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ज़बान की हिफ़ाज़त

ज़बान की हिफ़ाज़त

इनसान के शरीर में ज़ुबान का महत्व बहुत ज़्यादा है। किसी आदमी की अच्छी या बुरी पहचान बनाने में ज़बान की भूमिका सब से बढ़कर है। परिवार और समाज में बिगाड़ फैलने का एक बड़ा कारण ज़बान ही है। अल्लाह के रसूल (सल्ल.) की एक हदीस के मुताबिक़ बहुत से लोग केवल अपनी ज़बान की कारकर्दगी के कारण जहन्नम में डाले जाएंगे। इस लिए इस्लाम में ज़बान की हिफ़ाज़त करने और उसे क़ाबू में रखने पर बहुत ज़ोर दिया गया है। इस किताब में क़ुरआन और हदीस के हवाले से ज़बान की हिफ़ाज़त, की ज़रूरत और उसके फ़ायदे पर बात की गई है। -संपादक

लेखिका : बिन्तुल इस्लाम

प्रकाशक : मर्कज़ी मक्तबा इस्लामी पब्लिशर्स

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

(अल्लाह रहमान रहीम के नाम से)

परिचय

ज़बान की हिफ़ाज़त इस्लामी अख़लाक़ के सिलसिले की तीसरी किताब है। इससे पहले निम्नलिखित दो किताबें छप चुकी हैं—

1. सब्र

2. अफ़्व (माफ़ करना)

बहुत-से बुरे काम, जिन को इस्लाम ने दण्डनीय अपराध क़रार दिया है, ऐसे हैं जो ज़बान ही से किए जाते हैं। अतः ज़बान की हिफ़ाज़त अत्यन्त ज़रूरी है, क्योंकि केवल इसकी हिफ़ाज़त करके इंसान उन तमाम गुनाहों से बच जाता है जिनके करने का ज़रिया ज़बान ही बनती है।

इस सिलसिले की दूसरी किताबों की तरह इस किताब में भी इस बात का ध्यान रखा गया है कि जो कुछ कहा जाए उसके सबूत के तौर पर किसी आयत या हदीस का हवाला ज़रूर दे दिया जाए, बल्कि किताब का बड़ा हिस्सा हदीसों ही पर आधारित है। हदीसों का अनुवाद करते हुए भी यही कोशिश की गई है कि असल का ठीक-ठीक भाव अदा हो जाए और ऐसी हदीसें भी पेश की जाएं जिनका भाव पूरी तरह स्पष्ट हो।

अल्लाह तआला से दुआ है कि वह इस सिलसिले को पूरा करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए और इसे मुसलमानों के लिए फ़ायदेमंद बनाए।

"हज़रत अनस बिन मालिक (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि जिसने झूठ बोलना छोड़ दिया उसके लिए जन्नत के किनारों पर घर बनाया जाएगा और जिसने सच्चा होने के बावजूद झगड़ा छोड़ दिया, उसके लिए जन्नत के बीच में घर बनाया जाएगा और जिसने अपने अख़लाक़ (आचरण) को अच्छा बना लिया उसके लिए जन्नत के ऊपर वाले हिस्से में घर बनाया जाएगा।" (तिर्मिज़ी)

मुसलमानों को कुछ मौलिक अक़ीदों की शिक्षा दी गई है जिन पर दिल से ईमान लाना उनके लिए फ़र्ज़ है और उनके ऊपर कुछ इबादतें फ़र्ज की गई हैं, जिन्हें अदा करना उनके लिए ज़रूरी है और इसी तरह उन्हें एक अख़लाक़ी निज़ाम प्रदान किया गया है जिसके रंग में अपने आपको रंगना उनके लिए अत्यन्त ज़रूरी है। कई बार ऐसा हुआ कि जब लोगों से कहा गया कि वे इस्लामी अख़लाक को अपनाने की कोशिश करें, तो उन्होंने जवाब में यह कहा कि हमें बताया जाए कि इस्लामी अख़लाक़ है क्या?

इस्लामी अख़लाक़ के सिलसिले की ये किताबें इसी मांग के जवाब में लिखी जानी शुरू हुई हैं। इस्लामी अख़लाक़ पर एक बड़ी पुस्तक तैयार करने के बजाए यह उचित समझा गया कि एक-एक इस्लामी अच्छाई लेकर उस पर एक-एक पुस्तिका तैयार कर दी जाए।

-बिन्तुल इस्लाम

 

ज़बान की हिफ़ाज़त

एक बार हज़रत अब्दुल्लाह बिन मुबारक सफ़र कर रहे थे कि रास्ते में आप ने एक बूढ़ी औरत को देखा, जो एक पेड़ के तने के पास बैठी थीं और बड़ी परेशान नज़र आ रही थीं। हज़रत अब्दुल्लाह उनके पास गए और कहा—

"अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाह"

(आप पर सलामती और अल्लाह की रहमत हो)

बूढ़ी औरत ने जवाब में क़ुरआन मजीद की एक आयत पढ़ दी—

“उन को अल्लाह मेहरबान की ओर से सलाम फ़रमाया जाए।" -36:58

हज़रत अब्दुल्लाह बिन मुबारक ने कहा—

"अल्लाह आप पर रहमत करे, आप यहाँ क्या कर रही हैं..?"

उन्होंने जवाब में फिर क़ुरआन की एक और आयत पढ़ दी—

"जिसको अल्लाह हिदायत से महरूम कर दे उसके लिए फिर कोई राह दिखाने वाला नहीं है।"

-7:186

मतलब यह था कि मैं रास्ता भूल गई हूँ।

हज़रत अब्दुल्लाह ने पूछा कि आप कहाँ जा रही हैं?

बूढ़ी औरत ने साफ़ तौर पर किसी जगह का नाम लेने के बजाए क़ुरआन मजीद की एक और आयत पढ़ दी—

“पाक है वह जो ले गया एक रात अपने बन्दे को मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक़सा तक।" -17:1

मुराद यह थी कि मैं मक्का से बैतुल मक़्दिस की ओर जा रही हूँ।

हज़रत अब्दुल्लाह ने देखा कि वह औरत किसी बात का भी जवाब आम भाषा में नहीं देती थीं, बल्कि हर सवाल के जवाब में क़ुरआन की कोई ऐसी आयत पढ़ देती थीं, जिससे इस सवाल का जवाब निकल आता था।

हज़रत अब्दुल्लाह ने पूछा— “आप कब से यहाँ पड़ी हैं?"

बूढ़ी महिला ने जवाब दिया—

“लगातार तीन रात.." -19:10

अर्थात् लगातार तीन रातों से यहाँ बैठी हूँ।

हज़रत अब्दुल्लाह ने कहा— “आपके पास खाने-पीने की कोई चीज़ तो है नहीं, तो फिर आपने यह समय कैसे गुज़ारा?"

महिला ने कहा—

"वह मुझे खिलाता है और पिलाता है।" क़ुरआन-26:79

मतलब यह कि ख़ुदा किसी-न-किसी ज़रिए से रिज़्क़ पहुँचा देता है।

हज़रत अब्दुल्लाह ने सवाल किया— “आप वुज़ू किस चीज़ से करती हैं?”

बुज़ुर्ग औरत ने जवाब में कहा—

"फिर पानी न मिले तो पाक मिट्टी से तयम्मुम कर लो।” क़ुरआन-4:43

अर्थात् चूंकि मेरे पास पानी नहीं है, इसलिए मैं तयम्मुम कर लेती हूँ।

हज़रत अब्दुल्लाह ने उनके सामने खाना पेश किया और कहा कि यह खा लीजिए। इस बात पर वे बोलीं—

"फिर रात तक अपना रोज़ा पूरा करो।" क़ुरआन-2:187

अर्थात् मैं रोज़े से हूँ। हज़रत अब्दुल्लाह बोले कि यह रमज़ान का महीना तो नहीं है।

महिला ने जवाब दिया—

"और जो अपनी ख़ुशी से कोई भलाई का काम करेगा तो अल्लाह उसकी क़द्र करने वाला है और उसे जानने वाला है।" क़ुरआन- 2:158

औरत की मुराद यह थी कि मैंने नफ़्ली रोज़ा रखा हुआ है। हज़रत अब्दुल्लाह ने कहा— "मगर सफ़र में तो रोज़ा इफ़्तार कर लेने की इजाज़त है।"

बूढ़ी औरत ने जवाब में कहा—

"लेकिन यदि तुम समझो तो तुम्हारे हक़ में यही अच्छा है कि रोज़ा रखो।" क़ुरआन-2:184

हज़रत अब्दुल्लाह बोले कि जिस तरह मैं आपसे बात करता हूँ उसी तरह आप मुझ से बातें क्यों नहीं करतीं?

बूढ़ी औरत ने जवाब दिया—

"वह कोई शब्द मुँह से नहीं निकाल पाता, मगर उसके पास ही एक ताक लगाने वाला तैयार है।" क़ुरआन-50:18

औरत की मुराद यह थी कि चूंकि इंसान जो कुछ ज़बान से निकालता है, उसके लिए ख़ुदा के यहाँ जवाबदेह है, इसलिए मैं क़ुरआन की ज़बान में बात करती हूँ, ताकि कोई ग़लत बात मेरे मुंह से न निकले।

हज़रत अब्दुल्लाह ने पूछा— “आप किस क़बीले से ताल्लुक़ रखती हैं?"

औरत ने जवाब में फिर क़ुरआन की आयत पढ़ी—

“किसी ऐसी चीज़ के पीछे न लगो जिसका तुम्हें पता न हो। निश्चय ही आँख, कान और दिल सब ही की पूछगछ होनी है।" क़ुरआन-17:36

मतलब यह कि मेरे क़बीले का नाम मालूम करके तुम क्या करोगे?

हज़रत अब्दुल्लाह ने खेद प्रकट किया कि मुझसे ग़लती हो गई माफ़ कर दीजिए। औरत ने माफ़ करते हुए कहा—

“आज तुम पर कोई पकड़ नहीं, अल्लाह तुम्हें माफ़ करे.." क़ुरआन-12:92

हज़रत अब्दुल्लाह ने औरत को मदद पेश करते हुए कहा कि मेरी ऊँटनी हाज़िर है, अगर इस पर बैठना चाहें तो बैठ जाएं। आप जहाँ कहेंगी पहुँचा दूँगा।

बूढ़ी औरत ने इस पेशकश को क़ुबूल कर शुक्रिया अदा करते हुए कहा—

“और जो नेक काम तुम करोगे वह अल्लाह के ज्ञान में होगा।" क़ुरआन-2:197

अर्थात् ख़ुदा तुम्हें इस नेकी का इनाम देगा। हज़रत अब्दुल्लाह ने कहा, "अच्छा तो फिर सवार हो जाइए।” यह कहकर उन्होंने अपनी ऊंटनी बूढ़ी औरत के क़रीब बैठा दी। औरत ने कहा—

'मोमिनों से कहें कि अपनी निगाहें नीची रखें।" क़ुरआन-24:30

"उसकी ज़ात पाक है, जिसने इन चीज़ों को हमारे बस में कर दिया और हम तो ऐसे न थे जो इनको क़ाबू में कर लेते।" क़ुरआन-43:13

यह सुनकर इब्ने मुबारक ने अपनी आँखें बन्द कर लीं। जब बूढ़ी औरत ऊंटनी पर बैठने लगीं तो ऊंटनी बिदक गई और उनके कपड़े कजावे में उलझ कर फट गए। इस पर वे बोलीं—

“और तुम को जो कुछ मुसीबत पहुँचती है, वह तुम्हारे अपने हाथों के किए हुए कामों से पहुँचती है।" क़ुरआन-42:30

इस पर हज़रत अब्दुल्लाह बिन मुबारक ने ऊंटनी के घुटने बांध दिए और औरत उस पर सवार हो गईं। अब हज़रत इब्ने मुबारक ने ऊंटनी की नकेल पकड़ ली और ऊंची आवाज़ से गीत गाते (हुदी ख़्वानी करते) हुए ऊंटनी को तेज़-तेज़ चलाने लगे। इस पर औरत ने ऊंटनी के ऊपर से कहा—

"और अपनी रफ़्तार में बीच की राह अपनाओ और अपनी आवाज़ को धीमी रखो...।" क़ुरआन-31:19

यह सुनकर हज़रत इब्ने मुबारक धीरे-धीरे चलने लगे और अपनी आवाज़ भी धीमी कर ली। अब बूढ़ी औरत ने यों कहा—

"तो जितना क़ुरआन आसानी से पढ़ा जा सके पढ़ लिया करो।” क़ुरआन-73:20

मुराद यह थी कि गीत गाने के बजाए क़ुरआन पढ़ो। कुछ दूर जाकर हज़रत अब्दुल्लाह बिन मुबारक ने उन औरत से पूछा कि क्या आपके पति हैं..? इस पर वे बोलीं—

"ऐ ईमान वालो! ऐसी बातें न पूछा करो, जो तुम पर खोल दी जाएं तो तुम्हें बुरी लगें।" क़ुरआन-5:101

मतलब यह था कि इस सवाल की ज़रूरत ही क्या है। इस पर हज़रत अब्दुल्लाह बिन मुबारक ख़ामोश हो गए और चलते-चलते क़ाफ़िले में पहुँच गए। उन्होंने बूढ़ी औरत से पूछा कि क्या क़ाफ़िले में आपका कोई रिश्तेदार है...? उन्होंने जवाब दिया—

"माल और बेटे दुनिया की ज़िन्दगी की एक शोभा हैं..।" क़ुरआन-18:46

हज़रत इब्ने मुबारक समझ गए कि क़ाफ़िले में उनके बेटे हैं। उन्होंने कहा उनका कुछ पता बताएं तो मैं उन्हें तलाश करूँ। औरत ने कहा—

"उसने ज़मीन में रास्ता बताने वाली निशानियाँ रख दीं और तारों से भी लोग हिदायत पाते हैं...।" क़ुरआन-16:16

मतलब यह था कि वे क़ाफ़िले के सरदार हैं। हज़रत अब्दुल्लाह ने उनके नाम पूछे तो वे बोलीं-

"और अल्लाह ने इब्राहीम को अपना दोस्त बना लिया..।" क़ुरआन-4:125

“अल्लाह ने मूसा से इस तरह बात की जिस तरह बात की जाती है।" क़ुरआन-4:164

“ऐ यह्या! किताब को मज़बूती से पकड़ लो...।" क़ुरआन-19:12

हज़रत अब्दुल्लाह ने इन तीनों नामों को पुकारना शुरू किया तो काफ़िले में से तीन जवान निकल कर उनके पास आ गए। उन्होंने अपनी माँ को ऊंटनी से उतारा और हज़रत इब्ने मुबारक से मिले। अब उस औरत ने अपने बेटों की ओर घूम कर उनसे कहा—

“अब अपने में से किसी को चांदी का यह सिक्का देकर शहर भिजवा दो और वह देखे कि सबसे अच्छा खाना कहाँ मिलता है, वहाँ से वह कुछ खाने के लिए लाए..।" क़ुरआन-18:19

मुराद यह थी कि हज़रत इब्ने मुबारक को कुछ लाकर खिलाओ। उनमें से एक नवजवान दौड़ता हुआ शहर की तरफ़ गया और कुछ खाना लाकर हज़रत इब्ने मुबारक के सामने रखा। वह बूढ़ी औरत हज़रत इब्ने मुबारक से बोलीं—

"मज़े के साथ खाओ और पियो। उन कर्मों के बदले में जो तुमने गुज़रे हुए दिनों में किए।" क़ुरआन-69:24

हज़रत इब्ने मुबारक हैरान थे कि इस औरत को क़ुरआन का कितना ज्ञान हासिल है। औरत के बेटों ने हज़रत इब्ने मुबारक को बताया कि पिछले चालीस सालों से हमारी माँ ने क़ुरआनी आयतों के सिवा और कोई बात नहीं की, इस डर से कि मुँह से कोई ऐसा शब्द न निकल जाए जिसकी क़ियामत के दिन जवाबदेही हो।

साफ़-सी बात है कि ज़बान की हिफ़ाज़त के मामले में यह उच्च स्तर हम आम लोगों में तो क्या ख़ास के बस की बात भी नहीं। फिर भी, यहाँ इस क़िस्से को बयान करने का उद्देश्य यह बताना है कि जिन लोगों के दिलों में अपने आपको गुनाहों से बचाने की भावना तेज़ होती है वे इस हद तक भी जा पहुँचते हैं।

हक़ीक़त यही है कि इंसान जिन गुनाहों को करता है, उनमें से बहुत-से गुनाह ऐसे हैं जिनके लिए ज़बान ही ज़रिया बनती है।

हज़रत मआज़ बिन जबल (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि मैं एक सफ़र में नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ था। एक दिन जब हम चल रहे थे, मैं नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के निकट हो गया और मैंने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे कोई ऐसा अमल बता दीजिए जो मुझे जन्नत में दाख़िल कर दे और जहन्नुम से दूर कर दे।" नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि तूने तो एक बहुत बड़ी बात पूछी। यह बात वैसे उस व्यक्ति के लिए आसान है जिसके लिए ख़ुदा इसे आसान कर दे। (फिर आपने फ़रमाया कि) तू अल्लाह की इबादत कर और उसके साथ किसी को शरीक न कर और नमाज़ क़ायम कर और ज़कात अदा कर और रमज़ान के रोज़े रख और अल्लाह के घर का हज कर।

(इतनी बातें बताकर) फिर आपने फ़रमाया, “क्या मैं भलाई के दरवाज़ों की तरफ़ तेरी रहनुमाई न कर दूँ? (अच्छा सुन) रोज़ा ढाल है (अर्थात् गुनाहों से बचाता है) और अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करना (ऐसा अमल है जो) गुनाहों को इस तरह बुझा देता है जैसे पानी को आग बुझाती है और यही हाल उस नमाज़ का है, जो इंसान रात की बीच की अवधि में पढ़े।"

फिर नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह आयत पढ़ी—

"उनके जिस्म बिस्तरों से अलग हुए हैं इस तरह कि वे लोग भय खाए हुए और उम्मीद लिए हुए अपने रब को पुकारते हैं और हमारी दी हुई चीज़ों में से ख़ुदा की राह में ख़र्च करते हैं, तो किसी व्यक्ति को पता नहीं जो आँखों की ठंडक का सामान ऐसे लोगों के लिए ग़ैब (परोक्ष) की दौलत में मौजूद है उनके अमल के बदले के तौर पर।" क़ुरआन-32:16-17

फिर आपने फ़रमाया, "क्या मैं तुम्हें पूरे-के-पूरे दीन के आदेशों का सरदार (अमल) और उसका स्तम्भ और उसकी ऊंचाई न बता दूँ?"

“मैंने कहा, क्यों नहीं, ऐ अल्लाह के रसूल (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम), (ज़रूर बताइए)।"

आपने फ़रमाया, "दीन के आदेशों का सरदार इस्लाम है और उसका स्तम्भ नमाज़ है और उसकी ऊंचाई जिहाद है।"

फिर आपने फ़रमाया,

“क्या मैं तुम्हें इन सारे मामले का सबसे अहम हिस्सा न बता दूँ?"

मैंने कहा, "क्यों नहीं, ऐ अल्लाह के रसूल (ज़रूर बताइए) आपने अपनी ज़बान को पकड़ा और फ़रमाया, "इसको रोके रखो.."

मैंने कहा कि ऐ ख़ुदा के नबी, क्या हम पकड़े जाएंगे इन बातों की वजह से भी जो हम इस (ज़बान) से करते हैं?

आपने प्रेम भावना के तहत फ़रमाया, "ऐ मआज़! तुझपर तेरी माँ को रोना आए (अर्थात् तुम्हें क्या हो गया है कि इतनी साधारण बात नहीं समझ सके), ये लोगों की ज़बानों से निकली हुई बातें ही तो हैं जो उन्हें मुंह के बल या नाक के बल जहन्नम में डालेंगी।"

इन ज़बानों से निकली हुई बातों की भी अनगिनत किस्में हैं। ग़ीबत (पीठ पीछे बुराई), चुग़ली, बोहतान (आरोप लगाना), बदज़बानी, झूठ, बेहूदगी, बुराई निकालना, टिप्पणी करना, लुतरापन, व्यंग, छींटाकशी, ग़लत अफ़वाहें फैलाना, लोगों का उपहास करना, लोगों को शर्मिन्दा करना, लोगों की बेइज़्ज़ती करना, ख़ुशामद करना, इतराना, लानतें भेजना, मैयत पर मातम करना आदि सब गुनाह ऐसे हैं जो ज़बान चलाकर ही किए जाते हैं। इसके अलावा हसद (ईर्ष्या), नफ़रत, जलन, गर्व आदि कई ऐसे आत्मिक रोग हैं जिनको ज़ाहिर करने के लिए ज़बान ही को इस्तेमाल किया जाता है। अगर इंसान नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के उपदेश पर अमल करते हुए केवल ज़बान को लगाम दे ले तो इन तमाम गुनाहों से बचा जा सकता है।

नीचे लिखी हदीसों से पता चल जाता है कि ज़बान की हिफ़ाज़त करना कितना ज़रूरी है।

हज़रत सुफ़ियान बिन अब्दुल्लाह सक़फ़ी (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि मैंने हुज़ूर की ख़िदमत में अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे कोई ऐसी बात बता दीजिए जिसे मैं मज़बूती से पकड़ लूँ।

आपने फ़रमाया कि तुम कहो कि मेरा पालनहार अल्लाह है फिर इस बात पर क़ायम रहो। "मैंने कहा कि ऐ ख़ुदा के रसूल! आपके ख़याल में कौन-सी चीज़ मेरे लिए सबसे ज़्यादा ख़तरनाक है?" आपने अपनी ज़बाने मुबारक को पकड़ा और फ़रमाया कि यह...।" (तिर्मिज़ी)

हज़रत अबू हुरैरह (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि 'इंसान ऐसा कलमा (बात) कह जाता है जिसके नुक़्सान को नहीं समझता और उसकी वजह से जहन्नम में इतनी दूर जा गिरता है जितनी दूरी पूर्व और पश्चिम के बीच है।' (मुस्लिम)

हज़रत अबू हुरैरह (रज़ियल्लाहु अन्हु) ही से एक और हदीस है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि 'इंसान कोई बात कहता है (और उसे इतना मामूली समझता है) कि उसे कहने में उसे कोई बुराई नज़र नहीं आती (मगर हक़ीक़त में वह इतनी बुरी होती है कि) इसके बदले वह सत्तर बरस की राह तक आग में गिरता जाएगा।' (तिर्मिज़ी)

बिलाल बिन हारिस बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि इंसान अल्लाह की ख़ुशी वाली एक बात कहता है और उसे मालूम नहीं होता कि (सवाब के लिहाज़ से) वह बात कहाँ तक जा पहुँचेगी (और उसका इतना सवाब होता है कि) उसके कारण अल्लाह उस आदमी के लिए क़ियामत के दिन तक के लिए, जबकि वह उससे मुलाक़ात करेगा, अपनी ख़ुशी लिख देता है और (ऐसे ही) इंसान अल्लाह को नाराज़ करने वाली एक बात कह जाता है और नहीं जानता कि (गुनाह के लिहाज़ से) वह बात कहाँ तक जा पहुँचेगी (मगर उसका इतना गुनाह होता है कि) उसके कारण ख़ुदा उस इंसान के लिए क़ियामत के दिन तक के लिए, जबकि वह उससे मुलाक़ात करेगा, अपनी नाराज़गी लिख देता है। -(मुअत्ता)

इसी विषय का एक कथन हज़रत अबू हुरैरह (रज़ियल्लाहु अन्हु) का भी है—

"इंसान बिना समझे-बूझे एक बात कह देता है और (वह इतनी बुरी होती है कि) उसकी वजह से जहन्नम की आग में चला जाता है और (ऐसे ही) इन्सान बिना समझे-बूझे एक बात कह देता है और (वह इतनी अच्छी होती है कि) उसकी वजह से वह जन्नत में चला जाता है।" -(मुअत्ता)

इन हदीसों से यह बात स्पष्ट है कि इंसान की ज़बान से निकली हुई बातें बड़े भयानक नतीजे पैदा करती हैं, इसलिए सोच-समझ कर बोलना चाहिए कि ज़बान का बिगाड़ पूरे जिस्म के बिगाड़ का ज़रिया बन जाता है।

हज़रत अबू सईद ख़ुदरी (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है वे नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से नक़ल करते हैं कि आपने फ़रमाया— "जब सुबह होती है तो इंसान के सभी अंग ज़बान के आगे विनती करते हैं और कहते हैं कि हमारे मामले में ख़ुदा से डर, क्योंकि हम तेरे साथ बंधे हुए हैं। तू ठीक रही तो हम भी ठीक रहेंगे और यदि तूने ग़लत रास्ता अपनाया तो हम भी ग़लत रास्ता अपना लेंगे (और फिर इसका परिणाम भुगतेंगे)।” (तिर्मिज़ी)

हज़रत अबू अय्यूब (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि 'एक आदमी हुज़ूर कि ख़िदमत में आया और कहा कि ऐ ख़ुदा के रसूल! मुझे कोई बात सिखाइए मगर वह हो थोड़ी। इस पर आपने फ़रमाया कि जब तू नमाज़ के लिए खड़ा हो तो ऐसी नमाज़ पढ़ कि जैसे तू दुनिया से विदा हो रहा है और कोई ऐसी बात न कर जिसके लिए बाद में माफ़ी मांगनी पड़े और जो कुछ लोगों के पास है उससे निराश हो जा।' (इब्ने माजा)

हज़रत उक़बा बिन आमिर (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि मैंने अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल! नजात (मुक्ति) कैसे हो? आपने फ़रमाया कि अपनी ज़बान पर क़ाबू रख और चाहिए कि तुम्हारा घर तुम्हारे लिए खुला हो और अपने गुनाहों पर रोया कर। (तिर्मिज़ी)

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के बारे में रिवायत किया गया है कि इशा के बाद अपने घरवालों को कहला भेजतीं कि क्या अब भी तुम लिखने वाले फ़रिश्तों को आराम नहीं देते। (मुअत्ता)

मतलब यह है कि अब सो जाओ, ताकि जो फ़रिश्ते तुम्हारी बातों व कामों को लिख रहे हैं उन्हें लिखने से ज़रा आराम मिले।

असलम अदवी बयान करते हैं कि हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) हज़रत अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास आए, तो देखा कि वे अपनी ज़बान को खींच रहे हैं। हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा, "ठहरिए, ख़ुदा आपको माफ़ करे यह आप क्या कर रहे हैं?" इस पर हज़रत अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने फ़रमाया कि इसने मुझे हलाकत की जगह में डाला। (मुअत्ता)

मौलाना मुफ़्ती मुहम्मद शफ़ी साहब (रहमतुल्लाह अलैह) बेकार की बातों के नुक़्सान बयान करते हुए फ़रमाते हैं—

इंसान जितने काम या बात करता है देखने में उसकी तीन क़िस्में होती हैं—

1. फ़ायदेमंद – जिसमें दीन या दुनिया का कोई लाभ हो।

2. नुक़्सानदेह — जिसमें दीन या दुनिया का कोई नुक़्सान हो।

3. न फ़ायदेमंद न नुक़्सानदेह — जिसमें न फ़ायदा हो न कोई नुक़्सान।

इस तीसरी क़िस्म को हदीस में 'बेकार' के शब्द का नाम दिया गया है। लेकिन जब अक़्ल से काम लिया जाए तो मालूम हो जाता है कि यह तीसरी क़िस्म भी हक़ीक़त में दूसरी क़िस्म यानी नुक़्सानदेह ही में दाख़िल है, क्योंकि वह समय जो ऐसे काम या बात में ख़र्च किया गया अगर उस समय में एक बार सुब्हानल्लाह कह लेता तो अमल की तराज़ू का आधा पलड़ा भर जाता। कोई और अच्छा काम करता तो गुनाहों का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) और नजात का ज़रिया या कम-से-कम दुनिया की ज़रूरत से बे-फ़िक्री का कारण बनता। इस बहुमूल्य समय को बेकार के काम में या बेकार बातों में ख़र्च करना ऐसा ही है जैसे किसी को हक़ दिया जाए कि चाहे जवाहरात और सोने-चांदी का एक ख़ज़ाना ले लो या मिट्टी का ढेला, वह ख़ज़ाने के बदले मिट्टी का ढेला उठा लेने का इरादा कर ले जिसका नुक़्सान खुले तौर पर ज़ाहिर है। (गुनाह बे-लज़्ज़त, मुफ़्ती मु० शफ़ी)

बे-लगाम ज़बान के नुक़्सानों के बारे में नेक बुज़ुर्गों के बहुत-से कथन रिवायत किए गए हैं—

  • हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं, "मुसीबत की जड़ इंसान की बात-चीत है।"
  • हज़रत उस्मान (रज़ियल्लाहु अन्हु) फरमाते हैं, "ज़बान की ग़लती क़दमों की ग़लती से ज़्यादा ख़तरनाक होती है।"
  • हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) का कथन है, "ज़बान वह दरिंदा है कि छोड़ दो तो काट खाए। "आप यह भी फ़रमाते हैं, "ज़बान का इंसान पर हावी होना आत्मा का अपमान है।"

ज़बान को लापरवाही से चलाते जाना दीनी और दुनियावी दोनों लिहाज़ से नुक़्सानदेह साबित होता है और कभी-कभी ग़लत तरीक़े से चलाई हुई ज़बान, चलाने वाले ही पर मुसीबतें ला डालती है या जो नेमतें उसे हासिल होती हैं या हासिल होने वाली होती हैं उनके छिन जाने का ज़रिया साबित होती है।

हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं, "बहुत-से शब्द नेमतें छीन लेते हैं।”

आपका यह भी कथन है—

"जिस व्यक्ति की ज़बान उस पर हावी हो, वही उसकी हलाकत और मौत का फ़ैसला करती है।"

ख़्वाजा हसन बसरी फ़रमाते हैं—

“अक़्लमंद की ज़बान दिल के पीछे है। जब वह कुछ कहना चाहता है तो पहले दिल की ओर पलटता है, अगर वह बात उसके फ़ायदे की होती है तो कहता है वरना रुक जाता है और जाहिल का दिल उसकी ज़बान की नोक पर होता है। वह दिल की तरफ़ नहीं पलटा करता। जो ज़बान पर आता है बक जाता है।"

मतलब यह है कि मोमिन के लिए ज़बान की हिफ़ाज़त करना और अपनी ज़बान को बेकार की बातें बोलने से रोकना अत्यन्त ज़रूरी है। इससे यही नहीं कि वह बहुत-से गुनाहों से बच जाता है, बल्कि बहुत बड़े इनाम व सवाब (पुण्य) का भी अधिकारी हो जाता है।

मुअत्ता इमाम मालिक और सही बुख़ारी दोनों में हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का एक फ़रमान मौजूद है कि जो आदमी ज़बान की हिफ़ाज़त की ज़मानत ले ले, उसके लिए मैं इस बात की ज़मानत लेता हूँ कि उसे जन्नत मिलेगी।

अब आगे वे आयतें और हदीसें पेश की जाती हैं, जो उन विभिन्न गुनाहों के बारे में इर्शाद हुई हैं जिनको ज़बान से किया जाता है।

झूठ

क़ुरआन की सूरह हज आयत 30 में अल्लाह तआला ने इर्शाद फ़रमाया है—

“तो तुम लोग गन्दगी से अर्थात् बुतों से अलग रहो और झूठी बात से अलग रहो।"

क़ुरआन की सूरह मोमिन आयत 28 में फ़रमाया गया है—

“अल्लाह तआला ऐसे व्यक्ति को हिदायत नहीं देता जो सीमा से गुज़र जाने वाला हो, बहुत झूठ बोलने वाला हो।”

हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से रिवायत करते हैं कि आपने फ़रमाया— “सच्चाई नेकी की तरफ़ हिदायत देती है और नेकी जन्नत की तरफ़ रहनुमाई करती है और इंसान सच बोलता रहता है यहाँ तक कि सिद्दीक़ (सच्चा) हो जाता है और बेशक झूठ बदकारी की तरफ़ रहनुमाई करता है और बदकारी दोज़ख़ की तरफ़ रहनुमाई करती है और इंसान झूठ बोलता रहता है यहाँ तक कि ख़ुदा के यहाँ कज़्ज़ाब (बहुत बड़ा झूठा) लिखा जाता है।" (बुख़ारी)

सही बुख़ारी में एक क़िस्सा बयान हुआ है जिसको हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) रिवायत करते हैं। इस क़िस्से का ताल्लुक़ अज्ञानता काल से है, मगर इससे पता चलता है कि झूठी क़सम किस तरह ज़िन्दगी में ही तबाही ले आती है।

हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि ख़ानदान बनू हाशिम के एक आदमी को क़ुरैश के किसी और ख़ानदान से ताल्लुक़ रखनेवाले व्यक्ति ने मज़दूरी पर रखा। वह उसके साथ उसके ऊंटों में जा रहा था कि उसके पास से एक और हाशमी गुज़रा, जिसने अपने टोकरे का कुण्डा बांधने के लिए उस हाशमी मज़दूर से एक बंधन मांगा। हाशमी मज़दूर ने मालिक से पूछे बिना उसे ऊंट बांधने का एक बन्धन दे दिया। जब उन्होंने पड़ाव किया तो सब ऊंटों को बांध दिया गया मगर एक ऊंट न बांधा गया। मालिक ने पूछा कि इस ऊंट को क्यों नहीं बांधा गया? तो हाशमी मज़दूर ने कहा कि इसकी रस्सी नहीं है।

मालिक ने पूछा कि इसकी रस्सी कहाँ गई? और यह मालूम होने पर कि रस्सी दे दी गई है उसे इतना ग़ुस्सा आया कि उसने उस हाशमी मज़दूर को एक लाठी मारी जो ख़तरनाक साबित हुई।

जब वह मज़दूर घायल पड़ा था तो उसके पास से यमन का कोई आदमी गुज़रा। हाशमी मज़दूर ने उससे पूछा कि क्या तुम मेरा एक संदेशा पहुंचा दोगे? उस आदमी ने कहा— 'हाँ', तो हाशमी मज़दूर ने कहा कि जब तुम हज के लिए जाओ तो वहाँ पुकारना— "ऐ बनू हाशिम! जब वे तुम्हें जवाब दें तो फिर अबू तालिब को पूछना और उन्हें बता देना कि उस व्यक्ति ने मुझे एक रस्सी के बदले क़त्ल कर दिया है।" इसके बाद वह हाशमी मज़दूर मर गया।

जब उसका मालिक मक्का वापस गया तो अबू तालिब से मिला। उन्होंने पूछा कि हमारे आदमी का क्या बना? मालिक ने कहा वह तो बीमार पड़ गया था। मैंने उसकी अच्छी तरह देखभाल की थी। मगर वह मर गया तो फिर मैंने उसका कफ़न-दफ़न कर दिया।

कुछ समय बीतने पर वही यमनी, जिसको हाशमी मज़दूर ने संदेशा दिया था, हज के मौसम में वहाँ आ गया। उसने आकर पुकारा कि ऐ क़ुरैश वालो! जवाब मिला कि ये हैं क़ुरैश। फिर उसने कहा कि अबू तालिब कहाँ हैं? लोगों ने बताया कि ये हैं अबू तालिब।

यमनी ने अबू तालिब को बताया कि मुझे फ़लाँ व्यक्ति ने कहा था कि मैं आपको यह संदेशा पहुंचा दूँ कि उसे ऊंट बांधने की एक रस्सी के लिए क़त्ल कर दिया गया है—

अब अबू तालिब उस व्यक्ति के पास आए जिसने हाशमी मज़दूर की जान ली थी और उसके सामने तीन बातें रखीं कि तीनों में से कोई एक स्वीकार कर लो। अबू तालिब ने कहा कि या तो तुम ख़ून के बदले 100 ऊंट दो, क्योंकि तुमने ही उसे क़त्ल किया है, या फिर तुम्हारे क़बीले के पचास आदमी क़सम खा लें कि तुमने उसे क़त्ल नहीं किया, या फिर हम तुम्हें उसके बदले में क़त्ल कर देंगे।

वह व्यक्ति फिर अपने क़बीले वालों के पास आया और उनसे बात की तो वे झूठी क़सम खाने को तैयार हो गए। फिर अबू तालिब के पास एक औरत आई, जो स्वयं बनू हाशिम में से थी। मगर उसका विवाह हत्यारे के क़बीले के किसी व्यक्ति से हुआ था और उसका एक बेटा भी था। उसने अबू तालिब से प्रार्थना की कि मेरे इस बेटे को क़सम लेने से अलग कर दीजिए। अबू तालिब ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और उसके बेटे को अलग कर दिया।

फिर एक और व्यक्ति अबू तालिब के पास आया और कहा कि आपने सौ ऊंटों के मुक़ाबले में पचास आदमियों की क़सम रखी है तो मतलब यह कि एक आदमी की क़सम के मुक़ाबले में दो ऊंट हुए, तो आप ये दो ऊंट ले लीजिए और मुझसे क़सम न लीजिए। अबू तालिब ने उसकी बात भी मान ली। बाक़ी अड़तालीस आदमियों ने झूठी क़सम खा ली कि हमारे आदमी ने उस हाशमी मज़दूर का क़त्ल नहीं किया।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने इस क़िस्से को बयान करके अन्त में फ़रमाया कि क़सम है उस सत्ता की, जिसके अधिकार में मेरी जान है कि एक साल बाद उन अड़तालीस आदमियों में से एक भी ज़िन्दा न था।

हज़रत अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने तीन बार फ़रमाया कि क्या मैं तुम्हें बड़े-बड़े गुनाहों में से सबसे बड़ा गुनाह न बता दूँ?

सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने कहा कि क्यों नहीं ऐ अल्लाह के रसूल! (ज़रूर बताइए)

आपने फ़रमाया— "ख़ुदा के साथ किसी को साझी करना और माँ-बाप की नाफ़रमानी करना। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) टेक लगाए हुए थे फिर (सीधे होकर) बैठ गए और फ़रमाया कि ख़बरदार हो जाओ कि झूठी बात करना (भी बड़े गुनाहों में से है फिर आप) इस बात को दोहरते रहे यहाँ तक कि हमने अपने दिल में कहा कि काश आप अब ख़ामोश हो जाएं।" (मुस्लिम)

अरीम बिन फ़ातिक बयान करते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सुबह की नमाज़ पढ़ी। जब आप पढ़ चुके तो खड़े हो गए और तीन बार फ़रमाया कि झूठी गवाही अल्लाह के साथ शिर्क करने के बराबर है। फिर आपने ये आयतें पढ़ीं—

“तो बुतों की गन्दगी से बचो और झूठी बात से परहेज़ करो। यक्सू होकर अल्लाह के बन्दे बनो, उसके साथ किसी को शरीक न करो।" क़ुरआन-22:30-31

कुछ लोगों को महफ़िल का हीरो बनने का शौक़ इतना अधिक होता है कि वे लोगों को हंसाने के लिए ग़लत-सलत बातें गढ़ कर सुनाते रहते हैं। ऐसे लोगों के लिए सख़्त चेतावनी है।

बहज़ बिन हकीम बयान करते हैं कि मेरे बाप ने मेरे दादा से रिवायत की है कि उन्होंने कहा कि मैंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को फ़रमाते सुना—

“तबाही है उसके लिए जो लोगों को हँसाने के लिए कोई बात करता है और उसमें झूठ बोलता है, उसके लिए हलाकत है, उसके लिए हलाकत है।" (तिर्मिज़ी)

कभी-कभी बच्चे को बहलाने के लिए या उसे किसी शरारत से रोकने के लिए या ऐसे ही किसी और उद्देश्य के लिए लोग बिना सोचे-समझे झूठ बोल देते हैं और इसे झूठ समझते भी नहीं, यद्यपि झूठ हर हाल में झूठ है चाहे बड़े से बोला जाए या बच्चे से।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन आमिर (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक दिन हमारे घर बैठे थे कि मेरी माँ ने मुझे बुलाया और कहा कि इधर आ, मैं तुझे कोई चीज़ दूंगी। इस पर हुज़ूर ने पूछा कि तुमने इसे क्या देने का इरादा किया है? मेरी माँ ने कहा कि इसे एक खजूर दूंगी। इसपर आपने मेरी माँ से फ़रमाया कि यदि तू (इसे कुछ देने का वादा करके फिर) इसे कुछ न देती तो तेरे ख़िलाफ़ एक झूठ लिख दिया जाता। (अबू दाऊद)

हज़रत इब्ने उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि जब बन्दा झूठ बोलता है तो फ़रिश्ता उसकी बदबू की वजह से उस आदमी से एक मील दूर हो जाता है। (तिर्मिज़ी)

इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) बयान करते हैं कि हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाया करते थे कि (जब) बन्दा झूठ बोलता रहता है तो उसके दिल पर एक काला बिन्दा बन जाता है (और वह फैलता रहता है) यहाँ तक कि सारा दिल काला हो जाता है और वह आदमी अल्लाह के यहाँ झूठों में लिख दिया जाता है। (मुअत्ता)

सफ़वान बिन सुलैम बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से पूछा गया कि क्या मोमिन डरपोक हो सकता है? आपने फ़रमाया कि 'हाँ' पूछा गया कि क्या मोमिन कंजूस हो सकता है? आपने फ़रमाया कि 'हाँ'। फिर पूछा गया कि क्या मोमिन झूठा हो सकता है? (इस पर) आपने फ़रमाया कि 'नहीं....।' (मुअत्ता)

इस हदीस का यह मतलब नहीं है कि मोमिन बुज़दिल या डरपोक हो जाए तो कोई बात नहीं, बल्कि मतलब यह है कि यहाँ झूठ की सख़्त बुराई को स्पष्ट करना ज़रूरी है कि सच्चा मुसलमान कभी झूठ नहीं बोलता। रही बुज़दिली व कंजूसी तो ये बातें भी निश्चय ही बुरी और ना पसन्दीदा हैं। हाँ, झूठ इनसे ज़्यादा बड़ा गुनाह है और एक मोमिन की शान के बिल्कुल ख़िलाफ़ है। एक रात नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने विभिन्न लोगों को भिन्न-भिन्न गुनाहों की सज़ाएं पाते देखा, जिनमें एक आदमी का जबड़ा चीरा जा रहा था। बाद में आपको बताया गया कि यह वह आदमी था जो झूठी बातें उड़ाया करता था और बाद में वे बातें सारी दुनिया में फैल जाया करती थीं। हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को यह भी बताया गया कि उस आदमी को यह सज़ा मिलती ही रहेगी यहाँ तक कि क़ियामत आ जाए।

कभी-कभी सौत एक-दूसरे के दिल को तकलीफ़ देने के लिए एक-दूसरे पर यह ज़ाहिर करना चाहती हैं कि पति का ध्यान हमारी तरफ़ ज़्यादा है और वह हमें ज़्यादा कुछ देता है।

हज़रत असमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) रिवायत करती हैं कि एक औरत ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से कहा— "ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)! मेरी एक सौत है। अगर मैं (उसे जलाने के लिए) जो कुछ मेरा पति मुझे देता है उसे बढ़ा-चढ़ाकर बताऊँ तो क्या मुझे गुनाह होगा.....?"

इस पर आपने फ़रमाया कि न दी हुई चीज़ को बताने वाला आदमी उस आदमी की तरह है जिसने झूठ के दो कपड़े पहने हुए हों। (बुख़ारी)

अफ़वाहें फैलाना

समाज में बहुत-सी ग़लत बातें केवल इसलिए फैल जाती हैं कि लोग जब एक बात सुनते हैं तो यह जाने बिना ही कि वह सही है या ग़लत, उसे फ़ौरन आगे बढ़ा देते हैं। फिर जो उसे सुनते हैं वे भी उसके सही या ग़लत होने की कोई परवाह नहीं करते और उसे आगे दूसरे लागों को बता देते हैं जो इसे और आगे फैला देते हैं। यहाँ तक कि एक बात दूर-दूर तक फैल जाती है और अनगिनत ज़बानों पर चढ़ जाती है। यद्यपि संम्भव है कि वह बात बिल्कुल ग़लत हो या कोई बहुत ही मामूली-सी बात हो जो फैलते-फैलते बहुत बड़ी बन गई हो क्योंकि हर इंसान जब बात को आगे बढ़ाता है तो आम तौर पर वह उसमें थोड़ा-बहुत अपनी तरफ़ से भी मिला देता है। अतएव पहले आदमी ने इस बात को जिस तरह कहा होता है आख़िरी आदमी तक पहुंचते-पहुंचते वह कुछ से कुछ हो चुकी होती है।

जो बात इस तरह एक जगह से दूसरी जगह और दूसरी जगह से तीसरी जगह पहुंचते-पहुंचते अनगिनत ज़बानों पर चढ़ गई हो, उसे अफ़वाह कहते हैं। अरबी भाषा में मुंह को 'फ़म्' कहा जाता है और इसकी जमा (बहुवचन) है 'अफ़वाह' अर्थात् बहुत-से मुंह।

अतः अफ़वाह को अफ़वाह इसलिए कहा जाता है कि यह एक ऐसी बात होती है जो बहुत-से मुंहों पर चढ़ जाती है, बिना इस जानकारी के कि वह सही है या ग़लत। अफ़वाह फैलाना भी एक तरह का झूठ बोलना है।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इर्शाद है— “आदमी के झूठा होने के लिए इतना ही काफ़ी है कि वह जो कुछ सुने (उसके सही या ग़लत होने की जांच के बिना ही) उसे आगे बढ़ा दे।" (मुस्लिम)

इब्ने वहब बयान करते हैं कि मुझसे इमाम मालिक ने कहा कि सुनी-सुनाई बात को आगे बढ़ाने वाला आदमी (ग़लती से) नहीं बच सकता और सुनी-सुनाई बात को आगे बढ़ा देने वाला आदमी कभी इमाम भी नहीं बन सकता। (मुस्लिम)

मुहम्मद बिन अल-मसना बयान करते हैं कि मैंने अब्दुर्रहमान बिन मेहदी को फ़रमाते सुना—  "जब तक इंसान कुछ सुनी-सुनाई बातों से ज़बान को नहीं रोकेगा वह आज्ञापालन किए जाने योग्य इमाम नहीं बनेगा।" (मुस्लिम)

ग़ीबत, चुग़ली, तोहमत

हज़रत अबू हुरैरह (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने (सहाबा किराम से) फ़रमाया कि क्या तुम जानते हो कि ग़ीबत क्या है? सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने कहा— “अल्लाह और उसके रसूल ज़्यादा जानते हैं।"

आपने फ़रमाया कि (ग़ीबत यह है) 'तू अपने भाई का ज़िक्र इस तरीक़े से करे जिसे वह नापसन्द करता हो।' आपसे पूछा गया कि यदि हमारे भाई के अन्दर वह बात पाई जाती हो जो हमने कही हो (तो क्या फिर भी यह ग़ीबत होगी?) आपने फ़रमाया कि यदि तुम्हारी कही हुई बात उसमें पाई जाती हो तो तुमने उसकी ग़ीबत की और यदि उसमें न पाई जाती हो तो तुमने उस पर तोहमत लगाई। (मुस्लिम)

इस हदीस से ग़ीबत और तोहमत का मतलब बिल्कुल साफ़ हो जाता है। तफ़हीमुल क़ुरआन, भाग 5, पृष्ठ 93 पर तीनों शब्दों का अर्थ इस तरह बयान किया गया है—

“पीठ पीछे किसी की बुराई करना बिल्कुल हराम है। यह बुराई यदि सच्ची हो तो ग़ीबत है, झूठी हो तो तोहमत है और दो आदमियों को लड़ाने के लिए हो तो चुग़ली है।"

क़ुरआन में अल्लाह तआला ने ग़ीबत से मना करते हुए फ़रमाया है—

"और तुम में से कोई किसी की ग़ीबत न करे, क्या तुम में से कोई इस बात को पसन्द करेगा कि अपने मरे हुए भाई का गोश्त खाए? देखो, तुम स्वयं इससे घिन खाते हो और अल्लाह से डरो। अल्लाह बड़ा तौबा क़ुबूल करने वाला और रहम करने वाला है।" क़ुरआन-49:12

ग़ीबत के बारे में ऊपर लिखी गई बातें स्पष्ट कर देती हैं कि ग़ीबत नाम ही उस बुराई का है, जिसमें किसी का कोई ऐसा ऐब बयान किया जाए जो हक़ीक़त में उसमें पाया जाता हो। इस अर्थ की रोशनी में हम समझ सकते हैं कि जो लोग एक-दूसरे की ग़ीबत करते हैं और फिर अपने आपको यह कहकर तसल्ली दे लेते हैं कि हम सच्ची बात कह रहे हैं, उनकी यह तसल्ली कितनी झूठी होती है। सच्ची बात ही का नाम तो ग़ीबत है और इसी सच्ची बात को इतना घिनौना क़रार दिया गया है कि इस सच्ची बात को करना ही जैसे अपने मुर्दा भाई का गोश्त खाना है।

हज़रत अनस बिन मालिक (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि जब मुझे मेराज हुई तो मेरा गुज़र कुछ ऐसे लोगों के पास से हुआ, जिनके नाख़ून तांबे के थे जिनसे वे अपने चेहरों और सीनों को नोच-नोच कर घायल कर रहे थे। मैंने कहा कि ऐ जिब्रील! ये कौन लोग हैं? जिब्रील (अलैहिस्सलाम) ने जवाब दिया कि ये वे लोग हैं जो लोगों का गोश्त खाया करते थे (अर्थात् उनकी ग़ीबत किया करते थे) और उनकी इज़्ज़तों से खेला करते थे।" (अबूदाऊद)

हज़रत अबू बरज़ह असलमी से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया—

“ऐ लोगो! जो ज़बान से तो ईमान लाए हो, मगर ईमान अभी तुम्हारे दिलों में नहीं उतरा, मुसलमानों की ग़ीबत न किया करो, और उनके छिपे हुए ऐबों की खोज न किया करो, क्योंकि जो उनके छिपे हुए ऐबों की खोज करेगा, अल्लाह स्वयं उसके छिपे हुए ऐबों की खोज करेगा और अल्लाह ने जिसके छिपे हुए ऐबों की खोज की, उसे वह उसके घर में रुसवा (बदनाम) कर देगा।" (अबू दाऊद)

इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैह) बयान करते हैं कि हज़रत ईसा बिन मरयम (अलैहिस्सलाम) फ़रमाया करते थे कि ख़ुदा के ज़िक्र के सिवा और किसी बात को ज़्यादा न किया करो, वरना तुम्हारे दिल सख़्त हो जाएंगे और बेशक सख़्त दिल अल्लाह से दूर होता है, लेकिन तुम्हें इस बात का ज्ञान नहीं। और लोगों के गुनाहों को न देखा करो जैसे कि तुम रब हो, बल्कि अपने को बन्दा समझकर अपने गुनाहों को देखा करो। लोगों में ऐसे भी हैं जो आज़माइश का शिकार हैं और ऐसे भी हैं जो इससे सुरक्षित हैं, तो तुम मुसीबत के शिकार लोगों पर रहम खाया करो और (अपनी) सुरक्षा पर ख़ुदा का शुक्र अदा किया करो।' (मुअत्ता)

हज़रत हुज़ैफ़ा (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं— "मैंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को फ़रमाते सुना कि चुग़ली करने वाला जन्नत में दाख़िल नहीं होगा।" (बुख़ारी)

हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) दो क़ब्रों के पास से गुज़रे। आपने फ़रमाया कि इन दोनों (क़ब्र वालों) पर अज़ाब हो रहा है और किसी बड़ी बात पर नहीं हो रहा है। फिर आपने फ़रमाया कि हाँ क्यों नहीं (एक लिहाज़ से वह बड़ी भी है) इनमें एक का हाल यह था कि वह चुग़ली खाया करता था और दूसरा अपने पेशाब (की छींटों से) से नहीं बचता था.....। (बुख़ारी)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया— "क्या मैं तुम्हें बताऊँ कि बोहताने क़बीह (सबसे बुरी तोहमत) क्या चीज़ है? यह वह चुग़ली है जो लोगों में दुश्मनी फैलाती है।" (मुस्लिम)

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बयान करती हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि मैं इस बात को पसन्द नहीं करता कि मैं किसी की चुग़ली करूँ, चाहे (उसके बदले) मुझे यह मिले और यह मिले (अर्थात् बहुत कुछ हासिल हो)। (तिर्मिज़ी)

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं कि मैंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सामने किसी आदमी की बुराई बयान की तो आपने फ़रमाया कि मुझे यह बात पसन्द नहीं कि मैं किसी की बुराई बयान करूँ चाहे (उसके बदले) मुझे यह और यह मिले।

हज़रत आइशा कहती हैं कि मैंने अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल सफ़िया (रज़ियल्लाहु अन्हा) तो ऐसी ही औरत हैं और हाथ के इशारे से बताया कि ऐसी हैं अर्थात् छोटे क़द वाली। इस पर हुज़ूर ने फ़रमाया कि तुमने तो ऐसी बात कह दी है कि यदि उसे समुद्र के पानी में मिलाया जाता तो वह बदल जाता। (तिर्मिज़ी)

हज़रत अब्दुर्रहमान बिन ग़ुनम और हज़रत असमा बिन्त यज़ीद (रज़ियल्लाहु अन्हा) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि अल्लाह के बेहतरीन बन्दे वे हैं कि जब उन्हें देखा जाए तो ख़ुदा याद आए और अल्लाह के सबसे बुरे बन्दे वे हैं जो बहुत चुग़लियाँ खाते फिरते हैं, दोस्तों में फूट डलवाते हैं और इस बात की तलाश में रहते हैं कि बेगुनाह लोगों को मुसीबत में फंसाएं। (मुस्नद अहमद)

हज़रत इब्ने मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि मेरे सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) में से कोई एक-दूसरे की बात मुझ तक न पहुंचाया करे, क्योंकि मैं यह पसन्द करता हूँ कि जब मैं तुम लोगों के पास आऊँ तो मेरा दिल (सब की तरफ़ से साफ़ और) बेरोग हो। (अबू दाऊद)

ग़ीबत करने का एक बहुत बड़ा नुक़्सान यह है कि जो आदमी किसी की ग़ीबत करता है उसकी नेकियाँ उस आदमी को मिल जाती हैं जिसकी उसने ग़ीबत की हो।

ख़्वाजा हसन बसरी को एक बार ख़बर पहुंची कि फ़लाँ आदमी ने आपकी ग़ीबत की है। आपने खजूरों का एक थाल उसके पास भेंट के रूप में भेजा और साथ ही यह संदेशा दिया कि मुझको यह ख़बर पहुंची है कि आपने अपनी नेकियाँ मेरे नाम परिवर्तित कर दी हैं इस उपकार का बदला देने की मुझ में योग्यता नहीं है, इसलिए केवल ये खजूरें पेश करने पर ही बस करता हूँ।

कहने का मतलब यह है कि ग़ीबत बड़ा घिनौना गुनाह है और जो आदमी अपने नफ़्स को पाक करना चाहे उसे ग़ीबत से ज़रूर ही बचे रहना चाहिए।

यहाँ यह जान लेना ज़रूरी है कि पीठ पीछे की जाने वाली हर बात ग़ीबत नहीं होती। कुछ मामले ऐसे होते हैं कि उनमें बात पीछे ही की जाती है, मगर उसे ग़ीबत नहीं माना जाता, न ही उसका गुनाह होता है; क्योंकि इस विशेष परिस्थिति में ऐसा करना अत्यन्त ज़रूरी होता है। जैसे किसी आदमी को कहीं रिश्ता करना हो और उसके बारे में किसी से मश्विरा करना हो। जिससे मश्विरा लिया जा रहा हो उसे यदि मालूम हो कि रिश्ते में कोई ख़राबी है तो उसे बता देना चाहिए ताकि रिश्ता करने वाला ग़लत जगह रिश्ता करने से बच जाए। अब इस रिश्ते के ख़िलाफ़ जो बात की जाएगी उसे ग़ीबत नहीं माना जाएगा, क्योंकि मक़सद उस आदमी की भलाई ही है जो यहाँ रिश्ता करना चाहता था। ऐसे ही यदि किसी की जान, माल, इज़्ज़त या दीन को कोई ख़तरा पेश हो तो उसको इस ख़तरे से बचाने के लिए ज़ालिम या गुमराह करने वाले के बारे में जो कुछ कहा जाएगा वह चाहे पीठ पीछे ही हो, ग़ीबत नहीं माना जाएगा।

ग़ीबत की तरह बोहतान (तोहमत) की भी सख़्त निंदा आई है।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि मैंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को फ़रमाते सुना कि जिसने अल्लाह की सीमाओं में से किसी सीमा को तोड़ने के लिए सिफ़ारिश की तो उसने अल्लाह तआला का विरोध किया और जिसने जानते-बूझते किसी बेकार की बात में झगड़ा किया, वह हमेशा अल्लाह तआला के ग़ुस्से में रहेगा यहाँ तक कि उस झगड़े को छोड़ दे और जिसने किसी मोमिन के बारे में वह बात कही जो उसमें नहीं थी, अल्लाह उसे जहन्नम की पीप और ख़ून की कीचड़ में रखेगा यहाँ तक कि जो कुछ कहा है उससे तौबा कर ले। (अबू दाऊद)

क़ुरआन में बोहतान की बड़ी सख़्त सज़ा बयान करते हुए फ़रमाया गया है—

"जो लोग पाक दामन, बे-ख़बर मोमिन औरतों पर तोहमतें लगाते हैं उन पर दुनिया व आख़िरत में लानत की गई है और उनके लिए बड़ा अज़ाब है (ये उस दिन को न भूल जाएं) जिस दिन उनकी अपनी ज़बानें और उनके अपने हाथ-पांव उनके करतूतों की गवाही देंगे। उस दिन अल्लाह वह बदला उन्हें भरपूर दे देगा, जिसके वे अधिकारी हैं और उन्हें मालूम हो जाएगा कि अल्लाह ही हक़ है, सच को सच कर दिखाने वाला।" क़ुरआन-24:23-25

बद-ज़बानी

हज़रत अबू हुरैरह (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि जब दो आदमी आपस में गाली-गलौज करें तो गुनाह शुरू करने वाले पर होगा, जब तक कि मज़्लूम ज़्यादती न करे। (मुस्लिम)

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से रिवायत है कि एक आदमी ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास आने की इजाज़त चाही। आपने फ़रमाया कि अच्छा उसे आने की इजाज़त दे दो, (मगर) वह अपने क़बीले का एक बुरा आदमी है। लेकिन जब वह आदमी दाख़िल हुआ तो आपने उसके साथ नर्मी से बात की। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) कहती हैं कि मैंने आप से कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल आपने उसके बारे में तो कुछ और फ़रमाया था, फिर आपने उसके साथ नर्मी से बात-चीत की। आपने फ़रमाया, "ऐ आइशा! क़ियामत के दिन अल्लाह के निकट दर्जे में सबसे बुरा आदमी वह होगा, जिसकी बद-ज़बानी से बचने के लिए लोग उसे छोड़ दें।" (मुस्लिम)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि चार चीज़ें ऐसी हैं कि जिसमें पाई जाएं, वह पक्का मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) है और जिसमें इन चार में से कोई एक हो तो उसमें कपट की एक आदत है यहाँ तक कि वह उसे छोड़ दे (वे चार चीज़ें ये हैं)—

  • जब उसके पास अमानत रखी जाए तो बेईमानी करे।
  • जब बात करे तो झूठ बोले।
  • जब वादा करे तो उसे पूरा न करे।
  • और जब झगड़ा करे तो बद-ज़बानी पर उतर आए। (बुख़ारी)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि यह कबीरा (बड़े) गुनाहों में से है कि कोई आदमी अपने माँ-बाप को गाली दे। लोगों ने कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल क्या कोई आदमी अपने माँ-बाप को भी गाली देता है? आपने फ़रमाया कि हाँ, एक आदमी किसी दूसरे आदमी के बाप को गाली देता है तो फिर वह उसके बाप को गाली देता है और कोई दूसरे की माँ को गाली देता है तो वह फिर उसकी माँ को गाली देता है (मतलब यह कि उसने अपने माँ-बाप को स्वयं ही गाली दी। न वह किसी के माँ-बाप को गाली देता, न उसके माँ-बाप को दूसरे गाली देते)। (मुस्लिम)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ज़बान के बारे में इतने सावधान थे कि बुरे लोगों की शरारत के जवाब में भी सख़्त जवाब को पसन्द नहीं फ़रमाते।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बयान फ़रमाती हैं कि कुछ यहूदी हुज़ूर के पास आए और (अस्सलामु अलैकुम कहने के बजाए शरारत के तौर पर) 'अस्साम् अलयकुम' कहा (जिसका मतलब है कि तुम पर मौत आए)। इस पर हज़रत आइशा ने (ग़ुस्से से) कहा कि तुम्हीं पर मौत आए और तुम पर ख़ुदा की लानत हो और तुम पर ख़ुदा का प्रकोप टूटे। (इस पर) हुज़ूर ने फ़रमाया, "ठहरो ऐ आइशा! नर्मी का रवैया अपनाओ और सख़्ती और बद-ज़बानी से बचो। (बुख़ारी)

यह्या बिन सईद बयान करते हैं कि हज़रत ईसा बिन मरयम के सामने एक सूअर आया तो आपने कहा कि चला जा सलामती से। आप से कहा गया कि क्या आप सूअर को ऐसे कहते हैं (अर्थात् इसे तो लोग धुतकारते हैं और बुरा कहते हैं), तो हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) ने फ़रमाया कि मैं डरता हूँ कि मेरी ज़बान को बुरी बात-चीत की आदत न हो जाए। (मुअत्ता)

कुछ लोगों की आदत होती है कि मुसीबत आए या किसी परेशानी से दोचार हुए तो ज़माने को गालियाँ देना शुरू कर देते हैं। हुज़ूर ने इस बेकार की हरकत से मना फ़रमाया है।

हज़रत अबू हुरैरह (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि तुम में से कोई यह न कहे कि ज़माने की ख़राबी हो, क्योंकि अल्लाह तआला ख़ुद ज़माना है। (मुअत्ता)

यह जो हुज़ूर ने फ़रमाया कि 'अल्लाह ख़ुद ज़माना है' इसका मतलब यह है कि दुनिया में जो कुछ भी होता है ख़ुदा के हुक्म से ही होता है, ज़माने के हुक्म से नहीं होता। इसलिए यदि तुम ज़माने को बुरा कहोगे तो समझो ऐसा कहना ख़ुदा की शान में गुस्ताख़ी (अपमान) करना होगा।

ऐसे ही कुछ लोग जब किसी नापसन्दीदा हालात में घिर जाते हैं तो आम लोगों को बुरा-भला कहना शुरू कर देते हैं। ऐसा केवल अपने दिल की भड़ास निकालने के लिए किया जाता है, वरना बुरा-भला कहने वालों को स्वयं भी पता होता है कि उनकी इस परेशानी के सिलसिले में आम लोग बिल्कुल निर्दोष हैं। यदि उनकी इस तकलीफ़ का कारण कोई इंसान ही है तो फिर वह कोई एक इंसान या कुछ इंसान होंगे, सभी लोग तो नहीं होंगे, मगर वे अपने ग़म व ग़ुस्से को ज़ाहिर करने के लिए सभी लोगों पर पिल पड़ते हैं। यह एक नापसन्दीदा हरकत है और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इसे नापसन्द फ़रमाया है।

हज़रत अबू हुरैरह (रज़ियल्लाहु अन्हु) ही से एक रिवायत है कि हूज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि जब तुम किसी आदमी को यह कहते सुनो कि लोग तबाह होंगे तो वह स्वयं सबसे ज़्यादा तबाह होने वाला होगा। (मुअत्ता)

लानत करना

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया है— “जब बन्दा किसी चीज़ पर लानत करता है तो वह लानत आसमान की तरफ़ चढ़ती है। मगर आसमान के दरवाज़े उसके लिए बन्द कर दिए जाते हैं, फिर वह ज़मीन की तरफ़ उतरती है तो फिर ज़मीन के दरवाज़े भी उसके लिए बन्द कर दिए जाते हैं। फिर दाएं-बाएं घूमती है और जब कोई रास्ता नहीं पाती तो फिर उसकी तरफ़ आती है जिसे लानत की गई थी। यदि वह लानत के योग्य हो (तो ठीक) वरना फिर (वह लानत) लानत करने वाले की तरफ़ लौट आती है।" (अबू दाऊद)

इस हदीस से जो हिदायत मिलती है वह यह है कि लानत करने से बचना चाहिए, क्योंकि जिसको लानत की गई हो, यदि वह लानत के योग्य न होगा तो लानत करने वाला ख़ुद लानत का शिकार हो जाएगा।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया— "मत फटकारो किसी को अल्लाह की लानत से और न अल्लाह के प्रकोप से और न जहन्नम की आग से।” (अबू दाऊद)

अर्थात् यूँ मत कहो कि 'तुम पर ख़ुदा की लानत हो' या 'तुम पर ख़ुदा का प्रकोप हो' या 'तुम जहन्नम की आग में पड़ो।'

सही मुस्लिम में है कि बनू उमैया के पांचवे ख़लीफ़ा अब्दुल मलिक बिन मरवान ने एक रात अपने नौकर को आवाज़ दी। शायद उसने आने में देर कर दी। अब्दुल मलिक ने उस पर लानत की। उसकी इस लानत को सहाबिया हज़रत उम्मे दरदा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने सुन लिया, सुबह हुई तो उन्होंने अब्दुल मलिक से कहा—

“रात मैंने सुना कि तुमने अपने नौकर को बुलाते समय उस पर लानत की।" मैंने अबू दरदा को यह कहते सुना है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया, “बहुत-से लानत करने वाले क़ियामत के दिन न शफ़ीअ होंगे न गवाह।"

हज़रत अबू हुरैरह (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया— "सिद्दीक़ (सच्चे) के लिए मुनासिब नहीं कि वह लानत करने वाला हो।"

इस हदीस की व्याख्या में बताया गया है कि एक बार हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अपने ग़ुलाम पर लानत की थी। इस पर हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि सिद्दीक़ के लिए मुनासिब नहीं कि वह लानत करने वाला हो।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की एक हदीस से तो यह भी स्पष्ट होता है कि आपने एक शराबी पर भी लानत करने से मना फ़रमाया है। हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि "अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ज़माने में एक आदमी था जिसका नाम अब्दुल्लाह था, मगर वह हिमार के लक़ब (उपाधि) से मशहूर था। वह हुज़ूर को हंसाया करता था। (एक बार उसने शराब पी थी तो) हुज़ूर ने उसे शराब पीने की सज़ा में कोड़े लगवाए थे। वह एक दिन फिर (नशे की हालत में) लाया गया, तो हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उसके बारे में हुक्म दिया और उसे (फिर) कोड़े लगाए गए। इस पर लोगों में से किसी ने कहा— "ऐ ख़ुदा! इस पर लानत कर, यह कितनी ज़्यादा बार इसी तरह (नशे की हालत में) लाया जाता है।"

(उसके ऐसा कहने पर) अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि इस पर लानत मत करो। ख़ुदा की क़सम! मैं तो यही जानता हूँ कि वह ख़ुदा और उसके रसूल से मुहब्बत रखता है। (बुख़ारी)

जिन लोगों को लानत करने की आदत होती है वे सिर्फ़ इंसानों ही पर लानत नहीं करते, बल्कि जानवरों और बेजान चीज़ों को भी अपनी लानत का निशाना बनाए रखते हैं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इस बुरी हरकत से भी मना फ़रमाया है।

हज़रत इमरान बिन हुसैन (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक सफ़र में थे कि आपने लानत (करने की आवाज़) सुनी। आपने फ़रमाया कि यह क्या है? लोगों ने बताया कि यह फ़लाँ औरत है। इसने अपनी सवारी पर लानत की है। इस पर हुज़ूर ने फ़रमाया कि इस (सवारी) से पालान उतार लो, क्योंकि यह लानत वाली है। इस पर लोगों ने उससे पालान उतार लिया। हज़रत इमरान (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि जैसे कि मैं उसे देख रहा हूँ वह एक काली ऊंटनी थी। (अबू दाऊद)

इस हदीस की व्याख्या में बताया गया है कि ऐसा कहने से हुज़ूर की मुराद इस लानत करने वाली औरत को सचेत करना था कि जब तुम इस ऊंटनी पर लानत भेज रही हो तो फिर इस पर सवार भी मत हो।

हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि एक आदमी ने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सामने हवा पर लानत की। इस पर आपने फ़रमाया कि हवा पर लानत न करो क्योंकि यह तो (ख़ुदा की तरफ़ से चलने पर) पाबन्द है। जिस आदमी ने भी किसी ऐसी चीज़ पर लानत भेजी जो लानत के योग्य नहीं है तो (उसकी) लानत उसी तरफ़ लौट आएगी। (तिर्मिज़ी)

ताने देना

"तअन" अरबी भाषा का शब्द है और इसका मतलब है भाला मारना। चूंकि ताना सुनकर दिल को सख़्त तकलीफ़ होती है जैसे कि किसी ने दिल पर भाला मार दिया हो। इसीलिए इस बुराई को ताना कहा जाता है। ताना देने की कई सूरतें होती हैं जो सब की सब ना-पसन्दीदा हैं।

कुछ लोग दूसरों के वंश-परिवार पर ताना देते हैं; कुछ किसी पर एहसान करके बाद में उसे अपना एहसान जता-जताकर ताने देते हैं, कुछ दूसरों की शक्ल-सूरत पर ताने करते हैं। ताना देने की जो भी वजह हो, जिस आदमी को ताना दिया जा रहा हो उसके लिए यह चीज़ बड़ी तकलीफ़देह होती है। ताना देना भी दूसरे की बुराई करना है और ग़ीबत भी। मगर दोनों में अन्तर यह है कि ग़ीबत पीठ पीछे की जाती है और ताना सामने दिया जाता है।

क़ुरआन की सूरह हुजरात आयत 11 में फ़रमाया गया—

“और आपस में एक-दूसरे पर तअन न करो और न एक-दूसरे को बुरे नामों से याद करो।”

जो लोग किसी के साथ नेकी करके फिर उसे तानों का निशाना बना लेते हैं वे अपनी नेकी को बरबाद कर देते हैं; क्योंकि जो एहसान जता दिया जाए या उसके बाद एहसानमन्द को तकलीफ़ पहुंचाई जाए तो उस एहसान का सवाब ख़त्म हो जाता है। इसी तरह जो किसी की शक्ल व सूरत की वजह से उसे ताना देते हैं वे असल में अल्लाह की शान में बे-अदबी करते हैं; क्योंकि किसी इंसान ने भी अपनी शक्ल ख़ुद नहीं बनाई और जो किसी के वंश पर तअन करते हैं वे एक बड़ी ही जाहिलाना हरकत करते हैं; क्योंकि किसी का वंश ऊंचा हो या नीचा इंसान ने उसे ख़ुद नहीं चुना होता।

हज़रत अब्दुल्लाह बयान करते हैं कि मैंने हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) को फ़रमाते सुना कि किसी के नसब पर तअन करना और (मैयत पर) मातम करना जहालत की आदतों में से है और (उन्होंने किसी) तीसरी चीज़ (का भी ज़िक्र किया था मगर उस) को उबैदुल्लाह भूल गए। (बुख़ारी)

हज़रत अबू ज़र (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि मैंने एक आदमी को (जो मेरा ग़ुलाम था) गाली दी और उसको उसकी माँ से मार दिलाई तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मुझ से फ़रमाया कि ऐ अबू जर! क्या तुमने उसे उसकी माँ से मार दिलाई है? बेशक तुम एक ऐसे आदमी हो कि तुम में (अभी) जहालत (का असर) बाक़ी है.....। (बुख़ारी)

नौहा (मातम) करना

ज़बान का एक बड़ा ना-पसन्दीदा इस्तेमाल, मैयत पर नौहा (रोना-धोना व बैन) करना है। किसी रिश्तेदार का दुनिया से कूच कर जाना निस्संदेह सख़्त दुख और दिल तोड़ने की बात है, इसलिए दिल का दुखी होना और आँसू बहाना एक क़ुदरती बात है और इस पर कोई पाबन्दी भी नहीं लगाई गई।

ख़ुद नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने भी अपने प्रियजनों की मौत पर आँसू बहाए हैं, मगर ज़बान के मामले में यही हुक्म है कि उससे कोई ऐसी बात न निकाली जाए जो अल्लाह की नज़र में ना-पसंदीदा हो।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि जब हज़रत सअद बिन उबादह (रज़ियल्लाहु अन्हु) सख़्त बीमार थे और आपका अन्तिम समय निकट था तो नबी (सल्ललाहु अलैहि वसल्लम), हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ (रज़ियल्लाहु अन्हु), हज़रत सअद बिन अबी वक़्क़ास (रज़ियल्लाहु अन्हु) और हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) के साथ उनकी इयादत को आए। जब आप वहाँ पहुंचे तो उन्हें अपने घर के बिस्तर पर लेटे पाया। आपने फ़रमाया कि क्या इंतिक़ाल कर गए? लोगों ने कहा कि नहीं, ऐ अल्लाह के रसूल (अभी नहीं)। फिर आप रो पड़े, तो आपको रोते देखकर दूसरे लोग भी रोने लगे। आपने फ़रमाया कि क्या तुम सुनते नहीं कि अल्लाह तआला आँखों के आँसू बहाने और दिल के दुखी होने के कारण अज़ाब नहीं देता, बल्कि इसके कारण अज़ाब देता है या रहम फ़रमाता है और आपने यह कह कर अपनी ज़बान की तरफ़ इशारा फ़रमाया। (बुख़ारी)

जहालत काल में नौहा करने का बड़ा रिवाज था। कुछ हिस्सों से यह भी मालूम होता है कि शायद उनके यहाँ नौहे का बदल चुकाने का रिवाज भी था जैसे एक औरत ने किसी दूसरी औरत के किसी रिश्तेदार पर नौहा किया तो अब जब पहली औरत का कोई रिश्तेदार मरेगा तो उस दूसरी औरत से उम्मीद की जाएगी कि वह भी बदले में जाकर नौहा करे।

हज़रत उम्मे अतिया (रज़ियल्लाहु अन्हा) बयान करती हैं कि "हम लोगों ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से बैअत की। आपने हमारे सामने आयत 'अल्ला युशिरक्-न बिल्लाहि शैआ' पढ़ी और हमें नौहा करने से मना फ़रमाया, तो एक औरत ने अपना हाथ खींच लिया और कहा कि फ़लाँ औरत ने (मेरे किसी रिश्तेदार के मरने पर नौहा करने में) मेरी मदद की थी, मैं चाहती हूँ कि उसका बदला चुका दूँ। इस पर हुज़ूर ने उसे कुछ न कहा चुनांचे वह औरत चली गई और फिर लौटकर आई तो हुज़ूर ने उससे बैअत ले ली।" (बुख़ारी)

जब इस्लाम आया तो जहाँ जिहालत की और बहुत-सी बेकार रस्में बन्द कराई गईं, वहीं नौहा करने को भी मना किया गया।

हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि वह हम में से नहीं जो गाल पीटे और कपड़े फाड़े और जहालत की पुकार पुकारे। (बुख़ारी)

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बयान करती हैं कि जब हज़रत ज़ैद बिन हारिसा (रज़ियल्लाहु अन्हु), हज़रत जाफ़र (रज़ियल्लाहु अन्हु) और हज़रत अब्दुल्लाह बिन रवाहा (रज़ियल्लाहु अन्हु) की शहादत की ख़बर पहुंची तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) बैठे और आपके चेहरे पर ग़म का असर था और मैं दरवाज़ों के सुराख़ से देख रही थी आपके पास एक आदमी आया और कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल! जाफ़र (रज़ियल्लाहु अन्हु) की औरतें, और फिर उनके रोने (और नौहा करने) का ज़िक्र किया। हुज़ूर ने उसे हुक्म दिया कि जाकर उन्हें मना कर दो। वह आदमी चला गया (मगर कुछ देर के बाद) फिर आ गया और कहा कि ख़ुदा की क़सम, वे (मेरी बात नहीं मानतीं और) मुझे बेबस कर देती हैं। (यह बात बयान करके) हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने फ़रमाया कि मेरा ख़याल है कि (उस पर) हुज़ूर ने फ़रमाया कि (जाओ) उनके मुँह में मिट्टी डाल दो...। (बुख़ारी)

बेजा तारीफ़

हज़रत अबू मूसा (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सुना कि कोई आदमी किसी और आदमी की तारीफ़ कर रहा है और बेजा तारीफ़ कर रहा है। इस पर आपने फ़रमाया कि तुमने (उस आदमी की बेजा तारीफ़ करके उसे) हलाक कर दिया। या (यूँ फ़रमाया कि) तुमने उस आदमी की कमर तोड़ डाली। (बुख़ारी)

मतलब यह कि बेजा तारीफ़ उस आदमी को घमण्ड का शिकार बना देगी और घमण्ड फिर उसकी बरबादी का सामान कर देगा।

हज़रत अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सामने किसी आदमी ने किसी (और) आदमी की तारीफ़ की। इस पर हुज़ूर ने फ़रमाया कि तेरी बरबादी हो, तूने अपने भाई की गर्दन काट डाली। आपने इस बात को तीन बार फ़रमाया (फिर फ़रमाया कि) यदि तुम में से किसी को (किसी की) तारीफ़ ही करनी हो, तो यदि वह उसे जानता है तो यूँ कहे कि मैं (इसे) ऐसा और ऐसा समझता हूँ और अल्लाह इसकी रखवाली करने वाला है और मैं अल्लाह के सामने किसी को पाक नहीं ठहराता। (बुख़ारी)

हज़रत मुआविया (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि मैंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को फ़रमाते सुना कि बचो तुम एक-दूसरे की बेजा तारीफ़ करने से कि यह तो (जैसे) ज़िब्ह करना है। (इब्ने माजा)

जिस तारीफ़ की नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इस तरह मनाही फ़रमाई है, यह वह तारीफ़ है जिसमें बढ़ा-चढ़ाकर तारीफ़ होती है जो ख़ुशामद और चापलूसी का पहलू लिए होती है और जिससे सुननेवाले के दिल में बड़ाई और घमण्ड पैदा होता है। और जो आख़िरकार उसे तबाह कर देता है। किसी का दिल बढ़ाने के लिए उसे शाबाशी देना या एक सीमा में रहकर सही तारीफ़ करना कोई बुरी बात नहीं है और ख़ुद हुज़ूर ने भी लायक़ लोगों की तारीफ़ की है। हाँ, वह तारीफ़ जो इंसान में घमण्ड पैदा करे सख़्त ना-पसन्दीदा है।

हमारी अपनी तारीख़ में ऐसे शासक, रईस और अमीर रहे हैं और आज भी होंगे जिन्हें अपनी तारीफ़ कराने का बड़ा शौक़ होता था और उनके चापलूस फिर उनकी सच्ची-झूठी तारीफ़ कर करके उन्हें ख़ुश करते और इनाम पाते थे। शायरी की कला में एक क़िस्म 'क़सीदा' है, जिसमें शायर अपने पात्र की ऐसी-ऐसी बेजा और हद से ज़्यादा बढ़ी हुई तारीफ़ करता है और उसमें वे ख़ूबियाँ साबित करता है, जो इंसान (कमज़ोर जीव) की पहुंच से बहुत दूर होती हैं। स्पष्ट है कि ऐसी बेजा तारीफ़ इस्लाम में सख़्त ना-पसन्दीदा है।

हज़रत मअमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि एक आदमी खड़ा अमीरों में से किसी अमीर की तारीफ़ कर रहा था तो हज़रत मिक़दाद (रज़ियल्लाहु अन्हु) उस पर मिट्टी डालने लगे और फ़रमाया कि हमें अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हुक्म दिया है कि हम तारीफ़ करने वाले के चेहरे पर मिट्टी डाला करें। (मुस्लिम)

ज़बान के कुछ दूसरे गुनाह

ऐसी ही कुछ और ना-पसन्दीदा बातें हैं, जिनके लिए ज़बान ही हथियार बनती है। जैसे— किसी का उपहास करना, गर्व और घमण्ड की बातें करना, किसी को काफ़िर ठहराना आदि। ये सब वे बातें हैं जिनके बारे में ख़ुदा और ख़ुदा के रसूल ने अपनी ना-पसन्दीदगी ज़ाहिर की है और एक मोमिन के लिए ज़रूरी है कि उनसे बचने की हर मुमकिन कोशिश करता रहे।

क़ुरआन में अल्लाह तआला ने ईमान वालों को सम्बोधित करके कुछ हिदायतें फ़रमाई हैं जिनका ताल्लुक़ ज़बान की हिफ़ाज़त से है—

“ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो, मर्द (दूसरे) मर्दों का मज़ाक़ न उड़ाएं, हो सकता है कि वे उनसे अच्छे हों और न औरतें (दूसरी) औरतों का मज़ाक़ उड़ाएं, हो सकता है कि वे उनसे अच्छी हों। आपस में एक-दूसरे पर तअन न करो और न एक-दूसरे को बुरे नामों से याद करो। ईमान लाने के बाद गुनाह में नाम पैदा करना बहुत बुरी बात है और जो लोग इस रास्ते से बाज़ न आएं वही ज़ालिम हैं।" क़ुरआन-49:11

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि जिसने अपने भाई को काफ़िर कहा तो दोनों में से एक ज़रूर काफ़िर हो गया। (मुअत्ता)

मतलब यह कि जिसे काफ़िर कहा गया है और हक़ीक़त में काफ़िर नहीं तो फिर कहने वाला काफ़िर हो जाएगा कि उसने ख़ामख़ाह एक मुसलमान को काफ़िर बना दिया।

सूरह लुक़मान आयत 18 में गर्व और घमण्ड की निन्दा करते हुए इर्शाद फ़रमाया गया है—

“और लोगों से अपना रुख़ मत फेर और ज़मीन पर इतरा कर (अकड़ कर) मत चल। बेशक, ख़ुदा किसी घमण्ड करने वाले और गर्व करने वाले को पसन्द नहीं फ़रमाता।"

ख़ामोश रहने के फ़ायदे

चूंकि ज़बान के क़ाबू में न होने के कारण इंसान तरह-तरह के गुनाहों में फंस जाता है, इसलिए अक़्लमन्दों ने जहाँ एक तरफ़ ज़बान की हिफ़ाज़त करने का हुक्म दिया है वहीं दूसरी तरफ़ ख़ामोशी की महत्ता भी बयान कर दी है। ज़ाहिर है कि इंसान जितना कम बोलेगा, ग़लत बातें कर जाने की सम्भावना भी उतनी ही कम होगी।

ख़ामोशी की महत्ता से यह मुराद नहीं है कि इंसान ज़रूरत के समय भी न बोले, क्योंकि जैसे बहुत-से गुनाह के काम ज़बान से किए जाते हैं ऐसे ही बहुत-से सवाब के काम भी ज़बान ही से अंजाम दिए जाते हैं। जैसे— किसी को सीधी राह दिखाना, किसी दुखी का दिल रखना, क़ुरआन पाक की तालीम देना आदि। ख़ामोशी की ख़ूबी बयान करने से हक़ीक़त में यह बताना है कि ज़बान को बिना ज़रूरत न खोलना बहुत-से ख़तरों से बच जाने का ज़रिया होता है।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया— "जो ख़ामोश रहा, वह नजात पा गया।" (तिर्मिज़ी)

हज़रत अबू हुरैरह (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि "जो आदमी ख़ुदा और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, उसे चाहिए कि अपने पड़ोसी को तकलीफ़ न दे और जो आदमी ख़ुदा और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, उसे चाहिए कि अपने मेहमान की आवभगत करे और जो आदमी ख़ुदा और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, उसे चाहिए कि भली बात कहे या फिर ख़ामोश रहे।" (मुस्लिम)

इमरान बिन हत्तान (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि मैं हज़रत अबू ज़र (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास आया तो मैंने उन्हें मस्जिद में काली कमली लपेटे अकेले बैठे देखा। मैंने कहा कि ऐ अबू ज़र (रज़ियल्लाहु अन्हु)! यह अकेलापन कैसा है? उन्होंने फ़रमाया, मैंने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को फ़रमाते सुना कि "बुरे साथी से अकेलापन बेहतर है और नेक साथी अकेलेपन से बेहतर है और अच्छी बात बताना ख़ामोशी से बेहतर है और बुरी बात बताने से ख़ामोशी बेहतर है।" (बैहक़ी, फ़ी शोबिल ईमान)

इमाम ग़ज़ाली ख़ामोशी की तारीफ़ करते हुए फ़रमाते हैं—

  • ख़ामोशी इबादत है बिना मेहनत के,
  • दहशत है बिना सलतनत के,
  • क़िला है बिना दीवार के,
  • विजय है बिना हथियार के,
  • आराम है किरामन कातिबीन का,
  • आदत है मज़दूरों की,
  • दबदबा है शासकों का,
  • निचोड़ है हिक्मतों का और
  • जवाब है जाहिलों का।

इसके विपरीत बहुत बोलने को एक ना-पसन्दीदा काम समझा गया है—

हज़रत इब्ने उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि अल्लाह के ज़िक्र के सिवा किसी और बात को ज़्यादा न कहो, क्योंकि अल्लाह के ज़िक्र के सिवा किसी और बात की ज़्यादती दिल को सख़्त कर देती है और अल्लाह से सबसे ज़्यादा दूर वह आदमी होता है जो सख़्त दिल हो। (तिर्मिज़ी)

मौलाना अशरफ़ अली थानवी फ़रमाते हैं— “जो आदमी बेकार की बकवास और दूसरों पर लानत व ताने देने में लगा रहेगा, उसको बातिनी बरकतें कभी हासिल न होंगी, क्योंकि दूसरों के ऐब बयान करना या बकवास का काम वही अपना सकता है जो ख़ुद अपने अंजाम से बे-ख़बर और लापरवाह हो।”

मतलब यह कि ज़बान कि हिफ़ाज़त दिल की सफ़ाई के सिलसिले में बहुत ज़्यादा महत्व रखती है और दिल की सफ़ाई करने वाले के लिए बड़ा ही ज़रूरी है कि उसे अपनी ज़बान पर इतना क़ाबू हासिल हो कि वह बोलने के समय तो बोले, मगर जब बोले बिना भी काम चल सकता हो तो ख़ामोश ही रहे कि इसी में नजात है।

हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि मोमिन—

  • न बहुत ताने देने वाला होता है,
  • न बहुत लानत करने वाला,
  • न अश्लील बातें करने वाला और
  • न ज़बान चलाने वाला।

ज़बान बेक़ाबू क्यों हो जाती है?

इस सारी बहस के बाद आख़िरी और अहम चीज़ यह है कि ज़बान को क़ाबू में लाया कैसे जाए। जो लोग जानते ही नहीं कि ज़बान के गुनाह किस तरह इंसान की सीरत को दाग़दार करते हैं और आख़िरत का अज़ाब भी लाते हैं उनकी जबानें यदि बेक़ाबू हों तो कुछ हैरत की बात नहीं, मगर अफ़सोस तो यह है कि जो लोग क़ुरआन व हदीस का ज्ञान रखते हैं और बेक़ाबू ज़बान के नुक़्सान से भी वाक़िफ़ हैं वे भी कभी-कभी ज़बान पर क़ाबू नहीं रख सकते और ऐसी बातें कर जाते हैं जो खुले तौर पर गुनाहों की सूची में आती हैं।

बात यहीं तक नहीं, बल्कि ऐसे लोग भी मौजूद हैं, जो ज़बान के गुनाहों के अज़ाब से परिचत होने के अलावा इस बात के भी दिल से इच्छुक होते हैं कि अपनी ज़बान को क़ाबू में रखें और फिर वे इस मक़सद को हासिल करने के लिए अमली कोशिश भी करते रहते हैं, मगर इसके बावजूद कभी-कभी ऐसा होता है कि ज़बान को क़ाबू में रखने के बजाए वे ख़ुद ज़बान के क़ाबू में चले जाते हैं और न चाहते हुए भी ऐसी बातें कर जाते हैं जो खुली ग़ीबत होती हैं।

शायद यह कहा जाए कि आख़िर यह कैसे मुमकिन है कि एक इंसान बेक़ाबू ज़बान के नुक़्सान भी जानता हो और ज़बान पर क़ाबू रखने का सख़्त इच्छुक भी हो और फिर भी उसकी ज़बान सरकशी करके ऐसी बातें कहना शुरू कर दे, जो वह नहीं कहना चाहता। आख़िर वह उसी की ज़बान है किसी और की तो नहीं कि उसके इरादे के तहत न आ सके?

यह आपत्ति वैसे बिल्कुल सही लगती है, मगर हक़ीक़त यह है कि ऐसा हो जाता है कि इंसान बे-क़ाबू ज़बान के नुक़्सान भी जानता है और ज़बान पर क़ाबू रखने का इच्छुक भी होता है, मगर फिर भी ज़बान सरकशी करके ऐसी बातें कहना शुरू कर देती है जो वह नहीं कहना चाहता। ऐसे समय फिर यही महसूस होता है कि यह ज़बान हमारी ज़बान नहीं है, बल्कि किसी और की है और हमारे इरादे से आज़ाद हो चुकी है। वे लोग जो ज़बान पर क़ाबू पाने की कोशिश में लगे होते हैं, इस बात की गवाही देंगे कि ज़बान हक़ीक़त में कभी-कभी ऐसी बेवफ़ा और नाफ़रमान हो जाती है कि किसी सूरत में हमारी बात नहीं मानती।

ऐसा क्यों होता है? हम ज़बान पर तो क़ाबू पाने की सख़्त इच्छा रखते हैं, लेकिन फिर भी क़ाबू में नहीं ला सकते?

इसका असल कारण हमारी वही ग़लती है जो हमारे और भी बहुत-से गुनाहों की वजह है। वह यह कि दीन के आदेशों का ज्ञान हासिल करते हुए हम यह भूल जाते हैं कि केवल ज्ञान हासिल कर लेना ही काफ़ी नहीं होता, जब तक कि दिल की भी सही तर्बियत न की जाती रहे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के इर्शाद हमारे सामने हैं—

  • "जो ज़बान की हिफ़ाज़त की ज़मानत दे, मैं उसके लिए जन्नत की ज़मानत लेता हूँ।"
  • "सच्चाई नेकी की तरफ़ हिदायत देती है और नेकी जन्नत की तरफ़ रहनुमाई करती है।"
  • "चुग़ली करने वाला जन्नत में दाख़िल नहीं होगा।"

अब पढ़ने की हद तक तो हमने हुज़ूर के ये इर्शाद पढ़ लिए हैं, लेकिन इनका पूरा असर हम इसी सूरत में हासिल करेंगे जब हमारे दिल में जन्नत में जाने की सच्ची लगन व उमंग हो और हम वहाँ जाने के लिए हक़ीक़त में बेचैन हों। इस सूरत में जब हमें मालूम होगा कि ज़बान की हिफ़ाज़त और सच्चाई हमें हमारी इस मंज़िल तक पहुंचाएगी और चुग़ली हमें इससे दूर करके रहेगी तो फिर हमारी ज़बान ग़लत बातों के लिए चाहे कितने ही हाथ-पांव मारे, हम उसकी लगामें खींचकर उसे चुप रहने पर मजबूर कर देंगे, क्योंकि आख़िरत में हमेशा की कामियाबी और ऊंचे दर्जे हासिल करने की सच्ची भावना इंसान में वह ताक़त पैदा कर देती है कि ज़बान उस के आगे झुक जाने पर मजबूर हो जाती है। इसलिए असल सूरत यह नहीं है कि ज़बान में इतनी ताक़त है कि वह हमारे इरादे को तोड़-फोड़कर हमारे क़ाबू से बाहर हो जाती है, बल्कि असल बात यह है कि हमारे दिलों में अपनी आख़िरत की ज़िन्दगी को हमेशा अम्न व सुकून और आराम की ज़िन्दगी बनाने की भावना बहुत कमज़ोर है और यही हमारी वह कमज़ोरी है, जिससे फ़ायदा उठाकर हमारी ज़बान हमें हरा देने में कामियाब हो जाती है। अतः दूसरे गुनाहों से बचने के अलावा ज़बान पर क़ाबू हासिल करने का एक ज़रिया यह भी है कि हमारा आख़िरत पर पक्का विश्वास हो।

आख़िरत के अक़ीदे के मज़बूत होने से केवल यही मुराद नहीं है कि मौत के बाद की ज़िन्दगी और जन्नत व जहन्नम के हक़ होने में कोई शक न हो, बल्कि यह भी है कि जन्नत और जहन्नम का विचार दिलों में रच-बस जाए। ज़ेहन और दिल में इनका प्रायः ख़याल रहे और कल्पना की आँख इन्हें साफ़-साफ़ देखा करे।

क़ुरआन पाक और हदीसों की किताबों में जन्नत और जहन्नम का इतना अधिक वर्णन हुआ है कि यदि इंसान उन आयतों को और हदीसों को बार-बार पढ़ता रहे तो जन्नत और जहन्नम अपनी तफ़्सील के साथ ज़ेहन की आँखों के सामने साफ़ हो जाती हैं। यह हक़ीक़त है कि जिन बातों पर इंसान प्रायः ग़ौर करता रहे, वे धीरे-धीरे दिल में बैठती जाती हैं। अतः यदि हम इस बात को आदत बना लें कि रोज़ाना अपनी व्यस्तता में से कुछ मिनट निकाल कर एक तरफ़ होकर बैठ जाया करें और इन सच्चाइयों पर ग़ौर किया करें कि ज़िन्दगी किस तेज़ रफ़्तारी के साथ गुज़रती जा रही है और निकट ही वह क्षण आने वाला है जब प्रिय-से-प्रिय अपनी सारी मुहब्बत के बावजूद हमें सफ़ेद कफ़न में लपेट कर मनों मिट्टी के नीचे दबा आएंगे। फिर लम्बे समय तक इस क़ब्र में रहना होगा, जो या तो 'जन्नत के बाग़ों में से एक बाग़ होगा या जहन्नम की खाइयों में से एक खाई।'

इसके बाद फिर हश्र के मैदान में वास्ता पेश आएगा और कर्म-पत्र (आमाल नामे) हाथों में दे दिए जाएंगे। अब ख़ुदा जाने उनमें क्या लिखा होगा। ग़ीबत, चुग़ली, झूठ, तोहमत, बद-ज़बानी, धोखा-धड़ी, लालच, ग़द्दारी, बे-अमली, बेईमानी, दीन से लापरवाही और ख़ुदा और ख़ुदा के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की अवज्ञा, या सच्चाई, दीन से मुहब्बत, नेक चलन, कर्तव्य-परायणता, तक़वा, इस्लाम की सेवा और ख़ुदा और ख़ुदा के रसूल की मुहब्बत?

फिर हिसाब-किताब होगा और हिसाब-किताब के बाद या तो अम्न व सुकून वाली एक बाग़ व बहार ज़िन्दगी होगी, जिसकी नेमतों को न किसी आँख ने देखा, न किसी कान ने सुना, न किसी दिल में उनका ख़याल आया या फिर उस अपमानजनक, कष्टदायक, जहन्नम से वास्ता होगा, जिसमें डाले जानेवाले का यह हाल होगा कि वह वहाँ न तो मरेगा और न जिएगा ही।

यदि रोज़ाना इन तथ्यों को अपनी कल्पना की आँख के सामने लाकर कुछ देर उनका जायज़ा ले लिया जाया करे, तो उम्मीद है कि इन्शा अल्लाह यह काम आख़िरत के अक़ीदे को शक्तिशाली बना देगा कि इससे न केवल ज़बान पर क़ाबू हासिल करना आसान हो जाएगा, बल्कि और भी बहुत-सी आज़माइशों का मुक़ाबला करने में मदद मिलेगी।

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