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प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कैसे थे?

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कैसे थे?

इरफ़ान ख़लीली

अनुवादक: ज़फ़र अहमद फ़लाही

प्रकाशक: मर्कज़ी मक्तबा इस्लामी (MMI) पब्लिशर्स

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

अल्लाह रहमान-रहीम के नाम से!

है आज दिमाग़ आसमाँ पर!

अल्लाह के आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मिसाली ज़िन्दगी पर बहुत-सी किताबें लिखी गई हैं और लिखी जा रही हैं, लेकिन उनसे सिर्फ़ पढ़े-लिखे लोग ही फ़ायदा उठा सकते हैं। हमारे कम पढ़े-लिखे भाई या आजकल के नौजवान उनसे फ़ायदा नहीं उठा सकते, वे इस नेमत से महरूम रहते हैं।

यह आरज़ू बहुत दिनों से थी कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मिसाली ज़िन्दगी पर कोई ऐसी किताब लिखी जाए जिससे हर व्यक्ति फ़ायदा उठा सके और अपने उम्मती होने का हक़ किसी न किसी हद तक पूरा कर सके लेकिन — मेरे लिए मुश्किल यह थी कि मैं फ़ैसला नहीं कर पा रहा था कि किस घटना को छोड़ूँ और किसको चुनूँ।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़िन्दगी

इस गुलदस्ते का हर फूल बेमिसाल, हर एक की ख़ुशबू मेरे दिल के दामन को अपनी ओर खींच रही थी। मैं अजीब कशमकश में पड़ा हुआ था। न छोड़ते बनता था, न पकड़ते।

मेरे अल्लाह ने मेरी मदद की। ज़ेहन में एक ख़याल उभरा— "क्यों न नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़िन्दगी के उन वाक़िआत को जमा कर दूँ जो हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से सीधा ताल्लुक़ रखते हों।"

यह बात ज़ेहन में आते ही मेरी आँखें जगमगा उठीं, दिल ख़ुशी से भर गया, मानो मुँह-माँगी मुराद मिल गई। इसी बहाने से एक बार फिर अपने प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत का मौक़ा हासिल हो गया। दिमाग़ आसमान पर उड़ने लगा। क़लम ने अपना काम शुरू कर दिया।

अल्लाह की मदद मुझ ग़रीब के साथ रही। यह छोटी-सी किताब तैयार हो गई। यह देखने में छोटी है मगर है बड़ी क़ीमती। इसकी ज़बान भी बड़ी आसान है।

इस किताब के पढ़नेवालों से गुज़ारिश है कि इसे ग़ौर से पढ़ें और इस की बातों को अपनी ज़िन्दगियों में समोने की कोशिश करें।

इस किताब को तैयार करने में हमने बहुत-सी किताबों से फ़ायदा उठाया है। अल्लाह से दुआ है कि उनके लिखनेवालों को अच्छा बदला दे!

इरफ़ान ख़लीली

(सफ़ी पुरी)

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) गुफ़्तगू कैसे करते थे?

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपना समय बेकार बातों में बरबाद नहीं करते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अकसर ख़ामोश रहते और ऐसा महसूस होता जैसे कुछ सोच रहे हों। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उसी समय गुफ़्तगू करते जब उसकी ज़रूरत होती। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जल्दी-जल्दी और कटे-कटे शब्द नहीं बोलते थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की गुफ़्तगू बहुत साफ़ और स्पष्ट होती। न आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ज़रूरत से ज़्यादा लम्बी बात करते और न इतनी कम कि समझ में न आए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के वाक्य बहुत नपे-तुले होते।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं कि "आप रुक-रुक कर बोलते, एक-एक शब्द इस तरह स्पष्ट होता कि सुननेवाले को पूरी बात याद हो जाती। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की आवाज़ बुलन्द थी और अच्छी तरह सुनी जा सकती थी।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) किसी की बात बीच से काटते न थे, बल्कि पूरी बात कहने का अवसर देते और ध्यान से सुनते थे।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मुस्कराते हुए मधुर स्वर में बात करते थे। किसी को ख़ुश करने के लिए झूठी या ख़ुशामद की बातें ज़बान से नहीं निकालते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हमेशा न्याय की बात कहते थे, और मुँह देखी बात पसन्द नहीं करते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कटहुज्जती से बचते थे।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हमेशा सच बोलते थे

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हमेशा सच बोलते थे और झूठ के पास कभी न जाते थे। आपकी पाक ज़बान से कभी कोई ग़लत बात सुनने में नहीं आई, यहाँ तक कि मज़ाक़ में भी कोई झूठी बात आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़बान से नहीं निकलती थी। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दुश्मनों ने आप पर तरह-तरह के आरोप लगाए, मगर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को झूठा कहने की हिम्मत न कर सके। यह तो आप जानते ही हैं कि अबू-जहल आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कितना बड़ा दुश्मन था। वह भी कहा करता था: "मुहम्मद! मैं तुमको झूठा नहीं कह सकता क्योंकि तुमने तो कभी झूठ बोला ही नहीं है, मगर जो बातें तुम कहते हो उनको मैं ठीक नहीं समझता।"

याद कीजिए उस घटना को जब प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सफ़ा पहाड़ पर चढ़कर क़ुरैशवालों से यह सवाल किया था, "अगर मैं तुमसे कहूँ कि इस पहाड़ के पीछे एक फ़ौज आ रही है तो क्या तुम विश्वास करोगे?" सबने एक ज़बान होकर जो जवाब दिया था वह आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की बात के सच्चे होने की दलील है। बोले, "हाँ! हम ज़रूर विश्वास करेंगे क्योंकि आपको हमेशा से हमने सच बोलते ही देखा है।"

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) वचन के पक्के थे

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बात के धनी थे। जो वादा कर लेते थे उसे पूरा कर के रहते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पूरे जीवन में कोई एक घटना भी सामने नहीं लाई जा सकती जिससे वचन पूरा न करना साबित किया जा सके। दोस्त तो दोस्त, दुश्मन भी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की इस गुण को मानते थे।

इतिहास को देखिए। रूम का बादशाह क़ैसर अबू-सुफ़ियान से मालूम करता है, "क्या मुहम्मद ने कभी वादाख़िलाफ़ी भी की है?" अबू-सुफ़ियान का उत्तर सुनकर वह किसी ख़याल में खो जाता है।

हुदैबिया के समझौते की एक शर्त थी कि "कोई मक्का का व्यक्ति अगर मुसलमान होकर मदीना जाएगा तो वापस कर दिया जाएगा।" ठीक उसी समय जब यह समझौता लिखा जा रहा था तो अबू-जन्दल (रज़ियल्लाहु अन्हु) ज़ंजीरों में जकड़े हुए मक्कावालों की क़ैद से भागकर मदीना आ जाते हैं और अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को अपनी दुर्दशा दिखाकर फ़रियाद करते हैं। यह दृष्य बहुत ही दर्दनाक और भावुक था। तमाम मुसलमान तड़प उठते हैं और सिफ़ारिश करते हैं, लेकिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बहुत इत्मीनान के साथ उनसे कहते हैं, “अबू-जन्दल! तुम्हें वापस जाना होगा, मैं वादाख़िलाफ़ी नहीं कर सकता।" प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के शब्दों से दर्द और पीड़ा साफ़ झलक रही थी। अबू-जन्दल (रज़ियल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को हसरत भरी नज़रों से देखते हुए वापस चले जाते हैं।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बदज़बानी से परहेज़ करते थे

बदज़बानी ऐसी ख़राब आदत है कि जिस आदमी में यह आदत पाई जाती है, लोग उससे दूर भागते हैं, वह आदमी दूसरों की नज़रों से गिर जाता है, सब उससे नफ़रत करने लगते हैं। बदज़बान आदमी से लोग मिलना पसन्द नहीं करते। ऐसे आदमी के बारे में अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया है, "ख़ुदा के नज़दीक क़ियामत के दिन सबसे ख़राब आदमी वह होगा जिसकी बदज़बानी के डर से लोग उसको छोड़ दें।"

बदज़बानी की वजह से लोगों के दिलों को ठेस पहुँचती है। हालाँकि प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का फ़रमान है कि "मुसलमान वह है जिसकी ज़बान और हाथ से लोग सुरक्षित रहें।"

बदज़बानी ही की वजह से आपसी सम्बन्ध ख़राब हो जाते हैं और हालत लड़ाई-झगड़े तक पहुँच जाती हैं, जबकि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने साफ़-साफ़ फ़रमाया है कि "बदज़बानी और बुरा-भला कहना मुनाफ़िक़त (कपटाचार) की निशानी है।"

एक बार अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "सबसे बड़ा गुनाह यह है कि आदमी अपने माँ-बाप पर लानत भेजे।" सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने आश्चर्य से पूछा, "यह कैसे सम्भव है?" आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, "इस तरह कि जब कोई किसी के बाप को बुरा कहेगा तो जवाब में दूसरा उसके माँ-बाप को बुरा कहेगा।"

अल्लाह तआला हमें बदज़बानी से बचने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए। आमीन!

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को ग़ीबत से नफ़रत थी

ग़ीबत (पीठ पीछे बुराई करने) से आपसी सम्बन्ध ख़राब होते हैं, अच्छे दिल बुरे हो जाते हैं, इज्ज़त और आबरू ख़तरे में पड़ जाती है। इससे नफ़रत की भावना पैदा होती है। इसी लिए तो क़ुरआन मजीद में ग़ीबत करनेवाले की मिसाल ऐसे व्यक्ति से दी गई है जो अपने मरे हुए भाई का गोश्त खाता है। तौबा-तौबा! कितनी घिनौनी आदत है किसी की पीठ पीछे बुराई करना।

ग़ीबत के बारे में प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से प्रश्न किया गया कि "ऐ अल्लाह के नबी! ग़ीबत किसे कहते हैं?"'

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, "तुम्हारा अपने भाई की उन बातों की इस तरह चर्चा करना जिनको वह सुने तो उसे तकलीफ़ पहुँचे।” फिर पूछा गया कि "अगर मेरे भाई में वह बुराई मौजूद हो जिसको बयान किया गया है?"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उत्तर दिया, "अगर वह बुराई उसमें मौजूद है तो तुमने उसकी ग़ीबत की और अगर वह बुराई उसमें नहीं है तो तुमने उसपर बोहतान (झूठा इलज़ाम) लगाया।"

अल्लाह तआला इस बुरी आदत से हम सबको बचाए! आमीन!

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मीठे बोल बोलते थे

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जब भी किसी से बात करते तो उसके पद और अदब व सम्मान का ध्यान रखते थे। इससे आपसी सम्बन्ध अच्छे रहते हैं और मेल-जोल बढ़ता है। अच्छी आदतों में सलाम करना, शुक्रिया अदा करना, हाल-चाल पूछना, नसीहत करना और नेकी की शिक्षा देना भी शामिल है।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "जो व्यक्ति अल्लाह और आख़िरत (परलोक) के दिन पर विश्वास रखता है उसको चाहिए कि ज़बान से अच्छी बात निकाले, वरना चुप रहे।" इसका मतलब यह है कि अगर हम सच्चे मुसलमान बनना चाहते हैं तो हमें बद-कलामी और ऐसी बातों से बचना चाहिए जिससे दूसरों का दिल दुखे।

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "अच्छी बात सदक़ा है।" यानी मीठी ज़बान का प्रयोग करके दूसरों के दिल जीत लेना बहुत बड़ी नेमत है।

एक सहाबी ने पूछा, "ऐ अल्लाह के नबी! नजात (मुक्ति) कैसे हासिल हो सकती है?" आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, "अपनी ज़बान को क़ाबू में रखो।" यानी पहले तोलो फिर बोलो, ताकि तुम्हारी बातों से किसी का दिल न दुखने पाए और तुम्हारी ज़बान से ऐसे शब्द न निकलें जिनसे दूसरों को तकलीफ़ पहुँचे।

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जन्नत की ख़ूबियाँ बयान कीं। एक

सहाबी व्याकुल होकर बोले, "ऐ अल्लाह के नबी यह जन्नत किसको मिलेगी?" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "जिसने अपनी ज़बान से बुरी बातें नहीं निकाली होंगी।"

देखिए, जन्नत प्राप्त करने का कितना आसान तरीक़ा है!

आइए हम प्रतिज्ञा करें कि अपनी ज़बान से कोई बुरी बात नहीं निकालेंगे।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मज़ाक़ भी करते थे

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मज़ाक भी करते थे, लेकिन इसमें भी आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कभी ग़लत बात ज़बान से नहीं निकालते थे।

एक बार एक बूढ़ी औरत नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास आई और कहा कि "आप मेरे लिए दुआ कीजिए कि अल्लाह मुझे जन्नत में जगह दे।" नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "अम्मा मुझे दुख है कि बूढ़ी औरतें जन्नत में नहीं जाएँगी।" यह सुनकर वह बुढ़िया फूट-फूटकर रोने लगी। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मुस्कराते हुए कहा, बेशक कोई बुढ़िया जन्नत में नहीं जाने पाएगी, अलबत्ता अल्लाह उसको जवान बना देगा फिर वह जन्नत में जाएगी।" यह सुनते ही बुढ़िया के चेहरे पर मुस्कराहट दौड़ गई।

एक व्यक्ति ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से सवारी के लिए ऊँट माँगा। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मुस्कराते हुए कहा, "हम तुम्हें ऊँटनी का एक बच्चा देंगे।" उसने हैरत से कहा, "मैं ऊँटनी का बच्चा लेकर क्या करूँगा? मुझे तो सवारी के लिए एक ऊँट चाहिए।" प्यारे नबी ने मुस्कराते हुए कहा, "हर ऊँट किसी ऊँटनी का बच्चा ही होता है।" सब हँस पड़े।

एक बार खजूरें खाई जा रही थीं! प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मज़ाक़ के तौर पर अपनी गुठलियाँ हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) के सामने डालते रहे। आख़िर में गुठलियों की तरफ इशारा करते हुए कहा कि अली ने सबसे ज़्यादा खजूर खाई है। हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने जवाब दिया, "आपने तो गुठलियों समेत खाई है।" सब लोग मुस्कराने लगे।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) किस तरह खाते-पीते थे?

खाने-पीने के बारे में प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का यह तरीक़ा था कि जो चीज़ सामने रख दी जाती, आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हँसी-ख़ुशी खा लेते, बशर्ते कि वह पाक और हलाल हो। अगर तबीअत कराहत महसूस करती तो हाथ रोक लेते मगर दस्तरख़ान पर खाने को बुरा न कहते।

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हाथ धोकर खाना शुरू करते और प्लेट के किनारे से खाते। बीच में हाथ न डालते। अगर प्लेट में कुछ बच जाता तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उसे पी लेते या फिर उँगली से चाट लेते। खाने के बाद आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पहले उँगलियाँ चाटते और फिर हाथ धो लेते। टेक लगाकर खाने से आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मना किया है।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पानी हमेशा बैठकर पीते। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "पानी पियो तो चूसकर पियो, बरतन में साँस न लो, बल्कि बरतन हटाकर साँस लो। एक ही साँस में पानी न पियो, दो या तीन बार में पियो। इस तरह पीना फ़ायदेमन्द है।"

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बिस्मिल्लाह (शुरू अल्लाह के नाम से) करके खाना-पीना शुरू करते। जब खा-पी चुकते तो अल्हम्दुलिल्लाह (अल्लाह का शुक्र है) कहते या फिर यह दुआ पढ़ते—

अल्हम्दुलिल्लाहिल्लज़ी अत्-अ-म-ना व सक़ाना व ज-अ-ल-ना मि-नल मुस्लिमीन।

"सारी तारीफ़ें और शुक्र अल्लाह के लिए है जिसने हमें खिलाया-पिलाया और हमें फ़रमाँबरदारों में से बनाया।"

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बहुत शर्मीले थे

लाज और शर्म इनसान की फ़ितरत में है। यही वह गुण है जिससे हमारे अन्दर बहुत-सी ख़ूबियाँ पैदा होती हैं और परवरिश पाती हैं और हम बहुत-सी बुराइयों से बचे रहते हैं। इसी लिए तो कहा गया है कि "शर्म ईमान का एक भाग है," जिसमें लाज और शर्म नहीं वह ईमानदार नहीं।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "नंगे होने से बचो क्योंकि तुम्हारे साथ हर समय अल्लाह के फ़रिश्ते रहते हैं, मगर जब तुम पेशाब-पाख़ाने को जाते हो तो वह अलग हो जाते हैं, तो तुम उनसे शर्म करो और उनका ख़याल रखो।"

आप को प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बचपन की वह घटना तो याद होगी जब काबा की दीवार बनाई जा रही थी। बड़ों के साथ बच्चे भी अपने कन्धों पर पत्थर रखकर ला रहे थे। प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) भी उनमें शरीक थे। जब कन्धे दुखने लगे तो लड़कों ने अपने-अपने तहबन्द खोलकर कन्धों पर रख लिए। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के चचा ने आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से ऐसा ही करने को कहा। जब बहुत ज़ोर देकर कहा तो मजबूरी की हालत में आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपना तहबन्द खोलना चाहा तो शर्म की वजह से बेहोश हो गए। जब चचा ने यह देखा तो मना कर दिया………।

देखा आपने हमारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कितने शर्मीले थे। आइए हम भी बेशर्मी की बातों से बचें ताकि हमारा अल्लाह हमसे ख़ुश हो।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बहुत रहमदिल थे

अच्छे अख़्लाक़ की बुनयादी सिफ़ात में से एक सिफ़त रहमदिली है। यह रहमदिली हमें नेकी करने पर उभारती है। यही भावना हमें दूसरों पर अत्याचार करने से रोकती है और अच्छा व्यवहार करने पर उभारती है, बुरे बरताव करने से बचाती है।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "जो रहम नहीं करता उसपर रहम नहीं किया जाता, तुम ज़मीनवालों पर रहम करो तो आसमानवाला तुमपर रहम करेगा।"

सिर्फ़ इनसानों ही के साथ नहीं बल्कि बेज़बान जानवरों पर भी रहम करने का हुक्म दिया गया है। मनोरंजन और खेल के तौर पर जो लोग जानवरों को लड़ाते हैं जिससे वे ज़ख़्मी हो जाते हैं, प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इसको मना किया है। ज़बह करने से पहले जानवर को पानी पिलाने और छुरी को तेज़ कर लेने की हिदायत दी गई है।

एक बार एक सहाबी चिड़िया के बच्चों को पकड़ लाए। चिड़िया चूँ-चूँ करती उनके पीछे-पीछे आई। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जब यह देखा तो सहाबी से कहा कि बच्चे को उसके घोंसले में रख आओ।

आइए हम भी अहद करें कि हम हर एक के साथ भलाई और रहम का बरताव करेंगे।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बहुत तेज़ चलते थे

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की चाल बहुत तेज़ थी। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) चलते तो मज़बूती से क़दम जमाकर चलते। ढीले-ढाले अन्दाज़ में क़दम घसीट कर न चलते। बदन सिमटा हुआ रहता। क़ुव्वत से आगे क़दम बढ़ाते। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का पाक जिस्म बहुत थोड़ा-सा आगे झुका हुआ रहता। ऐसा मालूम होता कि ऊँचाई से नीचे की तरफ़ आ रहे हों। हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जब चलते तो इस तरह चलते कि जैसे पहाड़ की ढाल पर से उतर रहे हों।

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की चाल शराफ़त, बड़ाई और ज़िम्मेदारी के एहसास की जीती-जागती तस्वीर थी। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के चलने का तरीक़ा हमें यह पैग़ाम देता था कि ज़मीन पर घमण्ड की चाल न चलनी चाहिए।

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की रफ़्तार के बारे में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि "आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मामूली रफ़्तार से चलते तब भी हम मुश्किल ही से साथ दे पाते थे।"

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का दस्तूर था कि जब सहाबा साथ होते तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनको या तो साथ कर लेते या आगे कर दिया करते थे।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बालों का ख़याल रखते थे

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सिर के बाल बिखरे हुए और उलझे हुए नहीं रहते थे कि जिन्हें देखकर वहशत पैदा हो। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बालों में अकसर तेल डाला करते थे और कंघा करते थे। आख़िरी वक़्त में आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) माँग भी निकालने लगे थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की दाढ़ी के बाल भी उलझे हुए नहीं रहते थे बल्कि उनमें भी आप कंघी करते थे।

एक बार आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने एक व्यक्ति के बाल बहुत उलझे देखे तो कहा कि इससे इतना भी नहीं हो सकता कि बालों को ठीक कर ले।

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दाँतों की सफ़ाई का भी बहुत ख़याल रखते थे। पाँचों वक़्त वुज़ू करते हुए आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मिस्वाक ज़रूर करते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि "मिस्वाक मुँह की सफ़ाई और अल्लाह की रज़ामन्दी है।"

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का लिबास कैसा था?

लिबास के बारे में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का तरीक़ा यह था कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) किसी ख़ास तरह के कपड़े के पाबन्द न थे, बल्कि हर वह कपड़ा जो सतर (वह अंग जिसका खोलना मना हो) को पूरी तरह छुपा सके आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इस्तेमाल करते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अच्छे से अच्छे कपड़े भी पहने हैं और मामूली से मामूली भी, यहाँ तक कि पैवन्द लगे कपड़े भी पहने हैं। जो लोग परहेज़गारी के ख़याल से अच्छे कपड़े और अच्छे खाने को मना करते हैं, या जो लोग मोटे-झोटे खाने-कपड़े को घमण्ड की वजह से नापसन्द करते हैं, दोनों का तरीक़ा प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के तरीक़े से अलग है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हमेशा बीच का रास्ता अपनाते थे।

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "जो कोई दुनिया में अपनी नेक-नामी के लिए कपड़े पहनेगा (चाहे अच्छा कपड़ा हो या फटा-पुराना हो) आख़िरत (परलोक) में अल्लाह उसे ज़िल्लत और बे-इज़्ज़ती का लिबास पहनाएगा।" आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह भी फ़रमाया, "जिस किसी ने घमण्ड से अपने कपड़े का दामन बड़ा रखा, क़ियामत के दिन अल्लाह उसकी तरफ़ न देखेगा।"

एक सहाबी ने मालूम किया, "ऐ अल्लाह के नबी! मैं हमेशा यह चाहता हूँ कि मेरा कपड़ा अच्छा हो, मेरा जूता अच्छा हो। क्या यह भी घमण्ड है?" आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "नहीं, अल्लाह सुन्दर है और सुन्दरता को पसन्द करता है— घमण्ड हक़ (सत्य) को ठुकराना और दूसरों को हक़ीर (तुच्छ) समझना है।"

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया है कि हमें ऐसे लिबास पहनने चाहिएँ जो पूरी-पूरी सतर-पोशी कर सकें और जिनसे हममें घमण्ड न पैदा हो सके। औरतों और मर्दों के लिबास में फ़र्क़ ज़रूरी है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "अल्लाह ने उन मर्दें पर लानत की है जो औरतों जैसे कपड़े पहनते हैं और उन औरतों पर भी लानत है जो मदों के लिबास की नक़ल करती हैं।"

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मर्दों के लिए रेशमी कपड़ा पहनना हराम किया है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को सफ़ेद रंग का कपड़ा बहुत पसन्द था। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, “सफ़ेद कपड़ा सबसे अच्छा है।" आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने लाल कपड़ा मर्दों के लिए नापसन्द किया है।

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कहना है, "टख़नों से ऊपर पाजामा और लुंगी रखने से इनसान हर तरह की (गन्दगियों) से पाक रहता है।" यानी रास्ते की गन्दगी और दिल की गन्दगी (घमण्ड) से बचा रहता है।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सादा, बावक़ार और सलीक़े का लिबास पहनने की हिदायत की है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बेढंगेपन के लिबास पसन्द नहीं करते थे।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) छींक और जमाही कैसे लेते थे?

हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) छींकते तो मुँह पर हाथ या कपड़ा रख लेते जिससे या तो आवाज़ बिल्कुल दब जाती या बहुत कम हो जाती। एक और हदीस में है कि "ऊँची जमाही और ऊँची छींक शैतान की तरफ़ से है, अल्लाह इन दोनों को नापसन्द करता है।"

एक बार एक व्यक्ति को आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सामने छींक आई। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने “यर-हमुकल्लाह" (अल्लाह तुमपर रहम करे) कहा। थोड़ी देर बाद उसे फिर छींक आई तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कुछ नहीं कहा बल्कि फ़रमाया, "इसे ज़ुकाम है।"

सही हदीस में है कि "अल्लाह छींक को दोस्त रखता है और जमाही से नफ़रत करता है (क्योंकि यह काहिली और सुस्ती की निशानी है)। जब छींक आए तो "अल्हम्दुलिल्लाह" (अल्लाह का शुक्र है) कहो, दूसरे को छींकते और यह कहते सुनो तो “यर-हमुकल्लाह" (अल्लाह तुमपर रहम करे) कहो, फिर छींकनेवाला जवाब में "यहदीकुमुल्लाहु व युस्लिहु बा-लकुम" (अल्लाह आपको हिदायत दे और मामलों को ठीक रखे) कहे। (हदीस: बुख़ारी)

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सलाम करने में पहल करते थे

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को सलाम करने की आदत बहुत पसन्द थी। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सलाम करने में हमेशा पहल करते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "तीन बातें जिस किसी में एक साथ जमा हो गईं, (समझ लो) उसमें ईमान जमा हो गया - (1) अपने नफ़्स के साथ इंसाफ़ करना (2) हर जाने-अनजाने को सलाम करना (3) तंगी में अल्लाह के नाम पर ख़र्च करना।" (हदीस: बुख़ारी)

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का तरीक़ा था कि जब कहीं वे जाते, सलाम करते। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "अगर कोई सलाम से पहले कुछ पूछे तो जवाब मत दो।”

एक बार कुछ लड़के खेल रहे थे, उनके पास से प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) गुज़रे तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनको सलाम किया। (हदीस: मुस्लिम)

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सलाम का जवाब हमेशा ज़बान से दिया करते थे। हाथ या उँगली के इशारे या सिर्फ़ सिर हिलाकर जवाब न देते। जब कोई किसी दूसरे का सलाम आकर पहुँचाता तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सलाम करनेवाले और पहुँचानेवाले दोनों को जवाब देते थे। फ़रमाते "अलैहि व अलैकुमुस्सलाम" (अर्थात उसपर भी और तुमपर भी सलामती हो)।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को सफ़ाई और सादगी पसन्द थी

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सफ़ाई, सुथराई और पाकीज़गी का बहुत ख़याल रखते थे। इसी लिए तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया है:

"सफ़ाई आधा ईमान है।"

एक बार एक व्यक्ति बहुत ही मैले कपड़े पहनकर आपके पास आया तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "क्या यह आदमी अपने कपड़े धोने की तकलीफ़ भी नहीं उठा सकता?"

एक बार एक ख़ुशहाल (धनवान) व्यक्ति आपके पास आया। वह बहुत ही घटिया कपड़े पहने हुए था। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उससे कहा, "अल्लाह ने तुमको माल और दौलत दी है, उसका इज़हार तुम्हारी ऊपरी हालत से भी होना चाहिए।"

मस्जिद की दीवारों पर अगर थूक वग़ैरा के निशान आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) देखते तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को बहुत ख़राब लगता। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ख़ुद छड़ी से खुरचकर उसे साफ़ कर देते। मस्जिद में ख़ुशबू के लिए लोबान वग़ैरा जलाने की हिदायत करते।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ख़ुद भी सादा ज़िन्दगी गुज़ारते थे और सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को भी इसी की नसीहत करते। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपना काम ख़ुद कर लिया करते थे।

इस्लाम से पहले अरब के रहनेवालों में सफ़ाई-सुथराई बिल्कुल न थी। वे जहाँ चाहते थूक देते और रास्ते में पेशाब या पाख़ाना कर दिया करते थे। प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इस आदत को बहुत नापसन्द करते थे और इससे मना करते थे। हदीसों में बहुत-सी रिवायतें मौजूद हैं कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन लोगों पर लानत की है जो रास्तों में या पेड़ों की छाया में पेशाब-पाख़ाना करते हैं। अमीर लोग अपनी काहिली की वजह से किसी बरतन में पेशाब कर लिया करते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इसको भी मना किया है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बैठकर पेशाब करने की हिदायत की है।

अरब में पेशाब करके इस्तिंजा करने या पेशाब से कपड़ों को बचाने का कोई दस्तूर (रिवाज) न था। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) एक बार कहीं जा रहे थे, रास्ते में दो क़ब्रें नज़र आईं, आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "इनमें से एक पर इसलिए अज़ाब हो रहा है कि वह अपने कपड़ों को पेशाब की छीटों से नहीं बचाता था।"

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दोस्तों का ख़याल रखते थे

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपने साथियों से बहुत मुहब्बत करते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कहा करते थे कि सच्चा मुसलमान वह है जो अपने दोस्तों से सच्ची मुहब्बत करे और उसके दोस्त उससे मुहब्बत करें। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सीरत को पढ़ने से हमें दोस्ती के बारे में नीचे दी हुई हिदायात मिलती हैं:-

1. हमेशा नेक, शरीफ़ और सच्चे व्यक्ति से दोस्ती करनी चाहिए।

2. दोस्ती सच्चाई के साथ करनी चाहिए, उसमें कोई मतलब या ग़रज़ शामिल न हो।

3. दोस्तों पर भरोसा करना चाहिए। उनके साथ ख़ैरख़ाही और वफ़ादारी का मामला करना चाहिए।

4. दोस्तों की ख़ुशी और दुख-दर्द में हमेशा शरीक रहें और उनसे मुस्कराते हुए मिलें।

5. अगर वे किसी मामले में सलाह माँगें तो ईमानदारी और सच्चे दिल से सलाह दें।

6. दोस्त की तरफ़ से अगर कोई बात मिज़ाज के ख़िलाफ़ भी हो तो ज़बान पर क़ाबू रखें और नर्मी से जवाब दें।

7. अगर किसी बात पर आपस में मतभेद हो जाए तो जल्द ही सुलह-सफ़ाई कर लें।

8. अपनी और अपने दोस्त की अच्छे ढंग से इस्लाह और सुधार की कोशिश करते रहें।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हमेशा अच्छा सुलूक करते थे

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हर एक से बहुत अख़्लाक़ से मिलते थे। पास बैठे हुए हर व्यक्ति से आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इस तरह बोलते थे जैसे सबसे ज़्यादा आप उसी से मुहब्बत करते हैं, और हर व्यक्ति यही महसूस करने लगता कि जैसे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सबसे ज़्यादा उसी को चाहते हैं।

जब कोई व्यक्ति कोई बात मालूम करता तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मुस्कराते हुए उसका जवाब देते। जब किसी ख़ानदान या क़बीले का कोई बा-इज़्ज़त आदमी आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास आता तो उसके पद के लिहाज़ से उसकी इज़्ज़त करते लेकिन दूसरों को नज़र-अन्दाज़ भी नहीं करते थे।

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हज़रत हसन (रज़ियल्लाहु अन्हु) को गोद में लिए प्यार कर रहे थे। एक सहाबी ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल! मैं तो अपनी औलाद का बोसा भी नहीं लेता।" आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा, "अगर अल्लाह तुम्हारे दिल से मुहब्बत को छीन ले तो मैं क्या करूँ।"

जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सहाबा की मजलिस में बैठते तो कभी उनकी तरफ़ पैर न फैलाते। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मशविरे के मोहताज न थे फिर भी सहाबा से हमेशा सलाह-मशविरे लेते रहते थे।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दूसरों के काम आते थे

दूसरों के बुरे वक़्त में काम आना, उनकी मदद करने के लिए हर वक़्त तैयार रहना, यह प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की एक नुमायाँ ख़ूबी थी, आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जनसेवा का नमूना थे।

एक बार हज़रत ख़ब्बाब बिन अरत (रज़ियल्लाहु अन्हु) किसी युद्ध में गए हुए थे। उनके घर में कोई और मर्द न था। औरतों को दूध दुहना नहीं आता था। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हर रोज़ उनके घर जाते और दूध दुह आया करते थे।

एक बार प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) नमाज़ के लिए नीयत बाँधने जा रहे थे कि एक बद्दू (देहाती) आया। वह आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का दामन पकड़कर बोला, "मेरी एक छोटी-सी ज़रूरत रह गई है, मैं भूल जाऊँगा, उसे इसी वक़्त पूरा कर दीजिए।" आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उसी वक़्त उसके साथ गए, उसका काम कर दिया और फिर वापस आकर नमाज़ पढ़ी।

विधवाओं और यतीमों, असहाय और लाचार लोगों की मदद करना न आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कोई बुराई समझते थे और न ऐसा करने में थकते थे, बल्कि उनकी सेवा करके इत्मीनान, सुकून और ख़ुशी महसूस करते थे। सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को भी आप इसकी हिदायत करते रहते थे।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मामले के खरे थे

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की अमानतदारी और मामलात (लेन-देन) की सफ़ाई की चर्चा बयान से बाहर है। ये ख़ूबियाँ आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पाक ज़ात में इस तरह नुमायाँ थीं कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दुश्मन भी उनका इनकार न कर सके। यही वजह है कि "सादिक़" (सच्चा) और "अमीन" (अमानतदार) की उपाधि आपको ख़ानदानवालों ने नहीं, दोस्तों ने नहीं, बल्कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दुश्मनों ने दी थी और वे इसी उपाधि से आपको पुकारा करते थे। मक्का के मुशरिकों के दिल आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की तरफ़ से ईर्ष्या, नफ़रत और दुश्मनी से भरे हुए थे मगर अपनी अमानतें (रुपया-पैसा, ज़ेवर आदि) वे आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ही के हवाले कर के सन्तुष्ट होते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सिवा वे किसी दूसरे पर भरोसा नहीं करते थे। आपको याद होगा कि मक्का से हिजरत करते वक़्त भी अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दुश्मनों की अमानतों को वापस करने का कितना अच्छा इन्तिज़ाम किया था।

एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने किसी से एक ऊँट उधार लिया। जब वापस किया तो उससे बेहतर ऊँट वापिस किया और कहा, "सबसे अच्छे वे लोग हैं जो उधार को अच्छी तरह से अदा करते हैं।"

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बहुत दरियादिल थे

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सख़ावत के दरिया थे। सवाल करनेवाले को ख़ाली हाथ वापिस करना आप जानते ही न थे। अगर उस वक़्त आपके पास कुछ न होता तो आगे उसे देने का वादा कर लेते।

एक दिन अस्र की नमाज़ पढ़कर मामूल (नियम) के ख़िलाफ़ आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) घर के अन्दर गए और फिर फ़ौरन वापिस भी आ गए। सहाबा को बहुत हैरत हुई। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनकी हैरत को दूर करने के लिए कहा, "कुछ सोना घर में पड़ा रह गया था। रात होने को आई, इसलिए उसे ख़ैरात (दान) कर देने को कहने गया था।"

एक बार बहरैन से ख़िराज (लगान) आया, उसमें इतने ज़्यादा रुपए थे कि इससे पहले कभी नहीं आए थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मस्जिद के सेहन में बैठकर बाँटना शरू कर दिया। शाम होने से पहले ही आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दामन झाड़कर उठ खड़े हुए।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास कोई भी खाने-पीने की चीज़ आती, तो आप उसे अकेले नहीं खाते थे, बल्कि तमाम सहाबा को, जो वहाँ मौजूद होते, उसमें शरीक कर लेते थे।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बहुत विनम्र स्वभाव के थे

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कभी सिर उठाकर घमण्ड के अन्दाज़ में नहीं चलते थे। आप हमेशा निगाह नीची रखते थे। जब दूसरों के साथ चलते तो ख़ुद पीछे चलते और दूसरों को आगे कर देते। आप बड़ी ख़ाकसारी (विनम्रता) के साथ बैठते। खाना खाते वक़्त ग़ुलामों की तरह बैठते। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कहा करते थे, "मैं अल्लाह का हुक्म माननेवाला बन्दा हूँ और उसके ग़ुलामों की तरह खाना खाता हूँ।

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जब किसी मजलिस में पहुँचते तो बैठे हुए लोगों के सिरों को फान्दते हुए नहीं जाते थे, बल्कि पीछे की सफ़ (पंक्ति) में जहाँ जगह मिलती बैठ जाते। जब आपको आता देखकर सहाबा इज़्ज़त के लिए खड़े हो जाते तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कहते, "मेरी इज़्जत के लिए खड़े होकर अजमियों (ग़ैर-अरबवालों) की नक़ल न करो।"

मक्का की विजय के अवसर पर जब आप शहर में दाख़िल हो रहे थे तो आजिज़ी और विनम्रता से अपने पाक सिर को इतना झुका लिया था कि वह ऊँट के कजावे को छू रहा था। एक व्यक्ति आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास आया और आपकी बा-रोब हस्ती को देखकर काँपने लगा। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उसके पास गए और कहा, "मैं तो उस ग़रीब क़ुरैशी औरत का बेटा हूँ जो सूखा गोश्त पकाकर खाती थी।"

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को घमण्ड पसन्द न था

इनसान में जब कोई ख़ास ख़ूबी या कमाल पैदा हो जाता है तो क़ुदरती तौर पर वह ख़ुद भी उसे महसूस करने लगता है। यह कोई ख़राब आदत नहीं है, बल्कि इसी को 'फख़्र करना' कहते हैं। लेकिन जब वह दूसरे लोगों को जिनमें यह ख़ूबी या कमाल नहीं होता, अपने से ज़लील या कम दर्जे का समझने लगता है तो इसी को 'घमण्ड' कहते हैं। घमण्ड की आदत को अल्लाह बिलकुल पसन्द नहीं करता।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत में एक सुन्दर व्यक्ति हाज़िर हुआ और कहने लगा, "मुझे सुन्दरता पसन्द है और मैं यह नहीं चाहता कि सुन्दरता में कोई भी मुझसे बाज़ी ले जाए। क्या यह घमण्ड है?" आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जवाब दिया, "नहीं यह घमण्ड नहीं है। घमण्ड तो यह है कि तुम दूसरों को अपने से हक़ीर (कम दर्जे का) समझो।"

एक और मौक़े पर अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "जिस व्यक्ति के दिल में राई के दाने के बराबर भी घमण्ड होगा, वह जन्नत में न जाएगा।"

अल्लाह हमें इस बुरी आदत से बचाए।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बहुत मेहमान-नवाज़ थे

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मेहमानों का बहुत ख़याल रखते थे। इस काम के लिए आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत बिलाल (रज़ियल्लाहु अन्हु) को ख़ास तौर पर नियुक्त कर दिया था ताकि मेहमान की ख़ातिरदारी ठीक से हो सके। बाहर से जो वफ़्द (प्रतिनिधिमण्डल) आते आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ख़ुद उनकी ख़ातिर और आवभगत करते थे। अगर उनको कोई माली ज़रूरत होती तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उसका भी इन्तिज़ाम कर देते। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़ातिरदारी ग़ैर-मुस्लिम और मुसलमान दोनों के लिए आम थी। कोई ग़ैर-मुस्लिम भी आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के यहाँ आ जाता तो उसकी ख़ातिरदारी भी मुसलमान मेहमानों की तरह से होती।

अकसर ऐसा होता कि घर में खाने-पीने का जो सामान होता वह मेहमानों के सामने रख दिया जाता और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के घरवाले फ़ाक़ा से (बग़ैर खाए-पिए) रह जाते।

एक दिन असहाबे-सुफ़्फ़ा को लेकर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के घर पहुँचे (ख़ुद आपके यहाँ कुछ न था) और खाना लाने के लिए कहा। चूनी का पका हुआ खाना लाया गया, फिर छुहारे का हरीरा आया और आख़िर में एक बड़े प्याले में दूध— यही कुल खाना था।

रातों को उठ-उठकर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मेहमानों का हाल मालूम करते।

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "मेहमान के लिए जाइज़ नहीं कि वह मेज़बान के यहाँ इतना ठहरे कि उसको परेशानी में डाल दे। "

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बहुत ख़ुद्दार थे

सिवाय इसके कि जब किसी की ज़रूरत उसे हाथ फैलाने पर बिल्कुल मजबूर कर दे, प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सवाल करने और भीख माँगने को बहुत ज़्यादा नापसन्द करते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का इरशाद है कि "अगर कोई व्यक्ति लकड़ी का गठ्ठा पीठ पर लादकर लाए और बेचकर अपनी इज़्ज़त बचाए तो यह इससे अच्छा है कि वह लोगों से सवाल करे।"

एक बार एक अंसार आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास आए और कुछ सवाल किया। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पूछा, "तुम्हारे पास कुछ है?" वे बोले बस एह बिछौना और एक प्याला है।" आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन्हें लेकर बेच दिया और पैसे उस अंसारी को देकर कहा, "एक दिरहम का खाना लाकर घर में दे आओ और दूसरे से रस्सी ख़रीद कर जंगल में जाओ, लकड़ी बाँधकर लाओ और शहर में बेच लो।" पन्द्रह दिन के बाद वे अंसारी आए। उनके पास कुछ दिरहम जमा हो गए थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "यह अच्छा है या यह कि क़ियामत के दिन चेहरे पर गदागरी (माँगने का) दाग़ लगाकर जाते?" आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "लोगों के सामने हाथ फैलाना सिर्फ़ तीन व्यक्तियों के लिए मुनासिब है—

(1) वह व्यक्ति जो बहुत ज़्यादा क़र्ज़दार हो।

(2) वह व्यक्ति जिसपर अचानक कोई मुसीबत आ पड़ी हो।

(3) वह व्यक्ति जो कई दिन से भूखा हो।

इनके अलावा अगर कोई कुछ माँगता है तो वह हराम खाता है।"

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बराबरी का बरताव करते थे

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की नज़र में अमीर और ग़रीब, छोटे और बड़े, ग़ुलाम और आक़ा सब बराबर थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सबके साथ बराबर का सुलूक किया करते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जब सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) के साथ बैठे होते और कोई चीज़ वहाँ लाई जाती तो बिना किसी फ़र्क़ के दाईं तरफ़ से उसको बाँटना शुरू कर देते। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपने लिए भी किसी तरह का कोई फ़र्क़ पसन्द न करते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हमेशा सबके साथ मिल-जुलकर रहते। दूसरों से हटकर अपने लिए कोई ख़ास जगह भी पसन्द न करते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सबके साथ मिल-जुलकर काम किया करते थे या उनका हाथ बँटाया करते थे।

देख लीजिए, अहज़ाब की जंग के लिए तैयारी हो रही है, मदीना की हिफ़ाज़त के लिए ख़न्दक़ खोदी जा रही है। तमाम सहाबा ख़न्दक़ खोद रहे हैं और मिट्टी ला-लाकर बाहर फेंक रहे हैं, वह देखिए नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) भी सबके साथ बराबर के शरीक हैं। पाक बदन मिट्टी से अटा हुआ है, तीन दिन का फ़ाक़ा है मगर फिर भी मुस्तैदी (तत्परता) में कोई कमी नहीं। याद होगा कि मस्जिदे नबवी के निर्माण में भी आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मज़दूरों की तरह सबके साथ शरीक रहे थे।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ईसार के आदी थे

सख़ावत का सबसे ऊँचा दर्जा ईसार (त्याग) कहलाता है। इसका मतलब यह है कि अपनी ज़रूरत रोककर दूसरे की ज़रूरत पूरी कर देना। ख़ुद भूखा रहे और दूसरों को खिलाए, ख़ुद तकलीफ़ उठाए और दूसरों को आराम पहुँचाने की कोशिश करे। इससे आपस के सम्बन्ध मज़बूत होते हैं, भाईचारा पैदा होता है और फिर अल्लाह भी ख़ुश होता है।

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़िन्दगी इस तरह के वाक़िआत से भरी पड़ी है। एक बार एक मुसलमान औरत ने अपने हाथ से एक चादर बुनकर नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत में तोहफ़े के तौर पर पेश की। उस वक़्त आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को चादर की बहुत ज़रूरत थी। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उस तोहफ़े को क़बूल कर लिया। उसी वक़्त एक सहाबी ने कहा, "ऐ अल्लाह के नबी! यह चादर तो बहुत ख़ूबसूरत है, मुझे इनायत कर दें तो बड़ा अच्छा हो।"

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ईसार से काम लिया और फ़ौरन वह चादर उन सहाबी को दे दी जबकि आपको ख़ुद ज़रूरत थी, मगर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनकी ज़रूरत को तरजीह दी।

ऐसी ही मिसालें हमारे लिए अँधेरे का चिराग़ हैं। अल्लाह हमें उनपर अमल करने की तौफ़ीक़ दे। अमीन!

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बहुत बहादुर थे

बहुत नर्मदिल और रहमदिल होने के बावजूद प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बहुत ही निडर और बहादुर थे। अल्लाह के डर के अलावा किसी और का डर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दिल में न था। बिना किसी संकोच के आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मुक़ाबले के लिए निकल आते थे।

एक बार रात के वक़्त मदीना में कुछ शोर हुआ। मदीनावाले घबरा गए। समझे कि मक्का के क़ुरैश ने अचानक हमला कर दिया है। किसी की हिम्मत न हुई कि बाहर निकलकर हालात मालूम करे। आख़िर में कुछ लोगों ने हिम्मत करके बाहर जाने का इरादा किया तो देखा कि अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बिल्कुल अकेले वापस आ रहे हैं और सबको तसल्ली देते जा रहे हैं कि "घबराओ नहीं, मैं मदीना से बाहर जाकर देख आया हूँ, कोई डर की बात नहीं है।"

हुनैन की जंग में जब दुश्मनों ने चारों तरफ़ से घिराव कर लिया था तो ऊँटनी से उतरकर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हमला करनेवालों का जिस निडरता से मुक़ाबला किया था उसे देखकर सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) हैरान रह गए थे।

दुश्मनों का मशहूर पहलवान रुकाना ने जब इस्लाम क़बूल करने के लिए यह शर्त रखी कि "अगर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कुश्ती में मुझे हरा देंगे तो मैं मुसलमान हो जाऊँगा।" तो देखनेवाली आँखें फटी की फटी रह गईं कि एक या दो बार नहीं, बल्कि लगातार तीन बार आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसको चित कर दिया। आख़िर रुकाना ने इस्लाम क़बूल कर लिया।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) माफ़ कर दिया करते थे

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की अच्छी ख़ूबियों में से एक बड़ी ख़ूबी सब्र करना और माफ़ कर देना भी है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हमेशा माफ़ी और दरगुज़र से काम लिया है। हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं कि "नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कभी किसी से अपने निजी मामले में बदला नहीं लिया।” क़ुरैश ने आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को गालियाँ दीं, मार डालने की धमकी दी, रास्ते में काँटे बिछाए, पाक बदन पर गन्दगी डाली, गरदन में फन्दा डालकर घोंटने की कोशिश की, आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की शान में हर तरह की गुस्ताख़ियाँ कीं, तौबा-तौबा! आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को पागल, जादूगर और शायर कहा, मगर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कभी उनकी इन हरकतों पर नाराज़गी नहीं दिखाई, बल्कि हमेशा माफ़ कर दिया।

और तो और ताइफ़वालों ने आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ क्या कुछ नहीं किया, यहाँ तक कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) लहूलुहान (जख़्मी) हो गए, आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जूते ख़ून से भर गए, लेकिन जब अल्लाह ने मालूम कराया कि अगर तुम चाहो तो ताइफ़वालों को इन हरकतों के बदले में पीसकर रख दूँ। तो याद है आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने क्या जवाब दिया था। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की आँखों से आँसू जारी हो गए थे और फ़रमाया था, "ऐ अल्लाह इनको माफ़ कर दे, ये मुझे पहचानते नहीं हैं, हो सकता है कि इनकी औलाद इस्लाम क़बूल कर ले।"

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बीमारों की देखभाल करते थे

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जब भी किसी की बीमारी की ख़बर सुनते तो उसका हाल-चाल मालूम करने के लिए ज़रूर जाते, बड़े-छोटे और अमीर-ग़रीब में कोई फ़र्क न करते।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मरीज़ के पास जाते, उसके सिरहाने बैठते, सिर और नब्ज़ पर हाथ रखते, हाल-चाल मालूम करते, उसे तसल्ली देते और फिर सेहत के लिए सात बार यह दुआ करते—

अस-अलुल्लाहल अज़ीम, रब्बल अर्शिल अज़ीमि अंय-यशफ़ि-य-क।

“मैं बड़ाईवाले अल्लाह से, जो अर्शे-अज़ीम (बड़े आकाश) का रब है, सवाल करता हूँ कि वह तुझे ठीक कर दे।"

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि "मरीज़ के पास ज़्यादा देर तक न बैठना और शोर-ग़ुल न करना सुन्नत है।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "क़ियामत के दिन अल्लाह कहेगा कि "ऐ आदम के बेटे! मैं बीमार पड़ा और तूने मेरी इयादत (देखभाल) नहीं की?" बन्दा पूछेगा, "ऐ अल्लाह! आप तो सारी दुनिया के रब हैं भला मैं आपकी इयादत कैसे करता?" अल्लाह कहेगा, "मेरा फ़लाँ बन्दा बीमार पड़ा तो तूने उसकी इयादत नहीं की। अगर तू उसकी इयादत को जाता तो मुझे वहाँ पाता (यानी तुझे मेरी ख़ुशी और रहमत मिलती)।" (हदीस : मुस्लिम)

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ग़ैर-मुस्लिमों की भी इयादत करते थे

सिर्फ़ मुसलमानों के साथ ही नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का यह तरीक़ा न था, बल्कि ग़ैर-मुस्लिमों के साथ भी आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का ऐसा ही सुलूक था। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तो अपने दुश्मनों तक के पास उनकी बीमारी का हाल पूछने जाते।

आपने पढ़ा होगा कि जिस रास्ते से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का निकलना होता था वहीं पर एक यहूदी का घर था। वह आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को बहुत सताया करता था। जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उस रास्ते से गुज़रते तो वह आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर कूड़ा-करकट फेंक दिया करता था। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उससे कुछ न कहते थे। कपड़े झाड़कर मुस्कराते हुए गुज़र जाते। इत्तिफ़ाक़ की बात, एक दिन उसने आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर कूड़ा नहीं फेंका। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को बहुत हैरत हुई। लोगों से उसके बारे में मालूम किया। पता चला कि वह बीमार है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उसकी इयादत के लिए पहुँच गए। उसने जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को देखा तो शर्म से पानी-पानी हो गया और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इस सुलूक से इतना प्रभावित हुआ कि उसी वक़्त कलिमा पढ़कर मुसलमान हो गया।

एक यहूदी लड़का नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत किया करता था। एक बार वह बीमार पड़ा। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उसकी इयादत के लिए गए। उसके सिरहाने बैठे। तसल्ली दी और इस्लाम की दावत दी। वह लड़का मुसलमान हो गया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) यह कहते हुए वापस आए—

"ख़ुदा का शुक्र है जिसने इस लड़के को जहन्नम से बचा लिया।'’

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बहुत इबादतगुज़ार थे

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर अल्लाह का डर हर वक़्त छाया रहता था। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उठते-बैठते और चलते-फिरते अल्लाह को याद करते और किसी वक़्त भी अपने रब की याद से बेख़बर न रहते। रमज़ान का महीना तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की इबादत के लिए बहार का मौसम होता था।

जब भी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) क़ुरआन मजीद पढ़ते या दूसरे की ज़बान से सुनते तो अल्लाह की मुहब्बत और उसके डर की वजह से आपकी आँखों से आँसू जारी हो जाते।

फ़र्ज़ नमाज़ों के अलावा आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इतना ज़्यादा नफ़िल नमाज़ें पढ़ते कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पैर सूज जाते। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि "नमाज़ मेरी आँखों की ठण्डक और मोमिनों के लिए मेराज है।" आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) रातों को सोते-सोते उठते और इबादत में मशग़ूल हो जाते। नमाज़ में सफ़ें सीधी रखने का बहुत एहतिमाम करते।

रमज़ान के अलावा भी आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बहुत रोज़े रखते। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपने घर जाकर कोई चीज़ खाने के लिए माँगते। जब मालूम होता कि खाने को कुछ नहीं है तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) फ़रमाते, "आज हमारा रोज़ा रहेगा।"

जब भी आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास कहीं से कोई रक़म आती, उसे जब तक ज़रूरतमन्दों में बाँट न देते आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को चैन न आता। ख़ुद फ़ाक़ा कर लेते मगर दूसरों के पेट भरना आप अपने लिए ज़रूरी समझते थे।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को क़ुरआन की तिलावत का बहुत शौक़ था

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने क़ुरआन मजीद पढ़ने का जो वक़्त तय कर रखा था उसके अलावा भी हर वक़्त आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पाक ज़बान क़ुरआन मजीद की तिलावत से तर रहती थी। उठते-बैठते, चलते-फिरते, यहाँ तक कि हर हाल में आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तिलावत करते रहते। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बड़ी प्यारी आवाज़ में तिलावत करते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हिदायत थी कि “क़ुरआन को अपनी आवाज़ से ज़ीनत (शोभा) दो, जो ऐसा न करे वह हममें से नहीं।"

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दूसरों की ज़बान से भी क़ुरआन मजीद सुनने के बहुत शौक़ीन थे। सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से क़ुरआन सुनाने की फ़रमाइश किया करते थे। एक बार हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) को क़ुरआन सुनाने का हुक्म दिया। उन्होंने बहुत मधुर स्वर में तिलावत शुरू की। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इतने प्रभावित हुए कि आँखों से आँसू जारी हो गए।

क़ुरआन मजीद की तिलावत के बारे में हमें यह हिदायतें (निर्देश) मिलती हैं:

(1) वुज़ू करके तिलावत करना चाहिए और जिस जगह बैठकर तिलावत करें वह जगह पाक और साफ़ होनी चाहिए,

(2) तिलावत के वक़्त काबा की तरफ मुँह करके बैठना चाहिए और दिल लगाकर ध्यान के साथ तिलावत करना चाहिए, और

(3) तिलावत दरमियानी आवाज़ से करना चाहिए।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कैसे सोते थे?

अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इशा की नमाज़ से पहले कभी न सोते थे, नमाज़ के बाद सोने की तैयारी करते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) रात में जल्दी सोते और जल्दी उठते थे। सोने से पहले आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बिस्तर अच्छी तरह झाड़ लेते थे। बिस्तर पर पहुँचकर आप क़ुरआन मजीद का कुछ हिस्सा ज़रूर पढ़ते थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "जो व्यक्ति सोने से पहले क़ुरआन की कोई सूरा पढ़ता है तो अल्लाह उसके पास एक फ़रिश्ता भेजता है जो जागने तक उसकी हिफ़ाज़त करता है।"

जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सोने का इरादा करते तो दाहिना हाथ अपने दाहिने गाल के नीचे रखकर दाहिनी करवट पर लेटते। पट या बाईं करवट पर लेटने से आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मना किया और फ़रमाया कि "इस तरह लेटना अल्लाह को नापासन्द है।" सोने से पहले आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) यह दुआ पढ़ते:

अल्लाहुम्-म बिस्मि-क अमूतु व अह्या

"ऐ अल्लाह! मैं तेरे ही नाम से मरता हूँ और तेरे ही नाम से ज़िन्दा रहूँगा।"

जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) नींद से उठते तो यह दुआ पढ़तेः

अल्हम्दुलिल्लाहिल्लज़ी अह्याना बअ-दमा अमा-तना व इलैहिन्नुशूर

"सब तारीफ़ें अल्लाह ही के लिए हैं जिसने हमें मरने के बाद ज़िन्दा किया और उसी की तरफ़ जाना है।"

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ऐसे थे!

हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) से मालूम किया गया कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का सुलूक अपने साथियों के साथ कैसा था तो उन्होंने जवाब दिया कि—

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)

★ हर एक से मुस्कराते हुए मिलते थे।

★ बहुत नर्म मिज़ाज थे, स्वभाव में सख़्ती न थी।

★ सहूलत और आसानी को पसन्द करते थे।

★ कभी ग़लत बात ज़बान से न निकालते थे।

★ किसी में दोष नहीं निकाला करते थे।

★ घमण्ड से बहुत दूर रहते थे।

★ फ़ुज़ूल और बेकार बातों से हमेशा परहेज़ करते थे।

★ न किसी की बुराई करते और न किसी को नीचा समझते थे।

★ किसी के छिपे हुए दोषों को ज़ाहिर करके उसे शर्मिन्दा नहीं करते थे।

★ माल और दौलत का लालच नहीं करते थे, और

★ अगर आपको कोई चीज़ न आती तो उसे छोड़ देते, न उसकी बुराई करते और न दिलचस्पी दिखाते।

कितने अच्छे थे प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)!

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की दुआएँ

• दुआ सिर्फ़ अल्लाह से माँगिए, हमारी ज़रूरतें सिर्फ़ वही पूरी कर सकता है।

• दुआ इबादत का जौहर (अस्ल) है और इबादत का हक़दार सिर्फ़ अल्लाह है।

• जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बिस्तर पर तशरीफ़ ले जाते तो दोनों हथेलियों को जोड़ लेते और सूरा इख़्लास (112), सूरा फ़लक़ (113) और सूरा अन्-नास (114) पढ़कर उनपर फूंकते और अपने जिस्म पर जहाँ तक हो सकता हाथ फेर लिया करते थे। पहले सिर, चेहरे और जिस्म के अगले हिस्से से शुरू करते। इस तरह आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तीन बार करते।

• आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को जब पाख़ाने जाना होता तो जूता और टोपी पहन लेते और यह दुआ पढ़ते:

अल्लाहुम्-म इन्नी अऊज़ु बि-क मि-नल ख़ुबसि वल ख़बाइस। (बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी, इब्ने-माजा)

"ऐ अल्लाह, मैं गन्दगी और गन्दी चीज़ों से तेरी पनाह चाहता हूँ।"

 • जब पाख़ाने से बाहर निकलते तो यह दुआ पढ़ते:

अल्हम्दु लिल्लाहिल्लज़ी अज़्-ह-ब अन्निल अज़ा व आफ़ानी। (इब्ने-माजा)

"शुक्र है अल्लाह का जिसने मुझसे तकलीफ़ दूर कर दी और आफ़ियत बख़्शी।"

 • आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम पढ़कर वुज़ू करना शुरू करते।

 • आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) वुज़ू करते हुए यह दुआ पढ़ते:

अल्लाहुम्मग़-फ़िरली ज़म्बी व वस्सिअ ली फ़ी दारी व बारिक ली फ़ी रिज़क़ी। (नसई)

"ऐ अल्लाह, मेरे गुनाहों को बख़्श दे और मेरे घर में मेरे लिए कुशादगी (खुलापन) पैदा कर दे और मेरी रोज़ी में बरकत कर दे।"

 • वुज़ू के बाद यह दुआ पढ़ते:

(1) अश-हदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाहु वह्-दहू ला शरी-क लहू व अश-हदु अन्-न मुहम्मदन अब्दुहू व रसूलुहू। (मुस्लिम)

"मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं, वह अकेला है, उसका कोई साझी नहीं। और मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उसके बन्दे और रसूल हैं।"

(2) अल्लाहुम्मज-अलनी मि-नत्-तव्वाबी-न वज-अलनी मि-नल मु-त-तह्-हिरीन। (मुस्लिम)

"ऐ अल्लाह मुझे बार-बार तौबा करनेवाला और पाक ज़िन्दगी इख़्तियार करनेवाला बना दे।"

 • अज़ान के बाद की दुआ:

अल्लाहुम-म रब्-ब हाज़िहिद्-दअवतित-ताम्मति वस-सलातिल क़ाइ-म-ति आति मुहम्म-द-निल वसी-ल-त वल फ़ज़ी-ल-त वब-अस-हु मक़ामम-महमू-द निल-लज़ी व अत्-त-हू वरजुक़ना शफ़ाअ-त-हू, इन्न-क ला तुख़लिफुल मीआद। (बुख़ारी, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, अहमद)

"ऐ अल्लाह! ऐ इस कामिल दावत और क़ायम होनेवाली नमाज़ के रब! हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को वसीला और फज़ीलत अता कर और उन्हें मक़ामे महमूद पर फ़ाइज़ कर, जिसका तूने वादा किया है, और हमें आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की शफ़ाअत अता कर, बेशक तू वादा-ख़िलाफ़ी नहीं करता।

 • मस्जिद में दाख़िल होते वक़्त पहले अपना दाहिना पैर अन्दर रखें फिर बायाँ। उसके बाद नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर दुरूद भेजें और यह दुआ पढ़ें:

अल्लाहुम-मफ़-तह्ली अबवा-ब रह-मतिक।

"ऐ अल्लाह, मेरे लिए अपनी रहमत के दरवाज़े खोल दे।"

मस्जिद से निकलते वक़्त पहले बायाँ फिर दाहिना पैर बाहर रखें और यह दुआ पढ़ें:

अल्लाहुम-म इन्नी अस-अलु-क मिन फ़ज़लिक।

"ऐ अल्लाह, मैं तुझसे तेरा फ़ज़्ल चाहता हूँ।"

 • नमाज़ के बाद की दुआएँ:

1. नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सलाम फेरने के बाद तीन बार 'अस्तग़फ़ि रुल्लाह' कहते फिर दुआ माँगते।

2. नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत मआज़ का हाथ पकड़कर फ़रमाया: "ऐ मआज़! मुझे तुमसे मुहब्बत है और मैं तुम्हें वसीयत करता हूँ कि तुम हर नमाज़ के बाद इस दुआ को पढ़ना न छोड़ना।" वह दुआ यह है—

रब्बि अइन्नी अला ज़िकरि-क व शुकरि-क व हुसनि इबा-दति-क। (अबू-दाऊद, नसई, अहमद)

"ऐ मेरे रब, तू मेरी मदद कर! अपने ज़िक्र, अपने शुक्र और अपनी अच्छी इबादत करने के सिलसिले में।"

3. नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि फ़ज्र और मग़रिब की नमाज़ के बाद किसी से बात करने से पहले सात बार यह दुआ पढ़ लिया करो। अगर उसी दिन या उसी रात में मर जाओगे तो तुम जहन्नम से ज़रूर निजात पाओगे।

अल्लाहुम्-म अजिरनी मि-नन्नारि।

"ऐ ख़ुदा मुझे जहन्नम की आग से पनाह दे।"

 • प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) फ़ज्र की सुन्नतों के बाद तीन बार यह दुआ पढ़ते:

अस्तग़फ़िरुल्लाहल्लज़ी ला इला-ह इल्ला हु-वल हय्युल क़य्यूम व अतूबु इलैहि। (अल-अज़कार लिन्नव्वी)

"मैं अल्लाह की बख़्शिश चाहता हूँ जिसके सिवा कोई माबूद नहीं, जो हमेशा रहनेवाली हस्ती है, और मैं उसी की तरफ़ लौटता हूँ।"

 • मग़रिब की नमाज़ के बाद यह पढ़ें:

या मुक़ल्लि-बल क़ुलूबि सब्बित क़ुलू-बना अला दीनि-क। (अल-अज़कार लिन्नव्वी)

"ऐ दिलों को फेरनेवाले! हमारे दिलों को अपने दीन पर जमाए रख।"

 • खाना शुरू करते वक़्त अगर बिस्मिल्लाह पढ़ना भूल जाएँ तो खाने के बीच में यह कहें:

बिसमिल्लाहि अव्-व-लहू व आख़ि-रहू। (मुसनद अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी)

"अल्लाह के नाम से उसके शुरू में भी और आख़िर में भी।"

 • जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) किसी के मरने की ख़बर सुनते तो यह पढ़ते:

इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन।

"हम सब ख़ुदा ही के लिए हैं और उसी की तरफ़ पलटनेवाले हैं।"

जब कोई तकलीफ़ पहुँचती या कोई नुक़सान होता तब भी आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) यह दुआ पढ़ते:

इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन।

"हम सब ख़ुदा ही के लिए हैं और उसी की तरफ़ पलटनेवाले हैं।"

 • जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कोई अच्छी चीज़ या किसी को अच्छे हाल में देखते तो यह फ़रमाते:

माशा अल्लाहु ला क़ुव्व-त इल्ला बिल्लाह।

“जो कुछ अल्लाह ने चाहा (और) क़ुव्वत तो सिर्फ़ अल्लाह ही की है।"

 • जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) नया कपड़ा पहनते तो यह दुआ पढ़ते:

अलहम्दु लिल्लाहिल्-लज़ी कसानी हाज़ा व-र-ज़-क़-नीहि मिन ग़ैरि हौलिम मिन्नी वला क़ुव्वतिन।

"अल्लाह की तारीफ़ है जिसने मुझे यह लिबास पहनाया और बग़ैर मेरी ताक़त और क़ुव्वत के मुझे ग़ैब से यह अता फ़रमाया।"

 • ग़ुस्सा दूर करने के लिए आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) यह पढ़ते:

अऊज़ु बिल्लाहि मि-नश-शैतानिर-रजीम।

"मैं अल्लाह की पनाह चाहता हूँ मरदूद शैतान से।"

 • जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) क़ब्रिस्तान जाते तो यह दुआ पढ़ते:

अस्सलामु अलैकुम अह-लद्दियारि मि-नल मोमिनी-न व इन्ना इंशाअल्लाहु बिकुम लाहिक़ू-न, नस-अलुल्ला-ह लना व लकुमुल आफ़ियह। (मुस्लिम, नसई, इब्ने-माजा, अहमद)

"सलाम हो तुमपर ऐ इस दयार के ईमानवालो! हम यक़ीनन इंशाअल्लाह तुमसे मिलनेवाले हैं। हम अल्लाह से अपने और तुम्हारे लिए आफ़ियत चाहते हैं।"

 • जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) नया चाँद देखते तो यह दुआ पढ़ते:

अल्लाहुम्-म अहिल्लहू अलैना बिल अमनि वल ईमानि वस्सलामति वल इस्लामि हिला-ल रुशदिन व ख़ैरिन रब्बी व रब्बुकल्लाह। (तिरमिज़ी, अहमद)

"ऐ अल्लाह! यह चाँद हमपर अम्न, ईमान और सलामती और इस्लाम के साथ निकाल, भलाई और बेहतरी का चाँद है, मेरा और तेरा रब अल्लाह है।

 • हाथ मिलाते वक़्त आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) यह दुआ पढ़ते:

यग़फ़िरुल्लाहु लना व लकुम।

"अल्लाह हमारी और तुम्हारी मग़फ़िरत फ़रमाए।"

 • आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) किसी के यहाँ दावत में जाते तो खाना खाने के बाद यह दुआ पढ़ते:

अल्लाहुम-म बारिक फ़ीमा र-ज़क़-तहुम वग़फ़िर लहुम वर-हमहुम। (मुस्लिम)

"ऐ अल्लाह! इनके रिज़्क़ में बरकत दे और इनको बख़्श दे और इनपर रहम फ़रमा।"

 • बारिश शुरू होने पर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) यह दुआ पढ़ते:

अल्लाहुम-म सय्यिबन नाफ़िआ। (अबू-दाऊद)

"ऐ अल्लाह नफ़ा देनेवाली बारिश अता फ़रमा।"

 • किसी को रुख़सत करते वक़्त पढ़ते:

असतौ-दिउल्ला-ह दी-न-क व अमा-न-त-क व ख़वाती-म अ-म-लिक। (अबू दाऊद, तिरमिज़ी)

मैं तेरे दीन, तेरी अमानत और तेरे आमाल के अन्जाम को ख़ुदा की हिफ़ाज़त में देता हूँ।"

 • तोहफ़ा देनेवाले को आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) यह दुआ देते:

बा-र-कल्लाहु फ़ी अहलि-क वमालि-क। (बुख़ारी)

"ख़ुदा तुम्हारे अहलो-अयाल (बाल-बच्चों) और माल में बरकत दे।"

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