नज़्मे-क़ुरआन और क़ुरआन की शैली (क़ुरआन लेक्चर- 10)
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कु़रआन (लेख)
- at 12 December 2023
डॉ० महमूद अहमद ग़ाज़ी
अनुवादक: गुलज़ार सहराई
लेक्चर नम्बर-10 (17 अप्रैल 2003)
[क़ुरआन से संबंधित ये ख़ुतबात (अभिभाषण), “मुहाज़राते-क़ुरआनी” जिनकी संख्या 12 है, इनमें पवित्र क़ुरआन, उसके संकलन के इतिहास और उलूमे-क़ुरआन (क़ुरआन संबंधी विद्याओं) के कुछ पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। इनमें यह बताया गया है कि क़ुरआन को समझने और उसकी व्याख्या करने की अपेक्षाएँ क्या हैं, उनके लिए हदीसों और अरबी भाषा के ज्ञान के साथ-साथ अरबों के इतिहास और प्राचीन अरब साहित्य की जानकारी भी क्यों ज़रूरी है और इस जानकारी के अभाव में क़ुरआन के अर्थों को समझने में क्या-क्या समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। ये अभिभाषण क़ुरआन के शोधकर्ताओं और उसे समझने के इच्छुक पाठकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।]
नज़्मे-क़ुरआन (क़ुरआन का व्यवस्थीकरण) वह चीज़ है जिसने सबसे पहले अरब के बहुदेववादियों और मक्का के इस्लाम-विरोधियों को क़ुरआन मजीद के आरंभ से परिचित कराया और जिसको सबसे पहले अरब के बड़े-बड़े साहित्यकारों, भाषणकर्ताओं और भाषाविदों ने महसूस किया, जिसने अरबों के उच्च कोटि वर्गों से यह बात मनवाई कि पवित्र क़ुरआन की वर्णन शैली एक अलग प्रकार की वर्णन शैली है। यह वह शैली है जिसका उदाहरण न अरबी शायरी में मिलता है, न भाषण कला में, न कहानत में और न किसी और ऐसे कलाम में जिससे अरबवासी इस्लाम से पहले परिचित रहे होँ। पवित्र क़ुरआन में शेअर की मधुरता और संगीतगुण भी है, भाषण कला का ज़ोरे-बयान भी है, वाक्यों का संक्षिप्त रूप भी है। इस में सारगर्भिता भी पाई जाती है और अर्थों की गहराई भी, इसमें तथ्य एवं ब्रह्मज्ञान की गहराई भी है और तत्त्वदर्शिता एवं बुद्धिमत्ता भी। इस किताब में तर्क और प्रमाणों का प्रकाश और तार्किकता का नयापन और शक्ति भी उच्च कोटि की पाई जाती है, और इन सब चीज़ों के साथ-साथ यह कलाम भाषा की उत्कृष्टता एवं वाग्मिता के उच्चतम स्तर पर भी आसीन है।
जब पवित्र क़ुरआन के ‘नज़्म’ पर बात की जाती है तो हमारे सामने तीन बड़े और नुमायाँ पहलू आते हैं। सबसे पहले ख़ुद क़ुरआन मजीद के शब्दों और वाक्यों की बंदिश, जिसके लिए इस्लामी विद्वानों ने ‘नज़्म’ (व्यवस्थीकरण) की शब्दावली प्रयुक्त की है। दरअस्ल पवित्र क़ुरआन के सन्दर्भ में ‘नज़्म’ के दो अर्थ हैं। एक अर्थ तो पवित्र क़ुरआन की आयतों और सूरतों के आपसी क्रम और आन्तरिक व्यवस्था (निज़ाम) का है, दूसरा अर्थ इबारत और वाक्यों का है। इस दूसरे अर्थ की दृष्टि से पवित्र क़ुरआन में ‘नज़्म’ उसको कहते हैं जिसको हम आम बोल-चाल में शब्द या कलिमा कहते हैं। चूँकि शब्दों और कलिमों के शाब्दिक अर्थ पवित्र क़ुरआन की गरिमा के अनुकूल नहीं समझे गए इसलिए पवित्र क़ुरआन के लिए ‘नज़्म’ की विशेष शब्दावली प्रयुक्त की गई। ‘नज़्म’ का अर्थ है मोतियों को एक लड़ी में पिरो देना। मानो पवित्र क़ुरआन के शब्द सुन्दरता में मोती की तरह हैं और अपने क्रम में बहुत-से सुन्दर मोतियों की तरह एक लड़ी में पिरोए हुए हैं। अगर लड़ी से किसी एक मोती को अलग कर दिया जाए तो लड़ी की सुन्दरता प्रभावित होती है। इसी तरह पवित्र क़ुरआन की शैली की सुन्दरता प्रभावित होगी, अगर उसका एक शब्द भी आगे-पीछे कर दिया जाए। फिर जिस तरह एक लड़ी में पिरोए जानेवाले मोती अपनी-अपनी जगह सुन्दरता और कोमलता रखते हैं, उसी तरह पवित्र क़ुरआन के शब्द भी अपनी-अपनी जगह सुन्दरता और कोमलता रखते हैं।
पवित्र क़ुरआन के सन्दर्भ में ‘लफ़्ज़’ का शब्द इसलिए प्रयुक्त नहीं किया गया कि शाब्दिक दृष्टि से इसका अर्थ फेंकने और गिरा देने का है। ‘लफ़्ज़’ चूँकि इंसान के मुँह से गिरता है इसी लिए इसको ‘लफ़्ज़’ कहते हैं। यह अर्थ स्पष्ट है कि पवित्र क़ुरआन की गरिमा के अनुकूल नहीं था। ‘कलिमा’ की शब्दावली भी इसलिए प्रयुक्त नहीं की गई। ‘कलम’ और ‘कलिमा’ का एक अर्थ ज़ख़्मी कर देने का भी है। इंसान जब ज़बान से कोई सख़्त बात निकालता है, या ग़लत शब्द बोलता है तो अनुचित शब्दों से सुननेवाले की संवेदनाएँ आहत होती हैं, और ऐसी आहत होती हैं कि इसका कोई समाधान या भरपाई नहीं। एक बार दिल के आईने पर चोट लग जाए तो वह चोट मुद्दतों महसूस हुआ करती है। एक अरब शायर ने कहा था, जिसका अनुवाद इस प्रकार है—
“नेज़े (भाले) से लगाया जानेवाला घाव तो भर सकता है लेकिन ज़बानों से लगाया जानेवाला घाव मिटता नहीं है।”
इस शेअर में कलिमे के इसी शाब्दिक अर्थ की ओर इशारा है। मानो न तो कलिमा क़ुरआन की गरिमानुकूल था, न ‘लफ़्ज़’। इनमें से कोई भी अपने शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से पवित्र क़ुरआन के सन्दर्भ में प्रयुक्त किए जाने के लायक़ न था, इसलिए ‘नज़्म’ का शब्द अपनाया गया।
अतः आज की चर्चा के सन्दर्भ में ‘नज़्म’ का एक अर्थ तो है पवित्र क़ुरआन के शब्दों और वाक्यों की सुन्दरता, क्रम का सौन्दर्य, अन्दरूनी बनावट, व्यक्तिगत बंदिश और भाषागत सौन्दर्य, दूसरी चीज़ जो पवित्र क़ुरआन के सन्दर्भ में ‘नज़्म’ से मुराद होती है वह पवित्र क़ुरआन की शैली है जिसपर आज चर्चा होगी। शैली से मुराद है शब्दों की आपस की बंदिश, वाक्यों और आयतों के क्रम और इस क्रम की तत्त्वदर्शिता यानी इस क्रम में किस चीज़ का ध्यान रखा गया है।
अरब में कलिमात के क्रम का कमाल ज़ाहिर करने के तीन नमूने प्रचलित थे। भाषण-कला, शायरी और कहानत। पवित्र क़ुरआन के शब्दों के क्रम और इबारत की बंदिश इन तीनों से भिन्न है। उसकी शैली इन तीनों से अलग है। पवित्र क़ुरआन के सन्दर्भ में शब्दकोश और सर्फ़ो-नह्व (अरबी व्याकरण) की दृष्टि से क्या चीज़ नज़र के सामने रखनी चाहिए, यह दूसरा विषय है। और तीसरा विषय वह है जिसको ‘निज़ाम’ या ‘मुनासबत’ (अनुरूपता) के शब्द से व्यक्त किया गया है। मुतक़द्दिमीन (पहले के आलिमों) ने आयतों और सूरतों के अनुरूप की शब्दावली प्रयुक्त की है। यानी आयतों और सूरतों की आपस की अनुरूपता। कुछ लोगों ने ‘निज़ाम’ की शब्दावली प्रयुक्त की है।
‘नज़्म’ की शब्दावली शब्दों और वाक्यों के क्रम के लिए, ‘मुनासबत’ की शब्दावली आयतों के आपसी क्रम के लिए, जबकि ‘निज़ाम’ की शब्दावली सूरतों के आपसी क्रम के लिए ज़्यादा उपयुक्त मालूम होती है।
ये तीनों अलग-अलग विषय हैं जिनपर मुतक़द्दिमीन (पुराने विद्वानों) के ज़माने से लेकर आज तक लोग लिखते चले आ रहे हैं। सबसे पहले इसपर किसने काम किया? यह कहना बड़ा मुश्किल है। लेकिन जिन-जिन लोगों ने भी पवित्र क़ुरआन की भाषागत उत्कृष्टता एवं वाग्मिता तथा पवित्र क़ुरआन की इबारत के चमत्कारी गुण को अपना विषय बनाया है उन्होंने इस विषय पर भी विचार व्यक्त किए हैं। संभवतः इस्लामी इतिहास की पिछली बारह, तेरह शताब्दियों में से कोई शताब्दी ऐसी नहीं गुज़री जिसमें एक से अधिक टीकाकारों ने पवित्र क़ुरआन की आन्तरिक व्यवस्था, सूरतों के क्रम और अनुपात को अपने शोध का विषय न बनाया हो।
लेकिन यह अत्यंत महत्वपूर्ण और दिलचस्प बात है जिससे पवित्र क़ुरआन के चमत्कारी गुणों का एक और पहलू हमारे सामने आता है कि ऐसे लोग जिन्होंने सन्तुलन और ‘निज़ाम’ (व्यवस्था) की एक नई शैली और धारणा दी और इस संबंध में नए-नए तथ्यों का पता चलाया, जिन्होंने ‘नज़्म’ और अनुपात की नया ‘निज़ाम’ खोज लिया, और एक स्थायी धारणा लोगों को दी उनकी संख्या भी दर्जनों में है। कमो-बेश बीस-पच्चीस ऐसे विद्वानों के शोध आज उपलब्ध हैं जिन्होंने पवित्र क़ुरआन की आयतों की आपस में ‘मुनासबत’ (अनुकूलता), फिर सूरतों के सन्तुलन और आन्तरिक व्यवस्था के बारे में मानो एक नई धारणा प्रस्तुत की और इस धारणा के आधार पर उन्होंने पूरे पवित्र क़ुरआन के ‘निज़ाम’ को चस्पाँ करके दिखाया। ख़ुद हमारे भारतीय उप महाद्वीप में कई लोगों ने पवित्र क़ुरआन के इस महत्त्वपूर्ण पहलू को अपने शोध का विषय बनाया है। शाह वलियुल्लाह मुहद्दिस देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) ने ‘अल-फ़ौज़ुल-कबीर’ में कुरआनी नज़्म पर एक सैद्धांतिक और आम चर्चा की है।
निज़ाम के बारे में इस चर्चा से दो ग़लत-फ़हमियों का खंडन अभीष्ट है। एक ग़लती तो पवित्र क़ुरआन के पाठक को शुरू में ही पेश आती है। जब कोई पाठक पहली बार पवित्र क़ुरआन खोलता है और इस किताब को पढ़ना चाहता है तो बज़ाहिर उसको यह लगता है कि यह तो एक असंकलित-सी चीज़ है, इसलिए किसी जगह से भी इस किताब को खोलें उसी जगह इस किताब में बहुत सारी वार्ताएँ एक प्रकार की नज़र आती हैं। पवित्र क़ुरआन के किसी पृष्ठ को खोलकर देखें तो आपको महसूस होगा कि वहाँ तौहीद (एकेश्वरवाद) की बात भी है, आख़िरत (परलोक) का अर्थ भी है, किसी नबी का हवाला भी है, किसी पिछली क़ौम का उल्लेख भी मिलता है, कहीं नैतिक निर्देश भी हैं, फ़िक़्ही (धर्मशास्त्रीय) आदेश भी हैं। ऐसा मालूम होता है कि पवित्र क़ुरआन की जितने विषय हैं वे सारे के सारे पवित्र क़ुरआन के हर एक पृष्ठ पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मौजूद हैं। सच तो यह है कि है भी ऐसा ही। पवित्र क़ुरआन के मूल विषय लगभग हर सूरा में और हर जगह प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से मौजूद हैं। उनको देखकर अक्सर नौ-सिखिए पाठक को यह ध्यान आता है कि शायद पवित्र क़ुरआन में कोई विशेष क्रम या ‘निज़ाम’ नहीं है। निज़ामे-क़ुरआनी (क़ुरआन की क्रमबद्धता) की इस पड़ताल से एक तो इस ग़लती का खंडन हो जाता है।
दूसरी ग़लती जो इस ‘निज़ाम’ की ‘मुनासबत’ या क्रम को न समझने से घटित होती है, वह यह है कि अगर यह विचार दिल में बैठ जाए कि पवित्र क़ुरआन में कोई क्रम या अनुरूपता नहीं है, या आयतों या सूरतों में किसी क्रम का ध्यान नहीं रखा गया तो फिर पवित्र क़ुरआन का पाठक उसकी हर आयत को एक अलग पूर्ण वार्ता समझकर उसकी व्याख्या करता है। और इस स्थिति में कभी-कभी उसका सम्पर्क सन्दर्भ से कट जाता है। फिर उस सम्पर्क के कट जाने की वजह से वह बहुत-सी ग़लत-फ़हमियों में मुब्तला हो सकता है। ऐसे बहुत-से उदाहरण मौजूद भी हैं कि सन्दर्भ और विषय की अनुकूलता का ध्यान रखे बिना किसी आयत की व्याख्या की गई और व्याख्या करनेवाला सत्य मार्ग से हट गया। इसलिए इन दोनों ग़लत-फ़हमियों को दूर करने की ख़ातिर और इन दोनों ग़लतियों से बचने के लिए ज़रूरी है कि पवित्र क़ुरआन के आन्तरिक क्रम, ‘निज़ाम’ और आयतों और सूरतों की ‘मुनासबत’ को समझने की कोशिश की जाए, और यह देखा जाए कि पवित्र क़ुरआन में यह चीज़ें किस क्रम से आई हैं।
अब चूँकि हमारे सामने बहुत-से ‘निज़ाम’ हैं और दूसरे शब्दों में आयतों और सूरतों की ‘मुनासबत’ या ‘निज़ाम’ के कई किए गए शोध हैं, इसलिए उनमें से कोई भी क्रम या शोध सामने रखा जाए तो पवित्र क़ुरआन का उद्देश्य पूरा हो जाता है। लेकिन ‘निज़ाम’ और ‘मुनासबत’ पर चर्चा का आरंभ करने से पूर्व सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि पवित्र क़ुरआन में ये सब विषय इकट्ठा और बार-बार क्यों बयान हुए हैं। उदाहरणार्थ सूरा फ़ातिहा को बतौर मिसाल ले लें। इसका आरंभ तौहीद (एकेश्वरवाद) के उल्लेख से होता है। फिर तुरन्त ही बाद आख़िरत का ज़िक्र आ जाता है। आख़िरत (परलोक) के बाद इबादत का ज़िक्र है। फिर सिराते-मुस्तक़ीम (सत्यमार्ग) का ज़िक्र है जिसका मतलब शरीअत है। फिर उन लोगों का उल्लेख आ गया जिनको अल्लाह तआला ने उत्तम प्रतिदान दिया, अर्थात् पैग़म्बरों का, सिद्दीक़ीन (अत्यंत सच्चे लोगों) का, शहीदों का और नेक लोगों का। फिर उन लोगों के रास्ते से बचने की दुआ भी की गई जिनपर अल्लाह तआला का प्रकोप हुआ और जो सत्यमार्ग से भटक गए। इस तरह अवज्ञाकारी बन्दे भी आ गए और जो लोग गुमराह थे, उनका भी उल्लेख आ गया, यानी दोनों प्रकार के अवज्ञाकारी शामिल हो गए।
मानो पवित्र क़ुरआन की सारी वार्ताएँ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पवित्र क़ुरआन की इस सूरा फ़ातिहा में मौजूद हैं। यही बात आप पवित्र क़ुरआन के हर पृष्ठ पर महसूस कर सकते हैं। ऐसा क्यों है? इसपर ग़ौर किया जाए तो तुरन्त ही दो निहितार्थ सामने आते हैं। यानी मूल रूप से इसमें दो तत्त्वदर्शिताएँ समझ में आती हैं। पहला निहितार्थ या तत्त्वदर्शिता तो यह मालूम होती है कि पवित्र क़ुरआन चूँकि मार्गदर्शन की किताब है और इंसानी ज़िन्दगी के हर पहलू में मार्गदर्शन उपलब्ध करती है इसलिए पवित्र क़ुरआन ने इन सारे पहलुओं को एक साथ सामने रखा है, जहाँ-जहाँ इंसान को मार्गदर्शन की ज़रूरत पड़ सकती है और पड़ती है। क़ुरआन ने उन सब विषयों पर एक साथ ध्यान दिया है। अगर किसी एक पहलू या विषय पर ज़ोर दिया जाए, चाहे वह किसी विशेष वार्ताक्रम में ही हो, तो शेष पहलू वक़्ती तौर पर नज़रअंदाज हो जाते हैं या कम से कम दब ज़रूर जाते हैं और इंसान उस वक़्त जिस विषय का अध्ययन कर रहा हो, वह सीधे उस विषय के दृष्टिकोण से उन घटनाओं को देखने लगता है, और बाक़ी बातें वक़्ती तौर पर ही सही, उसकी नज़र से ओझल होनी शुरू हो जाती हैं।
इसकी छोटी-सी मिसाल देखनी हो तो दूसरे ज्ञान एवं कलाओं को देखिए। हमारी जितनी सोशल साइंसेज़ या ह्यूमैनिटीज़ हैं वे सब की सब इंसान के व्यक्तिगत और सामूहिक रवैयों को समझने के लिए हैं। मानव ज्ञान या Humanities व्यक्तिगत रवैयों को समझने के लिए और सामाजिक विज्ञान (सोशल साइंसेज़) सामूहिक रवैये को समझने के लिए ज़रूरी समझे जाते हैं। दोनों का उद्देश्य इंसान को पूरे तौर पर समझना है। सोशल साँसेज़ में अगर कोई अर्थशास्त्र का विद्यार्थी हो और अर्थशास्त्र ही पढ़ता हो तो उसके रवैये में एक ख़ास दृष्टिकोण पैदा हो जाता है, जिसके बारे में अंग्रेज़ी में कह सकते हैं कि एक पाइपलाइन एप्रोच पैदा हो जाता है। जब आप पाइपलाइन से किसी दृश्य को देखना चाहेंगे तो आपको सिर्फ़ कुछ इंच ही का सीमित दृश्य नज़र आएगा और इस कुछ इंच के दृश्य के अलावा सृष्टि की सारी विशालता नज़रों से ओझल रहेगी। इसलिए कि इस तरह आपकी नज़र एक विशेष बिन्दु पर केन्द्रित हो जाती है। इसी तरह शेष ज्ञानों का मामला है। अगर आप किसी अर्थशास्त्री से पूछें कि इस समय मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी समस्या कौन-सी है तो वह कहेगा कि मुस्लिम जगत् में जी.डी.पी. बहुत कम है, विकास की दर रुकी हुई है और वार्षिक विकास दर (ग्रोथ रेट) कम है। अगर किसी दार्शनिक से पूछें कि मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी समस्या कौन-सी है, तो वह कहेगा कि उदाहरणार्थ मुसलमानों के ज्ञान संबंधी दृष्टिकोण में बड़ी ख़राबी है। इसी प्रकार इतिहास का विद्यार्थी कोई और जवाब देगा। यह उदाहरण इस बात के स्पष्टीकरण के लिए काफ़ी हैं कि अगर मानव जीवन को विभिन्न भागों में बाँट दिया जाए तो मानव जीवन की समग्रता यानी totality नज़रों से ओझल हो जाती है और इंसान अपनी ज़िंदगी को विभन्न हिस्सों में विभाजित करके अलग-अलग देखना शुरू कर देता है। यह रवैया न केवल इंसान की मूल आवश्यकता के विरुद्ध है, बल्कि उसके स्वभाव के भी समरूप नहीं है। इस बिन्दु के तदधिक स्पष्टीकरण के लिए बाइबल की मिसाल लीजिए। बाइबल की किताबों का क्रम बड़ा अजीबो-गरीब है। पवित्र क़ुरआन के विपरीत बाइबल की किताबों में अंशों को विषयों के हिसाब से संकलित किया गया है। सबसे पहले किताब ‘उत्पत्ति’ है जिसमें बताया गया कि सृष्टि कैसे पैदा हुई, किन-किन चरणों में पैदा हुई, पहले क्या पैदा हुआ, फिर क्या पैदा हुआ। ऐसा मालूम होता है कि जैसे आरंभिक मानव नस्लों की पैदाइश ही की कोई दास्तान या चार्ट है। उसके बाद एक और हिस्सा आता है। जिसका शीर्षक ‘गिनती’ है। ऐसा लगता है कि शायद कोई जनसंख्या की रिपोर्ट है। यह हिस्सा बजाए किसी आकाशीय ग्रन्थ के आंकड़ों की एक रिपोर्ट मालूम होता है। बाइबल के जिस पाठक को इन आंकड़ों से दिलचस्पी नहीं है, वह इस हिस्से को नहीं पढ़ेगा, इसका नतीजा यह निकलेगा जैसा कि तौरात के बारे में निकला कि लाखों नहीं, करोड़ों यहूदी और ईसाई ऐसे मिलेंगे जिन्होंने कभी पूरी तौरात खोलकर नहीं पढ़ी। इसलिए कि उन्होंने तौरात के उन हिस्सों में कोई दिलचस्पी नहीं ली जो उनके लिए रोचक नहीं थे। उन्होंने तौरात का केवल वही हिस्सा देखा जिसकी उनको ज़रूरत थी या जिससे किसी न किसी वजह से उन्हें वास्ता था। इस ख़ास हिस्से के अलावा उन्हें कोई बहस नहीं थी कि तौरात में क्या लिखा है और क्या नहीं लिखा।
अगर पवित्र क़ुरआन भी इसी क्रम से होता कि इसमें विभन्न निर्देश और आदेश अलग-अलग बयान हुए होते। जैसे कि एक सूरा क़ानून पर होती, एक सूरा अक़ाइद (अवधारणाओं) पर होती, एक सूरा अख़लाक़ (नैतिकता) पर होती। तो पवित्र क़ुरआन से मुसलमानों की दिलचस्पी का भी शायद वही हश्र होता जो तौरात से यहूदियों की दिलचस्पी का हुआ। उदाहरणार्थ अगर किसी दार्शनिक स्वभाव या सोच से दिलचस्पी रखनेवाले व्यक्ति को अक़ीदों से दिलचस्पी होती, वह अक़ीदोंवाली सूरा याद कर लेता और बाक़ी सूरतों को छोड़ देता। जिसकी दिलचस्पी क़ानूनवाली सूरा से न होती वह उसको न पढ़ता। यह कोई कपोल-कल्पना नहीं है, बल्कि सच है, जिसके उदाहरण हममें से हर एक आए दिन देखता रहता है। हम रोज़ देखते हैं कि एक व्यक्ति लाइब्रेरी में जाता है तो अपने विषय की किताब उठाकर पढ़ लेता है। शेष किताबों से उसे कोई सरोकार नहीं होता। अगर आपका विषय कंप्यूटर नहीं है तो अगर आप बीस साल भी लाइब्रेरी में जाते रहें और वहाँ बीस साल भी कंप्यूटर के बारे में उच्च से उच्चतम कोटि की ज्ञानवर्धक किताबें रखी रहें तो आपके लिए बेकार हैं। पवित्र क़ुरआन ने इस तरह विषयानुगत विभाजन करके इल्म को compartmentalize नहीं होने दिया, अंशों में विभाजित नहीं होने दिया, बल्कि इल्म को एक एकत्व के तौर पर बरक़रार रखा, और इस एकत्व को मुसलमानों के दिलो-दिमाग़ में रचा-बसा दिया। इसलिए पवित्र क़ुरआन के जितने मूल विषय हैं, वे एक साथ हर पाठक की नज़रों के सामने होते हैं। और इंसान पवित्र क़ुरआन की तिलावत के वक़्त एक पल के लिए भी उनके प्रति उदासीन नहीं होता।
इस शैली के दो फ़ायदे ख़ास तौर पर सामने रहने चाहिएँ। एक फ़ायदा तो यह कि पवित्र क़ुरआन के पाठक के सामने इस किताब के तमाम मूल विषयों का संग्रह हर वक़्त मौजूद रहता है और कोई पहलू नज़रों से ओझल नहीं होने पाता। दूसरा फ़ायदा यह है कि पवित्र क़ुरआन के अर्थों के इस तरह टुकड़े-टुकड़े नहीं हो सके जिस तरह बाक़ी किताबों के हो गए। हिंदुओं में एक नहीं, बल्कि कई किताबें पाई जाती हैं, जिनके बारे में यह दावा किया जाता है कि वे सब धर्मग्रन्थ हैं। ऐसे में उनके सामने यह समस्या बनी रहती है कि वे किस किताब को अस्ल धर्मग्रन्थ मानें। पवित्र क़ुरआन को इस अंजाम से सुरक्षित रखने की ख़ातिर जो शैली अपनाई गई वह यह थी कि सारे विषय पूरी किताब में रचे बसे हैं।
अब इस शैली की वजह से एक आम पाठक को यह ग़लत-फ़हमी पैदा हो जाती है कि पवित्र क़ुरआन में कोई क्रम नहीं है और इसकी आयतों और सूरतों में कोई क्रम या अनुरूपता नहीं है। हालाँकि इसमें इतना असाधारण क्रम और ऐसी अजीबो-गरीब अनुरूपता पाई जाती है कि दर्जनों टीकाकारों ने और बड़े-बड़े दिमाग़ों ने यानी इमाम राज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) और ज़मख़्शरी (रहमतुल्लाह अलैह) जैसे दिमाग़ों ने इस पहलू पर वर्षों चिन्तन-मनन किया और हर एक ने एक नया ‘निज़ाम’ खोज लिया। आप इस सिस्टम की गहराई और सार्थकता में ग़ौर करें जिसको दर्जनों लोगों ने वर्षों के चिन्तन-मनन के बाद खोजा है और नहीं मालूम कि आइन्दा कितने ‘निज़ाम’ और निकलकर आएँगे। एक ‘निज़ाम’ मौलाना अमीन अहसान इस्लाही की टीका ‘तदब्बुर क़ुरआन’ में मिलता है। इस ‘निज़ाम’ पर कमो-बेश सौ वर्ष विचार हुआ है और सौ साल के चिन्तन-मनन के आधार पर नज़्मे-क़ुरआन और ‘मुनासबत’ के जो उसूल स्पष्ट हुए, उनकी रैशनी में उन्होंने अपनी यह टीका संकलित की है। इस पूरी तफ़सीर में उन्होंने इस निज़ाम को इस तरह से स्पष्ट करके सामने रख दिया है कि हर पढ़नेवाला महसूस करता है कि यह एक बिल्कुल स्पष्ट चीज़ है।
इमाम राज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) ने सूरतों की जो ‘मुनासबत’ बयान की है उसे पढ़ें तो ऐसा महसूस होता है कि ‘मुनासबत’ की हिकमतों का इससे बेहतर बयान नहीं हो सकता। एक ‘निज़ाम’ मौलाना अशरफ़ अली थानवी के यहाँ मिलता है। उन्होंने अपनी तफ़सीर ‘बयानुल-क़ुरआन’ में विभन्न सूरतों के क्रम में छिपी तत्त्वदर्शिताओं की ओर इशारे किए हैं और सूरतों की आपस में ‘मुनासबत’ को स्पष्ट किया है। निकट अतीत के टीकाकारों में मौलाना सय्यद अबुल आला मौदूदी (रहमतुल्लाह अलैह) और मौलाना मुहम्मद शफ़ी (रहमतुल्लाह अलैह) ने भी सूरतों के बीच परस्पर संबंधों की निशानदेही की है।
पंजाब (पाकिस्तान) के मशहूर शहर मियाँवाली के क़रीब एक गाँव बछराँ के एक बुज़ुर्ग मौलाना हुसैन अली ने पूरी ज़िंदगी पवित्र क़ुरआन पर ग़ौर किया। फिर उस लम्बे चिन्तन-मनन के बाद उन्होंने एक नया ‘निज़ाम’ खोज लिया जो पिछले खोजे हुए निज़ामों से बिलकुल अलग और निराला है। उनकी इस शैली के अनुसार उनके प्यारे शिष्य मौलाना ग़ुलामुल्लाह ख़ान ने तफ़सीर ‘जवाहरुल-क़ुरआन’ संकलित की जिसमें इस पहलू पर बहुत ज़ोर दिया गया। इन तमाम विद्वानों के अध्ययन का निचोड़ यह है कि पवित्र क़ुरआन का एक-एक शब्द या एक-एक कलिमा आपस में इस तरह संबद्ध हैं जैसे किसी ज़ेवर में मोती जड़े होते हैं कि उनमें से किसी एक मोती को भी आगे-पीछे नहीं किया जा सकता। अगर एक मोती भी इधर से उधर कर दिया जाए तो ज़ेवर की सुन्दरता में फ़र्क़ पड़ जाता है।
इसी तरह सूबा सरहद (खैबर पख्तून खाह, पाकिस्तान) में सवाबी के एक बुज़ुर्ग ने पवित्र क़ुरआन के ‘नज़्म’ का एक और अंदाज़ खोजा है। उनका कहना है कि हर सूरा का एक दावा होता है फिर शेष सूरा इस दावे के सुबूत और तर्कों पर आधारित होती है। तर्कों पर जो आपत्तियाँ हैं वे भी सूरा में शामिल हैं। उसपर आपत्ति का जवाब, फिर उस आपत्ति पर अगर कोई सन्देह है तो उस सन्देह का उल्लेख और सन्देह का जवाब। मतलब यह कि पूरी सूरा एक दावे और तर्कों के एक सिलसिले से भरी होती है और उन्होंने हर सूरा पर इस शोध को चस्पाँ करके दिखाया है। यह एक आसाधारण चीज़ है।
ऊपर दो शब्दावलियों का उल्लेख हुआ हुआ है। एक ‘मुनासबत’ का, और दूसरे ‘निज़ाम’ का। ‘मुनासबत’ की शब्दावली मुतक़द्दिमीन (प्राचीन विद्वानों) ने अपनाई है। ‘निज़ाम’ की शब्दावली कुछ मुताख़्खिरीन (बाद के विद्वानों) ने अपनाई है। ख़ास तौर पर मौलाना हमीदुद्दीन फ़राही ने न सिर्फ़ ‘निज़ाम’ की शब्दावली अपनाई है, बल्कि इस विषय पर लम्बे समय तक चिन्तन-मनन और अध्ययन के बाद उन्होंने ‘निज़ाम’ की अपनी परिकल्पना को अन्तिम रूप दिया। उनकी एक किताब है ‘दलायलुन्निज़ाम’ इस में उन्होंने अपने खोजे हुए ‘निज़ाम’ की तफ़सीलात उदाहरण देकर बयान की हैं। इन दोनों शब्दावलियों में थोड़ा-सा फ़र्क़ है। ‘मुनासबत’ तो पूरे ‘निज़ाम’ का एक हिस्सा है। और पूरे system को आप ‘निज़ाम’ कह सकते हैं। यानी पवित्र क़ुरआन के वाक्यों के, फिर आयतों के, फिर सूरतों के क्रम में जो हिकमत (तत्त्वदर्शिता) है या जो system कार्यरत है उसका समष्टीय नाम ‘निज़ाम’ है और इसके अंदर जो आंशिक तफ़सीलात हैं वह ‘मुनासबत’ कहलाती हैं। इन दोनों शब्दावलियों में थोड़ा-सा फ़र्क़ है। मानो ‘निज़ाम’ एक आम शब्दावली है, और ‘मुनासबत’ उस के एक हिस्से का नाम है।
‘निज़ाम’ और ‘मुनासबत’ की दोनों धारणाओं को समझना बड़ा आसान हो जाएगा अगर आप यह ज़ेहन में रखें (सिर्फ़ समझने के लिए) कि जैसे उर्दू में एक नज़्म है, एक ग़ज़ले-मुसलसल है। दोनों में अशआर की ‘मुनासबत’ (अनुरूपता) का अलग-अलग अंदाज़ पाया जाता है। ग़ज़ल में आम तौर पर लगता है कि कोई क्रमबद्ध वार्ता नहीं है, बल्कि हर शेअर एक अलग वार्ता है। कुछ जगह उर्दू फ़ारसी में ग़ज़ले-मुसलसल (क्रमबद्ध ग़ज़ल) का भी रिवाज है। ग़ज़ले-मुसलसल में भी बज़ाहिर तो अलग-अलग शेअर मालूम होते हैं, लेकिन ज़रा ग़ौर करें तो सारे अशआर में एक गहरी सार्थक ‘मुनासबत’ पाई जाती है। विषयों की एक समरसता है। जो बात हुई है वह पहले शेअर में है, फिर दूसरे शेअर में अगली बात है। फिर तीसरी बात तीसरे शेअर में है। और फिर आगे-आगे वार्ता दर्जा-ब-दर्जा चलती जाती है। एक शेअर के दो मिसरों में भी यही सार्थक क्रम होता है। जो बात पहले मिसरे में होनी चाहिए वह पहले मिसरे में होती है और जो बाद में होनी चाहिए वह बाद में दूसरे मिसरे में होती है। पवित्र क़ुरआन की शैली (बिना किसी उपमा के प्रस्तुत है) लगभग ग़ज़ले-मुसलसल की सी है। पहली नज़र में देखनेवाले को वे वार्ताएँ अलग-अलग मालूम होती हैं। लेकिन थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ते जाएँ और ग़ौर करते जाएँ तो मालूम हो जाएगा कि वे वार्ताएँ जो बज़ाहिर अलग-अलग मालूम हो रही थीं, उनमें बड़ा गहरा क्रम और ‘मुनासबत’ पाई जाती है। वह ‘मुनासबत’ इस तरह की है कि ग़ौर करने से जब समझ में आ जाए तो दिन के उजाले की तरह स्पष्ट हो जाती है।
पवित्र क़ुरआन का अंदाज़ यह है कि जब वह किसी विषय को बयान करता है और ख़ास तौर पर किसी प्राचीन घटना या क़िस्से को बयान करता है, किसी व्यक्ति या क़ौम पर अल्लाह तआला के इनाम या अज़ाब का ज़िक्र करता है तो वहाँ पवित्र क़ुरआन की शैली एक इतिहासकार की-सी नहीं होती, बल्कि उसका अंदाज़ और शैली उपदेशक की होती है और हर घटना से सीख दिलाना अभीष्ट होता है। उस विशेष घटना में जो सबक़ छिपा हुआ होता है उसको नुमायाँ करना ही अस्ल उद्देश्य होता है। कभी-कभी पवित्र क़ुरआन पूरी घटना का भी उल्लेख नहीं करता, बल्कि केवल ‘وَاذْکر’ (ज़रा याद करो) कहकर घटना का एक अंश या दो अंशों को लाया जाता है। और फिर केवल उतना ही हिस्सा वहाँ बयान किया जाता है जिसके उल्लेख की उस समय आवश्यकता होती है।
इसकी मिसाल भी बिना उपमा के यह समझें जैसे फ़िल्म बनानेवाला जब कोई फ़िल्म बनाता है तो वह पचास वर्ष की घटनाओं को कुछ मिनट, बल्कि कभी-कभी कुछ सेकेण्ड में समो देता है। इस काम के लिए कभी-कभी वह एक छोटा-सा शॉर्ट लेता है जो सिर्फ़ आधे सेकेण्ड का होता है। लेकिन इसी शॉर्ट से पूरे दस साल की अवधि पूरी हो जाती है। उदाहरणार्थ एक शॉर्ट में दुधमुँहा बच्चा दिखाया, दूसरे में उसे कमसिन बच्चों के साथ खेलते हुए दिखाया, फिर तीसरे में ज़्यादा बड़ा करके क्रिकेट खेलता हुआ दिखाया। यों मानो कुछ सेकेण्ड में जन्म से लेकर क्रिकेट खेलने का ज़माना दिखा दिया। उसके बाद वह बच्चा एक नौजवान की हैसियत में हवाई जहाज़ में सवार हुआ दिखाया जा रहा है, हाथ में ब्रीफ़केस है और सिर पर हैट पहना हुआ है, गोया अब वह बच्चा बड़ा होकर यहाँ की शिक्षा पूरी करके उच्च शिक्षा के लिए विदेश चला गया। इस तरह एक मिनट में ये सारे दृश्य देखनेवाले के सामने आ गए और उसने देखकर सब समझ लिया।
पवित्र क़ुरआन में क़ियामत के दृश्यों का उल्लेख इसी अंदाज़ में है। जिसने इन दृश्यों का विवरण पवित्र क़ुरआन की विभन्न सूरतों में जगह-जगह पर पढ़ा हो और वह उसके सामने हो तो सिर्फ़ एक वाक्य से वह सारा परिदृश्य उसके सामने आ जाता है। उदाहरणार्थ पवित्र क़ुरआन में एक वाक्य आएगा। وقفوھم انھم مسئولون, अर्थात् “उन्हें ज़रा रोको, उनसे पूछ-गच्छ की जाएगी”, यानी जब लोग ज़िंदा करके उठाए जाएँगे और अल्लाह के सामने पेश होने के लिए जा रहे होंगे तो एक चरण पर यह आदेश दिया जाएगा कि इन सबको खड़ा कर दो। अब हिसाब की प्रक्रिया शुरू होनेवाली है। यह एक छोटी-सी आयत है यहाँ इससे ज़्यादा कुछ विवरण नहीं है, लेकिन इस ज़रा-से वाक्य से क़ियामत के हिसाब-किताब की पूरी धारणा सामने आ जाती है। जिसके ज़ेहन में यह शैली स्पष्ट न हो वह पवित्र क़ुरआन में वह अंदाज़ और शैली या इबारत तलाश करेगा जो किसी इंसान की वार्ता में या किसी लेखक के लेखन में होती है, जहाँ पहले भाग होगा, फिर अध्याय होगा, फिर शीर्षक होगा। पवित्र क़ुरआन का अंदाज़ इन सब चीज़ों से परे है।
तीसरी महत्त्वपूर्ण चीज़, जो बहुधा पवित्र क़ुरआन के पाठक की नज़र से ओझल हो जाती है, यह है कि पवित्र क़ुरआन का अंदाज़ और शैली भाषणकर्ता की-सी है। यह शैली प्राचीन अरबी भाषण कला की तरह नहीं है, बल्कि क़ुरआन का यह संबोधन उससे बिलकुल अलग एक नए अंदाज़ की भाषण-शैली है। शैली से अभिप्रेत मात्र शब्दों और वाक्यों का चयन नहीं है, बल्कि इससे मुराद पवित्र क़ुरआन की भाषण-शैली, वाक्-शैली और तार्किक शैली है, इससे मुराद पवित्र क़ुरआन की संबोधन-शैली है, इससे मुराद क़ुरआन मजीद के discourse का अंदाज़ है। पवित्र क़ुरआन का यह discourse तक़रीरी है, लेखन का नहीं है। तौरात में कुछ जगह लिखित पुस्तक का-सा अंदाज़ है कुछ जगह क़ानून की धाराओं का अंदाज़ है। लेकिन पवित्र क़ुरआन का अंदाज़ इन सबसे विभिन्न है। पवित्र क़ुरआन का अंदाज़ भाषणकर्ता का है। जब संबोधित करनेवाला बोल रहा होता है तो सुननेवाले को पता चल जाता है कि चर्चा के किसी चरण में भाषणकर्ता का रुख़ किस ओर है, और किस वक़्त ख़तीब का संबोधित वर्ग कौन है। भाषणकर्ता के अंदाज़ और स्वर से श्रोता एवं उपस्थितगण को पता चल जाता है कि कब उक्त भाषण सीधे उन लोगों से है जो यहाँ मौजूद हैं और कुरआनी आयतें सुन रहे हैं और कब उसका संबोधित कोई और है। भाषणकर्ता जब वार्ता करता है तो संबोधन के दौरान में उसके संबोधितगण विभन्न लोग होते हैं। जब उसका संबोधन बदलता है तो लहजा बदलकर बात करता है। इससे तुरन्त पता चल जाता है कि इस हिस्से के संबोधितगण कौन हैं। कभी रुख़ बदलकर, कभी किसी की ओर इशारा करके कोई विशेष बात कहता है तो सुननेवालों को मालूम हो जाता है कि अब संबोधितगण बदल गए। उदाहरणार्थ मैं यहाँ वर्तमान परिस्थितियों पर भाषण देते हुए आपसे कहूँ कि आज मुस्लिम जगत् पर बहुत बुरा वक़्त आया है, मुसलमान बहुत परेशान हैं और इसी दौरान में वार्ता के बीच ज़रा लहजा बदलकर और ज़रा रुख़ दूसरी ओर कर के मैं कहता हूँ: “सुन लो! हम तैयार हैं और हर आक्रामकता से निबटने के लिए आमादा हैं।” अब हम सबको मालूम है कि यह “सुन लो!” का संबोधन किससे है। इस वाक्य के संबोधितगण आप लोग नहीं होंगे, बल्कि कोई और होगा। संबोधन के अंदाज़ में इस चर्चा को कोई व्यक्ति सुनेगा तो हर सुननेवाले को मालूम हो जाएगा कि यहाँ संबोधन बदल गया। लेकिन जब यह चीज़ इबारत में लिखी जाएगी तो दरमियान में यह वाक्य समझ में नहीं आएगा कि यह “सुन लो” किसको कहा जा रहा है। यह वाक्य तो दुरुस्त नहीं बैठता। इसमें तो कोई संबंध नहीं है। यह संबंध समझ में आ जाएगा अगर यह मालूम हो कि यह किसी और से संबोधन है।
अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जब पवित्र क़ुरआन लोगों तक पहुँचा रहे थे तो ज़बानी तिलावत करके पहुँचा रहे थे, कोई लेख्य लिखकर नहीं दे रहे थे। अगरचे बाद में याद रखने के लिए और सुरक्षित करने लिए लिखवा भी दिया, लेकिन पहुँचाया ज़बानी। अब जब इस संबोधन को हम लिखित रूप में लाएँगे तो अगर उसको किताबी लिपि समझ कर, कोई ख़त समझकर, या किसी किताब का लेख समझकर हम उसके ‘नज़्म’ (क्रमिकता) को देखेंगे तो ये सब सवालात पैदा होंगे। लेकिन अगर यह मालूम हो कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़ुतबे के तौर पर इस पवित्र क़ुरआन को अपने सुननेवालों के सामने पेश किया था, तो फिर ये सवाल नहीं पैदा होंगे।
बार-बार ऐसा हुआ कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तक़रीर करने खड़े हुए और वह्य के अवतरण का सिलसिला शुरू हो गया। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बजाय अपनी तक़रीर के पवित्र क़ुरआन की तिलावत की। इसकी एक मिसाल सूरा-53 नज्म है। एक बार आप हरम में गए। इस्लाम-विरोधी भी इकट्ठे थे और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का मज़ाक़ उड़ा रहे थे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनको संबोधित करने और चेतावनी देने के लिए खड़े हुए। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने संबोधन का इरादा किया ही था कि सूरा नज्म अवतरित होनी शुरू हो गई और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने स्वयं कोई तक़रीर करने के बजाय सूरा नज्म की तिलावत की।
चौथी चीज़ जो बड़ी महत्त्वपूर्ण है और ख़ास तौर पर मक्की सूरतों में पाई जाती है, वह पवित्र क़ुरआन का असाधारण संक्षिप्तीकरण है। अगरचे मदनी सूरतों में भी संक्षिप्तीकरण के नमूने बहुतायत से मिलते हैं, लेकिन मक्की सूरतों के संक्षिप्तीकरण की शान ही और है। और कुछ जगह संक्षिप्तीकरण इतना है कि एक-एक शब्द, बल्कि एक-एक अक्ष्रर जिनमें अर्थों का समुद्र निहित है। पवित्र क़ुरआन की मक्की सूरतों के संक्षिप्तीकरण को टेलीग्राफ़ या टेलीग्राम की भाषा से उपमा दी जा सकती है। टेलीग्राफ़िक भाषा में शब्द बहुत संक्षिप्त होते हैं, लेकिन अर्थ व्यापक होते हैं। बज़ाहिर बहुत ही संक्षिप्त शब्दों में एक व्यापक सन्देश स्थानांतरित हो जाता है। संबोधित व्यक्ति और पढ़नेवाला इस सन्देश के अर्थ वास्तविकता और पृष्ठभूमि को पूरे तौर पर समझ जाता है कि इन शब्दों से क्या मुराद है और इनमें क्या कहा गया है?
यह उपमा टेलीगराफ़ की मैंने जान-बूझ कर अपनाई की है। इसलिए कि जब आप किसी को यह टेलीग्राम दें कि send money यानी ‘रक़म भेज दो’ तो बज़ाहिर तो सिर्फ़ दो शब्द हैं लेकिन इन दो शब्दों की एक विस्तृत पृष्ठभूमि है। यह बात केवल टेलीग्राम के संबोधित को मालूम है कि यह पृष्ठभूमि क्या है। उसी को मालूम है कि क्यों, और किस उद्देश्य के लिए, और किसको और कहाँ, कब, और कितनी रक़म भेज दी जाए। यह सब उस सन्दर्भ के कारण संबोधित को पहले से मालूम है। अब केवल संक्षिप्त सन्देश दिया गया कि रक़म भेज दो, लेकिन अगर वह टेलीग्राम लाकर मुझे या किसी और असंबद्ध व्यक्ति को दे दिया जाए और अस्ल संबोधित को नज़र-अंदाज कर दिया जाए और मुझसे पूछा जाए कि इस सन्देश से क्या मुराद है? तो मैं शब्दकोश में देखकर तार की इबारत का शाब्दिक अर्थ तो ज़रूर बता दूँगा, लेकिन इसका शेष विवरण मेरी जानकारी में नहीं होगा। वह अस्ल संबोधित ही को मालूम होगा। इसी तरह अगर कोई व्यक्ति अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथनों और सुन्नतों में बयान की हुई व्याख्या से अलग कर के क़ुरआन मजीद को समझने की कोशिश करेगा तो वह ऐसा ही होगा कि जैसे मैं इस टेलीग्राम के विवरण और वास्तविक अर्थ को समझने की कोशिश करूँ जो आपको भेजा गया है।
मक्की सूरतों के संक्षिप्तीकरण की एक मिसाल लीजिए : पवित्र क़ुरआन कहता है कि يَآ اَيُّـهَا الْمُدَّثِّرُ قُمْ فَاَنْذِرْ وَرَبَّكَ فَكَـبِّـرْوَثِيَابَكَ فَطَهِّرْ وَالرُّجْزَ فَاهْجُرْ وَلَا تَمْنُنْ تَسْتَكْـثِرُ وَلِرَبِّكَ فَاصْبِـرْ यहाँ हर वाक्य एक-एक शब्द पर आधारित है, बिल्कुल टेलीग्राफ़िक अंदाज़ की भाषा है। लेकिन इन वाक्यों के सर्वप्रथम संबोधित अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हैं, और आप ही को मालूम है कि यहाँ किस शब्द से क्या मुराद है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनमें से हर वाक्य की व्याख्या की और प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने इस व्याख्या को समझा और उसपर अमल करना शुरू कर दिया। अब अगर कोई व्यक्ति आज उठकर यह कहे कि पवित्र क़ुरआन को समझने के लिए सुन्नत और हदीस की ज़रूरत नहीं है और केवल शब्दकोश की सहायता से पवित्र क़ुरआन के अर्थ निर्धारित किए जा सकते हैं, या यह समझे कि उसके लिए प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की सनद से मिलनेवाली व्याख्या ज़रूरी नहीं है तो वह व्यक्ति पवित्र क़ुरआन को उतना ही समझ सकेगा जितना वह व्यक्ति उस टेलीग्राम को समझता है जो उसका संबोधित नहीं होता।
अतः ये पाँच चीज़ें पवित्र क़ुरआन के नज़्म और शैली पर चर्चा करने से पहले ज़ेहन में रखने की हैं यानी—
- पवित्र क़ुरआन में उसके मूल विषय एक जगह क्यों हैं?
- पवित्र क़ुरआन की वार्ताएँ ग़ज़ले-मुसलसल के अंदाज़ में हैं।
- पवित्र क़ुरआन ने जगह-जगह जो संक्षिप्त दृश्यांकन किया है वहाँ पवित्र क़ुरआन उस दृश्य को याद दिलाना चाहता है। इसका घटनानुसार विवरण बयान करना अभीष्ट नहीं होता। इसलिए कि पवित्र क़ुरआन इंसानों के मार्गदर्शन और सीख लेने के लिए उतारा गया है, और इस काम के लिए अमौलिक और घटनानुसार वर्णन ग़ैर-ज़रूरी है।
- पवित्र क़ुरआन का अंदाज़ भाषणकर्ता का है, लिखाईवाला नहीं।
- पवित्र क़ुरआन की शैली अत्यंत संक्षिप्तीकरण और सारगर्भिता का है, उसका अंदाज़ बिना किसी उपमा के टेली ग्राफ़िक ज़बान का-सा है।
भाषण और तक़रीर के भी अरबी ज़बान में प्राचीन काल में दो अंदाज़ मिलते हैं। एक अंदाज़ वह था जो इस्लाम के आरंभ में प्रचलित था जब अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पवित्र क़ुरआन के सन्देश को पेश किया। उस वक़्त संबोधन का एक विशेष स्टाइल था। उस अंदाज़ के उदाहरण अज्ञानकाल के साहित्य के प्राचीन संग्रहों में मिलते हैं। अरबी साहित्य के प्राचीन संग्रहों उदाहरणार्थ जाहिज़ की ‘अल-बयान वत्तबीन’, इब्ने-क़तीबा की ‘उयूनुल-अख़बार’ आदि में ऐसे बहुत-से नमूने बिखरे हुए हैं। इन सब नमूनों को ऐसी तमाम किताबों से जमा करके इकट्ठा कर दिया गया है। अब ये तमाम ख़ुत्बे ‘जमहरतु खुतुबिल-अरब’ के नाम से एक किताब में एक जगह मिल जाते हैं। बाद में जब मुताख़्ख़िरीन (बाद के विद्वानों) में भाषण कला के नए अंदाज़ ने रिवाज पाया तो भाषण का एक और अंदाज़ सामने आया। इसके नमूने बनू-उमैया के दौर में और अब्बासी दौर के आरंभ में नज़र आते हैं। पवित्र क़ुरआन में इस अंदाज़ की भाषणकला भी नहीं है। आज जिस अंदाज़ से अरबी भाषा में भाषण होते हैं पवित्र क़ुरआन का वह अंदाज़ भी नहीं है। अगरचे कुछ चीज़ें उन सबसे मिलती-जुलती भी हैं। इसलिए पवित्र क़ुरआन के इस विशेष अंदाज़ और शैली से परिचित होना ज़रूरी है ताकि पवित्र क़ुरआन की इस विशेष शैली को समझा जा सके। यह अरब के अज्ञानकाल और इस्लाम के मुख्य दौर के अंदाज़ के ज़्यादा क़रीब है जिसमें एक अति संक्षिप्त वाक्य में, बल्कि कभी-कभी एक अति संक्षिप्त शब्द या इबारत में अर्थों का एक समुद्र निहित होता था, और सुननेवाले इस सन्दर्भ में उसका पूरा अर्थ समझ लिया करते थे।
शाह वलियुल्लाह देहलवी (रहमतुल्लाह अलैह) ने ‘अलफ़ौज़ुल-कबीर’ में और लगभग तमाम लोगों के जिन्होंने पवित्र क़ुरआन के अंदाज़ और शैली पर बात की है इस विषय की ओर इशारे किए हैं। शाह साहब ने एक जगह लिखा है कि ये ज्ञान-विज्ञान जो पवित्र क़ुरआन में बयान हुए हैं, ये इस्लाम से पहले के अरबों के अंदाज़ में बयान हुए हैं, ताकि वे अपनी चिरपरिचित शैली के द्वारा पवित्र क़ुरआन को समझें और समझकर अपने अंदर समाएँ। और इसके बाद आगे चलकर उसे दूसरी नस्लों और दूसरी क़ौमों तक पहुँचा सकें।
जहाँ पवित्र क़ुरआन ने फ़िक़्ही आदेश बयान किए हैं वहाँ पवित्र क़ुरआन की शैली इंसानों के बनाए हुए किसी क़ानून की-सी नहीं है। आज क़ानून की एक विशेष वर्णन शैली लोकप्रिय है, जिसका पालह क़ानूनविदों के क्षेत्रों में किया जाता है। उदाहरणार्थ क़ानून का आरंभ इस तरह की इबारत से होता है, ‘यह बात जनहित के अनुकूल है कि अमुक क़ानून बनाया और लागू किया जाए, अतः विधानसभा (या लोकसभा) यह क़ानून बनाती और और लागू करती है।’ इस भूमिका के बाद फिर धाराओं के रूप में क़ानून के आदेश बयान कर दिए जाते हैं। पवित्र क़ुरआन में फ़िक़्ही आदेश बयान करने की यह शैली नहीं है, न क़ुरआन उस तरह और उस ज़बान और अंदाज़ में फ़िक़्ही आदेश बयान करता है, जिस तरह इंसानों ने उनको समझकर संकलित किया है। इसकी वजह यह है कि पवित्र क़ुरआन सिर्फ़ भारत या पाकिस्तान या बीसवीं और इक्कीसवीं शताब्दी के लिए नहीं है। यह सातवीं-आठवीं शताब्दी के लिए भी था, और इंशाअल्लाह पच्चीसवीं या छब्बीसवीं, बल्कि पचासवीं शताब्दी के लिए भी होगा। इसलिए पवित्र क़ुरआन का अंदाज़ किसी विशेष काल या क्षेत्र की प्रचलित शैली में नहीं हो सकता। यह अंदाज़ और शैलियाँ हर ज़माने में बदलती रहती हैं। यही वजह है कि पवित्र क़ुरआन किसी विशेष क्षेत्र, विशेष कला या किसी विशेष ज्ञान की शब्दावली में वर्णित नहीं हुआ। वह क़ानून की प्रचलित शब्दावली में भी नहीं है, वह दर्शन की भाषा या प्रतीक एवं शब्दावली में भी नहीं है, अगरचे क़ानून और दर्शन की मूल समस्याएँ इसमें वर्णित की गई हैं। वह अर्थशास्त्र की शब्दावली में भी नहीं है, अगरचे अर्थशास्त्र के आदेश भी इसमें बयान हुए हैं।
जो शैली पवित्र क़ुरआन ने अपनाई है वह एक अनूठी शैली है। लेकिन इस शैली को अपनाने में इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि यह शैली इस्लाम के मुख्य दौर के अरब यानी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के प्रत्यक्ष संबोधितों के लिए अपरिचित न हो। अगर ऐसा होता तो क़ुरआन के सर्वप्रथम संबोधितगण उसको कैसे समझते। वही अगर न समझते तो वह नस्ल जो प्रतिष्ठित सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की तैयार हुई, जिसने पवित्र क़ुरआन को आगे पहुँचाने का कर्त्तव्य निभाया, वह नस्ल न तैयार हो सकती। इसलिए न आदेश की आयतों में, ने अक़ीदों (अवधारणाओं) की आयतों में, न वृत्तांतों की आयतों में और न किसी अन्य जगह किसी कला के विशेषज्ञों की भाषा की जो कलात्मक शैली है वह पवित्र क़ुरआन में नहीं अपनाई गई। अगर ऐसी कोई शैली अपनाई जाती तो अव्वल तो पवित्र क़ुरआन किसी विशेष क्षेत्र या काल की वर्णन-शैली का पाबंद और उस काल अथवा क्षेत्र तक सीमित हो जाता। इसकी वजह यह है कि ज्ञान एवं कलाओं की शब्दावलियाँ और भाषाओं की शैलियाँ बदलती रहती हैं। जो शब्दावलियाँ आज सबकी जानी-पहचानी और लोकप्रिय हैं वे दस पंद्रह वर्ष के बाद हर किसी की समझ में आने योग्य नहीं होंगी। इसके विपरीत पवित्र क़ुरआन हमेशा से है और हमेशा रहेगा। दूसरे यह कि अगर ये शब्दावलियाँ पवित्र क़ुरआन में शामिल होतीं तो इन शब्दावलियों के कारण बहुत-से ऐसे लोग पवित्र क़ुरआन ही से विरक्त हो जाया करते जो इस कला की शब्दावलियों से परिचित न होते। उदाहरणार्थ अगर कोई ऐसा व्यक्ति जो कंप्यूटर की कला को बिलकुल न जानता हो, वह कम्पयूटर के विशेषज्ञों की सभा में जाकर बैठेगा तो वह उनकी चर्चा बिल्कुल नहीं समझेगा। उसको अगर वह ज़बान जिसमें वे विशेषज्ञ बात कर रहे हों, आती भी हो तो भी वह उनकी चर्चा को नहीं समझेगा कि वे क्या बात कर रहे हैं, इसलिए कि वह उनकी शब्दावलियाँ से अवगत नहीं होगा, उनकी शैली उस के लिए अपरिचित होगी। इसलिए पवित्र क़ुरआन में यह शैली नहीं अपनाई गई।
बात का सारांश यह कि पवित्र क़ुरआन की शैली में दो बातें महत्त्व रखती हैं। एक तो पवित्र क़ुरआन की अपनी एक अलग शैली है जो भाषा एवं वर्णन-कला की शेष सब चीज़ों से अनूठी है, यह न शेअर है, न कहानत है और न ख़िताबत (भाषण-कला) है। दूसरी चीज़ पवित्र क़ुरआन में यह सामने रखी गई कि इसकी भाषा और वर्णन-शैली को इसके सर्वप्रथम संबोधितों के नाम से निकटतम करके पेश किया गया है। जहाँ अरब की शैली को पवित्र क़ुरआन ने अपनाया वहीं अरबवालों की अच्छी आदतों को भी स्वीकार किया। जहाँ-जहाँ उनमें कमज़ोरियाँ और ख़राबियाँ थीं वहाँ उन त्रुटियों और कमियों की भी निशानदेही की गई।
जैसे-जैसे पवित्र क़ुरआन विभिन्न क़ौमों में जाता जाएगा उन क़ौमों की ख़राबियाँ और ख़ूबियाँ उसी तरह से अल्लाह की वह्य की रौशनी में देखी और जाँची जाएँगी, जैसे पवित्र क़ुरआन में अरबों की ख़ूबियों और ख़राबियों को देखा गया। इसी लिए पवित्र क़ुरआन में अरबवालों की आदतों का उल्लेख किया गया है। मानो अरबों को केस स्टडी के तौर पर लेकर पवित्र क़ुरआन के नियमों एवं सिद्धांतों को लागू करके दिखाया गया और बताया गया कि आगामी समय में आनेवाली क़ौमों की ख़ूबियों और कमज़ोरीयों को इसी तरह देखा जाए, जैसे क़ुरआन ने अरबों की ख़ूबियों और ख़राबियों को देखकर खरा और खोटा अलग-अलग कर दिया है।
कुछ बाह्यवादी आपत्तिकर्ता यह आपत्ति जड़ दिया करते हैं कि पवित्र क़ुरआन अगर समस्त मानवजाति के लिए है तो आख़िर इसमें अरबों का इतना उल्लेख क्यों आया है। यह सवाल सिरे से पैदा ही न हो, अगर अरबों के इस उल्लेख की अस्ल वजह और तत्त्वदर्शिता पर नज़र हो। इसका कारण स्पष्ट है कि पवित्र क़ुरआन के सर्वप्रथम संबोधितगण अरब थे। उन्हीं को दूसरी क़ौमों के लिए क़ुरआन का धारक बनाना था। उन्होंने पवित्र क़ुरआन पर जो आपत्तियाँ कीं अव्वल तो उसी तरह की आपत्तियाँ इंसान बाद में भी करता आया है, उन सब आपत्तियों का जवाब क़ुरआन में मौजूद है। लेकिन अगर कोई नई आपत्तियाँ भी होंगी तो उनका जवाब भी क़ुरआन के अंदर से पता चल जाएगा। अरबों की आपत्तियों के जवाब में क़ुरआन ने जो भी कहा है, उससे पवित्र क़ुरआन के अंदाज़ का पता चल जाएगा कि पवित्र क़ुरआन ने इन सवालों का जवाब कैसे दिया है। पवित्र क़ुरआन के विद्यार्थी उसी अंदाज़ से आगे आनेवालों की आपत्तियों का जवाब दिया करेंगे।
इसके साथ-साथ जो शरीअत (धर्म-विधान) पवित्र क़ुरआन में अवतरित की गई, इसमें कुछ मूल आदेश अरबों की उस व्यवस्था से लिए गए जो इबराहीम (अलैहिस्सलाम) के ज़माने से चली आ रही थी। इसके भी दो कारण थे। एक तो यह कि इबराहीम (अलैहिस्सलाम) पहले पैग़ंबर हैं जिनको अल्लाह तआला ने अन्तर्राष्ट्रीय लक्ष्य देकर भेजा। उनसे पहले जितने भी पैग़म्बर (अलैहिमुस्सलाम) आए, वे अपने इलाक़े, अपने ज़माने और अपनी क़ौम के लिए थे। इबराहीम (अलैहिस्सलाम) को अपनी क़ौम के अलावा दूसरों के लिए भी भेजा गया। वह इराक़ में पैदा हुए। फिर उन्होंने फ़िलस्तीन में इस्लाम का प्रचार किया। फ़िलस्तीन के बाद मिस्र चले गए। मिस्र के बाद अरब द्वीप आए। और कुछ रिवायतों के अनुसार यूरोप भी गए और कुछ विद्वानों के अनुमान के अनुसार भारत में भी आए। उन्होंने उन तमाम क्षेत्रों में इस्लाम का सन्देश फैलाने का कर्त्तव्य निभाया। इस तरह इबराहीम (अलैहिस्सलाम) के द्वारा अल्लाह तआला ने इस्लाम की इस वैश्विकता और अन्तर्राष्ट्रीयता की आधारशिला रख दी थी जिसको पूर्ण किया अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैगि वसल्लम) ने। इसी लिए मुस्लिम मिल्लत (समुदाय) को मिल्लते-इबारहीमी भी कहा गया है और इबराहीम (अलैहिस्सलाम) को मुसलमानों का रुहानी बाप भी क़रार दिया गया है। चुनाँचे पवित्र क़ुरआन की शैली और अंदाज़ को समझने के लिए मिल्लते-इबराहीमी से अवगत होना भी ज़रूरी है। और मिल्लते-इबराहीम की व्यवस्था और धारणा और मिल्लते-इबराहीमी के उस सन्देश और उसकी वैश्विकता और मिल्लते-इबराहीमी के मूलाधार को समझे बिना पवित्र क़ुरआन के बहुत-से आदेशों को समझना मुश्किल होता है।
पवित्र क़ुरआन की शैली पर जिन लोगों ने विस्तार से चर्चा की है उन्होंने यों तो भाषागत उत्कृष्टता एवं वाग्मिता के अनगिनत बिन्दु बयान किए हैं, लेकिन क़ुरआन की विशेष शैली पर ग़ौर करने से निम्नलिखित बातें ध्यान देने योग्य नज़र आती हैं—
- इल्तिफ़ात (ध्यान केन्द्रित करना)
- तसरीफ़े-आयात (आयतों के मनमाने अर्थ करना)
- हज़्फ़ (मिटाना)
- ईजाज़ (संक्षिप्तीकरण)
- तफ़सील बाद-अल-इजमाल (संक्षिप्त आदेश की व्याख्या करना)
- औद अलल-बदअ (पुनरावृत्ति)
- तमसीलात (उदाहरण एवं उपमाएँ)
- तक़ाबुल (पारस्परिक तुलना)
- क़सम (किसी चीज़ को गवाह बनाना)
- जुमला-ए-मोतरज़ा (वार्ताक्रम के बीच में विषय से अलग आ जानेवाला वाक्य)
अब मैं उन सब मामलों के बारे में संक्षिप्त रूप से ज़रूरी बातें बयान करता हूँ।
जैसाकि बयान किया जा चुका है, पवित्र क़ुरआन की शैली उर्दू और फ़ारसी की ग़ज़ले-मुसलसल के क़रीब-क़रीब है। इस शैली में आयतों का पारस्परिक एवं सार्थक संबंध एक वार्ताक्रम में तो बहुत नुमायाँ और स्पष्ट होता है। लेकिन जब एक वार्ता से दूसरी वार्ता की ओर स्थानांतरित हो तो वह बहुत सूक्ष्म और ग़ैर-महसूस अंदाज़ में होता है। आयतों के विभन्न संग्रहों में आपसी सम्बद्धता और अनुरूपता भी अत्यंत सूक्ष्म तथा गहरी सार्थकता रखती है।
अरब में यह सूक्ष्मता, कलाम की ख़ूबी समझी जाती थी। अरब क़सीदे (प्रशंसा-काव्य) में भी एक वार्ता से दूसरी वार्ता की ओर स्थानातंरण जितना सूक्ष्म तथा ग़ैर-महसूस होता था उतना ही कलाम की ख़ूबी बढ़ जाती थी। ख़ास तौर पर क़सीदों में जब शायर उपमा से बचते हुए वार्ता करता था तो उसमें जितनी सूक्ष्मता और गहराई होती थी इतनी ही क़सीदे की ख़ूबी में वृद्धि समझी जाती थी। फिर ‘गुरेज़’ (बचने) के बाद प्रशंसा आदि की वार्ता में एक बात से दूसरी बात निकलती चली जाती थी। क़रीब-क़रीब यही बात पवित्र क़ुरआन में भी महसूस होती है। विषय के बदल जाने या ‘गुरेज़’ ही से मिलती-जुलती एक चीज़ वह है जिसको भाषा के विशेषज्ञ आम तौर पर और क़ुरआन की वाग्मिता के विशेषज्ञ विशेष रूप से ‘इलतिफ़ात’ (ध्यान केन्द्रित करना) की शब्दावली से याद करते हैं। ‘इलतिफ़ात’ पवित्र क़ुरआन की शैली और भाषण-शैली के एक विशेष पहलू का नाम है, जिसका उद्देश्य एक साथ कई श्रोताओं को संबोधित करना होता है। एक समकालीन शोधकर्ता के शब्दों में क़ुरआन की हैसियत एक आसमानी बल्कि सृष्टि संबंधी भाषणकर्ता की है जो समस्त मानवजाति से एक साथ संबोधित है, उसका संबोधन एक ही समय में धरती के तमाम इंसानों से है। वह कभी एक ओर उन्मुख होकर बात करता है, कभी वह दूसरी ओर उन्मुख होकर संबोधित होता है, कभी उसको सुननेवाले ईमानवाले होते हैं, और कभी विधर्मी, कभी उसकी बात का रुख़ निष्ठावानों की ओर होता है, तो कभी मुनाफ़िक़ीन (कपटाचारियों) की ओर। इन हालात में संबोधन का अंदाज़ और भावाभिव्यक्ति बार-बार बदलती रहती है। इस महत्त्वपूर्ण बदलाव को ‘इलतिफ़ात’ की शब्दावली से याद किया जाता है ‘इलतिफ़ात’ का यह अन्दाज़ अरबी भाषा के प्रशंसात्मक क़सीदों और मुनाजातों में भी पाया जाता था।
पवित्र क़ुरआन में जगह-जगह ‘इलतिफ़ात’ के द्वारा संबोधित किया गया है। इन आयतों में जहाँ ‘इलतिफ़ात’ की शैली से काम लिया गया है। एक ही समय में एक से ज़्यादा लोगों को संबोधित किया गया है। उदाहरणार्थ सूरा-21 अंबिया के आरंभ में एक जगह अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से संबोधित करते हुए कहा गया है कि “हमने आपसे पहले इन लोगों के अलावा किसी को रसूल बनाकर नहीं भेजा, जिनकी ओर हमने वह्य की।” यहाँ तक नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से संबोधन था, फिर अचानक बात का रुख़ मक्का के इस्लाम-विरोधियों की ओर हो जाता है कि “अगर तुम्हें शक है और तुम नहीं जानते तो अहले-ज़िक्र (विद्वानों) से पूछ लो।” गोया एक ही आयत में पहले संबोधन अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से था, फिर तुरन्त ही अगले वाक्य में संबोधन मक्का के बहुदेववादियों से हो गया।
एक और उदाहरण सूरा-80 अ-ब-स की आरंभिक आयतों का है। यह सूरा कई बार आपने पढ़ी होगी। आपको पता है कि यह सूरा कब अवतरित हुई और किन हालात में अवतरित हुई। इसमें एक विशेष अंदाज़ है जिसमें एक साथ प्रेम-प्रदर्शन भी है और प्रकोप-प्रदर्शन भी। प्रकोप से संबंधित प्रत्यक्ष रूप से सामनेवाले को संबोधित करते हुए नापसंदीदगी का इज़हार नहीं किया कि इसमें ज़्यादा सख़्ती है, बल्कि प्रकोप की बात बिना किसी को संबोधित किए कही गई कि “उसने त्योरी चढ़ाई और मुँह फेर लिया, इसलिए कि उसके पास अन्धा आ गया।” इसके बाद अगला वाक्य जिसमें प्रेम का अन्दाज़ और स्नेह है प्रत्यक्ष संबोधन शैली में है। कहा गया है “तुम्हें क्या मालूम शायद वह स्वयं को सँवारने-निखारने के लिए आया हो, या वह याददिहानी हासिल कर ले और नसीहत से फ़ायदा उठाए।” आप देखिए कि एक ही वाक्य में दो विभन्न शैलियाँ प्रयुक्त की गई हैं। हालाँकि संबोधन दोनों में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से ही है। एक में निहितार्थ की ख़ातिर अप्रत्यक्ष संबोधन की शैली प्रयुक्त की गई है, और तुरन्त ही दूसरे वाक्य में दूसरे निहितार्थ की ख़ातिर प्रत्यक्ष संबोधन की शैली प्रयुक्त हुई है। आम गद्य लेखों में ऐसा नहीं होता। ऐसी शैली या तो ग़ज़ले-मुसलसल में होती है, या फिर संबोधन और चर्चा में होती है। इसलिए पवित्र क़ुरआन में जो ‘इलतिफ़ात’ है यानि एक भावाभिव्यक्ति से दूसरी भावाभिव्यक्ति में स्थानांतरित होना, यह सारा का सारा ‘इलतिफ़ात’ की वजह से है।
कभी-कभी अगर आम अंदाज़ में यह बात बयान की जाए तो आपको कोई न कोई छिपा हुआ कर्म मानना पड़ेगा कि यहाँ अमुक या अमुक बात लुप्त है। जैसे कि यह आयत कि “हमने हर इंसान का कर्म-पत्र उसके गले में लटका दिया है।” उसके तुरन्त बाद आता है, “पढ़ो इस किताब को (कि यहाँ क्या लिखा गया है)।” अब यहाँ बात इस तरह नहीं की गई कि हम उनसे कहेंगे कि इसको पढ़ो, बल्कि यह प्रत्यक्ष रूप से उस व्यक्ति से संबोधन है जिसको यह कर्म-पत्र दिया जाएगा। और थोड़े से ‘इलतिफ़ात’ (ध्यानाकर्षण) से जो बात बयान करनी थी वह अदा हो जाएगी। वाग्मिता का एक प्रकार यह भी है कि कम से कम शब्दों में ज़्यादा से ज़्यादा अर्थ अदा कर दिए जाएँ। यह भी वाग्मिता की एक शान होती है। यह चीज़ पवित्र क़ुरआन में ‘इलतिफ़ात’ की शैली के द्वारा अपनाई गई।
‘इलतिफ़ात’ की इस शैली में कई लाभ महसूस होते हैं। एक यह कि सुननेवाला थोड़ा-सा जागरूक हो जाए और दूसरे वार्ताक्रम में अचानक अपने को संबोधित पाकर बात को अधिक ध्यान से सुने। यह एक मनोवैज्ञानिक शैली है जिससे श्रोता का ध्यान आकर्षित कराया जाता है। कभी-कभी किसी दूर के व्यक्ति को जो मौजूद नहीं है, क़रीब मानकर संबोधित किया जाता है। मानो दूसरे श्रोता और उपस्थितगण को इस विशेष बात की ओर ध्यान दिलाना अभीष्ट हो। कभी-कभी सामनेवाले की महानता बयान करना अभीष्ट होता है। यानी संबोधित व्यक्ति तो दरअस्ल अनुपस्थित और दूर है, लेकिन हमने क़रीब मानकर यह बात बयान की कि दूसरे सुननेवालों तक यह सन्देश पहुँचे कि हम उसको अपने से बहुत क़रीब समझते हैं, और उसको यह अंदाज़ा हो जाए कि यह एक महान व्यक्ति है। कभी-कभी पवित्र क़ुरआन में मक्का के इस्लाम-विरोधियों और बहुदेववादियों आदि के हवाले हैं। संबोधन तो दरअस्ल उनसे ही होता है। लेकिन उनका उल्लेख प्रत्यक्ष रूप में नहीं होता, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप में होता है। कभी-कभी जब आदमी किसी से नाराज़ हो जाता है तो उसको प्रत्यक्ष रूप से संबोधित नहीं करता, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से उसको संबोधित करता है। संबोधन की इस शैली में भी बहुत-सी हिकमतें (तत्त्वदर्शिताएँ) होती हैं।
पवित्र क़ुरआन की एक और शैली जिससे पवित्र क़ुरआन का हर पाठक परिचित है वह ‘तसरीफ़े-आयात’ है, وَكَذَٰلِكَ نُصَرِّفُ الْآيَاتِ وَلِيَقُولُوا دَرَسْتَ وَلِنُبَيِّنَهُ لِقَوْمٍ يَعْلَمُونَ अर्थात् “और इसी प्रकार हमने अपनी आयतें विभिन्न ढंग से बयान करते हैं (कि वे सुनें) और इसिलए कि वे कह लें ‘(ऐ मुहम्मद) तुमने कहीं से पढ़-पढ़ा लिया है।’ और इसलिए कि हम उनके लिए जो जानना चाहें सत्य को स्पष्ट कर दें।” (क़ुरआन, 6:105)) यहाँ यह स्पष्ट रहे कि ‘तसरीफ़’ का अर्थ पुनरावृत्ति नहीं हैं। पवित्र क़ुरआन में पुनरावृत्ति नहीं है, बल्कि ‘तसरीफ़े-आयात’ है। ‘तसरीफ़े-आयात’ एक वार्ता को फिर फेर-फेरकर नए-नए अंदाज़ में बयान किए जाने का नाम है। ज़ाहिरी तौर पर पढ़नेवालों को पुनरावृत्ति मालूम होती है, लेकिन वास्तव में वह पुनरावृत्ति नहीं होती। चुनाँचे अगर आप उन घटनाओं को ध्यानपूर्वक देखें जो पवित्र क़ुरआन में बहुत अधिक बयान हुई हैं, उदाहरणार्थ मूसा (अलैहिस्सलाम) की घटना, या आदम (अलैहिस्सलाम) और इब्लीस की घटना तो पता चलेगा कि क़ुरआन में हर जगह इन घटनाओं को एक नए पहलू से बयान किया गया है। अगर आप उन तमाम आयतों की तुलना करें, जहाँ-जहाँ ये बातें बयान हुई हैं तो आपको हर जगह घटना का एक नया पहलू नज़र आएगा। अन्तर उस लक्ष्य के दृष्टिकोण से होगा जो इस ख़ास वार्ताक्रम में सामने रखा गया है।
उदाहरणार्थ आदम और इब्लीस के वृत्तांत में कभी-कभी ईमानवाले संबोधित होते हैं, जिनको यह बताया जाता है कि बड़ी से बड़ी कमज़ोरी पर अगर पश्चात्ताप कर के तौबा कर ली जाए तो अल्लाह तआला माफ़ करनेवाला है। और माफ़ करके बड़े-बड़े दर्जे और बुलंदियों पर आसीन करता है। कुछ जगह इस घटना के द्वारा इंसान की महानता को बयान किया गया है कि अल्लाह तआला ने इंसान को पैदा तो मिट्टी से किया, लेकिन उसको आध्यात्मिक और नैतिक दृष्टि से बहुत ऊँचा दरजा दिया। जहाँ इंसान की प्रतिष्ठा और उच्चता का बयान है वहाँ आदम के इल्म का उल्लेख है, फ़रिश्तों से अल्लाह तआला की वार्ता का भी उल्लेख है। आदम के जवाब देने और फ़रिश्तों के जवाब न दे सकने का भी उल्लेख है। इंसान की ख़िलाफ़त (प्रतिनिधित्व) का उल्लेख है। इन सब स्थानों पर वे हिस्से अधिक नुमायाँ हैं जिनके द्वारा से इंसान की बड़ाई और उसकी खूबियाँ बताना अभीष्ट है। कुछ जगह शैतान की बुराई और भर्त्सना याद दिलाना अभीष्ट है ताकि इंसान हर समय यह बात याद रखे कि इब्लीस अल्लाह तआला की बदतरीन मख़्लूक़ (निकृष्टतम रचना) है। ऐसे हर सन्दर्भ में शैतान की बुराइयाँ खोल-खोलकर बयान हुई हैं।
इसलिए ज़रा ग़ौर करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पवित्र क़ुरआन में कहीं भी दोहराव नहीं है। बल्कि ‘तसरीफ़े-आयात’ है, और एक ही बात को नए-नए अंदाज़ में फेर-फेरकर बयान किया गया है। वार्ता एक ही है, लेकिन उद्देश्य विभन्न है और लक्ष्य और है। सुननेवालों में भी हर जगह विविधता है। ‘तसरीफ़’ की वजह यह बताई कि लोग इन घटनाओं में निहित शिक्षाओं और निशानियों को अच्छी तरह समझ लें। एक जगह एक पहलू समझ में आ जाए और दूसरी जगह दूसरा पहलू समझ में आ जाए। ये वार्ताएँ जो जगह-जगह बयान हुई हैं, यह सब मिलकर घटना या वार्ता के विभन्न पहलुओं को समझा देंगे और जब अन्त में पूरा पवित्र क़ुरआन पूर्ण हुआ तो सारे पहलू और सारे विषय समझ में आ चुकेंगे।
पवित्र क़ुरआन में जिस तरह आयतों को फेर-फेरकर बयान करने का उल्लेख है, इसी तरह हवाओं को भी फेर-फेरकर लाने का बयान हुआ है। हवा को फेर-फेरकर लाने में क्या तत्वदर्शिता है। हवा तो एक ही होती है। लेकिन हर बार उसके चल-फिरकर आने में एक नई तत्त्वदर्शिता होती है। कभी वह बादलों को लाती है और कभी ले जाती है। कभी उसके साथ गरज और चमक आती है। कभी सिर्फ़ बारिश आती है। कभी न बारिश होती है, न गरज और चमक होती है। केवल छाया आती है। कभी धूप की ज़रूरत होती है तो हवा आई और बादलों को लेकर चली गई, यों पौधों को धूप मिल गई। कभी पौधों को धूप की ज़रूरत नहीं, तो हवा बादलों को बनाकर ले आई और पौधे धूप से बच गए। अब आप देखिए कि इस ‘तसरीफ़े-रियाह’ (हवा के अलग-अलग मौक़ों पर आने) के दर्जनों उद्देश्य हैं। इसी तरह ‘तसरीफ़े-आयात’ के उद्देश्य भी विभन्न हैं। इसलिए उनके अंदाज़ में भी अन्तर होता है।
फिर जहाँ-जहाँ ‘तसरीफ़े-आयात’ का उल्लेख है वहाँ एक चीज़ बड़ी नुमायाँ और उल्लेखनीय है। वह यह है कि आयतों की इस ‘तसरीफ़’ वृत्तांतों और घटनाओं में ज़्यादा है, आदेशों में कम है, और अक़ीदों (धारणाओं) में इससे भी कम है। अक़ीदों और आदेशों में ‘तसरीफ़’ की ज़्यादा ज़रूरत पेश नहीं आती। क़ानून एक बार दे दिया, लोगों ने समझ लिया और उसपर क्रियान्वयन शुरू कर दिया। उसको बार-बार दोहराने की ज़्यादा ज़रूरत पेश नहीं आती। लेकिन जो चीज़ें इस्लामी समाज के स्वभाव को रूप देती हैं या जिनसे समाज के आम प्रारूप का निर्धारण होता है, उदाहरणार्थ इबादतों और नैतिकता एवं चरित्र तथा आचरण। उनका बयान बार-बार हुआ है और विभिन्न ढंग से हुआ है। इसके बावजूद ‘तसरीफ़’ के अधिक उदाहरण वृत्तांत तथा घटनाओं में मिलते हैं, जिनका अस्ल निशाना सीख लेना और चरित्र का गठन है, दूसरे विषयों में ‘तसरीफ़’ के उदाहरण कम मिलते हैं।
‘तसरीफ़े-आयात’ का एक रूप ‘तरजीआत’ है। ‘तरजीअ’ से मुराद है पवित्र क़ुरआन के एक ही शब्द या एक ही इबारत को बार-बार दोहराना। ‘तसरीफ़’ का अर्थ तो है एक विषय को दोहराना। इसमें कभी शब्द विभिन्न होते हैं, कभी नहीं होते। ‘तरजीअ’ ‘तसरीफ़’ ही का एक रूप बल्कि उसका एक प्रकार है। इसमें एक शब्द या एक वाक्य को बार-बार दोहराया जाता है। जैसे فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ (फ़बिअय्-यि आलाइ रब्बिकुमा तुकज़्ज़िबान) अब यह वाक्य एक ख़ास अंदाज़ और थोड़े-थोड़े अन्तराल से बहुत बार प्रयुक्त होता है। लेकिन हर जगह सन्दर्भ की दृष्टि से इसका अर्थ अलग होगा। कुछ अनुवादकों ने ‘आला’ का अनुवाद ‘नेमत’ (अनुकम्पा) किया है, और यह अनुवाद किया है कि “फिर तुम अपने रब की किस-किस नेमत को झुठलाओगे?” लेकिन सूरा-55 रहमान में हर जगह ‘आला’ का अनुवाद नेमत सही नहीं बैठता। निःसन्देह आला का एक अनुवाद नेमत भी है, लेकिन हर जगह ‘आला’ का अर्थ नेमत नहीं है। ‘आला’ का सही और सारगर्भित अनुवाद अल्लाह तआला की अजीबो-ग़रीब शान है। मानो इन आयतों के अनुवाद में अल्लाह तआला की अजीबो-ग़रीब शान, उसकी तत्त्वदर्शिता और निहितार्थ का अर्थ पाया जाता है। इसलिए हर आयत के अपने सन्दर्भ में ‘आला’ का अलग अर्थ निर्धारित होगा।
इस प्रकार की ‘तरजीआत’ सूरा-55 रहमान में भी हैं, सूरा-77 मुर्सलात में भी और सूरा-26 शुअरा में भी हैं, اِنَّ فِیْ ذٰلِکَ وَآیَۃ(इन-न फ़ी ज़ालि-क वआ-य) बार-बार आया है। इसी तरह और जगह भी ‘तरजीआत’ हैं। कभी-कभी क़ाफ़िया और ग़िनाइयत (स्वर) में अधिक सुन्दरता पैदा करने और एक विशेष तरह के गीत को एक सतह पर बरक़रार रखने के लिए भी ये ‘तरजीआत’ आती हैं।
एक और शैली जो पवित्र क़ुरआन में बार-बार आई है वह हज़्फ़ (मिटाने) की शैली है जो दरअस्ल संक्षिप्तीकरण और सारगर्भिता ही का एक रूप है। ‘हज़्फ़’ से मुराद यह है कि जहाँ कोई शब्द कहे बिना काम चल सकता हो, वहाँ पवित्र क़ुरआन उस शब्द का स्पष्ट रूप से बयान नहीं करता। यह बात क़ुरआन की भाषागत वाग्मिता के गौरव के ख़िलाफ़ है कि जिस बात को ज़ेहन और ज़बान से परिपूर्ण पाठक बिना बयान किए समझ सकता हो, उसको खोलकर बयान किया जाए। पवित्र क़ुरआन में शैली ऐसी अपनाई गई है कि शब्द पढ़नेवालों को ख़ुद ही समझ में आ जाएँगे कि कहाँ क्या चीज़ मुराद है और क्या शैली अपनाई गई है। चूँकि पवित्र क़ुरआन टेलिग्राफ़िक भाषा में है अतः जिस तरह टेलीग्राम देते समय बहुत-से शब्द लुप्त हो जाते हैं, इसी तरह क़ुरआन में भी बहुत-से शब्द लुप्त होते हैं। वे चीज़ें जो सुननेवाले के समझने के लिए ज़रूरी नहीं हैं या सुननेवाला उस शब्द को स्पष्ट किए बिना भी बात समझ जाता है, या जहाँ सन्दर्भ से मालूम हो जाता है कि यहाँ कौन-सा शब्द लुप्त हुआ है। वहाँ उस शब्द को बयान करना व्यर्थ है।
उदाहरण के तौर पर एक जगह आया है, فَاَذَاقَهَا اللّٰهُ لِبَاسَ الۡجُـوۡعِ وَالۡخَـوۡفِ بِمَا كَانُوۡا يَصۡنَعُوۡنَ अर्थात् “अल्लाह तआला ने उनको भूख और ख़ौफ़ का लिबास चखाया।” अब ‘ज़ा-क़’ (चखाया) का शब्द भूख के साथ तो अनुकूलता रखता है, ख़ौफ़ यानी डर के साथ अनुकूलता नहीं रखता, और लिबास का शब्द ख़ौफ़ से अनुकूलता रखता है, भूख से कोई अनुकूलता नहीं रखता। चूँकि य़ह अनुकूलता और अनुकूल न होना पूरी तरह स्पष्ट है इसलिए यहाँ कुछ शब्द लुप्त कर दिए गए हैं। मानो अस्ल इबारत यों होनी थी। فاذا قھما اللہ طعم الجوع والبسھاالخوف शाब्दिक अनुवाद होगा कि ‘अल्लाह तआला ने उन्हें भूख का मज़ा चखाया और ख़ौफ़ का लिबास पहनाया।’ लेकिन संक्षिप्तीकरण और सारगर्भिता की ख़ातिर वे शब्द लुप्त कर दिए गए जिनको लुप्त करने से बुद्धिमान पाठक को अर्थ समझने में कठिनाई नहीं होती। इस अंदाज़ के लुप्त करने के अनगिनत उदाहरण पवित्र क़ुरआन में मिलेंगे।
पवित्र क़ुरआन में एक शैली ‘ईजाज़’ (संक्षिप्तीकरण) की भी है कि एक चीज़ को बहुत थोड़े और अति संक्षिप्त शब्दों में इस तरह बयान कर दिया जाए कि पढ़नेवाला जितना ग़ौर करना चाहे उसके नए-नए अर्थ उसके सामने आते जाएँ। मिसाल के तौर पर एक जगह ईसा (अलैहिस्सलाम) के ख़ुदा होने के ग़लत अक़ीदे का खंडन किया गया है। चर्चा का सन्दर्भ यह है कि ईसाई ईसा (अलैहिस्सलाम) को और मरयम (अलैहिस्सलाम) को अल्लाह तआला का बेटा और बीवी मानते हैं। ज़ाहिर है कि यह अक़ीदा तौहीद (एकेश्वरवाद) की इस्लामी धारणा के ख़िलाफ़ है। वह इंसान होने की हैसियत से कैसे ईश्वरीय गुण से परिपूर्ण हो सकते हैं। पवित्र क़ुरआन में इस अक़ीदे के जवाब में लम्बे-चौड़े तर्क और विवरण में जाने के बजाय केवल इतना कहा गया کانَ یاکلان الطعام अर्थात् “वे दोनों खाना खाया करते थे।”
अब आप ग़ौर करें तो स्पष्ट हुआ कि यह संक्षिप्त वाक्य उस अक़ीदे की जड़ काट देता है। ज़ाहिर है कि जिसको खाने की ज़रूरत होगी वह ज़मीन और आसमान की हर चीज़ का मुहताज होगा। ज़मीन और आसमान की अनगिनत चीज़ों की मुहताजी के बिना एक वक़्त की रोटी हमारे पेट में नहीं जा सकती। हम सूरज के मुहताज हैं कि वह निकलकर अनाज को पका दे। अनाज उस समय तक नहीं पक सकता जब तक सूरज न निकले, और सूरज का अस्तित्व संभव नहीं है जब तक आकाशगंगाओं की पूरी व्यवस्था मौजूद न हो। सूरज हो और पानी न हो तब भी गेहूँ नहीं पक सकता। पानी की बहुतायत के लिए बादलों और बारिशों की पूरी व्यवस्था चलाई गई। चुनाँचे इंसान इन सब का भी मुहताज होता है। फिर गेहूँ को पकाने के लिए आग का मुहताज है। मानो आग, पानी, नदियाँ, सूरज, समुद्र, हवा, बादल ग़रज़ कोई चीज़ ऐसी नहीं कि जिसका इंसान मुहताज न हो। तो जो व्यक्ति अपनी दो वक़्त की रोटी के लिए पूरी सृष्टि का मुहताज हो वह इस सृष्टि का रचयिता एवं स्वामी कैसे हो सकता है? रचयिता भी हो और रचना का मुहताज भी हो यह हो नहीं सकता। इसलिए इस एक वाक्य ने कि ‘वे दोनों खाना खाया करते थे’ इस पूरे तर्क क्रम को जिसे आप घंटों में भी न बयान कर सकें, एक वाक्य में बयान कर दिया।
अगर हम मक्की सूरतों पर ग़ौर करें तो हमें पता चलता है कि मक्की सूरतें इस ‘ईजाज़’ का बहुत उत्कृष्ट नमूना हैं। मक्की सूरतों में यह चीज़ बड़ी नुमायाँ है कि एक छोटे-से शब्द में पवित्र क़ुरआन ने ऐसी-ऐसी चीज़ें बयान कर दी हैं जिनका बयान करना किसी इंसान के लिए बड़ा दुशवार है।
पवित्र क़ुरआन की एक शैली को उलूमे-क़ुरआन के विशेषज्ञों ने ‘तफ़सील बाद अल-इजमाल’ की शब्दावली से याद किया है। इसका मतलब यह है कि पहले एक चीज़ की ओर संक्षिप्त संकेत किया गया, बाद में विस्तृत विवरण आ गया। पवित्र क़ुरआन में पहले संक्षिप्त रूप आता है और मानो वार्ता को एक अति संक्षिप्त वाक्य में समो दिया जाता है। कभी-कभी यह शैली सूरा के आरंभ में ज़्यादा नुमायाँ होती है। सूरा की उठान इस शान की होती है कि उसका पूरा विषय सामने आ जाता है। इस एक आरंभिक वाक्य ही से सूरा का मूल विषय या सूरा की मूल धारणा, या स्तंभ सामने आ जाता है जिसपर उसकी पूरी इमारत खड़ी है। كِتَٰبٌ أُحْكِمَتْ ءَايَٰتُهُۥ ثُمَّ فُصِّلَتْ مِن لَّدُنْ حَكِيمٍ خَبِيرٍ अर्थात् “यह एक किताब है जिसकी आयतें पक्की हैं, फिर सविस्तार बयान हुई हैं, उसकी ओर से जो अत्यंत तत्त्वदर्शी, पूरी तरह ख़बर रखनेवाला है।” (क़ुरआन, 11:1)
‘इजमाल’ (संक्षिप्त रूप) के बाद ‘तफ़सील’ (विस्तृत विवरण) की इस शैली के विद्वानों ने कई लाभ बयान किए हैं। एक बड़ा लाभ इस शैली का यह है कि पहले संक्षिप्त रूप से एक हक़ीक़त बयान कर देने से विषय की जड़ हाथ आ जाती है। और पूरी बात का सारांश या मूलाधार मन में बैठ जाता है। फिर जब विस्तृत विवरण बयान किया जाता है तो उसको समझना भी आसान हो जाता है और याद रखने में भी कठिनाई नहीं होती। दूसरा बड़ा फ़ायदा यह है कि संक्षिप्त आदेश जो वास्तव में नियमों एवं सिद्धांतों पर आधारित होता है, पहले बयान कर देने से शरिअत की तत्त्वदर्शिता को समझने में बड़ी मदद मिलती है। और पवित्र क़ुरआन का गंभीर विद्यार्थी धीरे-धीरे अल्लाह की किताब के सिद्धांतों और उसके क़ानून की तत्त्वदर्शिता से अवगत होता चला जाता है।
पवित्र क़ुरआन की नुमायाँ शैलियों में एक चीज़ ‘औद अलल-बद-अ” कहलाती है, यानी आरंभ में जो विषय बयान हो रहा था, आख़िर में फिर उसी विषय पर बात ख़त्म की जाए। दरमियान में जगह-जगह विषय की अनुकूलता और अवतरण की स्थिति की ज़रूरत से अन्य विषय भी आते रहते हैं, लेकिन मूल विषय नज़रों से ओझल नहीं होता। इस शैली के उदाहरण यों तो हर सूरा में मिलते हैं, और ज़रा-सा ग़ौर करने से सामने आ जाते हैं, लेकिन छोटी सूरतों में यह शैली बहुत अधिक मिलती है। पवित्र क़ुरआन की शैली में एक और महत्त्वपूर्ण चीज़ पवित्र क़ुरआन के दृष्टांत हैं। दृष्टांत वास्तव में उपमा का एक प्रकार है जो पवित्र क़ुरआन में जगह-जगह प्रयुक्त होता है। दृष्टांतों का इस्तेमाल न केवल पवित्र क़ुरआन में बहुत अधिक हुआ है, बल्कि अन्य आसमानी किताबों में भी दृष्टांतों का इस्तेमाल बहुत अधिक हुआ है। पवित्र क़ुरआन में दृष्टांत के दो लाभ बताए गए हैं। एक तज़कीर, यानी याददिहानी और नसीहत, दूसरे तफ़क्कुर यानी चिन्तन-मनन।
तुलना न केवल क़ुरआन की शैलियों में, बल्कि हर उत्कृष्ट वाणी की शैली में एक महत्त्वपूर्ण और नुमायाँ हैसियत रखती है। दो परस्पर विरोधी और परस्पर टकराववाली चीज़ों को आमने-सामने रखकर बयान करना तुलना कहलाता है। इससे न केवल यह बात स्पष्ट हो जाती है, बल्कि सुननेवाले के ज़ेहन में पूरी तरह बैठ जाती है। पवित्र क़ुरआन के सरसरी अधययनों से ही इस शैली के अनगिनत उदाहरण सामने आ जाते हैं। अर्ज़ो-समा (धरती-आकाश), नूरो-ज़ुल्मत (अंधकार-प्रकाश), भलाई और बुराई, कुफ़्र और ईमान (अधर्म और धर्म) फ़िरऔन और मूसा, और ऐसी अनगिनत चीज़ों की तुलना पवित्र क़ुरआन की शैलियों में एक महत्त्वपूर्ण हैसियत रखती है। इससे न केवल कलाम में सुन्दरता पैदा होती है, बल्कि सामनेवाले के सामने अस्ल विषय पूरे तौर पर स्पष्ट हो जाता है।
पवित्र क़ुरआन में जगह-जगह क़समें भी प्रयुक्त हुई हैं। यह भी क़ुरआनी वाग्मिता का एक पहलू है। पवित्र क़ुरआन में क़समों से मुराद गवाही देना है। कहीं-कहीं इसका उद्देश्य किसी विशेष बात में तर्क देना होता है। उदाहरणार्थ सूरा-103 अस्र में ज़माने की क़सम खाकर मानो ज़माने को गवाह बनाया गया है और यह बताया गया है कि इंसान सरासर घाटे में है, जिसको शक हो वह ज़माने को देख ले कि किस प्रकार यह निरन्तर घटता जा रहा है।
ये हैं पवित्र क़ुरआन की कुछ महत्त्वपूर्ण शैलियाँ जिनकी ओर मैंने अत्यंत संक्षेप में संकेत किए हैं। इन शैलियों में कमो-बेश हर एक प्रकार का कलाम अरब में मिलता है। यानी अरब शायरी में सुन्दरता एवं गुणवत्ता तथा भाषागत उत्कृष्टता एवं वाग्मिता की जो शैलियाँ अपनाई जाती थीं, वे सब की सब सर्वोत्कृष्ट रूप में पवित्र क़ुरआन में मौजूद हैं।
जैसा कि मैंने आरंभ में विस्तार से बताया था कि पवित्र क़ुरआन में सारे विषय एक साथ हर सूरा में इकट्ठे मिलते हैं। उनमें जब एक विषय से दूसरे विषय की ओर स्थानांतरण होता है तो वह बड़े सूक्ष्म ढंग का होता है। अगर आपने प्राचीन अज्ञानकाल के अरबी क़सीदे पढ़े हों तो आपको मालूम होगा कि इसमें आरंभिक विषय को ‘तश्बीब’ कहते हैं ‘तश्बीब’ से शायर अस्ल उद्देश्य की ओर स्थानांतरण करता है। यह जो स्थानांतरण होता है यह बहुत सूक्ष्म होता है और जितना यह स्थानांतरण सूक्ष्म हो उतना ही इस क़सीदे को ऊँचा माना जाता है।
पवित्र क़ुरआन में जहाँ-जहाँ एक विषय से दूसरे विषय की ओर स्थानांतरण होता है वह इतना सूक्ष्म होता है कि कभी-कभी महसूस भी नहीं होता कि अब दूसरा विषय शुरू हो गया लेकिन अगर विचार करें तो पता चलता है कि यहाँ से विषय बदलकर दूसरी ओर जा रहा है और वहाँ से फिर इधर आ रहा है। विषयों के इस आगमन का उदाहरण एक डिज़ाइन का-सा है। जैसे आर्ट का एक ऐसा डिज़ाइन होता है जिसमें लाइनें ऐसी बनी हों कि बज़ाहिर ऐसा लगे कि यह पेचीदा और आपस में असंबंधित लाइनें हैं, लेकिन अगर ग़ौर करें तो उसकी पूरी व्यवस्था मालूम हो जाएगी और पता चल जाएगा कि यह एक ग्राफ़िक डिज़ाइनिंग है।
मौलाना अमीन अहसान इस्लाही ने अपनी तफ़सीर ‘तदब्बुर क़ुरआन’ में जो ‘निज़ाम’ (व्यवस्था) प्रस्तुत किया है वह अत्यंत प्रवाहित और आसान उर्दू भाषा में उपलब्ध है। पवित्र क़ुरआन का हर उर्दू जाननेवाला विद्यार्थी उससे लाभान्वित हो सकता है। मौलाना उस ‘निज़ाम’ का सारांश यह बयान करते हैं कि पवित्र क़ुरआन की जितनी सूरतें हैं वे सब आपस में जोड़े-जोड़े हैं। सूरा फ़ातिहा के अलावा बाक़ी सारी सूरतें जोड़ा हैं। यहाँ वह पवित्र क़ुरआन ही की इस आयत से तर्क करते हैं जिसमें कहा गया है कि हमने हर चीज़ को जोड़ा-जोड़ा पैदा किया है। कुछ जगह ग़ौर करें तो वह जोड़ा साफ़ नज़र आता है। उदाहरणार्थ आख़िरी दो सूरतें, जिनके बारे में हर किसी को बिल्कुल ऐसा लगता है कि दोनों एक दूसरे का जोड़ा हैं। या जिस तरह सूरा-93 ज़ुहा और सूरा-94 अल-इनशिराह जोड़ा हैं।
सूरा-2 बक़रा और सूरा-3 आले-इमरान के विषयों में इतनी समानता है कि साफ़ पता चलता है कि दोनों सूरतें एक दूसरे का जोड़ा हैं। शायद यही वजह है कि इन दोनों सूरतों को हदीस में ‘अज़-ज़हरावैन’ कहा गया है, यानी दो फूल। एक हदीस में आया है कि जो इन दोनों सूरतों को याद करेगा तो क़ियामत के दिन ये दोनों सूरतें उसपर साया किए रहेंगी और सारी मुश्किलों और परेशानियों से नजात दिलाएँगी। सूरा-2 बक़रा में यहूदियों पर टिप्पणी की गई है और सूरा-3 आले-इमरान में ईसाइयों पर टिप्पणी की गई है। सूरा बक़रा में आदेश ज़्यादा हैं। सूरा आले-इमरान में नैतिक निर्देश ज़्यादा हैं। बक़रा में दो चीज़ें बताई गईं जो यहूदियों के दीन (धर्म) से विमुख होने का कारण बनीं ताकि मुसलमान उनसे भी बचें।
यानी ये दो बड़ी क़ौमें हैं, जिनसे आगे चलकर मुसलमानों को वास्ता पड़ना था। इन दोनों से वास्ता पड़ने पर क्या करना चाहिए और कैसे उनसे निबटना चाहिए, इसका विवरण इन दोनों सूरतों में बताया गया है। चूँकि इस्लाम एक अन्तर्राष्ट्रीय सन्देश है और मुसलमानों का किरदार एक वैश्विक चरित्र है, इसलिए आरंभ में ही दोनों सूरतें होनी चाहिएँ, ताकि यह अपना मार्गदर्शन आरंभ ही में उपलब्ध कर दें और इस विश्वस्तरीय अन्तर्मानवीय चरित्र के लिए और इस चरित्र को निभाने में जो शक्तियाँ रुकावट हैं, उनसे निबटने के लिए मुसलमानों को वैचारिक और प्रशिक्षण संबंधी हथियार उपलब्ध करें। ज्ञानपरक, वैचारिक और आध्यात्मिक हथियारों से उनको पहले ही लैस कर दें।
मौलाना इस्लाही का कहना है कि हर सूरत जोड़ा-जोड़ा है। फिर क़ुरआनी सूरतों के सात बड़े-ग्रुप हैं। और हर ग्रुप का एक मूल विषय है। कहीं शरीअत है, कहीं मिल्लते-इबराहीमी का इतिहास है, कहीं नुबूवत और और नुबूवत पर आपत्तियों का जवाब है। कहीं पिछली क़ौमों के उत्थान एवं पतन का उल्लेख है और कहीं लोगों को अल्लाह तआला के अज़ाब से डराया गया है। इस तरह से ये सात विभन्न विषय हैं और हर ग्रुप का एक मूल विषय है। हर ग्रुप की पहली सूरा मदनी है। और आख़िरी सूरा मक्की, जिसपर ग्रुप ख़त्म हो जाता है। हर ग्रुप की हर सूरा का जोड़ा उसके साथ रहता है। जो दो सूरतें जोड़ा-जोड़ा हैं उनमें कभी-कभी एक विषय का एक पहलू एक सूरा में बयान हुआ है और दूसरा पहलू दूसरी सूरा में बयान हुआ है। कभी-कभी दावा एक सूरा में है और दलील दूसरी सूरत में बयान हुई है। कभी-कभी एक बात एक सूरा में है उसकी पूर्ति दूसरी सूरा में है। इस तरह से ये सूरतें एक-दूसरे की पूर्णति भी करती हैं। सूरा बक़रा आले-इमरान की पूर्णति करती है। एक में शरीअत की व्यवस्था के बाह्य पहलू पर ज़ोर दिया गया है और दूसरी में आन्तरिक पहलू पर। इस तरह ये दोनों पहलू मिलकर एक-दूसरे को पूर्ण करेंगे।
यों जब ग़ौर करते चले जाएँ तो एक अद्भुत नक़्शा सामने आता है कि वे आयतें जो 23 वर्षों में विभन्न समयों में अवतरित हुईं वे जब सूरतों की शक्ल में संकलित हुईं तो ख़ुद-ब-ख़ुद सूरतों के ऐसे ग्रुप बनकर सामने आए जिनकी तत्त्वदर्शिता और सार्थकता पर जितना विचार करें नए-नए दरवाज़े खुलते चले जाते हैं।
सूरतों के ऐसे ग्रुप सात हैं और हर ग्रुप की अलग थीम है। यह बात अगर ज़ेहन में रखी जाए कि पवित्र क़ुरआन की विभन्न आयतें विभन्न समयों में विभन्न मामलों के जवाबों में अवतरित हुई थीं तो फिर यह निज़ाम जितना सामने आता जाएगा पवित्र क़ुरआन के चमत्कारों की एक नई दुनिया खुलती चली जाएगा। फिर जिस तरह अब तक नज़्मे-क़ुरआन के दर्जनों निज़ाम खोजे गए हैं, उसी तरह आइन्दा भी ऐसे निज़ाम दर्जनों की संख्या में सामने आते चले जाऐंगे। यह पवित्र क़ुरआन की सत्यता का ऐसा स्पष्ट प्रमाण है जो दिन के उजाले की तरह स्पष्ट है।
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