यहूदियों की योजना
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सामयिकी
- at 16 December 2023
मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी
24 अगस्त 1969 को दिया गया एक भाषण
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रह्म करनेवाला है।
यहूदी दुस्साहस का इतिहास
बैतुल-मक़दिस और फ़िलिस्तीन के संबंध में आपको यह मालूम होना चाहिए कि ईसा से लगभग तेरह सौ वर्ष पूर्व इस्राइलियों ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया था और दो शताब्दियों के निरंतर संघर्ष के बाद अंततः उस पर कब्ज़ा कर लिया। वे इस भूमि के मूल निवासी नहीं थे। प्राचीन निवासी अन्य लोग थे जिनकी जनजातियों और क़ौमों के नाम बाइबिल में ही विस्तार से वर्णित हैं, और बाइबिल से ही हमें पता चलता है कि इस्राइलियों ने इन लोगों का नरसंहार करके उस भूमि पर उसी प्रकार क़ब्ज़ा कर लिया जिस तरह फिरंगियों ने रेड-इंडियन को नष्ट करके अमेरिका पर क़ब्ज़ा कर लिया। उनका दावा था कि ईश्वर ने यह देश उन्हें विरासत में दे दिया है। इसलिए, उन्हें इसके मूल निवासियों को विस्थापित करके, बल्कि उनकी नस्ल को खत्म करके उस पर कब्ज़ा करने का अधिकार है।
फिर, 8वीं शताब्दी ईसा पूर्व में, असीरिया ने उत्तरी फ़िलिस्तीन पर कब्ज़ा करके इस्राइलियों को पूरी तरह से नष्ट कर दिया और उनकी जगह अन्य क़ौमों को स्थापित किया, जिनमें अधिकतर अरब मूल के थे। फिर छठी शताब्दी ईसा पूर्व में बेबीलोन के राजा बख़्ते नस्र ने दक्षिणी फ़िलिस्तीन पर कब्ज़ा कर लिया और सभी यहूदियों को निर्वासित कर दिया। बैतुल-मक़दिस की ईंट से ईंट बजा दी और हैकले सुलैमानी को, (TEMPLE OF SOLOMON), जिसे ईसा पूर्व 10वीं शताब्दी में हज़रत सुलैमान (अलैहिस्सलाम) ने बनवाया था, इस तरह से ध्वस्त कर दिया कि उसकी एक दीवार भी अपनी जगह पर बाक़ी नहीं रही। निर्वासन की लंबी अवधि के बाद, ईरानियों के शासनकाल के दौरान, यहूदियों को दक्षिणी फ़िलिस्तीन में फिर से आ कर बसने का अवसर मिला और उन्होंने बैतुल-मक़दिस में हैकले सुलैमानी का पुनर्निर्माण किया। लेकिन यह अन्तराल तीन-चार सौ वर्षों से अधिक का नहीं रहा। 70 ई. में यहूदियों ने रोमन साम्राज्य के ख़िलाफ विद्रोह कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप बैतुल-मक़दिस शहर और हैकले-सुलैमानी को पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया। फिर एक और विद्रोह को कुचलकर रोमनों ने 135 ई. में यहूदियों को पूरे फ़िलिस्तीन से निष्कासित कर दिया। इस दूसरे निष्कासन के बाद, दक्षिणी फ़िलिस्तीन में भी उसी तरह अरबी क़बीले आ कर बस गए, जैसे वे आठ सौ साल पहले उत्तरी फ़िलिस्तीन में बसे थे। इस्लाम के आगमन से पहले, इस पूरे क्षेत्र में अरब क़बीलों का निवास था। रोमनों ने बैतुल-मक़दिस में यहूदियों के प्रवेश पर कानूनी रूप से प्रतिबंध लगा दिया था, और फ़िलिस्तीन में भी यहूदी आबादी लगभग न के बराबर थी।
इस इतिहास से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि:
(1) यहूदियों ने शुरू में नरसंहार (GENOCIDE) किया और फ़िलिस्तीन पर जबरन कब्ज़ा कर लिया।
(2) उत्तरी फ़िलिस्तीन में, वे केवल चार-पाँच सौ वर्षों तक ही बसे रहे।
(3) दक्षिण फ़िलिस्तीन में उनके प्रवास की अवधि अधिकतम आठ-नौ सौ वर्ष रही।
(4) अरब उत्तरी फ़िलिस्तीन में ढाई हज़ार वर्षों से और दक्षिणी फ़िलिस्तीन में लगभग दो हज़ार वर्षों से रह रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद यहूदी अब भी दावा करते हैं कि फ़िलिस्तीन उनके पूर्वजों की विरासत है, जो ईश्वर ने उन्हें दी है। और उन्हें यह अधिकार है कि वे इस विरासत को बलपूर्वक ले लें और उस क्षेत्र के प्राचीन निवासियों को बाहर निकाल दें और उनके स्थान पर स्वयं बस जाएँ, जैसा कि उन्होंने ईसा से तेरह सौ वर्ष पहले किया था।
दो हज़ार वर्षों से, दुनिया भर के यहूदी सप्ताह में चार बार यह प्रार्थनाएँ करते आ रहे हैं कि बैतुल-मक़दिस फिर हमारे हाथ आए और हम हैकले सुलैमानी का पुनर्निर्मान करें। प्रत्येक यहूदी घर में, धार्मिक समारोहों के अवसर पर, इस इतिहास का पूरा नाटक खेला जाता रहा है, कि हम मिस्र से कैसे निकले और फ़िलिस्तीन में कैसे बसे और बेबीलोनियन हमें कैसे ले गए और फ़िलिस्तीन से हमें कैसे निकाला गया और हम कैसे तितर-बितर हो गए। इस तरह 20 सदियों से यहूदी बच्चों के मन-मस्तिष्क में यह बैठाया जा रहा है कि फ़िलिस्तीन हमारा है और हमको इसे वापस पाना है और तुम्हारे जीवन का उद्देश्य बैतुल-मक़दिस में हैकले-सुलैमानी का पुनर्निर्माण करना है। बारहवीं शताब्दी ईस्वी के प्रसिद्ध यहूदी दार्शनिक मूसा बिन मैमोन (MAIMON IDES) ने अपनी पुस्तक "द कोड ऑफ ज्यूइश लॉ" में स्पष्ट रूप से लिखा है कि बैतुल-मक़दिस में सोलोमन-टेम्पल का पुनर्निर्माण करना प्रत्येक यहूदी का कर्तव्य है। फ्रीमैसन आंदोलन (FREMASON MOVEMENT), जिसके बारे में हमारे देश के अख़बारों में लगभग सभी तथ्य प्रकाशित हो चुके हैं, वास्तव में एक यहूदी आंदोलन है और इसमें भी हैकले-सुलैमानी के पुनर्निर्माण को लक्ष्य घोषित किया गया है। संपूर्ण फ्रीमैन आंदोलन की केंद्रीय अवधारणा यही है। सभी फ्रीमेसन लॉज में इसके बारे में नियमित नाटक होता है कि सोलोमन-टेम्पल का पुनर्निर्माण कैसे किया जाए। इस से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि अल-अक़सा मस्जिद में आग लगना कोई दुर्घटना नहीं है। सदियों से, यहूदी लोगों के जीवन का लक्ष्य यही रहा है कि वे अल-अक़सा मस्जिद की जगह पर सोलोमन-टेम्पल का निर्माण करें। और अब जब उन्होंने बैतुल-मक़दिस पर क़ब्ज़ा कर लिया है, तो यह संभव नहीं है कि वे इस उद्देश्य को पूरा करने की कोशिश न करें।
यहूदियों की कृतघ्नता
आगे बढ़ने से पहले मैं एक और बात को स्पष्ट कर देना ज़रूरी समझता हूं कि इतिहास से यह साबित है कि 70 ई. में हैकले-सुलैमानी को पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया था और जब हज़रत उमर के समय में बैतुल-मक़दिस पर विजय प्राप्त की गई थी, तो वहां यहूदियों का कोई उपासनागृह नहीं था, बल्कि वहाँ खंडहर थे। इसलिए, अल-अक़सा मस्जिद और डोम ऑफ द रॉक के निर्माण के बारे में कोई भी यहूदी यह आरोप नहीं लगा सकता कि मुसलमानों ने उनके किसी मंदिर को नष्ट करके इन मस्जिदों का निर्माण किया था। इतिहास से यह भी सिद्ध है कि रोमनों के समय में फ़िलिस्तीन को यहूदियों से ख़ाली करा दिया गया था और बैतुल-मक़दिस में उनके प्रवेश पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था। यह मुसलमानों का बड़प्पन था कि उन्होंने फिर उन्हें वहां रहने और बसने की इजाज़त दे दी। इतिहास इस बात का भी गवाह है कि पिछली तेरह-चौदह शताब्दियों में यहूदियों को अगर कहीं शांति प्राप्त हुई है तो केवल मुस्लिम देशों में ही हुई है। अन्यथा, दुनिया के हर हिस्से में, जहां भी ईसाइयों का शासन था, वे उत्पीड़न का निशाना बनते रहे। यहूदियों के स्वयं के इतिहासकार स्वीकार करते हैं कि उनके इतिहास का सबसे गौरवशाली काल वह था जब वे अंडालूसिया में मुसलमानों की प्रजा के रूप में बसे हुए थे।
विलाप की यह दीवार, जिसे आज यहूदी अपना सबसे पवित्र स्मारक मानते हैं, यह भी मुसलमानों ही की कृपा से उन्हें मिली थी। बॉम्बे से प्रकाशित इस्राईली सरकार का एक आधिकारिक बुलेटिन "न्यूज़ फ्रॉम इस्राईल" के 1 जुलाई, 1967 के संस्करण में कहा गया है कि विलाप की दीवार पहले मलबे और कचरे में दबी हुई थी और उसका कोई निशान भी दिखाई नहीं देता था। 16वीं शताब्दी ईस्वी में, सुल्तान सलीम उस्मानी को संयोगवश उसके अस्तित्व के बारे में पता चला और उन्होंने इस जगह को साफ़ करा दिया और यहूदियों को वहां जाने की अनुमति दे दी। लेकिन यहूदी इतने कृतघ्न लोग हैं कि वे मुसलमानों की शराफ़त, उदारता और दयालुता का इस तरह बदला दे रहे हैं।
यहूदियों की योजनाबंदी
अब मैं आपको संक्षेप में बताऊंगा कि उन अत्याचारियों ने किस तरह फ़िलिस्तीन और बैतुल-मक़दिस पर कब्ज़ा करने के लिए योजनाबद्ध तरीक़े से काम किया है। सबसे पहले उन्होंने अलग-अलग इलाकों से यहूदियों को लाकर फ़िलिस्तीन में बसाने और वहां ज़मीन ख़रीदने का आंदोलन शुरू किया। तो यह प्रवास 1880 से शुरू हुआ और ज़्यादातर पूर्वी यूरोप से यहूदी परिवार वहाँ आने लगे। उसके बाद, प्रसिद्ध यहूदी नेता थियोडोर हर्ज़ल ने 1897 में ज़ायोनी आंदोलन शुरू किया और इसका उद्देश्य फ़िलिस्तीन पर फिर से कब्ज़ा करना और हैकले-सुलैमानी का निर्माण करना ठहराया गया। यहूदी पूंजीपतियों ने बड़े पैमाने पर वित्तीय सहायता प्रदान की ताकि फ़िलिस्तीन में प्रवास करने वाले यहूदी परिवार ज़मीन ख़रीद सकें और व्यवस्थित रूप से वहां अपनी बस्तियां स्थापित कर सकें। फिर 1901 में, हर्ज़ल ने नियमित रूप से सुल्तान अब्दुल-हमीद खान (तुर्की के सुल्तान) को एक संदेश भेजा कि यहूदी तुर्की के सभी ऋणों का भुगतान करने के लिए तैयार हैं, आप फ़िलिस्तीन को यहूदियों के लिए राष्ट्रीय मातृभूमि बनने की अनुमति दे दें। लेकिन सुलतान अब्दुल हमीद ख़ान ने उस संदेश पर साफ़ कह दिया कि "जब तक मैं जीवित हूं और जब तक तुर्की साम्राज्य मौजूद है, तब तक इसकी कोई संभावना नहीं है कि फ़िलिस्तीन यहूदियों को सौंप दिया जाए।"
जिस व्यक्ति के हाथ यह संदेश भेजा गया था उसका नाम था, कारासु आफंदी। यह सालोनिका का एक यहूदी निवासी था और उन यहूदी परिवारों में से था, जो स्पेन से निष्कासन के बाद तुर्की में बस गए थे। तुर्की की प्रजा होने के बावजूद, उसने सुल्तान को तुर्की दरबार में आकर फ़िलिस्तीन को यहूदियों को सौंपने की मांग करने का दुस्साहस किया। इतना ही नहीं, बल्कि सुलतान अब्दुल हमीद ख़ान का जवाब सुनकर उसने हर्जल की ओर से उन्हें साफ तौर पर धमकी भी दी गई कि तुम इसका बुरा नतीजा भुगतोगे। उसके तुरंत बाद, सुल्तान अब्दुल-हमीद के शासन को उखाड़ फेंकने की साजिशें शुरू हो गईं, जिनमें फ्रीमैसन, डुनमा (यह वे यहूदी पाखंडी थे जिन्होंने दिखावे के लिए इस्लाम स्वीकार कर लिया था। तुर्क उन्हें डुनमा कहते थे।) और वे मुस्लिम युवा शरीक थे, जो पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में तुर्की राष्ट्रवाद के अग्रदूत बने बैठे थे। इन लोगों ने तुर्की सेना में अपना प्रभाव फैलाया और सात वर्षों के भीतर उनकी योजनाएँ सुल्तान अब्द अल-हामिद को पदच्युत करने की हद तक परिपक्व हो गईं। इस अवसर पर जो सबसे शिक्षाप्रद घटना घटी थी, वह यह थी कि 1908 में जो तीन व्यक्ति सुल्तान को अपदस्त करने का परवाना लेकर उनके पास गए थे, उनमें से दो तुर्क थे और तीसरा वही रब्बी कारासु आफंदी था, जिसके हाथों हर्ज़ल ने फ़िलिस्तीन को यहूदियों के हवाले करने की माँग सुल्तान को भेजी थी। आप मुसलमानों की बेग़ैरती का अंदाज़ा इस से लगा सकते हैं कि वे अपने सुल्तान को अपदस्त करने का परवाना भी भेजते हैं तो एक यहूदी के हाथों, जो केवल सात साल पहले फ़िलिस्तीन यहूदियों को सौंपने की मांग लेकर उसी सुल्तान के पास गया था। और उनसे तीखी प्रतिक्रिया सुन कर आया था। जरा कल्पना कीजिए कि सुल्तान के दिल पर क्या गुजरी होगी जब वही यहूदी उनके तख़्तापलट का परवाना लेकर उनके सामने खड़ा था।
तुर्की और अरब राष्ट्रवाद का टकराव
उसी समय एक और षड़यंत्र जोर-शोर से चल रहा था, जिसका उद्देश्य तुर्की साम्राज्य को नष्ट करना था और उस षडयंत्र में पश्चिमी राजनेताओं के साथ-साथ यहूदी दिमाग भी शुरू से ही काम कर रहा था। एक ओर, तुर्कों के बीच यह आंदोलन खड़ा गया कि वे सरकार की नींव इस्लामी भाईचारे के बजाय तुर्की राष्ट्रवाद पर रखें। हालाँकि, तुर्की साम्राज्य में केवल तुर्क ही नहीं रहते थे, बल्कि अरब, कुर्द और अन्य जातियों के मुसलमान भी रहते थे। ऐसे साम्राज्य को तुर्की राष्ट्र का साम्राज्य घोषित करने का अर्थ केवल यह था कि सभी गैर-तुर्की मुसलमानों की सहानुभूति उससे ख़त्म हो जाए। दूसरी ओर, अरबों को अरब राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाया गया और उनके मन में यह बिठाया गया कि उन्हें तुर्कों की गुलामी से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए। अरबों में, अरब राष्ट्रवाद का विष घोलने वाले ईसाई अरब थे। बेरूत उसका केंद्र था और बेरूत का अमेरिकी विश्वविद्यालय उसके विकास का माध्यम बना हुआ था। इस प्रकार तुर्कों और अरबों में एक साथ दो परस्पर विरोधी प्रकार के राष्ट्रवाद खड़े किए गए और उन्हें इस हद तक भड़काया गया कि जब 1914 में प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया तो तुर्क और अरब मित्र बनने के बजाय शत्रु और खून के प्यासे बन कर आमने-सामने खड़े हो गए।
प्रथम विश्व युद्ध और बाल्फोर घोषणा
प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत में यहूदियों ने जर्मन सरकार से मामला करना चाहते थे, क्योंकि उस समय जर्मनी में यहूदी उतने ही मजबूत थे जितने आज अमेरिका में हैं। उन्होंने सीज़र विलियम से यह वादा लेने की कोशिश की कि वह फ़िलिस्तीन को यहूदियों का राष्ट्र बनवा देगा। लेकिन यहूदी उस पर ऐसा करने के लिए भरोसा नहीं कर सके, इसका कारण यह था कि तुर्की सरकार उस समय युद्ध में जर्मनी की सहयोगी थी। यहूदियों को विश्वास नहीं था कि सीज़र विलियम हमसे यह वादा पूरा कर सकेगा। इस अवसर पर डॉ वेइज़मैन ने आगे बढ़कर ब्रिटिश सरकार को आश्वासन दिया कि युद्ध में सारी दुनिया के यहूदियों की पूंजी और सारी दुनिया के यहूदियों का दिमाग तथा उनकी सारी ताकत और क्षमता इंग्लैंड और फ्रांस के पक्ष में आ सकती है, अगर आप हमें आश्वस्त करें कि आप विजयी होंगे तो फ़िलिस्तीन को यहूदियों का राष्ट्र बना देंगे। डॉ. वेइज़मैन उस समय यहूदी राष्ट्रीय मातृभूमि आंदोलन का अग्रणी था। आख़िरकार, 1917 में, उसने ब्रिटिश सरकार से वह प्रसिद्ध अनुमतिपत्र प्राप्त कर लिया, जिसे बाल्फ़ोर घोषणा के नाम से जाना जाता है। यह अंग्रेजों की बदनीयती का नमूना है कि एक तरफ वे अरबों को आश्वासन दे रहे थे कि हम अरबों का एक स्वतंत्र राज्य बनाएंगे और इस उद्देश्य के लिए उन्होंने शरीफ़ हुसैन को एक लिखित वादा दे दिया था और उस वादे के आधार पर अरबों ने तुर्कों के ख़िलाफ़ विद्रोह करके फ़िलिस्तीन और इराक़ तथा सीरिया पर कब्ज़ा कर लिया। दूसरी ओर, अंग्रेज नियमित रूप से यहूदियों को लिख रहे थे कि हम फ़िलिस्तीन को यहूदियों का राष्ट्र बनाएंगे। यह इतनी बड़ी बेईमानी थी कि जब तक संसार में अंग्रेज क़ौम मौजूद रहेगी, वह अपने इतिहास से इस कलंक का दाग नहीं मिटा पायहगी।
फिर ज़रा विचार करें कि फ़िलिस्तीन को यहूदियों का राष्ट्र बनाने का आख़िरी अर्थ क्या था? क्या फ़िलिस्तीन एक ख़ाली ज़मीन थी जिस पर एक राष्ट्र को बसाने का वादा किया गया था? वहाँ एक राष्ट्र ढाई हजार वर्षों से रहता चला आ रहा था। बाल्फोर घोषणा के समय वहां यहूदियों की जनसंख्या पाँच प्रतिशत भी नहीं थी। ऐसे देश के बारे में ग्रेट ब्रिटेन साम्राज्य के विदेश मंत्री लिखित वादा कर रहे थे कि एक राष्ट्र की मातृभूमि में दूसरे राष्ट्र की मातृभूमि बनेगी, जो 19 सौ वर्षों से दुनिया भर में बिखरी हुई है। इसका स्पष्ट अर्थ यह था कि मानो यह वादा किया जा रहा हो कि हम तुमको अवसर देंगे अरबों की जिस मातृभूमि पर हमने अरबों की मदद से क़ब्ज़ा किया है, उससे तुम उन्हीं अरबों को बाहर निकाल दो, और उनकी जगह दुनिया के कोने-कोने से अपने लोगों को लाकर बसा दो। यह एक ऐसा अत्याचार था जिसकी मिसाल पूरे मानव इतिहास में नहीं मिल सकती। घाव पर नमक छिड़कने वाली बात यह है कि लॉर्ड बालफोर ने इस पत्र के बारे में अपनी डायरी में यह शब्द लिखे थे :
हमें फ़िलिस्तीन के बारे में कोई निर्णय लेते समय वहां के वर्तमान निवासियों से कुछ भी पूछने की ज़रूरत नहीं है। ज़ायोनिज़्म हमारे लिए उन सात मिलियन अरबों की इच्छाओं और पूर्वाग्रहों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है जो उस प्राचीन भूमि पर इस समय निवास करते हैं।"
बाल्फोर की डायरी के यह शब्द आज भी ब्रिटिश नीति दस्तावेजों (डॉक्यूमेंट्स ऑफ ब्रिटिश पॉलिसी) के दूसरे खंड में पंजीकृत हैं ।
राष्ट्रसंघ की कार्रवाई
फ़िलिस्तीन पर ब्रिटिश क़ब्ज़े और लॉर्ड बालफोर की घोषणा ने यहूदियों के दीर्घकालिक क़ब्ज़े का पहला चरण पूरा कर दिया। इस चरण को पूरा होने में 1880 से 1917 तक 37 वर्ष लगे। फिर परियोजना का दूसरा चरण शुरू हुआ, जिसमें राष्ट्रसंघ और उसकी दो प्रमुख शक्तियों, ब्रिटेन और फ्रांस ने इस तरह काम किया मानो वे स्वतंत्र साम्राज्य नहीं थे, बल्कि ज़ायोनी आंदोलन के एजेंट मात्र थे। 1922 में राष्ट्रसंघ ने निर्णय लिया कि फ़िलिस्तीन को अंग्रेज़ों के मैंडेट में दे दिया जाए। इसका मतलब यह हुआ कि राष्ट्रसंघ द्वारा ब्रिटेन को यह ज़िम्मेदारी सौंपी गई ब्रिटेन वहाँ विशेष शर्तों के तहत शासनादेश जारी करे।
उस अवसर पर फ़िलिस्तीन में हुई जनगणना में 660,641 मुस्लिम (अरब), 71,464 ईसाई (अरब) और 82,790 यहूदी थे। वहां यहूदियों की इतनी आबादी इसलिए थी क्योंकि वे झुंड के झुंड आकर वहां बस रहे थे। (1917 में यहूदियों की जनसंख्या केवल 56 हज़ार थी, केवल पाँच वर्षों के भीतर वह बढ़कर लगभग 83 हज़ार हो गई।) इस पर भी राष्ट्रसंध ने ब्रिटेन को अनुमतिपत्र देते हुए पूरी बेशर्मी से निर्देश दिया कि फ़िलिस्तीन को यहूदियों का राष्ट्र बनाने के लिए सभी सुविधाएँ प्रदान करने की ज़िम्मेदारी उसकी होगी। ज़ायोनी संगठन को आधिकारिक तौर पर मान्यता देकर उसे प्रबंधन में भागीदार बनाए और उसकी सलाह और सहयोग से यहूदी राष्ट्र के प्रस्ताव को लागू करे। इसके साथ ही वहां के प्राचीन एवं मूल निवासियों के बारे में केवल यह निर्देश दिया गया कि उनके धार्मिक एवं नागरिक अधिकारों की रक्षा की जाए। इसमें राजनीतिक अधिकारों का कोई जिक्र नहीं था। यह राष्ट्रसंघ का न्याय था जिसे विश्व में शांति स्थापित करने के नाम पर अस्तित्व में लाया गया था। उसने यहूदियों को बाहर से लाकर बसाने वालों को तो राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी दिलवा दी और देश के मूल निवासियों को इस लायक भी नहीं समझा कि उनके राजनीतिक अधिकारों के नाममात्र भी उल्लेख कर दिया जाता। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि यहूदियों ने उस समय की प्रमुख सरकारों और राष्ट्रसंघ में कितना प्रभाव पैदा कर लिया था, जिसकी बदौलत फ़िलिस्तीन को ब्रिटिश मैनडेट में देते समय यह निर्देश जारी किए गए थे।
ब्रिटिश मैनडेट की उपलब्धि
यह मैनडेट मिलने के बाद यहूदियों को फ़िलिस्तीन में लाकर बसाने का सिलसिला शुरू कर दिया गया। फ़िलिस्तीन का पहले ब्रिटिश उच्चायुक्त सर हरबर्ट सैमुएल स्वयं एक यहूदी था। ज़ायोनी संगठन को व्यावहारिक रूप से सरकारी प्रबंधन में शामिल किया गया और न केवल शिक्षा और कृषि विभाग उसे सौंपे गए, बल्कि विदेशों से लोगों के प्रवेश, यात्रा और राष्ट्रीयता के मामले भी उसे ही सौंपे दिए गए। ऐसे कानून बनाए गए जिनके द्वारा बाहरी यहूदियों को फ़िलिस्तीन में आने और ज़मीनें हासिल करने की पूरी सुविधा दी गई। इसके अलावा, उन्हें भूमि पर खेती करने के लिए ऋण और अन्य सुविधाएं भी प्रदान की गईं। अरबों पर भारी टैक्स लगाए गए और अदालतें टैक्सों की बकाया राशि के लिए किसी न किसी बहाने से भूमि ज़ब्त करने की डिक्रियां देने लगीं। ज़ब्त की गई ज़मीनें यहूदियों को बेच दी गईं और सरकारी ज़मीनों का बड़ा हिस्सा यहूदी निवासियों को दे दिया गया, कभी मुफ़्त और कभी नाममात्र के पट्टे पर। कुछ स्थानों पर किसी न किसी बहाने पूरे गाँवों को साफ़ कर दिया गया और वहाँ यहूदी बस्तियाँ स्थापित की गईं। एक क्षेत्र में, 8,000 अरब किसानों और कृषि श्रमिकों को 50,000 एकड़ भूमि से बेदख़ल कर दिया गया। और उनमें से प्रत्येक को तीन पाउंड और दस शिलिंग देकर चलता कर दिया गया। इन उपायों से सत्रह वर्षों में यहूदी जनसंख्या में असाधारण वृद्धि हुई। 1922 में, उनकी संख्या बयासी हजार से कुछ अधिक थी। 1939 में उनकी संख्या साढ़े चार लाख तक पहुँच गयी। इससे स्पष्ट है कि अंग्रेज़ फ़िलिस्तीन में केवल ज़ायोनिज़्म की सेवा करते रहे और उनकी अंतरात्मा ने एक दिन भी उन्हें यह एहसास नहीं होने दिया कि किसी देश की सरकार पर उसके मूल निवासियों के भी कुछ अधिकार होते हैं, जिन की रक्षा करना उसकी नैतिक ज़िम्मेदारी है।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मामला इस से बहुत आगे बढ़ गया। हिटलर के अत्याचारों से भागकर यहूदी हर वैध-अवैध तरीक़े से फ़िलिस्तीन में प्रवेश करने लगे। ज़ायोनी एजेंसी ने उनमें से हजारों और लाखों को फ़िलिस्तीन में भेजना शुरू कर दिया और सशस्त्र संगठनों की स्थापना की, जिन्होंने अरबों को बाहर निकालने और उनकी जगह यहूदियों को लाने के लिए हर जगह उत्पात मचाना शुरू कर दिया। ब्रिटिश प्रशासन की नाक के नीचे यहूदियों को हर तरह के हथियार पहुंच रहे थे और वे अरबों पर हमले कर रहे थे। लेकिन यह क़ानून केवल अरबों के लिए था, जो उन्हें हथियार रखने और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ अपनी रक्षा करने से रोकता था। हालाँकि, ब्रिटिश सरकार उन अरबों को पुनर्वास सुविधाएँ प्रदान करने में बहुत उदार थी जो अपनी जान बचाकर भाग रहे थे। इस प्रकार, 1917 से 1947 तक 30 वर्षों के भीतर, यहूदी परियोजना का दूसरा चरण पूरा हो गया, जिसमें वे इस पोज़ीशन में आ गए कि फ़िलिस्तीन को यहूदियों की राष्ट्रीय मातृभूमि बनाने के बजाय फ़िलिस्तीन में उनका राष्ट्रीय राज्य स्थापित कर दें।
"राष्ट्रीय मातृभूमि" से "राष्ट्र राज्य" तक।
1947 में ब्रिटिश सरकार ने फ़िलिस्तीन का मुद्दा संयुक्तराष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत किया। इसका मतलब था कि हमने राष्ट्रसंघ द्वारा हमें सौंपी गई सेवा पूरी कर ली है। अब इस दिवंगत सभा का नया उत्तराधिकारी संयुक्तराष्ट्र आगे का काम करेगा। अब देखिए कि दुनिया में शांति और न्याय की स्थापना के अग्रदूत के रूप में उभरे इस दूसरे संघ ने फ़िलिस्तीन में न्याय की स्थापना कैसे की।
नवंबर 1947 में, संयुक्तराष्ट्र महासभा ने फ़िलिस्तीन को यहूदियों और अरबों के बीच विभाजित करने का निर्णय लिया। यह निर्णय किस तरह लिया गया? इसके पक्ष में 33 और विरोध में 13 वोट पड़े। 10 देशों ने मतदान नहीं किया। यह न्यूनतम बहुमत था जिसके द्वारा महासभा में कोई प्रस्ताव पारित किया जा सकता था। कुछ दिन पहले तक इस प्रस्ताव के पक्ष में इतना बहुमत भी नहीं था। केवल 3 देश ही उलके पक्ष में थे। आख़िरकार, संयुक्त राज्य अमेरिका ने हाइती, फ़िलिपींस और लाइबेरिया को उसका समर्थन करने के लिए मजबूर करने के लिए असाधारण दबाव डाला। यह स्वयं अमेरिकी कांग्रेस के रिकॉर्ड पर है कि ये तीन वोट जबरन प्राप्त किए गए थे। जेम्स फॉरेस्टल अपनी डायरी में लिखता है:
“इस मामले में दूसरे देशों पर दबाव डालकर वोट देने के लिए मजबूर करने के जो तरीक़े अपनाए गए वो शर्मनाक कार्रवाई (स्कैंडल) की हद तक पहुंचे हुए थे।"
इन युक्तियों द्वारा पारित विभाजन प्रस्ताव के अनुसार फ़िलिस्तीन का 55% क्षेत्र 33% यहूदी आबादी को दिया गया, और 45% क्षेत्र 67% अरब आबादी को दिया गया। हालाँकि, उस समय तक फ़िलिस्तीन की केवल छह प्रतिशत भूमि ही यहूदियों के कब्ज़े में आई थी। यह था संयुक्तराष्ट्र का न्याय!
लेकिन यहूदी इस बंदरबांट से भी संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने अरबों को खदेड़ना और देश के अधिकाधिक हिस्से पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया। इस संबंध में अर्नाल्ड टाइनबी अपनी पुस्तक (ए स्टडी ऑफ हिस्ट्री) में अरबों पर किए गए अत्याचारों के बारे में कहते हैं कि वे यहूदियों पर नाजियों द्वारा किए गए अत्याचारों से किसी भी तरह से कम नहीं थे। उन्होंने विशेष रूप से 9 अप्रैल 1948 को दैरे-यासीन में हुए नरसंहार का उल्लेख किया है, जिसमें अरब महिलाओं, बच्चों और पुरुषों को बेरहमी से मार दिया गया था, अरब महिलाओं और लड़कियों को सड़कों पर नग्न घुमाया गया था, और यहूदियों ने मोटरगाड़ियों पर लाउडस्पीकर लगाकर जगह-जगह यह घोषणा की थी कि "हमने दैरे-यासीन की अरब आबादी के साथ ऐसा और वैसा किया है। अगर तुम नहीं चाहते कि तुम्हारे साथ भी ऐसा ही कुछ हो, तो यहां से निकल जाओ।" हर कोई सोच सकता है कि क्या यह उस राष्ट्र की उपलब्धि हो सकती है जिसमें लेश मात्र भी शराफ़त और मानवता मौजूद हो?
इन परिस्थितियों के दौरान, 14 मई, 1948 को, जब संयुक्त राष्ट्र महासभा फिर से फ़िलिस्तीन के मुद्दे पर बहस कर रही थी, यहूदी एजेंसी ने रात के दस बजे आधिकारिक तौर पर इसराईली राज्य की स्थापना की घोषणा कर दी, और सब से पहले अमेरिका और रूस ने आगे बढ़कर उसे मान्यता दे दी। हालांकि उस समय तक संयुक्तराष्ट्र ने यहूदियों को फ़िलिस्तीन में अपना राष्ट्रीय राज्य स्थापित करने के लिए अधिकृत नहीं किया था। इस घोषणा के समय तक, 600,000 से अधिक अरबों को उनके घरों से खदेड़ दिया गया था, और संयुक्तराष्ट्र की सिफ़ारिशों के विपरीत, इस्राईल ने बैतुल-मक़दिस के आधे से अधिक भाग पर क़ब्ज़ा कर लिया था।
इस्राईल राज्य की स्थापना की घोषणा के बाद, असहाय अरब आबादी को हिंसा और लूटपाट से बचाने के लिए आस-पास के अरब राज्यों ने हस्तक्षेप किया और उनकी सेनाएं फ़िलिस्तीन में प्रवेश कर गई। लेकिन उस समय तक यहूदी इतने शक्तिशाली हो चुके थे कि सभी राज्य मिलकर भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे। इसके विपरीत, जब नवंबर 1948 में संयुक्तराष्ट्र ने युद्धविराम का निर्णय लिया, तो उस समय तक फ़िलिस्तीन के 77% से कुछ अधिक क्षेत्र पर यहूदियों का कब्ज़ा हो चुका था। प्रश्न यह है कि यहूदियों को इतनी युद्ध शक्ति किसने प्रदान की कि पांच अरब राज्यों की संयुक्त शक्ति भी उनका सामना नहीं कर सकी? पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ने इस शक्ति के प्रावधान में योगदान दिया, और युद्ध के लिए अधिकांश हथियार चेकोस्लोवाकिया से आए, जो आज खुद उत्पीड़न झेल रहा है। उस समय संयुक्त राष्ट्र में जो बहसें हुईं उनके रिकार्ड इस बात के प्रमाण हैं कि यहूदियों के समर्थन में और अरबों के विरोध में, पश्चिमी पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों के प्रणेता एक-दूसरे से आगे बढ़ जाने की होड़ में लगे हुए थे , और यह कहना मुश्किल था कि उनमें से कौन अधिक यहूदियों का ज़्यादा समर्थक है।
यहूदी परियोजना का तीसरा चरण
उसके बाद, यहूदी परियोजना का तीसरा चरण शुरू हुआ, जो 19 साल के भीतर जून 1967 के युद्ध में बैतुल-मक़दिस और शेष फ़िलिस्तीन और पूरे सिनाई प्रायद्वीप और सीरियाई सीमा की ऊपरी पहाड़ियों पर इस्राईल के क़ब्ज़े के साथ पूरा हुआ। नवंबर 1948 में इस्राईल राज्य का क्षेत्रफल 7,993 वर्ग मील था। जून 1967 के युद्ध में उसमें 27,000 वर्ग मील क्षेत्र और जुड़ गया और 14-15 लाख अरब लोग यहूदियों के गुलाम बन गए। इस स्तर पर इस्राईल की योजना की सफलता का मुख्य कारण यह है कि सबसे बढ़कर, अमेरिका उसका समर्थक, सहयोगी और संरक्षक बना रहा। ब्रिटेन और फ्रांस तथा अन्य पश्चिमी देश भी उसका भरपूर समर्थन करते रहे। रूस और उसका पूरा पूर्वी ब्लॉक कम से कम 1955 तक इसका समर्थक बना रहा और बाद में अगर उसने अपनी नीति बदली भी तो वह अरब देशों के बजाय इसराईल के लिए उपयोगी साबित हुई। 1955 में जब अरब देश इस बात से पूरी तरह निराश हो गए कि वे इसराईल से अपनी रक्षा के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों से हथियार प्राप्त कर सकेंगे, तो उन्हें मजबूरी में साम्यवादी गुट की ओर रुख़ करना पड़ा और इस गुट के देशों ने इस प्रलोभन में उन्हें हथियार देना शुरू कर दिया ताकि उन्हें अरब देशों में साम्यवाद फैलाने और उन्हें अपने प्रभाव में लाने का अवसर मिले। परिणामस्वरूप, ऐसा तो नहीं हो सका कि अरब देश इसराईल से मुक़ाबला कर सकें, लेकिन यह ज़रूर हुआ कि रूस को मिस्र और सीरिया से लेकर यमन तक और इराक़ से लेकर अल्जीरिया और अरब देशों तक अपना प्रभाव फैलाने का अवसर मिल गया। रुढ़िवाद और प्रगतिवाद के बीच संघर्ष इतना बढ़ गया कि वे इसराईल से निपटने के बजाय एक-दूसरे से उलझ कर रह गए।
19 साल की इस अवधि में अमेरिका ने इसराईल को एक अरब साठ करोड़ डॉलर की आर्थिक मदद दी। उन्हें पश्चिमी जर्मनी से 82 मिलियन डॉलर की फिरौती दिलवाई गई। और दुनिया भर के यहूदियों ने दो अरब डॉलर से ज्यादा का चंदा देकर उसकी आर्थिक स्थिति मज़बूत की। युद्ध के लिए उसे सर से पांव तक हथियारों से इस तरह लैस कर दिया गया कि जून 1967 के युद्ध से पहले ही अमेरिकी विशेषज्ञों का अनुमान था कि यह सिर्फ चार से पांच दिनों में अपने आस-पास के सभी अरब राज्यों को अपनी चपेट में ले लेगा। राजनीतिक रूप से, अमेरिका और उसके सहयोगियों ने हर अवसर पर उसका समर्थन किया, और उसके समर्थन के कारण, संयुक्तराष्ट्र उसके उत्पातों का कोई समाधान नहीं कर सका। नवंबर 1947 से 1957 तक संयुक्तराष्ट्र के 28 प्रस्ताव वह उसके मुंह पर मार चुका था। सितम्बर 1948 से नवम्बर 1966 तक सात बार संयुक्तराष्ट्र ने उसके विरूद्ध निंदा प्रस्ताव पारित किया, लेकिन उसके कान पर जूं तक नहीं रेंगी। उसकी उद्दंडता का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि जून 1967 के युद्ध के बाद जब महासभा का सत्र शुरू होने वाला था तो इस्राईली प्रधानमंत्री लेवी एशकोल ने सार्वजनिक रूप से कहा कि संयुक्त राष्ट्र के 122 सदस्यों में से अगर 121 फ़ैसला दे दें और केवल इस्राईल का अपना वोट ही हमारे पक्ष में रह जाए, तब भी हम अपने विजित प्रदेशों को नहीं छोड़ेंगे। यह सब कुछ इसी लिए है कि अमेरिका और उसके साथियों के समर्थन के बल पर इस्राईल सारी दुनिया की राय को ठोकरों पर मारता है। और संयुक्तराष्ट्र उसके आगे बिल्कुल विवश है।
अमेरिका की दिलचस्पी इसराईल के साथ कितनी बढ़ गई है, यह जानने के लिए आप जून 1967 के युद्ध के मौके पर उसके द्वारा अपनाए गए रवैये पर एक नज़र डाल लें। युद्ध से एक सप्ताह पहले, अमेरिकी सेना के ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ के अध्यक्ष जनरल व्हीलर ने राष्ट्रपति जॉनसन को आश्वासन दिया था कि यदि इस्राईल ने पहले सफल हवाई हमला कर दिया, तो वह अधिकतम तीन से चार दिनों के भीतर अरबों को मार लेगा। लेकिन इस रिपोर्ट पर भी मिस्टर जॉनसन पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो सके और उन्होंने CIA प्रमुख रिचर्ड हेलिस (HELMS) से रिपोर्ट मांगी। जब उन्होंने भी व्हीलर के अनुमानों की पुष्टि की, तो जॉनसन ने रूस का रुख किया और संतुष्टि प्राप्त की कि वह अरबों की मदद के लिए व्यावहारिक रूप से हस्तक्षेप नहीं करेगा। उसके बाद इसराईल को आकाशवाणी मिली कि अब अरबों पर हमला करने का सही समय है। इसके बाद बी अमेरिका का छठा नेवी बेड़ा मिस्र और इसराईल के तटों के पास अपनी पूरी ताकत के साथ तैयार खड़ा था कि जरूरत के समय काम आ सके।
ब्रिटेन के इस्राईल समर्थन का हाल यह था कि उसका एक विमानवाहक पोत माल्टा में और दूसरा अदन में तैनात था और एक मिनट के नोटिस पर इस्राईल की सहायता के लिए तैयार था। युद्ध के बाद, लंदन संडे टाइम्स ने एक पुस्तक प्रकाशित की, जिसका नाम था “द होली वार : जून 67” इसके एक अध्याय का शीर्षक है, “बैक आफ्टर 896 इयर्स”, यानी 896 वर्षों के बाद वापसी। "अब यह स्पष्ट है कि 896 साल पहले, बैतुल-मक़दिस पर से क्रूसेडर ईसाइयों का क़ब्ज़ा उठा था, न कि यहूदियों का। इसका सीधा अर्थ यह है कि अंग्रेजों की इसराईल के प्रति सहानुभूति में धर्मयुद्ध की भावना काम कर रही थी और वे इस युद्ध को धर्मयुद्ध का ही एक भाग मानते थे।
रूस की अरब मित्रता का आलम यह था कि जिस सुबह इसराईल मिस्र के हवाई अड्डों पर हमला करने वाला था, उसी रात रूस ने राष्ट्रपति नासिर को आश्वासन दिया था कि कोई हमला नहीं होने वाला है। अरबों के प्रति रूस के रवैये पर यूगोस्लाविया के एक राजनयिक की यह टिप्पणी बहुत शिक्षाप्रद है: "जब एक महाशक्ति तुम्हारा साथ छोड़ती है, तो वह तुमको बिना पैराशूट के हवाई जहाज से गिरा देती है।"
ये ही वे कारण हैं जिनकी वजह से यहूदियों की तीसरी योजना भी सफल रही और सिनाई प्रायद्वीप सहित पूरा फ़िलिस्तीन उनके हाथ आ गया।
यहूदियों की चौथी योजना
इस्लामी दुनिया अब जिस चीज़ का सामना कर रही है वह यहूदियों की चौथी और आखिरी परियोजना है, जिसके लिए वे दो हज़ार वर्षों से उत्सुक हैं और जिसके लिए वे 90 वर्षों से एक नियमित योजना के अनुसार काम कर रहे हैं।
इस योजना के दो मुख्य घटक हैं। पहला अल-अक़सा मस्जिद और डोम ऑफ द रॉक को ढहा कर हैकले-सुलैमानी का पुनर्निर्माण करना। क्योंकि इन दोनों पवित्र स्थानों को ध्वस्त किए बिना उसका निर्माण नहीं हो सकता। दूसरा उस पूरे क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करना जिसे इस्राईल अपनी विरासत मानता है। मैं चाहता हूं कि हर मुसलमान इस योजना के इन दोनों घटकों को अच्छी तरह समझ ले। जहाँ तक पहले घटक की बात है, इस्राईल उसे पूरा करने में तभी सक्षम हो गया था जब उसने बैतुल-मक़दिस पर कब्ज़ा कर लिया था। लेकिन दो कारणों से वह अब तक इस काम को रोके हुए है। एक कारण यह है कि वह और उसका संरक्षक अमेरिका इस्लामी जगत की कड़ी प्रतिक्रिया से आशंकित हैं। दूसरा यह कि यहूदियों के भीतर भी इस मुद्दे पर धार्मिक आधार पर मतभेद है। उनमें से एक समूह का मानना है कि हैकल का पुनर्निर्माण आने वाले मसीहा द्वारा ही किया जाएगा, हमें उनके आने तक इंतिज़ार करना चाहिए। यह उनके रूढ़िवादी समूह का विचार है। स्पष्ट हो कि मुसलमान और ईसाई तो हज़रत ईसा अलै. को मसीह मानते हौं, मगर यहूदी उनका इनकार करते हैं। वे अभी तक मसीहे- मौऊद (Promised Messiah) के आगमन का इंतिज़ार कर रहे हैं। उनका यह वादा किया हुआ मसीहा वही है, जिसे हदीस में पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल. ने मसीहे दज्जाल (एंटीक्राइस्ट) कहा है।
दूसरा, समूह जो आधुनिकतावादी है, और जो इस समय वास्तव में इस्राईल की सत्ता रखता है, कहता है कि प्राचीन बैतुल-मक़दिस और पश्चिमी दीवार पर कब्ज़ा कर लेने के बाद, हम मसीहा युग में प्रवेश कर चुके हैं। यह बात यहूदी सेना के प्रमुख रब्बी ने हाथ में तौरात लेकर उस दिन कही थी जब वह बैतुल-मक़दिस पर विजय प्राप्त करने के बाद विलाप की दीवार के सामने खड़ा था। (जैसे हमारी सेना के साथ इमाम होते हैं, वैसे ही यहूदी सेना के साथ रब्बी होते हैं, और उनके प्रमुख रब्बी इस्राईली सेना में ब्रिगेडियर जनरल का पद रखते हैं।) उसके शब्द ये थे, "आज हम यहूदी सम्प्रदाय के लिए मसीहा युग में प्रवेश कर रहे हैं।" इन्हीं दो कारणों से अल-अक़सा मस्जिद को अचानक तोड़ने के बजाय उसमें आग लगाई गई है, ताकि एक तरफ इस्लामी जगत की प्रतिक्रिया देख ली जाए और दूसरी तरफ यहूदी समुदाय को अंतिम कार्रवाई के लिए धीरे-धीरे तैयार किया जाए।
इस योजना का दूसरा भाग "विरासत की भूमि पर कब्ज़ा करना है। यह विरासत की भूमि क्या है? इसराईल की संसद के माथे पर यह शब्द खुदे हुए हैं:
"हे इस्राईल, तेरी सीमाएँ नील नदी से फ़रात तक हैं।"
इसराईल दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जिसने खुलेआम अपने संसद भवन पर दूसरे देशों पर क़ब्ज़ा करने का इरादा दर्ज कर रखा है। किसी अन्य देश ने इतने खुले तौर पर अपने आक्रामक इरादे व्यक्त नहीं किए हैं। ज़ायोनी आंदोलन द्वारा प्रकाशित योजना के मानचित्र के अनुसार, इस्राईल जिन क्षेत्रों पर कब्ज़ा करना चाहता है उनमें नील नदी तक मिस्र, पूरा जॉर्डन, पूरा सीरिया, पूरा लेबनान, अधिकांश इराक, तुर्की का दक्षिणी क्षेत्र और अपना दिल थाम कर सुनिए कि मदीना तक हिजाज़ का पूरा ऊपरी क्षेत्र इसमें शामिल है। यदि अरब जगत आज की तरह ही कमज़ोर रहा और यदि ईश्वर न करे, अल-अक़सा मस्जिद को जलाए जाने पर इस्लामी जगत की प्रतिक्रिया अधिक प्रभावी सिद्ध नहीं हो सकी, तो एक दिन हमें यह भी देखना होगा कि जब इस्लाम के दुश्मन अपने नापाक इरादों को पूरा करने के लिए आगे बढ़ेंगे।
तो अब क्या किया जाना चाहिए?
सज्जनों! मैंने इतने विस्तार से इसलिए बताया है कि इस मुद्दे का पूरी प्रकृति, संवेदनशीलता और महत्ता अच्छी तरह समझ में आ जाय।जो कुछ भी मैंने बयान किया है उस से कुछ बातें अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती हैं।
प्रथम तो यह कि यहूदी अब तक अपनी योजना में इस लिए सफल होते रहे हैं क्योंकि विश्व की महाशक्तियाँ उसकी समर्थक एवं सहायक रही हैं तथा भविष्य में उनके दृष्टिकोण में किसी परिवर्तन की सम्भावना नहीं है। खासकर जब तक उसे अमेरिका का समर्थन प्राप्त है, वह कोई भी बड़ा अपराध करने से नहीं चूक सकता।
दूसरे यह कि, संयुक्तराष्ट्र प्रस्ताव पारित करने से अधिक कुछ नहीं कर सकता। उसके पास इसराईल आपराधिक कार्रवाई करने से रोकने की शक्ति नहीं है।
तीसरे यह कि, अरब देशों की ताक़त इसराईल का मुक़ाबला करने के लिए बिल्कुल अपर्याप्त है। पिछले वर्षों के अनुभवों ने इसे पूरी तरह सिद्ध कर दिया है।
इन तथ्यों के सामने आने के बाद, न केवल अल-अक़सा मस्जिद, बल्कि मदीना को आने वाले ख़तरों से बचाने का एक ही रास्ता है, और वह यह है कि दुनिया भर के मुसलमानों की ताक़त इस यहूदी खतरे से लड़ने और इस्लाम को पवित्र स्थानों को स्थायी रूप से सुरक्षित करने के लिए इकट्ठी की जाए। अब तक यह ग़लती की जाती रही है कि फ़िलिस्तीनी मुद्दा को एक अरब मुद्दा बनाए रखा गया है। दुनिया के मुसलमान लम्बे समय से कहते आ रहे हैं कि यह इस्लाम और मुसलमानों की समस्या है, लेकिन कुछ अरब नेताओं का कहना है कि यह सिर्फ अरब की समस्या है। अब अल-अक़सा मस्जिद की त्रासदी से उनकी आंखें खुल गई हैं और उन्हें समझ में आ गया है कि ज़ायोनिज़्म की महान अंतरराष्ट्रीय साजिश सेलड़ना, जबकि दुनिया की महाशक्तियां भी उसका समर्थन करती हैं, अकेले अरबों के वश में नहीं है। अगर दुनिया में 1.6 करोड़ यहूदी एक शक्ति हैं तो 75 करोड़ मुसलमान भी एक शक्ति हैं। और उनकी 30-32 सरकारें वर्तमान समय में इंडोनेशिया से लेकर मोरक्को और पश्चिम अफ्रीका तक मौजूद हैं। यदि वे सब एक साथ बैठें और दुनिया के कोने-कोने में रहने वाले मुसलमान अपनी जान और अपने माल की बाज़ी लगाने को तैयार हो जाएं, तो इस समस्या को हल कर लेना ऐसा कठिन नहीं होगा।
इस संबंध में जो भी विश्व सम्मेलन आयोजित किया जाए, उसे अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि वास्तविक समस्या सिर्फ अल-अक़सा मस्जिद की सुरक्षा नहीं है। अल-अक़सा मस्जिद सुरक्षित नहीं रह सकती, जब तक बैतुल-मक़दिस यहूदियों के क़ब्ज़े में है। बैतुल-मक़दिस का पवित्र शहर भी सुरक्षित नहीं रह सकता है, जब तक फ़िलिस्तीन पर यहूदियों का क़ब्ज़ा है। इसलिए असली समस्या फ़िलिस्तीन को यहूदियों के दमनकारी क़ब्ज़े से आज़ाद कराना है। और इसका सीधा और स्पष्ट समाधान यह है कि केवल उन्हीं यहूदियों को वहां रहने का अधिकार है जो बाल्फोर घोषणा से पहले फ़िलिस्तीन में रहते थे। बाकी यहूदी जो 1917 के बाद से वहां आए और लाए गए हैं, उन्हें वापस जाना होगा। उन लोगों ने षड़यंत्र और जोर-जबरदस्ती से दूसरे राष्ट्र की मातृभूमि को जबरन अपना वतन बनाया, फिर उसे एक राष्ट्र-राज्य में बदल दिया और फिर विस्तार की आक्रामक योजनाएँ बनाकर आसपास के इलाकों पर भी क़ब्ज़ा करने का एक अंतहीन सिलसिला शुरू कर दिया, बल्कि अपनी संसद के माथे पर खुलेआम लिख दिया कि वह अपनी आक्रामकता के लिए किस-किस देश को निशाना बनाना चाहते हैं। ऐसे खुलेआम आक्रामक राज्य का अस्तित्व अपने आप में एक अपराध है और अंतरराष्ट्रीय शांति के लिए ख़तरा है। इस्लामिक दुनिया के लिए वह इसलिए भी ज़्यादा ख़तरा है क्योंकि उसके आक्रामक इरादों का निशाना मुसलमानों के पवित्र स्थल हैं। इस राज्य का अस्तित्व अब बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इसे ख़त्म होना ही चाहिए। फ़िलिस्तीन के मूल निवासियों का एक लोकतांत्रिक राज्य स्थापित किया जाना चाहिए जिसमें देश के पुराने यहूदी निवासियों को भी अरब मुसलमानों और ईसाइयों की तरह नागरिक अधिकार प्राप्त हों और बाहर से आए उन हड़पने वालों को निकल जाना चाहिए, जिन्होंने इस देश को जबरन यहूदी राष्ट्र बनाने का अपराध किया है।
इसके सिवा फ़िलिस्तीन समस्या का कोई और समाधान नहीं है। जहाँ तक अमेरिका का सवाल है, जो अपनी अंतरात्मा यहूदियों के हाथों में गिरवी रखकर और सभी नैतिक सिद्धांतों की अवहेलना करके उन अत्याचारियों का समर्थन कर रहा है, अब समय आ गया है कि दुनिया के सभी मुसलमानों उसको स्पष्ट रूप से अवगत कर दें कि अगर उसका रवैया इसी तरह का रहा, तो धरती पर वह एक भी मुसलमान ऐसा नहीं पाएगा जिसके हृदय में उसके लिए सद्भावना का लेशमात्र भी अंश शेष हो। अब वह खुद तय करले कि उसे यहूदियों के समर्थन में किस हद तक जाना है।
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