शरीअत
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इस्लाम में औरत का स्थान और मुस्लिम पर्सनल लॉ पर एतिराज़ात की हक़ीक़त
'मुस्लिम पर्सनल लॉ' एक ऐसा क़ानून है जो इस्लामी जीवन-व्यवस्था पर आधारित है। एक लम्बे समय से भारत में इसे विवादित मुद्दा बनाया जाता रहा है और माँग की जाती रही है कि इसे बदलकर देश में 'समान सिवल कोड' लागू कर दिया जाए। मुसलमान इस क़ानून को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि यह इस्लामी जीवन-व्यवस्था पर आधारित है। देश के बहुसंख्यक समुदाय के नेता सरकारी ज़िम्मेदारों की मदद से इसमें परिवर्तन की माँग करते रहते हैं। कभी-कभी कोई नेशनलिस्ट मुसलमान भी उसी सुर-में-सुर मिला बैठता है, और इस तरह यह मुद्दा दिन-प्रतिदिन महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है।इस पुस्तक में इसी समस्या पर वार्ता की गई है।
इस्लामी शरीअ़त
हम अल्लाह की इबादत किस तरह करें? कैसे रहें-सहें? लेन-देन कैसे करें? एक आदमी के दूसरे आदमी पर क्या हक़ हैं? क्या हराम (अवैध) है? क्या हलाल (वैध) है? किस चीज़ को हम किस हद तक बरत सकते हैं और किस तरह बरत सकते हैं? ये और इसी तरह की तमाम बातें हमें शरीअ़त से मालूम होती हैं। इस्लामी शरीअ़त की बुनियाद क़ुरआन और सुन्नत है। क़ुरआन अल्लाह का कलाम है और सुन्नत वह तरीक़ा है जो नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) से हमको मिला है। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) का सारा जीवन क़ुरआन पेश करने, समझाने और उसपर अमल करने में बीता। नबी (सल्ललाहु अलैहि व सल्लम) का यही बताना, समझाना और अमल करना सुन्नत कहलाता है। हमारे बहुत-से बुज़ुर्गों और आलिमों ने क़ुरआन और सुन्नत से वे तमाम बातें चुन लीं जिनकी मदद से हम दीन की बातों पर अमल कर सकें।
परदा (इस्लाम में परदा और औरत की हैसियत)
यह बीसवीं सदी के महान विद्वान और जमाअत-इस्लामी के संस्थापक मौलाना सय्यद अबुलआला मौदूदी की महान कृति 'पर्दा’ का हिन्दी अनुवाद है। इस में मौलाना मौदूदी ने समाज में महिला के सही स्थान को स्पष्ट किया है।लेखक ने तर्कों और प्रमाणों के आधार है यह बताने की कोशिश की है कि औरत के लिए पर्दा क्यों ज़रूरी है।इतिहास के उदाहरण से यह बात बताई गई है कि क़ौमों के विकास में महिलाओं की क्या भूमिका होती है।लेखक ने इस पर भी चर्चा की है कि इस्लाम में औरतों को कितना ऊंचा मक़ाम दिया गया है और पर्दा औरत की हिफ़ाज़त के लिए कितना अहम है
एकेश्वरवाद और न्याय की स्थापना
एकेश्वरवाद (तौहीद) का अक़ीदा इस्लाम के बुनियादी अक़ीदों में से है। इसका मतलब है एक ऐसी हस्ती को जानना और मानना जिसने तमाम इनसानों और इस दुनिया की तमाम चीज़ों और जानदारों को पैदा किया है और जो इस दुनिया के निज़ाम को चला रही है। और इस मामले (पैदा करने और चलाने) में किसी दूसरी हस्ती को उसके साथ साझी न ठहराना। यह सिर्फ़ एक बेजान अक़ीदा नहीं है, बल्कि इसके मानने या न मानने से इनसानी ज़िन्दगी पर गहरे असरात पड़ते हैं। इस अक़ीदे पर ईमान लाने से इनसानी ज़िन्दगी में व्यवस्था, संतुलन और बैलेंस पैदा होता है और इस पर ईमान न लाने से वह अव्यवस्था (बदनज़्मी), असन्तुलन तथा बिगाड़ का शिकार हो जाती है। यह है वह बुनियादी सोच जिस पर इस किताब में बात की गई है।
दरूद और सलाम
"अल्लाह और उसके फ़रिश्ते नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दुरूद भेजते हैं। ऐ लोगो! जो ईमान लाये हो, तुम भी उन पर दुरूद व सलाम भेजो।” क़ुरआन मजीद की इस आयत में एक बात यह बतलाई गयी कि अल्लाह और उसके फ़रिश्ते नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दुरूद भेजते हैं। अल्लाह की ओर से अपने नबी पर सलात (दुरूद) का मलतब यह है कि वह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर बेहद मेहरबान है। आप की तारीफ़ फ़रमाता है, आप के काम में बरकत देता है, आप का नाम बुलन्द करता है और आप पर अपनी रहमत की बारिश करता है।
बन्दों के हक़
अनस और बिन मसऊद (रज़ि0) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फ़रमाया कि मख़लूक़ (प्राणी) अल्लाह की 'अयाल' (कुम्बा) हैं। इसलिए उसे अपनी मख़लूक़ (जानदार) में सबसे ज़्यादा प्यारा वह है जो उसके कुम्बे से अच्छा सुलूक करे। अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फ़रमाया कि मेरी उम्मत में मुफ़लिस (निर्धन) वह है जो क़ियामत के दिन नमाज़, रोज़ा और ज़कात लेकर आएगा, मगर इस हालत में आएगा कि किसी को गाली दी होगी, किसी पर झूठा इलज़ाम लगाया होगा, किसी का (नाहक़) माल खाया होगा, किसी का ख़ून बहाया होगा और किसी को मारा होगा।
अध्यात्म का महत्व और इस्लाम
मनुष्य शरीर ही नहीं आत्मा भी है। बल्कि वास्तव में वह आत्मा ही है, शरीर तो आत्मा का सहायक मात्र है, आत्मा और शरीर में कोई विरोध नहीं पाया जाता। किन्तु प्रधानता आत्मा ही को प्राप्त है। आत्मा की उपेक्षा और केवल भौतिकता ही को सब कुछ समझ लेना न केवल यह कि अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध आचरण है बल्कि यह एक ऐसा नैतिक अपराध है जिसे अक्षम्य ही कहा जाएगा। आत्मा का स्वरूप क्या है और उसका गुण-धर्म क्या है। यह जानना हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है। आत्मा के अत्यन्त विमल, सुकुमार और सूक्ष्म होने के कारण साधारणतया उसका अनुभव और उसकी प्रतीति नहीं हो पाती और वह केवल विश्वास और एक धारणा का विषय बनकर रह जाती है।
इस्लाम और मानव-एकता
“ऐ लोगो, अपने प्रभु से डरो जिसने तुमको एक जीव से पैदा किया और उसी से उसका जोड़ा बनाया और उन दोनों से बहुत से पुरुष और स्त्री संसार में फैला दिए। उस अल्लाह से डरो जिसको माध्यम बनाकर तुम एक-दूसरे से अपने हक़ माँगते हो, और नाते-रिश्तों के सम्बन्धों को बिगाड़ने से बचो। निश्चय ही अल्लाह तुम्हें देख रहा है।" (क़ुरआन–4:1)
इस्लाम और मानव-अधिकार
मानव-अधिकार के बारे में यह बताने की कोशिश की जाती है कि इसका एहसास जैसे आज है, इससे पहले नहीं था और इंसानों की अधिकांश आबादी इससे वंचित थी और अत्याचार की चक्की में पिस रही थी। फिर 10 दिसम्बर 1948 ई. को संयुक्त राष्ट्र ने मानव-अधिकारों का अखिल विश्व घोषणा-पत्र (The Universal Declaration of Human Rights) प्रकाशित किया। इसे इस सिलसिले का बड़ा क्रान्तिकारी क़दम समझा जाता है और यह ख़याल किया जाता है कि मानव-अधिकारों की बहुत ही स्पष्ट अवधारणा उसके अन्दर मौजूद है और इंसानों को ज़ुल्म और ज़्यादती से बचाने की कामयाब कोशिश की गई है। आइए देखते हैं कि इस्लाम का इस बारे में क्या योगदान है।
नारी और इस्लाम
इस्लाम में औरत को क्या स्थान दिया गया है और उसकी क्या हैसियत इस्लाम में है, इसकी एक झलक इस संक्षिप्त-सी पुस्तिका में प्रस्तुत की गई है जिससे आपको अन्दाज़ा हो सकेगा कि इस्लाम ने औरत को समाज में उसका सही स्थान प्रदान किया है। इस विषय पर विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिए पुस्तिका के अन्त में एक पुस्तक-सूची भी दी गई है, जिनके अध्ययन से इस विशय पर इस्लाम का विस्तृत दृश्टिकोण आपके सामने आ सकेगा।
उंच-नीच छूत-छात
अल्लाह ने क़ुरआम दुनिया के सारे लोगों को समझाते हुए यह शिक्षा दी है : "लोगो! हमने तुम को एक पुरुष और एक स्त्री से पैदा किया और फिर तुम्हें परिवारों और वंशों में विभाजित कर दिया, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। तुम में अधिक बड़ा वह है जो अल्लाह के आदेशों सर्वाधिक पालन करने वाला है और निसन्देह अल्लाह जानने वाला और ख़बर रखने वाला है।" (सूरह हुजुरात) प्रस्तुत लेख में सैयद अबुल आला मौदूदी ने इसी आयत को आधार बनाकर समाज को मानव असमानता के रोग से बचाने की कोशिश की है।
बच्चे और इस्लाम
इस लेख को तैयार करने का मक़सद यह है कि बच्चों से सम्बोधित इस्लामी शिक्षाएँ सामने आ सकें। इसमें कोई शक नहीं कि हाल के वर्षों में बच्चों के अधिकारों को लेकर पश्चिम में बहुत काम किया गया है, लेकिन बच्चों के अधिकारों की बात सब से पहले इस्लाम ने की है। पश्चिम हर अच्छे काम को अपने से जोड़ता है। बच्चों के अधिकारों के बारे में की जा रही कोशिश को भी वह अपना कारनामा बताता है। हालांकि बहुत पहले से बच्चों के सिलसिले में इस्लाम की बड़ी सटीक और सर्वपक्षीय शिक्षाएँ मौजूद हैं। इस विषय पर मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी के विस्तृत लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। इस लेख में कुछ हद तक उन्हीं का निचोड़ पेश किया गया है।
रोज़ा और उसका असली मक़सद
रोज़ा और उसका असली मक़सद नमाज़ के बाद दूसरी इबादत जो अल्लाह तआला ने ईमान लानेवालों पर फ़र्ज़ (अनिवार्य) की है वह ‘‘रोज़ा'' है। रोज़ा से आशय यह है कि सूर्योदय से सूर्यास्त तक आदमी खाने-पीने और यौन इच्छा पूर्ति से बचा रहे। नमाज़ की तरह यह इबादत भी आरंभिक काल से ही सभी पैग़म्बरों की शिक्षाओं में मौजूद रही है। पिछली जितने सम्प्रदाय गुज़रे हैं, सभी किसी न किसी रूप में रोज़ा (व्रत) रखते थे। उन सम्प्रदायों के बीच रोज़े के आदेशों, उसकी शर्तों, रोज़े की संख्या और रोज़े रखने की अवधि में अंतर अवश्य रहा है, लेकिन सभी धर्मों में इसे ईश्वर की निकटता प्राप्त करने का साधन माना जाता रहा है। यही कारण है कि आज भी रोज़ा, व्रत या उपवास सभी प्रमुख धर्मों में मौजूद है।
दाम्पत्य व्यवस्था
इस्लाम का दृष्टिकोण यह है कि दाम्पत्य व्यवस्था परिवार और समाज के सृजन की आधारशिला है। अर्थात् दाम्पत्य-संबंध के अच्छे या बुरे होने पर परिवार और समाज का; यहाँ तक कि सामूहिक व्यवस्था और सभ्यता व संस्कृति का भी; अच्छा या बुरा होना निर्भर करता है। अतः इस्लाम ने इस बुनियाद को मज़बूत बनाने और मज़बूत बनाए रखने पर बहुत ज़ोर दिया है। पति-पत्नी को बुनियादी और प्राथमिक स्तर पर एक-दूसरे से संतोष और सुख प्राप्त होना चाहिए। निकाह (विवाह) के वाद मिलन होते ही, एक-दूसरे के लिए अल्लाह की ओर से प्रेम, सहानुभूति, शुभचिन्ता व सहयोग की भावनाएँ वरदान-स्वरूप प्रदान कर दी जाती हैं (कु़रआन, 30:21) अतः ऐसा कोई कारक बीच में नहीं आना चाहिए जो अल्लाह की ओर से दिए गए इस प्राकृतिक दान को प्रभावित कर दे। अल्लाह कहता है कि पति-पत्नी आपस में एक-दूसरे का लिबास हैं (कु़रआन, 2:187)। अर्थात् वे लिबास ही की तरह एक-दूसरे की शोभा बढ़ाने, एक-दूसरे को शारीरिक सुख पहुँचाने और एक दूसरे के शील (Chastity) की रक्षा करने के लिए हैं। अतः दाम्पत्य जीवन के संबंध में क़दम-क़दम पर क़ुरआन व हदीस में रहनुमाई मिलती है।
इस्लाम में इबादत का अर्थ
‘इबादत’ वास्तव में बहुत विस्तृत अर्थ रखने वाला शब्द है। आम तौर से इसे पूजा और उपासना के अर्थ में बोला जाता है। जैसे नमाज़, रोज़ा, हज आदि, निसंदेह ये सब इबादत है, लेकिन ये ही कुल इबादत नहीं हैं, बल्कि इबादत का एक हिस्सा मात्र हैं। शब्द इबादत का मूल है ‘अ’, ‘ब’, ‘द’। इसी से बना शब्द है ‘अब्द’, यानी, ग़ुलाम, दास, बन्दा। बन्दे या दास की अपनी कोई मर्ज़ी नहीं होती, बल्कि उसे अपने स्वामी की मर्ज़ी के अनुसार ही चलना होता है। क़रआन में अल्लाह ने स्पष्ट कहा है कि “हमने इन्सानों और जिन्नों को केवल इसलिए पैदा किया कि वे हमारी इबादत करें।” दास अपने उपास्य और प्रभु के लिए जो कुछ करे वह इबादत है। उसका पूरा जीवन इबादत है, अगर वह ईश्वर के बताए नियमों के अनुसार जीवन बिताए। कोई भी काम करते हुए वह देखे कि इस विषय में ईश्वर का आदेश क्या है। ईश्वर ने जिन चीज़ों का आदेश दिया या आज्ञा दा है उनका पालन करे और जिन चीज़ों से रोका है, उन से दूर रहे तो उसका पूरा जीवन इबादत होगा, चाहे ये सब दुनिया के मामले ही क्यों न हों।