سُورَةُ الرُّومِ
30. अर-रूम
(मक्का में उतरी-आयतें 60)
परिचय
नाम
पहली ही आयत के शब्द “ग़ुलि ब-तिर्रूम" (रूमी पराजित हो गए हैं) से लिया गया है।
उतरने का समय
आरंभ ही में कहा गया है कि "क़रीब के भू-भाग में रूमी (रोमवासी) पराजित हो गए हैं।” उस समय अरब से मिले हुए सभी अधिकृत क्षेत्रों पर ईरानियों का प्रभुत्व 615 ई० में पूरा हुआ था : इसलिए पूरे विश्वास के साथ यह कहा जा सकता है कि यह सूरा उसी साल उतरी थी और यह वही साल था जिसमें हबशा की हिजरत हुई थी।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
जो भविष्यवाणी इस सूरा की आरंभिक आयतों में की गई है वह क़ुरआन मजीद के अल्लाह के कलाम होने और मुहम्मद (सल्ल०) के सच्चे रसूल होने की स्पष्ट और खुली गवाहियों में से एक है । इसे समझने के लिए ज़रूरी है कि उन ऐतिहासिक घटनाओं का विस्तृत विवेचन किया जाए जो इन आयतों से संबंध रखती हैं। नबी (सल्ल०) की नुबूवत से 8 साल पहले की घटना है कि क़ैसरे-रूम (रोम का शासक) मारीस (Maurice) के विरुद्ध विद्रोह हुआ और एक व्यक्ति फ़ोकास (Phocas) ने राजसिंहासन पर क़ब्ज़ा कर लिया [और क़ैसर को उसके बाल-बच्चों के साथ क़त्ल करा दिया]। इस घटना से ईरान के सम्राट ख़ुसरो परवेज़ को रोम पर हमलावर होने के लिए बड़ा ही अच्छा नैतिक बहाना मिल गया, क्योंकि क़ैसर मॉरीस उसका उपकारकर्ता था। चुनांँचे 603 ई० में उसने रोमी साम्राज्य के विरुद्ध लड़ाई कर दी और कुछ साल के भीतर वह फ़ोकास की फ़ौज़ों को बराबर हराता हुआ [बहुत दूर तक अंदर घुस गया] रूम के दरबारियों ने यह देखकर कि फ़ोकास देश को नहीं बचा सकता, अफ़रीक़ा के गर्वनर से मदद मांँगी। उसने अपने बेटे हिरक़्ल (Heraclius) को एक शक्तिशाली बेड़े के साथ क़ुस्तनतीनिया भेज दिया। उसके पहुँचते ही फ़ोकास को पद से हटा दिया गया और उसकी जगह हिरक़्ल कै़सर बनाया गया। यह 610 ई० की घटना है और यह वही साल है जिसमें नबी (सल्ल०) अल्लाह की ओर से नबी बनाए गए।
ख़ुसरो परवेज़ ने फ़ोकास के हटाए और क़त्ल कर दिए जाने के बाद भी लड़ाई जारी रखी, और अब इस लड़ाई को उसने मजूसियों (अग्नि-पूजकों) और ईसाइयों के धर्मयुद्ध का रंग दे दिया [वह जीतता हुआ आगे बढ़ता रहा, यहाँ तक कि] 614 ई० में बैतुल-मक़दिस पर क़ब्ज़ा करके ईरानियों ने मसीही दुनिया पर क़ियामत ढा दी। इस जीत के बाद एक साल के अन्दर-अन्दर ईरानी फ़ौजें जार्डन, फ़िलस्तीन और सीना प्रायद्वीप के पूरे इलाके़ पर क़ब्ज़ा करके मिस्र की सीमाओं तक पहुँच गईं। यह वह समय था जब मक्का मुअज़्ज़मा में एक ओर उससे कई गुना अधिक ऐतिहासिक महत्त्ववाली लड़ाई [कुफ्र और इस्लाम की लड़ाई] छिड़ गई थी और नौबत यहाँ तक पहुँच गई थी कि 615 ई० में मुसलमानों की एक बड़ी संख्या को अपना घर-बार छोड़कर हबशा के ईसाई राज्य में (जिससे रोम की शपथ-मित्रता थी) पनाह लेनी पड़ी। उस वक़्त ईसाई रोम पर [अग्निपूजक] ईरान के प्रभुत्व की चर्चा हर ज़बान पर थी। मक्का के मुशरिक इसपर खु़शी मना रहे थे और इसे मुसलमानों [के विरुद्ध उसकी सफलता की एक मिसाल और शगुन ठहरा रहे थे।] इन परिस्थतियों में कु़रआन मजीद की यह सूरा उतरी और इसमें वह भविष्यवाणी की गई [जो इसकी शुरू की आयतों में बयान की गई है।] इसमें एक के बजाय दो भविष्यवाणियाँ थीं- एक यह कि रूमियों को ग़लबा (प्रभुत्व) मिलेगा। दूसरी यह कि मुसलमानों को भी उसी समय में जीत मिलेगी। प्रत्यक्ष में तो दूर-दूर तक कहीं इसकी निशानियाँ मौजूद न थीं कि इनमें से कोई एक भविष्यवाणी भी कुछ वर्ष के भीतर पूरी हो जाएगी। चुनांँचे क़ुरआन की ये आयतें जब उतरीं तो मक्का के विधर्मियों ने इसकी खू़ब हँसी उड़ाई, [लेकिन सात-आठ वर्ष बाद ही परिस्थतियों ने पलटा खाया।] 622 ई० में इधर नबी (सल्ल०) हिजरत करके मदीना तशरीफ़ ले गए और उधर कै़सर हिरक़्ल [ईरान पर जवाबी हमला करने के लिए] ख़ामोशी के साथ कु़स्तनतीनिया से काला सागर के रास्ते से तराबजू़न की ओर रवाना हुआ और 623 ई० में आरमीनिया से [अपना हमला] शुरू करके दूसरे साल 624 ई० में उसने आज़र बाइजान में घुसकर ज़रतुश्त के जन्म स्थल अरमियाह (Clorumia) को नष्ट कर दिया और ईरानियों के सबसे बड़े अग्निकुंड की ईंट से ईट बजा दी। अल्लाह की कु़दरत का करिश्मा देखिए कि यही वह साल था जिसमें मुसलमानों को बद्र में पहली बार मुशरिकों के मुक़ाबले में निर्णायक विजय मिली। इस तरह वे दोनों भविष्यवाणियाँ जो सूरा रूम में की गई थी, दस साल की अवधि समाप्त होने में पहले एक साथ ही पूरी हो गईं।
विषय और वार्ताएँ
इस सूरा में वार्ता का आरंभ इस बात से किया गया है कि आज रूमी (रोमवासी) परास्त हो गए हैं, मगर कुछ साल न बीतने पाएँगे कि पांँसा पलट जाएगा और जो परास्त है, वह विजयी हो जाएगा। इस भूमिका से यह बात मालूम हुई कि इंसान अपनी बाह्य दृष्टि के कारण वही कुछ देखता है जो बाह्य रूप से उसकी आँखों के सामने होता है, मगर इस बाह्य के परदे की पीछे जो कुछ है, उसकी उसे ख़बर नहीं होती। जब दुनिया के छोटे-छोटे मामलों में [आदमी अपनी ऊपरी नज़र के कारण] ग़लत अन्दाज़े लगा बैठता है, तो फिर समग्र जीवन के मामले में दुनिया को जिंदगी के प्रत्यक्ष पर भरोसा कर बैठना कितनी बड़ी ग़लती है। इस तरह रोम एवं ईरान के मामले से व्याख्यान का रुख़ आख़िरत के विषय की ओर फिर जाता है और लगातार 27 आयतों तक विविध ढंग से यह समझाने की कोशिश की जाती है कि आख़िरत सम्भव भी है, बुद्धिसंगत भी है और आवश्यक भी है। इस सिलसिले में आख़िरत पर प्रमाण जुटाते हुए सृष्टि की जिन निशानियों को गवाही के रूप में पेश किया गया है, वे ठीक वही निशानियाँ हैं जो तौहीद (एकेश्वरवाद) को प्रमाणित करती हैं। इस लिए आयत 41 के आरंभ में से व्याख्यान का रुख़ तौहीद को साबित करने और शिर्क (बहुदेववाद) को झुठलाने की ओर फिर जाता है और बताया जाता है कि शिर्क जगत् की प्रकृति और मानव की प्रकृति के विरुद्ध है। इसी लिए जहाँ भी इंसान ने इस गुमराही को अपनाया है, वहाँ बिगाड़ पैदा हुआ है। इस मौके़ पर फिर उस बड़े बिगाड़ की ओर, जो उस समय दुनिया के दो बड़े राज्यों के बीच लड़ाई की वजह से पैदा हो गया था, संकेत किया गया है और बताया गया है कि यह बिगाड़ भी शिर्क के नतीजों में से है। अन्त में मिसाल की शक्ल में लोगों को समझाया गया है कि जिस तरह मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन अल्लाह की भेजी हुई बारिश से सहसा जी उठती है, उसी तरह अल्लाह की भेजी हुई वह्य और नुबूवत भी मुर्दा पड़ी हुई मानवता के हक़ में रहमत (दयालुता) की बारिश है। इस मौके़ से फ़ायदा उठाओगे तो यही अरब की सूनी ज़मीन अल्लाह की रहमत से लहलहा उठेगी। लाभ न उठाओगे तो अपनी ही हानि करोगे।
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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान हैं।
रूमी निकटवर्ती क्षेत्र में पराभूत हो गए हैं। ॥2॥
فِيٓ أَدۡنَى ٱلۡأَرۡضِ وَهُم مِّنۢ بَعۡدِ غَلَبِهِمۡ سَيَغۡلِبُونَ 3
और वे अपने पराभव के पश्चात् शीघ्र ही कुछ वर्षों में प्रभावी हो जाएँगे।॥3॥
فِي بِضۡعِ سِنِينَۗ لِلَّهِ ٱلۡأَمۡرُ مِن قَبۡلُ وَمِنۢ بَعۡدُۚ وَيَوۡمَئِذٖ يَفۡرَحُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ 4
हुक्म तो अल्लाह ही का है, पहले भी और उसके बाद भी, और उस दिन ईमानवाले अल्लाह की सहायता से प्रसन्न होंगे।॥4॥
بِنَصۡرِ ٱللَّهِۚ يَنصُرُ مَن يَشَآءُۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ 5
वह जिसकी चाहता है सहायता करता है। वह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, दयावान है।॥5॥
وَعۡدَ ٱللَّهِۖ لَا يُخۡلِفُ ٱللَّهُ وَعۡدَهُۥ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ 6
यह अल्लाह का वादा है! अल्लाह अपने वादे का उल्लंघन नहीं करता। किन्तु अधिकांश लोग जानते नहीं।॥6॥
يَعۡلَمُونَ ظَٰهِرٗا مِّنَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَهُمۡ عَنِ ٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ غَٰفِلُونَ 7
वे सांसारिक जीवन के केवल बाह्य रूप को जानते हैं, किन्तु आख़िरत की ओर से वे बिलकुल असावधान हैं।॥7॥
أَوَلَمۡ يَتَفَكَّرُواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۗ مَّا خَلَقَ ٱللَّهُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَآ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَأَجَلٖ مُّسَمّٗىۗ وَإِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلنَّاسِ بِلِقَآيِٕ رَبِّهِمۡ لَكَٰفِرُونَ 8
क्या उन्होंने अपने आप में सोच-विचार नहीं किया? अल्लाह ने आकाशों और धरती को और जो कुछ उनके बीच है सत्य के साथ और एक नियत अवधि ही के लिए पैदा किया है। किन्तु बहुत-से लोग अपने प्रभु के मिलन का इनकार करते हैं।॥8॥
أَوَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَانُوٓاْ أَشَدَّ مِنۡهُمۡ قُوَّةٗ وَأَثَارُواْ ٱلۡأَرۡضَ وَعَمَرُوهَآ أَكۡثَرَ مِمَّا عَمَرُوهَا وَجَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِۖ فَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيَظۡلِمَهُمۡ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ 9
क्या वे धरती में चले-फिरे नहीं कि देखते कि उन लोगों का कैसा परिणाम हुआ जो उनसे पहले थे? वे शक्ति में उनसे अधिक बलवान थे और उन्होंने धरती को उपजाया और उससे कहीं अधिक उसे आबाद किया जितना उन्होंने उसे आबाद किया था। और उनके पास उनके रसूल प्रत्यक्ष प्रमाण लेकर आए। फिर अल्लाह ऐसा न था कि उनपर ज़ुल्म करता। किन्तु वे स्वयं ही अपने आप पर ज़ुल्म करते थे।॥9॥
ثُمَّ كَانَ عَٰقِبَةَ ٱلَّذِينَ أَسَٰٓـُٔواْ ٱلسُّوٓأَىٰٓ أَن كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَكَانُواْ بِهَا يَسۡتَهۡزِءُونَ 10
फिर जिन लोगों ने बुरा किया था उनका परिणाम बुरा हुआ, क्योंकि उन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठलाया और उनका मज़ाक़ उड़ाते रहे।॥10॥
ٱللَّهُ يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥ ثُمَّ إِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ 11
अल्लाह ही सृष्टि का आरंभ करता है। फिर वही उसकी पुनरावृति करता है। फिर उसी की ओर तुम पलटोगे।॥11॥
وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ يُبۡلِسُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ 12
जिस दिन वह घड़ी आ खड़ी होगी, उस दिन अपराधी एकदम निराश होकर रह जाएँगे।॥12॥
وَلَمۡ يَكُن لَّهُم مِّن شُرَكَآئِهِمۡ شُفَعَٰٓؤُاْ وَكَانُواْ بِشُرَكَآئِهِمۡ كَٰفِرِينَ 13
उनके ठहराए हुए साझीदारों में से कोई उनका सिफ़ारिश करनेवाला न होगा और वे स्वयं भी अपने साझीदारों का इनकार करेंगे।॥13॥
وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ يَوۡمَئِذٖ يَتَفَرَّقُونَ 14
और जिस दिन वह घड़ी आ खड़ी होगी, उस दिन वे सब अलग-अलग हो जाएँगे।॥14॥
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَهُمۡ فِي رَوۡضَةٖ يُحۡبَرُونَ 15
अतः जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, वे एक बाग़ में प्रसन्नतापूर्वक रखे जाएँगे।॥15॥
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَلِقَآيِٕ ٱلۡأٓخِرَةِ فَأُوْلَٰٓئِكَ فِي ٱلۡعَذَابِ مُحۡضَرُونَ 16
किन्तु जिन लोगों ने इनकार किया और हमारी आयतों और आख़िरत की मुलाक़ात को झुठलाया, वे लाकर यातनाग्रस्त किए जाएँगे।॥16॥
فَسُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ حِينَ تُمۡسُونَ وَحِينَ تُصۡبِحُونَ 17
अतः अब अल्लाह की तसबीह करो, जबकि तुम शाम करो और जब सुबह करो। ॥17॥
وَلَهُ ٱلۡحَمۡدُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَعَشِيّٗا وَحِينَ تُظۡهِرُونَ 18
और उसी के लिए प्रशंसा है आकाशों और धरती में — और पिछले पहर और जब तुमपर दोपहर हो। ॥18॥
يُخۡرِجُ ٱلۡحَيَّ مِنَ ٱلۡمَيِّتِ وَيُخۡرِجُ ٱلۡمَيِّتَ مِنَ ٱلۡحَيِّ وَيُحۡيِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَاۚ وَكَذَٰلِكَ تُخۡرَجُونَ 19
वह जीवित को मृत से निकालता है और मृत को जीवित से, और धरती को उसकी मृत्यु के पश्चात् जीवन प्रदान करता है। इसी प्रकार तुम भी निकाले जाओगे।॥19॥
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَنۡ خَلَقَكُم مِّن تُرَابٖ ثُمَّ إِذَآ أَنتُم بَشَرٞ تَنتَشِرُونَ 20
और यह उसकी निशानियों में से है कि उसने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया। फिर क्या देखते हैं कि तुम मानव हो, फैलते जा रहे हो।॥20॥
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَنۡ خَلَقَ لَكُم مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ أَزۡوَٰجٗا لِّتَسۡكُنُوٓاْ إِلَيۡهَا وَجَعَلَ بَيۡنَكُم مَّوَدَّةٗ وَرَحۡمَةًۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ 21
और यह भी उसकी निशानियों में से है कि उसने तुम्हारी ही सहजाति से तुम्हारे लिए जोड़े पैदा किए, ताकि तुम उनके पास शान्ति प्राप्त करो। और उसने तुम्हारे बीच प्रेम और दयालुता पैदा की। और निश्चय ही इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो सोच-विचार करते हैं।॥21॥
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦ خَلۡقُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱخۡتِلَٰفُ أَلۡسِنَتِكُمۡ وَأَلۡوَٰنِكُمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّلۡعَٰلِمِينَ 22
और उसकी निशानियों में से आकाशों और धरती का सृजन और तुम्हारी भाषाओं और तुम्हारे रंगों की विविधता भी है। निस्संदेह इसमें ज्ञानवानों के लिए बहुत-सी निशानियाँ हैं।॥22॥
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦ مَنَامُكُم بِٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَٱبۡتِغَآؤُكُم مِّن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَسۡمَعُونَ 23
और उसकी निशानियों में से तुम्हारा रात और दिन का सोना और तुम्हारा उसके अनुग्रह को तलाश करना भी है। निश्चय ही इसमें निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो सुनते हैं।॥23॥
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦ يُرِيكُمُ ٱلۡبَرۡقَ خَوۡفٗا وَطَمَعٗا وَيُنَزِّلُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَيُحۡيِۦ بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَآۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ 24
और उसकी निशानियों में से यह भी कि वह तुम्हें बिजली की चमक, भय और आशा उत्पन्न करने के लिए दिखाता है। और वह आकाश से पानी बरसाता है। फिर उसके द्वारा धरती को उसके निर्जीव हो जाने के बाद जीवन प्रदान करता है। निस्संदेह इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो बुद्धि से काम लेते हैं।॥24॥
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَن تَقُومَ ٱلسَّمَآءُ وَٱلۡأَرۡضُ بِأَمۡرِهِۦۚ ثُمَّ إِذَا دَعَاكُمۡ دَعۡوَةٗ مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ إِذَآ أَنتُمۡ تَخۡرُجُونَ 25
और उसकी निशानियों में से यह भी है कि आकाश और धरती उसके आदेश से क़ायम हैं। फिर जब वह तुम्हें एक बार पुकारकर धरती में से बुलाएगा, तो क्या देखेंगे कि सहसा तुम निकल पड़े।॥25॥
وَلَهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ كُلّٞ لَّهُۥ قَٰنِتُونَ 26
आकाशों और धरती में जो कोई भी है उसी का है। प्रत्येक उसी के निष्ठावान आज्ञाकारी है।॥26॥
وَهُوَ ٱلَّذِي يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥ وَهُوَ أَهۡوَنُ عَلَيۡهِۚ وَلَهُ ٱلۡمَثَلُ ٱلۡأَعۡلَىٰ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ 27
वही है जो सृष्टि का आरम्भ करता है। फिर वही उसकी पुनरावृत्ति करेगा। और यह उसके लिए अधिक सरल है। आकाशों और धरती में उसी की मिसाल (गुण) सर्वोच्च है। और वह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है।॥27॥
ضَرَبَ لَكُم مَّثَلٗا مِّنۡ أَنفُسِكُمۡۖ هَل لَّكُم مِّن مَّا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُم مِّن شُرَكَآءَ فِي مَا رَزَقۡنَٰكُمۡ فَأَنتُمۡ فِيهِ سَوَآءٞ تَخَافُونَهُمۡ كَخِيفَتِكُمۡ أَنفُسَكُمۡۚ كَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ 28
उसने तुम्हारे लिए स्वयं तुम्हीं में से एक मिसाल पेश की है। क्या जो रोज़ी हमने तुम्हें दी है उसमें तुम्हारे अधीनस्थों1 में से, कुछ तुम्हारे साझीदार हैं कि तुम सब उसमें बराबर के हो, तुम उनका ऐसा डर रखते हो जैसा अपने लोगों का डर रखते हो? —- इस प्रकार हम उन लोगों के लिए आयतें खोल-खोलकर प्रस्तुत करते हैं जो बुद्धि से काम लेते हैं। — ॥28॥
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1. अर्थात् ग़ुलाम, लौंडी।
بَلِ ٱتَّبَعَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ أَهۡوَآءَهُم بِغَيۡرِ عِلۡمٖۖ فَمَن يَهۡدِي مَنۡ أَضَلَّ ٱللَّهُۖ وَمَا لَهُم مِّن نَّٰصِرِينَ 29
नहीं, बल्कि ये ज़ालिम तो बिना ज्ञान के अपनी इच्छाओं के पीछे चल पड़े।2 तो अब कौन उसे मार्ग दिखाएगा जिसे अल्लाह ने भटका दिया हो? ऐसे लोगो का तो कोई सहायक नहीं।॥29॥
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2. अर्थात् इच्छा के अनुसरण ने इनको अंधा बना दिया है। इसिलए ये अपने ऊपर ज़ुल्म ही ढाएँगे।
فَأَقِمۡ وَجۡهَكَ لِلدِّينِ حَنِيفٗاۚ فِطۡرَتَ ٱللَّهِ ٱلَّتِي فَطَرَ ٱلنَّاسَ عَلَيۡهَاۚ لَا تَبۡدِيلَ لِخَلۡقِ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ ٱلدِّينُ ٱلۡقَيِّمُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ 30
अतः एक ओर का होकर अपने रुख़ को 'दीन' (धर्म) की ओर जमा दो, अल्लाह की उस प्रकृति का अनुसरण करो जिसपर उसने लोगों को पैदा किया। अल्लाह की बनाई हुई संरचना बदली नहीं जा सकती। यही सीधा और ठीक धर्म है, किन्तु अधिकतर लोग जानते नहीं।॥30॥
۞مُنِيبِينَ إِلَيۡهِ وَٱتَّقُوهُ وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَلَا تَكُونُواْ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ 31
उसकी ओर रुजू करनेवाले (प्रवृत्त होनेवाले) रहो। और उसका डर रखो और नमाज़ का आयोजन करो। और (अल्लाह का) साझी ठहरानेवालों में से न होना, ॥31॥
مِنَ ٱلَّذِينَ فَرَّقُواْ دِينَهُمۡ وَكَانُواْ شِيَعٗاۖ كُلُّ حِزۡبِۭ بِمَا لَدَيۡهِمۡ فَرِحُونَ 32
उन लोगों में से जिन्होंने अपनी दीन (धर्म) को टुकड़े-टुकड़े कर डाला और गिरोहों में बँट गए। हर गिरोह के पास जो कुछ है उसी में मग्न है।॥32॥
وَإِذَا مَسَّ ٱلنَّاسَ ضُرّٞ دَعَوۡاْ رَبَّهُم مُّنِيبِينَ إِلَيۡهِ ثُمَّ إِذَآ أَذَاقَهُم مِّنۡهُ رَحۡمَةً إِذَا فَرِيقٞ مِّنۡهُم بِرَبِّهِمۡ يُشۡرِكُونَ 33
और जब लोगों को कोई तकलीफ़ पहुँचती है तो वे अपने रब को उसकी ओर रुजू (प्रवृत्त) होकर पुकारते हैं। फिर जब वह उन्हें अपनी दयालुता का रसास्वादन करा देता है तो क्या देखते हैं कि उनमें से कुछ लोग अपने रब का साझी ठहराने लगे;॥33॥
لِيَكۡفُرُواْ بِمَآ ءَاتَيۡنَٰهُمۡۚ فَتَمَتَّعُواْ فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ 34
ताकि इस प्रकार वे उसके प्रति अकृतज्ञता दिखलाएँ जो कुछ हमने उन्हें दिया है। "अच्छा तो मज़े उड़ा लो, शीघ्र ही तुम जान लोगे।"॥34॥
أَمۡ أَنزَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ سُلۡطَٰنٗا فَهُوَ يَتَكَلَّمُ بِمَا كَانُواْ بِهِۦ يُشۡرِكُونَ 35
(क्या उनके देवताओं ने उनकी सहायता की थी, या हमने उनपर ऐसा कोई प्रमाण उतारा है कि वह उसके हक़ में बोलता हो जो वे उसके साथ साझी ठहराते हैं?॥35॥
وَإِذَآ أَذَقۡنَا ٱلنَّاسَ رَحۡمَةٗ فَرِحُواْ بِهَاۖ وَإِن تُصِبۡهُمۡ سَيِّئَةُۢ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡ إِذَا هُمۡ يَقۡنَطُونَ 36
और जब हम लोगों को दयालुता का रसास्वादन कराते हैं तो वे उसपर इतराने लगते हैं; परन्तु जो कुछ उनके हाथों ने आगे भेजा है यदि उसके कारण उनपर कोई विपत्ति आ जाए, तो क्या देखते हैं कि वे निराश हो रहे हैं।॥36॥
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ 37
क्या उन्होंने विचार नहीं किया कि अल्लाह जिसके लिए चाहता है रोज़ी कुशादा कर देता है और जिसके लिए चाहता है नपी-तुली कर देता है? निस्संदेह इसमें उन लोगों के लिए निशानियाँ हैं जो ईमान लाएँ।॥37॥
فَـَٔاتِ ذَا ٱلۡقُرۡبَىٰ حَقَّهُۥ وَٱلۡمِسۡكِينَ وَٱبۡنَ ٱلسَّبِيلِۚ ذَٰلِكَ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ يُرِيدُونَ وَجۡهَ ٱللَّهِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ 38
अतः नातेदार को उसका हक़ दो और मुहताज और मुसाफ़िर को भी। यह अच्छा है उनके लिए जो अल्लाह की प्रसन्नता के इच्छुक हों, और वही सफल हैं।॥38॥
وَمَآ ءَاتَيۡتُم مِّن رِّبٗا لِّيَرۡبُوَاْ فِيٓ أَمۡوَٰلِ ٱلنَّاسِ فَلَا يَرۡبُواْ عِندَ ٱللَّهِۖ وَمَآ ءَاتَيۡتُم مِّن زَكَوٰةٖ تُرِيدُونَ وَجۡهَ ٱللَّهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُضۡعِفُونَ 39
तुम जो कुछ ब्याज पर देते हो, ताकि वह लोगों के मालों में सम्मिलित होकर बढ़ जाए, तो वह अल्लाह के यहाँ नहीं बढ़ता। किन्तु जो ज़कात तुमने अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए दी, तो ऐसे ही लोग (अल्लाह के यहाँ) अपना माल बढ़ाते हैं।॥39॥
ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَكُمۡ ثُمَّ رَزَقَكُمۡ ثُمَّ يُمِيتُكُمۡ ثُمَّ يُحۡيِيكُمۡۖ هَلۡ مِن شُرَكَآئِكُم مَّن يَفۡعَلُ مِن ذَٰلِكُم مِّن شَيۡءٖۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ 40
अल्लाह ही है जिसने तुम्हें पैदा किया, फिर तुम्हें रोज़ी दी, फिर वह तुम्हें मृत्यु देता है; फिर तुम्हें जीवित करेगा। क्या तुम्हारे ठहराए हुए साझीदारों में भी कोई है जो इन कामों में से कुछ कर सके? महान और उच्च है वह उससे जो साझी वे ठहराते हैं।॥40॥
ظَهَرَ ٱلۡفَسَادُ فِي ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِ بِمَا كَسَبَتۡ أَيۡدِي ٱلنَّاسِ لِيُذِيقَهُم بَعۡضَ ٱلَّذِي عَمِلُواْ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ 41
थल और जल में बिगाड़ फैल गया स्वयं लोगों ही के हाथों की कमाई के कारण, ताकि वह उन्हें उनकी कुछ करतूतों का मज़ा चखाए, कदाचित वे बाज़ आ जाएँ।॥41॥
قُلۡ سِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلُۚ كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّشۡرِكِينَ 42
कहो, "धरती में चल-फिरकर देखो कि उन लोगों का कैसा परिणाम हुआ है जो पहले गुज़रे है। उनमें अधिकतर बहुदेववादी ही थे।"॥42॥
فَأَقِمۡ وَجۡهَكَ لِلدِّينِ ٱلۡقَيِّمِ مِن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَ يَوۡمٞ لَّا مَرَدَّ لَهُۥ مِنَ ٱللَّهِۖ يَوۡمَئِذٖ يَصَّدَّعُونَ 43
अतः तुम अपना रुख़ सीधे और ठीक धर्म की ओर जमा दो, इससे पहले कि अल्लाह की ओर से वह दिन आ जाए जिसके लिए वापसी नहीं। उस दिन लोग अलग-अलग हो जाएँगे।॥43॥
مَن كَفَرَ فَعَلَيۡهِ كُفۡرُهُۥۖ وَمَنۡ عَمِلَ صَٰلِحٗا فَلِأَنفُسِهِمۡ يَمۡهَدُونَ 44
जिस किसी ने इनकार किया तो उसका इनकार उसी के लिए घातक सिद्ध होगा, और जिन लोगों ने अच्छा कर्म किया, वे अपने ही लिए आराम का साधन जुटा रहे हैं।॥44॥
لِيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ مِن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلۡكَٰفِرِينَ 45
ताकि वह अपने उदार अनुग्रह से उन लोगों को बदला दे जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए। निश्चय ही वह इनकार करनेवालों को पसन्द नहीं करता। —॥45॥
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَن يُرۡسِلَ ٱلرِّيَاحَ مُبَشِّرَٰتٖ وَلِيُذِيقَكُم مِّن رَّحۡمَتِهِۦ وَلِتَجۡرِيَ ٱلۡفُلۡكُ بِأَمۡرِهِۦ وَلِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ 46
और उसकी निशानियों में से यह भी है कि शुभ-सूचना देनेवाली हवाएँ भेजता है (ताकि उनके द्वारा तुम्हें वर्षा की शुभ-सूचना मिले) और ताकि वह तुम्हें अपनी दयालुता का रसास्वादन कराए और ताकि उसके आदेश से नौकाएँ चलें और ताकि तुम उसका अनुग्रह (रोज़ी) तलाश करो और कदाचित तुम कृतज्ञता दिखलाओ।॥46॥
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ رُسُلًا إِلَىٰ قَوۡمِهِمۡ فَجَآءُوهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَٱنتَقَمۡنَا مِنَ ٱلَّذِينَ أَجۡرَمُواْۖ وَكَانَ حَقًّا عَلَيۡنَا نَصۡرُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ 47
हम तुमसे पहले कितने ही रसूलों को उनकी क़ौम की ओर भेज चुके हैं और वे उनके पास खुली निशानियाँ लेकर आए। फिर हम उन लोगों से बदला लेकर रहे जिन्होंने अपराध किया, और ईमानवालों की सहायता करना तो हमपर एक हक़ है।॥47॥
ٱللَّهُ ٱلَّذِي يُرۡسِلُ ٱلرِّيَٰحَ فَتُثِيرُ سَحَابٗا فَيَبۡسُطُهُۥ فِي ٱلسَّمَآءِ كَيۡفَ يَشَآءُ وَيَجۡعَلُهُۥ كِسَفٗا فَتَرَى ٱلۡوَدۡقَ يَخۡرُجُ مِنۡ خِلَٰلِهِۦۖ فَإِذَآ أَصَابَ بِهِۦ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦٓ إِذَا هُمۡ يَسۡتَبۡشِرُونَ 48
अल्लाह ही है जो हवाओं को भेजता है। फिर वे बादलों को उठाती हैं; फिर जिस तरह चाहता है उन्हें आकाश में फैला देता है और उन्हें परतों और टुकड़ियों का रूप दे देता है। फिर तुम देखते हो कि उनके बीच से वर्षा की बूँदें टपकी चली आती हैं। फिर जब वह अपने बन्दों में से जिनपर चाहता है उसे बरसाता है तो क्या देखते हैं कि वे ख़ुश हो गए॥48॥
وَإِن كَانُواْ مِن قَبۡلِ أَن يُنَزَّلَ عَلَيۡهِم مِّن قَبۡلِهِۦ لَمُبۡلِسِينَ 49
जबकि इससे पहले कि वह उनपर उतरे, वे बिलकुल निराश थे।॥49॥
فَٱنظُرۡ إِلَىٰٓ ءَاثَٰرِ رَحۡمَتِ ٱللَّهِ كَيۡفَ يُحۡيِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَآۚ إِنَّ ذَٰلِكَ لَمُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ 50
अतः देखों अल्लाह की दयालुता के चिन्ह! वह किस प्रकार धरती को उसके मृत हो जाने के बाद जीवन प्रदान करता है। निश्चय ही वह मुर्दों को जीवत करनेवाला है, और उसे हर चीज़ का सामर्थ्य प्राप्त है।॥50॥
وَلَئِنۡ أَرۡسَلۡنَا رِيحٗا فَرَأَوۡهُ مُصۡفَرّٗا لَّظَلُّواْ مِنۢ بَعۡدِهِۦ يَكۡفُرُونَ 51
किन्तु यदि हम एक दूसरी हवा भेज दें, जिसके प्रभाव से वे उस (खेती) को पीली पड़ी हुई देखें तो इसके बाद वे कुफ़्र करने लग जाएँ।॥51॥
فَإِنَّكَ لَا تُسۡمِعُ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَلَا تُسۡمِعُ ٱلصُّمَّ ٱلدُّعَآءَ إِذَا وَلَّوۡاْ مُدۡبِرِينَ 52
अतः तुम मुर्दों को नहीं सुना सकते, और न बहरों को अपनी पुकार सुना सकते हो जबकि वे पीठ फेरे चले जो रहे हों॥52॥
وَمَآ أَنتَ بِهَٰدِ ٱلۡعُمۡيِ عَن ضَلَٰلَتِهِمۡۖ إِن تُسۡمِعُ إِلَّا مَن يُؤۡمِنُ بِـَٔايَٰتِنَا فَهُم مُّسۡلِمُونَ 53
और न तुम अंधों को उनकी गुमराही से फेरकर मार्ग पर ला सकते हो। तुम तो केवल उन्हीं को सुना सकते हो जो हमारी आयतों पर ईमान लाएँ। तो वही आज्ञाकारी हैं।॥53॥
۞ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن ضَعۡفٖ ثُمَّ جَعَلَ مِنۢ بَعۡدِ ضَعۡفٖ قُوَّةٗ ثُمَّ جَعَلَ مِنۢ بَعۡدِ قُوَّةٖ ضَعۡفٗا وَشَيۡبَةٗۚ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ وَهُوَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡقَدِيرُ 54
अल्लाह ही है जिसनें तुम्हें निर्बल पैदा किया, फिर निर्बलता के बाद शक्ति प्रदान की; फिर शक्ति के बाद निर्बलता औऱ बुढ़ापा दिया। वह जो कुछ चाहता है पैदा करता है। वह जाननेवाला, सामर्थ्यवान है।॥54॥
وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ يُقۡسِمُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ مَا لَبِثُواْ غَيۡرَ سَاعَةٖۚ كَذَٰلِكَ كَانُواْ يُؤۡفَكُونَ 55
जिस दिन वह घड़ी आ खड़ी होगी अपराधी क़सम खाएँगे कि वे घड़ी भर से अधिक नहीं ठहरें। इसी प्रकार वे उलटे फिरे चले जाते थे।॥55॥
وَقَالَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ وَٱلۡإِيمَٰنَ لَقَدۡ لَبِثۡتُمۡ فِي كِتَٰبِ ٱللَّهِ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡبَعۡثِۖ فَهَٰذَا يَوۡمُ ٱلۡبَعۡثِ وَلَٰكِنَّكُمۡ كُنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ 56
किन्तु जिन लोगों को ज्ञान और ईमान प्रदान हुआ वे कहेंगे, "अल्लाह के लेख में तो तुम जीवित होकर उठने के दिन तक ठहरे रहे हो। तो यही जीवित हो उठाने का दिन है, किन्तु तुम जानते न थे।"॥56॥
فَيَوۡمَئِذٖ لَّا يَنفَعُ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مَعۡذِرَتُهُمۡ وَلَا هُمۡ يُسۡتَعۡتَبُونَ 57
अतः उस दिन ज़ुल्म करनेवालों को उनका कोई उज़्र (सफाई पेश करना) काम न आएगा और न उनसे यह चाहा जाएगा कि वे किसी यत्न से (अल्लाह के) प्रकोप को टाल सकें।॥57॥
وَلَقَدۡ ضَرَبۡنَا لِلنَّاسِ فِي هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ مِن كُلِّ مَثَلٖۚ وَلَئِن جِئۡتَهُم بِـَٔايَةٖ لَّيَقُولَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا مُبۡطِلُونَ 58
हमने इस क़ुरआन में लोगों के लिए प्रत्येक मिसाल (कहने की बात) बयान कर दी है। यदि तुम कोई भी निशानी उनके पास ले आओ, जिन लोगों ने इनकार किया है, वे तो यही कहेंगे, "तुम तो बस झूठ गढ़ते हो।"॥58॥
كَذَٰلِكَ يَطۡبَعُ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَ 59
इस प्रकार अल्लाह उन लोगों के दिलों पर ठप्पा लगा देता है जो अज्ञानी हैं।॥59॥
فَٱصۡبِرۡ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞۖ وَلَا يَسۡتَخِفَّنَّكَ ٱلَّذِينَ لَا يُوقِنُونَ 60
अतः धैर्य से काम लो। निश्चय ही अल्लाह का वादा सच्चा है, और जिन्हें विश्वास नहीं, वे तुम्हें कदापि हल्का न पाएँ।॥60॥