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जनसंख्या वृद्धि ग़रीबी नहीं, उत्पादन बढ़ाती है

जनसंख्या वृद्धि ग़रीबी नहीं, उत्पादन बढ़ाती है

मुशर्रफ़ अली

चुनाव अभियान के दौरान जब प्रधान मंत्री ने ज़्यादा बच्चे पैदा करने वाला समूदाय बता कर मुसलमानों को निशाना बनाया तो कुछ नादान मुसलमान आँकड़ों की मदद से यह साबित करने में जुट गए कि भारतीय मुसलमान ज़्यादा बच्चे पैदा करने वाला समूदाय नहीं हैं। देश की मुस्लिम आबादी में होने वाला इज़ाफ़ा हिंदू आबादी में होने वाले इज़ाफ़ा से किसी तरह ज़्यादा नहीं है । यानी उन नादान मुसलमानों की सोच भी यही है कि ज़्यादा बच्चे की पैदाइश बहुत ग़लत और देश हित के विरुद्ध है। हालाँकि यह एक सीधी सी बात है कि ज़्यादा बच्चे, यानी ज़्यादा आबादी, ज़्यादा आबादी यानी ज़्यादा उत्पादन, ज़्यादा उत्पादन यानी ज़्यादा ख़ुशहाली। जनसंख्या का सीधा और सकारात्मक प्रभाव आर्थिक विकास पर पड़ता है । उत्पादन मनुष्य द्वारा किया जाता है, जितने मनुष्य होंगे उसी अनुपात में उत्पादन होगा और आर्थिक विकास की दर बढ़ेगी । डेढ़ सदी पहले तक दुनिया इसी सीधी सोच पर क़ायम थी फिर यह सोच टेढ़ी हो गई और दुनिया भर में लोगों के मन में यह बात बिठा दी गई, कि ‘बस एक या दो बच्चे होते हैं घर में अच्छे।’

यह एक आम धरणा बन गई है कि बढ़ती हुई जनसंख्या एक ऐसा दुष्चक्र है जो ग़रीबी को बढ़ाता है और फिर यही ग़रीबी जनसंख्या में वृद्धि का कारण बनती है और यह देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है । ऐसा मान लिया गया है कि यदि जनसंख्या को नियंत्रित कर लिया जाए तो देश में बहुमुखी विकास होगा, ग़रीबी में भी कमी आएगी और लोगों का जीवन-स्तर बेहतर होगा ।

संयुक्त राष्ट्र पापुलेशन फंड का भी यही कहना है कि जनसंख्या अधिक होने से बच्चों को शिक्षा उपलब्ध् नहीं हो पाती है और उनकी उत्पादन क्षमता का विकास नहीं हो पाता । हालांकि यह तर्क सही नहीं है । शिक्षा उपलब्ध् कराने के लिए जनसंख्या घटाने के स्थान पर दूसरे उपाय किये जाने चाहिए । सरकार को चाहिए कि अधिक से अधिक स्कूल खोले और हर जगह कम ख़र्चीली शिक्षा उपलब्ध कराए। यह भी याद रखना चाहिए कि अर्थव्यवस्था में शिक्षित लोगों की संख्या की ज़रूरत तकनीकों द्वारा निर्धरित हो जाती है । देश में शिक्षित बेरोज़गारों की बढ़ती संख्या इस बात का प्रमाण है कि शिक्षा मात्र से उत्पादन में वृद्धि नहीं होती है । अस्ल काम युवा पीढ़ी को उत्पादन से जोड़ना है।

बीती एक सदी में दुनिया भर में, ‘छोटा परिवार सुखी परिवार’ जैसे नारे लगाकर तरह तरह से अबादी को नियंत्रित करने की कोशिश की गई, लेकिन अंततः कहीं भी उसका परिणाम अच्छा नहीं निकला। जिन देशों ने भी कृत्रिम साधनों द्वारा या बलप्रयोग के माध्यम से जनसंख्या नियंत्रण की नीति अपनाई उन्हें कुछ ही दशक के बाद उसके भयावह परिणाम भुगतने पड़े।

1979 में चीन में ‘‘प्रति परिवार सिर्फ़ एक बच्चा’’ की पॉलिसी लागू कर दी गयी । एक से अधिक संतान होने पर परिवार पर जुर्माना लगाया जाता था और उसे विभिन्न सरकारी सुविधाओं से वंचित भी कर दिया जाता था । परन्तु कुछ ही वर्षों में चीन में युवाओं की संख्या घटना शुरू हो गयी और कार्यबल का संकट उत्पन्न होने लगा । 2015 तक यह संकट इतना गंभीर हो गया की सरकार अपनी इस पालिसी को बदलने पर बाध्य हो गयी और उसे एक के बजाय दो संतानों की अनुमति देने का निर्णय लेना पड़ा । लेकिन इससे भी कार्यबल का यह संकट पूरी तरह दूर नहीं हो पाया है और वर्तमान सरकार संतान की संख्या में और छूट देने पर विचार कर रही है ।  

यूरोप के लगभग सभी देशों में जनसंख्या में कमी देखी जा रही है और इसे बढ़ाने के साथ ही वह दूसरे देशों से आने वाले शरणार्थियों को कार्यबल में वृद्धि के लालच में अपने यहां प्रवेश की अनुमति भी दे रहे हैं । फ़्रांस, जर्मनी आदि इसके कुछ उदाहरण हैं ।

दक्षिण कोरिया में भी जनसंख्या तेज़ी से घटती जा रही है । वहां आबादी को तेज़ी से बढ़ाने के लिए सरकार कई तरह के प्रोत्साहन दे रही है जिनमें नक़द इनाम के साथ ही अस्पतालों में होने वाले ख़र्चे भी शामिल है । इसी प्रकार जापान बूढ़ों का देश बन गया है। वहां उन बूढ़ों को संभालने के लिए भी युवाओं की ज़रूरत है। वहां की सरकार युवाओं को अधिक बच्चे पैदा करने पर उभारने का काम कर रही है ।

1960 के दशक में वियतनाम में दो संतान की पॉलिसी लागू की गयी थी, परन्तु अक्तूबर 2017 में उसने अपनी इस नीति में परिवर्तन कर संतानों की संख्या पर नियंत्रण को समाप्त कर दिया ।

स्पष्ट है कि जनसंख्या नियंत्रण का लाभ अल्पकालिक होता है । संतान कम उत्पन्न होने पर कुछ दशक तक संतानोत्पत्ति का बोझ घटता है और विकास दर बढ़ती है । परन्तु कुछ समय बाद कार्यरत श्रमिकों की संख्या में गिरावट आती है और उत्पादन घटने लगता है । इसके साथ ही बूढ़ों की संख्या बढ़ जाती है और उन्हें संभालने वाले कम होते हैं। इससे आर्थिक विकास दर घटती है । आर्थिक विकास की कुंजी कार्यरत वयस्कों की संख्या है, उनकी संख्या जितनी अधिक होगी आर्थिक विकास में उतनी ही गति आएगी ।

हर जगह जनसंख्या वृद्धि को ग़रीबी का कारण बनाकर पेश किया जाता है, जबकि विश्व असमानता रिपोर्ट (World Inequality Report) 2022 का अध्ययन इस दावे को पूरी तरह से नकार देता है । इस रिपोर्ट में विश्व में संसाधन और दौलत के वितरण पर जो आंकड़े प्रस्तुत किये गये हैं उनसे स्पष्ट हो जाता है कि ग़रीबी का मुख्य कारण जनसंख्या नहीं बल्कि संसाधनों का असमान वितरण है । रिपोर्ट के अनुसार

-विश्व के एक प्रतिशत सबसे अमीर लोगों के पास दुनिया की दौलत का 33 प्रतिशत हिस्सा है ।

- दुनिया की सबसे गरीब आधी आबादी के पास ‘मुश्किल से कोई संपत्ति है’ (कुल संपत्ति का मात्र 2%), जबकि दुनिया की सबसे अमीर 10% आबादी के पास कुल संपत्ति का 76% हिस्सा मौजूद है।

मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका (MENA) दुनिया के सबसे असमान क्षेत्र हैं, जबकि यूरोप में असमानता का स्तर कम है।

रिपोर्ट के अनुसार भारत एक गरीब और अत्यधिक असमान देश है।

भारत में शीर्ष 1% आबादी के पास वर्ष 2021 में कुल राष्ट्रीय आय का पाँचवाँ हिस्सा मौजूद था और नीचे के आधे हिस्से के पास मात्र 13% हिस्सा था।

भारत द्वारा अपनाए गए आर्थिक सुधारों और उदारीकरण ने अधिकतर शीर्ष 1% पूंजीपतियों को लाभान्वित किया है।

ये आंकड़े स्पष्ट कर देते हैं कि समस्या कहीं और है और उंगली कहीं और उठायी जा रही है । ये बता रहे हैं कि ग़रीबी की समस्या का समाधान यह है कि संसाधन के वितरण में हो रही असमानता को दूर किया जाए । अथार्त दोष पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में है जो अमीर को अमीर और ग़रीब को अधिक ग़रीब बना रही है। विश्व की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ लगभग सारी संस्थाओं और समितिओं पर भी इन्हीं पूंजीवादियों का कंट्रोल है और यदि यह कहा जाए तो सत्य से बहुत दूर नहीं होगा की दौलत पर अपनी इस पकड़ को बनाए रखने के लिए ग़रीबों के ध्यान को जनसंख्या वृद्धि की ओर मोड़ दिया गया है । लगभग सभी देशों की सरकारों पर भी इन्ही पूंजीपतियों का कंट्रोल है, इसलिए वे भी उन्हीं की भाषा बोलती हैं । और निशाने पर होता है ग़रीब जो न कुछ समझने की स्थिति में होता है न कुछ कहने की ।

सन 2009 में अमेरिका से प्रकाशित पुस्तक, “द स्पिरिट लेवेल: समानता बढ़ने से समाज में मज़बूती क्यों उत्पन्न होती है ?” ने इस विषय को गंभीरता से लेते हुए यह बात उजागर करने का प्रयत्न किया कि विश्व की 90 प्रतिशत समस्याओं का सबसे बड़ा कारण असमानता है, न की जनसंख्या। रिचर्ड विलकिंसन और केट पिक्केट ने अपनी इस पुस्तक में चैंका देने वाले निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं । वे कहते हैं कि देश चाहे अमीर हो या ग़रीब, यदि वहां असमानता का वर्चस्व है, तो उस समाज में विभिन्न प्रकार की 11 स्वास्थ्य और सामाजिक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं, जैसे : शारीरिक व मानसिक रोग, नशीली दवाओं का सेवन, शिक्षा में कमी, हिंसा व अपराध की अधिकता, सामाजिक अविश्वास और सामुदायिकता में गिरावट आदि । यह इसी पुस्तक का प्रभाव था कि 2010 में होने वाले चुनाव में इंग्लैंड के 75 सांसदों ने ‘समानता संकल्प’ पर अपने हस्ताक्षर करते हुए यह घोषणा की कि वे ऐसी पॉलिसी को प्रोत्साहित करेंगे जिससे समाज में अमीर और ग़रीब के बीच की खाई को कम किया जा सके । 

ऐसा ही परिणाम दूसरे देशों के अनुभव से भी सत्यापित होता है । युनिवर्सिटी ऑफ़ मैरीलैंड के प्रोफेसर जुलियन साइमन बताते हैं कि हांगकांग, सिंगापुर, हालैंड और जापान जैसे जनसंख्या-सघन देशों की आर्थिक विकास दर अधिक है जबकि जनसंख्या न्यून अफ्रीक़ा में विकास दर धीमी है ।

आज के ग्लोबल विलेज युग में जनसंख्या अधिक होने का एक बड़ा लाभ यह भी है कि जिस देश की आबादी अधिक होती है, उसकी सभ्यता और संस्कृति को दुनिया भर में पहचान मिलती है और ख़ूब बढ़ावा मिलता है। सत्ता पक्ष को इसका राजनीतिक लाभ भी प्राप्त होता है। हमारा देश भारत इसका बेहतरीन उदाहरण है। भारत के लोग दुनिया भर में फैले हुए हैं, उनकी बदौलत देश को मिलनेवाले वित्तीय और आर्थिक लाभ के अलावा दुनिया भर में भारतीय संस्कृति को भी बढ़ावा मिल रहा है। साथ ही हर जगह देशहित के समर्थक और सहयोगी मिल जाते हैं, जो देश के विश्वशक्ति बनने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

इस्लाम का पक्ष

वर्तमान जीवन व्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह हर चीज़ को मात्र आर्थिक दृष्टिकोण से देखती है और उसी में हल तलाश करने की कोशिश करती है हालांकि इस क्षेत्र से बाहर आध्यात्मिक, नैतिक, सामाजिक व धर्मिक क्षेत्रों में समस्या का समाधन पहले से मौजूद होता है । जनसंख्या और उससे संबंधित समस्त समस्याओं का ऐसा ही एक हल इस्लाम भी प्रस्तुत करता है जो कि बिल्कुल प्राकृतिक, स्वीकार्य, तर्कसंगत और सरल है और यदि विश्व की व्यवस्था को उसके अनुसार चलाया जाए तो यह समस्याएं, जो आज इतना विकराल रूप धरण कर चुकी हैं और जिनका समाधन आबादी को कुचलने में ही नज़र आता है, बड़ी सरलता से इनका निदान किया जा सकता है । निम्नलिखित बिन्दुओं से इस्लाम के इस समाधन को सरलता से समझा जा सकता है:

संसाधनों और दौलत का न्यायपूर्ण वितरण

संसाधन और दौलत के संबंध में इस्लाम चाहता है कि इसका वितरण इस प्रकार हो कि हर व्यक्ति को उससे लाभ उठाने का पूरा अवसर मिले और यह मात्र कुछ अमीरों के हाथों में ही सिमट कर न रह जाए ।

“जो कुछ अल्लाह ने अपने रसूल की ओर बस्तियोंवालों से लेकर पलटाया वह अल्लाह और रसूल और (मुहताज) नातेदार और अनाथों और मुहताजों और मुसाफ़िर के लिए है, ताकि वह (माल) तुम्हारे मालदारों ही के बीच चक्कर न लगाता रहे - रसूल जो कुछ तुम्हें दे उसे ले लो और जिस चीज़ से तुम्हें रोक दे उससे रुक जाओ, और अल्लाह का डर रखो। निश्चय ही अल्लाह की यातना बहुत कठोर है।” (क़रआन 59 :7)

इस्लाम इस प्रकार अमीरों और ग़रीबों में अन्तर को कम करता है और संसाधनों पर मात्र कुछ लोगों के एकाधिकार को रोकता है । इसके लिए इस्लाम किसी बल के प्रयोग की वकालत नहीं करता, बल्कि एक ऐसी अर्थव्यवस्था की स्थापना करना चाहता है जिसमें हर व्यक्ति को उसकी क्षमता, उसकी योग्यता, उसकी अपनी पसंद और नापसंद के अनुसार सामान्य तरीक़े से काम करने का अवसर मिले, ताकि उसकी गतिविधियां अधिक फलदायी, स्वस्थ और उपयोगी हो सकें । एक ओर इस्लाम जहां बलपूर्वक समानता थोपने के सिद्धांत को अस्वीकार करता है, वहीं दूसरी ओर वह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का भी इन्कार करता है । वह अमीर और ग़रीब को एक दूसरे का सहायक और पूरक मानता है और उनमें स्वस्थ और मधुर संबंध स्थापित करने की कोशिश करता है ।

इन्सान की यह सबसे बड़ी भूल है कि वह स्वयं को अपने जीवन और संसार का मालिक समझ बैठा है और अपने सारे फ़ैसले करते समय वह अपने अस्ल मालिक के अस्तित्व को ही भुला देता है । न तो इन्सान इस संसार को चला रहा है और न ही उसमें इतना सामर्थ्य है कि वह इसे चला सके । उसका और उसके द्वारा बनाए गये सभी संगठनों और संस्थाओं, जिसमें शासन-व्यवस्था के लिए सरकारें भी शामिल हैं, का कार्य अस्ल मालिक द्वारा प्रदान किये गये संसाधनों की खोज करना और सुनियोजित ढंग से उनके वितरण की व्यवस्था करना है । किसी भी व्यक्ति, समुदाय या सरकार के लिए यह निर्णय लेना असंभव है कि जनसंख्या को किस स्तर तक घटाया जाए या संसाधनों को किस स्तर तक बढ़ाया जाए कि यह दोनों एक संतुलित स्तर पर आ जाएं । और जब भी यह प्रयत्न किया गया है लोगों पर अत्याचार और अन्याय हुआ है । ज़रूरत ऐसी आर्थिक नीतियों को लागू करने की है जिससे लोगों को रोज़गार मिले और वे उत्पादन में भाग ले सकें।

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