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سُورَةُ الحِجۡرِ

  1. अल-हिज्र

(मक्का में उतरी-आयतें 99)

परिचय

नाम

आयत नम्बर 80 में हिज्र शब्द आया है, उसी को इस सूरा का नाम दे दिया गया है।

उतरने का समय

विषय और वर्णन-शैली से साफ़ पता चलता है कि इस सूरा के उतरने का समय सूरा-14 (इबराहीम) के समय से मिला हुआ है। इसकी पृष्ठभूमि में दो चीज़े बिल्कुल स्पष्ट दिखाई देती हैं। एक यह कि नबी (सल्ल०) को सन्देश पहुँचाते हुए एक समय बीत चुका है और सम्बोधित क़ौम को निरन्तर हठधर्मी, उपहास, अवरोध और अत्याचार अपनी सीमा पार कर चुका है, जिसके बाद अब समझाने-बुझाने का अवसर कम और चेतावनी और धमकी का अवसर अधिक है। दूसरे यह कि अपनी क़ौम के इंकार, हठधर्मी और अवरोध के पहाड़ तोड़ते-तोड़ते नबी (सल्ल०) थके जा रहे हैं और दिल टूटने की दशा बार-बार आप पर छा रही है, जिसे देखकर अल्लाह आपको तसल्ली दे रहा है और आपकी हिम्मत बंधा रहा है।

वार्ताएँ और केन्द्रीय विषय

यही दो विषय इस सूरा में वर्णित हुए हैं। एक यह कि चेतावनी उन लोगों को दी गई जो नबी (सल्ल०) की दावत का इंकार कर रहे थे और आपका उपहास करते और आपके काम में तरह-तरह की रुकावटें पैदा करते थे और दूसरा यह कि नबी (सल्ल०) को तसल्ली और प्रोत्साहन दिया गया है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि यह सूरा समझाने और उपदेश देने से ख़ाली है। क़ुरआन में कहीं भी अल्लाह ने केवल चेतावनी या मात्र डॉट-फटकार से काम नहीं लिया है, कड़ी से कड़ी धमकियों और निन्दाओं के बीच भी वह समझाने-बुझाने और उपदेश देने में कमी नहीं करता। अत: इस सूरा में भी एक ओर तौहीद (एकेश्वरवाद) के प्रमाणों की ओर संक्षिप्त संकेत किए गए हैं और दूसरी ओर आदम और इबलोस का क़िस्सा सुनाकर नसीहत की गई है ।

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سُورَةُ الحِجۡرِ
15. अल-हिज्र
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
الٓرۚ تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِ وَقُرۡءَانٖ مُّبِينٖ
अलिफ़-लाम-रा। ये आयतें हैं अल्लाह की किताब और क़ुरआन मुबीन की।1
1. यह इस सूरा की संक्षिप्त परिचयात्मक प्रस्तावना है जिसके तुरन्त बाद मूल विषय पर व्यख्यान शुरू हो जाता है। क़ुरआन के लिए 'मुबीन' का शब्द विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसका अर्थ यह है कि ये आयतें उस क़ुरआन की हैं जो अपना उद्देश्य साफ़-साफ़ प्रकट करता है।
رُّبَمَا يَوَدُّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡ كَانُواْ مُسۡلِمِينَ ۝ 1
(2) असंभव नहीं कि एक समय वह आ जाए जब वही लोग जिन्होंने आज (इस्लाम की दावत को स्वीकार करने से) इंकार कर दिया है, पछता-पछताकर कहेंगे कि काश हमने आज्ञापालन के साथ सिर झुका दिया होता!
ذَرۡهُمۡ يَأۡكُلُواْ وَيَتَمَتَّعُواْ وَيُلۡهِهِمُ ٱلۡأَمَلُۖ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 2
(3) छोड़ो इन्हें खाएँ-पिएँ, मज़े करें और भुलावे में डाले रखें इनको झूठी आशा। बहुत जल्द इन्हें मालूम हो जाएगा।
وَمَآ أَهۡلَكۡنَا مِن قَرۡيَةٍ إِلَّا وَلَهَا كِتَابٞ مَّعۡلُومٞ ۝ 3
(4) हमने इससे पहले जिस बस्ती को भी नष्ट किया है, उसके लिए एक विशेष कार्य-अवधि लिखी जा चुकी थी।2
2. अर्थ यह है कि कुफ़्र (इंकार) करते ही तुरन्त तो हमने कभी किसी क़ौम को भी नहीं पकड़ लिया है, फिर ये नासमझ लोग क्यों इस भ्रम में पड़े हुए हैं कि नबी के साथ झुठलाने और उनका उपहास को जो नीति इन्होंने अपना रखी है, उसपर चूँकि इन्हें अभी तक सज़ा नहीं दी गई, इसलिए यह नबी सिरे से नबी ही नहीं हैं । हमारा नियम यह है कि हम हर क़ौम के लिए पहले से तय कर लेते हैं कि इसको सुनने, समझने और संभलने के लिए इतनी मोहलत दी जाएगी, और इस सीमा तक उसको दुष्टताओं और नीचताओं के बाद भी पूरे धैर्य के साथ उसे अपनी मनमानी करने का मौक़ा दिया जाता रहेगा। यह मोहलत की जब तक बाकी रहती है और हमारी निर्धारित सीमा जिस समय तक आ नहीं जाती, हम ढील देते रहते हैं (कर्म की मोहलत की व्यख्या के लिए देखिए सूरा-14,टिप्पणी 18)।
مَّا تَسۡبِقُ مِنۡ أُمَّةٍ أَجَلَهَا وَمَا يَسۡتَـٔۡخِرُونَ ۝ 4
(5) कोई क़ौम न अपने निश्चित समय से पहले नष्ट हो सकती है, न उसके बाद छूट सकती है।
وَقَالُواْ يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِي نُزِّلَ عَلَيۡهِ ٱلذِّكۡرُ إِنَّكَ لَمَجۡنُونٞ ۝ 5
(6) ये लोग कहते हैं “ऐ वह आदमी, जिसपर यह ज़िक्र उतरा3 है4 तू निश्चित रूप से दीवाना है ।
3. 'ज़िक्र' का शब्द क़ुरआन में परिभाषा के रूप में ईशवाणी के लिए प्रयुक्त हुआ है जो पूर्णतः सदुपदेश बनकर आता है। पहले जितनी किताबें नबियों पर उतरी थीं, वे सब भी 'ज़िक्र' थीं और यह क़ुरआन भी 'ज़िक्र' है। ज़िक्र का वास्तविक अर्थ है 'याद दिलाना', 'होशियार करना' और 'नसीहत करना’।
4. यह वाक्य वे लोग व्यंग्य के रूप में कहते थे। वे तो यह मानते ही नहीं थे कि यह जिक्र नबी (सल्ल०) पर उतरा है, न इसे मानने के बाद वे आपको दीवाना कह सकते थे। वास्तव में उनके कहने का अर्थ यह था कि, "ऐ वह आदमी, जिसका दावा यह है कि मुझपर ज़िक्र उतरा है।" यह उसी तरह की बात है जैसी फ़िरऔन ने हज़रत मूसा (अलै०) की दावत सुनने के बाद अपने दरबारियों से कही थी कि “यह पैग़म्बर साहब, जो तुम लोगों की ओर भेजे गए हैं, इनका दिमाग़ ठीक नहीं है।"
لَّوۡمَا تَأۡتِينَا بِٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 6
(7) अगर तू सच्चा है तो हमारे सामने फ़रिश्तों को ले क्यों नहीं आता?"
مَا نُنَزِّلُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَمَا كَانُوٓاْ إِذٗا مُّنظَرِينَ ۝ 7
(8) -हम फ़रिश्तों को यूँ ही नहीं उतार दिया करते। वे जब उतरते हैं तो सत्य के साथ उतरते हैं, और फिर लोगों को मोहलत नहीं दी जाती।5
5. अर्थात् फ़रिश्ते केवल तमाशा दिखाने के लिए नहीं उतारे जाते कि जब किसी कौम ने कहा कि बुलाओ फ़रिश्तों को और वे तुरन्त हाज़िर हो गए। न फ़रिश्ते इस उद्देश्य के लिए कभी भेजे जाते हैं कि वे आकर लोगों के सामने सच्चाई को बेनकाब करें और रौब (परोक्ष) के परदे को हटाकर वह सब कुछ दिखा दें, जिसपर ईमान लाने की दावत नबियों ने दी है। फ़रिश्तों को भेजने का समय तो वह अन्तिम समय होता है जब किसी क़ौम का फैसला चुका देने का इरादा कर लिया जाता है। उस समय बस फैसला चुकाया जाता है, यह नहीं कहा जाता कि अब ईमान लाओ तो छोड़े देते हैं। ईमान लाने की जितनी मोहलत भी है, उसी समय तक है जब तक कि सच्चाई बेनक़ाब नहीं हो जाती, उसके बेनकाब होने के बाद ईमान लाने का क्या प्रश्न। "सत्य के साथ उतरते है" का अर्थ सत्य लेकर उतरना', अर्थात् वे इसलिए आते है कि असत्य को मिटाकर सत्य को उसकी जगह स्थापित कर दें,या दूसरे शब्दों में यूं समझिए कि वे अल्लाह का सत्य पर आधारित निर्णय लेकर आते हैं और उसे लागू करके छोड़ते हैं।
إِنَّا نَحۡنُ نَزَّلۡنَا ٱلذِّكۡرَ وَإِنَّا لَهُۥ لَحَٰفِظُونَ ۝ 8
(9) रहा यह ज़िक्र, तो इसको हमने उतारा है और हम स्वयं इसके रक्षक हैं। 6
6. अर्थात् यह 'ज़िक्र' जिसके लानेवाले को तुम 'मजनून' कह रहे हो, यह हमारा उतारा हुआ है, इसने स्वयं नहीं गढ़ा है। इसलिए यह गाली उसको नहीं, हमें दी गई है और यह विचार तुम अपने दिल से निकाल दो कि तुम इस 'ज़िक्र' का कुछ बिगाड़ सकोगे। यह सीधे-सीधे हमारी सुरक्षा में है, न तुम्हारे मिटाए मिट सकेगा, न तुम्हारे दबाए दब सकेगा, न तुम्हारे तानों और आपत्तियों से इसका मूल्य घट सकेगा, न तुम्हारे रोके इसको दावत रुक सकेगी, न इसमें घट-बढ़ और परिवर्तन करने का कभी किसी को अवसर मिल सकेगा।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ فِي شِيَعِ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 9
(10) ऐ नबी ! हम तुमसे पहले बहुत-सी गुज़री हुई क़ौमों में रसूल भेज चुके हैं।
وَمَا يَأۡتِيهِم مِّن رَّسُولٍ إِلَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 10
(11) कभी ऐसा नहीं हुआ कि उनके पास कोई रसूल आया हो और उन्होंने उसका उपहास न किया हो।
كَذَٰلِكَ نَسۡلُكُهُۥ فِي قُلُوبِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 11
(12) अपराधियों के दिलों में तो हम इस 'ज़िक्र' को इसी तरह (छड़ की तरह) गुज़ारते हैं।
لَا يُؤۡمِنُونَ بِهِۦ وَقَدۡ خَلَتۡ سُنَّةُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 12
(13) वे इसपर ईमान नहीं लाया करते।7 प्राचीन काल से इस प्रवृत्ति के लोगों की यही रीति चली आ रही है।
7. अरबी मूल आयत में प्रयुक्त शब्द 'नस्लुकु-हू' में 'हू ' सर्वनाम है, जिसे साधारणतया अनुवादकों और व्याख्याकारों ने उपहास के स्थान पर प्रयुक्त माना है और 'ला यूमिनू-न बि-ही' शब्द के सर्वनाम 'ही' को ज़िक्र के स्थान पर प्रयुक्त माना है और भाव यह लिया है- कि “हम इसी तरह इस उपहास को अपराधियों के दिलों में दाखिल करते हैं और वे इस 'ज़िक' पर ईमान नहीं लाते ।" यद्यपि व्याकरण की दृष्टि से इसमें कोई दोष नहीं है, लेकिन हमारे नज़दीक व्याकरण की दृष्टि से भी अधिक सही यह है कि दोनों सर्वनाम 'ज़िक्र' के स्थान पर प्रयुक्त माने जाएँ। 'स-ल-क' शब्द का अर्थ अरबी भाषा में किसी चीज़ को दूसरी चीज़ में चलाने, गुज़ारने और पिरोने के हैं, जैसे धागे को सूई के नाके में गुज़ारना । अत: आयत का अर्थ यह है कि ईमानवालों के भीतर तो यह ज़िक्र हृदय को शीतलता और रूह (आत्मा) का भोजन बनकर उतरता है परन्तु अपराधियों के दिलों में यह 'बारूद का पलीता' बनकर लगता है और उनके भीतर उसे सुनकर ऐसी आग भड़क उठती है, मानो कि एक गर्म छड़ थी जो सीने के पार हो गई।
وَلَوۡ فَتَحۡنَا عَلَيۡهِم بَابٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ فَظَلُّواْ فِيهِ يَعۡرُجُونَ ۝ 13
(14, 15) अगर हम उनपर आसमान का कोई दरवाज़ा खोल देते और वे दिन-दहाड़े उसमें बढ़ने भी लगते, तब भी वे यही कहते कि हमारी आँखों को धोखा हो रहा है, बल्कि हमपर जादू कर दिया गया है।
لَقَالُوٓاْ إِنَّمَا سُكِّرَتۡ أَبۡصَٰرُنَا بَلۡ نَحۡنُ قَوۡمٞ مَّسۡحُورُونَ ۝ 14
0
وَلَقَدۡ جَعَلۡنَا فِي ٱلسَّمَآءِ بُرُوجٗا وَزَيَّنَّٰهَا لِلنَّٰظِرِينَ ۝ 15
(16, 17) यह हमारी करीगरी है कि आसमान में हमने बहुत-से मज़बूत क़िले 8 बनाए, उनको देखनेवालों के लिए (सितारों से सुसज्जित 9 किया और हर मरदूद (फिटकारे हुए) शैतान से उनको सुरक्षित कर दिया ।10
8. मूल शब्द 'बुरूज' प्रयुक्त हुआ है, जो बुर्ज का बहुवचन है। 'बुर्ज' अरबी भाषा में क़िले, महल और मज़बूत इमारत को कहते हैं। प्राचीन खगोलशास्त्र में 'बुर्ज' शब्द परिभाषा में उन बारह मंजिलों (चरणों) के लिए प्रयुक्त होता था जिनपर सूरज की धुरी को विभाजित किया गया था। इस कारण कुछ टीकाकारों ने यह समझा कि क़ुरआन का संकेत इन्हीं 'बुरूज' की ओर है। कुछ दूसरे टीकाकारों ने इससे तात्पर्य ग्रह लिए है लेकिन बाद के विषय पर विचार करने से ऐसा समझ में आता है कि शायद इससे तात्पर्य ऊपरी लोक के वे क्षेत्र हैं, जिनमें से हर क्षेत्र को बड़ी सुदृढ़ सीमाओं ने दूसरे क्षेत्र से अलग कर रखा है। यद्यपि ये सीमाएँ इस विशाल और विस्तृत वातावरण में अदृश्य रूप में खिंची हुई हैं, लेकिन उनको पार करके किसी चीज़ का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में चला जाना बहुत कठिन है। इस अर्थ की दृष्टि से हम बुरूज को सुरक्षित क्षेत्रों (Fortified Spheres) के अर्थ में लेना अधिक सही समझते हैं।
9. 'अर्थात् हर क्षेत्र में कोई न कोई रौशन ग्रह या तारा रख दिया और इस तरह सारी दुनिया जगमगा उठी। दूसरे शब्दों में हमने इस अपार सृष्टि को एक भयानक ढंडार (बेडौल) बनाकर नहीं रख दिया, बल्कि एक ऐसी सुन्दर दुनिया बनाई जिसमें हर ओर निगाहों को अपनी ओर आकर्षित कर लेनेवाले जलवे फैले हुए हैं। इस कारीगरी में केवल एक महान रचयिता की रचना और एक प्रबल तत्त्वदर्शी की तत्त्वदर्शिता ही नज़र आती है, बल्कि एक उच्चकोटि की पवित्र रुचि रखनेवाले कलाकार की कला भी प्रदर्शित हो रही है। यही विषय एक दूसरी जगह पर यूँ आया है-"वह अल्लाह कि जिसने हर चीज़ जो बनाई,खूब ही बनाई।" (क़ुरआन, 32:70)
وَحَفِظۡنَٰهَا مِن كُلِّ شَيۡطَٰنٖ رَّجِيمٍ ۝ 16
0
إِلَّا مَنِ ٱسۡتَرَقَ ٱلسَّمۡعَ فَأَتۡبَعَهُۥ شِهَابٞ مُّبِينٞ ۝ 17
(18) कोई शैतान इनमें राह नहीं पा सकता, अलावा इसके कि कुछ सुन गुन ले ले।11 और जब वह सुन-गुन लेने की कोशिश करता है तो एक रौशन शोला उसका पीछा करता है।12
11. अर्थात् वे शैतान जो अपने साथियों को ग़ैब (परोक्ष) की खबरें लाकर देने की कोशिश करते हैं, जिनकी मदद से बहुत-से भविष्यवक्ता, योगी, तांत्रिक और झूठे संत परोक्षज्ञान का ढोंग रचाया करते हैं। उनके पास वास्तव में परोक्षज्ञान के साधन बिलकुल नहीं हैं, वे कुछ सुन-गुन लेने की कोशिश अवश्य करते हैं, क्योंकि उनकी बनावट इंसानों के मुकाबले में फ़रिश्तों की बनावट से कुछ ज़्यादा क़रीब है, लेकिन वास्तव में उनके पल्ले कुछ पड़ता नहीं है।
12. मूल अरबी आयत में 'शहाबे मुबीन' शब्द प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ 'रोशन शोला' है। दूसरी जगह क़ुरआन मजीद में इसके लिए 'शिहाबे साक़िब' का शब्द प्रयुक्त हुआ है, अर्थात् 'अंधेरे को छेदनेवाला शोला' । इससे तात्यर्प जरूरी नहीं कि वह टूटनेवाला तारा ही हो जिसे हमारी भाषा में पारिभाषिक रूप से 'शिहाबे साकिब' (उल्का पिंड) कहा जाता है। संभव है कि यह और किसी प्रकार की किरणें हों, जैसे अन्तरिक्षीय किरणें (Cosmic Rays) या उनसे भी अधिक तीव्र कोई और प्रकार की चीजे जो अभी हमारे ज्ञान में न आई हों और यह भी संभव है कि यही शिहाबे साक़िब मुराद हों, जिन्हें कभी-कभी हमारी आँखें पृथ्वी की ओर गिरते हुए देखती हैं। वर्तमान युग के निरीक्षणों से यह मालूम हुआ है कि दूरबीन से दिखाई देनेवाले शिहाने साक़िब जो विस्तृत अंतरिक्ष से पृथ्वी की ओर आते नज़र आते हैं, उनकी तादाद का औसत 10 खरब प्रतिदिन है, जिनमें से दो करोड़ के क़रीब हर दिन पृथ्वी के ऊपरी क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और मुश्किल से एक पृथ्वी की सतह तक पहुंचता है। उसकी रफ़्तार बाहरी अंतरिक्ष में कम व बेश 26 मील प्रति सेकेंड होती है और कभी-कभी 50 मील प्रति सेकेंड तक देखी गई है। बार-बार ऐसा भी हुआ है कि नंगी आँखों ने भी टूटनेवाले तारों की असामान्य वर्षा देखी है। चुनांचे यह चीज़ रिकार्ड पर मौजूद है कि 13 नवम्बर 1833 ई० को उत्तरी अमेरिका के पूर्वी क्षेत्र में केवल एक स्थान पर, आधी रात से लेकर सुबह तक दोलाख शिहाबे साकिब गिरते हुए देखे गए (इंसाइक्लोपेडिया बिटानिका 1946 ई०, भाग 15, पृ० 337-339 व पृ0 115)। हो सकता है कि यही वर्षा ऊपरी लोक की ओर शैतानों की उड़ान में रुकावट बनती हो, क्योंकि पृथ्वी के ऊपरी क्षेत्रों से गुज़रकर विस्तृत वातावरण में 10 खरब प्रतिदिन के औसत से टूटनेवाले तारों की बरसात उनके लिए इस वातावरण को पार करना बिलकुल असंभव बना देती होगी। इससे कुछ उन 'सुरक्षित क़िलों' की रूप-रेखा का अनुमान भी हो सकता है जिनका उल्लेख ऊपर हुआ है। देखने में वातावरण बिलकुल साफ़-शफ़्फ़ाफ़ है, जिसमें कहीं कोई दीवार या छत बनी नज़र नहीं आती, लेकिन अल्लाह ने इसी वातावरण में विभिन्न क्षेत्रों को कुछ ऐसी अदृश्य दीवारों से घेर रखा है जो एक क्षेत्र को दूसरे क्षेत्रों की आपदाओं से बचाए रखती हैं। यह उन्हीं दीवारों की बरकत है कि जो शिहाबे साक़िब दस खरब प्रतिदिन के औसत से पृथ्वी की ओर गिरते हैं, वे सब जलकर भस्म हो जाते हैं और मुश्किल से एक ज़मीन की सतह तक पहुँच सकता है। दुनिया में उल्का-पिंडों (Meteorites) के जो नमूने पाए जाते हैं और दुनिया के अजाइब घरों में मौजूद हैं, इनमें सबसे बड़ा 645 पौंड का एक पत्थर है जो गिरकर 11 फिट धरती में फँस गया था। इसके अलावा एक जगह पर 36 टन का एक लौह टुकड़ा पाया गया है, जिसके वहाँ मौजूद होने की कोई वजह वैज्ञानिक इसके सिवा नहीं बता सके हैं कि यह भी आसमान से गिरा हुआ है। मान लीजिए कि अगर ज़मीन की ऊपरी सीमाओं को मज़बूत दीवारों से ढाँप न दिया गया होता तो इन टूटनेवाले तारों की वर्षा ज़मीन का क्या हाल कर देती? यही दीवारें हैं जिनको कुरआन मजीद ने 'बुरूज' (सुरक्षित किलों) के शब्द से पारिभाषित किया है।
وَٱلۡأَرۡضَ مَدَدۡنَٰهَا وَأَلۡقَيۡنَا فِيهَا رَوَٰسِيَ وَأَنۢبَتۡنَا فِيهَا مِن كُلِّ شَيۡءٖ مَّوۡزُونٖ ۝ 18
(19, 20) हमने जमीन को फैलाया, उसमें पहाड़ जमाए, उसमें हर तरह की वनस्पति ठीक-ठीक नपी-तुली मात्रा के साथ उगाई,13 और उसमें आजीविका के साधन जुटाए, तुम्हारे लिए भी और उन बहुत-से प्राणियों के लिए भी जिनको रोज़ी देनेवाले तुम नहीं हो।
13. इससे अल्लाह की सामर्थ्य और तत्त्वदर्शिता के एक और अहम निशान की ओर तवज्जोह दिलाई गई है। वनस्पति की हर जाति में नस्ल के बढ़ने-फैलने की इतनी प्रबल शक्ति है कि अगर केवल उसके एक पौधे ही की नस्ल को ज़मीन में बढ़ने का मौक़ा मिल जाता तो कुछ साल के अन्दर धरती पर बस वही वह नज़र आती, किसी दूसरी जाति की वनस्पति के लिए कोई जगह न रहती, मगर यह एक तत्त्वदर्शी और सर्वशक्तिमान की सोची-समझी योजना है जिसके अनुसार अनगिनत प्रकार की वनस्पतियाँ इस धरती पर उग रही हैं और हर जाति की पैदावार अपनी एक विशेष सीमा पर पहुंचकर रुक जाती है। इसी दृश्य का एक और पहलू यह है कि हर जाति का परिमाण, फैलाव, उठान और विकास की एक सीमा निश्चित है जिसका वनस्पति की कोई जाति भी उल्लंघन नहीं कर सकती। साफ़ मालूम होता है कि किसी ने हर पेड़, हर पौधे और हर बेल-बूटे के लिए परिमाण, कद, रूप, पत्ते-फूल और पैदावार की एक मात्रा पूरे नाप-तौल और हिसाब और गिनती के साथ निश्चित कर रखी है।
وَجَعَلۡنَا لَكُمۡ فِيهَا مَعَٰيِشَ وَمَن لَّسۡتُمۡ لَهُۥ بِرَٰزِقِينَ ۝ 19
0
وَإِن مِّن شَيۡءٍ إِلَّا عِندَنَا خَزَآئِنُهُۥ وَمَا نُنَزِّلُهُۥٓ إِلَّا بِقَدَرٖ مَّعۡلُومٖ ۝ 20
(21) कोई चीज़ ऐसी नहीं जिसके ख़ज़ाने हमारे पास न हों, और जिस चीज़ को भी हम उतारते हैं, एक निश्चित मात्रा में उतारते हैं।14
14. यहाँ इस वास्तविकता पर सचेत किया कि यह मामला केवल वनस्पति ही के साथ विशिष्ट नहीं है, बल्कि तमाम चीज़ों के मामले में सामान्य है। हवा, पानी, रौशनी, गर्मी, सर्दी,जड़पदार्थ, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, तात्पर्य यह कि हर चीज़, हर जाति, हर लिंग और हर शक्ति के लिए एक सीमा निश्चित है जिसपर वह ठहरी हुई है और एक मात्रा निश्चित है जिससे न वह घटती है, न बढ़ती है। इसी निश्चित परिणाम और उच्च कोटि के विवेकपूर्ण परिणाम ही का वह करिश्मा है कि ज़मीन से लेकर आसमानों तक पूरी सृष्टि-व्यवस्था में यह सन्तुलन और समानुपात नज़र आ रहा है। अगर यह सृष्टि एक संयोग-वश घटना होती या बहुत से ख़ुदाओं की कारीगरी और कार्यशीलता का नतीजा होती तो कैसे संभव था कि अनगिनत अलग-अलग वस्तुओं और शक्तियों के बीच ऐसा पूर्ण सन्तुलन और समानुपात स्थापित होता और बराबर स्थापित रह सकता।
وَأَرۡسَلۡنَا ٱلرِّيَٰحَ لَوَٰقِحَ فَأَنزَلۡنَا مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَسۡقَيۡنَٰكُمُوهُ وَمَآ أَنتُمۡ لَهُۥ بِخَٰزِنِينَ ۝ 21
(22) फलदायक हवाओं को हम ही भेजते हैं, फिर आसमान से पानी बरसाते है, और उस पानी से तुम्ने सिंचित करते हैं। इस दौलत के खजानेदार तुम नहीं हो।
وَإِنَّا لَنَحۡنُ نُحۡيِۦ وَنُمِيتُ وَنَحۡنُ ٱلۡوَٰرِثُونَ ۝ 22
(23) ज़िन्दगी और मौत हम देते हैं और हम ही सबके वारिस होनेवाले हैं।15
15. अर्थात् तुम्हारे बाद हम ही बाक़ी रहनेवाले हैं। तुम्हें जो कुछ भी मिला हुआ है, सिर्फ़ अस्थायी उपयोग के लिए मिला हुआ है । अन्ततः हमारी दी हुई हर चीज़ को यूँ ही छोड़कर तुम खाली हाथ विदा हो जाओगे और ये सब चीजें ज्यों की त्यों हमारे खजाने में रह जाएँगी।
وَلَقَدۡ عَلِمۡنَا ٱلۡمُسۡتَقۡدِمِينَ مِنكُمۡ وَلَقَدۡ عَلِمۡنَا ٱلۡمُسۡتَـٔۡخِرِينَ ۝ 23
(24) पहले जो लोग तुममें से हो गुजरे हैं, उनको भी हमने देख रखा है और बाद के आनेवाले भी हमारी निगाह में है।
وَإِنَّ رَبَّكَ هُوَ يَحۡشُرُهُمۡۚ إِنَّهُۥ حَكِيمٌ عَلِيمٞ ۝ 24
(25) निश्चय ही तुम्हारा रब इन सबको इकट्ठा करेगा, वह तत्त्वदर्शी भी है और सर्वज्ञाता भी।16
16. अर्थात उसकी तत्त्वदर्शिता यह तकाज़ा करती है कि वह सबको इकट्ठा करे और उसका ज्ञान सबपर इस तरह हावी है कि कोई जीव उससे छूट नहीं सकता, बल्कि किसी अगले-पिछले इंसान की धूल का कोई कण भी उससे गुम नहीं हो सकता। इसलिए जो आदमी आखिरत की ज़िन्दगी को असंभव समझता है, वह अल्लाह के गुण, तत्त्वदर्शिता से बेख़बर है और जो आदमी हैरान होकर पूछता है कि “जब मरने के बाद हमारे शरीर का कण-कण बिखर जाएगा तो हम कैसे दोबारा पैदा किए जाएँगे।" वह अल्लाह के गुण सर्वज्ञता को नहीं जानता।
وَلَقَدۡ خَلَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ مِن صَلۡصَٰلٖ مِّنۡ حَمَإٖ مَّسۡنُونٖ ۝ 25
(26) हमने इंसान को सड़ी हुई मिट्टी के सूखे गारे से बनाया।17
17. यहाँ क़ुरआन इस बात को स्पष्ट करता है कि इंसान पाशविक अवस्थाओं से तरक्की करता हुआ मनुष्यता की सीमा में नहीं आया है, जैसा कि नवयुग के डारविनवाद से प्रभावित कुरआन के टीकाकार सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि उसकी सृष्टि की शुरुआत सीधे-सीधे ज़मीनी पदार्थो से हुई है जिनकी स्थिति को अल्लाह ने सड़ी हुई मिट्टी के सूखे गारे के शब्दों में बयान फ़रमाया है। मूल अरबी आयत में 'हमा-अ' शब्द प्रयुक्त हुआ है जिससे अभिप्रेत ऐसी स्याह कीचड़ जिसके अन्दर गंध पैदा हो चुकी हो, या दूसरे शब्दों में ख़मीर उठ आया हो । मूल अरबी में मसनून प्रयुक्त हुआ है जिसके दो अर्थ हैं। एक अर्थ है ऐसी सड़ी हुई मिट्टी जिसमें सड़ने की वजह से चिकनाई पैदा हो गई हो। दूसरा अर्थ है 'कालब' (आकृति) में ढलो हुई जिसको एक विशिष्ट रूप दे दिया गया हो। मूल अरबी में 'सलसाल' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ ऐसा गारा है जो सूख जाने के बाद बजने लगे। ये शब्द स्पष्ट करते हैं कि ख़मीर उठी हुई मिट्टी का एक पुतला बनाया गया था, जो बनने के बाद शुष्क हुआ और फिर उसके भीतर प्राण फूँका गया।
وَٱلۡجَآنَّ خَلَقۡنَٰهُ مِن قَبۡلُ مِن نَّارِ ٱلسَّمُومِ ۝ 26
(27) और उससे पहले जिन्नों को हम आग की लपट से पैदा कर चुके थे।18
18. 'समूम' गर्म हवा को कहते हैं, और नार (आग) को समूम से जोड़ देने की स्थिति में उसका अर्थ आग के बजाय तेज़ हरारत (गर्मी) हो जाता है। इससे उन स्थानों की व्याख्या हो जाती है जहाँ क़ुरआन मजीद में यह फ़रमाया गया है कि जिन्न आग से पैदा किए गए हैं।
وَإِذۡ قَالَ رَبُّكَ لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ إِنِّي خَٰلِقُۢ بَشَرٗا مِّن صَلۡصَٰلٖ مِّنۡ حَمَإٖ مَّسۡنُونٖ ۝ 27
(28) फिर याद करो उस मौके को जब तुम्हारे रब ने फ़रिश्तों से कहा कि “मैं सड़ी हुई मिट्टी के सूखे गारे से एक बशर (मनुष्य) पैदा कर रहा हूँ।
فَإِذَا سَوَّيۡتُهُۥ وَنَفَخۡتُ فِيهِ مِن رُّوحِي فَقَعُواْ لَهُۥ سَٰجِدِينَ ۝ 28
(29) जब मैं उसे पूरा बना चुकूँ और उसमें अपनी रूह से कुछ फूँक दूँ 19 तो तुम सब उसके आगे सजदे में गिर जाना।"
19. इससे मालूम हुआ कि इंसान के अन्दर जो रूह फूँकी गई है वह वास्तव में सिफ़ाते इलाही (ईश्वरीय गुणों) का एक प्रतिबिंब या छाया है । जीवन, ज्ञान, सामर्थ्य निश्चय, अधिकार और दूसरी जितनी विशेषताएं इंसान में पाई जाती हैं, जिनके योग ही का नाम रूह है, यह वास्तव में अल्लाह ही के गुणों का एक हल्का-सा प्रतिबिंब है जो इस मिट्टी के बने शरीर पर डाला गया है, और इसी प्रतिबिम्ब की वजह से इंसान पृथ्वी पर अल्लाह का ख़लीफा और फ़रिश्तों समेत धरती को तमाम वस्तुओं का मस्जूद (जिसे सजदा किया जाए) क़रार पाया है। यूँ तो हर वह गुण जो प्राणियों में पाया जाता है, उसका स्रोत अल्लाह ही का कोई न कोई गुण है, जैसा कि हदीस में आया है कि "अल्लाह ने रहमत को सौ हिस्सों में बाँटा, फिर उनमें से 99 हिस्से अपने पास रखे और केवल एक हिस्सा धरती पर उतारा। यह उसी एक हिस्से का शुभफल है जिसकी वजह से जीवधारी आपस में एक-दूसरे पर दया करते हैं, यहाँ तक कि अगर एक जानवर अपने बच्चे पर से अपना खुर उठाता है, ताकि उसे क्षति न पहुंच जाए, तो यह भी वास्तव में दया कृपा के उसी हिस्से का प्रभाव है।" (बुख़ारी, मुस्लिम) मगर जो चीज़ इंसान को दूसरे जीवों से श्रेष्ठ बनाती है, वह यह है कि जिस व्यापकता के साथ अल्लाह के गुणों का प्रतिबिंब उसपर डाला गया है, उससे कोई दूसरा जीव विभूषित नहीं किया गया। यह एक ऐसा सूक्ष्म विषय है जिसके समझने में तनिक भर भी गलती आदमी कर जाए तो इस भ्रम का शिकार हो सकता है कि अल्लाह के गुणों से एक हिस्सा पाना ख़ुदाई (ईश्वरत्व) का कोई अंश पा लेने जैसा है, हालाँकि ख़ुदाई (ईश्वरत्व) इससे बहुत ही परे है कि कोई जीव उससे लेशमात्र भी कुछ पा सके।
فَسَجَدَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ كُلُّهُمۡ أَجۡمَعُونَ ۝ 29
(30) चुनांचे तमाम फ़रिश्तों ने सजदा किया,
إِلَّآ إِبۡلِيسَ أَبَىٰٓ أَن يَكُونَ مَعَ ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 30
(31) सिवाय इबलीस के कि उसने सजदा करनेवालों का साथ देने से इंकार कर दिया।20
20. तुलना के लिए कुरआन की सूरा 2 (बक़रा), रुकूअ 4, सूरा-4 (निसा), आयत 116-126 और सूरा-7 (आराफ़) आयत 11-25 दृष्टि में रहे। साथ ही हमारी उन टिप्पणियों पर भी एक दृष्टि डाल ली जाए जो इन जगहों पर लिखी गई हैं।
قَالَ يَٰٓإِبۡلِيسُ مَا لَكَ أَلَّا تَكُونَ مَعَ ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 31
(32) रब ने पूछा, “ऐ इबलीस । तुझे क्या हुआ कि तूने सजदा करनेवालों का साथ न दिया?"
قَالَ لَمۡ أَكُن لِّأَسۡجُدَ لِبَشَرٍ خَلَقۡتَهُۥ مِن صَلۡصَٰلٖ مِّنۡ حَمَإٖ مَّسۡنُونٖ ۝ 32
(33) उसने कहा, "मेरा यह काम नहीं है कि मैं इस इंसान को सजदा करूँ जिसे तूने सड़ी हुई मिट्टी के सूखे गारे से पैदा किया है।"
قَالَ فَٱخۡرُجۡ مِنۡهَا فَإِنَّكَ رَجِيمٞ ۝ 33
(34) रब ने फ़रमाया, “अच्‍छा, तू निकल जा यहाँ से, क्योंकि तू मरदूद (फिटकारा हुआ) है,
وَإِنَّ عَلَيۡكَ ٱللَّعۡنَةَ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلدِّينِ ۝ 34
(35) और अब बदले के दिन तक तुझपर फिटकार है।"21
21. अर्थात् क़ियामत तक तुझपर फिटकार पड़ती रहेगी। इसके बाद जब बदले का दिन कायम होगा तो फिर तुझे तेरी अवज्ञाओं की सजा दी जाएगी।
قَالَ رَبِّ فَأَنظِرۡنِيٓ إِلَىٰ يَوۡمِ يُبۡعَثُونَ ۝ 35
(36) उसने कहा, “मेरे रब । यह बात है तो फिर मुझे उस दिन तक के लिए मोहलत दे, जबकि सब इंसान दोबारा उठाए जाएँगे।"
قَالَ فَإِنَّكَ مِنَ ٱلۡمُنظَرِينَ ۝ 36
(37, 38) फरमाया, "अच्छा, तुझे मोहलत है उस दिन तक जिसका समय हमें मालूम है।"
إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡوَقۡتِ ٱلۡمَعۡلُومِ ۝ 37
0
قَالَ رَبِّ بِمَآ أَغۡوَيۡتَنِي لَأُزَيِّنَنَّ لَهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَأُغۡوِيَنَّهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 38
(39, 40) वह बोला, "मेरे रखा । जैसा तूने मुझे बहकाया उसी तरह अब मैं जमीन में इनके लिए मनोहरता पैदा करके इन सबको बहका दूँगा22 सिवाय तेरे उन बन्दों के, जिन्हें तूने इनमें से ख़ालिस कर लिया हो।”
22. अर्थात् जिस तरह तूने इस तुच्छ और कमतर प्राणी को सजदा करने का आदेश देकर मुझे मजबूर कर दिया कि तेरा आदेश न मानें, उसी तरह अब मैं इन इंसानों के लिए दुनिया को ऐसा मनमोहक बना दूँगा कि ये सब उससे धोखा खाकर तेरे अवज्ञाकारी बन जाएंगे। दूसरे शब्दों में इबलीस का अर्थ यह था कि मैं ज़मीन की ज़िन्दगी और उसकी लज्जतों और उसके क्षणिक लाभों और हितों को इंसान के लिए ऐसा प्रिय बना दूँगा कि वे उत्तरदायित्व और उसकी ज़िम्मेदारियों और आख़िरत की पूछताछ को भूल जाएँगे और स्वयं तुझे भी या तो भुला देंगे या तुझे याद रखने के बावजूद तेरे आदेशों के विरुद्ध कार्य करेंगे।
إِلَّا عِبَادَكَ مِنۡهُمُ ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 39
0
قَالَ هَٰذَا صِرَٰطٌ عَلَيَّ مُسۡتَقِيمٌ ۝ 40
(41) फ़रमाया, “यह रास्ता है जो सीधा मुझ तक पहुँचता है।‘’23
23. मूल में अरबी वाक्य 'हाज़ा सिरातुन अ-लय-य मुस्तक़ीम' प्रयुक्त हुआ है, जिसके दो अर्थ हो सकते हैं। एक अर्थ वह जो हमने अनुवाद में बयान किए हैं और दूसरा अर्थ यह है कि “यह बात ठीक है, मैं भी उसका पाबन्द रहूँगा।"
إِنَّ عِبَادِي لَيۡسَ لَكَ عَلَيۡهِمۡ سُلۡطَٰنٌ إِلَّا مَنِ ٱتَّبَعَكَ مِنَ ٱلۡغَاوِينَ ۝ 41
(42, 43) निस्सन्देह मेरे जो सच्चे बन्दे हैं उनपर तेरा बस न चलेगा। तेरा बस तो सिर्फ उन बहके हुए लोगों ही पर चलेगा जो तेरी पैरवी करें 24 और उन सबके लिए जहन्नम की धमकी है। 25
24. इस वाक्य के भी दो अर्थ हो सकते हैं। एक वह जो अनुवाद में अपनाया गया है और दूसरा अर्थ यह कि मेरे बन्दे (अर्थात आम इंसानों) पर तुझे कोई अधिकार प्राप्त न होगा कि तू उन्हें बलात् अवज्ञाकारी बना दे, अलबत्ता जो स्वयं ही बहके हुए हों और स्वयं ही तेरा पालन करना चाहें, उन्हें तेरे रास्ते पर जाने के लिए छोड़ दिया जाएगा, उन्हें हम बलपूर्वक उससे रोकने का यत्न न करेंगे। पहले अर्थ की दृष्टि से विषय का सार यह होगा कि 'बन्दगी (आज्ञापालन) का तरीका अल्लाह तक पहुँचने का सीधा रास्ता है। जो लोग इस रास्ते को अपना लेंगे, उनपर शैतान का बस न चलेगा। उन्हें अल्लाह अपने लिए मुख्य कर लेगा, और शैतान स्वयं भी इकरार कर चुका है कि वे उसके फंदे में न फँसेंगे। अलबत्ता जो लोग स्वयं बन्दगी से विमुख होकर अपनी सफलता और सौभाग्य की राह गुम कर देंगे, वे इबलीस के हत्थे चढ़ जाएँगे और फिर जिधर-जिधर वह उन्हें फ़रेब देकर ले जाना चाहेगा, वे उसके पीछे भटकते और दूर से दूर तक निकलते चले जाएँगे। दूसरे अर्थ की दृष्टि से इस व्याख्यान का सार यह होगा कि शैतान ने इंसानों को बहकाने के लिए अपनी रीति-नीति यह बताई कि वह धरती के जीवन को उनके लिए ख़ुशनुमा बनाकर उन्हें अल्लाह से ग़ाफ़िल और बन्दगी की राह से विमुख करेगा। अल्लाह ने इसकी पुष्टि करते हुए फ़रमाया कि यह शर्त मैंने मानी, और उसकी व्याख्या करते हुए यह बात भी स्पष्ट कर दी कि तुझे सिर्फ़ फ़रेब देने का अधिकार दिया जा रहा है, यह अधिकार नहीं दिया जा रहा है कि तू हाथ पकड़कर उन्हें बलात् अपनी राह पर खींच ले जाए। शैतान ने अपनी नोटिस से उन बन्दों को अलग किया जिन्हें अल्लाह अपने लिए मुख्य कर ले । इससे यह भ्रम पैदा हो रहा था कि शायद अल्लाह बिना किसी उचित कारण के यूँ ही जिसको चाहेगा मुख्य कर लेगा और वह शैतान की पकड़ से बच जाएगा। अल्लाह ने यह कहकर बात साफ़ कर दी कि जो स्वयं बहका हुआ होगा, वह तेरी पैरवी करेगा। दूसरे शब्दों में जो बहका हुआ न होगा, वही तेरा पालन न करेगा, और वही हमारा वह मुख्य बन्दा होगा जिसे हम ख़ालिस अपना कर लेंगे।
25. इस जगह यह किस्सा जिस उद्देश्य के लिए बयान किया गया है उसे समझने के लिए ज़रूरी है कि प्रसंग व स्पष्ट रूप से सन्दर्भ को मन में बिठा लिया जाए। पहले और दूसरे रुकूअ के विषय पर विचार करने से यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आती है कि बयान के इस क्रम में आदम व इबलीस का यह किस्सा बयान करने का उद्देश्य इनकार करनेवालों को इस वास्तविकता पर सचेत करना है कि तुम अपने सदैव के दुश्मन शैतान के फंदे में फंस गए हो और उस पस्ती में गिरे चले जा रहे हो, जिसमें वह अपने द्वेष-भाव से तुम्हें गिराना चाहता है। इसके विपरीत यह नबी तुम्हें इसके फंदे से निकालकर उस ऊँचाई की ओर ले जाने का प्रयत्न कर रहा है जो वास्तव में इंसान होने की हैसियत से तुम्हारी स्वाभाविक जगह है, लेकिन तुम विचित्र मूर्ख लोग हो कि अपने शत्रु को मित्र और अपने हितैषी को शत्रु समझ रहे हो। इसके साथ यह तथ्य भी इस किस्से से उनपर स्पष्ट किया गया है कि तुम्हारे लिए निजात का रास्ता केवल एक है, और वह अल्लाह की बन्दगी है। इस राह को छोड़कर तुम जिस राह पर भी जाओगे, वह शैतान की राह है जो सीधी जहन्नम की ओर जाती है। तीसरी बात जो इस किस्से के ज़रिये से उनको समझाई गई है, यह है कि अपनी इस ग़लती के ज़िम्मेदार तुम स्वयं हो। शैतान का कोई काम इससे अधिक नहीं है कि वह प्रत्यक्ष सांसारिक जीवन से तुम्हें धोखा देकर तुमको बन्दगी की राह से हटाने की कोशिश करता है। उससे धोखा खाना तुम्हारा अपना कार्य है, जिसकी कोई ज़िम्मेदारी तुम्हारे अपने सिवा किसी और पर नहीं है । (इसको और अधिक व्याख्या के लिए देखिए क़ुरआन को सूरा-14, (इबराहीम), आयत 22, टिप्पणी 31)
وَإِنَّ جَهَنَّمَ لَمَوۡعِدُهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 42
0
لَهَا سَبۡعَةُ أَبۡوَٰبٖ لِّكُلِّ بَابٖ مِّنۡهُمۡ جُزۡءٞ مَّقۡسُومٌ ۝ 43
(44) यह जहन्नम (जिससे इबलीस की पैरवी करनेवालों को डराया गया है। इसके सात दरवाज़े हैं। हर दरवाजे के लिए उनमें से एक हिस्सा निश्चित कर दिया गया है।26
26. जहन्नम के ये दरवाज़े उन गुमराहियों और अवज्ञाओं की दृष्टि से हैं जिनपर चलकर आदमी अपने लिए दोज़ख़ की राह खोलता है, जैसे कोई अनीश्वरवाद के रास्ते से दोज़ख्न की ओर जाता है, कोई अनेकेश्वरवाद (शिर्क) के रास्ते से, कोई (निफ़ाक़) के रास्ते से, कोई इच्छाओं की दासताओं, अवज्ञा और दुराचार के रास्ते से, कोई अन्याय, अत्याचार और प्राणियों को सताने के रास्ते से, कोई गुमराही के प्रचार और कुधर्म कायम करने के रास्ते से और कोई बेहयाई और बुराई की फैलाने के रास्ते से, जिस आदमी की जो विशेषता अधिक उभरी होगी उसी की दृष्टि से जहन्नम की ओर जाने के लिए उसका रास्ता निश्चित होगा।
إِنَّ ٱلۡمُتَّقِينَ فِي جَنَّٰتٖ وَعُيُونٍ ۝ 44
(45, 46) इसके विपरीत अल्लाह का डर रखनेवाले लोग 27 बाग़ों और स्रोतों में होंगे और उनसे कहा जाएगा कि ‘’प्रवेश करो इनमें सलामती के साथ, बिना किसी डर और खतरे के।"
27. अर्थात् वे लोग जो शैतान के अनुपालन से बचे रहे हों और जिन्होंने अल्लाह से डरते हुए उसका दास बनकर ज़िन्दगी गुज़ारी हो।
ٱدۡخُلُوهَا بِسَلَٰمٍ ءَامِنِينَ ۝ 45
0
وَنَزَعۡنَا مَا فِي صُدُورِهِم مِّنۡ غِلٍّ إِخۡوَٰنًا عَلَىٰ سُرُرٖ مُّتَقَٰبِلِينَ ۝ 46
(47) उनके दिलों में जो थोड़ी-बहुत खोट-कपट होगी, उसे हम निकाल देंगे।28 वे आपस में भाई-भाई बनकर आमने सामने तख़्तों पर बैठेंगे।
28. अर्थात् नेक लोगों के बीच आपस की ग़लतफहमियों के आधार पर दुनिया में अगर कुछ मनमुटाव पैदा हो गया होगा तो जन्नत में प्रवेश करते समय वह दूर हो जाएगा, और उनके दिल एक-दूसरे की ओर से म बिलकुल साफ़ कर दिए जाएँगे। (अधिक व्याख्या के लिए देखिए क़ुरआन को सूरा-7 (आराफ़), टिप्पणी 32)
لَا يَمَسُّهُمۡ فِيهَا نَصَبٞ وَمَا هُم مِّنۡهَا بِمُخۡرَجِينَ ۝ 47
(48) उन्हें न वहाँ किसी कष्ट से पाला पड़ेगा और न वे वहाँ से निकाले जाएँगे।29
29. इसकी व्याख्या उस हदीस से होती है जिसमें नबी (सल्ल०) ने ख़बर दी है कि "जन्नतवालों से कह दिया जाएगा कि अब तुम सदैव स्वस्थ रहोगे, कभी बीमार न पड़ोगे, और अब तुम सदैव जीवित रहोगे, कभी मौत तुमको न आएगी और अब तुम सदैव जवान रहोगे, कभी बुढ़ापा तुमपर न आएगा और अब तुम सदैव यहीं ठहरोगे, कभी कूच करने की तुम्हें आवश्यकता न होगी।” इसकी और अधिक व्याख्या उन आयतों और हदीसों से होती है जिनमें बताया गया है कि जन्नत में इंसान को अपने खाने-पीने और अपनी आवश्यकताओं को जुटाने के लिए कोई परिश्रम न करना पड़ेगा, सब कुछ उसे बिना श्रम और कष्ट के मिलेगा।
۞نَبِّئۡ عِبَادِيٓ أَنِّيٓ أَنَا ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 48
(49) ऐ नबी ! मेरे बन्दों को ख़बर दे दो कि मैं बहुत क्षमाशील और दयावान हूँ,
وَأَنَّ عَذَابِي هُوَ ٱلۡعَذَابُ ٱلۡأَلِيمُ ۝ 49
(50) मगर इसके साथ मेरा अज़ाब भी बड़ा दर्दनाक अज़ाब है।
وَنَبِّئۡهُمۡ عَن ضَيۡفِ إِبۡرَٰهِيمَ ۝ 50
(51) और इन्हें तनिक इबराहीम के मेहमानों का किस्सा सुनाओ।30
30. यहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और उनके बाद तुरन्त लूत (अलैहि०) की क़ौम का क़िस्सा जिस उद्देश्य से सुनाया जा रहा है उसको समझने के लिए इस सूरा की आरंभिक आयतों को दृष्टि में रखना ज़रूरी है। आयतें 7-8 में मक्का के कुफ़्फ़ार का यह कथन नक़ल किया गया है कि वे नबी (सल्ल०) से कहते थे कि ‘’अगर तुम सच्चे नबी हो तो हमारे सामने फ़रिश्तों को ले क्यों नहीं आते?" इसका संक्षिप्त उत्तर वहाँ केवल इतना कहकर छोड़ दिया गया था कि "फ़रिश्तों को हम यूँ ही नहीं उतार दिया करते, उन्हें तो जब हम भेजते हैं सत्य के साथ ही भेजते हैं।" अब इसका विस्तृत उत्तर यहाँ इन दोनों किस्सों के रूप में दिया जा रहा है। यहाँ उन्हें बताया जा रहा है कि एक 'सत्य' तो वह है जिसे लेकर फ़रिश्ते इबराहीम (अलैहि०) के पास आए थे और दूसरा 'सत्य' वह है जिसे लेकर वे लूत (अलैहि०) की क़ौम में पहुँचे थे। अब तुम स्वयं देख लो कि तुम्हारे पास इनमें से कौन-सा सत्य लेकर फ़रिश्ते आ सकते हैं? इबराहीम वाले 'सत्य' के योग्य तो स्पष्ट है कि तुम नहीं हो। अब क्या उस 'सत्य' के साथ फ़रिश्तों को बुलवाना चाहते हो जिसे लेकर वे लूत की क़ौम के यहाँ पहुँचे थे?
إِذۡ دَخَلُواْ عَلَيۡهِ فَقَالُواْ سَلَٰمٗا قَالَ إِنَّا مِنكُمۡ وَجِلُونَ ۝ 51
(52) जब वे आए उसके यहाँ और कहा, "सलाम हो तुमपर” तो उसने कहा, “हमें तुमसे डर लगता है।‘’31
31. तुलना के लिए देखिए क़ुरआन की सूरा-7 (हूद), आयत 70-83, टिप्पणियाँ सहित ।
قَالُواْ لَا تَوۡجَلۡ إِنَّا نُبَشِّرُكَ بِغُلَٰمٍ عَلِيمٖ ۝ 52
(53) उन्होंने उत्तर दिया, "डरो नहीं, हम तुम्हें एक बड़े सयाने लड़के की शुभ-सूचना देते हैं।"32
32. अर्थात् हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के पैदा होने की शुभ-सूचना, जैसा कि क़ुरआन की सूरा-11 (हूद) में स्पष्ट शब्दों में वर्णन किया गया है।
قَالَ أَبَشَّرۡتُمُونِي عَلَىٰٓ أَن مَّسَّنِيَ ٱلۡكِبَرُ فَبِمَ تُبَشِّرُونَ ۝ 53
(54) इबराहीम ने कहा, “क्या तुम इस बुढ़ापे में मुझे सन्तान की सूचना देते हो? तनिक सोचो तो सही कि यह कैसी सूचना तुम मुझे दे रहे हो ?"
قَالُواْ بَشَّرۡنَٰكَ بِٱلۡحَقِّ فَلَا تَكُن مِّنَ ٱلۡقَٰنِطِينَ ۝ 54
(55) उन्होंने उत्तर दिया, “हम तुम्हें सच्ची शुभ-सूचना दे रहे हैं, तुम निराश न हो ।"
قَالَ وَمَن يَقۡنَطُ مِن رَّحۡمَةِ رَبِّهِۦٓ إِلَّا ٱلضَّآلُّونَ ۝ 55
(56) इबराहीम ने कहा, “अपने रब की रहमत से निराश तो पथभ्रष्ट लोग ही हुआ करते हैं।"
قَالَ فَمَا خَطۡبُكُمۡ أَيُّهَا ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 56
(57) फिर इबराहीम ने पूछा, "ऐ अल्लाह के भेजे हुए लोगो । वह मुहिम क्या जिसपर आप लोग तशरीफ़ लाए है ? "33
33. हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के इस प्रश्न से स्पष्ट मालूम होता है कि फरिश्तों का इंसानी शक्ल में आना हमेशा असामान्य परिस्थितियों ही में हुआ करता है और कोई बड़ा अभियान ही होता है जिसपर वे भेजे जाते हैं।
قَالُوٓاْ إِنَّآ أُرۡسِلۡنَآ إِلَىٰ قَوۡمٖ مُّجۡرِمِينَ ۝ 57
(58) वे बोले, "हम एक अपराधी क़ौम की ओर भेजे गए है। 34
34. यह संक्षिप्त संकेत स्पष्ट रूप से बता रहा है कि लूत की कौम के अपराध का पैमाना उस समय इतना भर चुका था कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) जैसे सचेत व्यक्ति के सामने उसका नाम लेने की बिलकुल ज़रूरत न थी । बस एक अपराधी कोम' कह देना बिलकुल काफ़ी था।
إِلَّآ ءَالَ لُوطٍ إِنَّا لَمُنَجُّوهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 58
(59, 60) केवल लूत के घरवाले इससे अलग है, उन सबको हम बचा लेंगे, सिवाय उसकी बीवी के जिसके लिए (अल्लाह फ़रमाता है कि हमने नियत कर दिया है कि वह पीछे रह जानेवालों में शामिल रहेगी।"
إِلَّا ٱمۡرَأَتَهُۥ قَدَّرۡنَآ إِنَّهَا لَمِنَ ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 59
0
فَلَمَّا جَآءَ ءَالَ لُوطٍ ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 60
(61, 62) फिर जब ये लूत के यहाँ पहुँचे35 तो उसने कहा, “आप लोग अजनबी लगते हैं।"36
36. यहाँ यह बात अति संक्षेप में कही गई है। सूरा हूद में इसका विवरण यह दिया गया है कि इन लोगों के आने से हज़रत लूत (अलैहि०) बहुत घबराए और बड़े दिल तंग हुए और उनको देखते ही अपने दिल में कहने लगे कि आज बड़ा कठोर समय आया है। इस घबराहट का कारण, जो क़ुरआन के वर्णन से संकेत रूप में और रिवायतों से स्पष्ट रूप से मालूम होता है, यह है कि ये फ़रिश्ते अति सुन्दर लड़कों के रूप में हज़रत लूत के यहाँ पहुँचे थे और हज़रत लूत अपनी क़ौम की बदमाशी को जानते थे, इसलिए आप बड़े परेशान हुए कि आए हुए मेहमानों को वापस भी नहीं किया जा सकता और उन्हें उन बदमाशों से बचाना भी मुश्किल है।
قَالَ إِنَّكُمۡ قَوۡمٞ مُّنكَرُونَ ۝ 61
0
قَالُواْ بَلۡ جِئۡنَٰكَ بِمَا كَانُواْ فِيهِ يَمۡتَرُونَ ۝ 62
(63) उन्होंने उत्तर दिया, "नहीं, बल्कि हम वही चीज़ लेकर आए हैं जिसके आने में ये लोग सन्देह कर रहे थे।
وَأَتَيۡنَٰكَ بِٱلۡحَقِّ وَإِنَّا لَصَٰدِقُونَ ۝ 63
(64) हम तुमसे सच कहते हैं कि हम सत्य के साथ तुम्हारे पास आए हैं,
فَأَسۡرِ بِأَهۡلِكَ بِقِطۡعٖ مِّنَ ٱلَّيۡلِ وَٱتَّبِعۡ أَدۡبَٰرَهُمۡ وَلَا يَلۡتَفِتۡ مِنكُمۡ أَحَدٞ وَٱمۡضُواْ حَيۡثُ تُؤۡمَرُونَ ۝ 64
(65) इसलिए अब तुम कुछ रात रहे अपने घरवालों को लेकर निकल जाओ और स्वयं उनके पीछे-पीछे चलो।37 तुममें से कोई पलटकर न देखे।38
37. अर्थात् इस उद्देश्य से अपने घरवालों के पीछे चलो कि उनमें से कोई ठहरने न पाए।
38. इसका यह अर्थ नहीं है कि पलटकर देखते ही तुम पत्थर के हो जाओगे, जैसा कि बाइबल में बयान हुआ है, बल्कि इसका अर्थ यह है कि पीछे की आवाज़ें और शोर व गुल सुनकर तमाशा देखने के लिए न ठहर जाना। यह न तमाशा देखने का समय है और न अपराधी जाति के विनाश पर आँसू बहाने का। एक क्षण भी अगर तुमने अज़ाब दी गई जाति के क्षेत्र में दम ले लिया तो असंभव नहीं कि तुम्हें भी इस विनाश की वर्षा से कुछ हानि पहुँच जाए।
وَقَضَيۡنَآ إِلَيۡهِ ذَٰلِكَ ٱلۡأَمۡرَ أَنَّ دَابِرَ هَٰٓؤُلَآءِ مَقۡطُوعٞ مُّصۡبِحِينَ ۝ 65
(66) बस सीधे चले जाओ जिधर जाने का तुम्हें आदेश दिया जा रहा है।” और उसे हमने अपना यह निर्णय पहुंचा दिया कि सुबह होते होते इन लोगों की जड़ काट दी जाएगी।
وَجَآءَ أَهۡلُ ٱلۡمَدِينَةِ يَسۡتَبۡشِرُونَ ۝ 66
(67) इतने में नगर के लोग खुशी के मारे बेताब होकर लूत के घर चढ़ आए।39
39. इससे अनुमान किया जा सकता है की उस जाति की टुप्चरित्रता किस सीमा को पहुँच चुकी थी। बस्ती के एक आदमी के यहाँ कुछ सुन्दर मेहमानों का आ जाना इस बात के लिए पर्याप्त था कि उसके घर पर लफंगों की एक भीड़ उमड़ आए और खुल्लम-खुल्ला वे उससे माँग करें कि अपने मेहमानों को कुकर्म के लिए हमारे हवाले कर दे। उनकी पूरी आबादी में कोई ऐसा तत्त्व शेष न रहा था जो इन हरकतों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता और न उनकी जाति में कोई नैतिक चेतना शेष रह गई थी, जिससे लोगों को खुल्लम-खुल्ला यह ज़्यादतियाँ करते हुए किसी लज्जा का अनुभव होता। हज़रत लूत (अलैहि०) जैसे पावन व्यक्ति और नैतिक शिक्षा देनेवाले के घर पर भी जब बदमाशों का हमला इस निडरता के साथ हो सकता था तो अनुमान लगाया जा सकता है कि आम इंसानों के साथ उन बस्तियों में क्या कुछ हो रहा होगा।
قَالَ إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ ضَيۡفِي فَلَا تَفۡضَحُونِ ۝ 67
(68) लूत ने कहा, “भाइयो ! ये मेरे मेहमान हैं, मेरी फजीहत न करो,
وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَلَا تُخۡزُونِ ۝ 68
(69) अल्लाह से डरो, मुझे रुसवा न करो।"
قَالُوٓاْ أَوَلَمۡ نَنۡهَكَ عَنِ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 69
(70) वे बोले, “क्या हम बार-बार तुम्हें मना नहीं कर चुके हैं कि दुनिया भर के ठेकेदार न बनो?”
قَالَ هَٰٓؤُلَآءِ بَنَاتِيٓ إِن كُنتُمۡ فَٰعِلِينَ ۝ 70
(71) लूत ने (विवश होकर) कहा, “अगर तुम्हें कुछ करना ही है तो ये मेरी बेटियाँ मौजूद हैं।‘’40
40. इसकी व्याख्या सूरा-11 (हूद) की टिप्पणी 87 में की जा चुकी है। यहाँ केवल इतना संकेत पर्याप्त है कि ये शब्द एक सज्जन व्यक्ति की ज़बान पर ऐसे समय में आए हैं जबकि वह बिलकुल तंग आ चुका था और बदमाश लोग उसकी सारी फ़रियाद और चीन व पुकार से बेपरवा होकर उसके मेहमानों पर टूटे पड़ रहे थे-इस अवसर पर एक बात को स्पष्ट कर देना ज़रूरी है। सूरा-11 (हूद) में घटना जिस क्रम से बयान की गई है उसमें यह व्याख्या है कि हज़रत लूत को बदमाशों के इस हमले के समय तक यह मालूम न था कि उनके मेहमान वास्तव में फ़रिश्ते हैं, वे उस समय तक यही समझ रहे थे कि ये कुछ मुसाफ़िर लड़के हैं जो उनके यहाँ आकर ठहरे हैं। उन्होंने अपने फ़रिश्ते होने की बास्तविकता उस समय खोली जब बदमाशों की भीड़ मेहमानों के निवास स्थल पर पिल पड़ी और हज़रत लूत ने तड़पकर फ़रमाया, “काश, मुझे तुम्हारे मुक़ाबले की शक्ति प्राप्त होती या मेरा कोई सहारा होता जिसका मैं समर्थन लेता।" इसके बाद फ़रिश्तों ने उनसे कहा कि अब तुम अपने घरवालों को लेकर यहाँ से निकल जाओ और हमें इनसे निमटने के लिए छोड़ दो। घटनाओं के इस क्रम को दृष्टि में रखने से पूरा अंदाज़ा हो सकता है कि हज़रत लूत ने ये शब्द किस कठिन घड़ी में विवश होकर कहे थे। इस सूरा में चूँकि घटनाओं को क्रमवार नहीं बयान किया जा रहा है, बल्कि उस विशेष पहलू को मुख्य रूप से स्पष्ट करना अभिप्रेत है जिसे मन में बिठाने के लिए ही यह किस्सा यहाँ नक़ल किया गया है, इसलिए एक सामान्य पाठक को यहाँ यह भ्रम होता है कि फ़रिश्ते शुरू ही में अपना परिचय हज़रत लूत से करा चुके थे और अब अपने मेहमानों की आबरू बचाने के लिए उनको यह सारी फ़रियाद और चीख-पुकार मात्र एक नाटकीय ढंग की थी।
لَعَمۡرُكَ إِنَّهُمۡ لَفِي سَكۡرَتِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 71
(72) तेरी जान की क़सम ऐ नबी ! उस समय उनपर एक नशा-सा चढ़ा हुआ था जिसमें वे आपे से बाहर हुए जाते थे।
فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّيۡحَةُ مُشۡرِقِينَ ۝ 72
(73) अन्तत: पौ फटते ही उनको एक ज़बरदस्त धमाके ने आ लिया
فَجَعَلۡنَا عَٰلِيَهَا سَافِلَهَا وَأَمۡطَرۡنَا عَلَيۡهِمۡ حِجَارَةٗ مِّن سِجِّيلٍ ۝ 73
(74) और हमने उस बस्ती को तलपट करके रख दिया और उनपर पकी हुई मिट्टी के पत्थरों की बारिश बरसा दी।41
41. यह पकी हुई मिट्टी के पत्थर संभव है कि उल्का पिंड जैसे हों और यह भी संभव है कि ज्वालामुखीय विस्फोटक (Volcanic Eruption) के कारण ज़मीन से निकलकर उड़े हों और फिर उनपर बारिश की तरह बरस गए हों और यह भी संभव है कि एक तेज़ आँधी ने यह पथराव किया हो।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّلۡمُتَوَسِّمِينَ ۝ 74
(75) इस घटना में बड़ी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो सूझ-बूझवाले हैं।
وَإِنَّهَا لَبِسَبِيلٖ مُّقِيمٍ ۝ 75
(76, 77) और वह क्षेत्र (जहाँ यह घटना घटी थी) आम रास्ते पर स्थित है।42 उसमें शिक्षा-सामग्री है उन लोगों के लिए जो ईमानवाले हैं।
42. अर्थात् हिजाज़ से शाम और इराक से मिस्र जाते हुए यह विनष्ट क्षेत्र रास्ते में पड़ता है और सामान्य रूप से क़ाफ़िलों के लोग विनाश की उन निशानियों को देखते हैं जो इस पूरे क्षेत्र में आज तक नुमायाँ हैं। यह क्षेत्र मृतसागर (Dead Sea) के पूरब और दक्षिण में स्थित है, और मुख्य रूप से उसके दक्षिणी भाग के बारे में भूगोल शास्त्रियों का कहना है कि यहाँ इतनी अधिक विरानी पाई जाती है जिसकी मिसाल धरती पर कहीं और नहीं देखी गई।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 76
0
وَإِن كَانَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡأَيۡكَةِ لَظَٰلِمِينَ ۝ 77
(78, 79) और ऐकावाले 43 ज़ालिम थे, तो देख लो कि हमने भी उनसे बदला लिया और इन दोनों क़ौमों के उजड़े हुए क्षेत्र खुले रास्ते पर स्थित हैं।44
43. अर्थात् हज़रत शुऐब (अलैहि०) की जाति के लोग। उस जाति का नाम बनी मदयान था। मदयन उनके केन्द्रीय नगर को भी कहते थे और उनके पूरे क्षेत्र को भी । रहा ऐका, तो यह तबूक का पुराना नाम था। इस शब्द का अर्थ घना जंगल है। आजकल ऐका एक पहाड़ी नाले का नाम है जो जबलुल्लौज़ से अफ़ल घाटी में आकर गिरता है।
44. मदयन और ऐकावालों का क्षेत्र भी हिजाज़ से फलस्तीन व शाम (सीरिया) जाते हुए रास्ते में पड़ता है।
فَٱنتَقَمۡنَا مِنۡهُمۡ وَإِنَّهُمَا لَبِإِمَامٖ مُّبِينٖ ۝ 78
0
وَلَقَدۡ كَذَّبَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡحِجۡرِ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 79
(80) हिज्र45 के लोग भी रसूलों को झुठला चुके हैं।
45. यह समूद जाति का केन्द्रीय नगर था और उसके खंडहर मदीना के उत्तर-पश्चिम में वर्तमान नगर अल-उला से कुछ मील की दूरी पर स्थित हैं। मदीना से तबूक जाते हुए यह जगह राजमार्ग पर मिलती है और काफिले इस घाटी में से होकर गुज़रते हैं, मगर नबी (सल्ल०) के आदेशानुसार कोई यहाँ रुकता नहीं । आठवीं सदी हिजरी में इब्ने बतूता हज को जाते हुए यहाँ पहुँचा था। वह लिखता है कि “यहाँ लाल रंग के पहाड़ों में समूद जाति की इमारतें मौजूद हैं जो उन्होंने चट्टानों को काट-काटकर उनके भीतर बनाई थीं। ऊन के बेल-बूटे इस समय तक ऐसे ताज़ा है जैसे आज बनाए गए हों। उन मकानों में अब भी सड़ी-गली इंसानी हट्टियाँ पड़ी हुई मिलती हैं। (और अधिक व्याख्या के लिए सूरा-7 (आराफ़), टिप्पणी 57 देखें)
وَءَاتَيۡنَٰهُمۡ ءَايَٰتِنَا فَكَانُواْ عَنۡهَا مُعۡرِضِينَ ۝ 80
(81) हमने अपनी आयतें उनके पास भेजी, अपनी निशानियाँ उनको दिखाई, मगर वे सबको नज़रअंदाज़ ही करते रहे ।
وَكَانُواْ يَنۡحِتُونَ مِنَ ٱلۡجِبَالِ بُيُوتًا ءَامِنِينَ ۝ 81
(82) वे पहाड़ काट-काटकर मकान बनाते थे और अपनी जगह बिलकुल निडर और निश्चिन्त थे।
فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّيۡحَةُ مُصۡبِحِينَ ۝ 82
(83,84) अन्ततः एक ज़बरदस्त धमाके ने उनको सुबह होते आ लिया और उनकी कमाई उनके कुछ काम न आई।46
46. अर्थात् उनके वे पत्थर के मकान, जो उन्होंने पहाड़ों को काट-काटकर उनके भीतर बनाए थे, उनकी कुछ भी रक्षा न कर सके।
فَمَآ أَغۡنَىٰ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 83
0
وَمَا خَلَقۡنَا ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَآ إِلَّا بِٱلۡحَقِّۗ وَإِنَّ ٱلسَّاعَةَ لَأٓتِيَةٞۖ فَٱصۡفَحِ ٱلصَّفۡحَ ٱلۡجَمِيلَ ۝ 84
(85) हमने जमीन और आसमानों को और उनकी सब मौजूद चीज़ों को सत्य के सिवा किसी और आधार पर पैदा नहीं किया है,47 और निर्णय की घड़ी निश्चय ही आनेवाली है। अत: ऐ नबी! तुम (इन लोगों की अशिष्टताओं पर) सज्जनतापूर्ण क्षमा से काम लो।
47. यह बात नबी (सल्ल०) की तस्कीन व तसल्ली के लिए फ़रमाई जा रही है। अर्थ यह है कि इस समय प्रत्यक्ष में असत्य का जो ग़लबा तुम देख रहे हो और सत्य के रास्ते में जिन कठिनाइयों और विपदाओं का तुम्हें सामना करना पड़ रहा है, उससे घबराओ नहीं। यह एक अस्थायी स्थिति है, स्थायी और हमेशा रहनेवाली स्थिति नहीं है, इसलिए कि ज़मीन व आसमान की यह पूरी व्यवस्था सत्य पर बनाई गई है, न कि असत्य पर। सृष्टि की प्रकृति सत्य से मेल खाती है, न कि असत्य से । इसलिए यहाँ अगर निवास और हमेशा रहनेवाली का ठहरना है तो सत्य के लिए है, न कि असत्य के लिए। (अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-14 (इबराहीम), टिप्पणी 25, 26, 35-39)
إِنَّ رَبَّكَ هُوَ ٱلۡخَلَّٰقُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 85
(86) निश्चय ही तुम्हारा रब सबका पैदा करनेवाला है और सब कुछ जानता है।48
48. अर्थात् स्रष्टा होने की हैसियत से वह अपनी सृष्टि पर पूरा ग़लबा व कब्ज़ा रखता है। उसके पैदा किए हुए किसी प्राणी में यह शक्ति नहीं है कि उसकी पकड़ से बच सके, और इसके साथ वह पूरी तरह ख़बर रखनेवाला भी है, जो कुछ इन लोगों के सुधार के लिए तुम कर रहे हो, उसे भी वह जानता है और जिन हथकंडों से ये तुम्हारे सुधार-यलों को असफल बनाने की कोशिश कर रहे हैं, उनकी भी उसे जानकारी है। अत: तुम्हें घबराने और अधीर होने की कोई आवश्यकता नहीं । निश्चिन्त हो कि समय आने पर ठीक-ठीक न्याय के अनुसार फैसला चुका दिया जाएगा।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَٰكَ سَبۡعٗا مِّنَ ٱلۡمَثَانِي وَٱلۡقُرۡءَانَ ٱلۡعَظِيمَ ۝ 86
(87) हमने तुमको सात ऐसी आयतें दे रखी हैं जो बार-बार दोहराई जाने के योग्य हैं,49 और तुम्हें महान क़ुरआन प्रदान किया है।50
49. अर्थात् सूरा-1 (फ़ातिहा) की आयतें । यद्यपि कुछ लोगों ने इससे तात्पर्य वे सात बड़ी-बड़ी सूरतें भी ली हैं जिनमें दो सौ आयतें हैं अर्थात् सूरा-2 (अल-बक़रा),3 (आले इमरान),4 (अन-निसा), 5 (अल-माइदा), 6 (अल-अनआम),7 (अल-आराफ़) और 10 (यूनुस) या अनफ़ाल ब तौबा। लेकिन विगत बड़े विद्वानों की बड़ी संख्या इससे सहमत है कि इससे सूरा फातिहा ही तात्पर्य है, बल्कि इमाम बुखारी (रह०) ने दो मर्फ़ूअ रिवायतें भी इस बात के सबूत में पेश की हैं कि स्वयं नबी (सल्ल०) ने 'सब उम-मिनल मसानी' (सात बार दोहराई जाने वाली आयतें) से तात्पर्य सूरा फ़ातिहा बताया है।
50. यह बात भी नबी (सल्ल०) और उनके साथियों की तस्कीन व तसल्ली के लिए फ़रमाई गई है। एक समय वह था जब नबी (सल्ल०) और आपके साथी सब के सब बड़ी तंगहाली में ग्रस्त थे। नुबूवत के कामों की भारी ज़िम्मेदारियाँ सँभालते ही नबी (सल्ल०) का व्यापार लगभग समाप्त हो चुका था और हज़रत ख़दीजा (रजि०) की पूँजी भी दस-बारह साल की अवधि में समाप्त हो चुकी थी। मुसलमानों में से कुछ कमसिन नौजवान थे जो घरों से निकाल दिए गए थे, कुछ उद्यमी या व्यापारी थे जिनके कारोबार आर्थिक बहिष्कार की निरंतर मार से बिलकुल बैठ गए थे और कुछ बेचारे पहले ही दास या मवाली थे जिनकी कोई आर्थिक हैसियत न थी। इसपर बढ़कर यह कि नबी (सल्ल.) सहित तमाम मुसलमान मक्का और आस-पास की बस्तियों में अत्यन्त उत्पीड़न का जीवन बिता रहे थे। हर ओर से ताने मिलते थे, हर जगह अपमान, अनादर और उपहास का निशाना बने हुए थे और हार्दिक व आध्यात्मिक पीड़ाओं के साथ दैहिक पीड़ाओं से भी कोई बचा हुआ न था। दूसरी ओर कुरैश के सरदार दुनिया की नेमतों से मालामाल और हर प्रकार की समृद्धि में मान थे । इन परिस्थितियों में फ़रमाया जा रहा है कि तुम निरुत्साह क्यों होते हो तुमको तो हमने वह पूँजी दी है जिसके मुक़ाबले में दुनिया की सारी नेमतें तुच्छ हैं । गर्व करने योग्य तुम्हारी यह नैतिक व ज्ञानात्मक पूँजी है, न कि उन लोगों का भौतिक धन जो तरह-तरह के हराम तरीकों से कमा रहे हैं और तरह-तरह के हराम रास्तों में इस कमाई को उड़ा रहे हैं, और अन्ततः बिलकुल निर्धन व कंगाल होकर अपने रब के सामने हाज़िर होनेवाले हैं।
لَا تَمُدَّنَّ عَيۡنَيۡكَ إِلَىٰ مَا مَتَّعۡنَا بِهِۦٓ أَزۡوَٰجٗا مِّنۡهُمۡ وَلَا تَحۡزَنۡ عَلَيۡهِمۡ وَٱخۡفِضۡ جَنَاحَكَ لِلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 87
(88) तुम दुनिया की उस पूँजी की ओर आँख उठाकर न देखो जो हमने इनमें से अलग-अलग प्रकार के लोगों को दे रखी है, और न इनके हाल पर अपना दिल कुढ़ाओ।51 इन्हें छोड़कर ईमान लानेवालों की ओर झुको
وَقُلۡ إِنِّيٓ أَنَا ٱلنَّذِيرُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 88
(89) और (न माननेवालों से) कह दो कि “मैं तो साफ़-साफ़ सचेत करनेवाला हूँ।'
كَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَى ٱلۡمُقۡتَسِمِينَ ۝ 89
(90, 91) यह उसी तरह की चेतावनी है जैसी हमने उन फूट डालनेवालों की ओर भेजी थी जिन्होंने अपने क़ुरआन को टुकड़े-टुकड़े कर डाला है।52
52. इस गिरोह से तात्पर्य यहूदी उनको फूट डालनेवाले (मुक्तसिमीन) इस अर्थ में कहा गया है कि उन्होंने देते हैं, बहुत जल्द उन्हें मालूम हो जाएगा!
ٱلَّذِينَ جَعَلُواْ ٱلۡقُرۡءَانَ عِضِينَ ۝ 90
0
فَوَرَبِّكَ لَنَسۡـَٔلَنَّهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 91
(92, 93) तो क़सम है तेरे रब की, हम ज़रूर इन सबसे पूछेगे कि तुम क्या करते रहे हो?
عَمَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 92
0
فَٱصۡدَعۡ بِمَا تُؤۡمَرُ وَأَعۡرِضۡ عَنِ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 93
(94) अत: ऐ नबी ! जिस चीज़ का तुम्हें आदेश दिया जा रहा है, उसे हाँके-पुकारे कह दो और शिर्क करनेवालों की तनिक परवा न करो।
إِنَّا كَفَيۡنَٰكَ ٱلۡمُسۡتَهۡزِءِينَ ۝ 94
(95, 96) तुम्हारी ओर से हम इन उपहास करनेवालों की ख़बर लेने के लिए काफी हैं जो अल्लाह के साथ किसी और को भी ख़ुदा क़रार देते हैं, बहुत जल्द उन्हें मालूम हो जाएगा!
ٱلَّذِينَ يَجۡعَلُونَ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَۚ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 95
0
وَلَقَدۡ نَعۡلَمُ أَنَّكَ يَضِيقُ صَدۡرُكَ بِمَا يَقُولُونَ ۝ 96
(97) हमें मालूम है कि जो बात ये लोग तुमपर बनाते हैं, उनसे तुम्हारे दिल को बड़ी कुढ़न होती है।
فَسَبِّحۡ بِحَمۡدِ رَبِّكَ وَكُن مِّنَ ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 97
(98) (इसका इलाज यह है कि अपने रख की स्तुति के साथ उसकी तस्बीह (गुणगान) करो, उसकी सेवा में सजदा करो
وَٱعۡبُدۡ رَبَّكَ حَتَّىٰ يَأۡتِيَكَ ٱلۡيَقِينُ ۝ 98
(99) और उस अन्तिम घड़ी तक अपने रख की बन्दगी करते रहो जिसका आना निश्चित है।53
53. अर्थात् सत्य के प्रचार और सुधार के प्रयासों में जिन विपदाओं और कठिनाइयों का तुमको सामना करना पड़ता है, उनके मुकाबले की शक्ति अगर तुम्हें मिल सकती है तो केवल नमाज़ और रब की बन्दगी पर जमे रहने से मिल सकती है। यही चीज़ तुम्हें तसल्ली भी देगी, तुममें धैर्य भी पैदा करेगी, तुम्हारा मनोबल भी बढ़ाएगी और तुमको इस योग्य भी बना देगी कि दुनिया भर की निन्दाओं और अवरोधों के मुक़ाबले में उस सेवा पर डटे रहो जिसके करने में तुम्हारे रब की रिज़ा (प्रसन्नता) है।