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तज़किया क़ुरआन की नज़र में

तज़किया क़ुरआन की नज़र में

लेखक : मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी

अनुवाद : नसीम ग़ाज़ी फ़लाही

प्रकाशक : मर्कज़ी मक्तबा इस्लामी पब्लिशर्स

बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

"अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान, निहायत रहमवाला है।"

दो शब्द

हमें और पूरी कायनात को अल्लाह ने पैदा किया है। उसने हम इनसानों को 'अशरफ़ुल-मख़लूक़ात' यानी अपनी पैदा की हुई मख़लूक़ में सबसे ऊँचा और बुलन्द बनाया है। अल्लाह ने अपने मंसूबे के तहत एक महदूद मुद्दत के लिए इनसानों को ज़मीन पर भेजा है। इनसान के अन्दर वे सभी ताक़तें और सलाहियतें रखी गई हैं जो उस मंसूबे और मक़सद को पूरा करने के लिए ज़रूरी हैं, जिसके लिए इनसान को भेजा गया है। इसी के साथ अल्लाह ने हमारी हर ज़रूरत का सामान भी दुनिया में जुटाया है।

इनसान हक़ीक़त में एक रूह है, जिसे एक माद्दी जिस्म दिया गया है। यानी इनसान जिस्म का नाम नहीं बल्कि हक़ीक़त में उस रूह का नाम है जो जिस्म में दाख़िल की गई है। इसलिए जब किसी इनसान की रूह निकल जाती है तो कहा जाता है कि वह मर गया है, हालाँकि उसका जिस्म सामने मौजूद होता है।

इनसान को इस दुनिया में भेजे जाने का मक़सद हक़ीक़त में यह है कि इनसान अपने पैदा करनेवाले और परवरिश करनेवाले खु़दा की हिदायत के तहत अपनी रूह को पाकीज़ा बनाए और उसे परवान चढ़ाए और तरक़्क़ी दे। उसके अन्दर वे सिफ़ात पैदा करे जो अल्लाह को पसन्द हैं, जिनको पैदा करने और परवान चढ़ाने का उसने हुक्म दिया है। मिसाल के तौर पर यह कि वह अपने पैदा करनेवाले और पालने पोसनेवाले रब को जाने, उससे उसका ताल्लुक़ किस तरह का हो इस बात को समझे। उसके आगे हवालगी और बन्दगी का जज़्बा, सारे जानदारों के लिए रहम का जज़्बा, हमदर्दी, उनको माफ़ करने और उनकी ख़िदमत करने और उनसे मुहब्बत करने वग़ैरह के जज़्बात अपने अन्दर पैदा करे। वह अल्लाह के साथ किसी को शरीक न करे। अल्लाह की नाफ़रमानी से बचे। धोखा, फ़रेब, झूठ, कंजूसी, ज़ुल्म व ज़्यादती और दूसरे गन्दे कामों से दूर रहे।

हक़ीक़त में इसी मक़सद को पूरा करने के लिए अल्लाह का दीन इस्लाम आया है। उसने बड़ी तफ़सील के साथ इनसानों की रहनुमाई की है। इस्लाम ने बताया है कि अगर इनसान अल्लाह के बताए हुए रास्ते पर चलेगा यानी वे काम करेगा जिनको करने का अल्लाह की किताब क़ुरआन मजीद और अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हुक्म दिया है और उन कामों और बातों से बचेगा जिनसे रोका गया है तो फिर वह मरने के बाद अल्लाह की बनाई हुई जन्नत में दाख़िल होगा। क़ुरआन मजीद में ऊपर लिखी हुई सिफ़ात को बयान करने के लिए बहुत-से अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल किया गया है। उन्हीं में से एक लफ़्ज़ 'तज़किया' है।

तज़किया क़ुरआन मजीद की एक 'इस्तिलाह' (शब्दावली) है जो अपने अन्दर बहुत सारे मानी रखती है। तज़किए का ताल्लुक़ इनसान की पूरी ज़िन्दगी से है। इसमें रूह को पाक रखने के मानी भी पाए जाते हैं और उसे परवान चढ़ाने और बुलन्द करने के मानी भी। इस दौर के मशहूर आलिमे-दीन मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी साहब ने इस छोटी-सी किताब में तज़किये की शक्लें क़ुरआन मजीद की रौशनी में बयान की हैं। इनको पढ़कर इनसान के लिए यह आसान हो जाता है कि वह दुनिया और आख़िरत की कामयाबी के लिए तज़किये की सिफ़ात अपने अन्दर पैदा करे।

इस्लामी साहित्य ट्रस्ट (रजि.) हिन्दी ज़बान में इस्लामी किताबें तैयार करने के मुबारक काम में लगा हुआ है। "तज़किया क़ुरआन की नज़र में" नामक यह किताब हिन्दी में पेश करके हमें बेहद खु़शी हो रही है जिस पर हम अल्लाह का शुक्र अदा करते हैं।

अल्लाह से हमारी दुआ है कि वह इस किताब को लोगों के लिए ज़्यादा से ज़्यादा मुफ़ीद बनाए और इस किताब के लेखक और प्रकाशक सभी को इसका अच्छा बदला दे!

—नसीम ग़ाज़ी फ़लाही

अध्यक्ष

इस्लामी साहित्य ट्रस्ट (रजि.)

नई दिल्ली, 1-12-2008

'बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम'

अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान, निहायत रहमवाला है।

तज़किया क़ुरआन की नज़र में

तज़किया क़ुरआन की एक शब्दावली है

तज़किया क़ुरआन मजीद की एक शब्दावली है। अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जिन मक़ासिद के लिए नबी बनाकर भेजे गए थे यह उनमें से एक अहम और बुनियादी मक़सद है। हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) ने ख़ाना काबा की तामीर के वक़्त दुआ की थी कि ऐ अल्लाह! मुझे और मेरे बेटे इसमाईल को मुस्लिम और अपना फ़रमाँबरदार बनाए रख और हमारी औलाद से ऐसी उम्मत उठा जो तेरी फ़रमाँबरदार हो। आगे दुआ इस तरह है—

"ऐ हमारे रब! उन लोगों में ख़ुद उन्हीं में से एक रसूल उठा जो उन्हें तेरी आयतें सुनाए। उनको किताब और हिक्मत की तालीम दे और उनका तज़किया करे। तू बड़ा ज़बरदस्त और हिक्मतवाला है।" (क़ुरआन, 2:129)

यह सूरा-2, बक़रा की आयत है। इसी सूरा में आगे चलकर फ़रमाया है—

"जिस तरह हमने तुम्हारे बीच एक रसूल तुम्हीं में से भेजा जो तुम्हें हमारी आयतें सुनाता है, तुम्हें निखारता है, और तुम्हें किताब और हिक्मत की तालीम देता है और तुम्हें वह कुछ सिखाता है जो तुम जानते न थे।" (क़ुरआन, 2:151)

इसका मतलब यह है कि अल्लाह ने हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) की दुआ क़बूल फ़रमाई और जिस मक़सद के लिए दुआ की गई थी उसको पूरा करने के लिए अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को भेजा गया।

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को पैग़म्बर बनाकर भेजे जाने का मक़सद क़ुरआन मजीद की सूरा-3, आले-इमरान, आयत-164; सूरा-62, जुमुआ, आयत-2 में भी बयान हुआ है।

मानी और मतलब

तज़किया शब्द 'ज़का' शब्द से बना है। ज़का के मानी हैं — बढ़ना, विकसित होना, भलाई और तक़वा (ईशपरायणता) का पाया जाना, इबादत और पवित्रता का हासिल होना। इसमें अपनी तारीफ़ और अपने भले काम को ज़ाहिर करने के मानी भी पाए जाते हैं। इन सभी मानी में क़ुरआन और हदीस में इसका इस्तेमाल हुआ है।

इस पहलू से तज़किया यह है कि आदमी की सोच और कर्म सम्बन्धी कमज़ोरियाँ जो उसे पस्ती और पतन की ओर ले जाती हैं दूर हों और उसके अन्दर सही सोच, नैतिकता और ईशपरायणता (तक़वा) के गुण पैदा हों। इन्हीं गुणों से उसके व्यक्तित्व का विकास हो सकता है और वह बुलन्द स्थान प्राप्त कर सकता है। क़ुरआन मजीद में है—

"बेशक सफल हो गया वह जिसने मन को विकसित किया और असफल हुआ वह जिसने उसे दबा दिया।" (क़ुरआन, 91:9,10)

क़ुरआन मजीद की इस आयत में अरबी शब्द 'तज़किया' के मुक़ाबले में 'तदसिया' शब्द आया है। तज़किया में विकसित होने और उभरने का भाव है। इसके विपरीत तदसिया यह है कि किसी चीज़ को उभरने न दिया जाए और उसे दबा दिया जाए। इस्लामी विद्वान ज़मख़शरी कहते हैं—

"तज़किया के मानी हैं तक़वा (ईशपरायणता) के द्वारा व्यक्तित्व को निखारना और बुलन्द करना। (इसके विपरीत) दुराचार और बुरे कामों के द्वारा व्यक्तित्व में ख़राबी पैदा करने और उसे छिपा देने का नाम तदसिया है।" (ज़मख़शरी, अल-कश्शाफ़ अन हक़ाइक़ि ग़वामिज़ित्तंज़ील : 4/748)

इसका मतलब यह है कि आदमी का अपने व्यक्तित्व को भलाई और ईशपरायणता (तक़वा) के द्वारा ऊपर उठाना तज़किया है। तदसिया यह है कि आदमी गुमराही और नैतिक गिरावट में पड़ा रहे और अपने व्यक्तित्व को उभरने न दे।

तज़किये के समानार्थी शब्द

तज़किया के अर्थ में 'ततहीर' (पवित्रता) का शब्द भी आया है। हज़रत मरयम (अलैहस्सलाम) के बारे में कहा गया—

"अल्लाह ने तुझे चुन लिया और तुझे पवित्रता प्रदान की और तुझे तमाम दुनिया की औरतों पर प्राथमिकता देकर अपनी सेवा के लिए चुन लिया।" (क़ुरआन, 3:42)

क़ुरआन मजीद की उपर्युक्त आयत में 'तह्ह-र-कि’ आया है जिसका मतलब है ततहीर (पवित्रता प्रदान करना)। इसका मतलब यह है कि अल्लाह ने हज़रत मरयम को तमाम नैतिक दोषों से पाक किया। उनके अन्दर नेकी, तक़वा और इफ़्फ़त और इस्मत जैसी ख़ूबियाँ पैदा कीं। इसी को तज़किया कहते हैं।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की पाक बीवियों के बारे में कहा—

"अल्लाह तो यह चाहता है कि तुम नबी के घरवालों से गन्दगी को दूर करे और तुम्हें पूरी तरह पाक कर दे।" (क़ुरआन, 33:33)

आयत में अरबी शब्द 'रिज्स' आया है। इसका इस्तेमाल गन्दगी, मैल-कुचैल, गन्दी हरकत, हराम और कुफ़्र जैसी फ़िक्री और अमली ख़राबियों के लिए होता है। यहाँ रिज्स से मुराद दीनी और अख़लाक़ी कमज़ोरियाँ हैं। आयत का मतलब यह है कि अल्लाह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की पाक बीवियों को हर प्रकार की दीनी और अख़लाक़ी कमज़ोरियों से पूरी तरह पाक करना चाहता है। इसके लिए अरबी शब्द 'ततहीर' आया है। तज़किया इसी का नाम है।

वुज़ू और तयम्मुम के अहकाम के तहत कहा गया—

"अल्लाह तुमपर ज़िन्दगी को तंग नहीं करना चाहता, बल्कि वह चाहता है कि तुम्हें पाक करे और अपनी नेमत तुमपर पूरी कर दे, शायद कि तुम शुक्रगुज़ार बनो।" (क़ुरआन, 5:6)

वुज़ू और तयम्मुम के ज़रीए आदमी को जिसमानी पाकी हासिल होती है और वह नमाज़ और क़ुरआन की तिलावत जैसी इबादतों के अदा करने के क़ाबिल होता है। इसी तरह वह गुनाहों से भी पाक होता है। यहाँ 'ततहीर' के ज़रीए इन दोनों ही बातों की ओर इशारा है। यही तज़किया है।

क़ुरआन मजीद में एक जगह ततहीर और तज़किया के शब्द एक साथ समानार्थी रूप में आए हैं। (क़ुरआन, 9:103)

तज़किया के लिए तरबियत की शब्दावली भी इस्तेमाल होती है। तरबियत का मतलब है—

"किसी चीज़ को एक हालत से दूसरी हालत में इस तरह पहुँचाना कि वह पूर्णता की सीमा को पहुँच जाए।" (मुफ़रदातुल-क़ुरआन, राग़िब असफ़हानी)

अल्लाह की हस्ती को इसी अर्थ में 'रब' कहा जाता है कि वह जिस मख़लूक़ (सृष्टि) के जिस जीवन-चरण में जो ज़रूरत है वह पूरी करता है और उसे पूर्णता के दरजे तक पहुंचाता है। तज़किया की प्रक्रिया भी इसी तरह होती है। तरबियत ही से मुरब्बी (तरबियत करनेवाला) का शब्द निकला है। मुरब्बी उस व्यक्ति को कहा जाता है जो अपने मातहत व्यक्ति या व्यक्तियों की निगरानी करता है और उसमें जो कमज़ोरी या ख़राबी पाई जाए उसकी इस्लाह करता है।

तज़किया खु़दापरस्ताना ज़िन्दगी गुज़ारने का नाम है, इसलिए उसे 'तक़वा' (ईशपरायणता) भी कहा गया है। अतः क़ुरआन में कहा गया है—

"और उसे आग से दूर रखा जाएगा जो बड़ा ही परहेज़गार है, जो पाक होने के लिए अपना माल देता है।" (क़ुरआन, 92:17,18)

यही बात सूरा नज्म-53, आयत 32 में भी कही गई है।

दीन में तज़किये की अहमियत

हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) ने अपनी और हज़रत इसमाईल (अलैहिस्सलाम) की औलाद में एक पैग़म्बर के भेजने की अल्लाह से जो दुआ की थी उसके उद्देश्यों में आयतों का पढ़ना, किताब की तालीम और हिक्मत और तज़किया का ज़िक्र है। (क़ुरआन, 2:129) यह हक़ीक़त में इस बात की ओर इशारा है कि आयतों की तिलावत और किताब और हिक्मत की तालीम का अस्ल मक़सद इल्मी (बौद्धिक) और अमली तज़किया है। हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) की दुआ के नतीजे में अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को पैग़म्बर बनाए जाने का जहाँ उल्लेख है वहाँ आयतों की तिलावत के फ़ौरन बाद तज़किये का उल्लेख है। (क़ुरआन, 2:151) इसलिए कि अस्ल मक़सद तज़किया ही है। किताब और हिक्मत की तालीम इसी के लिए है। क़ाज़ी बैज़ावी कहते हैं—

"अस्ल मक़सद तज़किया है इसलिए इसे यहाँ पहले बयान किया गया है। हज़रत इबराहीम की दुआ में इसका उल्लेख आख़िर में हुआ है। इसलिए कि यह नतीजे के तौर पर आख़िर ही में हासिल होता है।"

इससे दो बातें उभर कर सामने आती हैं—

एक यह कि तज़किये की बुनियाद आयतों की तिलावत, किताब व हिक्मत की तालीम पर होनी चाहिए। इसके बिना हक़ीक़ी तज़किया हासिल नहीं हो सकता। इस राह से हटकर किसी दूसरे तरीक़े से जो तज़किया हो उसका इस्लाम की निगाह में कोई एतिबार नहीं होगा।

दूसरी बात यह है कि अगर आयतों की तिलावत हो, अल्लाह की किताब की तालीम हो और उसके रहस्यों, शिक्षाओं और हिक्मतों (तत्त्व-ज्ञान) का बयान भी हो और तज़किया न हो तो उनका अस्ल मक़सद पूरा न होगा। वह एक ऐसी भाग-दौड़ होगी जिसमें निशाने-राह (पथ-रेखाओं) को मंज़िल समझ लिया जाए।

तज़किये का व्यापक तसव्वुर

तज़किया और उससे बने दूसरे शब्दों का इस्तेमाल क़ुरआन मजीद में मुख़्तलिफ़ जगहों पर हुआ है। उन सब पर एक नज़र डालने से यह हक़ीक़त सामने आती है कि तज़किये का मतलब ज़िन्दगी के किसी एक विभाग का सुधार और उसका कमियों से पाक होना और उसमें ख़ूबियों का पाया जाना नहीं है, बल्कि पूरी ज़िन्दगी का तज़किया है। अगर किसी आदमी की इबादतों का तज़किया हो जाए मगर उसका सुलूक अपने घर और ख़ानदानवालों के साथ अच्छा न हो तो यह उस आदमी का नाक़िस और अधूरा तज़किया होगा। इसी तरह किसी आदमी के अख़लाक़ तो अच्छे हो जाएँ मगर उसके मामलात ख़राब हों तो यह भी तज़किये की कमी होगी। क़ुरआन की तालीमात के मुताबिक़ तज़किया एक व्यापक कार्य है जो ज़िन्दगी के हर पहलू से ताल्लुक़ रखता है। यह हक़ीक़त में व्यक्तिगत और सामूहिक हर पहलू से सुधार और तरबियत का नाम है।

अक़ीदे का तज़किया

तज़किये का सबसे पहला मरहला अक़ीदे और फ़िक्र का सुधार है। अल्लाह के पैग़म्बर इसी से तज़किये का आग़ाज़ करते हैं। क़ुरआन मजीद की शुरू में उतरनेवाली सूरतों में एक सूरा अल-आला भी है। इसमें अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को ज़िक्र और नसीहत का हुक्म दिया गया और कहा गया कि जिसके अन्दर इससे डर और विनम्रता (खु़शूअ) पैदा होगी वह फ़ायदा उठाएगा और जो कोई बद-क़िस्मत है इससे दूर ही रहेगा और जहन्नम की आग का हक़दार होगा। (क़ुरआन, 87:9-13)

इसके बाद फ़रमाया—

"कामयाब हो गया वह जिसने तज़किया इख़्तियार किया।" (क़ुरआन, 87:14)

मक्का के इब्तिदाई दौर में तज़किये के अन्दर बुनियादी तौर से यह बात दाख़िल थी कि आदमी शिर्क और बुतपरस्ती को पूरे तौर पर छोड़ दे, ख़ालिस तौहीद का अक़ीदा उसके दिल और दिमाग़ में रच-बस जाए और वह बुराई को छोड़कर अल्लाह की किताब और उसके पैग़म्बर की फ़रमाँबरदारी का रास्ता अपना ले। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रजिअल्लाहु अन्हु) इसके मानी बयान करते हैं— यानी कामयाब हुआ वह जिसने शिर्क से पाकी इख़्तियार की।

इमाम इब्ने-जरीर तबरी (रहमतुल्लाह अलैह) ने क़ुरआन की इस आयत का मतलब यह बयान किया है—

"बेशक वह कामयाब हुआ और उसने अपनी मुराद को पा लिया जिसने कुफ़्र और अल्लाह की नाफ़रमानियों से पाकी हासिल की, अल्लाह ने जिन बातों का हुक्म दिया है उनपर अमल किया और उसके निश्चित किए हुए फ़र्ज़ और ज़िम्मेदारियों को अदा किया।”

(जामिउल-बयान फ़ी तफ़सीरिल-क़ुरआन, भाग-30, पृ 99)

इस सिलसिले में एक हदीस हाफ़िज़ अबू-बक्र बज़्ज़ार ने भी बयान की है। हज़रत जाबिर इब्ने-अब्दुल्लाह फ़रमाते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने क़ुरआन मजीद की आयत "कामयाब हो गया वह जिसने तज़किया इख़्तियार किया" का मतलब बयान करते हुए फ़रमाया—

"जिसने गवाही दी कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं; जिन चीज़ों को उसके बराबर ठहराया जाता है उनसे दूर रहा और इस बात की गवाही दी कि मैं उसका रसूल हूँ।"

(इब्ने-कसीर, तफ़्सीरुल-क़ुरआनिल-अज़ीम, 4/501; क़ुरतबी, अल-जामिउ लि-अहकामिल-क़ुरआन, जिल्द-10, भाग 20, पृ 16)

जलालैन में ऊपर बयान की गई आयत का यह मतलब बयान किया गया है कि—

"कामयाब वह हुआ जिसने ईमान के ज़रीए पाकी हासिल की।" (तफ़सीर जलालैन : तफ़सीर सूरा अल-आला)

क़ुरतबी में है—

"यानी वह जो ईमान के ज़रीए शिर्क से पाक हुआ।" (क़ुरतबी, अल-जामिउ लि-अहकामिल-क़ुरआन, जिल्द 10)

मक्का के इब्तिदाई दौर में जो सूरतें उतरीं उनमें सूरा अश-शम्स भी है, उसमें भी यह बात बयान की गई है—

"बेशक कामयाब हो गया वह जिसने नफ़्स का तज़किया किया और नामुराद हुआ वह जिसने उसको दबा दिया।" (क़ुरआन, 91:9,10)

मतलब यह कि वह शख़्स कामयाब और सफल हुआ जिसने नेकी और तक़वा (परहेज़गारी) के ज़रीए अपनी शख़्सियत को तरक़्क़ी दी और ऊंचे दर्जों तक पहुंच हासिल की। इसके विपरीत नाकाम हुआ वह जिसने ग़लत अक़ीदे, ग़लत विचार और बुरे कामों से अपने आप को उभरने न दिया और मिट्टी में मिलाकर रख दिया। अल्लामा शौकानी कहते हैं—

"जिसने तक़वा (ईशपरायणता) के ज़रीए अपने नफ़्स का तज़किया किया, उसे विकसित किया और ऊपर उठाया उसने हर मतलूब चीज़ पा ली और पसन्दीदा चीज़ पाने में कामयाब रहा...... इसके बरख़िलाफ़ वह शख़्स घाटे में रहा जिसने उसे गुमराह किया, भटकाया और उसे बुझाया और अल्लाह की इताअत और नेक कामों के ज़रीए उसे उभरने और नुमायाँ होने न दिया।" (मुहम्मद सुलैमान अब्दुल्लाह अल-अशक़र, ज़ुब्दतुत्तफ़सीर मिन फ़तहिल क़दीर [लिश-शौकानी] पृ 809)

ऊपर हमने क़ुरआन मजीद की मक्की सूरतों की कुछ आयतें बयान की हैं। इसके अलावा दूसरी मक्की सूरतों में भी विभिन्न तरीक़ों और सन्दर्भों से तज़किये का बयान है। उनमें अक़ीदे और फ़िक्र के तज़किये का पहलू नुमायाँ है। क़ुरआन मजीद की मदनी सूरतों में भी तज़किये की हिदायतें मौजूद हैं। उनमें से कुछ में अक़ीदे और फ़िक्र के सुधार का साफ़ उल्लेख पाया जाता है। क़ुरआन में है—

"वही है जिसने उम्मियों के अन्दर एक रसूल ख़ुद उन्हीं में से उठाया जो उन्हें उसकी आयतें सुनाता है। उनका तज़किया करता है और उनको किताब और हिक्मत की तालीम देता है, हालाँकि इससे पहले वे लोग खुली गुमराही में पड़े हुए थे।" (क़ुरआन, 62:2)

क़ुरआन मजीद की इस आयत में अल्लाह के उन बड़े एहसानों का ज़िक्र है जो उसने अपने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ज़रीए एक उम्मी क़ौम पर किए। ये एहसान वक़्ती नहीं, दाइमी थे।

उम्मी उस शख़्स को कहा जाता है जो लिखना-पढ़ना न जानता हो। इमाम राग़िब (रहमतुल्लाह अलैह) कहते हैं—

"उम्मी वह है जो न लिख सके और न कोई किताब पढ़ सके।" (राग़िब असफ़हानी, मुफ़रदातुल-क़ुरआन)

इसमें ग़फ़लत और जहालत का तसव्वुर भी है।

उम्मी यहाँ अरबवालों को कहा गया है। उनके जाहिलीयत के दौर की हालत बयान हुई है कि वे खुली गुमराही में गिरफ़्तार थे। इससे अस्ल में मुराद शिर्क और सत्य-धर्म से बेख़बरी और गुनाहों और बुराइयों की ज़िन्दगी है। अक़ीदे और अमल की इस गुमराही से निकलना तज़किया है। ज़मख़शरी ने "उनका तज़किया करता है" का मतलब इस तरह बयान किया है—

"नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उन्हें शिर्क से और जाहिलियत की बुराइयों से पाक करते हैं।" (ज़मख़शरी अल-कश्शाफ़, अन हक़ाइक़ि ग़वामिज़ित-तन्ज़ील, 4/517)

क़ाज़ी शौकानी कहते हैं—

"नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उनका तज़किया करते हैं यानी उन्हें कुफ़्र व गुनाहों के मैल-कुचैल और बुरे अख़लाक़ से पाक करते हैं। इसके ये मानी भी बयान हुए हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उनको ईमान के ज़रीए पाक दिल बनाते हैं।"

क़ुरआन मजीद की सूरा आले-इमरान में यही बात ईमानवालों पर अल्लाह के एहसान की हैसियत से बयान हुई है—

"हक़ीक़त में ईमानवालों पर तो अल्लाह ने यह बहुत बड़ा एहसान किया है कि उनके बीच ख़ुद उन्हीं में से एक ऐसा पैग़म्बर उठाया जो उसकी आयतें उन्हें सुनाता है, उनका तज़किया करता है, उनको किताब और हिक्मत की तालीम देता है, हालाँकि इससे पहले यही लोग गुमराही में पड़े हुए थे।" (क़ुरआन, 3:164)

यानी ईमानवालों पर यह अल्लाह का बहुत बड़ा एहसान है कि उसने अपने पैग़म्बर के ज़रीए उन्हें उस खुली गुमराही से निकाला जिसमें वे पड़े हुए थे। यह गुमराही फ़िक्र (विचार) व अक़ीदे और अख़लाक़ व किरदार हर तरह की थी। तज़किया इसी से निकालने का नाम है। ज़मख़शरी ने इसका मतलब इस तरह ब्यान किया है—

"कुफ़्र की वजह से दिलों में जो गन्दगी पैदा हो जाती है उससे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उन्हें पाक करते हैं। (इसी तरह) हराम चीज़ों और बुराइयों में पड़े होने की वजह से अंगों को जो गन्दगी लग जाती है उसे दूर करते हैं।" (ज़मख़शरी, अल-कश्शाफ़ 1/427)

यही बात क़ाज़ी बैज़ावी ने मुख़्तसर लफ़्ज़ों में कही है—

"नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उन्हें तबियतों और स्वभाव की गन्दगी और बुरे अक़ीदों और बुरे कामों से पाक करते हैं।" (बैज़ावी अनवारुत-तनज़ील व असरारुत-तावील, 1/188)

इबादतों का तज़किया

तज़किया इबादतों का भी होता है और इबादतों से तज़किया हासिल भी होता है। क़ुरआन में है—

"कामयाब हो गया वह जिसने तज़किया इख़तियार किया और अपने रब का नाम याद किया फिर नमाज़ पढ़ी।" (क़ुरआन, 87:14,15)

इन आयतों में तज़किये को कामयाबी का ज़रीआ क़रार देने के साथ इसकी एक अमली सूरत भी बयान कर दी गई है। वह यह कि आदमी अल्लाह का ज़िक्र करे और उसका नाम लेता रहे। इसकी बेहतरीन सूरत वे दुआएं हैं जिनको अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) रात-दिन और हर मौक़े पर पाबन्दी से पढ़ते थे और जो सहीह हदीसों से साबित हैं। अल्लाह का नाम लेने और उसे याद करने का सबसे ऊंचा और अच्छा ज़रीआ नमाज़ है। इसी वजह से रब को याद करने के फ़ौरन बाद नमाज़ का उल्लेख है। नमाज़ के बग़ैर तज़किये का तसव्वुर नहीं है। नमाज़ में सजदा है और सजदा अल्लाह से क़रीब होने का सबसे बड़ा ज़रीआ है। हुक्म दिया गया कि "सज्दा करो और क़रीब हो जाओ।" (क़ुरआन, 96:19)

ज़कात में तज़किये का अर्थ मौजूद है, इसलिए कि दोनों एक ही धातु (माद्दे) से बने हैं। ज़कात से माल पाक भी होता है और उसमें बरकत और बढ़ोत्तरी भी होती है। [देखें लेखक की पुस्तक 'इनफ़ाक़ फ़ी सबीलिल्लाह' (अल्लाह की राह में ख़र्च करना)]

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को हुक्म है—

"आप उनके मालों में से सदक़ा क़बूल करके उन्हें पाक करें और उनका तज़किया करें।" (क़ुरआन, 9:103)

इसका एक मतलब यह भी है कि सदक़े अगर सही हाथों में पहुंचें तो उससे पाकी और तज़किया हासिल होता है।

रोज़े का मक़सद "ताकि तुम्हारे अन्दर तक़वा पैदा हो" (क़ुरआन, 2:183) के शब्दों में बयान हुआ है। यानी इससे उम्मीद की जा सकती है कि आदमी गुनाहों से बचेगा और ख़ुदापरस्ती के रास्ते पर चलेगा। तक़वा का ही दूसरा नाम तज़किया है।

अख़लाक़ और किरदार का तज़किया

अल्लाह के रसूलों की ज़िम्मेदारियों में बेहतरीन अख़लाक़ और अच्छे किरदार की तालीम देना भी शामिल रहा है। वे अच्छे और बेहतरीन अख़लाक़ की तालीम ही नहीं देते बल्कि इनसान की ज़िन्दगी को पाकीज़ा भी बनाते हैं और बुलन्द भी। क़ुरआन मजीद ने इस बात पर उभारा है कि लोग अपने अन्दर अच्छे अख़लाक़ पैदा करें और अख़लाक़ की बुलन्दी को ईमानवालों की एक नुमायाँ ख़ूबी और सिफ़त क़रार दिया है। वह बुरे अख़लाक़ और बदकिरदारी से उनके दामन को पाक देखना चाहता है। उसके नज़दीक अच्छे और बेहतरीन अख़लाक़ का सरचश्मा (स्रोत) ईमान है। सही मानों में ईमान की दौलत नसीब हो तो ज़िन्दगी के हर गोशे में बुराइयों से पाक और बहुत ही अच्छा किरदार वुजूद में आता है। यह अस्ल में तज़किये का एक पहलू है। नज़रें झुकाकर और पाकदामनी अपनाकर इनसान ऊंचे किरदार का सुबूत देता है। यह अख़लाक़ का तज़किया है। क़ुरआन ने ईमानवालों को हिदायत दी है—

"मोमिनों से कह दो कि वे अपनी निगाहें नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें। इसमें उनके लिए ज़्यादा पाकीज़गी है। बेशक अल्लाह को उसकी पूरी ख़बर रहती है जो कुछ वे किया करते हैं।" (क़ुरआन, 24:30)

आँखों का भटकना बदकारी की शुरुआत है। इससे नाजायज़ ताल्लुक़ात की राहें खुलती हैं। इसी लिए नज़रें नीची रखने का या आँख बन्द रखने का हुक्म दिया गया है। क़ुरआन की इस बात पर अमल हो तो बदकारी से बचा जा सकता है। इसके बारे में फ़रमाया—

"यह उनके लिए ज़्यादा पाकीज़ा तरीक़ा है।"

क़ुरआन में इसके लिए शब्द 'अज़्का' इस्तेमाल हुआ है। इसमें सफ़ाई और पाकी के मानी पाए जाते हैं।

समाज का तज़किया

तज़किये के मानी में समाज का तज़किया भी शामिल है। क़ुरआन में एक जगह कहा गया है कि जो औरतें तलाक़ के बाद पिछले शौहरों से आपसी रज़ामन्दी से और दस्तूर के मुताबिक़ निकाह करना चाहें तो उन्हें इससे न रोको। अल्लाह और आख़िरत पर ईमान रखनेवालों को इसकी नसीहत की जा रही है। इसके बाद फ़रमाया—

"यह तुम्हारे लिए ज़्यादा पाकीज़ा और ज़्यादा साफ़-सुथरा तरीक़ा है। अल्लाह जानता है, और तुम नहीं जानते।" (क़ुरआन, 2:232)

आयत में 'अज़का' और 'अतहर' के शब्द इस्तेमाल हुए हैं। उनका जो माद्दा (धातु) है वही तज़किया और ततहीर का भी है। आयत का मतलब यह है कि तलाक़शुदा औरत को निकाह से न रोकना उसकी और समाज की पाकीज़गी का बेहतरीन ज़रीआ है। इससे अख़लाक़ की हिफ़ाज़त होती है और भटकने के अन्देशे कम हो जाते हैं। यही तज़किया का मक़सद है।

सामाजिक आदाब और शिष्टाचार बयान करते हुए क़ुरआन मजीद में कहा गया है कि किसी के मकान में दाख़िल होने से पहले उससे इजाज़त ले लो और सलाम करो। इसके बग़ैर उसमें दाख़िल न हो जाओ। यह तुम्हारे लिए बेहतर है। उम्मीद है कि तुम नसीहत हासिल करोगे। अगर मकान में कोई मौजूद न हो तो भी बग़ैर इजाज़त के अन्दर न जाओ। इजाज़त मिलने पर ही जाओ। अगर तुम्हें वापस जाने के लिए कहा जाए तो वापस हो जाओ (इसे अपनी बेइज़्ज़ती न समझो)।

इस हिदायत का मक़सद वाज़ेह है। आदमी का घर उसके एकान्त की जगह है जहाँ वह किसी भी हाल में और अपने किसी भी काम में मशगू़ल हो सकता है। उसमें बिना इजाज़त दाख़िल होने से बहुत-सी बुराइयाँ पैदा हो सकती हैं। कम से कम बेपरदगी का माहौल तो पैदा होता ही है। इसी लिए इस हिदायत के बाद कहा गया—

"यह तुम्हारे लिए ज़्यादा पाकीज़ा है। अल्लाह अच्छी तरह जानता है जो कुछ तुम करते हो।" (क़ुरआन, 24:28)

इस आयत में शब्द अज़्का आया है जिसका मतलब होता है बेहतर तज़किया।

ख़ुदा की राह में मज़बूती के साथ जमे रहना भी तज़किया है

हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) ने जब अपनी पैग़म्बरी के सुबूत में मोजज़े (चमत्कार) पेश किए तो फ़िरऔन ने उन्हें जादू के करतब क़रार दिया और हर तरफ़ से जादूगरों को जमा किया ताकि उसका मुक़ाबला करें। लेकिन जादूगर जैसे ही मैदान में आए उनपर यह हक़ीक़त खुल गई कि हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) धोखा-धड़ी और जादूगरी का प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं बल्कि वे अल्लाह के पैग़म्बर हैं और जो मोजज़े पेश कर रहे हैं वे इनसान की ताक़त से बाहर हैं। इसी लिए वे जादूगर बिना किसी देरी और झिझक के ईमान ले आए और सजदे में गिर पड़े। इसपर फ़िरऔन ने उन्हें धमकी दी कि वे उनके हाथ-पैर काटकर सूली पर चढ़ा देगा। इसके जवाब में जादूगरों ने बग़ैर किसी डर के और किसी ख़तरे की परवाह किए बग़ैर कहा कि जो कुछ तुम्हें करना है कर डालो; हम तो ईमान ले आए। दुआ है कि अल्लाह हमारी ग़लतियों को माफ़ करे और तुम्हारी ज़ोर-ज़बरदस्ती की वजह से हमने हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) के मुक़ाबले में आने की जो ग़लती की है उसे भी माफ़ कर दे। (क़ुरआन, 20:55-73)

इसके बाद कहा गया—

"बेशक जो कोई अपने रब के पास मुजरिम की हैसियत से आएगा उसके लिए जहन्नम है जिसमें न वह मरेगा और न जिएगा। और जो कोई उसके पास ईमान लेकर आएगा, जिसने अच्छे अमल किए होंगे, तो ऐसे सब लोगों के लिए तो ऊँचे दर्जे होंगे। रहने के लिए बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। उनमें वे हमेशा रहेंगे। यह बदला है उसका जिसने तज़किया हासिल किया (पाक हुआ)।" (क़ुरआन, 20:74-76)

इन आयतों के बारे में एक राय यह भी है कि ये जादूगरों ही के बयान का हिस्सा हैं। दूसरी राय यह है कि यह अलग से बात कही गई है। (बैज़ावी, अनवारुत-तनज़ील 2/53)

इनमें जो राय भी इख़तियार की जाए बहरहाल उसका ताल्लुक़ ऊपर की बात ही से है। इन आयतों में दो उसूली बातें बयान हुई हैं—

एक यह कि जिसने कुफ़्र और बद-अमली की राह अपनाई और जो मुजरिम और ख़ताकार है वह आख़िरत में अल्लाह की पकड़ से बच नहीं सकता। वह बहुत ही बुरे और कभी न ख़त्म होनेवाले अज़ाब में गिरफ़्तार होगा। मौत और ज़िन्दगी की कशमकश से हमेशा दोचार रहेगा। इससे फ़िरऔन का किरदार और उसका अंजाम सामने आता है।

दूसरी बात यह कही गई है कि जो आदमी अपने दामन में ईमान और नेक अमल की दौलत लिए हुए अल्लाह के दरबार में पहुंचेगा वह जन्नत के ऊंचे दर्जों का हक़दार होगा। यह बात जादूगरों के किरदार को सामने रखकर कही गई है। हक़ के वाज़ेह होने के बाद उन्होंने जिस तरह आगे बढ़कर उसे क़बूल किया, उसके लिए हिम्मत, हौसले और मज़बूती से जमे रहने का सुबूत दिया और जान की बाज़ी लगाने के लिए बेख़ौफ़ किसी ख़तरे की परवाह किए बग़ैर तैयार हो गए, यह उसी के अंजाम का उल्लेख है। बात इसपर ख़त्म हुई है—

"यह बदला है उस शख़्स का जिसने तज़किया हासिल किया।"

यह इस बात का बयान है कि जन्नत में ऊंचे दरजे तज़किया ही से हासिल होते हैं। इमाम राज़ी कहते हैं—

"इस आयत से पता चलता है कि ऊंचे दरजे तज़किया हासिल करनेवाले का बदला हैं, यानी उसका बदला है जो बुराइयों से पाक हो गया है।" (तफ़सीरे-कबीर)

हाफ़िज़ इब्ने-कसीर इस वाक्य का मतलब बयान करते हुए कहते हैं—

"यह बदला है उस शख़्स का जिसने अपने नफ़्स (मन) को गन्दगी, बुराइयों, शिर्क से पाक किया, अल्लाह की इबादत की, जो अकेला है, उसका कोई शरीक नहीं, अल्लाह के रसूलों की तालीमात की पैरवी की जिनमें भलाई ही भलाई और कामयाबी ही कामयाबी है।" (तफ़सीर इब्ने-कसीर, 3/104)

जादूगरों का हक़ को क़बूल करना, उनका हक़ पर जमे रहना और हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) की पैरवी इस बात का सुबूत था कि उनको तज़किये का यह ऊंचा दरजा हासिल था।

सियासत (राजनीति) का तज़किया

ज़िन्दगी के दूसरे विभागों की तरह सियासत का भी तज़किया होता है। अल्लाह के रसूल इस पहलू से भी तज़किया करने की ज़िम्मेदारी पूरी करते हैं। फ़िरऔन ख़ुद को ख़ुदा और हुकूमत का मालिक समझता था। वह अपने दरबारियों से कहता है—

"ऐ दरबारवालो! मैं तो अपने सिवा तुम्हारे किसी ख़ुदा को नहीं जानता।" (क़ुरआन, 28:38)

मतलब यह कि मैं तुम्हारा ख़ुदा हूँ। यहाँ सिर्फ़ मेरा हुक्म चलेगा, इसलिए तुम किसी दूसरे को ख़ुदा नहीं क़रार दे सकते। हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) ने उसे एक ख़ुदा की इबादत की दावत दी तो वह गु़स्से में आ गया और बोला—

"अगर तूने मेरे सिवा किसी दूसरे को ख़ुदा बनाया (हाकिम ठहराया) तो बेशक मैं तुझे क़ैद कर दूँगा, क़ैदियों के साथ डाल दूँगा।" (क़ुरआन, 26:29)

एक दूसरे मौक़े पर उसका दावा इस तरह बयान हुआ है—

"मैं तुम्हारा सबसे बड़ा रब हूँ।" (क़ुरआन, 79:24)

इन हालात में अल्लाह ने हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) को हुक्म दिया—

"फ़िरऔन के पास जाओ, बेशक वह सरकश हो गया है। और उससे कहो कि क्या तू इसके लिए तैयार है कि तेरा तज़किया हो (और तू संवर जाए) और मैं तुझे तेरे रब का रास्ता दिखाऊँ कि उसका तुझे डर हो?" (क़ुरआन, 79:17-19)

यह अस्ल में इस बात की दावत थी कि ख़ुदा सिर्फ़ एक है और किसी दूसरे को ख़ुदाई का दावा करने का हक़ नहीं है। इसलिए फ़िरऔन को अपनी बेलगाम और बेक़ैद हाकिमियत को छोड़कर ख़ुदा की हिदायत और उसके क़ानून पर अमल करना चाहिए। इसमें एक तरफ़ फ़िरऔन के सबसे बड़ा रब होने को ग़लत ठहराया गया था और दूसरी तरफ़ उसे ख़ुदा की हिदायत क़बूल करने और ख़ुदा की इबादत और फ़रमांबरदारी की दावत थी। इसी को तज़किया कहा गया है।

हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ऊपर की आयत में आए शब्द तज़किया का मतलब बयान करते हैं कि क्या तुम इसके लिए तैयार हो कि ला-इला-ह इल्लल्लाह (ख़ुदा के अलावा कोई बन्दगी के लाइक़ नहीं) की गवाही दो। यही बात इकरिमा ने कही है। इब्ने-जै़द कहते हैं कि इससे इस्लाम (ख़ुदा के आगे सुपुर्दगी) मुराद है।

(इब्ने-जरीर, तफ़सीर क़ुर्तबी अल-जामिउ लि-अहकामिल क़ुरआन)

क़ुरआन के एक मशहूर आलिम ख़ाज़िन इसका मतलब बयान करते हुए कहते हैं—

"क्या तुम इसके लिए आमादा हो कि शिर्क और कुफ़्र से पाक हो जाओ।"

इसका यह मतलब भी बयान हुआ है कि तुम ख़ुदा के दीन को क़बूल कर लो और अपने अमल का सुधार कर लो।

वे आगे कहते हैं कि—

"यहाँ ख़ास तौर पर फ़िरऔन का ज़िक्र है। हालाँकि हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) की दावत फ़िरऔन की पूरी क़ौम के लिए थी। इसकी वजह यह है कि फ़िरऔन उनका नुमायाँ आदमी था। उसे दावत देना उसकी क़ौम को दावत देने के बराबर था।" (ख़ाज़िन लुबाबुत-तंज़ील मअ तफ़सीरिल-बग़वी)

यह है वह तज़किया जिसका मुतालबा हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) ने फ़िरऔन और उसकी क़ौम से किया था।

तज़किया ख़ानदानी विरासत नहीं है

क़ुरआन मजीद ने वाज़ेह किया है कि तज़किया (पाकी) ख़ानदानी विरासत नहीं है जो लोगों में एक के बाद दूसरे को मुंतक़िल होती चली जाए, बल्कि इसका ताल्लुक़ इनसानों की सोच और अमल से है। इसके लिए उसे कोशिश और मेहनत करनी होगी। यहूदियों का ख़याल था कि वे हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) के बेटे हज़रत इसहाक़ (अलैहिस्सलाम) की नस्ल से हैं और दुनिया की क़ौमों में सबसे ऊँचे हैं। वे कुछ भी करें उनके सारे गुनाह माफ़ हो जाएंगे। अपने बुरे कामों की वजह से वे जहन्नम के हक़दार ठहरे भी तो कुछ ही दिनों में पाक-साफ़ होकर जन्नत में पहुंच जाएंगे। इसी तरह ईसाइयों ने हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) को अल्लाह का बेटा क़रार दे रखा था। वे समझते थे कि हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) पर ईमान लाना नजात (मुक्ति) के लिए काफ़ी है।

"यहूदी और ईसाइयों ने कहा कि हम अल्लाह के बेटे और उसके प्यारे हैं।" (क़ुरआन, 5:18)

क़ुरआन मजीद ने इस ग़लत ख़याल का जगह-जगह खण्डन किया है।

एक जगह कहा—

"क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जो अपने आप को पाकीज़ा कहते हैं? (कोई यूँ ही पाकीज़ा नहीं हुआ करता) बल्कि अल्लाह ही जिसका चाहता है तज़किया करता है। और उनके साथ ज़रा भी ज़ुल्म नहीं किया जाता।" (क़ुरआन, 4:49)

तज़किये की तलब ज़रूरी है

क़ुरआन मजीद की सूरा-80, अ-ब-स की शुरू की आयतों से वाज़ेह होता है कि तज़किये के लिए तलब और इच्छा का पाया जाना ज़रूरी है। इन आयतों के तहत क़ुरआन की तफ़सीर की किताबों में जो वाक़िआ बयान हुआ है उससे इन आयतों के समझने में मदद मिलती है। अल्लामा क़ुर्तबी इसके बारे में लिखते हैं कि इस वाक़िए को क़ुरआन के सभी आलिमों ने बयान किया है। फिर उसकी तफ़सीर बयान की है। (तफ़सीर क़ुर्तबी, भाग-10, पृष्ठ 138)

इस वाक़िए की तफ़सीर यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) क़ुरैश के सरदारों के साथ बात-चीत कर रहे थे और उनके सामने इस्लाम की दावत पेश कर रहे थे। इसी बीच हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने उम्मे-मकतूम (रज़ियल्लाहु अन्हु) पहुंच गए। वे इस्लाम क़बूल कर चुके थे। उस वक़्त उनका मक़सद अपने सुधार और तरबियत के लिए हिदायतें हासिल करना था। इसलिए वे पहुंचते ही इसकी दरख़ास्त करने लगे। वे नाबीना (अन्धे) थे इसलिए उन्हें अंदाज़ा न हो सका कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) इस वक़्त क़ुरैश के सरदारों से अहम दावती गुफ़्तगू करने में लगे हुए हैं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को इस तरह उनका बीच में आ जाना नापसन्द हुआ। इसपर ये आयतें उतरीं—

"उसने त्योरी चढ़ाई और मुँह फेर लिया, इस बात पर कि उसके पास अन्धा आ गया। तुम्हें क्या मालूम, शायद वह सुधर जाए या नसीहत पर ध्यान दे और नसीहत करना उसके लिए फ़ायदेमन्द हो? जो शख़्स बेपरवाही करता है, उसकी तरफ़ तो तुम तवज्जोह करते हो, हालाँकि अगर वह न सुधरे तो तुमपर उसकी कब ज़िम्मेदारी है। जो ख़ुद तुम्हारे पास दौड़ता हुआ आता है और डर रहा है, उससे तुम बेरुख़ी बरतते हो।" (क़ुरआन, 80:1-10)

हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने उम्मे-मकतूम (रज़ियल्लाहु अन्हु) के अन्दर दीन का इल्म हासिल करने और अपनी इस्लाह की तलब थी। वे तज़किया हासिल करना चाहते थे, इसलिए दौड़े हुए आए। फ़रमाया गया कि उनसे बेरुख़ी सही नहीं है। यही तलब और इच्छा आदमी को तज़किये की राह में आगे बढ़ाती है और अल्लाह तआला भी मदद फ़रमाता है। उसका दस्तूर है—

"जो उसकी तरफ़ रुजूअ करता हो उसे वह राह दिखाता है।" (क़ुरआन, 42:13)

इन आयतों में मुज़क्की यानी तज़किया करनेवाले की यह ज़िम्मेदारी बताई गई है कि जिस आदमी में तज़किये की चाहत देखे उसकी तरफ़ ख़ास तवज्जोह दे। इसके मुक़ाबले में उन लोगों को अहमियत न दे जिनके अन्दर लापरवाही और बेनियाज़ी हो और जो किसी हिदायत और रहनुमाई से ख़ुद को बेनियाज़ समझते हैं। और वे हिदायत क़बूल न करें और ईमान की दौलत से महरूम रहना ही पसन्द करें तो फ़रमाया गया कि उसमें आपका कोई क़ुसूर नहीं है। आपकी ज़िम्मेदारी दावत देने और पैग़ाम पहुंचाने की है। इसके बाद वे जो रवैया इख़तियार करें उसके ज़िम्मेदार वे ख़ुद हैं, आप नहीं हैं।

यहाँ तज़किये से मुराद अल्लाह पर ईमान लाना और उसकी हिदायत क़बूल करना है। बग़वी कहते हैं कि "और वह न सुधरे तो तुमपर उसकी कब ज़िम्मेदारी है" का मतलब यह है कि वह ईमान न लाए और हिदायत क़बूल न करे तो तुम्हारे ऊपर तो सिर्फ़ पहुंचा देना है। यही बात ख़ाज़िन ने कही है। (तफ़सीरुल-ख़ाज़िन मअ तफ़सीरिल-बग़वी 6/366 तथा देखें क़ुरतबी तफ़सीर, जिल्द-10, पेज-140)

शैतान की इताअत से बचा जाए

तज़किये के लिए ज़रूरी है कि अल्लाह तआला की तरफ़ आदमी रुजूअ करे। शैतान के धोखे और फ़रेब से भरी हुई चालों को समझे और उनसे दूर रहे। किसी मामले में उसके पीछे न चले। शैतान की पैरवी आदमी को तज़किये से महरूम कर देती है। तज़किया दुनिया का सामान नहीं है कि हर आदमी को हासिल हो जाए। बल्कि यह तो सिर्फ़ अल्लाह तआला की ख़ास मेहरबानी है जो इनसान को मिलती है। यह बात क़ुरआन मजीद की सूरा-24, नूर में झूठे वाक़िए की मुनासिबत से बयान हुई है जो हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के बारे में फैला दिया गया था। उसमें उन लोगों के लिए याददिहानी और चेतावनी भी है जो उसमें लिप्त थे। कहा गया है—

"ऐ ईमान लानेवालो! शैतान के नक़्शे-क़दम पर मत चलो। उसकी पैरवी कोई करेगा तो उसे गन्दे कामों और बुराई का ही हुक्म देगा। अगर अल्लाह की मेहरबानी और उसका रहम तुमपर न होता तो तुममें से कोई शख़्स कभी पाक नहीं हो सकता। लेकिन अल्लाह ही जिसे चाहता है पाक कर देता है। अल्लाह सुननेवाला और जाननेवाला है।" (क़ुरआन, 24:21)

हाफ़िज़ इब्ने-कसीर (रहमतुल्लाह अलैहि) इस आयत के आख़िरी हिस्से का मतलब बयान करते हुए कहते हैं—

"अल्लाह तआला जिसे चाहता है गुनाहों से तौबा और रुजूअ की इनसानी दिलों को शिर्क से, गुनाह और नाफ़रमानी से, उनके अन्दर पाई जानेवाली गन्दगी से और अख़लाक़ की पस्ती से पाक होने की हालात के मुताबिक़ तौफ़ीक़ देता है। उसकी तौफ़ीक़ न हो तो कोई भी आदमी ख़ुद से अपने अन्दर तज़किया और भलाई पैदा नहीं कर सकता।" (इब्ने-कसीर, तफ़सीरुल-क़ुरआनिल-अज़ीम 3/275)

यही जज़्बा तज़किये की बुनियाद है। इसी से आगे की राहें खुलती हैं।

तज़किये पर घमंड न हो

अगर किसी को ख़ुशक़िस्मती से नेकी और परहेज़गारी की तौफ़ीक़ हासिल है तो उसके अन्दर इसपर शुक्र का जज़्बा पैदा होना चाहिए। यह न हो कि ऐसा शख़्स ख़ुद को बरतर और दूसरों को कमतर समझने लगे और अपनी तारीफ़ ख़ुद करने की बीमारी में गिरफ़्तार हो जाए। क़ुरआन में कहा गया है—

"वे लोग जो बड़े-बड़े गुनाहों और खुले-खुले बुरे कामों से बचते हैं, यह और बात है कि कोई छोटी बुराई उनसे हो जाए। बेशक तुम्हारे रब की मग़फ़िरत का दामन बहुत कुशादा है। वह तुम्हें उस वक़्त से ख़ूब जानता है जब उसने तुम्हें ज़मीन से पैदा किया और जब तुम अपनी माँओं के पेटों में अभी भ्रूण-अवस्था में थे। तो अपने नफ़्स की पाकी के दावे न करो। वही बेहतर जानता है कि वाक़ई परहेज़गार कौन है।" (क़ुरआन, 53:32)

आयत का मतलब यह है कि अगर आदमी बड़े-बड़े गुनाहों से बचे तो अल्लाह तआला छोटी-छोटी ग़लतियों को माफ़ कर देता है। वह चाहे तो छोटे से छोटे गुनाहों की भी पूछगछ कर सकता है। यह उसकी ख़ास मेहरबानी है कि वह उसे अनदेखा कर देता है लेकिन इसके बावजूद आदमी तक़वा (परहेज़गारी), पाकी और तज़किये का दावा नहीं कर सकता। अल्लाह ही जानता है कि किसका कितना तज़किया हुआ है और किसके अन्दर कितना तक़वा पाया जाता है। वह इनसान के हालात से उसकी पैदाइश से पहले से वाक़िफ़ है। इसके बाद उसकी जो सीरत और किरदार रहा है वह भी उसके इल्म में है। आदमी जो भी अच्छा और नेक काम करता है वह अल्लाह की तौफ़ीक़ और मदद ही से करता है। इसलिए वह उसे अपना कारनामा नहीं बल्कि अल्लाह की मेहरबानी ही समझे।

तज़किया अपने फ़ायदे के लिए है

यह बात हरगिज़ नहीं भूलनी चाहिए कि अगर आदमी अपना तज़किया करता है और अख़लाक़ी पहलू से तरक़्क़ी करता है तो अल्लाह पर या उसके रसूल पर कोई एहसान नहीं करता। इसमें ख़ुद उसका फ़ायदा है। इससे उसकी दुनियावी ज़िन्दगी गन्दगी से पाक होगी और वह आख़िरत में कामयाबी से हमकिनार होगा। क़ुरआन की सूरा-35, फ़ातिर में एक जगह कहा गया है कि आख़िरत में किसी का बोझ कोई नहीं उठाएगा। गुनहगार अपने रिश्तेदारों को भी आवाज़ दे तो वे उसकी तरफ़ तवज्जोह न करेंगे। इसके बाद कहा गया है—

"(ऐ नबी) तुम सिर्फ़ उन्हीं लोगों को सावधान कर सकते हो जो बिन देखे अपने रब से डरते हैं और नमाज़ क़ायम करते हैं। जो शख़्स भी पाकीज़गी इख़तियार करता है वह अपने ही भले के लिए पाकीज़गी इख़तियार करता है। और पलटना तो सबको अल्लाह ही की तरफ़ है।" (क़ुरआन, 35:18)

हक़ीक़त यह है कि तज़किये में आदमी का अपना ही फ़ायदा है। अल्लाह तआला उसका मुहताज नहीं है। हाँ, जब वह गुनाहों से पाक-साफ़ होकर अल्लाह के दरबार में पहुंचेगा तो उसके असीम इनामों से फ़ायदा उठाएगा।

क़ुरआन मजीद की सूरा-29, अनकबूत में यही बात एक दूसरे मौक़े के लिए बयान हुई है कि कोई शख़्स अल्लाह का दीन क़बूल करता है, उसके लिए जिद्दोजुहद करता है और अपनी क़ुव्वतें लगाता है, तकलीफ़ बरदाश्त करता है, क़ुरबानियाँ देता और मज़बूती से जमे रहने का सुबूत देता है तो उसमें ख़ुद उसका फ़ायदा है। अल्लाह को इसकी ज़रूरत नहीं है। वह किसी के ईमान और अच्छे काम का मुहताज नहीं है। कहा गया—

"जो शख़्स जिद्दोजुहद करता है वह अपने फ़ायदे के लिए जिद्दोजुहद करता है। बेशक अल्लाह जहानवालों से बेनियाज़ है।" (क़ुरआन, 29:6)

तज़किये के लिए कोशिश की जाए

एक अहम सवाल यह है कि तज़किया कौन करे? क़ुरआन मजीद से मालूम होता है कि हर शख़्स को अपने तज़किये की कोशिश करनी चाहिए। जो अपना तज़किया करेगा वह कामयाब होगा। कहा गया—

"बेशक वह कामयाब हुआ जिसने अपना तज़किया किया।" (क़ुरआन, 87:14)

यही बात बहुत-सी आयतों में बयान हुई है जो इसी किताब में गुज़र चुकी है। उनमें इनसान की ज़िम्मेदारी ठहराई गई है कि वह अपने नफ़्स का तज़किया करे। उसे हर तरह की गन्दगियों से पाक रखे और उसमें अच्छी ख़ूबियाँ पैदा करे। इस पहलू से तज़किया आदमी का व्यक्तिगत काम है। अगर उसके अन्दर इसका इरादा और हौसला नहीं है तो तज़किया हासिल नहीं हो सकता।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उम्मत का तज़किया किया

अल्लाह तआला की तरफ़ से हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को तज़किये के लिए भेजा गया था। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) इस उम्मत के सबसे पहले तरबियत करनेवाले और सबसे बड़े तज़किया करनेवाले थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने माननेवालों की सोच, फ़िक्र और अमल का सुधार किया। अल्लाह से उनका ताल्लुक़ मज़बूत किया। उनके अन्दर आख़िरत की फ़िक्र पैदा की। उनके अन्दर बेहतरीन अख़लाक़ पैदा किए। उनमें वे ख़ूबियाँ पैदा कीं जो पैदा होनी ज़रूरी थीं। उन्हें ख़ैरे-उम्मत (उत्तम समुदाय) के मक़ाम तक पहुंचाया और उन्हें इस क़ाबिल बनाया कि वे दुनिया की रहनुमाई और सरदारी कर सकें। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उम्मत का काम सच्चे दिल और मन से करते थे और उसके एक-एक आदमी की भलाई चाहते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सबसे मुहब्बत करते थे। यह अल्लाह तआला का ईमानवालों पर बड़ा एहसान है कि उसने हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को उनकी रहनुमाई व हिदायत और इस्लाह व तरबियत के लिए भेजा। (क़ुरआन, 3:163,164)

यानी ईमान का तक़ाज़ा है कि इस महान उपकार की क़द्र की जाए और उससे फ़ायदा उठाया जाए।

तज़किया अल्लाह अता करता है

तज़किया हक़ीक़त में अल्लाह का इनाम है। उसकी तौफ़ीक़ ही से हर इनसान का तज़किया होता है। इसी लिए फ़रमाया गया कि तज़किया अपनी बरतरी के दावों से हासिल नहीं होता—

"बल्कि अल्लाह जिसका तज़किया चाहता है उसका तज़किया होता है।" (क़ुरआन, 4:49)

तज़किये का ताल्लुक़ आख़िरत से भी है। अल्लाह तआला अपने सच्चे बन्दों को कमज़ोरियों और कमियों से पाक-साफ़ करके जन्नत में पहुंचाएगा। जो लोग आख़िरत के मुक़ाबले में दुनिया को तरजीह दें और दुनियावी फ़ायदे के लिए अपने दीन को बेच डालें उन्हें अल्लाह तआला की तरफ़ से यह तज़किया हासिल न होगा। यहूदी अपने किरदार से इस बात का सुबूत जुटा रहे थे कि वे इस तज़किये के हक़दार नहीं हैं। कहा गया—

"बेशक जो लोग छिपाते हैं अल्लाह की उतारी हुई किताब के एक हिस्से को और उसके बदले थोड़ी-सी क़ीमत वसूल करते हैं, वे अपने पेट में सिर्फ़ जहन्नम की आग भरते हैं; क़ियामत के दिन अल्लाह न तो उनसे बात करेगा और न उनका तज़किया करेगा; और उनके लिए दर्दनाक अज़ाब है।" (क़ुरआन, 2:174)

यही बात सूरा-3, आले-इमरान, आयत 77 में भी कही गई है।

क़ुरआन मजीद में तज़किये की निस्बत शख़्स की तरफ़ भी है और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की तरफ़ भी। उसका ताल्लुक़ अल्लाह की ज़ात से भी है। हर इनसान से इस बात का मुतालबा है कि वह अपना तज़किया करे, यह उसकी ज़िम्मेदारी है। इसके बग़ैर वह कामयाब नहीं हो सकता। इसलिए तज़किये का मुख़ातब हर शख़्स है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तज़किये के लिए भेजे गए थे और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इस उम्मत का तज़किया किया। इसलिए तज़किये का हुक्म आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से मुताल्लिक़ है। अल्लाह तआला की तौफ़ीक़ ही से इनसान तज़किया हासिल कर सकता है। इसलिए अल्लाह तआला की ज़ात की तरफ़ इसकी निस्बत की गई है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि इनसान अपना तज़किया करता है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उसकी रहनुमाई करते हैं और अल्लाह की तौफ़ीक़ और मदद से तज़किया हासिल होता है।

तज़किया एक ऐसा अमल है जो इनसान और इनसानी समाज के हर पहलू को अपने अन्दर समेटे हुए है। यह ख़ुदा से क़रीब होने का और ख़ुद को उसके हवाले कर देने का नाम है। यह अपनी शख़्सियत को पूरी तरह इस्लाम के सांचे में ढाल देने का अमल है। इसके लिए बराबर तवज्जोह और मेहनत के साथ अल्लाह तआला से दुआ भी करनी होगी कि वह इस मुश्किल काम में हमारी मदद फ़रमाए। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की दुआओं में से एक दुआ यह भी थी—

अल्ला-हुम-म आति नफ़सी तक़्वाहा व ज़क्किहा, अन-त ख़ैरुम-मन ज़क्काहा, अन-त वलिय्युहा व मौलाहा। (हदीसे क़ुदसी)

"ऐ अल्लाह! तू मेरे नफ़्स को तक़वा अता फ़रमा। उसका तज़किया अता फ़रमा। तू ही उसका सबसे बेहतर तज़किया करनेवाला है। तू उसका सरपरस्त और मौला है।"

इस दुआ के साथ यह भी शामिल करें—

फ़ह-फ़ज़हा बिमा तह्फ़ज़ु बिही इबा-द-कस्सालिहीन।

"तू उसकी इस तरह हिफ़ाज़त फ़रमा जिस तरह अपने नेक बन्दों की हिफ़ाज़त फ़रमाता है।"

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