- यूसुफ़
(मक्का में उतरी-आयतें 111)
परिचय
उतरने का समय और कारण
इस सूरा के विषय से स्पष्ट होता है कि यह भी मक्का निवास के अन्तिम समय में उतरी होगी, जबकि क़ुरैश के लोग इस समस्या पर विचार कर रहे थे कि नबी (सल्ल०) को क़त्ल कर दें या देश निकाला दे दें या क़ैद कर दें। उस समय मक्का के कुछ विधर्मियों ने (शायद यहूदियों के संकेत पर) नबी (सल्ल०) की परीक्षा लेने के लिए आपसे प्रश्न किया कि बनी-इसराईल के मिस्र जाने का क्या कारण हुआ? अल्लाह ने केवल यही नहीं किया कि तुरन्त उसी समय यूसुफ़ (अलैहि०) का यह पूरा क़िस्सा आपकी ज़ुबान पर जारी कर दिया, बल्कि यह भी किया कि इस क़िस्से को क़ुरैश के उस व्यवहार पर चस्पाँ भी कर दिया जो वे यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों की तरह प्यारे नबी (सल्ल०) के साथ कर रहे थे।
उतरने के उद्देश्य
इस तरह यह क़िस्सा दो महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों के लिए उतारा गया था-
एक यह कि मुहम्मद (सल्ल०) के नबी होने का प्रमाण और वह भी विरोधियों का अपना मुँह माँगा प्रमाण जुटाया जाए।
दूसरे यह कि कुरैश के सरदारों को यह बताया जाए कि आज तुम अपने भाई के साथ वही कुछ कर रहे हो जो यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों ने उनके साथ किया था, मगर जिस तरह वे अल्लाह की इच्छा से लड़ने में सफल न हुए और अन्तत: उसी भाई के क़दमों में आ रहे जिसको उन्होंने कभी बड़ी निर्दयता के साथ कुएंँ में फेंका था, उसी तरह तुम्हारी कोशिशें भी अल्लाह की तदबीरों के मुकाबले में सफल न हो सकेंगी और एक दिन तुम्हें भी अपने इसी भाई से दया एवं कृपा की भीख मांँगनी पड़ेगी जिसे आज तुम मिटा देने पर तुले हुए हो।
सच तो यह है कि यूसुफ़ (अलैहि०) के क़िस्से को मुहम्मद (सल्ल०) और क़ुरैश के मामले पर चस्पाँ करके क़ुरआन मजीद ने मानो एक खुली भविष्यवाणी कर दी थी जिसे आगे दस साल की घटनाओं ने एक-एक करके सही सिद्ध करके दिखा दिया।
वार्ताएँ एवं समस्याएँ
ये दो पहलू तो इस सूरा में उद्देश्य की हैसियत रखते हैं। इनके अतिरिक्त क़ुरआन मजीद इस पूरे किस्से में यह बात भी स्पष्ट करके दिखाता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०), हज़रत इसहाक़ (अलैहि०), हज़रत याक़ूब (अलैहि०) और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की दावत भी वही थी जो आज मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे हैं।
फिर वह एक ओर हज़रत याक़ूब (अलैहि०) और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के चरित्र और दूसरी ओर यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों, व्यापारियों के काफ़िले, मिस्र के शासक, उसकी बीवी, मिस्र की बेगमों और मिस्र के अधिकारियों के चरित्र एक दूसरे के मुक़ाबले में रख देता है [ताकि लोग देख लें कि] अल्लाह की बन्दगी और आख़िरत के हिसाब के विश्वास से [पैदा होनेवाले चरित्र कैसे होते हैंऔर दुनियापरस्ती और ईश्वर और परलोक के प्रति बेपरवाही के साँचों में ढलकर तैयार [होनेवाले चरित्रों का क्या हाल हुआ करता है ?] फिर इस क़िस्से से क़ुरआने-हकीम एक और गहरी सच्चाई भी इंसान के मन में बिठाता है, और वह यह है कि अल्लाह जिसे उठाना चाहता है, सारी दुनिया मिलकर भी उसे नहीं गिरा सकती, बल्कि दुनिया जिस उपाय को उसके गिराने का बड़ा कारगर और निश्चित उपाय समझकर अपनाती है, अल्लाह उसी उपाय में से उसके उठने की शक्लें निकाल देता है।
ऐतिहासिक और भौगोलिक परिस्थितियाँ
इस क़िस्से को समझने के लिए आवश्यक है कि संक्षेप में उसके बारे में कुछ ऐतिहासिक और भौगोलिक जानकारियाँ भी पाठकों के सामने रहें।
बाइबल के वर्णन के अनुसार हज़रत याकूब (अलैहि०) के बारह बेटे चार पत्नियों से थे। हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) और उनके छोटे भाई बिन-यमीन एक पत्नी से और शेष दस दूसरी पलियों से । फ़िलस्तीन में हज़रत याक़ूब (अलैहि०) का निवास स्थान हिबरून की घाटी में था। इसके अलावा उनकी कुछ ज़मीन सेकिम (वर्तमान नाबुलुस) में भी थी। बाइबल के विद्वानों की खोज अगर सही मान ली जाए तो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की पैदाइश 1906 ई०पू० के लगभग ज़माने में हुई। सपना देखने और फिर कुएँ में फेंके जाने [की घटना उनकी सत्तरह वर्ष की उम्र में घटी]। जिस कुएँ में वे फेंके गए वह बाइबल और तलमूद की रिवायतों के अनुसार सेकिम के उत्तर में दूतन (वर्तमान दुसान) के क़रीब स्थित था और जिस क़ाफ़िले ने उन्हें कुएँ से निकाला वह जलआद (पूर्वी जार्डन) से आ रहा था और मिस्र की ओर जा रहा था। -मिस्र पर उस समय पन्द्रहवें वंश का शासन था जो मिस्री इतिहास में चरवाहे बादशाहों (Hyksos Kings) के नाम से याद किया जाता है। ये लोग अरबी नस्ल के थे और फ़िलस्तीन और शाम (Syria) से मिस्र (Egypt) जाकर दो हज़ार वर्ष ई०पू० के लगभग ज़माने में मिस्री राज्य पर क़ाबिज़ हो गए थे। यही कारण हुआ कि इनके शासन में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को उन्नति-पथ पर आगे बढ़ने का मौक़ा मिला और फिर बनी-इसराईल वहाँ हाथों-हाथ लिए गए, क्योंकि वे उन विदेशी शासकों के वंश के थे। पन्द्रहवीं सदी ई०पू० के अन्त तक ये लोग मिस्र पर आधिक्य जमाए रहे और उनके ज़माने में देश की सम्पूर्ण सत्ता व्यावहारिक रूप में बनी-इसराईल के हाथ में रही। उसी दौर की ओर सूरा-5 (माइदा) आयत 20 में इशारा किया गया है कि “जब उसने तुममें नबी पैदा किए और तुम्हें शासक बनाया।” इसके बाद हिक्सूस सत्ता का तख़्ता उलटकर एक अति क्रूर क़िब्ती नस्ल का परिवार सत्ता में आ गया और उसने बनी-इसराईल पर उन अत्याचारों का सिलसिला शुरू किया जिनका उल्लेख हज़रत मूसा (अलैहि०) के क़िस्से में हुआ है। इन चरवाहे बादशाहों ने मिस्री देवताओं को स्वीकार नहीं किया था। यही कारण है कि क़ुरआन मजीद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के समकालीन बादशाह को फ़िरऔन' के नाम से याद नहीं करता, क्योंकि फ़िरऔन मिस्र का धार्मिक पारिभाषिक शब्द था, और ये लोग मिस्री धर्म के माननेवाले न थे।-
हजरत यूसुफ़ (अलैहि०) 30 साल की उम्र में देश के शासक हुए और 90 साल तक बिना किसी को साझी बनाए पूरे मिस्र पर शासन करते रहे। अपने शासन के नवें या दसवें साल उन्होंने हज़रत याक़ूब (अलैहि०) को अपने पूरे परिवार के साथ फ़िलस्तीन से मिस्र बुला लिया और उस क्षेत्र में आबाद किया जो दिमयात और क़ाहिरा के बीच स्थित है। बाइबल में इस क्षेत्र का नाम जुशन या गोशन बताया गया है। हज़रत मूसा (अलैहि०) के समय तक ये लोग उसी क्षेत्र में आबाद रहे। बाइबल का बयान है कि हज़रत यूसुफ (अलैहि०) का देहावसान एक सौ दस साल की उम्र में हुआ और देहावसान के समय बनी-इसराईल को वसीयत की कि जब तुम इस देश से निकलो तो मेरी हड्डियाँ अपने साथ लेकर जाना।
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إِنَّآ أَنزَلۡنَٰهُ قُرۡءَٰنًا عَرَبِيّٗا لَّعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ 1
(2) हमने इसे उतारा है क़ुरआन1 बनाकर अरबी भाषा में, ताकि तुम (अरबवालो) इसको अच्छी तरह समझ सको।2
1. क़ुरआन का वास्तविक अर्थ है 'पढ़ना'। अरबी में क्रिया को किसी चीज़ के लिए जब नाम के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। तो इससे यह अर्थ निकलता है कि इस चीज़ के भीतर क्रिया का अर्थ अपनी पूर्णता को पहुंचा हुआ है ।अतः इस किताब का नाम 'कुरआन' (पढ़ना) रखने का अर्थ यह है कि यह सामान्य और असामान्य अर्थात् सब लोगों के पढ़ने के लिए है और अधिक-से-अधिक पढ़ी जानेवाली चीज़ है।
2. इसका अर्थ यह नहीं है कि यह किताब मुख्य रूप से अरबों ही के लिए उतारी गई है। बल्कि इस वाक्य का वास्तविक अभिप्राय यह बताना है कि “ऐ अरबवालो ! तुम्हें ये बातें किसी यूनानी या ईरानी भाषा में तो नहीं सुनाई जा रही हैं, तुम्हारी अपनी भाषा में हैं, इसलिए तुम न तो यह विवशता दिखा सकते हो कि ये बातें तो हमारी समझ में नहीं आतीं और न यही संभव है कि इस किताब में जो चमत्कारिक पहलू हैं, जो इसके अल्लाह का कलाम (वाणी) होने की गवाही देते हैं, वे तुम्हारी निगाहों से छिपी रह जाएँ।"
إِذۡ قَالُواْ لَيُوسُفُ وَأَخُوهُ أَحَبُّ إِلَىٰٓ أَبِينَا مِنَّا وَنَحۡنُ عُصۡبَةٌ إِنَّ أَبَانَا لَفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ 7
(8) यह किस्सा यूँ शुरू होता है कि उसके भाइयों ने आपस में कहा, “यह यूसुफ़ और उसका भाई 8 दोनों हमारे बाप को हम सबसे ज़्यादा प्यारे हैं, हालाँकि हम एक पूरा जत्था है। सच्ची बात यह है कि हमारे बाप बिल्कुल ही बहक गए हैं। 9
8. इससे तात्पर्य हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के सगे भाई बिन यमीन हैं जो उनसे कई साल छोटे थे। उनके जन्म के समय उनकी माँ का देहान्त हो गया था। यही कारण था कि हज़रत याकूब (अलैहि०) इन दोनों बे-माँ के बच्चों का ज़्यादा ख्याल रखते थे। इसके अलावा इस मुहब्बत की वजह यह भी थी कि उनकी सारी औलाद में सिर्फ एक हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ही ऐसे थे जिनके भीतर उनको समझदारी और सौभाग्य के लक्षण दिखाई देते थे। ऊपर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का सपना सुनकर उन्होंने जो कुछ फ़रमाया उससे साफ़ पता चलता है कि वह अपने इस बेटे की असाधारण क्षमताओं को अच्छी तरह जानते थे। दूसरी ओर उन दस बड़े बेटों के आचरण का जो हाल था, उसका अन्दाज़ा भी आगे की घटनाओं से हो जाता है। फिर कैसे आशा की जा सकती है कि एक नेक इंसान ऐसी सन्तान से खुश रह सके, लेकिन विडम्बना है कि बाइबल में यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों के जलन की एक ऐसी वजह बयान की गई है जिससे उलटा आरोप हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) पर आता है। उसका बयान है कि हज़रत यूसुफ़ भाइयों की चुगलियाँ बाप से किया करते थे, इस कारण भाई उनसे नाराज़ थे।
9. इस वाक्य का भाव समझने के लिए देहात की कबाइली ज़िन्दगी की परिस्थितियों को सामने रखना चाहिए। जहाँ कोई राज्य मौजूद नहीं होता और स्वतंत्र कबोले एक-दूसरे के पहलू में आबाद होते हैं, वहाँ एक व्यक्ति की शक्ति इसपर निर्भर करती है कि उसके अपने बेटे, पोते, भाई, भतीजे बहुत-से हो जो समय आने पर उसकी जान व माल और आबरू की रक्षा के लिए उसका साथ दे सकें। ऐसी स्थिति में औरतों और बच्चों की अपेक्षा स्वभावत: व्यक्ति को वे बेटे अधिक प्यारे होते हैं जो दुश्मनों के मुक़ाबले में काम आ सकते हों। इसी कारण इन भाइयों ने कहा कि हमारे बाप बुढ़ापे में सठिया गए हैं। हम जवान बेटों का जत्था, जो बुरे वक़्त पर उनके काम आ सकता है, उनको इतना प्रिय नहीं है जितने ये छोटे-छोटे बच्चे जो उनके किसी काम नहीं आ सकते, बल्कि उलटे स्वयं ही सुरक्षा के मुहताज है।
وَجَآءُو عَلَىٰ قَمِيصِهِۦ بِدَمٖ كَذِبٖۚ قَالَ بَلۡ سَوَّلَتۡ لَكُمۡ أَنفُسُكُمۡ أَمۡرٗاۖ فَصَبۡرٞ جَمِيلٞۖ وَٱللَّهُ ٱلۡمُسۡتَعَانُ عَلَىٰ مَا تَصِفُونَ 17
(18) और वे यूसुफ़ की कमीज़ पर झूठ-मूठ का खून लगाकर ले आए थे। यह सुनकर उनके बाप ने कहा, “बल्कि तुम्हारे जी ने तुम्हारे लिए एक बड़े काम को आसान बना दिया। अच्छा, धैर्य करूँगा और ख़ूब अच्छी तरह धैर्य करूँगा 13 , जो बात तुम बना रहे हो, उसपर अल्लाह ही से मदद मा़ँगी जा सकती है।14
13. मूल में 'सबरुन जमील’ के शब्द प्रयुक्त हुए हैं जिनका शाब्दिक अनुवाद 'अच्छा धैर्य' हो सकता है। इससे तात्पर्य ऐसा धैर्य है जिसमें शिकायत न हो, फ़रियाद न हो, रोना-धोना न हो, ठंडे दिल से इस विपत्ति को सहन किया जाए जो एक विशाल हृदय मनुष्य पर आ पड़ी हो।
14. बाइबल और तलमूद यहाँ हज़रत याक़ूब (अलैहि०) की प्रतिक्रियाओं का चित्र भी कुछ इस तरह खींचती हैं, जो किसी सामान्य बाप की प्रतिक्रियाओं से कुछ भी भिन्न नहीं है। बाइबल का बयान यह है कि “तब याक़ूब ने अपना लिबास फाड़ लिया और टाट अपनी कमर से बाँधी और बहुत दिनों तक अपने बेटे के लिए मातम करता रहा। और तलमूद का बयान है कि "याक़ूब बेटे का कमीज़ पहचानते हो औंधे मुँह ज़मीन पर गिर पड़ा और देर तक अचेत पड़ा रहा, फिर उठकर बड़े ज़ोर से चौखा कि हाँ, यह मेरे बेटे ही को कमीज़ है। और वह वर्षों तक यूसुफ़ का मातम करता रहा।" इस चित्र में हज़रत याक़ूब वही कुछ करते नज़र आते हैं जो हर बाप ऐसे अवसर पर लेकिन कुरआन जो चित्र प्रस्तुत कर रहा है उससे हमारे सामने एक ऐसे असाधारण व्यक्ति का चित्र सामने आता है जो पूर्णतः सहनशील और प्रतिष्ठावान है। इतनी बड़ी दुख-भरी ख़बर सुनकर भी अपने दिमारा का सन्तुलन नहीं खोता, अपनी सूझ-बूझ से मामले के ठीक-ठीक स्वरूप को भाँप जाता है कि यह एक बनावटी बात है जो इन जलन रखनेवाले बेटों ने गढ़कर पेश की है और फिर विशाल हृदय मनुष्यों की तरह धैर्य धारण करता है और अल्लाह पर भरोसा करता है।
وَقَالَ ٱلَّذِي ٱشۡتَرَىٰهُ مِن مِّصۡرَ لِٱمۡرَأَتِهِۦٓ أَكۡرِمِي مَثۡوَىٰهُ عَسَىٰٓ أَن يَنفَعَنَآ أَوۡ نَتَّخِذَهُۥ وَلَدٗاۚ وَكَذَٰلِكَ مَكَّنَّا لِيُوسُفَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلِنُعَلِّمَهُۥ مِن تَأۡوِيلِ ٱلۡأَحَادِيثِۚ وَٱللَّهُ غَالِبٌ عَلَىٰٓ أَمۡرِهِۦ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ 20
(21) मिस्र के जिस आदमी ने उसे ख़रीदा 16 उसने अपनी पत्नी17 से कहा, “इसको अच्छी तरह रखना, असंभव नहीं कि यह हमारे लिए लाभप्रद सिद्ध हो या हम इसे बेटा बना लें।18 इस तरह हमने यूसुफ़ के लिए उस धरती में क़दम जमाने की शक्ल निकाली और उसे मामलों के समझने की शिक्षा देने का प्रबंध किया।19 अल्लाह अपना काम करके रहता है, मगर अधिकतर लोग जानते नहीं हैं।
16. बाइबल में उस आदमी का नाम फ़ोतीफ़ार लिखा है। क़ुरआन मजीद आगे चलकर उसे 'अज़ीज़' की उपाधि से याद करता है और फिर एक दूसरे मौके पर यही उपाधि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के लिए भी इस्तेमाल करता है। इससे मालूम होता है कि यह व्यक्ति मिस्र में कोई बहुत बड़ा ओहदेदार या पदाधिकारी था, क्योंकि 'अज़ीज़' का अर्थ है ऐसा सत्ताधारी व्यक्ति जिसका विरोध न किया जा सकता हो। बाइबल और तलमूद का बयान है कि वह शाही बॉडीगार्डों का अफ़सर था और इब्ने जरीर हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि०) से रिवायत करते हैं कि वह शाही खज़ाने का अफ़सर था।
रिवायतों में मशहूर हुआ, मगर यह जो हमारे यहाँ प्रसिद्ध है कि बाद में उस औरत से हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का निकाह हुआ, उसका कोई आधार नहीं है, न ही क़ुरआन में और न इसराईली इतिहास में। सच तो यह है कि एक नबी के पद से यह बात बहुत गिरी हुई है कि वह किसी ऐसी औरत से निकाह करे जिसकी बदचलनी का उसको निजी तौर पर तजुर्बा हो चुका हो । क़ुरआन मजीद में यह मूल नियम हमें बताया गया है कि-
"बुरी औरतें बुरे मर्दो के लिए हैं और बुरे मर्द बुरी औरतों के लिए, और पाक औरतें पाक मर्दो के लिए हैं और पाक मर्द पाक औरतों के लिए।" (क़ुरआन,24:6)
وَرَٰوَدَتۡهُ ٱلَّتِي هُوَ فِي بَيۡتِهَا عَن نَّفۡسِهِۦ وَغَلَّقَتِ ٱلۡأَبۡوَٰبَ وَقَالَتۡ هَيۡتَ لَكَۚ قَالَ مَعَاذَ ٱللَّهِۖ إِنَّهُۥ رَبِّيٓ أَحۡسَنَ مَثۡوَايَۖ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلظَّٰلِمُونَ 22
(23) जिस औरत के घर में वह था, वह उसपर डोरे डालने लगी और एक दिन दरवाजे बन्द करके बोली, “आ जा।” यूसुफ़ ने कहा, “अल्लाह की पनाह ! मेरे रब21 ने तो मुझे अच्छा सम्मान दिया (और मैं यह काम करू)। ऐसे ज़ालिम कभी सफलता नहीं पाया करते ।"
21. सामान्यतः टीकाकारों और अनुवादकों ने यह समझा है कि यहाँ 'मेरे रब' का शब्द हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने उस व्यक्ति के लिए इस्तेमाल किया है जिसकी वह उस वक़्त नौकरी कर रहे थे और उनके इस उत्तर का अर्थ यह था कि मेरे स्वामी ने तो मुझे ऐसी अच्छी तरह रखा है, फिर मैं यह नमकहरामी कैसे कर सकता हूँ कि उसकी बीवी से ज़िना करूं। लेकिन मुझे इस अनुवाद और टीका से सख्त मतभेद है। यद्यपि अरबी भाषा की दृष्टि से यह अर्थ लेने की भी गुंजाइश है, क्योंकि अरबी भाषा में शब्द रब 'स्वामी के अर्थ में प्रयुक्त होता है, लेकिन यह बात एक नबो को शान से बहुत गिरी हुई है कि वह एक गुनाह से बाज़ रहने में अल्लाह के बजाय किसी बन्दे का लिहाज़ करे और कुरआन में इसका कोई उदाहरण भी मौजूद नहीं है कि किसी नबी ने अल्लाह के सिवा किसी और को अपना रब कहा हो। आगे चलकर आयत 41, 42,50 में हम देखते हैं कि सय्यिदिना यूसुफ (अलैहि०) अपने और मिस्त्रियों के मत का यह अन्तर बार-बार स्पष्ट करते हैं कि उनका रब तो अल्लाह है और मिस्त्रियों ने बन्दों को अपना रब बना रखा है । फिर जब आयत के शब्दों में यह अर्थ लेने की भी गुंजाइश मौजूद है कि हज़रत यूसुफ़ ने 'रब्बी' (मेरा रब) कहकर उससे तात्पर्य अल्लाह की ज़ात का लिया हो तो क्या कारण है कि हम एक ऐसे अर्थ को अपनाएं जिसमें स्पष्टतः एक नबी की शान के विरुद्ध भाव निकलता हो।
وَلَقَدۡ هَمَّتۡ بِهِۦۖ وَهَمَّ بِهَا لَوۡلَآ أَن رَّءَا بُرۡهَٰنَ رَبِّهِۦۚ كَذَٰلِكَ لِنَصۡرِفَ عَنۡهُ ٱلسُّوٓءَ وَٱلۡفَحۡشَآءَۚ إِنَّهُۥ مِنۡ عِبَادِنَا ٱلۡمُخۡلَصِينَ 23
(24) वह उसकी ओर बढ़ी और यूसुफ भी उसकी ओर बढ़ता अगर अपने रब की बुरहान (प्रमाण) न देख लेता।22 ऐसा हुआ, ताकि हम उससे बुराई और अश्लीलता को दूर कर दें।23 वास्तव में वह हमारे चुने हुए बन्दों में से था।
22. 'बुरहान' का अर्थ है प्रमाण और तर्क । रब की बुरहान से तात्पर्य अल्लाह का सुझाया हुआ बह दलील है जिसके आधार पर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को अन्तरात्मा ने उनके मन से यह बात मनवा ली कि इस औरत का विलाश-आमंत्रण को स्वीकार करना तेरे लिए उचित नहीं है। और वह प्रमाण था क्या? इसे पिछले वाक्य में बताया जा चुका है, अर्थात् यह कि 'मेरे रब ने तो मुझे यह सम्मान दिया और मैं ऐसा बुरा काम करूं ! ऐसे ज़ालिमों को सफलता नहीं मिला करती।' यही वह सत्य का तर्क था जिसने साय्यिदिना यूसुफ (अलैहि०) को इस उभरती जवानी की दशा में ऐसे नाजुक मौके पर प्रमाण से बचाए रखा। फिर यह जो फरमाया कि यूसुफ भी उसकी ओर बढ़ता अगर अपने रब की बुरहान न देख लेता', तो इससे नबियों के पावन चरित्र की वास्तविकता पर भी पूरी रौशनी पड़ जाती है । नबी के निर्दोष होने का अर्थ यह नहीं है कि उससे गुनाह, चूक और ग़लती करने की शक्ति और क्षमता छीन ली गई है, यहाँ तक कि उससे गुनाह का होना, उसके बस ही में नहीं रहा है। बल्कि इसका अर्थ यह है कि नबी यद्यपि गुनाह करने का सामर्थ्य रखता है, लेकिन इंसान होने के तमाम गुण रखने के बावजूद और तमाम इनसानी भावनाओं, अनुभूतियों और इच्छाओं के रखते हुए भी वह ऐसा शालीन, नेक दिल और ईशपरायण होता है कि जान-बूझकर कभी गुनाह का इरादा नहीं करता, वह अपनी अन्तरात्मा में अपने रब की ऐसे-ऐसे ज़बरदस्त प्रमाण और तर्क रखता है, जिनके मुकाबले में मन की कामनाएँ कभी सफल नहीं होने पाती और अगर अनजाने में उससे कोई चूक हो जाती है, तो अल्लाह तुरन्त स्पष्ट वय के द्वारा उसका सुधार कर देता है।
23. इस कथन के दो अर्थ हो सकते हैं-
एक यह कि उसका रब के प्रमाण को देखना और गुनाह से बच जाना हमारे दिए हुए सौभाग्य और मार्गदर्शन से हुआ, क्योंकि हम अपने उस चुने हुए बन्दे से बुराई और अश्लीलता को दूर करना चाहते थे। दूसरा अर्थ यह भी लिया जा सकता है और यह अधिक गहरा अर्थ है कि यूसुफ़ (अलैहि०) को यह जो मामला पेश आया, तो यह भी वास्तव में उनके प्रशिक्षण के सिलसिले में एक ज़रूरी मरहला था। उनके मन की पवित्रता को पराकाष्ठा तक पहुंचाने के लिए अल्लाह की दृष्टि में यह आवश्यक था कि उनके सामने गुनाह का एक ऐसा नाजुक मौका पेश आए और उस परीक्षा के समय वह अपने संकल्प को पूरी शक्ति, संयम और ईश-भय के पलड़े में डालकर अपने मन के बुरे रुझानों को सर्वदा के लिए निश्चित रूप से पाजित कर दें। मुख्य रूप से इस विशेष प्रशिक्षण-विधि के अपनाने का महत्त्व और ज़रूरत उस नैतिक वातावरण को दृष्टि में रखने से आसानी से समझ में आ सकती है जो उस वक्त के मित्रो समाज में पाया जाता था। आगे आयत 30 से 35 में उस वातावरण को जो एक हलकी-सी झलक दिखाई गई है, उससे अनुमान होता है कि उस समय के 'सभ्य मिस्त्र में सामान्य रूप से और उसके उच्च वर्ग में विशेष रूप से काम-स्वच्छंदता लगभग उसी स्तर की थी जिस स्तर पर हम अपने समय के पाश्चात्य लोगों और पाश्चात्यता से प्रभावित वर्गों को आसीन पा रहे हैं। हज़रत यूसुफ (अलैहि०) को ऐसे बिगड़े हुए लोगों में रहकर काम करना था और काम भी एक साधारण व्यक्ति के रूप में नहीं, बल्कि देश के शासक के रूप में करना था। अब यह स्पष्ट है कि जो उच्च वर्ग की स्त्रियाँ रूपवान् दास के आगे बिछी जा रही थी, वे एक जवान और सुन्दर शासक को फाँसने और बिगाड़ने के लिए क्या कुछ न कर गुज़रतीं। इसी को पेशबन्दो अल्लाह ने इस तरह फ़रमाई कि एक ओर तो शुरू ही में इस परीक्षा से गुज़ारकर हज़रत यूसुफ़ को पक्का कर दिया और दूसरी ओर स्वयं मिस्र की औरतों को भी उनसे निराश करके उनके सारे फ़ितनों का दरवाज़ा बन्द कर दिया।
يُوسُفُ أَعۡرِضۡ عَنۡ هَٰذَاۚ وَٱسۡتَغۡفِرِي لِذَنۢبِكِۖ إِنَّكِ كُنتِ مِنَ ٱلۡخَاطِـِٔينَ 28
(29) यूसुफ़ ! इस मामले को जाने दे (अर्थात दरगुज़र कर दे) और ऐ औरत ! तू अपने क़ुसूर की माफ़ी माँग, तू ही असल में ख़ताकार थी। 25अ
25अ. बाइबल में इस किस्से को जिस भोंडे तरीके से बयान किया गया है, उसे देखिए-
"तब उस औरत ने उसका कपड़ा पकड़कर कहा, मेरे साथ हमबिस्तर हो। वह अपना कपड़ा उसके हाथ में छोड़कर भागा और बाहर निकल गया। जब उसने देखा कि वह अपना कपड़ा उसके हाथ में छोड़कर भाग गया तो उसने अपने घर के आदमियों को बुलाकर उनसे कहा कि देखो, वह एक इब्री को हमसे मज़ाक़ करने के लिए हमारे पास ले आया है। वह मुझसे हमबिस्तर होने को अन्दर घुस आया और मैं ऊँची आवाज़ से चिल्लाने लगी। जब उसने देखा कि मैं ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रही हूँ तो अपना कपड़ा मेरे पास छोड़कर भागा और बाहर निकल गया। और वह उसका कपड़ा उसके आका के घर लौटने तक अपने पास रखे रही. ..जब उसक आका ने अपनी बीवी की ये बातें, जो उसने उससे कहीं, सुन ली कि तेरे गुलाम ने मुझसे ऐसा-ऐसा किया तो उसका ग़ज़ब भड़क उठा और यूसुफ़ के आका ने उसको लेकर क़ैदख़ाने में जहाँ बादशह के कैदी बन्द थे, डाल दिया।" (उत्पत्ति 39 : 12-20)
इस विचित्र रिवायत का सार यह है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के शरीर पर लिबास कुछ इस प्रकार का था कि इधर ज़ुलैख़ा ने उसपर हाथ डाला और उधर वह पूरा लिबास अपने आप उतरकर उसक हाथ में आ गया। फिर मज़े की बात यह है कि हज़रत यूसुफ वह लिबास उसके पास छोड़कर यूँ ही नंगे भाग निकले SPEE और उनका लिबास (अर्थात् उनकी ग़लती का अकाट्य प्रमाण) उस औरत के पास ही रह गया। इसके बाद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के अपराधी होने में आख़िर, कौन सन्देह कर सकता था।
यह तो है बाइबल की रिवायत । रही तलमूद, तो उसका बयान यह है कि फ़ोतीफ़ार ने जब अपनी पत्नी से यह शिकायत सुनी तो उसने यूसुफ़ को ख़ूब पिटवाया, फिर उनके विरुद्ध अदालत में इस्तिगासा दायर किया और अदालत के अधिकारियों ने हज़रत यूसुफ के क़मीज़ का जायज़ा लेकर फैसला किया कि ग़लती औरत की है, क्योंकि क़मीज़ पीछे से फटी है, न कि आगे से। लेकिन यह बात हर बुद्धि रखनेवाला आदमी थोड़े-से सोच-विचार से आसानी से समझ सकता है कि क़ुरआन का उल्लेख तलमूद के उल्लेख की अपेक्षा अनुमान के निकट है। आख़िर किस तरह इसे मान लिया जाए कि ऐसा बड़ा एक पदाधिकारी अपनी पत्नी पर अपने गुलाम के हाथ डालने का मामला स्वयं अदालत में ले गया होगा।
यह एक अत्यन्त स्पष्ट उदाहरण है कुरआन और इसराईली उल्लेख के अन्तर का, जिससे पाश्चात्य के इस्लाम विरोधी विद्वानों के इस आरोप का निरर्थक होना स्पष्ट हो जाता है कि मुहम्मद (सल्ल०) ने ये क़िस्से बनी इसराईल से नकल कर लिए हैं। सच यह है कि कुरआन ने तो इन्हें सुधारा है और असल घटना दुनिया को बताई है।
فَلَمَّا سَمِعَتۡ بِمَكۡرِهِنَّ أَرۡسَلَتۡ إِلَيۡهِنَّ وَأَعۡتَدَتۡ لَهُنَّ مُتَّكَـٔٗا وَءَاتَتۡ كُلَّ وَٰحِدَةٖ مِّنۡهُنَّ سِكِّينٗا وَقَالَتِ ٱخۡرُجۡ عَلَيۡهِنَّۖ فَلَمَّا رَأَيۡنَهُۥٓ أَكۡبَرۡنَهُۥ وَقَطَّعۡنَ أَيۡدِيَهُنَّ وَقُلۡنَ حَٰشَ لِلَّهِ مَا هَٰذَا بَشَرًا إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا مَلَكٞ كَرِيمٞ 30
(31) उसने जो उनकी ये मक्कारी भरी बातें सुनी तो उनको बुलावा भेज दिया और उनके लिए तकिएदार सभा सजाई 26 और सत्कार में हर एक के आगे एक-एक छुरी रख दी। (फिर ठीक उस समय जबकि वे फल काट-काटकर खा रही थी) उसने यूसुफ़ को इशारा किया कि उनके सामने निकल आ। जब उन औरतों की दृष्टि उसपर पड़ी तो वे दंग रह गई और अपने हाथ काट बैठी और सहसा पुकार उठी, “अल्लाह की पनाह ! यह आदमी इंसान नहीं है, यह तो कोई बुजुर्ग फरिश्ता है।"
26. अर्थात् ऐसी सभा जिसमें मेहमानों के लिए तकिए लगे हुए थे। मिस्त्र के पुरातत्त्वों से भी इसकी पुष्टि होती है कि इन सभाओं में तकियों का उपयोग बहुत होता था। बाइबल में इस सत्कार का कोई उल्लेख नहीं है, अलबत्ता तलमूद में यह घटना बयान की गई है, मगर वह क़ुरआन से बहुत भिन्न है। क़ुरआन के बयान में जो जोवन, जो आत्मा, जो स्वाभाविकता और नैतिकता पाई जाती है, उससे तलमूद का बयान बिल्कुल ख़ाली है।
قَالَتۡ فَذَٰلِكُنَّ ٱلَّذِي لُمۡتُنَّنِي فِيهِۖ وَلَقَدۡ رَٰوَدتُّهُۥ عَن نَّفۡسِهِۦ فَٱسۡتَعۡصَمَۖ وَلَئِن لَّمۡ يَفۡعَلۡ مَآ ءَامُرُهُۥ لَيُسۡجَنَنَّ وَلَيَكُونٗا مِّنَ ٱلصَّٰغِرِينَ 31
(32) अज़ीज़ की पत्नी ने कहा, “देख लिया ! यह है वह आदमी जिसके मामले में तुम मुझपर बाते बनाती थी। बेशक मैंने इसे रिझाने की कोशिश की थी, मगर यह बच निकला। अगर यह मेरा कहना न मानेगा तो कैद किया जाएगा और बहुत अपमानित होगा।"27
27. इससे अन्दाज़ा होता है कि उस समय मिस्र के उच्च वर्गों की नैतिक स्थिति क्या थी। स्पष्ट है कि अज़ीज़ को पत्नी ने जिन औरतों को बुलाया होगा, वह अमीरों, रईसों और बड़े पदाधिकारियों के घर की बेगमें ही होंगी। इन विशिष्ट महिलाओं के सामने वह अपने प्रिय नौजवान को पेश करती है और उसकी सुन्दर जवानी दिखाकर उन्हें कायल करने की कोशिश करती है कि ऐसे सुन्दर नौजवान पर मैं मर न मिटती तो आख़िर और क्या करती। फिर ये बड़े घरों की बहू-बेटियाँ स्वयं भी अपने व्यवहार से मानो इस बात की पुष्टि करती हैं कि सच में इनमें से हर एक ऐसी परिस्थितियों में वहीं कुछ करती जो अज़ीज़ की बेगम ने किया। फिर शिष्ट महिलाओं को इस भरी सभा में इज्ज़तदार मेज़बान को एलानिया अपने इस इरादे को प्रकट करते हुए कोई शर्म महसूस नहीं होती कि अगर उसका सुन्दर दास उसकी वासना का खिलौना बनने हुआ तो वह उसे जेल भिजवा देगी। यह सब कुछ इस बात का पता देता है कि यूरोप और अमरीका और उनके पूर्वी अनुपालक आज औरतों की जिस स्वतंत्रता और निर्भीकता को बीसवीं सदी की प्रगतियों का करिश्मा समझ रहे हैं, वह कोई नई चीज़ नहीं है बहुत पुरानी चीज़ है। सैंकड़ों साल पहले मिस्र में यह उसी शान के साथ पाई जाती थी जैसी आज इस 'रौशन ज़माने में पाई जा रही है।
قَالَ رَبِّ ٱلسِّجۡنُ أَحَبُّ إِلَيَّ مِمَّا يَدۡعُونَنِيٓ إِلَيۡهِۖ وَإِلَّا تَصۡرِفۡ عَنِّي كَيۡدَهُنَّ أَصۡبُ إِلَيۡهِنَّ وَأَكُن مِّنَ ٱلۡجَٰهِلِينَ 32
(33) यूसुफ़ ने कहा, “ऐ मेरे रब ! कैद मुझे मंजूर है इसको अपेक्षा कि मैं वह काम करूं जो ये लोग मुझसे चाहते हैं और अगर तूने इनकी चालों को मुझसे दफ़ा न किया तो मैं इनके जाल में फँस जाउँगा और अज्ञानियों में शामिल हो रहूँगा।"28
28. ये आयतें हमारे सामने उन परिस्थितियों का एक अनोखा चित्र प्रस्तुत करती हैं जिनमें उस समय हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ग्रस्त हुए थे। रात-दिन के चौबीस घंटे आप इस खतरे में बिता रहे हैं कि कभी एक क्षण के लिए भी अगर इरादे की बन्दिश में कुछ ढील आ जाए तो गुनाह के उन अनगिनत दरवाज़ों में से किसी में प्रवेश कर सकते हैं जो आपके इन्तिज़ार में हर ओर खुले हुए हैं। इस हालत में यह ख़ुदापरस्त नौजवान जिस सफलता के साथ इन शैतानो प्रेरणाओं का मुकाबला करता है, वह अपने आप में कुछ कम प्रशंसनीय नहीं है। मगर मन को क़ाबू में रखने के इस आश्चर्यजनक कार्य पर, साथ ही आत्मबोध और शुद्ध चिंतन का और भी कमाल यह है कि इसपर भी उसके दिल में कभी यह अहंकारपूर्ण विचार नहीं आता कि वाह रे मैं, कैसा मज़बूत है मेरा चरित्र कि ऐसी-ऐसौ रूपवती और जवान औरतें मेरे पर दीवानी हैं और फिर भी मेरे कदम नहीं फिसलते। इसके बजाय वह अपनी इंसानी कमजोरियों का विचार करके काँप उठता है और बड़ी विनम्रता के साथ अल्लाह से मदद की प्रार्थना करता है कि ऐ रब ! मैं एक कमज़ोर इंसान हूँ, मेरा इतना बलबूता कहाँ कि इन अत्यंत उत्प्रेरकों का मुक़ाबला कर सकूँ। तू मुझे सहारा दे और मुझे बचा। डरता हूँ कि कहीं मेरे क़दम फिसल न जाएँ।
وَدَخَلَ مَعَهُ ٱلسِّجۡنَ فَتَيَانِۖ قَالَ أَحَدُهُمَآ إِنِّيٓ أَرَىٰنِيٓ أَعۡصِرُ خَمۡرٗاۖ وَقَالَ ٱلۡأٓخَرُ إِنِّيٓ أَرَىٰنِيٓ أَحۡمِلُ فَوۡقَ رَأۡسِي خُبۡزٗا تَأۡكُلُ ٱلطَّيۡرُ مِنۡهُۖ نَبِّئۡنَا بِتَأۡوِيلِهِۦٓۖ إِنَّا نَرَىٰكَ مِنَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ 35
(36) जेल में31 दो गुलाम और भी उसके से साथ दाख़िल हुए।32 एक दिन उनमें से एक ने कहा, “मैंने सपना देखा है कि मैं शराब निचोड़ रहा हूँ।” दूसरे ने कहा, “मैंने देखा कि मेरे सिर पर रोटियाँ रखी हैं और पक्षी उनको खा रहे हैं। दोनों ने कहा, "हमें इसकी ताबीर (स्वप्न फल) बताइए। हम देखते हैं कि आप एक नेक आदमी है"।33
31. शायद उस समय जबकि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) क़ैद किए गए, उनकी उम्र 20-21 साल से अधिक न होगी। तलमूद में बयान किया गया है कि क़ैदख़ाने से छूटकर जब वह मिस्र के शासनाधिकारी बने तो उनकी उम्र तीस साल थी और क़ुरआन कहता है कि क़ैदख़ाने में वह 'बिज़-अ सिनीन,' अर्थात् कई साल रहे । 'बिज़-अ' अरबी भाषा में दस तक की संख्या के लिए बोला जाता है।
32. ये दो ग़ुलाम जो क़ैदख़ाने में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के साथ दाख़िल हुए थे, उनके बारे में बाइबल की रिवायत है कि इनमें से एक मिस्र के बादशाह के साकियों (पिलानेवालों) का सरदार था और दूसरा शाही नानबाइयों (रोटी पकाने वालों) का अधिकारी।
يَٰصَٰحِبَيِ ٱلسِّجۡنِ أَمَّآ أَحَدُكُمَا فَيَسۡقِي رَبَّهُۥ خَمۡرٗاۖ وَأَمَّا ٱلۡأٓخَرُ فَيُصۡلَبُ فَتَأۡكُلُ ٱلطَّيۡرُ مِن رَّأۡسِهِۦۚ قُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ ٱلَّذِي فِيهِ تَسۡتَفۡتِيَانِ 40
(41) ऐ जेल के साथियो ! तुम्हारे सपने का फल यह है कि तुममें से एक तो अपने रब (मिस्र का बादशाह) 33अ को शराब पिलाएगा, रहा दूसरा तो उसे सूली पर चढ़ाया जाएगा और परिंदे उसका सिर नोच-नोचकर खाएँगे। निर्णय हो गया उस बात का जो तुम पूछ रहे थे।‘’34
33अ. आयत 23 के साथ इस आयत को मिलाकर पढ़ा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने जब मेरा रब' कहा था तो इससे तात्पर्य अल्लाह की ज़ात थी और जब मिस्र के बादशाह के ग़ुलाम से कहा कि तू अपने रब को शराब पिलाएगा तो उससे तात्पर्य मिस्र का बादशाह था, क्योंकि वह मिस्त्र के बादशाह हो को अपना रब समझता था।
34. यह व्याख्यान जो इस पूरे क़िस्से की जान है और स्वयं क़ुरआन में भी तौहीद (एकेश्वरवाद) के श्रेष्ठतम व्याख्यानों में से है, उसपर से यूँ ही सरसरी तौर पर [न गुज़र जाना चाहिए । उसके बहुत-से पहलू ऐसे हैं जिनपर ध्यान देने और सोच-विचार करने की आवश्यकता है-
(1) यह पहला अवसर है जबकि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) हमें सत्य-धर्म का प्रचार करते दिखाई पड़ते हैं। इससे पहले उनके जीवन की दास्तान के जो अध्याय क़ुरआन ने प्रस्तुत किए हैं, उनमें केवल श्रेष्ठ चरित्र के विभिन्न गुण अलग-अलग मरहलों में उभरते रहे हैं, मगर प्रचार का कोई निशान वहाँ नहीं पाया जाता । इससे सिद्ध होता है कि पहले मरहले केवल तैयारी और ट्रेनिंग के थे, नबी होने का कार्य व्यावहारिक रूप से अब उस जेल के मरहले में उनके सुपुर्द किया गया है और नबी की हैसियत से यह उनका पहला उपदेश है जिसमें उन्होंने धर्म की ओर बुलाया है।
(2) यह भी पहला ही अवसर है कि उन्होंने लोगों के सामने अपनी वास्तविकता प्रकट की। इससे पहले हम देखते हैं कि वे बड़े धैर्य और कृतज्ञता के साथ हर उस स्थिति को अंगीकार करते रहे, जो उनके सामने आई। किसी मौके पर भी उन्होंने बाप-दादा का नाम लेकर अपने आपको इन परिस्थितियों से निकालने की कोशिश न की जिनका वे पिछले चार पाँच साल के दौरान सामना करते रहे। मगर अब उन्होंने केवल धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए इस वास्तविकता से परदा उठाया कि मैं कोई नया और निराला दीन (धर्म) प्रस्तुत नहीं कर रहा हूँ, बल्कि मेरा संबंध तौहीद की दावत (एकेश्वावाद के संदेश) के उस विश्वव्यापी आन्दोलन से है जिसके हमाम (नायक) इबराहीम, इसहाक और याक़ूब (अलैहिमुस्सलाम) हैं।
(3) [अपने सपनों का फल पूछनेवालों का उत्तर देते हुए] आप जिस तरह उनकी बात में से अपनी बात कहने का मौक़ा निकालकर उनके सामने अपना दीन पेश करना शुरू कर देते हैं, इससे यह शिक्षा मिलती है कि वास्तव में किसी आदमी के दिल में अगर प्रचार की धुन समाई हुई हो और वह सुझ-बूझ भी रखता हो तो कैसे उत्तम ढंग से वह बात का रुख अपनी दावत की ओर फेर सकता है।
(4) इससे यह भी मालूम किया जा सकता है कि लोगों के सामने दीन की दावत पेश करने का सही ढंग क्या है । हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) छूटते ही दीन के विस्तृत नियम और विधान प्रस्तुत करना शुरू नहीं कर देते, बल्कि उनके सामने दीन के उस आरंभ बिन्दु को प्रस्तुत करते हैं जहाँ से सत्यवालों का रास्ता असत्य वालों के रास्ते से जुदा होता है, अर्थात् तौहीद (एकेश्वरवाद) और शिर्क (अनेकेश्वरवाद) का अन्तर । फिर उस अन्तर को वे ऐसे समुचित ढंग से स्पष्ट करते हैं कि सामान्य बुद्धि रखनेवाला कोई व्यक्ति उसे महसूस किए बिना नहीं रह सकता। मुख्य रूप से जो लोग उस समय उनके सामने थे उनके मन और मस्तिष्क में तो तीर की तरह यह बात उतर गई होगी, क्योंकि वे नौकरपेशा गुलाम थे और अपने दिल की गहराइयों में इस बात को ख़ूब महसूस कर सकते थे कि एक आका का गुलाम होना बेहतर है या बहुत से आकाओं का, और सारी दुनिया के आका की बन्दगी बेहतर है या बन्दों की बन्दगी । फिर वह यह भी नहीं कहते कि अपना दीन छोड़ो और मेरे दीन में आ जाओ, बल्कि एक अनोखे ढंग से उनसे कहते हैं कि देखो, अल्लाह की यह कितनी बड़ी कृपा है कि उसने अपने सिवा हमें किसी का बन्दा नहीं बनाया, मगर लोग उसके कृतज्ञ नहीं बनते और खामखाह स्वयं गढ़-गढ़कर अपने रब बनाते और उनकी बन्दगी करते हैं। फिर वह अपने सम्बोधित लोगों के दीन की आलोचना भी करते हैं, मगर अत्यंत उचित ढंग से और दिल दुखाने के हर तरीक़े से बचते हुए, बस इतना कहने को पर्याप्त समझते हैं कि ये उपास्य जिनमें से किसी को तुम अन्नदाता, किसी को नेमत और सुख-सामग्री देनेवाला प्रभु, किसी को धरती का स्वामी और किसी को धन का स्वामी या स्वास्थ्य व रोग का अधिकारी आदि कहते हो, ये सब केवल नाम ही हैं। इन नामों के पीछे कोई वास्तविक अन्नदाता,प्रभु, स्वामी और रब मौजूद नहीं है । वास्तविक स्वामी सर्वोच्च अल्लाह है जिसे तुम भी सृष्टि का पैदा करनेवाला और पालनेवाला मानते हो और उसने इनमें से किसी के लिए ख़ुदाई चलाने और बंदगी कराने का कोई प्रमाण नहीं उतारा है। उसने तो सत्ता के सारे अधिकार अपने ही लिए विरिष्ट कर रखे हैं और उसका आदेश है कि उसके सिवा किसी की बन्दगी न करो।
(5) इससे यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि हजरत यूसुफ़ (अलैहि०) ने जेल की जिन्दगी के ये आठ-दस साल किस तरह गुजारे होंगे। लोग समझते हैं कि क़ुरआन में चूंकि उनके एक ही उपदेश का उल्लेख है, इसलिए उन्होंने केवल एक ही बार दीन की दावत के लिए ज़बान खोली थी। मगर पहली बात तो एक यह है कि पैग़म्बर के बारे में यह गुमान करना ही बड़ी बदगुमानी है कि वह अपने वास्तविक काम से ग़ाफिल होगा। फिर जिस व्यक्ति के प्रचार-संलग्नता का यह हाल था कि दो आदमी सपने का फल पूछते हैं और वह इस अवसर का लाभ उठाकर दीन का प्रचार शुरू कर देता है, उसके बारे में यह कैसे सोचा जा सकता है कि उसने जेल के ये कुछ साल खामोश ही गुजार दिए होंगे।
وَقَالَ لِلَّذِي ظَنَّ أَنَّهُۥ نَاجٖ مِّنۡهُمَا ٱذۡكُرۡنِي عِندَ رَبِّكَ فَأَنسَىٰهُ ٱلشَّيۡطَٰنُ ذِكۡرَ رَبِّهِۦ فَلَبِثَ فِي ٱلسِّجۡنِ بِضۡعَ سِنِينَ 41
(42) फिर उनमें से जिसके बारे में विचार था कि वह छूट जाएगा, उससे यूसुफ़ ने कहा कि "अपने रब (मिस्र के बादशाह) से मेरा उल्लेख करना।" मगर शैतान ने उसे ऐसा ग़फ़लत में डाला कि वह अपने रब (मिस्र के बादशाह) से उसका उल्लेख करना भूल गया और यूसुफ़ कई साल जेल में पड़ा रहा।35
35. इस स्थान की टीका कुछ टीकाकारों ने यह को है कि "शैतान ने हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को अपने रब (अर्थात् अल्लाह) की याद से ग़ाफ़िल कर दिया और उन्होंने एक बन्दे से चाहा कि वह अपने रब (अर्थात् मिस्र के बादशाह) से उनका उल्लेख करके उनकी रिहाई की कोशिश करे, इसलिए अल्लाह ने उन्हें यह सज़ा दी कि वे कई साल तक जेल में पड़े रहे।" वास्तव में यह टीका बिल्कुल ग़लत है। सही यही है कि 'फ़ अन्साहुश-शैतानु ज़िक-र रब्बिही' (मगर शैतान ने उसे अपने आक़ा से हज़रत युसूफ़ का उल्लेख करना भुला दिया )। मूल अरबी आयत में 'हू' और 'ही' (उसके) के सर्वनाम उस व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ है जिसके बारे में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का गुमान था कि वह रिहाई पानेवाला है और इस आयत का अर्थ यह है “कि शैतान ने उसे, अर्थात् जो रिहाई पानेवाला था, अपने आका से हज़रत यूसुफ़ का उल्लेख करना भुला दिया।" इस सिलसिले में एक हदीस भी पेश की जाती है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, 'अगर यूसुफ़ (अलैहि०) ने वह बात न कही होती जो उन्होंने कही तो वे क़ैद में कई साल न पड़े रहते ।” लेकिन अल्लामा इब्ने कसीर फ़रमाते हैं कि “यह हदीस जितने तरीक़ों से रिवायत की गई है, वे सब ज़ईफ़ (कमज़ोर) हैं। इसके अतिरिक्त बुद्धि की दृष्टि से भी यह बात समझ में यूँ नहीं आती कि एक मज़लूम आदमी का अपनी रिहाई के लिए दुनिया के उपायों का अपनाना अल्लाह से ग़फ़लत और अल्लाह पर भरोसा न करने का प्रमाण मान लिया गया होगा।
وَقَالَ ٱلۡمَلِكُ إِنِّيٓ أَرَىٰ سَبۡعَ بَقَرَٰتٖ سِمَانٖ يَأۡكُلُهُنَّ سَبۡعٌ عِجَافٞ وَسَبۡعَ سُنۢبُلَٰتٍ خُضۡرٖ وَأُخَرَ يَابِسَٰتٖۖ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمَلَأُ أَفۡتُونِي فِي رُءۡيَٰيَ إِن كُنتُمۡ لِلرُّءۡيَا تَعۡبُرُونَ 42
(43) एक दिन36 बादशाह ने कहा, "मैंने सपने में देखा है कि सात मोटी गायें हैं जिनको सात दुबली गायें खा रही है और अनाज की सात बालें हरी है और दूसरी सात सूखी । ऐ दरबारवालो ! मुझे इस सपने की ताबीर (फल) बताओ, अगर तुम सपनों का अर्थ समझते हो।"37
36. बीच में कई वर्ष के कैद के समय का हाल छोड़कर अब बयान का सम्बन्ध उस जगह से जोड़ा जाता है जहाँ से हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की सांसारिक प्रगति शुरू हुई।
37. बाइबल और तलमूद का बयान है कि इन सपनों से बादशाह बहुत परेशान हो गया था और उसने आम एलान के द्वारा अपने देश के तमाम बुद्धिजीवियों, काहिनों, धर्म-गुरुओं और जादूगरों को जमा करके इन सबके सामने यह प्रश्न रखा था।
وَقَالَ ٱلَّذِي نَجَا مِنۡهُمَا وَٱدَّكَرَ بَعۡدَ أُمَّةٍ أَنَا۠ أُنَبِّئُكُم بِتَأۡوِيلِهِۦ فَأَرۡسِلُونِ 44
(45) उन दो कैदियों में से जो व्यक्ति बच गया था, और उसे एक लम्बी मुद्दत के बाद अब बात याद आई, उसने कहा, "मैं आप लोगों को इसका अर्थ बताता हूँ, मुझे तनिक (जेल में यूसुफ़ के पास) भेज दीजिए।‘’38
38. क़ुरआन ने यहाँ संक्षेप से काम लिया है। बाइबिल और तलमूद से इसका विवरण यह मालूम होता है (और अनुमान भी कहता है कि अवश्य ऐसा हुआ होगा) कि इस शराब पिलानेवाले सरदार ने यूसुफ़ (अलैहि०) के हालात बादशाह से बयान किए और जेल में उसके सपने और उसके साथी के सपने का जैसा सही अर्थ उन्होंने बताया था, उसका उल्लेख भी किया और कहा कि मैं उनसे इसका अर्थ पूछकर आता हूँ, मुझे जेल में उनसे मिलने की अनुमति प्रदान की जाए।
يُوسُفُ أَيُّهَا ٱلصِّدِّيقُ أَفۡتِنَا فِي سَبۡعِ بَقَرَٰتٖ سِمَانٖ يَأۡكُلُهُنَّ سَبۡعٌ عِجَافٞ وَسَبۡعِ سُنۢبُلَٰتٍ خُضۡرٖ وَأُخَرَ يَابِسَٰتٖ لَّعَلِّيٓ أَرۡجِعُ إِلَى ٱلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَعۡلَمُونَ 45
(46) उसने जाकर कहा, “यूसुफ़, ऐ साक्षात सत्यनिष्ठ39, मुझे इस सपने का अर्थ बता कि सात मोटी गायें हैं जिनको सात दुबली गायें खा रही हैं और सात बालें हरी हैं और सात सूखी, शायद कि मैं उन लोगों के पास वापस जाऊँ और शायद कि वे जान लें।40
39. अरबी में शब्द 'सिद्दीक़' प्रयुक्त हुआ है जो अरबी भाषा में सत्यता और सत्यनिष्ठा के उच्चतम पद के लिए प्रयुक्त होता है, इससे अन्दाज़ा किया जा सकता है कि जेल के प्रवास में उस व्यक्ति ने यूसुफ़ के निष्कलंक आचरण से कितना प्रभाव ग्रहण था और यह प्रभाव एक लम्बी मुद्दत बीत जाने के बाद भी कितना दृढ़ था। (सिद्दीक़ की और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-4, निसा, टिप्पणी 99)
40. अर्थात् आपका पद और महत्त्व जान लें और उनको एहसास हो कि किस श्रेणी के व्यक्ति को उन्होंने कहाँ बन्द कर रखा है और इस तरह मुझे अपने इस वादे को पूरा करने का अवसर मिल जाए जो मैंने आपसे क़ैद के ज़माने में किया था।
وَقَالَ ٱلۡمَلِكُ ٱئۡتُونِي بِهِۦۖ فَلَمَّا جَآءَهُ ٱلرَّسُولُ قَالَ ٱرۡجِعۡ إِلَىٰ رَبِّكَ فَسۡـَٔلۡهُ مَا بَالُ ٱلنِّسۡوَةِ ٱلَّٰتِي قَطَّعۡنَ أَيۡدِيَهُنَّۚ إِنَّ رَبِّي بِكَيۡدِهِنَّ عَلِيمٞ 49
(50) बादशाह ने कहा, उसे मेरे पास लाओ। मगर जब शाही दूत यूसुफ़ के पास पहुँचा तो उसने कहा42, "अपने रब के पास वापस जा और उससे पूछ कि उन औरतों का क्या मामला है जिन्होंने अपने हाथ काट लिए थे? मेरा रब तो उनकी मक्कारी को जानता ही है।"43
42. यहाँ से लेकर बादशाह की मुलाक़ात तक जो कुछ कुरआन ने बयान किया है -जो इस किस्से का एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण अध्याय है- इसका कोई उल्लेख बाइबल और तलमूद में नहीं है। बाइबल का बयान है कि बादशाह की तलबी पर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) तुरन्त चलने को तैयार हो गए, हजामत बनवाई, कपड़े बदले और दरबार में जा हाज़िर हुए। तलमूद इससे भी अधिक घटिया रूप में इस घटना को प्रस्तुत करती है। [उसके बयान के अनुसार जब हज़रत यूसुफ़ शाही दरबार में पहुँचे तो] वहाँ की चमक-दमक और शान व शौकत देखकर हक्का-बक्का रह गए। वह उस नीची जगह खड़े हुए [जो निचले वर्ग के लोगों के लिए निश्चित थी] और ज़मीन तक झुककर बादशाह को सलामी दी। इस चित्र में बनी इसराईल ने अपने महान पैग़म्बर को जितना गिराकर प्रस्तुत किया है, उसको दृष्टि में रखिए और फिर देखिए कि कुरआन उनके कैद से निकलने और बादशाह से मिलने की घटना किस शान और किस आन-बान के साथ प्रस्तुत करता है। अब यह निर्णय करना हर नज़रवाले का अपना काम है कि इन दोनों चित्रों में से कौन-सा चित्र पैग़म्बरी के पद से अधिक मेल खाता है।
43. अर्थात् जहाँ तक मेरे रब का मामला है, उसको तो पहले ही मेरी बेगुनाही का हाल मालूम है, मगर तुम्हारे रब को भी मेरी रिहाई से पहले उस मामले की पूरी तरह जाँच कर लेनी चाहिए जिसके कारण मुझे जेल में डाला गया था, क्योंकि मैं किसी सन्देह और किसी भ्रम का कलंक लिए हुए दुनिया के सामने नहीं आना चाहता। मुझे रिहा करना है तो पहले सबके सामने यह सिद्ध होना चाहिए कि मैं निर्दोष था। वास्तविक दोषी तुम्हारे राज्य के करता-धरता और कर्मचारी थे जिन्होंने अपनी बेगमों की चरित्रहीनता की सज़ा मेरी पाकदामनी को दी।
इस माँग को हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) जिन शब्दों में प्रस्तुत करते हैं, उनसे स्पष्ट होता है कि मिस्र का बादशाह उस पूरी घटना को पहले से जानता था जो अज़ीज़ की पत्नी की ओर से की गई दावत के मौक़े पर घटित हुई थी, बल्कि वह ऐसी प्रसिद्ध घटना थी कि उसकी ओर केवल एक संकेत ही काफ़ी था।
फिर इस माँग में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) मिस्री अज़ीज़ की पत्नी को छोड़कर केवल हाथ काटनेवाली औरतों के उल्लेख को काफ़ी समझते हैं। यह उनके अत्यन्त नेकदिल होने का एक और प्रमाण है। इस औरत ने उनके साथ चाहे कितनी ही बुराई को हो, मगर फिर भी उसके पति का उनपर उपकार था, इसलिए उन्होंने न चाहा कि उसकी प्रतिष्ठा को स्वयं कोई आघात पहुँचाएँ।
قَالَ مَا خَطۡبُكُنَّ إِذۡ رَٰوَدتُّنَّ يُوسُفَ عَن نَّفۡسِهِۦۚ قُلۡنَ حَٰشَ لِلَّهِ مَا عَلِمۡنَا عَلَيۡهِ مِن سُوٓءٖۚ قَالَتِ ٱمۡرَأَتُ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡـَٰٔنَ حَصۡحَصَ ٱلۡحَقُّ أَنَا۠ رَٰوَدتُّهُۥ عَن نَّفۡسِهِۦ وَإِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ 50
(51) इसपर बादशाह ने उन औरतों से मालमू किया 44, "तुम्हारा क्या अनुभव है उस समय का जब तुमने यूसुफ़ को रिझाने की कोशिश की था?" सबने एक ज़बान होकर कहा, "अल्लाह की पनाह ! हमने तो उसमें बुराई की झलक तक न पाई ।" अज़ीज़ की पत्नी बोल उठी, “अब सत्य स्पष्ट हो चुका है। वह मैं ही थी जिसने उसको फुसलाने की कोशिश की थी, निस्सन्देह वह बिल्कुल सच्चा है।"45
44. संभव है कि शाही महल में उन तमाम औरतों को जमा करके यह गवाही ली गई हो और यह भी संभव है कि बादशाह ने किसी खास भरोसेमंद व्यक्ति को भेजकर एक-एक करके उनसे मालूम कराया हो।
45. अनुमान किया जा सकता है कि इन गवाहियों ने किस तरह आठ-नौ साल पहले की घटनाओं को ताज़ा कर दिया होगा, किस तरह हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का व्यक्तित्त्व क़ैद के ज़माने की लम्बी गुमनामी से निकलकर यकायक फिर ऊपर पर आ गया होगा, और किस तरह मिस्र के तमाम उच्च वर्ग के लोग, प्रतिष्ठित लोग, मध्यम वर्गीय और आम लोगों तक आपकी नैतिक साख स्थापित हो गई होगी। इसके बाद यह बात तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं रहती कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने बादशाह से मुलाक़ात के मौक़े पर धरती के ख़ज़ानों के सुपर्द करने की माँग कैसे बेधड़क पेश कर दी और बादशाह ने क्यों उसे निस्संकोच स्वीकार कर लिया।
ذَٰلِكَ لِيَعۡلَمَ أَنِّي لَمۡ أَخُنۡهُ بِٱلۡغَيۡبِ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي كَيۡدَ ٱلۡخَآئِنِينَ 51
(52) (यूसुफ़ ने कहा) 46 “इससे मेरा उद्देश्य यह था कि (अज़ीज) यह जान ले कि मैंने पीठ पीछे उसकी ख़ियानत (विश्वासघात) नहीं की थी और यह कि जो ख़ियानत करते हैं उनकी चालों को अल्लाह सफलता की राह पर नहीं लगाता ।
46. यह बात शायद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने उस समय कही होगी जब जेल में आपको जाँच-पड़ताल के नतीजे की खबर दी गई होगी। कुछ टीकाकार इस वाक्य को हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का नहीं, बल्कि अज़ीज़ की पत्नी के कथन का एक अंश बताते हैं। उनका तर्क यह है कि यह वाक्य अज़ीज़ की पत्नी के कथन के तुरन्त बाद आया है और बीच में कोई शब्द ऐसा नहीं है और न ऐसा कोई संकेत ही पाया जाता है जिससे यह समझा जाए कि 'इन्नहू लमिन-स्सादिक़ीन' (बेशक वह बिलकुल सच्चा है) पर अज़ीज़ की पत्नी का कथन समाप्त हो गया और बाद की बात हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की ज़बान से अदा हुई, हालाँकि यहाँ वर्णन-शैली अपने आपमें एक बहुत बड़ा संकेत है जिसके होते किसी और संकेत की ज़रूरत नहीं रहती। पहला वाक्य तो निस्सन्देह अज़ीज़ की पत्नी के मुँह पर फबता है, मगर क्या दूसरा वाक्य भी उसकी हैसियत के अनुसार नज़र आता है? यहाँ तो वाणी की शैली साफ़ बता रही है कि इसके कहनेवाले हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) हैं, न कि मिस्र के अज़ीज़ की पत्नी । इस वाणी में जो विशालहृदयता, जो नेकदिली, जो विनम्रता और जो खुदातरसी (ईशपरायणता) बोल रही है, वह स्वयं गवाह है कि यह वाक्य उस ज़बान से निकला हुआ नहीं हो सकता, जिससे है-त-ल-क' (आ जा) निकला था।
قَالَ ٱجۡعَلۡنِي عَلَىٰ خَزَآئِنِ ٱلۡأَرۡضِۖ إِنِّي حَفِيظٌ عَلِيمٞ 54
(55) यूसुफ़ ने कहा, “देश के ख़जाने मेरे सुपुर्द कीजिए, मैं रक्षा करनेवाला भी हूँ और ज्ञान भी रखता हूँ।‘’47अ
47अ. इससे पहले जो कुछ व्याख्याएँ आ चुकी हैं, उनकी रौशनी में देखा जाए तो साफ़ नज़र आएगा कि यह कोई नौकरी का प्रार्थना-पत्र नहीं था, बल्कि वास्तव में यह उस क्रान्ति का द्वार खोलने के लिए अन्तिम प्रहार था जो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की नैतिक शक्ति से पिछले दस-बारह साल के अन्दर पल-बढ़कर प्रकट होने के लिए तैयार हो चुका था और जिसके दरवाज़े का खुलना केवल एक ठोंके ही का मुहताज था । हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) परीक्षाओं के एक लम्बे सिलसिले से गुज़रकर आ रहे थे। इन परीक्षाओं में उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि वे अमानत, सच्चाई, ज्ञान, आत्मनियंत्रण, विशालहृदयता, सूझ-बूझ और मामलों को समझने में कम से कम अपने ज़माने के लोगों के बीच तो अपना उदाहरण नहीं रखते। उनका रक्षा करनेवाला और जाननेवाला होना अब केवल एक दावा न था, बल्कि एक प्रमाणित घटना थी जिसपर आम व ख़ास, जनता और बादशाह सब ईमान ला चुके थे। अब अगर कुछ कसर बाक़ी थी तो वह केवल इतनी कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) स्वयं शासन के उन अधिकारों को अपने हाथ में लेने पर रज़ामंदी दिखाएँ जिनके लिए बादशाह और उसके दरबारी अच्छी तरह जान चुके थे कि उनसे अधिक उचित व्यक्ति और कोई नहीं है। चुनांचे यही वह कमी थी जो उन्होंने अपने इस वाक्य से पूरी कर दी और उनकी ज़बान से इस माँग के निकलते ही बादशाह और उसकी कौंसिल ने उसे दिलो-जान से मान लिया।
ये अधिकार जो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने माँगे और उनको सौंपे गए। उनका स्वरूप क्या था? न जाननेवाले यहाँ 'ज़मीन के ख़ज़ाने' के शब्दों और आगे चलकर अन्न के बँटवारे का उल्लेख कर अनुमान लगाते हैं कि शायद यह कोषाधिकारी या माल का अफ़सर या अकाल कमिश्नर या वित्तमंत्री या खाद्यमंत्री सरीखा कोई पद होगा, लेकिन कुरआन, बाइबिल, तलमूद की सर्वमान्य गवाही है कि वास्तव में हज़रत यूसुफ़ मिस्त्री साम्राज्य के सर्वेसर्वा (रूमी परिभाषा में डिक्टेटर) बनाए गए थे और देश का बनाना-बिगाड़ना सब कुछ उनके अधिकार में दे दिया गया था। क़ु़रआन कहता है कि जब हज़रत याक़ूब (अलैहि०) मिस्र पहुँचे हैं, उस समय हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) शासन कर रहे थे। (व स्-फ़-अ अ-ब वैहि अलल अर्शि अर्थात् और उसने अपने माँ-बाप को उठाकर अपने पास सिंहासन पर बिठाया।) हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के अपने मुख से निकला हुआ यह वाक्य कुरआन में नक़ल किया गया है कि 'रब्बी क़द आतैतनी मिनल मुल्क' अर्थात् “ऐ मेरे रब ! तूने मुझे बादशाही प्रदान की।” प्याले की चोरी के अवसर पर सरकारी कर्मचारी हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के प्याले को बादशाह का प्याला कहते हैं और अल्लाह मिस्न पर उनके सत्ता की स्थिति का बखान इस तरह करता है कि सारे मिस्र का सारा भूखण्ड उनका था। रही बाइबल तो वह गवाही देती है कि फ़िरऔन ने यूसुफ़ (अलैहि०) से कहा-
"सो तू मेरे घर का सर्वेसर्वा होगा और मेरी सारी प्रजा तेरे आदेश पर चलेगी, केवल सिंहासन का स्वामी होने के कारण मैं श्रेष्ठतम हूँगा। देख, मैं तुझे सारे मिस्र देश का शासक बनाता हूँ... और तेरे हुक्म के बिना कोई आदमी इस सारे मित्र देश में अपना हाथ या पाँव न हिलाने पाएगा और फिरऔन ने यूसुफ़ का नाम ज़फिनात फ़अनियह (दुनिया को निजात दिलानेवाला) रखा।” (उत्पत्ति 4: 39-55)
और तलमूद कहती है कि यूसुफ़ के भाइयों ने मिस्र से वापस जाकर अपने बाप से मिस्र के शासक (यूसुफ़) की प्रशंसा करते हुए बयान किया-
"अपने देश के निवासियों पर उसकी सत्ता सर्वोच्च है। उसके आदेश पर वे निकलते और उसी के आदेश पर वे प्रवेश करते हैं। उसकी ज़बान सारे देश पर राज करती है। किसी मामले में फ़िरऔन के आदेश की ज़रूरत नहीं होती।"
दूसरा प्रश्न यह है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने ये अधिकार किस उद्देश्य से माँगे थे? एक काफ़िर हुकूमत (धर्महीन शासन) की व्यवस्था को उसके कुफ़ भरे नियम और कानून ही पर चलाने के लिए या देश की संस्कृति, नैतिक और राजनीतिक व्यवस्था को इस्लाम के अनुसार ढाल देने के लिए? इस प्रश्न का सबसे अच्छा उत्तर वह है जो अल्लामा जमख्रशरी ने अपनी टीका 'कश्शाफ़' में दिया है। वे लिखते हैं-
"हज़रत यूसुफ़ ने 'मुझे धरती के ख़जाने दें' जो फ़रमाया तो इससे उनका उद्देश्य केवल यह था कि उनको अल्लाह के आदेशों के जारी करने और सत्य स्थापित करने और न्याय फैलाने का अवसर मिल जाए और वे उस काम को अंजाम देने की शक्ति प्राप्त कर लें जिसके लिए नबी भेजे जाते हैं। उन्होंने बादशाही की मुहब्बत और दुनिया के लालच में यह मांग नहीं की थी, बल्कि यह जानते हुए की थी कि कोई दूसरा व्यक्ति उनके सिवा ऐसा नहीं है जो इस काम को अंजाम दे सके।"
और सच यह है कि यह प्रश्न वास्तव में एक और प्रश्न पैदा करता है जो इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण और मौलिक प्रश्न है, और वह यह है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) क्या पैग़म्बर भी थे या नहीं? अगर पैग़म्बर थे तो क्या क़ुरआन में हमें पैग़म्बरी की यही धारणा मिलती है कि इस्लाम की दावत देनेचाले स्वयं कुफ़्र की व्यवस्था को कुफ़ के नियमों पर चलाने के लिए अपनी सेवाएँ प्रस्तुत करे? बल्कि यह प्रश्न इसपर भी समाप्त नहीं होता, इससे भी अधिक सूक्ष्म और कठोर एक दूसरे प्रश्न पर जाकर ठहरता है, अर्थात् यह कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) एक सत्यवादी आदमी भी थे या नहीं? अगर सत्यवादी थे तो क्या एक सत्यवादी व्यक्ति का यही काम है कि जेल में तो वह अपनी पैग़म्बरी की दावत की शुरुआत इस प्रश्न से करे कि 'बहुत-से रब बेहतर हैं या वह एक अल्लाह जो सब पर ग़ालिब है' और बार-बार मिस्रवालों पर भी स्पष्ट कर दे कि तुम्हारे इन बहुत-से अलग-अलग ख़ुद बनाए हुए ख़ुदाओं में से एक यह मिस्र का बादशाह भी है और साफ़-साफ़ अपने मिशन का बुनियादी अक़ीदा यह बयान करे कि 'शासन-सत्ता का अधिकार एक अल्लाह के सिवा किसी के लिए नहीं है', मगर जब व्यावहारिक परीक्षा की घड़ी आए तो वही व्यक्ति स्वयं उस शासन-व्यवस्था का सेवक, बल्कि व्यवस्थापक, सुरक्षा करनेवाला और मददगार तक बन जाए जो मिस्त्र के बादशाह की ख़ुदाई में चल रहा था और जिसका बुनियादी नज़रिया था कि 'शासन-सत्ता के आपकार अल्लाह के लिए नहीं, बल्कि बादशाह के लिए हैं।'
وَكَذَٰلِكَ مَكَّنَّا لِيُوسُفَ فِي ٱلۡأَرۡضِ يَتَبَوَّأُ مِنۡهَا حَيۡثُ يَشَآءُۚ نُصِيبُ بِرَحۡمَتِنَا مَن نَّشَآءُۖ وَلَا نُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ 55
(56) इस तरह हमने उस धरती पर यूसुफ़ के लिए इक्तिदार (सत्ता) की राह हमवार की। उसे अधिकार प्राप्त था कि उसमें जहाँ चाहे, अपनी जगह बनाए।48 हम अपनी रहमत जिसको चाहते हैं, प्रदान करते हैं। नेक लोगों का बदला हमारे यहाँ मारा नहीं जाता,
48. अर्थात् अब मिस्त्र की पूरी धरती उसकी थी। इसकी हर जगह को वह अपनी जगह कह सकता था। वहाँ कोई कोना भी ऐसा न रहा था जो इससे रोका जा सकता हो। यह मानो उस पूर्ण प्रभुत्व और सर्वव्यापी सत्ता का बयान है जो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को उस देश पर प्राप्त थी। पुराने टीकाकार भी इस आयत की यही टीका लिखते हैं। चुनांचे इब्ने ज़ैद के हवाले से अल्लामा इब्ने जरीर तबरी ने अपनी टीका में इसका अर्थ यह बयान किया है कि "हमने यूसुफ़ को उन सब चीज़ों का मालिक बना दिया जो मिस्र में घों, दुनिया के उस हिस्से में वह जहाँ जो कुछ चाहता कर सकता था, वह धरती उसके हवाले कर दी गई थी, यहाँ तक कि अगर वह चाहता कि फ़िरऔन को अपने अधीन कर ले और स्वयं उससे ऊपर हो जाए तो यह भी कर सकता था।" दूसरा कथन अल्लामा इब्ने जरीर तबरी ने मुजाहिद का नक़ल किया है जो बड़े टीकाकारों में से हैं। उनका विचार है कि मिस के बादशाह ने यूसुफ़ (अलैहि०) के हाथ पर इस्लाम स्वीकार कर लिया था।
وَجَآءَ إِخۡوَةُ يُوسُفَ فَدَخَلُواْ عَلَيۡهِ فَعَرَفَهُمۡ وَهُمۡ لَهُۥ مُنكِرُونَ 57
(58) यूसुफ़ के भाई मिस्र आए और उसके यहाँ हाज़िर हुए।50 उसने उन्हें पहचान लिया, मगर वे उसको नहीं जानते थे।51
50. यहाँ फिर सात-आठ वर्ष की घटनाओं को बीच में छोड़कर वार्ता-क्रम उस जगह से जोड़ दिया गया है जहाँ से बनी इसराईल के मिस्र जाने और हज़रत याक़ूब (अलैहि०) को अपने गुमशुदा बेटे का पता मिलने की शुरुआत होती है। बीच में जो घटनाएं छोड़ दी गई हैं, उनका सार यह है कि सपने वाली भविष्यवाणी के अनुसार हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के शासन के पहले सात साल मिस्र में अति समृद्धि के बीते और उन दिनों में उन्होंने आनेवाले अकाल के लिए वे तमाम उपाय कर लिए जिनका मश्विरा बादशाह के सपने का फल बताते समय वे दे चुके थे। इसके बाद अकाल का दौर शुरू हुआ और यह अकाल केवल मिस्र ही में न था, बल्कि आस-पास के देश भी उसकी लपेट में आ गए थे। शाम, फ़िलस्तीन, पूर्वी जार्डन, उत्तरी अरब सब जगह सूखा पड़ गया था। इन परिस्थितियों में हज़रत यूसुफ़ के सूझ-बूझ वाले प्रबन्ध के कारण केवल मिस्र ही वह देश था जहाँ अकाल के बाद भी अनाज की बहुतायत थी। इसलिए पड़ोसी देशों के लोग विवश हुए कि अनाज प्राप्त करने के लिए मिस्र की ओर रुजू करें। यही वह अवसर था जब फ़लस्तीन से हज़रत यूसुफ़ के भाई अन्न ख़रीदने के लिए मिस्र पहुँचे,शायद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने अनाज को इस तरह योजना बनाई होगी कि बाहरी दुनिया में विशेष अनुमति पत्रों के बिना और विशेष मात्रा से अधिक अनाज न जा सकता होगा। इस कारण जब यूसुफ़ के भाइयों ने विदेश से आकर अनाज प्राप्त करना चाहा होगा, तो उन्हें इसके लिए विशेष अनुमति पत्र प्राप्त करने की ज़रूरत पेश आई होगी और इस तरह हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के सामने उनकी पेशी की नौबत आई होगी।
51. यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों का आपको न पहचानना कुछ असंभव नहीं है। जिस समय उन्होंने आपको कुएँ में फेंका था, उस समय आप केवल सत्तरह साल के लड़के थे और अब आपकी उम्र 38 साल के लगभग थी। इतनी लम्बी मुद्दत आदमी को बहुत कुछ बदल देती है। फिर यह तो उन्होंने सोचा भी न होगा कि जिस भाई को वे कुएँ में फेंक गए थे, वह आज मिस्र का सर्वेसर्वा होगा।
فَإِن لَّمۡ تَأۡتُونِي بِهِۦ فَلَا كَيۡلَ لَكُمۡ عِندِي وَلَا تَقۡرَبُونِ 59
(60) अगर तुम उसे न लाओगे तो मेरे पास तुम्हारे लिए कोई अनाज नहीं है, बल्कि तुम मेरे करीब भी न फटकना।52
52. संक्षेप में होने की वजह से शायद किसी को समझने में यह कठिनाई हो कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) जब अपने आपको उनपर प्रकट न करना चाहते थे तो फिर उनके सौतेले भाई का उल्लेख कैसे आ गया और उसके लाने पर इतना आग्रह करने का अर्थ क्या था, क्योंकि इस तरह तो भेद खुल सकता था, लेकिन थोड़ा-सा विचार करने से बात साफ समझ में आ जाती है। अकाल की वजह से वहाँ अनाज पर कन्ट्रोल था और हर आदमी एक निश्चित मात्रा में ही अनाज ले सकता था। अनाज लेने के लिए ये दस भाई आए थे, मगर वे अपने पिता और अपने ग्यारहवें भाई का हिस्सा भी मांगते होंगे। इसपर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने कहा होगा कि तुम्हारे पिता के स्वयं न आने के लिए तो यह कारण उचित हो सकता है कि वे बहुत बूढ़े और नेत्रहीन हैं, मगर भाई के न आने का क्या उचित कारण हो सकता है? उन्होंने उत्तर में बताया होगा कि वह हमारा सौतेला भाई है और कुछ कारणों से हमारे पिता उसको हमारे साथ भेजने में संकोच करते हैं। तब हज़रत यूसुफ (अलैहि०) ने फरमाया होगा कि ख़ैर, इस समय तो हम तुम्हारी बात पर भरोसा करके तुम्हें पूरा अनाज दिए देते हैं, मगर आगे अगर तुम उसको साथ न लाए तो तुम्हारा भरोसा जाता रहेगा और तुम्हें यहाँ से कोई अनाज न मिल सकेगा। इस राजकीय धमकी के साथ आपने उनको अपने उपकार और अच्छे सत्कार से भी मोहने का प्रयत्न किया, क्योंकि दिल अपने छोटे भाई को देखने और घर के हालात मालूम करने के लिए व्याकुल था। यह मामले को एक सादा-सी शक्ल है जो तनिक विचार करने से अपने आप समझ में आ जाती है। इस शक्ल में बाइबल को उस अतिशयोक्तिपूर्ण दासतान पर भरोसा करने की कोई जरूरत नहीं रहती जो किताब उत्पत्ति के अध्याय 42-43 में बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत की गई है।
وَقَالَ يَٰبَنِيَّ لَا تَدۡخُلُواْ مِنۢ بَابٖ وَٰحِدٖ وَٱدۡخُلُواْ مِنۡ أَبۡوَٰبٖ مُّتَفَرِّقَةٖۖ وَمَآ أُغۡنِي عَنكُم مِّنَ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٍۖ إِنِ ٱلۡحُكۡمُ إِلَّا لِلَّهِۖ عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُۖ وَعَلَيۡهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُتَوَكِّلُونَ 66
(67) फिर उसने कहा, “मेरे बच्चो, मिस्र की राजधानी में एक दरवाज़े से प्रवेश न करना, बल्कि अलग-अलग दरवाज़ों से जाना53, मगर मैं अल्लाह की इच्छा से तुमको नहीं बचा सकता। आदेश उसके सिवा किसी का भी नहीं चलता। उसी पर मैंने भरोसा किया और जिसको भी भरोसा करना हो, उसी पर करे।”
53. इससे अन्दाज़ा होता है कि यूसुफ़ (अलैहि०) के बाद उनके भाई को भेजते समय हज़रत याक़ूब (अलैहि०) के दिल पर क्या बीत रही होगी। यद्यपि अल्लाह पर भरोसा था और धैर्य और समर्पण में उनका स्थान बहुत ऊँचा था, मगर फिर भी थे तो इंसान ही। तरह-तरह के अंदेशे दिल में आते होंगे और रह-रहकर इस विचार से काँप उठते होंगे कि अल्लाह जाने अब इस लड़के की शक्ल भी देख सकूँगा या नहीं। इसी लिए वे चाहते होंगे कि अपनी हद तक सावधानी बरतने में कोई कसर न उठा रखी जाए।यह सावधानीपूर्ण मश्विरा कि मिस की राजधानी में ये सब पाई एक दरवाजे से न जाएँ उन राजनीतिक परिस्थितियों पर विचार करने से साफ समझ में आ जाता है जो उस समय पाई जाती थीं। ये लोग मिस्री राज्य की सीमा पर स्वतंत्र कबाइल क्षेत्र के रहनेवाले थे। मिस्रवाले उस क्षेत्र के लोगों को उसी सन्देह की दृष्टि से देखते होंगे जिस दृष्टि से भारत को ब्रिटिश सरकार स्वतंत्र सीमावर्ती क्षेत्रों को देखती रही है। हज़रत याक़ूब को अंदेशा हुआ होगा कि इस अकाल के समय में आर ये लोग एक जत्था बने हुए मिस्र में प्रवेश करेंगे तो शायद उनपर सन्देह किया जाए और यह विचार किया जाए कि ये यहाँ लूटमार के उद्देश्य से आए हैं। पिछली आयत में हज़रत याकूब (अलैहि०) का यह कथन कि 'अलावा इसके कि कहीं तुम घेर ही लिए जाओ।' इस विषय की ओर स्वयं संकेत कर रहा है कि यह मश्विरा राजनीतिक कारणों से था।
وَلَمَّا دَخَلُواْ مِنۡ حَيۡثُ أَمَرَهُمۡ أَبُوهُم مَّا كَانَ يُغۡنِي عَنۡهُم مِّنَ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٍ إِلَّا حَاجَةٗ فِي نَفۡسِ يَعۡقُوبَ قَضَىٰهَاۚ وَإِنَّهُۥ لَذُو عِلۡمٖ لِّمَا عَلَّمۡنَٰهُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ 67
(68) और हुआ भी यही कि जब वे अपने बाप के आदेशानुसार शहर में (अलग-अलग दरवाज़ों से) दाख़िल हुए तो उसका यह सावधानी भरा उपाय अल्लाह की इच के गुजाबले में कुछ भी काम न आ सका। हाँ, बस याक़ूब के दिल में जो एक खाक भी उसे दूर करने के लिए उसने अपनी सी कोशिश कर ली। निस्सन्देह यह हमारी दी गई शिक्षा का शान रखोवाला था, मगर अधिकतर लोग मामले की सच्चाई को जानते नहीं हैं।54
54. इसका अर्थ यह है कि उपाय करने और अल्लाह पर भरोसा रखने के दर्मियान यह ठीक-ठीक सन्तुलन, जो तुम हज़रत याक़ूब (अलैहि०) के उपरोक्त कथन में पाते हो, यह वास्तव में सत्य-ज्ञान के उस कृपा का फल था जो अल्लाह की मेहरबानी से उनपर हुई थी। एक ओर वे इस कारण-जगत् के नियमों के अनुसार तमाम ऐसे उपाय करते हैं जो बुद्धि, चिन्तन और अनुभव के आधार पर अपनाना संभव था। बेटों को उनका पहला अपराध याद दिलाकर डाँट-फटकार करते हैं, ताकि वे दोबारा वैसा ही अपराध करने की जुर्रत न करें। उनसे अल्लाह के नाम पर वचन लेते हैं कि सौतेले भाई की सुरक्षा करेंगे और समय की राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए जिस सावधानी पूर्ण उपाय की ज़रूरत महसूस होती है उसे भी अपनाने का आदेश देते हैं, ताकि अपनी हद तक कोई बाहरी वजह भी ऐसी न रहने दी जाए जो उन लोगों के लिए घिर जाने का कारण बने । पर दूसरी ओर हर क्षण यह बात उनकी दृष्टि में है और उसे बार-बार प्रकट करते हैं कि कोई 'इंसानी उपाय' अल्लाह के चाहे को लागू होने से नहीं रोक सकता। वास्तव में सुरक्षा अल्लाह की सुरक्षा है, और भरोसा अपने उपायों पर नहीं बल्कि अल्लाह ही की कृपा पर होना चाहिए। यह सही सन्तुलन अपनी बातों में और अपने कामों में केवल वही व्यक्ति स्थापित कर सकता है जो वास्तविकता का ज्ञान रखता हो, जो यह भी जानता हो कि दुनिया की ज़िन्दगी के प्रत्यक्ष पहलू में अल्लाह की बनाई हुई प्रकृति इंसान से किस कोशिश और कार्य का तकाज़ा करती है, और उसे भी जानता हो । इस प्रत्यक्ष के पीछे जो वास्तविकता छिपी हुई है, उसके आधार पर मूल प्रभावी शक्ति कौन-सी है और उसके होते हुए अपनी कोशिश और अमल पर इंसान का भरोसा कितना निराधार है। यही वह बात है जिसको अधिकतर लोग नहीं जानते। इनमें से जिसके मन पर प्रत्यक्ष छाया रहता है, वह अल्लाह पर भरोसा करने से ग़ाफ़िल होकर उपाय ही को सब कुछ समझ बैठता है और जिसके दिल पर परोक्ष छा जाता है, वह उपाय से बेपरवा होकर निरे भरोसे ही के बल ज़िन्दगी की गाड़ी चलाना चाहता है।
فَلَمَّا جَهَّزَهُم بِجَهَازِهِمۡ جَعَلَ ٱلسِّقَايَةَ فِي رَحۡلِ أَخِيهِ ثُمَّ أَذَّنَ مُؤَذِّنٌ أَيَّتُهَا ٱلۡعِيرُ إِنَّكُمۡ لَسَٰرِقُونَ 69
(70) जब यूसुफ़ इन भाइयों का सामान लदवाने लगा तो उसने अपने भाई के सामान में अपना प्याला रख दिया।56 फिर एक पुकारनेवाले ने पुकारकर कहा, “ऐ क़ाफ़िलेवालो ! तुम लोग चोर हो।‘’57
56. प्याला रखने का काम शायद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने अपने भाई की रजामंदी से और उसके ज्ञान में लाकर किया था, जैसा कि इससे पहलेवाली आयत इशारा कर रही है। हज़रत यूसुफ (अलैहि०) अपने मुद्दतों के बिछड़े हुए भाई को उन ज़ालिम सौतेले भाइयों के पंजे से छुड़ाना चाहते होंगे। भाई स्वयं भी उन ज़ालिमों के साथ वापस न जाना चाहता होगा, मगर एलानिया आपका उसे रोकना और उसका रुक जाना इसके बिना संभव न था कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) अपने व्यक्तित्व का परिचय करा देते और इस अवसर पर परिचय कराना हित में न था। इसलिए दोनों भाइयों में मश्विरा हुआ होगा कि उसे रोकने का यह उपाय किया जाए। यद्यपि थोड़ी देर के लिए उसमें भाई की बेइज्जती थी कि उसपर चोरी का धब्बा लगता था, लेकिन बाद में यह धब्बा इस तरह आसानी से धुल सकता था कि दोनों भाई असल मामले को दुनिया पर ज़ाहिर कर दें।
57. इस आयत में और बादवाली आयतों में भी कहीं ऐसा कोई संकेत मौजूद नहीं है जिससे यह गुमान किया जा सके कि स्वयं हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने अपने कर्मचारियों को इस भेद में शरीक किया था और उन्हें स्वयं यह सिखाया गया था कि काफिलेवालों पर झूठा आरोप लगाओ। घटना की सादा शक्ल जो समझ में आती है वह यह है कि प्याला चुपके से रख दिया गया होगा। बाद में जब सरकारी कर्मचारियों ने उसे न पाया होगा तो अनुमान किया होगा कि हो न हो यह काम उन्हीं क़ाफ़िलेवालों में से किसी का है जो यहाँ ठहरे हुए थे।
فَبَدَأَ بِأَوۡعِيَتِهِمۡ قَبۡلَ وِعَآءِ أَخِيهِ ثُمَّ ٱسۡتَخۡرَجَهَا مِن وِعَآءِ أَخِيهِۚ كَذَٰلِكَ كِدۡنَا لِيُوسُفَۖ مَا كَانَ لِيَأۡخُذَ أَخَاهُ فِي دِينِ ٱلۡمَلِكِ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُۚ نَرۡفَعُ دَرَجَٰتٖ مَّن نَّشَآءُۗ وَفَوۡقَ كُلِّ ذِي عِلۡمٍ عَلِيمٞ 75
(76) तब यूसुफ़ ने अपने भाई से पहले उनकी खुरजियों की तलाशी लेनी शुरू की, फिर अपने भाई की ख़ुरजी से गुमशुदा चीज़ बरामद कर ली-इस तरह हमने यूसुफ़ की सहायता अपने उपाय से की।59 उसका यह काम न था कि बादशाह के दीन (अर्थात् मिस्र के शाही क़ानून) में अपने भाई को पकड़ता अलावा इसके कि अल्लाह ही ऐसा चाहे।60 हम जिसके दर्जे चाहते है ऊँचा कर देते हैं, और एक ज्ञान रखनेवाला ऐसा है जो हर ज्ञानवाले से उच्च है।
59. यहाँ जिस बात को हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की सहायता को प्रत्यक्ष रूप से अल्लाह का उपाय कहा गया है, वह यह बात है कि सरकारी कर्मचारियों ने चलन के विरुद्ध स्वयं संदिग्ध आरोपियों से चोर की सज़ा पूछी उन्होंने वह सज़ा बताई जो इबराहीमो शरीअत के अनुसार चोर को दी जाती थी। बादवाली आयत भी साफ़ बता रही है कि अल्लाह के उपाय से तात्पर्य यही है।
60. अर्थात् यह बात हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की पैग़म्बरी की शान के अनुकूल न थी कि वह अपने एक निजी मामले में मिस्र के बादशाह के कानून पर अमल करते। अपने भाई को रोक रखने के लिए उन्होंने स्वयं जो उपाय किया था उसमें यह कमी रह गई थी कि भाई को रोका तो ज़रूर जा सकता था, मगर मिल के बादशाह के दण्डविधान से काम लेना पड़ता और यह उस पैग़म्बर की शान के अनुकूल न था जिसने शासन के अधिकार गैर-इस्लामी कानूनों की जगह इस्लामी शरीअत लागू करने के लिए अपने हाथ में लिए थे। अगर अल्लाह पाहता तो अपने नबी को उस भोडी गलती का शिकार हो जाने देता, मगर उसने यह पसन्द न किया कि यह धब्बा उसके दामन पर रह जाए । इसलिए उसने सीधे-सीधे अपने उपाय से यह राह निकाल दी कि संयोगवश यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों से चोर की सज़ा पूछ ली गई और उन्होंने उसके लिए बराहीमी शरीअत का कानून बयान कर दिया। यही वह चीज है जिसको बाद की दो आयतों में अल्लाह ने अपना उपकार और अपनी जानपरक श्रेष्ठता बताया है। यहाँ कुछ बातें और व्याख्या चाहती हैं जिन्हें हम संक्षेप में बयान करेंगे-
1. सामान्यतः इस आयत का अनुवाद यह किया जाता है कि "यूसुफ़ बादशाह के क़ानून के मुताबिक़ अपने भाई को न पकड़ सकता था।" अर्थात् 'मा का न लियाख़ु-ज' (तसका यह काम न था कि पकड़ता) को अनुवादक और टीकाकार 'असमर्थ' के अर्थ में लेते हैं, "न कि सही न होने और उचित न होने" के अर्थ में। लेकिन एक तो यह अनुवाद और टीका अरबी मुहावरे और क़ुरआनी प्रयोग दोनों की दृष्टि से ठीक नहीं है, क्योंकि अरबी में आम तौर से 'मा का न लहू' का अर्थ उसको नहीं चाहिए, उसके लिए उचित नहीं, आदि के अर्थ में आता है और क़ुरआन में भी यह अधिकतर इसी अर्थ में आया है। दूसरे इस अनुवाद से बात भी बिल्कुल निरर्थक हो जाती है। बादशाह के क़ानून में चोर को न पकड़ सकने की आख़िर वजह क्या हो सकती है ? क्या दुनिया में कभी कोई राज्य ऐसा भी रहा है जिसका कानून चोर को गिरफ़्तार करने की इजाजत न देता हो?
2. अल्लाह ने शाही कानून के लिए 'बादशाह का कानून' का शब्द प्रयुक्त करके स्वयं उस अर्थ की ओर संकेत कर दिया है जो मा का-न लियाखु-ज़ 'उसका काम यह न था कि... पकड़ता' से लिया जाना चाहिए। स्पष्ट है कि अल्लाह का पैग़म्बर धरती में 'अल्लाह का दीन' (कानून) लागू करने के लिए भेजा गया था, न कि 'बादशाह का दीन' (क़ानून) लागू करने के लिए। अगर हालात की मजबूरी से उसके राज्य में उस वक्त पूरी तरह 'बादशाह के दीन' की जगह 'अल्लाह का दीन' लागू न हो सका था तब भी कम से कम पैग़म्बर का अपना काम तो यह न था कि अपने एक निजी मामले में बादशाह के कानून पर अमल करे, इसलिए हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का बादशाह के क़ानून के अनुसार अपने भाई को न पकड़ना इस कारण नहीं था कि बादशाह के क़ानून में ऐसा करने की गुंजाइश न थी, बल्कि इसका कारण केवल यह था कि पैग़म्बर होने की हैसियत से अपनी निजी हद तक अल्लाह के दीन पर अमल करना उनका कर्तव्य था और बादशाह के कानून की पैरवी उनके लिए निश्चित रूप से बिल्कुल अनुचित और बेमेल थी।
3. देश के क़ानून के लिए 'दीन' शब्द प्रयुक्त करके अल्लाह ने दीन के अर्थ की व्यापकता को पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है। इससे उन लोगों के दीन की धारणा की जड़ कट जाती है जो नबियों की दावत केवल सामान्य धार्मिक अर्थ में एक अल्लाह की पूजा कराने और सिर्फ कुछ धार्मिक रस्मों और विश्वासों की पाबन्दी करा लेने तक सीमित समझते हैं और यह विचार करते हैं कि मानव-संस्कृति, राजनीति, वित्त, अदालत, क़ानून और ऐसे ही दुनिया के दूसरे मामलों का कोई ताल्लुक़ दीन से नहीं है या अगर है भी तो इन मामलों के बारे में दीन की हिदायतें केवल ऐच्छिक सिफारिशें हैं जिनपर अगर अमल हो जाए तो अच्छा है, वरना इंसानों के अपने बनाए हुए नियम व विधान अपना लेने में कोई हरज नहीं। यहाँ अल्लाह साफ़ बता रहा है कि जिस तरह नमाज़, रोजा और हज दीन है, उसी तरह वह कानून भी दीन है, जिसपर समाज की व्यवस्था और देश का प्रशासन चलाया जाता है।
4. (यह सही है कि उस समय तक मिस के प्रशासन में 'बादशाह का कानून' ही लागू था और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) स्वयं अपने हाथों से उसे लागू कर रहे थे लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप उसे जारी रखना भी चाहते थे। वास्तविकता| यह है कि हजरत यूसुफ़ (अलैहि०) तो अल्लाह का दीन जारी करने ही पर लगाए गए थे और यही उनका पैराम्बराना मिशन और उनके शासन का उद्देश्य था, मगर एक देश की व्यवस्था व्यावहारिक रूप से एक दिन के अन्दर नहीं बदल जाया करती । स्वयं नबी (सल्ल०) को भी अरब की जीवन व्यवस्था में पूरी इस्लामी क्रान्ति लाने के लिए नौ दस साल लगे थे। इस बीच प्यारे नबी (सल्ल.) के अपने शासन में कुछ साल शराबबन्दी नहीं रही, सूद लिया और दिया जाता रहा। अज्ञानता का मीरास का क़ानून भी जारी रहा। निकाह व तलाक के पुराने क़ानून भी बाकी रहे, गलत किस्म के क्रय-विक्रय की बहुत-सी अवैध शक्लें भी अमल में आती रही और फौजदारी और दीवानी के इस्लामी क़ानून भी पहले ही दिन ही से पूरी तरह लागू नहीं हो गए। अतएव अगर हजरत यूसुफ़ (अलैहि०) के शासन में शुरू के आठ-नौ साल तक पिछली मिस्त्री बादशाही के कुछ क़ानून चलते रहे हो तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है। रही यह बात कि जब देश में बादशाह का क़ानून जारी था ही तो आख़िर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को अपनी ज़ात के लिए उसपर अमल करना क्यों उनकी शान के अनुकूल न था। तो यह प्रश्न भी नबी (सल्ल०) के तरीक़े पर विचार करने से आसानी से हल हो जाता है। नबी (सल्ल०) के हुकूमत के आरंभिक काल में जब तक इस्लामी कानून जारी न हुए थे, लोग पुराने तरीक़े के अनुसार शराब पीते रहे, मगर क्या हुजूर (सल्ल०) ने भी पी? लोग सूद लेते-देते थे, मगर क्या आपने भी सूदी लेन-देन किया? लोग मुतआ करते रहे और दो सगी बहनों को बीवियाँ बनाते रहे, मगर क्या हुजूर ने भी ऐसा किया? इससे मालूम होता है कि इस्लाम की दावत देनेवाले का व्यावहारिक विवशताओं के कारण इस्लामी आदर्शों के लागू करने में एक क्रम से काम लेना और चीज़ है और उसका स्वयं इस चरणबद्ध तरीक़े से काम लेने के इस समय में अज्ञानता के तौर-तरीक़ों पर अमल करना और चीज़ । चरणबद्ध तरीक़े से काम करने के समय में जो छूट प्राप्त होती है वह दूसरों को प्राप्त होती है दावत देनेवाले का अपना यह काम नहीं है कि स्वयं उन तरीकों में से किसी पर अमल करे जिनके मिटाने पर वह लगाया गया है।
۞قَالُوٓاْ إِن يَسۡرِقۡ فَقَدۡ سَرَقَ أَخٞ لَّهُۥ مِن قَبۡلُۚ فَأَسَرَّهَا يُوسُفُ فِي نَفۡسِهِۦ وَلَمۡ يُبۡدِهَا لَهُمۡۚ قَالَ أَنتُمۡ شَرّٞ مَّكَانٗاۖ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا تَصِفُونَ 76
(77) उन भाइयों ने कहा, "यह चोरी करे तो कुछ आश्चर्य की बात भी नहीं, इससे पहले इसका भाई (यूसुफ़) भी चोरी कर चुका है।‘’61 यूसुफ़ उनकी यह बात सुनकर पी गया, वास्तविकता उनपर न खोली, बस (मन ही में) इतना कहकर रह गया कि "बड़े ही बुरे हो तुम लोग, (मेरे सामने ही मुझपर) जो आरोप तुम लगा रहे हो उसकी वास्तविकता अल्लाह अच्छी तरह जानता है।"
61. यह उन्होंने अपना शर्म मिटाने के लिए कहा। पहले कह चुके थे कि हम लोग चोर नहीं हैं। अब जो देखा कि माल हमारे भाई की थैली से बरामद हो गया है तो तुरन्त एक झूठी बात बनाकर अपने आपको उस भाई से अलग कर लिया और उसके साथ उसके पहले भाई को भी लपेट लिया। इससे अन्दाज़ा होता है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के पीछे बिन यमीन के साथ इन भाइयों का क्या व्यवहार रहा होगा और किस कारण उसकी और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को यह कामना होगी कि वह उनके साथ न जाए।
قَالَ مَعَاذَ ٱللَّهِ أَن نَّأۡخُذَ إِلَّا مَن وَجَدۡنَا مَتَٰعَنَا عِندَهُۥٓ إِنَّآ إِذٗا لَّظَٰلِمُونَ 78
(79) यूसुफ़ ने कहा, "अल्लाह की पनाह ! दूसरे किसी व्यक्ति को हम कैसे रख सकते हैं? जिसके पास हमने अपना माल पाया है 63 उसको छोड़कर दूसरे को रखेंगे तो हम ज़ालिम होंगे।"
63. सावधानी देखिए कि 'चोर' नहीं कहते, बल्कि केवल यह कहते हैं "कि जिसके पास हमने अपना माल पाया है। इसी के लिए शरीअत में 'तौरिया' शब्द प्रयुक्त होता है, अर्थात् सच्चाई पर परदा डालना या सच्चाई को छिपाना । जब किसी मज़लूम को जालिम से बचाने या किसी बड़े जुल्म को दूर करने की कोई शक्ल इसके सिवा न हो कि सच्चाई के प्रतिकूल कुछ बात कही जाए या कोई सच्चाई के विरुद्ध बहाना किया जाए, तो ऐसी शक्ल में एक परहेज़गार व्यक्ति खुला झूठ बोलने से बचते हुए ऐसी बात कहने या ऐसा उपाय करने की कोशिश करेगा जिससे सच्चाई को छिपाकर बुराई को दूर किया जा सके। ऐसा करना शरीअत और नैतिकता दोनों में वैध है, बशर्ते कि केवल काम निकालने के लिए ऐसा न किया जाए, बल्कि किसी बड़ी बुराई को दूर करना हो । अब देखिए कि इस सारे मामले में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने किस तरह 'जायज़ तौरिया' की शर्ते, पूरी की हैं। भाई की रज़ामंदी से उसके सामान में प्याला रख दिया, मगर कर्मचारियों से यह नहीं कहा कि इसपर चोरी का आरोप रखो। फिर जब सरकारी कर्मचारी चोरी के आरोप में उन लोगों को पकड़ लाए तो चुपचाप उठकर तलाशी ले ली। फिर अब जो इन भाइयों ने कहा कि बिन यमीन की जगह हममें से किसी को रख लीजिए तो इसके उत्तर में भी बस उन्हीं की बात उनपर उलट दी कि तुम्हारा अपना फ़तवा यह था कि जिसके सामान में से तुम्हारा माल निकले, वही रख लिया जाए, तो अब तुम्हारे सामने बिन यमीन के सामान में से हमारा माल निकला है और इसी को हम रख लेते हैं। दूसरे को इसकी जगह कैसे रख सकते हैं। इस प्रकार की तौरिया' की मिसालें स्वयं नबी (सल्ल०) को लड़ाइयों में भी मिलती है और किसी तर्क से भी उसको नैतिक रूप से दोषपूर्ण नहीं कहा जा सकता।
قَالَ بَلۡ سَوَّلَتۡ لَكُمۡ أَنفُسُكُمۡ أَمۡرٗاۖ فَصَبۡرٞ جَمِيلٌۖ عَسَى ٱللَّهُ أَن يَأۡتِيَنِي بِهِمۡ جَمِيعًاۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡحَكِيمُ 82
(83) बाप ने यह दास्तान सुनकर कहा, “वास्तव में तुम्हारे मन ने तुम्हारे लिए एक और बड़ी बात को आसान बना दिया। 64 अच्छा, इसपर भी सब्र करूँगा और बड़ी अच्छी तरह सब्र करूंगा। असंभव नहीं कि अल्लाह इन सबको मुझसे ला मिलाए। वह सबकुछ जानता है और उसके सब काम तत्त्वदर्शिता पर आधारित हैं।'
64. अर्थात् तुम्हारे नज़दीक यह समझ लेना बहुत आसान है कि मेरा बेटा, जिसके अच्छे आचरण को मैं ख़ूब जानता हूँ, एक प्याले की चोरी कर सकता है। पहले तुम्हारे लिए अपने एक भाई को जान-बूझकर गुम कर देना और उसकी कमीज़ पर झूठा ख़ून लगाकर ले आना बहुत आसान काम हो गया था, अब एक दूसरे भाई को वास्तव में चोर मान लेना और मुझे आकर उसकी ख़बर देना भी वैसा ही आसान हो गया।
فَلَمَّا دَخَلُواْ عَلَىٰ يُوسُفَ ءَاوَىٰٓ إِلَيۡهِ أَبَوَيۡهِ وَقَالَ ٱدۡخُلُواْ مِصۡرَ إِن شَآءَ ٱللَّهُ ءَامِنِينَ 98
(99) फिर जब ये लोग यूसुफ़ के पास पहुँचे तो 68 उसने अपने माँ-बाप को अपने साथ बिठा लिया 69 और (अपने सब कुंबेवालों से) कहा, “चलो, अब शहर में चलो, अल्लाह ने चाहा तो अम्न-चैन से रहोगे।"
68. बाइबल का बयान है कि परिवार के तमाम लोग,जो इस अवसर पर मिस्र गए, 67 थे । इस तादाद में दूसरे घरानों की उन लड़कियों को नहीं गिना गया है जो हज़रत याक़ूब (अलैहि०) के यहाँ ब्याही गई थीं। उस समय हज़रत याकूब (अलैहि०) की उम्र 130 साल थी और उसके बाद वह मिस्र में 17 साल जीवित रहे। इस अवसर पर एक विद्यार्थी के मन में यह प्रश्न पैदा होता है कि बनी इसराईल ने जब मिस्त्र में प्रवेश किया तो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) सहित उनकी तादाद 68 थी और जब लगभग पाँच सौ साल के बाद वह मिस्र से निकले तो वे लाखों की संख्या में थे। बाइबल की रिवायत है कि मिस्र से निकलने के दूसरे साल सौना के जंगलों में हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उनकी जो जनगणना कराई थी उसमें केवल यूद्ध के योग्य मर्दो की संख्या 603550 थी। इसका अर्थ यह है कि औरत, मर्द, बच्चे, सब मिलाकर वे कम से कम 20 लाख होंगे। क्या किसी हिसाब से पांच सौ साल में 68 आदमियों की इतनी सन्तान हो सकती है? इस प्रश्न पर विचार करने से एक महत्वपूर्ण तथ्य सामने आता है । स्पष्ट है कि पाँच सौ वर्ष में एक परिवार तो इतना नहीं बढ़ सकता, लेकिन बनी इसराईल पैग़म्बरों की सन्तान थे। उनके नायक हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०), जिनके कारण मिस्र में उनके क़दम जमे, स्वयं पैग़म्बर थे। इनके बाद चार पाँच सदी तक राज्य-सत्ता इन्हीं लोगों के हाथ में रही। इस बीच निश्चित रूप से उन्होंने मिस्र में इस्लाम का ख़ूब प्रचार किया होगा। मिस्रवालों में से जो लोग इस्लाम लाए होंगे उनका धर्म ही नहीं, बल्कि उनकी संस्कृति, सभ्यता और रहन-सहन गैर-मुस्लिम मिस्रियों से अलग और बनी इसराईल के रंग में रंग गया होगा, और उसके नतीजे में मिस्त्रियों ने उन सबको 'अजनबी' ठहराया होगा। यही कारण है कि जब मिस्र में 'क़ौमपरस्ती' का तूफ़ान उठा तो जुल्म सिर्फ बनी इसराईल ही पर नहीं हुए, बल्कि मिस्री मुसलमान भी उनके साथ समान रूप से लपेट लिए गए और जब बनी इसराईल ने देश छोड़ा तो मिस्री मुसलमान भी उनके साथ ही निकले और उन सबकी गिनती इसराईलियों ही में होने लगी।
हमारे इस अनुमान की पुष्टि बाइबल के बहुत-से संकेतों से होती है । उदाहरण के रूप में 'निर्गमन' में जहाँ बनी इसराईल के मिस्र से निकलने का हाल बयान हुआ है, बाइबल का लेखक कहता है, उनके साथ एक मिला-जुला गिरोह भी गया।" (12 : 38) इसी तरह 'गिनती' में वह फिर कहता है कि “जो मिली-जुली भीड़ उन लोगों में थी, वह तरह-तरह के लोभ करने लगी।” (11 : 4) फिर धीरे-धीरे इन गैर-इसराईली मुसलमानों के लिए 'अजनबी' और 'परदेसी' के पारिभाषिक शब्द प्रयुक्त होने लगे। अतः तौरात में हज़रत मूसा (अलैहि०) को जो आदेश दिए गए, उनमें से हमें यह स्पष्टीकरण मिलता है-
“तुम्हारे लिए और उस परदेसी के लिए जो तुममें रहता है, पीढ़ी दर पीढ़ी सदैव एक ही क़ानून रहेगा। ख़ुदावंद के आगे परदेसी भी वैसे ही हों जैसे तुम हो, तुम्हारे लिए और परदेसियों के लिए, जो तुम्हारे साथ रहते हैं, एक ही शरीअत और एक ही क़ानून हो।" (गिनती,15: 15-16)
“जो आदमी निर्भय होकर पाप करे, चाहे देसी हो या परदेसी, वह ख़ुदावन्द का अनादर करता है। वह आदमी अपने लोगों में से काट डाला जाएगा।" (गिनती 15 : 30)
"चाहे भाई-भाई का मामला हो या परदेसी का, तुम उनका फैसला इंसाफ़ के साथ करना।" (इस्तिस्ना 1: 16)
अब यह पता लगाना कठिन है कि अल्लाह की किताब में गैर-इसराईलियों के लिए वह मूल शब्द क्या प्रयुक्त किया गया था, जिसे अनुवादकों ने 'परदेसी' बनाकर रख दिया।
69. तलमूद में लिखा है कि जब हज़रत याक़ूब (अलैहि०) के आने की ख़बर राजधानी में पहुंची तो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) राज्य के बड़े-बड़े सरदारों, पदाधिकारियों और फ़ौज आदि को लेकर उनके स्वागत के लिए निकले और पूरी शान के साथ उनको शहर में लाए । वह दिन वहाँ जश्न का दिन था। औरत, मर्द, बच्चे सब उस जलूस को देखने के लिए इकट्ठे हो गए थे और सारे देश में खुशी की लहर दौड़ गई थी।
وَرَفَعَ أَبَوَيۡهِ عَلَى ٱلۡعَرۡشِ وَخَرُّواْ لَهُۥ سُجَّدٗاۖ وَقَالَ يَٰٓأَبَتِ هَٰذَا تَأۡوِيلُ رُءۡيَٰيَ مِن قَبۡلُ قَدۡ جَعَلَهَا رَبِّي حَقّٗاۖ وَقَدۡ أَحۡسَنَ بِيٓ إِذۡ أَخۡرَجَنِي مِنَ ٱلسِّجۡنِ وَجَآءَ بِكُم مِّنَ ٱلۡبَدۡوِ مِنۢ بَعۡدِ أَن نَّزَغَ ٱلشَّيۡطَٰنُ بَيۡنِي وَبَيۡنَ إِخۡوَتِيٓۚ إِنَّ رَبِّي لَطِيفٞ لِّمَا يَشَآءُۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡحَكِيمُ 99
(100) (शहर में प्रवेश करने के बाद) उसने अपने माँ-बाप को उठाकर अपने पास सिंहासन पर बिठाया और सब उसके आगे सहसा सज्दे में झुक गए।‘’70 यूसुफ़ ने कहा, “अब्बाजान ! यह अर्थ है मेरे उस सपने का जो मैने पहले देखा था। मेरे रब ने उसे सच बना दिया। उसका उपकार है कि उसने मुझे जेल से निकाला और आप लोगों को देहात से लाकर मुझसे मिलाया, हालाँकि शैतान मेरे और मेरे भाइयों के बीच बिगाड़ पैदा कर चुका था। सच तो यह है कि मेरा रब सूक्ष्म उपायों से अपनी इच्छा पूरी करता है। निस्सन्देह वह जाननेवाला और तत्त्वदर्शी है ।
70. इस शब्द 'सज्दा' से बहुत से लोगों को भ्रम हुआ है, यहाँ तक कि एक गिरोह ने तो इसी को प्रमाण बनाकर बादशाहों और पीरों के लिए सज्द-ए-तहीयत (अभिवादन) और आदर के सज्दे का वैध होना सिद्ध कर लिया। दूसरे लोगों को इस परेशानी से बचने के लिए इसका यह स्पष्टीकरण करना पड़ा कि अगली शरीअतों में सिर्फ इबादत का सज्दा अल्लाह के सिवा किसी और के लिए हराम था। बाकी रहा वह सज्दा जो इबादत की भावना से खाली हो, तो वह अल्लाह के सिवा दूसरों को भी किया जा सकता था, अलबत्ता मुहम्मदी शरीअत में हर प्रकार का सदा अल्लाह के सिवा किसी दूसरों के लिए हराम कर दिया गया। लेकिन सारे भ्र्म वास्तव में इस कारण पैदा हुए हैं कि शब्द 'सजदा' को वर्तमान इस्लामी परिभाषा का समानाथों समझ लिया गया अर्थात् हाथ, मुटने और माथा धरती पर टिकाना । हालाँकि सज्दा का मूल अर्थ मात्र शुकना है और यहां यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पुरानी सभ्यता में यह आम चलन था। (और आज भी कुछ देशों में इसका रिवाज है) कि किसी का शुक्रिया अदा करने के लिए या किसी का स्वागत करने के लिए या केवल सलाम करने के लिए सीने पर हाथ रखकर किसी हद तक आगे की ओर झुकते थे। इसी झुकाव के लिए अरबी में 'मजद' और अंग्रेजी में Bow के शब्द प्रयुक्त किए जाते हैं। बाइबिल में इसके बहुत-से उदाहरण हमें मिलते हैं कि प्राचीनकाल में यह तरीका शिष्टाचार और सभ्यता में शामिल था। अतः हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बारे में एक जगह लिखा है कि उन्होंने अपने ख़ेमे की ओर तीन आदमियों को आते देखा तो वे उनके स्वागत के लिए दौड़े और जमीन तक झुके। अरबी बाइबल में इस अवसर पर जो शब्द प्रयुक्त हुए हैं, वे इस तरह हैं-'फ-लम्मा न-ज-र र-क-जलि इस्तिक्वालिही निम बाबिल खीमति व स-ज-द इलल अर्जि (तक्वीन 18 : 3)। इसके अतिरिक्त और बहुत-से उदाहरण बाइबिल में ऐसे मिलते हैं जिनसे साफ़ मालूम हो जाता है कि इस सज्दे का अर्थ वह है ही नहीं जो अब इस्लामी परिभाषा के शब्द 'सज्दा' से समझा जाता है।
जिन लोगों ने मामले की इस वास्तविकता को जाने बिना इसके स्पष्टीकरण में ऊपरी तौर पर यह लिख दिया है कि अगली शरीअतों में अल्लाह के अलावा दूसरे को आदर का सज्दा करना या अभिवादन का सजदा करना वैध था, उन्होंने बिल्कुल ही निर्मूल बात कही है। अगर सज्दे से तात्पर्य वह चीज़ हो जिसे इस्लामी परिभाषा में सज्दा कहा जाता है, तो वह अल्लाह की भेजी हुई किसी शरीअत में कभी अल्लाह के अलावा किसी और के लिए वैध नहीं रहा है। बाइबल में उल्लेख हुआ है कि बाबिल को कैद के समय में जब अख्रसवेरिस बादशाह ने हामान को अपना सबसे बड़ा अधिकारी बनाया और आदेश दिया कि सब लोग उसको 'आदर का सजदा किया करें, तो मुर्दकी ने, जो बनी इसराईल के वलियों (बुज़ुर्गों) में से थे, यह आदेश मानने से इंकार कर दिया । (अस्तर 3 : 1-2) तलमूद में इस घटना की व्याख्या करते हुए इसको जो विवरण दिया गया है वह पढ़ने योग्य है-
"बादशाह के कर्मचारियों ने कहा : आख़िर तू क्यों हामान को सज्दा करने से इंकार करता है? हम भी आदमी हैं, मगर शाही आदेश मानते हैं। उसने उत्तर दिया : तुम लोग नासमझ हो। क्या एक नश्वर (फ़ानी) इंसान जो कल मिट्टी में मिल जानेवाला है, इस योग्य हो सकता है कि उसकी बड़ाई मानी जाए? क्या मैं उसको सज्दा करूँ जो एक औरत के पेट से पैदा हुआ, कल बच्चा था, आज जवान है, कल बूढ़ा होगा और परसों मर जाएगा? नहीं, मैं तो उस शाश्वत अनादि ईश्वर (अल्लाह) ही के आगे झुकूँगा जो जीवन्त सत्ता और सबको सँभालने और कायम रखनेवाला है, वह जो सृष्टि का पैदा करनेवाला और शासक है,मैं तो बस उसी के आगे झुकूँगा और किसी के नहीं।
۞رَبِّ قَدۡ ءَاتَيۡتَنِي مِنَ ٱلۡمُلۡكِ وَعَلَّمۡتَنِي مِن تَأۡوِيلِ ٱلۡأَحَادِيثِۚ فَاطِرَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ أَنتَ وَلِيِّۦ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۖ تَوَفَّنِي مُسۡلِمٗا وَأَلۡحِقۡنِي بِٱلصَّٰلِحِينَ 100
(101) ऐ मेरे रब ! तूने मुझे सत्ता प्रदान की और मुझको बातों की तह तक पहुँचना सिखाया। आसमानों और जमीनों के बनानेवाले, तू ही दुनिया और आख़िरत में मेरा संरक्षक है। मेरा अन्त इस्लाम पर कर और अन्ततः मुझे नेक लोगों के साथ मिला।"71
71. ये कुछ वाक्य, जो इस अवसर पर हजरत यूसुफ़ (अलैहि०) के मुख से निकले हैं, हमारे सामने एक सच्चे ईमानवाले के आचरण का अनोखा मनमोहक चित्र प्रस्तुत करते हैं। [आप ज़िन्दगी की असाधारण ऊँच-नीच से गुजरते हुए सांसारिक उन्नति के सबसे ऊँचे स्थान पर पहुँच गए हैं। आपके वे जलन रखनेवाले पाई जो आपको मार डालना चाहते थे, आपके शाही तख़्त (राज सिंहासन) के सामने सर झुकाए खड़े हैं। यह मौक़ा दुनिया के आम चलन के अनुसार घमंड करने और व्यंग्य और निन्दा के तौर बरसाने का था, मगर एक सच्चा खुदापरस्त इंसान इस अवसर पर कुछ दूसरा ही चरित्र प्रकट करता है। वह अपनी इस उन्नति पर घमंड करने के बजाय | साक्षात आभार बन जाता है । वह जलन रखनेवाले भाइयों के विरुद्ध शिकायत का एक शब्द जबान से नहीं निकालता, बल्कि उनकी सफ़ाई स्वयं ही इस तरह पेश करता है कि शैतान ने मेरे और उनके बीच बुराई डाल दी थी। कुछ शब्दों में यह सब कुछ कहे जाने के बाद वह सहसा अपने अल्लाह के आगे झुक जाता है। उसकी तरह-तरह की इनायतों। पर उसके प्रति आभार व्यक्त करता है और अन्त में अल्लाह से कुछ माँगता है तो यह कि दुनिया में जब तक ज़िन्दा रहूँ, तेरी बन्दगी व ग़ुलामी पर कदम जमाए रखू और जब इस दुनिया से विदा हूँ तो मुझे नेक बन्दों के साथ मिला दिया जाए। कितना ऊँचा और कितना पाकीज़ा है आचरण का यह नमूना.!
وَكَأَيِّن مِّنۡ ءَايَةٖ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ يَمُرُّونَ عَلَيۡهَا وَهُمۡ عَنۡهَا مُعۡرِضُونَ 104
(105) ज़मीन74 और आसमानों में कितनी ही निशानियाँ है जिनपर से ये लोग गुज़रते रहते है और तनिक ध्यान नहीं देते।75
74. ऊपर से ग्यारह रुकूओं में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का क़िस्सा समाप्त हो गया। अगर अल्लाह की वह्य का उद्देश्य केवल किस्सा सुनाना होता तो इसी जगह व्याखान को समाप्त हो जाना चाहिए था, मगर यहाँ तो किस्सा किसी उद्देश्य के लिए कहा जाता है। इसलिए लोगों की मांग पर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का क़िस्सा जब सुनाया जा चुका तो उसे समाप्त करते ही कुछ वाक्य अपने मतलब के भी कह दिए और बहुत हो संक्षेप में इन कुछ वाक्यों ही में उपदेश और सन्देश का सारा विषय समेट दिया गया।
75. इसका उद्देश्य लोगों को उनकी सफ़लत से चौंकाना है। ज़मीन व आसमान की हर चीज़ अपने आपमें केवल एक चीज़ हो नहीं है, बल्कि एक निशानी भी है जो सच्चाई की ओर संकेत कर रही है। जिस उद्देश्य के लिए इंसान को चेतना के साथ सोचनेवाला दिमाग़ भी दिया गया है, वह केवल इसी सीमा तक नहीं है कि आदमी इन चीज़ों को देखे और इनका उपयोग और इस्तेमाल मालूम करे, बल्कि वास्तविक उद्देश्य यह है कि आदमी सच्चाई को खोजे और इन निशानियों के द्वारा उसका पता चलाए। इसी मामले में अधिकतर लोग ग़फ़लत बरत रहे हैं और यही ग़फ़लत है जिसने उनको गुमराही में डाल रखा है। अगर दिलों पर यह ताला न चढ़ा लिया गया होता तो नबियों की बात का समझना और उनके मार्गदर्शन से लाभ उठाना लोगों के लिए इतना कठिन न हो जाता।
قُلۡ هَٰذِهِۦ سَبِيلِيٓ أَدۡعُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِۚ عَلَىٰ بَصِيرَةٍ أَنَا۠ وَمَنِ ٱتَّبَعَنِيۖ وَسُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ وَمَآ أَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ 107
(108) तुम इनसे साफ़ कह दो कि "मेरा रास्ता तो यह है, मैं अल्लाह की ओर बुलाता हूँ, मैं स्वयं भी पूरी रौशनी में अपना रास्ता देख रहा हूँ और मेरे साथी भी, और अल्लाह पाक है78 और शिर्क करनेवालों से मेरा कोई वास्ता नहीं।"
78. अर्थात् उन बातों से पाक जो उससे जोड़ी जा रही हैं, उन कमजोरियों से पाक जो हर शिर्क भरे विश्वास की ना बुनियाद पर अनिवार्य रूप से उनसे जोड़ दी जाती हैं, उन ऐबों, ख़ताओं और बुराइयों से पाक जिनका उससे जोड़ दिया जाना शिर्क का तर्किक परिणाम है।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ إِلَّا رِجَالٗا نُّوحِيٓ إِلَيۡهِم مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡقُرَىٰٓۗ أَفَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۗ وَلَدَارُ ٱلۡأٓخِرَةِ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ 108
(109) ऐ नबी ! तुमसे पहले हमने जो पैग़म्बर भेजे थे वे सब भी इंसान ही थे और इन्हीं बस्तियों के रहनेवालों में से थे और उन्हीं की ओर हम वह्य भेजते रहे हैं। फिर क्या ये लोग ज़मीन में चले-फिरे नहीं है कि उन क़ौमों का अंजाम उन्हें नज़र न आया जो इनसे पहले गुज़र चुकी हैं? निश्चय ही आख़िरत का घर उन लोगों के लिए और अधिक बेहतर है जिन्होंने (पैग़म्बरों की बात मानकर) तक़वा (अल्लाह से डर) का रवैया अपनाया। क्या अब भी तुम लोग न समझोगे?79 (पहले पैग़म्बरों के साथ भी यही होता रहा है कि वे मुद्दतों उपदेश देते रहे और लोगों ने सुनकर न दिया)
79. यहाँ एक बड़े विषय को दो-तीन वाक्यों में समेट दिया गया है। इसको अगर किसी विस्तृत वाक्य में बयान किया जाए तो यूँ कहा जा सकता है, “ये लोग तुम्हारी बात की ओर इसलिए ध्यान नहीं देते कि जो आदमी कल उनके शहर में पैदा हुआ और उन्हीं के बीच बच्चे से जवान और जवान से बूढ़ा हुआ, उसके बारे में यह कैसे मान लें कि यकायको एक दिन अल्लाह ने उसे अपना दूत नियुक्त कर दिया। लेकिन यह कोई अनोखी बात नहीं है जिससे आज दुनिया में पहली बार उन्हीं को सामना करना पड़ा हो। इससे पहले भी अल्लाह अपने नबी भेज चुका है और वे सब भी इंसान ही थे। फिर यह भी कभी नहीं हुआ कि अचानक एक अजनबी व्यक्ति किसी नगर में प्रकट हो गया हो और उसने कहा हो कि मैं पैग़म्बर बनाकर भेजा गया हूँ, बल्कि जो लोग भी इंसानों के सुधार के लिए उठाए गए, वे सब उनकी अपनी ही बस्तियों के रहनेवाले थे। मसीह (ईसा), मूसा, इबराहीम, नूह (अलैहिमुस्सलाम) आखिर कौन थे? अब तुम स्वयं ही देख लो कि जिन क़ौमों ने इन लोगों के सुधार के सन्देश को स्वीकार न किया और अपनी निराधार कल्पनाओं और बेलगाम इच्छाओं के पीछे चलती रहीं उनका अंजाम क्या हुआ? तुम स्वयं अपनी व्यापारिक यात्राओं में आद, समूद, मदयन और लूत की क़ौम आदि के तबाहशुदा क्षेत्रों से गुज़रते रहे हो।क्या वहाँ तुम्हें कोई शिक्षा नहीं मिली? यह अंजाम जो इन्होंने दुनिया में देखा, यही तो खबर दे रहा है कि आख़िरत में वे इससे बुरा अंजाम देखेंगे और यह कि जिन लोगों ने दुनिया में अपना सुधार कर लिया,वे केवल दुनिया ही में अच्छे न रहे, बल्कि आखिरत में उनका अंजाम इससे भी अधिक अच्छा होगा।