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समलैंगिकता का फ़ितना

समलैंगिकता का फ़ितना

समलैंगिकता मानवता से ही नहीं, पशुता से भी गिरा हुआ कर्म है। पशु भी समलैंगिक नहीं होते। यह प्रकृति से बग़ावत है और समाज को बर्बाद कर देनेवाला कर्म है। वास्तव में यह एक मानसिक रोग है, जिसका इलाज किया जाना चाहिए, लेकिन कुछ नासमझ लेग जो इस रोग से ग्रस्त हैं, दूसरों को भी इससे ग्रस्त करना चाहते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि इसकी बुराइयों से लोगों को तार्किक ढंग से अवगत किया जाए। यह पुस्तिका उसी की एक कोशिश है।-संपादक 

लेखक :डॉ॰ मुहम्मद रज़ीयुल-इस्लाम नदवी

एम० एम० आई० पब्लिशर्स

Samlaingikta Ka Fitna [H] – MMI Publishers

प्रस्तावना

समलैंगिकता एक अस्वाभाविक और घिनौना कर्म है। इसी लिए इंडियन पेनल कोड की धारा 377 में इसे दण्डनीय अपराध कहा गया है। 2 जुलाई सन् 2009 ई॰ को दिल्ली हाइकोर्ट ने 'नाज़ फ़ाउंडेशन' नामक एक संस्था की रिट पर फ़ैसला दिया कि दो बालिग़ मर्दों या औरतों के बीच आपसी सहमति से यौन सम्बन्ध बनाने को अपराध नहीं ठहराया जा सकता, इसलिए उपर्युक्त धारा में परिवर्तन किया जाए। इस फ़ैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील दाख़िल की गई। 'ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड' यद्यपि दिल्ली हाई कोर्ट में फ़रीक़ (पक्ष) नहीं था, लेकिन उसने हाई कोर्ट के फ़ैसले के बाद सन् 2010 ई॰ में विशिष्ट अनुमति की अपील (SLP) के द्वारा सुप्रीम कोर्ट में अपील की। दोनों पक्षों की बहस 27 मार्च, सन् 2012 ई॰ को पूरी हुई और फ़ैसला सुरक्षित कर दिया गया। 11 दिसम्बर, सन् 2013 ई॰ को जस्टिस सिंघवी ने अपने रिटायरमेंट से एक दिन पहले वह फ़ैसला सुनाया। उसमें कहा गया है कि जिस कर्म को क़ानून में अपराध ठहराया गया है, उसे अदालत अपराधों की सूची से निकाल नहीं सकती, इस आधार पर दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले को रद्द किया जा रहा है। नाज़ फ़ाउंडेशन ने इस फ़ैसले पर सुप्रीम कोर्ट से दोबारा विचार करने की अपील की। मगर सुप्रीम कोर्ट ने 28 जनवरी, सन् 2014 ई॰ को यह अपील भी ख़ारिज कर दी।

जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द समलैंगिकता के विरुद्ध मुहिम में शुरू ही से आगे-आगे रही है। सन् 2009 ई॰ में दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले के बाद जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द ने विभिन्न धर्मों के रहनुमाओं के साथ प्रेस कान्फ़्रेंस करके समलैंगिकता को सभ्य समाज के लिए ख़तरा ठहराया। इसे मीडिया (प्रेस) में बड़ा कवरेज मिला। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद भी जमाअत ने प्रेस कान्फ्रेंस करके इस फ़ैसले की सराहना की। इसमें भी हिन्दू, सिख, जैन और ईसाई धर्मों के प्रतिनिधि शामिल थे। इसके अलावा 29 दिसम्बर, सन् 2013 ई॰ को इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेन्टर, नई दिल्ली में एक बड़ी जन-सभा का आयोजन किया गया, जिसमें विभिन्न धर्म के धर्माचार्य और रहनुमा शामिल हुए और समलैंगिकता के विरुद्ध सर्व-सम्मति से अपनी आवाज़ बुलन्द की।

इस किताब में समलैंगिकता के पक्ष में दिए जानेवाले तर्कों को जाँचा-परखा गया है और इस विषय के विभिन्न पहलुओं पर गंभीरतापूर्वक बहस की गई है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि यह कर्म प्रकृति के ख़िलाफ़ और परिवार तथा संस्कृति के पवित्र बन्धन को तोड़ देनेवाला है, इसलिए किसी सुसभ्य समाज में इसकी हरगिज़ अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। यह लेख उर्दू भाषा की प्रमुख तिमाही पत्रिका "तहक़ीक़ाते-इस्लामी” अलीगढ़, जनवरी-मार्च, सन् 2014 में लेख के रूप में प्रकाशित हुआ है। इसकी उपयोगिता को देखते हुए इसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है।

इसके साथ मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी, अध्यक्ष जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द का एक लेख भी इसमें शामिल है। यह अस्ल में वह भाषण है जो मौलाना ने 29 दिसम्बर, सन् 2013 ई॰ को इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेन्टर, नई दिल्ली में दिया था। रिकार्डिंग से नक़ल करवाने के बाद उन्होंने इसका पुनरावलोकन कर लिया है। अन्त में विषय से सम्बन्धित मौलाना सैयद अबुल-आला मौदूदी (रहमतुल्लाह अलैह) की सुप्रसिद्ध क़ुरआन मजीद की टीका तफ़हीमुल-क़ुरआन के कुछ अंश संकलित करके पेश किए गए हैं।

आशा है कि इस पुस्तक से समलैंगिकता के मसले को समझने में आसानी होगी और समलैंगिकता क्या है उसका स्वरूप स्पष्ट होगा और साथ ही इसके विरुद्ध इस्लाम का पक्ष भी प्रमाणों के साथ सामने आ सकेगा। अल्लाह से दुआ है कि इससे ज़्यादा से ज़्यादा लोग फ़ायदा उठाएँ और किताब के लिखनेवालों को अल्लाह अच्छा बदला दे। आमीन!

-मुहम्मद रज़ीयुल-इस्लाम नदवी

30 जनवरी, सन् 2014 ई॰

सेक्रेटरी तस्नीफ़ी अकैडमी

जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द

भाग-1

समलैंगिकता :  फ़ितरत से बग़ावत

समलैंगिकता का अर्थ

मौजूदा दौर में फ़ितरत से विमुख जिन यौन सम्बन्धी रवैयों को पूरी दुनिया में प्रसिद्धि मिली है, बल्कि एक गहरी साज़िश के तहत उनको हवा दी गई है और विभिन्न हीलों-बहानों से उनके पक्ष में माहौल बनाने और क़ानूनी तौर पर उनके जाइज़ होने के प्रमाण जुटाने की कोशिश की जा रही है, उनमें से एक घिनावना और घृणित रवैया होमो सेक्सुअलिटी (Homo- sexuality) का है। यह अस्ल में दो शब्दों से मिलकर बना है। होमो (Homo) प्राचीन यूनानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है Same (समान), जबकि सेक्सस (Sexus) शब्द का सम्बन्ध लातीनी (Latin) भाषा से है, जिसके मानी हैं कामेक्षा पूरी करना। होमो सेक्सुअलिटी का मतलब हुआ किसी व्यक्ति का, चाहे वह नर हो या नारी, अपनी ही लिंगजाति के किसी व्यक्ति की ओर यौन सम्बन्धी झुकाव रखना और उसके द्वारा अपनी कामवासना की पूर्ति करना। हमने होमो सेक्सुअलिटी का हिन्दी अनुवाद समलैंगिकता किया है।

समलैंगिकता : चिन्तन और दर्शन

हमारे पैदा करनेवाले ने सभी प्राणियों की फ़ितरत (प्रकृति, Nature) में ज़िन्दगी जीने का एक तरीक़ा रख दिया है। इसलिए वे आरम्भ से ही उसी तैशुदा फ़ितरी तरीक़े पर चल रहे हैं और वे उस तरीक़े से बाल बराबर भी नहीं हटे हैं। लेकिन इनसानों को चूँकि आरम्भ ही से इरादे और इख़्तियार की आज़ादी हासिल है, इसलिए उसके कुछ व्यक्तियों ने कभी-कभी ज़िन्दगी के रवैयों में फ़ितरत की राह से विमुखता की रविश (नीति) अपनाई है। यह विमुखता जीवन के दूसरे मामलों के साथ शहवानी और यौन सम्बन्धी ख़ाहिश पूरी करने के मामले में भी रही है। मानव-इतिहास के कुछ ज़मानों में ऐसे लोग पाए गए हैं जो अपनी ही लिंगजाति से कामवासना पूरी करते थे, लेकिन ऐसे लोगों को हर दौर में नफ़रत और गिरी नज़र से देखा गया और उनके अमल को बहुत ही नापसन्द ठहराया गया, बल्कि इसे कोमल स्वभाव पर बोझ समझा गया और हर मुमकिन तरीक़े से इस बुराई को रोकने की कोशिश की जाती रही है। अतः उन्नीसवीं शताब्दी ईसवी तक संसार के लगभग सारे ही देशों में इस अमल (कर्म) को दण्डनीय अपराध समझा जाता रहा, बल्कि कुछ देशों में इसकी सज़ा मौत थी।

पश्चिमी देशों में, वहाँ के ख़ास हालात में, तथाकथित आज़ादी, समानता और बुनियादी इनसानी हक़ और अधिकारों की हवा चली तो उसका प्रभाव बहुत-से सामाजिक मूल्यों पर पड़ा और उनकी बुनियादें हिलने लगीं। कहा गया कि हर इनसान आज़ाद पैदा हुआ है, वह अपनी मरज़ी का मालिक है, उसकी सोच और आचरण पर किसी प्रकार की पाबन्दी लागू करना उसकी आज़ादी के हक़ को कुचलना है और उसके किसी कर्म की बुनियाद पर उसके साथ दूसरे इनसानों से भिन्न मामला करना बराबरी के हक़ के ख़िलाफ़ है। समलैंगिकता को पश्चिमी देशों में एक अमल (कर्म) के बजाय एक रवैया (Behaviour) ठहरा दिया गया है और इसके लिए दार्शनिक आधार जुटाए गए हैं।

समलैंगिकता में संलिप्त लोगों को चार वर्गों में बाँटा गया है—

1.  Lesbian: औरत, जो औरत की ओर यौन सम्बन्धी झुकाव व रुचि रखे।

2. Gay: मर्द, जिसका मर्द की ओर यौन सम्बन्धी झुकाव हो।

3. Bisexual: वह व्यक्ति (चाहे नर हो या नारी) जिसका मर्द और औरत दोनों की ओर यौन सम्बन्धी झुकाव हो। किस लिंग की ओर कितना झुकाव है? उसको नापने के लिए एक पैमाना बनाया गया जिसको उसके बनानेवाले के नाम पर किंसे स्केल (Kinsey Scale) का नाम दिया गया।

4. Transgender: वह व्यक्ति जिसमें मर्दाना और ज़नाना दोनों प्रकार की विशेषताएँ हों उसे मुख़न्नस या हिजड़ा कहा जाता है।

इन चारों ग्रुपों के समूह को संक्षिप्त रूप मे   एल॰ जी॰ बी॰ टी॰ (L.G.B.T) कहा जाता है। इनमें शामिल सारे लोगों को एक समुदाय (Community) ठहरा दिया गया है और उनके फ़ितरत से हटे हुए यौन सम्बन्धी रुझानों को स्वाभाविक ठहराते हुए उनके पक्ष में उन्नीसवीं शताब्दी में आन्दोलन चलाए गए और बीसवीं शताब्दी में क़ानून बनाए गए।

पश्चिम की मुहिम

समलैंगिकता को आम लोगों में भी गन्दा और घिनौना अमल समझा जाता था और देशों के क़ानूनों में भी इसपर सख़्त सज़ाएँ निश्चित की गई थीं। इसलिए जो लोग फ़ितरत के ख़िलाफ़ इन रवैयों की वजह से इसमें लिप्त थे, वे इसको ज़ाहिर और बयान करने की हिम्मत न कर पाते थे, लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी के आख़िरी ज़माने से इसके पक्ष में माहौल बनाया जाने लगा।

सबसे पहले मरहले में इस अमल के करने को दण्डनीय अपराधों की सूचि से निकाला गया। अतः बीसवीं शताब्दी के पहले पचास सालों में अनेकों पश्चिमी देशों के क़ानूनों में परिवर्तन किया गया और इस कर्म पर सज़ा ख़त्म कर दी गई। दूसरे मरहले में LGBT ग्रुपों ने आम लोगों के बीच अपने आपको संगठित करना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने निर्धारित दिनों में सार्वजनिक स्थलों पर प्रदर्शन किए जिन्हें 'प्राइड परेड' (Pride Parade) का नाम दिया गया और कान्फ्रेंसें आयोजित कीं, जिनके द्वारा अपने अधिकारों के लिए आवाज़ बुलन्द की। पहले ऐसे लोगों को शासकीय, प्रबन्ध-सम्बन्धी और सेना के पदों के लिए अयोग्य ठहराया गया था। लेकिन उनके संगठित प्रयास और दबाव के कारण धीरे-धीरे उनके अधिकारों को स्वीकार किया जाने लगा और उन्हें हर पद और संस्था के लिए योग्य ठहराया गया। इसलिए शासन, सेना, न्यायालय, विधायिका और प्रशासनिक हर क्षेत्र में ऐसे लोग ज़ाहिर हुए, जिन्होंने अपने समलैंगिक होने का खुल्लम-खुल्ला एलान किया और ज़रा भी शर्मिन्दगी नहीं महसूस की। तीसरे मरहले में ऐसे लोगों के लिए 'स्थायी सम्बन्ध और साझेदारी के नियम' (Partnership Acts) पारित किए गए और इजाज़त दी गई कि जिस तरह विपरीत लिंगों के लोग (Hetrosexuals) वैवाहिक बन्धन में बँधकर एक जोड़े के रूप में रहते और विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों से लाभान्वित होते हैं, उसी प्रकार समलैंगिकता पर अमल करनेवाले लोग भी पार्टनर की हैसियत से ख़ुद को रजिस्टर्ड करा सकते हैं और इसकी बुनियाद पर मिलकियत, विरासत, इमिग्रेशन, टैक्स और सामाजिक सुरक्षा के अधिकार प्राप्त कर सकते हैं। ऐसे जोड़ों को बच्चों को गोद लेने (Adaption) का भी अधिकार दिया गया। इस प्रकार समलैंगिकता के मामले में पिछले सौ वर्षों का इतिहास बताता है कि—

"था जो ना ख़ूब बतदरीज वही ख़ूब हुआ"

यानी जो अच्छा न था वही धीरे-धीरे अच्छा हो गया।

भारतवर्ष की दशा

भारतवर्ष की गिनती भी ऐसे देशों में होती है जहाँ प्राचीनकाल से समलैंगिकता को घृणित और निन्दनीय कर्म समझा जाता रहा है। इसी लिए जब क़ानून बने तो इसे दण्डनीय अपराधों की सूची में शामिल किया गया। सन् 1861 ई॰ में निर्मित  इंडियन पेनल कोड' (Indian Penal Code) की धारा 377 में समलैंगिकता को अवैधानिक कर्म और अपराध ठहराया गया, जिसपर दस वर्ष से लेकर उम्र क़ैद तक की सज़ा दी जा सकती है।

संसार के दूसरे देशों में माहौल बदला तो उसके प्रभाव भारत पर भी पड़ने लगे और विभिन्न क्षेत्रों से यहाँ भी समलैंगिकता को अपराध की सूची से ख़ारिज करने और इसे वैधानिक मान्यता देने की आवाज़ें उठने लगीं। संयुक्त राष्ट्र संघ (United Nations Organisation) की ओर से भारतीय शासन से इस धारा को समाप्त करने की मांग की गई, ताकि एच॰ आई॰ वी॰ और एड्स (HIV and AIDS) के विरुद्ध लड़ने में आसानी हो। 'लॉ कमीशन ऑफ़ इंडिया'  ने सन् 2000 ई॰ में अपनी 172वीं रिपोर्ट में क़ानून की इस धारा को रद्द करने की सिफ़ारिश की। इस मुहिम में तेज़ी उस समय आई जब एक सामाजिक संस्था 'नाज़ फाउंडेशन' ने दिसम्बर, सन् 2002 ई॰ में भारतीय दण्ड संहिता की उक्त धारा को ख़त्म करने के लिए दिल्ली हाई कोर्ट में जनहित याचिका की अर्ज़ी दाख़िल की। कोर्ट ने सन् 2004 ई॰ में इस याचिका को ख़ारिज कर दिया तो उसके विरुद्ध फ़ाउंडेशन ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जिसे दोबारा हाई कोर्ट में लौटा दिया गया। इसके बाद फ़ैसले पर प्रभाव डालने के लिए विभिन्न उपाय किए गए। एक ओर विभिन्न वर्गों के प्रभावशाली लोगों की ओर से समलैंगिकता की हिमायत की गई, दूसरी ओर सरकार के विभिन्न मंत्रियों ने भी समय-समय पर बयान जारी किए कि इस धारा को समाप्त करना सरकार के विचाराधीन है और इसपर जनमत बनाने के लिए प्रभावी उपाय किए जा रहे हैं। तीसरी तरफ़ देश के बड़े शहरों मिसाल के तौर पर दिल्ली, बेंगलूरू, कोलकाता, चेन्नई, मुम्बई आदि में ‘गे प्राइड परेड' (Gay Pride Parade) के नाम से समलैंगिकता के समर्थकों के प्रदर्शन कराए गए। अन्ततः 2 जुलाई, 2009 ई॰ में दिल्ली हाई कोर्ट ने आई॰ पी॰ सी॰ (IPC) की धारा 377 को असंवैधानिक ठहराते हुए समलैंगिकता को क़ानूनी तौर पर वैध कर दिया।

इस फ़ैसले ने समलैंगिकता के समर्थकों में ख़ुशी की लहर दौड़ा दी और उनकी गतिविधियाँ और तेज़ हो गईं। पिंक पेज (Pink Page) के नाम से पहली ऑन लाइन LGBT पत्रिका (Magazine) प्रकाशित हुई और बाम्बे दोस्त (Bombay Dost) के नाम से Gay Magazine की दोबारा शुरुआत हुई। विभिन्न राज्यों में LGBT Pride Parade का आयोजन होने लगा। दूसरी ओर देश के विभिन्न धार्मिक संगठनों और सामाजिक संस्थाओं ने मिलकर हाई कोर्ट के फ़ैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी। पक्ष-विपक्ष की दलीलें सुनने और मुक़दमों के सारे पहलुओं पर सोच-विचार करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 27 मार्च, सन् 2012 ई॰ को फ़ैसला सुरक्षित कर लिया। इस फ़ैसले को उसने 11 दिसम्बर, सन् 2013 ई॰ को सुनाया। इसमें दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले को निरस्त करते हुए कहा गया है कि भारतीय दण्ड संहिता की उक्त धारा में परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं है और उसके अनुसार यह कर्म प्रकृति के प्रतिकूल दण्डनीय अपराध है। साथ ही उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि क़ानून बनाना हुकूमत का काम है। अगर वह चाहे तो संसद से क़ानून पारित करके इस धारा को निरस्त कर सकती है। इस फ़ैसले ने वाद-विवाद का दरवाज़ा खोल दिया है और इसके पक्ष और विपक्ष में दलीलें और तर्क पेश किए जा रहे हैं।

क्या समलैंगिकता पर पाबन्दी मौलिक मानवाधिकारों का उल्लंघन है?

समलैंगिकता के समर्थक बड़े ज़ोर-शोर से यह बात कहते हैं और इसी को दिल्ली हाई कोर्ट के माननीय जज ने भी दोहराया है कि समलैंगिकता पर प्रतिबन्ध स्वतन्त्रता, भेद-भाव रहित और समानता के मूल अधिकारों का उल्लंघन है, जिसकी भारतीय संविधान में ज़मानत दी गई है। संविधान की धारा 14 सारे लोगों के बीच समानता को अनिवार्य करती है और धारा 21 हर व्यक्ति के निजी जीवन को सुरक्षा मुहैया कराती है, जबकि धारा 15 में कहा गया है कि धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मभूमि की बुनियाद पर किसी व्यक्ति के मामले में अन्तर नहीं किया जाएगा। लेकिन सच्ची बात यह है कि इस प्रतिबन्ध को मौलिक मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं ठहराया जा सकता। सभ्य मानव-समाज में किसी व्यक्ति को बेक़ैद आज़ादी की अनुमति नहीं दी जा सकती, बल्कि उसे समाज की सभी मान्यताओं और सुनिश्चित नियमों की पाबन्दी करनी होगी, मिसाल के तौर पर कोई आदमी बिलकुल नग्न होकर घर से बाहर निकलने और सार्वजनिक स्थानों पर जाने को अपना अधिकार कहे तो उसकी यह बात स्वीकार नहीं की जाएगी और उसे इस हरकत से रोका जाएगा। इस मामले में समानता और भेद-भाव रहित अधिकारों का हवाला देना भी उचित नहीं, इसलिए कि जो आदमी इस घिनावने कर्म में लिप्त हो, उसे इससे रोकने के अलावा, इनसान होने की हैसियत से जो मौलिक अधिकार उसे मिलने चाहिएँ, उनसे न तो उसे वंचित किया जाता है और न ही उसके मानव होने का अपमान व उपेक्षा की जाती है।

आपसी सहमति की ग़लत धारणा

एक बात यह कही जाती है कि अगर दो व्यक्ति आपसी सहमति (Mutual Consent) से एक-दूसरे से अपनी कामवासना की पूर्ति कर रहे हैं तो इसमें किसी दूसरे का क्या जाता है? यह सहमति दो अलग-अलग लिंगजाति से सम्बन्ध रखनेवाले व्यक्तियों के बीच भी हो सकती है और एक ही लिंगजाति के दो व्यक्तियों के बीच भी। जिस प्रकार किसी मर्द और औरत के बीच परस्पर सहमति से यौन सम्बन्ध (Consensual Sex) पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है और इसे दण्डनीय अपराध नहीं समझा जाता, इसी तरह इस दशा में भी इसकी अनुमति होनी चाहिए जब दो मर्द या दो औरतें आपसी सहमति से इस कर्म को करें।

किसी सभ्य समाज में आपसी सहमति की यह धारणा स्वीकार करने योग्य नहीं है, बल्कि इसे सामाजिक व्यवस्था और प्रबन्धन की कसौटी पर परखा जाएगा और यह देखा जाएगा कि उसके कारण सभ्य सामाजिक व्यवस्था में विकार तो नहीं पैदा हो रहा है और समाज का ताना-बाना तो नहीं छिन्न-भिन्न हो रहा है। इसकी मिसाल ऐसे ही है जैसे रिश्वत का लेन-देन दो व्यक्तियों की आपसी सहमति से होता है, लेकिन इसे अपराध समझा जाता है और पकड़े जाने पर सख़्त सज़ा दी जाती है। इसकी वजह यह है कि अगर उन्हें इसकी इजाज़त दे दी जाए तो लूट-खसोट, बेईमानी और अधिकारों का हनन आम होने लगेगा और पूरा समाज अनाचार और बिगाड़ से भर जाएगा। इसी प्रकार दहेज का लेन-देन आमतौर पर आपसी सहमति से होता है, लेकिन इसे समाज में अच्छा नहीं समझा जाता है और इससे दूर रहने के लिए विभिन्न नियम बनाए गए हैं। इसी तरह दूसरी सामाजिक बुराइयों और ख़राबियों को देखा जा सकता है। किसी बुराई को क़ानूनी तौर पर सही ठहराने के लिए यह दलील काफ़ी नहीं है कि उसे दो व्यक्तियों ने आपसी सहमति से अंजाम दिया है।

क्या यह मानसिकता विरासत में मिलती है?

कहा जाता है कि अपनी ही लिंगजाति की ओर यौनिक रुझान (Sexual Orientation) आनुवांशिक (Genetic) और जन्मजात (Congenital) होता है। इसका निर्धारण गर्भधारण के समय, बल्कि गर्भ ठहर जाने के शुरुआती दिनों में ही हो जाता है। इसके ज़िम्मेदार कुछ जीन् (Gene) होते हैं, जो मानव-शरीर में पाए जाते हैं। वही इनसान के आचार-व्यवहार, मन-मस्तिष्क और स्वभाव को बनाते हैं। यह बात किसी हद तक ठीक हो सकती है, लेकिन यह भी एक तस्लीमशुदा हक़ीक़त है कि मानव-जीवन के अनुभवों और उसके चारों ओर का वातावरण उसके जीनियाती कोड (Genetic Code) के बरताव को प्रभावित करता है और बदलते वातावरण में विभिन्न जीन् कभी सक्रियता और कभी निष्क्रियता का प्रदर्शन करते हैं।

मान लीजिए अगर इस बात को स्वीकार कर लिया जाए तो भी समाज की सुरक्षा के लिए इस मानसिकता को पनपने की अनुमति नहीं दी जा सकती। मिसाल के तौर पर कहा जाता है कि कुछ लोगों में जीन्स के कारण ही आतंकवाद या आत्महत्या के रुझान पाए जाते हैं। लेकिन इन रुझानवाले लोगों को न इन अपराधिक कामों की खुले-आम छूट दी जाती है और न उन गुनाहों के करने पर उन्हें सज़ा से बचाया जाता है।

मनोरोग

समलैंगिकता के रुझान को पश्चिमी देशों में पहले मनोरोगों में गिना जाता था। American Psychiatric Association' ने सन् 1952 ई॰ में मानसिक रोगों पर अपनी पहली पुस्तिका 'Diagnostic and Statistical Mannual of Mental Disorders.' के नाम से प्रकाशित किया तो इसमें समलैंगिकता को भी शामिल किया, लेकिन जब इसपर आलोचना की जाने लगी तो अन्ततः सन् 1973 ई॰ में उसे इस सूची से निकाल दिया। विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organisation) ने भी सन् 1977 ई॰ में अपनी रिपोर्ट ICD-9 में समलैंगिकता को मनोरोग क़रार दिया, लेकिन सन् 1990 ई॰ में आयोजित होनेवाली 43वीं वर्ल्ड हेल्थ एसेम्बली (43rd World Health Assembly) की सिफ़ारिश के बाद ICD-10 में इसे मनोरोगों की सूची से निकाल दिया। यही मामला चीन में भी जारी रखा गया। 'Chinese Society of Psychiatry' ने सन् 1996 ई॰ में समलैंगिकता की गणना मनोरोगों में की, फिर पाँच साल के बाद उसे इस सूची से निकाल दिया। साफ़ महसूस होता है कि पहले इसे मनोरोग मानना, फिर इसका इनकार कर देना समलैंगिकता के समर्थकों की बढ़ती हुई संख्या और उनके मामले में दिन-प्रतिदिन बढ़ते दबाव का नतीजा था। समलैंगिकता को एक रोग की ही हैसियत दी जानी चाहिए और अगर इसका रुझान बचपन ही से दिखाई दे तो इसकी गिनती पैदाइशी और जन्म-जात रोगों में करनी चाहिए।

कुछ बच्चे पैदाइशी तौर पर अपंग होते हैं या उनके किसी अंग में कमी होती है। मिसाल के तौर पर किसी के हाथ या पैर में छह उँगलियाँ होती हैं, या होठ कटा होता है, या सिर असाधारण रूप से बड़ा होता है, या हारमोनों के असन्तुलित होने की वजह से शारीरिक विकास औसत से कम होता है, इन सूरतों में उन बच्चों को यूँ ही छोड़ नहीं दिया जाता कि वे तो ऐसे ही पैदा हुए हैं, बल्कि उनका इलाज करके उन्हें सामान्य जीवन व्यतीत करने योग्य बनाया जाता है। इसी तरह अगर कुछ लोग पैदाइशी तौर पर समलैंगिकता की ओर झुकाव रखते हों तो उनके इस रवैए को जन्म-जात दोष (Congenital Abnormaltity) समझते हुए उसका इलाज करने की कोशिश करनी चाहिए, न कि उनकी इस मानसिकता को परवान चढ़ाया जाए और इसके समर्थन में क़ानून और नियम बनाए जाएँ।

फ़ितरत की व्यवस्था से बग़ावत

समलैंगिकता फ़ितरत की व्यवस्था से बग़ावत और उसके विरुद्ध युद्ध का एलान है। आदिकाल से सृष्टि की सारी चीज़ों में नर-मादा के जोड़ा होने का नियम ही चला आ रहा है। न केवल जानवरों और वनस्पतियों में, बल्कि निर्जीव तत्त्वों में भी यह नियम सक्रिय है। स्वयं अणु (Atom) के बुनियादी मौलिक संघटन में ऋणात्मक और घनात्मक विद्युत ऊर्जा पाई जाती है। जीवधारी जातियों में नर और मादा का अन्तर प्रकृति ने नस्ल को बचाए रखने और वंश को बढ़ाने के लिए रखा है। दोनों के मिलन से उनकी नस्ल चलती है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उनके बीच आकर्षण रखा गया है।

इनसानों में इसी मक़सद के लिए नर और मादा की दो अलग-अलग जातियाँ बनाई गई हैं। उनकी शारीरिक बनावट और मानसिक संरचना इस प्रकार रखी गई हैं कि वे एक-दूसरे की ओर आकर्षण महसूस करते हैं। उनके बीच यौन सम्बन्ध के नतीजे में नस्ल के बढ़ाने का सिलसिला जारी रहता है। इस क्रिया में जो लज़्ज़त रखी गई है वह फ़ितरत के इस मक़सद को पूर्णता तक पहुँचाने के लिए प्रेरित भी करती है और इस कार्य का बदला भी है।

जो आदमी प्रकृति की इस योजना का उल्लंघन करते हुए अपने ही समलैंगिक से कामवासना की लज़्ज़त प्राप्त करने का प्रयास करता है वह वास्तव में फ़ितरत के विरुद्ध जंग करता है। यह लड़ाई उसके और उसके साथी (Partner) की शारीरिक रचना और मानसिकता दोनों पर बुरा प्रभाव डालती है, इसलिए कि वह उनसे वह काम लेना चाहता है जिसके लिए उन्हें बनाया ही नहीं गया है। इसी तरह ऐसा व्यक्ति वास्तव में फ़ितरत से ग़द्दारी का दोषी होता है। इसलिए कि फ़ितरत ने काम-वासना की लज़्ज़त को मानवजाति की निरन्तरता और प्रजनन क्रिया की महत्वपूर्ण सेवा का साधन बनाया है। जबकि वह इस सेवा को पूरा किए बिना लज़्ज़त प्राप्त करने का प्रयास करता है।

ख़ानदान और संस्कृति को पैर तले रौंदना

समाज के बनाए गए विधानों और क़ानूनों के मुताबिक़ जब मर्द और औरत इकट्ठा होते हैं तो उनसे एक ख़ानदान या परिवार बनता है। सन्तान का जन्म और पालन-पोषण होता है। रिश्ते-नाते वुजूद में आते हैं। संस्कृति (तमद्दुन) परवान चढ़ती है और समाज के सारे लोग अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं, लेकिन समलैंगिकता से परिवार की संस्था पर पूरी चोट लगती है। इसलिए कि जिस फ़ितरी तरीक़े से ख़ानदान बनना चाहिए, उसमें अड़चन पैदा हो जाती है। समलैंगिकता में संलिप्त व्यक्ति अपने विपरीत लिंग से विवाह करके मानव जाति की निरन्तरता के सिलसिले में अपनी ज़िम्मेदारी निभाने से जी चुराता है और ख़ानदान वुजूद में लाने और उससे सम्बन्धित लोगों की सेवा करने से भागता है। वह सभ्यता और संस्कृति की सभी संस्थाओं से पूरी तरह फ़ायदा उठाता है, लेकिन उसे तरक़्क़ी देने के लिए कोई ज़िम्मेदारी अपने सिर नहीं लेता। समलैंगिकता का समर्थन मानो परिवार की व्यवस्था को तबाह करने की कोशिश और सभ्य सांस्कृतिक व्यवस्था पर अत्यन्त घातक प्रहार है। इसके नतीजे में बड़ी आशंका है कि समाज के ताने-बाने बिखर जाएँ और संस्कृति का अटूट बंधन टूट-फूटकर बिखरकर रह जाए।

समलैंगिकता के समर्थकों की मांग है कि उन्हें आपस में शादी करने की इजाज़त दी जाए और इसके साथ ही उन्हें वे सारी सहूलतें उपलब्ध कराई जाएँ जो शादी के बन्धन में बंध जाने के बाद एक जोड़े को मिलती हैं। इस माँग को मान लेने का मतलब वैवाहिक संस्था पर गहरी चोट लगाना और इसकी अहमियत को ख़त्म करना है। कुछ देशों में इस माँग को तस्लीम कर लिया गया है और क़ानूनी तौर पर उनके वे सारे अधिकार स्वीकार कर लिए गए हैं जो शादी के बाद एक जोड़े को हासिल होते हैं। उन देशों में विवाह की कोई हैसियत नहीं रह गई है। सामाजिक जीवन में बिखराव फैला हुआ है, लोग धन-दौलत और आर्थिक कारणों के आधार पर इकट्ठा होते हैं, अपनी कामेच्छा पूरी करते हैं, जब तक चाहते हैं साथ रहते हैं और जब चाहते हैं अलग हो जाते हैं। बेक़ैद आज़ादी, मन की इच्छाओं की ग़ुलामी और स्वार्थवादिता ने उनके समाज को जानवरों के बाड़े के रूप में बदल दिया है।

आम आदमी के स्वास्थ को ख़तरा

समलैंगिकता का एक बड़ा नुक़सान यह है कि इससे आम आदमी के स्वास्थ को संगीन ख़तरा पैदा हो जाता है। इससे वे लोग तो शारीरिक और मानसिक रूप से प्रभावित होते ही हैं जो इस कुकर्म में ग्रसित होते हैं, साथ ही इसके भयानक प्रभाव उन बहुत-से लोगों पर भी पड़ते हैं जो उनके आस-पास रहते हैं या जो उनके सम्पर्क में आते हैं।

विगत शताब्दी की आठवीं दहाई में कुछ पश्चिमी देशों में होनेवाले सर्वे से यह बात खुलकर सामने आई है कि समलैंगिकता में ग्रसित मर्दों की उम्र का औसत पचास वर्ष से कम है, जो कि सामूहिक आबादी की औसत उम्र से बीस साल कम है। सन् 2002 ई॰ में होनेवाले एक सर्वे का नतीजा दोनों की उम्रों में तीस साल (30) अन्तर की सूरत में ज़ाहिर हुआ है।

समलैंगिकता अपने साथ बहुत-सी संक्रामक और असंक्रामक बीमारियों का उपहार लाती है। उनका शिकार उसके आदी अपराधी ख़ुद भी होते हैं और वे लोग भी इनकी चपेट में आते हैं जो उनके सम्पर्क में रहते हैं। मिसाल के तौर पर ख़ूनी बवासीर (Hemorrhoids), गुदा फटना (Anal Fissure), गुदा-शल्यक्रिया (Anorectal Trauma), गुदा कैंसर (Anal Cancer), आतशक (Syphilis), सूज़ाक (Gonorrhoea), जिगर-सूजन (Hepatitis B&C) और दूसरी बहुत-सी यौन सम्बन्धी और अन्य बीमारियाँ।

आज के दौर में  एड्स (Aids) ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक गम्भीर महामारी रोग की शक्ल अपना ली है। लाखों लोग इसके नतीजे में मौत का शिकार हो गए हैं। और इसके शिकार लोगों की संख्या करोड़ों में है। मेडिकल साइंस (औषधि विज्ञान) की असाधारण उन्नति के

बावजूद अब तक इस घातक रोग का कोई कामयाब इलाज खोजा नहीं जा सका है। सर्वे की रिपोर्टों से पता चलता है कि समलैंगिकता में संलिप्त लोग, आम लोगों के मुक़ाबले में अधिक आसानी से एड्स का शिकार हो जाते हैं। इसी वजह से संसार के सभी देशों में समलैंगिकता में लिप्त लोगों की ओर से रक्त-दान (Blood Donation) स्वीकार नहीं किया जाता है।

एड्स (Aids) की रोक-थाम के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से दुनिया के सभी देशों में कुछ समय से ज़बरदस्त मुहिम जारी है और विभिन्न उपाय भी अपनाए जा रहे हैं। इन प्रयासों के कुछ असर सामने आए हैं और इससे प्रभावित होनेवाले लोगों की संख्या दिन-प्रतिदिन कम हो रही है, लेकिन रिपोर्ट्स बताती हैं कि समलैंगिकता में लिप्त मदों में HIV / Aids की मौजूदगी में बढ़ोत्तरी हो रही है। एड्स (Aids) के कंट्रोल के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर क्रियाशील संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था 'UN AIDS' की सन् 2013 ई॰ की रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है –

"Although the incidence of HIV infection is declining in most region of the world, the incidence among men who have sex with men appears to be rising in several places - including in Asia, where this mode of transmission is a major contributor to the HIV epidemics of several countries. Globally, men who have sex with men are estimated to be 13 times more likely to be living with HIV than the general population",

"यद्यपि HIV (एच॰ आई॰ वी॰) से प्रभावित होने की घटनाओं में संसार के अधिकांश क्षेत्रों में बराबर कमी आ रही है, लेकिन बहुत-से स्थानों में समलैंगिकता में लिप्त मर्दों के इस रोग का शिकार होने की घटनाओं में बराबर बढ़ोत्तरी हो रही है, विशेष रूप से एशिया महाद्वीप में, जहाँ के अनेक देशों में HIV के महामारी का रूप धारण कर लेने का एक बड़ा कारण समलैंगिकता है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो जो मर्द अपनी ही लिंगजाति से यौन सम्बन्ध बनाते हैं वे सामान्य आबादी की तुलना में HIV से तेरह (13) गुना अधिक प्रभावित होते हैं।" [AIDS by the numbers, P-6]

पूँजीवादी उपनिवेश की साज़िश

सवाल पैदा होता है कि अगर समलैंगिकता समाज के लिए इतनी ही ख़तरनाक और घातक है और इनसानी आबादी पर इसके इतने भयानक प्रभाव पड़ रहे हैं तो फिर पूरी दुनिया में इसे क्यों बढ़ावा दिया जा रहा है? सौ से अधिक देशों में इसे दण्डनीय अपराधों की सूची से निकाल दिया गया है और समलैंगिकता में लिप्त लोगों के लिए सहूलतें उपलब्ध कराने के उद्देश्य से क़ानून और नियम बनाए जा रहे हैं।

इसका जवाब यह है कि आज-कल दुनिया पर हक़ीक़त में पूंजीपतियों का राज है। उन्हीं के इशारे पर देशों की नीतियाँ बनाई जाती हैं। जिन कामों में पूँजीपतियों का लाभ होता है उन्हें बढ़ावा दिया जाता है और जिन चीज़ों में उन्हें लाभ नहीं होता उनको हतोत्साहित किया जाता है। समलैंगिकता ने आज के दौर में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत बड़ी इण्डस्ट्री की शक्ल अपना ली है। विभिन्न देशों में समलैंगिकता में लिप्त लोगों के लिए ख़ास क़िस्म की बड़ी-बड़ी सैरगाह (Resorts) बनाई गई हैं, उनके क्लब (Gay Clubs) चल रहे हैं, बड़े पैमाने पर उनसे सम्बन्धित साहित्य (Gay Literature) प्रकाशित हो रहा है, समय-समय पर उनके प्रदर्शन और रैलियाँ (LGBT Pride Parade) आयोजित होती हैं। इसी प्रकार भोग-विलास और मौज-मस्ती के दूसरे प्रोग्राम और समारोह आयोजित होते हैं। इसमें पूंजीपतियों की अरबों (Billions), खरबों (Trillions) डॉलर की पूँजी लगी हुई है। इसलिए वे चाहते हैं कि समलैंगिकता को प्रोत्साहन और बढ़ावा मिले, ताकि उनका कारोबार चमके और उनकी पूँजी में अभिवृद्धि हो।

सभी धर्म समलैंगिकता के विरोधी हैं

समलैंगिकता के इन्हीं नुक़सान और ख़राबियों की वजह से दुनिया के सारे ही धर्म इसका विरोध करते हैं और इसे मानवता के विरुद्ध अपराध समझते हैं। यूरोपीय देशों में इस महामारी के आम होने के कारण चर्चों (गिरजाघरों) से सम्बन्ध रखनेवाले धार्मिक गुरु भी इसके प्रभाव से सुरक्षित नहीं रहे हैं। इस आधार पर ईसाइयत के अनुयायियों ने अमली तौर पर इसके मामले में कुछ नर्मी दिखाई है, लेकिन धार्मिक रूप से इसमें भी इसके वैध होने की कोई गुंजाइश नहीं है। भारत के सभी धर्म— हिन्दूधर्म, जैनधर्म, बुद्धधर्म, सिखधर्म, आदि भी इसके अवैध होने पर सहमत हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के छिहत्तर (76) देशों में समलैंगिकता को अपराध ठहरा दिया गया है। इनमें से कुछ देशों में इसकी सज़ा मौत है। इनमें से अधिकांश मुस्लिम देश हैं, या उनकी आबादी की बहुसंख्या किसी दूसरे धर्म को माननेवाली है।

समलैंगिकता के बारे में इस्लाम का पक्ष बिलकुल स्पष्ट है। उसने कड़े शब्दों में इसकी निन्दा की है। इसकी रोक-थाम के लिए एहतियाती और उचित उपाय अपनाए गए हैं और इस अपराध के करनेवालों के लिए इबरतनाक (शिक्षाप्रद) सज़ा रखी है। अग्रिम लाइनों में इसपर कुछ विस्तार से प्रकाश डाला जाएगा।

इस्लाम का यौन-सम्बन्धी दृष्टिकोण

इस्लाम कहता है कि ख़ुदा ने पूरी सृष्टि को जोड़े-जोड़े के रूप में बनाया है (क़ुरआन, सूरा-51 ज़ारियात, आयत-49)। यह जोड़ा होने यानी दामपत्य का नियम, वनस्पतियों, जानवरों और इनसानों में भी पाया जाता है। इसका मक़सद यह है कि इसके द्वारा प्रत्येक जाति में बढ़ोत्तरी हो और उसकी नस्ल फूले-फले। क़ुरआन मजीद में कहा गया है—

“"पाक है वह हस्ती जिसने सबके जोड़े पैदा किए, चाहे वह ज़मीन की वनस्पतियों से हों या ख़ुद उनकी अपनी जाति (यानी मानवजाति) में से या उन चीज़ों में से जिनको ये जानते तक नहीं हैं।" (क़ुरआन, सूरा-36 यासीन, आयत-36)

"आसमानों और ज़मीन का बनानेवाला, जिसने तुम्हारी अपनी जाति से तुम्हारे लिए जोड़े पैदा किए और इसी प्रकार जानवरों में भी (उन्हीं के सहजाति) जोड़े बनाए और इस तरीक़े से वह तुम्हारी नस्लें फैलाता है।" (क़ुरआन, सूरा-42 शूरा, आयत-11)

इस्लाम यौन सम्बन्धों का एक मक़सद जहाँ यह ठहराता है कि इससे नर-मादा एक-दूसरे से सुकून हासिल करें और उनके बीच प्रेम और लगाव का वातावरण बने, वहीं दूसरा अहम मक़सद यह बताता है कि इसके द्वारा सन्तान की पैदाइश हो और नस्ल चले। क़ुरआन में बीवियों के साथ यौन सम्बन्धों के अन्तर्गत साफ़ तौर पर यह दूसरा मक़सद हासिल करने की ताकीद की गई है। अल्लाह का आदेश है—

"उनसे (बीवियों) से सहवास करो और अल्लाह ने जो चीज़ तुम्हारे लिए लिख रखी है उसको तलब करो।" (क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-187)

इस आयत का मतलब बयान करते हुए अल्लामा ज़मख़्शरी (रहमतुल्लाह अलैह) ने लिखा है—

"यानी उनसे सिर्फ़ वासना-पूर्ति के लिए मैथुन क्रिया (संभोग) न करो, बल्कि अल्लाह ने निकाह (विवाह) को जिस लिए जाइज़ किया है, यानी नस्ल बढ़ाना, उस उद्देश्य को सामने रखो।" [अल-कश्शाफ़, ज़मख़्शरी 1/229]

और अल्लामा आलूसी (रहमतुल्लाह अलैह) बयान करते हैं कि—

"इस आयत से इस बात की दलील सामने आती है कि यौन सम्बन्ध बनानेवाले को चाहिए कि इसके ज़रिए नस्ल की हिफ़ाज़त का इरादा करे, न कि सिर्फ़ कामेच्छा की पूर्ति ही इसका मक़सद हो। इसलिए कि अल्लाह ने हमारे अन्दर सहवास की ख़ाहिश हमारी जाति (नस्ल) को बाक़ी रखने के लिए रखी है, जिस प्रकार उसने हमारे अन्दर खाने-पीने की इच्छा हमारे शरीर को बाक़ी रखने के लिए रखी है। [रूहुल-मआनी, आलूसी 1/462]

एक दूसरी जगह अल्लाह का फ़रमान है—

"तुम्हारी औरतें तुम्हारी खेतियाँ हैं। तुम्हें अधिकार है, जिस प्रकार चाहो अपनी खेती में जाओ, मगर अपने भविष्य की चिन्ता करो।" (क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-223)

क़ुरआन के आलिमों ने आयत के इस भाग "मगर अपने भविष्य की चिन्ता करो" के विभिन्न अर्थ बयान किए हैं। उनमें से एक यह है कि इसमें यौन सम्बन्ध के द्वारा सन्तान और नस्ल चाहने का आदेश दिया गया है। [देखें, ज़मख़्शरी, बग़वी, बैज़ावी, इब्ने-अतीया, अबू-हय्यान और क़ुरतबी की किताबों में उक्त आयत की व्याख्या।]

लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम से सबक़ हासिल करना

क़ुरआन मजीद में पिछली क़ौमों में से एक क़ौम के हालात बयान किए गए हैं, जिसकी ओर अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) भेजे गए थे। यह क़ौम शिर्क (बहुदेववाद) और बुतपरस्ती के अलावा दूसरी बहुत-सी बुराइयों का शिकार थी। इसकी सबसे बड़ी बुराई यह थी कि वह समलैंगिकता में संलिप्त थी। हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) ने अपनी क़ौम के सामने तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत पेश की, बुराइयों से बचे रहने की नसीहत की, साथ ही इस घिनावनी बुराई की कड़े शब्दों में निन्दा की और इसके बुरे अंजाम से डराया। लूत (अलैहिस्सलाम) ने कहा—

"क्या तुम ऐसे निर्लज्ज हो कि वह अश्लील काम करते हो जो तुमसे पहले दुनिया में किसी ने नहीं किया? तुम औरतों को छोड़कर मर्दों से अपनी कामेच्छा पूरी करते हो। सच्चाई यह है कि तुम बिलकुल ही हद से गुज़र जानेवाले लोग हो।" (क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-80, 81)

दूसरी जगह इन लफ़्ज़ों में उनको ख़बरदार किया गया है—

"क्या तुम दुनिया के लोगों में से मर्दों के पास जाते हो और तुम्हारी बीवियों में तुम्हारे रब ने तुम्हारे लिए जो कुछ पैदा किया है उसे छोड़ देते हो? बल्कि तुम लोग तो हद से ही गुज़र गए हो।" (क़ुरआन, सूरा-26 शु'अरा, आयत-165, 166)

हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) की तम्बीह और चेतावनी का उनकी क़ौम पर कुछ भी असर न हुआ। वह पहले की तरह इस बुराई में लिप्त रही, बल्कि उसे अपने बीच हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) का मौजूद होना भारी गुज़रने लगा, इसलिए कि वे बराबर उसकी डाँट-फटकार और भर्त्सना करते रहते थे। उस क़ौम ने उनको ताना मारते हुए कहा कि—

"ये लोग बड़े पाकबाज़ (धर्मात्मा) बनते हैं, इन्हें बस्ती से निकाल बाहर करो।" (क़ुरआन, सूरा-27 नम्ल, आयत-56)

आख़िरकार जब हज़ारों चेतावनियों के बावजूद उनपर कुछ असर न हुआ, वे अपनी करतूतों से बाज़ नहीं आए और उनपर हुज्जत (तर्क) पूरी हो गई तो अल्लाह का फ़ैसला आ गया और उन्हें उनके कुकर्मों के नतीजे में सख़्त सज़ा मिली और उनका संसार से नामो-निशान मिटा दिया गया। उनपर आए हुए अज़ाब का सविस्तार वर्णन क़ुरआन मजीद में अनेक जगहों पर किया गया है—

"फिर जब हमारे फ़ैसले का समय आ पहुँचा तो हमने उस बस्ती को उथल-पुथल कर दिया और उसपर पकी हुई मिट्टी के पत्थर ताबड़तोड़ बरसाए, जिनमें से हर पत्थर तेरे रब के यहाँ निशान लगा हुआ था और अत्याचारियों से यह सज़ा कुछ दूर नहीं है।" (क़ुरआन, सूरा-11 हूद, आयत-82, 83)

लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम मृत-सागर (Dead Sea) के दक्षिण पूर्व में सदोम, अमोरा, अदमा, सबोयीम और सोअर नामक शहरों में आबाद थी। समुद्र किनारे पर यह बड़ा ही उपजाऊ और हरा-भरा क्षेत्र था, लेकिन ख़ुदा के अज़ाब के नतीजे में ऐसा तबाह और बरबाद हुआ कि हज़ारों साल बीत जाने के बावजूद आज तक वहाँ की वीरानी और अभाग्य ख़त्म नहीं हुआ।

मौलाना हिफ़ज़ुर्रहमान स्योहारवी (रहमतुल्लाह अलैह) लिखते हैं—

"उर्दुन का वह भाग जहाँ आज मृत-सागर या लूत सागर है, यही वह जगह है जिसमें

सदोम और अमोरा की बस्तियाँ आबाद थीं। इसके निकट बसनेवालों का यह विश्वास

है कि पहले यह भाग, जो अब समुद्र नज़र आता है, किसी ज़माने में सूखी ज़मीन थी

और इसपर शहर आबाद थे। सदोम और अमोरा की आबादियाँ इसी स्थान पर थीं। यह

स्थान शुरू से समुद्र नहीं था, बल्कि जब लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम पर अज़ाब आया और इस पूरे क्षेत्र का तख़्ता उलट दिया गया और भयानक ज़लज़ले और भूचाल आए तब

यह ज़मीन लगभग चार सौ (400) मीटर समुद्र से नीचे चली गई और पानी उभर

आया। इसी लिए इसका नाम मृत-सागर या लूत सागर है।" [क़ससुल-क़ुरआन, पृष्ठ 595-596]

आयत के अन्तिम वाक्य "और अत्यचारियों से यह सज़ा कुछ दूर नहीं है" के टीकाकारों ने दो अर्थ बयान किए हैं। एक यह कि सज़ा पानेवाली ये बस्तियाँ मक्कावालों से (जो अत्याचार के रवैये पर अटल थे) दूर नहीं हैं। दूसरा अर्थ यह है कि यह क़ौम अपने कुकर्म की वजह से जिस अंजाम से दोचार हुई, कुछ दूर नहीं कि वैसा ही अंजाम हर उस क़ौम का हो जो उनके जैसा काम करे। अल्लामा इब्ने-कसीर (रहमतुल्लाह अलैह) लिखते हैं—

"यानी जो लोग लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम के जैसे कुकर्म में लिप्त हों, उनको भी उसी प्रकार की सज़ा मिलना असंभव नहीं है।" [तफ़सीरुल-क़ुरआनिल-अज़ीम, इब्ने-कसीर, 4/351]

हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने इसकी यह व्याख्या की है—

"इसका मतलब यह है कि जो लोग उनके जैसा काम करेंगे, कुछ भी असंभव नहीं कि उनको भी यही सज़ा मिले।" [रूहुल-मआनी, आलूसी, 6/103]

अल्लामा बैज़ावी (रहमतुल्लाह अलैह) कहते हैं—

"इसमें हर उस आदमी के लिए तम्बीह और चेतावनी है जो ऐसा बुरा काम करे।”" [अनवारुत्तनज़ील व असरारुत्तावील, बैज़ावी, 1/465]

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की चेतावनियाँ

इस्लाम में समलैंगिकता को कितना बुरा और घृणित कर्म समझा गया है, इसका अन्दाज़ा नीचे लिखी हदीसों से अच्छी तरह लगाया जा सकता है।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि एक बार अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कुछ बड़े-बड़े गुनाह के करनेवालों का अलग-अलग ज़िक्र करते हुए कहा कि उनपर अल्लाह की लानत और फिटकार है। उनमें उस आदमी का भी ज़िक्र था जो समलैंगिकता में ग्रस्त हो। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा—

"अल्लाह की लानत है उस आदमी पर जो लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम जैसा कर्म करे।" [हदीसः मुसनद अहमद, 1/309 नं॰ 2817, मुस्तदरक हाकिम, 4/356, तिरमिज़ी-1456]

हदीस में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह वाक्य तीन बार दोहराया, जबकि दूसरे लोगों के बारे में अल्लाह के दरबार में उनके लानती होने का ज़िक्र सिर्फ़ एक-एक बार ही किया।

हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) एक और हदीस बयान करते हैं कि प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा—

"अगर तुम किसी आदमी को लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम जैसा कुकर्म करते हुए देखो तो करनेवाले और करवानेवाले दोनों को क़त्ल कर दो।" [हदीसः अबू-दाऊद-4464, तिरमिज़ी-1456, इब्ने-माजा-2561, मुसनद अहमद-1/300 नं॰ 2727]

हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम जैसा कुकर्म करनेवालों के बारे में कहा—

"जो आदमी ऊपर हो और जो नीचे हो दोनों को संगसार कर दो यानी पत्थर मार-मारकर मार डालो।" [हदीसः इब्ने-माजा-2562]

हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा—

"अल्लाह उस आदमी की ओर नहीं देखेगा जो किसी मर्द या औरत की पीछे की शर्मगाह (गुदा) से अपनी कामवासना पूरी करे।" [हदीसः तिरमिज़ी-1165]

इस्लामी धर्म-विधान (शरीअत) इस मामले में इतना संवेदनशील है कि वह इस बात की भी अनुमति नहीं देता कि कोई मर्द किसी दूसरे मर्द का गुप्तांग देखे, इसी प्रकार कोई औरत किसी दूसरी औरत के गुप्तांगों की ओर निगाह उठाए या मर्द मर्द के साथ और औरत औरत के साथ नग्न अवस्था में एक चादर ओढ़कर लेटें। हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि अल्लाह के पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा—

"एक मर्द दूसरे मर्द के गुप्तांग को न देखे और औरत दूसरी औरत के गुप्तांगों को न देखे और मर्द दूसरे मर्द के साथ (नग्न अवस्था में) एक चादर ओढ़कर न लेटे और औरत दूसरी औरत के साथ (नग्न अवस्था में) एक चादर ओढ़कर न लेटे।" [हदीसः मुसलिम-794]

शाह वलीयुल्लाह मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) ने इस हदीस के बारे में लिखा है—

"छिपाने योग्य अंगों को देखने की मनाही इस कारण से है कि यह चीज़ कामेच्छा को

उत्तेजित करती है। कभी-कभी औरतों के बीच आपस में काम-भावना जाग्रत हो जाती

है। इसी प्रकार कभी-कभी मर्दों के बीच भी आपस में कामेच्छा-भावनाओं में उत्तेजना

पैदा हो जाती है। मर्द को मर्द के साथ और औरत को औरत के साथ एक चादर

ओढ़कर लेटने से इस कारण मना किया गया है, क्योंकि इससे कामेच्छा और काम-

भावनाएँ उत्तेजित होने की बहुत अधिक संभावनाएँ हैं। इससे अन्देशा है कि 'सिहाक़'

(औरत का औरत से यौन सम्बन्ध) और 'लवातत' (मर्द का मर्द से यौन सम्बन्ध) की

ओर झुकाव हो जाए।”" [हुज्जतुल्लाहिल बालिग़ा-2/194]

शरीअत के आलिमों का दृष्टिकोण

शरीअत (इस्लामी-धर्म-विधान) के सभी आलिम यह मानते हैं कि लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम के कुकर्म की वही सज़ा है जो ज़िना (व्यभिचार) की है। विवाहित व्यक्ति को पत्थर मार-मारकर हलाक करने की सज़ा दी जाएगी। अविवाहित व्यक्ति को कोड़े मारे जाएँगे। इसलिए कि क़ुरआन मजीद में व्यभिचार (ज़िना) को भी बद्कारी कहा गया है (क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-32) और लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम के कुकर्म को भी (क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-80)। अलबत्ता इसकी व्याख्या में उनके बीच मतभेद है—

इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) कहते हैं कि ऐसे आदमी को सज़ा दी जाएगी और क़ाज़ी अबू-यूसुफ़ तथा इमाम मुहम्मद (रहमतुल्लाह अलैहिमा) कहते हैं कि उसे व्यभिचार की सज़ा दी जाएगी, अलबत्ता अगर वह बार-बार यह बुरा कर्म करे तो उसे क़त्ल की सज़ा दी जाएगी। इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) के विचारों को माननेवाले कहते हैं कि यह कुकर्म करनेवाला चाहे विवाहित हो या अविवाहित, उसे पत्थर मार-मारकर मार डाला जाएगा। इमाम शाफ़ई (रहमतुल्लाह अलैह) के विचारों को माननेवाले के निकट ऐसे आदमी पर व्यभिचार की सज़ा जारी की जाएगी। एक विचार यह है कि ऐसा आदमी चाहे विवाहित हो या अविवाहित, उसे क़त्ल कर दिया जाएगा। इमाम अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) के निकट भी उसपर व्यभिचार की सज़ा लागू होगी।

यही आदेश सिहाक़ (औरत का औरत से यौन सम्बन्ध) के बारे में भी है। शरीअत के आलिमों की इस बारे में सहमति है कि औरतों का एक-दूसरे से काम-वासना की लज़्ज़त हासिल करना हराम है। हाँ, ऐसा करनेवाली औरतों को व्यभिचार के बारे में क़ुरआन की निर्धारित सज़ा नहीं दी जाएगी, बल्कि हाकिम उनको कोई दूसरी सज़ा देगा। [अल-मौसूअतुल-फ़िक़हिय्या-24/251-252, 35/340-341]

सभ्य समाज की ज़िम्मेदारी

ऊपर के विस्तारपूर्ण वर्णन से स्पष्ट हुआ कि समलैंगिकता किसी भी समाज के लिए घातक ज़हर है। यह इनसानी फ़ितरत से बग़ावत और उसके विरुद्ध जंग है। जो लोग इस घृणित कुकर्म में लिप्त रहते हैं, केवल वही घातक और लाइलाज बीमारियों का शिकार नहीं होते, बल्कि इससे आम लोगों के स्वास्थ्य की गम्भीर समस्याएँ पैदा होती हैं। इससे आगे बढ़कर परिवार की बुनियादें हिलकर रह जाती हैं और संस्कृति एवं सभ्यता के बन्धन टूट-टूटकर बिखरने लगते हैं। इसलिए समाज के सोचने-समझनेवाले और संजीदा लोगों की ज़िम्मेदारी है कि इस महामारी के सैलाब पर बाँध-बाँधने का पूरा प्रयास करें। व्यक्ति की निजी आज़ादी, बराबरी, समानता और भेदभाव रहित बुनियादी अधिकारों की दुहाई देकर इसे क़ानूनी वैधता नहीं प्रदान की जा सकती। यह उपनिवेशवादी विचारधारा की योजनाबद्ध साज़िश है, जिसे समाज की पाकीज़गी और पवित्रता क़ायम रखने के लिए असफल बनाना ज़रूरी है।

भाग-2

समलैंगिकता और इस्लाम का दृष्टिकोण

(29 दिसम्बर सन् 2013 ई॰ को इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेन्टर, नई दिल्ली में आयोजित जन-सभा में मौलाना सय्यद जलालुद्दीन उमरी, अध्यक्ष जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द का अध्यक्षीय सम्बोधन।)

सबसे पहले मैं इस बात पर अपनी प्रसन्नता और ख़ुशी प्रकट करूँगा कि इस जन-सभा में हिन्दूधर्म, सिखधर्म, जैनधर्म, ईसाइयत और इस्लाम के नुमाइन्दे मौजूद हैं।

समलैंगिकता के नाजाइज़ होने पर सभी धर्म एक मत हैं

लोग आम तौर पर राजनैतिक रूप से चुनाव लड़ने और सत्ता हासिल करने के लिए संगठित होते हैं। वे पार्टियाँ भी संगठित हो जाती हैं जिनके बीच विचारधारा का कोई विशेष सम्बन्ध नहीं होता। लेकिन दुख इस बात का है कि यह देश, जिसे हम धर्मों का गढ़ कहते हैं, यहाँ विभिन्न धर्मों के माननेवाले बहुत कम वैचारिक मुद्दों पर संगठित हो पाते हैं। ख़ुशी इस बात की है कि हम एक अहम मुद्दे पर सहमत और एक आवाज़ हैं। हम दुनिया को बताना चाहते हैं और अपने देश को भी कि समलैंगिकता किसी भी धर्म में सही नहीं है। कोई भी धर्म इसकी अनुमति नहीं देता। कुछ लोग कहते हैं कि इस मामले में इस्लाम का रवैया ज़्यादा सख़्त है, लेकिन जैसा कि आपके सामने बात आई, किसी धर्म में भी इसका ज़िक्र नहीं है और अगर है तो इसपर सख़्त नापसन्दीदगी का इज़हार किया गया है और इसकी कड़े शब्दों में निन्दा की गई है। इसे ग़लत काम और अपराध समझा गया है।

हाई कोर्ट का फ़ैसला पश्चिम से प्रभावित था

भाइयो! हमारा देश पश्चिम से प्रभावित है। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में एक बात कही गई है, जो मुझे पसन्द आई। वह यह कि दिल्ली हाई कोर्ट ने सन् 2009 ई॰ में जो फ़ैसला दिया था वह पश्चिम से प्रभावित था। इस समय दुनिया में चूँकि एक रुझान-सा है कि आदमी को सेक्स (Sex) के मामले में आज़ादी होनी चाहिए, इससे प्रभावित होकर यह फ़ैसला किया गया था और अपनी परम्पराओं को सिरे से अनदेखा कर दिया गया था।

प्राचीन और आधुनिक समय का अन्तर

कुछ लोग कहते हैं कि समलैंगिकता का रुझान लोगों में बहुत पहले से पाया जाता है। पहले भी यह अमल (कर्म) होता था यह बात सही है, लेकिन दो बातों का अन्तर है। एक यह कि पहले किसी व्यक्ति से संयोगवश यह अमल हो जाता था, हमेशा नहीं होता था। किसी ने ग़लत काम किया, फिर ख़ामोश हो गया। इसपर जीवन भर बने रहने का फ़ैसला कभी नहीं किया गया। बच्चों के साथ ज़्यादती पहले भी होती थी, आज भी होती है। लेकिन फ़र्क़ यह है कि पहले बड़े-बूढ़े और जवान लोग बच्चों के साथ अनाचार करते थे, लेकिन यह दुष्कर्म उनसे संयोगवश हो जाता था। हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) ने अपनी क़ौम को चेतावनी देते हुए कहा—

"ऐ लोगो! तुम ऐसी बेहयाई व बेशर्मी का काम करते हो, जिसे तुम से पहले दुनिया में

किसी ने भी नहीं किया।" (क़ुरआन, सूरा-29 अनकबूत, आयत-28)

इसका मतलब यह नहीं है कि उनसे पहले किसी से भी यह हरकत नहीं हुई थी, बल्कि इसका भाव यह है कि तुमसे पहले किसी क़ौम ने भी इसे अपना स्थायी रवैया (चलन) नहीं बनाया कि पूरी की पूरी क़ौम कहने लगे कि हम इसी तरीक़े पर अमल करते रहेंगे। हम उसी प्रकार मिलकर जीवन व्यतीत करेंगे जिस प्रकार मियाँ-बीवी ज़िन्दगी गुज़ारते हैं।

समलैंगिकता गन्दा अमल है

ख़ुदा के पैग़म्बर हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) ने दूसरी बात यह कही थी कि यह गन्दा काम है। सच्चाई यह है कि यह एक गन्दा कर्म है। कोई भी आदमी नहीं कह सकता कि यह पाकीज़ा काम है। क्योंकि इससे अनेक बीमारियाँ फैलती हैं। क़ुरआन कहता है कि इस गन्दे कर्म को अपनाओगे तो तबाह हो जाओगे। हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) ने कहा—

"ये मेरी बेटियाँ हैं, वे तुम्हारे लिए पाकीज़ा हैं।" (क़ुरआन, सूरा-11 हूद, आयत-78)

पैग़म्बर अपनी क़ौम का बाप होता है और क़ौम की औरतें उसकी बेटियाँ होती हैं। हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) ने कहा कि अपनी बीवियों के होते हुए यह ग़लत और घृणित काम क्यों करते हो? उनकी क़ौम ने आपस में तय किया—

"इनको अपनी बस्ती से निकाल दो, ये बड़े पाक-साफ़ बनते हैं।" (क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-82)

आज भी वही सूरते-हाल है। लोग कहते हैं कि समलैंगिकता का विरोध करनेवाले बहुत पाक-साफ़ बनते हैं।

समलैंगिकता अपनाना अल्लाह के अज़ाब को दावत देना है

हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम की बुराइयाँ जो भी रही हों, उनकी बुनियादी ख़राबी यही थी कि वह समलैंगिकता में लिप्त थी। इसी लिए उस क़ौम पर ख़ुदा ने इबरतनाक (शिक्षाप्रद) अज़ाब भेजा। उसपर पत्थरों की बारिश कर दी, जिससे पूरी क़ौम का नामो-निशान मिट गया। मानो समलैंगिकता को अपनाना अल्लाह के प्रकोप को बुलावा देना है। इस समय हमारा और आपका चुप रहना देश और देशवसियों के हित में बहुत बड़ी कोताही होगी। आपको और हमको वह किरदार अदा (रोल प्ले) करना चाहिए जो हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) ने अदा किया था।

इस्लाम का दृष्टिकोण

इनसान के अन्दर कामवासना पाई जाती है, इससे कोई आदमी इनकार नहीं करता। लेकिन इसकी आपूर्ति का इस्लाम ने एक तरीक़ा बता दिया है। उससे हटकर किसी और तरीक़े से कामवासना की पूर्ति करना वैध नहीं है। क़ुरआन मजीद में बताया गया है कि कामेच्छा के दो उद्देश्य हैं: एक यह कि इनसान को घर में सुकून और इत्मीनान हासिल हो और दूसरा यह कि इनसानी नस्ल चले और आबादी फैले। विवाह के अवसर पर क़ुरआन मजीद की जो आयतें पढ़ी जाती हैं, उनमें से एक आयत यह है—

"लोगो! अपने उस पालनहार (रब) से डरो जिसने तुमको एक जान से पैदा किया और उसी की जाति से उसका जोड़ा भी पैदा किया और उन दोनों से बहुत से मर्द और औरत फैला दिए।" (क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-1)

क़ुरआन मजीद में दूसरे मौक़े पर कहा गया है—

"उसकी निशानियों में से यह है कि उसने तुम्हारे लिए तुम्हारी ही जाति से बीवियाँ बनाईं, ताकि तुम उनके पास सुकून हासिल करो।" (क़ुरआन, सूरा-30 रूम, आयत-21)

मालूम हुआ कि विवाह के दो मक़सद हैं— एक यह कि शौहर-बीवी को सुकून हासिल हो और दूसरा यह कि उसके ज़रिये से इनसानी नस्ल फैले। ये दोनों मक़सद पूरे होने चाहिएँ। यह बात याद रखनी चाहिए कि ग़लत तरीक़े से आदमी को सुकून हासिल नहीं हो सकता। दूसरे यह कि कामेच्छा संतुष्टि के साथ यह मक़सद हर हाल में पूरा होना चाहिए कि इससे इनसानी नस्ल फैले। अगर ऐसा नहीं होता है तो आदमी एक ग़लत और अवैध तरीक़े से कामेच्छा की पूर्ति के लिए प्रयास करेगा; और इनसानी नस्ल के फैलने का मक़सद पूरा न होगा। क़ुरआन में जगह-जगह बताया गया है कि जो क़ौमें कामवासना की संतुष्टि के लिए ग़लत रास्ता अपनाती हैं वह तबाह और बर्बाद हो जाती हैं।

कामवासना की संतुष्टि आवश्यक है

क़ुरआन मजीद में यह बात बहुत विस्तार से बताई गई है कि इनसान के अन्दर कामवासना की जो इच्छा पाई जाती है, इसे पूरा करने की आसानी होनी चाहिए। वह कहता है—

"तुममें से जो लोग अविवाहित हों उनकी शादी कर दो।" (क़ुरआन, सूरा-24 नूर, आयत-32)

मतलब यह है कि जिन लोगों की शादी न हो पाई हो उनकी शादी करा दी जाए। इसमें बहुत-सी समस्याओं का समाधान है। यह शासन-प्रशासन और समाज दोनों की ज़िम्मेदारी है। प्रश्न यह है कि क्या कोई शासन इस पहलू से सोचता है कि जो लोग अविवाहित हैं उनकी शादी का प्रबन्ध होना चाहिए। इसी प्रकार क्या हमारे समाज को इसकी चिन्ता है कि कोई आदमी किसी मजबूरी से अविवाहित न रह जाए? शादी न होने के कारण भी आदमी ग़लत रास्ते पर चला जाता है। क्या कभी हम सोचते हैं कि यह परिस्थिति न पैदा हो?

समाज की ज़िम्मेदारी

कुछ लोग कहते हैं कि कुछ लोगों में समलैंगिकता का रुझान फ़ितरी तौर पर पाया जाता है। रुझान तो लोगों में बहुत-सी चीज़ों का रहता है और बहुत से ग़लत काम होते हैं। मिसाल के तौर पर कुछ लोगों में रिश्वत लेने का रुझान होता है, लेकिन इसे वैध नहीं ठहराया जा सकता, इसी प्रकार इनसानों के बीच जो पाक और पवित्र रिश्ते होते हैं, कुछ लोगों में उन पाक और पवित्र रिश्तों की मर्यादा का ख़याल न रखने का रुझान पाया जाता है और उन रिश्तों को पामाल (पददलित) कर डालते हैं, लेकिन उनके इस गन्दे अमल को समाज वैध नहीं ठहराता और न कभी वैध ठहराया जा सकता है, इसे अवैध ही समझा जाता है। कोई इसकी सराहना और समर्थन नहीं करता। यही स्थिति समलैंगिकता की है।

समाज के शुभचिन्तक, सम्मानित और संजीदा लोगों की ज़िम्मेदारी है कि वे इन ग़लत कामों का सुधार करें, इनका समर्थन न करें। लोग बहुत से ऐसे ग़लत काम करने लगते हैं, जिनका करना बड़े शर्म की बात है। क्या हम इन्हें वैध ठहराने और इन्हें पसन्द करने लगते हैं?

सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला

लोग कहते हैं कि समलैंगिकता में लिप्त केवल कुछ लोग ही हैं। अगर ऐसा हो तो भी इस कुकर्म की किसी एक व्यक्ति को भी करने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए। फिर सोचने की बात है कि अगर कुछ लोग ग़लत काम कर रहे हैं तो हम उनको क़ानूनी वैधता दिलाने में क्यों लग जाएँ। यह कितनी बड़ी नादानी की बात है कि इसके लिए भारतीय दण्ड-विधान में परिवर्तन करने का प्रयास किया जा रहा है।

प्रत्येक दशा में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का हम सम्मान करते हैं और उसका समर्थन करते हैं। बड़े दुख की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में यह भी कहा है कि अगर शासन या सत्ता इसको आवश्यक ठहराती है तो लोकसभा में क़ानून मंजूर करके इसे बदल दे। इसका मतलब यह है कि मौजूदा क़ानून के अनुसार तो समलैंगिकता अपराध है, लेकिन क़ानून बदल जाए तो यह अपराध नहीं रहेगा। हमारे विचार से इस फ़ैसले का यह कमज़ोर पहलू है। इस विचार या मत को इस फ़ैसले में नहीं आना चाहिए था। समलैंगिकता हर दशा में एक ग़लत और व्यक्ति व समाज के लिए विनाशकारी कर्म है। कोई भी क़ानून इसे वैध होने का आधार नहीं मुहैया कर सकता। इससे इसकी ख़राबियाँ और नुक़सान ख़त्म नहीं हो जाएँगे। बहरहाल, हमारा कहना है कि भारतीय दण्ड-विधान की धारा 377 को बाक़ी रखना चाहिए और समलैंगिकता को क़ानूनी हैसियत नहीं दी जानी चाहिए।

जनमत को अपने पक्ष में करने की ज़रूरत है।

मेरे भाइयो और साथियो! इस समय स्टेज पर विभिन्न धर्मों के नुमाइन्दे जमा हैं। ये सब समलैंगिकता के ख़िलाफ़ हैं। ख़ुशी इस बात की है कि इस मामले में इस्लाम का जो दृष्टिकोण है वही विचारधारा दूसरे धर्मों का भी है।

ज़रूरत है कि हम लोगों को यह बात बताएं। हम हकूमत के ज़िम्मेदारों से कहें कि वे इस 'धारा' को हटा देने की नादानी न करें। हम पार्लियामेंट के सदस्यों से कहें कि अगर हुकूमत की ओर से ऐसी नादानी हो तो आप कभी भी इसका समर्थन न करें। इसी प्रकार हम देश की जनता से कहें कि आप लोग इसके विरुद्ध खड़े हो जाएँ। एक बुराई अगर पनपती है तो वह दूसरी बुराइयों के लिए रास्ता खोल देगी, फिर तो उन बुराइयों को रोक पाना संभव नहीं होगा।

फिर भी हमें आशा है कि सभी धर्मों के रहनुमाओं के सहयोग से हमारा यह आन्दोलन आगे बढ़ेगा। अल्लाह ने चाहा तो हम सब मिलकर इस आन्दोलन को आगे बढ़ाएँगे और ऐसी परिस्थिति पैदा करेंगे कि हुकूमत इस प्रकार का कोई बिल लाने से परहेज़ करेगी।

भाग-3

लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम के कुकर्म का अंजाम

(समलैंगिकता और इसमें लिप्त लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम के अंजाम के बारे में मौलाना सैयद अबुल-आला मौदूदी (रहमतुल्लाह अलैह) की तफ़सीर तफ़हीमुल क़ुरआन से कुछ उद्धरण)

हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) और उनकी क़ौम

हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) के भतीजे थे। अपने चचा के साथ ईराक़ से निकले और कुछ मुद्दत तक सीरिया, फ़िलस्तीन और मिस्र में गश्त लगाकर धर्मोपदेश और धर्म के प्रचार-प्रसार का तजरिबा हासिल करते रहे। फिर स्थायी पैग़म्बरी के पद पर नियुक्त होकर उस बिगड़ी हुई क़ौम के सुधार पर लगा दिए गए जो लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम के नाम से मशहूर है।

लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम का इलाक़ा

यह क़ौम उस इलाक़े में रहती थी जिसे आजकल शर्क़े-उर्दुन (Trans Jordan) कहा जाता है और ईराक़ और फ़िलस्तीन के बीच स्थित है। बाइबल में इस क़ौम का केन्द्रीय नगर 'सदोम' बताया गया है, जो मृत-सागर के निकट किसी स्थान पर स्थित था। तलमूद में लिखा है कि 'सदोम' के अलावा उनके चार बड़े-बड़े शहर और भी थे और उन शहरों के बीच का इलाक़ा ऐसा गुलज़ार बना हुआ था कि मीलों तक बस एक बाग़-ही-बाग़ था, जिसकी ख़ूबसूरती को देखकर इंसान पर मस्ती छाने लगती थी। लेकिन आज इस क़ौम का नामो-निशान दुनिया से बिलकुल मिट चुका है और यह भी निश्चित नहीं है कि उसकी बस्तियाँ ठीक-ठीक किस स्थान पर स्थित थीं। अब केवल मृत-सागर (Dead Sea) ही उसकी एक यादगार के रूप में बाक़ी रह गया है; जिसे आजतक लूत सागर कहा जाता है। (तफ़हीमुल क़ुरआन, जिल्द-2, सूरा-7 आराफ़, हाशिया-63)

हिजाज़ से शाम (सीरिया) और इराक़ से मिस्र जाते हुए यह तबाह हो चुका इलाक़ा रास्ते में पड़ता है और आम तौर पर लोग तबाही के उन आसार (अवशेषों) को देखते हैं जो इस पूरे इलाक़े में नुमायाँ हैं। यह इलाक़ा लूत सागर (मृत-सागर) के पूर्व और दक्षिण में स्थित है और विशेष रूप से इसके दक्षिणी भाग के सम्बन्ध में भूगोल-वैज्ञानिकों का बयान है कि यहाँ इतनी अधिक वीरानी पाई जाती है कि जिसकी मिसाल पूरी धरती पर कहीं नहीं देखी गई। (तफ़हीमुल-क़ुरआन, जिल्द-2, सूरा-15 हिज्र, हाशिया-42)

लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम का बिगाड़

  1. "क्या तुम दुनिया के प्राणियों में से मर्दों के पास जाते हो और तुम्हारी बीवियों में तुम्हारे रब ने तुम्हारे लिए जो कुछ पैदा किया है उसे छोड़ देते हो, बल्कि तुम लोग तो हद से ही गुज़र गए।" (क़ुरआन, सूरा-26 शु‘अरा, आयत-165, 166)
  2. "तुम वह बेहयाई का काम करते हो जो दुनिया वालों में से किसी ने तुमसे पहले नहीं किया।" (क़ुरआन, सूरा-29 अनकबूत, आयत-28)
  3. "क्या तुम्हारा हाल यह है कि मर्दों के पास जाते हो और लूटमार करते हो, और अपनी सभाओं में बुरे काम करते हो।" (क़ुरआन, सूरा-29 अनकबूत, आयत-29)

यानी उनसे यौन सम्बन्ध बनाते हो, जैसा कि सूरा-7 आराफ़ में है कि "तुम कामेच्छा की पूर्ति के लिए औरतों को छोड़कर मर्दों के पास जाते हो। (और ऊपर से ग़ज़ब यह है कि यह) अश्लील काम छिपकर भी नहीं करते, बल्कि खुल्लम-खुल्ला अपनी पार्टियों में एक-दूसरे के सामने ही इस काम को करते हो। यही बात सूरा-27 नम्ल आयत-54 में कही गई है कि "क्या तुम ऐसे बिगड़ गए हो कि देखनेवाली आँखों के सामने अश्लीलता करते हो।" (तफ़हीमुल-क़ुरआन, जिल्द-3, सूरा-29 अनकबूत, हाशिया-51, 52)

पैग़म्बर की दावत पर प्रतिक्रिया

हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) ने जब ऊपर बयान की गई आयतों के अनुसार सुधार का प्रयास किया तो उनकी क़ौम ने भड़ककर उनसे कहा—

"ऐ लूत, अगर तू इन बातों से न रुका तो जो लोग हमारी बस्तियों से निकाले गए हैं उनमें तू भी शामिल होकर रहेगा।" (क़ुरआन, सूरा-26 शु'अरा, आयत-167)

यानी तुझे पता है कि इससे पहले जिसने भी हमारे ख़िलाफ़ मुँह खोला है, या हमारी हरकतों का विरोध किया है, या हमारी इच्छा के विरुद्ध काम किया है, वह हमारी बस्तियों से निकाल बाहर किया गया है। अब अगर तू ये बातें करेगा तो तेरा अंजाम भी वैसा ही होगा।

सूरा-7 आराफ़ और सूरा-27 नम्ल में बयान हुआ है कि हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) को यह चेतावनी देने से पहले उस दुष्ट और बिगड़ी हुई क़ौम के लोग आपस में यह तय कर चुके थे कि “"लूत और उसके परिवारवालों और साथियों को अपनी बस्ती से निकाल बाहर करो। ये लोग बड़े पाक-साफ़ बनते हैं, इन भले बननेवालों को बाहर का रास्ता दिखाओ।" (तफ़हीमुल-क़ुरआन, जिल्द-3, सूरा-26 शु'अरा, हाशिया-111)

अज़ाब का आना

"फिर जब हमारे फ़ैसले का वक़्त आ पहुँचा तो हमने उस बस्ती को तबाह कर दिया और उसपर पकी हुई मिट्टी के पत्थर ताबड़-तोड़ बरसाए, जिनमें से हर पत्थर तेरे रब के यहाँ से निशान लगा हुआ था और अत्याचारियों से यह सज़ा कुछ दूर नहीं है।" (क़ुरआन, सूरा-11 हूद, आयत-83)

"और हमने उनपर बरसाई एक बरसात, बड़ी ही बुरी बारिश थी जो उन डराए जानेवालों पर उतारी गई।" (क़ुरआन, सूरा-26 शु‘अरा, आयत-173)

मालूम होता है कि यह अज़ाब एक भयानक भूचाल और ज्वालामुखी फटने की शक्ल में आया था। भूकम्प ने उनकी बस्तियों को तलपट किया और ज्वालामुखी लावे के फटने से उनके ऊपर बड़े-ज़ोर का पथराव हुआ। पकी हुई मिट्टी के पत्थरों से मुराद शायद वह पत्थरनुमा मिट्टी है जो ज्वालामुखीवाले इलाक़े में ज़मीन के अन्दर की गर्मी और लावे के असर से पत्थर का रूप धारण कर लेती है। आज तक लूत सागर के दक्षिण और पूर्व के इलाक़े में उस पथराव के आसार (अवशेष) हर तरफ़ दिखते हैं। (तफ़हीमुल-क़ुरआन, जिल्द-2, सूरा-11 हूद, हाशिया-91)

बाइबल में उस अज़ाब का सविस्तार वर्णन

बाइबल के बयानों, प्राचीन यूनानी और लातीनी (रूमी भाषा) लेखों, वर्तमान की भू-गर्भिक खोजों और पुरातत्व अवशेषों के अवलोकनों से उस अज़ाब के विवरणों पर जो रौशनी पड़ती है उसका सारांश हम नीचे बयान करते हैं—

मृत-सागर (Dead Sea) के दक्षिण और पूर्व में जो क्षेत्र आज बड़े ही वीरान और सुनसान हालत में पड़ा हुआ है, उसमें बड़े पैमाने पर पुरानी बस्तियों के खंडहरों की मौजूदगी पता देती है कि यह किसी ज़माने में बहुत ही आबाद इलाक़ा था। आज वहाँ सैकड़ों बरबाद पड़ी हुई बस्तियों के अवशेष मिलते हैं, हालांकि अब यह इलाक़ा इतना हरा-भरा नहीं है कि उतनी आबादी का बोझ संभाल सके। पुरातत्त्व के विशेषज्ञों का अन्दाज़ा है कि उस इलाक़े की आबादी और ख़ुशहाली का दौर 2300 ईसा पूर्व से 1900 ईसा पूर्व तक रहा है और हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) के बारे में इतिहासकारों का अन्दाज़ा यह है कि वह दौर लगभग दो हज़ार (2000) ईसा पूर्व का है इस लिहाज़ से पुरातत्त्व के अवशेषों की गवाही इस बात की पुष्टि करती है कि यह इलाक़ा हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) और उनके भतीजे हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) के समय में ही बरबाद हुआ है।

उस क्षेत्र का सबसे अधिक आबाद और हरा-भरा भाग वह था जिसे बाइबल में सदोम की वादी कहा गया है, जिसके बारे में बाइबल का बयान है कि—

"वह इससे पहले कि ख़ुदावन्द ने सदोम और अमोरा को तबाह किया, ख़ुदावन्द के बाग़ (अद्न) और मिस्र की भाँति ख़ूब उपजाऊ थी।" (उत्पत्ति अध्याय-13, आयत-10)

आज के दौर के खोजकर्ताओं की आम राय यह है कि वह वादी अब मृत-सागर (Dead Sea) के अन्दर डूबी हुई है और यह राय विभिन्न पुरातत्विकी अवशेषों की गवाही से बनाई गई है। प्राचीन काल में मृत-सागर दक्षिण की ओर इतना विस्तृत न था जितना अब है। पूर्वी उर्दुन के मौजूदा शहर अलकर्क के सामने पश्चिम की ओर इस सागर में जो एक छोटा-सा जज़ीरानुमा (प्रायद्वीप) 'अल-लिसान' पाया जाता है, प्राचीन काल में बस यही पानी की अन्तिम सीमा थी। इसके नीचे का भाग, जहाँ अब पानी फैल गया है, पहले एक हरी-भरी वादी की शक्ल में आबाद था और यही वह वादी सिद्दीम थी, जिसमें लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम के बड़े-बड़े शहर सदोम, अमोरा, अदमा, ज़बूईम और ज़ुग़र जो सोअर भी कहलाता है स्थित थे। दो हज़ार ईसा पूर्व के लगभग ज़माने में एक भयंकर भूकम्प की वजह से यह वादी फटकर दब गई और मृत-सागर का पानी इसके ऊपर छा गया। आज भी यह सागर का सबसे अधिक उथला भाग है, मगर रूमी शासनकाल में यह इतना उथला था कि लोग अल-लिसान से चलकर पश्चिमी तट तक पानी में से निकल जाते थे। इस वक़्त तक दक्षिणी तट के साथ-साथ पानी में डूबे हुए जंगल और वन साफ़ नज़र आते हैं, बल्कि यह सन्देह भी किया जाता है कि पानी में कुछ इमारतें भी डूबी हुई हैं। (तफ़हीमुल-क़ुरआन, जिल्द-3, पेज-530, सतर 10-11)

बाइबल और प्राचीन यूनानी और लातीनी लेखों से पता चलता है कि उस इलाक़े में जगह-जगह पेट्रोल और अस्फ़ाल्ट के गड्ढे थे और कुछ जगहों से ज्वलनशील गैस भी निकलती थी। अब भी वहाँ भू-गर्भ में पेट्रोल और गैसों का पता चलता है। भू-गर्भ तत्वों को देखने के बाद यह अन्दाज़ा किया गया है कि भूकम्प के बड़े-बड़े झटकों के साथ पेट्रोल, गैस और अस्फ़ाल्ट ज़मीन से निकलकर भड़क उठे और पूरा का पूरा इलाक़ा भक से उड़ गया। बाइबल का बयान है कि उस तबाही और विनाश की सूचना पाकर हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) जब हिब्रून से उस आबादी का हाल देखने आए तो ज़मीन से धुआँ इस प्रकार उठ रहा था जैसे भट्ठी का धुआँ होता है। (उत्पत्ति, अध्याय-19, आयत-28) (तफ़हीमुल-क़ुरआन, जिल्द-3, सूरा-26 शु'अरा, हाशिया-114)

"और हमने उस बस्ती की एक खुली निशानी छोड़ दी है।" (क़ुरआन, सूरा-29 अनकबूत, आयत-35)

उस खुली निशानी से मुराद है, मृत-सागर (Dead Sea), जिसे लूत-सागर भी कहा जाता है। क़ुरआन मजीद में अनेकों स्थानों पर मक्का के इस्लाम-विरोधियों को सम्बोधित करके कहा गया है कि उस ज़ालिम क़ौम पर उसके करतूतों की बदौलत जो अज़ाब आया था उसकी एक निशानी आज भी राजमार्ग पर मौजूद है, जिसे तुम सीरिया की ओर अपने तिजारती सफ़रों में जाते हुए रात-दिन देखते हो।

"और वह (बस्ती) सार्वजनिक मार्ग पर है।" (क़ुरआन, सूरा-15 हिज्र, आयत-76)

"और निस्सन्देह तुम उनपर (उनके क्षेत्र) से गुज़रते हो कभी सुबह करते हुए और रात में भी।" (क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयत-137, 138)

आज के दौर की खोज

आज के दौर में यह बात लगभग यक़ीन के साथ स्वीकार जा रही है कि मृत-सागर (Dead Sea) का दक्षिणी भाग एक भयंकर भूकम्प की वजह से ज़मीन में धँस जाने की बदौलत वुजूद में आया है और उसी धँसे हुए भाग में लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम का केन्द्रीय शहर सदोम (Sodom) स्थित था। इस भाग में पानी के नीचे कुछ डूबी हुई बस्तियों के आसार (अवशेष) भी पाए जाते हैं। अभी वर्तमान ही में आधुनिक यंत्रों के द्वारा ग़ोताख़ोरों की मदद से यह कोशिश शुरू हुई है कि कुछ लोग नीचे जाकर उन आसार (अवशेषों) की खोजबीन करें। लेकिन अभी तक इन कोशिशों के नतीजे सामने नहीं आए हैं। (तफ़हीमुल-क़ुरआन, जिल्द-3, सूरा-29 अन्कबूत, हाशिया-59)

"इसके बाद हमने वहाँ बस एक निशानी उन लोगों के लिए छोड़ दी जो दर्दनाक अज़ाब से डरते हैं।" (क़ुरआन, सूरा-51 ज़ारियात, आयत-37)

इस निशानी से मुराद मृत-सागर (Dead Sea) है, जिसका दक्षिणी क्षेत्र आज भी एक बड़ी तबाही के निशान पेश कर रहा है। पुरातत्त्व के विशेषज्ञों का अनुमान है कि लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम के बड़े शहर शायद बड़े भूकम्प से ज़मीन के अन्दर धंस गए थे और उनके ऊपर मृत-सागर का पानी फैल गया था, क्योंकि इस सागर का वह भाग जो 'अल-लिसान' नामक छोटे-से प्रायद्वीप के दक्षिण में स्थित है, साफ़ तौर पर बाद की पैदावार मालूम होता है और पुराने मृत-सागर के जो आसार इस प्रायद्वीप के उत्तर तक नज़र आते हैं वे दक्षिण में पाए जानेवाले आसार से बहुत भिन्न हैं । इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि दक्षिण का भाग पहले इस सागर की सतह से ऊँचा था, बाद में किसी वक़्त धँसकर इसके नीचे चला गया। इसके धंसने का ज़माना भी दो हज़ार वर्ष ईसा पूर्व के लगभग मालूम होता है और यही ऐतिहासिक रूप से हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) और हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) का ज़माना है। सन् 1965 ई॰ में पुरातत्त्व की खोजबीन करनेवाली एक अमेरिकी टीम को 'अल-लिसान' पर एक बहुत बड़ा क़ब्रिस्तान मिला है, जिसमें बीस हज़ार से ज़्यादा क़ब्रें हैं। इससे अन्दाज़ा होता है कि पास में कोई बड़ा शहर ज़रूर आबाद रहा होगा, मगर किसी ऐसे शहर के आसार आस-पास कहीं मौजूद नहीं हैं, जिससे मिला हुआ इतना बड़ा क़ब्रिस्तान बन सकता हो। इससे भी सन्देह को बल मिलता है कि जिस शहर का यह क़ब्रिस्तान था वह सागर में डूब चुका है, सागर के दक्षिण में जो इलाक़ा है उसमें अब भी हर तरफ़ तबाही और विनाश के आसार मौजूद हैं और ज़मीन में गंधक, राल (चीड़ का गोंद), तारकोल और प्राकृतिक गैस के इतने बड़े भंडार पाए जाते हैं, जिन्हें देखकर गुमान होता है कि किसी वक़्त बिजलियों के गिरने से या भूकम्प का लावा निकलने से यहाँ एक जहन्नम फट पड़ी होगी। (तफ़हीमुल-क़ुरआन, जिल्द-5, सूरा-51 ज़ारियात, हाशिया-35)

समलैंगिकता लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम के बाद

वह नफ़रत के क़ाबिल कुकर्म, जिसकी बदौलत लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम ने हमेशा की बदनामी हासिल की है, उस बुरे काम के करने से तो दुराचारी इनसान कभी बाज़ नहीं आए, लेकिन यह गर्व सिर्फ़ यूनान को हासिल है कि उसके फ़लसफ़ा (दर्शनशास्त्र) ने इस घिनावने अपराध को अख़लाक़ी (नैतिक) ख़ूबी के दर्जे तक पहुँचाने की कोशिश की और उसके बाद जो कसर बाक़ी रह गई थी उसे आज के यूरोप और (अमेरिका) ने पूरा किया कि खुल्लम-खुल्ला इसके पक्ष में ज़बरदस्त दुष्प्रचार किया गया, यहाँ तक कि एक देश (जर्मनी) की पार्लियामेन्ट ने इसे क़ानूनी तौर पर जाइज़ (वैध) ठहरा दिया और कुछ दूसरे पश्चिमी देशों में भी अब इसे क़ानूनी तौर पर जाइज़ कर दिया गया है।

समलैंगिकता एक घोर अपराध

यह बिलकुल एक खुली सच्चाई है कि अपनी ही लिंगजाति से यौन सम्बन्ध बनाना फ़ितरी क़ानून के बिलकुल ख़िलाफ़ है। ख़ुदा ने सारे जानदार प्राणियों में नर-मादा का अन्तर सिर्फ़ सन्तान पैदा करने और नस्ल को बनाए रखने के लिए रखा है। मानवजाति के अन्दर इसका बड़ा मक़सद यह भी है कि दोनों लिंगजाति के लोग मिलकर एक ख़ानदान वुजूद में लाएँ और उससे सभ्यता की बुनियाद पड़े। इसी मक़सद के लिए मर्द और औरत की दो अलग लिंगजातियाँ बनाई गई हैं। इनमें एक-दूसरे के लिए लैंगिक आकर्षण पैदा किया गया है, इनकी शारीरिक बनावट और मनोवृत्ति एक दूसरे के जवाब में दाम्पत्य के उद्देश्यों के लिए बिलकुल अनुकूल बनाई गई है और उनके यौन सम्बन्ध में वह लज़्ज़त रखी गई है जो फ़ितरत के मंशा को पूरा करने के लिए एक ही समय में आमंत्रक और प्रेरक भी है और उस सेवा का बदला भी।

जो व्यक्ति फ़ितरत की इस योजना के ख़िलाफ़ अमल करके अपनी ही लिंगजाति से यौन-आनन्द हासिल करता है वह एक ही वक़्त में अनेक अपराधों का करनेवाला होता है।

पहले तो वह अपनी और उस व्यक्ति की जिसके साथ बद्कारी करता है उसकी फ़ितरी बनावट और नफ़्सियाती तरकीब (मनोवैज्ञानिक संरचना) से जंग करता है और उसमें एक बड़ा बिगाड़ पैदा कर देता है, जिससे दोनों के बदन, नफ़्स (मन) और चरित्र पर बहुत ही बुरे प्रभाव पड़ते हैं।

दूसरे यह कि वह फ़ितरत के साथ ग़द्दारी और ख़ियानत करता है, क्योंकि फ़ितरत ने जिस आनन्द को नस्ल और समाज की सेवा का बदला बनाया था और जिसके हासिल करने को कर्तव्यों, ज़िम्मेदारियों और अधिकारों के साथ जोड़ दिया था, वह उसे किसी सेवा को पूरा करने और किसी फ़र्ज़ और हक़ को अदा करने और किसी ज़िम्मेदारी को अपने ऊपर सुनिश्चित किए बिना चुरा लेता है।

तीसरी बात यह कि वह इनसानी समाज के साथ खुली बेईमानी करता है कि समाज की बनाई हुई संस्थाओं से फ़ायदा तो उठा लेता है, लेकिन जब उसकी अपनी बारी आती है तो कर्तव्यों और ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाने के बजाय अपनी शक्तियों को पूरी स्वार्थपरता के साथ ऐसे काम में इस्तेमाल करता है जो सामाजिक सभ्यता और अख़लाक़ के लिए सिर्फ़ बे-फ़ायदा ही नहीं, बल्कि सीधे-सीधे हानि पहुँचानेवाला है। वह अपने-आपको नस्ल और ख़ानदान की ख़िदमत के लिए नाअहल (अयोग्य) बनाता है, अपने साथ कम-से-कम एक मर्द को ग़ैर-फ़ितरी ज़नानापन में लिप्त करता है और कम-से-कम दो औरतों के लिए भी लैंगिक बेराह-रवी, भटकाव और अख़लाक़ी गिरावट का दरवाज़ा खोल देता है। (तफ़हीमुल-क़ुरआन, जिल्द-2, सूरा-7 आराफ़, हाशिया-64)

समलैंगिकता के ख़िलाफ़ इस्लामी शरीअत का फ़ैसला

क़ुरआन मजीद में सिर्फ़ यह बताया गया है कि लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम का अमल एक बहुत बुरा गुनाह है, जिसपर एक क़ौम ख़ुदा के प्रकोप और ग़ुस्से का शिकार हुई। इसके बाद यह बात हमें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शिक्षाओं से मालूम हुई कि यह एक ऐसा अपराध है जिससे समाज को पाक-साफ़ रखने की कोशिश करना इस्लामी हुकूमत के कर्तव्यों (फर्ज़ों) में से है और यह कि इस अपराध के करनेवाले को कड़ी सज़ा दी जानी चाहिए।

पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने विभिन्न हदीसें जो बयान की हैं उनमें से किसी में हमको ये शब्द मिलते हैं— "ऐसा कर्म करनेवाले और करवानेवाले दोनों को क़त्ल कर दो।" किसी में इस हुक्म पर इतना और बढ़ा हुआ है कि "विवाहित हो या अविवाहित" और किसी में है कि "ऊपरवाला और नीचेवाला दोनों पत्थर मार-मार कर मार दिए जाएँ।" लेकिन चूंकि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ज़माने में ऐसा कोई मुक़द्दमा पेश नहीं हुआ इसलिए क़तई तौर पर यह बात सुनिश्चित न हो सकी कि इसकी सज़ा किस प्रकार दी जाए? सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में से हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) की राय यह है कि अपराधी को तलवार से क़त्ल किया जाए और दफ़न करने के बजाय उसकी लाश जलाई जाए। इसी राय से हज़रत अबू-बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने सहमति जताई है। हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) और हज़रत उसमान (रज़ियल्लाहु अन्हु) की राय यह है कि किसी जरजर पुरानी इमारत के नीचे खड़ा करके वह इमारत उनपर गिरा दी जाए। इब्ने-अब्बास का फ़त्वा यह है कि बस्ती की सबसे ऊँची इमारत पर से उनको सिर के बल फेंक दिया जाए और ऊपर से पत्थर बरसाए जाएँ। इस्लामी शरीअत के विद्वानों (आलिमों) में से इमाम शाफ़ई (रहमतुल्लाह अलैह) कहते हैं कि ऐसा करनेवाले और करवानेवाले को क़त्ल करना वाजिब है, चाहे विवाहित हो या अविवाहित। शअबी, ज़ुहरी, मालिक और अहमद (रहमतुल्लाह अलैह) कहते हैं कि इनकी सज़ा पत्थर मार-मारकर मार डालना है। सईद-बिन-मुसैयिब, अता, हसन बसरी, इबराहीम नख़ई, सुफ़ियान सौरी और औज़ाई (रहमतुल्लाह अलैहिम) की राय में इस अपराध पर वही सज़ा दी जाएगी जो ज़िना (व्यभिचार) की सज़ा है। यानी अविवाहित को सौ कोड़े मारे जाएंगे और जिलावतन कर दिया जाएगा और विवाहित को रजम किया जाएगा अर्थात् पत्थर मारकर मार डाला जाएगा। इमाम अबू-हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैह) की राय में इसपर कोई सज़ा निश्चित नहीं है, बल्कि यह अपराध ऐसा है जिसकी सज़ा उस वक़्त का हाकिम तय करेगा। जैसे हालात और ज़रूरतें हों उनके लिहाज़ से कोई इबरतनाक (सबक़ सिखानेवाली) सज़ा इसपर दी जा सकती है। एक कथन इमाम शाफ़ई (रहमतुल्लाह अलैह) से भी इसी के समर्थन में बयान हुआ है।

मालूम रहे कि आदमी के लिए यह बात बिलकुल हराम है कि वह ख़ुद अपनी बीवी के साथ लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौम जैसा अमल करे। अबू-दाऊद (हदीस की किताब) में प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की यह हदीस बयान हुई है—

"औरत के साथ यह अमल करनेवाला लानत और निन्दा का अधिकारी है।" इब्ने-माजा और मुसनद अहमद में प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ये शब्द नक़ल हुए हैं—"अल्लाह उस मर्द की ओर हरगिज़ रहमत की नज़र से नहीं देखेगा जो औरत के साथ ऐसा अमल करे।" तिरमिज़ी में आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का यह फ़रमान है— "जिसने हैज़वाली औरत के साथ संभोग किया, या औरत के साथ लूत (अलैहिस्सलाम) की क़ौमवाला अमल किया, या काहिन (तांत्रिक) के पास गया और उसकी भविष्यवाणियों की पुष्टि की, उसने उस शिक्षा का इनकार किया जो हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर उतरी है।" (तफ़हीमुल-क़ुरआन, जिल्द-2, सूरा-7 आराफ़, हाशिया-68)

भाग-4

विभिन्न धर्मों के प्रतिनिधियों का सर्वसम्मत बयान

(29 दिसम्बर, सन् 2013 ई॰ को इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर, नई दिल्ली में आयोजित जन-सभा में विभिन्न धर्मों के प्रतिनिधियों की ओर से स्वीकार किया जानेवाला प्रस्ताव।)

इंडियन पेनल कोड, आर्टिकल 377 पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला न केवल इस देश की पूर्वीय परम्पराओं, नैतिक मान्यताओं और धार्मिक शिक्षाओं के ठीक मुताबिक़ है, बल्कि दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले से पश्चिमी सभ्यता का हमला, ख़ानदानी निज़ाम की टूट-फूट और सामाजिक जीवन के ताने-बाने के बिखराव की जो आशंका पैदा हो गई थी, यह फ़ैसला उसकी रोक-थाम भी करता है।

हमारा देश एक धार्मिक देश है जिसकी इतनी बड़ी संख्या किसी-न-किसी धर्म को माननेवाली और पूर्वीय पुरानी परम्पराओं और सभ्यता की धारक है। सारे ही धर्म मर्द और औरत के बीच शादी के द्वारा परिवार गठन को महत्त्व देते हैं, जिसपर न सिर्फ़ इनसानी नस्ल को बचाने और समाज में स्थायी सुख-चैन और पूरे भरोसे का दारोमदार है, बल्कि इससे समाज में औरत की एक सम्माननीय और केन्द्रीय हैसियत भी सुनिश्चित होती है।

समलैंगिकता को देश के क़ानून ने ठीक तौर पर एक दण्डनीय अपराध ठहरा दिया है। इसलिए कि यह न सिर्फ़ इनसानी नस्ल की तरक़्क़ी में बाधक है, बल्कि ख़ान्दानी निज़ाम और सामाजिक रिश्तों को भी पामाल (पददलित) करता है, और इससे बढ़कर जन-स्वास्थ्य के हित में एक विनाशकारी ज़हर है। मेडिकल रिसर्च ने इस घिनौने अमल को एड्स के फैलाव का एक प्रमुख कारण क़रार दिया है।

विभिन्न धार्मिक संगठनों के ज़िम्मेदार की हैसियत से हम इस फ़ैसले का स्वागत करते हैं। उच्चतम न्यायालय ने यह क्रान्तिकारी फ़ैसला करके देश को विनाश के रास्ते की ओर जाने से रोका है।

हमें बड़ा दुख है कि पश्चिमी सभ्यता के प्रेमी निजी आज़ादी, अल्पसंख्यक अधिकारों और अनुचित तर्कों के द्वारा राजनैतिक पार्टियों और हुकूमत पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि वे क़ानून में बदलाव करके इस बेशर्मी और अपराधिक कुकर्म को वैधता प्रदान कर दें।

हम हुकूमत और राजनैतिक दलों को सचेत करना चाहते हैं कि अगर वे धार्मिक शिक्षाओं, पूर्वीय परम्पराओं और देश के विशाल बहुसंख्यकों की रायों और मतों के ठीक विपरीत ऐसा करेगी तो उसे हरग़िज़ क़बूल नहीं किया जाएगा।

पश्चिम में इन घिनावने अनुभवों ने मानव समाज को जिस तबाही और बरबादी तक पहुँचाया है, ख़ास तौर पर औरतों के अधिकारों को जिस बड़े पैमाने पर पामाल (पददलित) किया है, उससे हमें शिक्षा लेनी चाहिए।

हम विभिन्न धर्मों से जुड़े हुए लोग हुकूमत के ज़िम्मेदारों और सारे राजनैतिक संगठनों से अपील करते हैं कि वे उच्चतम न्यायालय के इस क्रान्तिकारी और बुद्धि-विवेक और तत्वदर्शिता (हिकमत) पर आधारित फ़ैसले को खुले दिल से स्वीकार कर लें और पश्चिमी सभ्यता के मतवालों से निवेदन करते हैं कि वे इसे अपराध समझते हुए इस घिनावने कुकर्म से देश के समाज को बचाने के लिए आगे आएँ।

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