92. अश-शम्स
(मक्का में उतरी, आयतें 15)
परिचय
नाम
पहले ही शब्द 'अश-शम्स' (सूरज) को इसका नाम क़रार दिया गया है।
उतरने का समय
विषय और वार्ताशैली से मालूम होता है कि यह सूरा भी मक्का के आरम्भिक काल में उस समय उतरी है जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का विरोध पूरा ज़ोर पकड़ चुका था।
विषय और वार्ता
इसका विषय भलाई और बुराई का अन्तर समझाना और उन लोगों को बुरे अंजाम से डराना है जो इस अन्तर को समझने से इंकार और बुराई की राह पर चलने का आग्रह करते हैं । विषय की दृष्टि से इस सूरा के दो हिस्से हैं।
पहला हिस्सा सूरा के आरंभ से लेकर आयत-10 पर समाप्त होता है, और दूसरा हिस्सा आयत-17 से अन्त तक चलता है। पहले हिस्से में तीन बातें समझाई गई हैं :
एक, यह कि भलाई-बुराई एक-दूसरे से भिन्न और अपने प्रभाव एवं परिणामों में परस्पर विरोधी हैं।
दूसरे, यह कि अल्लाह ने मनुष्य को शरीर, इन्द्रियाँ और बुद्धि की शक्तियाँ देकर दुनिया में बिल्कुल बे-ख़बर नहीं छोड़ दिया है, बल्कि एक फ़ितरी इलहाम (दैवी-प्रेरणा) के जरिए उसके अवचेतन में भलाई और बुराई का अन्तर, भले और बुरे की पहचान और भलाई के भलाई और बुराई के बुराई होने का एहसास उतार दिया है।
तीसरे, यह कि इंसान का अच्छा या बुरा भविष्य इसपर निर्भर करता है कि उसके भीतर समझ, इरादे और निर्णय की जो शक्तियाँ अल्लाह ने रख दी हैं, उनको इस्तेमाल करके वह अपने मन के अच्छे और बुरे रुझानों में से किसको उभारता और किसको दबाता है।
दूसरे भाग में समूद क़ौम के ऐतिहासिक दृष्टान्त को प्रस्तुत करते हुए रिसालत (पैग़म्बरी) के महत्त्व को समझाया गया है। रसूल दुनिया में इसलिए भेजा जाता है कि भलाई और बुराई का जो इलहामी इल्म अल्लाह ने इंसान की फ़ितरत में रख दिया है, वह अपने आप में इंसान के मार्गदर्शन के लिए काफ़ी नहीं है। इस कारण अल्लाह ने उस फ़ितरी इलहाम की सहायता के लिए नबियों पर स्पष्ट और साफ़-साफ़ वह्य उतारी, ताकि वे लोगों को खोलकर बताएँ कि भलाई क्या है और बुराई क्या। ऐसे ही एक नबी हज़रत सालेह (अलैहि०) समूद कौम की ओर भेजे गए थे, मगर वह क़ौम अपने मन की बुराई में डूबकर इतनी सरकश हो गई थी कि उसने उनको झुठला दिया। इसका नतीजा अन्ततः यह हुआ कि पूरी क़ौम तबाह करके रख दी गई। समूद का यह क़िस्सा [जिस वक़्त सुनाया गया था, मक्का में] उस समय हालात वही मौजूद थे जो सालेह के मुक़ाबले में समूद क़ौम के दुष्टों ने पैदा कर रखे थे। इसलिए उन हालात में यह क़िस्सा सुना देना अपने आप ही मक्कावालों को यह समझा देने के लिए पर्याप्त था कि समूद की यह ऐतिहासिक मिसाल उनपर किस तरह चस्पाँ हो रही है।
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