سُورَةُ الأَنفَالِ
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- अल-अनफ़ाल
(मदीना में उतरी – आयतें 75)
परिचय
उतरने का समय
यह सूरा 02 हि० में बद्र की लड़ाई के बाद उतरी है और इसमें इस्लाम और कुफ़्र की इस पहली लड़ाई की सविस्तार समीक्षा की गई है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
इससे पहले कि इस सूरा की समीक्षा की जाए, बद्र की लड़ाई और उससे संबंधित परिस्थतियों पर एक ऐतिहासिक दृष्टि डाल लेनी चाहिए।
नबी (सल्ल०) का सन्देश [मक्का-काल के अंत तक] इस हैसियत से अपनी दृढ़ता और स्थायित्व सिद्ध कर चुका था कि एक ओर इसके पीछे एक श्रेष्ठ आचरणवाला,विशाल हृदय और विवेकशील ध्वजावाहक मौजूद था जिसकी कार्य-विधि से यह तथ्य पूरी तरह खुलकर सामने आ चुका था कि वह इस सन्देश को अति सफलता की मंज़िल तक पहुँचाने के लिए अटल इरादा रखता है, दूसरी ओर इस सन्देश में स्वयं इतना आकर्षण था कि वह हर एक के मन۔मस्तिष्क में अपना स्थान बनाता चला जा रहा था, लेकिन उस समय तक कुछ पहलुओं से इस सन्देश के प्रचार में बहुत कुछ कमी पाई जाती थी-
एक यह कि यह बात अभी पूरी तरह सिद्ध नहीं हुई थी कि उसे ऐसे अनुपालकों की एक बड़ी संख्या मिल गई है जो उसके लिए अपनी हर चीज़ कुर्बान कर देने के लिए और दुनिया भर से लड़ जाने के लिए, यहाँ तक कि अपनी प्रियतम नातेदारियों को भी काट फेंकने के लिए तैयार है। दूसरे यह कि इस सन्देश की आवाज़ यद्यपि समूचे देश में फैल गई थी, लेकिन इसके प्रभाव बिखरे हुए थे, इसे वह सामूहिक शक्ति न प्राप्त हो सकी थी जो पुरानी अज्ञानी-व्यवस्था से निर्णायक मुक़ाबला करने के लिए ज़रूरी थी। तीसरे यह कि देश का कोई भाग ऐसा नहीं था जहाँ यह सन्देश क़दम जमाकर अपने पक्ष को सुदृढ़ बना सकता और फिर आगे बढ़ने का प्रयत्न करता। चौथे यह कि उस समय तक इस सन्देश को व्यावहारिक जीवन के मामलों को अपने हाथ में लेकर चलाने का अवसर नहीं मिला था, इसलिए उन नैतिक सिद्धान्तों का प्रदर्शन नहीं हो सका था जिनपर यह सन्देश जीवन की पूरी व्यवस्था को स्थापित करना और चलाना चाहता था।
बाद की घटनाओं ने उन अवसरों को जन्म दिया जिनसे ये चारों कमियाँ पूरी हो गईं।
मक्का-काल के अन्तिम तीन-चार वर्षों से यसरिब (मदीना) में इस्लाम के सूर्य की किरणें बराबर पहुँच रही थीं और वहाँ के लोग कई कारणों से अरब के दूसरे क़बीलों की अपेक्षा अधिक आसानी के साथ उस रौशनी को स्वीकार करते जा रहे थे। अन्तत: पैग़म्बरी के बारहवें वर्ष में हज के मौक़े पर 75 व्यक्तियों का एक प्रतिनिधिमंडल नबी (सल्ल०) से रात के अंधेरे में मिला और उसने न केवल यह कि इस्लाम स्वीकार किया, बल्कि आपको और आपके अनुपालकों को अपने नगर में जगह देने पर तत्परता दिखाई। उद्देश्य यह था कि अरब के विभिन्न क़बीलों और भागों में जो मुसलमान बिखरे हुए हैं, वे यसरिब में जमा होकर और यसरिब के मुसलमानों के साथ मिलकर एक सुसंगठित समाज बना लें। इस तरह यसरिब ने वास्तव में अपने आपको 'इस्लाम का शहर' (मदीनतुल इस्लाम) की हैसियत से प्रस्तुत किया और नबी (सल्ल०) ने उसे स्वीकार करके अरब में पहला दारुल इस्लाम (इस्लाम का घर) बना लिया।
इस प्रस्ताव का अर्थ जो भी था, इससे मदीनावासी अनभिज्ञ न थे। इसका खुला अर्थ यह था एक छोटा-सा क़स्बा अपने आपको समूचे देश की तलवारों और आर्थिक व सांस्कृतिक बहिष्कार के मुक़ाबले में प्रस्तुत कर रहा था। दूसरी ओर मक्कावासियों के लिए यह मामला जो अर्थ रखता था, वह भी किसी से छिपा हुआ न था। वास्तव में इस तरह मुहम्मद (सल्ल०) के नेतृत्व में इस्लाम के माननेवाले और उसपर चलनेवाले एक सुसंगठित जत्थे के रूप में एकत्र हुए जा रहे थे। यह पुरानी व्यवस्था के लिए मौत का सन्देश था। साथ ही मदीना जैसे स्थान पर मुसलमानों की इस शक्ति के एकत्र होने से कुरैश को और अधिक ख़तरा यह था कि यमन से सीरिया की ओर जो व्यापारिक राजमार्ग लाल सागर के तट के किनारे-किनारे जाता था, जिसके सुरक्षित रहने पर क़ुरैश और दूसरे बड़े-बड़े मुशरिक (बहुदेववादी) क़बीलों का आर्थिक जीवन आश्रित था, वह मुसलमानों के निशाने पर आ रहा था और उस समय (जो परिस्थतियाँ थी, उन्हें देखते हुए) मुसलमानों के लिए वास्तव में इसके सिवा कोई रास्ता भी न था कि उस व्यापारिक राजमार्ग पर अपनी पकड़ मज़बूत करें। चुनांँचे नबी (सल्ल०) ने [मदीना पहुँचने के बाद जल्द ही इस समस्या पर ध्यान दिया और इस सिलसिले में दो महत्त्वपूर्ण उपाय किए : एक यह कि मदीना और लाल सागर के तट के बीच उस राजमार्ग से मिले हुए जो क़बीले आबाद थे उनसे वार्ताएँ आरंभ कर दीं, ताकि वे मैत्रीपूर्ण एकता या कम से कम निरपेक्षता के समझौते कर लें। चुनांँचे इसमें आपको पूरी सफलता मिली। दूसरा उपाय आपने यह किया कि कुरैश के क़ाफ़िलों को धमकी देने के लिए उस राजमार्ग पर लगातार छोटे-छोटे दस्ते भेजने शुरू किए और कुछ दस्तों के साथ आप स्वयं भी तशरीफ़ ले गए। [उधर से मक्कावासी भी मदीना की ओर लूट-पाट करनेवाले दस्ते भेजते रहे ।] परिस्थिति ऐसी बन गई थी कि शाबान सन् 02 हि० (फ़रवरी या मार्च सन् 623 ई०) में क़ुरैश का एक बहुत बड़ा व्यावसायिक क़ाफ़िला शाम (सीरिया) से मक्का वापस आते हुए उस क्षेत्र में पहुँचा जो मदीना के निशाने पर था। चूँकि माल ज़्यादा था, रक्षक कम थे और ख़तरा बड़ा था कि कहीं मुसलमानों का कोई शक्तिशाली दस्ता उसपर छापा न मार दे, इसलिए क़ाफिले के सरदार अबू-सुफियान ने उस ख़तरेवाले क्षेत्र में पहुँचते ही एक व्यक्ति को मदद लाने के लिए मक्का की ओर दौड़ा दिया। उस व्यक्ति की सूचना पर सारे मक्का में खलबली मच गई। क़ुरैश के तमाम बड़े-बड़े सरदार लड़ाई के लिए तैयार हो गए। लगभग एक हज़ार योद्धा, जिनमें से छ: सौ कवचधारी थे और सौ घुड़सवार भी, बड़ी धूमधाम से लड़ने के लिए चले। उनके सामने सिर्फ़ यही काम न था कि अपने क़ाफ़िले को बचा लाएँ, बल्कि वे इस इरादे से निकले थे कि उस आए दिन के ख़तरे को सदा के लिए समाप्त कर दें। अब नबी (सल्ल०) ने, जो परिस्थितियों की सदैव ख़बर रखते थे, महसूस किया कि निर्णय का समय आ पहुँचा है। [चुनांँचे भीतर और बाहर की अनेकानेक कठिनाइयों के बावजूद आपने निर्णायक क़दम उठाने का इरादा कर लिया, यह] इरादा करके आपने अंसार और मुहाजिरीन को जमा किया और उनके सामने सारी परिस्थिति स्पष्ट शब्दों में रख दी कि एक ओर उत्तर में व्यावसायिक क़ाफ़िला है और दूसरी ओर दक्षिण से कुरैश की सेना चली आ रही है। अल्लाह का वादा है कि इन दोनों में से कोई एक तुम्हें मिल जाएगा। बताओ तुम किसके मुक़ाबले पर चलना चाहते हो? उत्तर में एक बड़े गिरोह की ओर से यह इच्छा व्यक्त की गई कि क़ाफ़िले पर हमला किया जाए। लेकिन नबी (सल्ल०) के सामने कुछ और था। इसलिए आपने अपना प्रश्न दोहराया। इसपर मुहाजिरों में से मिक़दाद बिन अम्र (रज़ि०) ने [और उनके बाद, नबी (सल्ल०) की ओर से प्रश्न के फिर दोहराए जाने पर, अंसार में से हज़रत साद-बिन-मुआज़ (रज़ि०) ने उत्साहवर्द्धक भाषण दिए, जिनमें उन्होंने कहा कि] ऐ अल्लाह के रसूल ! जिधर आपका रब आपको हुक्म दे रहा है उसी ओर चलिए, हम आपके साथ हैं। इन भाषणों के बाद निर्णय हो गया कि क़ाफ़िले के बजाय क़ुरैश की सेना के मुक़ाबले पर चलना चाहिए। लेकिन यह निर्णय कोई सामान्य निर्णय न था। जो लोग इस थोड़े समय में लड़ाई के लिए उठे थे उनकी संख्या तीन सौ से कुछ अधिक थी। युद्ध-सामग्री भी अपर्याप्त थी, इसलिए अधिकतर लोग दिलों में सहम रहे थे और उन्हें ऐसा लग रहा था कि जानते-बूझते मौत के मुँह में जा रहे हैं। अवसरवादी (मुनाफ़िक़) इस मुहिम को दीवानापन कह रहे थे। परन्तु नबी (सल्ल०) और सच्चे मुसलमान यह समझ चुके थे कि यह समय जान की बाज़ी लगाने ही का है। इसलिए अल्लाह के भरोसे पर वे निकल खड़े हुए और उन्होंने सीधे दक्षिण-पश्चिम का रास्ता लिया जिधर से क़ुरैश की सेना आ रही थी, हालाँकि अगर आरंभ में क़ाफ़िले को लूटना अभीष्ट होता तो उत्तर-पश्चिम का रास्ता पकड़ा जाता।
17 रमज़ान को बद्र नामक स्थान पर दोनों पक्षों का मुक़ाबला हुआ जिसमें मुसलमानों की ईमानी निष्ठा अल्लाह की ओर से 'सहायता' रूपी पुरस्कार प्राप्त करने में सफल हो गई और क़ुरैश अपने पूरे शक्ति-गर्व के बावजूद उन निहत्थे फ़िदाइयों के हाथों पराजित हुए। इस निर्णायक विजय के बाद एक पश्चिमी शोधकर्ता के अनुसार “बद्र के पहले इस्लाम मात्र एक धर्म और राज्य था, मगर बद्र के बाद वह राष्ट्र-धर्म बल्कि स्वयं राष्ट्र बन गया।"
वार्ताएँ
यह है वह महान् युद्ध जिसपर क़ुरआन की इस सूरा में समीक्षा की गई है, मगर इस समीक्षा की शैली उन तमाम समीक्षाओं से भिन्न है जो दुनियादार बादशाह अपनी सेना की विजय के बाद किया करते हैं।
इसमें सबसे पहले उन त्रुटियों को चिह्नित किया गया है जो नैतिक दृष्टि से अभी मुसलमानों में बाक़ी थीं, ताकि भविष्य में उन्हें सुधारने का बराबर यत्न करते रहें।
फिर उन्हें बताया गया है कि इस विजय में ईश-समर्थन एवं सहायता का कितना बड़ा भाग था, ताकि वे अपनी वीरता एवं साहस पर न फूलें, बल्कि अल्लाह पर भरोसा और अल्लाह और रसूल के आज्ञापालन की शिक्षा ग्रहण करें।
फिर उस नैतिक उद्देश्य को स्पष्ट किया गया है जिसके लिए मुसलमानों को सत्य-असत्य का यह संघर्ष करना है और उन नैतिक गुणों को स्पष्ट किया गया है जिनसे इस संघर्ष में उन्हें सफलता मिल सकती है।
फिर मुशरिकों और मुनाफ़िकों (कपटाचारियों) और यहूदियों और उन लोगों को जो लड़ाई में कैद होकर आए थे, अति शिक्षाप्रद शैली में सम्बोधित किया गया है।
फिर उन मालों के बारे में, जो लड़ाई में हाथ आए थे, मुसलमानों को निर्देश दिए गए हैं।
फिर युद्ध और संधि के क़ानून के बारे में वे नैतिक आदेश दिए गए हैं जिनका स्पष्टीकरण इस चरण में इस्लाम के आह्वान के प्रवेश कर जाने के बाद ज़रूरी था।
फिर इस्लामी राज्य के संवैधानिक नियमों की कुछ धाराएँ वर्णित की गई हैं जिनसे दारुल इस्लाम के मुसलमान निवासियों की क़ानूनी हैसियत उन मुसलमानों से अलग कर दी गई है जो दारुल इस्लाम की सीमाओं से बाहर रहते हों।
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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, और अत्यन्त दयावान हैं।
يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡأَنفَالِۖ قُلِ ٱلۡأَنفَالُ لِلَّهِ وَٱلرَّسُولِۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَصۡلِحُواْ ذَاتَ بَيۡنِكُمۡۖ وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ 1
वे तुमसे ग़नीमतों के विषय में पूछते हैं। कहो, "ग़नीमतें अल्लाह और रसूल की है। अतः अल्लाह का डर रखों और आपस के सम्बन्धों को ठीक रखो। और अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करो यदि तुम ईमानवाले हो॥1॥
إِنَّمَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلَّذِينَ إِذَا ذُكِرَ ٱللَّهُ وَجِلَتۡ قُلُوبُهُمۡ وَإِذَا تُلِيَتۡ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُهُۥ زَادَتۡهُمۡ إِيمَٰنٗا وَعَلَىٰ رَبِّهِمۡ يَتَوَكَّلُونَ 2
ईमानवाले तो वही लोग हैं जिनके दिल उस समय काँप उठें, जबकि अल्लाह को याद किया जाए। और जब उनके सामने उसकी आयतें पढ़ी जाएँ तो वे उनके ईमान को और अधिक बढ़ा दें और वे अपने रब पर भरोसा रखते हों॥2॥
ٱلَّذِينَ يُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ 3
ये वे लोग हैं जो नमाज़ क़ायम करते है और जो कुछ हमने दिया है उसमें से ख़र्च करते हैं॥3॥
أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ حَقّٗاۚ لَّهُمۡ دَرَجَٰتٌ عِندَ رَبِّهِمۡ وَمَغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ 4
वही लोग वास्तव में ईमानवाले हैं। उनके लिए रब के पास बड़े दर्जे हैं और क्षमा और सम्मानित उत्तम आजीविका भी॥4॥
كَمَآ أَخۡرَجَكَ رَبُّكَ مِنۢ بَيۡتِكَ بِٱلۡحَقِّ وَإِنَّ فَرِيقٗا مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ لَكَٰرِهُونَ 5
(यह बिल्कुल वैसी ही परिस्थित है) जैसे तुम्हारे रब ने तुम्हें तुम्हारे घर से एक उद्देश्य और निश्चित के साथ निकाला, किन्तु ईमानवालों में से एक गिरोह को यह अप्रिय लगा था॥5॥
يُجَٰدِلُونَكَ فِي ٱلۡحَقِّ بَعۡدَ مَا تَبَيَّنَ كَأَنَّمَا يُسَاقُونَ إِلَى ٱلۡمَوۡتِ وَهُمۡ يَنظُرُونَ 6
वे सत्य (निश्चित निर्णय) के विषय में उसके स्पष्ट हो जाने के बाद तुमसे झगड़ रहे थे। मानो वे आँखों देखी मृत्यु की ओर हाँके जा रहे हों॥6॥
وَإِذۡ يَعِدُكُمُ ٱللَّهُ إِحۡدَى ٱلطَّآئِفَتَيۡنِ أَنَّهَا لَكُمۡ وَتَوَدُّونَ أَنَّ غَيۡرَ ذَاتِ ٱلشَّوۡكَةِ تَكُونُ لَكُمۡ وَيُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُحِقَّ ٱلۡحَقَّ بِكَلِمَٰتِهِۦ وَيَقۡطَعَ دَابِرَ ٱلۡكَٰفِرِينَ 7
और याद करो जब अल्लाह तुमसे वादा कर रहा था कि दो गिरोहों में से एक तुम्हारे हाथ आएगा, और तुम चाहते थे कि तुम्हें वह हाथ आए जो निःशस्त्र था हालाँकि अल्लाह चाहता था कि अपने वचनों से सत्य को सत्य कर दिखाए और इनकार करनेवालों की जड़ काट दे॥7॥
لِيُحِقَّ ٱلۡحَقَّ وَيُبۡطِلَ ٱلۡبَٰطِلَ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡمُجۡرِمُونَ 8
ताकि सत्य को सत्य कर दिखाए और असत्य को असत्य, चाहे अपराधियों को कितना ही अप्रिय लगे॥8॥
إِذۡ تَسۡتَغِيثُونَ رَبَّكُمۡ فَٱسۡتَجَابَ لَكُمۡ أَنِّي مُمِدُّكُم بِأَلۡفٖ مِّنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ مُرۡدِفِينَ 9
याद करो जब तुम अपने रब से फ़रियाद कर रहे थे, तो उसने तुम्हारी पुकार सुन ली। (उसने कहा,) "मैं एक हज़ार फ़रिश्तों से तुम्हारी मदद करूँगा जो तुम्हारे साथी होंगे।"॥9॥
وَمَا جَعَلَهُ ٱللَّهُ إِلَّا بُشۡرَىٰ وَلِتَطۡمَئِنَّ بِهِۦ قُلُوبُكُمۡۚ وَمَا ٱلنَّصۡرُ إِلَّا مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٌ 10
अल्लाह ने यह केवल इसलिए किया कि यह एक शुभ-सूचना हो और ताकि इससे तुम्हारे हृदय संतुष्ट हो जाएँ। सहायता अल्लाह ही के यहाँ से होती है। निस्संदेह अल्लाह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है॥10॥
إِذۡ يُغَشِّيكُمُ ٱلنُّعَاسَ أَمَنَةٗ مِّنۡهُ وَيُنَزِّلُ عَلَيۡكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ لِّيُطَهِّرَكُم بِهِۦ وَيُذۡهِبَ عَنكُمۡ رِجۡزَ ٱلشَّيۡطَٰنِ وَلِيَرۡبِطَ عَلَىٰ قُلُوبِكُمۡ وَيُثَبِّتَ بِهِ ٱلۡأَقۡدَامَ 11
याद करो जबकि वह अपनी ओर से चैन प्रदान कर तुम्हें ऊँघ से ढँक रहा था और वह आकाश से तुमपर पानी बरसा रहा था, ताकि उसके द्वारा तुम्हें अच्छी तरह पाक करे और शैतान की गन्दगी तुमसे दूर करे और तुम्हारे दिलों को मज़बूत करे और उसके द्वारा तुम्हारे क़दमों को जमा दे॥11॥
إِذۡ يُوحِي رَبُّكَ إِلَى ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ أَنِّي مَعَكُمۡ فَثَبِّتُواْ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۚ سَأُلۡقِي فِي قُلُوبِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلرُّعۡبَ فَٱضۡرِبُواْ فَوۡقَ ٱلۡأَعۡنَاقِ وَٱضۡرِبُواْ مِنۡهُمۡ كُلَّ بَنَانٖ 12
याद करो जब तुम्हारा रब फ़रिश्तों की ओर (वह्य) प्रकाशना कर रहा था कि "मैं तुम्हारे साथ हूँ। अतः तुम ईमानवालों को जमाए रखो। मैं इनकार करनेवालों के दिलों में रोब डाले देता हूँ। तो तुम उनकी गरदनें मारो और उनके पोर-पोर पर चोटें लगाओ!"॥12॥
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ شَآقُّواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥۚ وَمَن يُشَاقِقِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ فَإِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ 13
यह इसलिए कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल का विरोध किया। और जो कोई अल्लाह और उसके रसूल का विरोध करे (उसे कठोर यातना मिलकर रहेगी) क्योंकि अल्लाह कड़ी यातना देनेवाला है॥13॥
ذَٰلِكُمۡ فَذُوقُوهُ وَأَنَّ لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابَ ٱلنَّارِ 14
यह तो तुम चखो! और यह कि इनकार करनेवालों के लिए आग की यातना है॥14॥
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا لَقِيتُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ زَحۡفٗا فَلَا تُوَلُّوهُمُ ٱلۡأَدۡبَارَ 15
ऐ ईमान लानेवालो! जब एक सेना के रूप में तुम्हारा इनकार करनेवालों से मुक़ाबला हो तो पीठ न फेरो॥15॥
وَمَن يُوَلِّهِمۡ يَوۡمَئِذٖ دُبُرَهُۥٓ إِلَّا مُتَحَرِّفٗا لِّقِتَالٍ أَوۡ مُتَحَيِّزًا إِلَىٰ فِئَةٖ فَقَدۡ بَآءَ بِغَضَبٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَمَأۡوَىٰهُ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ 16
जिस किसी ने भी उस दिन उनसे अपनी पीठ फेरी — यह और बात है कि युद्ध-चाल के रूप में या दूसरी टुकड़ी से मिलने के लिए ऐसा करे — तो वह अल्लाह के प्रकोप का भागी हुआ और उसका ठिकाना जहन्नम है। और क्या ही बुरी जगह है वह पहुँचने की! ॥16॥
فَلَمۡ تَقۡتُلُوهُمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ قَتَلَهُمۡۚ وَمَا رَمَيۡتَ إِذۡ رَمَيۡتَ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ رَمَىٰ وَلِيُبۡلِيَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ مِنۡهُ بَلَآءً حَسَنًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ 17
तुमने उन्हे क़त्ल नहीं किया बल्कि अल्लाह ही ने उन्हें क़त्ल किया, और जब तुमने (उनकी ओर मिट्टी और कंकड़) फेंका, तो तुमने नहीं फेंका, बल्कि अल्लाह ने फेंका (कि अल्लाह अपनी गुण-गरिमा दिखाए) और ताकि अपनी ओर से ईमानवालों के गुण प्रकट करे। निस्संदेह अल्लाह सुनता, जानता है॥17॥
ذَٰلِكُمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ مُوهِنُ كَيۡدِ ٱلۡكَٰفِرِينَ 18
यह तो हुआ, और यह (जान लो) कि अल्लाह इनकार करनेवालों की चाल को कमज़ोर कर देनेवाला है॥18॥
إِن تَسۡتَفۡتِحُواْ فَقَدۡ جَآءَكُمُ ٱلۡفَتۡحُۖ وَإِن تَنتَهُواْ فَهُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۖ وَإِن تَعُودُواْ نَعُدۡ وَلَن تُغۡنِيَ عَنكُمۡ فِئَتُكُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَوۡ كَثُرَتۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ 19
यदि तुम फ़ैसला चाहते हो तो फ़ैसला तुम्हारे सामने आ चुका और यदि बाज़ आ जाओ तो यह तुम्हारे ही लिए अच्छा है। लेकिन यदि तुमने पलटकर फिर वही हरकत की तो हम भी पलटेंगे और तुम्हारा जत्था, चाहे वह कितना ही अधिक हो, तुम्हारे कुछ काम न आ सकेगा। और यह कि अल्लाह मोमिनों के साथ होता है॥19॥
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَلَا تَوَلَّوۡاْ عَنۡهُ وَأَنتُمۡ تَسۡمَعُونَ 20
ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करो और उससे मुँह न फेरो, जबकि तुम सुन रहे हो॥20॥
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ قَالُواْ سَمِعۡنَا وَهُمۡ لَا يَسۡمَعُونَ 21
और उन लोगों की तरह न हो जाना जिन्होंने कहा था, "हमने सुना" हालाँकि वे सुनते नहीं॥21॥
۞إِنَّ شَرَّ ٱلدَّوَآبِّ عِندَ ٱللَّهِ ٱلصُّمُّ ٱلۡبُكۡمُ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡقِلُونَ 22
अल्लाह की नज़र में तो निकृष्ट पशु वे बहरे-गूँगे लोग है जो बुद्धि से काम नहीं लेते॥22॥
وَلَوۡ عَلِمَ ٱللَّهُ فِيهِمۡ خَيۡرٗا لَّأَسۡمَعَهُمۡۖ وَلَوۡ أَسۡمَعَهُمۡ لَتَوَلَّواْ وَّهُم مُّعۡرِضُونَ 23
यदि अल्लाह जानता कि उनमें कुछ भी भलाई है तो वह उन्हें अवश्य सुनने का सौभाग्य प्रदान करता। और यदि वह उन्हें सुना देता तो भी वे कतराते हुए मुँह फेर लेते॥23॥
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱسۡتَجِيبُواْ لِلَّهِ وَلِلرَّسُولِ إِذَا دَعَاكُمۡ لِمَا يُحۡيِيكُمۡۖ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَحُولُ بَيۡنَ ٱلۡمَرۡءِ وَقَلۡبِهِۦ وَأَنَّهُۥٓ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ 24
ऐ ईमान लानेवाले! अल्लाह और रसूल की बात मानो, जब वह तुम्हें उस चीज़ की ओर बुलाए जो तुम्हें जीवन प्रदान करनेवाली है और जान रखो कि अल्लाह आदमी और उसके दिल के बीच आड़े आ जाता है और यह कि वही है जिसकी ओर (पलटकर) तुम एकत्र होगे॥24॥
وَٱتَّقُواْ فِتۡنَةٗ لَّا تُصِيبَنَّ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنكُمۡ خَآصَّةٗۖ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ 25
बचो उस फ़ितने से जो अपनी लपेट में विशेष रूप से, केवल अत्याचारियों को ही नहीं लेगा। जान लो अल्लाह कठोर दण्ड देनेवाला है॥25॥
وَٱذۡكُرُوٓاْ إِذۡ أَنتُمۡ قَلِيلٞ مُّسۡتَضۡعَفُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ تَخَافُونَ أَن يَتَخَطَّفَكُمُ ٱلنَّاسُ فَـَٔاوَىٰكُمۡ وَأَيَّدَكُم بِنَصۡرِهِۦ وَرَزَقَكُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ 26
और याद करो जबकि तुम थोड़े थे, धरती में निर्बल थे, डरे-सहमे रहते कि लोग कहीं तुम्हें उचक न ले जाएँ। फिर उसने तुम्हें ठिकाना दिया और अपनी सहायता से तुम्हें शक्ति प्रदान की और अच्छी-स्वच्छ चीज़ों की तुम्हें रोजी दी, ताकि तुम कृतज्ञता दिखलाओ॥26॥
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَخُونُواْ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَ وَتَخُونُوٓاْ أَمَٰنَٰتِكُمۡ وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ 27
ऐ ईमान लानेवालो! जानते-बूझते तुम अल्लाह और उसके रसूल के साथ विश्वासघात न करना और न अपनी अमानतों में ख़ियानत करना॥27॥
وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَآ أَمۡوَٰلُكُمۡ وَأَوۡلَٰدُكُمۡ فِتۡنَةٞ وَأَنَّ ٱللَّهَ عِندَهُۥٓ أَجۡرٌ عَظِيمٞ 28
और जान रखो कि तुम्हारे माल और तुम्हारी संतान परीक्षा-सामग्री हैं और यह कि अल्लाह के पास बड़ा प्रतिदान है॥28॥
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن تَتَّقُواْ ٱللَّهَ يَجۡعَل لَّكُمۡ فُرۡقَانٗا وَيُكَفِّرۡ عَنكُمۡ سَيِّـَٔاتِكُمۡ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡۗ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ 29
ऐ ईमान लानेवालो! यदि तुम अल्लाह का डर रखोगे तो वह तुम्हें एक विशिष्टता प्रदान करेगा और तुमसे तुम्हारी बुराइयाँ दूर करेगा और तुम्हे क्षमा करेगा। अल्लाह बड़ा अनुग्राहवाला है॥29॥
وَإِذۡ يَمۡكُرُ بِكَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِيُثۡبِتُوكَ أَوۡ يَقۡتُلُوكَ أَوۡ يُخۡرِجُوكَۚ وَيَمۡكُرُونَ وَيَمۡكُرُ ٱللَّهُۖ وَٱللَّهُ خَيۡرُ ٱلۡمَٰكِرِينَ 30
और याद करो जब इनकार करनेवाले तुम्हारे साथ चालें चल रहे थे कि तुम्हें क़ैद रखें या तुम्हे क़त्ल कर दें या तुम्हें निकाल बाहर करें। वे अपनी चालें चल रहे थे और अल्लाह भी अपनी चाल चल रहा था। अल्लाह सबसे अच्छी चाल चलता है॥30॥
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا قَالُواْ قَدۡ سَمِعۡنَا لَوۡ نَشَآءُ لَقُلۡنَا مِثۡلَ هَٰذَآ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّآ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ 31
जब उनके सामने हमारी आयतें पढ़ी जाती हैं तो वे कहते है, "हम सुन चुके। यदि हम चाहें तो ऐसी बातें हम भी बना लें; ये तो बस पहले के लोगों की कहानियाँ हैं।"॥31॥
وَإِذۡ قَالُواْ ٱللَّهُمَّ إِن كَانَ هَٰذَا هُوَ ٱلۡحَقَّ مِنۡ عِندِكَ فَأَمۡطِرۡ عَلَيۡنَا حِجَارَةٗ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ أَوِ ٱئۡتِنَا بِعَذَابٍ أَلِيمٖ 32
और याद करो जब उन्होंने कहा था, "ऐ अल्लाह! यदि यही तेरे यहाँ से सत्य हो तो हमपर आकाश से पत्थर बरसा दे या हम पर कोई दुखद यातना ही ले आ॥32॥
وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُعَذِّبَهُمۡ وَأَنتَ فِيهِمۡۚ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ مُعَذِّبَهُمۡ وَهُمۡ يَسۡتَغۡفِرُونَ 33
और अल्लाह ऐसा नहीं कि तुम उनके बीच उपस्थित हो और वह उन्हें यातना देने लग जाए और न अल्लाह ऐसा है कि वे क्षमा-याचना कर रहे हों और वह उन्हें यातना से ग्रस्त कर दे॥33॥
وَمَا لَهُمۡ أَلَّا يُعَذِّبَهُمُ ٱللَّهُ وَهُمۡ يَصُدُّونَ عَنِ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ وَمَا كَانُوٓاْ أَوۡلِيَآءَهُۥٓۚ إِنۡ أَوۡلِيَآؤُهُۥٓ إِلَّا ٱلۡمُتَّقُونَ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ 34
किन्तु अब क्या है उनके पास कि अल्लाह उन्हें यातना न दे, जबकि वे 'मस्जिदे हराम' (काबा) से रोकते हैं, हालाँकि वे उसके कोई व्यवस्थापक नहीं? उसके व्यवस्थापक तो केवल डर रखनेवाले ही है, परन्तु उनके अधिकतर लोग जानते नहीं॥34॥
وَمَا كَانَ صَلَاتُهُمۡ عِندَ ٱلۡبَيۡتِ إِلَّا مُكَآءٗ وَتَصۡدِيَةٗۚ فَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ 35
उनकी नमाज़़ इस घर (काबा) के पास सीटियाँ बजाने और तालियाँ पीटने के अलावा कुछ भी नहीं होती। तो अब यातना का मज़ा चखो, उस इनकार के बदले में जो तुम करते रहे हो॥35॥
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمۡ لِيَصُدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ فَسَيُنفِقُونَهَا ثُمَّ تَكُونُ عَلَيۡهِمۡ حَسۡرَةٗ ثُمَّ يُغۡلَبُونَۗ وَٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِلَىٰ جَهَنَّمَ يُحۡشَرُونَ 36
निश्चय ही इनकार करनेवाले अपने माल अल्लाह के मार्ग से रोकने के लिए ख़र्च करते हैं,वे तो उसे ख़र्च करते रहेंगे, फिर यही उनके लिए पश्चात्ताप बनेगा। फिर वे पराभूत (पराजित) होंगे और इनकार करनेवाले जहन्नम की ओर समेट लाए जाएँगे॥36॥
لِيَمِيزَ ٱللَّهُ ٱلۡخَبِيثَ مِنَ ٱلطَّيِّبِ وَيَجۡعَلَ ٱلۡخَبِيثَ بَعۡضَهُۥ عَلَىٰ بَعۡضٖ فَيَرۡكُمَهُۥ جَمِيعٗا فَيَجۡعَلَهُۥ فِي جَهَنَّمَۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ 37
ताकि अल्लाह नापाक को पाक से छाँटकर अलग करे और नापाकों को आपस में एक-दूसरे पर रखकर ढेर बनाए, फिर उसे जहन्नम में डाल दे। यही लोग घाटे में पड़नेवाले हैं॥37॥
قُل لِّلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِن يَنتَهُواْ يُغۡفَرۡ لَهُم مَّا قَدۡ سَلَفَ وَإِن يَعُودُواْ فَقَدۡ مَضَتۡ سُنَّتُ ٱلۡأَوَّلِينَ 38
उन इनकार करनेवालों से कह दो कि वे यदि बाज़ आ जाएँ तो जो कुछ हो चुका उसे क्षमा कर दिया जाएगा, किन्तु यदि वे फिर भी वहीं करेंगे तो पूर्ववर्ती लोगों के सिलसिले में जो रीति अपनाई गई वह सामने से गुज़र चुकी है॥38॥
وَقَٰتِلُوهُمۡ حَتَّىٰ لَا تَكُونَ فِتۡنَةٞ وَيَكُونَ ٱلدِّينُ كُلُّهُۥ لِلَّهِۚ فَإِنِ ٱنتَهَوۡاْ فَإِنَّ ٱللَّهَ بِمَا يَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ 39
उनसे युद्ध करो, यहाँ तक कि फ़ितना बाक़ी न रहे और दीन (धर्म) पूरा का पूरा अल्लाह ही के लिए हो जाए। फिर यदि वे बाज़ आ जाएँ तो अल्लाह उनके कर्म को देख रहा है॥39॥
وَإِن تَوَلَّوۡاْ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ مَوۡلَىٰكُمۡۚ نِعۡمَ ٱلۡمَوۡلَىٰ وَنِعۡمَ ٱلنَّصِيرُ 40
किन्तु यदि वे मुँह मोड़ें तो जान रखो कि अल्लाह संरक्षक है। क्या ही अच्छा संरक्षक है वह और क्या ही अच्छा सहायक! ॥40॥
۞وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَا غَنِمۡتُم مِّن شَيۡءٖ فَأَنَّ لِلَّهِ خُمُسَهُۥ وَلِلرَّسُولِ وَلِذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِ إِن كُنتُمۡ ءَامَنتُم بِٱللَّهِ وَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَىٰ عَبۡدِنَا يَوۡمَ ٱلۡفُرۡقَانِ يَوۡمَ ٱلۡتَقَى ٱلۡجَمۡعَانِۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ 41
और तुम्हें मालूम हो कि जो कुछ ग़नीमत के रूप में माल तुमने प्राप्त किया है, उसका पाँचवाँ भाग अल्लाह का, रसूल का, नातेदारों का, अनाथों का, मुहताजों और मुसाफ़िरों का है। यदि तुम अल्लाह पर और उस चीज़ पर ईमान रखते हो जो हमने अपने बन्दे पर फ़ैसले के दिन उतारी, जिस दिन दोनों सेनाओं में मुठभेड़ हुई और अल्लाह को हर चीज़ की पूर्ण सामर्थ्य प्राप्त है॥41॥
إِذۡ أَنتُم بِٱلۡعُدۡوَةِ ٱلدُّنۡيَا وَهُم بِٱلۡعُدۡوَةِ ٱلۡقُصۡوَىٰ وَٱلرَّكۡبُ أَسۡفَلَ مِنكُمۡۚ وَلَوۡ تَوَاعَدتُّمۡ لَٱخۡتَلَفۡتُمۡ فِي ٱلۡمِيعَٰدِ وَلَٰكِن لِّيَقۡضِيَ ٱللَّهُ أَمۡرٗا كَانَ مَفۡعُولٗا لِّيَهۡلِكَ مَنۡ هَلَكَ عَنۢ بَيِّنَةٖ وَيَحۡيَىٰ مَنۡ حَيَّ عَنۢ بَيِّنَةٖۗ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَسَمِيعٌ عَلِيمٌ 42
याद करो जब तुम घाटी के निकटवर्ती छोर पर थे और वे घाटी के दूरस्थ छोर पर थे और क़ाफ़िला तुमसे नीचे की ओर था। यदि तुम परस्पर समय निश्चित किए होते तो अनिवार्यतः तुम निश्चित समय पर न पहुँचते। किन्तु जो कुछ हुआ वह इसलिए कि अल्लाह उस बात का फ़ैसला कर दे जिसका पूरा होना निश्चित था, ताकि जिसे विनष्ट होना हो, वह स्पष्ट प्रमाण देखकर ही विनष्ट हो और जिसे जीवित रहना हो वह स्पष्ट़ प्रमाण देखकर जीवित रहे। निस्संदेह अल्लाह भली-भाँति जानता, सुनता है॥42॥
إِذۡ يُرِيكَهُمُ ٱللَّهُ فِي مَنَامِكَ قَلِيلٗاۖ وَلَوۡ أَرَىٰكَهُمۡ كَثِيرٗا لَّفَشِلۡتُمۡ وَلَتَنَٰزَعۡتُمۡ فِي ٱلۡأَمۡرِ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ سَلَّمَۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ 43
और याद करो जब अल्लाह उनको तुम्हारे (नबी के) स्व्प्न में थोड़ा करके तुम्हें दिखा रहा था, और यदि वह उन्हें ज़्यादा करके तुम्हें दिखा देता तो अवश्य ही तुम (ऐ मुसलमानो) हिम्मत हार बैठते और असल मामले में झगड़ने लग जाते, किन्तु अल्लाह ने इससे बचा लिया। निश्चय ही वह तो जो कुछ दिलों में होता है उसे भी जानता है॥43॥
وَإِذۡ يُرِيكُمُوهُمۡ إِذِ ٱلۡتَقَيۡتُمۡ فِيٓ أَعۡيُنِكُمۡ قَلِيلٗا وَيُقَلِّلُكُمۡ فِيٓ أَعۡيُنِهِمۡ لِيَقۡضِيَ ٱللَّهُ أَمۡرٗا كَانَ مَفۡعُولٗاۗ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ 44
याद करो जब तुम्हारी परस्पर मुठभेड़ हुई तो वह तुम्हारी निगाहों में उन्हें कम करके और तुम्हें उनकी निगाहों में कम करके दिखा रहा था, ताकि अल्लाह उस बात का फ़ैसला कर दे जिसका होना निश्चित था। और सारे मामले अल्लाह ही की ओर पलटते हैं॥44॥
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا لَقِيتُمۡ فِئَةٗ فَٱثۡبُتُواْ وَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ كَثِيرٗا لَّعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ 45
ऐ ईमान लानेवालो! जब तुम्हारा किसी गिरोह से मुक़ाबला हो जाए तो जमे रहो और अल्लाह को ज़्यादा याद करो, ताकि तुम्हें सफलता प्राप्त हो॥45॥
وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَلَا تَنَٰزَعُواْ فَتَفۡشَلُواْ وَتَذۡهَبَ رِيحُكُمۡۖ وَٱصۡبِرُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلصَّٰبِرِينَ 46
और अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा मानो और आपस में न झगड़ो, अन्यथा हिम्मत हार बैठोगे और तुम्हारी हवा उखड़ जाएगी। और धैर्य से काम लो। निश्चय ही, अल्लाह धैर्यवानों के साथ है॥46॥
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ خَرَجُواْ مِن دِيَٰرِهِم بَطَرٗا وَرِئَآءَ ٱلنَّاسِ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ بِمَا يَعۡمَلُونَ مُحِيطٞ 47
और उन लोगों की तरह न हो जाना जो अपने घरों से इतराते और लोगों को दिखाते निकले थे, और वे अल्लाह के मार्ग से रोकते है, हालाँकि जो कुछ वे करते है, अल्लाह उसे अपने घेरे में लिए हुए है॥47॥
وَإِذۡ زَيَّنَ لَهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَعۡمَٰلَهُمۡ وَقَالَ لَا غَالِبَ لَكُمُ ٱلۡيَوۡمَ مِنَ ٱلنَّاسِ وَإِنِّي جَارٞ لَّكُمۡۖ فَلَمَّا تَرَآءَتِ ٱلۡفِئَتَانِ نَكَصَ عَلَىٰ عَقِبَيۡهِ وَقَالَ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّنكُمۡ إِنِّيٓ أَرَىٰ مَا لَا تَرَوۡنَ إِنِّيٓ أَخَافُ ٱللَّهَۚ وَٱللَّهُ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ 48
और याद करो जब शैतान ने उनके कर्म उनके लिए सुन्दर बना दिए और कहा, "आज लोगों में से कोई भी तुमपर प्रभावी नहीं हो सकता। मैं तुम्हारे साथ हूँ।" किन्तु जब दोनों गिरोह आमने-सामने हुए तो वह उलटे पाँव फिर गया और कहने लगा, "मेरा तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं। मैं वह कुछ देख रहा हूँ, जो तुम्हें नहीं दिखाई देता। मैं अल्लाह से डरता हूँ, और अल्लाह कठोर यातना देनेवाला है।"॥48॥
إِذۡ يَقُولُ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ غَرَّ هَٰٓؤُلَآءِ دِينُهُمۡۗ وَمَن يَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِ فَإِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٞ 49
याद करो जब कपटाचारी और वे लोग जिनके दिलों में रोग है, कह रहे थे, "इन लोगों को तो इनके धर्म ने धोखे में डाल रखा है।" हालाँकि जो अल्लाह पर भरोसा रखता है, तो निश्चय ही अल्लाह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है॥49॥
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذۡ يَتَوَفَّى ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَضۡرِبُونَ وُجُوهَهُمۡ وَأَدۡبَٰرَهُمۡ وَذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡحَرِيقِ 50
क्या ही अच्छा होता कि तुम देखते जब फ़रिश्ते इनकार करनेवालों के प्राण ग्रस्त करते हैं! वे उनके चहरों और उनकी पीठों पर मारते जाते हैं कि "लो अब जलने की यातना का मज़ा चखो।" (तो उनकी दुर्दशा का अन्दाजा कर सकते)॥50॥
ذَٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيكُمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَيۡسَ بِظَلَّٰمٖ لِّلۡعَبِيدِ 51
यह तो उसी का बदला है जो तुम्हारे हाथों ने आगे भेजा, और यह कि अल्लाह अपने बन्दों पर तनिक भी अत्याचार नहीं करता॥51॥
كَدَأۡبِ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَأَخَذَهُمُ ٱللَّهُ بِذُنُوبِهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ قَوِيّٞ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ 52
इनके साथ वैसा ही मामला पेश आया जैसा फ़िरऔन के लोगों और उनसे पहले के लोगों के साथ पेश आया। उन्होंने अल्लाह की आयतों का इनकार किया तो अल्लाह ने उनके गुनाहों के कारण उन्हें पकड़ लिया। निस्संदेह अल्लाह शक्तिशाली, कठोर यातना देनेवाला है॥52॥
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ لَمۡ يَكُ مُغَيِّرٗا نِّعۡمَةً أَنۡعَمَهَا عَلَىٰ قَوۡمٍ حَتَّىٰ يُغَيِّرُواْ مَا بِأَنفُسِهِمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ 53
यह इसलिए हुआ कि अल्लाह उस उदार अनुग्रह (नेमत) को, जो उसने किसी क़ौम पर किया हो, बदलनेवाला नहीं हैं, जब तक कि लोग स्वयं अपने (कर्म-नीति) को न बदल दे। और यह कि अल्लाह सब कुछ सुनता, जानता है। (उनका वही हाल हुआ)॥53॥
كَدَأۡبِ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ فَأَهۡلَكۡنَٰهُم بِذُنُوبِهِمۡ وَأَغۡرَقۡنَآ ءَالَ فِرۡعَوۡنَۚ وَكُلّٞ كَانُواْ ظَٰلِمِينَ 54
जैसे फ़िरऔनियों और उनसे पहले के लोगों का हाल हुआ। उन्होंने अपने रब की आयतों को झुठलाया तो हमने उन्हें उनके गुनाहों के बदले में विनष्ट कर दिया और फ़िरऔनियों को डुबो दिया। ये सभी अत्याचारी थे॥54॥
إِنَّ شَرَّ ٱلدَّوَآبِّ عِندَ ٱللَّهِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ 55
निश्चय ही सबसे बुरे प्राणी अल्लाह की दृष्टि में वे लोग हैं जिन्होंने इनकार किया। फिर वे ईमान नहीं लाते॥55॥
ٱلَّذِينَ عَٰهَدتَّ مِنۡهُمۡ ثُمَّ يَنقُضُونَ عَهۡدَهُمۡ فِي كُلِّ مَرَّةٖ وَهُمۡ لَا يَتَّقُونَ 56
जिनसे तुमने वचन लिया वे फिर हर बार अपने वचन को भंग कर देते हैं और वे डर नहीं रखते॥56॥
فَإِمَّا تَثۡقَفَنَّهُمۡ فِي ٱلۡحَرۡبِ فَشَرِّدۡ بِهِم مَّنۡ خَلۡفَهُمۡ لَعَلَّهُمۡ يَذَّكَّرُونَ 57
अतः यदि युद्ध में तुम उनपर क़ाबू पाओ तो उनके साथ इस तरह पेश आओ कि उनके पीछेवाले भी भाग खड़े हों, ताकि वे शिक्षा ग्रहण करें॥57॥
وَإِمَّا تَخَافَنَّ مِن قَوۡمٍ خِيَانَةٗ فَٱنۢبِذۡ إِلَيۡهِمۡ عَلَىٰ سَوَآءٍۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡخَآئِنِينَ 58
और यदि तुम्हें किसी क़ौम से विश्वासघात की आशंका हो तो तुम भी उसी प्रकार ऐसे लोगों के साथ हुई संधि को खुल्लम-खुल्ला उनके आगे फेंक दो। निश्चय ही अल्लाह को विश्वासघात करनेवाले प्रिय नहीं॥58॥
وَلَا يَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ سَبَقُوٓاْۚ إِنَّهُمۡ لَا يُعۡجِزُونَ 59
इनकार करनेवाले यह न समझे कि वे आगे निकल गए। वे क़ाबू से बाहर नहीं जा सकते॥59॥
وَأَعِدُّواْ لَهُم مَّا ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن قُوَّةٖ وَمِن رِّبَاطِ ٱلۡخَيۡلِ تُرۡهِبُونَ بِهِۦ عَدُوَّ ٱللَّهِ وَعَدُوَّكُمۡ وَءَاخَرِينَ مِن دُونِهِمۡ لَا تَعۡلَمُونَهُمُ ٱللَّهُ يَعۡلَمُهُمۡۚ وَمَا تُنفِقُواْ مِن شَيۡءٖ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ يُوَفَّ إِلَيۡكُمۡ وَأَنتُمۡ لَا تُظۡلَمُونَ 60
और जो भी तुमसे हो सके, उनके लिए बल और बँधे घोड़े1 तैयार रखो, ताकि इसके द्वारा अल्लाह के शत्रुओं और अपने शत्रुओं और इनके अतिरिक्त उन दूसरे लोगों को भी भयभीत कर दो जिन्हें तुम नहीं जानते। अल्लाह उनको जानता है, और अल्लाह के मार्ग में तुम जो कुछ भी ख़र्च करोगे वह तुम्हें पूरा-पूरा चुका दिया जाएगा और तुम्हारे साथ कदापि अन्याय न होगा॥60॥
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1. युद्ध की तैयारी की ओर संकेत है।
۞وَإِن جَنَحُواْ لِلسَّلۡمِ فَٱجۡنَحۡ لَهَا وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ 61
और यदि वे संधि और सलामती की ओर झुकें तो तुम भी इसके लिए झुक जाओ और अल्लाह पर भरोसा रखो। निस्संदेह, वह सब कुछ सुनता, जानता है॥61॥
وَإِن يُرِيدُوٓاْ أَن يَخۡدَعُوكَ فَإِنَّ حَسۡبَكَ ٱللَّهُۚ هُوَ ٱلَّذِيٓ أَيَّدَكَ بِنَصۡرِهِۦ وَبِٱلۡمُؤۡمِنِينَ 62
और यदि वे यह चाहें कि तुम्हें धोखा दें तो तुम्हारे लिए अल्लाह काफ़ी है। वही तो है जिसने तुम्हें अपनी सहायता से और मोमिनों के द्वारा शक्ति प्रदान की॥62॥
وَأَلَّفَ بَيۡنَ قُلُوبِهِمۡۚ لَوۡ أَنفَقۡتَ مَا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا مَّآ أَلَّفۡتَ بَيۡنَ قُلُوبِهِمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ أَلَّفَ بَيۡنَهُمۡۚ إِنَّهُۥ عَزِيزٌ حَكِيمٞ 63
और उनके दिल आपस में एक-दूसरे से जोड़ दिए। यदि तुम धरती में जो कुछ है सब ख़र्च कर डालते तो भी उनके दिलों को परस्पर जोड़ न सकते, किन्तु अल्लाह ने उन्हें परस्पर जोड़ दिया। निश्चय ही वह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है॥63॥
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ حَسۡبُكَ ٱللَّهُ وَمَنِ ٱتَّبَعَكَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ 64
ऐ नबी! तुम्हारे लिए अल्लाह और तुम्हारे ईमानवाले अनुयायी ही काफ़ी हैं॥64॥
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ حَرِّضِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ عَلَى ٱلۡقِتَالِۚ إِن يَكُن مِّنكُمۡ عِشۡرُونَ صَٰبِرُونَ يَغۡلِبُواْ مِاْئَتَيۡنِۚ وَإِن يَكُن مِّنكُم مِّاْئَةٞ يَغۡلِبُوٓاْ أَلۡفٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَفۡقَهُونَ 65
ऐ नबी! मोमिनों को युद्ध पर उभारो। यदि तुम्हारे बीस आदमी जमे होंगें तो वे दो सौ पर प्रभावी होंगे और यदि तुमसे से ऐसे सौ होंगे तो वे इनकार करनेवालों में से एक हज़ार पर प्रभावी होंगे, क्योंकि वे नासमझ लोग हैं॥65॥
ٱلۡـَٰٔنَ خَفَّفَ ٱللَّهُ عَنكُمۡ وَعَلِمَ أَنَّ فِيكُمۡ ضَعۡفٗاۚ فَإِن يَكُن مِّنكُم مِّاْئَةٞ صَابِرَةٞ يَغۡلِبُواْ مِاْئَتَيۡنِۚ وَإِن يَكُن مِّنكُمۡ أَلۡفٞ يَغۡلِبُوٓاْ أَلۡفَيۡنِ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ مَعَ ٱلصَّٰبِرِينَ 66
अब अल्लाह ने तुम्हारा बोझ हल्का कर दिया और उसे मालूम हुआ कि तुममें कुछ कमज़ोरी है। तो यदि तुम्हारे सौ आदमी जमे रहनेवाले होंगे तो वे दो सौ पर प्रभावी रहेंगे और यदि तुममें से ऐसे हजार होंगे तो अल्लाह के हुक्म से वे दो हज़ार पर प्रभावी रहेंगे। अल्लाह तो उन्ही लोगों के साथ है जो जमे रहते है॥66॥
مَا كَانَ لِنَبِيٍّ أَن يَكُونَ لَهُۥٓ أَسۡرَىٰ حَتَّىٰ يُثۡخِنَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ تُرِيدُونَ عَرَضَ ٱلدُّنۡيَا وَٱللَّهُ يُرِيدُ ٱلۡأٓخِرَةَۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٞ 67
किसी नबी के लिए यह उचित नहीं कि उसके पास क़ैदी हों यहाँ तक की वह धरती में रक्तपात करे।2 तुम लोग संसार की सामग्री चाहते हो, जबकि अल्लाह आख़िरत चाहता है। अल्लाह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है॥67॥
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2. अर्थात् यहाँ तक कि विरोधियों को कुचलकर उनका ज़ोर तोड़ दे।
لَّوۡلَا كِتَٰبٞ مِّنَ ٱللَّهِ سَبَقَ لَمَسَّكُمۡ فِيمَآ أَخَذۡتُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ 68
यदि अल्लाह का लिखा पहले से मौजूद न होता तो जो कुछ नीति तुमने अपनाई है उसपर तुम्हें कोई बड़ी यातना आ लेती॥68॥
فَكُلُواْ مِمَّا غَنِمۡتُمۡ حَلَٰلٗا طَيِّبٗاۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ 69
अतः जो कुछ ग़नीमत का माल तुमने प्राप्त किया है उसे वैध-पवित्र समझकर खाओ और अल्लाह का डर रखो। निश्चय ही अल्लाह बड़ा क्षमाशील, अत्यन्त दयावान है॥69॥
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ قُل لِّمَن فِيٓ أَيۡدِيكُم مِّنَ ٱلۡأَسۡرَىٰٓ إِن يَعۡلَمِ ٱللَّهُ فِي قُلُوبِكُمۡ خَيۡرٗا يُؤۡتِكُمۡ خَيۡرٗا مِّمَّآ أُخِذَ مِنكُمۡ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ 70
ऐ नबी! जो क़ैदी तुम्हारे क़ब्ज़े में हैं उनसे कह दो, "यदि अल्लाह ने यह जान लिया कि तुम्हारे दिलों में कुछ भलाई है तो वह तुम्हें उससे कहीं उत्तम प्रदान करेगा, जो तुम से छिन गया है और तुम्हें क्षमा कर देगा। और अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है।"॥70॥
وَإِن يُرِيدُواْ خِيَانَتَكَ فَقَدۡ خَانُواْ ٱللَّهَ مِن قَبۡلُ فَأَمۡكَنَ مِنۡهُمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ 71
किन्तु यदि वे तुम्हारे साथ विश्वासघात करना चाहेंगे, तो इससे पहले वे अल्लाह के साथ विश्वासघात कर चुके हैं। तो उसने तुम्हें उनपर अधिकार दे दिया। अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, बड़ा तत्वदर्शी है॥71॥
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلَّذِينَ ءَاوَواْ وَّنَصَرُوٓاْ أُوْلَٰٓئِكَ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٖۚ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَلَمۡ يُهَاجِرُواْ مَا لَكُم مِّن وَلَٰيَتِهِم مِّن شَيۡءٍ حَتَّىٰ يُهَاجِرُواْۚ وَإِنِ ٱسۡتَنصَرُوكُمۡ فِي ٱلدِّينِ فَعَلَيۡكُمُ ٱلنَّصۡرُ إِلَّا عَلَىٰ قَوۡمِۭ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُم مِّيثَٰقٞۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ 72
जो लोग ईमान लाए और उन्होंने हिजरत की और अल्लाह के मार्ग में अपने मालों और अपनी जानों के साथ जिहाद किया और जिन लोगों ने उन्हें शरण दी और सहायता की, वही लोग परस्पर एक-दूसरे के संरक्षक मित्र हैं। रहे वे लोग जो ईमान लाए, किन्तु उन्होंने हिजरत नहीं की, उनसे तुम्हारा संरक्षण और मित्रता का कोई सम्बन्ध नहीं है, जब तक कि वे हिजरत न करें, किन्तु यदि वे धर्म के मामले में तुमसे सहायता माँगे तो तुमपर अनिवार्य है कि सहायता करो, सिवाय इसके कि सहायता किसी ऐसी क़ौम के मुक़ाबले में हो जिससे तुम्हारी कोई संधि हो। तुम जो कुछ करते हो अल्लाह उसे देखता है॥72॥
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٍۚ إِلَّا تَفۡعَلُوهُ تَكُن فِتۡنَةٞ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَفَسَادٞ كَبِيرٞ 73
जो इनकार करनेवाले लोग हैं, वे आपस में एक-दूसरे के मित्र और सहायक है। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो धरती में फ़ितना और बड़ा फ़साद फैलेगा॥73॥
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلَّذِينَ ءَاوَواْ وَّنَصَرُوٓاْ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ حَقّٗاۚ لَّهُم مَّغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ 74
और जो लोग ईमान लाए और उन्होंने हिजरत की और अल्लाह के मार्ग में जिहाद किया और जिन लोगों ने उन्हें शरण दी और सहायता की वही सच्चे मोमिन हैं। उनके लिए क्षमा और सम्मानित — उत्तम आजीविका है॥74॥
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنۢ بَعۡدُ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ مَعَكُمۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ مِنكُمۡۚ وَأُوْلُواْ ٱلۡأَرۡحَامِ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلَىٰ بِبَعۡضٖ فِي كِتَٰبِ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمُۢ 75
और जो लोग बाद में ईमान लाए और उन्होंने हिजरत की और तुम्हारे साथ मिलकर जिहाद किया तो ऐसे लोग भी तुम ही में से हैं। किन्तु अल्लाह की किताब में ख़ून के रिश्तेदार एक-दूसरे के ज़्यादा हक़दार है। निश्चय ही अल्लाह को हर चीज़ का ज्ञान है॥75॥