँ से उसका आह्वान हो रहा हो, उन लोगों के मन में बिठाने की कोशिश की जाए जिनकी भाषा, स्वभाव और प्रवृत्तियों व रुझानों से उस आन्दोलन के चलानेवाले भली-भांति परिचित हो और फिर अपने ही देश में उन सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप में लाकर और उनपर एक सफल जीवन-व्यवस्था चलाकर संसार के सामने नमूना पेश किया जाए, तभी दूसरी जातियाँ उसकी ओर ध्यान देंगी और उनके बुद्धिजीवी लोग स्वयं आगे बढ़कर उसे समझने और अपने देश में प्रचलित करने की कोशिश करेंगे। इसलिए मात्र यह बात कि किसी आचार-विचार सम्बन्धी व्यवस्था को शुरू में एक ही जाति के सामने प्रस्तुत किया गया था और तर्क का सारा जोर उसी के समझाने और सन्तुष्ट करने पर लगा दिया गया था, इस बात की दलील नहीं है कि वह आचार-विचार सम्बन्धी व्यवस्था मात्र राष्ट्रीय है। वास्तव में जो विशेषताएँ एक राष्ट्रीय व्यवस्था को एक अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था से और एक सामयिक व्यवस्था को एक सार्वकालिक व्यवस्था से अलग करती हैं, वे ये हैं कि राष्ट्रीय व्यवस्था या तो एक राष्ट्र या जाति की श्रेष्ठता और उसके हक़ों की दावेदार होती है या अपने भीतर कुछ ऐसे सिद्धान्त और धारणाएँ रखती है जो दूसरी जातियों में नहीं चल सकते। इसके विपरीत जो व्यवस्था अन्तर्राष्ट्रीय होती है, वह तमाम मनुष्यों को बराबर दर्जा और बराबर के हक़ देने को तैयार होती है और उसके सिद्धान्तों में भी विश्व व्यापकता पाई जाती है। इसी प्रकार एक सामयिक व्यवस्था अनिवार्य रूप से अपनी नींव कुछ ऐसे सिद्धान्तों पर रखती है, जो कुछ समय के बाद अव्यावहारिक हो जाते हैं और इसके विपरीत एक सार्वकालिक व्यवस्था के सिद्धान्त तमाम बदलती हुई परिस्थितियों पर फिट होते चले जाते हैं। इन विशेषताओं को निगाह में रखकर कोई व्यक्ति स्वयं क़ुरआन को पढ़े और उन चीज़ों को ज़रा निर्धारित करने की कोशिश करे, जिनके आधार पर वास्तव में यह अनुमान किया जा सकता हो कि क़ुरआन द्वारा प्रस्तुत की हुई व्यवस्था सामयिक और राष्ट्रीय है?

कुरआन के बारे में यह बात भी एक सामान्य पाठक के कान में पड़ी हुई होती है कि यह एक विस्तृत आदेश-पत्र और क़ानून की किताब है। मगर जब वह उसे पढ़ता है तो उसमें समाज, संस्कृति, अर्थ और राजनीति आदि से सम्बन्धित विस्तृत आदेश तथा नियम उसे नहीं मिलते, बल्कि वह देखता है कि नमाज़ और ज़कात जैसे फ़र्ज़ के बारे में भी, जिन पर क़ुरआन बार-बार इतना ज़ोर देता है, उसने कोई ऐसा नियम नहीं बनाया है जिसमें तमाम आवश्यक आदेशों का सविस्तार विवरण हो। यह चीज़ भी मनुष्य के मन में उलझन पैदा करती है कि आखिर यह किस अर्थ में 'आदेश-पत्र' (हिदायतनामा) है।

इस मामले में सारी उलझने केवल इसलिए पैदा होती हैं कि मनुष्य की दृष्टि से वास्तविकता का एक पहलू बिल्कुल ओझल रह जाता है, अर्थात् यह कि अल्लाह ने सिर्फ़ किताब ही नहीं उतारी थी, बल्कि एक पैग़म्बर भी भेजा था। अगर असल योजना यह हो कि बस निर्माण का एक नक़्शा लोगों को दे दिया जाए और लोग उसके अनुसार स्वयं बिल्डिंग बना लें, तो इस स्थिति में निस्सन्देह निर्माण के एक-एक भाग का सविस्तार विवरण हमें मिलना चाहिए, मगर जब निर्माण सम्बन्धी आदेश के साथ-साथ एक इंजीनियर भी सरकारी तौर से नियुक्त कर दिया जाए और वह उन आदेशों के अनुसार एक इमारत बनाकर खड़ी कर दे, तो फिर इंजीनियर और उसको बनाई हुई इमारत को छोड़कर नक़्शे ही में तमाम छोटी-बड़ी चीजों को खोजना और फिर उसे न पाकर नक़्शे की अपूर्णता का शिकवा करना ग़लत है। क़ुरआन आंशिकता की किताब नहीं है, बल्कि सिद्धान्त-नियम और समग्रता की किताब है। उसका असल काम यह है कि इस्लामी व्यवस्था के वैचारिक तथा नैतिक आधारों को पूरी व्याख्या के साथ न केवल यह कि प्रस्तुत करे, बल्कि बौद्धिक तर्क और भावनात्मक अपील, दोनों तरीक़े से खूब दृढ़ कर दे। अब रहा इस्लामी जीवन का व्यावहारिक रूप, तो इस मामले में वह मनुष्य की रहनुमाई इस तरीक़े से नहीं करता कि जीवन के एक-एक पहलू के बारे में विस्तृत नियम और अधिनियम बनाए, बल्कि वह जीवन के हर विभाग की मुख्य परिसीमाएँ बता देता है और स्पष्ट रूप से कुछ स्थानों पर शिलाएँ खड़ी कर देता है, जो यह बात निश्चित कर देती है कि अल्लाह की इच्छा के अनुसार इन विभागों की स्थापना और निर्माण किन रेखाओं पर होनी चाहिए। इन आदेशों के अनुसार व्यावहारिक रूप से इस्लामी जीवन की रूप-रेखा बनाना नबी (सल्ल०) का काम था। उन्हें नियुक्त हो इसलिए किया गया था कि संसार को उस व्यक्तिगत चरित्र और आचरण और उस समाज और उस राज्य का आदर्श दिखा दें, जो क़ुरआन के दिए हुए सिद्धान्तों की व्यावहारिक व्याख्या हो ।

क़ुरआनी आदेशों की विविध व्याख्या

एक और प्रश्न जो आमतौर से लोगों के मन में खटकता है, वह यह कि एक ओर तो क़ुरआन उन लोगों की अत्यन्त निन्दा करता है, जो अल्लाह की किताब के आ जाने के बाद फ़िरक़ाबन्दी और मतभेदों में पड़ जाते हैं और अपने धर्म के टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं और दूसरी ओर क़ुरआन के आदेशों की व्याख्या में केवल बाद के लोगों में ही नहीं, इमामों, सहाबा के बाद के लोगों और स्वयं सहाबियों तक के बीच इतने मतभेद पाए जाते हैं कि शायद आदेश-सम्बन्धी कोई एक भी आयत ऐसी न मिलेगी जिसकी एक व्याख्या सर्वमान्य हो। क्या ये सभी लोग उस निन्दा के पात्र हैं जो क़ुरआन में आई है? अगर नहीं तो फिर वह कौन-सी फ़िरक़ाबन्दी और मतभेद है, जिससे क़ुरआन रोकता है ?

यह एक अति व्यापक समस्या है, जिसकी विस्तृत वार्ता का यहाँ मौक़ा नहीं है। यहाँ क़ुरआन के एक सामान्य अध्ययनकर्ता की उलझन दूर करने के लिए केवल इतना इशारा काफ़ी है कि क़ुरआन उस स्वस्थ मतभेद का विरोधी नहीं है, जो धर्म में एक मत और इस्लामी गिरोह में 'एक' रहते हुए मात्र आदेशों व नियमों का विस्तृत रूप निर्धारित करने के उद्देश्य से निष्ठापूर्ण खोज के आधार पर किया जाए बल्कि वह निन्दा उस मतभेद की करता है जो स्वार्थपूर्ण हो और वक्र दृष्टि से शुरू हो और फ़िरक़ाबन्दी और आपसी झगड़ों तक स्थिति पहुँचा दे। ये दोनों प्रकार के मतभेद न अपनी वास्तविकता में समान है और न अपने परिणामों में एक-दूसरे से समानता रखते हैं कि दोनों को एक ही लकड़ी से हाँक दिया जाए। पहली प्रकार का मतभेद तो तरक़्क़ी की जान और जीवन की आत्मा है। वह हर उस समाज में पाया जाएगा, जो बुद्धि व विवेक रखनेवाले लोगों पर आधारित हो। उसका पाया जाना जीवन की निशानी है और उससे खाली सिर्फ वही सोसाइटी हो सकती है, जो बुद्धिजीवियों से नहीं, बल्कि लकड़ी के कुन्दों से बनी हो रहा दूसरे प्रकार का मतभेद तो पूरा जगत जानता है कि इसने जिस गिरोह में भी सिर उठाया उसे टुकड़े-टुकड़े करके छोड़ा, इसका प्रकट होना स्वास्थ्य की नहीं, रोग की निशानी है और इसके परिणाम कभी किसी उम्मत (समुदाय) के हक़ में भी लाभप्रद नहीं हो सकते। इन दोनों प्रकार के मतभेदों का अन्तर स्पष्ट रूप से यों समझिए:-

एक स्वरूप तो वह है, जिसमें अल्लाह और रसूल के आज्ञापालन पर समुदाय के सब लोग सहमत हों, आदेशों का स्रोत भी सर्वसम्मति से क़ुरआन और सुन्नत को माना जाए फिर दो आलिम किसी आंशिक समस्या की खोज में, या दो क़ाज़ी किसी मुक़द्दमे के फैसले में एक-दूसरे से मतभेद करें, मगर इनमें से कोई भी न तो उस समस्या को और उसमें अपनी-अपनी राय को धर्म का आधार बनाए और न उससे मतभेद करनेवाले को विधर्मी कह दे, बल्कि दोनों अपनी दलीलें देकर अपनी हद तक खोज का हक़ अदा कर दें और यह बात जनमत पर या अगर अदालती मामला हो तो देश के उच्चतम न्यायालय पर या अगर सार्वजनिक मामला हो तो संगठन-व्यवस्था पर छोड़ दें कि वे दोनों रायों में से जिसे चाहे स्वीकार करें या दोनों को जायज़ रखें।

दूसरा स्वरूप यह है कि मतभेद सिरे से धर्म की बुनियादों ही में हो या यह कि कोई आलिम या सूफ़ी या मुफ्ती या प्रवक्ता या नेता किसी ऐसी समस्या के बारे में, जिसे अल्लाह और रसूल ने धर्म का मूल मामला नहीं बताया था, एक राय अपनाए और खामखाह खींच तानकर उसे धर्म का मूल मामला बना डाले और फिर जो उससे मतभेद करे उसे धर्म और समुदाय से निकल जाने वाला कह डाले और अपने समर्थकों का एक जत्था बनाकर कहे कि असल इस्लाम के अनुयायी बस ये हैं और बाक़ी सब विधर्मी है, जहन्नमी हैं और हांक-पुकार कर कहे कि मुस्लिम है तो बस इस जत्थे में आ जा, वरना तू मुस्लिम ही नहीं है।

क़ुरआन ने जहाँ कही भी मतभेद और फ़िरक़ाबन्दी का विरोध किया है, इससे उसका अभिप्राय यह दूसरे प्रकार का विरोध ही है। रहा पहले प्रकार का मतभेद, तो इसके अनेक उदाहरण स्वयं नबी (सल्ल0) के सामने पेश आ चुके थे और आपने केवल यही नहीं कि उसको जायज़ रखा, बल्कि इसकी सराहना भी की, इसलिए कि यह मतभेद तो इस बात का पता देता है कि समाज में विचार व चिन्तन, खोज व छानबीन और सूझ-बूझ की क्षमताएँ मौजूद है और उसके बुद्धिजीवी लोगों को अपने धर्म से और उसके आदेशों से दिलचस्पी है और उनकी प्रतिभाएँ अपनी जीवन-समस्यों का हल धर्म के बाहर नहीं, बल्कि उसके भीतर ही खोजती हैं। समाज समष्टीय रूप से इस स्वर्णिम नियम पर अमल कर रहा है कि सिद्धान्त में एकमत रहकर अपनी एकता भी बाक़ी रखे और फिर अपने ज्ञानियों व चिन्तकों को सही सीमाओं के भीतर शोध एवं अनुसंधान की आज़ादी देकर विकास के अवसरों को भी बाक़ी रखे।

"यह मेरा मत है, जाननेवाला तो अल्लाह ही है, उसी पर मेरा भरोसा है और उसकी ओर मैं रुजूअ होता हूँ।"

इस भूमिका में उन तमाम समस्याओं और मामलों को समेटना मेरा उद्देश्य नहीं है, जो क़ुरआन के अध्ययन करते समय एक पाठक के मस्तिष्क में पैदा होते हैं। इसलिए कि इन प्रश्नों का अधिकांश ऐसा है जो किसी-न-किसी आयत या सूरा के सामने आने पर मन को खटकता है और इसका उत्तर 'तफ़हीमुल क़ुरआन में अवसर अवसर पर दे दिया गया है। इसलिए ऐसे प्रश्नों को छोड़कर मैंने यहाँ केवल उन व्यापक समस्याओं पर वार्ता की है, जो समग्र रूप से पूरे कुरआन से सम्बन्ध रखती हैं। पाठकों से मेरा निवेदन है कि मात्र इस भूमिका को देखकर ही उसके 'अधूरे' होने का फ़ैसला न कर दें, बल्कि पूरी पुस्तक (तफ़हीमुल क़ुरआन) देखने के बाद अगर उनके मन में कुछ प्रश्न के उत्तर देने योग्य बाक़ी रह जाएँ या किसी प्रश्न के उत्तर को वे अपर्याप्त पाएँ तो मुझे उससे सूचित करें।

 

क़ुरआन से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्दावली

अनसार-'नासिर' शब्द का बहुवचन है। नासिर का शाब्दिक अर्थ है- मदद करनेवाला, सहायता करनेवाला। अत: अनसार के माने हुए सहायता करनेवाले, मदद करनेवाले इस्लाम में 'अनसार' उन मदीनावासी मुसलमानों को कहा गया है, जिन्होंने अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) को और आपके मक्की साथियों को मक्का से हिजरत करके मदीना पहुँचने पर अपने घरों में ठहराया था और उनकी हर प्रकार से सहायता की थी।

अज़ाब- पाप, कष्ट, दुख, यातना। अल्लाह उन लोगों को, जो उसकी निर्धारित मर्यादाओं का उल्लंघन करते हैं और अल्लाह की आज्ञा को नहीं मानते, सांसारिक और पारलौकिक जीवन में अज़ाब देता है।

अंतिम दिन– इससे अभिप्रेत वह दिन है जब अल्लाह लोगों के कर्मों का हिसाब-किताब करेगा और कर्मानुसार दण्ड अथवा पुरस्कार देगा। क़ुरआन में इसके लिए 'यौमुलआख़िर, यौमुलजज़ा, यौमुलक़ियामह, यौमुद्दीन' आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं।

अरफ़ात - इसका वास्तविक नाम 'अर्फ़ा' है, किन्तु अरफ़ात के नाम से प्रसिद्ध है। यह मक्का शहर से पूर्व दिशा की ओर तायफ़ के मार्ग में स्थित एक विशाल मैदान है। इसकी दूरी मक्का शहर से 13 मील और मिना से 9 मील है। इस मैदान की चौड़ाई 4 मील (लगभग 6.4 किलोमीटर) और लम्बाई 8 मील (लगभग 12.8 किलोमीटर) है। यह उत्तरी दिशा से इसी नाम की एक पहाड़ी 'जबले अर्फ़ा' से घिर हुआ है।

यही वह मैदान है जहाँ प्रत्येक हज करनेवाले को अरबी महीने ज़िलहिज्जा की 9वीं तिथि को सूरज ढलने (ज़वाल शुरू होने) से लेकर सायं सूर्यास्त तक ठहरना अति आवश्यक है। कोई व्यक्ति जो हज के लिए गया होता है, उपरोक्त अवधि में इस मैदान में न पहुँच सका तो उसका हज नहीं होगा। यही कारण है कि इस्लाम के कुछ विद्वानों का मत है कि हज वस्तुतः उपरोक्त अवधि में इस मैदान में उपस्थित होने का नाम है।

 

अर-रस्सवाले–'रस्स' एक प्राचीन जाति का नाम है। इस जाति के लोगों को क़ुरआन में अर-रस्सवाले कहा गया है। इस जाति का उल्लेख क़ुरआन में 'आद' और 'समूद' जातियों के साथ हुआ है। एक स्थान पर 'अर-रस्सवालों' के साथ हज़रत नूह (अलैहि०) की जाति का उल्लेख हुआ है। कुछ विद्वानों के मतानुसार 'अर-रस्स' किसी स्थान विशेष का नाम है। यूँ अरबी में 'अर-रस्स' पुराने कुएँ या अंधे कुएँ को कहते हैं।

अर्श- अर्श का अर्थ है सिंहासन या ताख्त क़ुरआन में इससे अभिप्रेत ईश्वर का सिंहासन है। ईश्वर के राजसिंहासन पर विराजमान होने का एक स्पष्ट अर्थ यह है कि उसने विश्व की व्यवस्था और शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली।

अल-आराफ़- इससे अभिप्रेत विशिष्ट ऊँचे स्थान हैं जिनपर अल्लाह के विशिष्ट प्रिय बन्दे पदासीन होंगे।

अल्लाह- ईश्वर ख़ुदा अल्लाह शब्द वास्तव में 'अल-इलाह' था जो परिवर्तित होकर अल्लाह हो गया। जिस प्रकार अंग्रेजी भाषा में किसी शब्द से पहले The शब्द लगाकर उसे विशिष्टता प्रदान कर देते हैं उसी प्रकार अरबी भाषा में' अल' प्रयुक्त होता है। इस प्रकार अल्लाह से अभिप्रेत एक प्रमुख और विशिष्ट इलाह (पूज्य) हुआ। अल्लाह आरम्भ से ही उसी सत्ता का नाम रहा है जो संपूर्ण सद्गुणों से युक्त, विश्व का रचयिता और सबका स्वामी और पालनकर्ता है।

धात्वर्थ की दृष्टि से 'इलाह' उसे कहा जाएगा जो सर्वोच्च और रहस्यमय हो, हमारी आँखें जिसे पाने में असफल रहें, जिसकी पूर्णरूप से कल्पना भी न कर सकें, जो मनुष्य का शरणदाता हो। और जिसकी ओर वह पूर्ण अभिलाषा से लपक सके, जिसे वह संकटों में पुकार सके, जो शांति प्रदान कर सकता हो, जो अपने बन्दों की ओर प्रेमपूर्वक बढ़ता हो और जिसकी ओर बन्दे भी प्रेम से बढ़ सकें, जो मनुष्य का प्रिय और अभीष्ट हो, जिसे वह अपना आराध्य और पूज्य बना सके। ये समस्त विशेषताएँ केवल ' अल्लाह' ही में पाई जाती हैं। इसलिए वास्तव में वही अकेला 'इलाह' और पूज्य है।

इबरानी भाषा में भी 'ईल' शब्द अल्लाह के लिए प्रयुक्त हुआ है। जैसे- इसराईल, जिसका अर्थ होता है 'अल्लाह का बन्दा'। अल-हिज्र - यह समूद जाति का केन्द्रीय नगर था। मदीने से तबूक जाते हुए मार्ग में यह स्थान पड़ता है। इस नगर के खण्डहर आज भी मिलते हैं।

अस्त्र - दिन का चौथा पहर। इसी लिए वह नमाज़ जो थोड़ा दिन रहने पर पढ़ी जाती है उसे अस्र की नमाज़ कहते हैं। इसका समय दिन डूबने तक रहता है। अरबी में' अस्र' वास्तव में 'काल' को कहते हैं। इसमें काल के तीव्र गति से बीतने का संकेत होता है। यह शब्द प्राय: बीते हुए समय के लिए प्रयुक्त होता है। इसी लिए दिन के आख़िरी हिस्से को, जब दिन गुज़रकर मानी बिलकुल निचुड़ जाता है, अस्र कहते हैं।

अहले-किताब- देखें किताबवाले।

आख़िरत- परलोक, पारलौकिक जीवन क़ुरआन के अनुसार वर्तमान लोक की अवधि सीमित और निश्चित है। एक समय आएगा जबकि इस सृष्टि की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। फिर अल्लाह एक नए लोक का निर्माण करेगा, जिसके नियम वर्तमान लोक के नियम से नितांत भिन्न होंगे। जो कुछ आज छिपा हुआ है वह उस लोक में प्रत्यक्ष हो जाएगा। संसार में जो कुछ लोगों ने भला-बुरा किया होगा, वह उनके सामने आ जाएगा। अल्लाह के आज्ञाकारी लोगों का ठिकाना जन्नत (स्वर्ग) होगी और अल्लाह के विद्रोही जहन्नम (नरक) में डाल दिए जाएँगे।

आद- आद अरब की एक प्राचीन जाति का नाम है। अरब के प्राचीन काव्य में इस जाति का अधिक उल्लेख मिलता है। जिस प्रकार इसकी प्रतिष्ठा बढ़ी हुई थी, उसी प्रकार संसार से इसका मिट जाना भी लोकोक्ति बनकर रह गया।

यह जाति 'अहक़ाफ़' क्षेत्र में बसती थी जो हिजाज़, यमन और यमामा के बीच पड़ता है। आजकल यह गैर-आबाद है। हज़रत नूह (अलैहि०) की जाति के विनष्ट होने के पश्चात् यही जाति हर प्रकार से उसकी उत्तराधिकारी थी। इस जाति के लोग ऊँचे-ऊँचे स्तंभोंवाले भवनों का निर्माण करते थे। इनके यहाँ हज़रत हूद (अलैहि०) को पैग़म्बर बनाकर भेजा गया था, किन्तु दुर्भाग्य से यह जाति संमार्ग पर न आ सकी और विनष्ट होकर रही।

आयत- निशानी, चिह्न, संकेत आदि।

क़ुरआन में आयत' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है –

(1) प्राकृतिक लक्षणों, तथ्यों और ऐतिहासिक घटनाओं को भी आयत कहा गया है। इसलिए कि इनसे हमें उन सच्चाइयों का पता मिलता है जो इस भौतिक जगत के पीछे क्रियाशील हैं।

(2) उन चमत्कारों को भी आयत कहा गया है जिन्हें अल्लाह के पैग़म्बर अपने पैग़म्बर होने

के प्रमाण स्वरूप लोगों को दिखाते थे।

(3) क़ुरआन के वाक्यांश या वाक्य को भी आयत कहा गया है। क़ुरआन के वाक्यों में जो विलक्षणता और विशेषता पाई जाती है वह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि क़ुरआन का अवतरण अल्लाह की ओर से हुआ है और वह ईशवाणी है। आयत और प्रमाण में अंतर है। प्रमाण वास्तव में आयत ही पर निर्भर करता है।

इनजील— यह यूनानी शब्द है। इसका शब्दार्थ है 'शुभ सूचना'। हज़रत ईसा मसीह (अलैहि०) आसमानी बादशाहत या अल्लाह की बादशाहत की शुभ सूचना देते थे। ईसाइयों के मतानुसार इसी लिए ईसा पर अवतरित होनेवाली किताब को इनजील कहा जाता है। किन्तु मुसलमानों के विचार में इनजील इसलिए शुभ सूचना है कि उसमें हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के आगमन की सूचना दी गई है। और ख़ुदा की बादशाहत का सम्बन्ध भी वास्तव में उनके आगमन से ही है।

इद्दत – इद्दत का अर्थ है गिनती। इस्लामी परिभाषा में इद्दत उस कालावधि को कहते हैं जिसके बीतने से पहले विधवा या तलाक़ पाई हुई स्त्रियाँ दूसरा विवाह नहीं कर सकतीं।

पति के देहान्त हो जाने पर इद्दत की अवधि 4 महीने 10 दिन है और तलाक़ पाई हुई स्त्रियों की इद्दत की अवधि तीन बार माहवारी आने तक है। तीन महीने की इद्दत उन बूढ़ी स्त्रियों की है जो ऋतुस्राव से निराश हो चुकी हों। उन लड़कियों की इद्दत भी तीन महीने रखी गई है जो अभी रजवती नहीं हुई हैं। गर्भवती स्त्रियों की इद्दत बच्चा पैदा होने तक है।

इबलीस – अत्यंत निराश, शोकग्रस्त, इनकार करनेवाला।

यह उस जिन्न का उपनाम है जिसने अल्लाह के आदेश की अवहेलना करके हज़रत आदम (अलैहि०) के आगे झुकने से इनकार कर दिया था और फिर यह निश्चय किया कि वह आदम की संतान को सत्य मार्ग से विचलित करने का प्रयास करता रहेगा।

इबादत – दास्यभाव, विनम्रता, विनीति, किसी के आगे बिछ जाना, पूर्णरूप से झुक जाना आदि।

इबादत में प्रेम और लगाव का अर्थ भी सम्मिलित है। इबादत का सम्बन्ध मानव के सम्पूर्ण जीवन से है। इसलिए इबादत का अर्थ जहाँ पूजा, उपासना होता है वहीं यह शब्द बन्दगी, दासता और आज्ञापालन के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है।

इलाह- पूज्य, आराध्य, प्रभु, ईश्वर (देखिए 'अल्लाह')

इशा- रात का अंधकार या रात का पहला पहर। इसी लिए वह नमाज़ जो सूर्यास्त के पश्चात् पश्चिम की लालिमा समाप्त होने के बाद पढ़ी जाती है, उसे इशा की नमाज़ कहा जाता है। इसका समय प्रातः काल के पौ फटने से पहले तक रहता है, किन्तु उत्तम यह है कि यह नमाज़ रात्रि के पहले पहर में पढ़ ली जाए।

इस्लाम – विनम्रता, विनीत, आज्ञापालन, आत्मसमर्पण, स्वेच्छापूर्वक अधीनता स्वीकार करना आदि। अल्लाह के आगे अपने आपको देने उसकी आज्ञा का पालन करने ही का दूसरा नाम इस्लाम है। इस्लाम का दूसरा प्रसिद्ध अर्थ है सुलह, शांति, कुशलता, संरक्षण, शरण आदि। हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) ने कहा है, "इस्लाम ग्रहण करो, (तबाही से) बच जाओगे।" आपने यह भी कहा है, "जो व्यक्ति भी इस (इस्लाम) में आया सलामत (सुरक्षित) रहा।"

इहराम- हज या उमरा करनेवाले लोग मक्का नगर पहुँचने से पहले एक निश्चित दूरी पर स्नान करके एक विशेष प्रकार का फ़क़ीराना वस्त्र धारण करते हैं-और तलबिया (एक विशेष प्रकार की दुआ) कहते हैं- यही इहराम है। इस वस्त्र में केवल एक तहमद (बिना सिली हुई लुंगी) और एक चादर होती है जिसको ऊपर से ओढ़ लेते हैं। औरतों के लिए इहराम सिले हुए वस्त्र ही हैं। इस वस्त्र के धारण करने के पश्चात् बहुत सी चीज़ें आदमी पर हराम (निषिद्ध) हो जाती हैं जो सामान्य अवस्था में हराम नहीं होतीं। जैसे सुगंध का प्रयोग, बाल कटवाना, साज-सज्जा और पति पत्नी प्रसंग आदि। इन चीज़ों के हराम (निषिद्ध) होने ही के कारण इस वस्त्र को इहराम कहा जाता है। इहराम की हालत में यह पाबंदी भी है कि किसी जीव का वध न किया जाए और न किसी जानवर का शिकार किया जाए और न ही किसी शिकारी को शिकार का पता बताया जाए।

ईमान- विश्वास, आस्था, मानना ईमान वास्तव में पुष्टि करने और मानने को कहते हैं। इसका विलोम है 'कुफ्र' जिसका अर्थ है-झुठलाना, इनकार करना, अस्वीकार करना, अवमानना। इस्लाम में ईमान एक विस्तृत और व्यापक अर्थ रखता है।

ईमान लाना- मानना, विश्वास करना स्वीकार करना इस्लामी परिभाषा में उन बातों को पूर्ण विश्वास के साथ मानना जो इस्लाम ने प्रस्तुत की हैं। जैसे अल्लाह पर ईमान, उसके नबियों (पैग़म्बरों) पर ईमान, आख़िरत (परलोक) पर ईमान आदि।

ईसाई - ईसा मसीह (अलैहि०) के अनुयायी होने का दावा करनेवाले लोग ईसाई कहलाते हैं।

ईसवी सन – वह शमसी साल जो हज़रत ईसा (अलैहि०) की पैदाइश की तारीख़ से शुरू

होता है।

उमरा – निर्माण, शोभा, आबादी। इस्लामी परिभाषा में उमरा भी हज की तरह एक इबादत है जो काबा के दर्शन के रूप में की जाती है। हज और उमरा में अन्तर है। हज सामर्थ्यवान के लिए अनिवार्य है किन्तु उमरा अनिवार्य नहीं। हज का समय निश्चित है, किन्तु उमरा किसी भी समय कर सकते हैं। हज सामूहिक रूप से करना होता है, उमरा अकेले अदा कर सकते हैं। उमरे में हज की कुछ ही रीतियों का पालन करना पड़ता है।

उम्मी– उम्मी उस जाति या व्यक्ति को कहते हैं जो निरक्षर हो या उसके पास कोई आसमानी किताब न हो।

एतिकाफ़- शाब्दिक अर्थ अपने आपको किसी चीज़ से संबद्ध रखने के हैं। किन्तु इस्लामी धर्म-विधान में एतिकाफ़"नीयत के साथ मसजिद में रुके रहने और सबसे कटकर ठहरे रहने" को कहते हैं। इसका भावार्थ-"एकांतवास" भी ले सकते हैं, किन्तु इसमें भी अल्लाह की याद का होना अनिवार्य है।

रमज़ान महीने के अंतिम दशक में इक्कीसवीं रात्रि से लेकर ईद का चाँद दिखने तक एतिकाफ़ करना "सुन्नते मुअक्कदा किफ़ाया" है। यानी किसी बस्ती या मुहल्ले में मसजिद और मुसलमान हों और यह एतिकाफ़ न किया गया तो सारे के सारे मुसलमान गुनाहगार होंगे और यदि एक व्यक्ति ने भी एतिकाफ़ कर लिया तो सब की ओर से वह अदा हो जाएगा।

एतिकाफ़ की दशा में व्यक्ति को एतिकाफ़ की जगह (जैसे मसजिद या घर) से बिना किसी आवश्यक काम के बाहर निकलना अवैध है। यदि मसजिद में पेशाब-पाखाने का प्रबंध नहीं है तो वह बाहर निकल सकता है, उनसे निवृत्त होकर तुरन्त वापस होना शर्त है। इसी प्रकार यदि वह ऐसी मसजिद में है जिसमें जुमे की नमाज़ नहीं होती है तो जुमे की नमाज़ के लिए भी वह जामा मसजिद जा सकता है। यदि खाने का प्रबंध मसजिद में न हो सके तो खाने के लिए भी वह बाहर निकल सकता है।

एतिकाफ़ की दशा में हर क्षण इबादत और अल्लाह की याद में मस्त रहना उत्तम माना गया हैं और इनसे थोड़ी भी लापरवाही अप्रिय है। पति-पत्नी प्रसंग, चाहे वह वासना के आवेग में हो या इच्छापूर्वक, अवैध है। इसी प्रकार अश्लील विचारों का मन में लाना तथा उस प्रकार की बातें करना भी अवैध है।

ऐकावाले- ऐका तबूक का प्राचीन नाम है। ऐका का शाब्दिक अर्थ घना जंगल होता है। मदयनवाले और ऐकावाले एक ही नस्ल के दो क़बीले थे। इनके क्षेत्र परस्पर मिले हुए थे। व्यापार इनका पेशा था। दोनों ही क़बीलों के मार्गदर्शन के लिए हज़रत शुऐब (अलैहि०) को अल्लाह ने नबी (पैग़म्बर) बनाकर भेजा था।

कफ़्फ़ारा प्रायश्चित किसी गुनाह के दोष से मुक्त होने के लिए किया जानेवाला उपाय या धार्मिक कार्य कफ़्फ़ारा कहलाता है। कफ़्फ़ारा का शाब्दिक अर्थ है छिपानेवाली वस्तु शुभ कार्य या नेकी गुनाह को ढक लेती है और उसके प्रभाव को मिटा देती है। इसी दृष्टि से उन कार्यों को कफ़्फ़ारा कहा गया है जो दोष मुक्त होने के लिए किए जाते हैं। विभिन्न गुनाहों का कफ़्फ़ारा क़ुरआन में निश्चित किया गया है।

काफ़िर – कुफ़ करनेवाला, इनकार करनेवाला, धर्मविरोधी, सच्चाई को छिपानेवाला, अकृतज्ञ। वे लोग जो उन सच्चाइयों को मानने और स्वीकार करने से इनकार करते हैं जिनकी शिक्षा ख़ुदा और उसके रसूल (पैग़म्बर) ने दी है।

काबा - मक्का में स्थित वह प्रतिष्ठित एवं पवित्र घर जो विशुद्ध एकेश्वरवाद का प्रतीक है। जिसकी दीवारें अल्लाह के आदेश से हज़रत इबराहीम और उनके बेटे हज़रत इसमाईल (अलैहि०) ने खड़ी की थीं। इसी घर की ओर मुँह करके नमाज़ पढ़ी जाती है।

किताब- यह शब्द क़ुरआन में कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।

(i) अल्लाह का कलाम (वाणी) जो उसने रसूलों पर उतारा। पूरी पुस्तक को भी किताब कहते हैं और उसके किसी खण्ड या भाग को भी किताब कहते हैं।

(ii) आदेश, हुक्म, अनिवार्य धर्मविधान, क़ानून, शरीअत।

(iii) अल्लाह का वह अभिलेख (Record) जिसमें प्रत्येक चीज़ अंकित है।

(iv) वह किताब जिसमें उसके फ़ैसले अंकित हैं।

(v) पत्र के अर्थ में भी इसका प्रयोग हुआ है।

(vi) वह कर्मपत्र जिसमें मनुष्य के अपने अच्छे-बुरे कर्मों का विवरण दिया गया होगा। अच्छे लोगों को उनका कर्मपत्र उनके दाहिने हाथ में और बुरे लोगों को उनका कर्मपत्र उनके बाएँ हाथ में दिया जाएगा।

(vii) नियति, भाग्य, तक्रदीर, पूर्व निर्धारित बात।

किताबवाले (अहले-किताब) - किताववाले क़ुरआन में उन लोगों को कहा गया है जिन्हें अल्लाह की ओर से किताब प्रदान हुई थी। यह संकेत यहूदियों और ईसाइयों की ओर है जिन्हें अल्लाह ने तौरात और इनजील नामक किताबें प्रदान की थीं। लेकिन खेद है कि कालांतर में इनके अनुयायियों ने इन्हें विकृत कर डाला।

क़िबला- वह चीज़ जो आदमी के सम्मुख रहे और जिसकी ओर उसका ध्यान आकृष्ट हो। इस्लामी परिभाषा में इससे अभिप्रेत वह दिशा है जिसकी ओर मुँह करके नमाज़ पढ़ी जाती है, अर्थात् काबा।

क़िबल-ए-ऊलापहले मुसलमान फ़िलस्तीन की मस्जिद बैतुल मक़दिस की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ते थे इसलिए बैतुल मक़दिस को क़िबला-ए-ऊला कहते हैं। देखें क़िबला। क़िबती-क़िबती एक प्राचीन जाति का नाम है जो मिस्र में रहती थी। इस जाति के लोग बहुदेववादी थे अर्थात् मूर्तियाँ पूजते थे। मिस्र में इसराईल की संतान जब दासता का जीवन जी रही थी, उस समय जिस गिरोह का देश पर शासन था उसका सम्बन्ध इसी क़िबती जाति से रहा है।

क़ियामत- पुनरुत्थान अथवा महाप्रलय। इससे अभिप्रेत एक ऐसा दिन है जब वर्तमान लोक की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी और सारे जीवधारी मर जाएँगे। इसके पश्चात् अल्लाह एक दूसरी सृष्टि की रचना करेगा। सारे लोग पुनः जीवित करके उठाए जाएँगे और उन्हें उनके अपने कर्मों का बदला दिया जाएगा। यही दिन क़ियामत का दिन होगा।

क़िसास- हत्यादंड, खून का बदला इस्लामी धर्म-विधान में क़त्ल करनेवाले हत्यारे को हत्यादण्ड स्वरूप क़त्ल कर दिया जाएगा या क्षमादान की स्थिति में मारे गए व्यक्ति के वारिसों को कुछ माल दिलाया जाएगा, इसे क़िसास कहते हैं। क्षमा करने का अधिकार मारे गए व्यक्ति के वारिसों को ही प्राप्त होता है। क़िसास को लागू न करना पूरे समाज के लिए ख़तरे की बात है। इसी लिए क़ुरआन में आया है, "क़िसास में तुम्हारे लिए जीवन है।"

कुफ्र - अधर्म, इनकार, अकृतज्ञता कुफ्र का शाब्दिक अर्थ है- छिपाना, ढाँकना, परदा डालना। इसका संज्ञा-रूप 'काफ़िर' बनता है, जिसका अर्थ होता है-छिपानेवाला, ढाँकनेवाला, परदा डालनेवाला।

इस्लाम इनसान का स्वाभाविक धर्म है और उसकी प्रकृति की अपेक्षा है। किन्तु मानव अपनी अज्ञानतावश उसपर परदा डालता है और उससे इतर अन्य मार्ग को अपनाए रखता है, इसलिए ऐसे व्यक्ति को काफ़िर कहा जाता है।

क़ुरआन क़ुरआन अल्लाह की उस अंतिम किताब का नाम है जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) पर उतरी है। इसका शब्दगत अर्थ 'पढ़ना' है। अतः इस किताब का नाम ही यह बता रहा है कि यह किताब इसलिए अवतरित हुई है कि ज्यादा से ज़्यादा पढ़ी जाए और संसार के सारे लोग इसे पढ़कर अपने जीवन के मार्ग का निर्णय करें। इस किताब को क़ुरआन कहना ऐसा ही है जैसे किसी अत्यंत रूपवान व्यक्ति को सौन्दर्य' की उपाधि प्रदान कर दी जाए।

क्रुरबानी – बलिदान । जानवर को अल्लाह के नाम पर क़ुरबान करने की क्रिया को भी 'कुरबानी' कहा जाता है। ऐसी चीज़ जिसके द्वारा अल्लाह का सामीप्य प्राप्त किया जाए, अल्लाह की प्रदान की हुई चीज़ को कृतज्ञतापूर्वक उसको अर्पित करना भी क़ुरबानी कहलाता है। क़ुरबानी की क्रिया वास्तव में अपनी हर चीज़ यहाँ तक कि अपने प्राण को अल्लाह को अर्पण करने का वाह्य प्रदर्शन है। जानवर का खून बहाकर वास्तव में यह प्रण किया जाता है कि यदि अल्लाह के लिए हमें अपने प्राण भी न्यौछावर करने पड़े तो इसमें कदापि कोई संकोच न होगा। क़ुरबानी आत्मा को शुद्ध करने का एक उपाय भी है। इसी लिए बलिदान की प्रथा समस्त प्राचीन जातियों में रही है और इसे अल्लाह को प्रसन्न करने का एक साधन समझा गया है।

क़ुरबानी हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की यादगार भी है। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने अपने बेटे को अल्लाह के लिए क़ुरबान करना चाहा तो यह क़ुरबानी दूसरे रूप में स्वीकार की गई।

जानवर की क़ुरबानी की हैसियत एक 'फ़िदये' की भी है। जानवर की क़ुरबानी देकर हम अपनी जानों को छुड़ा लेते हैं, किन्तु हमारे प्राण हमें लौटाए नहीं जाते बल्कि हमारी अमानत में उन्हें सौंप दिया जाता है ताकि जब भी ज़रूरत पेश आए हम उन्हें अल्लाह के लिए निछावर कर दें। इस्लाम की वास्तविकता भी वास्तव में क़ुरबानी ही की है। इसमें व्यक्ति अपने आपको अर्पण करता है। (देखें इस्लाम)

कुरैश- हज़रत इसमाईल (अलैहि०) की संतति में नज़्र बिन कनाना की नस्ल से सम्बन्ध रखनेवाला एक प्रतिष्ठित क़बीला। नबी (सल्ल॰) इसी क़बीले में पैदा हुए थे।

ख़लीफ़ा - प्रतिनिधि, नायक, स्थानापन्न, किसी के बाद आनेवाला उत्तराधिकारी प्रतिनिधि के अर्थ में ख़लीफ़ा वह व्यक्ति होता है जो मालिक की प्रदान की हुई सत्ता और अधिकारों का प्रयोग उसके आदेशानुसार ही करता है। वह अपने को स्वामी और मालिक नहीं समझता और वास्तविकता यह है कि मनुष्य को धरती में जो अधिकार मिले हैं उनका प्रयोग भी अल्लाह के आदेशानुसार ही होना चाहिए।

खुला (खुल्अ) -छुटकारा लेना, मुक्त होना। इस्लाम ने यदि पुरुषों को तलाक़ का अधिकार दिया है तो स्त्रियों को 'खुला' का। स्त्री यदि समझती है कि उसका गुजर-बसर वर्तमान पति के साथ नहीं हो सकता तो वह 'खुला' हासिल कर सकती है। स्त्री यदि खुला हासिल करना चाहती है तो उसे वह माल या उसका एक भाग पुरुष को लौटाना होगा जो उसे निकाह के समय 'महर' के रूप में मिला था। स्त्री यदि पति के अन्याय और अत्याचारों के कारण खुला हासिल करना चाहती है तो पुरुष को सिरे से माल लेना ही उचित न होगा।

ग़नीमत – शत्रुधन। सत्य के लिए लड़ी जानेवाली लड़ाई में धर्मविरोधियों का जो धन और माल इस्लामी सेना के क़ब्ज़े में आता है उसे 'ग़नीमत' कहते हैं। इस्लाम केवल उसी माल को ग़नीमत कहता है जो रण-क्षेत्र की सेना से विजय पानेवालों के हाथ आता है। गनीमत के माल में गरीबों, मोहताजों, असहाय और सर्वसाधारण जनता की भलाई के लिए पाँचवाँ भाग निश्चित है।

(क़ुरआन 8 :41)

ग़ैब – परोक्ष, अदृष्ट, छिपा हुआ, जिसके जानने का हमारे पास अपना कोई साधन न हो। ग़ैब शब्द रहस्य के लिए भी प्रयुक्त हुआ है।

ग़ैब वास्तव में उन चीज़ों को कहा गया है जिन तक हमारी ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं है। जैसे- अल्लाह का अस्तित्व, फ़रिश्ते, जन्नत, जहन्नम, आखिरत आदि।

 

ग़ैब या परोक्ष के विषय में सम्यक ज्ञान के बिना मानव जीवन की व्याख्या नहीं की जा सकती। परोक्ष के प्रति सच्चा ज्ञान हमारी एक बड़ी आवश्यकता है। परोक्ष के विषय में सही जानकारी नवियों और पैग़म्बरों द्वारा लाए हुए ईश-संदेश से ही प्राप्त होती है।

ज़कात – बढ़ना, विकसित होना, शुद्ध होना। पारिभाषिक रूप में ज़कात एक निश्चित धन को कहते हैं। इसे अपनी कमाई और अपने माल में से निकालकर अल्लाह के बताए हुए शुभ कामों में खर्च करना अनिवार्य ठहराया गया है। जैसे-मुसाफ़िरों और मोहताजों की सेवा करना, ऋण के बोझ से किसी को छुटकारा दिलाना, सत्य धर्म के लिए किए जानेवाले प्रयासों में खर्च करना आदि। ज़कात की हैसियत किसी टैक्स या कर की नहीं है, बल्कि यह एक प्रकार की इबादत है। ज़कात देकर बन्दा अल्लाह का शुक्र अदा करता है और इस प्रकार वह अपनी आत्मा भी विशुद्ध और विकसित करता है। स्वयं ज़कात शब्द से भी इस तथ्य की ओर संकेत होता है।

जन्नत- बाग़, स्वर्ग, आख़िरत में अल्लाह के नेक बन्दों के रहने की जगह।

ज़बूर- पट्टिका, पर्ण, पत्र, किताब वह किताब जो पैग़म्बर हज़रत दाऊद (अलैहि०) पर अवतरित हुई थी।

जहन्नम - नरक, दोजख आख़िरत में जहाँ बुरे कर्म करनेवाले अल्लाह के विद्रोही और अवज्ञाकारी लोगों को रखा जाएगा उसे जहन्नम कहा जाता है। वहाँ वे यातनाग्रस्त होंगे और आग में जलेंगे। ज़िक्र-स्मरण, याद, स्मृति, याददिहानी, नसीहत, उपदेश, इतिहास, हर वह चीज़ जो किसी का स्मरण कराए। क़ुरआन और दूसरी आसमानी किताबों को भी ज़िक्र कहा गया है।

जिज़या- रक्षा कर इस्लामी राज्य में बसनेवाले गैर मुस्लिम लोगों से उनको जान, माल और आबरू की रक्षा के बदले में लिया जानेवाला कर (Tax) जिज़या कहलाता है। यह कर राजप्रबन्ध के उन कामों में खर्च होता है जो ग़ैर मुस्लिमों की रक्षा से सम्बन्धित और उनके लिए अपेक्षित होते हैं। यह कर केवल धनी ग़ैर-मुस्लिमों से ही लिया जाता है, गरीब और मोहताज गैर-मुस्लिमों पर यह कर न लागू होता और न ही उनसे लिया जाता है, बल्कि हुकूमत उनकी आवश्यकताओं को अपने राजकोष से पूरा करती है।

जिन्न – जिन्न का शाब्दिक भाव-गुप्त या छिपा हुआ होना है। जिन्न मनुष्यों से भिन्न एक प्रकार की मखलूक है। जिन्न चूँकि आँखों से दिखाई नहीं देते। इसी लिए इन्हें जिन्न कहा जाता है।

जिबरील- यह इबरानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है अल्लाह का बन्दा जिबरील अल्लाह के एक प्रमुख फ़रिश्ते का नाम है। हज़रत जिबरील (अलैहि०) अल्लाह का कलाम और आदेश नबियों तक पहुँचाते रहे हैं। यही उनका विशेष काम था।

जिहाद - जानतोड़ कोशिश, ध्येय की सिद्धि के लिए संपूर्ण शक्ति लगा देना। जिहाद का अर्थ विशुद्ध रूप से युद्ध नहीं है। युद्ध के लिए क़ुरआन में 'क़िताल' शब्द प्रयुक्त हुआ है। जिहाद का अर्थ क़िताल के अर्थ से कहीं अधिक विस्तृत है। जो व्यक्ति सत्य-धर्म के लिए अपने धन, अपनी लेखनी, अपनी वाणी आदि से प्रयत्नशील हो और इसके लिए अपने को थकाता हो वह जिहाद ही कर रहा है। धर्म के लिए युद्ध भी करना पड़ सकता है और उसके लिए प्राणों का बलिदान भी किया जा सकता है। यह भी जिहाद का एक अंग है। जिहाद को उसी समय इस्लामी जिहाद कहा जाएगा जबकि वह विशुद्ध रूप से अल्लाह ही के लिए हो। अल्लाह के नाम और उसके धर्म की प्रतिष्ठा के लिए हो, न कि धन-दौलत की प्राप्ति के लिए हो। जिहाद का मुख्य उद्देश्य है सत्य मार्ग की रुकावटों को दूर करना, संसार को अल्लाह के अतिरिक्त दूसरों की दासता से छुटकारा दिलाना। धर्म के पालन में जो बाधाएँ और रुकावटें खड़ी होती हैं उन्हें दूर करना।

ज़ुहर- तीसरा पहर, दिन ढलने का समय। इसी लिए वह नमाज़ जो सूरज ढलने के बाद पढ़ी जाती है उसे ज़ुहर की नमाज़ कहते हैं। इस नमाज़ का समय अस्र की नमाज़ तक रहता है।

तक़वा- डर रखना, संयम, धर्मपरायणता, परहेज़गारी। तक़वा का धात्वर्थ है बचना। किसी चीज़ की पहुँचनेवाली हानि से अपने आपको बचाना, किसी आपदा से डरना, अल्लाह की अवज्ञा और उसकी नाराज़गी से बचना।

तक़वा वास्तव में वह एहसास और मनोभाव है जो अल्लाह के डर से मन में पैदा होता है, और फिर मनुष्य अल्लाह के आदेशों के पालन में लग जाता है और उसकी अवज्ञा से बचने की कोशिश करता है। अच्छे वस्त्र की तरह तक़वा भी मनुष्य के आत्मिक सौन्दर्य को बढ़ाता है। इससे अनिवार्यतः उसके जीवन में सुन्दरता और पवित्रता आ जाती है।

तयम्मुम – पानी न मिलने पर स्नान और वुज़ू के बदले तयम्मुम से काम लेते हैं अर्थात् पाक मिट्टी पर हाथ मारकर अपने मुँह और हाथों पर हाथ फेर लेते हैं। इसी विधि को तयम्मुम कहते हैं। यह तरीक़ा इसलिए अपनाया गया है ताकि शुद्धता और पाकी का विचार सदैव बना रहे और आदमी कभी भी उससे बेपरवाह न हो।

तलाक़- छुटकारा, पति द्वारा पत्नी का परित्याग विवाह-विच्छेदन।

तवाफ़ – परिक्रमा, चक्कर लगाना हज या उमरा करनेवाले अल्लाह के घर काबा के चारों ओर सात चक्कर लगाते हैं इसे तवाफ़ कहते हैं।

तसवीह- अल्लाह की महानता का वर्णन। तसबीह का धात्वर्थ है चेहरे के बल बिछ जाना। नमाज़ की भी तसबीह कहा गया है, इसलिए कि नमाज़ में नमाज़ी अल्लाह के आगे सजदे में चेहरे के बल बिछ जाता है और उसकी महानता का वर्णन करता है। संसार की समस्त चीजें अल्लाह की महानता की साक्षी है और अल्लाह की बड़ाई और उसके हुक्म के आगे झुकी हुई हैं। इसी लिए क़ुरआन में आया है कि संसार की सारी चीजें अल्लाह की तसबीह कर रही हैं।

तहज्जुद - नींद तोड़कर उठना। इस्लामी परिभाषा में इससे अभिप्रेत वह नमाज़ है जो रात के एक हिस्से में सो लेने के पश्चात् पढ़ी जाती है। सोने से पहले भी यह नमाज़ पढ़ सकते हैं। तागूत- यह शब्द 'तुग़यान' से निकला है। तुग़यान का अर्थ है सीमा से आगे बढ़ना, निरंकुश हो जाना, उद्दण्ड होना। अतः हर उस चीज़ को तागूत कहेंगे जिसमें अल्लाह के मुक़ाबले में उद्दण्डता पाई जाती हो और जो उद्दण्डता पर लोगों को उभारती हो, चाहे वह आदमी की अपनी इच्छा हो या समाज का कोई भी व्यक्ति कोई हुकूमत या संस्था हो या स्वयं शैतान या इबलीस।

तूर- एक विशेष पहाड़ का नाम। यह सीना पर्वत और मूसा पर्वत के नाम से भी जाना जाता है। यह क़ुरआन के अवतरण काल में 'तूर' के नाम से विख्यात था। यह पर्वत प्रायद्वीप सीना के दक्षिण में स्थित है। इसकी ऊँचाई 7359 फीट है।

तौबा- पश्चात्ताप, क्षमा चना, लौटना, पलटना, उन्मुख होना, आदि। मनुष्य की ओर से तौबा का अर्थ यह होता है कि वह गुनाह और बुराई को छोड़कर अल्लाह की प्रसन्नता की ओर पलटता है। और अल्लाह की ओर से तौबा का अर्थ यह होता है कि वह अपने बन्दे पर दया दृष्टि डाले और उसके गुनाह को क्षमा कर दे और अपनी नाराज़गी समाप्त करके उसकी ओर रहमत के साथ पलट आए।

तौरात - यह इबरानी शब्द है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'आदेश और क़ानून'। तौरात वह किताब है जो हज़रत मूसा (अलैहि०) पर अवतरित हुई थी।

तौहीद - एकेश्वरवाद। अल्लाह को एक मानना और किसी को उसका साझी और समकक्ष न ठहराना। यही तौहीद तमाम नबियों की शिक्षाओं की आधारशिला रही है। तौहीद केवल एक धारणा ही नहीं, बल्कि हमारे संपूर्ण जीवन पर इसका प्रभाव पड़ता है।

तहारत – पाकी, सफ़ाई।

दीन- धर्म, जीवन प्रणाली वह विधान जिसपर मनुष्य की विचारधारा और कार्यप्रणाली आदि सब कुछ अवलंबित हो।

दीन – शब्द के मौलिक अर्थ में अधीनता और विनीत होने का भाव पाया जाता है, फिर इसमें चार अर्थों का आविर्भाव हुआ है- (1) प्रभुत्व, (2) आज्ञापालन, अधीनता, बन्दगी, (3) विधि विधान, नियम, प्रणाली जिसका पालन किया जाए और (4) जाँच-पड़ताल, फ़ैसला, अच्छे-बुरे कर्मों का बदला।

नज़्र - भेंट, प्रण, मन्नत। केवल अल्लाह ही के आगे नज़्र पेश की जा सकती है। किसी और के आगे न गुजारना जायज़ नहीं। हम प्रेम भाव से यदि किसी को कोई चीज़ देते हैं उसे हदद्या या उपहार कहेंगे, नज़्र नहीं। न केवल अल्लाह के लिए खास है।

फ़र्ज़- अल्लाह के वे आदेश जिनको करना प्रत्येक ईमानवाले पर अनिवार्य है फ़र्ज़ कहलाते हैं। जैसे नमाज़, रोज़ा, ज़कात, हज, लोगों को ईश्वर की ओर बुलाना आदि।

मुबाह- जायज़, हलाल, पवित्र, शुद्ध ।

वाजिब – ज़रूरी, लाज़िम, ठीक, सन्तुलित इस्लामी क़ानून में वह कार्य जिसको न करने से गुनाह होता है सिवाय इसके कि उसके न करने की मजबूरी हो।

नफ़िल- (बहुवचन अनफ़ाल) बढ़ाना या ज़्यादा करना। कोई चीज़ किसी को उसके हक़ से अधिक दी जाए तो जितनी अधिक दी जाएगी वह नफ़िल कहलाएगी। अगर कोई इबादत फ़र्ज़ से अधिक की जाए तो वह नफ़िल कहलाएगी। इसी प्रकार अपने माल में से लोगों को उनके हक़ से अधिक देना नफ़िल कहलाएगा। इसी प्रकार किसी काम के बदले में उस काम की उजरत से अधिक मिल जाना नफ़िल कहलाता है, जैसे जंग में प्राप्त माल नफ़िल है क्योंकि अल्लाह की ओर से सत्य के विरोधियों के मुक़ाबले में लड़ने का अज्र वह माल नहीं है जिसको दुश्मन छोड़कर भाग जाते हैं।

नबवी सन- वह क़मरी साल जो मुहम्मद (सल्ल0) के नबी बनाए जाने की तारीख से शुरू होता है।

नबी – पैग़म्बर, ईशदूत, जो नुवूवत के पद पर नियुक्त किया गया हो, सन्देष्टा नबी पर ख़ुदा का कलाम उतरता है। ख़ुदा उसे अपने आदेश से अवगत कराता है। फिर नबी का कर्तव्य यह होता है कि वह लोगों तक अल्लाह का पैग़ाम पहुँचाए। संसार में बहुत से नबी हुए हैं। सबसे अंतिम नबी हजरत मुहम्मद (सल्ल०) हैं।

नमाज़ – नमाज़ के लिए क़ुरआन में 'सलात' शब्द प्रयुक्त हुआ है। सलात का अर्थ होता है। किसी चीज़ की ओर बढ़ना और उसमें प्रविष्ट कर जाना, किसी चीज़ की ओर ध्यान देना। यहीं से यह शब्द झुकने और प्रार्थना के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। पूजा और इबादत के लिए इस शब्द का प्रयोग अत्यंत प्राचीन है। सलात बन्दे को उसके अपने रब से मिलाती और उससे जोड़ती है। नमाज़ के लिए सलात शब्द अत्यन्त अर्थपूर्ण है।

नमाज़ क़ायम करना – नमाज़ को ठीक ढंग से उसके सारे नियमों के साथ अदा करना। नसारा - ईसाई। 'नसारा' नसरान का बहुवचन है। क़ुरआन में ईसा मसीह के अनुयायियों को 'नसारा' शब्द से संबोधित किया गया है। आरंभ में ईसा मसीह के अनुयायियों को 'नसारा' शब्द से ही संबोधित किया जाता था। इस 'शब्द' के संबंध में अनेक बातें प्रचलित हैं, उनमें से प्रमुख दो हैं –

(1) फ़िलिस्तीन में एक बस्ती नासिरा है। ईसा मसीह ने अपना बचपन यहीं गुज़ारा था इसलिए उन्हें मसीह नासिरी कहा जाता था और इसी लिए उनके माननेवालों को नसारा कहा गया।

(2) 'नसारा' शब्द 'नुसरत' धातु से बना है। नुसरत का शाब्दिक अर्थ- सहायता करना या मदद करना है।

ईसा (अलैहि०) ने जब अपने नबी होने की उदघोषणा की और सत्य का प्रचार आरंभ किया तो कुछ लोगों ने उनका विरोध किया, कुछ ने मदद व सहायता की सहायता करनेवालों को नसारा कहा गया। कुछ ऐतिहासिक ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मसीह (अलैहि०) ने स्वयं अपने अनुयायियों और साथियों को नसारा' कहकर संबोधित किया था। किन्तु कालांतर में ईसा मसीह के अनुयायियों ने जिस तरह ईश्वरीय धर्म-विधान में परिवर्तन किया, अपना नाम भी बदल कर 'ईसाई' रख लिया।

निफ़ाक़- छल, कपट, भीतरी बैर, कपटाचार निफ़ाक़ या कपटाचार यह है कि कोई एक दरवाज़े से तो धर्म में प्रवेश करे किन्तु दूसरे दरवाज़े से बाहर निकल जाए। बाह्य रूप से तो अपने को मुसलमानों में शामिल रखे लेकिन वस्तुतः इस्लाम से उसका कोई सम्बन्ध न हो। निफ़ाक़ कई प्रकार का होता है। विवरण के लिए देखिए 'मुनाफ़िक़'।

नुबूवत- पैग़म्बरी, ईशदूतत्त्व, नबी होने का भाव। विवरण के लिए देखिए 'नबी'।

नूह की जातिवाले– वे लोग जिनके बीच नूह (अलैहि०) नबी बनाकर भेजे गए और ख़ुदा के धर्म का प्रचार किया।

क़ुरआन और बाइबल से यह संकेत मिलता है कि नूह की जातिवालों का निवास स्थान वह भूभाग था जो आज इराक़ कहलाता है। इसकी पुष्टि ऐसे शिलालेखों से होती है जो बाइबल से भी अधिक प्राचीन हैं। इन शिलालेखों में उस जलप्लावन का उल्लेख मिलता है जिसका उल्लेख क़ुरआन और बाइबल में पाया जाता है। इस जलप्लावन से मिलती-जुलती कथाएँ यूनान, मिस्र, भारत और चीन के साहित्य में भी मिलती हैं, बल्कि बर्मा, मलाया, आस्ट्रेलिया, न्यूगिनी, अमेरिका और यूरोप के विभिन्न भागों में भी ऐसी ही जनश्रुतियाँ प्राचीन काल से चली आ रही हैं। इससे यह अंदाज़ा होता है कि जलप्लावन की घटना उस समय की है जब संपूर्ण मानवजाति किसी एक भू भाग में बसती थी, फिर वहीं से निकलकर वह दुनिया के विभिन्न भागों में फैली।

जलप्लावन के अवसर पर अल्लाह के आदेश से हज़रत नूह (अलैहि०) और उनके साथी जिस नाव में सवार हो गए थे, उस नाव का ढाँचा अभी जल्द ही जूदी पर्वत पर खोज लिया गया है। यह खोज एक अमेरिकी वैज्ञानिक (Vendyl Jones) के प्रयास का फल है।

(विस्तार के लिए देखिए 'The Mail on Sunday, London, January 30, 1994)

फ़ज्र- उषाकाल, प्रातः काल पौ फटना। इसी लिए वह नमाज़ जो प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व पढ़ी जाती है उसे फ़ज्र की नमाज़ कहते हैं।

फ़िदया- मुक्ति, प्रतिदान, अर्थदण्ड। वह धन जिसके बदले में किसी अपराधी को छुड़ाया जाए या प्राणदंड से मुक्त कराया जाए। वह माल जो व्यक्ति अपनी किसी ख़ता और कोताही के बदले में मोहताजों पर खर्च करे।

फ़िरदौस (Paradise) — जन्नत, बैकुण्ठ, स्वर्ग। फ़िरदौस शब्द संस्कृत, ईरानी, इबरानी, यूनानी, अरबी आदि लगभग सभी भाषाओं में पाया जाता है। यह शब्द सभी भाषाओं में ऐसे बाग़ के लिए प्रयुक्त होता है जो विस्तृत हो और उसके चारों ओर प्राचीर हो और आदमी के निवास स्थान से मिला। हुआ हो और उसमें हर प्रकार के फल विशेषतः अंगूर पाए जाते हों।

फ़रिश्ता (Angel)-  क़ुरआन में इसके लिए 'मलक' शब्द आया है। मलक का अर्थ होता है संदेश लानेवाला। फ़रिश्तों में इसकी क्षमता होती है कि वे ब्रह्मलोक से अपना संपर्क स्थापित कर सकें और मानव-जगत से भी अपना सम्बन्ध जोड़ सकें। इसी लिए वे अल्लाह का संदेश पैग़म्बरों तक पहुँचाने के लिए नियक्त हो सके हैं। फ़रिश्ते अल्लाह के पैदा किए हुए और उसके बन्दे हैं। वे वही काम करते हैं जिनका उन्हें आदेश होता है। वे हमेशा अल्लाह का गुणगान करते रहते हैं। अल्लाह ने कितने ही फ़रिश्तों को अपने महान कार्य के प्रबन्ध में लगा रखा है। फ़रिश्ते ज़रूरत पड़ने पर जो रूप चाहें धारण कर सकते हैं। पथभ्रष्ट लोग उन्हें अपना आराध्य बनाकर उनको पूजने लगे। उन्हें सिफ़ारिशी और कष्टनिवारक भी समझ लिया गया और उनसे प्रार्थनाएँ भी की जाने लगीं। क़ुरआन ने फ़रिश्तों की हैसियत स्पष्ट कर दी है ताकि बहुदेववाद का दरवाज़ा बन्द हो सके।

बैअत- वचन देना, आज्ञापालन की प्रतिज्ञा करना, वचनबद्ध होना आदि।

बैअते- रिज़वान – हुदैबिया के मैदान में मुहम्मद (सल्ल0) का मुसलमानों से सर धड़ की बाज़ी लगाने का अहद लेना। नबी (सल्ल०) ने मदीने में रहते हुए एक स्वप्न देखा कि आपने अपने साथियों के साथ मस्जिदे-हराम में प्रवेश किया और सिर के बाल मुँडवाए। इस स्वप्न को आप (सल्ल0) ने ईश्वर की ओर से यह संकेत समझा कि आप (सल्ल0) अपने साथियों के साथ उमरा करेंगे। इसलिए आप (सल्ल०) जीक़ाद के महीने में लगभग पन्द्रह सौ साथियों के साथ उमरे के लिए निकले। अपने साथ क़ुरबानी के जानवर लिए, जो इस बात का प्रतीक थे कि इस गिरोह का इरादा धर्म यात्रा का है जंग का नहीं। साथ ही निर्धारित स्थान पर सभी ने उमरे का विशेष वस्त्र 'एहराम' धारण किया और हुदैबिया के स्थान पर पड़ाव डाला। मक्का के लोगों को जब यह मालूम हुआ कि मुसलमान इतनी बड़ी तादाद में मक्का की ओर आ रहे हैं तो वे मुसलमानों के मार्ग में बाधा डालने लगे। वे नहीं चाहते थे कि जिन लोगों को कुछ दिन पहले उन्होंने मक्का से निकलने पर मजबूर कर दिया था वे फिर से मक्का में प्रवेश करें।

मुसलमानों की ओर से बार-बार यह यक़ीन दिलाया गया कि वे लड़ने के लिए नहीं बल्कि उमरा करने के लिए आए हैं। परन्तु वे न माने और मुसलमानों को डराने धमकाने लगे।

अन्त में मुहम्मद (सल्ल0) ने अपने एक साथी हज़रत उस्मान (रज़ि०) को मक्का के लोगों से शांतिपूर्वक बात करने के लिए भेजा। परन्तु मक्का के लोग अकारण बात को लम्बी करते रहे और साथ ही मुसलमानों को भयभीत करने के लिए यह झूठी अफ़वाह फैला दी कि उस्मान (रज़ि०) को क़त्ल कर दिया गया। मुसलमानों पर यह ख़बर बिजली बनकर गिरी। सभी मुसलमान हज़रत उस्मान (रज़ि०) के अकारण क़त्ल का बदला लेने पर उतारू हो गए और अपनी जान की बाज़ी तक लगाने के तत्पर हो गए। नबी (सल्ल॰) एक पेड़ के नीचे बैठ गए और मुसलमानों से हज़रत उस्मान (रज़ि०) के खून का बदला लेने की बैअत की यही बैअत, बैअते-रिज़वान कहलाती है। बाद में हज़रत उस्मान (रज़ि०) सकुशल वापस आ गए, इसलिए यह ख़ूनी संघर्ष टल गया।

बनी इसमाईल- हज़रत इसमाईल (अलैहि०) की संतति के लोग हज़रत इसमाईल (अलैहि०), हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बड़े पुत्र थे। अल्लाह के आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का जन्म बनी इसराईल ही की संतति में हुआ।

बनी इसराईल- इसराईल की संतति, यहूदी। इसराईल हज़रत याक़ूब (अलैहि०) का दूसरा नाम था हज़रत याकूब (अलैहि०) हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के बेटे और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के पौत्र थे। यहूदी इन्हीं के वंश से हैं, इसी लिए उन्हें बनी इसराईल कहकर पुकारा गया है।

बैतुल मक़दिस- मस्जिद अक़सा। वह पाक घर जो यरूशलम में है, जिसके निर्माण का संकल्प हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने किया था और यह काम उनके बेटे हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के हाथों पूरा हुआ।

मकरूह - घृणित, भद्दा, जिसे देखकर घिन आए, नापसन्दीदा। इस्लाम में वह काम जिसको करना अच्छा न हो परन्तु वह हराम भी न हो।

मजूस – एक सम्प्रदाय का नाम जो अग्नि की पूजा करता है। इनके धर्म को अल-मजूसिया' कहते हैं। ये ज़रदुश्त की शिक्षाओं पर चलते हैं, इसलिए इन्हें ज़रदुश्तवादी भी कहा जाता है। अरबी साहित्य में यह शब्द उत्तरी यूरोपवासियों के लिए भी प्रयुक्त हुआ है।

क़ुरआन मजीद ( 22 : 17) में यह शब्द 'मजूस' केवल एक बार आया है और एक विशिष्ट जाति के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इस्लामी धर्म-शास्त्र के अध्ययन से ज्ञात होता है कि यह जाति अहले किताब (अर्थात् नसारा और यहूदी) की तरह एक जाति है, किन्तु स्वयं अहले किताब नहीं हैं। इस्लाम के आरंभिक काल में यह जाति इराक्र, फ़ारस, किरमान, बहिस्तान, खुरासान, तबरिस्तान, अलूजिवाल, आज़रबाईजान और ईरान में अधिसंख्या में पाई जाती थी, किन्तु कालांतर में अधिकतम इस्लाम धर्म के अनुयायी हो गए। वर्तमान में इनकी संख्या विश्व में बहुत कम पाई जाती है।

मताफ़ - तवाफ़ करने की जगह।

मदयनवाले – अरब की एक पुरानी जाति। इस जाति की आबादी हिजाज़ से फ़िलिस्तीन के दक्षिण तक और वहाँ से प्रायद्वीप सीना के अंतिम छोर तक, लाल सागर और अक़बा की खाड़ी तक फैली थी। इसका केन्द्र मदयन नगर था। मदयनवाले हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बेटे मियान की नस्ल से बताए जाते हैं। इस क़ौम के मार्गदर्शन के लिए अल्लाह ने हज़रत शुऐब (अलैहि०) को नबी बनाकर भेजा। इस क्रम में शिर्क ही नहीं बल्कि इसके अतिरिक्त और भी बहुत-सी बुराइयाँ पैदा हो गई थीं। जब इस क़ौम ने अपने नबी की बात न मानी और अपनी सरकशी से बाज़ न आए तो अल्लाह ने अपना अज़ाब उतारकर इस क़ौम को विनष्ट कर दिया। केवल इसके खण्डहर ही शिक्षा के लिए शेष रह गए हैं।

मन्न- मन्न प्राकृतिक खाद्य पदार्थ है जो इसराईलियों को बेघरबार होने की दशा में 40 वर्षों तक मिलता रहा। मन्न को वे मीठे और स्वादिष्ट मधु के रूप में प्रयोग में लाते थे। मन्न के अतिरिक्त उन्हें सलवा भी प्राप्त था। सलवा बटेर के प्रकार का एक पक्षी था जिसको वे खाते थे।

मस्जिदे हराम- प्रतिष्ठित मस्जिद। वह मस्जिद जिसके बीच काबा स्थित है।

महर – वह रकम या माल जो विवाह के नाते से पति अपनी पत्नी को देता है। क़ुरआन में इसके लिए 'सदक़ात' शब्द प्रयुक्त हुआ है जो 'सदक़ा' का बहुवचन है। सदक़ा की व्युत्पत्ति 'सिदक' से हुई है। सच्चाई, मित्रता, दुरुस्ती आदि इसके कई अर्थ होते हैं। महर वास्तव में स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों और उनके प्रेम-भाव के बने रहने का एक प्रतीक या चिह्न है और औरत की प्रतिष्ठा का द्योतक भी।

 

माले ग़नीमत- देखें गनीमत।

मीकाईल (अलैहि०) - एक अति प्रतिष्ठित एवं पवित्र फ़रिश्ते का नाम ।

मीकाईल 'मीका' और 'ईल' दो शब्दों से मिलकर बना है। यह शब्द मूलतः इबरानी भाषा का है जिसे अरबी भाषा में तत्सम रूप में ले लिया गया है। 'मीका' का अर्थ है-बंदा, दास या सेवक तथा ईल का अर्थ है-ख़ुदा, ईश्वर अत: 'मीकाईल' का शाब्दिक अर्थ हुआ-ख़ुदा का बंदा या ईश्वर का दास।

यहूदी इस फ़रिश्ते के प्रति अन्य फ़रिश्तों की तुलना में अधिक श्रद्धा रखते हैं, वे इसे अपना रक्षक, खुशहाली और मुक्ति का फ़रिश्ता मानते हैं। जबकि मुसलमान समस्त फ़रिश्तों के प्रति समानादर भाव रखते हैं और धर्म-शिक्षानुसार मीकाईल (अलैहि०) को समस्त जीवों तक उनकी आजीविका पहुँचानेवाला और बारिश का प्रबंधक फ़रिश्ता मानते हैं।

इस फ़रिश्ते का नाम क़ुरआन में केवल एक स्थान पर, सूरा 2 (अल बक़रा) की आयत 98 में, आया है।

मुत्तक़ी- परहेज़गार, ख़ुदा की नाफ़रमानी से बचनेवाला, ख़ुदा से डरनेवाला। देखें तक्रवा मुनाफ़िक़ (Hypocrite) – कपटाचारी, कपटी, छली, निफ़ाक़ रखनेवाला। ऐसा व्यक्ति जो अपने को मुसलमान कहता हो किन्तु इस्लाम से उसका सच्चा सम्बन्ध न हो। मुनाफ़िक कई प्रकार के हो सकते हैं—(1) वे लोग जो इसलिए मुसलमानों में घुस आए हों और अपने को मुसलमान कहते हों, ताकि वे इस्लाम को अधिक से अधिक हानि पहुँचाने में समर्थ हो सकें। (2) वे जिनका उद्देश्य इस्लाम या मुसलमानों को नुकसान पहुँचाना तो न हो अलबत्ता मुसलमान केवल इसलिए हुए हों कि वे इहलौकिक और भौतिक लाभ मुसलमानों से उठाएँ। न उनका इस्लाम से कोई संबंध हो और न उसकी चाह उनके दिल में हो (3) वे लोग जो शामिल तो हों मुसलमानों ही के गिरोह में किन्तु ईमान उनका बहुत ही कमज़ोर हो। जब कभी आज़माइश पेश आए तो वे कमज़ोरी दिखा जाएँ।

मुशरिक – अनेकेश्वरवादी, बहुदेववादी, शिर्क करनेवाला, किसी अन्य को ईश्वर के समकक्ष घोषित करनेवाला।

मुशरिक वह व्यक्ति है जो ईश्वर के अस्तित्व या उसके गुणों या उसके हक़ में दूसरों को साझीदार बनाए। अस्तित्व में साझीदार ठहराने का अर्थ यह है कि 'किसी से उसको या उससे किसी को उत्पन्न होने की धारणा रखी जाए। जैसे किसी को उसका बाप या उसकी संतान समझी जाए। गुणों में दूसरों को ईश्वर का साझीदार ठहराने का अर्थ यह होता है कि ईश्वर के विशेष गुणों का सम्बन्ध दूसरों से भी जोड़ा जाए। उदाहरणार्थ- कोई यह समझने लगे कि जगत की रचना में किसी अन्य देवी-देवता का भी हाथ है या कोई यह मानने लगे कि कुछ और हस्तियाँ भी हैं जो स्वतंत्र अधिकार रखती हैं चाहें करें, जिसका चाहें काम बना दें और जिसका चाहे बिगाड़ दें।

 

हक़ और अधिकार में ईश्वर का शरीक ठहराने का अर्थ यह है कि जो हक़ और अधिकार ईश्वर का होता है उसमें वह दूसरों को भी साझीदार समझने लगे। जैसे-जगत का स्वामी और स्रष्टा ईश्वर है तो उपासना भी उसी की होनी चाहिए। अब यदि कोई ईश्वर से हटकर किसी दूसरे की बन्दगी और पूजा करता है तो यह ईश्वर के हक़ में दूसरे को शरीक ठहराना होगा और ऐसा करनेवाले को मुशरिक कहा जाएगा।

मुसलमान– 'मुस्लिम' शब्द का बहुवचन, लेकिन व्यवहार में इसका प्रयोग एकवचन के रूप में होने लगा है। इस्लाम धर्म के अनुयायी का द्योतक (विस्तार के लिए देखिए 'मुस्लिम') मुस्लिम - आज्ञाकारी, इस्लाम का अनुयायी, केवल ईश्वर को अपना रब, स्वामी, शासक और आराध्य सब कुछ माननेवाला और अपने आपको उसके समक्ष समर्पण कर देनेवाला। उसी के आदेशानुसार जीवन-यापन करनेवाला संसार की सारी ही चीजें- सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, हवाएँ आदि सब-वास्तव में मुस्लिम हैं क्योंकि ये सभी अल्लाह की आज्ञा के पालन में लगी हुई हैं।

मुहाजिर - हिजरत करनेवाला, अल्लाह के लिए अपना घरबार छोड़नेवाला। नबी (सल्ल0) के वे साथी जो अल्लाह के लिए अपना वतन- मक्का- छोड़कर मदीना प्रस्थान कर गए थे। मोमिन- ईमानवाला। वह व्यक्ति जो अल्लाह, उसके पैग़म्बरों और उन सच्चाइयों पर पूर्ण विश्वास रखता हो और उन्हें दिल से मानता हो जिनकी शिक्षा पैग़म्बरों ने दी है। (देखिए 'मुस्लिम')

मेराज- ऊपर चढ़ना, दर्जा या मरतबा बुलन्द करना, ख़ुदा के क़रीब होना। नबी (सल्ल0) का माह रजब की सत्ताईसवीं रात को अल्लाह के द्वारा आसमानों की सैर कराने और अपने पास बुलाकर उनका मार्गदर्शन करना।

यहूद-शब्द 'यहूदी' का बहुवचन। अर्थ-यहूदी लोग। (विस्तार के लिए देखिए 'यहूदी)

यतीम- अनाथ, वह वच्चा जिसका बाप मर चुका हो।

यहूदी- वे लोग जो अपना सम्बन्ध हज़रत मूसा (अलैहि०) से जोड़ते हैं। एक विशेष क़बीले से यहूदी मत का आविर्भाव हुआ, उस क़बीले का नाम 'यहूदाह' था। यहूदाह शब्द की व्युत्पत्ति 'हूद' से हुई है। हूद का अर्थ होता है लौटना, पलटना, तौबा करना।

रब- मौलिक अर्थ है पालनकर्ता, फिर स्वाभाविक रूप से इसमें कई अर्थों का आविर्भाव हुआ। क़ुरआन में 'रब' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, जिनमें परस्पर गहरा संपर्क पाया जाता है।

(1) पालनकर्ता, संरक्षक (2) स्वामी, मालिक, प्रभु (3) शासक, हाकिम, विधाता, प्रबन्धकर्ता।

रब्बानी - धर्माधिकारी यहूद के यहाँ जो लोग, धार्मिक पदों पर नियुक्त होते थे और धार्मिक विषयों में मार्गदर्शन करना उनका कर्त्तव्य होता था, उन्हें रब्बानी कहा जाता था। उनकी ज़िम्मेदारी में यहूद की उपासना-व्यवस्था और निगरानी भी होती थी। इसका संकेत क़ुरआन में भी किया गया है। (देखिए क़ुरआन, 563)

रमज़ान – हिजरी वर्ष का नौवाँ महीना। 'रमज़ान' शब्द 'रमज़' धातु से बना है, जिसका भावार्थ- तपिश, गरमी है। विद्वानों का अनुमान है कि जब आरंभ में महीनों के नाम निश्चित किए गए होंगे तो यह महीना सख्त गर्मी के मौसम में आया होगा। इस महीने में समस्त मुसलमानों पर पूरे महीने नियामानुसार रोज़ा रखना अनिवार्य और फ़र्ज़ है।

इस महीने का उल्लेख क़ुरआन में कई जगह आया है। इस महीने की बड़ाई करते हुए क़ुरआन में कहा गया है कि यही वह महीना है जिसमें क़ुरआन का अवतरण हुआ है और जिसमें एक ऐसी रात आती है जो हज़ार रातों से उत्तम एवं श्रेष्ठ है।

रसूल- पैग़म्बर, दूत, वह व्यक्ति जो रिसालत के पद पर नियुक्त हो। ऐसा व्यक्ति जिसके द्वारा अल्लाह लोगों को अपना मार्ग दिखाता और उन तक अपना संदेश पहुंचाता है उसे रसूल या नबी कहते हैं।

रसूल और नबी में थोड़ा अंतर है। रसूल वह पैग़म्बर होता है जिसे अल्लाह की ओर से नई शरीअत (धर्मविधान) और किताब प्रदान हुई हो। नबी हरेक पैग़म्बर को कहते हैं, चाहे उसे नई शरीअत और किताब मिली हो या उसे केवल पूर्वकालिक किताब और शरीअत पर लोगों को चलाने का कार्यभार सौंपा गया हो। ख़ुदा के पैग़म्बर या नबी संसार के विभिन्न भागों में आए हैं, उनकी एक बड़ी संख्या है, जिनमें से हम कुछ ही नबियों के नाम से परिचित हैं। नबियों को मौलिक शिक्षाएँ एक रही हैं। हर मुसलमान के लिए अनिवार्य किया गया है कि वह सभी नबियों पर ईमान लाए और उनके प्रति अपने हृदय में श्रद्धा और प्रेम बनाए रखे। भले ही उन नबियों में से किसी या किन्हीं के समुदाय के लोग उसके शत्रु ही क्यों ना और शत्रुता में वे कितने ही आगे क्यों न बढ़े हुए हों। जैसे मुसलमान के लिए अनिवार्य है कि वे हज़रत मूसा (अलैहि०) को पैग़म्बर स्वीकार करे और उनके प्रति आदर भाव रखे, हालाँकि हज़रत मूसा (अलैहि०) को माननेवाले यहूदियों की इस्लाम और मुसलमानों से शत्रुता कोई छिपी हुई बात नहीं है।

रस्सवाले– देखें 'अर-रस्सवाले'।

रहमान - अत्यन्त कृपाशील ईश्वर, वह सत्ता जिसकी दयालुता फीकी और कम न हो, अल्लाह का एक विशेष नाम।

रिब्बी (Devoted Man) - अल्लाहवाले, ईशभक्त ।

रिसालत – रसूल होने का भाव, पैग़म्बरी, ईशदूतत्व। (देखिए 'रसूल') रुकू (रुकूअ) – सिर झुकाना, नमाज़ का एक अंग जिसमें व्यक्ति अल्लाह की बड़ाई का ध्यान करते हुए उसके आगे नतमस्तक होता है।

रूहुल क्रुदुस- पवित्रात्मा इससे अभिप्रेत वह्य का ज्ञान भी है जो हज़रत ईसा (अलैहि०) को दिया गया था। इससे अभिप्रेत फरिश्ता जिबरील (अलैहि०) भी हैं जो अल्लाह की वाणी पैग़म्बर तक पहुँचाते थे और इससे अभिप्रेत हज़रत ईसा (अलैहि०) की अपनी पवित्रता भी होती है।

रोज़ा- व्रत। क़ुरआन में इसके लिए 'सियाम' शब्द आया है। सियाम का मौलिक अर्थ है रुक जाना। रोज़े में आदमी सुबह पौ फटने से लेकर सूर्यास्त तक खाने-पीने और काम वासना की पूर्ति से रुका रहता है। आत्मा की शुद्धता और आत्मिक विकास के लिए रोज़ा रखना ज़रूरी है। रोज़े से आदमी में संयम की वृत्ति पैदा होती है और वह ईशपरायण बन जाता है। अर्थात् वह अल्लाह का डर रखनेवाला और उसकी अवज्ञा से बचनेवाला व्यक्ति बन जाता है और उसके मन में यह भाव जागृत हो जाता है कि जीवन में खाने-पीने और भौतिक पदार्थों के भोग के सिवा भी कुछ है, जिसे प्राप्त किए बिना मनुष्य पाशविक स्तर से ऊपर नहीं उठ सकता।

लूत (अलैहि०) - अल्लाह के एक अत्यंत प्रतिष्ठित पैग़म्बर, जिनको पूर्वी उर्दुन के सदूरा के और आमूरा नामक क्षेत्र में अल्लाह के धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए भेजा गया था ये हज़रत इवराहीम (अलैहि०) के भतीजे और हारान बिन आज़र के पुत्र थे। ये दक्षिणी इराक़ के पुराने शहर उर (UR) में पैदा हुए। शहर उर' फ़रात' नदी के किनारे बाबिल और नैनवा से भी पहले आबाद था।

यही वे पैग़म्बर हैं जिनको एक ऐसी क़ौम (जाति) में भेजा गया था, जो अत्यंत चरित्रहीन पथभ्रष्ट और निर्लज्ज थी। उस जाति में कई बुराइयाँ थीं लेकिन उनमें से सबसे बड़ी बुराई यह पैदा हो गई थी कि वे अपनी काम-वासना स्त्रियों के बजाए पुरुषों से तृप्त करते थे। लूत (अलैहि०) ने बड़े धैर्य और नर्मी के साथ उन्हें सत्यपथ पर लाने की कोशिश की किन्तु वे और अधिक अपने अत्याचार पर उतर आए और पैग़म्बर पर ही ज़ुल्मो-ज्यादती करने लगे। अंततः अल्लाह ने इसे तलपट कर दिया और उस हरी-भरी और आबाद भूमि को लगभग चार सौ मीटर समुद्र से नीचे कर दिया। यहाँ पानी ही पानी भर गया। आज यह 'मृत-सागर' या 'लूत-सागर' के नाम से प्रसिद्ध है।

लूत (अलैहि०) की जातिवाले- हज़रत लूत (अलैहि०) को जिन लोगों के बीच पैग़म्बर बनाकर भेजा गया और जिनके बीच उन्होंने अल्लाह के धर्म और आदेश को पहुँचाने का काम किया उन लोगों को 'लूत की जातिवाले' या अहले लूत कहा गया है।

लौंडी- इससे अभिप्रेत वे स्त्रियाँ हैं जो इस्लामी युद्ध में गिरफ्तार हुई हों। इन स्त्रियों के सम्बन्ध में इस्लामी क़ानून यह है कि पहले उन्हें हुकूमत के हवाले किया जाएगा, फिर हुकूमत को यह अधिकार है कि वह उन्हें रिहा कर दे या रिहाई के बदले में कुछ फ़िदया ले। या वह उन मुसलमान कैदियों की रिहाई के बदले में उन्हें छोड़ दे जो दुश्मन के क़ब्ज़े में हों।

लौंडी को हुकूमत की ओर से विधिपूर्वक किसी व्यक्ति की मिलकियत में भी दिया जा सकता है। यह कार्य ठीक उसी तरह धर्मसंगत बात है जैसे विवाह एक धर्मसंगत कार्य है। लौंडी से जो औलाद पैदा होगी वह जायज़ औलाद मानी जाएगी और उस औलाद को वही हक़ प्राप्त होगा जो पत्नी से उत्पन्न औलाद को प्राप्त होता है। बच्चा पैदा होने के बाद लौंडी को बेचा नहीं जा सकता। अपने स्वामी के मरने के बाद वह स्वतंत्र हो जाएगी। इस्लाम में इसे अच्छा माना गया है कि लौंडियों को स्वतंत्र करके उनसे स्वयं विवाह कर लिया जाए या सुयोग्य व्यक्तियों से उनका विवाह कर दिया जाए। लड़ाई में गिरफ्तार स्त्रियाँ समाज के लिए एक समस्या होती हैं। इस्लाम ने इसका जो समाधान निकाला है वह स्वाभाविक एवं मर्यादानुकूल है।

वुज़ू - नमाज़ पढ़ने से पहले शुद्धता के लिए नियामानुसार हाथ, मुँह और पैरों को धोना और सिर पर गीला हाथ फेरना।

वहय (Revelation)- प्रकाशना, दैवी प्रकाशन, ईश्वरीय संकेत। वहय का शाब्दिक अर्थ होता है तीव्र संकेत, गुप्त संकेत। अर्थात् ऐसा इशारा जो तेज़ी से इस प्रकार किया जाए जिसे वही जान सके जिसको इशारा किया गया हो।

इस्लामी परिभाषा में इससे अभिप्रेत वह विशेष वहय है जिसके द्वारा अल्लाह अपने नबियों को अपनी इच्छा और आदेशों से अवगत कराता है। क़ुरआन और दूसरे ईश्वरीय धर्मग्रंथों का अवतरण वह्य द्वारा ही हुआ है।

शरीअत- क़ानून, विशेषत: मज़हबी क़ानून।

शहीद- साक्षी, गवाह, हाज़िर, वीरगति को प्राप्त। इस शब्द के कई अर्थ होते हैं :

(1) जो व्यक्ति किसी जाति की ओर से जाति के प्रतिनिधि के रूप में किसी मामले की गवाही दे। (क़ुरआन, 28:75)

(2) बादशाह के यहाँ जिसकी हैसियत सामान्य जनता के प्रतिनिधि या सिफारिशी की हो।

(3) जिस चीज़ की गवाही दी जा रही हो अर्थात् जिसकी सूचना लोगों को दी जा रही हो उस चीज़ और लोगों के बीच जो व्यक्ति वास्ता या माध्यम बन रहा हो। (क़ुरआन, 2:143)

(4) जो व्यक्ति किसी बड़े मामले की गवाही सप्रमाण दे। जो अपने संपूर्ण जीवन और चरित्र से इस बात की गवाही दे कि वह जीवन के जिन तथ्यों और मूल्यों पर विश्वास रखता है, वे सत्य हैं।

अल्लाह के मार्ग में प्राण देनेवाले या मारे जानेवाले को इसी लिए शहीद कहा जाता है कि वह अपने प्राण देकर इस बात की गवाही देता है कि जिस चीज़ पर उसका ईमान लाने का दावा था, उस पर उसने अपने आपको न्यौछावर कर दिया।

(5) वह व्यक्ति जो किसी चीज़ को पूरी तरह जानता हो और इस सिलसिले में वही गवाह और सनद (प्रमाण) हो। (क़ुरआन, 29:52)

शिर्क – अनेकेश्वरवाद। किसी को अल्लाह का शरीक या साझीदार ठहराना। अल्लाह की सत्ता, उसके गुणों और उसके अधिकारों में किसी को शरीक समझना। (देखिए 'मुशरिक')

शैतान - शाब्दिक अर्थ है जल्दबाज़, अग्नि-स्वभाववाला, अशान्त। तत्पश्चात इसमें सरकशी और क्रूरता के अर्थ का भी समावेश हो गया। शैतान के ये दुर्गुण किसी जिन्न में भी पाए जा सकते हैं और किसी मनुष्य में भी क़ुरआन में इस शब्द का प्रयोग मनुष्य और जिन्न दोनों के लिए हुआ है।

सजदा – झुकना, साष्टांग प्रणाम, दण्डवत, सिर ज़मीन पर रख देना, चेहरे के बल बिछ जाना, नमाज़ का एक विशेष अंग।

 

सदक़ा- दान, खैरात, अल्लाह के मार्ग में खर्च करना। क़ुरआन में ज़कात और खैरात दोनों ही के लिए शब्द प्रयुक्त हुआ है। सदक़ा की व्युत्पत्ति 'सिक' से हुई है जिसका अर्थ होता है सच्चाई और निष्ठा।

सब्र – धैर्य, दृढ़ता, अविचल होना, जमाव सब का शाब्दिक अर्थ है रोकना, बाँधना। सब के अर्थ में बड़ी व्यापकता पाई जाती है। सत्र संकल्प की वह दृढ़ता और मन की वह अविचलता है। जिसके कारण आदमी अपने चुने हुए मार्ग पर आगे बढ़ता चला जाता है, किसी हानि का भय उसे मार्ग से हटा नहीं सकता और न ही मन की कोई इच्छा उसे विचलित कर सकती है।

समूद- अरब की प्राचीन जातियों में से एक प्रसिद्ध जाति। इस जाति का उल्लेख असीरिया के शिलालेखों में भी मिलता है। यूनान, स्कंदरिया और रोम के इतिहासकारों और भूगोल के लेखकों ने भी इस जाति का उल्लेख किया है।

यह जाति अरब के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में बसती थी। आज इस क्षेत्र को 'अलहिज्र' कहते हैं। मदीना और तबूक के बीच एक स्थान 'मदायने-सालेह' पड़ता है। प्राचीन काल में इसे हिज्र कहते थे और यही समूद की राजधानी थी। हज़ारों एकड़ के क्षेत्र में आज भी ऐसे भवन मौजूद हैं, जिनका निर्माण समूद ने पहाड़ों को काट-काटकर किया था।

समूद के मार्गदर्शन के लिए अल्लाह ने हज़रत सालेह (अलैहि०) को नबी बनाकर भेजा। किन्तु यह जाति राह पर न आई और अल्लाह ने इसे विनष्ट कर दिया।

सलवा- देखिए 'मन्न' ।

सहाबा - साथी, हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के साथी यह शब्द सहाबी का बहुवचन है। इसका एक बहुवचन 'असहाब' भी है। वस्तुतः इसका एकवचन साहब या सहाबी है।

सहीफ़ा - लिखित पर्ण क़ुरआन मजीद में यह शब्द बहुवचन के रूप (सुहुफ़) में प्रयुक्त हुआ है; जिससे अभिप्रेत किताब है। किताब पन्नों ही का समूह होता है।

साबिई- इस नाम के दो समुदाय प्राचीन काल में थे। एक हज़रत यह्या (अलैहि०) का अनुयायी था। इसके लोग 'अल जज़ीरा' के भू-भाग में अधिक पाए जाते थे। दूसरा समुदाय उन नक्षत्रपूजकों का था जो अपने धर्म का सम्बन्ध हज़रत शीस (अलैहि०) और हज़रत इदरीस (अलैहि०) से जोड़ते थे। इन लोगों का केन्द्र 'हरांन' था। इराक़ के विभिन्न भागों में ये लोग फैले हुए थे। अनुमान है कि क़ुरआन में साबिई से अभिप्रेत पहला ही समुदाय है, क्योंकि क़ुरआन के अवतरण काल में दूसरा समुदाय इस नाम से नहीं जाना जाता था।

सिद्दीक़- अत्यन्त सच्चा, निष्ठावान, सत्यवान। जिसमें सत्यप्रियता और सत्यवादिता के अतिरिक्त और कोई दूसरी भावना न पाई जाती हो। जो सत्य और न्याय का साथ हर हाल में दे सके। जो चरित्र का महान हो और स्वार्थपरता से बहुत दूर हो। यह उपाधि हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) को अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने दी थी।

सुलह हुदैबिया- मक्का के इस्लाम विरोधियों और मुहम्मद (सल्ल0) के बीच हुदैबिया के स्थान पर होने वाली सन्धि बैअते-रिज़वान (देखें बैअते-रिज़वान) के बाद जब मक्का के लोगों को मालूम हुआ कि मुसलमान अपने सर धड़ की बाज़ी लगा देने पर उतारू हैं तो उन्होंने अपनी नीति बदली और सबसे पहले तो हज़रत उस्मान को मुसलमानों के शिविर में वापस भेजा तथा साथ ही अपनी ओर से सुहेल-बिन-अम्र को मुहम्मद (सल्ल0) के पास बातचीत के लिए भेजा सुहेल बिन-अम्र और मुहम्मद (सल्ल0) के बीच एक सन्धि हुई जिसे सुलह हुदैबिया के नाम से जाना जाता है।

सूर- सूर बिगुल या नरसिंघा को कहते हैं। क़ुरआन में जिस सूर का उल्लेख किया गया है उसकी वास्तविकता का सही ज्ञान अल्लाह ही को है।

सूरा - क़ुरआन छोटे-बड़े 114 अध्यायों में विभक्त है, जिनमें से प्रत्येक अध्याय को सूरा कहते हैं। सूरा को सूरह या सूरत भी कहा जाता है। प्रत्येक सूरा अपनी जगह पूर्ण होती है। किन्तु इसी के साथ उसका अपनी अगली पिछली सूरतों से गहरा संपर्क भी होता है।

सूरा शब्द 'सूर' से निकला है जिसका अर्थ होता है-शहरपनाह, प्राचीर, नगरकोट। इसका बहुवचन 'सुवर' होता है, किन्तु सूरतों या सूरतें भी प्रयुक्त होता है।

हक़-'हक़' मौजूद और क़ायम को कहते हैं। फिर इसमें कई अर्थों का समावेश हुआ है –

(1) जिसका होना सत्य हो। (क़ुरआन, 38:64)

(2) नैतिक दृष्टि से जो अपेक्षित हो। (क़ुरआन, 51:19)

(3) जो स्पष्ट और बुद्धिसंगत हो। (क़ुरआन, 2:71,6:62)

अल्लाह और क़ियामत पहले और तीसरे अर्थ के अनुसार हक़ है। इनसाफ़ और न्याय को दूसरे अर्थ में हक़ कहा जाएगा। तीसरे अर्थ के अनुसार हिकमत और तत्त्वदर्शिता (Wisdom) को हक़ कहा जाएगा।

हम्द - गुणगान, प्रशंसा, ईशप्रशंसा। किसी के सद्गुणों और खूबियों का प्रेमपूर्वक वर्णन हम्द अल्लाह के आगे कृतज्ञता प्रकट करने का एक उत्तम ढंग है। इसी लिए हम्द को शुक्र से भी अभिव्यंजित करते हैं।

हज (हज्ज)- इसका अर्थ होता है इरादा करना, ज़ियारत इस्लामी परिभाषा में हज एक इबादत है जिसमें आदमी काबा के दर्शन का इरादा करता है और मक्का पहुँचकर उन कृतियों एवं संस्कारों का पालन करता है जिनका आदेश दिया गया है। हज वास्तव में इस बात की घोषणा है कि हमारा प्रेम, श्रद्धा, पूजा और बन्दगी सब अल्लाह ही के लिए है। हज करने से मानव हृदय पर अल्लाह की बड़ाई और उसके प्रेम की छाप स्थायी रूप से पड़ जाती है।

हरम- शाब्दिक अर्थ-सम्मानित, प्रतिष्ठित, आदरणीय इस्लामी परिभाषा में- मक्का मदीना और उनके आस-पास के कुछ मील तक के क्षेत्र को हरम कहते हैं। इन दोनों शहरों और उनके आस-पास के क्षेत्र को एक साथ बोलने पर हरम का द्विवचन 'हरमैन' प्रयुक्त किया जाता है। इन्हें हरम कहने का कारण यह है कि अल्लाह तआला ने इनको सम्मानित एवं प्रतिष्ठित किया है और इन स्थानों पर कुछ कर्म और क्रियाएँ सख्त मना हैं। उदाहरणत: उनके अन्दर जंग नहीं हो सकती उनके पेड़ों आदि को नहीं काटा जा सकता और उनके अन्दर प्रवेश होनेवाला व्यक्ति सुरक्षित हो जाता है, किन्तु यह भी है कि यदि कोई अपराधी और हत्यारा यहाँ आकर शरण ले ले तो उसे सज़ा हेतु अधिकारी के हवाले किया जाएगा।

हराम- अवैध, वर्जित, निषिद्ध इस्लाम ने जिनका निषेध किया हो, जैसे शराब पीना, ब्याज खाना आदि।

हलाल- वैध, अवर्जित, जो इस्लामी धर्मशास्त्र के अनुकूल हो।

हवारी - सच्चा साथी, सहायक। हज़रत ईसा मसीह (अलैहि०) के साथियों की उपाधि उर्दू बाइबल में इसके लिए 'शागिर्द' शब्द प्रयुक्त हुआ है। बाद में उनके लिए 'रसूल' (Apostles) की उपाधि प्रचलित हो गई। क्योंकि हज़रत ईसा मसीह धर्म प्रचार हेतु उन्हें विभिन्न स्थानों पर भेजते थे। क़ुरआन ने उन्हें हवारी कहा। हवारी 'हौर' से बना है। 'हौर' का अर्थ होता है सफ़ेदी धोबी को हवारी इसी लिए कहते हैं कि वह कपड़े को धोकर सफ़ेद कर देता है। ख़ालिस और शुद्ध चीज़ को भी हवारी कहते हैं। इसी पहलू से ख़ालिस दोस्त और निस्स्वार्थ साथी को भी हवारी कहते हैं।

हिकमत (Wisdom) - तत्त्वज्ञान, विवेक, तत्त्वदर्शिता। हिकमत का मूल अर्थ है फैसला करना, फिर सूझबूझ की उस शक्ति को भी हिकमत कहते हैं जिसके द्वारा आदमी फ़ैसले करता है। उस शक्ति को भी हिकमत से अभिव्यंजित करते हैं जो सत्यानुकूल निर्णयों का स्रोत है। इसके अतिरिक्त चरित्र की पवित्रता को भी हिकमत के लक्षणों में से माना जाता है।

हिजरत – स्वदेश त्याग, अल्लाह की राह में घरबार छोड़ना, नबी (सल्ल0) का मक्का छोड़कर मदीना को प्रस्थान करना।

हिजरी सन – वह क़मरी साल जो मुहम्मद (सल्ल0) के मक्का से मदीना हिजरत करने की तारीख़ से शुरू होता है।

हिदायत (Guidance) - मार्गदर्शन, रास्ता दिखाना, सीधे मार्ग पर लाना, सीधे मार्ग पर चलाना। जीवन-यापन करने का वह तरीक़ा जिसपर चलकर आदमी अपने लोक-परलोक का भला कर सके। क़ुरआन में इसके लिए 'हुदा' शब्द प्रयुक्त हुआ है, जिसके कई अर्थ होते हैं, किन्तु उनमें परस्पर गहरा सम्बन्ध पाया जाता है। (1) हृदय-ज्योति, अंतर्दृष्टि (क़ुरआन, 32 13, 4717),

(2) निशानी, प्रमाण, खुली दलील, वह चीज़ जिसके द्वारा राह मिल सके (क़ुरआन, 2:185, 20:10, 22 : 8), (3) स्पष्ट मार्ग, अभीष्ट स्थान (मंज़िल) तक पहुँचने का रास्ता (क़ुरआन, 22 67 ) । यहीं से यह शब्द शरीअत के लिए भी मान्य हुआ (क़ुरआन, 3:73,6:90) । (4) क्रिया की संज्ञा का रूप अरब किसी चीज़ के स्पष्ट गुण से ही उसका नामकरण कर देते हैं। इसी नियम के अनुसार क़ुरआन को 'अलहुदा' कहा गया है (क़ुरआन, 72:13 ) ।

हुक्म – निर्णय शक्ति, धर्म में सूझ-बूझ मामलों में सही राय क़ायम करने की क्षमता मामलों में फ़ैसला करने का अल्लाह की ओर से अधिकार हुक्म में प्रभुत्त्व का अर्थ भी पाया जाता है। क़ुरआन में यह शब्द और इल्म साधारणतया नुबूवत के लिए प्रयुक्त हुआ है। हुक्म वास्तव में सूझ बूझ और विवेक का नाम है। यही हिकमत का स्रोत भी है। जब विवेक पूर्ण होकर प्रतिभा एवं विलक्षणता का रूप धारण कर लेता है तो उसे हिकमत कहा जाता है।

हुरूफ़ मुक़त्तआत- हुरूफ 'हर्फ़' शब्द का बहुवचन है। 'हर्फ़' से अभिप्रेत अक्षर है। मुक़तआत का अर्थ है कटा हुआ, अलग-अलग किया हुआ क़ुरआन मजीद की कुछ सूरतों का आरंभ अरबी के ऐसे ही कुछ अक्षरों से हुआ है इसी लिए ये अक्षर अलग-अलग पढ़े जाते हैं। इन्हें मिलाकर शब्द के रूप में नहीं पढ़ा जाता। इन्हीं अक्षरों को 'हुरूफ-मुकत्तआत' कहा जाता है।