
इस्लाम का परिचय
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इस्लाम
- at 30 March 2020
मौलाना वहीदुद्दीन खां
आर्य समाज स्युहारा, ज़िला बिजनौर ने अपने चौंसठ वर्षीय समारोह के अवसर पर नवम्बर सन् 1951 के अन्त में एक सप्ताह मनाया। इस मौक़े पर 21 नवम्बर को एक आम धार्मिक सभा भी हुई जिसमें विभिन्न धर्मों के विद्वानों ने शामिल होकर अपने विचार व्यक्त किये। यह लेख इसी अंतिम सभा में पढ़ा गया। -संपादक
इस जगत का एक ख़ुदा (ईश्वर) है जिसने इसे पैदा किया है और वही इसका मालिक है। ख़ुदा ने एक ख़ास योजना के तहत हम को पैदा किया है, जिसकी नकारी वह अपने ख़ास और चुने हुए बन्दों के द्वारा हम तक भेजता है, जिन को हम रसूल और पैग़म्बर कहते हैं। हज़रत मुहम्मद (स.) इसी सिलसिले के अन्तिम रसूल हैं। और अब पूरी दुनिया को आपकी पैरवी करनी है। जो व्यक्ति आपके संदेश को पाये और फिर उसको न अपनाए, वह सिर्फ़ आपही का इन्कार नहीं करता, बल्कि वास्तव में वह ख़ुदा के तमाम नबियों का इन्कार कर देता है। ऐसा व्यक्ति ख़ुदा का आज्ञाकारी नहीं, बल्कि उसका अवज्ञाकारी और नाफ़रमान है और ख़दा की कपाओं और रहमतों में उसका कोई हिस्सा नहीं है।‘ यह है संक्षेप में इस्लाम का परिचयिस की मुझे इस लेख में व्याख्या करनी है।
ख़ुदा का वजूद
सबसे पहले इस सवाल को लीजिये कि इस जगत का एक ख़ुदा है। कुछ लोग इस बात को नहीं मानते। उनका कहना है कि पूरा कारख़ाना केवल एक आकस्मिक और इत्तिफ़ाक़ी घटना के रूप में वजूद में आ गया है और अपने आप चला जा रहा है। हक्सले के शब्दों में.- छः बन्दर एक-एक टाइपराइटर लेकर बैठ जायें और अर्बों-खर्बों साल तक अललटप तरीक़े से उनको पीटते रहें तो हो सकता है कि उनके काले किये हुए कागज़ों के ढेर में किसी पन्नों पर शेक्सपियर की एक कविता निकल आये। इसी तरह अर्बों-खर्बों साल तक भूत-द्रव की अंधी क्रिया के बीच बिल्कुल संयोग से यह संसार बन गया।
यह जवाब जिसने शताब्दियों से लोगों को धोखे में डाल रखा है, वास्तव में कोई जवाब नहीं है, बल्कि कुछ शब्दों का योगमात्र है, क्योंकि ‘संयोग' या ‘घटना' स्वतः कोई चीज़ नहीं है। पिर जो चीज़ ख़ुद ही अपना वजूद न रखती हो, वह किसी दूसरी चीज़ को वजूद में लाने का सबब कैसे बन सकती है। यही वजह है कि जगत कि यह व्याख्या जगत के ऊपर बिल्कुल लागू नहीं होती। यह सिर्फ़ एक बेबुनियाद दावा है, जो दिमाग़ में गढ़ लिया गया है और जगत की मूल बनावट से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इसके विपरित ख़ुदा की धारणा जगत के साथ बिल्कुल मेल खा जाती है, वह ख़ुद जगत के भीतर से बोल रही है।
यह जगत इतना सुव्यवस्थित और बामक़सद है कि इसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता कि वह किसी आकस्मिक घटना के फलस्वरूप वजूद में आ गया होगा। ज़मीन पर जानदार के जीवन के लिए जो परिस्थितियां और हालात ज़रूरी है, वे पूरे तौर से यहां मौजूद हैं। क्या सिर्फ़ संयोग और इत्तिफ़ाक़ के नाते में इतनी अच्छी परिस्थितियां पौदा हो सकती हैं?
ज़मीन अपनी धुरी पर एक हज़ार मील प्रति घंटा की चाल से लट्टू की तरह घूमती है। अगर ज़मीन की चाल एक सौ मील प्रति घंटा होती तो तो हमारे दिन व रात आज के दिन व रात से दस गुना अधिक लम्बे होते। ज़मीन की तमाम हरियाली और हमारी बेहतरीन फ़सल सौ घंटे की लगातार धूप में झुलस जातीं और बच रहती वह लम्बी रात में पाले से बर्बाद हो जातीं।
सूरज जो हमारी ज़िन्दगी का स्रोत है, अपनी सतह पर बारह हज़ार डिग्री फ़ारेनहाइट पर दहक रहा है। यह तपन इतनी ज़ेयादा है कि बड़े-बड़े पहाड़ भी इसके सामने जल कर राख हो जायें, परन्तु वह हमारी ज़मीन से इतनी उचित दूरी पर है कि यह "लगातार दहकने वाली अंगीठी" यानी सूरज हमें हमारी ज़रूरत यादा से ज़र्रा भर भी गर्मी न दे सके। यदि सूरज अपनी दुगुनी दूरी पर चला जाये तो ज़मीन पर इतनी सर्दी पैदा होगी कि कि हम सब लोग मर कर बर्फ़ हो जायेंगे और अगर वह आधी दूरी पर आ जाए तो ज़मीन पर इतनी गर्मी और तपन बढ़ जायेगी कि तमाम जानदार और तमाम पौधे जल कर राख के ढेर हो जायेंगे।
ज़मीन का गोला वायुमण्डल में सीधा खड़ा नहीं है बल्कि 23◦ का कोण बनाता हुआ एक ओर झुका हुआ है। यह झउकाव हमें हमारे मौसम देता है। यह झुकाव न होता तो समुद्र से उठती हुई भाप सीधे उत्तर या दक्षिण को चली जाती और हमारे महाद्विप बर्फ़ से ढके रहते।
चांद हमसे लगभग ढाई लाख मील की दूरी पर है। इसके बजाय अगर यह सिर्फ़ एक लाख मील की दूरी पर होता तो समुद्र में जवार-भाटा की लहरें इतनी ऊंची उठती कि धऱती का पूरा गोला दिन में दो बार पानी में डूब जाता और बड़े-बड़े पहाड़ लहरों के टकराने से घिस कर ख़त्म हो जाते।
ये हैं हमारी सृष्टि की कुछ अति साधाराण और बहुत ही सादी घटनायें। इनके सिवा बेशुमार ऐसी घटनायें हैं जो प्रकट करती हैं कि हमारी ज़मीन से इन का मेल केवल संयोग द्वारा नहीं हो सकता और न एकमात्र संयोग इन्हें बाक़ी रख सकता है। निश्चय ही कोई है, जो इन-घटनाओं को वजूद में लाया है और उनके इतने सुव्यवस्थित ढंग से निरन्तर बाक़ी रखे हुए है। यह सृष्टि इतनी सुसंगठित और सुव्यवस्थित है कि जब भी हम उस की किसी घटना को ब्यान करते हैं तो वास्तव में उस को सीमित कर देते हैं। जगत के एक-एक कण के भीतर नीति, विधि और हिकमातों के ऐसे ख़ज़ाने छिपे हैं कि जब भी हम उनमें से किसी एक का उल्लेख करते हैं तो ऐसा महसूस होता है कि मानो उसके हम मामूली दर्जे की चीज़ बनाकर पेश कर रहे हैं। ऐसी एक सृष्टि को ख़ुदा की रचना और मख़लूक़ मानना किसी को ख़िलाफ़े अक़्ल मालूम होता है तो इससे ज़्यादा अक़्ल के ख़िलाफ़ बात यह है कि इस सृष्टि को बिना ख़ुदा के मान लिया जाये।
कुछ लोग कहते हैं कि अगर ख़ुदा ने सब चीज़ें पैदा की हैं तो ख़ुद ख़ुदा को किसने पैदा किया है? मगर यह एक ऐसा सवाल है जो हर हाल में पैदा होता है, भले ही सब ख़ुदा को मानें या न मानें।हम दो में से किसी एक चीज़ को बिलासबब मानने को मजबूर हैं या ख़ुदा को बेसबब मानें या सृष्टि को हमारे सामने एक विशाल जगत है, जिसको हम देखते हैं, और जिसका अनुभव करते हैं। हम मजबूर हैं कि इस सृष्टि के वजूद को मानें, हम इसका इन्कार कर ही नहीं सकते। फिर हम या तो यह कहें कि सृष्टि ख़ुद से वजूद में आ गई है या कहें कि कोई और सत्ता और ताक़त है जिस ने उस को बनाया है। दोनों शक्ल में हम किसी न किसी को बिला सबब स्वीकार करेंगे, फिर क्यों न हम ख़ुदा को बिला सबब मान लें, जिसको मानने की शक्ल में हमारे तमाम सवालों का जवाब मिल जाता है, सृष्टि को बिला सबब मानने की शक्ल में कोई समस्या हल नहीं होती और वे तमाम सवाल जो इसके चारों ओर से पैदा होते हैं, वे सब के सब अपनी जगह पर बाक़ी रहते हैं।
कुछ लोग दाकर्शिनक गूढ़ताओं वारा यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि सृष्टि कोई चीज़ ही नहीं है, सब कुछ हमारा भ्रम है। परन्तु एक व्यक्ति जब यह बात कहता है तो ठीक उसी वक़्त वह सृष्टि के वजूद को स्वीकार कर लेता है। आख़िर यह सवाल ही क्यों पैदा हुआ कि सृष्टि कोई चीज़ है या नहीं? सवाल का ज़ाहिर होना ख़ुद ज़ाहिर करता है कि कोई चीज़ है जिसके बारे में सवाल किया जा रहा है-इस प्रकार भ्रमवाद का यह दर्शन एक ही समय में मनुष्य और सृष्टि दोनों को स्वीकार कर लेता है।
ख़ुदा के साथ हमारा सम्बन्ध
ख़ुदा को मानने के बाद फ़ौरन ही यह सवाल पैदा होता है कि उसके साथ हमारा सम्बन्ध क्या है? पचास साल पहले यह विचार किया जाता था कि अगर ख़ुदा का कोई वजूद है भी , तो इसमें हमारा सम्बन्ध नहीं हो सकता, परन्तु आधूनिक क्वानटम सिद्धांत द्वारा ख़ुद साइंस ने इसका खंडन कर दिया है। पहले यह समझा जाता था कि सृष्टि एक मशीन है, जो एक बार हरकत में लाने के बाद लगातार चली जा रही है इस सिद्धांत पर साइंसदानों को इतना अधिक विश्वास था कि उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में बर्लिन के प्रोफ़ेसर माक्स प्लान्क (Max Planck) ने जब रोशनी के बारे में कुछ ऐसी व्याख्यायें पेश की जो सृष्टि के मशीन होने को ग़लत सिद्ध कर रही थी तो इस पर तीव्र आलोचनायें होनें लगीं और उसका मज़ाक उड़ाया गया, परन्तु इस सिद्धांत को ज़बरदस्त सफलता प्राप्त हुईऔर अन्ततः वह तरक़्की करके आधूनिक कक्वानटम सिद्धांत (Quantum Theory) के रूप में आज भौतिक शास्त्र के महत्वपूर्ण सिद्धांतों में गिना जाता है। (व्याख्या के लिए देखिए Modern Scientific Thought P.P 12-20)
प्लान्क का सिद्धांत अपने आरम्भिक रूप में यह था कि प्रकृति छलांगों द्वारा हरकत करती है। सन् 1917 में आइनस्टाइन ने इस बात की व्याख्या की कि पलान्क का सिद्धांत केवल अनिरन्तरता (Discontinuity) ही सिद्ध नहीं करता, बल्कि अधिक क्रान्तिमय परिणामों का पोषक है। यह कार्य-कारण नियम को उसके उच्च स्थान से अलग कर रहा है, इससे पहले प्राकृतिक संसार की तमाम घटनाओं का एक मात्र पथ प्रदर्शक समझा जाता था। प्राचीन विज्ञान ने पूरे विश्वास के साथ यह एलान किया था कि प्रकृति केवल एक ही रास्ता अपना सकती है, जो सबब और नतीजे की बराबर कड़ियों के मुताबिक़ उसके आरम्भ से लेकर परिणाम तक तै हो चुका है, परन्तु अब मालूम हुआ कि यह एकमात्र अपूर्ण ज्ञान का फल था। पहले यह कहा जाता था कि ख़ुदा को अगर मानना ही है तो प्रथम कारण के रूप में उसे मान लो, वरन आज सृष्टि को ख़ुदा की कोई ज़रूरत नहीं है। अब मालूम हुआ कि सृष्टि केवल पहली बार गतिमान होने के लिए किसी प्रथम संचालक की मुहताज नहीं थी, बल्कि वह प्रतिक्षण गतिमान बनाये जाने की मुहताज है। क्वानटम सिद्धांत दूसरे शब्दों में यह बताता है कि सृष्टि एक स्वसंचालित मशीन नहीं है, बल्कि वह एक ऐसी मशीन है, जिसको प्रतिक्षण चलाया जा रहा है। एक जीवित व स्थिर सत्ता की कृपा है जो इसे बाक़ी रखे हुए है। यदि एक क्षण के लिए भी वह अपनी कृपा वापस ले ले तो सम्पूर्ण सृष्टि इस तरह ख़त्म हो जायेगी, जैसे सिनेमा घर में बिजली का सिलसिला टूटने पर पर्दे से तमाम चित्र ग़ायब हो जाते हैं और दर्शकों के सामने एक सफ़ेद कपड़े के अलावा और कुछ नहीं रहता। मानो इस संसार का प्रत्येक कण अपने वजूद और अपनी हरकत के लिए प्रतिक्षण सर्व-शक्तिमान सत्ता से आज्ञा चाहता है। इसके बिना वह अपनी हस्ती को क़ायम नहीं रख सकता।
जगत के साथ ख़ुदा का यह सम्बंध ख़ुद बताता है कि मनुष्य के साथ उसका सम्बंध क्या होना चाहिए। स्पष्ट है कि जिसने हमें पैदा किया, जो हमारे लिए मुनासिब तरीन हालात को ठीकठाक करता रहता है, जो प्रतिक्षण हमारा पालन-पोषण कर रहा है, उसका हमारे ऊपर यह अनिवार्य अधिकार है कि हम अपने मुक़ाबले में उसकी उच्च व श्रेष्ठ हैसियत स्वाकार करें और बिल्कुल उसके बन्दे बन जायें। मनुष्य जिस आचरण-व्यवस्था से वाकिफ़ है, उसमें सबसे ज़्यादा स्पष्ट और महत्वपूर्ण यह है कि एहसान करने वाले का एहसान माना जाए, एहसान करने वाला भले ही अपनी ओर से न दबाये, परन्तु जिसके साथ एहसान किया जाता है वह ख़ुद उसके सामने दब जाता है, एहसान करने वाले के आगे उसको नज़र उठाने की हिम्मत नहीं होती। इसका अर्थ यह है कि ख़ुदा का ख़ुदा होना ख़ुद ही इस बात का तक़ाज़ा करता है कि हम उस की ख़ुदाई (ईश्वरत्व) को स्वीकार करें और उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने को अपने जीवन का मक़सद बनायें। बन्दे की ओर से ख़ुदा के आज्ञापालन के लिये इसके अलावा किसी और दलील की ज़रूरत नहीं।
लेकिन बात सिर्फ़ इतनी नहीं है। यह केवल सत्य के जान लेने का तक़ाज़ा नहीं है कि हम ख़ुदा की ख़ुदाई और उसके मुक़ाबले में अपनी ग़ुलामी को स्वीकार करें। सच तो यह है कि हमारे लिए इसके अलावा और कोई राह नहीं है। हमारे जीवन की सारी समस्यायें ख़ुदा से सम्बन्धित हैं। हम को जो कुछ मिलेगा उसी से मिलेगा, उसके अलावा कोई और हमें कुछ नहीं दे सकता। हम इस सृष्टि में इतने बेबस और मजबूर हैं कि ख़ुदा की मदद के बिना एक क्षण के लिए भी अपना वजूद बाक़ी नहीं रख सकते। फिर ख़ुदा को छोड़ कर हम और कहां जा सकते हैं।
ज़रा ध्यान दीजिये, भारत की उत्तरी सीमा पर हिमालय पहाड़ का ढाई हज़ार मील लम्बा यह सिलसिला किसने क़ायम किया है? हमने या ख़ुदा ने? यदि हिमालय पहाड़ न होता तो बंगाल की खाड़ी से उठने वाली दक्षिण पूर्वी हवाएं जो हर साल हमारे लिए वर्षा लाती हैं, बिल्कुल वर्षा न करतीं और सीधी रूस की ओर निकल जातीं, जिसका नतीजा यह होता कि पूरा उत्तरी भारत मंगोलिया की तरह रेगिस्तान होता।
आपको मालूम है कि सूर्य अपनी असाधारण आकर्षण-शक्ति से हमारी ज़मीन को खींच रहा है और ज़मीन एक केन्द्रापग बल (Centrifugal Force) उसकी और खिंच जाने से अपने आप को रोकती है और इस तरह वह सूर्य से दूर रह कर वायुमण्डल के भीतर अपना वजूद बाक़ी रखे हुए है। अगर किसी दिन ज़मीन का यह बल ख़त्म हो जाये तो वह लगभग छः हज़ार मील प्रति घंटा की चाल से सूर्य की ओर खिंचना शुरु हो जाएगी और कुछ हफ़्ता में सूर्य के भीतर इस तरह जा गिरेगी, जैसे किसी बहुत बड़े अलाव के बीच कोई तिनका गिर जाये। स्पष्ट है कि यह ताक़त ज़मीन को हमने नहीं दी है, बल्कि उस ख़ुदा ने दी है, जिसने ज़मीन को पैदा किया है।
सृष्टि के जिस हिस्से में हम रहते हैं उसका नाम सौर संहति (Solar System) है। अगर आप किसी बहुत दूर के स्थान पर बैठ कर इस व्यवस्था का निरीक्षण कर सकें तो आप देखेंगे कि अथाह शून्य के भीतर एक आग का गोला भड़क रहा है, जो हमारी ज़मीन से तेरह लाख गुना बड़ा है, जिससे इतने बड़े-बड़े अंगारे निकलते हैं, जो कई-कई लाख मील वायुमण्डल में उड़ते चले जाते हैं, इसी का नाम सूर्य है। फिर आप उन ग्रहों को देखेंगे जो सूर्य के चारों और अरबों मील के घेरे में पतिंगों की तरह चक्कर लगा रहे हैं। इन दौड़ती हुई दुनियाओं में हमारी दुनिया अपेक्षतः एक छोटी दुनिया है, जिसकी गोलाई लगभग 25 हज़ार मील है। यह हमारा सौर संहति है, जो देखने में बहुत बड़ा मालूम होता है, परन्चतु सृष्टि के विस्तार के मुक़ाबले में इसकी कोई हैसियत नहीं। सृष्टि में इतने बड़े-बड़े तारे हैं कि जिनके उपर हमारा पूरा सौर संहति रखा जा सकता है। इस अनन्त व असीम सृष्टि में हमारी ज़मीन वायुमण्डन में उड़ने वाली एक कण से भी ज़्यादा मामूली है और शून्य में एक कभी न ख़त्म होने वाली यात्रा में व्यस्त है।
यह सृष्टि के भीतर हमारी हैसियत है। विचार कीजिये, मनुष्य किस दर्जा तुच्छ और हक़ीर है और बाह्य शक्तियों के मुक़ाबले में कितना ज्यादा मजबूर है। फिर जब हमारी हैसियत यह है तो हम जगत के पैदा करने वाले से मदद करने के अलावा और क्या कर सकते हैं। जिस प्रकार एक छोटे बच्चे की पूरी दुनिया उसके मां-बाप होते हैं। उसका जीवन, उसकी ज़रूरतों की पूर्ती और उसके भविष्य का आश्रय बिल्कुल उसके मां-बाप पर होता है। इसी तरह बल्कि इस से कहीं ज़्यादा मनुष्य अपने पालनहार का मुहताज है। हम ख़ुदा की मदद और उसके पथ-प्रदर्शन और रहनुमाई के बिना अपने लिए किसी चीज़ के बारे में सोच भी नहीं सकते। वहीं हमारा सहारा है और उसी की ओर हमें दौड़ना चाहिए।
इस तफ़्सील से यह बात साफ़ हो गई कि इन्सान ख़ुदा की रहनुमाई और उसकी मदद का मुहताज है। ख़ुदा की ओर से इन्सान की यहीं हैसियत निश्चित होती है और ख़ुद मनुष्य के लिए भी इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि वह ख़ुदा से अपने लिए मदद और रहनुमाई की प्रार्थना कर।
ज्ञान की प्राप्ति
यहां पंहुच कर जब हम आपने चारों ओर की दुनिया पर विचार करते हैं तो हमें मालूम होता है कि जगत के पैदा करने वाले की ओर से अपनी पैदा की हुई चीज़ों की मदद व रहनुमाई का एक मुसलसल अमल जारी है। जिसको जिस चीज़ की ज़रूरत है, उसको वह चीज़ पहुंचाई जा रही है। एक मामूली भिड़ की मिसाल ले लीजिये। भिड़ का तरीक़ा है कि अंडे देने से पहले ज़मीन में एक गड़हा खोदती है और एक टिड्डे को क़ाबू कर के उस को गड़हे में रख देती है। ऐसा करते समय वह बड़ी चतुराई से टिड्डे के उसी ख़ास स्थान पर डंक मारती है, जिससे टिड्डा मरता नहीं, केवल बेहोश रहता है और ताज़ा गोश्त का भंडार बन जाता है। भिड़ अब इसी बेहोश टिड्डे के चारों ओर अंडे देती है ताकि अंडों से निकल बच्चे उस जीवित टिड्डे को धीरे-धीरे खाते रहें, क्योंकि मुर्दा गोश्त उन बच्चों के लिए नुक़्सानदेह है। इतना इन्तिज़ाम करने के बाद भिड़ वहां से उड़ जाती है और फिर कभी आ कर अपने बच्चों को नहीं देखती।
इसके बावजूद भिड़ का बच्चा जब बड़ा होता है तो वह भी ठीक इसी अमल को दुहराता है। तमाम भिड़ें इस काम को एक बार और पहली बार बिल्कुल ठीक-ठीक करती हैं। (इसी अद्भुत क्रिया को देख कर दार्शनिक बर्गसां ने कहा था- ‘क्या भिड़ ने किसी स्कूल में जीवनशास्त्र का घोर अधय्यन किया है।') विचार कीजिये कि वह कौन है जो इस भिड़ के बच्चे को सिखाता है कि अपनी नस्ल को जारी रखने के लिए वह भी वही अमल करे जो उसके मां-बाप ने उसके साथ किया था। हालांकि अपने मां-बाप के अमल को उसने कभी नहीं देखा।
दूसरी मिसाल उस लम्बी मछली की है जिसे अंग्रेजी में एल (Eel) कहते हैं। ये अनोखे जानदार अपनी जवानी में हर जगह के जल-केन्द्रों और नदियों से निकल-निकल कर बर्मूडाज़ द्वीप के पास समुद्र की एक गहरी तह में जाते हैं। युरोप की एलें अटलांटिक से तीन हज़ार मील का रास्ता तय कर के यहां पहुंचती हैं। वहीं ये मछलियां बच्चे दे कर मर जाती हैं। ये बच्चे जब आंखें खोलते हैं तो अपने आप को सुनसान जल-केन्द्र में पड़ा हुआ पाते हैं। उन के पास बज़ाहिर मालूमात करने का कोई साधन नहीं होता। फिर भी वे वहां से लौट कर दुबारा उन्हीं किनारों पर आ लगते हैं, जहां से उनके मां-बाप चले गए थे। वे आगे बढ कर अपने मां-बाप वाली नदियों, झीलों और जल-केन्द्रों में पहुंच जाते हैं।
यही वजह है कि किसी भी जल-केन्द्र में एलें हमेशा के लिए ग़ायब नहीं हो जातीं। और यह सब कुछ इस प्रकार होता है कि अमरीका की कोई एल युरोप में नहीं मिलती और न युरोप की कोई एल अमरीका के समुद्रों में पाई जाती है। यह मालूमात उन्हें कहां से हासिल होती है?
यह काम "वह्य" द्वारा होता है। वह्य पैग़ाम पहुंचाने को उस अप्रकट सिलसिले को कहते हैं, जो ख़ुदा और उस की मख़्लूक़ के बीच जारी है। कोई प्राणी जीवन गुज़ारने के लिए क्या करे और सृष्टि के रचियता ने अपनी सामूहिक योजना के भीतर उसके ज़िम्मे जो काम छोड़ा है, उसे किस प्रकार पूरा करे, इसी को बताने का नाम वह्य है। इस वह्य की दो क़िस्में हैं। एक वो जिसका सम्बन्ध मनुष्य के सिवा अन्य चीज़ों से है और दूसरी वह जिसका सम्बन्ध मनुष्य से है।
मनुष्य के अलावा जितनी जानदार चीज़ें इस ज़मीन पर पाई जाती हैं वे सब की सब इरादे से खाली हैं। उनका काम किसी सोचे-समझे फ़ैसले व इरादे के तहत नहीं होता बल्कि एक अनजाने रूप में स्वाभाविक मैलान के तहत होता है, जिस को हम ‘प्रकृति' कहते हैं। ये मानों एक प्रकार की ज़िन्दा मशीनें हैं जो सीमित दायरे में अपना तयशुदा काम कर के ख़त्म हो जाती हैं। इस प्रकार के जानदारों के लिए ‘छोड़ने व अपनाने' का कोई प्रश्न नहीं है। इसलिए इन के पास जो वह्य आती है, वह हुक्म और क़ानून की शक्ल में नहीं आती, बल्कि ‘प्रकृति' या 'स्वभाव' की शक्ल में आती है। इनकी बनावट ही इसी तरह की होती है कि वह एक ख़ास काम को बार-बार दुहराते रहें, लेकिन मनुष्य एक ऐसी रचना है जो फ़ैसले की ताक़त रखता है। वह अपने इरादे से किसी काम को करता है और किसी काम को नहीं करता। वह एक काम करना शुरु करता है और फिर उसे जान बूझ कर छोड़ देता है और एक काम नहीं करता और बाद को उसे करने लगता है। इस से स्पष्ट हुआ कि मनुष्य भी हालांकि उसी तरह ख़ुदा का बन्दा है जिस तरह उसकी दूसरी रचनायें, परन्तु उसके इम्तिहान की हालत में रखा गया है। जो काम दूसरी चीज़ों से ‘प्रकृति' व ‘स्वभाव' के तहत लिया जा रहा है, इन्सान को वहीं काम अपने फ़ैसले और इरादे से करना है, यही वजह है कि इन्सान के पास जो वह्य आती है, वह हुक्म और क़ानून की शक्ल में आती है। दूसरे शब्दों में आम जानवरों की वह्य उनके ‘स्वभाव' में डाल दी गई है और इन्सान की वह्य बाहर से सुनाई जाती है। आम जानवरों को क्या करना है इसका इल्म वे पैदाइशी तौर पर अपने साथ लेकर आते हैं। इसके विपरित इन्सान जब अक़्ल और ङोश की उम्र को पहुंचता है तो ख़ुदा की ओर से पुकार कर उसे बताया जाता है कि तुमको क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये।
यह पैग़ाम पहुंचाने का ज़रिया रिसालत (ईश दूतत्व) है। जो व्यक्ति यह पैग़ाम लेकर आता है, उसको हम रसूल कहते हैं। उसका तरीक़ा यह है कि अल्लाह अपने बन्दों में से एक नेक बन्दे को चुन लेता है और उसके दिल पर अपना पैग़ाम उतारता है। इस प्रकार रसूल वह व्यक्ति है जो सीधे (Directly) ख़ुदा से उसकी प्रसन्नता का ज्ञान हासिल कर के दूसरे इन्सानों तक पहुंचाता है। रसूल मानो बीच की वह कड़ी है जो बन्दों को उसके ख़ुदा से जोड़ती है।
‘वह्य' (ईश-प्रकाशना)
अब हमें इस सवाल पर विचार करना है कि किसी ख़ास बन्दे पर ख़ुदा कि वह्य किस प्रकार आती है और यह कि मौजूदा ज़माने में वह कौन-सी "वह्य" है जिससे हमें ख़ुदा की प्रसन्नता का ज्ञान होगा।
इस समस्या को समझने के लिए एक मिसाल लीजिये। इन्सान ने जो मशीनें और अस्त्र बनाये हैं वे लगभग सब के सब लोहे के हैं। यदि लोहे का इतिहास सामने रखा जाये तो यह बात अति विचित्र मालूम होगी कि मनुष्य ने किस तरह उसे मालूम किया, जबकि मनुष्य को लोहे के बारे में कोई ज्ञान न था, उसने किस प्रकार उसके कणों को इकट्ठा किया जो विभिन्न पदार्थों के सम्मिश्रण की शक्ल में ज़मीन की विभिन्न चट्टानों से मिल कर बिखरे पड़े थे, और फिर उन्हें शुद्ध लोहे की शक्ल में बदल दिया?
यही हाल दूसरे आविष्कारों का भी है। यह बात किसी तरह समझ में नहीं आती कि इन आविष्कारों और खोजों की ओर इन्सानी अक़्ल की रहनुमाई किस प्रकार हुई? वह कौन-सी ताक़त है जो अनुभव एवं निरीक्षण करते समय एक वैज्ञानिक को इस मर्म तक पहुंचा देती है, जहां पहुंच कर उसे एक मुफ़ीद और कारामद नतीजा हासिल होता है? जो बात हमको मालूम नहीं ती, वह कैसे मालूम हो गई? इस ज्ञान का साधन वही ‘ईश्वरीय कृपा' है जिसे हम वह्य कहते हैं। सब कुछ जानने वाला अपने ज्ञान में से थोड़ा-सा हिस्सा उसको दे देता है, जो कुछ नहीं जानता। यह कृपा वह्य का प्रारंभिक भाग है, अनाने रूप में आती है और प्रत्येक व्यक्ति को उसमें से हिस्सा मिलता है।
दूसरे प्रकार की वह्य अति प्रगतिशील है, जो जानते-बूझते आती है और केवल उन लोगों के पास आती है, जिनको रिसालत (ईश-दूतत्व) के लिए चुन लिया गया हो। इन्सान के पास सत्य का ज्ञान और जीवन व्यतीत करने का तरीक़ा इसी दूसरी प्रकार की वह्य द्वारा भेजा जाता है।
वह्य की हक़ीक़त को हम बस इतना ही समझ सकते हैं , इस से अधिक की मांग वास्तव में एक ऐसी मांग है जो मनुष्य के बस में नहीं है। एक उड़ते हुए जहाज़ को ज़मीन से बेतार के तार द्वारा संदेश भेजा जाता है, जिसके हवाई हाज़ पर बैठा हुआ आदमी पूरे विश्वास के साथ साफ़ शब्दों में सुन लेता है। यह हमारे निकट के जीवन की एक घटना है, लेकिन आज तक इस की पूर्ण युक्ति न पेश की जा सकी कि यह घटना कैसे वजूद में आती है। यही हाल उन तमाम घटनाओं का है, जिनको हम इस धरती पर जानते हैं। हम तमाम तथ्यों को केवल संक्षेप में जानते हैं। जैसे ही हम किसी तथ्य को आख़िरी हद तक समझने की कोशिश करते हैं, हमारी शक्तियां जवाब देने लगती हैं और मालूम होता है कि इस प्रकार का पूर्ण ज्ञान हमारे बस में नहीं है। ऐसी सूरत में वह्य की हक़ीक़त को अच्छी तरह समझने की मांग करना किसी ऐसे ही व्यक्ति का काम हो सकता है जो ख़ुद अपनी हक़ीक़त से बेख़बर है।
साइंस ने अब यह मान लिया है कि पूरी हक़ीक़त की जानकारी हासिल करना मनुष्य के बस में नहीं है। इस सम्बन्ध में मैं प्रोo हाइन बर्ग (Heisen Berg) की मिसाल पेश करुंगा, जिसे वह ‘संदिग्धता का सिद्धांत' (Principle of In Determinacy) का नाम देता है। जेम्ज़जेन्ज़ इस सिद्धांत की व्याख्या करते हुए लिखता हैः-
"पुरातन विज्ञान का विचार था कि किसी अणु, उदाहरणार्थ एक विद्युदणु (Electron) का स्थान निश्चित रूप से बताया जा सकता है, जबकि हम यह जान लें कि किसी ख़ास समय में वायुमण्डल के भीतर उसका स्थान और उसकी रफ़्तार क्या है। यदि इन जानकारियों के साथ वाह्य प्रभावपूर्ण शक्तियों का भी ज्ञान हो जाए तो विद्युदणुओं (Electrons) के पूर्ण भविष्य को निर्धारित किया जा सकता था और अगर सृष्टि के तमाम अणुओं के बारे में इन बातों का ज्ञान हो जाता तो सम्पूर्ण सृष्टि के बारे में भविष्यवाणी की सकती थी।
परन्तु हाइज़ेन बर्ग की व्याख्यानुसार मौजूदा साइंस अब इस नतीजे पर पहुंची है कि इन बातों की खोज में प्राकृतिक नियम बाधा डाल रहे हैं। यदि हम जान लें कि एक विद्युदणु वायुमण्डल में किस स्थान पर है, जब भी हम ठीक-ठीक नहीं बता सकते कि वह किस प्रकार से हरकत करता रहा है। प्रकृति किसी हद तक सीमान्त विभ्रम (Margin of Error) की आज्ञा देती है, परन्तु यदि हम इस सीमान्त में घुसना चाहें तो प्रकृति हमारी कोई सहायता नहीं करती। बज़ाहिर ऐसा मालूम होता है कि प्रकृति बिल्कुल सही नापों से बिल्कुल ही अनभिज्ञ है। इसी तरह अगर हमें किसी विद्युदणु की ठीक-ठीक रफ्तार मालूम हो तो प्रकृति हमें वायुमण्डल के भीतर उसका सही स्थान पता लगाने नहीं देती, मानो विद्युदणु का स्तान और उसकी हरकत किसी लालटेन की सलाइड की दो विभिन्न दिशाओं पर अंकित है। अगर हम सलाइड को किसी ख़राब लालटेन में रखें तो हम दो दिशाओं के बीच के आधे को प्रकाश में ला सकते हैं और विद्युदणु के स्थान पर और उसकी हरकत दोनों को कुछ न कुछ देख सकते हैं। अच्छी लालटेन द्वारा ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि हम एक पर जितना अधिक प्रकाश डालेंगे, दूसरा उतना ही धुंधला होता चला जायेगा। ख़राब लालटेन, प्राचीन विज्ञान है, जिसने हमें इस भ्रम में डाल रखा है कि यदि हमारे पास बिल्कुल पूरी लालटेन हो तो हम किसी मुख्य समय पर अणु के स्थान पर उसकी रफ़्तार का ठीक-ठीक अन्दाज़ा कर सकते हैं। यही धोखा था जिसने साइंस में निश्चयता (Determinism) को दाख़िल कर दिया, मगर अब जबकि मौजूदा साइंस के पास अधिक उत्तम लालटेन है, उसने हमको सिर्फ़ यह बताया है कि हालात व हरकत का निर्धारण वास्तविकता के दो विभिन्न पहलू हैं, जिन्हें हम एक हि समय में प्रकाश में नहीं ला सकते।"
(Modern Science Thought P.P. 17-18).
इस सिलसिले में आख़िरी सवाल यह है कि ख़ुदा की वह्य जो अलग-अलग ज़मानों में इन्सानों के पास आती रहती है, उनमें से कौन-सी वह्य ह, जिसका आज के इन्सान को पालन करना है। इसका जवाब बिल्कुल आसान है। बाद के लोगों के लिए वही वह्य पालन के योग्य हो सकती है जो सबके बाद आई हो। सरकार एक देश में किसी व्यक्ति को अपना राजदूत बना कर भेजती है। स्पष्ट है कि उस व्यक्ति का यह प्रतिनिधित्व और नुमाइन्दगी उसी समय तक के लिये है, जब तक वह अपने इस पद पर आसीन है, जब उसकी अवधि समाप्त हो जाये और दूसरे व्यक्ति को उस पद पर नियुक्त कर दिया जाये तो उसके बाद वही व्यक्ति सरकार का प्रतिनिधि होगा जिसको सबसे आख़िर में प्रतिनिधित्व का मौक़ा दिया गया है।
इस एतबार से हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ही वह अन्तिम रसूल हैं, जो आज और आगे क़ियामत तक के लिए मानवता के पथप्रदर्शक और रहनुमा हैं, जो सातवीं शताब्दी में अरब से उठे थे, जिनके बाद न कोई नबी हुआ और न भविष्य में कोई नबी होगा। आपका तमाम नबियों के बाद आना इस बात का प्रयाप्त कारण है कि आपको और केवल आपको वर्तमान और भविष्यत् के लिए ख़ुदा का प्रतिनिधि माना जाये, क्योंकि बाद को आने वाला अपने से पहले आने वालों को मन्सूख़ कर सकता है, मगर पहले आने वाला अपने बाद आने वाले को मन्सूख़ नहीं कर सकता।
हो सकता है मानव-इतिहास की सबसे पुरानी और आरम्भिक धार्मिक पुस्तक ऋगवेद हो जो ख़ुदा के आदेशानुसार संपादित की गई हो, जैसा की इन्जील अपेक्षतः मध्यकालीन ग्रन्थ है, परन्तु अब यह तमाम ग्रन्थ मन्सूख़ हो चुके हैं, इसके अतिरिक्त की इनमें से कोई ग्रन्थ भी अपने को अंतिम और स्थायी ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत नहीं करता, केवल यह बात की वे ख़दा के आख़िरी हिदायतनामा (क़ुरआन) से पहले उतारे गए थे, उनको आज के लिए मन्सूख़ करती है।
एक व्यक्ति कह सकता है कि हम हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को ख़ुदा का रसूल ही क्यों मानें? मेरा जवाब यह है कि जिन कारणों से आप दूसरे रसूलों को रसूल मानते हैं, उन्हीं कारणों से आख़िरी रसूल को रसूल मानना पड़ेगा। आप किसी दूसरे के बारे में यह साबित करने के लिए कि वह ख़ुदा की ओर से आये थे, जो भी नियम बनायेंगे और जो उक्तियां प्रस्तुत करेंगे, ठीक उन्हीं नियमों और उक्तियों के आधार पर आपको मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को भी ख़ुदा का रसूल मानना होगा। अगर आप आख़िरी रसूल का इन्कार करते हैं, तो आपको तमाम रसूलों का इन्कार कर देना पड़ेगा और दूसरे रसूलों को मानते हैं तो आपके लिए इसके सिवा कोई चारा नहीं है कि आख़िरी रसूल को भी स्वीकार करें और ज्योंहीआप आख़िरी रसूल को स्वाकार करते है, आपके लिए ज़रूरी हो जाता है कि उसी का आख़िरी सनद भी मानें। मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को रसूल मानना और आपको आख़िरी सनद तस्लीम न करना दोनों बाते एक दूसरे के प्रतिकूल हैं, जो एक साथ इकट्ठा नहीं हो सकतीं। ख़ुदा के आख़िरी हुक्म की मौजूदगी में उसके पिछले हुक्मों की बात करना ख़ुदा के आज्ञापालन का एक ऐसा तरीक़ा है, जिससे ख़ुदा कभी प्रसन्न नहीं हो सकता, यह तो ख़ुद अपने मन का आज्ञापालन है न कि ख़ुदा का आज्ञापालन।
इस्लाम का संक्षिप्त परिचय
अब मैं संक्षेप में यह बताना चाहता हूं कि वह सन्देश क्या है जिसको अन्तिम रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हमको और हमारी आगामी नस्लों को दिया। इस सन्देश को चार शीर्षकों के अन्तर्गत इकट्ठा किया सकता है।
(1) ख़ुदा की सही धारणा।
(2) मनुष्य के पैदा होने का मक़सद और सृष्टि के साथ उसका सम्बन्ध।
(3) मनुष्य ख़ुदा से सम्बन्ध जोड़ने के लिए क्या करे।
(4) व्यक्तिगत आचरण और सामाजिक क़ानून क्या हो।
सबसे पहली चीज़ जो रसूल ने हमें बताई वह यह कि इस सृष्टि का एक ख़ुदा है। यह ख़दा एक है, कोई किसी हैसियत से भी उसका साझी नहीं। वह सब कुछ करने की ताक़त रखता है और वही है जो तमाम घटनाओं को वजूद में ला रहा है। इस तथ्य की एक हद तक व्याख्या ऊपर हो चुकी है। यहां मैं क़ुरआन की एक आयत नक़ल करुंगा जो इस्लामी दृष्टिकोण से ख़ुदा की धारणा को संक्षिप्त परन्तु पूर्ण रूप से प्रस्तुत करती है-
"अल्लाह, वह ज़िन्दा ख़ुदा सम्पूर्ण सृष्टि को संभाले हुए है, उसके सिवा कोई ख़दा नहीं, उसको न ऊंघ लगती है और न उसे नींद आती है। ज़मीन व आसमान में जो कुछ है, सब उसी का है। कौन है उसके सामने उसकी आज्ञा के बिना बोलसने की हिम्मत कर सके? वह जानता है जो कुछ बन्दों के आगे है और जो कुछ बन्दों के पीछे है। उसके ज्ञान में जो कुछ है, उसमें से कुछ भी कोई हासिल नहीं कर सकता, मगर यह कि वह ख़ुद ही किसी को कुछ दे दे।उसकी हुकुमत पूरी दुनिया पर छाई हुई है और उसकी देखभाल उसके लिए थका देने वाला काम नहीं है। बस, वही एक सर्वोच्च एवं सर्वश्रेष्ठ सत्ता है।" (सूरः अल-बक़करा 255)
दूसरी चीज़ जो खुदा के रसूल ने हमको बताई, वह मनुष्य के पैदा होने का उद्देश्य और सृष्टि के साथ उसका सम्बन्ध है। उसने बताया कि मनुष्य को इस लिए पैदा किया गया है, ताकि उसे आज़माया जाये। मनुष्य को कर्म की स्वतंत्रता दे कर उसके पास अल्लाह ने अपनी प्रसन्नता भेज दी है। अब वह देखना चाहता है कि कौन अपने स्वामी की प्रसन्नता के अनुसार चलता है और कौन उसके विरुद्ध अमल करता है। सृष्टि के साथ मनुष्य का जो सम्बन्ध है, वह भी इसी उद्देश्य के अन्तर्गत है। यह सृष्टि की व्यक्ति या रा,ट्र की जायदाद नहीं, न वह कोई अललटप जगह है, बल्कि वह इस लिए है, ताकि मनुष्य को अपना कर्तव्य पूरा करने में मदद दे। यह संसार वास्तव में हमारा वह कर्म्-क्षेत्र है जहां रह कर हमें अपना इम्तिहान देना है। इसके सिवा संसार की और कोई हैसियत नहीं। हमारे इस इम्तिहान की एक मुद्दत है। एक व्यक्ति की मुद्दत उसकी उम्र तक है और सम्पूर्ण मानवता की मुद्दत उस समय तक है जब तक मानव-पैदाइश का यह सिलसिला जारी है। इसके बाद सृष्टि का स्वामी सबको इकट्ठा करेगा और प्रत्येक के कर्मों के अनुसार उसको इनाम देगा या सज़ा। इस इनाम या सज़ा पाने की जगह जन्नत या हन्नम है।
इस धारणा का नाम आख़िरत है। संसार हमारे जीवन का आरम्भ है और आख़िरत हमारे जीवन का अन्त। इस प्रकार अल्लाह ने हमारे भविष्य के बारे में हमको सूचना दी है। यह भविष्य का संसार हमारी निगाहों से ओझल रखा गया है, क्योंकि हमारी परीक्षा की स्थिति में होने की हैसियत इसी का तक़ाज़ा करती है। परन्तु जब परीक्षा की मुद्दत पूरी हो जायेगी तो यह छिपी हुई दुनिया बिल्कुल उसी प्रकार हमारे सामने आ जायेगी जिस प्रकार मौजूदा संसार हमको साफ़ नज़र आ रहा है। इस संसार में बज़ाहिर हमको केवल एक ही संसार दिखाई देता है, परन्तु किसी वस्तु की वास्तविकता उतनी ही नहीं होती, जितनी वह दिखाई दे रही हो। सूर्य का प्रकाश-बज़ाहिर एक पीली चमकदार-सी वस्तु है, परन्तु वास्तव में वह सात रंगों का योग है। ठीक इसी तरह हमारे मौजूदा जीवन के भीतर एक और जीवन छिपा हुआ है, जिसको हम मरने के बाद देखेंगे, जहां हम मरने के बाद पहुंचा दिये जायेंगे।
वह आख़िरत एक मात्र अलौकिक सिद्धांत नहीं है, बल्कि हमारे जीवन से इसका गहरा सम्बन्ध है। इतिहास से मालूम होता है कि जब मनुष्य ख़ुदा के भय से बेपरवाह हो जाता है, फिर कोई चीज़ नहीं जो उसको दूसरों पर अत्याचार करने और दूसरों को लूटने से रोक सके। जिन लोगों ने केवल क़ानून और राजनीति के द्वारा सुधार की कोशिश की है, उनकी कोशिशों ने केवल लूट खसोट की शक्लों को बदला है, अस्ल स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं किया है। वास्तविक सुधार तो उसी समय सम्भव है जबकि मनुष्य के भीतर पथभ्रष्टता से बचने और संमार्ग पर चलने की भावना पैदा हो जाये। इस भावना को उभारने वाली चीज़ को केवल ख़ुदा की पूछ-ताछ और उस की पकड़ का भय है। हम मजबूर हैं कि न्यायप्रिय व सदाचारी व्यक्ति बनने के लिए आख़िरत का सहारा लें। इसके सिवा किसी और साधन द्वारा हम इस मक़सद को हासिल नहीं कर सकते।
कुछ लोग कहते हैं कि आख़िरत की धारणा एक मन-घड़त धारणा है। हालांकि जिन दलीलों को आधार मान कर आख़िरत को ‘काल्पनिक' कहा जाता है, यदि उन को सही मान लिया जाये तो सम्पूर्ण सृष्टि काल्पनिक माननी पड़ जाती है, यहां तक की हमारा अपना वजूद भी काल्पिनक मात्र मालूम होने लगता है। परन्तु मैं इस पर बहस नहीं करुंगा। इसके जवाब में यहां मैं केवल इतना कहना चाहता हूं कि आख़िरत यदि काल्पनिक है, तो हमारे लिए इतनी ज़रूरी क्यों है? ऐसा क्यों है कि इसके बिना हम सही मायनों में कोई सामाजिक व्यवस्था बना ही नहीं सकते? इन्सान के दिमाग़ से इस धारणा को निकालने के बाद क्यों हमारा जीवन नष्टप्राय हो जाता है? क्या कोई काल्पनिक धारणा जीवन के लिए इतनी ज़रूरी हो सकती है? क्या सृष्टि में कोई ऐसी मिसाल पायी जाती है कि एक चीज़ वास्तविकता में मौजूद न हो परन्तु उसके बावजूद वह इतनी वास्तविक बन जाये, जीवन से उसका कोई नाता न हो परन्तु इसके बावजूद वह जीवन से इचतनी सम्बन्धित नज़र आये? वन के सही और न्यायपूर्ण संगठन के लिए आख़िरत की धारणा का इतना अधिक अनिवार्य होना ख़ुद यह ज़ाहिर करता है कि आख़िरत इस सृष्टि का सबसे बड़ा तथ्य है। वह यद्यपि हमारी आंखों से हमको नज़र नहीं आती परन्तु इसके बाद भी वह नज़र आने वाली तमाम चीज़ों से अधिक स्पष्ट और निश्चित है। किसी मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है कि वह होश-हवास रखते हुये इसका इन्कार कर सके।
तीसरी चीज़ जो ख़ुदा के रसूल ने बताई है, वह इस सवाल का जवाब है कि मनुष्य ख़ुदा के साथ सम्बन्ध जोड़ने के लिए क्या करे? इस सिलसिले में जो कुछ आपने बताया है, उसको तीन शीर्षकों के तहत जमा किया जा सकता है-ज़िक्र (स्मरण), इबादत (भक्ति) और क़ुर्बानी (बलिदान)-ज़िक्र के तात्पर्य यह है कि ख़ुदा के साथ अपने सम्बन्ध को प्रतिक्षण दिमाग़ में ताज़ा रखा जाये और ख़ुदा को उसकी तमाम हैसियतों के साथ इस तरह याद किया जाता रहे जिस तरह रसूल ने याद करने के लिए बताया है। इबादत से तात्पर्य वे मुख्य शारीरिक कार्य हैं शरीअत में इसलिए मुक़र्रर किये गये हैं, ताकि मनुष्य की भौतिक हैसियत पर उसकी आध्यात्मिक हैसियत को छा जाने दिया जाये और उससे ऐसे कार्य कराये जायें जो मनोवैज्ञानिक रूप से उसको ख़ुदा से क़रीब करने वाला हो। क़ुर्बानी अपनी भावनाओं और अपनी सम्पत्ति को ख़ुदा की राह में ख़र्च करने का नाम है। मनुष्य जब अपनी प्यारी चीज़ों को ख़ुदा के नाम पर क़ुर्बान कर देता है तो मानो वह अपनी भावनाओं को ख़ुदा के सुपुर्द कर देता है और अपनी रुचियों को आख़िरी हद तक ख़ुदा की ओर मोड़ने की कोशिश करता है। इस प्रकार यह क़ुर्बानी मनुष्य को उसके पालनहार से बिल्कुल क़रीब कर देती है।
चौथी चीज़ मनुष्य का व्यक्तिगत आचरण और उसका सामाजिक नियम है। इस सम्बन्ध में अति विस्तृत और तफ़्सीली आदेश दिये गये हैं। एक कर्त्तव्यपरायण और सत्यप्रिय जीवन के लिये जिन सही तरीन उसूलों की ज़रूरत है, वे सभी सविस्तार बता दिये गये हैं, परन्तु व्यक्तिगत उपदेश मात्र से किसी समाज के भीतर सामान्य सुधार नहीं हो सकता और न यही सम्भव है कि सुधार किये गये व्यक्ति देर तक अपने रवैये पर जमे रह सकें, इसलिए एक व्यापक सामाजिक नियम भी हमारे सुपुर्द कर दिया गया है, ताकि उसके आधार पर एक स्टेट बनाया जाये और सामाजिक स्तर पर ख़ुदा की प्रसन्नता क़ायम करने का प्रयास किया जाये। दूसरे शब्दों में इस्लाम केवल एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों को ही ईश्वरवादी नहीं देखना चाहता बल्कि पूर्ण मानव जाति में एक ऐसी क्रांति पैदा करना चाहता है जिससे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन की तमाम प्रतिकूलतायें ख़्तम हो जायें और तमाम मनुष्य मिल कर ख़ुदा का आज्ञापालन करने लगें।
यह एक ऐसी विशेषता है जो तमाम धर्मों में इस्लाम को प्राप्त है। जहां तक ख़ुदा और उससे सम्बन्धित दूसरी अलौकिक धारणाओं का मामला है वे दूसरे धर्मों में भी किसी न किसी हद तक मौजूद है परन्तु अगर यह प्रश्न किया जाये कि क्या किसी धर्म के पास ऐसा कोई सामाजिक ढांचा और संविधान-प्रणाली है जिनके आधार पर स्टेट का निर्माण किया जा सके, तो इसके उत्तर में इस्लाम के सिवा किसी और धर्म का नाम नहीं लिया जा सकता। इस्लाम के पास वे बुनियादी क़ानून भी सही शक्ल में सुरक्षित है जो ख़ुदा ने मनुष्य के पथप्रदर्शन के लिये भेजे थे और इन क़ानूनों की बुनियाद पर जो सामाजिक व्यवस्था बनाई गई थी, उसका रिकार्ड भी पूरी तरह इतिहास में मौजूद है। यह ख़ुदा की एक ऐसी नेमत है जिसको अगर अपना लिया जाये तो वे तमाम समस्यायें हल हो सकती हैं जो आज की मानवता को घेरे हुए है।
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