Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

फ़िक़्हे इस्लामी  : लेक्चर 3

फ़िक़्हे इस्लामी : लेक्चर 3

दो शब्द

मुहाज़रात (लेक्चर्स) के सिलसिले की यह तीसरी कड़ी पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करते हुए दिलो-दिमाग़ अल्लाह तआला के सामने शुक्र और इत्मीनान की भावनाओं से भरे हुए हैं। इस सिलसिले के पहले दो भाग मुहाज़राते-क़ुरआन और मुहाज़राते-हदीस के शीर्षक से इससे पहले प्रस्तुत किए गए थे। देश के विद्वानों और बुद्धिजीवियों ने इस तुच्छ लेखक को जिस प्रकार प्रोत्साहित किया उसके लिए मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ।

इस सिलसिले का आरम्भ मेरी मरहूमा बहन अज़रा नसीम फ़ारूक़ी (अल्लाह तआला उनको जन्नत नसीब करे) की इच्छा पर किया गया था। यह उन्ही की सच्ची लगन की बरकत थी कि अल्लाह तआला ने इस काम के लिए न केवल हिम्मत और भावना प्रादन की, बल्कि उसको आशा से कहीं बढ़कर लोकप्रियता भी प्रदान की। मेरी दुआ है कि अल्लाह तआला मरहूमा अज़रा नसीम फ़ारूक़ी की इस निष्ठा और अच्छी नीयत को अपनी बारगाह में स्वीकार करे और उनको जन्नतुल-फ़िरदौस में उच्च स्थान प्रदान करे, आमीन!

यह किताब फ़िक़्हे-इस्लामी के एक सामान्य परिचय पर आधारित है, जिसमें फ़िक़्हे-इस्लामी के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं को बारह शीर्षकों के तहत समोने की कोशिश की गई है। फ़िक़्हे-इस्लामी एक अथाह समुद्र है, जिसकी विशालताओं को किसी एक भाग तो क्या दर्जनों भागों में समेटना भी मुश्किल है। अलबत्ता यह कोशिश की गई है कि फ़िक़्हे-इस्लामी के महत्वपूर्ण विषयों, मूल चर्चाओं, मूल धारणाओं और ज़रूरी पहलुओं को सरल एवं सरस भाषा में आधुनिक शिक्षा प्राप्त लोगों की सेवा में पेश किया जाए।

उर्दू/हिन्दी जाननेवाले पाठकों में फ़िक़्हे-इस्लामी से दिलचस्पी रखने और इस और ध्यान देनेवाले लोगों का सम्बन्ध आम तौर से तीन प्रकार के लोगों से होता है। उनमें बड़ी संख्या इन लोगों की है जिनका सम्बन्ध क़ानून और वकालत के विभाग से है। जिनको अपने नित्य के कामों के करने के दौरान बहुत-से मामलों के बारे में फ़िक़्हे-इस्लामी की राय जानने की आवश्यकता पेश आती है। फ़िक़्हे-इस्लामी पर जो किताबें उर्दू या अंग्रेज़ी भाषा में उपलब्ध हैं वे आम तौर से उस आवश्यकता को पूरी तरह पूरा नहीं करतीं। उर्दू भाषा में उपलब्ध किताबों की बड़ी संख्या अरबी से अनुवाद की हुई है। अनुवादों की कमज़ोरी से परे ये किताबे एक आधुनिक शिक्षा प्राप्त क़ानून विशेषज्ञ के सवालों का जवाब उसके जाने-माने ढंग और मुहावरे में नहीं देतीं। अरबी की प्राचीन पुस्तकें, जिनके ज्ञान सम्बन्धी महत्व का किसी हद तक अंदाज़ा इस किताब के अध्ययन से हो सकेगा, ऐसे लोगों के लिए उमूमन नाकाफ़ी, बल्कि कभी-कभी अलाभकारी साबित होती हैं जो इस्लामी ज्ञान में विशेष योग्यता न रखते हों और फ़िक़्हे-इस्लामी की मूल धारणाओं से पूरी तरह परिचित न हों। इसके अलावा अरबी की प्राचीन फ़िक़्ह की पुस्तकों के सम्बोधित व्यक्ति वे फुक़हा थे जो अपने-अपने ज़माने में इज्तिहाद करने और फ़तवा देने के मंसब पर रह चुके थे। वे इस्लामी उलूम की विशेष योग्यता, फ़िक़्हे-इस्लामी की मूल धारणाओं और मूल चर्चाओं से भली-भाँति परिचित और इस अथाह समुद्र के पुराने तैराक थे। उनको फ़िक़्हे-इस्लामी के मौलिक सिद्धान्तों की नहीं आम तौर से गौण एवं आंशिक बातों की आवश्यकता पड़ती थी। इसलिए ये किताबें प्राय: उन्हीं की आवश्यकता को सामने रखकर लिखी गईं। यही वजह है कि फ़िक़्हे-इस्लामी की अधिकतर किताबों का ज़ोर फ़िक़्ही जुज़इयात (छोटी-छोटी बातों) पर ही रहता है, मूल सिद्धान्तों से बहस करने की उनमें न गुंजाइश होती है न आवश्यकता। इसके अलावा किसी भी ज्ञान एवं कला की तरह फ़िक़्ह और उसूले-फ़िक़्ह के मूल सिद्धान्तों को बयान करने का अंदाज़ और शैली भी हर ज़माने में बदलती रहती है। एक ज़माना था, उदाहरणार्थ अइम्मा-ए-मुज्तहिदीन (फ़िक़्ह के चार बड़े इमामों) का ज़माना जब इन मूल सिद्धान्तों को विशुद्ध धार्मिक अवधारणाओं और शिक्षाओं की भाषा और शैली में बयान किया जाता था। चुनाँचे इमाम शाफ़िई और इमाम मुहम्मद-बिन-शैबाई और उन जैसे दूसरे फुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) के लेखों में शरीअत के मूल सिद्धान्तों से बहस करने का एक ख़ास अंदाज़ पाया जाता था। फिर जल्द ही एक दौर ऐसा आया जब फ़िक़ही और उसूली बहसों को मंतिक़ (तर्कशास्त्र) और फ़लसफ़ा (दर्शन) की शैली में बयान किया जाने लगा। इस शैली का उच्च श्रेणी का नमूना इमाम ग़ज़ाली और इमाम राज़ी की किताबों में नज़र आता है। यह शैली मुतक़द्दिमीन (प्राचीन विद्वानों) की शैली से बिलकुल भिन्न है। आधुनिक काल में पश्चिम की धारणाओं और चर्चाओं ने फ़िक़्हे-इस्लामी की बहसों और चर्चा की शैली पर गहरा प्रभाव डाला। आज अरब दुनिया में फ़िक़्हे-इस्लामी पर जो किताबें लिखी जा रही हैं उनमें एक बहुत बड़ा हिस्सा इन किताबों का है जो पश्चिमी क़ानूनों की शैली और धारणाओं के अनुसार लिखी जा रही हैं। इन हालात में आवश्यकता इस बात की है कि उर्दू (और हिन्दी) भाषा में भी इस नई शैली के अनुसार किताबें तैयार की जाएँ, ताकि क़ानूनविद् और वकालत पेशा लोग ज़्यादा बेहतर और प्रभावकारी ढंग से फ़िक़्हे-इस्लामी के पक्ष को समझ सकें।

फ़िक़्हे-इस्लामी से दिलचस्पी रखनेवाले लोगों में दूसरी क़िस्म में वे उलमाए-किराम (इस्लामी विद्वान) आते हैं जो फ़िक़्ह या इफ़्ता (फ़तवा देने) की ज़िम्मेदारियाँ अंजाम दे रहे हैं। यों तो उन लोगों की आवश्यकता की पूर्ति का सामान प्राचीन किताबों और इस सम्बन्ध में लिखी गई बड़ी किताबों से हो जाता है, लेकिन एक हद तक इन लोगों को भी इसकी आवश्यकता है कि उनके लिए फ़िक़्हे-इस्लामी के विषयों को नए ढंग से पेश किया जाए। इन विद्वानों के लिए यह उचित होगा कि वे फ़िक़्हे-इस्लामी पर लिखे जानेवाले इस समय के लेखों से न केवल परिचित हों, बल्कि नई शैली को अपनाने में भी किसी झिझक एवं संकोच का प्रदर्शन न करें। यों उनको फ़िक़्हे-इस्लामी का पक्ष बयान करने में भी सहायता मिलेगी, और फ़िक़्हे-इस्लामी के इस नए दौर को जानने-समझने में आसानी भी पैदा होगी।

फ़िक़्हे-इस्लामी से दिलचस्पी रखनेवाले लोगों की तीसरी क़िस्म यूनिवर्सिटियों और आधुनिक शिक्षण संस्थानों से जुड़े या उनसे शिक्षा प्राप्त किए वे लोग हैं जिन्होंने फ़िक़्हे-इस्लामी का सामान्य रूप से एक सरसरी-सा अध्ययन किया है और ज़्यादा विस्तृत ढंग से फ़िक़्हे-इस्लामी के पक्ष को जानना चाहते हैं। ऐसे लोगों के लिए उर्दू भाषा में ऐसी किताबों की तैयारी बहुत ज़रूरी है जिसमें उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि और शैली तथा मुहावरों के अनुसार फ़िक़्हे-इस्लामी का पक्ष अत्यन्त प्रमाणित स्रोतों की सहायता से बयान किया गया हो। आज फ़िक़्हे-इस्लामी के बारे में जो ग़लत-फ़हमियाँ पाई जाती हैं उनका एक बड़ा कारण ऐसे लिट्रेचर की दस्तयाबी भी है जिससे ये तीनों प्रकार के लोग लाभान्वित हो सकें और एक प्रभावकारी ढंग से फ़िक़्ह का पक्ष बयान कर सकें। यह किताब इस मक़सद को हासिल करने की एक मामूली-सी कोशिश है। मुझे उम्मीद है कि यह किताब न केवल फ़िक़्हे-इस्लामी के छात्रों, वकीलों और क़ानूनविद् लोगों के लिए मुफ़ीद और दिलचस्प साबित होगी, बल्कि आम शिक्षित लोग भी इसके ज़रिये बहुत-से मामलों में फ़िक़्हे-इस्लामी के पक्ष को उसकी सही पृष्ठभूमि में समझ सकेंगे और आधुनिक काल में उसकी सार्थकता का अनुमान कर सकेंगे।

लेक्चर्स का आरम्भ 27 सितंबर 2004 को सोमवार के दिन हुआ और दरमियान में 13 अक्तूबर 2004 यानी इतवार का दिन निकालकर 19 अक्तूबर 2004 तक यह सिलसिला जारी रहा। पिछली बार की तरह अज़ीज़ जनाब एहसानुल-हक़ हक़्क़ानी ने ख़ुतबात को टेप रिकार्डर की सहायता से सुनकर सीधे कम्प्यूटर पर कम्पोज़ कर दिया। अल्लाह तआला उनको इस सेवा का बेहतरीन इनाम प्रदान करे। मुहाज़राते-फ़िक़्ह के बाद अब अगर अल्लाह ने मौक़ा दिया तो मुहाज़राते-सीरत और आख़िर में मुहाज़राते-फ़िक्रो-अक़ीदा का भी प्रोग्राम है। देखिए उसके साधन कब उपलब्ध होते हैं। अल्लाह तआला से दुआ है कि इस तुच्छ प्रयास को अपने यहाँ स्वीकार कर ले, इसको छात्रों और पाठकों के लिए लाभकारी बनाएँ और इस सिलसिला-ए-मुहाज़रात को इसकी पहली उत्प्रेरक मरहूमा अज़रा नसीम फ़ारूक़ी और इसके तुच्छ लेखक के कर्मपत्र में बढ़ोतरी का कारण बनाए, आमीन!

डॉक्टर महमूद अहमद ग़ाज़ी

इस्लामाबाद

13 जून 2005 ई॰

लेक्चर नम्बर-3

फ़िक़्हे-इस्लामी की विशिष्टताएँ

डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी

आज की चर्चा का शीर्षक है ‘फ़िक़्हे-इस्लामी की विशिष्टताएँ’। फ़िक़्हे-इस्लामी एक ऐसी क़ानूनी व्यवस्था है जिसका आधार और जड़ें अल्लाह की शरीअत में हैं, जिसके फलों और बरकतों से मानव-जीवन का हर पहलू लाभान्वित होता है। जिसने लगभग बारह सौ वर्षों तक दुनिया के अत्यन्त सभ्य देशों और साम्राज्यों को क़ानूनी, प्रशासनिक तथा संस्थागत मार्गदर्शन उपलब्ध की। जिसने अतीत में न केवल करोड़ों, बल्कि अरबों इंसानों की जीवनियों को संगठित किया, बल्कि आज भी वह जीवन के बहुत-से पहलुओं में एक अरब बीस करोड़ इंसानों को मार्गदर्शन और संगठन उपलब्ध कर रही है। यह क़ानूनी व्यवस्था जिसमें एक क्षण के लिए भी ख़ाली जगह पैदा नहीं हुई, अपने आरम्भ के दिन से आज तक कई दृष्टियों से लागू होने योग्य है। अगरचे एक मुसलमान इस बात को दुख के साथ नोट करता है कि इस्लामी शरीअत या इस्लामी फ़िक़्ह के कुछ मैदान और पहलू ऐसे हैं जिन्हें आज मुसलमान या तो व्यवहार में नहीं ला पा रहे या उनको ऐसा करने का मौक़ा नहीं दिया जा रहा है। लेकिन हमें उम्मीद है और बतौर एक मुसलमान के इस बात का विश्वास है कि एक-न-एक दिन हमारे जीवन के सभी पहलू और जीवन के तमाम विभाग इस्लामी शरीअत के मार्गदर्शन से लाभान्वित होंगे और इस्लामी फ़िक़्ह के नियमों और क़ानूनों के अनुसार उनको पुनः संगठित किया जाएगा।

फ़िक़्हे-इस्लामी : एक ज़िंदा क़ानून

जाने-अनजाने में, या स्वयं अपनाई गई या जबरन कोताही के बावजूद हमारे इस जीवन के बहुत-से पहलू अब भी ऐसे हैं जो शरीअत के मार्गदर्शन में काम कर रहे हैं, जिनका पुनर्गठन फ़िक़्हे-इस्लामी के सिद्धान्तों की रौशनी में हो रहा है और मुसलमान अपने प्रतिदिन के बहुत-से मामले फ़िक़्हे-इस्लामी के उन आदेशों की रौशनी में अंजाम दे रहे हैं। ‘इबादात’ फ़िक़्हे-इस्लामी का एक महत्वपूर्ण विभाग है। ‘इबादात’ के तमाम मामले और इबादतों से सम्बन्धित तमाम गतिविधियाँ फ़िक़्हे-इस्लामी के आदेशों के अनुसार अंजाम पा रही हैं। घरेलू क़ानूनों, निकाह, तलाक़, विरासत, वसीयत, परिजनों के बीच सम्बन्ध और सम्पर्क, पति और पत्नी के दरमियान अधिकार और ज़िम्मेदारियाँ, माँ-बाप और सन्तान के दरमियान सम्बन्ध और सम्पर्क, रिश्तेदारों के दरमियान सम्बन्ध और इस तरह के तमाम मामले आज भी बहुत हद तक इस्लामी शरीअत के आदेशों के अनुसार अंजाम पा रहे हैं। मुसलमानों के व्यक्तिगत मामले, क्रय-विक्रय, व्यापार, लेन-देन, मेल-जोल, स्त्री-पुरुष के दरमियान सम्बन्ध, वस्त्र, भोजन और हलाल-हराम (वैध-अवैध) के बहुत-से आदेशों का आज भी मुसलमान बहुत बड़ी संख्या में पालन कर रहे हैं। इसलिए मुसलमानों के लिए फ़िक़्हे-इस्लामी का अध्ययन किसी मुर्दा क़ानून की पड़ताल या अतीत की किसी भूली-बिसरी विरासत का अध्ययन नहीं है। यह इतिहास के किसी ऐसे विभाग का अध्ययन नहीं है कि जिसका सम्बन्ध अतीत से हो और जो मात्र क़ौमों की स्मरण-शक्ति को जगाए रखने ही के लिए किया जाता है। यह अतीत का वह अध्ययन नहीं है जो भविष्य पर लोगों के विश्वास को बहाल करने के लिए किया जाता हो, जिसके कारण क़ौम का रिश्ता अतीत से जुड़ता हो। मात्र यह बात नहीं है। फ़िक़्हे-इस्लामी का अध्ययन एक ज़िंदा, सक्रिय गतिशील और एक vibrant क़ानून का अध्ययन है, जो एक प्रचलित जीवन व्यवस्था की हैसियत रखता है, और जीवन की एक नियमावली के तौर पर मुसलमानों के लिए आज भी जीवन के बहुत-से भागों में एक ज़िंदा, लागू करने योग्य, जीवन से भरपूर और सक्रिय क़ानून है।

पहले दिन की चर्चा में मैंने कुछ प्राचीन क़ानूनों का ज़िक्र किया था। हम्मूराबी का क़ानून दुनिया का प्राचीनतम क़ानून कहलाया जाता है। रोमन लॉ जिसपर पश्चिम के लोगों को बड़ा गर्व है, यहूदी क़ानूनों, हिन्दुओं की मनुस्मृति, ये सब क़ानून अधिकांश रूप से केवल मुर्दा और पुराने क़ानूनों की हैसियत रखते हैं। उनमें से अधिकतर क़ानून आज जीवन की झलक खो चुके हैं, उनका उल्लेख प्राचीन इतिहास की दास्तानों, इल्मे-आसार (सहाबा की ज़िन्दगी से सम्बन्धित) और आरक्यॉलोजी में मिलता है। आज इस धरती पर कोई दो इंसान भी ऐसे नहीं मिलेंगे, जो आज हम्मूराबी के क़ानून के अनुसार जीवन व्यतीत कर रहे हों या व्यतीत करने की अभिलाषा रखते हों। दुनिया का कोई एक गाँव भी ऐसा नहीं है जहाँ आज मामलात उस रोमन लॉ के अनुसार तय हो रहे हों जो जस्टीनियन ने तैयार किया था। यही हाल बड़ी हद तक दूसरे क़ानूनों का है। लेकिन इन तमाम क़ानूनों के विपरीत इस्लामी क़ानून एक ज़िंदा क़ानून की हैसियत से मौजूद है। करोड़ों इंसानों की जीवनियों के बड़े हिस्से इस क़ानून से संकलित एवं संगठित हो रहे हैं। दुनिया के हर देश और हर बड़े शहर में लाखों की संख्या में ऐसे मुसलमान मौजूद हैं जो आज भी इस्लामी क़ानून के बहुत-से विभागों पर अमल कर रहे हैं।

फ़िक़्हे-इस्लामी का एक महत्वपूर्ण गुण

लेकिन इस क़ानून में और दुनिया के बहुत-से दूसरे क़ानूनों में एक बड़ा मौलिक अन्तर है। अगर आप अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी या दुनिया के दूसरे देशों के उन क़ानूनों का जिनको सभ्य क़ानून समझा जाता है, जायज़ा लें तो आपको पता चलेगा कि इन तमाम क़ानूनों में एक चीज़ समान है जो दुनिया के हर क़ानून में पाई जाती है। यह समानता वह है जिससे क़ानून का क़ानून होना मालूम होता है। जिससे क़ानून के स्वरूप का पता चलता है। जिससे क़ानून की वास्तविकता का निर्धारण होता है। जिसकी वजह से क़ानून और नैतिक आचरण में अन्तर पैदा हो जाता है। जिसकी वजह से क़ानून और ग़ैर-क़ानून में अन्तर किया जाता है। यह वह चीज़ है जो उनके यहाँ क़ानून की परिभाषा और स्वरूप में शामिल है। यानी क़ानून उस नियमावली का नाम है जो किसी प्रभुत्व प्राप्त शासक ने अपने अधीनस्थों को दिया हो और देश की अदालतें उसको बतौर क़ानून स्वीकार करती हों। ऐसी नियमावली को पश्चिम की दुनिया में क़ानून कहते हैं। जॉन ऑस्टन एक प्रसिद्ध पश्चिमी क़ानूनविद गुज़रा है। उसने क़ानून की परिभाषा करते हुए यह प्रसिद्ध वाक्य कहा है कि Law is the commond of the sovereign. कि “सर्वोच्च शासक का आदेश क़ानून है”। अतीत निकट के एक और प्रसिद्ध अंग्रेज़ क़ानूनविद केलसन ने क़ानून की एक और धारणा प्रस्तुत की जिसको वह क़ानून की सकारात्मक धारणा का नाम देता है। उसका कहना है कि क़ानून वह है कि जिसको उस समय पर और व्यावहारिक रूप से किसी इलाक़े के शासक और अदालतें क़ानून के तौर पर स्वीकार करती हों। दुनिया की लगभग हर व्यवस्था में क़ानून की यही या इससे मिलती-जुलती परिभाषा पाई जाती है। जो चीज़ इस परिभाषा पर पूरी नहीं उतरती वह क़ानून नहीं है और जो चीज़ इस परिभाषा पर पूरी उतरती है वह क़ानून है।

इस परिभाषा की रौशनी में आप दुनिया के क़ानूनों का जायज़ा लें। किसी लाइब्रेरी में जाकर क़ानून की किताबों को एक-एककर देखें तो आपको तीन तरह की किताबें नज़र आएँगी। या तो वे किताबें हैं जिनको statutery law कहा जाता है, यानी वे क़ानून जो किसी पार्लियामेंट या विधि निर्माण संस्था ने बनाए हैं। या किसी सर्वोच्च शासक ने बतौर आर्डिनेंस या अध्यादेश के उनको जारी किया है। दुनिया में बहुत-से क़ानून इसी प्रकार के हैं। या फिर ऐसी किताबें आपको मिलेंगी जो इन क़ानूनों की व्याख्या से भरी होंगी। आप क़ानून की लाइब्रेरी में जाकर देखें। एक इंडियन पेनलकोड रखा हुआ है। इसके बराबर में ही इंडियन पेनलकोड की व्याख्या आठ दस जिल्दों में रखी हुई होगी। एक Limitations Act रखा होगा साथ ही उसकी व्याख्या होगी। इसी तरह उदाहरण के रूप में एक सिविल प्रोसीजर या क्रिमिनल प्रोसीजर कोड है, साथ ही उसकी व्याख्या है। आपको क़ानून की लाइब्रेरी में ये दोनों प्रकार की किताबें बड़ी संख्या में मिलेंगी।

क़ानून की तीसरे प्रकार की किताबें आपको वे मिलेंगी जिनमें किसी पूर्व क़ानूनी विरसे या परम्परा का अध्ययन किया गया हो, उदाहरणार्थ अतीत के किसी पूर्व क़ानून या किसी मुर्दा क़ानूनी परम्परा या त्याज्य क़ानून को किसी ने आज समझने और बयान करने की कोशिश की हो। उदाहरणार्थ प्राचीन रोमन लॉ पर किताबें मिलेंगी। हिन्दू लेखकों ने प्राचीन मनु शास्त्र और दूसरे हिन्दू लॉज़ पर बहुत-सी किताबें लिखी हैं, वे मिलेंगी। यहूदियों ने जेविश लॉ पर किताबें लिखी हैं। यह सब कुछ अतीत की विरासत का एक अध्ययन है। अतीत के एक भंडार को आज के अंदाज़ में उन्होंने समझने का प्रयास किया है और दूसरों को बताने की कोशिश की है। फ़िक़्हे-इस्लामी की किताबें उनमें से किसी कटैगरी में नहीं आतीं। न वे किसी बादशाह या शासक का प्रदान किया हुआ चार्टर हैं, न किसी देश के प्रमुख का जारी किया हुआ आर्डेनेंस हैं। किसी भी फ़िक़ही मसलक की कोई भी किताब किसी शासक की दी हुई नहीं है। यहाँ तक कि ख़ुलफ़ाए-राशिदीन की प्रदान की हुई भी नहीं है। ख़ुलफ़ाए-राशिदीन जिनसे ज़्यादा सदाचारी और न्यायप्रिय शासक दुनिया ने आज तक नहीं देखे, यह क़ानून उनका प्रदान किया हुआ आदेशपत्र भी नहीं। यह किसी पार्लियामेंट का बनाया हुआ क़ानून भी नहीं है। फ़िक़्ह की कोई भी किताब या कोई आदेश जिसपर आज मुसलमान अमल करते हैं, वह किसी पार्लियामेंट का दिया हुआ नहीं है। इसका सादा-सा उदाहरण लीजिए। नमाज़ पढ़ते समय कुछ नमाज़ी रुकू में जाने से पहले हाथ उठाते हैं, कुछ नहीं उठाते। कुछ लोग ‘आमीन’ ज़ोर से कहते हैं, कुछ आहिस्ता से कहते हैं। लेकिन जो लोग ‘आमीन’ आहिस्ता से कहते हैं या ज़ोर से कहते हैं वह इसलिए ऐसा नहीं करते कि किसी पार्लियामेंट ने ऐसा कोई क़ानून बनाया था या किसी बादशाह ने कोई ऐसा फ़रमान जारी किया था। यही हाल नमाज़, रोज़ा, ज़कात, क़ुर्बानी, हज, बल्कि उनसे भी आगे बढ़कर बहुत-से दीवानी मामलात सामूहिक और सामाजिक लेन-देन का है।

आज़ाद क़ानून बनाने की निराली परम्परा

कहने का तात्पर्य यह है कि मुसलमानों का क़ानून न किसी शासक का दिया हुआ है न किसी क़ानून बनानेवाली संस्था का दिया हुआ है। इस्लामी इतिहास के आरम्भिक बारह सौ वर्षों तक आपको फ़िक़्ह की कोई एक किताब भी ऐसी नहीं मिलेगी, जो किसी शासक या किसी सरकारी संस्था द्वारा प्रदान किए हुए क़ानून पर आधारित हो, या जिसके लिखने का सरकारी प्रबन्ध भी किसी सरकारी संस्था ने किया हो, या जिसको किसी शासक के प्रतिनिधि ने संकलित किया हो। फिर किसी शासक ने जब सिरे से कोई क़ानून दिया ही नहीं तो ऐसे क़ानून की व्याख्या का सवाल कहाँ से आएगा। अत: जो दूसरी कैटेगरी मैंने बताई थी कि क़ानून की व्याख्याएँ और कमेंटरीज़ हैं उनका भी यहाँ सवाल पैदा नहीं होता। इस्लामी क़ानून किसी सरकारी क़ानून की व्याख्या भी नहीं है। इस्लामी क़ानून का अध्ययन किसी मुर्दा क़ानून का अध्ययन भी नहीं है।

जिस ज़माने में लोगों ने इसको लिखा उन्होंने एक ज़िंदा क़ानून के तौर पर लिखा, बल्कि फ़िक़्ह तो उन विद्वानों के लिखने से पहले ही मुसलमानों की जीवन में लागू था। इमाम मालिक (रह॰) ने जब मुवत्ता लिखी, तो उसमें जो आदेश दिए गए वे पहले से लोगों की जीवनियों में जारी थे, अगर दो-चार आदेश ऐसे थे भी जो बड़े पैमाने पर लोगों की जीवन में जारी नहीं थे तो इमाम मालिक (रह॰) के मुवत्ता लिखने के बाद जारी हो गए। इसलिए मुवत्ता में वर्णित क़ानून एक पल के लिए भी मुर्दा क़ानून नहीं था। यह तो कई बार हुआ कि मुसलमानों ने अपनी दीनी या नैतिक कमज़ोरी की वजह से इस क़ानून के किसी एक पहलू पर अमल छोड़ दिया या दूसरे पहलू पर उनका अमल कमज़ोर हो गया।

मुसलमान इस कमज़ोरी को स्वीकार पहले भी करते थे और आज भी करते हैं, लेकिन व्यक्तियों की इस कमज़ोरी से उनका क़ानून मुर्दा क़ानून कभी नहीं रहा। यह विशेषता ऐसी है जो हर व्यक्ति को नज़र आ सकती है और हर कोई उसका अनुमान कर सकता है कि यह वह विशेषता है जो इस्लामी क़ानून या फ़िक़्ह को दुनिया के तमाम क़ानूनों से अलग करती है।

फ़िक़्हे-इस्लामी की सबसे नुमायाँ और ख़ास विशेषता विशेष आज़ादी का गुण है। इस्लामी क़ानून दुनिया का एक मात्र क़ानून है जो शासकों के हर प्रकार के प्रभाव और रुसूख़ से आज़ाद रहा है। इसका सारा विकास और पहल, इसका सारा विस्तार, तमाम गहराई और गहरी पैठ जो इसमें पैदा हुई है, वह सब-की-सब ग़ैर-सरकारी प्रयासों के परिणामस्वरूप पैदा हुई है। यही वजह है कि मुसलमानों में कभी भी किसी सरकारी क़ानून बनानेवाली संस्था का अस्तित्व नहीं रहा। ऐसी विधि निर्माण संस्था जैसी आज दुनिया के बहुत-सी व्यवस्थाओं में पाई जाती हैं। आज ब्रिटेन में एक पार्लियामेंट है जो ब्रिटिश लोगों के लिए क़ानून बनाती है। अच्छा या बुरा, लेकिन लोग उसको मानते हैं। अमेरिका में काँग्रेस है जो अमेरिकी क़ौम के लिए क़ानून बनाती है। ऐसी कोई काँग्रेस या ऐसी कोई पार्लियामेंट किसी इस्लामी दौर में नज़र नहीं आती। न यह सारी क़ानून बनाना सरकारी और हुकूमती कोशिशों की दया पर निर्भर है। सवाल यह पैदा होता है कि फिर मुसलमानों में क़ानून बनाने की यह सारी प्रक्रिया प्राइवेट तौर पर कैसे हुई? यह बड़ी दिलचस्प और महत्वपूर्ण दास्तान है। और यह हर मुसलमान विद्वान के ज़ेहन में रहनी चाहिए, लेकिन पहले ज़रा एक संक्षिप्त-सी भूमिका।

स्वतन्त्रता और समानता

सर्वोच्च अल्लाह ने हर इंसान को आज़ाद बनाया है। हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अपने एक गवर्नर को उनके बेटे की एक ग़लती पर चेतावनी देते हुए कहा था कि “तुमने लोगों को ग़ुलाम कब से बना लिया है? जबकि उनकी माओं ने तो उन्हें आज़ाद जना था?” अगर हर इंसान आज़ाद है और हर इंसान प्रतिष्ठित है, अगर हर इंसान एक-दूसरे के बराबर है और एक-दूसरे के इस तरह बराबर है जैसे कंघी के दाने बराबर होते हैं, इस तरह अगर हर इंसान बराबर हैसियत का मालिक है तो इस बराबरी का तक़ाज़ा यह है कि क़ानून सबके लिए एक और समान हो। अगर क़ानून सबके लिए समान न हो तो फिर समानता और बराबरी नहीं हो सकती। और अगर बराबरी नहीं हो सकती तो मानव-प्रतिष्ठा भी प्राप्त नहीं हो सकती। यह नहीं हो सकता कि मैं और मिस्टर ‘ए’ क़ानूनी और सामाजिक अधिकारों में एक-दूसरे के बराबर तो न हों, लेकिन प्रतिष्ठा हम दोनों को एक जैसी प्राप्त हो। जो मुझसे दर्जे में ऊँचा है उसको प्रतिष्ठा भी ज़्यादा प्राप्त होगी और मैं अगर दर्जे में नीचे हूँ तो मुझे प्रतिष्ठा भी कम प्राप्त होगी। इंसानी इज़्ज़त और प्रतिष्ठा या human dignity उसी समय प्राप्त हो सकती है जब क़ानून की नज़र में तमाम इंसान बराबर हों।

इससे भी कोई मतभेद नहीं करेगा और यह एक स्पष्ट बात है कि क़ानून की नज़र में बराबरी तभी हो सकती है जब सारे इंसान एक ही क़ानून के पाबंद हों। अगर सारे इंसान एक क़ानून के पाबंद नहीं हैं तो फिर क़ानून की नज़र में बराबरी नहीं हो सकती। अगर इंसानों के विभिन्न गिरोहों के लिए अलग-अलग क़ानून हैं तो बराबरी और समानता के दावे निरर्थक हैं। सब इंसान एक क़ानून के पालन करनेवाले उसी समय हो सकते हैं जब क़ानून का स्रोत इंसानी साधनों से परे हो। अगर कुछ इंसान दूसरे इंसानों के लिए क़ानून बनाते हैं तो क़ानून बनानेवाले उच्च होंगे और क़ानून को स्वीकार करने और उसपर अमल करनेवाले अधीनस्थ होंगे। जो क़ानून बनाएगा वह अपने कल्याण और भले और अपने हित और उद्देश्य के लिए बनाएगा। यह बात मैं पहले भी कह चुका हूँ।

इस्लामी शरीअत ने एक ऐसी स्वचालित व्यवस्था बना दी कि जिसमें क़ानून और व्यवस्था के मूल नियम एवं सिद्धान्त और संविधान की मौलिक धारणाएँ और आदेश सबके लिए साझे तौर पर अनुपालन योग्य हैं, सब इंसान समान रूप से उनके पाबंद हैं और उनमें किसी प्रकार का बदलाव या संशोधन इंसानों के अधिकार में नहीं। ये सब मौलिक मामले इंसानों के फ़ैसले से परे हैं। क़ानून एवं विधान के मौलिक सिद्धान्त, आदेश और धारणाएँ सब-के-सब पवित्र क़ुरआन में मौजूद हैं।

आज की क़ानूनी दुनिया और अदालती जीवन में क़ानूनी सिद्धान्त का एक नया विभाग परिचित हुआ है जो अभी पिछले चालीस पचास वर्ष से सामने आया है। इसको क़ानूनी सिद्धान्तों से परे यानी Meta-jurisprudence कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि उसूले-क़ानून (क़ानूनी सिद्धान्त) के तमाम आदेशों से परे, उच्च एवं श्रेष्ठ स्वाभाविक धारणाएँ, जिनपर उसूले-क़ानून (क़ानूनी सिद्धान्त) की धारणाओं का दारोमदार है, जब तक ये मौलिक और मूल नियम न हों जिनपर उसूले-क़ानून (क़ानूनी सिद्धान्त) के आदेशों की इमारत उठाई जा सके उस समय तक स्वयं उसूले-क़ानून (क़ानूनी सिद्धान्त) का निर्धारण दुशवार है। फिर जब उसूले-क़ानून (क़ानूनी सिद्धान्त) भी संकलित हो जाएँ फिर उनपर क़ानून के दूसरे विभागों का दारोमदार है। गोया Meta-jurisprudence जैसी महत्वपूर्ण और मौलिक चीज़ जिसपर क़ानून के आख़िरी प्रमाण और आधार का दारोमदार है, उसपर पश्चिमी दुनिया केवल चालीस-पचास वर्ष पहले आई है। इससे पहले इस ज्ञान-विभाग की कोई परिकल्पना पश्चिम में नहीं थी। इसके विपरीत Meta-jurisprudence के तमाम उसूल एवं नियम क़ुरआन में मौजूद हैं। पवित्र क़ुरआन ने इन तमाम मौलिक सवालों का जवाब दे दिया है जिनपर जूरिसप्रुडेंस का आधार होता है। यों वे मौलिक सिद्धान्त एवं नियम, जिनसे काम लेकर क़ुरआन और सुन्नत से आदेश मालूम किए जा सकते हैं, पहले ही दिए गए हैं। अत: पवित्र क़ुरआन ने मौलिक प्रश्न तो आरम्भ ही में तय कर दिए हैं। सुन्नते-रसूल ने इन महत्वपूर्ण मामलों और समस्याओं में, जहाँ-जहाँ इंसान की बुद्धि के भटकने और ग़लत-फ़हमी पैदा होने की सम्भावना थी, ज़रूरी मार्गदर्शन उपलब्ध कर दिया है और महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर भी दे दिया। अब रह जाता है है और अधिक विवरण तय करने का, या नित्य की आंशिक समस्याओं का जवाब देने का कर्तव्य, तो वह भी किसी बादशाह या शासक के सिपुर्द नहीं किया गया। यह काम फ़िक़ही इज्तिहादात (रायों) और फ़तवों के ज़रिये किया जाता है। फ़तवा और इज्तिहाद की ज़िम्मेदारी शरीअत ने शासकों को नहीं दी, बल्कि यह ज़िम्मेदारी आलिमों और फ़ुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) के सिपुर्द की है।

यही वजह है कि यह काम इस्लामी इतिहास में न किसी शासक ने किया, न बादशाह ने, न ख़लीफ़ा ने और न किसी पार्लियामेंट ने। इस काम में सरकार और दरबार का कभी कोई दख़ल नहीं रहा। यह काम उम्मत और उम्मत के विद्वानों ने किया और उन्हीं के करने का यह काम है। उम्मत (मुस्लिम समाज) का काम यह है कि वह शरीअत के अनुसार जीवन गुज़ारे। क़ुरआन और सुन्नत के आदेशों के अनुसार अपने व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन को संगठित करे। और अगर किसी व्यक्ति या गिरोह या दल को किसी मामले में संकोच हो कि इसमें शरीअत का आदेश क्या है और शरीअत की समझ क्या कहती है तो वह जाकर विद्वानों से मालूम करे। और जो विद्वान ऐसे हों जिनके दीन और ज्ञान पर यानी उनके ज्ञान और तक़्वा (ईशपरायणता) दोनों पर आम जनता को भरोसा हो, उनकी बात मान ली जाए।

चुनाँचे इस व्यवस्था के तहत इस्लामी फ़ुक़हा और उलमाए-इस्लाम ने इस ज़िम्मेदारी को अंजाम देना शुरू किया। जिन-जिन लोगों की फ़िक़ही रायों की मुसलमानों में आरम्भ से पैरवी की जा रही है, उनमें से कोई भी किसी सरकारी पद पर आसीन नहीं था। इमाम मालिक (रह॰) ने मुवत्ता लिखी और बहुत-से क़ानून और फ़िक़ही समस्याओं के जवाबात दिए। उनके दिए हुए जवाब और उनकी जारी की हुई रूलिंग्ज़ पर मुस्लिम जगत् के बहुत बड़े हिस्से में इमाम मालिक (रह॰) के अपने ज़माने से अमल हो रहा है। लोग इमाम मालिक (रह॰) के ज्ञान और तक़्वा पर असाधारण विश्वास की वजह से उनके इज्तिहादात पर भरोसा करते थे और उनकी फ़िक़ही आरा, दूसरे शब्दों में उनकी बनाए क़ानून पर अमल करते थे।

इमाम मालिक (रह॰) से लोगों की मुहब्बत और श्रद्धा की यह कैफ़ियत होती थी कि लोग छः छः महीने की यात्रा की दूरी तय करके इमाम मालिक (रह॰) से ‘मसाइल’ (शरीअत के विस्तृत आदेश) मालूम करने आया करते थे। एक बार एक व्यक्ति छः महीने की दूरी तय करके स्पेन से मराक़श पहुँचा। वहाँ से त्यूनिस, अल्जीरिया, लीबिया, मिस्र, सीना पर्वत का मरुस्थल और पूरे अरब द्वीप का आधा हिस्सा सफ़र करके आया, ये सब विस्तृत इलाक़े पार करके मदीना मुनव्वरा पहुँचा और इमाम मालिक (रह॰) की सेवा में हाज़िर होकर कहा कि मुझे उंदलुसवालों ने आपसे यह सवाल करने के लिए भेजा है।

इससे आप अनुमान कर सकते हैं कि इमाम मालिक (रह॰) से उंदलुस वासियों की श्रद्धा की कैफ़ियत क्या थी और इमाम मालिक (रह॰) के फ़तवों और कथनों पर कितनी शिद्दत से पश्चिम के लोगों और उंदलुसवासी अमल करते होंगे। क्या इमाम मालिक (रह॰) किसी इलाक़े के शासक थे? क्या उनको किसी ख़लीफ़ा ने नियुक्त किया था कि आप उंदलुसवासियों के लिए क़ानूनों बनाएँ? क्या वह किसी पार्लियामेंट के सदस्य थे। क्या वह किसी काँग्रेस के सदस्य थे? इनमें से कोई बात भी नहीं थी। इमाम मालिक (रह॰) एक आम नागरिक थे। एक पूरी ग़ैर-सरकारी हैसियत रखते थे। उनको अल्लाह ने जो दर्जा दिया वह केवल उनके ज्ञान और तक़्वा (ईशपरायणता) की वजह से था। ज्ञान और तक़्वा के अलावा कोई सांसारिक पद या ओहदा या अधिकार उनको प्राप्त नहीं था। लेकिन उनके ज़माने में लोग छः-छः महीने का सफ़र करके आया करते थे और उनसे ‘मसाइल’ पूछकर उनके फ़तवे (राय) और उनकी दी हुई rulings पर अमल करते थे। अदालतें भी अमल करती थीं, व्यक्ति भी करते थे और शासक भी करते थे।

इमाम औज़ाई, सीरिया वासियों के इमाम कहलाते हैं। वह बेरूत में रहते थे और एक ज़माने में पूरा सीरिया जिसमें वर्तमान ज़माने का फ़िलस्तीन, लेब्नान, जोर्डन और सीरिया और उत्तरी सऊदी अरब का कुछ हिस्सा शामिल था। यह पूरा इलाक़ा इमाम औज़ाई के इज्तिहादात (रायों) की पैरवी करता था। यहाँ तक कि शासकों को भी जब आवश्यकता पड़ती थी वह इमाम औज़ाई से फ़तवा मालूम करके उसपर अमल किया करते थे। एक बार हारून रशीद को किसी ऐसे मामले में जो अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून से सम्बन्धित था, जिसमें एक दूसरी क़ौम के साथ कोई अनुबन्ध करना था, उसमें अन्तर्राष्ट्रीय ज़िम्मेदारियों के प्रकार की कोई चीज़ थी, उसने वह अनुबन्ध राय देने के लिए इमाम औज़ाई को भेजा और उन्होंने जो राय दी, हारून ने उसके अनुसार अमल किया। क्या इमाम औज़ाई अब्बासी साम्राज्य के विदेश मंत्री या क़ानून मंत्री थे? क्या वे वहाँ के चीफ़ जस्टिस थे? बिलकुल नहीं, बल्कि वे एक आम नागरिक थे। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह॰) के इज्तिहादात की पैरवी आज दुनिया-भर में मुसलमान बड़ी संख्या में कर रहे हैं। मुसलमानों की अधिकांश बहुसंख्या इमाम अबू-हनीफ़ा (रह॰) के इज्तिहादात की पैरवी कर रही है। इमाम अबू-हनीफा के पास कोई सरकारी पद नहीं था। इमाम जाफ़र सादिक़, इमाम ज़ैद-बिन-अली और दूसरे तमाम प्रतिष्ठित मुज्तहिदीन, सब लोग आम नागरिक थे और ज्ञान एवं तक़्वा (ईशपरायणता) के अलावा उनमें और आम जनता में कोई अन्तर नहीं था।

कार्य-पद्धति यह थी कि जब किसी व्यक्ति को कोई मसला पेश आए, वह उनमें से जिस फ़क़ीह या जिस मुज्तहिद के तक़्वा और ज्ञान पर भरोसा रखता हो, उसके पास जाए। और जो फ़तवा या इज्तिहाद वह बताए उसके अनुसार वह भी अमल करे और जो-जो लोग इस मुज्तहिद या फ़क़ीह के ज्ञान और तक़्वा पर भरोसा करते हों वे लोग भी उसके अनुसार अमल करें। आज भी ऐसा ही होता है। आप भी यही करते हैं, मैं भी यही करता हूँ।

जब आपको कोई समस्या पेश आती है जिसमें आपको शरीअत के किसी मामले में किसी मार्गदर्शन या शरीअत के किसी आदेश की व्याख्या की आवश्यकता हो तो आप या मैं किसी क़ानून मंत्री के पास नहीं जाते, न्यायपालिका के किसी अधिकारी के पास नहीं जाते, पार्लियामेंट के किसी सदस्य के पास नहीं जाते। हम केवल उस व्यक्ति के पास जाते हैं जिसके ज्ञान और तक़्वा पर हमें विश्वास हो।

कभी-कभी हमें किसी व्यक्ति के ज्ञान पर तो भरोसा होता है, लेकिन उसके तक़्वा पर भरोसा नहीं होता। कभी-कभी किसी के तक़्वा पर तो भरोसा होता है लेकिन उसके ज्ञान पर भरोसा नहीं होता। आपने बड़े-बड़े बुज़ुर्ग देखे होंगे जिनका पूरी जीवन शरीअत के अनुपालन में गुज़रा, लेकिन उनके पास वह ज्ञान नहीं होता जो लोगों को मार्गदर्शन दे सके। लोग उनके पास नहीं जाते। कभी-कभी ऐसे विद्वान होते हैं कि जिनके ज्ञान को दोस्त-दुश्मन सब स्वीकार करते हैं। लेकिन उनके तक़्वा पर लोगों को भरोसा नहीं होता, लोग उनके पास भी नहीं जाते। लोग उन्हीं ज्ञानवानों के पास जाते हैं जिनके ज्ञान और तक़्वा दोनों पर उनको पूरा भरोसा हो।

इस तरह फ़िक़्हे-इस्लामी पर कार्यान्वयन अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के दुनिया से तशरीफ़ ले जाने के बाद से शुरू हुआ। एक दृष्टि से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ज़माने में भी इसपर अमल होता था। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ज़माने में भी जब वह मौजूद न होते थे, तो जिस सहाबी को आवश्यकता पड़ती थी वह दूसरे विद्वान सहाबा में से किसी से पूछा करता था। इसके एक दो नहीं, बल्कि दर्जनों उदाहरण हदीसों में मौजूद हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की अनुपस्थिति की स्थिति में लोगों ने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में उन लोगों से पूछा जो ज्ञान और समझ में ज़्यादा नुमायाँ थे। तक़्वा में तो एक से बढ़कर एक थे ही, लेकिन ज्ञान में अलग-अलग दर्जें थे। इसलिए जिनके ज्ञान पर ज़्यादा भरोसा होता था उनसे जाकर पूछ लेते थे और स्वयं अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कुछ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के ज्ञान की गवाही दी ताकि लोग उनसे जाकर पूछा करें।

इस तरीक़े से फ़िक़्हे-इस्लामी और इस्लामी शरीअत पर अमल कोई बारह सौ वर्ष तक होता रहा। इन बारह सौ वर्षों में कभी भी किसी शासक को शरीअत के किसी आंशिक आदेश पर भी प्रभाव डालने की अनुमति नहीं दी गई। इसका यह मतलब नहीं कि उन्होंने ऐसी कोई कोशिश नहीं की। कुछ लोगों ने कोशिश की। कुछ ने अच्छे इरादे से कोशिश की और कुछ ने बुरे इरादे से कोशिश की लेकिन मुसलमान फ़ुक़हा ने न अच्छे इरादे से ऐसी कोशिश करनेवालों को सफल होने दिया और न ही बुरे इरादे से ऐसी कोशिश करनेवालों को सफल होने दिया।

अच्छे इरादे से कोशिश एक बार हारून रशीद ने की। जब वह हज करने के लिए हिजाज़ गया तो उसने इमाम मालिक (रह॰) से मुलाक़ात की। समय के शासक इमाम मालिक (रह॰) से मिलने के लिए स्वयं उनके घर जाया करते थे। एक बार हारून ने मुलाक़ात के समय निवेदन किया कि मैं चाहता हूँ कि आप मेरे दो बेटों, अमीन और मामून के लिए अलग से दर्स (पाठ पढ़ाने) का हल्क़ा क़ायम करें। इमाम मालिक (रह॰) ने फ़रमाया कि “ज्ञान की सेवा में उपस्थित हुआ जाता है ज्ञान किसी की सेवा में उपस्थित नहीं होता। मैं दर्स देता हूँ इसमें आपके बेटे भी आकर सुनें।” इस तरह इमाम मालिक (रह॰) ने हारून के इस निवेदन को स्वीकार नहीं किया।

हारून ने दूसरा निवेदन यह किया कि आप अपनी मुवत्ता को अब्बासी साम्राज्य का क़ानून बनाने की अनुमति दे दें और हुकूमत को मौक़ा दें कि वह तमाम क़ाज़ियों को पाबंद कर दे कि आगे से केवल मुवत्ता के अनुसार मुक़द्दमों का फ़ैसला किया करें। लेकिन इमाम मालिक (रह॰) इससे सहमत नहीं हुए और हारून को तख़्ती से इस इरादे को व्यावहारिक रूप देने से रोका।

यह कहना कि हारून रशीद ने किसी बदनीयती से यह फ़ैसला किया होगा या राय क़ायम की होगी यह दुरुस्त नहीं। वह नेक नीयती से यह समझता था कि मुस्लिम जगत् में जो उस समय स्पेन से मुल्तान तक फैला हुआ था, विभिन्न क़ाज़ी विभिन्न फ़तवों के अनुसार फ़ैसले दे रहे हैं। कोई एक मुज्तहिद की राय पर फ़ैसला दे रहा है तो कोई किसी दूसरे मुज्तहिद की राय पर फ़ैसला दे रहा है। हो सकता है यह चीज़ आगे चलकर किसी ग़लत-फ़हमी या उलझन का ज़रिया बने। तो क्या यह मुनासिब न होगा कि तमाम क़ाज़ी लोगों को किसी एक इज्तिहाद का पाबंद कर दिया जाए। मेरे ख़याल में उसने बड़ी नेक नीयती से यह सोचा होगा। उसने निस्सन्देह इस मामले पर बहुत कुछ ग़ौर क्या होगा। अपने सलाहकारों से मश्वरा भी किया होगा। दूसरे विद्वानों की राय भी ली होगी। इसी दौरान उसको पता चला कि इमाम मालिक (रह॰) ने मुवत्ता के नाम से हदीस और फ़िक़्ह की एक किताब लिखी है। वह अपने ज़माने के हदीस और फ़िक़्ह के बड़े इमामों में गिने जाते थे। इसलिए अगर उनकी किताब मुवत्ता को आदर्श बना दिया जाए और मुवत्ता इमाम मालिक (रह॰) को पूरे इस्लामी साम्राज्य के लिए क़ानून के तौर पर लागू कर दिया जाए तो शायद मुस्लिम समाज की एकता के लिए यह बेहतर हो। फ़ैसलों की समरसता और अदालती काम की समरूपता के लिए यह शायद बेहतर हो। ये कारण थे जिनके आधार पर हारून ने यह प्रस्ताव इमाम मालिक (रह॰) के सामने रखा था। अगर किसी व्यक्ति में एक प्रति लाख भी दुनियादारी होती तो वह इस प्रस्ताव को इस तरह तुरत-फुरत न ठुकराता। मैं स्वयं जब इसपर ग़ौर करता हूँ तो मुझपर इमाम मालिक (रह॰) के तक़्वा और अल्लाह के प्रति उनके समर्पण-भाव का असाधारण प्रभाव होता है, मैं समझता हूँ कि अगर इमाम मालिक (रह॰) में एक प्रति करोड़ भी दुनियादारी का अंश होता तो उनके लिए इससे बढ़कर ख़ुशी और प्रसन्नता की बात और क्या होती कि उनकी लिखी हुई एक किताब, उनके इज्तिहादात, उनके फ़तवे और उनकी शरीअत की समझ दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य में बतौर क़ानून के जारी कर दी जाए और उनके फ़तवों के अनुसार कश्मीर से लेकर स्पेन और साइबेरिया से लेकर सूडान तक के इलाक़े में मामलों और मुक़द्दमों का फ़ैसला होने लगे और उनके इज्तिहादात को क़ानून का दर्जा प्राप्त हो जाए। लेकिन इमाम मालिक (रह॰) ने एक लम्हा की भी देर नहीं की और फ़ौरन कहा कि अमीरुल-मोमनीन, आप ऐसा न करें इसलिए कि जितने भी फ़ुक़हा और मुज्तहिदीन इज्तिहादात और फ़ैसले कर रहे हैं ये सब-के-सब विभिन्न प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की शैली की पैरवी कर रहे हैं। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से ज्ञान सीखा, इज्तिहाद का प्रशिक्षण पाया, शरीअत पर चिन्तन-मनन करने के शिष्टाचार सीखे और वह मुस्लिम जगत् के विभिन्न इलाक़ों में जाकर बस गए जहाँ उन्होंने उस शैली के अनुसार लोगों को तैयार किया। इसलिए ये सारी की सारी रायें और व्याख्याएँ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) तक और उनके ज़रिये अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की मुबारक हस्ती तक पहुँचती हैं। इसलिए आप इस आज़ादी को, जो मुस्लिम समाज को प्राप्त है, सीमित न करें और जिस अंदाज़ से काम चल रहा है उसी अंदाज़ से चलने दें। ग़रज़ इमाम मालिक (रह॰) ने हारून की राय से सहमति नहीं जताई और क़ानून की आज़ादी और आत्मनिर्भरता पर एक हल्का-सा धब्बा भी आने नहीं दिया। यह फ़िक़्हे-इस्लामी की पहली मौलिक विशेषता है जिसको क़ानून बनाने की आज़ादी कह सकते हैं।

क़ानून का राज

आज दुनिया में क़ानून के राज का दावा किया जाता है। rule of law के दावे और माँगें की जा रही हैं। कहा जा रहा है कि क़ानून का राज होना चाहिए। अमेरिका के क़ानूनविदों का एक लम्बे समय से यह दावा रहा है कि रोल आफ़ लॉ की परिकल्पना दुनिया को सबसे पहले उन्होंने दी। अमेरिकी संविधान को अगर आपने पढ़ा हो तो उसकी जितनी व्याख्याएँ लिखी गई हैं उनमें वे बड़े गर्व से दावे करते हैं कि अमेरिकी संविधान अमेरिका की सबसे ज़्यादा क़ीमती निर्यात है। इन लोगों का गर्व यह दावा है कि American constitution is the most precious and the most valuable export of America. यानी अमेरिका की जितनी भी निर्यात हैं उनमें सबसे क़ीमती और सबसे महत्वपूर्ण चीज़ अमेरिका का संविधान है। वे यह समझते हैं कि उन्होंने दुनिया को क़ानून के वर्चस्व की एक नई धारणा दी है। क़ानून का वर्चस्व वे तीन चीज़ों को क़रार देते हैं। यानी पूरे देश या पूरे राज्य में एक क़ानून हो और सबके लिए हो, दूसरे इस समान क़ानून को सब नागरिकों पर समान और प्रभावकारी रूप से लागू करने के लिए एक सर्वोच्च, साधिकार और निष्पक्ष अदालत हो (A uniform, impartial independent judicial system) तीसरी चीज़ वे यह कहते हैं कि हर नागरिक को समान रूप से आज़ादी और अवसर हो कि वह अदालत के सामने जाकर इस क़ानून के अनुसार अपना हक़ वुसूल कर सके और भरपाई प्राप्त कर सके। ये तीन चीज़ें उनके दावों के अनुसार rule of law यानी क़ानून के वर्चस्व के मापदंड हैं। अमेरिका की व्यवस्था ने दुनिया को कितना रोल ऑफ़ लॉ दिया है? इस विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, वह हम सबके सामने है। इसको बयान करने की आवश्यकता नहीं। किसी अफ़ग़ानी से पूछें, किसी इराक़ी से पूछें, किसी फ़िलस्तीनी मुसलमान से पूछें कि अमेरिका कितना रूल ऑफ़ लॉ आपको दे रहा है, वे आपको बता देंगे।

क़ानून का राज अगर दुनिया को वास्तव में किसी क़ानूनी व्यवस्था ने दिया है तो वह इस्लामी शरीअत ने दिया है, जिसमें उपर्युक्त शर्तें और मापदंड पूरी तरह पाए जाते हैं। इस्लामी कालों में न केवल यह कि क़ानून के अधीन होने में शासक और प्रजा में कोई अन्तर नहीं था, बल्कि इससे भी कहीं आगे बढ़कर क़ानून बनाने का असीमित अधिकार भी शासक से ले लिया गया था। दुनिया का कोई क़ानून आज तक ऐसा नहीं कर सका। हर शासक अपने स्वार्थ के अनुसार क़ानून बनाता है। हर प्रभावशाली आदमी अपने हित को क़ानून के द्वारा बचाने और बढ़ाने की कोशिश करता है। यह केवल इस्लामी शरीअत है जो तमाम इंसानी वर्गों से परे है। अत: क़ानून का राज या वर्चस्व की धारणा अगर वास्तविक रूप से किसी व्यवस्था ने दी है तो वह केवल इस्लामी शरीअत है। जिसमें यह कहा गया कि तुमसे पहले क़ौमें इसलिए तबाह हुईं कि उनके यहाँ कमज़ोर के लिए अलग व्यवस्था थी और ताक़तवर के लिए अलग व्यवस्था थी। कमज़ोर चोरी करता था तो उसपर सज़ा जारी होती थी और ताक़त और रुसूख़वाला और प्रभावशाली आदमी चोरी करता था तो उसको सज़ा से सुरक्षित रखा जाता था। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने क़सम खाकर कहा, उनको दुश्मन भी सच्चा जानते थे और दियानतदार समझते थे। जो लोग उनको क़त्ल करने का इरादा रखते थे वे भी अपनी अमानतें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ही के पास रखवाते थे। इसलिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को क़सम खाने की आवश्यकता नहीं थी, लेकिन उन्होंने और ताकीद के लिए क़सम खाई कि वल्लाह क़सम है अल्लाह की, कि अगर फ़ातिमा बिंते-मुहम्मद भी चोरी करतीं तो मैं उसका हाथ काटने में संकोच न करता। यह विशेषता केवल फ़िक़्हे-इस्लामी को प्राप्त है और दुनिया में किसी और क़ानून या व्यवस्था को कभी प्राप्त नहीं रही।

फ़िक़्हे-इस्लामी की सारगर्भिता

फ़िक़्हे-इस्लामी की सारगर्भिता दूसरी मौलिक और महत्वपूर्ण विशेषता है। सारगर्भिता से तात्पर्य यह है कि फ़िक़्हे-इस्लामी में इंसानी आवश्यकता की पूर्ति के लिए दरकार तमाम महत्वपूर्ण ख़ूबियाँ पाई जाती हैं। इंसानों की मौलिक और महत्वपूर्ण आवश्यताएँ और मानव-जीवन के तमाम महत्वपूर्ण पहलू, इन सब आवश्यताओं की पूर्ति और उन सब पहलुओं को संगठित करने और उन सबके बारे में मार्गदर्शन का सामान फ़िक़्हे-इस्लामी में मौजूद है। दूसरी व्यवस्थाएँ इस सारगर्भिता से ख़ाली हैं। अगर कोई व्यवस्था किसी एक पहलू में मार्गदर्शन उपलब्ध करती है तो शेष पहलुओं के बारे में मौन है। ज़ाहिर है कि ऐसी किसी व्यवस्था के बारे में यह कहना उचित नहीं होगा कि वह पूर्ण और व्यापक व्यवस्था है।

जैसा कि बताया गया कि फ़िक़्हे-इस्लामी में शरीअत की समझ एवं अन्तर्दृष्टि और शरीअत के आदेशों के अनुपालन के लिए ज़रूरी मार्गदर्शन और आदेश निहित हैं। चूँकि अल्लाह ने इंसान को एक पूर्णता को पहुँचने के योग्य और व्यापक व्यक्तित्व बनाया है। इसलिए उसके मार्गदर्शन के लिए जो शरीअत प्रदान की वह भी व्यापक और पूर्ण है। इंसान के व्यापक और पूर्णता को पहुँचने के योग्य होने ही की एक अनिवार्य अपेक्षा यह भी है कि इंसान का पूरा व्यक्तित्व और इसके विविध पहलुओं के दरमियान पूर्ण समरसता पाई जानी चाहिए। अगर यह समरसता समाप्त हो जाए तो इंसान अपना मानसिक सन्तुलन खो जाए और पागल हो जाए। इंसान उसी समय तक एक बुद्धि रखनेवाला और सन्तुलित व्यक्तित्व है जब तक उसके पूरे जीवन के विभिन्न पहलुओं में समरसता मौजूद है। अगर भावनाएँ एक तरफ़ जा रही हों और बुद्धि दूसरी ओर जा रही हो तो इंसान एक सन्तुलित इंसान नहीं रहता। भावनात्मक स्थिरता एक पल के लिए भी समाप्त हो जाए तो वह इंसान बुद्धिमान इंसान नहीं रहता। इसलिए केवल वही व्यवस्था सफल रह सकती है जो मानव-जीवन के सारे पहलुओं को एक ही समय में निर्देशित करती हो और उन सबके दरमियान सन्तुलन बरक़रार रखती हो। अगर कोई व्यवस्था केवल एक पहलू से सम्बन्ध रखनेवाली हो, तो वह मानव-जीवन को न सन्तुलित बना सकती है और न पूरी सफलता दे सकती है। ऐसी व्यवस्था के तहत जीने और प्रशिक्षण पानेवाला इंसान पूर्ण रूप से वास्तविकता से अवगत हो ही नहीं सकता। वह वास्तविकता से आंशिक रूप से तो अवगत हो सकता है पूर्ण रूप से अवगत नहीं हो सकता। अगर आप किसी सौ मंज़िला इमारत की छत पर खड़े होकर देखें तो इस्लामाबाद का पूरा लैंड-स्केप आपको खुला और साफ़ नज़र आएगा और इस इलाक़े के पूरे दृश्य और सौंदर्य से आप आनन्दित होंगे। लेकिन अगर आप किसी सड़क पर खड़े होकर एक दस मीटर लंबे पाइप में से झांककर इस्लामाबाद शहर के दृश्य देखना चाहें तो आपको शहर का बहुत थोड़ा हिस्सा नज़र आएगा। शेष पहलू जो ख़ूबसूरत हों, बदसूरत या जैसे भी हों, आपकी नज़रों से ओझल हो जाएँगे। यही कैफ़ियत है उन व्यवस्थाओं में जो शरीअत के मार्गदर्शन से हटकर लोगों ने दी हैं। शरीअत ने इंसान को पूर्ण और सन्तुलित अस्तित्व के तौर पर सामने रखा। इंसान की पूर्णता (totality) को सामने रखकर उसकी समस्याओं और आवश्यताओं का समाधान पेश किया। इसलिए कि इंसान के जीवन के सारे पहलू एक-दूसरे के साथ पूर्ण होने चाहिएँ। कोई पहलू एक-दूसरे से टकराता नहीं होना चाहिए। जब आप मानव-जीवन के तमाम पहलुओं को अलग-अलग रखेंगे और हर पहलू के बारे में एक अलग अंदाज़ से विभिन्न मूल स्रोतों और रास्तों से अलग-अलग मार्गदर्शन आएँगे, तो ये मार्गदर्शन आपस में टकराएँगे। जब टकराएँगे तो एक आदमी एक पहलू को प्राथमिकता देगा, दूसरा आदमी दूसरे पहलू को प्राथमिकता देगा। बुद्धि और लिखित सिद्धान्तों के उदाहरण में इस टकराव के नमूने हम देख चुके हैं। कुछ धर्मों ने बुद्धि को प्राथमिकता दी और लिखित सिद्धान्तों का दामन उनके हाथ से छूट गया। कुछ धर्मों ने लिखित सिद्धान्तों का साथ दिया और उनसे बुद्धि का दामन छूट गया। इस बारे में इज्तिहाद के सन्दर्भ में और ज़्यादा बात होगी। इसलिए शरीअत की सारगर्भिता की पहली निशानी तो यह है कि इसमें मानव-जीवन के तमाम बड़े-बड़े पहलुओं के बारे में ज़रूरी मार्गदर्शन का सामान उपलब्ध कर दिया गया है।

शरीअत की सारगर्भिता की दूसरा निशानी यह है कि इसमें इंसानों के तमाम वर्तमान और सम्भावित स्वभावों की रिआयत का सामान मौजूद है। इसका विस्तृत विवरण यह है कि दुनिया में इंसानों के स्वभाव विभिन्न हैं। आपका स्वभाव और है मेरा स्वभाव और है। अगर क़ानून आपके स्वभाव को सामने रखकर बनाया गया तो मेरे स्वभाव से पैदा होनेवाली समस्याओं का जवाब कहाँ से आएगा। अगर मेरे स्वभाव को सामने रखकर बनाया गया तो आपकी समस्याओं का जवाब कहाँ से आएगा। अगर किसी जाहिल क़ौम की समस्याओं को सामने रखकर क़ानून बनाया जाए तो पढ़ी-लिखी क़ौम की समस्याओं का जवाब कहाँ से आएगा। इस तरह से आप ग़ौर करें तो आपको बीसियों उदाहरण इंसानों की आवश्यताओं की विविधता, स्वभावों के अन्तर और हितों के टकराव के मिलेंगे।

जब तक आसमानी शरीअतें विभिन्न इलाक़ों के लिए अलग-अलग थीं, उस समय तक सर्वोच्च अल्लाह की तत्वदर्शिता और नियति इस बात की अपेक्षा करती रही कि इस ख़ास क़ौम के स्वभाव, ढंग और प्रवृत्ति को सामने रखकर क़ानून बना दिया जाए। तौरात को आप देखें जो बनी-इसराईल के मार्गदर्शन और उनको संगठित करने के लिए दी गई। बनी-इसराईल का इतिहास पढ़ें। क़ुरआन और स्वयं उनकी किताबों से भी इसका समर्थन होता है कि यह एक अत्यन्त उद्दंड क़ौम थी। क़ानून को तोड़ना, अल्लाह के आदेशों की अवहेलना करना और उससे मुँह मोड़ने के रास्ते ढूँढ़ना यहूदियों पर समाप्त था। उनके अपने साहित्य में दीन से मुँह मोड़ने के इतने उदाहरण मौजूद हैं कि पवित्र क़ुरआन से हवाले देने की आवश्यकता नहीं। स्वयं उनकी स्वीकारोक्तियों के अनुसार उन्होंने अपने पूरे सामाजिक जीवन के हज़ारों वर्ष मुँह मोड़ने में गुज़ारे और नबियों (अलैहिमुस्सलाम) को तंग किया। जो क़ौम इस बात पर गर्व करके कहती हो कि “हमने मसीह (अलैहिस्सलाम) को क़त्ल किया है।” (क़ुरआन, 4:157) जो क़ौम अल्लाह की पनाह पैग़म्बरों के क़त्ल पर गर्व जताती हो, उसकी उद्दंडता का क्या ठिकाना। ऐसी उद्दंड क़ौम के लिए जब सर्वोच्च अल्लाह ने क़ानून अवतरित किए तो वे बहुत सख़्त क़ानून थे। चुनाँचे तौरात के क़ानून सख़्त हैं। आप देखें तौरात में आज भी कुछ आदेशों में बड़ी सख़्ती है। यहाँ तक कि अगर कोई कपड़ा नापाक हो जाए तो उसको पाक करने का केवल यह तरीक़ा बताया गया कि इसके नापाक हिस्सा को काट दो। धोने का कोई सवाल नहीं था। जिस्म के किसी हिस्से पर गंदगी लग जाए उसको तो इतना रगड़ो कि जिस्म का वह हिस्सा सुर्ख़ हो जाए और ख़ून निकल आए, उस समय तक पाक नहीं होगा जब तक शरीर रक्त रंजित न हो जाए। इस तरह के और भी बहुत-से उदाहरण सख़्त आदेशों के मिलते हैं। ये सख़्त आदेश एक अवज्ञाकारी और उद्दंड क़ौम को संगठित करने के लिए अपरिहार्य थे। चूँकि यहूदियों को अनुशासन का पाबंद बनाना इन नबियों (अलैहिमुस्सलाम) के पैग़ंबराना काम में शामिल था, इसलिए सख़्त आदेश दिए गए।

तौरात के आदेशों पर अमल करते हुए यहूदियों को जब एक ज़माना गुज़र गया तो उनमें एक शब्दवाद, ज़ाहिर-परस्ती और एक तरह की सख़्ती के साथ-साथ एक literal अंदाज़ पैदा हो गया। एक ऐसी ज़ाहिर-परस्ती पैदा हो गई कि क़ानून के मूल उद्देश्य को चाहे नज़रअंदाज़ कर दिया जाए, क़ानून की रूह तो चाहे प्रभावित हो जाए, लेकिन उसके बाह्य रूप पर अमल होता रहे। आप दुनिया को दिखा सकें कि आप क़ानून पर अमल कर रहे हैं। अल्लाह ने आदेश दिया था कि हफ़्ते में एक दिन केवल इबादत में गुज़ारो और कोई सांसारिक काम मत करो। यह भी इस प्रशिक्षण का अंग था जो नबियों (अलैहिमुस्सलाम) के द्वारा सर्वोच्च अल्लाह उनको देना चाहता था। ख़ास तौर पर चूँकि यहूदी ऐसे इलाक़े में आबाद थे जहाँ समुद्र और नदियाँ बहुत हैं। इसलिए उनको मछलियों का बड़ा शौक़ था। आदेश दिया गया कि सातवें दिन कोई और काम मत करो, शिकार भी न करो। केवल अल्लाह की याद और इबादत में पूरा दिन लगा दो। अब उन्होंने क्या किया कि नदियों से छोटी-छोटी नहरें खोदीं। हर घर में छोटे-छोटे तालाब बनाए, और यह कोशिश की कि मछली ख़ुद से उनके तालाब में आ जाए। जब तालाब में आ जाए तो उसके रास्ते या नहर को बंद कर दिया जाए और इस तरह अल्लाह की पनाह सर्वोच्च अल्लाह को धोखा दिया जाए कि सरकार हमने तो शिकार नहीं किया था, मछली स्वयं ही चल कर हमारे तालाब में आई थी। पवित्र क़ुरआन में भी इसकी ओर संकेत किया गया है। जो क़ौम क़ानून की रूह और उद्देश्य को यों नज़रअंदाज कर दे, जो क़ौम जान-बूझकर क़ानून पर बज़ाहिर अमल करके सर्वोच्च अल्लाह को (अल्लाह की पनाह) धोखा देने के लिए आमादा रहती हो, उसकी ज़ाहिर-पसंदी का क्या ठिकाना हो सकता है।

जब हज़रत मसीह (अलैहिस्सलाम) दुनिया में आए तो उन्होंने सबसे ज़्यादा इस ज़ाहिर-परस्ती का खंडन किया। और शरीअत के आदेशों की मूलात्मा पर ज़ोर दिया। हज़रत मसीह (अलैहिस्सलाम) क़ानून की आत्मा और मूल उद्देश्य पर ज़ोर देकर शरीअत के इस सन्तुलन को बहाल करना चाहते थे जिसको यहूदियों ने छोड़ दिया था। ईसाइयों ने कुछ दिन तो मसीह (अलैहिस्सलाम) के दिए हुए शरई क़ानून और उन्हीं के बहाल किए हुए सन्तुलन पर अमल किया। लेकिन जल्द ही प्राचीन यहूदी मानसिकता ने फिर अपना रंग दिखाया। आख़िर उनपर ईमान लानेवाले असलन यहूदी ही तो थे, उन्होंने यह किया कि जी ठीक है, आप रूह के महत्व पर ज़ोर देते हैं, लीजिए हम ज़ाहिर को लपेटकर एक ओर रख देते हैं। उन्होंने हज़रत मसीह (अलैहिस्सलाम) के दुनिया से जाते ही फ़ैसला किया कि तौरात के आदेश आज से निरस्त किए जाते हैं। शरीअत का क़ानून निरस्त क़रार दिया जाता है। केवल क़ानून की रूह पर अमल करना काफ़ी है। और क़ानून की रूह केवल वह है जिसको पादरी रूह क़रार दें। उन्होंने नारा दिया कि इंसानों से प्रेम करें कि यही धर्म की आत्मा है। किसी ने न सोचा और न पूछा कि भाई इंसानों से प्रेम किस तरह से होगा। दोस्त से प्रेम किस तरह का होगा, दुश्मन से रवैया किस तरह का होगा। बेगुनाह इंसान से प्रेम किस तरह का होगा, अपराधी से किस तरह का होगा। हत्यारे से प्रेम किस तरह का होगा? जिसकी हत्या की गई हो, उससे प्रेम किस तरह का होगा। जब तक ये विवरण तय नहीं होंगे उस समय तक तो प्रेम एक निरर्थक और फ़ुज़ूल शब्द है। आज ईसाई दुनिया-भर में ढिंढोरा पीटा करते हैं कि हम मानवता से प्रेम करते हैं। कोई उनसे पूछे कि भई, मानवता से आप प्रेम करते हैं तो इस प्रेम का कोई तरीक़ा और नियम तो होता होगा। अपराधियों से प्रेम कैसे होगा, बेगुनाह इंसानों से प्रेम का तरीक़ा क्या होगा। एक हत्यारा लाया जाए जिसने दस क़त्ल किए हों, उससे आप कैसे प्रेम करेंगे? पिछले वर्ष एक आदमी ने लाहौर में सौ बच्चे क़त्ल कर दिए थे। वह भी इंसान था। तो उससे प्रेम करेंगे कि नहीं करेंगे? और अगर करेंगे तो कैसे करेंगे? क्या बच्चों के क़ातिल के साथ, और उन मारे गए बच्चों और उनके माँ-बाप से समान रूप से एक ही तरह और एक ही ढंग से प्रेम करोगे? क्या दोनों को गले लगाकर और चूमकर छोड़ोगे? या एक के साथ कुछ रवैया होगा दूसरे के साथ कुछ और रवैया होगा। ईसाइयों ने इन सवालों का जवाब देना शायद ज़रूरी ही नहीं समझा। अल्लाह के क़ानून का यह सबसे महत्वपूर्ण पहलू शायद उन्होंने भुला दिया है।

आज से कुछ वर्ष पहले मुझे एक पश्चिमी देश में जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ। वहाँ कुछ लोगों ने दावत दी कि आप ईसाइयों के एक इजतिमा को सम्बोधित करें और इस्लाम के बारे में बात करें। यह दावत देनेवाले सब-के-सब पादरी थे। मैंने उनसे चर्चा के दौरान यह कहा कि आप लोग दुनिया-भर में जब ईसाईयत का प्रचार-प्रसार करते हैं तो आप कहते हैं कि हज़रत मसीह की शिक्षा यह है कि अगर कोई तुम्हारे दाएँ गाल पर चाँटा मारे तो तुम अपना बायाँ गाल भी उसके सामने कर दो। उन्होंने बहुत गर्व के साथ जवाब दिया कि हाँ बिलकुल, यह हमारी शिक्षाओं में से है। मैंने यह कहा कि मैं यह जाना चाहता हूँ कि जब से आपने यह शिक्षा हज़रत मसीह से जोड़ी है——पता नहीं उनकी यह शिक्षा है भी कि नहीं——उस समय से लेकर आज तक आप मुझे कोई ऐसा ईसाई दिखा सकते हैं जिसको एक गाल पर चाँटा मारा गया हो और उसने दूसरा गाल भी आगे कर दिया हो? मैं आपके सामने अभी आज़माकर देखना चाहता हूँ कि वह ईसाई कौन है? आपके दो हज़ार वर्षीय इतिहास में क्या कभी ऐसा हुआ है कि आपके किसी दुश्मन ने एक शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया हो और आपने दूसरा शहर भी उसके लिए ख़ाली कर दिया हो? किसी चोर ने एक कमरे में डाका डाला हो और आपने दूसरा कमरा भी खोल दिया हो? जेब कतरे ने एक जेब काट ली हो और आपने दूसरी जेब भी आगे कर दी हो कि यह भी काट दो। जब ऐसा कभी नहीं हुआ है और व्यवहारतः होता भी नहीं तो इसका मतलब यह हुआ कि आप इन सारे दावों के बावजूद हज़रत मसीह (अलैहिस्सलाम) से जुड़ी इस शिक्षा को अव्यावहारिक समझते हैं। और कर्म-जगत् में इस नारे को कार्यरत होने की अनुमति नहीं देते। जब अमल का समय आता है तो आप भी हज़रत मसीह से जुड़ी शिक्षा की बजाय अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की प्रदान की हुई शिक्षा पर अमल करते हैं कि मानवता से प्रेम करो, जो बीमार हो, मज़लूम हो और बेगुनाह हो उससे प्रेम करो। और जो ज़ालिम है उससे भी प्रेम करो लेकिन उससे प्रेम करने का तरीक़ा यह है कि इसको ज़ुल्म न करने दो और उसका हाथ रोक दो। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि “तुम्हारा भाई ज़ालिम हो या मज़लूम हो, दोनों सूरतों में उसकी सहायता करो।” सहाबा ने पूछा कि यह मज़लूम की सहायता करना तो समझ में आता है, लेकिन ज़ालिम की सहायता कैसे करें? नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि “ज़ालिम का हाथ पकड़ो, उसको ज़ुल्म मत करने दो।” तो इसका मतलब यह हुआ कि आप व्यावहारिक रूप से उस शिक्षा को नहीं अपना रहे हैं जो आप हज़रत मसीह से जोड़ रहे हैं, बल्कि उस शिक्षा पर अमल कर रहे हैं जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने दी है।

सारांश यह कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शरीअत व्यापक रूप से बयान करती है उन आदेशों को जो हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) की शरीअत में दिए गए थे। तौरात में सख़्त आदेश भी थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शरीअत में भी सख़्त आदेश हैं। हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) ने कुछ सख़्त आदेश भी दिए थे। उनमें से जिन सख़्त आदेशों की आवश्यकता समाप्त हो गई वे सर्वोच्च अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन में बयान नहीं किए। कुछ सख़्त आदेशों की बाद में भी आवश्यकता थी, इसलिए कि ऐसे विद्रोही स्वभाव के लोग हर ज़माने में हो सकते हैं जैसे यहूदी थे। यह उद्दंडता बाद में भी किसी क़ौम में पैदा हो सकती है। अत: जहाँ-जहाँ ऐसी उद्दंडता के उदाहरण आएँगे, वे व्यक्तियों की ओर से आएँ या गिरोहों की तरफ़ से, तो उनकी उद्दंडता से निबटने के लिए सख़्त आदेश पवित्र क़ुरआन में मौजूद हैं और वे दिए जाएँगे। जहाँ सख़्त आदेशों की आवश्यकता नहीं रही थी, वे सर्वोच्च अल्लाह ने समाप्त कर दिए। लेकिन इसके साथ-साथ जो ईश्वरीय क़ानून या क़ानूने-शरीअत का एक आध्यात्मिक और नैतिक पहलू है, जहाँ उसकी आत्मा या उसके मौलिक सिद्धान्तों का सवाल है वे पवित्र क़ुरआन में हर जगह बयान किए गए हैं। आप पवित्र क़ुरआन पढ़ें। जहाँ-जहाँ कोई फ़िक़ही आदेश बयान हुआ है, जहाँ-जहाँ कोई क़ानून बयान हुआ है, जहाँ-जहाँ कोई सज़ा या अपराध बयान हुआ है, वहाँ हर जगह यह कहा गया है कि यह इसलिए है कि तुम तक़्वा (ईशपरायणता) अपनाओ। यह इसलिए है कि तुम्हारे दिल नर्म हो जाएँ। यह इसलिए है कि तुम्हें याद रहे कि तुम्हें कहाँ जाना है। यानी वे चीज़ें जो तौरात और इंजील में अलग-अलग बयान हुई हैं। वे पवित्र क़ुरआन के हर वार्ताक्रम में इकट्ठी कर दी गई हैं। यह पवित्र क़ुरआन की सारगर्भिता का एक और उदाहरण है।

नैतिक आचरण और क़ानून

नैतिक आचरण और क़ानून आज की दुनिया में दो बिलकुल अलग-अलग बल्कि टकराते मैदान समझे जाते हैं। आजकल के पश्चिमी क़ानूनविदों का आग्रह है कि क़ानून को value neutral होना चाहिए। यानी क़ानून को किसी नैतिक मूल्य के बारे में कोई राय नहीं अपनानी चाहिए। यानी क़ानून यह न कहे कि शराब पीना अच्छा है या बुरा है। यह बताना क़ानून का काम नहीं है। क़ानून यह तय न करे कि नैतिक रूप से क्या चीज़ अच्छी है और क्या चीज़ बुरी है। क़ानून नैतिक आचरण और आध्यात्मिकता के बारे में तटस्थ रहे। वह इसको a moral concept of law कहते हैं। उनके नज़दीक ऐसा क़ानून सकारात्मक क़ानून है। उनकी राय में क़ानून को सकारात्मक होना चाहिए। वह केवल यह देखे कि इस समय तथ्य क्या हैं और घटनाओं की दुनिया में इस समय क्या हो रहा है। इससे आगे क़ानून को नहीं जाना चाहिए। क़ानून को मुफ़्ती या धार्मिक पेशवा बनकर नहीं बैठना चाहिए। यह कहकर पश्चिम के लोगों ने क़ानून की दुनिया से नैतिक आचरण को निकाल बाहर किया। पहले नैतिक आचरण को देस निकाला दिया। फिर आध्यात्मिकता को भी निष्कासित कर दिया। अब क़ानून के नाम से जो चीज़ पश्चिमी जगत् में प्रचलित है, उसका नैतिक आचरण से कोई सम्बन्ध शेष रह गया है न आध्यात्मिक मूल्यों से। जहाँ भी वे लोग अध्यात्म की कोई गंध भी महसूस करते हैं वहाँ वे ऑप्रेशन करके इस हिस्से को निकाल देते हैं। जहाँ कहीं नैतिक आचरण का कीटाणु पैदा होता नज़र आता है उसको ऑप्रेशन करके निकाल बाहर कर देते हैं। परिणाम यह निकला है कि क़ानून की दुनिया एक अनैतिक आचरण या अनैतिक दुनिया बन गई। एक आध्यात्मिकता से ख़ाली दुनिया बन गई। क़ानून पर क्रियान्वयन के जो आन्तरिक (inner) प्रेरणास्रोत थे, वे समाप्त कर दिए गए। क़ानून पर क्रियान्वयन के बारे में अल्लाह के सामने पेशी या आख़िरत में जवाबदेही का जो एहसास था वह सारे-का-सारा समाप्त होता जा रहा है। केवल ज़ाहिरी, सरकारी और राजनैतिक स्वीकृतियों (sanctions) को पर्याप्त समझा जा रहा है।

इसका परिणाम यह निकलता जा रहा है कि जब तक sanctions मौजूद रहते हैं, जब तक पुलिस का डंडा, क़ानून, अदालत, फ़ौज सामने है इस समय तक लोग क़ानून का पालन करते हैं। लेकिन अगर यह स्वीकृतियाँ एक लम्हे ले लिए भी नज़रों से हट जाएँ, दो घंटों के लिए भी अगर बिजली फ़ेल हो जाए तो पिछले कई वर्षों की कसर पूरी हो जाती है और एक ही समय में हज़ारों और लाखों घटनाएँ क़त्ल, चोरी और बड़े-बड़े घिनौने अपराधों की देखते-ही-देखते घटित हो जाती हैं। यह इस बात की खुली दलील है कि क़ानून का सम्बन्ध नैतिक आचरण और आध्यात्मिकता से तोड़ देने के बाद किन भयानक परिणामों को लगातार चुप्पी के साथ पैदा होते रहने और फलने के लिए छोड़ दिया गया है।

इसके विपरीत आप देखें। मैं ज़्यादा पुराना उदाहरण नहीं दूँगा। इस तरह के उदाहरणों से लोग यह समझते हैं कि शायद इस्लाम के सुनहरे दौर में कोई फ़रिश्ते प्रकार के इंसान थे। उनके उदाहरण आजकल के गुनाहगार इंसानों के लिए कैसे प्रभावी हो सकते हैं। ये उदाहरण हर दौर के मुसलमानों में मौजूद रहे हैं। ये 1947 का उदाहरण है, पाकिस्तान बनने के तुरन्त बाद का, जिन लोगों ने देखा मैंने उनसे सीधे सुना है।

जब पाकिस्तान में भारत-विभाजन के बाद यह सूचनाएँ मिलीं कि कुछ इलाक़ों में हिन्दुओं ने मुसलमानों को लूटा है और उनको उनके घरों से निकाल दिया है तो कराची के कुछ इलाक़ों के कुछ जोशीले मुसलमानों ने हिन्दुओं की एक बस्ती लूटी और वहाँ का सारा सामान अपने घर ले गए। क़ायदे-आज़म मुहम्मद अली जिनाह को यह बात मालूम हुई तो वह तुरन्त वहाँ गए। जहाँ वह खड़े हुए थे, वह जगह मैंने देखी है। जो लोग वहाँ पर मौजूद थे उनमें से कुछ को मैंने देखा और उन्होंने ही मुझे बताया है कि क़ायदे-आज़म (मुहम्मद अली जिनाह) ने वहाँ खड़े होकर कहा कि मैं चौबीस घंटे का समय देता हूँ। जिन-जिन लोगों ने यह सामान लूटा है, वे चौबीस घंटों के अन्दर-अन्दर पूरा सामान लाकर यहाँ मस्जिद में रख दें। कल शाम में हिन्दुओं को उनकी तमाम लूटी हुई चीज़ें वापस दूँगा। अगर किसी की कोई चीज़ रह गई हो तो मैं हिन्दुओं का बयान बिना किसी सुबूत और दलील के स्वीकार कर लूँगा और इस इलाक़े के तमाम लोगों को पाकिस्तान से निकाल दूँगा। क़ायदे-आज़म यह कहकर वहाँ से चले गए। मौलाना एहतिशामुल-हक़ थानवी की मस्जिद क़रीब थी। उन्होंने लोगों का एक इजतिमा बुलाया और उनसे कहा कि क़ायद ने जो कुछ कहा है वह आपके सामने है। यह हरकत जो यहाँ के कुछ लोगों ने की है, शरई तौर से भी जायज़ नहीं है। यहाँ बसनेवाले ग़ैर-मुस्लिम निवासी और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग हमारी शरण में हैं। एक नवजात इस्लामी राज्य के रूप में हमारी ज़िम्मेदारी है कि उनकी जान-माल को हम सुरक्षित रखें। हज़रत अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ियल्लाहु अन्हु) का कथन है कि “जो हमारे अधिकार एवं कर्तव्य हैं वही उनके अधिकार एवं कर्तव्य हैं और जो हमारी ज़िम्मेदारियाँ हैं वही उनकी भी ज़िम्मेदारियाँ हैं।” हज़रत ख़ालिद-बिन-वलीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने एक ईसाई क़ौम से एक अनुबन्ध किया था जिसमें उन्होंने लिखा था कि “जो मुसलमानों के अधिकार हैं वे उनके अधिकार होंगे और जो मुसलमानों के कर्तव्य हैं वे उनके कर्तव्य होंगे।” और इस अनुबन्ध को हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने मंज़ूर किया था।

चुनाँचे मौलाना एहतिशाम उल-हक़ थानवी और कई दूसरे लोगों से भी मैंने सुना कि जिस व्यक्ति ने जो चीज़ किसी हिन्दू के घर से उठाई थी वह एक-एक चीज़ लाकर रख दी। और अगली सुबह जब वे हिन्दू या पार्सी जो-जो भी प्रभावित थे, वे आए तो उनका सारा माल छीना हुआ और चुराया हुआ वहाँ मौजूद था। उन्होंने अपनी एक-एक चीज़ उठाई और सर्टिफ़िकेट लिखकर दे दिया कि हमारी हर चीज़ हमें मिल गई और अब हमें कोई शिकायत नहीं है। चुनाँचे यह सर्टिफ़िकेट क़ायदे-आज़म तक पहुँचाया गया जिसपर वे सन्तुष्ट हो गए।

कहने का उद्देश्य यह है कि अगर दिल में अल्लाह का डर हो और यह एहसास हो कि एक मुसलमान की ज़िम्मेदारी क्या है, दिल में यह भावना पाई जाती हो कि इस्लाम की नैतिक एवं आध्यात्मिक अपेक्षाओं को व्यवहार में लाना है और यह जानने और सीखने की भी इच्छा हो कि शरीअत की अपेक्षाएँ क्या हैं, तो फिर इंसान हर दौर में शरीअत के आदेशों और अपेक्षाओं पर अमल करने के लिए तैयार रहता है। इसके उदाहरण हर दौर और हर इलाक़े में मिलते हैं। आपके और हमारे जीवन में मिलते हैं। हज़ारों उदाहरण आपने भी देखे होंगे कि किसी की कोई चीज़ चोरी हो गई, किसी को मिली और उसने अस्ल मालिक तक पूरी अमानत और ईमानदारी के साथ पहुँचा दी। लाखों-करोड़ों रुपये की चीज़ें लोगों ने अस्ल मालिकों तक पहुँचा दीं, हालाँकि देखनेवाला कोई नहीं था। इस तरह के बहुत-से उदाहरण मुस्लिम समाजों में मौजूद हैं और मिलते हैं। यह सारगर्भिता है क़ानून, नैतिक आचरण और आध्यात्मिकता की। अन्तरात्मा और ज़ाहिरी कुव्वतों के आपसी मिलन और सौहार्द की। यह इस्लामी शरीअत की वह मौलिक विशेषता है जिससे दुनिया के अधिकतर क़ानून ख़ाली हैं।

फ़िक़्हे-इस्लामी में गतिशीलता

इस्लामी शरीअत की तीसरी विशेषता उसकी गतिशीलता है। गतिशीलता यानी mobility और dynamism कि वह समय गुज़रने के साथ-साथ लगातार व्यापकता की ओर अग्रसर है। नए-नए तथ्यों और नई-नई घटनाओं को अपने अन्दर समोती है और हर नए आनेवाली समस्या का जवाब उसके मार्गदर्शन-संग्रह से उपलब्ध हो जाता है। इस पहलू पर अधिक विस्तृत चर्चा तो इज्तिहाद के अध्याय में होगी, लेकिन यह वास्तविकता यहाँ बयान करनी ज़रूरी है कि इस्लामी क़ानून और शरीअत दुनिया का वह एक मात्र क़ानून है जो चौदह सौ पच्चीस (1425) वर्षों से आज तक एक निरन्तरता के साथ इंसानों के जीवन के बड़े हिस्से को संगठित कर रहा है। जिस हिस्से को मुसलमानों ने अपनी कोताहियों की वजह से छोड़ दिया है, उसपर हम अल्लाह के सामने माफ़ी के तलबगार हैं। हमें प्रयासरत होना चाहिए कि इस हिस्से में भी हम जल्द-से-जल्द शरीअत की मंशा पर अमल करने लगें। लेकिन हर मुसलमान शरीअत के किसी-न-किसी हिस्से पर अमल ज़रूर कर रहा है। यह निरन्तरता किसी अन्य क़ानूनी-व्यवस्था को प्राप्त नहीं है। इस निरन्तरता की सबसे महत्वपूर्ण और सबसे बड़ी वजह शरीअत की वह गतिशीलता और इस्लामी क़ानूनी व्यवस्था की वह mobility है जिसके कारण यह हर हालत और हर नई पेश आनेवाली स्थिति में हर नई समस्या के बारे में मार्गदर्शन दे सकता है।

दुनिया की जो क़ानूनी व्यवस्था भी अतीत में इंसानों ने बरती है या आज बरत रहे हैं, वह किसी ख़ास इलाक़े में पैदा हुई। उसका जन्म और संकलन किसी विशेष क्षेत्र में या क़ौम में हुआ। जब तक वह अपने इलाक़े और क़ौम तक सीमित रही, उस समय तक उसमें कुछ-न-कुछ सफलता नज़र आती रही। जब उसको अपने इलाक़े और परिवेश से निकलकर दूसरों के इलाक़े और परिवेश में जाने का मौक़ा मिला, तुरन्त उसके आधार और सर्वमान्य सिद्धान्तों में परिवर्तन आ गया और वह कुछ-की-कुछ हो गई और अपनी अस्ल से इतनी भिन्न हो गई और इतनी बदल गई कि बादवालों के लिए यह जानना मुश्किल हो गया कि यह क़ानूनी व्यवस्था आई कहाँ से थी। इसके उदाहरण रोमन लॉ, आधुनिक पश्चिमी क़ानून, फ़्रांस और इंग्लैंड के सिविल और कॉमन लॉ में आपको हर जगह मिलेंगे। जब कोई क़ानूनी व्यवस्था अपने केन्द्र और जन्मभूमि से निकलकर कहीं और गई, वह वहाँ के रंग में इतना रंग गई कि अपने अतीत से सम्बन्ध तोड़ने पर मजबूर हो गई। या तो समाप्त हो गई, मौत का शिकार हो गई या फिर उसने अपना स्वरूप इतना बदल लिया कि अस्ल से सम्बन्ध समाप्त हो गया। इसके विपरीत इस्लाम और इस्लामी शरीअत को देखिए। इस्लामी शरीअत अरब द्वीप से निकली। मक्का मुकर्रमा और मदीना मुनव्वरा उसके मुख्य केन्द्र थे। वहीं से इस्लामी शरीअत निकली। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) उसको उस दौर की सभ्य दुनिया के हर कोने में ले गए। ताबिईन ने उसको पूरी धरती के चप्पे-चप्पे में फैला दिया। आज उसपर दुनिया के हर इलाक़े में अमल हो रहा है। चीन और जापान में भी हो रहा है और ब्राज़ील और अर्जेनटीना में भी हो रहा है। लेकिन इस मुसलमान से जो रमज़ान में रोज़ा रखता हो और ब्राज़ील या अर्जेनटीना में रहता हो, आप पूछकर देखें तो वह रोज़े और नमाज़ के उन्ही आदेशों पर अमल कर रहा है जिनपर सऊदी अरब और पाकिस्तान का कोई मुसलमान अमल कर रहा है। वह निकाह और तलाक़ के उन ही आदेशों पर अमल कर रहा है जिनपर आप पाकिस्तान या किसी और देश में अमल कर रहे हैं। वह वहाँ हराम की हुई और निषिद्ध चीज़ों से इसी तरह बचता है जिस तरह आप यहाँ बचते हैं। वह शरीअत के कर्तव्यों और अनिवार्यताओं पर अपने परिवेश में इसी प्रकार अमल कर रहा है जिस तरह आप इन चीज़ों पर अपने परिवेश में अमल कर रहे हैं। अरब द्वीप के रेगिस्तानी वातावरण से निकलकर सीरिया के अत्यन्त सभ्य वातावरण में, और स्पेन के अत्यन्त सभ्य इलाक़े में जाने से इस शरीअत के स्वभाव, प्रवृत्ति और शैली में कोई परिवर्तन नहीं आया। इसलिए कि इसमें विभिन्न चीज़ों को समो लेने की इतनी बेपनाह क्षमता मौजूद थी कि अपने मौलिक गुणों में किसी परिवर्तन को रास्ता दिए बिना वह इन सारे परिवर्तनों को अपने अन्दर समो सकती थी। अपने मौलिक गुणों के बारे में कोई समझौता किए बिना वह असीमित स्थितियों और असीमित समस्याओं को अपने अन्दर समो लेने की क्षमता रखती है। यह क्षमता दुनिया के किसी भी क़ानून में और किसी और क़ौम की दी हुई व्यवस्था में नहीं पाई जाती। यह सारी प्रक्रिया कैसे सम्भव हुई? इसका मैकेनिज़्म और कार्य-पद्धति क्या है? इसपर इज्तिहाद के अध्याय में ज़रा विस्तार से चर्चा होगी।

मध्यता और सन्तुलन

शरीअत या फ़िक़्हे-इस्लामी का चौथा विशेष गुण ‘एतिदाल’ यानी मध्यता है। ‘एतिदाल’ से मुराद यह है कि मानव-जीवन की जितनी माँगें हैं, उन सबके दरमियान इस तरह सद्भाव रखा गया हो कि कोई माँग प्रभावित न होने पाए। किसी एक माँग की क़ीमत पर दूसरी माँगों की पूर्ति का सामान न किया गया हो। इस मामले में दुनिया की कोई क़ौम फ़िक़्हे-इस्लामी या शरीअत का मुक़ाबला नहीं कर सकती। सेक्युलर व्यवस्थाओं ने इंसानों की भौतिक एवं शारीरिक आवश्यताओं पर ज़्यादा ज़ोर दिया। आध्यात्मिक अपेक्षाओं को छोड़ दिया। कुछ प्राचीन धर्मों ने आध्यात्मिक और नैतिक अपेक्षाओं पर ज़ोर दिया और भौतिक तथा शारीरिक अपेक्षाओं को उपेक्षित कर दिया। कुछ क़ौमों ने मात्र नैतिक मार्गदर्शन को पर्याप्त समझा और अल्लाह के साथ सम्बन्ध और आध्यात्मिकता के प्रशिक्षण को अनावश्यक ठहरा दिया। कुछ लोगों ने मात्र अल्लाह से सम्बन्ध और आध्यात्मिकता को पर्याप्त समझा और शेष विवरण को छोड़ दिया। ईसाइयत और बौद्ध धर्म के उदाहरण आपके सामने हैं।

बौद्ध धर्म के ध्वजावाहकों ने यह समझा कि अगर इंसान को नैतिक मार्गदर्शन दे दिया जाए और नैतिक सिद्धान्तों पर कार्यान्वयन का प्रशिक्षण दे दिया जाए तो फिर शेष किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं रहती। चुनाँचे उन्होंने किसी और चीज़ से दिलचस्पी न रखी। उनके यहाँ न परलोक की धारणा है न किसी स्रष्टा की, न सृष्टि के किसी संचालक की और न किसी सृष्टि के रचयिता की धारणा है। बौद्ध धर्म के मूल संस्थापक बुद्ध के पास इन चीज़ों की कोई परिकल्पना थी या नहीं थी, यह हम नहीं जानते, लेकिन आज जो चीज़ें उनसे जुड़ी हुई हैं उनमें ईश्वर या परलोक की कोई धारणा मौजूद नहीं है। केवल नैतिक आचरण की व्यवस्था देने पर उन्होंने बस किया। नैतिक आचरण में भी अगर शरीअत का मार्गदर्शन होता तो शायद असन्तुलन का यह प्रदर्शन न होता।

आज से कई वर्ष पहले मुझे एक ऐसे देश में जाने का मौक़ा मिला जहाँ बुद्धिस्टों की बहुलता है। वहाँ बुद्धिस्टों की एक धार्मिक संस्था ने मुझसे सम्पर्क करके कहा कि आप हमसे सम्बोधन करें। सम्भवतः वह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की जीवनी पर कोई चर्चा करवाना चाहते थे। चुनाँचे मैंने उनकी दावत स्वीकार कर ली और सीरते-पाक के एक दो पहलुओं पर उनकी जनसभा को सम्बोधित किया। जब पूरी चर्चा हो गई तो एक साहब ने सवाल किया। कुछ लोग सवाल के रूप में वास्तव में टिप्पणी करते हैं। उन्होंने भी सवाल के पर्दे में अपनी टिप्पणी यह की कि बौद्ध धर्म में जो उच्च नैतिक मूल्य पाए जाते हैं, मुसलमानों के यहाँ वे मूल्य नहीं पाए जाते और मुसलमानों की जो धार्मिक बहसें (religious discourse) हैं, उनमें नैतिक आचरण को वह स्थान प्राप्त नहीं है जो बुद्धिस्टों के यहाँ प्राप्त है। यह गोया उनके सवाल का मौलिक भाग था। मैंने सवाल का जो जवाब देना था वह तो दे दिया और फिर उनसे बताया कि आपने जिस नैतिक धारणा का ज़िक्र किया है और जिसपर आपने गर्व का प्रदर्शन भी किया है, अगर आप अनुमति दें और महसूस न करें तो मैं बताऊँ कि वह नैतिक धारणा एक हारे हुए इंसान की नैतिक धारणा तो हो सकती है, एक सफल इंसान की नैतिक धारणा नहीं हो सकती। दूसरे यह कि यह नैतिक धारणा अगर दुनिया का इंसान आज अपना ले तो उसके परिणामस्वरूप इस धरती पर से इंसानी आबादी देखते-ही-देखते समाप्त हो जाएगी और सभ्यता एवं संस्कृति की हर चीज़ की समाप्ति हो जाएगी। अगर आपको यह मंज़ूर है कि सभ्यता एवं संस्कृति की समाप्ति हो जाए और धरती से इंसानी आबादी मिट जाए तो फिर आप ज़रूर महात्मा बुद्ध से जुड़े नैतिक आचरण को बढ़ावा दें। इसपर सब दर्शकों ने मेरी तरफ़ आश्चर्य से देखा कि मैं यह क्या कह रहा हूँ और किस आधार पर कह रहा हूँ। मैंने कहा कि आपकी किताबों में लिखा हुआ है कि महात्मा बुद्ध कपिलवस्तु के राज्य के एक हिन्दू राजा के बेटे थे। यह बहुत बड़ा राज्य था। इस राज्य में लोग बहुत ख़ुशहाल थे, उन्हें तमाम संसाधन उपलब्ध थे। न्याय और इंसाफ़ था और आप ही बयान करते हैं कि वह सब मौजूद था जो एक सफल राज्य में होना चाहिए। महात्मा बुद्ध एक बार एक नौजवान शहज़ादे की हैसियत से अपने घर से निकले और एक ग़रीब और सम्भवत: विधवा महिला को देखा जो अपने छोटे बच्चे को गोद में लिए हुए थी और बहुत परेशान थी। महात्मा बुद्ध को कोमल स्वभाव और संवेदनशील दिल पर इसका बड़ा प्रभाव हुआ। उन्होंने अपने घर-बार और पत्नी बच्चों को छोड़ा और संन्यास लेकर के जंगल में चले गए। [बात इतनी ही नहीं है, इस सम्बन्ध में कुछ घटनाएँ और भी हैं, जो गौतम बुद्ध से जोड़ी जाती हैं। उदाहरणार्थ उन्होंने एक बूढ़े व्यक्ति को देखा जो लाठी टेकते हुए चल रहा था। पूछने पर पता चला कि मनुष्य के जीवन में एक समय ऐसा भी आता है जब वह बुढ़ापे के कारण अत्यन्त कमज़ोर हो जाता है। उसके बाद उन्होंने देखा कि कुछ लोग एक व्यक्ति को चारपाई पर लादे ले जा रहे हैं। पूछने पर मालूम हुआ कि वह व्यक्ति मर चुका है और यह कि एक दिन हर व्यक्ति को इसी प्रकार मर जाना है। यह सब देखकर उन्हें जीवन की क्षण-भंगुरता का आभास हुआ और उन्होंने संसार त्यागने का फ़ैसला कर लिया—— अनुवादक]  फिर पूरा जीवन उन्होंने जंगल में गुज़ार दिया। उनके निकट उत्तम नैतिक और आध्यात्मिक गुण यह है कि इंसान हर प्रकार की भौतिक सुविधाओं और अनुकम्पाओं से दूर रहे। कम-से-कम वस्त्र पहने। कमर पर तहबंद बाँध ले और भीख माँगकर एक-दो समय का खाना खाए। कुछ कमाने की ज़रूत नहीं। आप जाकर भीख माँगेंगे तो इससे आपका मन (नफ़्स) मरेगा। भीख माँगने से मन में घमंड पैदा नहीं होगा। घमंड से सारी ख़राबियाँ पैदा होती हैं। घमंड को समाप्त करने का तरीक़ा यह है कि इंसान भीख माँगे और माँग-माँगकर रूखी-सूखी से पेट भरे।

अगर यही नैतिक आचरण है और यह सारी मानवता का अभीष्ट है, और मान लीजिए आज दुनिया के छः अरब इंसान इसको अपना लें तो हर पुरुष को चाहिए कि घर-बार छोड़कर जंगलों में चला जाए। हर महिला को चाहिए कि फिर विधवा का जीवन गुज़ारे और जिस तरह वह औरत बेसहारा फिर रही थी इसी तरह दुनिया की औरतें बेसहारा फिरा करें। और उन बच्चों का जब तक जीवन है रहें, और उनके मरने के बाद न किसी का घरेलू जीवन होगा, न आगे नस्लें चलेंगी। और वर्तमान इंसान सौ-पचास वर्ष में मर जाएँगे। और चूँकि हर व्यक्ति भीख माँगकर खाएगा, अत: न कारोबार होगा न व्यापार होगा, न कोई और आर्थिक गतिविधि होगी। लोग जंगलों में रहा करेंगे, वृक्षों के नीचे बसेरा किया करेंगे, तो न मकानों की आवश्यकता होगी, न सड़कों की, न पुलों, न फ़ैक्ट्रियों की, न बैंकों की कोई आवश्यकता रहेगी। यों न सभ्यता रहेगी, न संस्कृति रहेगी, न इंसान रहेंगे। जब आप सचमुच यह तय करके इसपर अमल शुरू कर देंगे तो आगामी सौ-पचास वर्षों में मानवता को तबाह हो जाना चाहिए। तो फिर मानवता को भी चाहिए कि आपका धर्म स्वीकार कर ले। लेकिन अगर मानवता को अभी ऐसा कोई फ़ैसला नहीं करना और उसने यह फ़ैसला किया है कि उसने अभी रहना है और नैतिक आचरण और अध्यात्म के साथ रहते हुए सभ्यता को भी चलाना है तो उसके सामने केवल अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आदर्श जीवन के सिवा कोई और रास्ता नहीं है। आध्यात्मिकता और नैतिक आचरण को सामने रखते हुए अगर कोई समाज और सभ्यता दे सकता है तो केवल इस्लाम के पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ही दे सकते हैं, और उन ही की शरीअत और आदर्श के द्वारा ये दोनों उद्देश्य प्राप्त किए जा सकते हैं।

यह वह सन्तुलित और मध्यमार्ग है जिसकी मानवता को आज व्यावहारिक रूप से आवश्यकता है। मानवता मुख से जो भी कहती हो, ईसाई और बुद्धिस्ट और जैन मत वाले मुख से जो भी कहते हों, व्यावहारिक रूप से वे जिस चीज़ को वैध, सही और व्यावहारिक समझ रहे हैं, जिस समाधान को वह मानवता की समस्याओं का एक मात्र सफल समाधान समझ रहे हैं, वह वही समाधान है जो इस्लामी शरीअत ने दिया है। यानी दुनिया की सफलताओं और आख़िरत की सफलताओं को एक साथ लेकर चलना है। अस्ल और वास्तविक सफलता आख़िरत यानी परलोक की सफलता है। लेकिन दुनिया की सफलता को छोड़ने का इस्लाम ने कहीं आदेश नहीं दिया।

‘रहबानियत’ (संन्यास) जिसे ईसाइयों ने अपनाया, उसके बारे में पवित्र क़ुरआन ने कहा है कि “उन्होंने रहबानियत की बिदअत को अपनाया था, हमने रहबानियत उनके लिए नहीं लिखी थी।” (क़ुरआन, 57:27) उन्होंने अपनी समझ से अल्लाह की प्रसन्नता रहबानियत में समझी। उन्होंने उस चीज़ का भी ख़याल नहीं रखा जो उन्होंने स्वयं अपनाई थी। उसकी अपेक्षाओं को भी पूरा नहीं कर सके। यानी जब सन्तुलन और मध्यता से हटकर किसी रास्ते को अपनाया जाएगा तो इंसान उसकी अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकेगा। यही वजह है कि इस्लामी शरीअत ने हर मामले में सन्तुलन और मध्यमार्ग अपनाने का आदेश दिया है। “यह दीन आसान है, इसमें नर्मी और आसानी के साथ दाख़िल हो।” फिर जो बात नबी (सल्लल्लाहु आलैहि व सल्लम) ने कही वह बड़ी महत्वपूर्ण है। “तुममें से कोई व्यक्ति दीन के बारे में सख़्त रवैया नहीं अपना सकता जिसका यह परिणाम न निकले कि दीन उसपर प्रभावी हो जाए। वह प्रभुत्व या जो सख़्त रवैया उसने अपनाया है वह सख़्त रवैया उसपर ग़ालिब आ जाएगा और वह उसको निबाह नहीं सकेगा।” अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को इसका प्रशिक्षण दिया कि वे इस्लाम के सन्तुलित स्वभाव को अपने जीवन का हिस्सा बनाएँ।

प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से यह आशा तो (अल्लाह की पनाह) नहीं थी कि उनमें दुनिया की मुहब्बत पैदा हो, लेकिन इसकी सम्भावना पैदा हो सकती थी कि उनमें अल्लाह के प्रति निष्ठा की भावना इतनी शिद्दत से पैदा हो जाए कि वे सांसारिक अपेक्षाओं को भूल जाएँ। इसकी सम्भावना मौजूद थी कि दीन पर अमल की भावना की शिद्दत में सन्तुलन और मध्यता की सीमा का उल्लंघन हो जाए, अल्लाह से सम्बन्ध की भावना इतनी तीव्र हो जाए कि उसकी तीव्रता में वे बाह्य और भौतिक अपेक्षाओं को भूल जाएँ। इसकी सम्भावना मौजूद थी। चुनाँचे उसके एक-दो उदाहरण सामने भी आए। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अपने घर पर मौजूद थे। कुछ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) मस्जिदे-नबवी में बैठे थे। वे किसी आध्यात्मिक कैफ़ियत में थे। अल्लाह से सम्बन्ध की किस स्थिति में थे, अल्लाह को बेहतर मालूम है। निश्चय ही उस समय उनके दिलों में असाधारण भावनाएँ उमड़ रही थीं। उनमें से एक साहब ने कहा कि मैंने तो यह सोचा है कि मैं पूरे जीवन नमाज़ पढ़ते हुए गुज़ार दूँगा। मैंने एक वीरान जगह तलाश की है जो बड़ी शान्तिपूर्ण है। मैं वहाँ जाकर बैठ जाऊँगा और अपना पेट भरने के लिए कोई जंगली फल वग़ैरा ख़ा लिया करूँगा और पूरा जीवन इबादत में गुज़ार दूँगा। एक दूसरे साहब ने कहा कि मेरी दिलचस्पी तो इसमें है कि मैं सारा जीवन रोज़े रखूँगा और दाम्पत्य-जीवन से अलग हो जाऊँगा। इस तरह विभिन्न बातें विभिन्न लोगों ने आपस में एक-दूसरे को बताईं। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) यह बातें सुन रहे थे। जब आप बाहर आए तो पूछा कि ये बातें कौन-लोग कर रहे थे? उनमें से जो लोग ये बातें कर रहे थे उन्होंने कहा कि “ऐ अल्लाह के रसूल! हम लोग थे।” तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा कि “याद रखो कि तुममें से सबसे ज़्यादा शरीअत को जाननेवाला मैं हूँ। तुममें सबसे ज़्यादा तक़्वा करनेवाला और अल्लाह को याद करनेवाला हूँ।” इस अर्थ के उन्होंने दो तीन वाक्य कहे, फिर कहा कि “मैं दाम्पत्य-जीवन भी गुज़ारता हूँ, अल्लाह की इबादत भी करता हूँ, रात को सोता भी हूँ और इबादत भी करता हूँ। मैं रोज़े रखता भी हूँ और नहीं भी रखता। मैं सांसारिक मामलों में भी दिलचस्पी लेता हूँ। मेरा तरीक़ा यह है जो मैंने अपनाया है।” फिर उन्होंने वह बात कही जो आपने अक्सर निकाह के ख़ुत्बों में सुनी होगी कि  النکاح من سنتی فمن رغب عن سنتی فلیس منی“निकाह मेरी सुन्नत है, जिसने मेरी सुन्नत से मुँह फेरा उसका मुझसे कोई सम्बन्ध नहीं।”

यानी मध्यमार्ग और सन्तुलन पर उन्होंने इतना ज़ोर दिया कि इससे हट जानेवालों से बिलकुल विरक्ति जताई। इतना ज़ोर दिया कि अपने प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को जिनमें वे सहाबी भी शामिल थे, जो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को अत्यन्त प्रिय थे, उनको भी उन्होंने इसकी अनुमति नहीं दी कि वे अपने जीवन केवल अल्लाह की इबादत के लिए समर्पित कर दें। इबादत के लिए जीवन समर्पित करना और जीवन की दूसरी अपेक्षाओं को छोड़ देना उन्होंने पसंद नहीं किया। इस चीज़ को अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने तरीक़े के ख़िलाफ़ क़रार दिया और अपने तरीक़े के ख़िलाफ़ करनेवालों से उन्होंने विरक्ति जताई। इस विरक्ति जताने की वजह सम्भवत: यह है कि प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) तो निस्सन्देह उसकी अपेक्षाएँ पूरी कर लेते लेकिन उनके बाद आनेवाले लोग इन अपेक्षाओं को पूरा न कर सकते। और वे उन्ही ख़राबियों का शिकार हो जाते जिनका ईसाई राहिब और पादरी शिकार हुए और जिन्होंने रहबानियत ईजाद की। रहबानियत के नाम पर इस समय दुनिया में क्या हो रहा है वह बयान करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसी-ऐसी नैतिक ख़राबियाँ और अपराध रहबानियत और संन्यास के नाम पर पैदा हुए हैं जिनके उदाहरण आदमी दे नहीं सकता। आपमें से जो पढ़ना चाहते हैं वे स्वयं अध्ययन कर लें। लेकी एक व्यक्ति था। उसने एक किताब दो भागों में लिखी है History of European Morals. यह किताब सम्भवतः 1880 में लिखी गई थी। उसका उर्दू अनुवाद उर्दू भाषा के प्रसिद्ध पत्रकार, शायर और साहित्यकार मौलाना ज़फ़र अली ख़ान ने ‘तारीख़े-अख़लाक़े-यूरोप’ के नाम से किया है। यह किताब पढ़ लें तो अनुमान हो जाएगा कि पश्चिम के और ईसाइयत के धार्मिक वर्ग, उनके धार्मिक पेशवा और पादरी नैतिक आचरण की किस ‘ऊँचाई’ पर आसीन थे। इस किताब से मालूम हो जाएगा कि रहबानियत और संन्यास के बज़ाहिर ख़ुशनुमा पर्दों में क्या-क्या गुल खिलाए गए। यह उन्हीं के एक आदमी का लिखा हुआ विस्तृत विवरण और वृत्तान्त है।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जब यह बात कह रहे थे तो उनके सामने केवल वे चार सहाबा नहीं थे। वे सहाबा अगर इस रवैये को अपना लेते और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उसकी अनुमति दे देते तो आगे से ऐसी हज़ारों या शायद लाखों घटनाएँ घटतीं कि मुसलमान एक सामयिक धार्मिक भावना में इस रवैये को अपनाता, फिर उसको निबाह न सकता। निबाह न सकने की स्थिति में यह बात दूसरों के सामने ग्लानि का कारण बनती कि जी बड़े शौक़ से गए थे कि मैं सारे जीवन जंगल में रहूँगा और रोज़े रखूँगा लेकिन दो महीने बाद ही चले आए। लोग कहते कि जी कहाँ गई आपकी धार्मिकता। इस व्यंग्य के डर से लोग न आते। वहीं रहते या कहीं और चले जाया करते। और फिर कहीं और जाकर क्या गुल खिलाते और क्या-क्या होता कोई नहीं कह सकता। केवल अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को यह अनुमान हो सकता था कि इस रवैये का परिणाम क्या होता। यह हममें से हर एक के जीवन में होता है। हर एक के साथ होता है कि कुछ ख़ास माहौल में, कि हज या उमरा वग़ैरा किया है, कोई प्रभावकारी दर्स सुना है, कोई अच्छी दीनी बात सुनी है, कोई किताब पढ़ी है। अब बहुत तीव्र भावना पैदा हुई कि यह सब जीवन बेकार है और यह सब सांसारिक धंधा और कारोबार और सब कुछ छोड़ देना चाहिए। याद रखिए इस तरह की भावना सामयिक होती है। कभी दो-चार दिन में समाप्त हो जाती है। कभी वर्ष दो वर्ष में समाप्त हो जाती है। यहाँ तक कि कमी तो उसमें दो-चार ही दिन में पैदा हो जाती है।

आपने हज़रत हंज़ला (रज़ियल्लाहु अन्हु) की घटनी सुनी होगी। प्रसिद्ध सहाबी हैं। वे एक बार घर से अत्यन्त परेशानी की हालत में निकले। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। रास्ते में हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) से आमना-सामना हुआ। उन्होंने पूछा, “कहाँ जा रहे हो?” कहने लगे कि “हंज़ला तो मुनाफ़िक़ हो गया, अल्लाह के रसूल के पास जा रहा हूँ।” हज़रत अबू-बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने पूछा कि “भाई, क्या हुआ?” हज़रत हंज़ला (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहने लगे कि “जब मैं अल्लाह के रसूल की महफ़िल में बैठा होता हूँ तो समझता हूँ कि सर्वोच्च अल्लाह पर ईमान की जो कैफ़ियत है वह असाधारण है और इससे बढ़कर कोई कैफ़ियत नहीं हो सकती, गोया जन्नत भी सामने है और जहन्नम भी सामने है। दुनिया से कोई सम्बन्ध मालूम नहीं होता। और बिलकुल अल्लाह के दरबार में उपस्थित हूँ ऐसा मालूम होता है। जब वापस घर आता हूँ, पत्नी, बच्चों और कारोबार में बैठता हूँ तो वह कैफ़ियत मालूम नहीं होती। यह तो निफ़ाक़ (कपटाचार) की निशानी है कि अल्लाह के रसूल की मौजूदगी में एक कैफ़ियत और अनुपस्थिति में दूसरी कैफ़ियत हो।” इसपर हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने फ़रमाया कि इस तरह तो मैं भी महसूस करता हूँ। चलें, अल्लाह के रसूल की सेवा में हाज़िर होकर हाल बयान करते हैं। दोनों ने जाकर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सामने यह बात बयान की। उन्होंने उनको तसल्ली दी और फ़रमाया कि “इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। कभी-कभी ऐसा होता है, कभी-कभी वैसा होता है।” उन्होंने हाथ से इशारा किया और कहा कि कभी यह होता है और कभी यह होता है। और अगर वही कैफ़ियत सदा बरक़रार रहती जो मेरी महफ़िल में होती है तो फ़रिश्ते गलियों में तुम्हारे हाथ चूमा करते। इसलिए वह कैफ़ियत हमेशा शेष नहीं रह सकती। इसलिए यह समझना चाहिए कि यह कैफ़ियत अल्लाह का एक इनाम है। अगर प्राप्त हुआ है तो इसकी क़द्र करनी चाहिए। लेकिन इस कैफ़ियत की वजह से आदमी वह ज़िम्मेदारी अपने सर ले-ले जो बाद में न निबाह सके, अल्लाह की शरीअत ने इसको एतिदाल (सन्तुलन) के विरुद्ध समझा। और सन्तुलन के ख़िलाफ़ होने की वजह से इस रवैये की अनुमति नहीं दी। एतिदाल या सन्तुलन के उदाहरण इतने हैं और इतने पहलू हैं कि शरीअत का कोई विभाग ऐसा नहीं है। इस्लाम की शिक्षा का कोई ऐसा विभाग नहीं है जहाँ सन्तुलन की यह शान न पाई जाती हो।

एतिदाल या सन्तुलन की यह शान अक़ीदों में भी है। एहसान और तज़किये (आत्मशुद्धि) के मामले में भी है। लेकिन सबसे ज़्यादा जिस मामले में है वह फ़िक़्ह और शरीअत के मामले में है। फ़िक़्ह में पूरा मानव-जीवन एक आपस में जुड़ी हुई कड़ियों से बनी मशीन का हिस्सा है। इसके अंग आपस में एक-दूसरे के साथ मिले हुए हैं। एक-दूसरे के साथ टकराते नहीं हैं। एक-दूसरे को पूर्ण करते हैं। पूर्णता तब हो सकती है जब सब में मध्यमार्ग पाया जाता हो। जिस चीज़ को जहाँ रखना है वहाँ रखा गया हो। उसकी हैसियत से आगे बढ़कर न रखा गया हो। यह वह चीज़ है जिसको अरबी भाषा में ‘अद्ल’ भी कहते हैं और ‘एतिदाल’ भी कहते हैं। इसके विपरीत कैफ़ियत को अरबी भाषा में ‘ज़ुल्म’ कहते हैं। ज़ुल्म का अस्ल और शाब्दिक अर्थ persecution नहीं है। अगरचे ज़ुल्म का एक प्रकार persecution भी है। अरबी भाषा में ज़ुल्म का अर्थ है “किसी चीज़ को उसकी अस्ल जगह के अलावा कहीं रख देना।” इस गिलास की जगह इस मेज़ के ऊपर दरमियान में है और इस प्लेट के अन्दर है। मैं इस गिलास को प्लेटफ़ार्म के कोने पर रखूँगा तो यह ज़ुल्म है, क्योंकि यह गिलास की जगह नहीं है। ठोकर लगेगी तो गिर जाएगा। आपको घर की कोई चीज़ रखनी है। चमचा और बर्तन किचन की अलमारी में रखने हैं। आप उसे ले जाकर किताबों की अलमारी में रख दें। यह उसके साथ ज़ुल्म है। किताब उठाकर किचन में सिंक के नीचे रखें तो यह किताब के साथ ज़ुल्म है। यह रवैया अरबी भाषा में ज़ुल्म कहलाता है। जब ताक़त का दुरुपयोग होगा तो वह ज़ुल्म होगा। जहाँ शक्ति प्रयोग नहीं होनी चाहिए और वहाँ प्रयुक्त की जाए तो यह ज़ुल्म होगा। जिसके साथ सख़्ती नहीं करनी और उसके सख़्ती करें तो यह ज़ुल्म होगा। जिसके साथ नरमी नहीं करनी और नरमी की गई तो यह ज़ुल्म होगा। यानी ज़ुल्म एक विस्तृत शब्दावली है और यह प्रयुक्त होती है “किसी चीज़ को उसके स्थान से हटाकर ग़लत जगह रखने से”। अगर आदमी यह तय कर ले कि उसको ज़ुल्म नहीं करना और ज़ुल्म करने से बचना है, यानी जिस चीज़ की जो जगह है उसको वहीं रखना है। जो काम जिस समय करना है उसी समय किया जाए। जो काम जिस कैफ़ीयत में करना है उसी कैफ़ियत में किया जाए। यह संकल्प कर लिया जाए तो इंसान ख़ुद-ब-ख़ुद सन्तुलन के रास्ते पर चल पड़ेगा। सम्भवत: यही वजह है कि जब पवित्र क़ुरआन में आया कि “जो लोग ईमान लाए और अपने ईमान में किसी ज़ुल्म (शिर्क) की मिलावट नहीं की, वही लोग हैं जो भय-मुक्त हैं और वही सीधे मार्ग पर हैं।“ (क़ुरआन, 6:82)। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) तो ज़ुल्म के इस अर्थ से परिचित थे कि ज़ुल्म यह है। मैं इस प्लेट को मेज़ के ऊपर से हटाकर मेज़ के नीचे रख दूँ तो यह इस प्लेट के साथ ज़ुल्म होगा। बहरहाल प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने पूछा कि “ऐ अल्लाह के रसूल! ऐसा कौन हो सकता है जिसने कभी ज़ुल्म न किया हो?” नबी (सल्लल्लाहु आलैहि व सल्लम) ने कहा कि यहाँ ज़ुल्म से मुराद शिर्क है। “निश्चय ही शिर्क (बहुदेववाद) बहुत बड़ा ज़ुल्म है।” (क़ुरआन, 31:13) छोटे-छोटे ज़ुल्म हज़ारों प्रकार के हो सकते हैं। गोया मध्यता का रास्ता अपनाना, और सन्तुलन के रास्ते पर चलकर ज़ुल्म के हर प्रकार से बचना शरीअत की पाँचवीं विशेषता है।

मुरूनत (लचीलापन)

शरीअत की छठी विशेषता है ‘मुरूनत’। ‘मुरूनत’ यानी नरमी। नरमी शरीअत के हर आदेश में पाई जाती है। फ़िक़्ह के जितने आदेश हैं वे नरमी पर आधारित हैं। नरमी से मुराद यह है कि शरीअत के आदेशों में ऐसी कोई चीज़ नहीं है कि जिनपर अमल करने में इंसान को ऐसी अपरिहार्य मुश्किल या असहनीय स्थिति पेश आ जाए जिससे वह निबट न सके। गोया हर नई पेश आनेवाली स्थिति में शरीअत के आदेश इस तरह से सुविधापूर्वक मार्गदर्शन कर देते हैं कि इंसान सफलता से अपना रास्ता निकाल लेता है। इसको ‘मुरूनत’ कहते हैं। इसके उदाहरण फ़िक़ही आदेशों में बहुत मिलते हैं। एक छोटा-सा उदाहरण आपको देता हूँ।

शरीअत ने आदेश दिया कि अमुक-अमुक नजासतें ‘नजासते-ग़लीज़ा’ (घोर गन्दगी) हैं। अगर वे बदन पर या कपड़ों पर लग जाएँ तो बदन और कपड़े नापाक हो जाते हैं। ये नजासतें जो ‘ग़लीज़ा’ यानी सख़्त प्रकार की गन्दगियाँ कहलाती हैं हर मुसलमान जानता है कि क्या-क्या हैं। कपड़ा और बदन किस-किस चीज़ से नापाक होता है। एक सहाबी ने पूछा कि “ऐ अल्लाह के रसूल! मैं जब गली में जा रहा होता हूँ, तो कभी-कभी ऐसे जानवर भी गुज़रते हैं जिनकी गन्दगी ‘नजासते-ग़लीज़ा’ है और ऐसे जानवर भी गुज़रते हैं जिनकी गन्दगी ‘नजासते-ख़फ़ीफ़ा’ (हल्की गन्दगी) है। कभी-कभी कपड़े, जूते या पाँव सन भी जाते हैं, तो ऐसे में क्या करना चाहिए? नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा कि “जो बाद वालाहिस्सा है उसको पाक कर देता है।” यानी अगर जूते पर गन्दगी लग गई तो ज़रा आगे जाकर पाक ज़मीन पर चलने से इस गन्दगी का प्रभाव समाप्त हो जाएगा। यह शरीअत की ‘मुरूनत’ और नरमी का एक उदाहरण है। इस तरह की और भी अनेक समस्याएँ प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने समय-समय पर पूछीं और उन विभिन्न सवालों के अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इसी तरह के जवाब दिए। इन जवाबों से इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने सर्वसहमति से एक उसूल निकाला जो ‘उमूमे-बलवी’ कहलाता है। यानी वे छोटी-मोटी कमज़ोरी या मामूली दर्जे की नापाकी या कराहत जो इतनी फैल जाए कि उससे बचना आम आदमी के लिए सम्भव न रहे। ये चीज़ें ‘उमूमे-बलवी’ कहलाती हैं और शरीअत में इनके बहुत अधिक होने की वजह से उनके आदेशों में हल्कापन हो जाता है। उदाहरणार्थ कोई व्यक्ति जानवरों की रखवाली करता है। जानवर पालता हो या आपने भैंसों और घोड़ों के लिए नौकर रखता हो। ज़ाहिर है इस नौकर के कपड़ों पर कभी छींट पड़ेगी। कभी जानवर के जिस्म को हाथ लगाना होगा तो पता नहीं कि वहाँ गंदगी तो नहीं लगी। विश्वास तो नहीं, लेकिन शक तो ज़रूर है। शरीअत ने इस तरह के शकों को ख़त्म कर दिया है। الیقین لایزول بالشک (सन्देह से निश्चतता दूर नहीं होती) का उसूल इसी नरमी पर आधारित है, अगर शक है कि कोई चीज़ पाक है या नापाक है। उदाहरणार्थ आपको विश्वास है कि सुबह आपने घोड़े को ग़ुस्ल दिया था। शाम को सम्भव है उसने अपने जिस्म पर गंदगी लगा ली हो। सुबूत तो कोई नहीं है लेकिन सम्भावना और शक है। तो इस सम्भावना और शक से आपका वह विश्वास जो सुबह के ग़ुस्ल का है वह समाप्त नहीं होगा। इस तरह के दर्जनों उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि शरीअत के आदेशों में नरमी है और विभिन्न हालात और परिस्थिति के लिहाज़ से शरीअत के आदेश इस तरह मार्गदर्शन कर देते हैं कि आप मुश्किल से निकलकर आसानी की तरफ़ जा सकें।

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी अपरिहार्य स्थिति में शरीअत अपने आदेशों में नरमी कर देती है। रुख़स्त (छूट) और अज़ीमत (दृढ़ संकल्प) के उदाहरण कल मैंने दिए थे। कुछ मामलों में अज़ीमत का आदेश एक है, रुख़स्त का आदेश दूसरा है। अगर कोई व्यक्ति यह महसूस करता है कि वह रुख़स्त का आदेश अपनाने पर मजबूर है, या अज़ीमत का आदेश अपनाने की हिम्मत उसमें नहीं है तो वह रुख़स्त पर अमल कर सकता है। ये सारी चीज़ें ‘मुरूनत’ के उदाहरण हैं।

युस्र (आसानी) और नरमी

‘मुरूनत’ से मिलता-जुलता एक और उसूल शरीअत में ‘युस्र’ का भी है। युस्र का शाब्दिक अर्थ आसानी या नरमी है। “सर्वोच्च अल्लाह तुम्हारे लिए आसानी चाहता है मुश्किल नहीं चाहता।” (क़ुरआन, 2:185) शरीअत का कोई आदेश ऐसा नहीं है जिसमें कोई ऐसी मुश्किल पेश आए जिसको इंसान बर्दाश्त न कर सके। अगर कोई ऐसी मुश्किल पेश आ जाती है तो शरीअत ने इससे निकलने का भी रास्ता बता दिया है। उदाहरणार्थ एक मौलिक आदेश यह है कि मुसलमान रमज़ान में रोज़े रखें। अब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने जिस इलाक़े में रोज़ों का आदेश दिया था, मदीना मुनव्वरा और मक्का मुकर्रमा के इलाक़े में, वह दुनिया के सबसे अधिक गर्म स्थानों में गिना जाता है। वहाँ उस ज़माने से लेकर प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) और ताबिईन के ज़माने से लेकर अब तक लोग रोज़ा रखते चले आ रहे हैं। गोया गर्म से गर्म इलाक़े में जहाँ रात-दिन सन्तुलित हों, इंसान रोज़ा रख सकता है और शरीअत के इस आदेश पर अमल हो सकता है। लेकिन कुछ ऐसे इलाक़े हो सकते हैं या ऐसी स्थिति पेश आ सकती है कि जहाँ दिन-रात की यह मुद्दत सन्तुलन से बढ़ जाए, तो वहाँ शरीअत ने युस्र के आदेश पर अमल करने का उपदेश दिया है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) बयान कर रहे थे कि जब दज्जाल का फ़ित्ना सामने आएगा तो एक दिन एक वर्ष के बराबर होगा। एक दिन एक महीने के बराबर होगा और एक दिन एक हफ़्ते के बराबर होगा। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को किसी चीज़ के ग़ैर-ज़रूरी पहलुओं से कोई दिलचस्पी नहीं होती थी। उनको किसी चीज़ के केवल सकारात्मक और व्यावहारिक पहलुओं से दिलचस्पी होती थी। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने फ़ौरन पूछा कि उस दौर में जब यह स्थिति पेश आएगी कि एक दिन एक वर्ष और दूसरा दिन एक महीने और तीसर उन दिन एक हफ़्ते का होगा तो इन दिनों में नमाज़ और रोज़े का आदेश क्या होगा। क्या पूरे वर्ष का रोज़ा रखा जाएगा। क्या पूरे महीने का रोज़ा रखा जाएगा। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया “नहीं! उन दिनों का अनुमान अपने दिनों से कर लेना। जो एक वर्ष जितना दिन होगा तो इसको नॉर्मल दिनों पर विभाजित कर देना। इसके हिसाब से रोज़े रखना और इसके हिसाब से नमाज़ पढ़ना।” आज स्केंडे नेविया के देशों के बारे में कहा जाता है कि छः महीने का दिन होता है और छः महीने की रात होती है। लेकिन मुसलमान इसमें छः महीने का रोज़ा नहीं रखते। मुसलमान अपने नॉर्मल दिन रात के हिसाब से समयों का विभाजन करते हैं। उसी के हिसाब से नमाज़ पढ़ते हैं और उसी के हिसाब से रोज़े रखते हैं। यह शरीअत में युस्र का एक उदाहरण है।

इस तरह के दर्जनों उदाहरण दिए जा सकते हैं। उनमें से कुछ आइन्दा चर्चाओं में आएँगे जिससे पता चलता है कि यह शरीअत का एक मौलिक गुण है कि शरीअत में युस्र को कैसे अपनाया गया।

स्थिरता और परिवर्तन

शरीअत का एक महत्वपूर्ण गुण जिस पर मैं अपनी आज की चर्चा समाप्त कर दूँगा वह ‘सबात’ और ‘दवाम’ और ‘तग़य्युर’ एवं ‘तबद्दुल’ (अर्थात् स्थिरता और परिवर्तन) की अपेक्षाओं के दरमियान सन्तुलन और सद्भाव है। इस महत्वपूर्ण गुण से तात्पर्य यह है कि जहाँ नए पेश आनेवाले हालात की रिआयत रखी गई हो, जहाँ नई पैदा होनेवाली स्थिति का जवाब दिया गया हो, जहाँ इस बात को निश्चित बनाया गया हो कि हर नए इलाक़े और हर नए माहौल और हर नए स्वभाव के अनुसार शरीअत के आदेशों में मार्गदर्शन उपलब्ध कर दिया जाए, वहाँ इसका ख़तरा रहता है कि परिवर्तन की रिआयत करते-करते कहीं मूल आधार से सम्बन्ध न टूट जाए और इंसान परिवर्तन के समुद्र में इतना बह न जाए और परिवर्तन के बहाव में इतना आगे निकल न जाए कि उससे शरीअत के आदेशों की स्थिरता और निरन्तरता ही समाप्त हो जाए। इसलिए शरीअत ने जहाँ परिवर्तन को स्वीकार किया है और ‘मुरूनत’ की अनुमति दी है वहाँ स्थिरता और निरन्तरता की ज़मानत भी दी है। शरीअत के आदेशों में स्थिरता है। शरीअत के आदेशों में निरन्तरता है। यह निरन्तरता और स्थिरता पवित्र क़ुरआन के स्पष्ट आदेशों पर आधारित है। यह प्रमाणित सुन्नत के स्पष्ट आदेशों पर आधारित है। जो चीज़ें पवित्र क़ुरआन में ‘नस्से-क़तई’ (स्पष्ट आदेश) का दर्जा रखती हैं, जो पूरी तरह प्रमाणित हैं, वे हमेशा-हमेशा के लिए हैं। इसमें किसी संशोधन किसी परिवर्तन या पुनरीक्षण की सम्भावना नहीं। अगर इस तरह के मामलों में परिवर्तन की कोई सम्भावना है तो उसको स्पष्ट रूप से स्वयं शरीअत, क़ुरआन और सुन्नत में बयान किया गया है। क़ुरआन और सुन्नत के स्पष्ट आदेशों से हटकर किसी ‘नस्से-क़तई’ में और किसी प्रमाणित हदीस में कोई परिवर्तन या रद्दोबदल की सम्भावना मौजूद नहीं है। ये चीज़ें स्थायी हैं और इस्लामी क़ानून और जीवन व्यवस्था की निरन्तरता की ज़मानती हैं। यही वजह है कि परिवर्तन के परिणामस्वरूप जो नए आदेश अस्तित्व में आते हैं वह केवल क़ुरआन और सुन्नत के प्रमाण ही के आधार पर स्वीकार्य हो सकते हैं।

आप मेरी पहले दिन की चर्चा का आरम्भिक हिस्सा ज़ेहन में रखिए। परिवर्तन के परिणामस्वरूप जो नए-नए आदेश सामने आते हैं, उन आदेशों को शरीअत के आदेश केवल उस समय माना जाएगा और उनको फ़िक़्ह का हिस्सा केवल उस समय क़रार दिया जाएगा जब उनका आधार विस्तृत तर्कों पर हो।  العلم بالاحکام الشرعیۃ العملیۃ عن ادلتھاالتفصیلیۃ ,(व्यावहारिक शरिया नियमों और उनके विस्तृत साक्ष्यों का ज्ञान) यह फ़िक़्ह की परिभाषा थी, यह ज़ेहन में रखिए।। जब तक किसी आदेश की दलील सीधे तौर से पवित्र क़ुरआन की आयत से या सुन्नते-रसूल से नहीं ली जाएगी उस समय तक इसको शरीअत का आदेश क़रार नहीं दिया जाएगा।

ये तो हो सकता है कि मेरी समझ में ग़लती हो गई हो या किसी और की समझ में ग़लती हो गई हो। लेकिन अगर मैंने नेक नीयती से कोई आदेश सोचा है या कोई राय क़ायम की है और मेरी समझ से पवित्र क़ुरआन की किसी आयत से या किसी हदीस से सीधे या किसी तर्क या किसी समझ के परिणामस्वरूप इसका सम्बन्ध है तो वह जायज़ रूप से फ़िक़्ह का एक हिस्सा और शरीअत का एक आदेश समझा जाएगा। लेकिन अगर इस राय या तर्क का सीधा सम्बन्ध शरीअत की किसी ‘नस्स’ से नहीं है तो फिर वह फ़िक़्हे-इस्लामी का हिस्सा नहीं है। इस तरह शरीअत के आदेशों में निरन्तरता की ज़मानत एक-एक चीज़ में हर-हर पल मौजूद है। कोई एक आंशिक आदेश ऐसा नहीं है जो शरीअत की किसी ‘नस्स’ पर आधारित न हो। और अगर कोई ऐसा आदेश कहीं पाया जाता है जो शरीअत की ‘नस्स’ पर आधारित नहीं है तो वह नाजायज़ (illegitimate) है। ऐसे निराधार और नाजायज़ आदेश को मुसलमानों ने हमेशा ठुकराया है। अतीत में भी ठुकराया, आज भी ठुकराते हैं और आगे भी ठुकराते रहेंगे। यह इस्लामी फ़िक़्ह के वे मौलिक गुण हैं जो इसको दुनिया की दूसरी व्यवस्थाओं से अलग करते हैं। ये गुण यानी आज़ादी, सारगर्भिता, गतिशीलता, सन्तुलन, समानता, परिवर्तन, स्थिरता, लचक और युस्र (आसानी) मुसलमानों ने चौदह सौ बरस से बाक़ी रखे हुए हैं और यही चीज़ शरीअत को बाक़ी रखने और निरन्तरता की ज़मानत है।

सवालात

पहले कल के सवालों के जवाबात दे दूँ, फिर आज के सवालों के जवाबात भी दूँगा।

सवाल : क्या इतने वर्ष पुराने फ़ुक़हा के इज्तिहादात की पैरवी ज़रूरी है? उन्होंने ज़माने से पहले की बातें कैसे कीं जबकि वे बुद्धि ही से काम ले रहे थे? अल्लाह की वह्य तो नहीं आती थी।

जवाब : इसका जवाब यह है कि जब बुद्धि अल्लाह की वह्य के मार्गदर्शन में काम करती है तो सर्वोच्च अल्लाह की सहायता उसको प्राप्त हो जाती है और वह ऐसे-ऐसे काम कर सकती है जो वह बुद्धि नहीं कर सकती जो अल्लाह की वह्य के ख़िलाफ़ या अल्लाह की वह्य की मार्गदर्शन से हटकर काम करती है। इसलिए जिन फ़ुक़हा ने ज़माने से आगे बढ़कर बुद्धि से काम लिया, वे इसलिए यह सब कुछ करने के योग्य हुए कि वे अल्लाह की वह्य के मार्गदर्शन में इसकी सीमाओं के अन्दर काम कर रहे थे। जो लोग अल्लाह की वह्य से आज़ाद रहने का दावा करते हैं, उनकी बुद्धि एक बहुत बड़े मार्गदर्शन और बरकत से महरूम हो जाती है। इसलिए वह काम नहीं कर सकती

सवाल : आज फ़िक़्ह की बहुत-सी समस्याएँ मतभेदों का रूप ले चुकी हैं। ऐसे में उनको छोड़कर क्या शरीअत पर सीधा-सादा अमल करना बेहतर न होगा?

जवाब : इसी सीधी-सादी शरीअत पर अमल करने को ही फ़िक़्ह कहते हैं। फ़िक़्ह शरीअत से अलग कोई चीज़ नहीं है। फ़िक़्ह शरीअत ही के व्यावहारिक आदेशों की समझ का नाम है। जब शरीअत के व्यावहारिक आदेशों पर आप या कोई और अमल करेगा तो इस अमल करने के लिए शरीअत के आदेशों को समझना ज़रूरी है। और समझने के इस अमल ही का नाम फ़िक़्ह है। वह अतीत के किसी इंसान की समझ हो या आज के किसी इंसान की समझ हो। जिसकी समझ पर आपको भरोसा है, जिसके दीन और तक़्वा पर आपको भरोसा है आप उसकी समझ पर भरोसा करके अमल करें।

सवाल : Is democracy different from the concept of Hurriat in Islam?

जवाब : डेमोक्रेसी और इस्लामी आज़ादी एक मौलिक अन्तर है, वह यह है कि डेमोक्रेसी जिस तरह कि अमेरिका और ब्रिटेन में है, अगर डेमोक्रेसी से मुराद वह है जो पश्चिम की सेक्युलर व्यवस्थाओं में समझी जाती हे तो इसमें सत्य-असत्य का पैमाना बहुसंख्यक वर्ग और अल्पसंख्यक वर्ग है। अगर बहुसंख्या कह रही है कि ‘ए’ तो ‘ए’ हक़ है और ‘बी’ ग़लत है। इसका कोई सम्बन्ध अल्लाह की वह्य के मार्गदर्शन से नहीं है। जबकि शरीअत यह कहती है कि सत्य-असत्य का आख़िरी और निश्चित मापदंड अल्लाह की शरीअत और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर आनेवाली वही है। अगर वह किसी चीज़ को हक़ कहती है तो वह हक़ है, चाहे देश के तमाम-के-तमाम चौदह करोड़ मुसलमान ख़ुदा न करे कि यह फ़ैसला कर दें कि उन्हें यह या वह बात मंज़ूर नहीं, तो उससे हक़ नहीं बदलेगा, बल्कि हक़-हक़ ही रहेगा। चौदह करोड़ इंसान मिलकर तय कर लें कि अमुक मामला जायज़ है और वह शरीअत में नाजायज़ हो तो वह नाजायज़ मसला जायज़ नहीं हो जाएगा। इस्लाम और डेमोक्रेसी में यह मौलिक अन्तर है।

अगर डेमोक्रेसी शरीअत की सीमाओं के अधीन हो। आप यह तय कर लें कि शरीअत की सीमाएँ सर्वोपरि हैं। शरीअत राज्य का सर्वोपरि और सुप्रीम क़ानून है और पार्लियामेंट कोई क़ानून ऐसा नहीं बनाएगी जो शरीअत के आदेशों के ख़िलाफ़ हो और इसको चैक करने का कोई प्रभावकारी मैकेनिज़्म हो जो यह चैक करे कि कोई क़ानून शरीअत से टकराता नहीं है तो फिर डेमोक्रेसी की इस्लाम में पूरी-पूरी गुंजाइश है।

सवाल : ‘हुक्मे-तकलीफ़ी’ जब क़ुरआन और सुन्नत से साबित हो सकता है तो फिर इजमा की पैरवी को क्यों फ़र्ज़ के दर्जे में लाया गया?

जवाब : इजमा को इसलिए फ़र्ज़ दर्जे में लाया जाता है कि पवित्र क़ुरआन में आया है, “जो मुसलमानों के सामूहिक रास्ते से हटकर किसी रास्ते की पैरवी करेगा हम उसको उसी रास्ते पर चलाएँगे और जहन्नम में जलाएँगे।” (क़ुरआन, 4:115) पवित्र क़ुरआन का आदेश है कि अगर कोई मुसलमानों के सर्वसम्मत फ़ैसले के विरुद्ध जाएगा तो सर्वोच्च अल्लाह उसको जहन्नम में फेंकेगा। यानी मुसलमानों का वह सर्वसम्मत फ़ैसला जो शरीअत के अनुसार हो। उसका अनुपालन अनिवार्य है। इसलिए इजमा की पैरवी लाज़िमी है।

सवाल : तमाम फ़ुक़हा ने जैसे कि इमाम अबू-हनीफ़ा (रह॰) और इमाम शाफ़िई (रह॰) और शीया इमाम ने अपने-अपने उसूल बनाए, फिर उनपर इज्तिहाद किया। क्या आज के दौर में भी किसी मामले पर इज्तिहाद किया जा सकता है?

जवाब : जी हाँ बिलकुल किया जा सकता है। न केवल यह कि किया जा रहा है, बल्कि किया जाना चाहिए। जो भी नए मामलात पेश आ रहे हैं उनपर इज्तिहाद होता आ रहा है। हर दौर के विद्वान उनपर इज्तिहाद करते रहते हैं। आज इस्लामी बैंकिंग और इस्लामी इंशोरेंस पर काम हो रहा है। ‘तकाफ़ुल’ की संस्था बन रही है। ये तमाम संस्थाएँ यानी बैंक और ‘तकाफ़ुल’ की संस्थाएँ पहले तो मौजूद नहीं थीं। आज के फ़ुक़हा इसपर इज्तिहाद से काम ले रहे हैं और इससे सम्बन्धित आदेश संकलित कर रहे हैं। इसलिए इज्तिहाद पहले भी होता था आज भी हो रहा है और आइन्दा भी होता रहेगा। जब तक इंसान इस दुनिया में मौजूद है और शरीअत पर अमल करना चाहता है तो उसको नित नई समस्याएँ पेश आती रहेंगी और उनका समाधान शरीअत की रौशनी में तलाश किया जाता रहेगा।

सवाल : कल के लेक्चर में स्पष्ट आदेशों की बात कुछ इस तरह समझ में आई थी कि स्पष्ट आदेशवाली हदीसें चार हज़ार, स्पष्ट आदेशोंवाली क़ुरआन की आयतें चार सौ, कुल चार हज़ार चार सौ नुसूस हैं, तो क्या ये इसी तरह हैं?

जवाब : मैंने यह कहा था कि हदीसों की कुल संख्या चालीस और पचास हज़ार के दरमियान है। और पवित्र क़ुरआन की कुल आयतें छः हज़ार से अधिक हैं। उनमें वे हदीसें और आयतें जिनका सम्बन्ध प्रत्यक्ष रूप से फ़िक़ही आदेशों और फ़िक़ही मामलों से है। उदाहरणार्थ निकाह, वुज़ू, नमाज़ और क्रय-विक्रय वग़ैरा के मामलात हैं। ये जो इस अंदाज़ की आयतें हैं उनकी संख्या थोड़ी है। पवित्र क़ुरआन उठाकर देख लें। सूरा फ़ातिहा में कोई व्यावहारिक हिदायत नहीं है, बस एक दुआ सिखाई गई है। फिर सूरा अल-बक़रा में नमाज़ क़ायम करने और ज़कात का सम्बन्ध अमल से है। इसके बाद बनी-इसराईल का उल्लेख है। इसमें हमें कोई व्यावहारिक निर्देश नहीं दिया गया है। अगरचे मार्गदर्शन मिलता है। हमारा एक रवैया और नीति उसके परिणामस्वरूप बनती है। लेकिन प्रत्यक्ष रूप से आदेश और फ़िक़ही प्रकार के निर्देश कम हैं। वे आगे चलकर पहले पारे के मध्य में शुरू हो जाते हैं जहाँ आदेश हैं जो एक व्यावहारिक चीज़ है। इसलिए प्रत्यक्ष रूप से आदेशों की संख्या क़ुरआन और हदीस में कम है और यह मात्र एक अनुमान है। उनकी संख्या के बारे में मेरा नाचीज़ अनुमान चार हज़ार चार सौ के लगभग है। यह चार हज़ार चार-सौ आयतें एवं हदीसें जो व्यावहारिक समस्याओं से सम्बन्धित हैं, ये असीमित व्यावहारिक मामलों पर फ़िट होती हैं। समस्याएँ तो असीमित हैं। मेरे और आपके जीवन में लाखों मामलात पेश आते हैं तो शेष इंसानों के जीवन में मिलाकर कितने होंगे। इन लाखों, करोड़ों समस्याओं पर शरीअत के चार हज़ार चार-सौ या उसके लगभग स्पष्ट आदेश चस्पाँ होते हैं। इस कार्यान्वयन के लिए गहरे चिन्तन-मनन की आवश्यकता है। जब तक इंसान गहराई के साथ ग़ौर नहीं करेगा इन स्पष्ट आदेशों को फ़िट नहीं कर सकेगा। इसलिए शरीअत के इस हिस्से को फ़िक़्ह कहते हैं ताकि चिन्चन-मनन की यह बात इंसान को याद रहे।

सवाल : किसी जगह इस्लामी शरीअत को apply लागू करने के लिए पहले इस्लामी नैतिक आचरण का प्रशिक्षण करना ज़रूरी है या डाइरेक्ट ही इस्लामी शरीअत लागू की जाएगी?

जवाब : ये दोनों काम एक साथ होने चाहिएँ। यह कहना कि पहले नैतिक आचरण दुरुस्त हों और फिर शरीअत लागू हो। यह बहाना बहुत कमज़ोर मालूम होता है और शरीअत को टालने के समान है। इसकी अनुमति शरीअत में नहीं है। मैं और आप यह फ़ैसला नहीं कर सकते कि जब तक लोगों के नैतिक आचरण ठीक नहीं होते उस समय तक हम शरीअत को लागू नहीं कर सकते। किसने हमें शरीअत को टालने का यह अधिकार दिया है। हम यह भी नहीं कह सकते कि नैतिक आचरण का प्रशिक्षण न करें। नैतिक आचरण का प्रशिक्षण और शरीअत पर अमल दोनों एक साथ होने चाहिएँ। दोनों को एक-दूसरे से सहायता मिलेगी। दोनों एक-दूसरे को complement करेंगे।

सवाल : अगर किसी मामले में उलमा की रायें एक से ज़्यादा हों और बज़ाहिर वे क़ुरआन और सुन्नत से टकराती भी न हों, तो क्या हमें पूरी आज़ादी है कि हम जिस राय को मर्ज़ी हो, ले लें। लेकिन हम यह कैसे कह सकते हैं कि अमुक इमाम का ज्ञान एवं तक़्वा ज़्यादा था। अगर सबको मानें और सबकी राय का सम्मान करें तो क्या यह मन (नफ़्स) की इच्छा न होगी कि जिस समय जिसका आदेश आसान लगा वह मान लिया?

जवाब : आपकी बात बिलकुल दुरुस्त है। अपनी इच्छा (नफ़्स) की पैरवी नहीं करनी चाहिए और अपनी निजी पसंद-नापसंद पर शरई मामलों का फ़ैसला नहीं होना चाहिए। नीति यह होनी चाहिए कि अल्लाह और उसके रसूल ने जो आदेश दिया है हमें उसके अनुसार चलना है। जहाँ अल्लाह और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आदेश को समझने में किसी असाधारण गहराई और समझ की आवश्यकता है। तो अगर हमें किसी के ज्ञान और समझ पर भरोसा है तो उसकी समझ के अनुसार अमल करना चाहिए। इस मामले में बेहतर और सावधानीपूर्ण रास्ता तो यह है कि आप अपनी राय पर अमल करने की बजाय किसी ऐसे विद्वान की राय पर अमल करें जिसके ज्ञान और तक़्वा पर आपको भरोसा हो। यह बात कि जहाँ ज़रूरी और अपरिहार्य हो किसी दूसरे इमाम के फ़िक़्ह पर अमल किया जाए, यह शुरू से हो रहा है और इसमें कोई बुराई नहीं है। इसपर कार्यान्वयन पहले भी होता था आज भी हो रहा है और आइन्दा भी होगा। शरीअत ने न इमाम अबू-हनीफ़ा (रह॰) की तक़लीद (अन्धानुकरण) का आदेश दिया है न इमाम शाफ़िई (रह॰) की, न इमाम अहमद की। शरीअत तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के दुनिया से तशरीफ़ ले जाने के बाद मुकम्मल हो गई। इसलिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बाद आनेवाले किसी भी आदमी का कोई कथन या राय अपने-आपमें अनुपालन के लिए अनिवार्य नहीं है। यहाँ तक कि किसी सहाबी की राय का अनुपालन भी as such अनिवार्य नहीं है।

लेकिन शरीअत के विशेषज्ञों, उलमा और शरीअत में विशिष्टता रखनेवाले और शरीअत को समझनेवाले नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ज़माने में भी इसका अर्थ बयान किया करते थे। प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आदेश से लोगों की समस्याओं के जवाब दिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ज़माने में भी कई सहाबा की गणना विद्वानों में थी। कुछ की गणना आम सहाबा में थी। आम सहाबा विद्वान सहाबा से पूछा करते थे। इसलिए जिसको क़ुरआन और सुन्नत का आदेश समझने में कोई मुश्किल हो वह विद्वानों से पूछेगा।

पूछने के इस आदेश की वजह से बहुत-सारी रूलिंग्स जमा हो गईं। तो जिन फ़ुक़हा की रूलिंग्ज़ ज़्यादा बेहतर अंदाज़ में संकलित हो गईं उनकी पैरवी ज़्यादा लोग कर रहे हैं। जिनकी रूलिंग्ज़ संकलित नहीं हुईं उनकी पैरवी शुरू नहीं हुई। इसलिए यह मात्र एक सुविधा है और पेचीदगी और कन्फ़्यूज़न से बचने का एक रास्ता है। अगर कोई व्यक्ति स्वयं विद्वान है और अल्लाह ने उसे ज्ञान दिया है और वह तर्क से यह जान सकता है कि किस इमाम का क़ौल (कथन) मज़बूत है या ज़्यादा बेहतर है तो उसको उस राय या क़ौल को अपनाने की अनुमति है, लेकिन एक ऐसे आदमी को, जिसके पास शरीअत का ज्ञान न हो, यह रास्ता अपनाने की अनुमति दी जाए तो इससे कुछ ऐसी ख़राबियाँ पैदा होंगी जिनसे बचना बहुत मुश्किल है। इसका एक उदाहरण फ़िक़्ह की सब किताबों में मिलता है, मैं आपको देता हूँ। अक्सर लोगों ने यह उदाहरण बयान किया है।

शरीअत का आदेश यह है कि इंसानी समाज में सम्बन्ध हया यानी शर्म के आधार पर क़ायम हों। ख़ास तौर से स्त्री-पुरुष के दरमियान मेल-जोल शरीअत की सीमाओं के अन्दर हो और शर्म के आदेश के अनुसार हो। जब दो व्यक्ति दाम्पत्य सूत्र में बँधें तो यह काम अल्लाह के आदेश और शरीअत के अनुसार हो। यह सम्बन्ध इंसानों के ज्ञान में हो। तमाम लोगों में इसका एलान किया गया हो कि अमुक दो व्यक्ति आज से दाम्पत्य सूत्र में बँध रहे हैं। यह शरीअत के आदेश हैं। अब शरीअत के इन आदेशों के सन्दर्भ में पवित्र क़ुरआन में कुछ स्पष्ट आदेश आए हैं। हदीसों में कुछ स्पष्ट आदेश आए हैं। उनको सामने रखकर और उनका उद्देश्य समझकर इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने कुछ विस्तृत ज़वाब संकलित किए हैं। इमाम मालिक (रह॰) ने अपनी समझ के अनुसार यह नियम नियुक्त किया कि जब निकाह हो रहा हो तो उसके लिए किसी को बाक़ायदा गवाह बनाने की तो आवश्यकता नहीं, अलबत्ता आम एलान करने की आवश्यकता है। चुनाँचे अगर निकाह इस तरह हो कि समाज में आम लोगों को मालूम हो जाए। मुहल्ले में सबको पता चल जाए कि अमुक और अमुक की शादी हो रही है तो यह काफ़ी है। चाहे दो आदमी विशेष रूप से गवाह बनने के लिए वहाँ मौजूद न हों। यह इमाम मालिक (रह॰) का दृष्टिकोण है। उदाहरणार्थ मुहल्ले में बड़ी दावत हो रही है। किसी ने पूछा यह क्या हो रहा है तो वहाँ हर कोई बता देता है कि अमुक की शादी हो रही है। लोगों को मालूम हो जाए तो यह काफ़ी है। आपने पाँच सौ आदमियों को खाने पर बुलाया है और दावत कर दी कि बेटे की या बेटी की शादी है तो इमाम मालिक (रह॰) उसको काफ़ी समझते हैं। दो निर्धारित गवाह ज़रूरी नहीं।

इमाम अबू-हनीफ़ा (रह॰) यह फ़रमाते हैं कि कम-से-कम दो निर्धारित गवाह ज़रूरी हैं जो निकाह के बन्धन में मौजूद हों। जो ‘ईजाब और क़ुबूल’ को होते देख लें। यह कम-से-कम अपेक्षा है और इससे कम पर निकाह नहीं होगा। यह इमाम अबू-हनीफ़ा (रह॰) का दृष्टिकोण है। इमाम शाफ़िई (रह॰) फ़रमाते हैं कि अस्ल अक़्द (निकाह) में तो दो गवाहों की मौजूदगी ज़रूरी नहीं है लेकिन जब यह लड़की रुख़स्त होकर पति के घर जाए, उस समय कम-से-कम दो गवाह होने चाहिएँ और यह ज़रूरी है।

अब ये तीन विभिन्न दृष्टिकोण हैं, उद्देश्य सबका एक ही है। अब अगर कोई व्यक्ति ऐसा करे कि एक लड़का और लड़की आपस में रहने लगें और यह कहें कि इमाम मालिक (रह॰) के नज़दीक दो गवाह ज़रूरी नहीं थे और लोगों को बताना भी ज़रूरी नहीं था और केवल चिराग़ाँ और दावत खिलाना काफ़ी था। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह॰) के नज़दीक चिराग़ां और दावत भी ज़रूरी नहीं थी। अत: हमने चिराग़ाँ और दावत भी नहीं की। निकाह के बन्धन के समय इमाम शाफ़िई (रह॰) के नज़दीक दो गवाह ज़रूरी नहीं थे, वे भी नहीं किए। रुख़्सती के समय इमाम अबू-हनीफ़ा (रह॰) के नज़दीक ज़रूरी नहीं थे वे भी नहीं किए। यह तो शरीअत के आदेश का खुला उल्लंघन और मात्र व्यभिचार है। यह तो परले दर्जे की बदअख़्लाकी और बे-हयाई है। यह एक उदाहरण है जिससे अनुमान होगा कि अगर किसी व्यक्ति को अपनी इच्छाओं (नफ़्स) की पैरवी की अनुमति दे दी जाए तो उसके परिणाम इस तरह के निकल सकते हैं।

इसलिए दो शर्तों का ख़याल रखें। आप जिस फ़क़ीह के दृष्टिकोण से तर्क के साथ सहमत हों। एक शर्त यह है कि वाक़ई अल्लाह के सामने जवाबदेही के एहसास के साथ यह इरादा हो कि अल्लाह के आदेश पर चलना है और अल्लाह की शरीअत को समझना है। यह अल्लाह ही बेहतर जानता है कि इरादा है कि नहीं है। दूसरा यह कि इतना ज्ञान हो कि यह मालूम हो सके कि शरीअत का अस्ल उद्देश्य क्या है। शरीअत की शिक्षाएँ इस बारे में क्या हैं और उनको किस ढंग से समझकर इस फ़क़ीह ने यह राय क़ायम की है। इस राय से यह फ़क़ीह शरीअत के किस उद्देश्य को प्राप्त करना चाहता है। यह चीज़ अगर प्राप्त है तो फिर दूसरे किसी फ़क़ीह की राय अपनाने का अमल स्वीकार्य है।

सवाल : Can you please suggest any book in English which deals with topics under discussion?

जवाब : एक बहुत अच्छी किताब मेरे एक विद्वान दोस्त डॉक्टर अबदुर्रहमान डोई की है। यह भारत में गुजरात के रहनेवाले थे। उन्होंने The Shariah के नाम से एक बहुत बड़ी और मोटी किताब लिखी है। इसमें उन्होंने ये सारी समस्याएँ बड़ी हद तक बयान कर दी हैं। अगरचे मेरी चर्चा में कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो इस किताब में नहीं हैं और इस तरह इस किताब में बहुत-सी चीज़ें ऐसी हैं जो मेरी चर्चा में नहीं आएँगी। लेकिन इस किताब में बड़ी हद तक ये चीज़ें मौजूद हैं। किताब अंग्रेज़ी में है और सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है।

(अनुवाद : गुलज़ार सहराई)

 

LEAVE A REPLY

Recent posts

  • फ़िक़्हे इस्लामी  : लेक्चर 2

    फ़िक़्हे इस्लामी : लेक्चर 2

    25 December 2024
  • फ़िक़्हे-इस्लामी : लेक्चर- 1

    फ़िक़्हे-इस्लामी : लेक्चर- 1

    25 December 2024
  • हज और उसका तरीक़ा (विस्तार से)

    हज और उसका तरीक़ा (विस्तार से)

    26 December 2021
  • हज कैसे करें (संछिप्त)

    हज कैसे करें (संछिप्त)

    20 December 2021
  • अज़ान और नमाज़ क्या है

    अज़ान और नमाज़ क्या है

    14 April 2020
  • नमाज़  का आसान तरीक़ा

    नमाज़ का आसान तरीक़ा

    21 March 2020