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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ

17. बनी-इसराईल

(मक्का में उतरी-आयतें 111)

परिचय

नाम

इस सूरा की आयत 4 के वाक्य “व क़ज़ैना इला बनी इसराई-ल फ़िल-किताब” से लिया गया है। यह नाम भी अधिकतर क़ुरआनी सूरतों की तरह केवल निशानी के रूप में रखा गया है।

उतरने का समय

पहली ही आयत इस बात की निशानदेही कर देती है कि यह सूरा मेराज के मौक़े पर अर्थात् मक्की दौर के अन्तिम काल में उतरी थी। मेराज की घटना हदीस और सीरत (नबी सल्ल० को जीवन-चर्या) की अधिकतर रिवायतों के अनुसार हिजरत से एक साल पहले घटित हुई थी।

पृष्ठभूमि

उस समय नबी (सल्ल०) को तौहीद (एकेश्वरवाद) की आवाज़ बुलन्द करते हुए 12 साल बीत चुके थे। विरोधियों की डाली तमाम रुकावटों के बावजूद आपकी आवाज़ अरब के कोने-कोने में पहुँच गई थी। अब वह समय क़रीब आ गया था जब आप (सल्ल०) को मक्का से मदीना की ओर चले जाने और बिखरे मुसलमानों को समेटकर इस्लामी सिद्धातों पर एक राज्य स्थापित कर देने का अवसर मिलनेवाला था - इन हालात में मेराज पेश आई और वापसी पर यह सन्देश नबी (सल्ल०) ने दुनिया को सुनाया।

विषय और वार्ताएँ

इस सूरा में चेतावनी, समझाना-बुझाना और शिक्षा, तीनों को एक संतुलित शैली में इकट्ठा कर दिया गया है।

चेतावनी मक्का के विधर्मियों को दी गई है कि बनी-इसराईल और दूसरी कौमों के अंजाम से सबक़ लो और इस दावत को स्वीकार कर लो, वरना मिटा दिए जाओगे। साथ ही बनी-इसराईल को भी जिन्हें हिजरत के बाद बहुत जल्द वह्य द्वारा सम्बोधित किया जानेवाला था, यह चेतावनी दी गई है कि पहले जो सज़ाएँ तुम्हें मिल चुकी हैं उनसे शिक्षा लो और अब जो अवसर मुहम्मद (सल्ल०) के पैग़म्बर बनाए जाने से तुम्हें मिल रहा है उससे फ़ायदा उठाओ। यह अन्तिम अवसर भी अगर तुमने खो दिया तो दर्दनाक अंजाम से दो-चार होगे।

समझाने-बुझाने के अंदाज़ में बड़े दिलनशीं तरीक़े से बताया गया है कि इंसान के सौभाग्य एवं दुर्भाग्य और सफलता एवं विफलता की निर्भरता वास्तव में किन चीज़ों पर है। तौहीद, आख़िरत, नुबूवत और क़ुरआन के सत्य पर होने के प्रमाण दिए गए हैं, उन सन्देहों को दूर किया गया है जो इन बुनियादी सच्चाइयों के बारे में मक्का के इस्लाम-विरोधियों की ओर से पेश किए जाते थे।

शिक्षा के पहलू में नैतिकता एवं सभ्यता के वे बड़े-बड़े उसूल बयान किए गए हैं जिनपर जीवन की व्यवस्था को स्थापित करना हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की दावत (अह्वान) के समक्ष था। यह मानो इस्लामी घोषणा-पत्र था जो इस्लामी राज्य की स्थापना से एक साल पहले अरबवालों के सामने प्रस्तुत किया गया था।

इन सब बातों के साथ नबी (सल्ल०) को निरदेश दिया गया है कि कठिनाइयों के इस तूफ़ान में दृढ़ता के साथ अपनी नीति पर जमे रहें और कुफ़्र (अथर्म) के साथ समझौते का ख़याल तक न लाएँ। साथ ही मुसलमानों को बताया गया है कि पूरे धैर्य और शान्ति के साथ परिस्थितियों का मुक़ाबला करते रहें और प्रचार तथा सुधार के काम में अपनी भावनाओं पर क़ाबू रखें। इस सिलसिले में आत्म-सुधार और उसे शुद्ध बनाने के लिए उनको नमाज़ का नुस्ख़ा बताया गया है। रिवायतों से मालूम होता है कि यह पहला मौक़ा है जब पाँच वक़्त की नमाज़ समय की पाबंदी के साथ मुसलमानों पर फ़र्ज़ की गई।

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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
17. बनी-इसराईल
سُورَةُ الإِسۡرَاءِ
17. बनी इसराईल
سُبۡحَٰنَ ٱلَّذِيٓ أَسۡرَىٰ بِعَبۡدِهِۦ لَيۡلٗا مِّنَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ إِلَى ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡأَقۡصَا ٱلَّذِي بَٰرَكۡنَا حَوۡلَهُۥ لِنُرِيَهُۥ مِنۡ ءَايَٰتِنَآۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡبَصِيرُ
(1) पाक है वह जो ले गया एक रात अपने बन्दे को मस्जिदे हराम (प्रतिष्ठित मस्जिद) से दूर की उस मस्जिद तक जिसके माहौल को उसने बरकत दी है, ताकि उसे अपनी कुछ निशानियाँ दिखाए।1 वास्तव में वही है सब कुछ सुनने और देखनेवाला।
1. यह वही घटना है जो परिभाषा में 'मेराज' और 'इसरा' के नाम से प्रसिद्ध है। अधिकतर और विश्वसनीय रिवायतों की रौशनी में यह घटना हिजरत से एक साल पहले घटी। हदीस और सीरत की किताबों में इस घटना का विवरण बहुत से सहाबियों से रिवायत किया गया है, जिनकी संख्या 25 तक पहुँचती है।– क़ुरआन मजीद यहाँ केवल मस्जिदे हराम (अर्थात् बैतुल्लाह) से मस्जिदे अक्सा (अर्थात् बैतुल-मक्दिस) तक नबी (सल्ल०) के जाने उल्लेख करता है और इस यात्रा का उद्देश्य यह बताता है कि अल्लाह अपने बन्दे को अपनी कुछ निशानियाँ दिखाना चाहता था। इससे अधिक और कोई विवरण कुरआन में नहीं आया है। हदीस में जो विवरण मिलते हैं उनका सार यह है कि रात के समय जिबरील (अलै०) नबी (सल्ल०) को उठाकर मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक्सा तक बुराक़ पर ले गए। वहाँ आपने नबियों के साथ नमाज़ अदा की, फिर वह आपको ऊपर की दुनिया की ओर ले चले और वहाँ विभिन्न आसमानी परतों में विभिन्न प्रतिष्ठित नबियों से आपकी मुलाक़ात हुई । वहाँ आपको जन्नत और दोज़न भी दिखाई गई । अन्ततः आप अति ऊँचाइयों पर पहुँचकर अपने रब के हुजूर हाज़िर हुए और इस हुजूरी के अवसर पर दूसरी अहम हिदायतों के अलावा आपको पाँच वक़्तों की नमाज़ के फ़र्ज़ किए जाने का हुक्म हुआ। इसके बाद आप बैतुल-मक्दिस की ओर पलटे और वहाँ से मस्जिदे हराम वापस तशरीफ़ लाए। हदीस में पाए जानेवाले यह विवरण क़ुरआन के विरुद्ध नहीं हैं, बल्कि उसके बयान को और विस्तृत किया गया है, और स्पष्ट है कि विस्तार को कुरआन के विरुद्ध कहकर रद्द नहीं किया जा सकता। इस यात्रा की स्थिति क्या थी? यह सोते में हुआ या जागते में? हुजूर (सल्ल०) स्वतः तशरीफ़ ले गए थे या अपनी जगह बैठे-बैठे केवल आध्यात्मिक रूप से ही आपको यह दिखा दिया गया था? इन प्रश्नों का उत्तर क़ुरआन मजीद के शब्द स्वयं दे रहे हैं-'पाक है वह जो ले गया' से बयान की शुरुआत करना ख़ुद बता रहा है कि यह कोई बहुत बड़ी असाधारण घटना थी जो अल्लाह की असामान्य सामर्थ्य से घटित हुई। स्पष्ट है कि सपने में किसी आदमी का इस तरह की चीजें देख लेना या कश्फ़ (आत्मप्रकाश) के रूप में देखना यह महत्त्व नहीं रखता कि उसे बयान करने के लिए इस भूमिका की आवश्यकता हो कि तमाम कमजोरियों और खराबियों से पाक है वह जात जिसने अपने बन्दे को यह सपना दिखाया या कश्फ़ (आत्म-प्रकाश) में यह कुछ दिखाया। फिर ये शब्द भी कि 'एक रात अपने बन्दे को ले गया' सशरीर यात्रा का साफ़ पता दे रहे हैं। सपने के सफ़र या कश्फ़ी सफ़र के लिए ये शब्द किसी तरह सही नहीं हो सकते। इसलिए हमारे लिए यह माने बिना कोई रास्ता नहीं कि यह एकमात्र आध्यात्मिक अनुभव न था, बल्कि एक सशरीर यात्रा और आखों द्वारा प्रत्यक्ष निरीक्षण था जो अल्लाह ने नबी (सल्ल०) को कराया। अब अगर एक रात में हवाई जहाज़ के बिना मक्के से बैतुल-मक्दिस जाना और आना अल्लाह की सामर्थ्य से संभव था तो (इन दूसरे विवरणों को भी असंभव नहीं कहा जा सकता] जो हदीस में बयान हुए हैं। संभव और असंभव का विवाद तो केवल उस रूप में पैदा होता है जबकि किसी जीव के अपने अधिकार से करने का कोई मामला विचारधीन हो। लेकिन जब उल्लेख इसका हो कि अल्लाह ने अमुक काम किया, तो फिर संभव होने का प्रश्न वही आदमी उठा सकता है जिसे अल्लाह के पूर्ण सामर्थ्यवान होने का विश्वास न हो। सही बात जो मेराज के सिलसिले में समझ लेनी चाहिए वह यह है कि नबियों (अलैहिमुस्सलाम) में से हर एक को अल्लाह ने उनके पद को दृष्टि से आसमानों और ज़मीन की चीज़ों का निरीक्षण कराया है और भौतिक परदों को बीच में से हटाकर आँखों से वे चीजें दिखाई है जिनपर अनदेखे ईमान लाने की दावत देने पर वे नियुक्त किए गए थे, ताकि उनका स्थान एक दार्शनिक के स्थान से बिलकुल अलग हो जाए। दार्शनिक जो कुछ भी कहता है कल्पना और अनुमान के आधार पर कहता है। वह स्वयं अगर अपनी हैसियत जाने तो कभी अपनी किसी राय की सच्चाई पर गवाही न देगा, मगर नबी जो कुछ कहते हैं, वे सीधे ज्ञान और निरीक्षण के आधार पर कहते हैं।
وَءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ وَجَعَلۡنَٰهُ هُدٗى لِّبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ أَلَّا تَتَّخِذُواْ مِن دُونِي وَكِيلٗا ۝ 1
(2) हमने इससे पहले मूसा को किताब दी थी और उसे बनी इसराईल के मार्गदर्शन का साधन बनाया था 2, इस ताकीद के साथ कि मेरे सिवा किसी को अपना वकील न बनाना। 3
2. सूरा का वास्तविक उद्देश्य मक्का के विधर्मियों को सचेत करना है। शुरू में मेराज का उल्लेख केवल इस उद्देश्य के लिए किया गया है कि सामने के लोगों को बता दिया जाए कि ये बातें तुमसे वह आदमी कर रहा है जो अभी-अभी अल्लाह की महान निशानियाँ देखकर आ रहा है। इसके बाद अब बनी इसराईल के इतिहास से शिक्षा दिलाई जाती है कि अल्लाह की ओर से किताब पानेवाले जब अल्लाह के मुक़ाबले में सर उठाते हैं तो देखो कि फिर उनको कैसी सज़ा दी जाती है।
3. वकील, अर्थात् विश्वास और भरोसे की धुरी, जिसपर भरोसा किया जाए, जिसके सुपुर्द अपने मामले कर दिए जाएँ, जिसकी ओर मार्गदर्शन और सहायता चाहने के लिए रुजू किया जाए।
ذُرِّيَّةَ مَنۡ حَمَلۡنَا مَعَ نُوحٍۚ إِنَّهُۥ كَانَ عَبۡدٗا شَكُورٗا ۝ 2
(3) तुम उन लोगों की सन्तान हो जिन्हें हमने नूह के साथ नाव पर सवार किया था,4 और नूह एक कृतज्ञ बन्दा था।
4. अर्थात् नूह और उनके साथियों की सन्तान होने की हैसियत से तुम्हें यही बात शोभा देती है कि तुम केवल एक अल्लाह ही को अपना वकील बनाओ, क्योंकि जिनकी तुम सन्तान हो वह अल्लाह ही को वकील बनाने के कारण तूफ़ान की तबाही से बचे थे।
وَقَضَيۡنَآ إِلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ فِي ٱلۡكِتَٰبِ لَتُفۡسِدُنَّ فِي ٱلۡأَرۡضِ مَرَّتَيۡنِ وَلَتَعۡلُنَّ عُلُوّٗا كَبِيرٗا ۝ 3
(4) फिर हमने अपनी किताब 5 में बनी इसराईल को इस बात पर भी सचेत कर दिया था कि तुम दो बार ज़मीन में बड़ा बिगाड़ पैदा करोगे और बड़ी उदंडता दिखाओगे। 6
5. किताब से तात्पर्य यहाँ तौरात नहीं है, बल्कि आसमानी सहीफ़ों (ग्रंथों) का संग्रह है जिसके लिए क़ुरआन में पारिभाषिक रूप में शब्द 'अल-किताब' का प्रयोग हुआ है।
6. बाइबल के पवित्र ग्रन्थों के संग्रह में ये चेतावनियाँ अलग-अलग स्थानों पर मिलती हैं। पहले बिगाड़ और उसके बुरे परिणामों पर बनी इसराईल को ज़बूर, यसञ्जियाह, यरमियाह और हिज़कीएल में सचेत किया गया है और दूसरे बिगाड़ और उसकी कड़ी सज़ा की भविष्यवाणी हज़रत मसीह ने की है जो मत्ती और लूक़ा की इंजीलों में मौजूद है। पहले बिगाड़ के बारे में देखिए ज़बूर, अध्याय 106, आयतें 34-41, यसअियाह, अध्याय 1, आयतें 4-5, अध्याय 1 आयतें 21-24, अध्याय 2 आयतें 6-8, अध्याय 3 आयर्ते 16-26, अध्याय 8 आयत 7, अध्याय 30 आयत 9-14, यरमियाह, अध्याय 2 आयतें 5-28, अध्याय 3,आयतें 6-9, अध्याय 5 आयतें 1-9, अध्याय 5 आयतें 15-17, अध्याय 7 आयतें 33-34, अध्याय 15 आयतें 2-3, हिज़क़ीएल, अध्याय 22 आयत 3-16] दूसरे बिगाड़ के बारे में देखिए, मत्ती, अध्याय 23, आयतें 37-38, अध्याय 24, आयत 2,लूका अध्याय 23, आयतें 28-30]
فَإِذَا جَآءَ وَعۡدُ أُولَىٰهُمَا بَعَثۡنَا عَلَيۡكُمۡ عِبَادٗا لَّنَآ أُوْلِي بَأۡسٖ شَدِيدٖ فَجَاسُواْ خِلَٰلَ ٱلدِّيَارِۚ وَكَانَ وَعۡدٗا مَّفۡعُولٗا ۝ 4
(5) अन्तत: जब उनमें से पहली उदंडता का मौक़ा पेश आया, तो ऐ बनी इसराईल, हमने तुम्हारे मुकाबले पर अपने ऐसे बन्दे उठाए जो बड़े शक्तिशाली थे और वे तुम्हारे देश में घुसकर हर ओर फैल गए। यह एक वादा था जिसे पूरा होकर ही रहना था। 7
7. इससे तात्पर्य वह भयावह विनाश है जो आशूरियों और बाबिलवालों के हाथों बनी इसराईल पर आया। [उनके एक राज्य, सल्तनते इसराईली, पर अल्लाह का प्रकोप आशूरियों के हमले की शक्ल में टूटा और] 721 ई० पू० में आशूर के बर्बर शासक सारगोन ने इस राज्य को समाप्त कर दिया । हज़ारों इसराईली मार दिए गए। 27 हज़ार से अधिक असरदार [इसराईली] देश से बाहर कर दिए गए। बनी इसराईल के दूसरे राज्य सल्तनते यहूदिया को तो पहले आशूरियों ही ने अपने आधीन किया, फिर] 587 ई० पू० में बाबिल के बादशाह [बुख़्त नस्र ने उसकी] ईंट से ईंट बजा दी। यरूशलम और हैकले सुलैमानी को इस तरह ढेर कर दिया कि उसकी एक दीवार भी अपनी जगह खड़ी न रही।
ثُمَّ رَدَدۡنَا لَكُمُ ٱلۡكَرَّةَ عَلَيۡهِمۡ وَأَمۡدَدۡنَٰكُم بِأَمۡوَٰلٖ وَبَنِينَ وَجَعَلۡنَٰكُمۡ أَكۡثَرَ نَفِيرًا ۝ 5
(6) इसके बाद हमने तुम्हें उनपर ग़लबे का अवसर दे दिया और तुम्हें धन और सन्तान से सहायता दी और तुम्हारी तादाद पहले से बढ़ा दी। 8
8. यह संकेत है उस मोहलत की ओर जो यहूदियों (अर्थात् यहूदियावालों) को उनके [अल्लाह की ओर रुजू करने के कारण माबिल को गिरफ्तारी से रिहाई के बाद दी गई। [यह रिहाई उन्हीं इरानी विजेता साइरस रवारस या ख़ुसरो) के ज़रिये मिली जिस] ने 539 ई. पू. में बाबिल को जीत लिया और उसके दूसरे ही साल फ़रमान जारी कर दिया कि बनी इसराईल को स्वदेश वापस जाने और वहाँ दोबारा आबाद होने की आय इजाजत है। उसने यहूदियों हैकले सुलैमानी के दोबारा निर्माण की अनुमति भी दी, चुनांचे हज्जी नबी, जकीया नबी और सरदार काहिन यशूअ की निगरानी में पवित्र हैकल का नए सिरे से निर्माण हुआ। फिर 458 ई०पू० में एक देश निकाला दिए गए गिरोह के साथ हज़रत उजैर (अज़रा) यहूदिया पहुँचे और शाहे ईरान आरतखशशता (अस्टाकसरसज़ या अर्दशेर) ने एक फरमान के अनुसार उनको [बनी इसराईल की धार्मिक शिक्षा और सुधार का और उनपर शरीअत के अनुसार व्यवस्था स्थापित करने का] ज़िम्मेदार बना दिया। (अजरा, अध्याय 8, आयत 25-26) इस फरमान से फायदा उठाकर हज़रत उजैर ने मूसवी धर्म के नवीनीकरण का बहुत बड़ा काम पूरा किया। उन्होंने यहूदी कौम के तमाम भले और अच्छे लोगों को हर ओर से जमा करके एक सुदृढ़ व्यवस्था स्थापित की। [कौम का सर्वव्यापी निर्माण और सुधार किया और उस से नए सिरे से अल्लाह को बन्दगी और उसके कानून की पैरवी का वचन लिया। 445 ई. पू. में महमियाह की सरदारी में एक और देश निकाला दिया गया गिरोह यहूदिया वापस आया और शाहे ईरान ने नाहामियाह को यरूशलम का राज्याधिकारी नियुक्त करके इस बात की अनुमति दी कि वह इसकी शहर पनाह (प्राचीर) निर्माण करे। इस तरह डेढ़ सौ साल बाद बैतुल-मक्दिस फिर से आबाद हुआ और वह यहूदी धर्म और सभ्यता का केन्द्र बन गया।
إِنۡ أَحۡسَنتُمۡ أَحۡسَنتُمۡ لِأَنفُسِكُمۡۖ وَإِنۡ أَسَأۡتُمۡ فَلَهَاۚ فَإِذَا جَآءَ وَعۡدُ ٱلۡأٓخِرَةِ لِيَسُـُٔواْ وُجُوهَكُمۡ وَلِيَدۡخُلُواْ ٱلۡمَسۡجِدَ كَمَا دَخَلُوهُ أَوَّلَ مَرَّةٖ وَلِيُتَبِّرُواْ مَا عَلَوۡاْ تَتۡبِيرًا ۝ 6
(7) देखो, तुमने भलाई की तो वह तुम्हारे अपने ही लिए भलाई थी, और बुराई की तो वह तुम्हारी अपने निज के लिए बुराई सिद्ध हुई। फिर जब दूसरे वादे का समय आया तो हमने दूसरे दुश्मनों को तुमपर मुसल्लल किया ताकि वे तुम्हारे चेहरे बिगाड़ दें और मस्जिद (बैतुल मक़्दिस) में उसी तरह घुस जाएँ जिस तरह पहले दुश्मन घुसे थे और जिस चीज़ पर उनका हाथ पड़े, उसे तबाह करके रख दें9
9. इस दूसरे बिगाड़ का आरंभ हज़रत मसीह के जन्म से कोई पौन सदी पहले उस समय हुआ जब इन यहूदियों के भीतर से धार्मिक आत्मा फिर से समाप्त होती चली गई और उसका स्थान विशुद्ध दुनियापरस्तो और निष्माण प्रत्यक्षवाद ने ले लिया था।]- उस युग में सामान्य यहूदियों और उनके धर्म-गुरुओं को जो दशा थी उसका सही अनुमान करने के लिए उन आलोचनाओं का अध्ययन करना चाहिए जो मसीह (अलैहि०) ने अपने भाषणों में उनपर की हैं। ये सभी भाषण अनाजीले अरबा (चारों इंजीलों) में मौजूद हैं। फिर इसका अनुमान करने के लिए यह बात काफ़ी है कि इस क़ौम की आँखों के सामने यहया (अलैहि०) जैसे पवित्र व्यक्ति का सर कलम किया गया, मगर एक आवाज़ भी उस बड़े अत्याचार के विरुद्ध न उठी और पूरी क़ौम के धर्म-गुरुओं ने मसीह (अलैहि०) के लिए मौत की सजा की माँग की, मगर थोड़े-से सच्चे इंसानों के सिवा कोई न था जो इस दुर्भाग्य पर शोक मनाता। [इस बिगाड़ की सज़ा उन्हें रूमी राज्य के तबाही मचानेवाले हमले के रूप में मिली। सन् 70 ई० में टेटुस ने तलवार के बल पर यरूशलम को जीत लिया। इस अवसर पर किए गए नरसंहार में एक लाख 33 हज़ार आदमी मारे गए,67 हज़ार आदमी गिरफ्तार करके दास बनाए गए। हज़ारों आदमी पकड़-पकड़कर मिस्री खानों में काम करने के लिए भेज दिए गए, हज़ारों आदमियों को पकड़कर भिन्न-भिन्न नगरों में भेजा गया ताकि एमीफ़ीथिएटरों और क्लोसीमों में उनको जंगली जानवरों से फड़वाने या तलवारबाजी के खेल का निशाना बनने के लिए इस्तेमाल किया जाए। यरूशलम के शहर और हैकल को दाकर मिट्टी में मिला दिया गया। इसके बाद फ़लस्तीन से यहूदी प्रभाव और सत्ता ऐसी मिटीं कि दो हज़ार वर्ष तक उसको फिर सर उठाने का मौक़ा न मिला और यरूशलम के पवित्र हैकल का फिर कभी निर्माण न हो सका।
عَسَىٰ رَبُّكُمۡ أَن يَرۡحَمَكُمۡۚ وَإِنۡ عُدتُّمۡ عُدۡنَاۚ وَجَعَلۡنَا جَهَنَّمَ لِلۡكَٰفِرِينَ حَصِيرًا ۝ 7
(8) हो सकता है कि अब तुम्हारा रब तुमपर दया करे, लेकिन अगर तुमने फिर अपनी पुरानी रीति को दोहराया, तो हम भी फिर अपनी सज़ा को दोहराएँगे, और नेमत का इंकार करनेवाले लोगों के लिए हमने जहन्नम को कैदखाना बना रखा है।10
10. इस पूरे भाषण में यद्यपि सम्बोधन मक्का के विधर्मियों से है, मगर चूँकि उनको सचेत करने के लिए यहाँ बनी इसराईल के इतिहास की कुछ शिक्षाप्रद गवाहियाँ प्रस्तुत की गई थी, इसलिए प्रसंग से हटकर बीच में यह एक वाक्य प्रयुक्त हुआ है जिसमें बनी इसराईल को सम्बोधित करके कहा गया, ताकि उन सुधारात्मक भाषणों के लिए भूमिका का काम दे जिनकी नौबत एक ही साल बाद मदीने में आनेवाली थी।
إِنَّ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانَ يَهۡدِي لِلَّتِي هِيَ أَقۡوَمُ وَيُبَشِّرُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ٱلَّذِينَ يَعۡمَلُونَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ أَنَّ لَهُمۡ أَجۡرٗا كَبِيرٗا ۝ 8
(9) वास्तविकता यह है कि यह कुरआन वह राह दिखाता है जो बिलकुल सीधी है। जो लोग इसे मानकर भले काम करने लगें, उन्हें यह शुभ-सूचना देता है कि उनके लिए बड़ा अज्र है
وَأَنَّ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ أَعۡتَدۡنَا لَهُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 9
(10) और जो लोग आख़िरत को न माने, उन्हें यह ख़बर देता है कि उनके लिए हमने दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है।11
11. अर्थ यह है कि जो आदमी या गिरोह या कौम इस कुरआन को चेतावनी और समझाने-बुझाने से सीधे रास्ते पर न आए, उसे फिर उस सज़ा के लिए तैयार रहना चाहिए जो बनी इसराईल ने भुगती है।
وَيَدۡعُ ٱلۡإِنسَٰنُ بِٱلشَّرِّ دُعَآءَهُۥ بِٱلۡخَيۡرِۖ وَكَانَ ٱلۡإِنسَٰنُ عَجُولٗا ۝ 10
(11) इंसान बुराई इस तरह माँगता है जिस तरह भलाई माँगनी चाहिए। इंसान बड़ा ही जल्दबाज़ (उतावला) वाके हुआ है।12
12. यह उत्तर है मक्का के विधर्मियों की उन मूर्खता भरी बातों का जो वे बार-बार नबी (सल्ल०) से कहते थे कि बस ले आओ वह अजाब जिससे तुम हमें डराया करते हो । उपर्युक्त बयान के बाद तुरन्त इस वाक्य के इस्तेमाल करने का उद्देश्य इस बात पर सचेत करना है कि मूर्यो ! भलाई माँगने के बजाय अज़ाब माँगते हो? तुमे कुछ अन्दाज़ा भी है कि अल्लाह का अज़ाब जब किसी कौम पर आता है तो उसकी क्या दुर्गति बनती है। इसके साथ इस वाक्य में एक सूक्ष्म चेतावनी मुसलमानों के लिए भी थी जो विधर्मियों के अन्याय व अत्याचार और उनकी हठधर्मियों से तंग आकर कभी-कभी उनके लिए अज़ाब के आ जाने की दुआ करने लगते थे, हालाँकि अभी उन्हीं विधर्मियों में बहुत-से वे लोग मौजूद थे जो आगे चलकर ईमान लानेवाले और दुनिया भर में इस्लाम का झंडा ऊंचा करनेवाले थे। इसपर अल्लाह फरमाता है कि इंसान बड़ा बे-सब (उतावला) वाके हुआ है, हर वह चीज़ मांग बैठता है जिसकी समय पर जरूरत महसूस होती है, हालाँकि बाद में उसे स्वयं अनुभव बता देता है कि अगर उस समय उसकी दुआ स्वीकार कर ली जाती तो वह उसके हित में न होती।
وَجَعَلۡنَا ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ ءَايَتَيۡنِۖ فَمَحَوۡنَآ ءَايَةَ ٱلَّيۡلِ وَجَعَلۡنَآ ءَايَةَ ٱلنَّهَارِ مُبۡصِرَةٗ لِّتَبۡتَغُواْ فَضۡلٗا مِّن رَّبِّكُمۡ وَلِتَعۡلَمُواْ عَدَدَ ٱلسِّنِينَ وَٱلۡحِسَابَۚ وَكُلَّ شَيۡءٖ فَصَّلۡنَٰهُ تَفۡصِيلٗا ۝ 11
(12) देखो, हमने रात और दिन को दो निशानियाँ बनाई हैं। रात की निशानी को हमने प्रकाशहीन बनाया और दिन की निशानी को रौशन कर दिया, ताकि तुम अपने रब की कृपा खोज सको और महीने और साल का हिसाब मालूम कर सको। इसी तरह हमने हर चीज़ को अलग-अलग छाँटकर रखा है।13
13. अर्थ यह है कि मतभेदों से घबराकर यकसानी व यकरंगी के लिए बेचैन न हो। इस दुनिया का तो सारा कारख़ाना ही भिन्नता, अन्तर और रंगारंगी की बदौलत चल रहा है। उदाहरण के रूप में तुम्हारे सामने सबसे उभरी निशानियाँ ये रात और दिन हैं जो हर दिन तुम्हारे सामने आते रहते हैं। देखो कि इनके भिन्नताओं में कितनी महान मालहतें मौजूद हैं। अगर तुमपर सदा के लिए एक ही दशा छाई रहती तो क्या अस्तित्व की यह उथल-पुथल चल सकता था? अतः जिस तरह तुम देख रहे हो कि प्रकृति-जगत में भेद अन्तर और भिन्नता के साथ अनगिनत मस्लहतें लगी हुई हैं, उसी तरह इंसानी स्वभावों, विचारों और रुझानों में भी जो भेद और अन्तर पाया जाता है, वह बड़ी मस्लहतें लिए हुए है।
وَكُلَّ إِنسَٰنٍ أَلۡزَمۡنَٰهُ طَٰٓئِرَهُۥ فِي عُنُقِهِۦۖ وَنُخۡرِجُ لَهُۥ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ كِتَٰبٗا يَلۡقَىٰهُ مَنشُورًا ۝ 12
(13) इंसान का शकुन हमने उसके अपने गले में लटका रखा है14 और कियामत के दिन हम एक लिखित लेख उसके लिए निकालेंगे, जिसे वह रचूली किताब की नरम पाएगा
14. अर्थात् हर इंसान का सौभाग्य और दुर्भाग्य और उसके परिणाम की भलाई और बुराई के कारण स्वयं ठसके अपने निज ही में मौजूद हैं। अपने गुणों, अपने चरित्र व आचरण और अपनी निर्णय व चयन-शक्ति के प्रयोग से वह स्वयं ही अपने आपको सौभाग्य का अधिकारी भी बनाता है और दुर्भाग्य का अधिकारी भी। [यह मूर्खता की बात है कि आदमी अपने भाग्य का शगुन बाहर लेता फिरे और अपने दुर्भाग्‍य का ज़िम्मेदार बाहरी कारणों को ठहराए ।
ٱقۡرَأۡ كِتَٰبَكَ كَفَىٰ بِنَفۡسِكَ ٱلۡيَوۡمَ عَلَيۡكَ حَسِيبٗا ۝ 13
(14) अपना आमाल-नामा (कर्म-पत्र), आज अपना हिसाब लगाने के लिए, तू ख़ुद ही काफ़ी है।
مَّنِ ٱهۡتَدَىٰ فَإِنَّمَا يَهۡتَدِي لِنَفۡسِهِۦۖ وَمَن ضَلَّ فَإِنَّمَا يَضِلُّ عَلَيۡهَاۚ وَلَا تَزِرُ وَازِرَةٞ وِزۡرَ أُخۡرَىٰۗ وَمَا كُنَّا مُعَذِّبِينَ حَتَّىٰ نَبۡعَثَ رَسُولٗا ۝ 14
(15) जो कोई सीधा रास्ता अपनाए, उसका सीधे रास्ते पर चलना टाके अपने लिए ही लाभप्रद है और जो गुमराह हो उसकी गुमराही का बवाल उसी पर है।15 कोई बोझ उठानेवाला दूसरे का बोझ न उठाएगा।16 और हम अजाब देनेवाले नहीं हैं, जब तक कि लोगों को सत्‍य और असत्य का अन्तर समझाने के लिए) एक पैगम्बा (सन्देशवाहक) न भेज दें।17
15. अर्थात् सीधा रास्ता अपनाकर कोई आदमी अल्लाह पा या पूल पा या सुधार की कोशिश करनेवाली पर कोई उपकार नहीं करता, बल्कि स्वयं अपने ही हित में भला करता है, और इसी तरह गुमराही अपनाकर या उसपर आग्रह करके वह किसी का कुछ नहीं बिगाड़ता, अपनी ही हानि करता है।
16. अर्थ यह है कि हर इंसान अपना एक स्थायी नैतिक दायित्व रखता है और अपनी निजी हैसियत अल्लाह के सामने उत्तरदायी है। इस निजी दायित्व में कोई दूसरा व्यक्ति उसके साथ शरीक नहीं है। दुनिया में चाहे कितने ही आदमी, कितनी ही कोमें और कितनी ही नस्लें और पीढ़ियों एक काम या कार्य के एक तरीक़े में शरीक हों, बहरहाल अल्लाह की आखिरी अदालत में उस संयुक्त कार्य का विश्लेषण करके एक-एक व्यक्ति के निजी दायित्व को छाँट लिया जाएगा और उसको जो कुछ भी पुरस्कार या दंड मिलेगा, उस कार्य का मिलेगा जिसका वह स्वयं अपनी निजी हैसियत में जिम्मेदार साबित होगा। इस व्याय के तराज़ू में न यह संभव होगा कि दूसरों के किए का बबाल उसपर डाल दिया जाए, और न यही संपन्न होगा कि उसके करतूतों के गुनाह का बोझ किसी और पर पड़ जाए।
وَإِذَآ أَرَدۡنَآ أَن نُّهۡلِكَ قَرۡيَةً أَمَرۡنَا مُتۡرَفِيهَا فَفَسَقُواْ فِيهَا فَحَقَّ عَلَيۡهَا ٱلۡقَوۡلُ فَدَمَّرۡنَٰهَا تَدۡمِيرٗا ۝ 15
(16) जब हम किसी बस्ती को नष्ट करने का इरादा करते हैं तो उसके सम्पन्‍न लोगों को आदेश देते हैं और वे इसमें नाफ़रमानियों करने लगते हैं, तब अजाब का फ़ैसला उस आबादी पर चस्पाँ हो जाता है और हम उसे नष्ट विनष्ट करके रख देते हैं।18
18. इस आयत में हुक्म से तात्पर्य प्रकृति का आदेश और क़ुदरत का क़ानून है। अर्थात् प्राकृतिक रूप से सदैव ऐसा ही होता है कि जब किसी क़ौम की शामत आनेवाली होती है तो उसके संपन्न लोग नाफ़रमान हो जाते है । नष्ट करने के इरादे का अर्थ यह नहीं है कि अल्लाह यूं ही निरपराध किसी वस्ती को नष्ट करने का इरादा कर लेता है, बल्कि इसका अर्थ यह है कि जब कोई इंसानी आबादी बुराई के रास्ते पर चल पड़ती और अल्लाह फैसला कर लेता है कि उसे नष्ट करना है तो यह निर्णय इस से प्रकट होता है। वास्तव में जिस सच्चाई पर इस आयत में सचेत किया गया है वह यह है कि एक समाज को अन्ततः जो बीज गए करती है, वह उसके खाते-पीते, संपन्न व्यक्तियों और उच्च वर्गों का बिगाड़ है। जब किसी क़ौम की शामत आने को होती है तो उसके धनी और प्रभावी लोग अवज्ञा पर उतर आते हैं, अन्याय, अत्याचार, दुराचरण और दुष्टता करने लगते हैं और अन्त में यहीं बिगाड़ पूरी कौम को ले डूबता है। इसलिए जो समाज आप अपना शत्रु न हो, उसे चिन्ता करनी चाहिए, कि उसके यहाँ सत्ता की बागें और वित्तीय धन की कुंजियाँ छिछोरे और दुराचारी लोगों के हाथों में न जाने पाए।
وَكَمۡ أَهۡلَكۡنَا مِنَ ٱلۡقُرُونِ مِنۢ بَعۡدِ نُوحٖۗ وَكَفَىٰ بِرَبِّكَ بِذُنُوبِ عِبَادِهِۦ خَبِيرَۢا بَصِيرٗا ۝ 16
(17) देख लो, कितनी ही नस्ले है जो नूह के बाद हमारे आदेश से नष्ट हुई। तेरा रब अपने बन्दों के गुनाहों से पूरी तरह बा-ख़बर है और सब कुछ देख रखा है।
مَّن كَانَ يُرِيدُ ٱلۡعَاجِلَةَ عَجَّلۡنَا لَهُۥ فِيهَا مَا نَشَآءُ لِمَن نُّرِيدُ ثُمَّ جَعَلۡنَا لَهُۥ جَهَنَّمَ يَصۡلَىٰهَا مَذۡمُومٗا مَّدۡحُورٗا ۝ 17
(18) जो कोई (इस दुनिया में) जल्दी प्राप्त होनेवाले लाभों19 की इच्छा रखता हो, उसे हम यही दे देते है जो कुछ भी जिसे देना चाहें, फिर उसके भाग्य में जहन्नम लिख देते हैं जिसे वह तापेगा तिरस्कृत और रहमत से महरूम होकर।20
19. मूल में 'आजिला' शब्द प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है जल्दी मिलनेवाली चीज़। और परिभाषा में क़ुरआन मजीद इस शब्द को दुनिया के लिए इस्तेमाल करता है जिसके लाभ और फल इसी जीवन में प्राप्त हो जाते है। इसके मुक़ाबले का शब्द 'आख़िरत' है जिसके लाभ और फल को मौत के बाद दूसरे जीवन तक स्थगित कर दिया गया है।
20. अर्थ यह है कि जो व्यक्ति अपनी कोशिशों का अभिप्रेत केवल दुनिया और उसको सफलताओं ही को बनाता है, उसे जो कुछ भी मिलेगा, बस दुनिया में मिल जाएगा, आख़िरत में वह कुछ नहीं पा सकता। इसके साथ ही दुनियापरस्ती और आख़िरत की जवाबदेही व ज़िम्मेदारी से लापरवाही उसको रीति-नीति को मूलमये ऐसा गलत करके रख देगी कि आख़िरत में वह उलटा जहन्नम का अधिकारी होगा।
وَمَنۡ أَرَادَ ٱلۡأٓخِرَةَ وَسَعَىٰ لَهَا سَعۡيَهَا وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَأُوْلَٰٓئِكَ كَانَ سَعۡيُهُم مَّشۡكُورٗا ۝ 18
(19) और जो आख़िरत की इच्छा रखता हो और उसके डूबता है। इसलिए जो समाज आप अपना शत्रु न हो, उसे चिन्ता करनी चाहिए, कि उसके यहाँ सत्ता की बागें और वित्तीय धन की कुंजियाँ छिछोरे और दुराचारी लोगों के हाथों में न जाने पाए। लिए कोशिश करे जैसी कि उसके लिए कोशिश करनी चाहिए और हो वह मोमिन (ईमानवाला), तो ऐसे हर आदमी की कोशिश की कद्र की जाएगी।21
21. अर्थात् उसके काम को क़द्र को जाएगी और जितनी और जैसी कोशिश भी उसने आखिरत की सफलता के लिए की होगी, उसका फल वह ज़रूर पाएगा।
كُلّٗا نُّمِدُّ هَٰٓؤُلَآءِ وَهَٰٓؤُلَآءِ مِنۡ عَطَآءِ رَبِّكَۚ وَمَا كَانَ عَطَآءُ رَبِّكَ مَحۡظُورًا ۝ 19
(20) इनको भी और उनको भी, दोनों फ़रीक़ो को हम (दुनिया में) ज़िन्दगी का सामान दिए जा रहे हैं, यह तेरे रब की देन है, और तेरे रब की देन को रोकनेवाला कोई नहीं है।22
22. अर्थात् दुनिया में रोज़ो और ज़िन्दगी का सामान दुनियापरस्तों को भी मिल रहा है और आख़िरत को तलब रखनेवालों को धो। देन अल्लाह ही की है, किसी और को नहीं है। न दुनियापरस्तों में यह शक्ति है कि आख़िरत को तलब रखनेवालों को रोज़ी से महरूम कर दें, और न आख़िरत को तलब रखनेवाले ही यह शक्ति रखते हैं कि दुनियापरस्तों तक अल्लाह को नेमत न पहुँचने दें।
ٱنظُرۡ كَيۡفَ فَضَّلۡنَا بَعۡضَهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۚ وَلَلۡأٓخِرَةُ أَكۡبَرُ دَرَجَٰتٖ وَأَكۡبَرُ تَفۡضِيلٗا ۝ 20
(21) मगर देख लो, दुनिया ही में हमने एक गिरोह को दूसरे पर कैसी प्रतिष्ठा दे रखी है और आख़िरत में उसके दजें और भी ज्यादा होंगे, और उसकी प्रमुखता और भी अधिक बढ़-चढ़कर होगी।23
23. अर्थात् दुनिया ही में यह अन्तर सामने आ जाता है कि आख़िरत को तलब रखनेवाले दुनियापरस्त लोगों पर प्रमुखता रखते हैं। यह प्रमुखता इस पहलू से नहीं है कि इनके खाने, पहनावे, मकान और सवारियाँ और संस्कृति व सभ्यता के ठाठ उनसे कुछ बढ़कर हैं, बल्कि इस पहलू से है कि ये जो कुछ भी पाते हैं सच्चाई, दयानत और अमानत के साथ पाते हैं और वे जो कुछ पा रहे हैं अत्याचार, बेईमानियों और भाँति-भाँति को हरामखोरियों से पा रहे हैं। फिर इनको जो कुछ मिलता है, वह सन्तुलन के साथ खर्च होता है। इसमें से हकदारों के हक अदा होते हैं. इसमें से माँगनेवालों और महरूमों का हिस्सा निकलता है और इसमें से अल्लाह को प्रसन्नता के लिए दूसरे भले कामों पर भी माल खर्च किया जाता है। इसके विपरीत दुनिया-परस्तों को जो कुछ मिलता है, वह अधिकतर ऐयाशियो, हराभकारियों और तरह-तरह के बिगाड़ पैदा करनेवाले, बिगाड़ फैलाने वाले कामों में पानी की तरह बहाया जाता है। इसी तरह तमाम हैसियतों से आखिरत की तलब रखनेवालों का जीवन ईशभय और चरित्र-पवित्रता का ऐसा आदर्श होती है जो पैवन्द लगे हुए कपड़ों और खस की झोपड़ियों में भी इतना चमकता हुआ दिखाई पड़ता है कि दुनिया परस्त को जिदगी उसके मुकाबले में हर खुली आँखवाले को अंधकारमय नज़र आती है।
لَّا تَجۡعَلۡ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ فَتَقۡعُدَ مَذۡمُومٗا مَّخۡذُولٗا ۝ 21
(22) तू अल्लाह के साथ कोई दूसरा उपास्य न बना24 वरना तिरस्कृत और असहाय बैठा रह जाएगा।
24. दूसरा अनुबाद इस वाक्य का यह भी हो सकता है कि अल्लाह के साथ कोई और ख़ुदा न गढ़े या किसी और को ख़ुदा न करार दे।
۞وَقَضَىٰ رَبُّكَ أَلَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّآ إِيَّاهُ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَٰنًاۚ إِمَّا يَبۡلُغَنَّ عِندَكَ ٱلۡكِبَرَ أَحَدُهُمَآ أَوۡ كِلَاهُمَا فَلَا تَقُل لَّهُمَآ أُفّٖ وَلَا تَنۡهَرۡهُمَا وَقُل لَّهُمَا قَوۡلٗا كَرِيمٗا ۝ 22
(23) तेरे रब ने निर्णय कर दिया25 है कि तुम लोग किसी की बन्दगी न करो, मगर सिर्फ़ उसकी।26 माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो। अगर तुम्हारे पास इनमें से कोई एक, या दोनी, बूढ़े होकर रहें तो उन्हें उफ़ तक न कहो, न उन्हें झिड़ककर उत्तर दो, बल्कि उनसे आदर के साथ बात करो,
25. यहाँ वे बड़े-बड़े मौलिक नियम प्रस्तुत किये जा रहे हैं जिनपर इस्लाम पूरी इंसानी ज़िदगी की व्यवस्था की इमारत स्थापित करना चाहता है। यह मानो नबी (सल्ल०) की दावत का चार्टर है जिसे मक्की युग के अंत और आनेवाले मदनी युग के आरंभ बिन्दु में प्रस्तुत किया गया। इस अवसर पर सूरा-6 अनआम की आयत 152-155 और उनकी टिप्पाणियों पर भी एक दृष्टि डाल लेना लाभदायी होगा।
26. इसका अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि अल्लाह के सिवा किसी की परस्तिश और पूजा न करो, बल्कि यह भी है कि बन्दगी और दासता और निस्संकोच आज्ञापालन केवल उसी का करो, उसी के आदेश को आदेश मानो और उसी के कानून को कानून मानो और उसके सिवा किसी का सम्प्रभुत्व स्वीकार न करो। यह केवल एक धार्मिक विश्वास और केवल व्यक्तिगत कार्य-रीति के लिए एक मार्गदर्शन ही नहीं है, बल्कि चरित्र-आचरण, संस्कृति और राजनीति की पूरी व्यवस्था की आधारशिला भी है जो मदीना तैयिबा पहुँचकर नबी (सल्ल०) ने व्यावहारिक रूप से स्थापित की।
وَٱخۡفِضۡ لَهُمَا جَنَاحَ ٱلذُّلِّ مِنَ ٱلرَّحۡمَةِ وَقُل رَّبِّ ٱرۡحَمۡهُمَا كَمَا رَبَّيَانِي صَغِيرٗا ۝ 23
(24) और नम्रता और दयालुता के साथ उनके सामने झुककर रहो और दुआ किया करो कि “पालनहार ! इनपर दया कर जिस तरह इन्होंने ममता और स्नेह के साथ मुझे बचपन में पाला था।"
رَّبُّكُمۡ أَعۡلَمُ بِمَا فِي نُفُوسِكُمۡۚ إِن تَكُونُواْ صَٰلِحِينَ فَإِنَّهُۥ كَانَ لِلۡأَوَّٰبِينَ غَفُورٗا ۝ 24
(25) तुम्हारा रब खूब जानता है कि तुम्हारे दिलों में क्या है। अगर तुम नेक बनकर रहो तो वह ऐसे सब लोगों के लिए क्षमाशील है
وَءَاتِ ذَا ٱلۡقُرۡبَىٰ حَقَّهُۥ وَٱلۡمِسۡكِينَ وَٱبۡنَ ٱلسَّبِيلِ وَلَا تُبَذِّرۡ تَبۡذِيرًا ۝ 25
(26) जो अपनी ग़लती पर सचेत होकर बन्दगी के रवैये की ओर पलट आएँ।27 नातेदार को उसका हक़ दो और मुहताज और मुसाफ़िर को उसका हक़ । फ़िज़ूलख़र्ची न करो।
27. इस आयत में बताया गया है कि अल्लाह के बाद इंसानों में सबसे पहला हक माँ-बाप का है। सन्तान को माँ-बाप का आज्ञाकारी, सेवक और शिष्टाचारी होना चाहिए। समाज का सामूहिक चरित्र ऐसा होना चाहिए जो संतान को माँ-बाप से उदासीन बनानेवाला न हो, बल्कि उनका आभारी और उनके मान-सम्मान का पाबन्द बनाए और बुढ़ापे में उसी तरह उनकी सेवा करना सिखाए जिस तरह बचपन में वे उसका लालन-पालन कर चुके हैं और नाज-नखरे बर्दाश्त कर चुके हैं। यह आयत भी केवल एक नैतिक सिफ़ारिश नहीं है, बल्कि इसी के आधार पर बाद में माँ-बाप के वे शरई हक़ और अधिकार सुनिश्चित किए गए जिनका विस्तृत विवरण हमें हदीस और फ़िक़ह में मिलता है। साथ ही इस्लामी समाज के मानसिक और नैतिक प्रशिक्षिण में और मुसलमानों के सांस्कृतिक शिष्टाचार में माँ-बाप के आदर और आज्ञापालन उनके हकों की निगरानी को एक महत्वपूर्ण भाग की हैसियत से सम्मिलित किया गया। इन चीज़ों ने सदा-सर्वदा के लिए यह नियम निश्चित कर दिया कि इस्लामी राज्य अपने कानूनों और प्रशासनिक आदेशों और शिक्षा-नीति के द्वारा परिवार की संस्था को सुदृढ़ और सुरक्षित करने का यत्न करेगी, न कि उसे कमज़ोर बनाने की।
إِنَّ ٱلۡمُبَذِّرِينَ كَانُوٓاْ إِخۡوَٰنَ ٱلشَّيَٰطِينِۖ وَكَانَ ٱلشَّيۡطَٰنُ لِرَبِّهِۦ كَفُورٗا ۝ 26
(27) फ़िज़ूलख़र्च लोग शैतान के भाई हैं और शैतान अपने रब का कृतघ्र है।
وَإِمَّا تُعۡرِضَنَّ عَنۡهُمُ ٱبۡتِغَآءَ رَحۡمَةٖ مِّن رَّبِّكَ تَرۡجُوهَا فَقُل لَّهُمۡ قَوۡلٗا مَّيۡسُورٗا ۝ 27
(28) अगर उनसे (अर्थात् जरूरतमंद नातेदारों, मुहताजों और मुसाफ़िरों से) तुम्हें कतराना हो, इस कारण कि अभी तुम अल्लाह की उस रहमत को जिसके तुम उम्मीदवार हो तलाश कर रहे हो, तो उन्हें नर्म जवाब दे दो।28
28. इन तीन धारणाओं का उद्देश्य यह है कि आदमी अपनी कमाई और अपनी दौलत को केवल अपने लिए हो खास न कर ले, बल्कि अपनी ज़रूरतें एक सन्तुलन साथ पूरी करने के बाद अपने नातेदारों, अपने पड़ोसियों और दूसरे ज़रूरतमंद लोगों के हक़ भी अदा करे। सामाजिक जीवन में सहयोग, सहानुभूति और हक़ों को पहचानने और अदा करने की भावना [इस तरह कार्यरत रहे कि अगर कोई आदमी] किसी की सेवा करने से मजबूर हो तो उससे क्षमा मांगे और अल्लाह से अनुग्रह की प्रार्थना करे ताकि वह अल्लाह के बन्दों की सेवा करने के योग्य हो। इस्लामी क़ानून की ये धारणाएँ भी केवल निजी चरित्र की शिक्षा ही न थीं, बल्कि आगे चलकर मदीना तैयिबा के समाज और राज्य में इन्हीं के आधार पर अनिवार्य सदकों और ऐच्छिक सदकों के आदेश दिए गए, वसीयत और विरासत और वक़्फ़ के तरीक़े निश्चित किए गए, यतीमों के हकों की रक्षा का प्रबन्ध किया गया, हर बस्ती पर मुसाफ़िर का यह हक़ क़ायम किया गया कि कम से कम तीन दिन तक उसका सत्कार किया जाए।
وَلَا تَجۡعَلۡ يَدَكَ مَغۡلُولَةً إِلَىٰ عُنُقِكَ وَلَا تَبۡسُطۡهَا كُلَّ ٱلۡبَسۡطِ فَتَقۡعُدَ مَلُومٗا مَّحۡسُورًا ۝ 28
(29) न तो अपना हाथ गरदन से बाँध रखो और न उसे बिलकुल ही खुला छोड़ दो कि निन्दित और विवश बनकर रह जाओ।29
29. हाथ बाँधने से मुराद है कंजूसी करना और उसे खुला छोड़ देने से मुराद है फ़िजूलखर्ची करना। धारा 4, धारा 6 के इस वाक्य को मिलाकर पढ्ने से उद्देश्य स्पष्ट रूप से यह मालूम होता है कि लोगों में इतना सन्तुलन होना चाहिए कि वे न कंजूस बनकर दौलत की गति (गर्दिश) को रोकें और न फ़िज़ूलख़र्च बनकर अपनी आर्थिक शक्ति नष्ट करें। इसके विपरीत इनके भीतर सन्तुलन को ऐसी सही चेतना मौजूद रहनी चाहिए कि वे उचित ख़र्च से बाज़ भी न रहें और अनुचित ख़र्च की ख़राबियों में पड़े भी न रहें-ये धाराएँ भी सिर्फ़ नैतिक शिक्षा और व्यक्तिगत निर्देशों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि खुला संकेत इस बात की ओर कर रही हैं कि एक भले समाज को नैतिक प्रशिक्षण, सामूहिक दबाव और क़ानूनी पाबन्दियों के द्वारा अनुचित माल ख़र्च करने की देख-भाल करनी चाहिए। चुनांचे आगे चलकर मदीना तैयिबा के राज्य में इन दोनों धाराओं के उद्देश्य को सही भावना अलग-अलग व्यावहारिक तरीकों से दर्शाई गई। एक ओर फ़िज़ूलख़र्ची और भोग-विलास की बहुत-सी शक्लों को क़ानून के अनुसार हराम किया गया, दूसरी ओर परोक्ष क़ानूनी उपायों से माल के बेजा ख़र्च की रोक-थाम की गई। तीसरी ओर समाजी सुधार के द्वारा उन बहुत-सी रस्मों का अन्त किया गया जिनमें फ़िज़ूलख़र्चियाँ की जाती थीं, फिर सरकार को अधिकार दिए गए कि फ़िज़ूलख़र्ची की प्रमुख शक्लों को अपने प्रबन्धात्मक-आदेश द्वारा रोक दे। इसी तरह ज़कात और सदकों के आदेश देकर कंजूसी का ज़ोर भी तोड़ा गया और इस बात की संभवानाएँ बाक़ी न रहने दी गई कि लोग धन रोककर उसकी गति (गर्दिश) को रोक दें।
إِنَّ رَبَّكَ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُۚ إِنَّهُۥ كَانَ بِعِبَادِهِۦ خَبِيرَۢا بَصِيرٗا ۝ 29
(30) तेरा रब जिसके लिए चाहता है, रोज़ी कुशादा करता है और जिसके लिए चाहता है, तंग कर देता है, वह अपने बन्दों के हाल की खबर रखता है और उन्हें देख रहा है।30
30. अल्लाह ने अपने बन्दों के दर्मियान रोज़ी देने में कम-ज्यादा का जो अन्तर रखा है, इंसान उसकी मस्लहतों को नहीं समझ सकता, इसलिए रोज़ी देने की सम्भावित व्यवस्था में इंसान को अपने बनावटी उपायों से हस्तक्षेप न करना चाहिए। स्वाभाविक असमानता को बनावटी बराबरी में बदलना या इस असमानता को प्रकृति की सीमाओं से बढ़ाकर अन्याय की हद तक पहुँचा देना, दोनों ही समान रूप से ग़लत हैं। एक सही आर्थिक व्यवस्था वही है जो अल्लाह के बनाए हुए रोज़ी देने के नियम से निकटतम हो। इस वाक्य में जिस प्राकृतिक विधान के नियम की ओर रहनुमाई की गई थी, उसकी वजह से मदीना के इस्लाही प्रोग्राम में यह विचार सिरे से कोई राह न पा सका कि रोज़ी और रोज़ी के साधनों में परस्पर अंतर और न्यूनाधिक अपने आप में कोई बुराई है, जिसे मिटाना और वर्गविहीन समाज पैदा करना किसी दर्जे में भी वांक्षित हो। इसके विपरीत मदीना तैयिबा में इंसानी सभ्यता को भली बुनियादों पर क़ायम करने के लिए कार्य करने का जो रास्ता अपनाया गया, वह यह था कि अल्लाह को प्रकृति ने इंसानों के दर्मियान जो अन्तर रखे हैं, उनको वास्तविक प्राकृतिक स्थिति पर बाकी रखा जाए और ऊपर की दो गाई हिदायतों के अनुसार समाज के चरित्र और तौर-तरीकों और कानून को इस तरह सुधार दिया जाए कि रोज़ी का अन्तर किसी अन्याय, अत्याचार का कारण बनने के बजाय उन अनगिनत नैतिक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक लाभों और बरकतों का साधन बन जाए जिनके लिए ही वास्तव में सृष्टि को पैदा करनेवाले ने अपने बन्दों के बीच यह अन्तर रखा है।
وَلَا تَقۡتُلُوٓاْ أَوۡلَٰدَكُمۡ خَشۡيَةَ إِمۡلَٰقٖۖ نَّحۡنُ نَرۡزُقُهُمۡ وَإِيَّاكُمۡۚ إِنَّ قَتۡلَهُمۡ كَانَ خِطۡـٔٗا كَبِيرٗا ۝ 30
(31) अपनी सन्तान को निर्धनता के भय से क़त्ल न करो। हम उन्हें भी रोज़ी देगे और तुम्हें भी। वास्तव में उनका क़त्ल एक बड़ी ख़ता है।31
31. निर्धनता का डर प्राचीन काल में बच्चों के कत्ल और गर्भपात के कारण हुआ करता था और आज वह एक तीसरे प्रयल अर्थात् गर्भ निरोध की ओर दुनिया को धकेल रहा है । लेकिन इस्लामी विधान की यह धारणा इंसान को यह निर्देश देती है कि वह खानेवालों को घटाने को विवंशक कार्यवाही छोड़कर उन रचनात्मक प्रयासों में अपनी शक्तियां और योगयताएँ लगाए जिनसे अल्लाह के बनार हुए प्राकृतिक नियमों के अनुसार रोज़ी में बढ़ोत्तरी हुआ करती है। इस वास्तविकता को कदापि न भूले कि रोजी पहुँचाने का प्रबन्ध उसके हाथ में नहीं है, बल्कि उस अल्लाह के हाथ में है जिसने उसे धरती में बसाया है, जिस तरह वह पहले आनेवालों को रोजी देता रहा है, बाद के आने वालों को भी देगा। इतिहास का अनुभव भी यहीं बताता है कि दुनिया के अलग-अलग देशों में खानेवाली आबादी जितनी बढ़ती गई है, उतनी ही बल्कि बहुधा उससे बहुत अधिक आर्थिक साधनों में फैलाव आता चला गया है। इसलिए अल्लाह को रचना सम्बन्धी व्यवस्था में इंसान के अनुचित हस्तक्षेप मूर्खता के सिवा कुछ नहीं है- यह इसी शिक्षा का नतीजा है कि क़ुरआन अवतरण-काल के युग से लेकर आज तक किसी काल में भी मुसलमानों के अन्दर नस्ल को हत्या का कोई आम रूझान पैदा नहीं होने पाया।
وَلَا تَقۡرَبُواْ ٱلزِّنَىٰٓۖ إِنَّهُۥ كَانَ فَٰحِشَةٗ وَسَآءَ سَبِيلٗا ۝ 31
(32) ज़िना के क़रीब न फटको। वह बहुत बुरा काम है और बड़ा ही बुरा रास्‍ता।32
32. "जिना (व्यभिचार) के करीब ना फटको यह आदेश एक-एक व्यक्ति के लिए भी है और सम्पूर्ण समाज के लिए भी। व्यक्तियों के लिए इस आदेश का अर्थ यह है कि वे केवल ज़िना के कार्यों हो पर बस न करें, बल्कि जिना पर उभारनेवाली चीज़ों और जिना से करीब करनेवाली आरंभिक उबेरको से भी दूर रहें । रहा समाज तो इस आदेश के अनुसार उसका कर्तव्य यह है कि वह सामाजिक जीवन में जिना, जिना पर उभारनेवाली चीज़ों और ज़िना के कारणों को हर सम्भव तरीक़े से रोकथाम करें।
وَلَا تَقۡتُلُواْ ٱلنَّفۡسَ ٱلَّتِي حَرَّمَ ٱللَّهُ إِلَّا بِٱلۡحَقِّۗ وَمَن قُتِلَ مَظۡلُومٗا فَقَدۡ جَعَلۡنَا لِوَلِيِّهِۦ سُلۡطَٰنٗا فَلَا يُسۡرِف فِّي ٱلۡقَتۡلِۖ إِنَّهُۥ كَانَ مَنصُورٗا ۝ 32
(33) किसी जान को न मारो जिसे अल्लाह ने हराम किया है 33, मगर हक़ के साथ 34 और जिस आदमी की अन्यायपूर्ण हत्या की गई हो उसके वली (अभिभावक) को हमने कसास की माँग का अधिकार दिया है 35, अत: चाहिए कि वह कत्ल में सीमा से न बढ़े 36, उसकी मदद की जाएगी।37
33. जान से मारने से तात्पर्य केवल दूसरे इंसान का कत्ल ही नहीं है, बल्कि स्वयं अपने आपको क़त्ल करना भी है। इसलिए कि जान (नास), जिसको अल्लाह ने प्रतिष्ठित ठहराया है, उसकी परिभाषा में दूसरे जानों को तरह इंसान को अपनी जान भी दाखिल है। अतः जितना बड़ा अपराध और पाप इनसान की हत्या है, उतना हो बड़ा अपराध और पाप आत्महत्या भी है। इंसान को अपनी जान उसको अपनी मिल्कियत नहीं है वह उसे अपनी मर्जी से विनष्ट कर देने का अधिकार रखता हो, बल्कि यह जान अल्लाह को संपत्ति है और उसके विनष्ट करने की बात तो दूर हम उसके किसी अनुचित उपभोग के भी अधिकारी नहीं हैं।
34. बाद में इस्लामी कानून ने न्यायोचित हत्या को केवल पांच परिस्थितियों में सोभित कर दिया : एक जान-बूझ कर हत्या करनेवाले अपराधी से क़सास (हत्या-दण्ड), दूसरे, सत्यधर्म के रास्ते में अवरोध पैदा करनेवालों से लड़ाई, तीसरे, इस्लामी शासन व्यवस्था को उलटने की कोशिश करनेवालों को सजा, चौथे, शादी-शुदा मर्द या औरत को जिना की सज़ा, पाँचवे, इर्निदाद की सज़ा। केवल यही पाँच शक्लें हैं जिनमें इंसानी जान की प्रतिष्ठा खत्म हो जाती है और उसे क़त्ल करना वैध हो जाता है।
وَلَا تَقۡرَبُواْ مَالَ ٱلۡيَتِيمِ إِلَّا بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ أَشُدَّهُۥۚ وَأَوۡفُواْ بِٱلۡعَهۡدِۖ إِنَّ ٱلۡعَهۡدَ كَانَ مَسۡـُٔولٗا ۝ 33
(34) यतीम के माल के पास न फटको, मगर उत्तम तरीक़े से, यहाँ तक कि वह अपनी जवानी को पहुँच जाए।38 वचन का पालन करो। निस्सन्देह वचन के बारे में तुमको जवाबदेही करनी होगी39,
38. यह भी केवल एक नैतिक शिक्षा न थी, बल्कि आगे चलकर जब इस्लामी राज्य स्थापित हुआ तो यतीमों के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रशासनिक और क़ानूनी, दोनों तरह के उपाय अपनाए गए। फिर उसी से यह विस्तृत नियम निकाला गया कि इस्लामी राज्य अपने उन तमाम नागरिकों के हितों के रक्षक हैं जो अपने हितों की रक्षा स्वयं न कर पाएँ । नबी (सल्ल०) का यह इर्शाद कि “मैं हर उस आदमी का सरपरस्त हूँ जिसका कोई सरपरस्त न हो" इसी ओर संकेत करता है और यह इस्लामी क़ानून के एक व्यापक अध्याय का आधार है।
39. यह भी केवल वैयक्तिक नीतियों से संबंधित एक धारा न थी, बल्कि जब इस्लामी राज्य स्थापित हुआ तो उसी को पूरी कौम के आन्तरिक और बाह्य राजनीति की आधारशिला ठहराया गया।
وَأَوۡفُواْ ٱلۡكَيۡلَ إِذَا كِلۡتُمۡ وَزِنُواْ بِٱلۡقِسۡطَاسِ ٱلۡمُسۡتَقِيمِۚ ذَٰلِكَ خَيۡرٞ وَأَحۡسَنُ تَأۡوِيلٗا ۝ 34
(35) पैमाने से दो तो पूरा भरकर दो और तौलो तो ठीक तराजू से तौलो।40 यह अच्छा तरीका है और परिणाम की दृष्टि से भी यही अच्छा है।41
40. यह आदेश भी मात्र लोगों के असली मामलों तक सीमित न रहा, बल्कि इस्लामी राज्य के स्थापित होने के बाद यह बात राज्य के कर्तव्य में शामिल की गई कि वह मंडियों और बाजारों में बाटों और पैमानों की निगरानी करे और कम तौलने नापने को ताक़त के बल पर बंद कर दे। फिर इसी से यह व्यापक नियम भी निकाला गया कि व्यापार और वित्तीय लेन-देन में हर प्रकार की बे-ईमानियों और हक़ मारने का रास्ता बन्द करना राज्य की ज़िम्मेदारियों में से है।
41. अर्थात् दुनिया में भी और आख़िरत में भी। दुनिया में इसका परिणाम इसलिए अच्छा है कि इससे आपसी विश्वास पैदा होता है, बेचनेवाला और खरीदनेवाला, दोनों एक-दूसरे पर भरोसा करते हैं और यह चीज़ अन्तत: कारोबार की तरक्को और आम खुशहाली का कारण सिद्ध होती है। रही आखिरत, तो वहाँ का परिणाम की भलाई का सारा आश्रय हो ईमान और ईशपरायणता पर है।
وَلَا تَقۡفُ مَا لَيۡسَ لَكَ بِهِۦ عِلۡمٌۚ إِنَّ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡبَصَرَ وَٱلۡفُؤَادَ كُلُّ أُوْلَٰٓئِكَ كَانَ عَنۡهُ مَسۡـُٔولٗا ۝ 35
(36) किसी ऐसी चीज़ के पीछे न लगो जिसका तुम्हें ज्ञान न हो। निश्चय ही आँख, कान और दिल सभी की पूछगच्छ होनी है।42
42. इस कथन का मंतव्य यह है कि लोग अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में अटकल-गुमान के बजाय 'ज्ञान' का अनुपालन करें। इस्लामी समाज में इस मंतव्य के हर विभाग बड़े पैमाने पर चरित्र में, क़ानून में, मा राजनीति और राज्य प्रशासन में, ज्ञान, कला शिक्षण प्रणाली में, तात्पर्य यह कि जीवन के हर क्षेत्र में लागू किया गया और उन अगणित दोषों से चिन्तन और व्यवहार को सुरक्षित कर दिया गया जो ज्ञान के बजाय अटकल का पालन करने से मानव-जीवन में प्रकट होते हैं।
وَلَا تَمۡشِ فِي ٱلۡأَرۡضِ مَرَحًاۖ إِنَّكَ لَن تَخۡرِقَ ٱلۡأَرۡضَ وَلَن تَبۡلُغَ ٱلۡجِبَالَ طُولٗا ۝ 36
(37) धरती में अकड़कर न चलो, तुम न धरती को फाड़ सकते हो, न पहाड़ों की ऊँचाई को पहुँच सकते हो।43
43. अर्थ यह है कि बल-प्रयोग करनेवाले क्रूर व्यक्तियों और घमंडियों की रीति-नीति से बचो। यह आदेश भी एक-एक व्यक्ति के रवैये और कौमी रीति-नीति दोनों पर समान रूप से हावी है।
كُلُّ ذَٰلِكَ كَانَ سَيِّئُهُۥ عِندَ رَبِّكَ مَكۡرُوهٗا ۝ 37
(38) इन मामलों में से हर एक का बुरा पहलू तेरे रब के नज़दीक नापसंदीदा है।44
(44) अर्थात् इनमें से जिस चीज़ से भी मना किया गया है, उसका करना अल्लाह को नापसन्द है,या दूसरे शब्दों में, इन आदेशों में से जिसकी भी अवज्ञा की जाए वह नापसन्दीदा है।
ذَٰلِكَ مِمَّآ أَوۡحَىٰٓ إِلَيۡكَ رَبُّكَ مِنَ ٱلۡحِكۡمَةِۗ وَلَا تَجۡعَلۡ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ فَتُلۡقَىٰ فِي جَهَنَّمَ مَلُومٗا مَّدۡحُورًا ۝ 38
(39) ये वे तत्त्वदर्शिता की बातें हैं जो तेरे रब ने तुझपर वह्य की हैं। और देख अल्लाह के साथ कोई दूसरा उपास्य न बना बैठ, वरना तू जहन्नम में डाल दिया जाएगा निन्दित और हर भलाई से वंचित होकर।45
45. प्रत्यक्ष में नो सम्बोधन नबी (सल्ल०) से,मगर वास्तव में इस फरमान में सम्बोधन हर व्यक्ति से है। अर्थ यह है कि ऐ इंसान | तू यह काम न कर ।
أَفَأَصۡفَىٰكُمۡ رَبُّكُم بِٱلۡبَنِينَ وَٱتَّخَذَ مِنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ إِنَٰثًاۚ إِنَّكُمۡ لَتَقُولُونَ قَوۡلًا عَظِيمٗا ۝ 39
(40) कैसी विचित्र बात है कि तुम्हारे रब ने तुम्हें तो बेटे दिए और स्वयं अपने लिए मलाइका को बेटियाँ बना लिया?46 बड़ी झूठी बात है जो तुम लोग जुबानों से निकालते हो।
46. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-16 नहल, आयत 57-59, टिप्पणियाँ सहित ।
وَلَقَدۡ صَرَّفۡنَا فِي هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ لِيَذَّكَّرُواْ وَمَا يَزِيدُهُمۡ إِلَّا نُفُورٗا ۝ 40
(41) हमने इस क़ुरआन में तरह-तरह से लोगों को समझाया कि होश में आएँ, मगर वे सत्य से और अधिक दूर ही भागे जा रहे हैं ।
قُل لَّوۡ كَانَ مَعَهُۥٓ ءَالِهَةٞ كَمَا يَقُولُونَ إِذٗا لَّٱبۡتَغَوۡاْ إِلَىٰ ذِي ٱلۡعَرۡشِ سَبِيلٗا ۝ 41
(42) ऐ नबी ! इनसे कहो कि अगर अल्लाह के साथ दूसरे ख़ुदा भी होते, जैसा कि ये लोग कहते हैं, तो वे अर्श (सिंहासन) के मालिक के मक़ाम को पहुँचने की अवश्य कोशिश करते।47
47. अर्थात् वे स्वयं अर्श (सिंहासन) का मालिक बनने की कोशिश करते, इसलिए कि कुछ हस्तियों का ईश्वरत्त्व में साझीदार होना दो हाल से खाली नहीं हो सकता। या तो वे सब अपनी-अपनी जगह स्थायी ख़ुदा हों या इनमें से एक असल ख़ुदा हो और बाकी उसके बन्दे हों, जिन्हें उसने कुछ खुदाई अधिकार दे रखे हों। पहली स्थिति में यह किसी तरह संभव न था कि ये सब स्वाधीन व साधिकार खुदा सदैव, हर मामले में, एक-दूसरे के इरादे में ताल-मेल पैदा करके इस अथाह सृष्टि की व्यवस्था को इतने भरपूर समन्वय, समानता और अनुपात व सन्तुलन के साथ चला सकते । अनिवार्य था कि उनकी योजनाओं और इरादों में पग-पग पर संघर्ष होता और हर एक अपनी खुदाई दूसरे खुदाओं के सहयोग के बिना चलती न देखकर यह यत्न करता कि वह अकेला पूरी सृष्टि का स्वामी बन जाए। रही दूसरी अवस्था तो बंदों की सहन शक्ति ख़ुदाई इजियार तो दूर की बात, खुदाई के ज़रा से वहम और अंश तक को सहन नहीं कर सकती। अगर कहीं किसी रचना की ओर तनिक सी ख़ुदाई भी हस्तांतरित कर दी जाती तो वह फट पड़ती, कुछ क्षणों के लिए भी बन्दा (दास) बनकर रहने पर राज़ी न होती और तुरन्त ही 'सर्व जगत स्वामी' बन जाने की चिन्ता शुरू कर देती।
سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يَقُولُونَ عُلُوّٗا كَبِيرٗا ۝ 42
(43) पाक है वह और बहुत उच्च है उन बातों से जो ये लोग कह रहे हैं।
تُسَبِّحُ لَهُ ٱلسَّمَٰوَٰتُ ٱلسَّبۡعُ وَٱلۡأَرۡضُ وَمَن فِيهِنَّۚ وَإِن مِّن شَيۡءٍ إِلَّا يُسَبِّحُ بِحَمۡدِهِۦ وَلَٰكِن لَّا تَفۡقَهُونَ تَسۡبِيحَهُمۡۚ إِنَّهُۥ كَانَ حَلِيمًا غَفُورٗا ۝ 43
(44) उसकी पाकी तो सातो आसमान और ज़मीन और वे सारी चीजें बयान कर रही हैं जो आसमानों और जमीन में हैं।48 कोई चीज़ ऐसी नहीं जो उसकी हम्द (प्रशंसा) के साथ उसकी तस्बीह (गुणगान) न कर रही हो।49 मगर तुम उनकी तस्बीह समझते नहीं हो। हक़ीक़त यह है कि वह बड़ा ही सहनशील और क्षमाशील है।50
48. अर्थात् सारी सृष्टि और उसकी हर चीज़ अपने पूरे अस्तित्व से इस सत्य पर गवाही दे रही है कि जिसने उसको पैदा किया है और जो उसका पालन और उसकी निगहबानी कर रहा है, उसकी जात हर त्रुटि और कमी और कमज़ोरी से पवित्र है और वह इससे बिल्कुल पाक है कि ख़ुदाई (ईश्वरत्व) में कोई उसका साझा और हिस्सेदार हो।
49. हम्द के साथ तस्बीह करने का अर्थ यह है कि हर चीज़ न केवल यह कि अपने स्रष्टा और रब का त्रुटियों और कमज़ोरियों से होना प्रकट कर रही है, बल्कि उसके साथ वह उसकी निपुणता और तमाम तारीफ़ों (प्रशंसाओं) का पात्र होना बयान करती है।
وَإِذَا قَرَأۡتَ ٱلۡقُرۡءَانَ جَعَلۡنَا بَيۡنَكَ وَبَيۡنَ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ حِجَابٗا مَّسۡتُورٗا ۝ 44
(45) जब तुम क़ुरआन पढ़ते हो तो हम तुम्हारे और आख़िरत पर ईमान न लानेवालों के बीच एक परदा डाल देते हैं
وَجَعَلۡنَا عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ أَكِنَّةً أَن يَفۡقَهُوهُ وَفِيٓ ءَاذَانِهِمۡ وَقۡرٗاۚ وَإِذَا ذَكَرۡتَ رَبَّكَ فِي ٱلۡقُرۡءَانِ وَحۡدَهُۥ وَلَّوۡاْ عَلَىٰٓ أَدۡبَٰرِهِمۡ نُفُورٗا ۝ 45
(46) और उनके दिलों पर ऐसा शिलाफ़ चढ़ा देते हैं कि वे कुछ नहीं समझते और उनके कानों में बोझ पैदा कर देते हैं।51 और जब तुम क़ुरआन में अपने एक रब का उल्लेख करते हो तो वे घृणा से मुँह मोड़ लेते हैं।52
51. अर्थात् आख़िरत पर ईमान न लाने का यह स्वाभाविक फल है कि आदमी के दिल पर ताले चढ़ जाएँ और उसके कान उस दावत के लिए बन्द हो जाएँ जो क़ुरआन पेश करता है। क़ुरआन को तो दावत ही इस आधार पर है कि दुनिया की जिंदगी के प्रत्येक पहलू से धोखा न खाओ, सत्य और असत्य के फैसले इस दुनिया में नहीं, बल्कि आख़िरत में होंगे। नेकी वह है जिसका अच्छा नतीजा आख़िरत में निकलेगा, चाहे दुनिया में उसकी वजह से इंसान को कितना ही कष्ट पहुँचे, और बुराई वह है जिसका नतीजा आख़िरत में अनिवार्य रूप से बुरा निकलेगा चाहे दुनिया में वह कितनी ही रुचिकर और लाभदायक हो। इसलिए तुम दुनिया की इस क्षणिक जिंदगी पर आसक्त न हो, बल्कि उस जवाबदेही पर नज़र रखो जो तुम्हें अन्ततः अपने रब के सामने करनी होगी और वह सही आस्था और आचरण के संबंध में वह सही रीति-नीति अपनाओ जो तुम्हें आख़िरत की परीक्षा में सफल करे। अब यह बिल्कुल एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जो व्यक्ति सिरे से आख़िरत हो को नहीं मानता हो, वह कभी भी क़ुरआन की इस दावत को तवज्जोह देने के योग्य नहीं समझ सकता। उसके कानों के परदे से तो यह आवाज़ टकरा-टकरा कर सदेव उचटती ही रहेगी, कभी दिल तक पहुँचने का रास्ता न पाएगी। इसी मनोवैज्ञानिक सत्य को अल्लाह इन शब्दों में बयान फ़रमाता है कि जो आख़िरत को नहीं मानता हम उसके दिल और उसके कान क़ुरआन की दावत के लिए बन्द कर देते हैं अर्थात् यह हमारा प्राकृतिक नियम है जो । पर यूँ लागू होता है।
52. अर्थात् उन्हें यह बात अति अप्रिय होती है कि तुम बस एक अल्लाह ही को स्वामी व अधिकारी ठहराते हो, उनके बनाए हुए दूसरे प्रभुओं का कोई उल्लेख नहीं करते। वे कहते हैं कि यह अजीब आदमी है जिसके नज़दीक इल्मे गैब (परोक्ष ज्ञान) है तो अल्लाह को, सामर्थ्य है तो अल्लाह का, अधिकार हैं तो बस एक अल्लाह ही के। आखिर यह हमारे आस्तानोंवाले भी कोई चीज़ हैं या नहीं जिनके यहां से हमें सन्तान मिलती है, बीमारों को शिफ़ा नसीब होती है, कारोबार चमकते हैं और मुँहमाँगी मुरादें पूरी होती हैं।
نَّحۡنُ أَعۡلَمُ بِمَا يَسۡتَمِعُونَ بِهِۦٓ إِذۡ يَسۡتَمِعُونَ إِلَيۡكَ وَإِذۡ هُمۡ نَجۡوَىٰٓ إِذۡ يَقُولُ ٱلظَّٰلِمُونَ إِن تَتَّبِعُونَ إِلَّا رَجُلٗا مَّسۡحُورًا ۝ 46
(47) हमें मालूम है कि जब वे कान लगाकर तुम्हारी बात सुनते हैं तो वास्तव में क्या सुनते हैं, और जब बैठकर आपस में कानाफूसियाँ करते है तो क्या कहते हैं। ये ज़ालिम आपस में कहते हैं कि यह तो एक जादू का मारा आदमी है जिसके पीछे तुम लोग जा रहे हो।53
53. यह संकेत है उन बातों की ओर जो मक्का के विधर्मी सरदार आपस में किया करते थे। उनका हाल यह था कि छिप-छिपकर क़ुरआन सुनते और फिर आपस में मश्विो करते थे कि उसका तोड़ क्या होना चाहिए। कभी-कभी उन्हें अपने ही आदमियों में से किसी पर यह सन्देह भी हो जाता था कि शायद यह आदमी क़ुरआन सुनकर कुछ प्रभावित हो गया है, इसलिए वे सब मिलकर उसको समझाते थे कि अजी। यह किसके फेरे में आ रहे हो, यह आदमी तो जादू का मारा हुआ है, अर्थात् किसी दुश्मन ने इसपर जादू का दिया है, इसलिए बहकी-बहकी बातें करने लगा है।
ٱنظُرۡ كَيۡفَ ضَرَبُواْ لَكَ ٱلۡأَمۡثَالَ فَضَلُّواْ فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ سَبِيلٗا ۝ 47
(48) देखो, कैसी बातें हैं जो ये लोग तुमपर छाँटते हैं, ये भटक गए हैं, इन्हें रास्ता नहीं मिलता।54
54. अर्थात् ये तुम्हारे बारे में कोई एक राय जाहिर नहीं करते, बल्कि भिन्न-भिन्न समयों में बिल्कुल भित्र और उलटी बातें कहते हैं। कभी कहते है, तुम स्वयं जादूगर हो, कभी कहते हैं, तुम पर किसी और ने जाद का दिया है। कभी कहते हैं, तुम कवि हो, कभी कहते हैं, तुम मजनूँ हो । उनकी ये परस्पर विरोधी बातें स्वयं इस बात का प्रमाण हैं कि वास्तविकता उनको मालूम नहीं है, वरना स्पष्ट है कि वे आए दिन एक नयी बात छाँटने के बजाय कोई एक ही निश्चित राय प्रकट करते, साथ ही इससे यह भी मालूम होता है कि वे स्वयं अपनी किसी बात पर सन्तुष्ट नहीं है। एक आरोप रखते हैं, फिर आप ही महसूस करते हैं कि यह फिट नहीं होता। इसके बाद दूसरा आरोप लगाते हैं और उसे भी लगता हुआ न पाकर एक तीसरा आरोप गढ़ देते हैं। इस तरह उनका हर नया आरोप उनके पहले आरोप का खंडन कर देता है और इससे पता चलता है कि सच्चाई से उनका कुछ लेना-देना नहीं है, केवल दुश्मनी के कारण एक से बढ़कर एक झूठ गढ़े जा रहे हैं।
وَقَالُوٓاْ أَءِذَا كُنَّا عِظَٰمٗا وَرُفَٰتًا أَءِنَّا لَمَبۡعُوثُونَ خَلۡقٗا جَدِيدٗا ۝ 48
(49) वे कहते हैं, “जब हम सिर्फ हड्डियाँ और मिट्टी होकर रह जाएंगे तो क्या हम नए सिरे से पैदा करके उठाए जाएँगे?"
۞قُلۡ كُونُواْ حِجَارَةً أَوۡ حَدِيدًا ۝ 49
(50)-इनसे कहो, "तुम पत्थर या लोहा भी हो जाओ,
أَوۡ خَلۡقٗا مِّمَّا يَكۡبُرُ فِي صُدُورِكُمۡۚ فَسَيَقُولُونَ مَن يُعِيدُنَاۖ قُلِ ٱلَّذِي فَطَرَكُمۡ أَوَّلَ مَرَّةٖۚ فَسَيُنۡغِضُونَ إِلَيۡكَ رُءُوسَهُمۡ وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هُوَۖ قُلۡ عَسَىٰٓ أَن يَكُونَ قَرِيبٗا ۝ 50
(51) या इससे भी अधिक कठोर कोई चीज जो तुम्हारे मन में जीवन ग्रहण करने से अधिक दूर की बात है" (फिर भी तुम उठकर रहोगे)। वे ज़रूर पूछेगे, “कौन है वह जो हमें फिर जीवन की ओर पलटाकर लाएगा ?" उत्तर में कहो, "वही जिसने पहली बार तुमको पैदा किया"-वे सर हिला हिलाकर पूछेगे 55, "अच्छा, तो यह होगा कब?" तुम कहो, “क्या अजीब बात कि वह समय क़रीब ही आ लगा हो ।
55. प्रयुक्त अरबी शब्द 'ईगाज़' का अर्थ है सर को ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर की ओर हिलाना । जिस तरह आश्चर्य प्रकट करने के लिए या मज़ाक उड़ाने के लिए आदमी करता है।
يَوۡمَ يَدۡعُوكُمۡ فَتَسۡتَجِيبُونَ بِحَمۡدِهِۦ وَتَظُنُّونَ إِن لَّبِثۡتُمۡ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 51
(52) जिस दिन वह तुम्हें पुकारेगा तो तुम उसकी हम्द करते हुए उसकी पुकार के उत्तर में निकल आओगे और तुम्हारा गुमान उस समय यह होगा कि हम बस थोड़ी देर ही इस हालत में पड़े रहे हैं।‘’56
56. अर्थात दुनिया में मरने के समय से लेकर कियामत में उठने के समय तक की अवधि तुमको कुछ घंटों से अधिक न लगेगी। तुम उस समय यह समझोगे कि हम तनिक देर सोये पड़े थे कि यकायक महशर (उठाए जाने अर्थात् क़ियामत) के इस शोर ने हमें जगा उठाया और यह जो फ़रमाया कि तुम अल्लाह की हम्द (प्रशंसा) करते हुए उठ खड़े होगे, तो इसका अर्थ यह है कि मोमिन और काफ़िर हर एक की ज़बान पर उस समय अल्लाह की हम्द होगी। मोमिन (ईमानवाले) की ज़बान पर इसलिए कि पहली जिंदगी में उसकी आस्था, विश्वास और उसका चर्चा विषय यही था और क़ाफ़िर (इनकार करनेवाले) की ज़बान पर इसलिए कि उसकी प्रकृति में यही चीज़ थी, मगर अपनी मूर्खता से वह इस पर परदा डाले हुए था। अब नये सिरे से जिंदगी पाने के समय सारे कृत्रिम परदे हट जाएंगे और मूल प्रकृति की गवाही अनचाहे ही उसकी ज़बान पर जारी हो जाएगी।
وَقُل لِّعِبَادِي يَقُولُواْ ٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُۚ إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ يَنزَغُ بَيۡنَهُمۡۚ إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ كَانَ لِلۡإِنسَٰنِ عَدُوّٗا مُّبِينٗا ۝ 52
(53) और ऐ नबी ! मेरे बन्दों 57 (अर्थात् ईमानवाले बन्दो) से कह दो कि जबान से वह बात निकाला करें जो उत्तम हो।58 वास्तव में यह शैतान है जो इंसानों के बीच बिगाड़ डलवाने की कोशिश करता है। हक़ीक़त यह है कि शैतान इंसान का खुला दुश्मन है।59
57. अर्थात् ईमानवालों से।
58. अर्थात् कुमार मुशरिकों से और अपने दोन के विरोधियों से बातचीत और वाद-विवाद में तेज-तेज बोलने और अतिशयोक्ति से काम न लें। विरोधी चाहे कैसी ही अप्रिय बातें करें मुसलमानों को बहरहाल न तो कोई बात सत्य के विरुद्ध ज़बान से निकालनी चाहिए और न गुस्से में आपे से बहार होकर अशिष्ट बातों का उत्तर अशिष्टता से देना चाहिए। उन्हें ठंडे दिल से वही बात कहनी चाहिए जो जंची-तुली हो, सत्य पर आधारित हो और उनकी दावत के पद-प्रतिष्ठा के अनुकूल हो।
رَّبُّكُمۡ أَعۡلَمُ بِكُمۡۖ إِن يَشَأۡ يَرۡحَمۡكُمۡ أَوۡ إِن يَشَأۡ يُعَذِّبۡكُمۡۚ وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ عَلَيۡهِمۡ وَكِيلٗا ۝ 53
(54) तुम्हारा रख तुम्हारे हाल को ख़ूब जानता है। वह चाहे तो तुमपर दया करे और चाहे तो तुम्हें अज़ाब दे।60 और ऐ नबी ! हमने तुमको लोगों पर हवालेदार बनाकर नहीं भेजा है।61
60. अर्थात् ईमानवालों के मुख पर कभी ऐसे दावे न आने चाहिएं कि हम जन्नती हैं और अमुक व्यक्ति या गिरोह दोज़खी है। इस बात का निर्णय अल्लाह के अधिकार में है। वही सब इंसानों के खुले-छिपे और उनके बर्तमान और भविष्य को जानता है। उसी को यह निर्णय करना है कि किस पर रहमत फ़रमाए और किये अज़ाब दे। इंसान सैद्धान्तिक हैसियत से तो यह कहने का अवश्य ही अधिकार रखता है कि अल्लाह की किताब की रोशनी में किस प्रकार के इंसान रहमत के हकदार है और किस प्रकार के इंसान अज़ाब के हकदार । मगर किसी को यह कहने का हक नहीं है कि अमुक व्यक्ति को अज़ाब दिया जाएगा और अमुक व्यक्ति बख़्शा जाएगा। संभवतः यह नसीहत इस वजह से की गई है कि कभी-कभी विरोधियों के अत्याचार से तंग आकर मुसलमान की ज़बान से ऐसे वाक्य निकल जाते होंगे कि तुम दोज़ख़ में जाओगे या तुमको ख़ुदा अजाब देगा।
61. अर्थात् नबी का काम केवल दाव्त देना है। लोगों के भाग्य उसके हाथ में नहीं दिए गए हैं कि वह किसी के पक्ष में रहमत का और किसी के पक्ष में अजाब का फैसला करता फिरे। इसका यह अर्थ नहीं कि स्वयं नबी (सल्ल०) से इस प्रकार की कोई गलती हुई थी, जिसकी बुनियाद पर अल्लाह ने आपको इससे सचेत किया । बल्कि इससे वास्तव में मुसलमानों को सचेत करना अभिप्रेत है । उनको बताया जा रहा है कि जब नबी तक का यह पद नहीं है तो तुम जन्नत और दोजख के ठेकेदार कहाँ मने जाते हो।
وَرَبُّكَ أَعۡلَمُ بِمَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَلَقَدۡ فَضَّلۡنَا بَعۡضَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ عَلَىٰ بَعۡضٖۖ وَءَاتَيۡنَا دَاوُۥدَ زَبُورٗا ۝ 54
(55) तेरा रख जगी। और आसमानों के रहनेवालों को अधिक जानता है। हमने कुछ पैग़म्‍बरों को कुछ से बढ़कर पद दिए62 और हमने ही दाऊद को जासूर दी थी।63
62. इस वाक्य में वास्तविक सम्बोधन गवका के विधर्मियों से। यद्यपि प्रत्यक्ष साबोमन नली (सल्ल०) से है, जैसा कि समकालीन लोगों का सामान्य रूप से यही निया होता है। प्यारे नबी (सल्ल०) के ज़माने के इंसानों और क़ौम के लोगों को आपके भीतर कोई महिला तथा महानता दिखाई न पढ़ती थी। यह आपको अपनी आबादी का एक सामान्य व्यक्ति समझते थे और जिन प्रमुख व्यक्तियों को गुज़रे हुए कुछ सदियाँ गुज़र चुकी थी, उनके बारे में यह मान करते थे कि श्रेष्ठता तो बस उनपर समाप्त हो गई है। इसलिए आपके मुख से नुबूवत का दावा सुनकर से आपत्ति किया करते थे कि यह व्यक्ति शेख़ी बघारता है, अपने आपको न जाने क्या समझ बैठा है। भला कहाँ यह और कहाँ अगले वक्तों के वे बड़े-बड़े पैग़म्‍बर जिनकी बुज़ुर्गी का सिक्का एक दुनिया मान रही है। इसका संक्षिप्त उत्तर अल्लाह ने यह दिया है कि ज़मीन और आसमान की सारी चीजें हमारी निगाह में हैं। तुम नहीं जानते कि कौन क्या है और किसका क्या पद है। अपने अनुग्रह के हम स्वयं स्वामी हैं और पहले भी एक से बढ़कर एक उच्च पदोवाले नबी पैदा कर चुके हैं।
63. यहाँ मुख्य रूप से दाऊद (अलैहि०) को जबूर दिए जाने का उल्लेख शायद इस कारण किया गया है कि दाऊद (अलैहि०) बादशाह थे और बादशाह सामान्यत: अल्लाह से अधिक दूर हुआ करते हैं। नबी (सल्ल०) के समय के लोग जिस कारण से आपकी पैग़म्बरी और ईशपरायणता को स्वीकार करने से इंकार करते थे, वह उनके अपने बयान के अनुसार यह था कि आप साधारण इंसानों की तरह बीवी-बच्चे रखते थे, खाते-पोते थे, बाजारों में चल फिर कर क्रय -विक्रय करते थे और ये सारे ही काम करते थे जो कोई दुनियादार आदमी अपनी इंसानी आवश्यकताओं के लिए किया करता है। मक्का के शत्रुओं का कहना यह था कि तुम तो एक दुनियादार आदमी हो, तुम ख़ुदा तक पहुँचे हुए कैसे हो सकते हो ? पहुँचे हुए लोग तो वे होते हैं जिन्हें अपने तन-बदन का होश भी नहीं होता। बस एक कोने में बैठे अल्लाह की याद में दूबे रहते हैं। वह कहाँ और घर के आटे-दाल की चिन्ता कहाँ । इसपर फरमाया जा रहा है कि एक पूरे साम्राज्य के प्रबन्ध से बढ़कर दुनियादारी और क्या होगी? मगर इसके बावजूद दाऊद को नुबूवत और किताब प्रदान की गई।
قُلِ ٱدۡعُواْ ٱلَّذِينَ زَعَمۡتُم مِّن دُونِهِۦ فَلَا يَمۡلِكُونَ كَشۡفَ ٱلضُّرِّ عَنكُمۡ وَلَا تَحۡوِيلًا ۝ 55
(56) इनसे कहो, पुकार देखो उन उपास्यों को जितको तुम अल्लान के सिवा (अपना कर्ता-धर्ता समझते हो, वह किसी कष्ट को तुमसे । हरा सकते हैं, न बदल सकते हैं।64
64. इससे स्पष्ट मालूम होता है कि अल्लाह के अलावा किसी और को सज्दा करना ही शिर्क नहीं है, बल्कि अल्लाह के सिवा किसी दूसरी हस्ती से दुआ माँगना या उसको सहायता के लिए पुकारना भी शिर्क है। दुआ और सहायता मांगना, अपनी वास्तविकता की दृष्टि से इबादत ही है। गैर-अल्लाह से विनती करने वाला वैसा ही अपराधी है जैसा एक 'बुतपरस्त' अपराधी है, साथ ही इससे यह भी मालूम हुआ कि अल्लाह के सिवा किसी को भी कोई अधिकार प्राप्त नहीं है, न कोई दूसरा किसी विपत्ति को टाल सकता है, न किसी बुरी दशा को अच्छी दशा में बदल सकता है। इस तरह का विश्वास अल्लाह के सिवा जिस हस्ती के बारे में भी रखा जाए, बहरहाल एक शिर्क भरा विश्वास है।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ يَبۡتَغُونَ إِلَىٰ رَبِّهِمُ ٱلۡوَسِيلَةَ أَيُّهُمۡ أَقۡرَبُ وَيَرۡجُونَ رَحۡمَتَهُۥ وَيَخَافُونَ عَذَابَهُۥٓۚ إِنَّ عَذَابَ رَبِّكَ كَانَ مَحۡذُورٗا ۝ 56
(57) जिनको ये लोग पुकारते हैं, वे तो स्वयं अपने रब के हुजूर पहुँच प्राप्त करने का साधन खोज रहे हैं कि कौन उससे अधिक निकट हो जाए और वे उसकी रहमत के उम्मीदवार और उसके अज़ाब से डरे हुए हैं।65 हक़ीक़त तो यह है कि तेरे रब का अज़ाब है ही डरने के योग्य।
65. ये शब्द स्वयं गवाही दे रहे हैं कि शिर्कवालों के जिन उपास्यों और वसीलों का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है उनसे तात्पर्य पत्थर के बुत नहीं है, बल्कि या तो फ़रिश्ते हैं या बीते हुए समयों के बुज़र्ग इंसान । अर्थ स्पष्ट शब्दों में यह है कि नबी हों या वली, या फ़रिश्ते, किसी को भी यह शक्ति नहीं है कि तुम्हारी दुआएँ सुने और तुम्हारी मदद को पहुंचे। तुम ज़रूरतें पूरी करने के लिए उनको वसीला बना रहे हो और उनका हाल यह है कि वे स्वयं अल्लाह की रहमत के उम्मीदवार और उसके अज़ाब से डरनेवाले हैं और उसका अधिक से अधिक सान्निध्य प्राप्त करने के साधन ढूँढ़ रहे हैं।
وَإِن مِّن قَرۡيَةٍ إِلَّا نَحۡنُ مُهۡلِكُوهَا قَبۡلَ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ أَوۡ مُعَذِّبُوهَا عَذَابٗا شَدِيدٗاۚ كَانَ ذَٰلِكَ فِي ٱلۡكِتَٰبِ مَسۡطُورٗا ۝ 57
(58) और कोई बस्ती ऐसी नहीं जिसे हम कियामत से पहले हलाक न करें या सख्त अज़ाब न दें66, यह ख़ुदा के लेख में दर्ज है।
66. अर्थात् सदा-सर्वदा का जीवन किसी को भी प्राप्त नहीं है । हर बस्ती को या तो स्वाभाविक मौत मरना है, या अल्लाह के अज़ाब से हलाक होना है। तुम कहाँ भ्रम में पड़ गए कि हमारी ये बस्तियाँ सदैव खड़ी रहेंगी?
وَمَا مَنَعَنَآ أَن نُّرۡسِلَ بِٱلۡأٓيَٰتِ إِلَّآ أَن كَذَّبَ بِهَا ٱلۡأَوَّلُونَۚ وَءَاتَيۡنَا ثَمُودَ ٱلنَّاقَةَ مُبۡصِرَةٗ فَظَلَمُواْ بِهَاۚ وَمَا نُرۡسِلُ بِٱلۡأٓيَٰتِ إِلَّا تَخۡوِيفٗا ۝ 58
(59) और हमको निशानियाँ67 भेजने से नहीं रोका, मगर इस बात ने कि इनसे पहले के लोग उनको झुठला चुके हैं। (चुनाँचे देख लो) समूद को हमने खुल्लम-खुल्ला ऊँटनी लाकर दी और उन्होंने उसपर ज़ुल्म किया।68 हम निशानियाँ इसी लिए तो भेजते हैं कि लोग उन्हें देखकर डरें।69
67. अर्थात् प्रत्यक्ष मोजज़े (चमत्कार) जो नुबूवत के प्रमाण के रूप में पेश किए जाएँ, जिनकी माँग क़ुरैश के विधर्मी बार-बार नबी (सल्ल०) से किया करते थे।
68. अभिप्राय यह है कि ऐसा मोजज़ा (चमत्कार) देख लेने के बाद जब लोग उसे झुठलाते हैं तो फिर अनिवार्य रूप से उनपर अज़ान का आना ज़रूरी हो जाता है और फिर ऐसी क़ौम को नष्ट किए बग़ैर छोड़ा नहीं जाता । पिछला इतिहास इस बात पर गवाह है कि कई क़ौमों ने खुले मोजज़े देख लेने के बाद भी उनको झुठलाया और फिर नष्ट कर दी गई। अब यह सरासर अल्लाह की रहमत है कि वह ऐसा कोई मोजज़ा नहीं भेज रहा है। इसका अर्थ यह है कि वह तुम्हें समझने और संभलने के लिए मोहलत दे रहा है, मगर तुम ऐसे मूर्ख लोग हो कि मोजज़े की माँग कर-करके समूद के से अंजाम को भुगतना चाहते हो।
وَإِذۡ قُلۡنَا لَكَ إِنَّ رَبَّكَ أَحَاطَ بِٱلنَّاسِۚ وَمَا جَعَلۡنَا ٱلرُّءۡيَا ٱلَّتِيٓ أَرَيۡنَٰكَ إِلَّا فِتۡنَةٗ لِّلنَّاسِ وَٱلشَّجَرَةَ ٱلۡمَلۡعُونَةَ فِي ٱلۡقُرۡءَانِۚ وَنُخَوِّفُهُمۡ فَمَا يَزِيدُهُمۡ إِلَّا طُغۡيَٰنٗا كَبِيرٗا ۝ 59
(60) याद करो ऐ नबी। हमने तुमसे कह दिया था कि तेरे रब ने उन लोगों को घेर रखा है।70 और यह जो कुछ अभी हमने तुम्हें दिखाया है71, इसको और उस पेड़ को जिसपर क़ुरआन में लानत की गई,72 हमने उन लोगों के लिए बस एक फितना बनाकर रख दिया।73 हम उन्हें चेतावनी पर चेतावनी दिए जा रहे हैं, मगर हर चेतावनी उनकी उदंडता ही में बढ़ोत्तरी किए जाती है।
70. अर्थात तुम्हारी पैग़म्बराना दावत के आरंभिक युग में ही,जबकि क़ुरैश के इन विधर्मियों ने तुम्हारा विरोध करना और तुम्हारे रास्ते मे रुकावट डालना शुरू किया था, हमने साफ़-साफ़ यह एलान कर दिया था कि हमने उन लोगों को घेरे में ले रखा है,ये एड़ी-चोटी का जोर लगा कर देख लें, ये किसी तरह तेरी दावत का रास्ता न रोक सकेंगे और यह काम जो तूने अपने हाथ में लिया है, इनकी हर डाली हुई रुकावट के बावजूद होकर रहेगा। अब अगर इन लोगों को चमत्कार देखकर ही खबरदार होना है, तो इन्हें यह चमत्कार दिखाया जा चुका है कि जो कुछ आरंभ में कह दिया गया था,वह पूरा होकर रहा, उनका कोई विरोध भी इस्लामी दावत को फैलने से न रोक सका और ये तेरा बाल तक बीका न कर सके। इनके पास आंखें हों तो ये इस सत्य को देखकर स्वयं समझ सकते हैं कि नबी की इस दावत के पीछे अल्लाह का हाथ काम कर रहा है। यह बात कि अल्लाह ने विधर्मियों को घेरे में ले रखा है और नबी की दावत अल्लाह के संरक्षण में है, मक्का के आरभिक काल की सूरतों में बहुत-सी जगहों पर इर्शाद हुई है, जैसे सूरा-85 बुरूज में फ़रमाया, "मगर ये विधर्मी झुठलाने में लगे हुए हैं और अल्लाह ने इनको हर ओर से घेरे में ले रखा है।"
71. संकेत है मेराज की ओर। इसके लिए यहाँ शब्द 'स्या' जो प्रयुक्त हुआ है, यह 'सपने के अर्थ में नहीं है, बल्कि आँखों से देखने के अर्थ में है। स्पष्ट है कि अगर वह सिर्फ़ सपना होता और नबी (सल्ल०) ने उसे सपने ही के रूप में विधर्मियों के सामने बयान किया होता तो कोई कारण न था कि वह उनके लिए फ़िला बन जाता। सपना एक से एक अनोखा देखा जाता है और लोगों से बयान भी किया जाता है, मगर वह किसी के लिए भी ऐसे अचंभे की चीज़ नहीं होता कि लोग उसके कारण सपना देखनेवाले का उपहास करें और उसपर झूठे दावों और जुनून का आरोप लगाने लगें।
وَإِذۡ قُلۡنَا لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ ٱسۡجُدُواْ لِأٓدَمَ فَسَجَدُوٓاْ إِلَّآ إِبۡلِيسَ قَالَ ءَأَسۡجُدُ لِمَنۡ خَلَقۡتَ طِينٗا ۝ 60
(61) और याद करो जबकि हमने फ़रिश्तों से कहा कि आदम को सजदा करो, तो सबने सजदा किया, मगर इवलीस ने न किया।74 उसने कहा, "क्या मैं उसको सजदा करूँ जिसे तूने मिट्टी से बनाया है ?"
74. तुलना के लिए देखिए, सूरा-2 (बक़रा) आयत 30-30 सूरा-4 (निसा) आयत 117, 121, सूरा-7 (आराफ़) आयत 11-25, सूरा-15 (हिज़्र) आयत 20-42 और सूरा-14 (इब्राहीम) आयत 22 । इस वार्ता क्रम में यह किस्सा वास्तव में इस बात को मन में बिठाने के लिए बयान किया जा रहा है कि अल्लाह के मुक़ाबले में इन विरोधियों की यह उदंडता और चेतावनियों से इनकी यह विमुखता और टेढ़ा रास्ता अपना लेना और इस रवैये पर इनका यह दुराग्रह ठीक-ठीक उस शैतान की पैरवी है जो शुरू से इंसान का दुश्मन है। और इस रवैये को अपना करके वास्तव में ये लोग उस जाल में फँस रहे हैं जिसमें आदम की सन्तान को फाँसकर नष्ट कर देने के लिए शैतान ने मानव इतिहास के आरंभ में ही चैलेंज किया था।
قَالَ أَرَءَيۡتَكَ هَٰذَا ٱلَّذِي كَرَّمۡتَ عَلَيَّ لَئِنۡ أَخَّرۡتَنِ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ لَأَحۡتَنِكَنَّ ذُرِّيَّتَهُۥٓ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 61
(62) फिर वह बोला, "देख तो सही, क्या यह इस योग्य था कि तूने उसे मुझपर प्रमुखता दी? अगर मुझे कियामत के दिन तक मोहलत दे तो मैं उसकी पूरी नस्ल की जड़ें उखाड़ डालूँ 75, बस थोड़े ही लोग मुझसे बच सकेगे।”
75. 'जड़ें उखाड़ डालूँ' अर्थात् उनके कदम सलामती की राह से उखाड़ फेकूँ। अरबी शब्द 'इस्तनाक' का वास्तविक अर्थ किसी चीज़ को जड़ से उखाड़ देने के हैं। चूँकि इंसान की असल हैसियत अल्लाह के 'खलीफ़ा' की है, जिसका तकाज़ा आज्ञापालन में कदम जमाए रहना है, इसलिए इस जगह से उसका हट जाना बिल्कुल ऐसा है जैसे किसी पेड़ का जड़ बुनियाद से उखाड़ फेंका जाना।
قَالَ ٱذۡهَبۡ فَمَن تَبِعَكَ مِنۡهُمۡ فَإِنَّ جَهَنَّمَ جَزَآؤُكُمۡ جَزَآءٗ مَّوۡفُورٗا ۝ 62
(63) अल्लाह ने फ़रमाया, "अच्छा तो जा, इनमें से जो भी तेरी पैरवी करे, तुझ सहित उन सबके लिए जहन्नम ही भरपूर बदला है।
وَٱسۡتَفۡزِزۡ مَنِ ٱسۡتَطَعۡتَ مِنۡهُم بِصَوۡتِكَ وَأَجۡلِبۡ عَلَيۡهِم بِخَيۡلِكَ وَرَجِلِكَ وَشَارِكۡهُمۡ فِي ٱلۡأَمۡوَٰلِ وَٱلۡأَوۡلَٰدِ وَعِدۡهُمۡۚ وَمَا يَعِدُهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ إِلَّا غُرُورًا ۝ 63
(64) तू जिस-जिस को अपने आह्वान से फिसला सकता है, फिसला दे,76 उनपर अपने-अपने सवार और पयादे चढ़ा ला77, माल और औलाद में उनके साथ साझा लगा78, और उनको वादों के जाल में फाँस79-और शैतान के वादे एक धोखे के सिवा और कुछ भी नहीं
76. असल मूल शब्द 'इस्तिफ़ज़ाज़' प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ इस्तिफाक के हैं अर्थात् किसी को हलका और कमज़ोर पाकर बहा ले जाना या उसके कदम फिसला देना।
77. इस वाक्य में शैतान को उस डाकू जैसा बताया गया है जो किसी बस्ती पर अपने सवार और पैदल चढ़ा लाए और उनको संकेत करता जाए कि इधर लूटो, उधर छापा मारो और वहां उपद्रव फैलाओ। शैतान के सवारों और प्यादों से तात्पर्य वे सब जिन्न और इंसान हैं जो अगणित विभिन्न रूपों और परिस्थितियों में इब्लीस के मिशन की सेवा कर रहे हैं।
إِنَّ عِبَادِي لَيۡسَ لَكَ عَلَيۡهِمۡ سُلۡطَٰنٞۚ وَكَفَىٰ بِرَبِّكَ وَكِيلٗا ۝ 64
(65) निश्चित रूप से मेरे बन्दो पर तुझे कोई प्रभुत्त्व प्राप्त न होगा80 और भरोसे के लिए तेरा रब काफ़ी है।81
80. इसके दो अर्थ हैं, और दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं। एक यह कि मेरे बन्दों, अर्थात् इंसानों पर तुझे यह सत्ता प्राप्त न होगी कि तू उन्हें बलात् अपनी राह पर खींच ले जाए । तुझे सिर्फ़ बहलाने और फुसलाने और ग़लत सलाह देने और झूठे वादे करने का अधिकार दिया जाता है, मगर तेरी बात को स्वीकार करना या न करना इन बन्दों का अपना काम होगा। तेरा ऐसा तसल्लुत (कब्ज़ा) उनपर न होगा कि वे तेरी राह पर जाना चाहें या न चाहे बहरहाल तू हाथ पकड़कर उनको घसीट ले जाए । दूसरा अर्थ यह है कि मेरे प्रमुख बन्दों, यानी नेक लोगों पर तेरा बस न चलेगा, दुर्बल और इरादे के कमजोर लोग तेरे वादों से अवश्य धोखा खाएँगे। मगर जो लोग मेरी बंदगी पर जमे होंगे वे तेरे क़ाबू में न आ सकेंगे।
81. अर्थात् जो लोग अल्लाह पर भरोसा करें, और जिनका भरोसा उसी को रहनुमाई और तौफ़ीक़ और मदद पर हो, उनका भरोसा कदापि ग़लत सिद्ध न होगा। उन्हें किसी और सहारे की ज़रूरत न होगी। अल्लाह उनके मार्गदर्शन के लिए भी काफी होगा और उनकी मदद और सहारे के लिए भी। अलबत्ता जिनका भरोसा अपनी शक्ति पर हो या अल्लाह के सिवा किसी और पर हो, वे इस आज़माइश से सकुशल न गुज़र सकेंगे।
رَّبُّكُمُ ٱلَّذِي يُزۡجِي لَكُمُ ٱلۡفُلۡكَ فِي ٱلۡبَحۡرِ لِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ كَانَ بِكُمۡ رَحِيمٗا ۝ 65
(66) तुम्हारा (वास्तविक) रब तो वह है जो समुद्र में तुम्हारी नाव चलाता है82, ताकि तुम उसका अनुयह (रोजी) तलाश करो।83 हक़ीक़त यह है कि वह तुम्हारे हाल पर बहुत ही मेहरबान है ।
82. उपर्युक्त वर्णन क्रम से इसका सम्बंध समझने के लिए आयत 61 से 70 में वर्णित आरंभिक विषय पर फिर एक दृष्टि डाल ली जाए। उसमें बताया गया है कि इब्लीस पहले दिन से आदम की सन्तान के पीछे पड़ा हुआ है, ताकि उसको आरजुओं और तमन्नाओं और झूठे वादों के जाल में फाँसकर सीधे रास्ते से हटा ले जाए और यह सिद्ध कर दे कि वह इस श्रेष्ठता का अधिकारी नहीं है जो उसे अल्लाह ने प्रदान किया है। इस ख़तरे से अगर कोई चीज़ इंसान को बचा सकती है तो वह केवल यह है कि इंसान अपने रब को बन्दगी पर जमा रहे और मार्गदर्शन और सहायता के लिए उसी की ओर रुजू करे और उसी को अपना वकील (भरोसे को धुरी) बनाए। इसके सिवा दूसरी जो राह भी इंसान अपनाएगा, शैतान के फंदों से न बच सकेगा- इस तक़रीर से यह बात अपने आप निकल आई कि जो लोग तौहीद की दावत को रद्द कर रहे हैं और शिर्क पर आग्रह किए जाते हैं, वे वास्तव में आप ही अपने विनाश पर उतारू हैं। इसी अनुकूलता से यहाँ तौहीद को सिद्ध किया जा रहा है और शिर्क का खंडन किया जा रहा है।
83. अर्थात् उन आर्थिक, सांस्कृतिक और ज्ञानात्मक और मानसिक लाभों को प्राप्त करने का यत्न करो जो समुद्री यात्राओं से प्राप्त होते हैं।
وَإِذَا مَسَّكُمُ ٱلضُّرُّ فِي ٱلۡبَحۡرِ ضَلَّ مَن تَدۡعُونَ إِلَّآ إِيَّاهُۖ فَلَمَّا نَجَّىٰكُمۡ إِلَى ٱلۡبَرِّ أَعۡرَضۡتُمۡۚ وَكَانَ ٱلۡإِنسَٰنُ كَفُورًا ۝ 66
(67) जब समुद्र में तुमपर विपत्ति आती है, तो उस एक के सिवा दूसरे जिन-जिनको तुम पुकारा करते हो, वे सब गुम हो जाते हैं।84 मगर जब वह तुमको बचाकर ख़ुश्की (भूमि) पर पहुँचा देता है तो तुम उससे मुंह मोड़ जाते हो। इंसान वास्तव में बड़ा नाशुक्रा (कृतम) है।
84. अर्थात् यह इस बात का प्रमाण है कि तुम्हारी मूल प्रकृति एक अल्लाह के सिवा किसी रब को नहीं जानती और तुम्हारे अपने दिल की गहराइयों में यह चेतना मौजूद है कि लाभ और हानि के वास्तविक अधिकारों का स्वामी बस वही एक है, वरना आखिर इसका कारण क्या है कि जो सही समय सहारा देने का है, उस समय तुमको एक अल्लाह के सिवा कोई दूसरा सहारा देनेवाला नहीं सूझता ? (और विस्तार के लिए देखें सूरा-10 युनूस की टिप्पणी 31)
أَفَأَمِنتُمۡ أَن يَخۡسِفَ بِكُمۡ جَانِبَ ٱلۡبَرِّ أَوۡ يُرۡسِلَ عَلَيۡكُمۡ حَاصِبٗا ثُمَّ لَا تَجِدُواْ لَكُمۡ وَكِيلًا ۝ 67
(68) अच्छा, तो क्या तुम इस बात से बिलकुल निडर हो कि अल्लाह कभी खुश्की पर ही तुमको धरती में धँसा दे या तुमपर पथराव करनेवाली आँधी भेज दे और तुम उससे बचानेवाला कोई समर्थक न पाओ?
أَمۡ أَمِنتُمۡ أَن يُعِيدَكُمۡ فِيهِ تَارَةً أُخۡرَىٰ فَيُرۡسِلَ عَلَيۡكُمۡ قَاصِفٗا مِّنَ ٱلرِّيحِ فَيُغۡرِقَكُم بِمَا كَفَرۡتُمۡ ثُمَّ لَا تَجِدُواْ لَكُمۡ عَلَيۡنَا بِهِۦ تَبِيعٗا ۝ 68
(69) और क्या तुम्हें इसकी आशंका नहीं कि अल्लाह फिर किसी समय समुद्र में तुमको ले जाए और तुम्हारी अवज्ञा के बदले तुमपर प्रचंड तूफ़ानी हवा भेजकर तुम्हें डुबो दे और तुमको ऐसा कोई न मिले जो उससे तुम्हारे इस अंजाम की पूछ- गच्छ कर सके?
۞وَلَقَدۡ كَرَّمۡنَا بَنِيٓ ءَادَمَ وَحَمَلۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِ وَرَزَقۡنَٰهُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ وَفَضَّلۡنَٰهُمۡ عَلَىٰ كَثِيرٖ مِّمَّنۡ خَلَقۡنَا تَفۡضِيلٗا ۝ 69
(70) यह तो हमारी कृपा है कि हमने बनी आदम (आदम की सन्तान) को श्रेष्ठता दी और उन्हें खुश्की व तरी में सवारियाँ प्रदान की और उनको पाक चीज़ों से रोज़ी दी और अपने बहुत-से पैदा किए हुओं पर स्पष्ट श्रेष्ठता दी।85
85. अर्थात् यह एक बिल्कुल खुली हुई सच्चाई है कि मानव जाति को पृथ्वी और उसकी चीज़ों पर यह प्रभुत्त्व किसी जिन्न या फरिश्ते या ग्रह ने नहीं प्रदान किया, न किसी वली या नबी ने अपनी जाति को यह प्रभुत्व दिलवाया है। निश्चय यह अल्लाह ही की देन और उसकी कपा है। फिर इससे बढ़कर मूर्खता और अज्ञानता क्या हो सकती है कि इंसान इस पद पर आसीन होकर अल्लाह के बजाय उसकी मष्टि के आगे झुके।
يَوۡمَ نَدۡعُواْ كُلَّ أُنَاسِۭ بِإِمَٰمِهِمۡۖ فَمَنۡ أُوتِيَ كِتَٰبَهُۥ بِيَمِينِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ يَقۡرَءُونَ كِتَٰبَهُمۡ وَلَا يُظۡلَمُونَ فَتِيلٗا ۝ 70
(71) फिर विचार करो उस दिन का जबकि हम हर इंसानी गिरोह को उसके पेशवा (गुरु) के साथ बुलाएँगे। उस समय जिन लोगों को उनका आमालनामा (कर्म-पत्र) सीधे हाथ में दिया गया, वे अपना कारनामा पढ़ेगे86 और उनपर तनिक भर भी जुल्म न होगा
86. यह बात क़ुरआन मजीद में कई स्थानों पर कही गई है कि क़ियामत के दिन नेक लोगों को उनका आमाल नामा सीधे हाथ में दिया जाएगा और वे खुशी-खुशी उसे देखेंगे, बल्कि दूसरों को भी दिखाएँगे। रहे दुष्कर्मी लोग, तो उनका सियाह-नामा उनके बाएँ हाथ में दिया जाएगा और वे उसे लेते ही पीठ पीछे छिपाने की कोशिश करेंगे। दिखिए सूरा-60 अल-हाक्का, आयत 18-28 और सूरा-84 इंशिकाक,आयत 7-13)
وَمَن كَانَ فِي هَٰذِهِۦٓ أَعۡمَىٰ فَهُوَ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ أَعۡمَىٰ وَأَضَلُّ سَبِيلٗا ۝ 71
(72) और जो इस दुनिया में अंधा बनकर रहा, वह आख़िरत में भी अंधा ही रहेगा, बल्कि रास्ता पाने में अंधे से भी अधिक विफल।
وَإِن كَادُواْ لَيَفۡتِنُونَكَ عَنِ ٱلَّذِيٓ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ لِتَفۡتَرِيَ عَلَيۡنَا غَيۡرَهُۥۖ وَإِذٗا لَّٱتَّخَذُوكَ خَلِيلٗا ۝ 72
(73) ऐ नबी ! इन लोगों ने इस कोशिश में कोई कमी उठा नहीं रखी कि तुम्ने फितना में डालकर इस वह्य से फेर दें जो हमने तुम्हारी ओर भेजी है, ताकि तुम हमारे नाम पर अपनी और से कोई बात गढ़ो।87 अगर तुम ऐसा करते तो वे अवश्य ही तुम्हें अपना मित्र बना लेते,
87. यह उन परिस्थितियों की ओर संकेत है जिनका पिछले दस-बारह साल से नबी (सल्ल०) को मक्के में सामना करना पड़ रहा था। मक्का के विधर्मी इस बात पर उतर आए थे कि जैसे भी हो आपको तौहीद की इस दावत से हटा दें जिसे आप प्रस्तुत कर रहे थे और किसी न किसी तरह आपको मजबूर कर दें कि आप उनके शिर्क और अज्ञानता की रम्मों से कुछ-न-कुछ समझौता कर लें। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने आपको फिले में डालने की हर कोशिश की, फरेब भी दिए, लालच भी दिलाए, धमकियाँ भी दी, झूठे प्रोपगंडे का तूफान भी उठाया, जुल्म व सितम भी किया, आर्थिक दबाव भी डाला, सामाजिक बहिष्कार भी किया और वह सब कुछ कर डाला जो किसी इंसान के संकल्प को ध्वस्त करने के लिए किया जा सकता था।
وَلَوۡلَآ أَن ثَبَّتۡنَٰكَ لَقَدۡ كِدتَّ تَرۡكَنُ إِلَيۡهِمۡ شَيۡـٔٗا قَلِيلًا ۝ 73
(74) और असंभव न था कि अगर हम तुम्हें सुदद न रखते तो तुम उनकी ओर कुछ न कुछ झुक जाते।
إِذٗا لَّأَذَقۡنَٰكَ ضِعۡفَ ٱلۡحَيَوٰةِ وَضِعۡفَ ٱلۡمَمَاتِ ثُمَّ لَا تَجِدُ لَكَ عَلَيۡنَا نَصِيرٗا ۝ 74
(75) लेकिन अगर तुम ऐसा करते तो हम तुम्हें दुनिया में भी दोहरे अज़ाब का मजा चखाते और आख़िरत में भी दोहरे अज़ाब का, फिर हमारे मुक़ाबले में तुम कोई सहायक न पाते।88
88. अल्लाह इस पूरी कार्यवाही पर समीक्षा करते हुए दो बातें फरमा रहा है। एक यह कि अगर तुम सत्य को सत्य जान लेने के बाद असत्य से कोई समझौता कर लेते तो यह बिगड़ी हुई कौम तो अवश्य ही तुमसे प्रसन्न होती, मगर अल्लाह का प्रकोप तुमपर भड़क उठता और तुम्हें दुनिया व आख़िरत दोनों में दोहरा दंड दिया जाता। दूसरे यह कि इंसान चाहे वह पैग़म्बर ही क्यों न हो स्वयं अपने बल-बूते पर असत्य के इन तूफ़ानों का मुक़ाबला नहीं कर सकता, जब तक कि अल्लाह की सहायता और उसका सौभाग्य प्राप्त न हो। यह पूर्णता अल्लाह का दिया हुआ धैर्य और दृढ़ता थी जिसके कारण नबी (सल्ल०) सत्य और सच्चाई की अटल नौति पर पहाड़ की तरह जमे रहे और कोई आँधी-तूफ़ान आपको बाल बराबर भी अपनी जगह से न हटा सका।
وَإِن كَادُواْ لَيَسۡتَفِزُّونَكَ مِنَ ٱلۡأَرۡضِ لِيُخۡرِجُوكَ مِنۡهَاۖ وَإِذٗا لَّا يَلۡبَثُونَ خِلَٰفَكَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 75
(76) और ये लोग इस बात पर तुले रहे हैं कि तुम्हारे क़दम इस धरती से उखाड़ दें और तुम्हें यहाँ से निकाल बाहर करें, लेकिन अगर ये ऐसा करेंगे तो तुम्हारे बाद ये स्वयं यहाँ कुछ अधिक देर न ठहर सकेंगे।89
89. यह स्पष्ट भविष्यवाणी है जो उस समय तो सिर्फ एक धमकी जान पड़ती थी, मगर दस-ग्यारह साल के अदंर हो शब्दशः सत्य साबित हो गई। इस सूरा के उतरे हुए एक ही साल बीता था कि मक्का के विधर्मियों ने नबी (सल्ल०) को वतन से निकल जाने पर विवश कर दिया. और इस पर आठ साल से ज्यादा न बोते थे कि आपने विजेता के रूप में मक्का मुअज्जमा में प्रवेश किया और फिर दो साल के अंदर-अरब की धरती मुश्किों के अस्तित्त्व से मुक्त कर दी गई। फिर जो भी उस देश में रहा, मुसलमान बनकर रहा, मुश्कि बनकर वहाँ न ठहर सका।
سُنَّةَ مَن قَدۡ أَرۡسَلۡنَا قَبۡلَكَ مِن رُّسُلِنَاۖ وَلَا تَجِدُ لِسُنَّتِنَا تَحۡوِيلًا ۝ 76
(77) यह हमारी स्थायी कार्य प्रणाली है जो उन सब रसूलों के मामले में हमने बरती है जिन्हें तुमसे पहले हमने भेजा था,90 और हमारी कार्य-प्रणाली में तुम कोई परिवर्तन न पाओगे।
90. अर्थात् सारे नबियों के साथ अल्लाह का यही मामला रहा है कि जिस क़ौम ने उनको क़त्ल किया या देश-निकाला दिया, फिर वह अधिक देर तक अपनी जगह न ठहर सकी। फिर या तो अल्लाह के अज़ाब ने उसे नष्ट किया या किसी दुश्मन क़ौम को उसपर मुसल्लत किया गया या स्वयं उसी नबी की पैरवी करनेवालों से उसको आधीन करा दिया गया।
أَقِمِ ٱلصَّلَوٰةَ لِدُلُوكِ ٱلشَّمۡسِ إِلَىٰ غَسَقِ ٱلَّيۡلِ وَقُرۡءَانَ ٱلۡفَجۡرِۖ إِنَّ قُرۡءَانَ ٱلۡفَجۡرِ كَانَ مَشۡهُودٗا ۝ 77
(78) नमाज़ क़ायम करो 91, सूरज के ढलने से 92 लेकर रात के अंधेरे तक 93 और फ़ज्र के क़ुरआन को भी आवश्यक ठहराओ 94, क्योकि फज का क़ुरआन मशहूद (जिसपर गवाही दी गई हो) होता है। 95
91. परेशानियों और विपदाओं के इस तूफ़ान का उल्लेख करने के बाद तुरन्त ही नमाज़ क़ायम करने का आदेश देकर अल्लाह ने यह सूक्ष्म संकेत दिया है कि वह धैर्य और दृढ़ता जो इन परिस्थितियों में एक मोमिन को दरकार है, नमाज़ क़ायम करने से प्राप्त होती है।
92. 'सूर्य का ढलना' हमने 'दुलूकुश-शम्स' का अनुवाद किया है। यद्यपि कुछ सहाबा व ताबईन ने दुलूक से तात्पर्य डूबना भी बताया है लेकिन अधिकतर लोगों की राय यही है कि इससे तात्पर्य सूर्य का दोपहर से ढल जाना है। हज़रत उमर, इब्ने उमर, अनस बिन मालिक, अबू बर्जा असलमी, हसन बसरी, शाबी, अता, मुजाहिद और एक रिवायत के अनुसार इब्ने अब्बास (रजि०) भी इसी के कायल हैं । इमाम मुहम्मद बाक़र और इमाम जाफर सादिक से भी यही कथन वर्णित किया गया है, बल्कि कुछ हदीसों में स्वयं नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से भी दुलूके शम्स की यही व्याख्या नक़ल हुई है, यद्यपि उनकी सनद कुछ अधिक दृढ़ नहीं है।
وَمِنَ ٱلَّيۡلِ فَتَهَجَّدۡ بِهِۦ نَافِلَةٗ لَّكَ عَسَىٰٓ أَن يَبۡعَثَكَ رَبُّكَ مَقَامٗا مَّحۡمُودٗا ۝ 78
(79) और रात को तहज्जुद' पढ़ो 96, यह तुम्हारे लिए नफ़्ल है 97, असंभव नहीं कि तुम्हारा व तुम्हें 'मकामे महमूद’98 (प्रशंसा योग्य स्थान) पर आसीन कर दे।
96. 'तहज्जुद' का अर्थ है नींद तोड़कर उठना । एक रात के वक्त तहज्जुद करने का अर्थ यह है कि रात का हिस्सा सोने के बाद फिर उठकर नमाज़ पढ़ी जाए।
97. 'नफ़्ल' का अर्थ है 'फ़र्ज़ के अलावा'। इससे अपने आप यह संकेत निकल आया कि वे पांच नमाज़ें, जिनके समयों के निर्धारण का पहली आयत में उल्लेख किया गया था फ़र्ज़ है और यह छठी नमाज़, फ़र्ज़ के अलावा है।
وَقُل رَّبِّ أَدۡخِلۡنِي مُدۡخَلَ صِدۡقٖ وَأَخۡرِجۡنِي مُخۡرَجَ صِدۡقٖ وَٱجۡعَل لِّي مِن لَّدُنكَ سُلۡطَٰنٗا نَّصِيرٗا ۝ 79
(80) और दुआ करो कि पालनहार| मुझको जहाँ भी तू ले जा, सच्चाई के साथ ले जा और जहाँ से भी निकाल, सच्चाई के साथ निकाल99, और अपनी ओर से एक सत्ता को मेरा सहायक बना दे।100
99. इस दुआ की तलक़ीन से स्पष्ट हो जाता है कि हिजरत का समय अब बिल्कुल क़रीब आ लगा था, इसलिए फ़रमाया कि तुम्हारी दुआ यह होनी चाहिए कि सच्चाई का दामन किसी हालत में तुमसे न छूटे, जहाँ से भी निकलो, सच्चाई के लिए निकलो और जहाँ भी जाओ, सच्चाई के साथ जाओ।
100. अर्थात् या तो मुझे स्वयं सत्ता प्रदान कर या किसी शासन को मेरा सहायक बना दे ताकि उसकी शक्ति से मैं दुनिया के इस बिगाड़ को ठीक कर सकूँ, निर्लज्जता और पाप की इस बाढ़ को रोक सकूँ और तेरे न्याय-विधान को लागू कर सकूँ । यही व्याख्या है इस आयत की जो हसन बसरी और क़तादा ने की है और इसी को इब्ने जरीर और इब्ने कसीर जैसे महान टोकाकारों ने अपनाया और इसी का समर्थन नबी (सल्ल०) की यह हदीस करती है कि "अल्लाह शासन-शक्ति से उन चीज़ों की रोक-थाम कर देता है जिनकी रोक-थाम क़ुरआन से नहीं करता। इससे मालूम हुआ कि इस्लाम दुनिया में जो सुधार चाहता है वह सिर्फ़ उपदेशों से नहीं हो सकता, बल्कि उसको व्यवहार में लाने के लिए राजनीतिक शक्ति भी दरकार है। फिर जबकि यह दुआ अल्लाह ने अपने नबी को स्वयं सिखाई है, तो उससे यह भी सिद्ध हुआ कि दोन की स्थापना करने और शरीअत और अल्लाह की मर्यादाओं को लागू करने के लिए सत्ता चाहना और उसे प्राप्त करने की कोशिश करना न केवल जाइज़ है बल्कि अभीष्ट और प्रशंसनीय है।
وَقُلۡ جَآءَ ٱلۡحَقُّ وَزَهَقَ ٱلۡبَٰطِلُۚ إِنَّ ٱلۡبَٰطِلَ كَانَ زَهُوقٗا ۝ 80
(81) और घोषणा कर दो कि “सत्य आ गया और असत्य मिट गया। असत्य तो मिटने ही वाला है।‘101
101. यह घोषणा उस समय की गई थी जबकि मुसलमान बड़े असहाय और उत्पीड़ित अवस्था में मक्का और मक्का के बाहरी भागों में जीवन बिता रहे थे। ऐसे समय में यह विचित्र घोषणा लोगों को केवल ज़बान का फाग महसूस हुआ, मगर इसपर नौ वर्ष ही बीते थे कि नबी (सल्ल०) इसी शहर मक्का में विजेता के रूप में दाख़िल हुए और आपने काबे में जाकर उस असत्य को मिटा दिया जो तीन सौ साठ बुतों की शक्ल में वहाँ सजा रखा गया था। बुख़ारी में हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद का बयान है कि मक्का-विजय के दिन नबी (सल्ल०) काबा के बुतों पर चोट लगा रहे थे और आपकी ज़बान पर ये शब्द जारी थे 'सत्य आ गया और असत्य मिट गया, असत्य तो मिटने के लिए है। सत्य आ गया और असत्य न तो पैदा होगा और न लौटेगा।"
وَنُنَزِّلُ مِنَ ٱلۡقُرۡءَانِ مَا هُوَ شِفَآءٞ وَرَحۡمَةٞ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ وَلَا يَزِيدُ ٱلظَّٰلِمِينَ إِلَّا خَسَارٗا ۝ 81
(82) हम इस कुरआन के उतरने के क्रम में वह कुछ उतार रहे हैं जो माननेवालों के लिए तो शिफ़ा और रहमत हैं, मगर ज़ालिमों के लिए घाटे के सिवा और किसी चीज़ में वृद्धि नही करता।102
102. अर्थात् जो लोग इस क़ुरआन को अपना मार्गदर्शक और अपने लिए क़ानून की किताब मान लें, उनके लिए तो यह अल्लाह की रहमत और उनके तमाम मानसिक, आत्मिक, नैतिक और सांस्कृति रोगों का उपचार है। मगर जो ज़ालिम इसे रद्द कर दें, उनको यह क़ुरआन इस दशा पर भी रहने जिसपर वे उसके उतरने से या उसके जानने से पहले थे, बल्कि यह उन्हें उलटा इससे अधिक घाटे में डाल देता है। इसका कारण यह है कि पहले इनका घाटा मात्र अज्ञानता का घाटा था, मगर जब कुरआन उनके सामने आ गया और उसने सत्य और असत्य का अन्तर खोलकर रख दिया तो उनपर अल्लाह की युक्ति पूरी हो गई। अब अगर वे इसे रद्द करके गुमराही पर आग्रह करते हैं तो इसका अर्थ यह है कि वे अज्ञानी नहीं, बल्कि अत्याचारी और असत्यवादी और सत्य से दूर हैं। अब उनकी दशा वह है जो विष और अमृत, दोनों को देखकर विष के चुननेवाले की होती है । अब अपनी गुमराही की वे पूरे ज़िम्मेदार और हर गुनाह जो इसके बाद वे करें, उसकी पूरी सजा के वे हकदार हैं। यह घाटा अज्ञानता का नहीं, बल्कि उदण्डता का घाटा है, जिसे अज्ञानता के घाटे से बढ़कर ही होना चाहिए। यही बात है जो नबी (सल्ल०) ने एक अति संक्षिप्त अर्थपूर्ण वाक्य में बयान फ़रमाई है कि 'क़ुरआन या तो तेरे पक्ष में युक्ति है या फिर तेरे विरुद्ध युक्ति।'
وَإِذَآ أَنۡعَمۡنَا عَلَى ٱلۡإِنسَٰنِ أَعۡرَضَ وَنَـَٔا بِجَانِبِهِۦ وَإِذَا مَسَّهُ ٱلشَّرُّ كَانَ يَـُٔوسٗا ۝ 82
(83) इंसान का हाल यह है कि जब हम उसे नेमत देते हैं तो वह ऐंठता और पोठ मोड़ लेता है और जब तनिक मुसीबत का सामना होता है तो निराश होने लगता है।
قُلۡ كُلّٞ يَعۡمَلُ عَلَىٰ شَاكِلَتِهِۦ فَرَبُّكُمۡ أَعۡلَمُ بِمَنۡ هُوَ أَهۡدَىٰ سَبِيلٗا ۝ 83
(84) ऐ नबी ! उन लोगों से कह दो कि “हर एक अपने तरीके पर चल रहा है, अब यह तुम्हारा रब ही बेहतर जानता है कि सीधी राह पर कौन है।"
وَيَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلرُّوحِۖ قُلِ ٱلرُّوحُ مِنۡ أَمۡرِ رَبِّي وَمَآ أُوتِيتُم مِّنَ ٱلۡعِلۡمِ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 84
(85) ये लोग तुमसे रूह के बारे में पूछते हैं। कहो, “यह रूह मेरे रब के आदेश से आती है, मगर तुम लोगों ने ज्ञान का थोड़ा भाग ही पाया है।‘’103
103. सामान्य रूप से यह समझा जाता है कि यहाँ रूह से तात्पर्य प्राण है, अर्थात् लोगों ने नबी (सल्ल०) से ज़िदंगी की रूह के बारे में पूछा था कि उसकी वास्तविकता क्या है और उसका उत्तर यह दिया गया कि वह अल्लाह के आदेश से आती है, लेकिन वाक्य-क्रम को दृष्टि में रख कर देखा जाए जो स्पष्ट महसूस होता है कि यहाँ कह से तात्पर्य नुबूवत की रूह या वह्य है । मुशिकों का प्रश्न वास्तव में यह था कि यह क़ुरआन तुम कहाँ से लाते हो? इसपर अल्लाह फ़रमाता है कि ऐ मुहम्मद । इन्हें बता दो कि यह रूह मेरे रब के आदेश से आती है, मगर तुम लोगों को इतना कम ज्ञान दिया गया है कि तुम इंसान की रचित वाणी और रब्बानी (रब की) वह्य के ज़रिये से उतरनेवाली वाणी का अन्तर नहीं समझते और इस वाणी पर यह सन्देह करते हो कि इसे कोई इंसान गढ़ रहा है। क़ुरआन मजीद में कुछ दूसरे स्थानों पर भी यह सन्देह करते हो कि इसे कोई इंसान गढ़ रहा है। क़ुरआन मजीद में कुछ दूसरे स्थानों पर भी यह विषय लगभग इन्हीं शब्दों में बयान किया गया है। देखिए सूरा-16 (नहल) आयत 2. सूरा-40 (मोमिन) आयत 15, सूरा-40 (शूरा) आयत 521] विद्वानों में से इन अब्बास रजि०, कतादा और हसन बसरी (रह०) ने भी यही व्याख्या स्वीकार की है और रूहुल मआनी के लेखक हसन और क़तादा का यह कथन नक़ल करते हैं कि रूह से तात्पर्य जिबील हैं और प्रश्न वास्तव में यह था कि वह कैसे उतरते हैं और किस तरह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के हृदय पर वह्य उतारी जाती है।
وَلَئِن شِئۡنَا لَنَذۡهَبَنَّ بِٱلَّذِيٓ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ ثُمَّ لَا تَجِدُ لَكَ بِهِۦ عَلَيۡنَا وَكِيلًا ۝ 85
(86) और ऐ नबी ! हम चाहें तो वह सब कुछ तुमसे छीन लें जो हमने वह्य के ज़रिये से तुमको दिया है, फिर तुम हमारे मुक़ाबले में कोई हिमायती न पाओगे जो उसे वापस दिला सके ।
إِلَّا رَحۡمَةٗ مِّن رَّبِّكَۚ إِنَّ فَضۡلَهُۥ كَانَ عَلَيۡكَ كَبِيرٗا ۝ 86
(87) यह तो जो कुछ तुम्हें मिला है, तुम्हारे रब की रहमत से मिला है, वास्तविकता यह है कि उसकी कृपा (मेहरबानी) तुमपर बहुत बड़ी है।104
104. सम्बोधन प्रत्यक्ष में तो नबी (सल्ल०) से है, मगर अभिप्रेत वास्तव में विरोधियों को सुनाना है कि यह वाणी पैग़म्बर ने नहीं गढ़ी बल्कि हमने प्रदान की है और अगर हम इसे छोन लें तो न पैग़म्बर को यह शक्ति है कि वह ऐसी वाणी लिखकर ला सके और न कोई दूसरी शक्ति ऐसी है जो उसको एक चमत्कारिक ग्रंथ प्रस्तुत करने के योग्य बना सके।
قُل لَّئِنِ ٱجۡتَمَعَتِ ٱلۡإِنسُ وَٱلۡجِنُّ عَلَىٰٓ أَن يَأۡتُواْ بِمِثۡلِ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ لَا يَأۡتُونَ بِمِثۡلِهِۦ وَلَوۡ كَانَ بَعۡضُهُمۡ لِبَعۡضٖ ظَهِيرٗا ۝ 87
(88) कह दो कि अगर इंसान और जिन्न, सब के सब मिलकर इस क़ुरआन जैसी कोई चीज़ लाने को कोशिश करें, तो न ला सकेंगे, चाहे वे सब एक-दूसरे के सहायक ही क्यों न हो।105
105. यह चुनौती क़ुरआन मजीद में चार और स्थानों पर दी गई है। सूरा-2 (बक़रा) आयत 23-24, सूरा-10 (यूनुस) आयत 38, सूरा-11, (हूद) आयत-13 सूरा-52 (तूर) आयत 33-34। इन सब स्थानों पर यह बात शत्रुओं के इस इलज़ाम के उत्तर में कही गई है कि मुहम्मद (सल्ल०) ने स्वयं यह क़ुरआन लिखा है और ख़ामख़ाह वे इसे अल्लाह की वाणी बनाकर प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ ही सूरा-10, यूनुस आयत 16 में इसी आरोप का खंडन करते हुए यह भी फ़रमाया गया, “ऐ मुहम्मद । इनसे कहो कि अगर अल्लाह ने यह न चाहा होता कि मैं यह क़ुरआन तुम्हें सुनाऊँ, तो मैं कदापि न सुना सकता था, बल्कि अल्लाह तुम्हें इसकी ख़बर तक न देता । आख़िर मैं तुम्हारे बीच एक उप गुजार चुका हूँ. क्या तुम इतना भी नहीं समझते।" इन आयतों में क़ुरआन के ईश वाणी होने का जो तर्क दिया गया है, वह वास्तव में तीन तकों का योग है-एक यह कि यह क़ुरआन अपनी भाषा, वर्णन-शैली, तर्क पद्धति, विषय-वार्ताओं, शिक्षाओं और परोक्ष की ख़बरों की दृष्टि से एक चमत्कार है जिसका उदाहरण लाना मानव सामर्थ्य से परे है। तुम कहते हो कि उसे एक इंसान ने गढ़ा है, मगर हम कहते हैं कि तमाम दुनिया के इंसान मिलकर भी इस शान की किताब की रचना नहीं कर सकते, बल्कि अगर वे जिन्न, जिन्हें मुश्किों ने अपना उपास्य बना रखा है और जिनके उपास्य होने पर यह किताब खुल्लम-खुल्ला चोट कर रही है, क़ुरआन के इंकारियों की सहायता पर इकट्ठे हो जाएँ, तो वे भी इनको इस योग्य नहीं बना सकते कि कुरआन जैसी श्रेष्ठ पुस्तक लिख करके इस चुनौती को रह कर सके। दूसरे यह कि मुहम्मद (सल्ल०) इस क़ुरआन के उतरने से पहले से भी चालीस साल तुम्हारे बीच रह चुके हैं। क्या पैग़म्बरी का दावा करने से एक दिन पहले भी कभी तुमने उनके मुख से इस तरह की वाणी और इन समस्याओं और विषयों पर सम्मिलित वाणी सुनी थी? अगर नहीं सुनी थी और यकीनन नहीं सुनी थी, तो क्या यह बात तुम्हारी समझ में आती है कि किसी व्यक्ति की भाषा, विचार, जानकारियां और वर्णन-शैली में यकायक ऐसा परिवर्तन हो सकता है ? तीसरे यह कि मुहम्मद (सल्ल०) के मुख से तुम क़ुरआन सुनते हो और दूसरी बातें भी और भाषण भी सुना करते हो। क़ुरआन की वाणी और मुहम्मद (सल्ल०) की अपनी वाणी में भाषा और शैली का इतना स्पष्ट अन्तर है कि भाषा और साहित्य का कोई भी निपुण आलोचक यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि ये दोनों एक ही व्यक्ति की वाणियाँ हो सकती हैं (अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-10, यूनुस, आयत 16 टिप्पणी 21 सहित)
وَلَقَدۡ صَرَّفۡنَا لِلنَّاسِ فِي هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ مِن كُلِّ مَثَلٖ فَأَبَىٰٓ أَكۡثَرُ ٱلنَّاسِ إِلَّا كُفُورٗا ۝ 88
(89) हमने इस कुरआन में लोगों को तरह-तरह से समझाया, मगर, अधिकतर लोग इंकार पर ही जमे रहे
وَقَالُواْ لَن نُّؤۡمِنَ لَكَ حَتَّىٰ تَفۡجُرَ لَنَا مِنَ ٱلۡأَرۡضِ يَنۢبُوعًا ۝ 89
(90) और उन्होंने कहा, "हम तेरी बात न मानेंगे, जब तक कि तू हमारे लिए धरती को फाइकर एक सोत प्रवाहित न कर दे
أَوۡ تَكُونَ لَكَ جَنَّةٞ مِّن نَّخِيلٖ وَعِنَبٖ فَتُفَجِّرَ ٱلۡأَنۡهَٰرَ خِلَٰلَهَا تَفۡجِيرًا ۝ 90
(91) या तेरे लिए खजूरों और अंगूरों का एक बाग़ पैदा हो और तू उसमें नहरें प्रवाहित कर दे
أَوۡ تُسۡقِطَ ٱلسَّمَآءَ كَمَا زَعَمۡتَ عَلَيۡنَا كِسَفًا أَوۡ تَأۡتِيَ بِٱللَّهِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ قَبِيلًا ۝ 91
(92) या तू आसमान को टुकड़े-टुकड़े करके हमारे ऊपर गिरा दे, जैसा कि तेरा दावा है। या अल्लाह और फ़रिश्तों को रू-ब-रू हमारे सामने ले आए
أَوۡ يَكُونَ لَكَ بَيۡتٞ مِّن زُخۡرُفٍ أَوۡ تَرۡقَىٰ فِي ٱلسَّمَآءِ وَلَن نُّؤۡمِنَ لِرُقِيِّكَ حَتَّىٰ تُنَزِّلَ عَلَيۡنَا كِتَٰبٗا نَّقۡرَؤُهُۥۗ قُلۡ سُبۡحَانَ رَبِّي هَلۡ كُنتُ إِلَّا بَشَرٗا رَّسُولٗا ۝ 92
(93) या तेरे लिए सोने का एक घर बन जाए, या तू आसमान पर चढ़ जाए और तेरे चढ़ने का भी हम विश्वास न करेंगे, जब तक कि तू हमारे ऊपर एक ऐसा लेखा न उतार लाए जिसे हम पढ़ें।"-ऐ नबी । इनसे कहो, "पाक है तेरा पालनहार, क्या मैं एक पैग़ाम लानेवाले इंसान के सिवा और भी कुछ हूँ?’’106
106. चमत्कार की माँग का एक उत्तर इससे पहले आयत 59 "और हमको निशानियां भेजने से नहीं रोका_" में गुज़र चुका है। अब यहाँ इसी माँग का दूसरा उत्तर दिया गया है। इस संक्षिप्त उत्तर की साहित्यिक आलंकारिक शैली प्रशंसा से परे है। [विरोधियों को विचित्र मांगों का उल्लेख करने के बाद उनको बस यह उत्तर देकर छोड़ दिया गया कि, "इनसे कहो, पाक है मेरा पालनहार ! क्या मैं एक पैग़ाम लानेवाले इंसान के सिवा भी कुछ हूँ?" अर्थात् मूर्यो ! क्या मैंने अल्लाह होने का दावा किया था कि तुम यह माँग मुझसे करने लगे? मैंने तुमसे कब कहा था कि मैं सर्वशक्तिमान हूँ? मैने कब कहा था कि ज़मीन व आसमान पर मेरा शासन चल रहा है? मेरा दावा तो पहले दिन से यही था कि मैं अल्लाह की ओर से पैग़ाम लानेवाला एक इंसान हूँ। तुम्हें जाँचना है तो मेरे पैशाम को जाँचो। ईमान लाना है तो इस पैग़ाम की सत्यता और यथार्थता देखकर ईमान लाओ। इंकार करना है तो इस पैग़ाम में कोई कमी निकालकर दिखाओ। यह सब कुछ छोड़कर तुम मुझसे यह क्या मांग करने लगे कि ज़मीन फाड़ो और आसमान गिराओ? आख़िर पैग़म्बरौ का इन कार्यों से क्या ताल्लुक है?
وَمَا مَنَعَ ٱلنَّاسَ أَن يُؤۡمِنُوٓاْ إِذۡ جَآءَهُمُ ٱلۡهُدَىٰٓ إِلَّآ أَن قَالُوٓاْ أَبَعَثَ ٱللَّهُ بَشَرٗا رَّسُولٗا ۝ 93
(94) लोगों के सामने जब कभी हिदायत आई तो उसपर ईमान लाने से उनको किसी चीज़ ने नहीं रोका मगर उनके इसी कथन ने कि "क्या अल्लाह ने इंसान को पैग़म्बर बनाकर भेज दिया?’’107
107. अर्थात् हर युग के अज्ञानी लोग इसी श्रम में रहे हैं कि इंसान कभी पैग़म्बर नहीं हो सकता। इसी लिए जब कोई रसूल आया तो उन्होंने यह देखकर कि खाता है, पीता है, बीवी-बच्चे रखता है, हाड़-मांस का बना हुआ है, निर्णय कर दिया कि यह पैग़म्बर नहीं है, इंसान है। और जब वह गुज़र गया तो एक समय बाद उसके श्रद्धालुओं में ऐसे लोग पैदा होने शुरू हो गए जो कहने लगे कि वह इंसान नहीं था, पैग़म्बर था। चुनांचे किसी ने उसको खुदा बनाया, किसी ने उसे खुदा का बेटा बनाया और किसी ने कहा कि ख़ुदा उसमें प्रवेश कर गया था। तात्पर्य यह कि इंसानी और पैग़म्बरी का एक साथ जमा होना अज्ञानियों के लिए सदा ही एक पहेली बना रहा।
قُل لَّوۡ كَانَ فِي ٱلۡأَرۡضِ مَلَٰٓئِكَةٞ يَمۡشُونَ مُطۡمَئِنِّينَ لَنَزَّلۡنَا عَلَيۡهِم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ مَلَكٗا رَّسُولٗا ۝ 94
(95) इनसे कहो, “अगर ज़मीन में फ़रिश्ते इतमीनान से चल-फिर रहे होते तो हम ज़रूर आसमान से किसी फ़रिश्ते ही को उनके लिए पैग़म्बर बनाकर भेजते।108
108. अर्थात् पैग़म्बर का काम केवल इतना ही नहीं है कि आकर पैग़ाम सुना दिया करे बल्कि, उसका काम यह भी है कि इस पैग़ाम के अनुसार मानव-जीवन का सुधार करे उसे मानवीय परिस्थितियों पर उस पैग़ाम के नियमों को चस्पा करना होता है। उसे स्वयं अपने जीवन में इन नियमों का व्यावहारिक प्रदर्शन करना होता है। उसे उन अगणित विभिन्न इंसानों के मन की गुत्थियाँ सुलझनी पड़ती हैं जो उसका पैग़ाम सुनने और समझने की कोशिश करते हैं। उसे माननेवालों को संगठित और प्रशिक्षित करना होता है, ताकि उस पैग़ाम की शिक्षाओं के अनुसार एक समाज अस्तित्व में आए। उसे इंकार और विरोध और अवरोध पैदा करनेवालों के मुकाबले में अथक-प्रयत्न करना होता है, ताकि बिगाड़ का समर्थन करनेवाली शक्तियों को नीचा दिखाया जाए और वह सुधार सामने आ सके जिसके लिए अल्लाह ने अपना पैग़म्बर भेजा है। ये सारे काम जबकि इंसानों ही में करने के हैं, तो उनके लिए इंसान नहीं तो और कौन भेजा जाता? फ़रिश्ता तो अधिक से अधिक बस यही करता कि आता और पैग़ाम पहुँचाकर चला जाता । इंसानों में इंसान की तरह रहकर इंसान के-से काम करना और फिर इंसानी ज़िदंगी में अल्लाह की इच्छा के अनुसार सुधार करके दिखा देना किसी फ़रिश्ते के बस का काम न था। इसके लिए तो एक इंसान ही उचित हो सकता था।
قُلۡ كَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدَۢا بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡۚ إِنَّهُۥ كَانَ بِعِبَادِهِۦ خَبِيرَۢا بَصِيرٗا ۝ 95
(96) ऐ नबी ! इनसे कह दो कि मेरे और तुम्हारे बीच बस एक अल्लाह की गवाही पर्याप्त है। वह अपने बन्दों के हाल की खबर रखता है और सब कुछ देख रहा है।109
109. अर्थात् जिस प्रकार से मैं तुम्हें समझा रहा हूँ और तुम्हारी स्थिति में सुधार के लिए प्रयत्न कर रहा हूँ, उसे भी अल्लाह जानता है। जो-जो कुछ तुम मेरे विरोध में कर रहे हो उसको भी अल्लाह देख रहा है। निर्णाय अन्ततः उसी को करना है, इसलिए बस उसी का जानना और देखना पर्याप्त है।
وَمَن يَهۡدِ ٱللَّهُ فَهُوَ ٱلۡمُهۡتَدِۖ وَمَن يُضۡلِلۡ فَلَن تَجِدَ لَهُمۡ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِهِۦۖ وَنَحۡشُرُهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ عَلَىٰ وُجُوهِهِمۡ عُمۡيٗا وَبُكۡمٗا وَصُمّٗاۖ مَّأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ كُلَّمَا خَبَتۡ زِدۡنَٰهُمۡ سَعِيرٗا ۝ 96
(97) जिसको अल्लाह रास्ता दिखाए वही रास्ता पानेवाला है और जिसे वह गुमराही में डाल दे, तो उसके सिवा ऐसे लोगों के लिए तू कोई समर्थक और सहायक नहीं पा सकता।110 उन लोगों को हम क़ियामत के दिन औंधे मुँह खींच लाएँगे, अंधे, गूंगे और बहरे।111 उनका ठिकाना जहन्नम है। जब कभी उसकी आग धीमी होने लगेगी, हम उसे और भड़का देंगे।
110. अर्थात् जिसकी पथभ्रष्टता और हठधर्मी के कारण अल्लाह ने उसे रास्ता दिखाने के दरवाजे बन्द कर दिए हों और जिसे अल्लाह ही ने इन पथभ्रष्टताओं की ओर धकेल दिया हो जिनकी ओर वह जाना चाहता था, तो अब और कौन है जो उसको सीधे रास्ते पर ला सके ? अल्लाह का यह नियम नहीं कि जो ख़ुद भटकना चाहे उसे ज़बरदस्ती रास्ता दिखाए, और किसी दूसरी हस्ती में यह शक्ति नहीं कि लोगों के दिल बदल दे।
111. अर्थात् जैसे वे दुनिया में बनकर रहे कि न सत्य देखते थे, न ही सत्य सुनते थे और न ही सत्य बोलते थे, वैसे ही वे क़ियामत में उठाए जाएँगे।
ذَٰلِكَ جَزَآؤُهُم بِأَنَّهُمۡ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَقَالُوٓاْ أَءِذَا كُنَّا عِظَٰمٗا وَرُفَٰتًا أَءِنَّا لَمَبۡعُوثُونَ خَلۡقٗا جَدِيدًا ۝ 97
(98) यह बदला है उनकी उस हरकत का कि उन्होंने हमारी आयतों का इंकार किया और कहा, “क्या जब हम सिर्फ़ हड्डियाँ और मिट्टी होकर रह जाएँगे तो नए सिरे से हमको पैदा करके उठा खड़ा किया जाएगा?"
۞أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّ ٱللَّهَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ قَادِرٌ عَلَىٰٓ أَن يَخۡلُقَ مِثۡلَهُمۡ وَجَعَلَ لَهُمۡ أَجَلٗا لَّا رَيۡبَ فِيهِ فَأَبَى ٱلظَّٰلِمُونَ إِلَّا كُفُورٗا ۝ 98
(99) क्या उनको यह न सूझा कि जिस अल्लाह ने जमीन और आसमानों को पैदा किया है, वह इन जैसों को पैदा करने की शक्ति अवश्य ही रखता है ? उसने इनके हश्र के लिए एक समय निश्चित कर रखा है जिसका आना निश्चित है, मगर ज़ालिमों का आग्रह है कि वे इसका इंकार ही करेंगे।
قُل لَّوۡ أَنتُمۡ تَمۡلِكُونَ خَزَآئِنَ رَحۡمَةِ رَبِّيٓ إِذٗا لَّأَمۡسَكۡتُمۡ خَشۡيَةَ ٱلۡإِنفَاقِۚ وَكَانَ ٱلۡإِنسَٰنُ قَتُورٗا ۝ 99
(100) ऐ नबी ! इनसे कहो, “अगर कहीं मेरे रब की रहमत के खजाने तुम्हारे कब्जे में होते तो तुम ख़र्च हो जाने के डर से अवश्य ही उनको रोक रखते ।" वास्तव में इंसान बड़ा तंगदिल है।112
112. यह संकेत उसी विषय की ओर है जो इससे पहले रुकूअ 6 की आयत 55 में आ चुका है। मक्का के मुशिक जिन मनोवैज्ञानिक कारणों से नबी (सल्ल०) को पैग़म्बरी का इंकार करते थे, उनमें से एक महत्वपूर्ण कारण यह था कि इस प्रकार उन्हें आपकी महत्ता व महानता माननी पड़ती थी और अपने किसी समकालीन और अपने ही जैसे किसी व्यक्ति की महानता स्वीकार करने के लिए इंसान बड़ी कठिनाई से तैयार हुआ करता है। इसी पर फरमाया जा रहा है कि जिन लोगों को कंजूसी का हाल यह है कि किसी के वास्तविक पद को स्वीकार करते हुए भी उनका दिल दुखता है, उन्हें अगर कहीं अल्लाह ने अपनी रहमत के खज़ानों की कुंजियाँ हवाले कर दी होती तो वे किसी को फुटी कौड़ी भी न देते।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَىٰ تِسۡعَ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖۖ فَسۡـَٔلۡ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ إِذۡ جَآءَهُمۡ فَقَالَ لَهُۥ فِرۡعَوۡنُ إِنِّي لَأَظُنُّكَ يَٰمُوسَىٰ مَسۡحُورٗا ۝ 100
(101) हमने मूसा को नौ निशानियाँ दी थीं जो स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थी।113 अब यह तुम स्वयं बनी इसराईल से पूछ लो कि जब मूसा उनके यहाँ आए तो फ़िरऔन ने यही कहा था न कि “ऐ मूसा ! मैं समझता हूँ कि तू अवश्य ही एक जादू का मारा आदमी है।114
113. स्पष्ट रहे कि यहाँ फिर मक्का के विधर्मियों के चमत्कारों को माँगों का उत्तर दिया गया है और यह तीसरा उत्तर है। विधर्मी कहते थे कि हम तुमपर ईमान न लाएँगे, जब तक तुम यह और यह काम करके न दिखाओ। उत्तर में उनसे कहा जा रहा है कि तुमसे पहले फ़िरऔन को ऐसे ही खुले चमत्कार, एक दो नहीं, निरन्तर दिखाए गए थे। फिर तुम्हें मालूम है कि जो न मानना चाहता था उसने उन्हें देखकर क्या कहा? और यह भी ख़बर है कि जब उसने चमत्कारों को देखकर भी नबी को झुठलाया तो उसका अंजाम क्या हुआ? उन नौ निशानियों का विवरण जिनका यहाँ उल्लेख किया गया है इससे पहले सूरा-7 (आराफ़) में गुज़र चुका है।
114. यह वही उपाधि है जो मक्का के मुश्कि नबी (सल्ल०) को दिया करते थे। इसी सूरा की आयत 47 में उनका यह कथन आ चुका है कि "तुम तो एक जादू के मारे आदमी के पीछे चले जा रहे हो।" अब उनको बताया जा रहा है कि ठीक यही उपाधि फ़िरऔन ने मूसा (अलैहि०) को प्रदान की थी। इस स्थान पर एक गौण बात और भी है जिसकी ओर हम संकेत कर देना ज़रूरी समझते हैं। वर्तमान समय में हदीस के इंकारियों ने हदीसों पर आपत्तियां की हैं, उनमें से एक आपत्ति यह है कि हदीस के अनुसार एक बार नबी (सल्ल०) पर जादू का प्रभाव हो गया था, हालांकि क़ुरआन के अनुसार विधर्मियों का नबी (सल्ल०) पर यह झूठा आरोप था कि आप जादू के मारे इंसान हैं। हदीस का इंकार करनेवाले कहते हैं कि इस तरह हदीस की रिवायत करनेवालों ने क़ुरआन को झुठलाया और मक्का के विधर्मियों की पुष्टि की है। लेकिन यहाँ देखिए कि ठीक इसी प्रकार कुरआन के अनुसार हज़रत मूसा पर भी फ़िरऔन का यह झूठा आरोप था कि आप एक जादू के मारे हुए आदमी हैं, और फिर क़ुरआन स्वयं ही सूरा-20 (ताहा) में कहता है कि “जब जादूगरों ने अपने अक्षर फेंके तो यकायक उनके जादू से मूसा को यह महसूस होने लाग कि उनकी लाठियाँ और रस्सियाँ दौड़ रही हैं। अतः मूसा अपने दिल में डर-सा गया। क्या ये शब्द स्पष्ट रूप से इस बात का प्रमाण नहीं प्रस्तुत कर रहे हैं कि हज़रत मूसा उस समय जादू से प्रभावित हो गये थे? और क्या इसके बारे में भी हदीस के इंकार करनेवाले यह कहने के लिए तैयार हैं कि यहाँ क़ुरआन ने स्वयं अपने को झुठलाया है और फ़िरऔन के झूठे आरोप की पुष्टि की है? –वास्तव में इस प्रकार की आपत्तियाँ करनेवालों को यह मालूम नहीं है कि मक्का के विधर्मी और फ़िरऔन किस अर्थ में नबी (सल्ल०) और हज़रत मूसा (अलैहि०) को जादू से प्रभावित कहते थे। उनका तात्पर्य यह था कि किसी दुश्मन ने जादू करके उनको दीवाना बना दिया है और इसी दीवानेपन के प्रभाव से यह नुबूवत का दावा करते और एक अनोखा सन्देश सुनाते हैं। कुरआन उनके इसी आरोप को झूठा करार देता है। रहा सामयिक रूप से किसी व्यक्ति के शरीर या शरीर को किसी इन्द्रिय का जादू से प्रभावित हो जाना, तो यह बिल्कुल ऐसा ही है जैसे किसी आदमी को पत्थर मारने से चोट लग जाए। इस चीज़ का न विधर्मियों ने आरोप लगाया था, न क़ुरआन ने इसका खंडन किया और न इस तरह के किसी क्षणिक प्रभाव से नबी के पद पर कोई आँच आती है। नबी पर अगर विष का प्रभाव हो सकता था, नबी अगर घायल हो सकता था, तो उस पर जादू का प्रभाव भी हो सकता था, इससे नुबूवत के पद पर आँच आने का कारण क्या हो सकता है। नुबूवत पद में अगर कोई रुकावट हो सकती है तो यह बात कि नबी की मानसिक और बौद्धिक शक्तियाँ जादू से प्रभावित हो जाएँ, यहाँ तक कि उसका कर्म और उसकी वाणी सब जादू ही के प्रभाव में होने लगे। सत्य के विरोधी हज़रत मूसा (अलैहि०) और नबी (सल्ल०) पर यही आरोप लगाते थे और इसी का क़ुरआन ने खंडन किया है।
قَالَ لَقَدۡ عَلِمۡتَ مَآ أَنزَلَ هَٰٓؤُلَآءِ إِلَّا رَبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ بَصَآئِرَ وَإِنِّي لَأَظُنُّكَ يَٰفِرۡعَوۡنُ مَثۡبُورٗا ۝ 101
(102) मूसा ने उसके उत्तर में कहा, “तू खूब जानता है कि ये सूझबूझ बढ़ानेवाली निशानियाँ ज़मीन और आसमानों के रब के सिवा किसी ने नहीं उतारी हैं115, और मेरा विचार यह है कि ऐ फ़िरऔन ! तू अवश्य ही शामत का मारा हुआ एक आदमी है।"116
115. यह बात हज़रत मूसा (अलैहि०) ने इसलिए फ़रमाई कि एक पूरे देश में अकाल पड़ जाना और लाखों वर्ग मोल में फैले हुए क्षेत्र में मेंढकों का एक बला की तरह निकलना या तमाम देश के अन्न-भडांरों में घुन लग जाना और ऐसी ही दूसरी सामान्य विपदाएँ किसी जादूगर के जादू या किसी इंसानी ताकत के करतब से नहीं पैदा हो सकतीं । जादूगर केवल एक सीमा में एक मजे की निगाहों पर जादू करके उन्हें कुछ करिश्मे दिखा सकता है और वे भी वास्तविक नहीं होते, बल्कि नज़र का धोखा होते हैं। फिर जब कि हर बला के उतरने से पहले हज़रत मूसा (अलैहि०) फ़िरऔन को नोटिस देते थे कि अगर तू अपनी हठ से बाज़ न आया तो यह बला तेरे राज्य पर मुसल्लत की जाएगी, और ठीक बयान के अनुसार वही बला पूरे राज्य पर आ जाती थी, तो इस रूप में केवल एक दीवाना या एक कट्टर हठधर्म आदमी ही यह कह सकता था कि इन बलाओं का उतरना आसमानों और ज़मीन के रब के सिवा किसी और के कर्म के परिणाम हैं।
116. अर्थात् मैं तो जादू का मारा नहीं हूँ, मगर तू जरूर शामत का मारा है। तेरा इन ईश्वरीय निशानियों के बार-बार देखने के बाद भी अपनी हठ पर जमा रहना साफ़ बता रहा है कि तेरी शामत आ गई है।
فَأَرَادَ أَن يَسۡتَفِزَّهُم مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ فَأَغۡرَقۡنَٰهُ وَمَن مَّعَهُۥ جَمِيعٗا ۝ 102
(103) अन्तत: फ़िरऔन ने इरादा किया कि मूसा और बनी इसराईल को ज़मीन से उखाड़ फेंके, मगर हमने उसको और उसके साथियों को इकट्ठा डुबो दिया
وَقُلۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِۦ لِبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱسۡكُنُواْ ٱلۡأَرۡضَ فَإِذَا جَآءَ وَعۡدُ ٱلۡأٓخِرَةِ جِئۡنَا بِكُمۡ لَفِيفٗا ۝ 103
(104) और इसके बाद बनी इसराईल से कहा कि अब तुम जमीन में बसो117, फिर जब आख़िरत के वादे का समय पूरा होगा तो हम तुम सबको एक साथ ला हाजिर करेंगे।
117. यह है वास्तविक तात्पर्य इस किस्से के बयान करने का। मक्का के मुशिक इस चिन्ता में थे कि मुसलमानों को और नबी (सल्ल०) को अरब की धरती से मिटा दें। इसपर उन्हें यह सुनाया जा रहा है कि यही कुछ फ़िरऔन ने मूसा (अलैहि०) और बनी इसराईल के साथ करना चाहा था, मगर हुआ यह कि फ़िरऔन और उसके साथी मिटा दिए गए और ज़मीन पर मूसा (अलैहि०) और मूसा (अलैहि०) का अनुपालन करनेवाले बसाए गए। अब अगर इसी रवैये पर तुम चलोगे तो तुम्हारा अंजाम इससे कुछ भिन्न न होगा।
وَبِٱلۡحَقِّ أَنزَلۡنَٰهُ وَبِٱلۡحَقِّ نَزَلَۗ وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ إِلَّا مُبَشِّرٗا وَنَذِيرٗا ۝ 104
(105) इस क़ुरआन को हमने सत्य के साथ उतारा है और सत्य ही के साथ यह उतरा है, और ऐ नबी ! तुम्हें हमने इसके सिवा और किसी काम के लिए नहीं भेजा कि (जो मान ले उसे) शुभ-सूचना दे दो और (जो न माने उसे) सचेत कर दो।118
118. अर्थात् तुम्हारे ज़िम्मे यह काम नहीं किया गया है कि जो लोग क़ुरआन की शिक्षाओं को जाँच कर सत्य और असत्य का निर्णय करने के लिए तैयार नहीं हैं, उनको तुम स्रोत निकालकर और बाग़ उगाकर और आसमान फाड़कर किसी न किसी तरह ईमानवाला बनाने की कोशिश करो, बल्कि तुम्हारा काम केवल यह है कि लोगों के सामने सत्य बात रख दो और फिर उन्हें साफ़-साफ़ कह दो कि जो उसे मानेगा, वह अपना ही भला करेगा और जो न मानेगा, वह बुरा अंजाम देखेगा।
وَقُرۡءَانٗا فَرَقۡنَٰهُ لِتَقۡرَأَهُۥ عَلَى ٱلنَّاسِ عَلَىٰ مُكۡثٖ وَنَزَّلۡنَٰهُ تَنزِيلٗا ۝ 105
(106) और इस क़ुरआन को हमने थोड़ा-थोड़ा करके उतारा है, ताकि तुम ठहर-ठहरकर इसे लोगों को सुनाओ, और इसे हमने (मौक़े-मौक़े से) क्रमश: उतारा है।119
119. यह विरोधियों के इस सन्देह का उत्तर है कि अल्लाह को सन्देश भेजना था तो पूरा सन्देश एक ही समय क्यों न भेज दिया, यह आख़िर ठहर-ठहर कर थोड़ा-थोड़ा सन्देश क्यों भेजा जा रहा है? क्या अल्लाह को भी इंसानों की तरह सोच-सोचकर बात करने की ज़रूरत पेश आती है ? (इस सन्देह के विस्तृत उत्तर के लिए देखिए सूरा-16 नहल, टिपणी 103-107)
قُلۡ ءَامِنُواْ بِهِۦٓ أَوۡ لَا تُؤۡمِنُوٓاْۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ مِن قَبۡلِهِۦٓ إِذَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ يَخِرُّونَۤ لِلۡأَذۡقَانِۤ سُجَّدٗاۤ ۝ 106
(107) ऐ नबी ! उन लोगों से कह दो कि तुम इसे मानो या न मानो, जिन लोगों को इससे पहले ज्ञान दिया गया है120 उन्हें जब यह सुनाया जाता है तो वे मुँह के अल सजदे में गिर जाते हैं
120. अर्थात् वे अहले किताब जो आसमानी किताबों की शिक्षाओं को जानते हैं और उनकी वर्णन-शैली को पहचानते हैं।
وَيَقُولُونَ سُبۡحَٰنَ رَبِّنَآ إِن كَانَ وَعۡدُ رَبِّنَا لَمَفۡعُولٗا ۝ 107
(108) और पुकार उठते है, "पाक है हमारा रब | उसका वादा तो पूरा होना ही था।‘’121
121. अर्थात् क़ुरआन को सुनकर वे तुरन्त समझ जाते हैं कि जिस नबी के आने का वादा पिछले नबियों को किताबों में किया गया था वह आ गया है।
وَيَخِرُّونَ لِلۡأَذۡقَانِ يَبۡكُونَ وَيَزِيدُهُمۡ خُشُوعٗا۩ ۝ 108
(109) और वे मुंह के बल रोते हुए गिर जाते हैं और उसे सुनकर उनकी विनम्रता और बढ़ जाती है।122
122. अह्ले किताब के को भले लोगों के इस रवैए का उल्लेख क़ुरआन मजीद में कई स्थानों पर किया गया। जैसे सूरा-3 (आले इमरान) आयत 113-115, 199 और सूरा-5 (अल माइदा) आयत 82-85,
قُلِ ٱدۡعُواْ ٱللَّهَ أَوِ ٱدۡعُواْ ٱلرَّحۡمَٰنَۖ أَيّٗا مَّا تَدۡعُواْ فَلَهُ ٱلۡأَسۡمَآءُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ وَلَا تَجۡهَرۡ بِصَلَاتِكَ وَلَا تُخَافِتۡ بِهَا وَٱبۡتَغِ بَيۡنَ ذَٰلِكَ سَبِيلٗا ۝ 109
(110) ऐ नबी ! इनसे कहो, “अल्लाह कहकर पुकारो या रहमान कहकर, जिस नाम से भी पुकारो उसके लिए सब अच्छे ही नाम है।"123 और अपनी नमाज़ न अधिक ऊँची आवाज़ से पढ़ो और न अधिक धीमी आवाज़ से, इन दोनों के बीच औसत दर्जे का लहजा (स्वर) अपनाओ।124
123. यह उत्तर है मक्का के मुश्किों की इस आपत्ति का कि पैदा करनेवाले के लिए 'अल्लाह' का नाम तो हमने सुना था, मगर यह 'रहमान' का नाम तुमने कहाँ से निकाला ? उनके यहाँ चूँकि अल्लाह के लिए यह नाम राइज़ नहीं था, इसलिए वे इस पर नाक-भौं चढ़ाते थे।
124. इब्ने अब्बास (रजि०) का बयान है कि मक्का में जब नबी (सल्ल०) या दूसरे सहाबा नमाज़ पढ़ते समय ऊँची आवज़ से क़ुरआन पढ़ते थे तो विधर्मी शोर मचाने लगते और कभी-कभी गालियों की बौछार शुरू कर देते थे। इस पर आदेश हुआ कि न तो इतने ज़ोर से पढ़ो कि विधर्मी सुनकर टूट पड़ें और न इतने धीमे से पढ़ो कि तुम्हारे अपने साथी भी सुन न सकें। यह आदेश केवल उन्हीं परिस्थितियों के लिए था। मदीने में जब परिस्थितियाँ बदल गई तो यह आदेश बाक़ी न रहा। अलबत्ता जब कभी मुसलमानों को मक्का जैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़े, उन्हें इसी आदेश के अनुसार अमल करना चाहिए।
وَقُلِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي لَمۡ يَتَّخِذۡ وَلَدٗا وَلَمۡ يَكُن لَّهُۥ شَرِيكٞ فِي ٱلۡمُلۡكِ وَلَمۡ يَكُن لَّهُۥ وَلِيّٞ مِّنَ ٱلذُّلِّۖ وَكَبِّرۡهُ تَكۡبِيرَۢا ۝ 110
(111) और कहो, “प्रशंसा है उस अल्लाह के लिए जिसने न किसी को बेटा बनाया, न कोई बादशाही में उसका शरीक है और न ही वह बेबस है कि कोई उसका सहारा हो।125 और उसकी बड़ाई बयान करो, उच्च कोटि की बड़ाई।"
125. इस वाक्य में एक सुक्ष्म व्यंग्य है इन मुश्रिकों के विश्वासों पर जो अलग-अलग देवताओं और बुज़ुर्ग इंसानों (महात्माओं) के बारे में यह समझते हैं कि अल्लाह ने अपने ईश्वरत्व के अलग-अलग विभागों या अपने साम्राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों को उनके प्रबंन्ध में दे रखा है। इस निरर्थक विश्वास का स्पष्ट अर्थ यह है कि अल्लाह स्वयं अपने ईश्वरत्व का भार संभालने में बेबस है इसलिए वह अपने सहयोगी खोज रहा है। इसी आधार पर फ़रमाया गया कि अल्लाह बेबस नहीं है कि उसे कुछ डिपटियों और सहायकों को ज़रूरत हो।'