डॉ. सैयद ख़ालिद जामई
दुनिया की इक्कीस सभ्यताओं में किसी भी शिक्षक ने कभी पैसे लेकर शिक्षा नहीं दी और न किसी डॉक्टर, हकीम, वैद्य और चिकित्सक ही ने किसी रोगी की जाँच कभी पैसे लेकर की, न किसी रोगी को इस कारण देखने से इनकार किया कि रोगी के पास पैसे नहीं हैं, इसके बावजूद उन 21 सभ्यताओं के सभी शिक्षक खाते-पीते लोग थे और अपने घर का ख़र्च भी उठाते थे। उन 21 सभ्यताओं के डॉक्टर और हकीम किसी रोगी से एक पैसा माँगे बिना भी ख़ुशहाल और सम्पन्न जीवन जीते थे, भूखे नहीं मरते थे।
उन 21 सभ्यताओं की न्याय-प्रणाली और न्यायिक व्यवस्था में न्याय को प्राप्त करने के लिए किसी नागरिक को कभी एक पैसा भी जेब से चुकाना नहीं पड़ता था। पंचायत, समझौतेवाली अदालतों और उच्च न्यायालों तक आम आदमी और शिकायतकर्ता की पहुँच भाड़े के टट्टुओं (वकीलों) के बिना सीधे तौर पर होती थी, इस उद्देश्य के लिए लंबे-चौड़े पुलिंदों, नियम-क़ायदों के हवालों के बखेड़े तक न थे, वादी या शिकायतकर्ता मौखिक रूप से भी क़ाज़ी या न्यायाधीश के सामने अपनी समस्या पेश करता और उसी समय कार्रवाई शुरू हो जाती।
लेकिन 17वीं शताब्दी के बाद जब आधुनिक इंसान, आधुनिक समाज, आधुनिक सभ्यता, आधुनिक विज्ञान, आधुनिक प्रौद्योगिकी आई और नागरिक समाज पैदा हुआ, “सभ्य इंसान” वुजूद में आए और प्राचीनकाल को रूढ़िवादी काल, प्राचीन इंसान को पिछड़ा एवं जाहिल इंसान, बल्कि इंसान मानने तक से इनकार कर दिया गया। इस आधुनिक काल को रौशन ख़याली, आज़ादी और रौशनी का ज़माना कहा गया तो इस सभ्य नागरिक समाज के आते ही हर शिक्षक शिक्षा के लिए पैसे माँगने लगा और जितनी अच्छी शिक्षा चाहिए उसके लिए उतने ही ज़बरदस्त पैसों का प्रबंध करना होगा। अच्छा इलाज कराना है तो उसके लिए उतना अच्छा डाक्टर और उतना ही अच्छा हस्पताल मिल सकता है, मगर उसके लिए मुँह-माँगे पैसों का प्रबंध करना होगा। इंसाफ़ के लिए वकीलों को किराए पर लेना होगा, जितना अच्छा वकील होगा उतने ही अधिक पैसे देने होंगे।
दुनिया के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी को शिक्षा, रोग की जाँच और न्याय की प्राप्ति के लिए एक पैसा भी माँग के अनुसार चुकाना पड़ा हो, लेकिन संसार के इतिहास में आधुनिक पश्चिमी जगत् की यह एकमात्र सभ्यता है या मार्माड्यूक पिखताल (Marmaduke Pickthall) के शब्दों में वह पाशविकता है जिसका डॉक्टर पैसे लिए बिना रोगी के रोग की जाँच नहीं करता, जिसका शिक्षक पैसे लिए बिना किसी छात्र को ज्ञान देने के लिए तैयार नहीं, जिसकी अदालतें लाखों रुपये के ख़र्चे के बिना आम आदमी को इंसाफ़ उपलब्ध कराने में असमर्थ हैं। इस आधुनिक जीवन-शैली को हम सिवल सोसाइटी कहते हैं। यह सभ्य समाज है, जहाँ एक छात्र, ज्ञान से इसलिए वंचित है कि ग्रामर स्कूल या चेफ़्स कॉलेज या ऑक्सफ़ोर्ड में दाख़िले के लिए उसके पास पैसे नहीं हैं। उच्च शिक्षण संस्थानों से इसलिए वंचित है कि उसकी जेब ख़ाली है या उसे अंग्रेज़ी फ़र्राटे से बोलनी नहीं आती, डॉक्टर से इसलिए वंचित है कि Consultant रोग विशेषज्ञ की फ़ीस देने के लिए उसके पास पैसे नहीं हैं। इंसाफ़ से इसलिए वंचित है कि वकीलों की भारी फ़ीस चुका नहीं सकता और बेचारे शिक्षक, डॉक्टर और वकील आपसे इसलिए पैसा लेते हैं कि आख़िर उन्होंने भी उच्च शिक्षण संस्थानों में लाखों रुपये ख़र्च करके शिक्षा प्राप्त की है। अतः शिक्षा पर ख़र्च की हुई रक़म भी आपसे वुसूल करेंगे। उनमें से कोई एक घंटा हफ़्ते में, एक दिन महीने में, एक हफ़्ता साल में या साल में एक महीना भी मुफ़्त इलाज के लिए तैयार नहीं है।
पूरे इस्लामी इतिहास में कोई शिक्षक, कोई हकीम या वैद्य और कोई अदालत इन कामों का कोई पारिश्रमिक वुसूल नहीं करता था । इस्लामी इतिहास का एक प्रतीक हकीम आज भी पिछड़ेपन की हालत में मौजूद है। आज भी आप किसी हकीम के पास रोग की जाँच के लिए जाएँ तो वह आपसे कोई फ़ीस वुसूल नहीं करेगा, आपके रोग की जाँच करेगा और नुस्ख़ा भी अपने काग़ज़ और अपनी स्याही से लिखकर मुफ़्त आपके हवाले कर देगा। अगर आपने दवा उसके मतब (क्लीनिक) से ली तो आपको दवा की क़ीमत अदा करना होगी, लेकिन अगर आपने दवा मतब से नहीं ली तो इस नुस्खे़ का पारिश्रमिक तलब नहीं किया जाएगा।
इसी पुरानी जीवन-शैली को दोबारा अपनाने और और आधुनिक पश्चिमी पूँजीवादी जीवन-शैली को समाप्त करने में ही इंसानों के लिए सफलता, शान्ति और सुकून है।
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