- यूनुस
(मक्का में उतरी – आयतें 109)
परिचय
नाम
इस सूरा का नाम नियमानुसार केवल प्रतीक के रूप में आयत 98 से लिया गया है, जिसमें संकेत रूप में हज़रत यूनुस (अलैहि०) का उल्लेख हुआ है। सूरा की वार्ता का विषय हज़रत यूनुस (अलैहि०) का क़िस्सा नहीं है।
उतरने का स्थान
रिवायतों से मालूम होता है और विषयवस्तु से इसका समर्थन होता है कि यह पूरी सूरा मक्के में उतरी है।
उतरने का समय
उतरने के समय के बारे में कोई रिवायत हमें नहीं मिली। लेकिन विषय से ऐसा ही प्रतीत होता है कि यह सूरा मक्का-निवास के अन्तिम काल में उतरी होगी, जब इस्लामी संदेश के विरोधी पूरी तीव्रता से अवरोध उत्पन्न कर रहे थे। लेकिन इस सूरा में हिजरत (घर-बार छोड़ने) की ओर भी कोई संकेत नहीं पाया जाता, इसलिए इसका समय उन सूरतों से पहले का समझना चाहिए जिनमें कोई न कोई सूक्ष्म या असूक्ष्म संकेत हमें हिजरत के बारे में मिलता है --- समय के इस निर्धारण के बाद ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के उल्लेख की ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती, क्योंकि इस काल को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का सूरा-6 (अनआम) और सूरा-7 (आराफ़) की प्रस्तावनाओं में वर्णन किया जा चुका है।
विषय
व्याख्यान का विषय दावत (आह्वान), उपदेश और चेतावनी है । बात इस तरह शुरू होती है लोग एक इंसान के नबी होने का सन्देश प्रस्तुत करने पर चकित हैं और इसे ख़ाहमख़ाह जादूगरी का इलज़ाम दे रहे हैं, हालाँकि जो बात वह पेश कर रहा है उसमें कोई चीज़ भी न तो विचित्र ही है और न ही जादू और ज्योतिष से ताल्लुक़ रखती है। वह तो दो महत्त्वपूर्ण तथ्यों से तुम्हें अवगत करा रहा है। [एक तो एकेश्वरवाद, दूसरा क़ियामत और बदला दिए जाने के दिन का आना।] ये दोनों तथ्य जो वह तुम्हारे सामने प्रस्तुत कर रहा है, अपने आपमें सही हैं, चाहे तुम मानो या न मानो। इन्हें अगर मान लोगे तो तुम्हारा अपना ही अंजाम अच्छा होगा वरना स्वयं ही बुरा नतीजा देखोगे।
वार्ताएँ
इस भूमिका के बाद निम्न वार्ताएँ एक विशेष क्रम के साथ सामने आती हैं-
(1) वे प्रमाण जो रब के एक होने और मरने के बाद की ज़िन्दगी के सिलसिले में ऐसे लोगों की बुद्धि और अन्तरात्मा को सन्तुष्ट कर सकते हैं जो अज्ञानता पूर्ण विद्वेष में ग्रस्त न हों।
(2) उन ग़लतफहमियों को दूर किया गया और उन ग़फ़लतों (भुलावों) पर चेतावनी दी गई जो लोगों को तौहीद और आख़िरत का विश्वास मानने से रोक बन रही थीं (और हमेशा ऐसा हुआ करता है)।
(3) उन सन्देहों और आपत्तियों का उत्तर जो मुहम्मद (सल्ल०) के रसूल होने और आपके लाए हुए सन्देश के बारे में की जाती थीं।
(4) दूसरे जीवन में जो कुछ सामने आनेवाला है, उसकी अग्रिम सूचना ।
(5) इस बात पर चेतावनी कि इस जगत का वर्तमान जीवन वास्तव में परीक्षा का जीवन है। इस जीवन की मोहलत को अगर तुमने नष्ट कर दिया और नबी का मार्गदर्शन स्वीकार करके परीक्षा की सफलता का सामान न किया, तो फिर कोई दूसरा अवसर तुम्हें मिलना नहीं है।
(6) उन खुली-खुली अज्ञानताओं और गुमराहियों की ओर संकेत जो लोगों के जीवन में केवल इस कारण पाई जा रही थीं कि वे अल्लाह के मार्गदर्शन के बिना जी रहे थे।
इस सिलसिले में नूह (अलैहि०) का क़िस्सा संक्षेप में और मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा तनिक विस्तार के साथ बयान किया गया है जिससे चार बातें मन में बिठानी हैं-
एक यह कि मुहम्मद (सल्ल०) के साथ जो मामला तुम लोग कर रहे हो, वह इससे मिलता-जुलता है जो नूह और मूसा (अलैहि०) के साथ तुम्हारे पहले के लोग कर चुके हैं और विश्वास करो कि इस नीति का जो परिणाम वे देख चुके हैं, वही तुम्हें भी देखना पड़ेगा।
दूसरे यह कि मुहम्मद (सल्ल०) और उनके साथियों को आज कमज़ोर और बेबस देखकर यह न समझ लेना कि स्थिति सदैव यही रहेगी। तुम्हें खबर नहीं कि इन लोगों के पीछे वही अल्लाह है जो मूसा और हारून के पीछे था और वह ऐसे तरीक़े से स्थिति में परिवर्तन ला देता है जिस तक किसी की दृष्टि नहीं पहुँच सकती।
तीसरे यह कि संभलने की मोहलत समाप्त हो जाने के बाद (बिलकुल) अन्तिम क्षण में तौबा की तो क्षमा नहीं किए जाओगे।
चौथे यह कि ईमानवाले, विरोधी वातावरण की तीव्रता देखकर निराश न हों और उन्हें मालूम हो कि इन परिस्थितियों में उनको किस तरह काम करना चाहिए। साथ ही वे इस बात पर भी सचेत हो जाएँ कि जब अल्लाह अपनी कृपा से उनको इस सिथति से निकाल दे तो कहीं वे इस नीति पर न चल पड़ें जो बनी-इसराईल ने मिस्र से मुक्ति पाने पर अपनाई।
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أَكَانَ لِلنَّاسِ عَجَبًا أَنۡ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ رَجُلٖ مِّنۡهُمۡ أَنۡ أَنذِرِ ٱلنَّاسَ وَبَشِّرِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنَّ لَهُمۡ قَدَمَ صِدۡقٍ عِندَ رَبِّهِمۡۗ قَالَ ٱلۡكَٰفِرُونَ إِنَّ هَٰذَا لَسَٰحِرٞ مُّبِينٌ 1
(2) क्या लोगों के लिए यह एक विचित्र बात हो गई कि हमने स्वयं उन्हीं में से एक आदमी पर वह्य भेजी कि (ग़फ़लत में पड़े हुए) लोगों को चौका दे और जो मान लें, उनको शुभ-सूचना दे कि उनके लिए उनके रब के पास सच्चा मान सम्मान है?2 (इसपर) इंकारियों ने कहा कि यह आदमी तो खुला जादूगर है।3
2. अर्थात् आख़िर इसमें विचित्र बात क्या है? इंसानों को सचेत करने के लिए इंसान न नियुक्त किया जाता तो क्या फ़रिश्ता या जिन्न या पशु नियुक्त किए जाते ? विचित्र बात तो यह है कि (वास्तविकता से ग़ाफ़िल इंसानों को उनका पैदा करनेवाला और पालनेवाला उनके हाल पर छोड़ दे या यह कि वह उनके मार्गदर्शन और रहनुमाई के लिए कोई व्यवस्था करे? और अगर अल्लाह की ओर से कोई मार्गदर्शन आए तो मान-सम्मान और सफलता उनके लिए होनी चाहिए जो उसे मान लें या उनके लिए जो उसे रद्द कर दें?
3. नबी (सल्ल०) को जादूगर वे इस अर्थ में कहते थे कि जो आदमी भी कुरआन सुनकर और आपके प्रचार से प्रभावित होकर ईमान लाता था, वह जान पर खेल जाने और दुनिया भर से कट जाने और हर विपदा झेल जाने के लिए तैयार हो जाता था। जादूगर की फब्ती तो उन्होंने आपपर कस दी, मगर यह न सोचा कि वह फिट भी होती है या नहीं? केवल यह बात कि कोई व्यक्ति उच्च श्रेणी के वक्तव्य से काम लेकर मन और मस्तिष्क को वश में कर रहा है, उसपर यह आरोप लगा देने के लिए तो पर्याप्त नहीं हो सकता कि वह जादूगरी कर रहा है। देखना यह है कि इस वक्तव्य में वह बात क्या कहता है, किस उद्देश्य के लिए भाषण-शक्ति का उपयोग कर रहा है और जो प्रभाव उसके भाषण से ईमान लानेवालों के जीवन पर पड़ रहे हैं, वे किस प्रकार के हैं। तुम देख रहे हो कि पैग़म्बर जो वाणी प्रस्तुत कर रहा है, उसमें बुद्धिमत्ता है, सोच-विचार को एक सन्तुलित व्यवस्था है, उच्च श्रेणी का सन्तुलन और सत्य और सच्चाई की भरपूर अनिवार्यता है, उसके भाषण में तुम ईश्वरीय सृष्टि में सुधार लाने के सिवा किसी दूसरे उद्देश्य की निशानदेही नहीं कर सकते । वह केवल यह चाहता है कि लोग ग़लत रवैय को छोड़कर उस रास्ते पर आ जाएँ जिसमें उनका अपना भला है। फिर उसके भाषण का जिसने भी प्रभाव ग्रहण किया है, उसका जीवन सँवर गया है। अब तुम स्वयं ही सोच लो, क्या जादूगर ऐसी ही बातें करते हैं और उनका जादू ऐसे ही नतीजे दिखाया करता है?
إِنَّ رَبَّكُمُ ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ يُدَبِّرُ ٱلۡأَمۡرَۖ مَا مِن شَفِيعٍ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ إِذۡنِهِۦۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُوهُۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ 2
(3) वास्तविकता तो यह है कि तुम्हारा रब वही अल्लाह है जिसने आसमानों और ज़मीन को छ: दिनों में पैदा किया, फिर राजसिंहासन पर आसीन होकर सृष्टि की व्यवस्था चला रहा है।4 कोई शफ़ाअत (सिफ़ारिश) करनेवाला नहीं है अलावा इसके कि उसकी इजाज़त के बाद शफ़ाअत करे।5 यही अल्लाह तुम्हारा रब है, इसलिए तुम उसी की इबादत करो।6 फिर क्या तुम होश में न आओगे?7
4. अर्थात् पैदा करके वह निष्क्रिय नहीं हो गया, बल्कि अपनी पैदा की हुई सृष्टि के राजसिंहासन पर वह स्वयं आसीन हुआ और अब सारी दुनिया का प्रबन्ध व्यावहारिक रूप से उसी के हाथ में है। (देखिए सूरा-7 आराफ़, टिप्पणी 40-41)
5. अर्थात् दुनिया के प्रबंध और व्यवस्था में किसी दूसरे का दखल देना तो दूर की बात, कोई इतना अधिकार भी नहीं रखता कि अल्लाह से सिफ़ारिश करके उसका कोई फ़ैसला बदलवा दे या किसी का भाग्य बनवा दे या बिगड़वा दे। अधिक से अधिक कोई जो कुछ कर सकता है वह बस इतना है कि अल्लाह से दुआ करे, मगर उसकी दुआ का क़बूल होना या न होना बिल्कुल अल्लाह की मर्ज़ी पर निर्भर है ।
إِلَيۡهِ مَرۡجِعُكُمۡ جَمِيعٗاۖ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقًّاۚ إِنَّهُۥ يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥ لِيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ بِٱلۡقِسۡطِۚ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَهُمۡ شَرَابٞ مِّنۡ حَمِيمٖ وَعَذَابٌ أَلِيمُۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡفُرُونَ 3
(4) उसी की ओर तुम सबको पलटकर जाना है।8 यह अल्लाह का पक्का वादा है। निस्सन्देह पैदाइश की शुरुआत वही करता है, फिर वही दोबारा पैदा करेगा9, ताकि जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे कार्य किए उनको न्यायपूर्वक बदला दे और जिन्होंने इंकार का तरीक़ा अपनाया, वे खौलता हुए पानी पिएँ और दर्दनाक सजा भुगतें सत्य के उस इंकार के बदले में जो वे करते रहे।10
8. यह नबी की शिक्षा का दूसरा बुनियादी सिद्धान्त है। पहला सिद्धान्त यह कि तुम्हारा रब केवल अल्लाह है, इसलिए उसी की इबादत करो। और दूसरा सिद्धान्त यह कि तुम्हें इस दुनिया से वापस जाकर अपने रब को हिसाब देना है।
9. यह वाक्य दावे और प्रमाण दोनों का योग है। दावा यह है कि अल्लाह दोबारा इंसान को पैदा करेगा और उसपर प्रमाण यह दिया गया है कि उसी ने पहली बार इंसान को पैदा किया। जो आदमी यह स्वीकार करता हो कि अल्लाह ने दुनिया की शुरुआत की है, वह इस बात को असंभव या समझ से परे नहीं कह सकता कि वही अल्लाह इस सृष्टि की पुनरावृत्ति करेगा।
۞وَلَوۡ يُعَجِّلُ ٱللَّهُ لِلنَّاسِ ٱلشَّرَّ ٱسۡتِعۡجَالَهُم بِٱلۡخَيۡرِ لَقُضِيَ إِلَيۡهِمۡ أَجَلُهُمۡۖ فَنَذَرُ ٱلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ لِقَآءَنَا فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ 10
(11) अगर कहीं15 अल्लाह लोगों के साथ बुरा मामला करने में भी उतनी ही जल्दी करता जितनी वे दुनिया की भलाई माँगने में जल्दी करते हैं, तो उनके काम की मोहलत कभी की समाप्त कर दी गई होती । (मगर हमारा यह तरीका नहीं है, इसलिए हम उन लोगों को जो हमसे मिलने की आशा नहीं रखते, उनकी उदंडता में भटकने के लिए छूट दे देते हैं ।
15. ऊपर के आरंभिक वाक्यों के बाद अब उपदेश और समझाने-बुझाने का व्याख्यान शुरू होता है। इस व्याख्यान को पढ़ने से पहले इसकी पृष्ठभूमि के बारे में दो बातें सामने रहनी चाहिएँ-
एक यह कि इस व्याख्यान से थोड़े समय पहले वह जबरदस्त (भीषण अकाल) समाप्त हुआ था जिसकी विपदा से मक्कावाले चिल्ला उठे थे। इस अकाल के समय में क़ुरैश के घमंडियों की अकड़ी हुई गरदनें बहुत झुक गई थीं। दुआएँ करते और रोते थे, बुतपरस्ती में कमी आ गई थी। एक अल्लाह की ओर रुजू बढ़ गया था और नौबत यह आ गई थी कि अन्ततः अबू सुफ़ियान ने आकर नबी (सल्ल०) से विनती की कि आप अल्लाह से इस विपदा को टालने के लिए दुआ करें। मगर जब अकाल दूर हो गया, वर्षा होने लगी और खुशहाली का समय आया तो इन लोगों की वही उदंडताएँ और दुष्कर्म और सत्य धर्म के विरुद्ध वही गतिविधियाँ फिर शुरू हो गई और जो दिल अल्लाह की ओर रुजू करने लगे थे, वे फिर अपनी पिछली ग़फलतों में डूब गए।
दूसरे यह कि नबी (सल्ल०) जब भी इन लोगों को सत्य के इंकार की सज़ा से डराते थे तो ये लोग उत्तर में कहते थे कि तुम अल्लाह के जिस अज़ाब की धमकियाँ देते हो, वह आखिर क्यों नहीं आ जाता? उसके आने में देर क्यों लग रही है?
इसी पर फ़रमाया जा रहा है कि अल्लाह लोगों पर दया व कृपा करने में जितनी जल्दी करता है, उनको सज़ा देने और उनके पापों पर पकड़ लेने में उतनी जल्दी नहीं करता। तुम चाहते हो कि जिस तरह उसने तुम्हारी दुआएँ सुनकर अकाल विपदा जल्दी से दूर कर दी, उसी तरह वह तुम्हारी चुनौतियाँ सुनकर और 'तुम्हारी उइंडताएँ देखकर अज़ाब भी तुरन्त भेज दे, लेकिन अल्लाह का तरीका यह नहीं है। लोग चाहे कितनी ही उदंडताएँ किए चले जाएँ, वह उनको पकड़ने से पहले संभलने का पर्याप्त अवसर देता है, जब रियायत की अति हो जाती है तब कर्म के बदले का नियम लागू किया जाता है।
وَلَقَدۡ أَهۡلَكۡنَا ٱلۡقُرُونَ مِن قَبۡلِكُمۡ لَمَّا ظَلَمُواْ وَجَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَمَا كَانُواْ لِيُؤۡمِنُواْۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡمُجۡرِمِينَ 12
(13) लोगो ! तुमसे पहले की क़ौमों को16 हमने नष्ट कर दिया जब उन्होंने ज़ुल्म की17 रीति अपनाई और उनके रसूल उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आए और उन्होंने ईमान लाकर ही न दिया। इस तरह हम अपराधियों को उनके अपराधों का बदला दिया करते हैं।
16. मूल अरबी में शब्द 'कर्न' प्रयुक्त हुआ है जिससे तात्पर्य सामान्य रूप से अरबी भाषा में तो एक युग के लोग होते हैं, लेकिन क़ुरआन मजीद में जिस ढंग से अलग-अलग अवसरों पर इस शब्द का प्रयोग हुआ है उससे ऐसा लगता है कि ‘क़र्न’ से तात्पर्य वह क़ौम है जो अपने युग में पूर्ण विकसित हो और उसने कुछ या पूरे तौर पर दुनिया का नेतृत्त्व किया हो। ऐसी क़ौम का विनाश अनिवार्य रूप से यही अर्थ नहीं रखता कि उसको नस्ल को बिल्कुल ही नष्ट कर दिया जाए, बल्कि उसका विकास और नेतृत्त्व के पद से गिरा दिया जाना, उसकी संस्कृति व सभ्यता का नष्ट हो जाना, उसकी पहचान का मिट जाना और उसके अंशों का टुकड़े-टुकड़े होकर दूसरी क़ौमों में गुम हो जाना, यह भी विनाश ही का एक रूप है।
17. यह जुल्म' शब्द उन सीमित अर्थों में नहीं है जो सामान्य रूप से इससे समझे जाते हैं, बल्कि यह उन तमाम पापों पर छाया हुआ है जो इंसान बन्दगी की सीमा का उल्लंघन करके करता है। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 बक़रा, टिप्पणी 49)
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَاتُنَا بَيِّنَٰتٖ قَالَ ٱلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ لِقَآءَنَا ٱئۡتِ بِقُرۡءَانٍ غَيۡرِ هَٰذَآ أَوۡ بَدِّلۡهُۚ قُلۡ مَا يَكُونُ لِيٓ أَنۡ أُبَدِّلَهُۥ مِن تِلۡقَآيِٕ نَفۡسِيٓۖ إِنۡ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّۖ إِنِّيٓ أَخَافُ إِنۡ عَصَيۡتُ رَبِّي عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ 14
(15) जब उन्हें हमारी साफ़-साफ़ बातें सुनाई जाती हैं तो वे लोग जो हमसे मिलने की आशा नहीं रखते, कहते हैं कि "इसके बजाय कोई और कुरआन लाओ या इसमें कुछ संशोधन करो19।" ऐ नबी ! उनसे कहो, “मेरा यह काम नहीं है कि अपनी ओर से इसमें कोई तब्दीली कर लूँ। मैं तो बस उस वह्य का पालन करनेवाला हूँ जो मेरे पास भेजी जाती है। अगर मैं अपने रब की बात न मानें तो मुझे एक बड़े भयानक दिन के अज़ाब का डर है।20
19. उनका यह कथन एक तो इस कल्पना पर आधारित था कि मुहम्मद (सल्ल०) जो कुछ प्रस्तुत कर रहे हैं वह अल्लाह की ओर से नहीं है, बल्कि उनके अपने दिमाग़ की उपज है। दूसरे उनका अर्थ यह था कि यह तुमने तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत और नैतिक पाबंदियों का विवाद क्या छेड़ दिया, अगर मार्गदर्शन के लिए उठे हो तो कोई ऐसी चीज़ प्रस्तुत करो जिससे क़ौम का भला हो और उसकी दुनिया बनती दिखाई दे। फिर भी अगर तुम अपने इस सन्देश को बिल्कुल नहीं बदलना चाहते तो कम-से-कम इसमें इतनी लचक ही पैदा करो कि हमारे और तुम्हारे बीच कम व बेश पर समझौता हो सके। कुछ हम तुम्हारी मानें, कुछ तुम हमारी मान लो।
20. यह ऊपर को दोनों बातों का उत्तर है। इसमें यह भी कह दिया गया कि मैं इस किताब का रचयिता नहीं हूँ, बल्कि यह वह्य के द्वारा मेरे पास आई है जिसमें किसी परिवर्तन का मुझे अधिकार नहीं, और यह भी कि इस मामले में समझौते को बिलकुल कोई संभावना नहीं है, क़बूल करना हो तो इस पूरे दीन को ज्यों-का-त्यों क़बूल कर लो, वरना पूरे को रद्द कर दो।
قُل لَّوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا تَلَوۡتُهُۥ عَلَيۡكُمۡ وَلَآ أَدۡرَىٰكُم بِهِۦۖ فَقَدۡ لَبِثۡتُ فِيكُمۡ عُمُرٗا مِّن قَبۡلِهِۦٓۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ 15
(16) और कहो, “अगर अल्लाह की इच्छा यही होती तो मैं यह कुरआन तुम्हें कभी न सुनाता और अल्लाह तुम्हें इसकी ख़बर तक न देता। आखिर इससे पहले मैं एक उम्र तुम्हारे बीच बिता चुका हूँ, क्या तुम बुद्धि से काम नहीं लेते?21
21. यह एक प्रबल प्रमाण है उनके इस विचार के खंडन में कि मुहम्मद (सल्ल.) कुरआन को स्वयं अपने मन से गढ़कर अल्लाह से जोड़ रहे हैं और मुहम्मद (सल्ल.) के इस दावे के समर्थन में कि वह स्वयं उसके रचयिता नहीं हैं, बल्कि यह अल्लाह की ओर से वह्य के द्वारा उनपर उतर रहा है। दूसरे तमाम प्रमाण तो फिर किसी हद तक दूर की चीज़ें थीं, मगर मुहम्मद (सल्ल०) का जीवन तो उन लोगों के सामने की चीज़ थी। आपने नुबूवत से पहले पूरे चालीस साल उनके बीच बिताए थे। उनके नगर में पैदा हुए, उनकी आँखों के सामने बचपन गुज़ारा, जवान हुए, अधेड़ उम्र को पहुंचे। रहना-सहना, मिलना-जुलना, लेन-देन, शादी-ब्याह, तात्पर्य यह कि हर प्रकार का सामाजिक संबंध उन्ही के साथ था और आपके जीवन का कोई पहलू उनसे छिपा हुआ न था। ऐसी जानी-बूझी और देखी-भाली चीज़ से बड़ी खुली गवाही और क्या हो सकती थी?
आपकी इस ज़िन्दगी में दो बातें बिल्कुल साफ़ थीं, जिन्हें मक्का के लोगों में से एक-एक व्यक्ति जानता था-
एक यह कि नुबूवत से पहले के पूरे चालीस वर्षीय जीवन में आपने कोई ऐसी शिक्षा-दीक्षा और संगति नहीं पाई जिससे आपको वे जानकारियाँ मिलतीं जिनके स्रोत यकायक नुबूवत के दावे के साथ ही आपके मुख से फूटने शुरू हो गए, न कभी किसी ने आपकी बातों और आपके हाव-भाव में कोई ऐसी चीज़ महसूस की जिसे उस महान संदेश की भूमिका कहा जा सकता हो जो आपने अचानक चालीसवीं साल को पहुँचकर देनी शुरू कर दी। यह इस बात का खुला प्रमाण था कि कुरआन आपके अपने मस्तिष्क की उपज नहीं है. बल्कि बाहर से आपके भीतर आई हुई चीज़ है । इसलिए कि मानव-मस्तिष्क अपनी उम्र के किसी मरहले में भी ऐसी कोई चीज़ प्रस्तुत नहीं कर सकता जिसके विकास और प्रगति की खुली निशानियाँ उससे पहले के मरहलों में न पाई जाती हों।
दूसरी बात जो आपके पिछले जीवन में बिल्कुल स्पष्ट और पूरे समाज में प्रसिद्ध और मान्यता प्राप्त थी, वह आपकी सच्चाई और अमानतदारी है। आपको नबी बनाने से [कुछ ही वर्ष पहले, हजरे अस्वद (काला पत्थर) को लगाने के मामले के समय] अल्लाह तआला पूरे क़ुरैश कबीले से भरी सभा में आपके ‘अमीन’ (अमानतदार) होने की गवाही ले चुका था। अब यह गुमान करने की क्या गुंजाइश थी कि जिस आदमी ने पूरी उम्र कभी अपने जीवन के किसी छोटे-से-छोटे मामले में भी झूठ, छल और धोखे से काम न लिया था, वह यकायकी इतना बड़ा झूठ और ऐसे जोरदार छल और धोखे से काम लेकर उठ खड़ा हुआ कि अपने मन से कुछ बातें गढ़ीं और उनको पूरे बल और शक्ति के साथ अल्लाह से जोड़ने लगा।
فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ كَذَّبَ بِـَٔايَٰتِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ 16
(17) फिर उससे बढ़कर ज़ालिम और कौन होगा जो एक झूठी बात गढ़कर अल्लाह से जोड़े या अल्लाह की आयतों को झूठा क़रार दे ।22 निश्चित रूप से अपराधी कभी सफलता नहीं प्राप्त कर सकते।23
22. अर्थात् अगर ये आयतें अल्लाह की नहीं हैं और मैं उन्हें स्वयं रचकर अल्लाह की आयतों की हैसियत से पेश कर रहा हूँ तो मुझसे बड़ा अत्याचारी कोई नहीं, और अगर यह सच में अल्लाह की आयतें हैं और तुम इनको झुठला रहे हो तो फिर तुमसे बड़ा भी कोई ज़ालिम नहीं।
23. यह बात कि “ अपराधी सफलता नहीं प्राप्त कर सकते" यहाँ इस अर्थ में कही गई है कि “मैं पूरे विश्वास के साथ जानता हूँ कि अपराधियों को सफलता नहीं प्राप्त हो सकती, इसलिए मैं स्वयं तो यह अपराध नहीं कर सकता कि नुबूवत का झूठा दावा करूँ, अलबत्ता तुम्हारे बारे में मुझे विश्वास है कि तुम सच्चे नबी की झुठलाने का अपराध कर रहे हो, इसलिए तुम्हें सफलता प्राप्त नहीं होगी।” 'फ़लाह' (सफलता) एक क़ुरआनी शब्द है और इससे तात्पर्य वह सुदृढ़ सफलता है जिसमें किसी प्रकार के घाटे की संभावना न हो, इससे हटकर कि दुनिया की जिन्दगी के इस आरंभिक मरहले में उसके भीतर सफलता का कोई पहलू हो या न हो। हो सकता है कि एक गुमराही का बुलावा देनेवाला दुनिया में खूब फले-फूले और उसकी गुमराही को बड़ी तरक्की मिले, मगर यह कुरआन के शब्दों में फलाह' नहीं, मात्र घाटा है। और यह भी हो सकता है कि सत्य की ओर बुलानेवाला एक व्यक्ति दुनिया में भारी विपदाओं का शिकार हो, कष्टों की तीव्रता से निढाल होकर या जालिमों के ज़ल्म का शिकार होकर दुनिया से जल्दी विदा हो जाए और कोई उसे मानकर न दे,मगर यह क़ुरआन की भाषा में घाटा नहीं, साक्षात सफलता है।
وَيَقُولُونَ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ ءَايَةٞ مِّن رَّبِّهِۦۖ فَقُلۡ إِنَّمَا ٱلۡغَيۡبُ لِلَّهِ فَٱنتَظِرُوٓاْ إِنِّي مَعَكُم مِّنَ ٱلۡمُنتَظِرِينَ 19
(20) और यह जो वे कहते हैं कि इस नबी पर उसके रब की ओर से कोई निशानी क्यों न उतारी गई,27 तो इनसे कहो, " ग़ैब " (परोक्ष) का स्वामी व अधिकारी तो अल्लाह ही है, अच्छा, इन्तिज़ार करो, मैं भी तुम्हारे साथ इन्तिज़ार करता हूँ।"28
27. अर्थात् इस बात की निशानी कि वास्तव में यह नबी सत्य पर है और जो कुछ प्रस्तुत कर रहा है, वह बिल्कुल ठीक है। इस सिलसिले में यह बात दृष्टि में रहे कि निशानी के लिए उनकी यह माँग कुछ इस कारण न थी कि वे सच्चे दिल से सत्य-सन्देश को ग्रहण करने और उसके तकाज़ों के अनुसार अपने चरित्र को, आदतों को, रहन-सहन और सभ्यता की व्यवस्था को, तात्पर्य यह कि अपने पूरे जीवन को ढाल लेने के लिए तैयार थे और बस इस वजह से ठहरे हुए थे कि नबी के समर्थन में कोई निशानी अभी उन्होंने ऐसी नहीं देखी थी जिससे उन्हें उसके नबी होने का विश्वास हो जाए। असल बात यह थी कि निशानी की यह माँग केवल ईमान न लाने के लिए एक बहाने के रूप पेश की जाती थी। जो कुछ भी उनको दिखा दिया जाता, इसके बाद वे यही कहते कि कोई निशानी तो हमें दिखाई ही नहीं गई, इसलिए कि वे ईमान नहीं लाना चाहते थे। सांसारिक जीवन के प्रत्यक्ष पहलू को अपनाने में जो स्वतंत्रता उनको प्राप्त थी कि मनोकामनाओं और चाहतों के अनुसार जिस तरह चाहें काम करें और जिस चीज़ में मज़ा या लाभ महसूस करें उसके पीछे लग जाएँ, उसको छोड़कर वे ऐसे परोक्ष तथ्यों (तौहीद व आख़िरत) को मानने के लिए तैयार न थे जिनें मान लेने के बाद उनको अपनी पूरी जीवन व्यवस्था स्थायी नैतिक नियमों के बंधन में बाँधनी पड़ जाती।
28. अर्थात् जो कुछ अल्लाह ने उतारा है वह तो मैंने पेश कर दिया और जो उसने नहीं उतारा वह मेरे और तुम्हारे लिए 'ग़ैब' है, जिसपर सिवाय अल्लाह के किसी का अधिकार नहीं, वह चाहे तो उतारे और चाहे तो न उतारे। अब अगर तुम्हारा ईमान लाना इसी पर आश्रित है कि जो कुछ अल्लाह ने नहीं उतारा है, वह उतरे तो उसके इन्तिजार में बैठे रहो । मैं भी देखूँगा कि तुम्हारा यह दुराग्रह पूरा किया जाता है या नहीं।
وَإِذَآ أَذَقۡنَا ٱلنَّاسَ رَحۡمَةٗ مِّنۢ بَعۡدِ ضَرَّآءَ مَسَّتۡهُمۡ إِذَا لَهُم مَّكۡرٞ فِيٓ ءَايَاتِنَاۚ قُلِ ٱللَّهُ أَسۡرَعُ مَكۡرًاۚ إِنَّ رُسُلَنَا يَكۡتُبُونَ مَا تَمۡكُرُونَ 20
(21) लोगों का हाल यह है कि मुसीबत के बाद जब हम उनको रहमत का मज़ा चखाते हैं तो तुरंत ही वे हमारी निशानियों के मामले में चालबाजियाँ शुरू कर देते हैं।29 इनसे कहो, "अल्लाह अपनी चाल में तुमसे ज्यादा तेज है। उसके फरिश्ते तुम्हारी सब मक्कारियों को लिख रहे हैं।30
29. यह फिर उसी अकाल की ओर संकेत है जिसका उल्लेख आयत 11-12 में हो चुका है। अर्थ यह है कि तुम निशानी आख़िर किस मुँह से माँगते हो। अभी जो अकाल तुमपर गुज़रा है, उसमें तुम अपने उन माबूदों (उपास्यों) से निराश हो गए थे जिन्हें तुमने अल्लाह के यहाँ अपना सिफ़ारिशी ठहरा रखा था और जिनके बारे में कहा करते थे कि अमुक आस्ताने की नियाज़ तो अचूक वाण है और अमुक दरगाह पर चढ़ावा चढ़ाने की देर है कि मुराद पूरी होती है। तुमने देख लिया कि इन तथाकथित उपायों के हाथ में कुछ नहीं है और सारे अधिकारों का स्वामी केवल अल्लाह है। इसी कारण तो अन्तत: तुम अल्लाह ही से दुआएँ माँगने लगे थे। क्या यह पर्याप्त निशानी न थी कि तुम्हें उस शिक्षा के सत्य पर होने का विश्वास हो जाता जो मुहम्मद (सल्ल०) तुमको दे रहे हैं ? मगर इस निशानी को देखकर तुमने क्या किया? ज्यों ही कि अकाल दूर हुआ और रहमत की वर्षा ने तुम्हारी विपदा का अन्त कर दिया, तुमने उस बला के आने और फिर उसके दूर होने के बारे में हज़ार क़िस्म की बातें बनानी करनी शुरू कर दी ताकि तौहीद के मानने से बच सको और अपने शिर्क पर जमे रह सको। अब जिन लोगों ने अपनी अन्तरात्मा को इस स्तर पर ख़राब कर लिया हो, उन्हें आख़िर कौन-सी निशानी दिखाई जाए? और उसके दिखाने का लाभ क्या है?
30. अल्लाह की चाल से तात्पर्य यह है कि अगर तुम सच्चाई को नहीं मानते और उसके अनुसार अपना रवैया ठीक नहीं करते तो वह तुम्हें इस विद्रोहपूर्ण रवैये पर चलते रहने की छूट दे देगा। तुम्हें जीते जी अपनी रोज़ी और अपनी नेमत देता रहेगा जिससे तुम्हारा जीवन-मद यूँ ही तुम्हें मस्त किए रखेगा और इस मस्ती के दौरान में जो कुछ तुम करोगे, वह सब अल्लाह के फ़रिश्ते ख़ामोशी के साथ बैठे लिखते रहेंगे, यहाँ तक कि अचानक मौत का पैग़ाम आ जाएगा और तुम अपने करतूतों का हिसाब देने के लिए धर लिए जाओगे।
فَكَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدَۢا بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمۡ إِن كُنَّا عَنۡ عِبَادَتِكُمۡ لَغَٰفِلِينَ 28
(29) हमारे और तुम्हारे बीच अल्लाह की गवाही काफ़ी है कि (तुम अगर हमारी बन्दगी करते भी थे तो) हम तुम्हारी उस बन्दगी से बिल्कुल बेख़बर थे।"37
37. अर्थात् वे तमाम फ़रिश्ते जिनको दुनिया में देवी और देवता बनाकर पूजा गया और वे तमाम जिन्न, रूहें, पुरखे, बाप-दादा, नबी, वली, शहीद आदि जिन्हें ईश्वरीय गुणों में शरीक ठहराकर वे अधिकार उन्हें दिए गए जो वास्तव में अल्लाह के अधिकार थे, वहाँ अपने पुजारियों से साफ़ कह देंगे कि हमें तो ख़बर तक न थी कि तुम हमारी बन्दगी कर रहे हो। तुम्हारी कोई दुआ, कोई विनती, कोई पुकार और फ़रियाद, कोई नज़्र व नियाज़, कोई चढ़ावे की चीज़, कोई प्रशंसा और हमारे नाम की जाप और तुम्हारा हमें सजदा करना, हमारे आस्ताने को चूमना और दरगाहों का चक्कर लगाना हम तक नहीं पहुँचा।
فَذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمُ ٱلۡحَقُّۖ فَمَاذَا بَعۡدَ ٱلۡحَقِّ إِلَّا ٱلضَّلَٰلُۖ فَأَنَّىٰ تُصۡرَفُونَ 31
(32) तब तो यही अल्लाह तुम्हारा वास्तविक रब है।38 फिर सत्य के बाद गुमराही के सिवा और क्या बाकी रह गया? आख़िर यह तुम किधर फिराये जा रहे हो?39 (33) (ऐ नबी ! देखो) इस तरह अवज्ञा करनेवालों पर
38. अर्थात् अगर ये सारे काम अल्लाह के हैं, जैसा कि तुम स्वयं मानते हो, तब तो तुम्हारा वास्तविक पालनहार, स्वामी, आका और तुम्हारी बन्दगी और इबादत का हक़दार अल्लाह ही हुआ। ये दूसरे जिनका इन कामों में कोई हिस्सा नहीं, आख़िर पालनहारी में कहाँ से शरीक हो गए?
39. ध्यान रहे कि सम्बोधन सामान्य लोगों से है और उनसे प्रश्न यह नहीं किया जा रहा है कि 'तुम किधर फिरे जाते हो ? बल्कि यह है कि 'तुम किधर फिराए जा रहे हो ?"इससे स्पष्ट है कि कोई ऐसा गुमराह करनेवाला आदमी या गिरोह मौजूद है जो लोगों को सही दिशा से हटाकर ग़लत दिशा पर फेर रहा है। इसी कारण लोगों से अपील यह की जा रही है कि तुम अंधे बनकर ग़लत रास्ता दिखानेवालों के पीछे क्यों चले जा रहे हो, अपनी गांठ की बुद्धि से काम लेकर सोचते क्यों नहीं कि जब वास्तविकता यह है तो आखिर यह तुम्हें किधर चलाया जा रहा है। प्रश्न करने की यह शैली जगह-जगह ऐसे अवसरों पर कुरआन में अपनाई गई है और हर जगह गुमराह करनेवालों का नाम लेने के बजाय उनको 'कर्म वाच्य शैली' के परदे में छिपा दिया गया है, ताकि उनसे श्रद्धा रखनेवाले ठंडे दिल से अपने मामले पर विचार कर सकें और किसी को यह कहकर उन्हें उत्तेजित करने और उनका मानसिक सन्तुलन बिगाड़ देने का मौक़ा न मिले कि देखो, ये तुम्हारे बुजुर्गों और पेशवाओं पर चोटें की जा रही हैं। इसमें प्रचार-विधि का एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु छिपा हुआ है जिससे ग़ाफ़िल न रहना चाहिए।
قُلۡ هَلۡ مِن شُرَكَآئِكُم مَّن يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥۚ قُلِ ٱللَّهُ يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥۖ فَأَنَّىٰ تُؤۡفَكُونَ 33
(34) इनसे पूछा, “तुम्हारे ठहराए हुए शरीकों में कोई है जो सृष्टि का आरंभ भी करता हो और फिर उसे दोहराए भी?" कहो, “वह केवल अल्लाह है जो सृष्टि का आरंभ भी करता है और उसे दोहराता भी?"41 फिर तुम यह किस उलटी राह पर चलाए जा रहे हो?42
41. जन्म के आरंभ के बारे में तो मुशिरक मानते ही थे कि यह केवल अल्लाह का काम है, उनके शरीकों में से किसी को इस काम में कोई भागीदारी नहीं । रहा दोबारा पैदा करना, तो स्पष्ट है कि जो आरंभ में पैदा करनेवाला है वही जन्म के इस कार्य को दोहरा भी सकता है। मगर जो आरंभ ही में पैदा करने में समर्थन हो, वह किस तरह जन्म के दोहराने में समर्थ हो सकता है । यह बात यद्यपि स्पष्ट रूप से बुद्धि में आनेवाली बात है और स्वयं मुशिकों के दिल भी भीतर से इसकी गवाही देते थे कि बात बिल्कुल ठिकाने की है, लेकिन उन्हें इसको स्वीकार करने में इस कारण संकोच था कि उसे मान लेने के बाद आख़िरत का इंकार कठिन हो जाता है। यही कारण है कि ऊपर के प्रश्नों पर तो अल्लाह ने फ़रमाया कि वे स्वयं कहेंगे कि ये काम अल्लाह के हैं, मगर यहाँ इसके बजाय नबी (सल्ल०) से इर्शाद होता है कि तुम डंके की चोट पर कहो कि जन्म को आरंभ करने और उसे दोहराने का काम भी अल्लाह ही का है।
42. अर्थात् जब तुम्हारे आरंभ का सिरा भी अल्लाह के हाथ में है और अन्त का सिरा भी उसी के हाथ में, तो स्वयं अपना हितैषी बनकर तनिक सोचो कि आखिर तुम्हें यह क्या समझाया जा रहा है कि इन दोनों सिरों के बीच में अल्लाह के सिवा किसी और को तुम्हारी बन्दगियों और नियाज़मंदियों का अधिकार पहुँच गया है।
قُلۡ هَلۡ مِن شُرَكَآئِكُم مَّن يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلۡحَقِّۚ قُلِ ٱللَّهُ يَهۡدِي لِلۡحَقِّۗ أَفَمَن يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلۡحَقِّ أَحَقُّ أَن يُتَّبَعَ أَمَّن لَّا يَهِدِّيٓ إِلَّآ أَن يُهۡدَىٰۖ فَمَا لَكُمۡ كَيۡفَ تَحۡكُمُونَ 34
(35) इनसे पूछो तुम्हारे ठहराए हुए शरोकों में कोई ऐसा भी है जो सत्य की ओर मार्गदर्शन करता हो?43 - कहो, वह केवल अल्लाह है जो सत्य की ओर मार्गदर्शन करता है। फिर भला बताओ, जो सत्य की ओर मार्गदर्शन करता है वह इसका अधिक हक़दार है कि उसका पालन किया जाए या वह जो स्वयं राह नहीं पाता, अलावा इसके कि उसको रास्ता दिखाया जाए? आख़िर तुम्हें हो क्या गया है, कैसे उलटे-उलटे फैसले करते हो?
43. यह एक बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि जिसको तनिक विस्तार में जाकर समझ लेना चाहिए। दुनिया में इंसान की ज़रूरतों का क्षेत्र केवल उसी सीमा तक सीमित नहीं है कि उसको खाने-पीने, पहनने और जीवन बिताने का सामान मुहैया हो और विपदाओं, मुसीबतों और हानियों से बह बचा रहे, बल्कि उसकी एक ज़रूरत (और वास्तव में सबसे बड़ी ज़रूरत) यह भी है कि उसे दुनिया में ज़िन्दगी गुज़ारने का सही तरीका मालूम हो और वह जाने कि अपने आप के साथ, अपनी शक्तियों और योग्यताओं के साथ उस सामग्री के साथ जो धरती पर उसके इस्तेमाल में है, उन अनगिनत इंसानों के साथ जिनको अलग-अलग हैसियतों में उसे सामना करना पड़ता है और कुल मिलाकर सृष्टि की उस व्यवस्था के साथ जिसके अधीन रहकर ही बहरहाल उसे काम करना है, वह क्या और किस तरह मामला करे जिससे उसकी ज़िन्दगी कुल मिलाकर सफल हो और उसकी कोशिशें और मेहनतें ग़लत राहों में लगकर तबाही व बर्बादी के रूप में सामने न आएँ। इसी सही तरीके का नाम 'सत्य' है और जो मार्गदर्शक इस तरीके को ओर इंसान को ले जाए वही 'सत्यवान मार्गदर्शक' है। अब कुरआन तमाम मुश्रिकों से और उन सब लोगों से जो पैग़म्बर की शिक्षा को मानने से इंकार करते हैं, यह पूछता है कि तुम अल्लाह के सिवा जिन-जिनकी बन्दगी करते हो, उनमें कोई है जो तुम्हारे लिए 'सत्य का मार्गदर्शन प्राप्त करने का साधन बनता हो या बन सकता हो?-स्पष्ट है कि इसका उत्तर न के सिवा और कुछ नहीं है, इसलिए कि इंसान अल्लाह के सिवा जिनकी बन्दगी करता है, वे दो प्रकार के हैं-
एक वे देवियाँ, देवता और जिंदा या मुर्दा इंसान जिनकी पूजा की जाती है, सो उनकी ओर तो इंसान का रुजू सिर्फ़ इस उद्देश्य के लिए होता है कि पराप्राकृतिक तरीक़े से वे उसकी ज़रूरतें पूरी करें और उसको विपदाओं से बचाएँ। रहा सत्य का मार्गदर्शन, तो वह न कभी उनकी ओर से आया, और न कभी किसी मुश्रिक ने उसके लिए उनकी ओर रुजू किया और न कोई मुश्कि यह कहता है कि उसके ये उपास्य उसे चरित्र, आचरण, संस्कृति, सभ्यता, अर्थ, राजनीति, कानून, न्याय आदि के नियम सिखाते हैं।
दूसरे वे इंसान जिनके बनाए हुए सिद्धान्तों और क़ानूनों की पैरवी और आज्ञापालन किया जाता है, सो वे मार्गदर्शक तो ज़रूर है, मगर सवाल यह है कि क्या सच में वे सत्य के मार्गदर्शक' भी हैं या हो सकते हैं? क्या उनमें से किसी का ज्ञान भी उन तमाम तथ्यों तक व्याप्त है जिनको जानना इंसानी ज़िन्दगी के सही नियम बनाने के लिए ज़रूरी है ? क्या इनमें से किसी की नज़र भी इस पूरे क्षेत्र पर फैलती है जिसमें मानव-जीवन से ताल्लुक रखनेवाली समस्याएँ फैली हुई हैं ? क्या इनमें से कोई भी उन कमज़ोरियों से, उन पक्षपातों से, उन निजी या गिरोही रुचियों से, उन स्वार्थों और कामनाओं से और उन रुझानों और झुकावों से उच्च है जो इंसानी समाज के लिए न्यायपूर्ण कानूनों के बनाने में रुकावट बनते हैं। अगर उत्तर नहीं में है, और स्पष्ट है कि कोई सही दिमाग़वाला आदमी इन प्रश्नों का उत्तर हाँ में नहीं दे सकता, तो आख़िर ये लोग 'सत्य-मार्गदर्शन' का स्रोत कैसे हो सकते हैं?
इसी कारण क़ुरआन यह प्रश्न करता है कि लोगो ! तुम्हारे इन धार्मिक उपास्यों और सांस्कृतिक उपास्यों में कोई ऐसा भी है जो सीधे रास्ते की ओर तुम्हारा मार्गदर्शन करनेवाला हो ? ऊपर के प्रश्नों के साथ मिलकर यह अन्तिम प्रश्न दीन व मज़हब (धर्म) के पूरे मसले का फैसला कर देता है। इंसान की सारी ज़रूरतें दो ही प्रकार की हैं-
एक प्रकार की ज़रूरतें ये हैं कि कोई उसका पालनहार हो, कोई शरण देनेवाला हो, कोई दुआओं का सुननेवाला और ज़रूरतों का पूरा करनेवाला हो जिसका स्थायी सहारा इस कारण-जगत् के कमज़ोर सहारों के बीच रहते हुए वह थाम सके। अतएव ऊपर के प्रश्नों ने फैसला कर दिया कि इस ज़रूरत को पूरा करनेवाला अल्लाह के सिवा कोई नहीं है।
दूसरे प्रकार को ज़रूरतें ये हैं कि कोई ऐसा रास्ता दिखानेवाला हो जो दुनिया में ज़िन्दगी बिताने के सही सिद्धान्त बताए और ज़िन्दगी के लिए जिसके दिए हुए नियमों का पालन पूरे भरोसे और सन्तोष के साथ किया जा सके। सो इस अन्तिम प्रश्न ने उसका निर्णय भी कर दिया कि वह भी केवल अल्लाह ही है। इसके बाद दुराग्रह और हठधर्मों के सिवा कोई चीज़ बाक़ी नहीं रह जाती जिसके कारण इंसान शिर्क पर आधारित धर्मों और धर्मविहीन सांस्कृतिक, नैतिक चरित्र व राजनीतिक सिद्धांतों से चिपटा रहे।
وَمِنۡهُم مَّن يُؤۡمِنُ بِهِۦ وَمِنۡهُم مَّن لَّا يُؤۡمِنُ بِهِۦۚ وَرَبُّكَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُفۡسِدِينَ 39
(40) इनमें से कुछ लोग ईमान लाएँगे और कुछ नहीं लाएँगे, और तेरा रब उन बिगाड़ पैदा करनेवालों को ख़ूब जानता है।48
48. ईमान न लानेवालों के बारे फ़रमाया जा रहा कि ‘’अल्लाह इन बिगाड़ पैदा करनेवालों को भली-भाँति जानता है।‘’ अर्थात् वे दुनिया का मुँह तो ये बाते बनाकर बन्द कर सकते है कि साहब। हमारी समझ में यह बात नहीं आती, इसलिए हम नेक नीयती के साथ उसे नहीं मानते, लेकिन अल्लाह जो मन और अंतरात्मा के छिपे हुए भेदों तक को जानता है, वह इसमें से एक-एक व्यक्ति के बारे में जानता है कि किस-किस तरह उसने अपने दिल व दिमाग़ पर ताले चढ़ाए, अपने आपको ग़फ़लतों में गुम किया, अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को दबाया, अपने दिल में सत्य की गवाही को उभरने से रोका, अपने मन से सत्य स्वीकार करने की क्षमता को मिटाया, सुनकर न सुना, समझते हुए न समझने की कोशिश की और सत्य के मुक़ाबले में अपने पक्षपातों को, अपने सांसारिक स्वार्थ को, असत्य से उलझे हुए अपने स्वार्थो को और अपने मन की इच्छाओ और रूचि को प्राथमिकता दी। इसी कारण वे ‘निर्दोष पथ- भ्र्स्ट ‘ नहीं हैं, बल्कि वास्तव में उपद्रवी हैं।
وَلِكُلِّ أُمَّةٖ رَّسُولٞۖ فَإِذَا جَآءَ رَسُولُهُمۡ قُضِيَ بَيۡنَهُم بِٱلۡقِسۡطِ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ 46
(47) हर उम्मत (समुदाय) के लिए एक रसूल है55, फिर जब किसी उम्मत के पास उसका रसूल आ जाता है तो उसका फ़ैसला पूरे न्याय के साथ चुका दिया जाता है और उसपर कण-भर भी ज़ुल्म नहीं किया जाता।56
55. 'उम्मत' (समुदाय) का शब्द यहाँ सिर्फ़ क़ौम के अर्थ में नहीं है, बल्कि एक रसूल के आने के बाद उसका सन्देश जिन-जिन लोगों तक पहुँचे, वे सब उसकी 'उम्मत' हैं। साथ ही इसके लिए यह भी ज़रूरी नहीं है कि रसूल उनके बीच ज़िन्दा मौजूद हो, बल्कि रसूल के बाद भी जब तक उसकी शिक्षा मौजूद रहे और हर आदमी के लिए यह मालूम करना संभव हो कि वह वास्तव में किस चीज़ की शिक्षा देता था, उस समय तक दुनिया के सब लोग उसकी 'उम्मत' ही समझे जाएंगे और उनपर वह आदेश लागू होगा जिसका आगे उल्लेख किया जा रहा है। इस दृष्टि से मुहम्मद (सल्ल०) के तशरीफ़ लाने के बाद तमाम दुनिया के इंसान आपकी ‘उम्मत’ हैं और उस समय तक रहेंगे जब तक क़ुरआन अपने विशुद्ध रूप में मौजूद है। इसी कारण आयत मैं यह नहीं कहा गया है कि ‘हर काम में एक रसूल हैं’, बल्कि कहा यह गया है कि ‘हर उम्मत के लिए एक रसूल है।
56. अर्थ यह है कि रसूल के सन्देश का किसी इंसानी गिरोह तक पहुँचना मानो उस गिरोह पर अल्लाह की युक्ति का पूरा हो जाना है। इसके बाद केवल निर्णय ही शेष रह जाता है, युक्ति के लिए कुछ और मोहलत की ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती, और यह निर्णय भरपूर न्याय के साथ किया जाता है। जो लोग रसूल की बात मान लें और अपना रवैया ठीक कर लें, अल्लाह की रहमत के हक़दार समझे जाते हैं और जो उसकी बात न मानें, वे अज़ाब के हक़दार हो जाते हैं, चाहे वह अज़ाब दुनिया और आख़िरत दोनों में दिया जाए या सिर्फ़ आख़िरत में।
قُل لَّآ أَمۡلِكُ لِنَفۡسِي ضَرّٗا وَلَا نَفۡعًا إِلَّا مَا شَآءَ ٱللَّهُۗ لِكُلِّ أُمَّةٍ أَجَلٌۚ إِذَا جَآءَ أَجَلُهُمۡ فَلَا يَسۡتَـٔۡخِرُونَ سَاعَةٗ وَلَا يَسۡتَقۡدِمُونَ 48
(49) कहों, "मेरे अधिकार में तो स्वयं अपना लाभ व हानि भी नहीं, सब कुछ अल्लाह की इच्छा पर आश्रित है।57 हर उम्मत के लिए मोहलत की एक मुद्दत है। जब यह मुद्दत पूरी हो जाती है तो घड़ी भर के लिए भी आगे-पीछे नहीं होती।‘’58
57. अर्थात मैंने यह कब कहा था कि यह फ़ैसला मैं चुकाऊँगा और न माननेवालों को मैं अज़ाब दूँगा। इसलिए मुझसे क्या पूछते हो कि फ़ैसला चुकाए जाने की धमकी कब पूरी होगी। धमकी तो अल्लाह ने दी है, वही फ़ैसला चुकाएगा और उसी के अधिकार में है कि फ़ैसला कब करे और किस शक्ल में उसको तुम्हारे सामने लाए।
58. अर्थ यह है कि अल्लाह जल्दबाज़ नहीं है। उसका यह तरीक़ा नहीं है कि जिस समय रसूल का सन्देश किसी आदमी या गिरोह को पहुँचा, उसी समय जो ईमान ले आया बस वह तो रहमत का हक़दार क़रार पाया और जिस किसी ने मानने से इंकार किया या मानने से संकोच किया उसपर तुरन्त अज़ाब का फ़ैसला लागू कर दिया गया। नहीं, अल्लाह का नियम यह है कि अपना सन्देश पहुँचाने के बाद वह हर आदमी को उसकी वैयक्तिक हैसियत के अनुसार और हर गिरोह और क़ौम को उसकी सामूहिक हैसियत के अनुसार सोचने-समझने सँभलने के लिए पर्याप्त समय देता है। यह मोहलत का ज़माना कभी-कभी सदियों तक लम्बा होता है और इस बात को अल्लाह ही बेहतर जानता है कि किसको कितनी मोहलत मिलनी चाहिए। फिर जब वह मोहलत जो भरपूर न्याय के साथ उसके लिए रखी गई थी, पूरी हो जाती है और वह आदमी या गिराह अपने द्रोहपूर्ण रवैये से बाज़ नहीं आता, तब अल्लाह उसपर अपना निर्णय लागू करता है। यह निर्णय का समय अल्लाह की निश्चित की हुई अवधि से न एक घड़ी पहले आ सकता है और न समय आ जाने के बाद एक क्षण के लिए टल सकता है।
قُلۡ أَرَءَيۡتُم مَّآ أَنزَلَ ٱللَّهُ لَكُم مِّن رِّزۡقٖ فَجَعَلۡتُم مِّنۡهُ حَرَامٗا وَحَلَٰلٗا قُلۡ ءَآللَّهُ أَذِنَ لَكُمۡۖ أَمۡ عَلَى ٱللَّهِ تَفۡتَرُونَ 58
(59) ऐ नबी ! इनसे कहो, “तुम लोगों ने कभी यह भी सोचा है कि जो रोज़ी 60 अल्लाह ने तुम्हारे लिए उतारी थी उसमें से तुमने स्वयं ही किसी को हराम और किसी को हलाल ठहरा लिया!’’61 इनसे पूछो, “अल्लाह ने तुम्हें इसकी अनुमति दी थी? या तुम अल्लाह पर झूठ गढ़ रहे हो??’’62
60. हिन्दी उर्दू भाषा में रिज़्क़ केवल 'खाने-पीने की चीज़ों' ही के लिए बोला जाता है। इसी कारण लोग समझते हैं कि यहाँ पकड़ केवल उस विधान की की गई है जो दस्तरख्वान (वह कपड़ा जिसपर खाना खाते हैं) की छोटी-सी दुनिया में धार्मिक संस्कारों या रस्म व रिवाज के आधार पर लोगों ने बना डाला है। इस भ्रम में अज्ञानी और सामान्य लोग ही नहीं, विद्वान तक हैं, हालाँकि अरबी भाषा में 'रिज़्क़' (रोज़ी) केवल भोजन और खाने-पीने ही की चीज़ों तक सीमित नहीं है, बल्कि दान-प्रदान और भाग्य के अर्थ में सामान्य रूप से प्रयुक्त होता है। अल्लाह ने जो कुछ भी दुनिया में इंसान को दिया है, वह सब उसका ‘रिज़्क़’ (रोज़ी) है, यहाँ तक कि औलाद भी रिज्क है। अस्माउरिजाल (रिवायत करनेवालों से संबंधित ज्ञान) की किताबों में अधिकतर रिवायत करनेवालों के नाम 'रिज़्क' और 'रुज़ैक़' और 'रिज़्कुल्लाह' मिलते हैं, जिसका अर्थ लगभग वही है जो हिन्दी-उर्दू में 'अल्लाह' दिए का अर्थ है । मशहूर दुआ है- अल्लाहुम-म अरिनल हक़-क़-हक़्क़ँव-वरज़ुक़-ना इत्तिबा-अहू' अर्थात हमपर सत्य खोल और हमें उसके पालन का सौभाग्य प्रदान कर। मुहावरे में बोला जाता है 'रुज़ि-क़-इल्मन' (अमुक व्यक्ति को ज्ञान दिया गया है)। हदीस में है कि अल्लाह हर गर्भवती के पेट में एक फ़रिश्ता भेजता है और वह पैदा होनेवाले का 'रिज़्क' और उसकी उम्र को मुद्दत और उसका काम लिख देता है। स्पष्ट है कि यहाँ रिज़्क से तात्पर्य केवल वह भोजन ही नहीं है जो उस बच्चे को आगे मिलनेवाला है, बल्कि वह सब कुछ है जो उसे दुनिया में दिया जाएगा। स्वयं क़ुरआन में है 'व मिम्मा-र-ज़क-नाहुम युनफ़िकून' जो कुछ हमने उनको दिया है उसमें से ख़र्च करते हैं। अत: रोज़ी को सिर्फ़ दस्तरख़्वान की सीमाओं तक सीमित समझना और यह विचार रखना कि अल्लाह को सिर्फ़ उन पाबन्दियों और आज़ादियों पर आपत्ति है जो खाने-पीने की चीज़ों के मामले में लोगों ने अपने आप अपना ली हैं, भारी ग़लती है और यह कोई साधारण ग़लती नहीं है। इसकी वजह से अल्लाह के दीन की एक बहुत बड़ी सैद्धान्तिक शिक्षा लोगों की निगाहों से ओझल हो गई है। यह उसी ग़लती का तो नतीजा है कि खाने-पीने की चीज़ों में हलाल व हराम और जाइज़ व नाजाइज़ का मामला तो एक दीनी मामला समझा जाता है, लेकिन सभ्यता के फैले हुए मामलों में अगर यह तय कर लिया जाए कि इंसान स्वयं अपने लिए सीमाएँ निर्धारित करने का अधिकार रखता है और इसी आधार पर अल्लाह और उसकी किताब से उदासीन होकर विधान बनाया जाने लगे, तो सामान्य लोग तो बड़ी बात, दीनी आलिमों, शरीयत के आधार पर फतवा देने वालों, क़ुरआन के टीकाकारों और हदीस के विशेषज्ञों तक को यह एहसास नहीं होता कि यह चीज़ भी दीन से उसी तरह टकराती है जिस तरह खाने-पीने की चीज़ों में अल्लाह की शरीअत से आजाद होकर जाइज़ व नाजाइज़ की सीमाएं अपने आप निश्चित कर लेना।
61. अर्थात् तुम्हें कुछ एहसास भी है कि यह कितना बड़ा द्रोहपूर्ण अपराध है जो तुम कर रहे हो। रोज़ी अल्लाह की है और तुम स्वयं अल्लाह के हो, फिर यह अधिकार आख़िर तुम्हें कहाँ से मिल गया कि अल्लाह की मिल्कियत में अपने इस्तेमाल और फायदे के लिए स्वयं हदबन्दियाँ निश्चित करो । मामूली नौकर अगर यह दावा करे कि स्वामी के माल में अपने इस्तेमाल और अधिकार की सीमाएँ उसे स्वयं निश्चित कर लेने का अधिकार है और इस मामले में स्वामी के कुछ बोलने की सिरे से कोई ज़रूरत ही नहीं है, तो इसके बारे में तुम्हारी क्या राय है ? तुम्हारा अपना नौकर अगर तुम्हारे घर में और तुम्हारे घर की सब चीज़ों में अपने कार्य और इस्तेमाल के लिए इस स्वतंत्रता और स्वाधिकार का दावा करे तो तुम उसके साथ क्या मामला करोगे? -उस नौकर का मामला तो दूसरा ही है जो सिरे से यही नहीं मानता कि वह किसी का नौकर है और कोई उसका स्वामी भी है और यह किसी और का माल है जो उसके इस्तेमाल में है। उस बदमाश लुटेरे की स्थिति पर यहाँ वार्ता नहीं हो रही है। यहाँ प्रश्न उस नौकर की स्थिति का है जो स्वयं मान रहा है कि वह किसी का नौकर है और यह भी मानता है कि माल उसी का है जिसका वह नौकर है और फिर कहता है कि इस माल में अपने प्रयोग की सीमाएँ निश्चित कर लेने का अधिकार मुझे आप ही प्राप्त है और स्वामी से कुछ पूछने की ज़रूरत नहीं है।
وَمَا تَكُونُ فِي شَأۡنٖ وَمَا تَتۡلُواْ مِنۡهُ مِن قُرۡءَانٖ وَلَا تَعۡمَلُونَ مِنۡ عَمَلٍ إِلَّا كُنَّا عَلَيۡكُمۡ شُهُودًا إِذۡ تُفِيضُونَ فِيهِۚ وَمَا يَعۡزُبُ عَن رَّبِّكَ مِن مِّثۡقَالِ ذَرَّةٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا فِي ٱلسَّمَآءِ وَلَآ أَصۡغَرَ مِن ذَٰلِكَ وَلَآ أَكۡبَرَ إِلَّا فِي كِتَٰبٖ مُّبِينٍ 60
(61) ऐ नबी ! तुम जिस हाल में भी होते हो और क़ुरआन में से जो कुछ भी सुनाते हो, और लोगो, तुम भी जो कुछ करते हो, उस सबके दौरान में हम तुमको देखते रहते हैं। कोई कण-भर चीज़ आसमान और जमीन में ऐसी नहीं है, न छोटी, न बड़ी, जो तेरे रब की नज़र से छिपी हो और एक साफ़ दफ्तर में अंकित न हो।64
64. यहाँ इस बात का उल्लेख करने से अभिप्रेत नबी को तसल्ली देना और नबी के विरोधियों को सचेत करना है। एक ओर नबी से कहा जा रहा है कि सत्य के सन्देश का प्रचार और अल्लाह के बन्दों के सुधार में जिस तन्मयता और दृढ़ता और जिस धैर्य और सहनशीलता से तुम काम कर रहे हो, वह हमारी दृष्टि में है । ऐसा नहीं है कि इस ख़तरा भरे काम पर लगाकर हमने तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़ दिया हो, जो कुछ तुम कर रहे हो वह भी हम देख रहे हैं और जो कुछ तुम्हारे साथ हो रहा है उससे भी हम बेखबर नहीं हैं। दूसरी ओर नबी के विरोधियों को सचेत किया जा रहा है कि सत्य के एक आवाहक और इन्सानों के हितैषी के सुधार प्रयत्नो में रोड़े अटकाकर तुम कहीं यह न समझ लेना कि कोई तुम्हारी इन हरकतों को देखनेवाला नहीं है और कभी तुम्हारे इन करतूतों की पूछ-गछ न होगी। ख़बरदार रहो, वह सब कुछ जो तुम कर रहे हो, अल्लाह के दफ्तर में लिखा जा रहा है।
هُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ لِتَسۡكُنُواْ فِيهِ وَٱلنَّهَارَ مُبۡصِرًاۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَسۡمَعُونَ 66
(67) वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हारे लिए रात बनाई कि उसमें शान्ति प्राप्त करो और दिन को रौशन बनाया। इसमें निशानियाँ है उन लोगों के लिए जो (खुले कानों से पैग़म्बर के संदेश) को सुनते हैं।65
65. यह एक ऐसा विषय है जो व्याख्या चाहता है। जिसे बहुत ही संक्षिप्त शब्दों में वर्णन किया गया है। दार्शनिक जिज्ञासा, जिसका उद्देश्य यह पता चलाना है कि इस सृष्टि में प्रत्यक्ष रूप से जो कुछ हम देखते और अनुभव करते हैं उसके पीछे कोई वास्तविकता है या नहीं और है तो वह क्या है, दुनिया में उन सब लोगों के लिए जो 'वह्य' (प्रकाशना) व 'इल्हाम' से सीधा सत्य ज्ञान नहीं पाते, धर्म के बारे में राय बनाने का एकमात्र साधन है। कोई व्यक्ति भी, चाहे वह अनीश्वरवाद अपनाए या शिर्क या ईश्वरवाद, बहरहाल एक न एक प्रकार के दार्शनिक जिज्ञासा को रखे बिना धर्म के बारे में किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सकता और पैग़म्बरों ने जो धर्म प्रस्तुत किया है, उसकी जाँच भी अगर हो सकती है, तो इसी तरह हो सकती है कि आदमी अपनी शक्ति भर, दार्शनिक चिन्तन-मनन करके, सन्तोष प्राप्त करने का यत्न करे कि पैग़म्बर हमें सृष्टि की प्रत्यक्ष चीज़ों के पीछे जिस वास्तविकता के छिपे होने का पता दे रहे हैं, वह दिल को लगती है या नहीं । इस जिज्ञासा को सही या गलत होना, पूरे का पूरा जिज्ञासा-विधि पर आश्रित है । इसके ग़लत होने से गलत राय और सही होने से सही राय बनती है। अब तनिक समीक्षा करके देखिए कि दुनिया में अलग-अलग गिरोहों ने इस जिज्ञासा के लिए कौन-कौन से तरीके अपनाए हैं-
मुश्किों ने पूर्णतः अंधविश्वास के आधार पर अपनी खोज की बुनियाद रखी है।
इशराक़ियों और योगियों ने यद्यपि मुराक़बा (ध्यान-मान) का ढोंग रचाया है और दावा किया है कि हम प्रत्यक्ष के पीछे झाँककर परोक्ष का अवलोकन कर लेते हैं, लेकिन सच तो यह है कि उन्होंने अपनी इस खोज को नींव अटकल पर रखी है। वह 'मुराक़बा' वास्तव में अपने अटकल का करते हैं और जो कुछ वे कहते हैं कि हमें दिखाई देता है। उसकी वास्तविकता इसके सिवा कुछ नहीं है कि अटकल से जो विचार उन्होंने बना लिया है, उसी पर ध्यान को जमा देने और फिर उसपर मन का दबाव डालने से उनको वही विचार चलता-फिरता दिखाई पड़ने लगता है।
पारिभाषिक दर्शनिकों ने कियास को शोध का आधार बनाया है जो वास्तव में तो गुमान (अटकल) ही है, लेकिन इस गुमान के लंगड़ेपन को महसूस करके उन्होंने तार्किक प्रमाण और कृत्रिम बौद्धिकता की बैसाखियों पर उसे चलाने का यत्न किया है और इसका नाम 'क़ियास' रख दिया है।
वैज्ञानिकों ने यद्यपि विज्ञान के क्षेत्र में शोध के लिए ज्ञानात्मक विधि अपनाई मगर पराप्राकृतिक सीमाओं में क़दम रखते ही वे भी ज्ञानात्मक विधियों को छोड़कर अटकल गुमान और अनुमान और तार्किक प्रमाण के पीछे चल पड़े।
फिर इन सब गिरोहों के अंधविश्वास और अटकलों को किसी न किसी तरह पक्षपात का रोग भी लग गया जिसने उन्हें दूसरे की बात न सुनने और अपने ही प्रिय मार्ग पर मुड़ने और मुड़ जाने के बाद मुड़े रहने पर विवश कर दिया।
क़ुरआन जिज्ञासा की इस विधि को मूल रूप से ग़लत क़रार देता है। वह कहता है कि तुम लोगों को गुमराही का मूल कारण यही है कि तुम सत्य की खोज का आधार गुमान और अटकल पर रखते हो और फिर पक्षपात की वजह से किसी की समुचित बात सुनने के लिए भी तैयार नहीं होते। इसी दोहरी ग़लती का परिणाम यह है कि तुम्हारे लिए स्वयं सच्चाई को पा लेना तो असंभव था ही, नबियों के लाए हुए दीन को जाँचकर सही राय पर पहुँचना भी असंभव हो गया। इसके मुकाबले में कुरआन दार्शनिक शोध के लिए सही ज्ञानात्मक और बुद्धिपरक तरीक़ा यह बताता है कि पहले तुम वास्तविकता के बारे में उन लोगों का वर्णन खुले कानों से, बिना पक्षपात के, सुनो जो दावा करते हैं कि हम अटकल या 'मुराक़बा' के आधार पर नहीं, बल्कि 'ज्ञान' के आधार पर तुम्हें बता रहे हैं कि वास्तविकता यह है। फिर सृष्टि में जो 'निशानियाँ, तुम्हारे देखने और अनुभव में आती हैं, उनपर विचार करो, उनको गवाहियों को एक क्रम लगाकर देखो और खोजते चले जाओ कि इस प्रत्यक्ष के पीछे जिस वास्तविकता की निशानदेही ये लोग कर रहे हैं, उसकी ओर संकेत करनेवाली निशानियाँ तुम्हें इस प्रत्यक्ष में मिलती हैं या नहीं। अगर ऐसी निशानियाँ नज़र आएँ और उनके संकेत भी स्पष्ट हों, तो फिर कोई कारण नहीं कि तुम खामखाह उन लोगों को झुठलाओ जिनका बयान अवशेष चिों की गवाहियों के अनुसार पाया जा रहा है-यही विधि इस्लामी दर्शन का आधार है, जिसे छोड़कर अफसोस है कि मुसलमान दार्शनिक अफ़लातून व अरस्तू के पदचिह्नों पर चल पड़े। क़ुरआन में जगह-जगह न केवल इस विचार पद्धति पर उभारा गया है, बल्कि स्वयं सृष्टि की निशानियों को प्रस्तुत करके उनसे परिणाम निकालने और वास्तविकता तक पहुँचने की मानो विधिवत ट्रेनिंग दी गई है, ताकि सोचने और खोजने की यह विधि मन में बैठ जाए। चुनांचे इस आयत में भी उदाहरण के रूप में केवल दो निशानियों की ओर ध्यान आकृष्ट कराया गया है, अर्थात रात और दिन । रात और दिन का यह बारी-बारी आना-जाना वास्तव में सूर्य और धरती के संबंधों में अत्यंत विधिवत परिवर्तन के कारण होता है। यह एक विश्वव्यापी व्यवस्थापक और सारी सृष्टि पर आच्छादित सत्ताधारी शासक के अस्तित्व की खुली निशानी है। इसमें खुली तत्त्वदर्शिता और स्पष्ट उद्देश्य भी दिखाई पड़ता है, क्योंकि पृथ्वी पर मौजूद तमाम चीज़ों के हित इसी रात और दिन के आने-जाने के साथ जुड़े हुए हैं। इसमें खुली हुई पालनहारी, रहमत और परवरदिगारी की निशानियाँ भी पाई जाती हैं, क्योंकि इससे यह प्रमाण मिलता है कि जिसने धरती पर ये मौजूद चीजें पैदा की हैं, वह स्वयं ही इनके अस्तित्व की ज़रूरतें भी पूरी करता है। इससे यह भी मालूम होता है कि वह विश्वव्यापी व्यवस्थापक एक है और यह भी कि वह खिलंडरा नहीं, बल्कि तत्त्वदर्शी है और सोद्देश्य काम करता है, और यह भी कि वही उपकारी और प्रशिक्षक होने की हैसियत से बन्दगी (आज्ञापालन) का अधिकारी है और यह भी कि रात व दिन के आने-जाने के तहत जो कोई भी है, वह रब (पालनहार) नहीं, बल्कि मरबूब (पालित) है स्वामी नहीं, दास है । इन पक्की गवाहियों के मुक़ाबले में मुसिकों ने अटकल से जो धर्म गढ़ रखे हैं, वे आखिर किस तरह सही हो सकते हैं।
۞وَٱتۡلُ عَلَيۡهِمۡ نَبَأَ نُوحٍ إِذۡ قَالَ لِقَوۡمِهِۦ يَٰقَوۡمِ إِن كَانَ كَبُرَ عَلَيۡكُم مَّقَامِي وَتَذۡكِيرِي بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَعَلَى ٱللَّهِ تَوَكَّلۡتُ فَأَجۡمِعُوٓاْ أَمۡرَكُمۡ وَشُرَكَآءَكُمۡ ثُمَّ لَا يَكُنۡ أَمۡرُكُمۡ عَلَيۡكُمۡ غُمَّةٗ ثُمَّ ٱقۡضُوٓاْ إِلَيَّ وَلَا تُنظِرُونِ 70
(71) इन्हें नूह69 का क़िस्सा सुनाओ, उस समय का क़िस्सा जब उसने अपनी क़ौम से कहा था कि ‘’ऐ क़ौम के भाइयो ! अगर मेरा तुम्हारे बीच रहना और अल्लाह की आयतों को सुना-सुनाकर तुम्हें ग़फ़लत से जगाना तुम्हारे लिए असह्य हो गया है तो मेरा भरोसा अल्लाह पर है, तुम अपने उहराए हुए शरीकों को साथ लेकर एक सर्वमान्य निर्णय कर लो और जो योजना तुम्हारी दृष्टि में हो उसको ख़ूब सोच-समझ लो, ताकि उसका कोई पहलू तुम्हारी निगाह से छिपा न रहे, फिर मेरे विरुद्ध उसको व्यवहार में ले आओ और मुझे कदापि मोहलत न दो।70
69. यहाँ तक तो इन लोगों को समुचित प्रमाणों और दिल को लगनेवाले उपदेशों के साथ समझाया गया था कि उनके विश्वासों, विचारों और तरीकों में ग़लती क्या है और वह क्यों ग़लत है और उसके मुक़ाबले में सही रास्ता क्या है और वह क्यों सही है। अब उनकी उस कार्यशैली की ओर ध्यान जाता है जो वे इसे सीधे-सीधे और साफ़-साफ़ समझाने और बताने के उत्तर में अपना रहे थे। दस-ग्यारह साल से उनका रवैया यह था कि वे बजाय इसके कि इस समुचित आलोचना और सही मार्गदर्शन पर विचार करके अपनी गुमराहियों पर पुनर्दष्टि डालकर उसमें सुधार करते, उलटे उस आदमी की जान के दुश्मन हो गए थे जो इन बातों को अपने किसी निजी स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि उन्हीं के भले के लिए प्रस्तुत कर रहा था। वे तों का जवाब पत्थरों से और उपदेशों का जवाब गालियों से दे रहे थे। अपनी आबादी में ऐसे व्यक्ति का अस्तित्व उनके लिए अत्यंत अप्रिय बल्कि असहय हो गया था जो ग़लत को ग़लत कहनेवाला हो और सही बात बताने की कोशिश करता हो। उनकी मांग यह थी कि हम अंधों के बीच जो आँखोंवाला पाया जाता है, वह हमारी आँखें खोलने के बजाय अपनी आँखें भी बन्द कर ले. वरना हम ज़बरदस्ती उसकी आंखें फोड़ देंगे, ताकि देखने जैसी चीज़ हमारी धरती पर न पाई जाए। यह तरीका जो उन्होंने अपना रखा था उसपर कुछ और कहने के बजाय अल्लाह अपने नबी को आदेश देता है कि उन्हें नूह का किस्सा सुना हो। उसी किरसे में वह अपने और तुम्हारे मामले का उत्तर भी पा लेंगे।
70. यह चुनौती थी कि मैं अपने काम से बाज़ न आऊँगा, तुम मेरे विरुद्ध जो कुछ करना चाहते हो, कर गुज़रो, मेरा भरोसा अल्लाह पर है । (तुलना के लिए देखिए सूरा-11 (हूद) आयत 55)
فَمَآ ءَامَنَ لِمُوسَىٰٓ إِلَّا ذُرِّيَّةٞ مِّن قَوۡمِهِۦ عَلَىٰ خَوۡفٖ مِّن فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِمۡ أَن يَفۡتِنَهُمۡۚ وَإِنَّ فِرۡعَوۡنَ لَعَالٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَإِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلۡمُسۡرِفِينَ 82
(83) (फिर देखो कि) मूसा को उसकी क़ौम में से कुछ नौजवानों78 के सिवा किसी ने न माना79, फ़िरऔन के डर से और स्वयं अपनी क़ौम के बड़े लोगों के डर से (जिन्हें डर था कि) फ़िरऔन उनको यातना में ग्रस्त करेगा और सच तो यह है कि फ़िरऔन धरती में प्रभुत्व रखता था और वह उन लोगों में से था जो किसी सीमा पर रुकते नहीं हैं।80
78. मूल अरबी में शब्द 'ज़ुर्रीयह' प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ सन्तान है। हमने इसका अनुवाद 'नौजवान’ किया है। वास्तव में इस विशेष शब्द के प्रयोग से जो बात क़ुरआन मजीद बयान करना चाहता है वह यह है कि उस ख़तरे भरे समय में सत्य का साथ देने और सत्य के ध्वजावाहक को अपना मार्गदर्शक मान लेने की जुर्रत कुछ लड़कों और लड़कियों ने तो की, मगर माओं और बापों और क़ौम के प्रौढ़ता प्राप्त लोगों को इसका सौभाग्य प्राप्त न हुआ। उनपर अपना हित, स्वार्थ और सांसरिक लाभ कुछ इस तरह छाया रहा कि वे ऐसे सत्य का साथ देने पर तैयार न हुए, जिसका रास्ता उन्हें संकटों से भरा नज़र आ रहा था, बल्कि वे उलटे नौजवानों ही को रोकते रहे कि मूसा के करीब न जाओ, वरना तुम स्वयं भी फ़िरऔन के प्रकोप के शिकार होगे और हमपर भी आफ़त लाओगे।
यह बात मुख्य रूप से कुरआन ने उभारकर इसलिए प्रस्तुत किया है कि मक्का की आबादी में से भी मुहम्मद (सल्ल०) का साथ देने के लिए शुरू में जो लोग आगे बढ़े थे, वे कौम के बड़े-बूढ़े और प्रौढ़ता प्राप्त लोग न थे, बल्कि कुछ साहसी युवक ही थे। अली बिन अबी तालिब (रजि०), जाफ़र तैयार (रजि०), ज़ुबैर (रजि०), तलहा (रजि०), साद बिन अबी वक्कास (रजि०), मुस्अब बिन उमैर (रजि०), अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद (रजि०) जैसे लोग इस्लाम क़बूल करते समय 20 साल से कम उम्र के थे। अब्दुर्रहमान बिन औफ़ (रजि०), बिलाल (रजि०) और सुहैब (रजि०) की उम्रें 50 और 30 के बीच थीं। अबू उबैदा बिन जर्राह (रजि०), जैद बिन हारिसा (रजि०), उसमान बिन अफ़्फ़ान (रजि०) और उमर फ़ारूक़ (रजि०) 30 और 35 साल के बीच की उम्र के थे। इनसे अधिक उम्र हज़रत अबू बक्र (रजि०) की थी और उनकी उम्र भी ईमान लाने के समय 38 साल से अधिक न थी। आरंभिक मुसलमानों में केवल एक सहाबी का नाम हमें मिलता है जिनकी उम्र नबी (सल्ल०) से अधिक थी, अर्थात् हज़रत उबैदा बिन हारिस मुत्तलबी। और संभवतः पूरे गिरोह में एक ही सहाबी हुजूर (सल्ल०) की उम्र के थे अर्थात् अम्मार बिन यासिर (रजि०)।
79. मूल अरबी में फ़-मा आ-म-न लिमूसा' के शब्द हैं। इससे कुछ लोगों को सन्देह हुआ कि शायद बनी इसराईल सबके सब काफ़िर (इंकारी) थे और आरंभ में उनमें से केवल कुछ लोग ईमान लाए। लेकिन अरबी व्याकरण में ईमान के साथ जब अरबी भाषा का वर्ण “लाम” संबंधवाचक (सिला) के रूप में प्रयुक्त होता है तो वह सामान्य रूप से आज्ञापालन और समर्पण का अर्थ देता है, अर्थात् किसी की बात मानना और उसके कहे पर चलना। वास्तव में इन शब्दों का अर्थ यह है कि कुछ नौजवानों को छोड़कर बनी इसराईल की पूरी क़ौम में से कोई भी इस बात पर तैयार न हुआ कि हज़रत मूसा (अलै०) को अपना मार्गदर्शक व पेशवा मानकर उनकी पैरवी अपना लेता। फिर बाद के वाक्य ने इस बात को स्पष्ट कर दिया कि उनके इस रवैये का मूल कारण यह न था कि उन्हें हज़रत मूसा के सच्चे और उनके सन्देश के सत्य होने में कोई सन्देह था, बल्कि इसका कारण केवल यह था कि वे और मुख्य रूप से उनके बड़े, हज़रत मूसा (अलैहि०) का साथ देकर अपने आपको फ़िरऔन की क्रूरता के खतरे में डालने के लिए तैयार न थे। [इसी बात की ओर सूरा-7 (आराफ़) की आयत 129 'ऊज़ीना मिन क़ब्लिअन ताति-य-ना- [अर्थात् तेरे आने से पहले भी हम सताए जाते थे-] में भी संकेत किया गया है और इसका विवरण बाइबिल की किताब निर्गमन (16 : 20-21) में, में देखा जा सकता है।
فَقَالُواْ عَلَى ٱللَّهِ تَوَكَّلۡنَا رَبَّنَا لَا تَجۡعَلۡنَا فِتۡنَةٗ لِّلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ 84
(85) उन्होंने उत्तर दिया82, “हमने अल्लाह ही पर भरोसा किया, ऐ हमारे रब ! हमें ज़ालिम लोगों के लिए फ़ित्ना83 न बना
82. यह उत्तर उन नौजवानों का था जो मूसा (अलैहि०) का साथ देने पर तैयार हुए थे। यहाँ 'कालू' (उन्होंने उत्तर दिया) से मुराद क़ौम नहीं, बल्कि जुर्रियत (कुछ नौजवान) हैं जैसा कि प्रसंग बता रहा है।
83. उन सच्चे ईमानवाले नौजवानों की यह दुआ कि 'हमें ज़ालिम लोगों के लिए फ़िल्ला न बना' बड़ा व्यापक अर्थ रखती है। पथभ्रष्टता के सामान्य रूप से छा जाने की स्थिति में जब कुछ लोग सत्य की स्थापना के लिए उठते हैं तो उन्हें विभिन्न प्रकार के ज़ालिमों का सामना करना पड़ता है और उन सत्य का आह्वान करनेवालों की हर विफलता, हर मुसीबत, हर ग़लती, हर कमज़ोरी और हर कमी उन विभिन्न गिरोहों के लिए विविध रूप में फ़िला बन जाती है। [और वे उसे उनके असत्य पर होने की दलील ठहराने लगते हैं। अतः यह बड़ी ही व्यापक दुआ थी जो मूसा (अलैहि०) के इन साथियों ने मांगी थी कि ऐ अल्लाह । हमपर ऐसी कृपा कर कि हम ज़ालिमों के लिए 'फ़िला' (आज़माइश) बनकर न रह जाएँ, अर्थात् हमें ग़लतियों से, कमज़ोरियों से, कर्मियों से बचा और हमारी कोशिश को दुनिया में परवान चढ़ा, ताकि हमारा अस्तित्त्व तेरे बन्दों के लिए भलाई का कारण बने, न कि ज़ालिमों के लिए दुष्टता का साधन ।
وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰ وَأَخِيهِ أَن تَبَوَّءَا لِقَوۡمِكُمَا بِمِصۡرَ بُيُوتٗا وَٱجۡعَلُواْ بُيُوتَكُمۡ قِبۡلَةٗ وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ 86
(87) और हमने मूसा और उसके भाई को इशारा किया कि “मिस्र में कुछ मकान अपनी क़ौम के लिए प्राप्त कर लो और अपने उन मकानों को किल्ला ठहरा लो और नमाज़ क़ायम करो 84 और ईमानवालों को शुभ-सूचना दे दो।‘’85
84. इस आयत के अर्थ में टीकाकारों के बीच मतभेद है। उसके शब्दों पर और उस वातावरण पर, जिसमें ये शब्द कहे गए थे, विचार करने से मैं यह समझा हूँ कि शायद मिस्र में सत्ता पक्ष ने हिंसा करके और स्वयं बनी इसराईल की अपनी ईमानी कमज़ोरी की वजह से इसराईली और मिस्री मुसलमानों के यहाँ जमाअत से नमाज़ की व्यवस्था समाप्त हो चुकी थी, और यह उनके एका के बिखरने और उनकी धार्मिक आत्मा पर मौत छा जाने का एक बहुत बड़ा कारण थी। इसलिए हज़रत मूसा (अलै०) को आदेश दिया गया कि इस व्यवस्था को नए सिरे से स्थापित करें और मिस्र में कुछ मकान इस उद्देश्य के लिए प्राप्त कर लें या बना लें कि वहाँ सामूहिक रूप से नमाज़ अदा कर ली जाया करे। क्योंकि एक बिगड़ी हुई और बिखरी हुई मुसलमान क़ौम में धार्मिक आत्मा को फिर से जीवित करने और उसकी बिखरी शक्ति को नए सिरे से बहाल करने के लिए इस्लामी ढंग से जो कोशिश भी की जाएगी उसका पहला कदम अनिवार्य रूप से यही होगा कि उसमें जमाअत के साथ नमाज़ की व्यवस्था स्थापित की जाए । इन मकानों को क़िब्ला ठहराने का अर्थ मेरे नज़दीक यह है कि इन मकानों को सारी कौम के लिए केन्द्र और रक्षा-स्थल ठहराया जाए, और उसके बाद ही 'नमाज़ स्थापित करो' कहने का अर्थ यह है कि अलग-अलग अपनी-अपनी जगह नमाज़ पढ़ लेने के बजाय लोग उन निर्धारित स्थानों पर जमा होकर नमाज़ पढ़ा करें, क्योंकि क़ुरआन की पारिभाषिक शब्दावली में 'नमाज़ स्थापित करना' जिस चीज़ का नाम है उसके अर्थ में अनिवार्य रूप से जमाअत से नमाज़ भी शामिल है।
85. अर्थात् ईमानवालों पर निराशा सत्ता पक्ष का आतंक और खिन्नता की जो मनोदशा इस समय छाई हुई है उसे दूर करो, उन्हें आशावान बनाओ, उनकी हिम्मत बँधाओ और उनका मनोबल ऊंचा करो, 'शुभ-सूचना' देने के शब्द में ये सभी अर्थ समाहित हैं।
وَلَقَدۡ بَوَّأۡنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ مُبَوَّأَ صِدۡقٖ وَرَزَقۡنَٰهُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ فَمَا ٱخۡتَلَفُواْ حَتَّىٰ جَآءَهُمُ ٱلۡعِلۡمُۚ إِنَّ رَبَّكَ يَقۡضِي بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ 92
(93) हमने बनी इसराईल को बहुत अच्छा ठिकाना दिया94 और जीवन के बड़े साधन उन्हें दिए। फिर उन्होंने आपस में मतभेद नहीं किया, मगर उस समय जबकि ज्ञान उनके पास आ चुका था।95 निश्चित रूप से तेरा रब कियामत के दिन उनके बीच उस चीज़ का निर्णय कर देगा जिसमें वे मतभेद करते रहे हैं।
94. अर्थात् मिस्र से निकलने के बाद फ़िलस्तीन की धरती।
95. अर्थ यह है कि बाद में उन्होंने अपने धर्म में जो विभेद पैदा किए और नए-नए धर्म निकाले उसका कारण यह नहीं था कि उनको वास्तविकता का ज्ञान नहीं दिया गया था और न जानने के कारण उन्होंने विवश होकर ऐसा किया, बल्कि वास्तव में यह सब कुछ उनके अपने मन की दुष्टता का परिणाम था। अल्लाह की ओर से तो उन्हें खुलकर बता दिया गया था कि सत्य धर्म यह है, ये उसके नियम हैं, ये उसके तकाज़े और माँगें हैं, ये कुफ़्र और इस्लाम के अन्तर को स्पष्ट करनेवाली सीमाएँ हैं, आज्ञापालन इसको कहते हैं, अवज्ञा इसका नाम है, इन चीज़ों की पूछताछ अल्लाह के यहाँ होनी है, और ये वे नियम हैं, जिनपर दुनिया में तुम्हारी ज़िन्दगी स्थापित होनी चाहिए। मगर इन स्पष्ट निर्देशों के बाद भी उन्होंने एक धर्म के बीसियों धर्म बना डाले और अल्लाह की दी हुई बुनियादों को छोड़कर कुछ दूसरी ही बुनियादों पर अपने धर्म-सम्प्रदायों की इमारतें खड़ी कर ली।
فَلَوۡلَا كَانَتۡ قَرۡيَةٌ ءَامَنَتۡ فَنَفَعَهَآ إِيمَٰنُهَآ إِلَّا قَوۡمَ يُونُسَ لَمَّآ ءَامَنُواْ كَشَفۡنَا عَنۡهُمۡ عَذَابَ ٱلۡخِزۡيِ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَمَتَّعۡنَٰهُمۡ إِلَىٰ حِينٖ 97
(98) फिर क्या ऐसा कोई उदाहरण है कि एक बस्ती अज़ाब देखकर ईमान लाई हो और उसका ईमान उसके लिए लाभप्रद सिद्ध हुआ हो ? यूनुस की क़ौम के सिवा 98 (इसकी कोई उपमा नहीं), वह क़ौम जब ईमान ले आई थी तो अलबत्ता हमने उसपर से दुनिया की ज़िन्दगी में रुसवाई का अज़ाब टाल दिया था 99 और उसको एक समय तक ज़िन्दगी से लाभान्वित होने का अवसर दे दिया था।100
98. यूनुस अलैहिस्सलाम (जिनका नाम बाइबल में यूनाह है और जिनका समय 860-784 ई० पू० के बीच बताया जाता है) यद्यपि इसराईली नबी थे, मगर उनको अशूर (असीरिया) वालों के मार्गदर्शन के लिए इराक़ भेजा गया था और इसी आधार पर अशरियों को यहाँ यूनुस की क़ौम' कहा गया है। इस क़ौम का केन्द्र उस समय में नैनवा का प्रसिद्ध नगर था जिसके फैले हुए खंडहर आज तक दजला नदी के पूर्वी किनारे पर वर्तमान नगर मूसल के ठीक सामने पाए जाते हैं और इसी क्षेत्र में 'यूनुस नबी' के नाम से एक स्थान भी मौजूद है। इस क़ौम के उत्थान का अनुमान इनसे हो सकता है कि इसकी राजधानी नैनवा लगभग साठ मील की दूरी में फैला हुआ था।
99. क़ुरआन में इस किस्से की और तीन जगह केवल संकेत किए गए हैं, कोई विस्तृत विवरण नहीं दिया गया (देखिए सूरा-21 अंबिया, आयत 87-88; सूरा-37 अस्साफ़्फात, आयत 139-148; सूरा-68, अल-क़लम, आयत 48-50)। इसलिए विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता कि यह क़ौम किन प्रमुख कारणों के आधार पर अल्लाह के इस नियम से मुक्त रखी गई कि अज़ाब का निर्णय हो जाने के बाद किसी का ईमान उसके लिए लाभप्रद नहीं होता। फिर भी कुरआन के संकेत और यूनुस के सहीफ़ा (ग्रन्थ) के विस्तृत विवेचनों पर विचार करने से वही बात सही मालूम होती है जो क़ुरआन के टीकाकारों ने वर्णन किया है कि हज़रत यूनुस (अलैहि०) चूँकि अज़ाब की सूचना देने के बाद अल्लाह की इजाज़त के बिना अपनी जगह छोड़कर चले गए थे, इसलिए जब अज़ाब की निशानियाँ देखकर आशूरियों ने तौबा व इस्तिग़फ़ार की तो अल्लाह ने उन्हें क्षमा कर दिया। कुरआन मजीद में अल्लाह के विधान के जो नियम वर्णन किए गए हैं, उनमें से एक स्थाई धारा यह भी है कि अल्लाह किसी कौम को उस समय तक अज़ाब नहीं देता जब तक उसपर अपनो युक्ति पूरी नहीं कर लेता। अतः जब नबी ने उस कौम की मोहलत के अन्तिम क्षणों तक रसूल होने की ज़िम्मेदारी पूरी न की और अल्लाह के निर्धारित समय से पहले स्वयं ही अपनी जगह से हट गया, तो अल्लाह के न्याय ने उसकी क़ौम को अज़ाब देना गवारा न किया, क्योंकि युक्ति पूरी करने की कानूनी शर्ते पूरी न हुई थीं। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-37 अस्साफ्फात की टिप्पणी 85)
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِن كُنتُمۡ فِي شَكّٖ مِّن دِينِي فَلَآ أَعۡبُدُ ٱلَّذِينَ تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلَٰكِنۡ أَعۡبُدُ ٱللَّهَ ٱلَّذِي يَتَوَفَّىٰكُمۡۖ وَأُمِرۡتُ أَنۡ أَكُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ 103
(104) ऐ नबी ! कह दो कि106 "लोगो, अगर तुम अभी तक मेरे दीन के बारे में किसी सन्देह में हो तो सुन लो कि तुम अल्लाह के सिवा जिनकी बन्दगी करते हो, मैं उनकी बन्दगी नहीं करता,बल्कि केवल उसी अल्लाह की बन्दगी करता हूँ जिसके क़ब्ज़े में तुम्हारी मौत है।107 मुझे आदेश दिया गया है कि मैं ईमान लानेवालों में से हूँ
106. जिस विषय से भाषण का आरंभ किया गया था उसी पर अब भाषण को समाप्त किया जा रहा है। तुलना के लिए आरंभिक आयतों में वर्णित विषय पर पुन: एक दृष्टि डाल ली जाए।
107. मूल अरबी में शब्द 'य-त-वफ़्फ़ाकुम' है जिसका शाब्दिक अर्थ- है, “जो तुम्हें मौत देता है।" लेकिन इस शाब्दिक अनुवाद से मूल भाव स्पष्ट नहीं होता। इस कथन का मूल भाव यह है कि "वह जिसके क़ब्ज़े में तुम्हारी जान है, जो तुमपर ऐसी पूर्ण साधिकारिक सत्ता रखता है कि उसी की मर्जी पर तुम्हारी ज़िन्दगी भी पूरी तरह आश्रित है और तुम्हारी मौत भी। मैं केवल उसकी उपासना और उसी की बन्दगी व ग़ुलामी और उसी के आज्ञापालन का क़ायल हूँ।” यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि मक्का के मुशिक भी इस वास्तविकता को मानते थे कि मौत केवल सर्वजगत् के पालनहार अल्लाह के अधिकार में है। अतः अभिप्राय व्यक्त करने के लिए अल्लाह के अगणित गुणों में से यह प्रमुख गुण कि “वह जो तुम्हें मौत देता है' यहाँ इसलिए चुना गया है कि अपना मत व्यक्त करने के साथ-साथ उसके सही होने का तर्क भी दे दिया जाए। फिर अंलकृत भाषा व सुन्दरता यह भी है कि “वह जो मुझे मौत देनेवाला है" कहने के बजाय 'वह जो तुम्हें मौत देता है' फ़रमाया, जिससे यह अर्थ निकला कि मुझे ही नहीं, तुम्हें भी उसी की बन्दगी करनी चाहिए और तुम यह ग़लती कर रहे हो कि उसके सिवा दूसरों की बन्दगी किए जाते हो] इस तरह एक ही शब्द में अभिप्राय का व्यक्त करना.उसका प्रमाण देना और उसकी ओर बुलाना-तीनों भाव जमा कर दिए गए हैं।
وَأَنۡ أَقِمۡ وَجۡهَكَ لِلدِّينِ حَنِيفٗا وَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ 104
(105) और मुझसे फ़रमाया गया है कि तू एकाग्र होकर अपने आपको ठीक-ठीक इस दीन पर क़ायम कर दे।108 और कदापि-कदापि मुशरिकों में से न हो।109
108. इस माँग की तीव्रता ध्यान देने योग्य है। इसके मूल शब्द हैं “अक़िम वज-ह-क लिद्दीनि हनीफ़ा।" "अक़िम वज-ह-क' का शाब्दिक अर्थ है “अपना चेहरा जमा दे।” अर्थात् तेरा चेहरा एक ही ओर स्थिर हो। डगमगाता और हिलता-डुलता न हो । कभी पीछे और कभी आगे और कभी दाएँ और कभी बाएँ न मुड़ता रहे। बिल्कुल नाक की सीध में उसी रास्ते पर नज़रें जमाए हुए चल जो तुझे दिखा दिया गया है। यह बन्धन अपने आपमें बहुत चुस्त था, मगर इसपर भी बस न किया गया। इसपर एक और क़ैद 'हनीफ़ा’ की बढ़ा दी गई। 'हनीफ़' उसे कहते हैं जो सब ओर से मुड़कर एक ओर हो रहा हो । अतः माँग यह है कि इस दीन को, अल्लाह की बन्दगी के इस तरीक़े को, ज़िन्दगी के इस रवैये को इबादत, बन्दगी, ग़ुलामी, आज्ञापालन, फ़रमाँबरदारी, सब कुछ सिर्फ़ अल्लाह रब्बुल आलमीन ही की की जाए, ऐसी एकाग्रता अपनाकर कि किसी दूसरे तरीक़े की ओर तनिक भर भी रुझान व झुकाव न हो।
109. अर्थात् उन लोगों में कदापि सम्मिलित न हो जो अल्लाह की ज़ात में, उसके गुणों में, उसके हकों में और उसके अधिकारों में किसी तौर पर ग़ैर-अल्लाह को शरीक करते हैं। अत: माँग केवल इस स्वीकारात्मक तरीक़े ही में नहीं है कि विशुद्ध तौहीद का रास्ता पूरे जमाव के साथ अपनाओ, बल्कि इस निषेधात्मक रूप में भी है कि उन लोगों से अलग हो जा जो किसी शक्ल और किसी ढंग का शिर्क करते हों । विश्वास ही में नहीं, व्यवहार में भी, व्यक्तिगत जीवन के तरीके ही में नहीं, सामूहिक जीवन-व्यवस्था में भी, इबादतगाहों और पूजाघरों ही में नहीं, स्कूलों और मदरसों में भी, अदालतों में भी, विधायिका की सभाओं में भी, राजनीति के सदनों में भी, अर्थ के बाज़ारों में भी। तात्पर्य यह कि हर जगह उन लोगों के तरीक़े से अपना तरीक़ा अलग कर ले जिन्होंने अपने चिन्तन व व्यवहार की पूरी जीवन-व्यवस्था ख़ुदापरस्ती और बे-ख़ुदापरस्ती की मिलावट पर स्थापित कर रखी है-फिर माँग खुले शिर्क ही से बचने की नहीं है, बल्कि छिपे शिर्क से भी पूरी तरह कठोरता के साथ बचने का है। बल्कि छिपा शिर्क अधिक भयानक है और उससे होशियार रहने की और भी अधिक ज़रूरत है। कुछ नासमझ लोग 'छिपे शिर्क' को 'हलका शिर्क' समझते हैं और इनका विचार यह है कि इसका मामला इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितने खुले शिर्क का है। हालाँकि 'छिपे' का अर्थ हलका' नहीं, बल्कि छिपा हुआ है। [और हर व्यक्ति जानता है कि गुप्त बीमारियाँ उन बीमारियों से अधिक घातक सिद्ध होती हैं जिनके चिह्न बिल्कुल स्पष्ट हों। जिस शिर्क को हर आदमी एक ही नज़र में देखकर कह दे कि यह शिर्क है, उससे तो एकेश्वरवादी (तौहीद) धर्म का टकराव बिल्कुल स्पष्ट है, मगर जिस शिर्क को समझने के लिए गहरी निगाह और तौहीद के तक़ाज़ों की गहरी समझ चाहिए, वह अपनी अदृश्य जड़ें दीन की व्यवस्था में इस तरह फैलाता है कि आम एकेश्वरवादियों को उनकी ख़बर तक नहीं होती और धीरे-धीरे ऐसे गैर-महसूस तरीक़े से दीन की आत्मा को खा जाता है कि कहीं ख़तरे का एलार्म बजने की नौबत ही नहीं आती।