डा. अब्दुल रशीद अगवान
कौन सभ्य है और कौन असभ्य, यह जानने के लिए दुनिया में दो तरह के पैमाने रहे हैं। इनमें से पहला और सही पैमाना मूल्य आधारित है। यानी ऐसे कुछ मूल्य और लक्षण हैं जिनसे यह जाना जा सके कि किसी व्यक्ति या समुदाय या देश में सभ्यता मौजूद है या नहीं। दूसरा पैमाना है "दबंग का दावा" यानी जो ताक़तवर है वह जो करता है या कहता है वही सभ्यता है। अगर गंभीरता से देखा जाए तो यह दूसरा पैमाना सभ्यता नहीं सभ्यता का पाखंड है जो सभ्यता के सर्वमान्य मूल्यांकन में नाकाम हो जाता है।
कोरोना महामारी के हंगामें और आपाधापी ने दुनिया में सभ्यता के कई दावेदारों के मुखौटे उतार दिये हैं।
सभ्यता को नापने के कुछ पैमाने हमारे संविधान में लिख दिये गये हैं जैसे कि न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व। इनके अलावा सत्य, दया, अलोभ, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, समग्रता, सहअस्तित्व और उदारता भी सभ्यता के लक्षण माने जाते रहे हैं।
ऐसा लगता है कि कोरोना काल के आते ही बहुत-से तथाकथित सभ्य लोगों को असभ्यता का दौरा पड़ गया है। या यूं कहें कि उन्होंने जिस सभ्यता का लबादा ओढ़ रखा था वह उतर गया। भारत में इस सच्चाई को समझने के लिए सिर्फ प्रवासी मजदूरों की त्रासदी पर एक नज़र डालना काफी होगा।
सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार क़रीब एक करोड़ प्रवासी मजदूरों ने अपना काम छूटने की वजह से घरों को पलायन किया है। जैसे ही लाॅकडाउन हुआ उन लोगों ने जिनके साथ ये मजदूर बरसों से काम करते रहे हैं, पराया कर दिया। सभ्यता का मुखौटा ओढ़े लोगों ने उन्हें बेसहारा, बेघर और भूखा छोड़ दिया। स्थानीय सरकारों ने उन्हें अपने ही देश में परदेसी बना दिया। और जब वे अपने घर जाने के लिए निकले तो इन सरकारों ने उनके लिए सभी दरवाज़े बंद कर दिये, न आने-जाने के लिए यातायात के साधन थे और न सरकारी आदेश और ऊपर से पुलिस की बेरहम लाठियां। मजबूरन लोग सड़कों पर निकल आये और सरकारी तंत्र की कई तरह की रुकावटों को दर किनार करते हुए पैदल ही हज़ारों किलोमीटर के सफर पर निकल पड़े। रास्ते में न समाज कल्याण विभाग मिला और न कावड़ियों के लिए भंडारा लगाने वाले नेक लोग। इन मजदूरों की मदद के लिए जो लोग सामने आये उनके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था, यानी सड़कों के किनारे बसे गांवों के मुसलमान! बहुत बाद में फिल्मी दुनिया की कुछ हस्तियां, दूसरे सामाजिक कार्यकर्ता और राजनैतिक दल मैदान में आये।
यह सही है कि कोरोना काल में कई डाक्टरों, नर्सों और दूसरे स्टाफ ने रात दिन मेहनत करके और अपनी जान जोखिम में डाल कर लोगों की ज़िंदगियां बचाईं। मगर इस तरह की कहानियां भी कम नहीं हैं कि कई नामी गिरामी प्राइवेट अस्पताल लूटमार पर उतर आये। इस तरह की शिकायतें सोशल मीडिया पर चक्कर लगाती रहीं हैं कि जो कोरोना के पेशेंट नहीं थे कारोबारी फायदे के लिए उनको भी कोविड-19 पोजिटिव बता दिया गया या लाशों से किडनियां निकाल ली गईं। अगर ये आरोप सही हैं तो यह सभ्य समाज पर एक बदनुमा दाग़ की तरह याद रहेंगे।
एक सभ्य समाज में पारिवारिक प्रेम अपने आदर्श पर होता है। कोरोना महामारी के इस संकट ने जहां लाखों परिवारों में किसी प्रिय के बिछड़ने का दुखद माहौल पैदा किया है वहीं कहीं-कहीं महामारी के भय ने लोगों की संवेदनशीलता भी छीन ली। ऐसे कई शहर हैं जहां अंतिम संस्कार या तो सफाई कर्मचारी कर रहे हैं या फिर मुस्लिम नवजवान। एक मुस्लिम संगठन, पाॅपूलर फ्रंट ऑफ इंडिया, जिसे मीडिया एक आतंकवादी संगठन कहता रहा है और सरकारें उस पर पाबंदियां लगाने के इरादे करती रहीं, उसके कार्यकर्ताओं ने कई शहरों में जहां मुसलमानों की लाशों को दफनाने का काम किया, वहीं हिंदू भाइयों का अंतिम संस्कार भी कराया है। पूना शहर जो हिंदुत्व की विचारधारा का गढ़ है, वहां इस संगठन के कार्यकर्ता कई महीनों से कोरोनावायरस से मरने वाले हिंदू भाइयों के अंतिम संस्कार की ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं। कोविड संक्रमण के भय से कई परिवार के लोग अपने ही किसी प्रिय की लाश लेने अस्पताल जाने से मना कर देते हैं तो ऐसे अभागे व्यक्ति का अंतिम संस्कार या तो सफाई कर्मचारी कर रहे हैं या कुछ सामाजिक कार्यकर्ता।
यहां कुछ मिसालें दे कर यह समझाने की कोशिश की गई है कि किस तरह सभ्यता के दावेदार समाज में असभ्यता सामने आ रही है और इसे सामने ला रही है कोरोना महामारी। इस महामारी ने हमारे कई नासूरों को बेनक़ाब कर दिया है। अहंकार में डूबे लोग जब समाज की बागडोर संभालते हैं तो ऐसा ही समाज बनता है जहां सभ्यता के दावेदार तो बहुत होते हैं मगर परिस्थितियों का जाल उनके नकली दावों की पोल भी खोल देता है।
एक सभ्य समाज के निर्माण के लिए ज़रूरी है कि सभ्यता के मान्य मूल्यों को सामने रखा जाए।
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