(255) अल्लाह, वह शाश्वत जीवंत-सत्ता, जो समूची सृष्टि को सँभाले हुए है, उसके सिवा कोई खुदा नहीं है।278 वह न सोता है और न उसे ऊँघ लगती है।279 ज़मीन और आसमानों में जो कुछ है, उसी का है।280 कौन है जो उसके यहाँ उसकी अनुमति के बिना सिफ़ारिश कर सके?281 जो कुछ बन्दों के सामने है, उसे भी वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है, उसे भी वह जानता है और उसके ज्ञान में से कोई चीज़ उनकी पकड़ में नहीं आ सकती, सिवाय इसके किकिसी चीज का ज्ञान वह स्वयं ही उनको देना चाहे।282 उसकी हुकूमत (शासना)283 आसमानों और जमीन पर काई हुई है और उनकी सुरक्षा (देखभाला उसके लिए कोई थका देनेवाला काम नहीं है। बस वही एक महान और सर्वोपरि सत्ता है।284
278.अर्थात् नादान लोगों ने अपनी जगह चाहे कितने ही ख़ुदा और उपास्य बना रखे हों, लेकिन सच्ची बात यह है कि ख़ुदाई पूरी की पूरी बिना किसी की शिर्कत के उस शाश्वत सत्ता की है जो किसी के दिए हुए जीवन से नहीं, बल्कि आप अपने ही जीवन से जीवित है और जिसके बलबूते पर ही सृष्टि की यह सारी व्यवस्था स्थित है। अपने साम्राज्य में प्रभुत्व के तमाम अधिकारों का स्वामी वह स्वयं ही है। कोई दूसरा न उसके गुणों में उसका साझी है,न उसके अधिकारों में और न उसके हक़ों में । इसलिए उसको छोड़कर या उसके साथ साझी ठहराकर ज़मीन या आसमान में जहाँ भी किसी और को उपास्य (खुदा) बनाया जा रहा है, एक झूठ गढ़ा जा रहा है और सच्चाई के विरुद्ध लड़ाई लड़ी जा रही है।
279.यह उन लोगों के विचारों का खंडन है जो सर्व जगत् के स्वामी की सत्ता को अपनी त्रुटिपूर्ण हस्तियों पर अनुमान करते हैं और उसकी ओर वे कमजोरियाँ जोड़ देते हैं जो इंसानों के साथ खास हैं। जैसे बाइबल का यह बयान कि ख़ुदा ने छः दिन में ज़मीन व आसमान को पैदा किया और सातवें दिन आराम किया।
283.मूल अरबी शब्द 'कुर्सी प्रयुक्त हुआ है, जिसे आम तौर से हुकूमत और सत्ता के लिए इस्तेमाल किया जाता है। उर्दू और हिन्दी भाषा में भी प्रायः कुर्सी कहकर शासनाधिकार समझा जाता है।
284.यह आयत 'आयतुल कुर्सी के नाम से प्रसिद्ध है और इसमें अल्लाह की ऐसी मुकम्मल मारफ़त (विशिष्टतापूर्ण पहचान) प्रदान की गई है जिसका उदाहरण कहीं नहीं मिलता। इसी कारण हदीस में इसको कुरआन की सर्वश्रेष्ठ आयत बनाया गया है। इस जगह यह प्रश्न पैदा होता है कि यहाँ अल्लाह की ज़ात और सिफ़ात (गुणों) का उल्लेख किस ताल्लुक से हुआ है। इसको समझने के लिए एक बार फिर उस व्याख्यान पर निगाह डाल लीजिए जो स्कूज 32 (आयत 243) से चला आ रहा है। पहले मुसलमानों को सच्चे दोन को कायम करने के रास्ते में जान व माल से जिहाद करने पर उकसाया गया है और उन कमजोरियों से बचने की ताकीद की गई है जिनके शिकार बनी इसराईल हो चुके थे। फिर यह वास्तविकता समझाई गई है कि जीत और सफलता का आश्रय तादाद और साधन-सामग्री की अधिकता पर नहीं होता, बल्कि ईमान, धैर्य, अनुशासन और दढ निश्चय के आधार पर होता है। फिर लड़ाई के साथ अल्लाह की जो तत्वदर्शिता जुड़ी हुई है उसकी ओर संकेत किया गया है, अर्थात यह कि सृष्टि की व्यवस्था बाकी रखने के लिए वह हमेशा इंसानों के एक गिरोह को दूसरे गिरोह के द्वारा हटाता रहता है, वरना अगर एक ही गिरोह को सत्ता व अधिकार का हमेशा का पट्टा मिल जाता तो दूसरों के लिए जीना भी दूभर हो जाता। फिर इस शंका को दूर किया गया है जो अनजान लोगों के दिलों में प्रायः खटकता है कि अगर अल्लाह ने अपने पैग़म्बर मतभेदों को मिटाने और झगड़ों का दरवाजा बन्द करने के लिए ही भेजे थे और उनके आने के बाद भी विरोध और विभेद न मिटे, न झगड़े दूर हुए, तो क्या अल्लाह इतना विवश था कि उसने इन खराबियों को दूर करना चाहा और न कर सका। इसके उत्तर में बताया गया कि विभेदों को ताकत से रोक देना और मानवजाति को एक विशेष मार्ग पर जबरदस्ती चलाना अल्लाह चाहता ही नहीं था वरना इंसान की क्या मजाल थी कि उसके चाहने के विरुद्ध चलता। फिर एक वाक्य में उस मूल विषय की ओर संकेत कर दिया गया जिससे भाषण की शुरुआत हुई थी। इसके बाद अब यह कहा जा रहा है कि इंसानों की धारणाएँ, मत, पंथ और मज़ाहिब भले ही बहुत ज़्यादा अलग-अलग हों, बहरहाल सच्चाई जिसपर जमीन व आसमान को व्यवस्था चल रही है, यह है जिसका इस आयत में उल्लेख किया गया है। इंसानों की ग़लतफ़हमियों से तनिक भी इस सच्चाई में कोई अन्तर नहीं आता, मगर अल्लाह यह नहीं चाहता कि उसके मानने पर ज़बरदस्ती लोगों को मजबूर किया जाए । जो उसे मान लेगा, वह स्वयं ही लाभ में रहेगा और जो उससे मुंह फेरेगा, वह आप अपना नुकसान उठाएगा।
284.यह आयत 'आयतुल कुर्सी के नाम से प्रसिद्ध है और इसमें अल्लाह की ऐसी मुकम्मल मारफ़त (विशिष्टतापूर्ण पहचान) प्रदान की गई है जिसका उदाहरण कहीं नहीं मिलता। इसी कारण हदीस में इसको कुरआन की सर्वश्रेष्ठ आयत बनाया गया है। इस जगह यह प्रश्न पैदा होता है कि यहाँ अल्लाह की ज़ात और सिफ़ात (गुणों) का उल्लेख किस ताल्लुक से हुआ है। इसको समझने के लिए एक बार फिर उस व्याख्यान पर निगाह डाल लीजिए जो स्कूज 32 (आयत 243) से चला आ रहा है। पहले मुसलमानों को सच्चे दोन को कायम करने के रास्ते में जान व माल से जिहाद करने पर उकसाया गया है और उन कमजोरियों से बचने की ताकीद की गई है जिनके शिकार बनी इसराईल हो चुके थे। फिर यह वास्तविकता समझाई गई है कि जीत और सफलता का आश्रय तादाद और साधन-सामग्री की अधिकता पर नहीं होता, बल्कि ईमान, धैर्य, अनुशासन और दढ निश्चय के आधार पर होता है। फिर लड़ाई के साथ अल्लाह की जो तत्वदर्शिता जुड़ी हुई है उसकी ओर संकेत किया गया है, अर्थात यह कि सृष्टि की व्यवस्था बाकी रखने के लिए वह हमेशा इंसानों के एक गिरोह को दूसरे गिरोह के द्वारा हटाता रहता है, वरना अगर एक ही गिरोह को सत्ता व अधिकार का हमेशा का पट्टा मिल जाता तो दूसरों के लिए जीना भी दूभर हो जाता। फिर इस शंका को दूर किया गया है जो अनजान लोगों के दिलों में प्रायः खटकता है कि अगर अल्लाह ने अपने पैग़म्बर मतभेदों को मिटाने और झगड़ों का दरवाजा बन्द करने के लिए ही भेजे थे और उनके आने के बाद भी विरोध और विभेद न मिटे, न झगड़े दूर हुए, तो क्या अल्लाह इतना विवश था कि उसने इन खराबियों को दूर करना चाहा और न कर सका। इसके उत्तर में बताया गया कि विभेदों को ताकत से रोक देना और मानवजाति को एक विशेष मार्ग पर जबरदस्ती चलाना अल्लाह चाहता ही नहीं था वरना इंसान की क्या मजाल थी कि उसके चाहने के विरुद्ध चलता। फिर एक वाक्य में उस मूल विषय की ओर संकेत कर दिया गया जिससे भाषण की शुरुआत हुई थी। इसके बाद अब यह कहा जा रहा है कि इंसानों की धारणाएँ, मत, पंथ और मज़ाहिब भले ही बहुत ज़्यादा अलग-अलग हों, बहरहाल सच्चाई जिसपर जमीन व आसमान को व्यवस्था चल रही है, यह है जिसका इस आयत में उल्लेख किया गया है। इंसानों की ग़लतफ़हमियों से तनिक भी इस सच्चाई में कोई अन्तर नहीं आता, मगर अल्लाह यह नहीं चाहता कि उसके मानने पर ज़बरदस्ती लोगों को मजबूर किया जाए । जो उसे मान लेगा, वह स्वयं ही लाभ में रहेगा और जो उससे मुंह फेरेगा, वह आप अपना नुकसान उठाएगा।
284.यह आयत 'आयतुल कुर्सी के नाम से प्रसिद्ध है और इसमें अल्लाह की ऐसी मुकम्मल मारफ़त (विशिष्टतापूर्ण पहचान) प्रदान की गई है जिसका उदाहरण कहीं नहीं मिलता। इसी कारण हदीस में इसको कुरआन की सर्वश्रेष्ठ आयत बनाया गया है। इस जगह यह प्रश्न पैदा होता है कि यहाँ अल्लाह की ज़ात और सिफ़ात (गुणों) का उल्लेख किस ताल्लुक से हुआ है। इसको समझने के लिए एक बार फिर उस व्याख्यान पर निगाह डाल लीजिए जो स्कूज 32 (आयत 243) से चला आ रहा है। पहले मुसलमानों को सच्चे दोन को कायम करने के रास्ते में जान व माल से जिहाद करने पर उकसाया गया है और उन कमजोरियों से बचने की ताकीद की गई है जिनके शिकार बनी इसराईल हो चुके थे। फिर यह वास्तविकता समझाई गई है कि जीत और सफलता का आश्रय तादाद और साधन-सामग्री की अधिकता पर नहीं होता, बल्कि ईमान, धैर्य, अनुशासन और दढ निश्चय के आधार पर होता है। फिर लड़ाई के साथ अल्लाह की जो तत्वदर्शिता जुड़ी हुई है उसकी ओर संकेत किया गया है, अर्थात यह कि सृष्टि की व्यवस्था बाकी रखने के लिए वह हमेशा इंसानों के एक गिरोह को दूसरे गिरोह के द्वारा हटाता रहता है, वरना अगर एक ही गिरोह को सत्ता व अधिकार का हमेशा का पट्टा मिल जाता तो दूसरों के लिए जीना भी दूभर हो जाता। फिर इस शंका को दूर किया गया है जो अनजान लोगों के दिलों में प्रायः खटकता है कि अगर अल्लाह ने अपने पैग़म्बर मतभेदों को मिटाने और झगड़ों का दरवाजा बन्द करने के लिए ही भेजे थे और उनके आने के बाद भी विरोध और विभेद न मिटे, न झगड़े दूर हुए, तो क्या अल्लाह इतना विवश था कि उसने इन खराबियों को दूर करना चाहा और न कर सका। इसके उत्तर में बताया गया कि विभेदों को ताकत से रोक देना और मानवजाति को एक विशेष मार्ग पर जबरदस्ती चलाना अल्लाह चाहता ही नहीं था वरना इंसान की क्या मजाल थी कि उसके चाहने के विरुद्ध चलता। फिर एक वाक्य में उस मूल विषय की ओर संकेत कर दिया गया जिससे भाषण की शुरुआत हुई थी। इसके बाद अब यह कहा जा रहा है कि इंसानों की धारणाएँ, मत, पंथ और मज़ाहिब भले ही बहुत ज़्यादा अलग-अलग हों, बहरहाल सच्चाई जिसपर जमीन व आसमान को व्यवस्था चल रही है, यह है जिसका इस आयत में उल्लेख किया गया है। इंसानों की ग़लतफ़हमियों से तनिक भी इस सच्चाई में कोई अन्तर नहीं आता, मगर अल्लाह यह नहीं चाहता कि उसके मानने पर ज़बरदस्ती लोगों को मजबूर किया जाए । जो उसे मान लेगा, वह स्वयं ही लाभ में रहेगा और जो उससे मुंह फेरेगा, वह आप अपना नुकसान उठाएगा।
284.यह आयत 'आयतुल कुर्सी के नाम से प्रसिद्ध है और इसमें अल्लाह की ऐसी मुकम्मल मारफ़त (विशिष्टतापूर्ण पहचान) प्रदान की गई है जिसका उदाहरण कहीं नहीं मिलता। इसी कारण हदीस में इसको कुरआन की सर्वश्रेष्ठ आयत बनाया गया है। इस जगह यह प्रश्न पैदा होता है कि यहाँ अल्लाह की ज़ात और सिफ़ात (गुणों) का उल्लेख किस ताल्लुक से हुआ है। इसको समझने के लिए एक बार फिर उस व्याख्यान पर निगाह डाल लीजिए जो स्कूज 32 (आयत 243) से चला आ रहा है। पहले मुसलमानों को सच्चे दोन को कायम करने के रास्ते में जान व माल से जिहाद करने पर उकसाया गया है और उन कमजोरियों से बचने की ताकीद की गई है जिनके शिकार बनी इसराईल हो चुके थे। फिर यह वास्तविकता समझाई गई है कि जीत और सफलता का आश्रय तादाद और साधन-सामग्री की अधिकता पर नहीं होता, बल्कि ईमान, धैर्य, अनुशासन और दढ निश्चय के आधार पर होता है। फिर लड़ाई के साथ अल्लाह की जो तत्वदर्शिता जुड़ी हुई है उसकी ओर संकेत किया गया है, अर्थात यह कि सृष्टि की व्यवस्था बाकी रखने के लिए वह हमेशा इंसानों के एक गिरोह को दूसरे गिरोह के द्वारा हटाता रहता है, वरना अगर एक ही गिरोह को सत्ता व अधिकार का हमेशा का पट्टा मिल जाता तो दूसरों के लिए जीना भी दूभर हो जाता। फिर इस शंका को दूर किया गया है जो अनजान लोगों के दिलों में प्रायः खटकता है कि अगर अल्लाह ने अपने पैग़म्बर मतभेदों को मिटाने और झगड़ों का दरवाजा बन्द करने के लिए ही भेजे थे और उनके आने के बाद भी विरोध और विभेद न मिटे, न झगड़े दूर हुए, तो क्या अल्लाह इतना विवश था कि उसने इन खराबियों को दूर करना चाहा और न कर सका। इसके उत्तर में बताया गया कि विभेदों को ताकत से रोक देना और मानवजाति को एक विशेष मार्ग पर जबरदस्ती चलाना अल्लाह चाहता ही नहीं था वरना इंसान की क्या मजाल थी कि उसके चाहने के विरुद्ध चलता। फिर एक वाक्य में उस मूल विषय की ओर संकेत कर दिया गया जिससे भाषण की शुरुआत हुई थी। इसके बाद अब यह कहा जा रहा है कि इंसानों की धारणाएँ, मत, पंथ और मज़ाहिब भले ही बहुत ज़्यादा अलग-अलग हों, बहरहाल सच्चाई जिसपर जमीन व आसमान को व्यवस्था चल रही है, यह है जिसका इस आयत में उल्लेख किया गया है। इंसानों की ग़लतफ़हमियों से तनिक भी इस सच्चाई में कोई अन्तर नहीं आता, मगर अल्लाह यह नहीं चाहता कि उसके मानने पर ज़बरदस्ती लोगों को मजबूर किया जाए । जो उसे मान लेगा, वह स्वयं ही लाभ में रहेगा और जो उससे मुंह फेरेगा, वह आप अपना नुकसान उठाएगा।
284.यह आयत 'आयतुल कुर्सी के नाम से प्रसिद्ध है और इसमें अल्लाह की ऐसी मुकम्मल मारफ़त (विशिष्टतापूर्ण पहचान) प्रदान की गई है जिसका उदाहरण कहीं नहीं मिलता। इसी कारण हदीस में इसको कुरआन की सर्वश्रेष्ठ आयत बनाया गया है। इस जगह यह प्रश्न पैदा होता है कि यहाँ अल्लाह की ज़ात और सिफ़ात (गुणों) का उल्लेख किस ताल्लुक से हुआ है। इसको समझने के लिए एक बार फिर उस व्याख्यान पर निगाह डाल लीजिए जो स्कूज 32 (आयत 243) से चला आ रहा है। पहले मुसलमानों को सच्चे दोन को कायम करने के रास्ते में जान व माल से जिहाद करने पर उकसाया गया है और उन कमजोरियों से बचने की ताकीद की गई है जिनके शिकार बनी इसराईल हो चुके थे। फिर यह वास्तविकता समझाई गई है कि जीत और सफलता का आश्रय तादाद और साधन-सामग्री की अधिकता पर नहीं होता, बल्कि ईमान, धैर्य, अनुशासन और दढ निश्चय के आधार पर होता है। फिर लड़ाई के साथ अल्लाह की जो तत्वदर्शिता जुड़ी हुई है उसकी ओर संकेत किया गया है, अर्थात यह कि सृष्टि की व्यवस्था बाकी रखने के लिए वह हमेशा इंसानों के एक गिरोह को दूसरे गिरोह के द्वारा हटाता रहता है, वरना अगर एक ही गिरोह को सत्ता व अधिकार का हमेशा का पट्टा मिल जाता तो दूसरों के लिए जीना भी दूभर हो जाता। फिर इस शंका को दूर किया गया है जो अनजान लोगों के दिलों में प्रायः खटकता है कि अगर अल्लाह ने अपने पैग़म्बर मतभेदों को मिटाने और झगड़ों का दरवाजा बन्द करने के लिए ही भेजे थे और उनके आने के बाद भी विरोध और विभेद न मिटे, न झगड़े दूर हुए, तो क्या अल्लाह इतना विवश था कि उसने इन खराबियों को दूर करना चाहा और न कर सका। इसके उत्तर में बताया गया कि विभेदों को ताकत से रोक देना और मानवजाति को एक विशेष मार्ग पर जबरदस्ती चलाना अल्लाह चाहता ही नहीं था वरना इंसान की क्या मजाल थी कि उसके चाहने के विरुद्ध चलता। फिर एक वाक्य में उस मूल विषय की ओर संकेत कर दिया गया जिससे भाषण की शुरुआत हुई थी। इसके बाद अब यह कहा जा रहा है कि इंसानों की धारणाएँ, मत, पंथ और मज़ाहिब भले ही बहुत ज़्यादा अलग-अलग हों, बहरहाल सच्चाई जिसपर जमीन व आसमान को व्यवस्था चल रही है, यह है जिसका इस आयत में उल्लेख किया गया है। इंसानों की ग़लतफ़हमियों से तनिक भी इस सच्चाई में कोई अन्तर नहीं आता, मगर अल्लाह यह नहीं चाहता कि उसके मानने पर ज़बरदस्ती लोगों को मजबूर किया जाए । जो उसे मान लेगा, वह स्वयं ही लाभ में रहेगा और जो उससे मुंह फेरेगा, वह आप अपना नुकसान उठाएगा।
284.यह आयत 'आयतुल कुर्सी के नाम से प्रसिद्ध है और इसमें अल्लाह की ऐसी मुकम्मल मारफ़त (विशिष्टतापूर्ण पहचान) प्रदान की गई है जिसका उदाहरण कहीं नहीं मिलता। इसी कारण हदीस में इसको कुरआन की सर्वश्रेष्ठ आयत बनाया गया है। इस जगह यह प्रश्न पैदा होता है कि यहाँ अल्लाह की ज़ात और सिफ़ात (गुणों) का उल्लेख किस ताल्लुक से हुआ है। इसको समझने के लिए एक बार फिर उस व्याख्यान पर निगाह डाल लीजिए जो स्कूज 32 (आयत 243) से चला आ रहा है। पहले मुसलमानों को सच्चे दोन को कायम करने के रास्ते में जान व माल से जिहाद करने पर उकसाया गया है और उन कमजोरियों से बचने की ताकीद की गई है जिनके शिकार बनी इसराईल हो चुके थे। फिर यह वास्तविकता समझाई गई है कि जीत और सफलता का आश्रय तादाद और साधन-सामग्री की अधिकता पर नहीं होता, बल्कि ईमान, धैर्य, अनुशासन और दढ निश्चय के आधार पर होता है। फिर लड़ाई के साथ अल्लाह की जो तत्वदर्शिता जुड़ी हुई है उसकी ओर संकेत किया गया है, अर्थात यह कि सृष्टि की व्यवस्था बाकी रखने के लिए वह हमेशा इंसानों के एक गिरोह को दूसरे गिरोह के द्वारा हटाता रहता है, वरना अगर एक ही गिरोह को सत्ता व अधिकार का हमेशा का पट्टा मिल जाता तो दूसरों के लिए जीना भी दूभर हो जाता। फिर इस शंका को दूर किया गया है जो अनजान लोगों के दिलों में प्रायः खटकता है कि अगर अल्लाह ने अपने पैग़म्बर मतभेदों को मिटाने और झगड़ों का दरवाजा बन्द करने के लिए ही भेजे थे और उनके आने के बाद भी विरोध और विभेद न मिटे, न झगड़े दूर हुए, तो क्या अल्लाह इतना विवश था कि उसने इन खराबियों को दूर करना चाहा और न कर सका। इसके उत्तर में बताया गया कि विभेदों को ताकत से रोक देना और मानवजाति को एक विशेष मार्ग पर जबरदस्ती चलाना अल्लाह चाहता ही नहीं था वरना इंसान की क्या मजाल थी कि उसके चाहने के विरुद्ध चलता। फिर एक वाक्य में उस मूल विषय की ओर संकेत कर दिया गया जिससे भाषण की शुरुआत हुई थी। इसके बाद अब यह कहा जा रहा है कि इंसानों की धारणाएँ, मत, पंथ और मज़ाहिब भले ही बहुत ज़्यादा अलग-अलग हों, बहरहाल सच्चाई जिसपर जमीन व आसमान को व्यवस्था चल रही है, यह है जिसका इस आयत में उल्लेख किया गया है। इंसानों की ग़लतफ़हमियों से तनिक भी इस सच्चाई में कोई अन्तर नहीं आता, मगर अल्लाह यह नहीं चाहता कि उसके मानने पर ज़बरदस्ती लोगों को मजबूर किया जाए । जो उसे मान लेगा, वह स्वयं ही लाभ में रहेगा और जो उससे मुंह फेरेगा, वह आप अपना नुकसान उठाएगा।
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