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कुरआन की शिक्षाएँ आज के माहौल में

कुरआन की शिक्षाएँ आज के माहौल में

वारिस मज़हरी

अनुवाद : मुहम्मद इलयास हुसैन, मुहम्मद आबिद हामिदी

विषय-सूची
1. दो शब्द
2. क़ुरआन और तौहीद का तसव्वुर

3. क़ुरआन में ग़ौरो-फ़िक्र की दावत

4. क़ुरआन और अम्न-शान्ति

5. क़ुरआन में मानव-अधिकार

6. क़ुरआन और न्याय

-बातचीत के हवाले से
- मामलों के हवाले से
7. क़ुरआन और समाज-सुधार

8. कुरआन की नैतिक शिक्षाएँ

9. कुरआन और जिहाद

10. क़ुरआन और गैर-मुस्लिम

11. कुरआन और धार्मिक उदारता

12. कुरआन का पसन्दीदा इनसान

13. क़ुरआन खुद कुरआन की नज़र में

 

 

बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान, निहायत रहमवाला है।'

 

दो शब्द

कुरआन ख़ुदा की आख़िरी किताब है और अपनी अस्ल और महफूज़ शक्ल में इनसान के पास सिर्फ यही किताब बाक़ी रह गई है। कुरआन इसलिए उतारा गया है कि वह इनसान को जिहालत और गुमराही के अन्धेरे से निकालकर ज्ञान और मार्गदर्शन की रोशनी में ले आए। कुरआन के आने के बाद दुनिया में जो क्रान्ति आई, उसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। कुरआन ने दुनिया के असभ्य समाज को सभ्यता और संस्कृति का पाठ पढ़ाया। उसे खुदा की मर्ज़ी और इनसान की मुहब्बत के साथ जीना सिखाया। इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता है कि दुनिया पर कुरआन से ज्यादा किसी दूसरी किताब का असर नहीं पड़ा। आज भी दुनिया में सबसे ज्यादा बिकनेवाली और पढ़ी जानेवाली किताब कुरआन मजीद ही है। आइए देखते हैं कि क़ुरआन आज के माहौल में किस तरह प्रसांगिक है।

 

इस्लाम के बारे में इस समय दुनिया में जो ग़लतफ़हमी फैली हुई है और इसमें दिन-प्रतिदिन जो बढ़ोत्तरी हो रही है, इसकी वजह यह है कि लोग खुद निष्पक्ष होकर क़ुरआन का अध्ययन नहीं करते। इस सम्बन्ध में मुसलमानों पर यह ज़िम्मेदारी आती है कि वे कुरआन मजीद की शिक्षाओं को अस्ल रूप में दुनिया के सामने पेश करें और गैर-मुस्लिम भाइयों की संजीदगी का तक़ाज़ा यह है कि वे सही पसमंज़र (परिप्रेक्ष्य) में कुरआन के अध्ययन के जरीए से इसकी अस्ली और सही-सही जानकारी और समझ हासिल करने की कोशिश करें और उस प्रोपगेंडे से प्रभावित न हों, जो इसके ख़िलाफ़ किया जा रहा है। कुरआन पर जुल्म होने की इस हालत की एक बड़ी वजह खुद मुसलमानों का अपना रवैया भी है। वे इसके माने और मतलब को समझे बगैर सिर्फ इसे तिलावत और दुनियवी परेशानियों और जिस्मानी बीमारियों के इलाज की किताब समझते हैं। इस तरह अंश ने पूर्ण और पूर्ण ने अंश की जगह ले ली है।

इस किताब में मौजूदा दौर में कुरआन की शिक्षाओं की अहमियत को उजागर करने की एक छोटी-सी कोशिश की गई है। इसके लिए हमने उन विषयों को चुना है, जिनपर इधर एक अरसे से मुसलमानों और गैर-मुस्लिमों के पढ़े-लिखे और आम लोगों के दरमियान बहसों का सिलसिला जारी है। इसका मक़सद कुरआन के बारे में कुछ ग़लतफ़हमियों को दूर करने के साथ-साथ मुस्लिम और गैर-मुस्लिम ज़ेहनों को सीधे-सीधे कुरआन के अध्ययन की तरफ़ मोड़ना है। इसके लिए मैंने काफ़ी हद तक आसान ज़बान और अन्दाज़ अपनाने की कोशिश की है; पेचीदा और भारी-भरकम लफ़्ज़ों और इस्तिलाहों से मुमकिन हद तक बचने की कोशिश की है, ताकि आम लोगों के लिए ज्यादा से ज्यादा इससे फायदा उठाना मुमकिन हो सके। यह बात ज़ेहन में रहनी चाहिए कि यह किताब ख़ासतौर पर आम लोगों के लिए लिखी गई है। इसलिए अलग-अलग विषयों के हवाले से बहस के सिर्फ उन्हीं पहलुओं पर ध्यान दिया गया है, जिनकी मक़सद के एतिबार से ज्यादा ज़रूरत महसूस की गई है।

मैं जनाब नसीम ग़ाज़ी साहब का निहायत शुक्रगुज़ार हूँ, जिनकी फ़रमाइश और सहयोग की बुनियाद पर यह किताब आपके हाथों में है। अल्लाह हमारी इस छोटी-सी कोशिश को क़बूल फ़रमाए और इसे हमारे लिए आख़िरत की कामयाबी का ज़रीआ बनाए। आमीन!
-वारिस मज़हरी
मई 2012 ई.


कुरआन और तौहीद का तसव्वुर
इस्लाम की सबसे अहम खूबी तौहीद का वह ख़ास तसव्वुर (एकेश्वरवाद की अवधारणा) है, जिसको कुरआन ने अपने असली रूप में महफूज़ रखा है। क़ुरआन ने जिस स्पष्टता, मज़बूती और विस्तार के साथ इसे पेश किया है, वह सिर्फ कुरआन के साथ ही ख़ास है। इसमें शक नहीं कि तौहीद की यह शिक्षा कुरआन ने पहली बार पेश नहीं की है। तमाम नबियों, नेक लोगों का मज़हब इस्लाम और उनकी शिक्षाओं और प्रचार-प्रसार का केन्द्र तौहीद ही रहा है। लेकिन उन नबियों पर उतरनेवाली किताबों में फेर-बदल और उनकी शिक्षाओं के नज़रों से ओझल हो जाने की बुनियाद पर, उनके हवाले से तौहीद को सही तौर पर समझना मुमकिन नहीं रहा। इस लिहाज़ से अब कुरआन ही तौहीद के सही तसव्वुर का स्रोत (Source) रह गया है। यह सिर्फ एक नज़रियाती नहीं, बल्कि देखी-परखी सच्चाई है। दुनिया में इस समय जो मज़हब और नज़रियात मौजूद हैं, उनका सरसरी जाइज़ा भी इस हक़ीक़त को अच्छी तरह वाज़ेह कर सकता है। ईसाइयत त्रिवाद (Trinity) को मानती है यानी वह एक ख़ुदा के बजाए तीन खुदाओं के त्रिकोण (Trangle) को मानती है। दूसरी तरफ़ उसके नज़दीक ख़ुदा की कुछ खूबियों में निहायत नामुनासिब अतिशयोक्ति और दूसरी कुछ खूबियों में बहुत ज़्यादा कमी पाई जाती है। मिसाल के तौर पर, खुदा की रहमतवाली सिफ़त का तसव्वुर ईसाइयत में यह है कि ख़ुदा ने अपने बेटे को सूली पर चढ़ाकर तमाम इनसानों के गुनाहों का कफ्फ़ारा (प्रायश्चित) अदा कर दिया है। अब इनसान आज़ाद है। वह जितना भी चाहे गुनाह करे। अगर वह ख़ुदा के बेटे पर यक़ीन रखता है तो गुनाहों से उसकी रूहानी शख़्सियत पर कोई असर नहीं पड़ता। ख़ासतौर पर प्रोटेस्टेंट फ़िरक़ा (समुदाय) इस नज़रिए का ज़ोरदार समर्थक और प्रचारक है। यहूदियों के यहाँ ईसाइयों के बरखिलाफ़ ख़ुदा का तसव्वुर बहुत ही ज़ालिम और सख़्त मिज़ाज बादशाह का है, जो अपनी क़हर और ग़लबे की सिफ़त के साथ मजबूर और बेबस इनसानों पर हुकूमत कर रहा है। हिन्दुस्तानी मज़हबों में तौहीद के तसव्वुर (एकेश्वरवाद की अवधारणा), जैसा कि शोधकर्ताओं का ख़याल है, पाए जाते थे। लेकिन अब उनकी जगह शिर्क (बहुदेववाद) ने ले ली है। बौद्ध धर्म में, जो दुनिया की आबादी का एक अहम हिस्सा है, सिरे से खुदा का कोई तसव्वुर ही नहीं पाया जाता। बज़ाहिर यह इस धर्म की सबसे बड़ी धारणा है।

इस तरह तौहीद, जो किसी भी मज़हब की अस्ल और बुनियाद है, या तो कुछ लोगों के नज़दीक सिरे से इसकी हक़ीक़त ही गुम हो चुकी है या फिर शिर्क की मिलावट की वजह से इसकी शक्ल इतनी ज्यादा बदल चुकी है कि इसकी पहचान मुश्किल है। इसलिए यह देखना मुनासिब होगा कि कुरआन के मुताबिक़ इस्लामी तौहीद के तसव्वुर की क्या शक्ल सामने आती है।
बुनियादी तौर पर तौहीद की तीन क़िस्में हैं-

(1) तौहीदे-उलूहियत (अल्लाह को एक जानना और मानना)

(2) तौहीदे-रुबूबियत (अल्लाह को ही पालनहार समझना)

(3) तौहीदे-जात या तौहीदे-अस्मा व सिफ़ात (इस बात को मानना कि अल्लाह अपनी ज़ात में भी अकेला है और सिफ़ात में भी)
तौहीद की पहली क़िस्म ‘तौहीदे-उलूहियत' है। तौहीदे-उलूहियत इबादत को उसकी तमाम क़िस्मों के साथ अल्लाह के लिए खास करना है। अल्लाह कहता है-

"हमने हर उम्मत में रसूल भेजा कि लोग अल्लाह की इबादत करें और तागूत (बढ़े हुए फ़सादी) से बचें।” (कुरआन, 16:36)

कुरआन से मालूम होता है कि सभी नबियों ने अपनी क़ौमों को सबसे पहले इसी की शिक्षा दी। कुरआन में हज़रत नूह (अलैहिस्सलाम) हज़रत शुऐब (अलैहिस्सलाम) हज़रत सालेह (अलैहिस्सलाम) हज़रत हूद (अलैहिस्सलाम) वगैरा का अपनी क़ौमों के साथ इस ताल्लुक़ से मुखातिब होने को इस तरह बयान किया गया है-

"ऐ लोगो! अल्लाह की ही इबादत करो। उसके सिवा तुम्हारा कोई और माबूद (पूज्य-प्रभु) नहीं है।" (कुरआन, 7l:59, 65, 73 वगैरा)

आमतौर पर उन क़ौमों के यहाँ ख़ुदा का तसव्वुर पाया जाता था। मुसीबत पड़ने पर वे उसके सामने गिड़गिड़ाते और उसकी पनाह चाहते थे। लेकिन आम हाततों में वे इबादत को अल्लाह के लिए खास नहीं करते थे और खुदा के साथ दूसरे सहायक खुदाओं, देवी-देवताओं और बुजुर्ग हस्तियों की भी परस्तिश करते थे और उनकी मूर्तियाँ बनाकर उनके सामने नरें चढ़ाते, उनके आगे घुटने टेकते और उनसे मदद माँगते थे।

कुरआन बार-बार इसकी हिदायत देता है कि हर हाल में सिर्फ और सिर्फ़ ख़ुदा की इबादत की जाए- “ऐ मेरे बन्दो, जो ईमान लाए हो! मेरी ज़मीन बहुत फैली हुई है। इसलिए तुम सिर्फ मेरी ही बन्दगी करो।" (कुरआन, 29:56)

"उन्हें इसके सिवा और कोई हुक्म नहीं दिया गया कि वे सिर्फ अल्लाह की इबादत करें। उसी के लिए दीन को ख़ालिस रखें।"
(कुरआन, 98:5)

क्योंकि इबादत के लायक़ सिर्फ़ ख़ुदा की ज़ात है। ख़ुदा की पैदा की हुई कोई चीज़ इसकी अहल नहीं है और न हो सकती है। 

“और वे अल्लाह तआला को छोड़कर उनकी इबादत करते हैं, जो आसमानों और ज़मीन से उन्हें कुछ भी रोज़ी नहीं दे सकते और न इसकी ताक़त रखते हैं।" (कुरआन, 16:73)
 इसी मतलब को बयान करनेवाली दूसरी आयतें भी देखें- 5:76, , 20:89, 25:55.। 

अल्लाह को छोड़कर दूसरों की इबादत करनेवाले मुशरिकीन (बहुदेववादी) कहते थे कि हम अपने इन शरीक माबूदों को ख़ुदा समझकर नहीं पूजते-
"बल्कि हम उनकी इबादत इसलिए करते हैं, ताकि वे अल्लाह तक हमारी रसाई (पहुँच) करा दें।" (कुरआन, 39:3)

आज भी अल्लाह के अलावा दूसरों की इबादत और पूजा करने के के पीछे बहुत-से लोगों के नज़दीक यही जज़्बा और 'गुमान' है कि इसके ज़रीए से हम अस्ल माबूद तक पहुँच बना पाते हैं।
कुरआन सख़्ती के साथ इसे शिर्क करार देता है और ऐसा करनेवालों को जहन्नम की ख़बर सुनाता है-

“बेशक तुम और वे सब, जिन-जिन की तुम अल्लाह को छोड़कर इबादत करते हो, जहन्नम का ईंधन बनोगे।"  (कुरआन,21:98)                                                                     

तौहीद की दूसरी क़िस्म ‘तौहीदे-रुबूबियत' है। तौहीदे-रुबूबियत का मतलब अल्लाह को एक और कायनात का रब (जगत् का पालनहार), पैदा करनेवाला व मालिक, इन्तिज़ाम करनेवाला, सबको रोज़ी देनेवाला, उन्हें ज़िन्दगी और मौत देनेवाला, कायनात की सभी चीज़ों पर कंट्रोल रखनेवाला वगैरह मान लेना है। दूसरे शब्दों में, अल्लाह को उसके तमाम उन कामों के साथ एक और अकेला क़रार देना जो उससे जारी होते हैं। तौहीदे-रुबूबियत का दुनिया की तमाम क़ौमें इक़रार करती रही हैं। अरब के मुशरिक भी इसके कायल थे और जाने-माने अहले- किताब यहूदी और ईसाई और साबिई और आग की पूजा करनेवाले भी। इसमें सिर्फ़ उन अधर्मियों और विधर्मियों को अलग किया गया है जो हर ज़माने में बहुत कम तादाद में रहे हैं। कुरआन में भी ऐसे लोगों का ज़िक्र मौजूद है, जिससे लगता है कि क़ुरआन के उतरने के समय अरबों में ऐसे लोग भी मौजूद थे। उनमें कुछ लोग तो दिल से तो ख़ुदा के वुजूद और उसके एक होने का इक़रार भी करते थे, लेकिन ज़ाहिर में इससे इनकार करते थे। खुद कुरआन ने भी ऐसे लोगों का ज़िक्र किया है। फ़िरऔन भी ऐसे लोगों में ही शामिल था, जिसने दुश्मनी में ख़ुदा का इनकार किया और अपनी खुदाई का दावा किया।
कुरआन ने बार-बार इसका ज़िक्र किया है कि मुशरिक लोग ख़ुदा को कायनात का रब होने की सतह तक तो मानते हैं, लेकिन इसके बावुजूद खुदा के तन्हा और अकेला इबादत के लायक़ होने का इनकार करते हैं-

“अगर तुम उनसे सवाल करो कि ज़मीन और आसमानों का बनानेवाला कौन है? तो वे ज़रूर और ज़रूर ही कहेंगे :” अल्लाह।” (कुरआन, 31:25)

“तुम पूछो कि ज़मीन और उसकी तमाम चीजें किसकी हैं? अगर तुम जानते हो, तो बताओ। वे फ़ौरन जवाब देंगे : अल्लाह की। पूछो कि फिर तुम नसीहत क्यों नहीं हासिल करते?" (कुरआन, 23:84,85)

बुतों के बारे में भी उनका अक़ीदा यह नहीं था कि कायनात की पैदाइश और इन्तिज़ाम में वे साझीदार हैं, बल्कि असल में वे बीते ज़माने के कुछ नेक और पाकबाज़ लोगों की मूर्तियाँ बनाते थे और उनके बारे में यह अक़ीदा रखते थे कि वे ख़ुदा के सामने हमारी सिफ़ारिश करनेवाले हैं। वे उनके वास्ते से ख़ुदा से अपनी हाजत तलब करते थे। अरब के मुशरिकों के शिर्क की बुनियादी सच्चाई यही थी। भारत के मुशरिक भी अपने अक़ीदे में ऐसे ही हैं। वे ख़ुदा (ईश्वर) को एक मानते हैं, लेकिन कुछ इनसानों की मूर्तियाँ बनाकर, जिन्हें वे खुदा का अवतार मानते हैं, उनकी पूजा करते और उनसे अपनी हाजत तलब करते हैं। कुरआन में हज़रत नूह (अलैहिस्सलाम) की क़ौम का यह वाक्य नक़ल किया गया है-

“उन्होंने कहा कि हरगिज़ अपने माबूदों को न छोड़ना और न 'वद्द' और 'सुवाअ' और 'यगूस', 'यऊक़' और 'नस्र' को।" (कुरआन, 71:23)

हज़रत अब्दुल्लाह-इब्ने-अब्बास (रज़िअल्लाह अन्हुमा) का बयान कि ये नूह (अलैहिस्सलाम) की क़ौम के कुछ नेक लोगों के नाम हैं। जब वे मर गए तो लोग उनकी क़ब्रों पर ध्यान जमाकर बैठ गए। फिर उन्होंने उनकी मूर्तियाँ बनाईं, फिर समय बीतने के साथ वे उनकी इबादत करने लगे। (हदीस: बुख़ारी, 4920)

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी ज़िन्दगी के आखिरी वक़्त में फ़रमाया:

“अल्लाह की लानत हो यहूदियों और ईसाइयों पर कि उन्होंने अपने नबियों की क़ब्रों को सजदागाह बना लिया।" (हदीस: बुख़ारी, 1390)

इस विषय पर बहुत-सी हदीसें हैं, जिनमें इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी उम्मत को नेक बुजर्गों की पूजा-पाठ करने से रोका इनकारियों के जरीए ख़ुदा को रब मानने के बावुजूद क्रआन मे बहुत-र-सी जगहों पर इसका ज़िक्र इस मक़सद से किया गया है कि इसके ज़रीए अल्लाह के एक होने और उसकी इबादत पर दलील क़ायम की जाए। यानी वह ख़ुदा जिसने यह कायनात बनाई, जो जानदारों की रोज़ी का सामान करता है, उन्हें मारता और जिलाता है, जिसे तुम मुसीबत में बेइख्तियार पुकारते हो, वही तो असल में इबादत के लायक है। भला उसके अलावा इसके लायक़ कौन हो सकता है?

तौहीद की तीसरी क़िस्म 'तौहीदे-ज़ात या तौहीदे-अस्मा व सिफ़ात है।' तौहीदे-ज़ात का मतलब यह है कि अल्लाह को सिर्फ एक मानना और किसी को उसका शरीक न ठहराना। यह पूरी कायनात सिर्फ एक ख़ुदा की बनाई हुई है। इस पूरी कायनात के निज़ाम को चलानेवाली सिर्फ़ वही एक हस्ती है-
“और उसकी बादशाही में उसका कोई शरीक (साझी) नहीं है।" (कुरआन, 17:111)

प्राणियों के बरख़िलाफ़ न तो उसकी कोई औलाद है और न माँ-बाप और बीवी। वह इन तमाम कमजोरियों से पाक है। इस बात को समझने के लिए कुरआन की सूरा इखलास को पढ़ें, तौहीदे-जात (अल्लाह को एक मानने और उसका किसी को शरीक न ठहराने) पर केन्द्रित है। कुरआन में बहुत-सी जगहों पर ख़ुदा के बेटा होने को नकारा गया है। कुछ जगहों पर इस बात का इनकार सादे अन्दाज़ में किया गया है और कुछ जगहों पर अन्दाज़ बदल गया है। मिसाल के तौर पर कुरआन कहता है-

“अल्लाह ने किसी को अपना बेटा नहीं बनाया और न ही उसके साथ कोई शरीक है।" (कुरआन, 23:91)

“उसे कोई औलाद कैसे हो सकती है? उसके तो बीवी ही नहीं।" (कुरआन, 6:101)

“तुम कह दो कि अगर रहमान (दयामय प्रभु) के पास औलाद होती, तो सबसे पहले उसकी इबादत करनेवाला मैं होता।" (कुरआन, 43:81)

बीवी होने को नकारना ईसाइयों के उस नज़रिए के अन्तर्विरोध (Ideological contradiction) को स्पष्ट करने के लिए है कि वे हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) को ख़ुदा का बेटा कहते और मानते हैं, जबकि उनका भी अक़ीदा यह नहीं है कि खुदा के पास कोई बीवी है।

कुरआन में तौहीदे-ज़ात को बार-बार चर्चा का विषय बनाया गया है, क्योंकि ईसाइयत समेत दुनिया की मुख्तलिफ़ क़ौमों में यह कल्पना जड़ पकड़े हुई थी कि ख़ुदा भी आम इनसानों की तरह बेटे और बेटियाँ रखता है। अरब के मुशरिक लोग फ़रिश्तों को ख़ुदा की बेटियाँ कहते थे। (देखें-कुरआन, 53:21)

यूनानी और भारतीय धर्मग्रन्थों में ख़ुदा के एक से ज़्यादा होने की कल्पना के साथ खुदा के बच्चे के बाप होने की कल्पना भी शामिल है, जिसके क़िस्से उनके यहाँ मशहूर और उनकी किताबों में मौजूद हैं। कुरआन ने खुदा के अनेक होने के के अनेक होने के तसव्वुर को ख़ालिस अक्ली सतह पर भी रद्द करने की कोशिश की है-

“अगर ज़मीन और आसमान में एक अल्लाह के सिवा दूसरे खुदा भी होते तो (ज़मीन और आसमान) दोनों का निज़ाम बिगड़ जाता।" (कुरआन, 21:22) रहा तौहीदे-सिफ़ात, वह यह है कि इनसान खुदा को, उन सिफ़तों में जो उसके लिए साबित हैं, अकेला और यकता माने। यह अकेला और यकता समझना इस सतह पर है कि ख़ुदा के अलावा उसकी पैदा की हुई चीज़ों में से कोई भी इन सिफ़तों में उसके जैसा नहीं है।

ख़ुदा अगर पैदा करनेवाला, रोज़ी देनेवाला, बन्दों की पुकार सुननेवाला और दुआओं को क़बूल करनेवाला है, तो इसका मतलब यह है कि चीज़ों को पैदा करने, उनको रोज़ी देने, उनकी फ़रियाद सुनने और उन्हें क़बूल करने का जो इन्तिहाई और ज़्यादा से ज़्यादा कुशादा मतलब हो सकता है, उसकी तमाम सिफ़तें ख़ुदा के अन्दर पाई जाती हैं। इनसे मुताल्लिक़ हर तरह के इख्तियार निजी तौर पर सिर्फ़ उसे ही हासिल हैं। इन सिफ़ात को अमल में लाने में वह किसी का ज़र्रा बराबर भी मुहताज नहीं है। ये सिफ़तें तन्हा उसी के लायक़ और हर सूरत में उसी के लिए खास हैं। कुछ सिफ़तें जैसे रहीम, अलीम, बसीर (रहम करनेवाला, इल्म रखनेवाला और देखनेवाला) वगैरह जिनका इस्तेमाल कुरआन में इनसान के लिए भी किया गया है, वे सारे इस्तेमाल इनसान पर निहायत महदूद माने में हुए हैं। रहम, इल्म और बसारत (दया करना, देखना और वाक़िफ़ होना) की सिफ़त सिर्फ इनसान की ज़ात का हिस्सा नहीं है। वह आरज़ी (क्षण-भंगुर) और फ़ानी (नश्वर) है। कुरआन की आयत है-

“कोई चीज़ उस जैसी नहीं और वह सुननेवाला और देखनेवाला है।" (कुरआन, 42:11)

आयत का दूसरा टुकड़ा गौर करने लायक है कि अल्लाह देखने वाला और सुननेवाला है, लेकिन उसकी देखने और सुनने की कोई मिसाल कायम नहीं की जा सकती।
इन सिफ़तों में से एक सिफ़त गैब का इल्म (परोक्ष-ज्ञान) है। कुरआन का वाज़ेह एलान यह है

“अल्लाह के पास गैब की कुंजियाँ हैं, जिनका इल्म उसके अलावा किसी को नहीं।" (कुरआन, 6:59)                                                                                         

“(आप कह दीजिए कि) अगर मुझे गैब की बातों का इल्म होता, तो मैं बहुत-से फ़ायदे हासिल कर लेता और मुझे कोई तकलीफ़ न पहुँचती।" (कुरआन, 7:188)

इस वजाहत के बावुजूद अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को ग़ैब का इल्म रखनेवाला समझना सिर्फ जिहालत और हठधर्मी है। इसी तरह दुआओं को सुननेवाली और क़बूल करनेवाली (मुजीबुद्दअवात) सिर्फ़ अल्लाह की ज़ात है। अल्लाह फ़रमाता है-

“मैं (बन्दों से) बहुत ही क़रीब हूँ और पुकारनेवाले की पुकार को सुनता हूँ।" (कुरआन, 2:186)

“अल्लाह के सिवा किसी और को न पुकारो, वरना तुम भी सज़ा पानेवालों में शामिल हो जाओगे।" (क़ुरआन, 26:213)

“जो लोग ख़ुदा के सिवा दूसरों को पुकारते हैं, उनमें किसी चीज़ को पैदा करने की सलाहियत नहीं। वे खुद पैदा किए जाते हैं।"
(कुरआन, 16:20)

"उससे ज्यादा गुमराह कौन होगा, जो अल्लाह को छोड़कर उनको पुकारे, जो क़ियामत तक उसकी ज़रूरत पूरी नहीं कर सकते और न उन्हें उनके पुकारने की कोई ख़बर है।"
(कुरआन, 46:5)

कुरआन की इन साफ़ और वाज़ेह आयतों के बावुजूद मुसलमानों में एक तबक़ा ऐसा मौजूद है, जो गुज़रे हुए बुजुर्गों से उनकी क़ब्रों पर जाकर अपनी ज़रूरतें पूरी करने की दुआएँ माँगता और मुसीबत में मदद के लिए उन्हें पुकारता है। ये और इस तरह के तमाम अमल कुरआन के तसव्वुरे-तौहीद (एकेश्वरवाद की अवधारणा) से सीधे-सीधे टकराते हैं। कुरआन का तसव्वुरे-तौहीद ख़ुदा की ज़ात और सिफ़तों के मामले में बहुत ही सादा और किसी भी किस्म की पेचीदगी से खाली है। जो लोग कुरआन के तसव्वुरे-तौहीद से वाक़िफ़ नहीं या जिन लोगों के तौहीद के तसव्वुर में ग़लत और झूठे नज़रिए शामिल हो गए हैं, वे इन आयतों की गुमराह करनेवाली और पेचीदा फ़लसफ़ियों-जैसी तावील और तशरीह (व्याख्या और स्पष्टीकरण) करते हैं, जो हक़ीक़त में उनके गुनाहों को और ज्यादा बढ़ा देती है।

मौजूदा दौर में कुछ लोगों ने तौहीद की इन तीन क़िस्मों में चौथी क़िस्म ‘तौहीदे-हाकिमियत' (सत्ता में यकता) का इज़ाफ़ा किया है, लेकिन यह तौहीदे-उलूहियत (एकेश्वरवाद) ही में शामिल है। इसलिए बुजुर्गों ने इसको अलग से बयान नहीं किया। इसी तरह कुछ लोग 'तौहीदे-इत्तिबा-ए-रसूल' (रसूल की पैरवी में तौहीद) की क़िस्म का भी इज़ाफ़ा करते हैं, लेकिन यह भी एक बढ़ी हुई किस्म है, यह भी ऊपर बयान हुई क़िस्म में शामिल है। रसूल की पैरवी अल्लाह की फ़रमाँबरदारी से हटकर नहीं है। सूरा-1, ‘अल-फ़ातिहा' में तौहीद की ये तीनों किस्में बयान हुई हैं। ‘अलहम्दु लिल्लाह1(1- सारी तारीफें अल्लाह ही के लिए हैं।) ' तौहीदे-रुबूबियत, 'अर्रहमानिर्रहीम'2 (2- बड़ा मेहरबान, निहायत रहमवाला है।) तौहीदे-अस्मा व सिफ़ात और 'इय्या-क नअबुदु व इय्या-क नस्तईन3 (3- हम तेरी ही इबादत करते हैं और तुझी से मदद चाहते हैं।)  तौहीदे-उलूहियत के बयान पर शामिल हैं। इसी तरह आखिरी सूरा-114, अन-नास में तौहीद की तीनों किस्में शामिल हो गई हैं, 'रबिन्नास'4 (4- लोगों का पालनहार।)  तौहीदे-रुबूबियत, 'मलिकिन्नास5 (5- इनसानों का बादशाह।)  तौहीदे-अस्मा व सिफ़ात और 'इलाहिन्नास6 (6- इनसानों का माबूद (पूज्य)।) तौहीदे-उलूहियत। इस तरह कुरआन शुरू से आखिर तक तौहीद की शिक्षा पर आधारित है, क्योंकि खुदा और कायनात के ताल्लुक़ से पहली और आखिरी बुनियादी कड़ी तौहीद ही है। ज़रूरत है कि क़ुरआन के तौहीद के तसव्वुर के मुताबिक़ अपने अमल और ख़यालों को ढालने की कोशिश की जाए। दुनिया और आखिरत (लोक-परलोक) में कामयाबी की बुनियाद यही है।

कुरआन में गौरो-फ़िक्र की दावत
कुरआन में इस्लाम एक ऐसा मज़हब है जो अक़्ल से काम लेने को पसन्द करता है। इसकी शिक्षाएँ हक़ीक़तों और दलीलों पर आधारित हैं। कुरआन, जो इस्लामी शिक्षाओं का स्रोत (Source) है, इनसान को समझने, गौर करने और अक्ल को इस्तेमाल करने पर जोर देता है। शुरू से आखिर तक ऐसी आयतें बिखरी हुई हैं, जिनमें रिवायत के बजाए अक़्ल और समझ, अन्धी पैरवी के बजाए सोचने-समझने और विचार करने की दावत दी गई है। अक़्ल इल्म हासिल करने के दो अहम ज़रीओं में से एक ज़रीआ है। पहला ज़रीआ वह्य (प्रकाशना) है। इल्म हासिल करने के बारे में नई गैर-इस्लामी या पश्चिमी विचारधारा और इस्लामी विचारधारा में बुनियादी फ़र्क यही है कि पहले के नज़दीक वह्य इल्म का ज़रीआ बिलकुल नहीं है। उसके मुताबिक़ इल्म का ज़रीआ अस्ल में इनसान के अपने मुशाहिदे और तजुर्बे हैं और दूसरे के नज़दीक वह्य अपने-आपमें इल्म का एक अटल और पहले दरजे का ज़रीआ है। इसके बाद दूसरा नम्बर अक़्ल और इनसानी तजुर्बे को हासिल है। अक़्ल खुदा की बहुत बड़ी नेमत है। इसकी क़ो-क़ीमत को पहचानना और इसका सही इस्तेमाल करना हर इनसान की ज़िम्मेदारी है। यही वजह है कि 'जानने', 'समझने' और 'सोच-विचार' करने के बारे में कुरआन में जो शब्द इस्तेमाल हुए हैं उनकी संख्या सैकड़ों में है। क़ुरआन का आम अन्दाज़ यह है कि वह कायनात या आख़िरत की दुनिया के बारे में किसी हक़ीक़त को बयान करने, अक़्ल और फ़ितरत की रौशनी में उसपर दलील कायम करने के बाद या इससे पहले सवालिया निशान क़ायम करता है कि क्या वे गौर नहीं करते, क्या वे अक़्ल से काम नहीं लेते, क्या उन्होंने गौर नहीं किया, क्या उन्होंने नहीं देखा या उम्मीद ज़ाहिर करता है कि शायद तुम समझो, शायद तुम सोच-विचार करो-

“पूछो : क्या अन्धा और आँखोंवाला बराबर हो जाएँगे. क्या तुम गौर नहीं करते?” (कुरआन, 6:50)

“हम ये मिसालें लोगों के सामने पेश करते हैं, ताकि वे गौर कर (कुरआन, 59:21)

“क्या वे नहीं देखते कि अल्लाह ही ने उन्हें पैदा किया है और वह उनसे ज़्यादा कुव्वत का मालिक है।" (कुरआन, 41:15)

कुरआन मजीद इनसान की अपनी ज़ात, कायनात, कायनात की चीजें, अल्लाह की सिफ़तें, अमल, नेमतें, एहसान वगैरह को सोचने-समझने का विषय बनाने, उनकी बारीकियों और हक़ीक़तों को अक़्ल की रौशनी में समझने पर लोगों को उभारता है। इनके बारे में लोगों के इल्म और समझ की जिज्ञासा (Curiosity of knowledge) को जगाने की कोशिश करता है-
“क्या वे ऊँटों को नहीं देखते, वे किस तरह पैदा किए गए और आसमान को कि उसे किस तरह ऊँचा किया गया और पहाड़ों को कि उन्हें किस तरह जमा दिया गया और ज़मीन को कि उसे किस तरह बिछा दिया गया।" (कुरआन, 88:17-20) "वही है जिसने ऊपर-नीचे सात आसमान बनाए। तुम रहमान (करुणामय ईश्वर) की तख़लीक़ (रचना) में कोई फ़र्क न पाओगे।" (कुरआन, 67:3)

कुरआन के नज़दीक “अक्लमन्द लोग ही नसीहत हासिल करते हैं।” (2:269) जो लोग अक़्ल और दिमाग़ नहीं रखते, जो सिर्फ रस्म के पुजारी हैं और अन्धी पैरवी के आदी हो चुके हैं, उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे नसीहत हासिल करेंगे। अपनी अक़्ल को ताक़ पर रखते हुए गुजरे हुए लोगों की अक्ल और समझ पर भरोसा करना सिर्फ़ अन्धी पैरवी और सरासर गैर-अक़्ली रवैया है: क्योंकि अगर ऐसा हो तो दुनिया में कोई भी सच सच और झूठ झूठ नहीं रह जाएगा; क्योंकि खुली और देखी हुई सच्चाइयों से मुँह फेरनेवाले और ज़ाहिरी तौर पर ग़लत चीज़ों पर यक़ीन रखनेवाले लोग भी इस दुनिया में मौजूद हैं। कुरआन आँख, कान और दिल का ज़िक्र अहम नेमत की हैसियत से करता है; क्योंकि ये इनसान के लिए चीज़ों को समझने और सोच-विचार करने में मददगार हैं-

“उनके दिल हैं, लेकिन उनसे समझने का काम नहीं लेते और उनकी आँखें हैं, लेकिन वे उनसे देखने का काम नहीं लेते और उनके कान हैं, लेकिन वे उनसे सुनने का काम नहीं लेते।" (कुरआन, 7:179)

गैब (परोक्ष) की चीज़ों को समझना पूरी तरह अक़्ल के जरीए से मुमकिन नहीं है। लेकिन इसके जरीए से उनकी हक़ीक़त पर दलीलें पेश की जा सकती हैं, शर्त यह है कि अक़्ल को फ़ितरत की रहनुमाई की रौशनी में इस्तेमाल करने की कोशिश की जाए। अगर अक़्ल फितरत की रहनुमाई से दूर हो जाए तो उसमें गाँठ पड़ जाती है। (देखें-कुरआन, 6:25:17:46) और अक़्ल सही दिशा में काम करना छोड़ देती है। दुनिया के कुछ बड़े; अक़्ल और समझ रखनेवाले लोग भी ख़ुदा के वुजूद तक के को समझने-बूझने में इसलिए ग़लती करते रहे हैं कि उनकी अक़्ल उनकी हठधर्मी की मानसिकता और फ़ितरत से बगावत की वजह से उस खूबी से महरूम रह जाती है, जो उसे कायनात की इस सबसे बड़ी हक़ीक़त की समझ और इक़रार पर आमादा कर सके-
"क्या उन लोगों के बनाए हुए दुनियवी खुदा ऐसे हैं कि (बेजान को जान डालकर) उठा खड़ा करते हों? अगर आसमान और ज़मीन में अल्लाह के सिवा दूसरे खुदा भी होते, तो दोनों (ज़मीन और आसमान) का निज़ाम बिगड़ जाता।" (कुरआन, 21:21,22)

“और अल्लाह ही है जो भेजता है हवाओं को; तो वे उभारती हैं बादलों को। फिर हम उनको सूखी ज़मीन की तरफ़ ले जाते हैं। फिर उनसे ज़मीन को मुर्दा हो जाने के बाद दोबारा ज़िन्दा करते हैं। इसी तरह लोगों को ज़िन्दा होकर उठना है।" (कुरआन, 35:9)

(वे पूछते हैं कि) कौन हमें ज़िन्दगी देगा। कह दो : वही। : अल्लाह, जिसने तुम्हें पहली बार पैदा किया।” (कुरआन, 17:51)

दलील पेश करने का यह अन्दाज़ ख़ालिस अक़्ली है। कुरआन की इन आयतों ने इनसानी ज़ेहन की बन्दिशों को खोलने में अहम रोल अदा किया। कुरआन ने एलान किया कि न सिर्फ यह कि इस समय सोच-विचार करने के लिए कुदरत की निशानियाँ तुम्हारी नज़रों के सामने हैं, बल्कि आगे भी अल्लाह दुनिया में और खुद उनके अन्दर कुदरत की ऐसी निशानियाँ दिखलाएगा, जिनसे हक़ वाज़ेह हो जाएगा और देखने और सोचने-समझनेवालों के लिए उनपर अमल करना आसान हो जाएगा। (देखें-कुरआन, 41:53)

कुरआन कायनात की निशानियों और फ़ितरत की नज़र में आनेवाली चीज़ों में सोच-विचार करने की जो दावत देता है, उसका ताल्लुक़ सिर्फ़ इनकार करनेवालों से ही नहीं है, बल्कि उसके मुखातब ईमानवाले भी हैं। क़ुरआन की कुछ आयतों में इसकी वज़ाहत भी मौजूद है-

"निस्सन्देह ज़मीन और आसमान के बनाने में और बेशक आसमान और ज़मीन के पैदा करने में और दिन और रात के बदलने में अक़्लवालों के लिए निशानियाँ हैं। ये वे लोग हैं जो अल्लाह को उठते, बैठते, सोते हर हाल में याद करते हैं और वे ज़मीन और आसमान के पैदा किए जाने में गौर करते हैं और पुकार उठते हैं कि ऐ हमारे रब! आपने इसे यूँ ही नहीं बनाया।" (कुरआन, 3:190,191)

कुरआन का एक अन्दाज़ यह भी है कि वह विरोधियों की सिर्फ़ ज़बान बन्द करने की कोशिश नहीं करता, बल्कि जिस तरह वह अपने दावों को साबित करने के लिए दलीलें पेश करता है उसी तरह उन्हें भी बार-बार इस बात की दावत देता है कि अगर वे अपने अक़ीदे में सच्चे हैं तो उसकी दलील पेश करें। और चूँकि वे इसकी कोई वाज़ेह और क़बूल करने लायक़ दलील पेश नहीं कर पाते, इसलिए वे सरासर झूठे हैं और उनका ख़याल बिलकुल निरर्थक है। वे सिर्फ अपनी बे-दलील आरजुओं पर भरोसा किए बैठे हैं, जो कभी पूरी नहीं हो सकतीं-

“और कहते हैं कि जन्नत में दाखिल नहीं हो सकते, मगर वे जो यहूदी हैं या ईसाई। ये सिर्फ उनकी आरजुएँ हैं, क्योंकि वे अगर सच्चे हैं तो (अपने हक़ में) अपनी दलील पेश करें।"
(कुरआन, 2:111)

“क्या अल्लाह के सिवा भी कोई माबूद (उपास्य) है? (अगर है तो) कहिए कि वे उसकी दलील पेश करें।” (कुरआन, 27:64)

“जो लोग अल्लाह की आयतों में बहस कर रहे हैं, उनके पास इसकी कोई दलील नहीं है।" (कुरआन, 40:56)

अहम बात यह है कि खुद कुरआन को अल्लाह की तरफ़ से इनसानों के पास भेजी जानेवाली 'दलील' और 'वाज़ेह रौशनी' कहा गया है-“ऐ लोगो! तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से दलील आ पहुँची और हमने तुम्हारी तरफ़ वाज़ेह रौशनी उतार दी।" (कुरआन, 4:174)

और कुरआन के मुताबिक़ इसको अरबी में उतारे जाने का मक़सद यह है कि यह ज्यादा से ज्यादा लोगों के लिए समझने में आसान हो। (देखें-क़ुरआन, 12:2) कुरआन को इसलिए आसान बनाया गया है कि लोग इसको समझ सकें और इससे नसीहत हासिल कर सकें। और यह बात सूरा-54, अल-क़मर में बार-बार आई है-

“और बेशक हमने क़ुरआन को समझने के लिए आसान कर दिया है; तो क्या कोई नसीहत हासिल करनेवाला है?" (कुरआन, 54:17)

इल्म और समझ एक संजीदा और मोमिनों वाली सिफ़त है और जिहालत और नासमझी गैर-संजीदा और इनकारियों वाली। कुरआन में हैरतअंगेज़ तौर पर यह बात मिलती है कि अल्लाह से डरनेवाले असूल में इल्मवाले (देखें-कुरआन, 35:28) और नसीहत हासिल करनेवाले, अक़्ल और समझ रखनेवाले लोग हैं। (देखें-कुरआन, 13-19)

इस तरह कुरआन ईमानवालों के साथ-साथ तमाम इनसानों को सोच-विचार करने की दावत देता है, लेकिन सिर्फ अपनी अक़्ल के रुझानों के अधीन होकर नहीं और न ही अक़्ल को पूरा मेयार मानते हुए कि इसकी अपनी अहमियत के बावुजूद इसकी महदूदियत (सीमितता) को सभी मानते हैं, बल्कि फ़ितरत और कायनात की सच्चाइयों की रौशनी में वह अक़्ल के इस्तेमाल पर लोगों को उभारता है। जो लोग अक़्ल के बेकैद इस्तेमाल को सही समझते हैं और इसी को हक़ीक़त को समझने और हक़ तक पहुँचने का ज़रीआ मानते हैं, यही वे लोग हैं जिन्हें कुरआन से हिदायत की रौशनी के बजाए गुमराही का अंधकार हासिल होता है। (देखें-कुरआन, 2:26)

कुरआन और अम्न-शान्ति
कुरआन में अम्न और शान्ति पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया गया है; क्योंकि अम्न और शान्ति इनसान की समाजी ज़िन्दगी की बुनियाद और उसकी खुशहाली और तरक़्क़ी का सबसे अहम ज़रीआ है। अम्न के मुक़ाबले में फ़साद और बदअम्नी (अशान्ति) है, जो इनसानी समाज की गिरावट और तबाही का सबसे बड़ा कारण है। इसलिए कुरआन में अम्न और शान्ति को ख़ुदा की एक बड़ी नेमत के तौर पर बार-बार बयान किया गया है-

"इसलिए उनको चाहिए कि वे इस घर (काबा) के रब की इबादत करें, जिसने उन्हें भूख से बचाकर खाने को दिया और ख़ौफ़ से बचाकर अम्न और शान्ति अता की।"
(कुरआन, 106:3,4)

इस्लामी अक़ीदे के मुताबिक़ दुनिया की सबसे पाकीज़ा जगह वह है, जहाँ काबा मौजूद है, जिसे कुरआन के मुताबिक़ अल्लाह का घर होने का मक़ाम हासिल है। (देखें-कुरआन, 2:125) इस घर की जो बुनियादी खूबियाँ हो सकती हैं, उनमें से कुरआन की नज़र में दो अहम खूबियाँ ये हैं कि

"वह लोगों के लिए मरकज़ (केन्द्र) और अम्न और शान्ति की जगह है। (कुरआन, 2:125) जगह है।
जिस शहर में 'अल्लाह का घर' (काबा) क़ायम है यानी मक्का, उसके बारे में हज़रत इबराहीम (अलैहिस्सलाम) की यह दुआ कुरआन में बयान हुई है।

"ऐ मेरे रब! इस शहर को अम्न का शहर बना दे।" (कुरआन, 2:126)

इन तमाम हवालों से क़ुरआन की नज़र में इनसान की ज़िन्दगी और समाज के लिए अम्न और शान्ति की अहमियत समझ में आती है। कुरआन ऐसा समाज चाहता है, जहाँ लोगों को अव्वल दरजे में अम्न-चैन हासिल हो। अगर व्यक्ति और समाज की सतह पर इनसान की ज़िन्दगी को सुख-चैन देनेवाली दूसरी तमाम चीजें मौजूद हों, लेकिन अम्न-शान्ति मौजूद न हो तो अस्ल में यह वह मिसाली समाज नहीं है, जिसको कायम करने पर कुरआन ज़ोर देता है। 'इस्लाम' शब्द अरबी भाषा के सलम से बना है, जिसके माना ही अम्न और शान्ति के हैं, अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मुख़्तलिफ़ बादशाहों के नाम लिखे गए खतों में ख़ास तौर पर यह जुम्ला लिखते थे, “इस्लाम क़बूल कर लो, पुरअम्न (शान्तिमय) हो जाओगे।" यह 'पुरअम्न' होना दुनिया के एतिबार से भी है और आख़िरत के एतिबार से भी। कुरआन जन्नत को 'दारुस्सलाम' यानी अम्न की जगह क़रार देता है। क़ुरआन की शिक्षा यह है कि दुनिया में इनसान इस तरह अम्न-चैन से रहे कि वह सरापा अम्न की जगह जन्नत में दाखिल होने के क़ाबिल हो सके।

कुरआन की तमाम अख़लाकी और समाजी शिक्षाएँ अम्न के बुनियादी फ़ार्मूले के इर्द-गिर्द घूमती हैं। क़ुरआन जब सब्र, माफ़ी, अमानत, अद्लो-इनसाफ़, सच्चाई और हक़ बात कहने पर उभारता है और चोरी, बेईमानी, जुल्म, वादाख़िलाफ़ी, घमंड, सूद लेने और दूसरों के हक़ मारने से रोकता है, तो इसका मक़सद यही है कि लोगों के आपसी सम्बन्ध मज़बूत से मज़बूत हों। उनके अन्दर सहयोग और भाईचारे का जज़्बा पले-बढ़े। वे एक-दूसरे के भला चाहनेवाले और सरापा अम्न हों। इसके नतीजे में समाज में अम्न और शान्ति का कल्चर वुजूद में आए और जमीन में फ़साद और बिगाड़ न फैले। मुसलमानों से सबसे पहले इसी की अपेक्षा की जाती है। हदीस में मुसलमानों की यह खूबी बताई है कि-
“उससे दूसरों की जान और माल सुरक्षित हों।" (हदीस: तिरमिज़ी)

कुरआन की शिक्षा यह है कि अगर कोई तुम पर जुल्म और ज्यादती करता है तो तुम्हें उससे अपना बचाव करने और बदला लेने का हक़ हासिल है, लेकिन ज्यादा अच्छी बात यह है कि तुम उसपर सब्र कर लो-

“और अगर बदला लो भी तो उतना ही जितनी तकलीफ़ तुम्हें पहुँचाई गई हो और अगर सब्र कर लो तो बेशक सब्र करनेवालों के लिए यही बेहतर है।" (कुरआन, 16:126)
कुरआन में पिछले ज़माने की घटनाएँ बयान की गई हैं। इनमें से एक घटना हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम) के दो बेटों की है, जिनमें से एक ने दूसरे को क़त्ल कर दिया था। कुरआन इसको जुल्म-ज्यादती और फ़साद की एक बड़ी मिसाल के तौर पर पेश करता है और इस बारे में अम्न और शान्ति का जो मॉडल पेश करता है, वह मारे गए भाई के शब्दों में यह है-
"अगर तू मुझे क़त्ल करने के लिए हाथ उठाएगा तो मैं तुझे क़त्ल करने के लिए हाथ न उठाऊँगा। मैं, अल्लाह, सारे संसार के रब से डरता हूँ।" (कुरआन, 5:28)
कुरआन की इस शिक्षा की वज़ाहत अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत साद (रज़िअल्लाहु अन्हु)) के सवाल पर यह की कि-
"तुम ऐसी सूरत में आदम के दो बेटों में से दूसरे बेहतर (मारे गए) बेटे की तरह हो जाओ।" (हदीस : तिरमिज़ी : 2204)

इनसानी जान की हिफ़ाज़त और सही तौर पर उसकी क़द्र पहचानने बारे में आदम के उन्हीं दोनों बेटों की घटना के बारे में कुरआन ने यह कहा-"जिसने किसी इनसान को क़त्ल के बदले या ज़मीन में बिगाड़ फैलाने के सिवा किसी और वजह से क़त्ल कर डाला, उसने मानो सारे ही इनसानों को क़त्ल कर दिया और जिसने किसी की जान बचाई, उसने मानो सारे इनसानों को ज़िन्दगी दे दी।" (कुरआन, 5:32)

अम्न के मुक़ाबले में कुरआन ने ख़ौफ़ का बार-बार ज़िक्र किया है। खुदा और बन्दों के हक़ को पहचानने और उनको अदा करनेवाला इनसान खौफ़ से आज़ाद होता है, जबकि इन हक़ों से लापरवाही बरतनेवालों और उन्हें पामाल करनेवालों को अल्लाह खौफ़ और भूख की मुसीबत में डाल देता है। (देखें-कुरआन, 16:112) ख़ौफ़ की इस हक़ीक़त पर इस नज़रिए से गौर किया जा सकता है कि एक बहुत ही धनी आदमी के लिए सारी दुनिया का धन बिलकुल बेकार होकर रह जाता है, अगर उसकी जान या सेहत को किसी तरह के खौफ़ या खतरे का सामना हो। जो आदमी भी ऐसी हालत से बचा हुआ है, वह मालदार न होकर भी ज्यादा धनी है। अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया-

"तुममें से जो कोई इस हाल में सुबह करे कि वह अपने घर में अम्न के साथ हो, अपने जिस्म के एतिबार से सेहतमन्द हो, उसके पास एक दिन का खाना-पानी मौजूद हो, तो समझो कि उसे सारी दुनिया की दौलत हासिल हो गई।” (हदीस:मिशकात)

कुरआन में जंग के भी हुक्म मिलते हैं और सख्ती बरतने के भी, लेकिन यह जंग और सख्ती बुनियादी तौर पर समाजी अम्न और इनसाफ़ को क़ायम करने के लिए है। दुनिया का कोई ऐसा समाज नहीं जो ऐसे लोगों से ख़ाली हो, जिनके ख़िलाफ़ फ़ितरी रद्देअमल का एक तरीक़ा नसीहत और सीख के बाद कड़ी पूछगछ और सज़ा है। यह फ़ितरी क़ानून के ऐन मुताबिक़ है और इस वजह से अपराध और सज़ा का तसव्वुर उसी समय से पाया जाता है, जबसे इनसान की समाजी ज़िन्दगी की शुरुआत होती है। फिर भी क़ुरआन में जंग के जरीए से अम्न क़ायम करनेवाली आयतें एक प्रतिशत से भी कम हैं। जो लोग जंग और जिहाद के बारे में कुछ आयतों को मिसाल बनाकर पेश करते हुए कहते हैं कि कुरआन में आतंक की शिक्षा दी गई है, वे इसकी क्या सफ़ाई और तर्क देंगे कि बाइबल में बहुत-सी जगहों पर हज़रत ईसा मसीह (अलैहिस्सलाम) की बात इस तरह नक़ल की गई है:

“मैं ज़मीन पर आग लगाने आया हूँ....क्या तुम गुमान करते हो कि मैं ज़मीन पर सुलह कराने आया हूँ? मैं तुमसे कहता हूँ कि नहीं, बल्कि जुदाई कराने।” (लूका, 12:49-52)
या अपने शागिर्दो को यह नसीहत की है कि-

"जिसके पास बटुआ और झोली न हो, वह अपनी पोशाक बेचकर तलवार खरीद ले।" (लूका, 22:35-37)

इसी तरह श्रीमद्भगवत गीता में श्रीकृष्ण युद्ध से दामन बचाने वाले अर्जुन को युद्ध पर उकसाते और आमादा करते हैं और बताते हैं कि यह युद्ध धार्मिक और नैतिक अपेक्षाओं के बिलकुल अनुकूल है। (देखिए श्रीमद्भगवत गीता का पहला और दूसरा अध्याय)

इससे मालूम हुआ कि किसी भी बात या नज़रिए को उसके सही सन्दर्भ में जब तक देखने की कोशिश न की जाए, उसके साथ सही इनसाफ़ नहीं किया जा सकता।

कुरआन में मानव-अधिकार
कुरआन सारे इनसानों के लिए उतारा गया है। यह इनसानियत (मानवता) की किताब है। हक़ों के हवाले से इसमें बुनियादी तौर पर दो तरह के हक़ बयान किए गए हैं-इनसान पर खुदा के हक़ और खुद इनसानों पर दूसरे इनसानों के हक़। इन दोनों हक़ों को अदा करने के बारे में उसूली हिदायतें और शिक्षाएँ क़ुरआन में कहीं संक्षेप में और कहीं विस्तार से बयान की गई हैं और इनपर चलने के लिए उभारा भी गया है। इसके अलावा जगह-जगह इनको न मानने पर कठोर चेतावनियाँ और धमकियाँ भी दी गई हैं। कुछ जगहों पर ख़ुदा की इबादत के के हुक्म के साथ बन्दों के हक़ों की बखूबी अदायगी का भी हुक्म दिया गया है-

“और अल्लाह की इबादत करो और उसके साथ किसी को साझी न बनाओ और माँ-बाप, रिश्तेदारों, यतीमों, मुहताजों, नातेदारों, पड़ोसी, अजनबी पड़ोसी, पहलू का साथी, मुसाफ़िर और अपने गुलामों (और बान्दियों) के साथ अच्छा बरताव करो। बेशक अल्लाह इतरानेवालों और घमंड करनेवालों को पसन्द नहीं करता।" (कुरआन, 4:36)
इनसान पर इनसान के हक़ों का पहलू इससे जुड़ा हुआ है कि आदमी अपने असल के एतिबार से एक माँ-बाप की औलाद है-

“ऐ लोगो! अपने पालनहार रब से डरो, जिसने तुम (सब) को एक ही जान से पैदा किया और उससे फिर उसका जोड़ा बनाया।" (कुरआन, 4:1) अल्लाह ने तमाम इनसानों को बेहतरीन बनावट पर पैदा किया है। (देखें-कुरआन, 95:4) कुरआन इस हक़ीक़त को ज़ेहन में बिठाता है कि 'शुरू में सारे इनसान एक ही समुदाय के थे। इज़िलाफ़ बाद में ज़ाहिर हुआ है।' (क़ुरआन, 10:19) अल्लाह ने लोगों को मुख़्तलिफ़ क़ौमों और क़बीलों में आपसी पहचान के लिए बाँट दिया है। (कुरआन, 49:13) कुरआन का यह वाज़ेह एलान है कि अल्लाह ने सारे इनसानों को मुहतरम और इज्ज़तवाला बनाया है-

“और बेशक हमने आदम की औलाद को इज्ज़तवाला बनाया और हमने उन्हें खुश्की और तरी (थल-जल) में सवारियाँ अता की और हमने उनको पाक चीजें दीं और अपनी बहुत-सी मखलूक़ों पर उन्हें फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) दी।” (कुरआन, 17:70)

इसी तरह इस फ़ज़ीलत में भी सारे इनसान शामिल हैं कि अल्लाह ने सारे इनसानों के लिए इस कायनात को वशीभूत कर दिया है-

“क्या तुम नहीं देखते कि अल्लाह ने ज़मीन और आसमान की हर चीज़ को तुम्हारे काम पर लगा रखा है।" (कुरआन, 31:20)

इनसान के हक़ों के हवाले से इनसान की एकता और इज्ज़त का पहलू बहुत ही अहम है, जिसपर क़ुरआन ने ज़ोर दिया है। कुरआन के मुताबिक़ अस्ल में इनसान के इज्ज़तवाला और मुहतरम होने के दो और पहलू हैं- एक यह कि अल्लाह ने इसे फ़रिश्तों से सजदा कराया है। (कुरआन, 12:34) इबलीस को इससे इनकार पर हमेशा की लानत का हक़दार क़रार दिया। (कुरआन, 15:35) दूसरे इसे ज़मीन पर ख़लीफ़ा (प्रतिनिधि) बनाया (कुरआन, 2:30) और इसे अपनी अमानत सौंपी। (कुरआन, 33:72) कुरआन में इन हक़ीक़तों को बयान करने में यह मक़सद भी छिपा है कि अल्लाह ने इनसान को जिस इज्ज़त और बड़ाई से नवाज़ा है, उसे कोई गरोह दूसरे से छीनने और उसे पामाल करने की कोशिश न करे। सारे इनसानों के एक होने और इनसानों की इज्जत और बड़ाई की याददिहानी का एक मक़सद इस हक़ीक़त को इनसान के जेहन में बिठाना है कि नस्ल, रंग, क़बीले और इलाक़े की बुनियाद पर इनसानों के बीच फ़र्क करना एक गैर-इनसानी रवैया है। कुरआन की इसी हक़ीक़त पर अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इन शब्दों में ज़ोर देकर कहा है:

"किसी गोरे को काले पर और किसी अरबी को गैर-अरबी पर कोई फ़ज़ीलत हासिल नहीं है। फ़ज़ीलत की बुनियाद सिर्फ़ तक़वा (ईशपरायणता) है।” (हदीस: तिरमिज़ी, 3270)
कुरआन हर इनसान को दूसरे इनसान के ताल्लुक़ से उसके मज़हबी, समाजी, माली और इसी तरह के दूसरे तमाम बुनियादी ज़रूरी हक़ों का समर्थन करता है। इस तरह की आयतें क़ुरआन में बड़ी संख्या में बिखरी हुई हैं। मज़हबी आज़ादी (धार्मिक स्वतंत्रता) के बारे में कुरआन का एलान है कि 'दीन में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं।' (कुरआन, 2:256) और यह कि यह इनसान के अपने बस की बात है कि वह चाहे तो ईमान का रास्ता अपनाए और चाहे तो इनकार का। इस बारे में पैग़म्बर को भी ज़ोर-ज़बरदस्ती करने का अधिकार नहीं। कुरआन में पैग़म्बर को सीधे-सीधे इस बात की बार-बार ताकीद और तंबीह की गई है-

“अच्छा तो (ऐ नबी) नसीहत किए जाओ, तुम बस नसीहत ही करनेवाले हो। तुम उनपर दारोगा नहीं हो।"
(कुरआन, 88:21,22)  

“और अगर अल्लाह को मंजूर होता तो (वह खुद ऐसा इन्तिज़ामक र सकता था कि) ये लोग साझीदार न बनाते और हमने तुमको उनका रखवाला नहीं बनाया और न तुम उनके ज़मानतदार हो।" (कुरआन, 6:107)

इनसान के हक़ों में सबसे अहम हक़ ज़िन्दा रहने का हक़ है। हर इनसान खुदा की इस विशाल दुनिया का नागरिक है और वह जीने का पूरा-पूरा अधिकार रखता है। कोई बिना वजह उससे उसके इस अधिकार को छीन नहीं सकता। इस बारे में कुरआन का यह बयान मानव-अधिकार की घोषणा-पत्र की सबसे अहम दफ़ा (धारा) की हैसियत रखता है-
"जिसने किसी इनसान को क़त्ल के बदले या ज़मीन में बिगाड़ फैलाने के सिवा किसी और वजह से क़त्ल कर डाला, उसने मानो सारे ही इनसानों को क़त्ल कर दिया और जिसने किसी की जान बचाई, उसने मानो सारे इनसानों को ज़िन्दगी बख़्श दी।” (कुरआन, 5:32)

आर्थिक अधिकारों के बारे में कुरआन में बहुत-सी जगहों पर नमाज़ के हुक्म के साथ ज़कात का भी हुक्म दिया गया है। नमाज़ अल्लाह के है हक़ की ख़ास विषय-वस्तु है और ज़कात इनसान के हक़ों की ख़ास विषय-वस्तु। ज़कात के अलावा भी ज़रूरत से ज्यादा माल में ग़रीबों और ज़रूरतमन्दों का हक़ रखा गया है-
"उनके मालों में माँगनेवालों और सवाल से बचनेवालों का हक़ (कुरआन, 70:24,25)

इसी तरह ज़कात और सदनों के जरीए कुरआन ने समाज के कमज़ोर तबक़ों के लिए आर्थिक सुरक्षा का प्रबन्ध किया है। इसी के साथ उसने नाजाइज़ तौर पर. माल कमाने और जमा करने के ऐसे तरीक़ों की, जिनसे समाज के किसी भी तबके के शोषण का दरवाज़ा खुलता है, कड़ी निन्दा की है और इनपर रोक लगाई है। इसी का एक पहलू कुरआन में ख़ुदा की राह में माल ख़र्च करने पर उभारना और उसको जमा करने की कड़ी निन्दा है। यतीमों के माल खाने को कुरआन ने पेट में जहन्नम की आग भरने के समान कहा है। सामूहिक अधिकारों की अदायगी में फ़ितरत की माँगों के मुताबिक़ रिश्तेदारों और इसके बाद यतीमों को तरजीह दी गई है और इसे अस्ल नेकी क़रार दिया गया है। (कुरआन, 2:177)

इन ख़ास और मोटे-मोटे अधिकारों के अलावा इनसान की समाजी ज़िन्दगी से ताल्लुक़ रखनेवाले और भी बहुत-से छोटे-बड़े अधिकार हैं, जिनपर इनसान के गैर-अख़लाक़ी रवैयों से चोट पड़ती है। इन अधिकारों की सुरक्षा के लिए कुरआन ने ज़्यादा से ज़्यादा इनसान को अपने बरताव को अख़लाक़ी साँचे में ढालने का हुक्म दिया है। मिसाल के तौर पर चोरी, झूठ, चुगली, किसी का मज़ाक़ उड़ाना, किसी की टोह लेना, घमंड, अपनी तारीफ़ आप करना, छल-कपट, द्वेष, झूठा आरोप, खियानत और बेईमानी वगैरा से हर हाल में बचने की ताकीद की गई है और इनमें लिप्त होने पर सज़ा की धमकी दी गई है। हर आदमी इस बात को अच्छी तरह समझ सकता है कि ये तमाम तरीके इनसान के निनी ऐब और कमज़ोरियाँ हैं। जिनसे इनसान का सामूहिक जीवन प्रभावित होता है और इन सब ग़लत कामों की बुनियाद पर दूसरों के निजी और सामूहिक अधिकार पामाल होते हैं। (क़ुरआन के नैतिक दृष्टिकोण पर किताब के दूसरे शीर्षक में अदधिक रौशनी डाली गई है।)
इस तरह हम देखते हैं कि कुरआन अपनी शिक्षाओं के जरीए इनसान के उन सारे बुनियादी अधिकारों का रखवाला है, जिनपर इनसान के व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन की बुनियाद है। कुरआन इन अहम बुनियादी हक़ों की हिफ़ाज़त और अदायगी के मामले में ग़रीब, अमीर, कमजोर, ताक़तवर, मुस्लिम, गैर-मुस्लिम, मर्द, औरत, अनपढ़ और पढ़ा-लिखा होने जैसी कोई भी सामाजिक भिन्नता और असमानता रुकावट पैदा नहीं करती। ये असमानता और भिन्नता हमेशा से है और हमेशा रहेगी। कोई इसे जड़ से ख़त्म नहीं कर सकता। इनसान का काम यह है कि वह इसे एक हमेशा रहनेवाली हक़ीक़त के तौर पर मानते हुए दूसरों के हक़ों के ताल्लुक़ से अपने ऊपर आयद होनेवाले फ़ों को याद रखे और ख़ुदा की खुशी और इनसानियत के सही मक़ाम को पाने के लिए इनकी अदायगी की कोशिश करे।

कुरआन और न्याय
कुरआन की शिक्षाओं में इनसाफ़ को बहुत ही खास दर्जा हासिल है। इनसाफ़ वैचारिक और व्यावहारिक दोनों सतहों पर बिना किसी फ़र्क और भेदभाव के दूसरों के हक़ों की सही पहचान और उनकी अदायगी के सही अमली इज़हार का नाम है। अख़लाक़ी शिक्षाओं की सूची में सबसे अहम चीज़ इनसाफ़ है। यूनानी दार्शनिकों और इस्लामी विचारकों में से अरस्तू से लेकर शाह वलीउल्लाह (रहमतुल्लाह अलैह) तक जिन लोगों ने भी अख़लाक़ी शिक्षाओं पर लिखा है, उन्होंने इनसाफ़ को अख़लाक़ का अस्ल मक़सद और नतीजा क़रार दिया है।

इनसाफ़ के मुख्तलिफ़ पहलू हैं-अपने साथ इनसाफ़, ख़ुदा के साथ इनसाफ़ और ख़ुदा के बन्दों के साथ इनसाफ़। कुरआन में ख़ुदा के बन्दों के साथ इनसाफ़ क़ायम करने पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया गया है। बन्दों के साथ इनसाफ़ की परिभाषा इब्न-उल-अरबी ने यह की है-

“दूसरों के साथ नसीहत और खैरख़ाही करनी चाहिए, ख़यानत नहीं करनी चाहिए, चाहे ख़ियानत छोटी हो या बड़ी। लोगों के साथ अपनी तरफ़ से हर तरह इनसाफ़ करना चाहिए। किसी के साथ बुरा बरताव नहीं करना चाहिए, न ज़बान से न काम से, न खुले तौर पर और न छिपे तौर पर। दूसरों की तरफ़ से पेश आनेवाली नापसन्दीदा बातों को बरदाश्त करना चाहिए। इनसाफ़ की कम से कम शक्ल यह है कि दूसरों के हक़ों की अदायगी में इनसाफ़ से काम लिया जाए और उन्हें कोई तकलीफ़ न दी जाए।” (कुर्तुबी, अल-जामि-लि-अहकामिल-कुरआन, पेज 109,110; प्रकाशक : दार-उल-कुतुबिल-इल्मीया, बेरूत, 1988) कुरआन अल्लाह का सार्वभौमिक घोषणापत्र (Universal manifesto) और मानवता का संविधान है।

इसका मक़सद ख़ास तौर पर खुदा का इनसान के साथ और इनसान का इनसान के साथ आपस के रिश्तों का तालमेल और आमतौर पर पूरी कायनात के साथ इनसान के सम्बन्ध में इनसाफ़ और तालमेल पैदा करना है। यह ऐसी खूबी है जिसके न पाए जाने से इनसानों की ज़िन्दगी और समाजी निज़ाम दोनों ही बिखराव का शिकार हो जाते हैं। इस तरह इनसान अपने पैदा किए जाने के मक़सद को सही तौर पर पूरा नहीं कर सकता। यही वजह है कि कुरआन में अद्लो-इनसाफ़ पर बहुत ही जोर दिया गया है-

"ऐ ईमानवालो! इनसाफ़ करनेवाले बनो, सच्ची गवाही देनेवाले बनो, चाहे वह तुम्हारे अपने ख़िलाफ़ ही क्यों न हो।" (कुरआन, 4:135)

"अल्लाह इनसाफ़ करनेवालों को पसन्द करता है।" (कुरआन, 5:42)

(ऐ नबी!) कह दीजिए कि मेरे रब ने अद्लो-इनसाफ़ का हुक्म दिया है।" (कुरआन, 7:29)

सबसे अहम बात यह है कि कुरआन के मुताबिक़ रसूलों और उनके साथ हिदायत की किताबों के भेजे जाने का मक़सद ही यह है कि लोग इनसाफ़ करनेवाले और इनसाफ़ पर कायम रहनेवाले बन सकें।1 (1- देखें-कुरआन, 57:25)  इनसानी समाज में बिगाड़, ख़ौफ़, अशान्ति, बेचैनी और कश-मकश की जो हालत पाई जाती है, उसकी वजह इनसाफ़ के तक़ाज़ों को पूरा न करना है। सिर्फ यह एक ख़राबी पूरे इनसानी समाज को तलपट कर देने के लिए काफ़ी है। पुराने ज़माने में कुछ क़ौमें इसी लिए तबाह कर दी गईं कि वे नाप-तौल में इनसाफ़ के तक़ाज़ों को पूरा नहीं करती थीं और यह रोग उनके अन्दर घर कर गया था। इसलिए कुरआन में बार-बार यह ताकीद की गई है-

“नाप-तौल में पूरे तौर पर इनसाफ़ से काम लो।" (कुरआन, 6: 152)

“और इनसाफ़ के साथ ठीक-ठीक तौलो और वज़न में कमी न करो।" (कुरआन, 55:9)

तौल में कमी देखने में तो एक छोटी-सी बात मालूम होती है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि इससे पूरे तौर पर इनसान के अपने तमाम सामाजिक रवैयों की झलक मिलती है। कुरआन में मुख्तलिफ़ हवालों से इनसाफ़ करने की ताकीद मिलती है।

बातचीत के हवाले से-
“और जब तुम अपनी ज़बान से कोई बात निकालो तो इनसाफ़ रो काम लो, चाहे वह तुम्हारा क़रीबी नाते-रिश्तेदार ही क्यों न हो।" (कुरआन, 6:152)

मामलों के हवाले से
“जब तुम आपस में एक-दूसरे से तयशुदा मुद्दत पर क़र्ज़ का लेन-देन करो, तो उसे लिख लिया करो और लिखनेवाले को चाहिए कि वह इनसाफ़ के साथ लिखे।" (कुरआन, 2:282)
इसी तरह गवाही देने (देखें-कुरआन, 5:106: 65:2), फ़ैसला करने (देखें-कुरआन, 4:58; 5:42), दूसरी क़ौमों के साथ मेल-जोल रखने (देखें-कुरआन, 5:8) में भी इनसाफ़ को अपनाने की शिक्षा दी गई है।

इनसाफ़ के बारे में कुरआन इनसान की मानसिकता को खास तौर पर नज़र में रखता है। इनसान की मानसिकता में यह बात साफ़ तौर पर दाख़िल है कि वह दूसरों को बड़ी आसानी के साथ अद्लो-इनसाफ़ की नसीहत करता, उनसे हर हाल में अपने लिए इनसाफ़ के रवैयों का ख़ाहिशमन्द होता है। लेकिन जहाँ तक ख़ुद अपनी, अपने घरवालों और नाते-रिश्तेदारों की तरफ़ से इनसाफ़ के तक़ाज़ों को सही तौर पर पूरा करने का मामला है, यह चीज़ उसको बहुत बुरी लगती है; जबकि किसी भी सामूहिक भलाई की शुरुआत अपनी ज़ात से होती है। इसलिए कुरआन कहता है कि तुम्हें अद्लो-इनसाफ़ को हर हाल और हर सूरत में लागू करनेवाला बनना चाहिए, चाहे उसकी मार ख़ुद तुम्हीं पर पड़ती हो या तुम्हारे माँ-बाप और नाते-रिश्तदारों पर, यह देखे बिना कि सामनेवाला शख़्स ग़रीब है या अमीर।

"ऐ ईमानवालो! इनसाफ़ पर मज़बूती से जम जानेवाले, सच्ची गवाही देनेवाले बन जाओ, चाहे वह खुद तुम्हारे अपने खिलाफ़ हो या अपने माँ-बाप के या नाते-रिश्तेदारों के।"
(कुरआन, 4:135)

हक़ीक़त यह है कि समाज-सुधार में सबसे बड़ी रुकावट ख़ुदपसन्दी का यही रवैया है, जो बहुत-से हक़ों और फ़ायदों को अपने लिए सुरक्षित करके दूसरों को उनसे महरूम करने की कोशिश करता है। यही चीज़ झगड़े, फ़साद, खून-खराबे की वजह बनती है। समाज का अम्न-चैन बरबाद होता है। क़ुरआन में इनसाफ़ को उसकी अस्ल शक्ल (as it is) में बरतने के बारे में यह अहम नसीहत मिलती है-

"किसी क़ौम की दुश्मनी तुम्हें इस बात पर आमादा न करे कि तुम इनसाफ़ न करो। इनसाफ़ करो!" (कुरआन, 5:8)

इस नियम के तहत अपने विरोधी और दुश्मन के साथ भी इनसाफ़ किया जाना चाहिए। किसी भी समाज में लोगों के अन्दर अगर इनसाफ़-पसन्दी का सामूहिक रुझान पैदा हो जाए तो वह समाज अम्न-चैन का गहवारा बन जाता है, क़ुरआन ऐसा ही समाज बनाना चाहता है।

लेकिन समाजी इनसाफ़ क़ायम करना सिर्फ लोगों की निजी कोशिशों से ही मुमकिन नहीं है। इसके लिए ज़रूरी है कि हुकूमत के लोगों की तरफ़ से इनसाफ़ क़ायम करने की कोशिश की जाए, क्योंकि मुख्तलिफ़ मामलों में यह तबक़ा ज्यादा अहम रोल अदा करने में सक्षम है। सामूहिक रूप से इनसाफ़ क़ायम करने का निज़ाम इसी के हाथों में होता है। इनसाफ़ क़ायम करने के मामले में इसकी तरफ़ से पक्षपात और भेदभाव का मामला समाज में इनसाफ़ के बजाए जुल्म और खून-खराबे के रुझानों को बढ़ावा देता है। इसलिए क़ुरआन में कई जगहों पर इनसाफ़ के साथ फ़ैसला करने का हुक्म दिया गया है-

“जब तुम लोगों के बीच फ़ैसला करो तो इनसाफ़ के साथ करो और अल्लाह इनसाफ़ करनेवालों को पसन्द करता है।" (कुरआन, 5:42)

कुरआन के मुताबिक़ अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को यह हुक्म दिया गया कि वह लोगों के बीच इनसाफ़ का मामला करें। (देखें-कुरआन, 42:15)
अल्लाह के रसूल से बढ़कर इनसाफ़ करनेवाला और कौन होगा? इनसाफ़ आपका स्वभाव था, क्योंकि आप सबसे बढ़कर अख़लाक़वाले थे। लेकिन इसके बावुजूद आपको यह हुक्म दिया जाता है कि आप लोगों के बीच इनसाफ़ करें। इससे इनसानी ज़िन्दगी और समाज के लिए इनसाफ़ की अहमियत और ज़रूरत वाज़ेह होती है।

इस तरह हम देखते हैं कि क़ुरआन की नज़र में इनसान की निजी और सामूहिक भलाई, समाजी अम्न और शान्ति, लोगों के बीच मेल-जोल और सहयोग के लिए इनसाफ़ का कायम करना बहुत ज़रूरी है। दूसरे शब्दों में, एक बेहतर और सन्तुलित इनसानी समाज बनाने और उसकी तरक़्क़ी के लिए इनसाफ़ वह बुनियादी क़द्र (value) है, जिसको अमल में लाना ज़रूरी है और कुरआन मजीद आख़िरी हद तक इसपर ज़ोर देता है।

कुरआन और समाज-सुधार
समाज-सुधार कुरआन का एक बहुत ही अहम विषय है। कुरआन में इस काम के लिए बार-बार प्रेरित किया गया है। मुस्लिम उम्मत की सबसे अहम ज़िम्मेदारी ही यह बताई गई है कि वह लोगों को भलाई का हुक्म देती और बुराइयों से रोकती है। (देखें-कुरआन, 3:110) इसी की बुनियाद पर इसे भलाई करनेवाली उम्मत कहा गया है। कुरआन में सुधार के बारे में दो तरह की आयतें हैं। कुछ वे हैं जिनमें ख़ुद अपनी ज़ात के हवाले से आदमी को मुखातब किया गया है-

"ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! आपस में एक-दूसरे के माल ग़लत तरीके से न खाओ।" (कुरआन, 4:29)

"ऐ लोगों जो ईमान लाए हो! बहुत गुमान करने से बचो।"

(कुरआन, 49:12)

ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो! ऐसी बात क्यों कहते हो, जिसको तुम खुद नहीं करते।" (कुरआन, 61:2)

"ऐ लोगो! अल्लाह से डरो, जिसने तुम्हें एक जान से पैदा किया।" (कुरआन, 4:1)

दूसरी तरह की आयतें वे हैं जिनमें दूसरों को भलाई पर उभारने और बुराइयों से रोकने का हुक्म दिया गया है-
“तुम बेहतरीन गरोह हो, जिसे लोगों के लिए उठाया गया है। तुम भली बातों का हुक्म करते हो और बुरी बातों से रोकते हो।" (कुरआन, 3:110)

“ज़माने की क़सम! बेशक इनसान सरासर नुक़सान में है, सिवाए उन लोगों के जो ईमान लाए और नेक अमल करते रहे और एक-दूसरे को हक़ की नसीहत और सब्र की हिदायत करते रहे।" (कुरआन, 103:1-3)

"ऐ मेरे बेटे! नमाज़ क़ायम कर और (लोगों को) अच्छे कामों का हुक्म दो और बुरे कामों से मना कर।” (कुरआन, 31:17)

इस तरह कुरआन आदमी के अपने खुद के सुधार पर भी जोर देता है और लोगों के जरीए से समाज-सुधार पर भी। समाज क्या है? यह अस्ल में लोगों के समूह का ही नाम है। अगर लोगों के अख़लाक़ और अमल संवर जाते हैं, तो वे खुदा के हुक्मों के मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी को संवा' कर फ़ितरत के सीधे रास्ते पर चल पड़ते हैं और उनके आपसी मेल-मिलाप और मिल-जुलकर ज़िन्दगी गुज़ारने से एक अच्छा समाज वुजूद में आ जाता है। लेकिन हमेशा ऐसा होता है कि लोगों के अन्दर अपने नफ़्स का जाइज़ा लेते रहने और इसे बुराइयों से पाक करते रहने का ऐसा मिज़ाज खुद अपनी सोच-समझ की बुनियाद पर परवान नहीं चढ़ पाता और अगर परवान चढ़ भी जाए तो अगली नस्लों में इसमें यक़ीनी तौर पर बिगाड़ आ जाता है और तब इस बिगाड़ के सुधार की ज़रूरत होती है। इस तरह समाज-सुधार की कोशिश एक लगातार चलते रहने वाला अमल है। हर ज़माने और हर माहौल में इसका जारी रहना ज़रूरी होता है। यही अमल समाज को फ़साद और बिगाड़ से सुरक्षित रखने का ज़रीआ होता है और इसी अमल पर समाज ' का फ़ितरी तौर पर बाक़ी रहना और इसकी तरक़्क़ी निर्भर होती है।

इनसान का पूरा इतिहास गवाह है कि जब भी किसी समाज में समाज-सुधार की कोशिशों में कोताही बरती गई तो वह समाज तरह-तरह की अख़लाक़ी बुराइयों में पड़कर तबाह-बरबाद हो गया।

अदी-बिन-उमैरा (रज़िअल्लाह अन्हुमा) का बयान है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा-

“अल्लाह ख़ास लोगों के अमल से आम लोगों को अज़ाब नहीं देता। लेकिन अगर वे बुराई को अपने बीच देखते हैं और उसे मिटा देने की ताक़त रखने के बावुजूद लोगों को इससे नहीं रोकते, तो उनके इस रवैए की वजह से अल्लाह ख़ास और आम (बुराई करनेवाले और बुराई को देखकर चुपचाप बैठ जानेवाले) दोनों को अज़ाब में डाल देता है।" (हदीस: मुस्नद अहमद, 587)
इससे अन्दाज़ा होता है कि समाज-सुधार का काम सभी सामूहिक कामों में सबसे अहम है। कुरआन ने इस फ़र्ज़ काम से बुनियादी तौर पर लापरवाही बरतनेवाली क़ौम की हैसियत से यहूदियों का ज़िक्र किया है कि इससे लापरवाही बरतने की वजह से नबियों की ज़बान से उनपर लानत-मलामत की गई और जिसपर नबियों की फिटकार हो, दुनिया की तबाही और आख़िरत का घाटा ही उसकी तक़दीर है-

"बनी-इसराईल में से जिन लोगों ने इनकार किया उनपर दाऊद और मरयम के बेटे ईसा की ज़बान से फिटकार पड़ी, क्योंकि उन्होंने अवज्ञा की और वे हद से आगे बढ़े जारहे थे। आपस में एक-दूसरे को बुरे कामों से, जो वे करते थे, नहीं रोकते थे। जो कुछ वे करते थे यक़ीनन वह बहुत बुरा था।" (कुरआन, 5:78,79)

इनसान होने का सबसे बड़ा तक़ाज़ा ख़ुदा पर ईमान लाना है और ईमान का सबसे अहम तक़ाज़ा और ईमानवालों की सबसे बड़ी पहचान लोगों को भलाई की दावत देना और बुराइयों से बचने की ताकीद और कोशिश करना है। कुरआन में ईमानवाले और मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) के बीच इसे फ़र्क की बुनियाद भी क़रार दिया गया है-

“तमाम मुनाफ़िक़ मर्द-औरत आपस में एक ही हैं। ये बुरी बातों का हुक्म देते हैं और भली बातों से रोकते हैं।" (कुरआन, 9:67)

“और ईमानवाले मर्द और इमानवाली औरतें, ये सब आपस में एक-दूसरे के दोस्त और मददगार हैं। वे भलाइयों का हुक्म देते हैं और बुराइयों से रोकते हैं।" (कुरआन, 9:71)

कुरआन को सोच-समझ कर पढ़ने से मालूम होता है कि दूसरों के सुधार का सही तरीक़ा यह है कि पहले खुद को सीधे रास्ते पर चलने का पाबन्द बनाया जाए। फिर अपने नाते-रिश्तेदारों, घरवालों और पड़ोसियों के सुधार की कोशिश की जाए। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर पहले खुद को पाक करने, कुरआन की तिलावत और अल्लाह की तरफ़ यकसूई इख़्जियार करने की हिदायतें नाज़िल हुईं। (देखें-कुरआन, सूरा-73 और 74)

इसके बाद अपने घरवालों और रिश्तेदारों को दावत देने और उनके सुधार का हुक्म उतरा। (देखें-कुरआन, 26:214)

इसके बाद मक्का और उसके आसपास के लोगों को इस्लाम की दावत देने का हुक्म दिया गया: (देखें-कुरआन, 6:92)

फिर इसके बाद सारे इनसानों को इस्लाम की दावत देने का। इससे दावत और सुधार के बारे में कुरआन के किसी काम को ठहराव के साथ मुख्तलिफ़ मरहलों में अंजाम देने के उसूल का अन्दाज़ा होता है। कुरआन बिगड़े से बिगड़े समाज में भी सुधार के बारे में यकायक और फ़ौरी इंक़िलाब का हुक्म नहीं देता; क्योंकि ऐसा बदलाव अटल और देर तक रहनेवाला नहीं होता। कुरआन आदमी के मिज़ाज के साँचे को बदलने, उसकी सोच के धारे को काइल करनेवाले (Convincing) अन्दाज़ में सही रुख की तरफ़ मोड़ने पर उभारता है। इसी लिए अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को कुरआन में बार-बार यह ताकीद की गई है-

“तुम लोगों पर दारोगा नहीं हो।" (कुरआन, 88:22)  

“तुम्हें हमने उनपर कोई निगराँ तो नहीं बनाया और न तुम उनके ज़िम्मेदार हो।" (कुरआन, 6:107)

इसी तरह क़ुरआन की नज़र में सुधार करने की कोशिश करनेवालों को चाहिए कि वे खुद को उन बातों पर अमल करनेवाला बनाएँ, जिनका वे दूसरों को हुक्म कर रहे हैं। कुरआन की नज़र में यह बहुत ही बुरी बात है कि एक आदमी दूसरों को तो नसीहत करे, लेकिन वह ख़ुद उससे दूर हो। (देखें-कुरआन, 2:44) फिर भी इस्लामी विद्वानों और। मुफ़स्सिरों (टीकाकारों) ने इस बात को स्पष्ट किया है कि भलाई का हुक्म देने और बुराई से रोकने के लिए यह शर्त नहीं है कि ऐसा करनेवाला पहले खुद को पूरी तरह अमली साँचे में ढाल चुका हो वरना इसके बिना वह इस फ़र्ज़ को अंजाम नहीं दे सकता।

बहरहाल समाज-सुधार का क़ुरआनी तसव्वुर यह है कि इनसान सिर्फ खुद ही भलाइयों को अपनानेवाला और बुराइयों से बचनेवाला न हो, बल्कि वह दूसरों को भी नसीहत और हिदायत के जरीए से और अपने खास असरवाले लोगों में ज़रूरत पड़ने पर ताक़त के जरीए से भी इनका पाबन्द बनाने की कोशिश करनेवाला हो। अल्लाह के रसूल की हदीस, (जिसे हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर रज़िअल्लाह अन्हुमा ने बयान किया है)

"तुममें से हर कोई अपने मातहतों का निगराँ और ज़िम्मेदार है" (हदीस : बुख़ारी)

के तक़ाज़ों में यह बात शामिल है। मुसलिम उम्मत के भलाई करनेवाली उम्मत होने का ताल्लुक़ सिर्फ़ जमाअती पहचान से नहीं, बल्कि इसका अस्ल ताल्लुक़ इसकी अमली शर्तों को पूरा करने से है।

कुरआन की नैतिक शिक्षाएँ
कुरआन नैतिक शिक्षाओं का ख़ज़ाना है। इस एतिबार से सही माने में यह नैतिकता की किताब है। इनसान का वुजूद ही अपने आप में नैतिकता का प्रतीक है। दूसरे शब्दों में, इनसान की इनसानियत का सबसे बड़ा कमाल यह है कि वह ठीक उस अख़लाक़ी साँचे में ढल जाए जिसका उसकी फ़ितरत तक़ाज़ा करती है और जिसके लिए अल्लाह तआला अपनी शरीअतें नाज़िल करता रहा है, जिनमें आख़िरी शरीअत ख़ुदा की यह आखिरी किताब 'कुरआन' है। अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के भेजे जाने का मक़सद ‘अख़लाक़ की तकमील' (नैतिकता की पूर्णता) था। इसलिए नबी ((सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया-

“मैं अच्छे अख़लाक़ की तकमील के लिए (खुदा की तरफ़ से) भेजा गया हूँ।"  (हदीस: मुवत्ता)                                                                             

कुरआन में हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बुनियादी मिशन को बहुत-सी जगहों पर बयान किया गया है-
“वह लोगों को अल्लाह की आयतें पढ़कर सुनाता है। उनके अखलाक़ को साफ़-सुथरा करता है और उन्हें किताब और हिकमत की शिक्षा देता है।"1 (1- कुरआन, 2:129, 151;3:164:62:2 ।)
इस लिहाज़ से अन्दाज़ा किया जा सकता है कि कुरआन की शिक्षाओं में नैतिक शिक्षा को पहला और अहम मक़ाम हासिल है।

हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के अख़लाक़ के बारे में किसी ने सवाल किया तो उन्होंने जवाब दिया, “आपका अख़लाक़ कुरआन मजीद था।” दूसरे शब्दों में, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का अख़लाक़ क़ुरआन की शिक्षाओं का ही प्रतिरूप था। यह बात भी कुरआन की शिक्षाओं में अख़लाक़ की मरकज़ियत (केन्द्रीयता) को ज़ाहिर करती है। क़ुरआन एक ऐसा इनसान चाहता है जिसकी ज़िन्दगी अल्लाह की बनाई हुई फ़ितरत के नक़्शे के ठीक मुताबिक़ हो। इनसान की फ़ितरत का तक़ाज़ा यह है कि वह ख़ुदा और बन्दे के रिश्ते के स्वरूपों और तकाज़ों को समझनेवाला हो। वह ख़ुदाई खूबियों को जाननेवाला हो। वह दुनिया में रहकर अपना हिस्सा वुसूल करनेवाला, उसकी लज्ज़तों से जाइज़ तौर पर फ़ायदा उठानेवाला हो, लेकिन वह उनमें मगन रहने और दुनिया की बुराइयों से अपने दामन को गन्दा करनेवाला न हो।

कुरआन शुरू से आख़िर तक ऐसी बुराइयों और इनसानी अख़लाक़ से गिरी हुई चीज़ों की निशानदेही करता और उनसे रोकता है, जिनसे इनसान सबसे अच्छे और ऊँचे मनसब से गिरकर दुनिया के अधम और सबसे नीच आदमी की सफ़ में आ खड़ा होता है और इनके मुक़ाबले में वह उन बेहतरीन खूबियों पर रौशनी डालता है और उनपर उभारता है, जिनसे इनसान के सबसे अच्छे और ऊँचे मनसबवाला होने का पता चलता और सुबूत मिलता है। क़ुरआन सबसे ज़्यादा इनसान को बुरी ख़ाहिशों की जंजीरों से खुद को आज़ाद करने पर जोर देता है। इनसान के अन्दर सारी ख़राबियाँ अश्लील इच्छाओं की पैरवी के नतीजे में पैदा होती हैं। इसलिए क़ुरआन नफ़्स की ख़ाहिशों की पैरवी से बचने का हुक्म देता है। लेकिन कुरआन के नज़दीक इच्छाओं की पैरवी से बचने का मतलब संन्यास और संसार-त्याग नहीं है, जिसका कुछ दूसरी क़ौमों में रिवाज है। क़ुरआन इसको गढ़ी हुई और गैर-फ़ितरी चीज़ क़रार देता है। (कुरआन, 57:27)

कुरआन के अखलाक़ी नज़रिए की बुनियादी हक़ीक़त तौहीद है। इनसान से अपेक्षा है कि वह एक ख़ुदा की गुलामी को क़बूल करते हुए दूसरी हर तरह की गुलामी से खुद को आज़ाद कर ले। वह अपने पूरे वुजूद को एक ख़ुदा के हवाले कर दे। उसकी इनसानियत का सबसे बड़ा कमाल यही है, जैसा कि अल्लामा इक़बाल (रहमतुल्लाह अलैह) ने कहा है-

वह एक सजदा जिसे तू गराँ समझता है।

हज़ार सजदे से देता है आदमी को नजात।।

कुरआन के अख़लाक़ी तसव्वुर की एक अहम बुनियाद यह तसव्वुर भी है कि अल्लाह ने तमाम इनसानों को दुनिया में आज़माइश के लिए पैदा किया है। इसी के साथ उसने इनसान के अन्दर भली और बुरी दोनों तरह की सलाहियतें रखी हैं। (देखें-कुरआन, 90:10) अब यह इनसान पर निर्भर है कि वह दोनों में से किस रास्ते को अपने लिए पसन्द करता है।
इनसान की ज़िन्दगी दो खानों में बटी हुई है-व्यक्तिगत (Individual) और सामाजिक (Social)। एक कामयाब इनसान वह है जो दोनों से सम्बन्धित अपने ऊपर डाली गई ज़िम्मेदारियों को इस तरह निभानेवाला हो कि उनमें सही ताल-मेल क़ायम हो सके। कुरआन तफ़सील के साथ इन दोनों तरह की ज़िन्दगियों के लिए दिशा-निर्देश (guide lines) तय करता है। वह अच्छे अख़लाक़-सच्चाई, अमानतदारी करने, वादा निभाने, खुदा की राह में खर्च करने, सब्र करने, माफ़ करने, बुराई का बदला भलाई से देने, अद्ल और इनसाफ़ क़ायम करने, सच्चाई पर जमने, खातिरदारी, रहमदिली और खैरख़ाही की हिदायत करता है। इस बारे में कुरआन की ये आयतें बहुत अहम हैं-

"ऐ ईमानवालो! अल्लाह का ख़ौफ़ रखो और सच्चों के रहो।" (कुरआन, 9:119)

“अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है कि अमानतें अमानतवालों के हवाले कर दो।" (कुरआन, 4:58)
“नेक लोग वे हैं कि जब वे वादा करें तो उसको पूरा करें।"

(कुरआन, 2:177)

जो लोग अपना माल (नेक कामों में) रात-दिन खुले-छिपे ख़र्च कर रहे हैं, उनका अच्छा बदला उनके रब के पास है और उनके लिए न कोई खौफ़ है और न कोई ग़म।” (कुरआन, 2:274)
संगदिली और बुराई के बदले भलाई और रहमदिली की प्रेरणा कुरआन ने खुद पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को मुखातब करते हुए दी है। इसका अन्दाज़ और बयान का तरीक़ा बेमिसाल अहमियत रखता है-

(ऐ रसूल !) यह अल्लाह की बड़ी रहमत है कि आप उन लोगों के लिए बड़े नरम मिज़ाज हैं वरना अगर कहीं आप सख़्त मिज़ाज और संगदिल होते तो ये सब आपके आसपास से छट जाते। इनके कुसूर माफ़ कीजिए और इनके लिए मगफ़िरत की दुआ कीजिए।" (क़ुरआन, 3:159)

“और भलाई और बुराई बराबर नहीं, तो बुराई का जवाब बेहतरीन रवैए से दो। फिर देखोगे कि वह आदमी जिसके और तुम्हारे बीच दुश्मनी थी, ऐसा हो जाएगा मानो तुम्हारा जिगरी दोस्त है।" (क़ुरआन, 41:34)

इसी तरह कुरआन कहता है-

“अल्लाह एहसान करनेवालों को दोस्त रखता है।" (कुरआन, 3:148)

 “और आप ईमानवालों के साथ खुशदिली से पेश आइए।" (कुरआन, 15:88)

“अल्लाह इनसाफ़ और एहसान का और नाते-रिश्तेदारों के साथ अच्छा सुलूक करने का हुक्म देता है और बेहयाई के कामों और घटिया हरकतों और जुल्म ज़्यादती से रोकता है।"        (कुरआन, 16:90)

“जब तुम लोगों के बीच फ़ैसला करो, तो इनसाफ़ के साथ फ़ैसला करो।" (कुरआन, 4:58)

कुरआन की अख़लाक़ी बातों में दूसरी अहम चीजें सब्र करना और माफ़ करना और अनदेखी करना है। ‘सब्र' शब्द का इस्तेमाल कुरआन में सौ से ज़्यादा जगहों पर हुआ है। कुरआन के मुताबिक़ जन्नत सब्र करनेवालों के लिए बनाई गई है। (देखें-कुरआन, 76:12) कुरआन में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को हुक्म दिया गया है-
"आप इन्हें माफ़ करें और इनकी अनदेखी करते रहिए। बेशक अल्लाह एहसान करनेवालों से मुहब्बत रखता है।" (कुरआन, 5:13) 

अच्छे अख़लाक़ को अपनाने के साथ जिन बुरे अख़लाक़ से लोगों को बचने का कुरआन पाबन्द करता है वे इनसान की समाजी ज़िन्दगी के लिए नासूर की हैसियत रखते हैं। लोगों के अन्दर इन अख़लाक़ी ऐबों के रहते हुए अम्न-चैन से भरे, खुशहाल और आपस में एक-दूसरे की मदद और भलाई करनेवाले समाज की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती-

“लोगों से मुँह न मोड़ो और न ज़मीन पर अकड़कर चलो।" (कुरआन, 31:18)

"झूठी बात से बचो।" (कुरआन, 22:30)

"अपने बारे में पाकबाज़ी का दावा मत करो।" (कुरआन, 53:32)

जो ख़ियानत करेगा, तो वह खियानत समेत क़ियामत में हाज़िर हो जाएगा।" (कुरआन, 3:161)

“और माल और दौलत को बेजा ख़र्च न करो।" (कुरआन, 17:26)  

“और तुम लोग आपस में एक-दूसरे का माल नाहक़ मत खाओ।" (कुरआन, 2:188) 

"ज़िना (व्यभिचार) के क़रीब न जाओ।" (कुरआन, 17:32)

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कुरआन की इन्हीं नैतिक शिक्षाओं की बुनियाद पर अपने साथियों (रज़िअल्लाह अन्हुम) की तरबियत की और इस तरह वह बेहतरीन समाज वुजूद में आया, जिसपर फ़न किया जा सकता है और जिसकी मिसाल नहीं मिलती। एक मुसलमान मुसलमान कहलाने का उसी वक़्त हक़दार है जबकि वह इन शिक्षाओं को अपनी ज़िन्दगी में पूरी तरह उतारनेवाला हो। ईमान का सम्बन्ध सिर्फ मानने से नहीं, बल्कि अस्ल में इनको अमली साँचे में ढालने से है।  

कुरआन और जिहाद
जिहाद बहुत व्यापक शब्द है, जिसका मतलब किसी मक़सद को हासिल करने के लिए आख़िरी हद तक कोशिश करना है। दुश्मनों के साथ लड़ाई का मतलब इसमें लाज़िमी तौर पर शामिल नहीं है। इस मतलब के लिए कुरआन ने एक दूसरी इस्तिलाह (पारिभाषिक शब्द) 'क़िताल' इस्तेमाल की है, जो अमली जिहाद की एक अलग सूरत है। इस्लाम की दावती (प्रचारक-प्रसारक) तहरीक एक शान्तिपूर्ण तहरीक है। इसका मक़सद ख़ुदा के बन्दों को खुदा की तरफ़ बुलाना, ख़ुदा के साथ उनका रिश्ता मज़बूत करना और समाज में अद्लो-इनसाफ़ क़ायम करने की कोशिश करना है। वह सकारात्मक माहौल चाहती है और लड़ाईझगड़ा और खून-खराबा सकारात्मक माहौल के बिलकुल उलट है। जिहाद का बुनियादी मतलब ‘किसी अच्छे मक़सद के लिए पूरी ताक़त की हद तक कोशिश करना' है। इसके बारे में कुरआन में बहुत-सी-स आयतें आई हैं-

"जो लोग हमारी राह में मशक़्क़तें बरदाश्त करते हैं, हम उन्हें अपनी राहें ज़रूर दिखाएँगे।" (कुरआन, 29:69)

इसी तरह एक जगह माल के जरीए से (देखें-कुरआन, 49:15)

और एक दूसरी जगह कुरआन के जरीए से जिहाद का हुक्म दिया गया है। (देखें-कुरआन, 25:52) अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया, "जिहाद करनेवाला वह है जो अपने नफ़्स के साथ जिहाद करे।" (हदीस : तिरमिज़ी) नफ़्स के साथ जिहाद अपने मन की इच्छाओं के साथ जिहाद करना है, जिसे एक दूसरी हदीस ‘कन्जुल-उम्माल' में 'सबसे बड़ा जिहाद' बताया गया है। लेकिन इस जिहाद के अलावा जिहाद की वह क़िस्म, जिसके लिए कुरआन में आमतौर पर 'क़िताल' का शब्द इस्तेमाल हुआ है, उसकी भी कुरआन में इजाज़त दी गई है। लेकिन इस इजाज़त के साथ बहुत-सी शर्ते और पाबन्दियाँ भी लगी हैं। इसलिए जिहाद (मतलब क़िताल) के नाम से की जानेवाली हर लड़ाई जिहाद कहलाने की हक़दार नहीं है। इसकी नीयत के अच्छी-भली होने के साथ मक़सद का भी अच्छा और सही होना ज़रूरी है और यह मक़सद ख़ुदा का बोलबाला करना और अन्याय व अत्याचार का ख़ात्मा है। इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि तरीक़ा भी अच्छा और कुरआन के मुताबिक़ हो।

इस समय जिहाद के नज़रिए के बारे में सिर्फ़ गैर-मुस्लिमों में ही नहीं, मुसलमानों में भी बहुत ज़्यादा ग़लतफ़हमी पाई जाती है। इसकी बुनियादी वजह कुरआन के जिहादी नज़रिए को उसके सही सन्दर्भ में समझने की कोशिश न करना है। इसके सम्बन्ध में सबसे अहम मसला जिहाद से सम्बन्धित कुरआन की आयतों को समझने का मसला है। एक तबके ने इन आयतों के पसेमंज़र और उनके सही अमली इस्तेमाल को समझने में ग़लती की है। जिहाद और जंग की वजह कुन नहीं है, बल्कि हमला और बगावत है। हनफ़ी मसलक़ के आलिम और दूसरे ज़्यादातर बड़े आलिम भी इसी राय को मानते हैं। अगर जिहाद का कारण कुम्न होता तो औरतों, बच्चों और इबादतगाहों की एकान्त जगह में बैठे इबादत करनेवालों को क़त्ल करने से मना न किया जाता। कुरआन में जिहाद की इजाज़त दो मक़सदों के लिए दी गई हैफ़ितना-फ़साद रोकने के लिए (देखें-क़ुरआन, 2:193) और अपने बचाव के लिए। (देखें- कुरआन, 2:191) क़ुरआन की इस्तिलाह में 'फ़ितना' का मतलब उस समय की वह सूरते-हाल है जिसमें लोगों को अक़ीदे और ज़मीर (अन्तरात्मा) की आज़ादी हासिल नहीं थी। समाज में प्रचलित अक़ीदे और मज़हब से हटकर किसी अक़ीदे को क़बूल करने पर उस अक़ीदे के माननेवालों की तरफ़ से ऐसे आदमी को सताया और जुल्म-ज़्यादती का निशाना बनाया जाता था। इस सूरते-हाल को ख़त्म करने के लिए जिस क़िस्म के जिहाद की इजाज़त दी गई, उसे हम 'पेशक़दमी के जिहाद' का नाम दे सकते हैं। दूसरी हर तरह की जंग अपने बचाव के लिए है और कुरआन में आमतौर पर इसी का हुक्म दिया गया है। और हक़ीक़त यह है कि अब यही हुक्म बाक़ी है। फ़ितने की सूरते-हाल के ख़त्म हो जाने के बाद अब इसको जड़ से ख़त्म करने के लिए जंग की ज़रूरत भी बाक़ी नहीं रही। इस तरह आलिमों की बहुत बड़ी तादाद जो यह कहती रही है और जिसमें सुफ़ियान सौरी और इब्ने-शिबमा (रहमतुल्लाह अलैह) जैसे बुजुर्गों से लेकर मौजूदा दौर के बड़े-बड़े आलिम शामिल हैं कि इस्लाम में जंग सिर्फ़ दिफ़ा (प्रतिरक्षा) के लिए है। वह इसी मतलब में है कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और आपके साहाबा (रज़िअल्लाह अन्हुम) के बाद वह वजह बाक़ी नहीं रही, जिसके लिए इस किस्म के जिहाद का हुक्म उतरा था। इस मतलब में इमाम औज़ाई (रहमतुल्लाह अलैह) या पहले के कुछ दूसरे आलिम जिहाद को अरब के मुशरिकों या कुरैश तक ख़ास करते हैं। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद लिखते हैं-
“यह याद रखना चाहिए कि लड़ाई का जो हुक्म दिया गया है उसका सम्बन्ध सिर्फ उन मुशरिक जमाअतों से है जो अरब में इस्लामी दावत को पामाल करने के लिए लड़ रही थीं, न दुनिया-जहान के मुशरिकों के साथ। इसलिए (कुरआन में) शुरू से आखिर तक खिताब इन्हीं जमाअतों से है।" (रसूले-रहमत, पेज 259)

शैख अबू-जहा मिनी लिखते हैं-
क़िताल (जंग) सिर्फ कुरैश तक महदूद था, क्योंकि उन्होंने ही नाजाइज़ हमले का रवैया अपनाया था और वे मक्का में रह जानेवाले मुसलमानों को बराबर सताते रहे थे। बद्र और उहुद की लड़ाई कुरैश के साथ खास थी। लेकिन अहज़ाब की जंग में कुरैश ने पूरे अरब को जमा कर लिया था, जो मदीने की इस्लामी रियासत को जड़ से उखाड़ देना चाहते थे। इसलिए पूरे अरब से जंग ज़रूरी हो गई; क्योंकि उन सभी लोगों ने नाजाइज़ तौर पर आगे बढ़कर हमला किया था। इसी के बारे में कुरआन की यह आयत उतरी-

'तमाम मुशरिकों से जंग करो, जैसे कि वे तमाम लोग तुमसे जंग करते हैं।' (कुरआन, 9:36)1 (1- नज़ीरयतुल-हरब-फ़िल-इस्लाम, पेज 39, 40; वज़ारतुल-औक़ाफ़, मिस्र, 2008।)
जंग करनेवाली क़ौमों के साथ कुरआन का उसूल यह है- “जब तक वे तुम्हारे साथ सही रवैया अपनाएँ, तुम भी उनके साथ सही रवैया अपनाओ।" (कुरआन, 9:7)

कुरआन में क़िताल की जो इजाज़त दी गई है उसकी पहली आयत यह है-

"जिन (ईमानवालों) के ख़िलाफ़ ज़ालिमों ने जंग कर रखी है। अब उन्हें भी जंग की इजाज़त दी जाती है; क्योंकि उनपर सरासर जुल्म हो रहा है और अल्लाह उनकी मदद करने पर ज़रूर कुदरत रखता है। ये वे मज़लूम हैं जो बिना किसी हक़ के अपने घरों से निकाल दिए गए हैं, सिर्फ उनकी इस बात की बुनियाद पर कि हमारा पालनहार अल्लाह है।" (कुरआन, 22:39,40)
कुरआन में जहाँ भी जंग का हुक्म दिया गया है, इसकी वजह आमतौर पर यह बयान की गई है कि 'उनपर जुल्म किया गया, उन्हें घरों से निकाला गया, उनके साथ जंग की गई, वगैरा।' इससे यह बात खूब अच्छी तरह समझ में आती है कि क़ुरआन की नज़र में जंग की इजाजत अस्ल में दिफ़ा (प्रतिरक्षा) के लिए ही दी गई है। जिन आयतों में यह कैद और शर्त नहीं है, वे इसी दिफ़ा की सूरते-हाल पर रखी गई हैं। जिस समय ये आयतें उतरीं, उस समय ईमानवाले और इनकारी दोनों गरोह आपस में लड़ रहे थे। इस तरह जंग के इन हुक्मों को इसी पसेमंज़र में देखना चाहिए।
इसी के साथ कुछ और बातें भी ज़ेहन में रहनी चाहिएँ। कुरआन निहायत ज़रूरी सूरते-हाल में जंग की इजाज़त देता है, लेकिन इस शर्त के साथ कि हमले के जवाब में उसी तरह का हमला हो, उससे ज़्यादा हरगिज़ नहीं-'इसलिए जो तुम पर हाथ उठाए, तुम भी उसपर हाथ उठाओ।' (कुरआन, 2:194) दूसरे यह कि अगरचे दिफ़ा के लिए जंग की इजाज़त दी गई है, लेकिन ज़्यादा बेहतर जुल्म पर सब्र कर लेने को ही बताया गया है-

“अगर तुम सब्र कर लो तो यह सब्र करनेवालों के लिए ज्यादा बेहतर बात है।" (क़ुरआन, 16:126)

मतलब यह है कि कुरआन के जिहाद का नज़रिया सिर्फ जंग और लड़ाई के साथ ख़ास नहीं है। कुरआन के जरीए से जिहाद को, जिसका मतलब दलीलों के जरीए से इनकारियों को क़ाइल करने की कोशिश करना है, 'जिहादे-अकबर' (सबसे बड़ा जिहाद) कहा गया है। तो आप इनकारियों का कहना न मानें और कुरआन के जरीए से उनसे पूरी ताक़त से 'बड़ा जिहाद' करें। (देखें-कुरआन, 25:52)

कुरआन में अपनी जान और माल के बचाव के लिए जिहाद की इजाजत दी गई है और यह फ़ितरत के नियमों के बिलकुल अनुकूल है। आख़िरी और अहम बात यह है कि जिहाद का मक़सद सिर्फ इस्लाम और मुसलमानों की ही हिफ़ाज़त नहीं है, बल्कि इसका एक अहम मक़सद यह भी है कि गैर-मुस्लिमों की इबादतगाहें भी सुरक्षित रहें, जैसा कि कुरआन में कहा गया है-

और अगर अल्लाह लोगों को एक-दूसरे के जरीए से हटाता न रहता तो ईसाइयों की ख़ानक़ाहें, गिरजे, यहूदियों की इबादतगाहें और मस्जिदें सब ढा दी जातीं, जिनमें अल्लाह का ज़्यादा से ज्यादा ज़िक्र होता है।" (कुरआन, 22:40)


गौर करने की बात है कि जिहाद के जरीए से इबादगाहों की सुरक्षा की सूची में मस्जिद का ज़िक्र सबसे आखिर में किया गया है।

कुरआन और गैर-मुस्लिम
कुरआन में गैर-मुस्लिमों का ज़िक्र शुरू से आख़िर तक फैला हुआ में है, कहीं सीधे तौर पर और कहीं किसी वास्ते से उन्हें खिताब किया गया है। ज़्यादातर जगहों पर उन्हें अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के वास्ते से ख़िताब किया गया है, जबकि बहुत-सी आयतों में 'ऐ लोगो!' या 'ऐ आदम के बेटो!' के जुमले से मुसलमानों और गैर-मुस्लिमों दोनों को एक साथ ख़िताब किया गया है। कुरआन सिर्फ़ मुसलमानों की ही क़ानून की किताब नहीं है बल्कि वह पूरी इनसानियत के लिए हिदायत की किताब है। कुरआन का मक़सद पूरी इनसानियत को सीधे रास्ते पर लाना और उसे हमेशा रहनेवाली कामयाबी और नजात दिलाना है। इसलिए कुरआन सबसे पहले यह चाहता है कि इनसान अपने पैदा करनेवाले पूज्य-प्रभु को पहचान ले; कुम्न के अन्धेरों से निकलकर ईमान की रौशनी में आ जाए। कुरआन में इसी हवाले से गैर-मुस्लिमों का ज़िक्र आया है।

कुरआन में गैर-मुस्लिमों के छह गरोहों का ज़िक्र किया गया है
(1) ईसाई, (2) यहूदी (ये दोनों मिलकर किताबवाले माने जाते हैं, (3) मुशरिकीन, (4) मुनाफ़िक़ीन, (5) मजूसी और (6) साबिई।


कुरआन में उन ईसाइयों की जो तसलीस (त्रिवाद) को मानते हैं या हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) को ख़ुदा मानते हैं, काफ़िरों की श्रेणी में रखा गया है। (देखें-क़ुरआन, 5:73) इसी तरह कुछ यहूदियों को भी काफ़िरों की श्रेणी में रखा गया है। (देखें-कुरआन, 5:78) इन दोनों गरोहों को 'किताबवालों' की हैसियत से क़ुरआन में बार-बार खिताब किया गया है। इनका ज़्यादा ज़िक्र और इनके बारे में हुक्म मदीने में उतरी सूरतों में आए हैं। इन्हें बार-बार इस बात की दावत दी गई है कि वे अपनी किताबों में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के आने के बारे में आई पेशीनगोई (पूर्व सूचना) के मुताबिक़ हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को सच्चा पैग़म्बर मानें। अब इनके लिए कामयाबी और नजात की ज़मानत इसी में है। इन्हें यह कहकर बातचीत की दावत दी गई है-

"ऐ किताबवालो! ऐसी बात की तरफ़ आओ, जो हमारे और तुम्हारे बीच समान है और वह यह है कि हम अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न करें और न उसका किसी को साझीदार ठहराएँ। और हममें से कोई अल्लाह के सिवा किसी को रब न बनाए। तो अगर वे मुँह मोड़ें तो कहो : ‘गवाह रहो, हम तो मुस्लिम हैं'।" (कुरआन, 3:64)

किताबवालों की अस्ल कमज़ोरी हक़ बात को जान-बूझकर छिपाना और उसको बातिल (असत्य) के साथ गड्ड-मड्ड करना था। तौरात और इंजील के हुक्मों को जान-बूझकर नज़रअन्दाज़ करते हुए गुमराही की राह अपनाना था। इसी तरह उनका एक बड़ा जुर्म यह था कि उन्होंने अपनी किताबों के बहुत-से हुक्मों को सिरे से मिटा डाला था। उनकी नज़र में इन पर अमल ज़रूरी नहीं था। इसके अलावा वे इनमें शब्दों और अर्थों के बदलाव के दोषी थे। कुरआन में उनकी इन हरकतों पर बार-बार चेताया गया है। सबसे ज़्यादा यहूदियों पर कड़ी पकड़ की गई है, जिसकी वजह से ख़ुदा की तरफ़ से उनपर किए गए इनाम, एहसान और इनके बदले में उनकी सरकशी, इबराहीम (अलैहिस्सलाम) की मिल्लत से उनकी बग़ावत, इस्लाम और मुसलमानों से उनकी ईर्ष्या और दुश्मनी, इस्लाम के पैग़म्बर के दावती मिशन के सम्बन्ध उनकी साज़िशें वगैरा हैं।


किताबवालों को बुनियादी तौर पर एक ख़ुदा का माननेवाला माना गया है और इसी लिए उनके द्वारा ज़ब्ह किए गए जानवरों को हलाल और उनकी औरतों से शादी करने को जाइज़ रखा गया है, जबकि मुशरिकों का ज़ब्ह किया हुआ और उनकी औरतों से शादी बिलकुल ही हराम है। यह किताबवालों के साथ कुरआन की बहुत बड़ी उदारता है, वरना हक़ीक़त यह है कि कुरआन जिस समय नाज़िल हुआ ये दोनों मज़हब अपनी गुमराही और हक़ से बगावत में दूर तक निकल चुके थे। तौहीद का तसव्वुर (एकेश्वरवाद की अवधारणा) अपनी हक़ीक़त के साथ उनके यहाँ मौजूद नहीं था। ईसाई हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) को और यहूदी हज़रत उज़ैर (अलैहिस्सलाम) को खुदा का बेटा मानते थे। कुरआन ने इसके बावजूद उन्हें एक ख़ुदा को माननेवालों की पंक्ति में रखा है। अन्दाज़ा किया जा सकता है कि बहुत-से साझा मामलों के बावजूद आम तौर पर कोई मज़हब या मज़हब के माननेवाले दूसरे को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। इन दोनों मज़हबों के आलिम और आम लोग कुरआन और इस्लाम के पैगम्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दोनों को नज़रिए की सतह पर जाली मानते हैं, जबकि मुसलमान कुरआन के मुताबिक़ दोनों मज़हबों के पैग़म्बरों और इस सिलसिले के दूसरे नबियों (अलैहिस्सलाम) पर ईमान लाने और मज़हबी बुजुर्गों और रहनुमाओं को मानने के पाबन्द हैं। ईसाइयों को सीधे-सीधे खिताब करते हुए कहा गया है कि उन्हें चाहिए कि वे इंजील में खुदा के नाज़िल किए हुए हुक्मों के मुताबिक़ अपना फैसला करें। (देखें-कुरआन, 5:47)

कुरआन के मुताबिक़ उन्हें मज़हबी आज़ादी के साथ क़ानूनी खुदमुख्तारी की यह सब से बड़ी दलील है। डॉ. हमीदुल्लाह लिखते हैं-

“कुरआन में यह बेमिसाल उसूल मिलता है कि हर मज़हबी "कम्यूनिटी को अपने आप में पूरी-पूरी छूट दी जाए, यहाँ तक कि न सिर्फ अक़ीदों की आज़ादी हो और अपनी इबादत वे अपने ढंग पर कर सकें, बल्कि अपने ही क़ानून, अपने ही जजों के जरीए से अपने मुक़दमों का फ़ैसला भी कराएँ......नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में क़ौमी आज़ादी सारी आबादी के हर-हर गरोह को मिल गई थी। जिस तरह मुसलमान अपने दीन, इबादतों, क़ानूनी मामलों और दूसरे मामलों में पूरी तरह आज़ाद थे, उसी तरह दूसरे समुदाय के लोगों को भी पूरी आज़ादी मिली हुई थी।"1 (1- खुतबाते-बहावलपुर, पेज 418, इस्लामिक फ़ाउंडेशन, नई दिल्ली, सन् 2000।)

किताबवालों के अलावा, जिनमें सबसे ऊपर अरब के मुशरिक हैं, कुरआन की नज़र में उनका खुला हुआ जुर्म यह था कि क़ुरआन जैसी वाज़ेह किताब और रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की तरफ़ से हिदायत की आखिरी हद तक कोशिश के बावजूद वे अन्धे-बहरे बने हुए थे, बल्कि वे अपने इस अन्धेपन में इस क़द्र बढ़े हुए थे कि अल्लाह और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ दुश्मनी और जंग पर उतारू थे। ईमान में नए-नए दाखिल होनेवाले लोगों को इससे रोकते और उन्हें तरह-तरह से सताते थे।

मुशरिकों का ज़िक्र मक्के में उतरनेवाली सूरतों में शुरू से आखिर तक फैला हुआ है, क्योंकि मक्की दौर में कुरआन नाज़िल होने के दौरान, इस्लाम अपनानेवालों के मुक़ाबले में और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की दावत के अस्ल मुखातब वही थे। आम तौर पर उन्हें खुदा के एक होने और इबादत में साझीदार ठहराने पर चेताया गया है। मुशरिक लोग जिन फ़र्जी हस्तियों को ख़ुदा का साझीदार ठहराते थे उनकी नज़र में इनकी हैसियत बुदा के पास सिफ़ारिश करनेवालों की थी। कुरआन में इसका बहुत ही ज़ोरदार खंडन किया गया है। अक्ल और फ़ितरी निशानियों (Natural Phenomenons) के हवाले से उन्हें खुदा को एक मानने का कायल करने और इबादत के तमाम मामलों को उसके साथ ख़ास करने की दावत दी गई है। उन्हें बताया गया है कि जिनको वे साझीदार ठहराते हैं और उनकी इबादत करते हैं, वे खुद क़ियामत के दिन उनकी इस इबादत से इनकार करेंगे। कुरआन में है-

“और वह दिन भी जिक्र के काबिल है, जिस रोज़ हम उन सब को जमा करेंगे। फिर मुशरिक लोगों से कहेंगे कि तुम और तुम्हारे साझीदार अपनी जगह ठहरो। फिर हम उनके आपस में फूट डाल देंगे और उनके वे साझीदार कहेंगे कि तुम हमारी इबादत तो नहीं करते थे।" (क़ुरआन, 10:28)

वे अपने उन भक्तों और इबादत करनेवालों के ही विरोधी और दुश्मन हो जाएँगे। (देखें-कुरआन, 19:82) मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) के बारे में कुरआन में 'अल-मुनाफ़िकून' नाम की एक पूरी सूरा ही मौजूद है। यह वह गरोह था, जो ऊपर से इस्लाम का दावा करनेवाला, लेकिन दिल और ज़ेहन से इसका कट्टर विरोधी था। चूँकि मुनाफ़िक़ों का सम्बन्ध मदीने से था, इसलिए उनका ज़िक्र उन सूरतों में आया है जो मदीना में उतरी थीं। कुरआन में ख़ुदा के इनकारियों के साथ मुनाफ़िक़ों से भी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को जिहाद की इजाज़त दी गई है। (देखेंकुरआन, 9:73) विधर्मियों के साथ ज़बान और हथियार दोनों से, लेकिन मुनाफ़िक़ों के साथ सिर्फ़ ज़बान से। मुनाफ़िक़ों को जहन्नम के ज्यादा सख्त अज़ाब की खबर दी गई है (देखें-कुरआन, 4:145) और उनके बारे में कुरआन के बयान का वह पहलू, जिसके तहत उनकी विरोधपूर्ण मानसिकता का चित्रण करके उनकी दिली कैफ़ियतों से परदा उठाया गया है, जो निहायत अहम है।
इन गरोहों के अलावा दो गरोह 'साबिइयों' और 'मजूसियों' का ज़िक्र कुरआन में सिर्फ कुछ जगहों पर ही गौण रूप से आया है; क्योंकि कुरआन नाज़िल होने के समय अरब प्रायद्वीप में उनकी तादाद बहुत थोड़ी थी।

कुरआन में गैर-मुस्लिमों के साथ समुचित उदारता बरती गई है। एक 'मज़हबी गरोह' के बारे में जहाँ उनकी आलोचना की गई है, वहीं 'इनसानी गरोह' की हैसियत से उनके अधिकारों को पूरी तरह से मान लिया गया है। गैर-मुस्लिमों में से वह तबक़ा, जो इस्लाम के माननेवालों का दुश्मन और उनसे युद्धरत था, जिसने मुसलमानों को उनके घरों से निकाला और उनपर जुल्म-ज्यादतियाँ की थीं, उससे सम्बन्ध तोड़ लेने का हुक्म दिया गया है। लेकिन दूसरे तबके से जिसने मुसलमानों के साथ जंग नहीं की, उन्हें उनके घरों से नहीं निकाला, उनके साथ भलाई करने और सामान्य सम्बन्ध बनाए रखने की शिक्षा दी गई है। क़ुरआन में कहा गया है-

"जिन लोगों ने तुमसे दीन (धम) के बारे में लड़ाई नहीं लड़ी और तुम्हें तुम्हारे घरों से नहीं निकाला, उनके साथ अच्छा बरताव और एहसान करने और इनसाफ़ का रवैया अपनाने से अल्लाह तुम्हें नहीं रोकता, बल्कि अल्लाह तो इनसाफ़ करनेवालों से मुहब्बत रखता है।" (क़ुरआन, 60:8)

इस तरह गैर-मुस्लिमों के बारे में कुरआन की शिक्षाएँ फ़ितरी नियमों पर आधारित हैं। इस सम्बन्ध में अगर कुछ ग़लतफ़हमियाँ गैर-मुस्लिमों में पाई जाती हैं, तो उनका सम्बन्ध कुरआन को जानने और समझने से है, न कि ख़ुद कुरआन से और कुरआन के हुक्मों और शिक्षाओं की कोई ऐसी व्याख्या न तो कभी प्रचलित रही और न मानने लायक़।

कुरआन और धार्मिक उदारता
धार्मिक उदारता क़ुरआन की एक महत्त्वपूर्ण शिक्षा है। इस्लाम में उदारता को एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक नियम के रूप में अपनाया गया है, जिसकी बुनियाद क़ुरआन के उदारता-सम्बन्धी नज़रियों पर है। इन नियमों और नज़रियों में सबसे अहम नियम और नज़रिया इस्लाम में ज़ोर-ज़बरदस्ती की नीति का खंडन है। कुरआन में है-
'दीन (धर्म) में ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं। गुमराही के मुक़ाबले में हिदायत वाज़ेह और रौशन हो चुकी है।” (कुरआन, 2:256)

इस आयत के उतरने का सन्दर्भ कुरआन की धार्मिक उदारता की धारणा को और ज्यादा वाज़ेह कर देता है। यह आयत मदीने के अबू-हसीन नामक एक आदमी के बारे में उतरी, जिसके दो बेटे थे। उन दोनों को सीरिया के कुछ व्यापारी ईसाई बनाकर अपने देश ले गए थे। उनके बाप ने आकर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से इस बात की शिकायत की और ख़ाहिश ज़ाहिर की कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) किसी को भेजकर उन दोनों बच्चों को, जिन्हें बचपन में ईसाई बना लिया गया था, इस्लाम में लौटाकर ले आएँ। इसपर कुरआन की यह आयत नाज़िल हुई।1 (1- देखें-कुर्तबी, जिल्द 3, पेज 182 ।) कुरआन में वाज़ेह तौर पर कहा गया है कि इनसान को इस बात का इख्तियार हासिल है कि वह जो भी मज़हब या नज़रिया चाहे अपना ले; क्योंकि यह ख़ुद अल्लाह की बनाई हुई मस्लहत में से नहीं है कि सारे लोग एक तरीक़े (ईमान और इस्लाम) के पाबन्द हो जाएँ-

अगर आपका रब चाहता तो दुनिया के तमाम लोग ईमान क़बूल कर लेते। क्या लोगों को ईमानवाला बनाने के लिए आप उनके साथ ज़बरदस्ती करेंगे?" (कुरआन, 10:99)
“अगर अल्लाह चाहता तो तमाम लोगों को एक उम्मत बना देता।" (कुरआन, 5:48)

“अल्लाह ने ही तुम्हें पैदा किया है, तो कुछ लोग तुममें से ईमानवाले हैं और कुछ लोग इनकारी हैं।" (कुरआन, 64:2)

इस तरह ईमान और इनकार को एक हमेशा रहनेवाली और फ़ितरी हक़ीक़त के तौर पर क़ुरआन में मान लिया गया है। कुरआन का वाज़ेह एलान है कि इस ईमान और इनकार का फ़ैसला अल्लाह कियामत के दिन करेगा-

“अल्लाह क़ियामत के दिन तुम्हारे बीच उन सब बातों का फ़ैसला कर देगा, जिनमें तुम इख़्तिलाफ़ करते थे।" (कुरआन, 22:69)                                                                    दुनिया में इनकार करनेवालों को दीन (धम) के मामले में भी आज़ादी हासिल है- "तुम्हारा दीन तुम्हारे लिए है और मेरा दीन मेरे लिए है।" (कुरआन, 109:6)
और अपने किरदार और कामों के बारे में भी आज़ादी है-

“अल्लाह तुम्हारा और हमारा रब है। हमारे कर्म हमारे लिए हैं और तुम्हारे कर्म तुम्हारे लिए।" (कुरआन, 42:15)

कुरआन में झूठे ख़ुदाओं को भी बुरा-भला कहने से रोक दिया गया. क्योंकि इससे भावनाएँ भड़केंगी और आहत भी होंगी और झूठे ख़ुदाओं की पूजा-पाठ करनेवाले लोग इसके जवाब में असल ख़ुदा को भी बुरा-भला कहने लगेंगे। (देखें-कुरआन, 6:108)  कुरआन में झूठे ख़ुदाओं को माननेवालों के रवैए के खंडन का जो तरीक़ा बयान किया गया है, वह खूबसूरत अन्दाज़ में की जानेवाली बहस है, न कि निन्दा और ताना, लड़ाई-झगड़ा और नफ़रत पैदा करनेवाला ढंग। कुरआन में दूसरों के साथ सभी मामलों में इनसाफ़ का रवैया अपनाने की हिदायत की गई है। ईमानवालों से कहा गया है कि तुम इनसाफ़ क़ायम करनेवाले बनो, चाहे इसकी मार खुद तुम्हारे अपने ही ऊपर क्यों न पड़ती हो। (देखें-कुरआन, 4:135) क़ुरआन के मुताबिक़ पूरा-पूरा इनसाफ़ का मामला किसी एक क़ौम के साथ ख़ास नहीं, बल्कि यह पूरी इनसानियत के लिए आम है। इसलिए कोई भी अन्यायपूर्ण नियम और इनसाफ़ करने का तरीक़ा अपने लिए या अपनी क़ौम के लिए अपनाना किसी भी तरह इस्लाम के मुताबिक़ नहीं होगा। कुरआन में है-

“तुम्हें किसी क़ौम की दुश्मनी इस बात पर आमादा न करे कि तुम इनसाफ़ का रवैया इख्तियार न करो, बल्कि इनसाफ़ करो।"
(कुरआन, 5:8)

कुरआन में दो तरह के इनकारी लोगों का ज़िक्र किया गया है। एक वे जो मुसलमानों के खिलाफ़ जंग और हमले करने पर आमादा थे, जो मुसलमानों को उनके मज़हबी और समाजी हक़ देने को तैयार न थे और जिन्होंने पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर ईमान लानेवालों को अपने जुल्म-ज्यादती और क्रूरता का निशाना बनाया। उन्हें उनके घर और वतन से निकाल दिया। कुरआन में उनके ख़िलाफ़ सख्ती बरतने और उनके जुर्म से बचाव के लिए जंग की इजाज़त दी गई है, जबकि दूसरी किस्म के वे इनकारी लोग हैं, जो मुसलमानों के साथ लड़ने पर आमादा नहीं थे, जिन्होंने मुसलमानों को घर छोड़ने पर मजबूर नहीं किया, उनके साथ कुरआन में नरमी और नेकी का मामला करने पर उभारा गया है। (देखें-कुरआन, 60:8) सबसे बड़ी बात यह है कि कुरआन बड़े से बड़े कट्टर दुश्मन को एक दोस्त के रूप में देखता है और उससे भलाई की उम्मीद रखता है; (देखें-कुरआन, 41:34) क्योंकि हर इनसान फ़ितरत पर पैदा किया गया है और फ़ितरत अपने तक़ाज़े के मुताबिक़ भलाई को पसन्द करती है। ये बाहरी उत्प्रेरक हैं जो उसे भलाई और हक़ के क़बूल करने में रुकावट बन जाते हैं। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मशहूर हदीस है- 

"हर बच्चा फ़ितरत (दीने-फ़ितरत यानी इस्लाम) पर पैदा होता है। फिर उसके माँ-बाप उसको यहूदी, ईसाई या मजूसी (पारसी) बना देते हैं।" (हदीस: मुस्लिम)

इसलिए कुरआन बुनियादी तौर पर उस फ़ितरत को चर्चा का विषय बनाता है, जिसके लिए नफ़रत और सख्ती की नहीं, बल्कि मुहब्बत और नरमी की ज़रूरत होती है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बारे में कुरआन में है कि वह सबसे बढ़कर अखलाक़वाले थे। (देखें- क़ुरआन, 68:4) और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का अखलाक़ आपकी बीवी हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के मुताबिक़ 'कुरआन' था। (हदीसः मुस्लिम) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा-

“मज़लूम चाहे खुदा का इनकारी ही हो, उसकी पुकार के बीच कोई परदा रुकावट नहीं है।" (हदीस: मुसनद अहमद)

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जिस कुरआनी अखलाक़ और उदारता की शिक्षा दी वह यह थी-
"तुम अवसरवादी (opportunist) न बनो कि कहने लगो : अगर लोग हमारे साथ अच्छा मामला करें तो हम भी उनके साथ अच्छा मामला करेंगे और अगर वे हमारे साथ बुरा मामला करेंगे तो हम भी उनके साथ बुरा मामला करेंगे, बल्कि तुम खुद को इस बात का आदी बनाओ कि अगर तुम्हारे साथ कोई बुराई के साथ पेश आए, तब भी  तुम उसके साथ भकाई के साथ पेश आओ।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से साबित है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने नजरान के एक ईसाई दल को मसजिदे-नबवी में अपने मज़हब के मुताबिक़ इबादत की इजाज़त दी। यह क़ुरआन की उदारता का पैग़म्बरोंवाला अमली नमूना है।

कुरआन मुशरिकों और ख़ुदा के इनकारियों की भी माली मदद करने पर उभारता है और उनके अक़ीदे को इसमें रुकावट नहीं मानता-

“(ऐ मुहम्मद!) उन्हें हिदायत देना तुम्हारी ज़िम्मदारी नहीं है। अल्लाह जिसे चाहता है, हिदायत देता है। और जो कुछ माल तुम ख़र्च करोगे, उसमें तुम्हारा ही भला है और तुम सिर्फ अल्लाह को खुश करने के लिए ही माल ख़र्च करते हो।" (कुरआन, 2:272)

कुरआन में कहा गया है कि सदक़ा (दान) फ़क़ीरों और मुहताजों के लिए है। (देखें-कुरआन, 9:60)

हज़रत उमर (रज़िअल्लाह अन्हु) ने फ़रमाया कि इनमें यहूदी और ईसाई भी शामिल हैं। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कुछ यहूदियों के लिए वज़ीफ़ा (गुज़ारा भत्ता) जारी किया और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दुनिया से चले जाने के बाद भी जारी रहा। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की वफ़ात इस हालत में हुई कि आपकी ज़िरह एक यहूदी से क़र्ज़ के बदले में उसके घर गिरवी रखी थी। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मुसलमानों से भी क़र्ज़ ले सकते थे, लेकिन नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी उम्मत को इस तरह की उदारता और अखलाक़ की शिक्षा देने के लिए ऐसा किया। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़िअल्लाह अन्हु) गैर-मुस्लिमों को भी पाबन्दी के साथ कुरबानी का गोश्त भिजवाने पर जोर देते थे और कहते थे कि पड़ोसी होने में वे भी शामिल हैं।

(यूसुफ़ करज़ावी, खैरुल-मुस्लिमीन फिल-मुज्मइल-इस्लामी, पृष्ठ 52, 53)

बहरहाल, कुरआन में धार्मिक उदारता की सार्वजनिक धारणा पाई जाती है। अगर आजकल इसमें कोई कमी पाई जाती है तो इसका सम्बन्ध मुसलमानों के अपने अमल से है, जो दुनिया की मौजूदा राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों से प्रभावित होने का नतीजा है। इसका सम्बन्ध किसी भी तरह अल्लाह की किताब कुरआन से नहीं है।

कुरआन का पसन्दीदा इनसान
कुरआन का पसन्दीदा इनसान कौन है और उसकी खूबियाँ कुरआन की नज़र में क्या हैं? कुरआन पर खुदा की किताब की हैसियत से ईमान रखनेवाले, उसकी तिलावत करनेवाले हर मुसलमान की यह बुनियादी ज़िम्मेदारी है कि वह इस हक़ीक़त को जानने की कोशिश करे कि इसका मक़सद खुद को (कुरआन के) 'ईमानवालों' की खूबियोंवाला बनाना और दूसरों को सामूहिक रूप से इसकी दावत देना है।

कुरआन के मनपसन्द इनसान की सबसे बड़ी खूबी यह है कि खुदा की हस्ती और उसके गुणों पर उसका ईमान पहाड़ की-सी मज़बूती रखता हो, जिसपर हालात का दबाव, ज़माने के उतार-चढ़ाव और फ़ितरत की आज़माइशें असरअन्दाज़ न हो सकें-

“और हम ज़रूर तुम्हें डर, ख़तरे, भूखमरी, जान-माल की हानियों और आमदनियों के घाटे में डालकर तुम्हारी आज़माइश करेंगे और सब्र करनेवालों को खुशखबरी दे दीजिए।"
(कुरआन, 2:155)

“क्या तुम यह गुमान किए बैठे हो कि जन्नत में चले जाओगे? हालाँकि अभी तुम पर वे हालात नहीं आए, अगलों पर आए थे। उन्हें बीमारियाँ और मुसीबतें पहुंची और वे यहाँ तक झिंझोड़ दिए गए कि रसूल और उसके साथ के ईमानवाले कहने लगे : अल्लाह की मदद कब आएगी? (उस समय उन्हें तसल्ली दी गई कि) हाँ, अल्लाह की मदद क़रीब है।" (कुरआन, 2:214) जो तुमसे अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथियों (रज़िअल्लाह अन्हुम) का ईमान ऐसा पक्का और अटल था कि जिसे कोई बड़ी से बड़ी मुसीबत और ज़माने और माहौल का चैलेंज हिला नहीं सकता था; क्योंकि उनका ईमान रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की तरबियत और सीधे-सीधे कुरआन की हिदायतों के ज़रीए बना था। उस ईमान की एक खूबी यह होती है कि अल्लाह के ज़िक्र को सुनकर दिल में भूचाल पैदा हो जाता है और कुरआन की आयतों को सुनकर सुननेवाले का ईमान बढ़ जाता है। (देखें-कुरआन, 8:2)

ईमानवालों की खूबियों और ख़ासियतों से क़ुरआन मजीद के पन्ने शुरू से आखिर तक भरे पड़े हैं। इन पन्नों में ऊँचे दरजे की वे तमाम बुलन्द अखलाक़ी खूबियाँ आती हैं जो इनसान को हक़ीक़ी इनसान और अल्लाह का सच्चा बन्दा बनाती हैं।

इनसानियत की खूबी है कि यह एक इनसान पर दूसरे इनसान के लिए आयद होनेवाले अधिकारों का निर्धारण करती है। बन्दगी और फ़रमाँबरदारी की सिफ़त से ख़ुदा के बन्दा होने के सम्बन्ध में उसपर लागू होनेवाले खुदा के अधिकार ज़ाहिर होते हैं। कुरआन का पसन्दीदा ईमानवाला इनसान वह है जो ख़ुदा और बन्दे दोनों के अधिकारों को ठीक-ठीक तौर पर पूरे ताल-मेल के साथ अदा करनेवाला हो। ऐसा न हो कि एक पहलू पर ज्यादा ध्यान देने से दूसरा पहलू कमज़ोर हो जाए। कुरआन में बहुत-सी जगहों पर 'नमाज़ क़ायम करते हैं और ज़कात देते हैं' को साथ-साथ बयान किया गया है। इसका एक अहम मक़सद नेक अमल की इसी सबसे बड़ी हक़ीक़त को लोगों के ज़ेहन में बिठाना है।

कुरआन की सूरा अल-मोमिनून के शुरू ही में ईमानवाले की खूबी यह बयान की गई है-

"जो अपनी नमाज़ में विनम्रता अपनाते हैं और जो बेकार और बेहूदा बातों से दूर रहते हैं और जो ज़कात देते हैं और जो अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करते हैं।" (कुरआन, 23:1-5)

कुरआन में ये और इनसे मिलती-जुलती मोमिनों जैसी खूबियों पर मुख्तलिफ़ हवालों से जगह-जगह रौशनी डाली गई है और लोगों को उसपर उभारा गया है। एक दूसरी जगह ईमानवाले की जो खूबियाँ बयान की गई हैं, वे ये हैं-

“तौबा करनेवाले, इबादत करनेवाले, उसकी तारीफ़ और गुणगान करनेवाले, रोज़े रखनेवाले (या ख़ुदा की राह में सफ़र करनेवाले), अल्लाह के आगे झुकने और सजदा करनेवाले लोगों को नेकी पर उभारने और बुराई से रोकनेवाले और अल्लाह ने जो हदें मुक़र्रर की हैं, उनकी हिफ़ाज़त करनेवाले।” (कुरआन, 9:112)

इस तरह कुरआन का पसन्दीदा ईमानवाला इनसान वह है जो वादा करे, तो उसे पूरा भी करे। (देखें-कुरआन, 2:177) सब्र करनेवाला हो। (देखें-कुरआन, 46:35) डर रखनेवाला हो। (देखें-कुरआन, 79:26) नाते-रिश्तेदारों, गरीबों और यतीमों की मदद करनेवाला हो। (देखें कुरआन, 2:177) भलाइयों में दूसरों से आगे बढ़ जानेवाला हो। (देखें- कुरआन, 23:61) गुस्से को पी जानेवाला और ग़लती करनेवालों को माफ़ कर देनेवाला हो। (देखें-कुरआन, 42:37)

इन अच्छी खूबियों को अपनाने के साथ-साथ वह तमाम बुरे आचरण से बचनेवला हो, वह घमण्ड से दूर रहनेवाला हो। (देखें- कुरआन, 31:18) दूसरों पर एहसान करने के बाद एहसान जतानेवाला न हो। (देखें-कुरआन, 2:264) फ़िजूलखर्ची करनेवाला न हो और न ही कंजूसी करनेवाला हो, बल्कि बीच की राह अपनानेवाला हो। (देखें- कुरआन, 25:67)

कुरआन अच्छे अखलाक़ अपनाने और बुरे अखलाक़ से बचने के ज़रीए ईमावालों की एक सबसे बड़ी खूबी 'तक़वा' (ईशपरायणता) की सिफ़त पैदा करना चाहता है। तक़वा ईमानवालों की खूबियों को पूरे तौर पर ज़ाहिर करता है। कुरआन को फ़रमाँबरदारों और परहेज़गारों के लिए हिदायत का ज़रीआ बताया गया है। (देखें-कुरआन, 2:2) तक़वा मोमिन की ईमानी शख्सियत को मुकम्मल करता है। ऐसे ही लोग ख़ुदा की नज़र में पूरे तौर पर कामयाब हैं और ऐसे ही लोगों के लिए जन्नत बनाई गई है।

कुरआन खुद कुरआन की नज़र में
कुरआन क्या है? कुरआन खुद अपने बारे में इस सवाल का मुख्तलिफ़ पहलुओं और अलग-अलग ढंग और अन्दाज़ में जवाब देता है। अपनी दूसरी सूरा के शुरू में ही कुरआन अपना परिचय इस तरह कराता है, 'यह एक ऐसी किताब है जिसमें किसी शक की कोई गुंजाइश नहीं है, (और) वह परहेज़गारों को राह दिखानेवाली है।' (देखें-कुरआन, 2:2) इस तरह क़ुरआन का सबसे बड़ा गुण और अलगपन खुद कुरआन के मुताबिक़ इसका अल्लाह की तरफ़ से अवतरित होना और दुनियावालों के लिए हिदायत की किताब और शक से परे होना है। कुरआन में यह बात बहुत-सी जगहों पर कही गई है। एक जगह कहा गया है-

“यह एक ऐसी किताब है जिसके पास बातिल (असत्य) फटक भी नहीं सकता; न इसके आगे से, न इसके पीछे से।" (कुरआन, 41:42) 

यह एक तरह की कुरआनी चार्निंग या हिदायत भी है कि इस किताब के पढ़नेवालो! अगर तुम्हें इसके अल्लाह की किताब होने, सच्ची किताब होने में शक है, तो फिर इससे हिदायत का पाना तुम्हारे लिए मुश्किल है। एक जगह तो क़ुरआन वाज़ेह तौर पर कहता है-

"हमने जो कुछ अपने बन्दे पर उतारा है उसमें अगर तुम्हें शक हो और तुम सच्चे हो तो इस जैसी एक सूरा बना लाओ।" (कुरआन, 2:23)

कुरआन का शक से परे होने का एक पहलू यह भी है कि यह एक 'सुरक्षित किताब' है। (देखें-कुरआन, 15:9) अल्लाह ने इसकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी खुद उठाई है और लफ़्ज़ों और माने (शब्दों और अर्थों) दोनों पहलुओं से इसका बन्दोबस्त किया है।

यही वजह है कि कुरआन इनसानी खुर्दबुर्द से पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में भी उतना ही महफूज़ था, जितना कि यह आज महफूज़ है। कुरआन के नए-पुराने करोड़ों नुस्खों (प्रतियों) में एक शब्द का भी फ़र्क नहीं पाया जाता, जबकि कुरआन से पहले की किताबें इनसानों के हाथों की जाने वाली खुर्द-बुर्द और फेर-बदल का शिकार होकर अपने अस्ल रूप में बाक़ी नहीं रहीं। कुरआन इसका गवाह है और (देखें- कुरआन, 2:75) इनसानी इतिहास भी इसकी सच्चाई का साक्षी है।

अपने दावे के मुताबिक़ क़ुरआन कई मानों में सबसे अलग है। शब्दों और अर्थों दोनों लिहाज़ से इसे सबसे अलग और ऊँचा दरजा हासिल है और यह कमाल ख़ुद इनसानी अल्ल, समझ और अन्दाज़े के मुताबिक़ सबसे बड़ी सच्चाई है, जिससे इनकार नहीं जा सकता। शब्दों की सतह पर इसकी खूबी यह है कि इसकी आयतें निहायत रौशन और वाज़ेह हैं। (देखें-कुरआन, 19:73) इसमें बातों को निहायत तफ़सील के साथ बयान किया गया है। (देखें-कुरआन, 41:3) इसकी आयतें इतनी सुगठित, क्रमबद्ध और इसकी वर्णन-शैली इतनी ज्यादा मनमोहक, सरस और अटल है (देवे-कुरआन, 11:1) कि इसकी बनावट और माने में कोई रुकावट और कमी-बेशी नहीं हो सकती। यह इसलिए अरबी ज़बान में नाज़िल किया गया है कि यह लोगों के लिए समझने में ज्यादा आसान हो सके: क्योंकि इसके सबसे पहले और सीधे-सीधे मुखातब अरबवाले थे, जिनकी ज़बान अरबी थी। लेकिन कुरआन के। अवतरण के लिए इस ज़बान का चुनाव खुद अरबी ज़बान की अपनी खूबियों की वजह से भी है। कुरआन ने अपनी सच्चाई के प्रमाण यह चैलेंज किया कि लोग इसके जैसी एक सूरा ही बनाकर ले आएँ। (देखें-कुरआन, 2:23) लेकिन किसी से यह मुमकिन न हो सका। कुरआन का यह चैलेंज अब भी बाक़ी है। यह चैलेंज कुरआन की क्रमबद्ध शैली और इबारत के अक़्लों को हैरत में डालनेवाली होने और इसके प्रमाणों और अर्थों के प्रभावी होने के ताल्लुक़ से भी है। जहाँ तक अर्थ की बात है, इस सम्बन्ध में इसकी चमत्कारिक खूबियाँ सिर्फ़ अरबी जाननेवालों पर ही नहीं, बल्कि तमाम उन लोगों पर वाज़ेह हैं जो अक़्ल और सोच-समझ से काम लेकर निष्पक्ष भाव से इसे पढ़ते हैं, न कि इनकार और हठधर्मी के ज़ेहन से। कुरआन इस एतिबार से कहता है कि इसके पास पूरी इनसानियत के लिए इलाज और शिफ़ा है। (देखेंकुरआन, 17:82) इसकी अमली गवाही अरब दुनिया की वह अखलाक़ी काया-पलट है, जो कुरआन के नाज़िल होने से हुई। एक वहशी और जाहिल क़ौम दुनिया की सबसे सभ्य और शिक्षित क़ौम बन गई।

खुद कुरआन में कुरआन के लिए जो शब्द इस्तेमाल किए गए हैं, उनमें एक शब्द 'अल-फुरक़ान' है। फुरकान का मतलब 'हक़ और बातिल' (सत्य-असत्य) के बीच फ़र्क करनेवाला है। मानो इसलिए उतारा गया है कि वह अन्तिम रूप से हक़ को बातिल से, तौहीद को शिर्क से और इनसाफ़ को जुल्म और फ़साद से अलग कर दे। कुरआन में है।

“वह अल्लाह बहुत ही बरकतवाला है, जिसने अपने बन्दे पर फुरक़ान (कसौटी) उतारा, ताकि वह तमाम लोगों के लिए ख़बरदार करनेवाला बन जाए।" (कुरआन, 25:1)
इसकी और अधिक व्याख्या इस आयत में मिलती है

“दीन (धर्म) में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है। हिदायत की बात ग़लत विचारों से अलग छाँटकर रख दी गई है।" (कुरआन, 2:256)

इसी तरह 'ज़िक्र' और 'तकरा' का शब्द भी कुरआन के लिए इस्तेमाल हुआ है जो इस बात की पुष्टि करता है कि कुरआन सारे है इनसानों के लिए हिदायत और नसीहत की किताब है। यह इसलिए नाज़िल किया गया है कि इनसान न सिर्फ़ ख़ुदा की पहचान, बल्कि खुद अपनी भी सही पहचान हासिल कर सके। कुरआन इस बात को इस तरह बयान करता है-


“और खुद तुम्हारे अन्दर भी निशानियाँ हैं। क्या तुम देखते नहीं हो?" (कुरआन, 51:21)

कुरआन हिदायत और नसीहत हासिल करने पर बार-बार उभारता है और कहता है-

“याददिहानी तो सिर्फ अक़्ल और समझ रखनेवाले ही हासिल करते हैं।" (कुरआन, 39:9)


जो लोग सूझ-बूझ से काम नहीं लेते उनके लिए नसीहत का दरवाज़ा बिलकुल ही बन्द है। खुदा अक़्ल और समझ से काम लेनेवालों को कुरआन पर गौर करने की दावत देता है-
"क्या वे क़ुरआन पर गौर नहीं करते: क्या उनके दिलों पर ताले (कुरआन, 47:24) चढ़े हुए हैं।"


कुरआन यह नहीं कहता है कि उसे (यानी कुरआन को) बिना सोचे-समझे और दूसरों की अन्धी पैरवी की बुनियाद पर क़बूल कर लिया जाए; क्योंकि इस तरह का क़बूल करना ज्यादा सार्थक और स्थायी नहीं होता। कुरआन में है-

(ऐ नबी!) हमने कुरआन को आपके पास इसलिए उतारा है कि लोग इसकी आयतों में सोच-विचार करें और अक़्ल और समझ रखनेवाले इससे शिक्षा लें।" (कुरआन, 38:29)

कुरआन की निहायत असरदार ताक़त पर मक्का के इनकारियों और मुशरिकों को भी यक़ीन था। इसलिए वे लोगों को कुरआन सुनने से रोकते थे। लेकिन इसी के साथ वे खुद अपने आपको उसके सुनने से नहीं रोक पाते थे। इसकी सच्ची घटनाएँ पैगम्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की जीवनी और इतिहास की किताबों में बड़ी तादाद में मौजूद हैं। क़ुरआन में उनका यह जुमला नक़ल किया गया है-

“और हक़ के इनकारी कहते हैं : इस कुरआन को हरगिज़ न सुनो (और इसके पढ़े जाने के वक़्त) शोर-शराबा करो, शायद की तुम ग़ालिब आ (प्रभावी हो) जाओ।” (कुरआन, 41:26)
अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को जो चमत्कार दिया गया वह अस्ल में कुरआन है। इसलिए यह किताब अपने असर और ताक़त में चमत्कारी खूबी और ख़ासियत रखती है। खुले दिल और सूझ-बूझ के साथ इसका अध्ययन करनेवाला इसकी हिदायत से वंचित नहीं रह सकता।

कुरआन सिर्फ पढ़ने की ही नहीं, बल्कि अस्ल में गहन अध्ययन, चिन्तन-मनन और खूब सोच-समझ कर पढ़ने की किताब है। यह जिस्म ही की नहीं, बल्कि रूह की बीमारियों की दवा और उनके लिए शिफ़ा (आरोग्य) भी है। इसे इसी हैसियत से अपनाया जाना चाहिए।   

 

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