سُورَةُ المُدَّثِّرِ
74. अल-मुद्दस्सिर
(मक्का में उतरी, आयतें 56)
परिचय
नाम
पहली ही आयत के शब्द 'अल-मुद्दस्सिर' (ओढ़-लपेटकर लेटनेवाले) को इस सूरा का नाम दिया गया है। यह भी केवल नाम है, विषय-वस्तु की दृष्टि से वार्ताओं का शीर्षक नहीं।
उतरने का समय
इसकी पहली सात आयतें मक्का मुअज़्ज़मा के बिलकुल आरम्भिक काल में अवतरित हुई हैं। पहली वह्य' (प्रकाशना) जो नबी (सल्ल०) पर अवतरित हुई वह "पढ़ो (ऐ नबी), अपने रब के नाम के साथ जिसने पैदा किया” से लेकर “जिसे वह न जानता था” (सूरा-96 अल-अलक़) तक है। इस पहली वह्य के बाद कुछ समय तक नबी (सल्ल०) पर कोई वह्य अवतरित नहीं हुई। [इस] फ़तरतुल वह्य (वह्य के बन्द रहने की अवधि) का उल्लेख करते हुए [अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने स्वयं कहा है कि] “एक दिन मैं रास्ते से गुज़र रहा था। अचानक मैंने आसमान से एक आवाज़ सुनी। सिर उठाया तो वही फ़रिश्ता जो हिरा की गुफा में मेरे पास आया था, आकाश और धरती के मध्य एक कुर्सी पर बैठा हुआ है । मैं यह देखकर अत्यन्त भयभीत हो गया और घर पहुँचकर मैंने कहा, 'मुझे ओढ़ाओ, मुझे ओढ़ाओ।' अतएव घरवालों ने मुझपर लिहाफ़ (या कम्बल) ओढ़ा दिया। उस समय अल्लाह ने वह्य अवतरित की, 'ऐ ओढ़-लपेटकर लेटनेवाले...।' फिर निरन्तर मुझपर वह्य अवतरित होनी प्रारम्भ हो गई" (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, मुस्नदे-अहमद, इब्ने-जरीर)। सूरा का शेष भाग आयत 8 से अन्त तक उस समय अवतरित हुआ जब इस्लाम का खुल्लम-खुल्ला प्रचार हो जाने के पश्चात् मक्का में पहली बार हज का अवसर आया।
विषय और वार्ता
पहली वह्य (प्रकाशना) में जो सूरा-96 (अलक़) की आरम्भिक 5 आयतों पर आधारित थी, आप (सल्ल०) को यह नहीं बताया गया था कि आप (सल्ल०) किस महान् कार्य पर नियुक्त हुए हैं और आगे क्या कुछ आप (सल्ल०) को करना है, बल्कि केवल एक प्रारम्भिक परिचय कराकर आप (सल्ल.) को कुछ समय के लिए छोड़ दिया गया था ताकि आपके मन पर जो बड़ा बोझ इस पहले अनुभव से पड़ा है उसका प्रभाव दूर हो जाए और आप मानसिक रूप से आगे वह्य प्राप्त करने और नुबूवत के कर्तव्यों के सम्भालने के लिए तैयार हो जाएँ। इस अन्तराल के पश्चात् जब पुन: वह्य के अवतरण का सिलसिला शुरू हुआ तो इस सूरा की आरम्भिक 7 आयतें अवतरित की गई और इनमें पहली बार आप (सल्ल०) को यह आदेश दिया गया कि आप उठें और ईश्वर के पैदा किए हुए लोगों को उस नीति के परिणाम से डराएँ जिसपर वे चल रहे हैं और इस दुनिया में ईश्वर की महानता की उद्घोषणा करें। इसके साथ आप (सल्ल०) को आदेश दिया गया है कि अब जो कार्य आप (सल्ल०) को करना है उसे यह अपेक्षित है कि आप (सल्ल०) का जीवन हर दृष्टि से [अत्यन्त पवित्र, पूर्ण निष्ठा और पूर्ण धैर्य और ईश्वरीय निर्णय पर राज़ी रहने का नमूना हो।] इस ईश्वरीय आदेश के अनुपालन स्वरूप जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इस्लाम का प्रचार आरम्भ किया तो मक्का में खलबली मच गई और विरोधों का एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। कुछ महीने इसी दशा में व्यतीत हुए थे कि हज का समय आ गया। क़ुरैश के सरदारों ने [इस भय से कि कहीं बाहर से आनेवाले हाजी इस्लाम के प्रचार से प्रभावित न हो जाएँ] एक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें यह निश्चय किया कि हाजियों के आते ही उनमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के विरुद्ध प्रोपगंडा शुरू कर दिया जाए। इसपर सहमति के पश्चात् वलीद-बिन-मुग़ीरा ने उपस्थित लोगों से कहा कि यदि आप लोगों ने मुहम्मद (सल्ल०) के सम्बन्ध में विभिन्न बातें लोगों से कहीं तो हम सबका विश्वास जाता रहेगा। इसलिए कोई एक बात निर्धारित कर लीजिए जिसे सब एकमत होकर कहें। [इसपर किसी ने आप (सल्ल०) को काहिन, किसी ने दीवाना और उन्मादी, किसी ने कवि और किसी ने जादूगर कहने का प्रस्ताव रखा। लेकिन वलीद इनमें से हर प्रस्ताव को रद्द करता गया। फिर उस] ने कहा कि इन बातों में से जो बात भी तुम करोगे, लोग उसे अनुचित आरोप समझेंगे। अल्लाह की क़सम! उस वाणी में बड़ा माधुर्य है; उसकी जड़ बड़ी गहरी और उसकी डालियाँ फलदार हैं। [अन्त में अबू जहल के आग्रह पर वह स्वयं] सोचकर बोला, "सर्वाधिक अनुकूल बात जो कही जा सकती है वह यह कि तुम अरब के लोगों से कहो कि यह व्यक्ति जादूगर है, यह ऐसी वाणी प्रस्तुत कर रहा है जो आदमी को उसके बाप, भाई, पत्नी, बच्चों और सारे परिवार से जुदा कर देती है।" वलीद की इस बात को सबने स्वीकार कर लिया। [और हज के अवसर पर इसके अनुसार भरपूर प्रोपगंडा किया गया।] किन्तु उसका परिणाम यह हुआ कि कुरैश ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का नाम स्वयं ही सम्पूर्ण अरब में प्रसिद्ध कर दिया, (सीरत इब्ने-हिशाम, प्रथम भाग, पृ० 288-289) । यही घटना है जिसकी इस सूरा के दूसरे भाग में समीक्षा की गई है। इसकी वार्ताओं का क्रम यह है—
आयत 8 से 10 तक सत्य का इनकार करनेवालों को [उनके बुरे परिणाम से] सावधान किया गया है। आयत 11 से 26 तक वलीद-बिन-मुग़ीरा का नाम लिए बिना यह बताया गया है कि अल्लाह ने इस व्यक्ति को क्या कुछ सुख-सामग्रियाँ प्रदान की थीं और उनका प्रत्युत्तर उसने सत्य के विरोध के रूप में दिया है। अपनी इस करतूत के पश्चात् भी यह व्यक्ति चाहता है कि इसे इनाम दिया जाए, जबकि अब यह इनाम का नहीं बल्कि नरक का भागी हो चुका है। इसके बाद आयत 27 से 48 तक नरक की भयावहताओं का उल्लेख किया गया है और यह बताया गया है कि किस नैतिक आधार और चरित्र के लोग उसके भागी हैं। फिर आयत 49 से 53 में इस्लाम-विरोधियों के रोष की अस्ल जड़ बता दी गई है कि वे चूँकि परलोक से निर्भय हैं इसलिए वे कुरआन से भागते हैं और ईमान के लिए तरह-तरह की अनुचित शर्ते पेश करते हैं । अन्त में साफ़-साफ़ कह दिया गया है कि ख़ुदा को किसी के ईमान की कोई आवश्यकता नहीं पड़ गई है कि वह उसकी शर्ते पूरी करता फिरे। क़ुरआन सामान्य जन के लिए एक उपदेश है जो सबके समक्ष प्रस्तुत कर दिया गया है। अब जिसका जी चाहे उसको स्वीकार कर ले।
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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمُدَّثِّرُ 1
ऐ ओढ़ने लपेटनेवाले! ॥1॥
उठो और सावधान करने में लग जाओ।॥2॥
और अपने रब की बड़ाई बयान करो।॥3॥
وَثِيَابَكَ فَطَهِّرۡ 4
अपने दामन को पाक रखो॥4॥
وَٱلرُّجۡزَ فَٱهۡجُرۡ 5
और गन्दगी से दूर रहो।॥5॥
وَلَا تَمۡنُن تَسۡتَكۡثِرُ 6
अपनी कोशिशों को अधिक समझकर उसके क्रम को भंग न करो॥6॥
وَلِرَبِّكَ فَٱصۡبِرۡ 7
और अपने रब के लिए धैर्य ही से काम लो।॥7॥
فَإِذَا نُقِرَ فِي ٱلنَّاقُورِ 8
अत: जब सूर में फूँक मारी जाएगी।1॥8॥
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1. इस आयत का अनुवाद यह भी किया जाता है — अतः जब नाक़ूर (धरती) को कुरेद लिया जाएगा, नाक़ूर का अर्थ है, बहुत चोंच मारनेवाला। धरती एक ऐसे बड़े पक्षी की तरह है जो सभी को चोंच मारकर निगल जाती है। एक दिन आएगा, जब उसके निगले हुए प्रत्येक व्यक्ति को उसके भीतर से निकाल लिया जाएगा। — देखें : सूरा-82, आयत-4
فَذَٰلِكَ يَوۡمَئِذٖ يَوۡمٌ عَسِيرٌ 9
तो जिस दिन ऐसा होगा, वह दिन बड़ा ही कठोर होगा, ॥9॥
عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ غَيۡرُ يَسِيرٖ 10
इनकार करनेवालो पर आसान न होगा।॥10॥
ذَرۡنِي وَمَنۡ خَلَقۡتُ وَحِيدٗا 11
छोड़ दो मुझे और उसको जिसे मैंने अकेला पैदा किया, ॥11॥
وَجَعَلۡتُ لَهُۥ مَالٗا مَّمۡدُودٗا 12
और उसे माल दिया दूर तक फैला हुआ,॥12॥
और उसके पास उपस्थित रहनेवाले बेटे दिए,॥13॥
وَمَهَّدتُّ لَهُۥ تَمۡهِيدٗا 14
और मैंने उसके लिए अच्छी तरह जीवन-मार्ग समतल किया।॥14॥
ثُمَّ يَطۡمَعُ أَنۡ أَزِيدَ 15
फिर वह लोभ रखता है कि मैं उसके लिए और अधिक दूँगा।॥15॥
كَلَّآۖ إِنَّهُۥ كَانَ لِأٓيَٰتِنَا عَنِيدٗا 16
कदापि नहीं, वह हमारी आयतों का दुश्मन है,॥16॥
سَأُرۡهِقُهُۥ صَعُودًا 17
शीघ्र ही मैं उसे घेरकर कठिन चढ़ाई चढ़वाऊँगा।॥17॥
إِنَّهُۥ فَكَّرَ وَقَدَّرَ 18
उसने सोचा और एक बात (क़ुरआन के प्रति) तय की।॥18॥
فَقُتِلَ كَيۡفَ قَدَّرَ 19
तो विनष्ट हो, कैसी बात बनाई!॥19॥
ثُمَّ قُتِلَ كَيۡفَ قَدَّرَ 20
फिर विनष्ट हो, कैसी बात बनाई!॥20॥
ثُمَّ عَبَسَ وَبَسَرَ 22
फिर त्योरी चढ़ाई और मुँह बनाया,॥22॥
ثُمَّ أَدۡبَرَ وَٱسۡتَكۡبَرَ 23
फिर पीठ फेरी और घमण्ड किया।॥23॥
فَقَالَ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ يُؤۡثَرُ 24
अन्ततः बोला, "यह तो बस एक जादू है जो पहले से चला आ रहा है।॥24॥
إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا قَوۡلُ ٱلۡبَشَرِ 25
यह तो मात्र मनुष्य की वाणी है।"॥25॥
मैं शीघ्र ही उसे 'सक़र' (जहन्नम की आग) में झोंक दूँगा।॥26॥
وَمَآ أَدۡرَىٰكَ مَا سَقَرُ 27
और तुम्हें क्या पता की सक़र क्या है?॥27॥
لَا تُبۡقِي وَلَا تَذَرُ 28
वह न तरस खाएगी और न छोड़ेगी, ॥28॥
لَوَّاحَةٞ لِّلۡبَشَرِ 29
खाल को झुलसा देनेवाली है,॥28-29॥
عَلَيۡهَا تِسۡعَةَ عَشَرَ 30
उसपर उन्नीस (कार्यकर्ता) नियुक्त हैं।॥30॥
وَمَا جَعَلۡنَآ أَصۡحَٰبَ ٱلنَّارِ إِلَّا مَلَٰٓئِكَةٗۖ وَمَا جَعَلۡنَا عِدَّتَهُمۡ إِلَّا فِتۡنَةٗ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ لِيَسۡتَيۡقِنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ وَيَزۡدَادَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِيمَٰنٗا وَلَا يَرۡتَابَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَلِيَقُولَ ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ وَٱلۡكَٰفِرُونَ مَاذَآ أَرَادَ ٱللَّهُ بِهَٰذَا مَثَلٗاۚ كَذَٰلِكَ يُضِلُّ ٱللَّهُ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُۚ وَمَا يَعۡلَمُ جُنُودَ رَبِّكَ إِلَّا هُوَۚ وَمَا هِيَ إِلَّا ذِكۡرَىٰ لِلۡبَشَرِ 31
और हमने उस आग पर नियुक्त रहनेवालों को फ़रिश्ते ही बनाया है, और हमने उनकी संख्या को इनकार करनेवालों के लिए मुसीबत और आज़माइश ही बनाकर रखा है। ताकि वे लोग जिन्हें किताब प्रदान की गई थी पूर्ण विश्वास प्राप्त करें, और वे लोग जो ईमान ले आए वे ईमान में और आगे बढ़ जाएँ। और जिन लोगों को किताब प्रदान की गई वे और ईमानवाले किसी संशय में न पड़ें और ताकि जिनके दिलों में रोग है वे और इनकार करनेवाले कहें, "इस वर्णन से अल्लाह का क्या अभिप्राय है?" इस प्रकार अल्लाह जिसे चाहता है पथभ्रष्ट कर देता है और जिसे चाहता हैं संमार्ग प्रदान करता है। और तुम्हारे रब की सेनाओं को स्वयं उसके सिवा कोई नहीं जानता, और यह तो मनुष्य के लिए मात्र एक शिक्षा-सामग्री है।॥31॥
कुछ नहीं, साक्षी है चाँद॥32॥
وَٱلَّيۡلِ إِذۡ أَدۡبَرَ 33
और साक्षी है रात जबकि वह पीठ फेर चुकी, ॥33॥
وَٱلصُّبۡحِ إِذَآ أَسۡفَرَ 34
और सुबह जबकि वह ख़ूब रौशन हो जाए।॥34॥
إِنَّهَا لَإِحۡدَى ٱلۡكُبَرِ 35
निश्चय ही वह भारी (भयंकर) चीज़ों में यकता है,॥35॥
نَذِيرٗا لِّلۡبَشَرِ 36
मनुष्यों के लिए सावधानकर्ता के रूप में,॥36॥
لِمَن شَآءَ مِنكُمۡ أَن يَتَقَدَّمَ أَوۡ يَتَأَخَّرَ 37
तुममें से उस व्यक्ति के लिए जो आगे बढ़ना या पीछे हटना चाहे।॥37॥
كُلُّ نَفۡسِۭ بِمَا كَسَبَتۡ رَهِينَةٌ 38
प्रत्येक व्यक्ति जो कुछ उसने कमाया उसके बदले रेहन (गिरवी) है,॥38॥
إِلَّآ أَصۡحَٰبَ ٱلۡيَمِينِ 39
सिवाय दाएँवालों के,॥39॥
فِي جَنَّٰتٖ يَتَسَآءَلُونَ 40
वे बाग़ों में होंगे, अपराधियों के विषय में पूछ-ताछ कर रहे होंगे॥40॥-॥41॥
مَا سَلَكَكُمۡ فِي سَقَرَ 42
"तुम्हे क्या चीज़ सक़र (जहन्नम) में ले आई?" ॥42॥
قَالُواْ لَمۡ نَكُ مِنَ ٱلۡمُصَلِّينَ 43
कहेंगे, "हम नमाज़ अदा करनेवालों में से न थे।॥43॥
وَلَمۡ نَكُ نُطۡعِمُ ٱلۡمِسۡكِينَ 44
और न हम मुहताज को खाना खिलाते थे।॥44॥
وَكُنَّا نَخُوضُ مَعَ ٱلۡخَآئِضِينَ 45
और व्यर्थ बात और कठ-हुज्जती में पड़े रहनेवालों के साथ हम भी उसी में लगे रहते थे।॥45॥
وَكُنَّا نُكَذِّبُ بِيَوۡمِ ٱلدِّينِ 46
और हम बदला दिए जाने के दिन को झुठलाते थे,॥46॥
حَتَّىٰٓ أَتَىٰنَا ٱلۡيَقِينُ 47
यहाँ तक कि विश्वसनीय चीज़ (मृत्यु) ने हमें आ लिया।"॥47॥
فَمَا تَنفَعُهُمۡ شَفَٰعَةُ ٱلشَّٰفِعِينَ 48
अतः सिफ़ारिश करनेवालों की कोई सिफ़ारिश उनको कुछ लाभ न पहुँचा सकेगी।॥48॥
فَمَا لَهُمۡ عَنِ ٱلتَّذۡكِرَةِ مُعۡرِضِينَ 49
आख़िर उन्हें क्या हुआ है कि वे नसीहत और याददिहानी से कतराते हैं,॥49॥
كَأَنَّهُمۡ حُمُرٞ مُّسۡتَنفِرَةٞ 50
मानो वे बिदके हुए जंगली गधे हैं॥50॥
فَرَّتۡ مِن قَسۡوَرَةِۭ 51
जो शेर से (डरकर) भागे हैं?॥51॥
بَلۡ يُرِيدُ كُلُّ ٱمۡرِيٕٖ مِّنۡهُمۡ أَن يُؤۡتَىٰ صُحُفٗا مُّنَشَّرَةٗ 52
नहीं, बल्कि उनमें से प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसे खुली किताबें दी जाएँ।॥52॥
كَلَّاۖ بَل لَّا يَخَافُونَ ٱلۡأٓخِرَةَ 53
कदापि नहीं, बल्कि वे आख़िरत से डरते नहीं।॥53॥
كَلَّآ إِنَّهُۥ تَذۡكِرَةٞ 54
कुछ नहीं, वह तो एक याददिहानी है।॥54॥
فَمَن شَآءَ ذَكَرَهُۥ 55
अब जो कोई चाहे इससे नसीहत और याददिहानी हासिल करे,॥55॥
وَمَا يَذۡكُرُونَ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُۚ هُوَ أَهۡلُ ٱلتَّقۡوَىٰ وَأَهۡلُ ٱلۡمَغۡفِرَةِ 56
और वे नसीहत याददिहानी हासिल नहीं करेंगे। यह और बात है कि अल्लाह ही ऐसा चाहे। वही इस योग्य है कि उसका डर रखा जाए और इस योग्य भी कि क्षमा करे।॥56॥