इस्लाम
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अहम हिदायतें (तहरीके इस्लामी के कारकुनों के लिए)
सबसे पहली चीज़ जिसकी हिदायत हमेशा से नबियों और ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन और उम्मत के नेक लोग हर मौक़े पर अपने साथियों को देते रहे हैं, वह यह है कि वे अल्लाह की अवज्ञा से बचें, उसकी मुहब्बत दिल में बिठाएँ और उसके साथ ताल्लुक़ बढ़ाएँ। यह वह चीज़ है जिसको हर दूसरी चीज़ पर मुक़द्दम और सबसे ऊपर होना चाहिए। अक़ीदे (धारणाओं) में 'अल्लाह पर ईमान' मुक़द्दम और सबसे ऊपर है, इबादत में अल्लाह से दिल का लगाव मुक़द्दम है, अख़लाक़ में अल्लाह का डर सर्वोपरि है, मामलों (व्यवहारों) में अल्लाह की ख़ुशी की तलब सर्वोपरि।

इस्लाम कैसे फैला?
आमतौर से इस्लाम के बारे में यह ग़लतफ़हमी पाई और फैलाई जाती है कि “इस्लाम तलवार के ज़ोर से फैला है।" लेकिन इतिहास गवाह है कि इस बात में कोई सच्चाई नहीं है। क्योंकि इस्लाम ईश्वर की ओर से भेजा हुआ सीधा और शान्तिवाला रास्ता है। ईश्वर ने इसे अपने अन्तिम दूत हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़रिए तमाम इनसानों के मार्गदर्शन के लिए भेजा। हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इसे केवल लोगों तक पहुँचाया ही नहीं बल्कि इसके आदेशों के अनुसार अमल करके और एक समाज को इसके अनुसार चलाकर भी दिखाया। इस्लाम चूँकि अपने माननेवालों पर यह ज़िम्मेदारी डालता है कि वे इसके सन्देश को लोगों तक पहुँचाएँ, अत: इसके माननेवालों ने इस बात को अहमियत दी। उन्होंने इस पैग़ाम को लोगों तक पहुँचाया भी। जब लोगों ने इस सन्देश को सुना और सन्देशवाहकों के किरदार को देखा तो उन्होंने दिल से इसे स्वीकार किया।

ईदुल-फ़ित्र किसके लिए?
ईद की मुबारकबाद के असली हक़दार वे लोग हैं, जिन्होंने रमज़ान के मुबारक महीने में रोज़े रखे, क़ुरआन मजीद की हिदायत से ज़्यादा-से ज़्यादा फ़ायदा उठाने की फ़िक्र की, उसको पढ़ा, समझा, उससे रहनुमाई हासिल करने की कोशिश की और तक़्वा (परहेज़गारी) की उस तर्बियत का फ़ायदा उठाया, जो रमज़ान का मुबारक महीना एक मोमिन को देता है। क़ुरआन मजीद में रमज़ान के रोज़े के दो ही मक़सद बयान किये गये हैं एक यह कि उनसे मुसलमानों में तक़्वा (परहेज़गारी) पैदा हो और दूसरे यह कि मुसलमान उस नेमत (उपहार) का शुक्र अदा करें जो अल्लाह तआला ने रमज़ान में क़ुरआन मजीद अवतरित करके उनको प्रदान की है।

आत्मा और परमात्मा
आत्मा और परमात्मा, एक ऐसा विषय है जिसपर सदैव विचार किया जाता रहा है। अपना और अपने स्रष्टा का यदि समुचित ज्ञान न हो तो मनुष्य और पत्थर में अन्तर ही क्या रह जाता है। हमने विशेष रूप से भारत के परिप्रेक्ष्य में उपरोक्त विषय पर विचार व्यक्त करने की कोशिश की है और इस पर दृष्टि डाली है कि भारत के ऋषियों और दार्शनिकों की इस सम्बन्ध में क्या धारणा रही है। पुस्तक के अन्त में यह दिखाया गया है कि उपरोक्त विषय में इस्लाम का मार्गदर्शन क्या है।

इस्लाम का संदेश
हमारे विश्वास के अनुसार इस्लाम किसी ऐसे धर्म का नाम नहीं, जिसे पहली बार मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पेश किया हो और इस कारण आप को इस्लाम का संस्थापक कहना उचित हो। क़ुरआन इस बात को पूरी तरह स्पष्ट करता है कि अल्लाह की ओर से मानव-जाति के लिए हमेशा एक ही धर्म भेजा गया है और वह है इस्लाम, अर्थात अल्लाह के आगे नत-मस्तक हो जाना। संसार के विभिन्न भागों तथा विभिन्न जातियों में जो नबी भी अल्लाह के भेजे हुये आये थे, वे अपने किसी अलग धर्म के संस्थापक नहीं थे कि उनमें से किसी के धर्म को नूहवाद और किसी के धर्म को इब्राहीमवाद या मूसावाद या ईसावाद कहा जा सके, बल्कि हर आने वाला नबी उसी एक धर्म को पेश करता रहा, जो उससे पहले के नबी पेश करते चले आ रहे थे।

इस्लाम का अस्ल मेयार
आख़िरत में इनसान की नजात और उसका मुस्लिम व मोमिन क़रार दिया जाना और अल्लाह के मक़बूल बन्दों में गिना जाना इस क़ानूनी इक़रार पर मुन्हसिर नहीं है, बल्कि वहाँ अस्ल चीज़ आदमी का क़ल्बी इक़रार, उसके दिल का झुकाव और उसका राज़ी-ख़ुशी अपने आपको पूरे तौर पर ख़ुदा के हवाले कर देना है। दुनिया में जो ज़बानी इक़रार किया जाता है, वह तो सिर्फ़ शरई क़ाज़ी के लिए और आम इनसानों और मुसलमानों के लिए है, क्योंकि वे सिर्फ़ ज़ाहिर ही को देख सकते हैं। मगर अल्लाह आदमी के दिल को और उसके बातिन को देखता है और उसके ईमान को नापता है।

इबादतें बे-असर क्यों?
क़ुरआन मजीद को अगर सरसरी तौर से भी पढ़ा जाए तो यह बात पहली नज़र में वाज़ेह हो जाती है कि इस्लाम इनसान की पूरी ज़िन्दगी को ख़ुदा के हुक्मों के मुताबिक़ गुज़ारने का नाम है। इसी लिए अल्लाह के तमाम पैग़म्बरों ने अपनी क़ौम से अपनी पूरी ज़िन्दगी में अल्लाह की फ़रमाँबरदारी करने का मुतालबा किया। यही मामला अल्लाह के आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का था। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर जो लोग ईमान लाए उनके दिमागों में यह बात बिलकुल वाज़ेह थी और उनकी अमली ज़िन्दगी इस हक़ीक़त की गवाह थी।

ईमान की कसौटी
क़ुरआन के मुताबिक़ इनसान की गुमराही के तीन सबब हैं— एक यह कि वह ख़ुदा के क़ानून को छोड़कर अपने मन की ख़ाहिशों का ग़ुलाम बन जाए। दूसरा यह कि ख़ुदाई क़ानून के मुक़ाबले में अपने ख़ानदान के रस्म-रिवाज और बाप-दादा के तौर-तरीक़ों को तरजीह (प्राथमिकता) दे। तीसरा यह कि ख़ुदा और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जो तरीक़ा बताया है उसको छोड़कर इनसानों की पैरवी करने लगे, चाहे वे इनसान ख़ुद उसकी अपनी क़ौम के बड़े लोग हों या ग़ैर-क़ौमों के लोग।

सामूहिक बिगाड़ और उसका अंजाम
कुरआन मजीद में एक अहम बात यह बयान की गई है की अल्लाह ज़ालिम नहीं है की किसी क़ौम को व्यर्थ ही बर्बाद कर दे, जबकि वह नेक और भला काम करने वाली हो –“और तेरा रब ऐसा नहीं है की बस्तियों को ज़ुल्म से तबाह कर दे, जबकि उस के बाशिंदे नेक अमल करने वालें हों |’’ (कुरआन, सूरा – 11 हूद, आयत – 117)

ईमान और इताअत
यह मौलाना सैयद अबुल-आला मौदूदी (रह.) का एक लेख है जो दिसम्बर, 1934 ई. में ‘तर्जमानुल-क़ुरआन’ नामक पत्रिका में छपा था। बाद में इसे तनक़ीहात नामी किताब में शामिल कर लिया गया। मौलाना मौदूदी (रह.) एक सच्चे, मुख़लिस (सत्यनिष्ठ) और ग़ैरतमन्द इनसान थे। उनका मानना था कि आदमी जिस दीन और नज़रिये का माननेवाला हो उसपर वह सच्चे दिल और ईमानदारी के साथ कारबन्द रहे। इसी लिए उनकी ख़ाहिश और दिली तमन्ना थी कि अपने को मुसलमान कहनेवाले लोग सही मानी में इस्लाम को माननेवाले बनें और अपने क़ौल व अमल (करनी-कथनी) से इस्लाम की नुमाइन्दगी करें। ज़बान से इस्लाम का नाम लेना और इसका दावेदार बनना, लेकिन अपने क़ौल व अमल से उन बातों, शिक्षाओं और हुक्मों की ख़िलाफ़वर्ज़ी करना जो इस्लाम ने पेश किए हैं, मौलाना के लिए सख़्त दिली तकलीफ़ और दुख का कारण था। वे इस रवैये और पॉलिसी को मुसलमानों के हक़ (हित) में और इस्लाम के हक़ में निहायत हानिकारक समझते थे। उनका मानना था और यह हक़ीक़त भी है कि ग़ैर-मुस्लिम दुनिया में मुसलमान का हर काम और उसकी हर बात इस्लाम का काम और इस्लाम की बात समझी जाती है। इसलिए हमारा रवैया ऐसा होना चाहिए जो इस्लाम की नेकनामी का सबब बने न कि बदनामी का।

सत्य धर्म की खोज
यह किताब सत्य की खोज में लगे हुए भाइयों और बहनों के लिए लिखी गई है। सत्य को पाना मानो ईश्वर को पाना है। सत्य ईश्वर की तरफ़ से होता है और सारे इनसानों के लिए होता है। ईश्वर ने इनसान को जितनी नेमतें भी प्रदान की हैं, उनमें सत्य सबसे ज़्यादा कीमती और महत्वपूर्ण है। सत्य धर्म की खोज हर इंसान का बुनियादी काम है।

इस्लाम क्या है ?
जयपुर राज-महल में चल रहे एक विशेष कार्यक्रम में 11 जून 1971 ई0 की रात में इस्लाम का परिचय कराने हेतु मुहम्मद फ़ारूक़ ख़ाँ द्वारा यह निबन्ध प्रस्तुत किया गया। कार्यक्रम में गणमान्य जनों के अतिरिक्त स्वंय राजमाता गायत्री देवी भी उपस्थित थीं।

इस्लाम का आरम्भ
इस्लाम अल्लाह का बनाया हुआ धर्म है, जिसे उसने सभी इन्सानों के लिए बनाया है। इसकी शुरुआत उसी वक़्त से है, जब से इंसान की शुरुआत हुई है। इस्लाम का मानी है, ‘‘ख़ुदा के हुक्म का पालन''। और इस तरह यह इंसान का पैदाइशी धर्म है। क्योंकि ख़ुदा ही इंसान का पैदा करने वाला और पालने वाला है इंसान का अस्ल काम यही है कि वह अपने पैदा करने वाले के हुक्म का पालन करे। जिस दिन ख़ुदा ने सब से पहले इंसान यानी हज़रत आदम और उन की बीवी, हज़रत हव्वा को ज़मीन पर उतारा उसी दिन उसने उन्हें बता दिया कि देखो: ‘‘तुम मेरे बन्दे हो और मैं तुम्हारा मालिक हूँ। तुम्हारे लिए सही तरीक़ा यह है कि तुम मेरे बताये हुए रास्ते पर चलो। प्रस्तुत लेख में महान विद्वान सैयद अबुल आला मौदूदी ने इसी तथ्य को समझाया है।

इस्लाम और सन्यास
इस्लाम में संन्यास या संसार त्याग की कोई जगह नहीं है, हालांकि दूसरे अधिकतर धर्मों में इसे परम धर्म और पारलौकिक मोक्ष की प्राप्ति का साधन समझा जाता है। इस्लाम दुनिया में रहते हुए और दुनिया की सारी ज़िम्मेदारियां अदा करते हुए ईशपरायणता की शिक्षा देता है। इस पुस्तिका में प्रमुख विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी ने इसी तथ्य की व्याख्या की है।

ईशदूतत्व की धारणा विभिन्न धर्मों में
अल्लाह ने इन्सान को सोचने समझने वाला बना कर दुनिया में भेजा है। अल्लाह चाहता है कि इन्सान उसकी मर्ज़ी के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारे। जो लोग उस की मर्ज़ी के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारते हैं उनके लिए उसने हमेशा के आराम की जन्नत तैयार की हुई है, और जो लोग अपनी मन-मानी ज़िंदगी गुज़ारते हैं उन के लिए हमेशा के अज़ाब का ठिकाना जहन्नुम तैयार है। अल्लाह ने अपनी मर्ज़ी इन्सानों तक पहुंचाने के लिए इन्सानों में से ही कुछ ख़ास लोगों को चुन लिया, जो पैग़म्बर कहलाए। इस किताब में इसी पर चर्चा की गई है कि किन धर्मों में इस तरह की मान्यता मौजूद है।