दरूद और सलाम
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शरीअत
- at 11 April 2022
लेखक: मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी, अनुवादक: डा० कौसर यज़दानी नदवी, प्रकाशक: मर्कज़ी मक्तबा इस्लामी पब्लिशर्स (MMI Publishers) नई दिल्ली
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम (‘अल्लाह रहमान, रहीम के नाम से’)
इन्नल्ला-ह-व मलाइ-क-त-हू युसल्लू-न अलन्नबी या अय्युहल्लज़ी-न आमनू सल्लू अलैहि व सल्लिमू तस्लीमा।
तर्जुमा:- "अल्लाह और उसके फ़रिश्ते नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दुरूद भेजते हैं। ऐ लोगो! जो ईमान लाये हो, तुम भी उन पर दुरूद व सलाम भेजो।”
क़ुरआन मजीद की इस आयत में एक बात यह बतलाई गयी कि अल्लाह और उसके फ़रिश्ते नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दुरूद भेजते हैं।
अल्लाह की ओर से अपने नबी पर सलात (दुरूद) का मलतब यह है कि वह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर बेहद मेहरबान है। आप की तारीफ़ फ़रमाता है, आप के काम में बरकत देता है, आप का नाम बुलन्द करता है और आप पर अपनी रहमत की बारिश करता है। फ़रिश्तों की ओर से आप पर सलात का मतलब यह है कि वे आप से बहुत ज़्यादा मुहब्बत रखते हैं और आप के लिए अल्लाह से दुआ करते हैं कि वह आप को ज़्यादा से ज़्यादा बुलन्द दर्जे दे, आप के दीन को सरबुलंद करे, आप की शरीअत को बढ़ावा दे और आप को तारीफ़ के ऊँचे मक़ाम पर पहुँचाये। आगे-पीछे की आयतों पर निगाह डालने से साफ़ मालूम हो जाता है कि यहाँ यह बात किस लिए कही गयी है। यह वक़्त वह था, जब इस्लाम के दुश्मन इस साफ़-सुथरे दीन की तरक़्क़ी पर अपने मन की जलन निकालने के लिए प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ख़िलाफ़ इलज़ामों की बौछार कर रहे थे और अपने नज़दीक यह समझ रहे थे कि इस तरह कीचड़ उछाल कर वे आप के इस अख़लाकी असर को ख़त्म कर देंगे, जिस की वजह से इस्लाम और मुसलमानों के क़दम हर दिन बढ़ते चले जा रहे हैं। इन हालात में यह आयत उतार कर अल्लाह ने दुनिया को यह बताया कि काफ़िर, मुशरिक और मुनाफ़िक़ लोग मेरे नबी को बदनाम करने और नीचा दिखाने की जितनी चाहें कोशिश कर देखें, आख़िरकार वे मुँह की खाएंगे, इस लिए कि मैं उस पर मेहरबान हूँ और सारी दुनिया का इन्तिज़ाम जिन फ़रिश्तों के ज़रिए चल रहा है, वे सब उसके हिमायती और उसकी तारीफ़ करने वाले हैं, वे आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की बुराई कर के क्या पा सकते हैं, जबकि मैं आप का नाम बुलन्द कर रहा हूँ और मेरे फ़रिश्ते आप की तारीफ़ों की चर्चा कर रहे हैं। वे अपने ओछे हथियारों से उस का क्या बिगाड़ सकते हैं जबकि मेरी रहमत और बरकतें उसके साथ हैं और फ़रिश्ते रात व दिन दुआ कर रहे हैं कि ऐ पूरी दुनिया के रब! मुहम्मद का मरतबा ऊँचा कर और उन के दीन को और ज़्यादा बढ़ावा दे।
उक्त आयत में दूसरी बात यह बयान हुई कि "ऐ लोगो! जो ईमान लाये हो, तुम भी उन पर दुरूद व सलाम भेजो।"
दूसरे शब्दों में इस का मतलब यह है कि, 'ऐ लोगो! जिन को अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की वजह से सीधा रास्ता मिला है, तम उनकी क़द्र पहचानो और उनके भारी एहसान का हक़ अदा करो, तुम जहालत के अंधेरों में भटक रहे थे, इस शख़्स ने तुम्हें इल्म की रोशनी दी, तुम अख़्लाक़ की पस्तियों में गिरे हुये थे, इस ने तुम्हें इतना ऊपर उठाया कि आज तुम अख़्लाक़ के ऊँचे दर्जे पर हो। तुम जंगलीपन और जानवरपने में पड़े हुए थे, इस व्यक्ति ने तुमको बेहतरीन इंसानी तहज़ीब दी। कुफ़्र की दुनिया इसीलिए इस व्यक्ति की दुश्मन बनी हुई है कि उसने ये एहसान तुम पर किये, वरना उसने किसी के साथ निजी तौर पर कोई बुराई न की थी, इसलिए अब तुम्हारी एहसान-मन्दी का ज़रूरी तकाज़ा यह है कि जितनी दुश्मनी वे उस निहायत भले शख़्स के साथ कर रहे हैं, उतनी ही, बल्कि उससे ज़्यादा तुम उसके हो जाओ। जितनी वे उसकी बुराई करते हैं, उतनी ही, बल्कि उस से ज़्यादा तुम उसकी तारीफ़ करो, जितना वे इसका बुरा चाहते हैं, उतना ही, बल्कि उस से भी ज़्यादा तुम उसका भला चाहो और इस के हक़ में वही दुआ करो जो अल्लाह के फ़रिश्ते रात और दिन उसके लिए कर रहे हैं कि ऐ हमारे रब! जिस तरह तेरे नबी ने हम पर बेहद एहसान किये हैं तू भी उन पर बेहद रहमत फ़रमा, उनका मर्तबा दुनिया में भी सब से ज़्यादा बुलन्द कर और आख़िरत में उन्हें तमाम क़रीब रहने वालों से बढ़कर अपने क़रीब कर।
इस आयत में मुसलमानों को दो चीज़ों का हुक़्म दिया गया है—
एक सल्लू अलैहि (दुरूद भेजो) दूसरे सल्लिमू तस्लीमा (सलाम भेजो) 'सलात' शब्द जब 'अला' के साथ आता है। तो इस के तीन मतलब होते हैं—
एक किसी की ओर झुक जाना, उसकी ओर मुहब्बत के साथ मुतवज्जह होना और उस पर झुकना।
दूसरे किसी की तारीफ़ करना।
तीसरे किसी के हक़ में दुआ करना।
यह शब्द जब अल्लाह के लिए बोला जाएगा तो ज़ाहिर है कि तीसरे मायने में नहीं हो सकता, क्योंकि अल्लाह का किसी और से दुआ करने के बारे में तो दूर-दूर तक सोचा ही नहीं जा सकता, इसलिए यक़ीनन वह सिर्फ़ पहले दो मायनों में होगा। लेकिन जब वह शब्द बन्दों के लिए बोला जाएगा, भले ही वे फ़रिश्ते हों या इन्सान तो वह तीनों मायनों में होगा। इसमें मुहब्बत का मतलब भी होगा, तारीफ़ और प्रशंसा का अर्थ भी और रहमत की दुआ के मायने भी, इसलिए ईमान वालों को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के हक़ में 'सल्लू अलैहि' (दुरूद भेजने) का हुक़्म देने का मतलब यह है कि तुम उनके हो जाओ, उनकी तारीफ़ें करो, उनके लिए दुआ करो।
'सलाम' का शब्द भी दो मायने रखता है:—
एक हर तरह की आफ़तों और नुक़सानों से बचे रहना, जिसके लिए हम एक शब्द 'सलामती' बोलते हैं।
दूसरे सुलह करना और मुख़ालफ़त का न होना।
तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के हक़ में 'सल्लिमू तस्लीमा' कहने का एक मतलब यह है कि तुम उनके हक़ में मुकम्मल सलामती की दुआ करो और दूसरा मतलब यह है कि तुम पूरी तरह दिल व जान से उनका साथ दो। उनकी मुख़ालफ़त करने से बचो और उनके सच्चे फ़रमाँबरदार बनकर रहो।
यह हुक्म जब उतरा, तो कई सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने अल्लाह के रसूल (सल्ललाहु अलैहि वसल्लम) से अर्ज़ किया कि अल्लाह के रसूल! सलाम का तरीक़ा तो आप हमें बता चुके हैं (यानी नमाज़ में 'अस्सलामु अलै-क अय्युहन्नबीयु व रह-मतुल्लाहि व ब-र-कातुहू" और मुलाक़ात के वक़्त 'अस्सलामु अलै-क या रसूलल्लाह! कहना), मगर आप पर सलात (दुरूद) भेजने का तरीक़ा क्या है?
इसके जवाब में हुज़ूर (सल्ललाहु अलैहि वसल्लम) ने बहुत से लोगों को अलग-अलग मौक़ों पर दुरूद के बोल सिखाये हैं।
हज़रत कअब (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने दुरूद के ये शब्द रिवायत किये हैं:—
अल्लाहुम्-म सल्लि अला मुहम्मदिन व-अला आलि मुहम्मदिन कमा सल्लै-त अला इब्राही-म व-अला आलि इब्राही-म इन्न-क हमीदुम् मजीद व बारिक अला मुहम्मदिंव व-अला आलि मुहम्मदिन कमा बारक्-त अला इब्राही-म व-अला आलि इब्राही-म इन्न-क हमीदुम् मजीद।
"ऐ अल्लाह! हज़रत मुहम्मद और आपकी आल पर रहमत भेज, जिस तरह तूने इब्राहीम और उनकी आल पर रहमत भेजी। बेशक तू तारीफ़ वाला, बुज़ुर्गी वाला है। ऐ अल्लाह! हज़रत मुहम्मद और आपकी आल को बरकत दे, जिस तरह तूने हज़रत इब्राहीम और उनकी आल को बरकतें दीं। बेशक तू तारीफ़ वाला और बुज़ुर्गी वाला है।"
अलफ़ाज़ की थोड़ी कमी बेशी के साथ हज़रत इब्ने अब्बास, अबू हमीद साअदी, अबू मसऊद बदरी, अब सईद ख़ुदरी, बरीदा, तलहा, अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने भी दुरूद रिवायत किये हैं।
ये तमाम दुरूद शब्दों के थोड़े-थोड़े फ़र्क़ के बावजूद मायने और मतलब में एक हैं। इनके अन्दर कुछ अहम बातें हैं, जिन्हें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।
- इन सब में हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मुसलमानों से फ़रमाया है कि मुझ पर दुरूद भेजने का बेहतरीन तरीक़ा यह है कि तुम अल्लाह से दुआ करो कि ऐ ख़ुदा! तू मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दुरूद भेज। नादान लोग जिन्हें समझ नहीं है, इस पर तुरन्त यह एतेराज़ जड़ देते हैं कि यह तो अजीब बात हुई। अल्लाह तो हम से फ़रमा रहा है कि तुम मेरे नबी पर दुरूद भेजो, पर हम उल्टा अल्लाह से कहते हैं कि तू दरूद भेज, हालांकि असल में इस तरह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने लोगों को यह बताया है कि तुम मुझ पर सलात (दुरूद) का हक़ अदा करना चाहो भी तो नहीं कर सकते। इसलिए अल्लाह ही से दुआ करो कि वह मुझ पर सलात फ़रमाए। ज़ाहिर बात है कि हम हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मर्तबे बुलन्द नहीं कर सकते, अल्लाह ही बुलन्द कर सकता है। हम हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के एहसानों का बदला नहीं दे सकते, अल्लाह ही उन का बदला दे सकता है। हम हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ज़िक्र को बुलन्द करने के लिए और आप के दीन को बढ़ावा देने के लिए, चाहे जितनी कोशिशें करें, अल्लाह की मेहरबानी और उसकी तौफ़ीक़ व ताईद के बिना उस में कोई कामयाबी नहीं हो सकती, जबकि हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की मुहब्बत व अक़ीदत भी हमारे दिल में अल्लाह की मदद से बैठ सकती है, वरना शैतान न मालूम कितने वस्वसे दिल में डाल कर हमें आप से दूर कर सकता है। (अआज़नल्लाहु मिन ज़ालिक)। इसलिए मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर सलात का हक़ अदा करने की शक़्ल इस के सिवा नहीं है कि अल्लाह से आप पर सलात की दुआ की जाए, जो आदमी 'अल्लाहुम्-म सल्लि अला मुहम्मद' कहता है, वह मानो अल्लाह के दरबार में अपनी मजबूरी और कमज़ोरी बताते हुए अर्ज़ करता है कि ऐ अल्लाह! तेरे नबी पर सलात का जो हक़ है, उसे अदा करना मेरे बस में नहीं है, तू ही मेरी ओर से उसे अदा कर और मुझ से उस के अदा करने में जो ख़िदमत चाहे ले ले।
- हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के शाने करम ने यह गवारा न फ़रमाया कि वह अपनी ज़ात को इस दुआ के लिए ख़ास कर लें, बल्कि अपने साथ अपनी आल औलाद और बीवियों को भी शामिल कर लिया, औलाद और बीवियों का अर्थ तो साफ़ है, रहा आल का शब्द तो वह सिर्फ़ हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के ख़ानदान वालों के लिए ख़ास नहीं है बल्कि इस में वे सभी आ जाते हैं जो आप की पैरवी करने वाले हों और आप के तरीक़े पर चलें। अरबी ज़ुबान में आल में वे सब लोग समझे जाते हैं जो उस के साथ मदद करने वाले और उस की पैरवी करने वाले हों, चाहे वे उसके रिश्तेदार हों या नहीं, और किसी आदमी के रिश्तेदारों के लिए अरबी ज़ुबान में अहल शब्द बोला जाता है, चाहे उस की मदद करने वाले और उसकी पैरवी करने वाले हों या न हों। क़ुरआन मजीद में 14 जगहों पर आले फ़िरओन का शब्द आया है और उनमें से किसी जगह भी आल से मुराद सिर्फ़ फ़िरओन के ख़ानदान वाले नहीं हैं बल्कि वे सब लोग हैं जो हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) के मुक़ाबले में उस के साथी थे (मिसाल के तौर पर देखिए सूरः बक़र: आयतें 49-50, आले-इमरान 11, अल आराफ़ 130, अल-मुअमिन 46) इस तरह आले मुहम्मद से हर वह आदमी निकला हुआ है जो मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के तरीक़े पर न हो, भले ही वह आप के ख़ानदान से मुताल्लिक़ हो और इस में हर वह आदमी दाख़िल है जो आप के तरीक़े पर चलता हो, चाहे उस का ताल्लुक़ आप के ख़ानदान से दूर का भी न हो। अलबत्ता आपके ख़ानदान के वे लोग दर्जे के एतबार से पहले आले मुहम्मद हैं जो आप से ख़ानदानी ताल्लुक़ भी रखते हैं और आप की पैरवी भी करने वाले हैं।
- हर दुरूद जो हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सिखाया है, उस में यह बात ज़रूर शामिल है कि आप पर वैसी ही मेहरबानी फ़रमायी जाए जैसी इब्राहीम और आले इब्राहीम पर फ़रमायी गयी है। इस बात के समझने में लोगों को बड़ी मुश्किल पेश आयी है। आलिमों ने इस का अलग-अलग मतलब समझा है, पर कोई मतलब दिल को नहीं लगता। मेरे नज़दीक सही मतलब यह है कि (और अल्लाह ही बेहतर जानता है) अल्लाह ने हज़रत इब्राहीम पर एक ख़ास करम फ़रमाया है जो आज तक किसी पर नहीं फ़रमाया और वह यह है कि तमाम वे इंसान जो नुबूवत और वह्य और आसमानी किताब को हिदायत का स्रोत मानते हैं, वे हज़रत इब्राहीम की पेशवाई पर एक राय हैं, चाहे वे मुसलमान हों या ईसाई या यहूदी, इस लिए नबी (सल्ललाहु अलैहि वसल्लम) के इर्शाद का मंशा यह है कि जिस तरह सारे नबियों को मानने वाले हज़रत इब्राहीम को अपना पेशवा मानते हैं, उसी तरह अल्लाह मुझे भी सबका रहनुमा बना दे और कोई ऐसा आदमी जो नुबूवत का मानने वाला हो, मेरी नबूवत पर ईमान लाने से महरूम न रह जाए।
इस बात पर सभी आलिमों का इत्तिफ़ाक़ है कि हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दुरूद भेजना सुन्नत है, जब आप का नाम आये तो उसका पढ़ना मुस्तहब है और ख़ास तौर पर उस का नमाज़ में पढ़ना मस्नून है। इस बात पर भी सब एक राय हैं कि उम्र में एक बार हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दुरूद भेजना फ़र्ज़ है क्योंकि अल्लाह ने साफ़ शब्दों में इसका हुक्म दिया है, लेकिन इस के बाद दुरूद के मसअले में उलेमा की राय अलग-अलग पायी जाती है। इमाम शाफ़ई (रहमतुल्लाह अलैहि) मानते हैं कि नमाज़ में आख़िरी बार जब आदमी तशह्हुद पढ़ता है, उस में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दुरूद पढ़ना फ़र्ज़ है। अगर कोई न पढ़ेगा तो नमाज़ न होगी। सहाबा में से इब्ने मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु), अबु मसऊद अंसारी (रज़ियल्लाहु अन्हु), इब्ने उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) और जाबिर बिन अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) ताबईन में से शाबी, इमाम मुहम्मद बाक़र, मुहम्मद बिन काब कुरज़ी और मुक़ातिल बिन हय्यान और फुक़हा में इस्हाक़ बिन राहवैह का भी यही मस्लक था और आख़िर में इमाम अहमद बिन हंबल (रहमतुल्लाह अलैहि) ने भी इसी को अपनाया था।
इमाम अबू हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैहि), इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैहि) और बहुत से उलेमा का मस्लक यह है कि दुरूद उम्र में सिर्फ़ एक बार पढ़ना फ़र्ज़ है। यह शहादत के कलिमे की तरह है कि जिस ने एक बार अल्लाह के इलाह होने और रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की रिसालत का इक़रार कर लिया, उसने फ़र्ज़ अदा कर दिया। इसी तरह जिसने एक बार दुरूद पढ़ लिया उसने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दुरूद पढ़ने का फ़र्ज़ अदा कर दिया। इसके बाद न कलिमा पढ़ना फ़र्ज़ है, न दुरूद।
एक और गिरोह नमाज़ में इस का पढ़ना हर हाल में वाजिब क़रार देता है, मगर तशह्हुद के साथ पढ़ने की शर्त नहीं लगाता।
एक दूसरे गिरोह के नज़दीक हर दुआ में इसका पढ़ना वाजिब है और कुछ लोग यह मानते हैं कि जब भी हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का नाम आये, दुरूद पढ़ना वाजिब है और एक गिरोह के नज़दीक एक मजलिस में हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का ज़िक्र, चाहे कितनी ही बार आये, दुरूद पढ़ना बस एक बार वाजिब है।
रायों का यह फ़र्क़ सिर्फ़ वाजिब होने के मामले में है बाकी रही दुरूद की फ़ज़ीलत और उस के अज्र और सवाब की बात, और उसका एक बहुत बड़ी नेकी होना, तो इस पर पूरी उम्मत एक राय है। जिस शख़्स में ज़रा भी ईमान हो वह इस बात में कलाम नहीं कर सकता। दुरूद तो फ़ितरी तौर पर हर उस मुसलमान के दिल से निकलेगा, जिसे यह एहसास हो कि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अल्लाह के बाद हमारे सब से बड़े एहसान करने वाले हैं। इस्लाम और ईमान की जितनी क़द्र इंसान के दिल में होगी, उतनी ही ज़्यादा क़द्र उस के दिल में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के एहसानों की भी होगी और जितना ज़्यादा आदमी इन एहसानों की क़ीमत पहचानेगा, उतना ही ज़्यादा हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर दुरूद भेजेगा। इस तरह हक़ीक़त में दुरूद की ज़्यादती एक पैमाना है जो नाप कर बता देता है कि दीने मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से एक आदमी कितना गहरा ताल्लुक़ रखता है और ईमान की नेमत की कितनी क़द्र उस के दिल में है। इसी वजह से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि 'जो आदमी मुझ पर दुरूद भेजता है, फ़रिशते उस पर दुरूद भेजते रहते हैं, जब तक वह मुझ पर दुरूद भेजता रहे।' —अहमद व इब्ने माजा
'जो मुझ पर एक बार दुरूद भेजता है, अल्लाह उस पर दस बार दुरूद भेजता है।' —मुस्लिम
'क़ियामत के दिन मेरे साथ रहने का सब से ज़्यादा हक़दार वह होगा जो मुझ पर सब से ज़्यादा दुरूद भेजेगा।' —तिर्मिज़ी
'बख़ील (कंजूस) है वह आदमी जिस के सामने मेरा ज़िक्र किया जाए और वह मुझ पर दुरूद न भेजे।' —तिर्मिज़ी
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम!
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