20. ता० हा०
(मक्का में उतरी-आयतें 135)
परिचय
उतरने का समय
इस सूरा के उतरने का समय सूरा-19 मरयम के समय के निकट ही का है। संभव है कि यह हबशा की ओर हिजरत के समय में या उसके बाद उतरी हो। बहरहाल यह बात निश्चित है कि हज़रत उमर (रजि०) के इस्लाम स्वीकार करने से पहले यह उतर चुकी थी। [क्योकि अपनी बहन फ़तिमा-बिन्ते-ख़त्ताब (रज़ि०) के घर पर यही सूरा ता० हा० पढ़कर वे मुसलमान हुए थे] और यह हबशा की हिजरत से थोड़े समय के बाद ही की घटना है।
विषय और वार्ता
सूरा का आरंभ इस तरह होता है कि ऐ मुहम्मद ! यह क़ुरआन तुमपर कुछ इसलिए नहीं उतारा गया है कि यों ही बैठे-बिठाए तुमको एक मुसीबत में डाल दिया जाए। तुमसे यह माँग नहीं है कि हठधर्म लोगों के दिलों में ईमान पैदा करके दिखाओ। यह तो बस एक नसीहत और याददिहानी है, ताकि जिसके मन में अल्लाह का डर हो वह सुनकर सीधा हो जाए।
इस भूमिका के बाद यकायक हज़रत मूसा (अलैहि०) का किस्सा छेड़ दिया गया है। जिस वातावरण में यह किस्सा सुनाया गया है, उसके हालात से मिल-जुलकर यह मक्कावालों से कुछ और बातें करता नज़र आता है जो उसके शब्दों से नहीं, बल्कि उसके सार-संदर्भ से प्रकट हो रही हैं। इन बातों की व्याख्या से पहले यह बात अच्छी तरह समझ लीजिए कि अरब में भारी तादाद में यहूदियों की उपस्थिति और अरबवालों पर यहूदियों की ज्ञानात्मक तथा मानसिक श्रेष्ठता के कारण, साथ ही रूम और हब्शा और ईसाई राज्यों के प्रभाव से भी, अरबों में सामान्य रूप से हज़रत मूसा (अलैहि०) को अल्लाह का नबी माना जाता था। इस वास्तविकता को नज़र में रखने के बाद अब देखिए कि वे बातें क्या हैं जो इस किस्से के संदर्भ से मक्कावालों को जताई गई हैं:
- अल्लाह किसी को नुबूवत (किसी सामान्य घोषणा के साथ प्रदान नहीं किया करता। नुबूवत तो जिसको भी दी गई है, कुछ इसी तरह रहस्य में रखकर दी गई है, जैसे हज़रत मूसा (अलैहि०) को दी गई थी। अब तुम्हें क्यों इस बात पर अचंभा है कि मुहम्मद (सल्ल०) यकायक नबी बनकर तुम्हारे सामने आ गए।
- जो बात आज मुहम्मद (सल्ल०) प्रस्तुत कर रहे हैं (यानी तौहीद और आख़िरत) ठीक वही बात नुबूवत के पद पर आसीन करते समय अल्लाह ने मूसा (अलैहि०) को सिखाई थी।
- फिर जिस तरह आज मुहम्मद (सल्ल०) को बिना किसी सरो-सामान और सेना के अकेले क़ुरैश के मुक़ाबले में सत्य की दावत का ध्वजावाहक बनाकर खड़ा कर दिया गया है, ठीक उसी तरह मूसा (अलैहि०) भी यकायक इतने बड़े काम पर लगा दिए गए थे कि जाकर फ़िरऔन जैसे सरकश बादशाह को सरकशी से रुक जाने को कहें। कोई फ़ौज उनके साथ नहीं भेजी गई थी।
- जो आपत्ति, सन्देह और आरोप, धोखाधड़ी और अत्याचार के हथकंडे मक्कावाले आज मुहम्मद (सल्ल०) के मुक़ाबले में इस्तेमाल कर रहे हैं, उनसे बढ़-चढ़कर वही सब हथियार फ़िरऔन ने मूसा (अलैहि०) के मुक़ाबले में इस्तेमाल किए थे। फिर देख लो कि किस तरह वह अपनी तमाम चालों में विफल हुआ और अन्तत: कौन प्रभावी होकर रहा । इस सिलसिले में स्वयं मुसलमानों को भी एक निश्शब्द तसल्ली दी गई है कि अपनी बेसरो-सामानी के बावजूद तुम ही प्रभावी रहोगे। इसी के साथ मुसलमानों के सामने मिस्र के जादूगरों का नमूना भी पेश किया गया है कि जब सत्य उनपर खुल गया तो वे बे-धड़क उसपर ईमान ले आए, और फिर फ़िरऔन के प्रतिशोध का डर उन्हें बाल-बराबर भी ईमान के रास्ते से न हटा सका।
- अन्त में बनी-इसराईल के इतिहास से एक गवाही पेश करते हुए यह भी बताया गया है कि देवताओं और उपास्यों के गढ़े जाने का आरंभ किस हास्यास्पद ढंग से हुआ करता है और यह कि अल्लाह के नबी इस घिनौनी चीज़ का नामो-निशान तक बाक़ी रखने के कभी पक्षधर नहीं रहे हैं। अत: आज इस शिर्क और बुतपरस्ती का जो विरोध मुहम्मद (सल्ल०) कर रहे हैं, वह नुबूवत के इतिहास में कोई पहली घटना नहीं है।
इस तरह मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा सुनाकर उन तमाम बातों पर रौशनी डाली गई है जो उस समय उनकी और नबी (सल्ल.) के आपसी संघर्ष से ताल्लुक रखती थीं। इसके बाद एक संक्षिप्त उपदेश दिया गया है कि बहरहाल यह क़ुरआन एक उपदेश और याददिहानी है, इसपर कान धरोगे तो अपना ही भला करोगे, न मानोगे तो स्वयं बुरा अंजाम देखोगे।
फिर आदम (अलैहि०) का क़िस्सा बयान करके यह बात समझाई गई है कि जिस नीति पर तुम लोग जा रहे हो, यह वास्तव में शैतान की पैरवी है। ग़लती और उसपर हठ अपने पाँवों पर आप कुल्हाड़ी मारना है, जिसका नुक़सान आदमी को ख़ुद ही भुगतना पड़ेगा, किसी दूसरे का कुछ न बिगड़ेगा।
अन्त में नबी (सल्ल०) और मुसलमानों को समझया गया है कि अल्लाह किसी क़ौम को उसके कुफ़्र और इंकार पर तुरन्त नहीं पकड़ता, बल्कि संभलने के लिए काफ़ी मोहलत देता है। इसलिए घबराओ नहीं, सब के साथ इन लोगों की ज़्यादतियों को सहन करते चले जाओ और उपदेश का हक़ अदा करते रहो।
इसी सिलसिले में नमाज़ की ताक़ीद की गई है ताकि ईमानवालों में धैर्य, सहनशीलता, अल्लाह पर भरोसा, उसके फ़ैसले पर इत्मीनान और अपना जाइज़ा लेने के लिए वे गुण पैदा हों जो कि सत्य की ओर आह्वान का काम करने के लिए अपेक्षित हैं।
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إِلَّا تَذۡكِرَةٗ لِّمَن يَخۡشَىٰ 2
(3) यह तो एक याददेहानी है हर उस आदमी के लिए जो डरे ।1
1. [अर्थात् ऐ नबी । इस] क़ुरआन को उतार करके हम कोई अनहोना काम तुमसे नहीं लेना चाहते। तुम्हारे सुपुर्द यह ख़िदमत नहीं की गई है कि जो लोग नहीं मानना चाहते उनको मनवाकर छोड़ो और जिनके दिल ईमान के लिए बन्द हो चुके हैं, उनके भीतर ईमान उतारकर ही रहो। यह तो बस एक चेतावनी और याददिहानी है और इसलिए भेजी गई है कि जिसके दिल में अल्लाह का कुछ डर हो, वह उसे सुनकर होश में आ जाए। अब अगर कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें ख़ुदा का कुछ डर नहीं और जिन्हें इसकी कुछ परवाह नहीं कि सत्य क्या है और असत्य क्या, उनके पीछे पड़ने की तुम्हें कोई ज़रूरत नहीं।
وَإِن تَجۡهَرۡ بِٱلۡقَوۡلِ فَإِنَّهُۥ يَعۡلَمُ ٱلسِّرَّ وَأَخۡفَى 6
(7) तुम चाहे अपनी बात पुकारकर कहो, वह तो चुपके से कही हुई बात, बल्कि उससे बढ़कर छिपी बात भी जानता है।3
3. अर्थात् कुछ ज़रूरी नहीं है कि जो जुल्म व सितम तुमपर और तुम्हारे साथियों पर हो रहा है, उसपर तुम ऊँची आवाज़ से ही फ़रियाद करो। अल्लाह को खूब मालूम है कि तुमपर क्या हालत गुज़र रही है। वह तुम्हारे दिलों की पुकार तक सुन रहा है।
إِذۡ رَءَا نَارٗا فَقَالَ لِأَهۡلِهِ ٱمۡكُثُوٓاْ إِنِّيٓ ءَانَسۡتُ نَارٗا لَّعَلِّيٓ ءَاتِيكُم مِّنۡهَا بِقَبَسٍ أَوۡ أَجِدُ عَلَى ٱلنَّارِ هُدٗى 9
(10) जबकि उसने एक आग देखी 5 और अपने घरवालों से कहा कि “तनिक ठहरो, मैंने एक आग देखी है, शायद कि तुम्हारे लिए एक-आध अंगारा ले आऊँ या इस आग पर मुझे (रास्ते के बारे में) कोई मार्गदर्शन मिल जाए।6
5. यह उस वक़्त का किस्सा है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) कुछ साल मदयन में देश पलायन की ज़िन्दगी गुज़ारने के बाद अपनी बीवी को (जिनसे मदयन ही में शादी हुई थी) लेकर मिस्र की ओर वापस जा रहे थे।
6. ऐसा महसूस होता है कि यह रात का वक़्त और जाड़े का समय था। हज़रत मूसा (अलैहि.) सीना नामक प्रायद्वीप के दक्षिणी क्षेत्र से गुज़र रहे थे । दूर से एक आग देखकर उन्होंने विचार किया कि या तो वहाँ से थोड़ी-सी आग मिल जाएगी ताकि बाल-बच्चों को रात भर गर्म रखने का बन्दोबस्त हो जाए या कम से कम वहाँ से यह पता चल जाएगा कि आगे रास्ता किधर है। सोचा था दुनिया का रास्ता मिलने का और वहाँ मिल गया परलोक का रास्ता ।
فَلَمَّآ أَتَىٰهَا نُودِيَ يَٰمُوسَىٰٓ 10
(11-12) वहाँ पहुँचा तो पुकारा गया, “ऐ मूसा ! मैं ही तेरा रब हूँ, जूतियाँ उतार दे।7 तू पवित्र घाटी तुवा 8 में है
7. शायद इसी घटना के कारण यहूदियों में यह शरई मस्अला बन गया कि जूते पहने हुए नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं है । नबी (सल्ल०) ने इस भ्रम को दूर करने के लिए फ़रमाया, “यहूदियों के विपरीत कर्म करो,क्योंकि वे जूते और चमड़े के मोज़े पहनकर नमाज़ नहीं पढ़ते ।" (अबू दाऊद) इसका अर्थ यह नहीं है कि ज़रूर जूते ही पहनकर नमाज़ पढ़नी चाहिए, बल्कि मतलब यह है कि ऐसा करना जाइज़ है, इसलिए दोनों तरह अमल करो । (इस सिलसिले में यह बात उल्लेखनीय है कि मस्जिदे नबवी में चटाई तक का फ़र्श न था, बल्कि कंकरियाँ बिछी हुई थी, इसलिए [इस हदीस से और इसी तरह की दूसरी) हदीसों से दलीलें लेकर के अगर कोई आदमी आज की मस्जिदों के फर्श पर जूते ले जाना चाहे तो यह सही न होगा। अलबत्ता घास पर या खुले मैदान में जूते पहने-पहने नमाज़ पढ़ सकते हैं। रहे वे लोग जो मैदान में जनाज़े की नमाज़ पढ़ते
8. सामान्यतः यह समझा जाता है कि 'तुवा' इस घाटी का नाम था, मगर कुछ टीकाकारों ने 'तुवा की पवित्र घाटी का यह अर्थ भी बयान किया है कि वह घाटी जो एक घड़ी के लिए पवित्र कर दी गई हो।'
إِنَّنِيٓ أَنَا ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنَا۠ فَٱعۡبُدۡنِي وَأَقِمِ ٱلصَّلَوٰةَ لِذِكۡرِيٓ 13
(14) मैं ही अल्लाह हूँ, मेरे सिवा कोई खुदा नहीं है, अत: तू मेरी बन्दगी कर और मेरी याद के लिए नमाज क़ायम कर।9
9. यहाँ नमाज के मूल उद्देश्य पर प्रकाश डाला गया है कि आदमी अल्लाह से ग़ाफ़िल न हो जाए। [इस ग़फ़लत से बचे रहने] और अल्लाह से आदमी का ताल्लुक जोड़े रखने का सबसे बड़ा साधन नमाज़ है जो हर दिन कई बार आदमी को दुनिया के हंगामों से हटाकर अल्लाह की ओर ले जाती है। कुछ लोगों ने इसका यह अर्थ भी लिया है कि नमाज़ क़ायम कर ताकि मैं तुझे याद करूँ, जैसा कि दूसरी जगह फरमाया, "मुझे याद करो,मैं तुम्हें याद रखूगा।"
إِنَّ ٱلسَّاعَةَ ءَاتِيَةٌ أَكَادُ أُخۡفِيهَا لِتُجۡزَىٰ كُلُّ نَفۡسِۭ بِمَا تَسۡعَىٰ 14
(15) क़ियामत की घड़ी जरूर आनेवाली है। मैं उसका समय गुप्त रखना चाहता हूँ, ताकि हर जीव अपने प्रयास के अनुसार बदला पाए।10
10. तौहीद (एकेश्वरवाद) के बाद नबियों की शिक्षाओं की दूसरी सच्चाई आखिरत है। यहाँ न केवल इस सच्चाई को बयान किया गया है, बल्कि इसके उद्देश्य पर भी रौशनी डाली गई है। यह इन्तिज़ार की घड़ी इसलिए आएगी कि हर आदमी ने दुनिया में जो कोशिश की है, उसका बदला आखिरत में पाए और उसके समय को छिपाए भी इसलिए रखा गया है कि परीक्षा का उद्देश्य पूरा हो सके। जिसे अंजाम की कुछ चिन्ता हो, उसे हर समय इस घड़ी का खटका लगा रहे और यह खटका उसे बे-राह होने से बचाता रहे। और जो दुनिया में गुम रहना चाहता हो वह इस विचार में मगन रहे कि क़ियामत अभी कहीं दूर-दूर भी आती नज़र नहीं आती।
قَالَ هِيَ عَصَايَ أَتَوَكَّؤُاْ عَلَيۡهَا وَأَهُشُّ بِهَا عَلَىٰ غَنَمِي وَلِيَ فِيهَا مَـَٔارِبُ أُخۡرَىٰ 17
(18) मूसा ने जवाब दिया, "यह मेरी लाठी है, इसपर टेक लगाकर चलता हूँ, इससे अपनी बकरियों के लिए पत्ते झाड़ता हूँ और भी बहुत-से काम हैं जो इससे लेता हूँ।‘’12
12. यद्यपि उत्तर में केवल इतना कह देना काफ़ी था कि हुजूर। यह लाठी है। मगर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने इस प्रश्न का जो लम्बा जवाब दिया वह उनकी उस समय की दिली कैफ़ीयत का एक रोचक चित्र प्रस्तुत करता है । कायदे की बात है कि जब आदमी को किसी बहुत बड़े आदमी से बात करने का मौक़ा मिल जाता है तो वह अपनी बात को लंबी करने की कोशिश करता है, ताकि उसे ज़्यादा देर तक उसके साथ बात करने का सौभाग्य प्राप्त हो।
وَٱضۡمُمۡ يَدَكَ إِلَىٰ جَنَاحِكَ تَخۡرُجۡ بَيۡضَآءَ مِنۡ غَيۡرِ سُوٓءٍ ءَايَةً أُخۡرَىٰ 21
(22-23) और तनिक अपना हाथ अपनी बग़ल में दबा, चमकता हुआ निकलेगा बिना किसी कष्ट13 के। यह दूसरी निशानी है। इसलिए कि हम तुझे अपनी बड़ी निशानियाँ दिखानेवाले हैं ।
13. अर्थात् चमकता हुआ ऐसे होगा जैसे सूरज हो, मगर तुम्हें इससे कोई कष्ट न होगा। बाइबल में "चमकता हाथ' का एक अन्य अर्थ बयान किया गया जो वहाँ से निकलकर हमारे यहाँ की टीकाओं में भी प्रचलित हो गया । वह यह को हज़रत मूसा (अलैहि०) ने जब बग़ल में हाथ डालकर बाहर निकाला तो पूरा हाथ सफ़ेद दाग (बस) के रोगी की तरह सफेद था। फिर जब दोबारा उसे बगल में रखा तो वह असली हालत पर आ गया। यही अर्थ इस मोजज़े का तलमूद में भी बयान किया गया है और इसका कारण यह बताया गया है कि फ़िरऔन को सफ़ेद दाग़ की बीमारी थी जिसे वह छिपाए हुए था, इसलिए उसके सामने यह मोजज़ा पेश किया गया कि देख, यूँ आनन-फानन सफ़ेद दाग का रोग पैदा भी होता है और दूर भी हो जाता है। लेकिन प्रथम तो अच्छी रुचि इससे घृणा करती है कि किसी नबी को सफ़ेद दाग़ का मोजज़ा देकर एक बादशाह के दरबार में भेजा जाए। दूसरे अगर फ़िरऔन को छिपे तौर पर सफ़ेद दाग़ को बीमारी थी तो 'चमकता हाथ केवल उसके अपने के लिए मोजज़ा हो सकता था, उसके दरबारियों पर इस मोजज़े का क्या प्रभाव पड़ता। इसलिए सही बात वही है जो हमने ऊपर बयान को कि उस हाथ में सूरज को-सी चमक पैदा हो जाती थी जिसे देखकर आँखें चुंधिया जातीं। प्राचीन टीकाकारों में से भी बहुतों ने इसका अर्थ यही लिया है।
قَالَ رَبِّ ٱشۡرَحۡ لِي صَدۡرِي 24
(25) मूसा ने कहा, “पालनहार ! मेरा सीना खोल दे14,
14. अर्थात् मेरे मन में इस महान पद को सँभालने का साहस पैदा कर दे और मेरा मनोबल बढ़ा दे। चूँकि यह एक बहुत बड़ा काम हज़रत मूसा (अलैहि०) के सुपुर्द किया जा रहा था, जिसके लिए बड़े दिल-गुर्दे की ज़रूरत थी, इसलिए आपने दुआ की कि मुझे वह धैर्य, जमाव, सहनशीलता, निर्भीकता और वह संकल्प प्रदान कर जो इसके लिए चाहिए।
وَٱحۡلُلۡ عُقۡدَةٗ مِّن لِّسَانِي 26
(27-28) और मेरी ज़बान की गिरह सुलझा दे, ताकि लोग मेरी बात समझ सकें,15
15. बाइबल में इसकी जो व्याख्या मिलती है वह यह है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने निवेदन किया, “ऐ ख़ुदावन्द ! मैं फ़सीह (सुवक्ता) नहीं हूँ, न पहले ही था और न जबसे तूने अपने बन्दे से कलाम किया, बल्कि रुक-रुककर बोलता हूँ और मेरी ज़बान कुंद (मन्द) है।, (निर्गमन 4 : 10)। मगर तलमूद में इसका एक लंबा-चौड़ा किस्सा बयान हुआ है। इसमें यह उल्लेख है कि बचपन में हज़रत मूसा (अलैहि०) फ़िरऔन के घर पर परवरिश पा रहे थे। एक दिन उन्होंने फ़िरऔन के सर का ताज उतारकर अपने सर पर रख लिया। इसपर यह सवाल पैदा हो गया कि इस बच्चे ने यह काम जान-बूझकर किया है या यह मात्र एक बचकाना काम है। आखिरकार यह प्रस्ताव रखा गया कि बच्चे के सामने सोना और आग दोनों साथ रखे जाएँ । चुनांचे दोनों चीजें लाकर सामने रखी गई और हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उठाकर आग मुँह में रख ली। इस तरह उनकी जान तो बच गई, मगर उनकी ज़बान में हमेशा के लिए हकलाहट आ गई। यही किस्सा इसराईली रिवायतों से निकलकर हमारे यहाँ के टीकाकारों में भी रिवाज पा गया। लेकिन बुद्धि इसे मानने से इंकार करती है, इसलिए कि अगर बच्चे ने आग पर हाथ मारा भी हो तो यह किसी तरह संभव नहीं है कि वह अंगारे को उठाकर मुंह में ले जा सके। बच्चा तो आग को जलन महसूस करते ही हाथ खींच लेता है। मुँह में ले जाने की नौबत ही कहाँ आ सकती है ? क़ुरआन के शब्दों से जो बात हमारी समझ में आती है वह यह है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) अपने भीतर भाषण देने की योग्यता न पाते थे और उनको भय था कि नुबूवत के दायित्व को अदा करने के लिए अगर भाषण की ज़रूरत कभी सामने आई (जिसका उन्हें उस समय तक कोई अवसर न मिला था) तो उनके स्वभाव की झिझक रोक बन जाएगी। इसलिए उन्होंने दुआ की कि ऐ अल्लाह ! मेरी ज़बान की गिरह खोल दे, ताकि मैं अच्छी तरह अपनी बात लोगों को समझा सकूँ। यही चीज़ थी जिसका फ़िरऔन ने एक बार उनको ताना दिया कि “यह आदमी तो अपनी बात भी पूरी तरह कह नहीं सकता" (सूरा-52 अज़-जुखरुफ़, आयत 52)। और यही कमज़ोरी थी जिसको महसूस करके हज़रत मूसा (अलैहि.) ने अपने बड़े भाई हज़रत हारून को सहायक रूप में माँगा। सूरा-28 क़सस में उनका यह कथन नक़ल किया गया है, “मेरा भाई हारून मुझसे ज़्यादा बोलनेवाला है। उसको मेरे साथ सहायक के रूप में भेज। आगे चलकर मालूम होता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की यह कमज़ोरी दूर हो गई थी और वे खूब ज़ोरदार भाषण करने लगे थे। चुनांचे कुरआन और बाइबल में उनके बाद के युग के जो भाषण आए हैं, वे अच्छे वक्ता होने और भाषा की सुन्दरता और प्रवाह की गवाही देते हैं। यह बात बुद्धि के प्रतिकूल है कि अल्लाह किसी हकले या तोतले आदमी को अपना रसूल नियुक्त करे। रसूल हमेशा रंग-रूप, व्यक्तित्त्व और योग्यताओं की दृष्टि से अति उत्तम लोग हुए हैं, जिनके बाह्य और अन्तर का हर पहलू दिलों और निगाहों को प्रभावित करनेवाला होता था। कोई रसूल ऐसे दोष के साथ नहीं भेजा गया और न ही भेजा जा सकता था जिसके कारण वह लोगों में हँसी-मज़ाक का विषय बन जाए, या हीनता की दृष्टि से देखा जाए ।
إِذۡ تَمۡشِيٓ أُخۡتُكَ فَتَقُولُ هَلۡ أَدُلُّكُمۡ عَلَىٰ مَن يَكۡفُلُهُۥۖ فَرَجَعۡنَٰكَ إِلَىٰٓ أُمِّكَ كَيۡ تَقَرَّ عَيۡنُهَا وَلَا تَحۡزَنَۚ وَقَتَلۡتَ نَفۡسٗا فَنَجَّيۡنَٰكَ مِنَ ٱلۡغَمِّ وَفَتَنَّٰكَ فُتُونٗاۚ فَلَبِثۡتَ سِنِينَ فِيٓ أَهۡلِ مَدۡيَنَ ثُمَّ جِئۡتَ عَلَىٰ قَدَرٖ يَٰمُوسَىٰ 39
(40) याद कर जबकि तेरी बहन चल रही थी, फिर जाकर कहती है, मैं तुम्हें उसका पता दूँ जो इस बच्चे का पालन-पोषण अच्छी तरह करे? 17अ इस तरह हमने तुझे फिर तेरी माँ के पास पहुंचा दिया ताकि उसकी आँख ठंडी रहे और वह दुखी न रहे । और (यह भी याद कर कि) तूने एक आदमी को कत्ल कर दिया था, हमने तुझे उस फंदे से निकाला और तुझे अलग-अलग आज़माइशों से गुजारा और तू मदयन के लोगों में कई साल ठहरा रहा। फिर अब ठीक अपने समय पर तू आ गया है, ऐ मूसा !
अर्थात् दरिया के किनारे टोकरी के साथ चल रही थी। फिर जब फ़िरऔन के घरवालों ने बच्चे को उठा लिया और वहाँ उसके लिए सेविका की ज़रूरत हुई तो हज़रत मूसा (अलैहि०) की बहन ने जाकर उनसे यह बात कही।
إِنَّا قَدۡ أُوحِيَ إِلَيۡنَآ أَنَّ ٱلۡعَذَابَ عَلَىٰ مَن كَذَّبَ وَتَوَلَّىٰ 47
(48) हमको वह्य से बताया गया है कि अज़ाब है उसके लिए जो झुठलाए और मुँह मोड़े।"19
19. इस घटना को बाइबल और तलमूद में जिस तरह बयान किया गया है उसपर भी एक दृष्टि डाल लीजिए, ताकि अन्दाज़ा हो कि कुरआन मजीद नबियों का उल्लेख किस शान से करता है और बनी इसराईल की रिवायतों में उनका कैसा चित्र खींचा गया है। बाइबल का बयान है कि पहली बार जब अल्लाह ने मूसा से कहा कि “अब मैं तुझे फ़िरऔन के पास भेजता हूँ कि तू मेरी कौम बनी इसराईल को मिस्र से निकाल लाए,” तो हज़रत मूसा ने उत्तर में कहा, "मैं कौन हूँ जो फ़िरऔन के पास जाऊँ और बनी इसराईल को मिल से निकाल लाऊँ।" फिर अल्लाह ने हज़रत मूसा को बहुत कुछ समझाया, उनकी ढाढ़स बंधाई, मोजज़े दिए मगर हज़रत मूसा ने फिर कहा तो यही कहा कि “ऐ खुदावन्द ! मैं तेरी मन्नत करता हूँ किसी और के हाथ से जिसे तू चाहे यह पैग़ाम भेज, (निर्गमन 4)। तलमूद की रिवायत इससे भी कुछ क़दम आगे जाती है । उसका बयान यह है कि अल्लाह और हज़रत मूसा के बीच सात दिन तक इसी बात पर वाद-विवाद होता रहा। इसपर अल्लाह नाराज़ हो गया और उसने पैग़म्बरी में उसके साथ हारून को शरीक कर दिया और मूसा की सन्तान को महरूम करके कहानत' (अर्थात् ज्योतिषी) का पद हारून की सन्तान को दे दिया-ये किताबें हैं जिनके बारे में बेशर्म लोग कहते हैं कि कुरआन में इनसे ये किस्से नक़ल कर लिए गए हैं।
قَالَ فَمَن رَّبُّكُمَا يَٰمُوسَىٰ 48
(49) फ़िरऔन20 ने कहा, “अच्छा, तो फिर तुम दोनों का रब कौन है ऐ मूसा ?"21
20. अब उस समय का किस्सा शुरू होता है जब दोनों भाई फ़िरऔन के पास पहुंचे। यहाँ क़िस्से के इन का विवरणों को छोड़ दिया गया है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) किस तरह फ़िरऔन के पास पहुँचे और किस तरह अपनी दावत उसके सामने पेश की। फ़िरऔन के बारे में ज़रूरी जानकारी के लिए देखिए सूरा-7 (आराफ़), टिप्पणी 85।
21. दोनों भाइयों में से असल दावतवाले चूँकि मूसा (अलैहि०) थे, इसलिए फ़िरऔन ने उन्हीं को सम्बोधित किया । फ़िरऔन के इस प्रश्न का ध्येय यह था कि तुम दोनों किसे रब बना बैठे हो, मिन और मिस्रवालों का रब तो मैं हूँ । सूरा-79 (अन-नाज़िआत) में उसका यह कथन नक़ल किया गया है कि “ऐ मिसवालो ! मैं तुम्हारा सबसे बड़ा रब हूँ।" सूरा-43 (जुखरुफ) में वह भरे दरबार को सम्बोधित करके कहता है,“ऐ क़ौम । क्या मिस्र की बादशाही मेरी नहीं है? और ये नहरें मेरे नीचे नहीं बह रही हैं ?" (आयत 51) सूरा-26 शुअरा में वह हज़रत मूसा (अलैहि०) को डाटकर कहता है, “अगर तूने मेरे अलावा किसी को 'इलाह' बनाया तो याद रख कि तुझे जेल भेज दूँगा।" (29) इसका यह अर्थ नहीं है कि फ़िरऔन अपनी क़ौम का अकेला माबूद (उपास्य) था और वहाँ उसके सिवा किसी की पूजा न होती थी। यह बात पहले आ चुकी है कि फ़िरऔन स्वयं सूरज देवता (रअ या राअ) के अवतार की हैसियत से बादशाह होने का हक़ जताता था और यात भी मिस्र के इतिहास से सिद्ध है कि उस क़ौम के धर्म में बहुत-से देवी-देवताओं की पूजा होती थी। इसलिए करार का दावा पूजा का एकमात्र केन्द' होने का न था बल्कि वह व्यवहारत: मिस की और दृष्टिकोण के अनुसार वास्तव में पूरी मानव जाति की राजनैतिक प्रभुता और ईश्वरत्व का दावेदार था और यह मानने के लिए तैयार न था कि उसके ऊपर कोई दूसरी हस्ती शासन करे जिसका प्रतिनिधि आकर उसको आदेश दे और उसके आज्ञापालन की मांग उससे करे। (और अधिक व्याख्या के लिए देखें सूरा-28 क़सम, टिप्पणी 53)
قَالَ رَبُّنَا ٱلَّذِيٓ أَعۡطَىٰ كُلَّ شَيۡءٍ خَلۡقَهُۥ ثُمَّ هَدَىٰ 49
(50) मूसा ने उत्तर दिया, ‘’हमारा रब वह है 22 जिसने हर चीज़ को उसकी बनाकर दी, फिर उसको रास्ता बताया।‘’23
22. अर्थात हम हर अर्थ में केवल उसको रच मानते हैं। पालनहार, आता, मालिक, शासक, सब कुछ हमारे नज़दीक वही है। किसी अर्थ में भी उसके सिवा कोई दूसरा रब हमें मान्य नहीं है।
23. अर्थात् दुनिया की हर चीज़ जैसी कुछ भी बनी हुई है, उसी के बनाने से बनी है। फिर उसने ऐसा नहीं किया कि हर चीज़ को उसको विशेष बनावर देकर यूं ही छोड़ दिया हो, बल्कि इसके बाद वही इन सब चीज़ों का मार्गदर्शन भी करता है। दुनिया की कोई चीज ऐसी नहीं है जिसे अपनी बनावट से काम लेने और जन्म के अपने उद्देश्य को पूरा करने का तरीका उसने न सिखाया हो। कान से सुनना और आँख से देखना उसी ने सिखाया है। पल्ली को तैरना और चिड़ियों को उड़ना उसी की शिक्षा से आया है। पेड़ को फल-फूल देने और धरती को पेड़-पौधे उगाने का मार्गदर्शन उसी ने किया है। तात्पर्य यह है कि वह सम्पूर्ण सृष्टि और उसकी हर वस्तु का केवल पैदा करनेवाला ही नहीं, बलिक रास्ता दिखानेवाला और शिक्षा देनेवाला भी है।
इस अपूर्व संक्षिप्त वाक्य में हजरत भूसा (अलैहि०) ने केवल यही नहीं बताया कि उनका रब कौन है, बल्कि यह भी बता दिया कि वह क्यों रब है और किस लिए उसके सिवा किसी और को रब नहीं माना जा सकता है।
साथ ही इसो छोटे-से वाक्य में हज़रत मूसा (अलैहि०) ने सांकेतिक रूप से रिसालत का प्रमाण भी प्रस्तुत कर दिया जिसके मानने से फ़िरऔन को इंकार था। उनकी दलील में यह संकेत पाया जाता है कि अल्लाह जो सम्पूर्ण सृष्टि का मार्गदर्शक है और जो हर चीज़ को उसकी हालत और ज़रूरत के अनुसार रास्ता बता रहा है, उसके विश्वव्यापी मार्गदर्शक होने का लाज़मी तकाज़ा यह है कि वह इंसान के चेतनापूर्ण जीवन के लिए भी मार्गदर्शन का प्रबन्ध करे।
قَالَ فَمَا بَالُ ٱلۡقُرُونِ ٱلۡأُولَىٰ 50
(51) फ़िरऔन बोला, “और पहले जो नस्लें बीत चुकी हैं, उनकी फिर क्या हालत थी?’’24
24. अर्थात् अगर बात यही है कि जिसने हर चीज़ को उसको बनावट प्रदान की और जीवन में काम करने का रास्ता बताया, उसके सिवा कोई दूसरा रब नहीं है, तो यह हम सब के बाप-दादा जो सैकड़ों वर्ष से पीढ़ी दर पीढ़ी दूसरे रबों की बन्दगी करते चले आ रहे हैं, उनकी तुम्हारे नज़दीक क्या स्थिति है? क्या वे सब गुमराह थे? क्या वे सब अज़ाब के हकदार थे? हो सकता है कि फ़िरऔन ने यह उत्तर अज्ञानता के कारण दिया हो और हो सकता है कि दुष्टता के कारण दिया हो और यह भी सम्भव है कि इसमें दोनों बातें शामिल हों।
قَالَ عِلۡمُهَا عِندَ رَبِّي فِي كِتَٰبٖۖ لَّا يَضِلُّ رَبِّي وَلَا يَنسَى 51
(52) मूसा ने कहा, "उसका ज्ञान मेरे रन के पास एक लेख्य में सुरक्षित है। मेरा रब न चूकता है, न भूलता है।"25
25. यह एक अत्यंत तत्वदर्शितापूर्ण उत्तर है जो हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उस समय दिया और इससे प्रचार-नौति की एक बेहतरीन शिक्षा प्राप्त होती है। फ़िरऔन के प्रश्न का उद्देश्य सुननेवालों और उनके वास्ते से पूरी क़ौम के दिलों में पक्षपात को आग भड़काना था, मगर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने अत्यंत सूझ-बूझ से ऐसा उत्तर दिया जो अपने आप में सत्य भी था और साथ-साथ उसने फ़िरऔन के सारे विषैले दाँत भी तोड़ दिए। आपने फ़रमाया कि वे लोग जैसे कुछ भी थे अपना काम करके अल्लाह के यहाँ जा चुके हैं। उनका पूरा रिकार्ड अल्लाह के पास सुरक्षित है। उनसे जो कुछ भी मामला अल्लाह को करना है उसको वही जानता है, मुझे और तुम्हें [उनकी नहीं, अपनी चिन्ता होनी चाहिए।]
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ مَهۡدٗا وَسَلَكَ لَكُمۡ فِيهَا سُبُلٗا وَأَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَخۡرَجۡنَا بِهِۦٓ أَزۡوَٰجٗا مِّن نَّبَاتٖ شَتَّىٰ 52
(53) वही26 जिसने तुम्हारे लिए धरती का फ़र्श बिछाया और उसमें तुम्हारे चलने को रास्ते बनाए और ऊपर से पानी बरसाया, फिर उसके ज़रिये से अलग-अलग किस्मों की पैदावार निकाली।
26. वर्णनशैली से स्पष्ट हो जाता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) का उत्तर 'न भूलता है' पर समाप्त हो गया, और यहाँ से आयत 55 तक का पूरा वाक्य अल्लाह की ओर से व्याख्या व याददेहनी के रूप में आया है। क़ुरआन में इस तरह के उदाहरण बहुतायत से मौजूद हैं।
स्पष्ट रहे कि इस वाक्य का ताल्लुक़ केवल क़रीब में आए वाक्य 'मेरा रब न चूकता है, न भूलता है' से ही नहीं है, बल्कि हज़रत मूसा की पूरी बात से है, जो हमारा रब वह है कि जिसने हर चीज़ को उसकी बनावट दी से शुरू हुआ है।
۞مِنۡهَا خَلَقۡنَٰكُمۡ وَفِيهَا نُعِيدُكُمۡ وَمِنۡهَا نُخۡرِجُكُمۡ تَارَةً أُخۡرَىٰ 54
(55) इसी धरती से हमने तुमको पैदा किया है, इसी में हम तुम्हें वापस ले जाएंगे और इसी से तुमको दोबारा निकालेंगे।28
28. अर्थात् हर इंसान को अनिवार्य रूप से तीन मरहलों से गुज़रना है। एक मरहला वर्तमान जगत में जन्म से लेकर मौत तक का, दूसरा मरहला मौत से कियामत तक का और तीसरा कियामत के दिन दोबारा जिंदा होने के बाद का मरहला। ये तीनों मरहले इस आयत के अनुसार इसी धरती पर गुज़रनेवाले हैं।
قَالَ أَجِئۡتَنَا لِتُخۡرِجَنَا مِنۡ أَرۡضِنَا بِسِحۡرِكَ يَٰمُوسَىٰ 56
(57) कहने लगा, “ऐ मूसा ! क्या तू हमारे पास इसलिए आया है कि अपने जादू के ज़ोर से हमको हमारे देश से निकाल बाहर करे?30
30. जादू से तात्पर्य डंडा और यदे बैज़ा (सफ़ेद हाथ) का मोजज़ा है जो सूरा-7 अल-आराफ़ और सूरा-26 शुअरा के विवरणों के अनुसार हज़रत मूसा (अलैहि०) ने पहली ही मुलाक़ात के वक्त भरे दरबार में पेश किया था। इस मोजजे को देखकर फ़िरऔन पर जो बदहवासी छाई, उसका अनुमान उसके इसी वाक्य से किया जा सकता है कि "तू अपने जादू के ज़ोर से हमको हमारे देश से निकाल बाहर करना चाहता है।” दुनिया के इतिहास में न पहले कभी यह घटना घटित हुई थी और न बाद में कभी घटी कि किसी जादूगर ने अपने जादू के ज़ोर से कोई देश जीत लिया हो। फ़िरऔन के अपने देश में सैकड़ों-हज़ारों जादूगर मौजूद थे जो तमाशे दिखा-दिखाकर इनाम के लिए हाथ फैलाते फिरते थे। इसलिए फ़िरऔन का एक ओर यह कहना कि तू जादूगर है और दूसरी ओर यह आशंका व्यक्त करना कि तू मेरा राज्य छीन लेना चाहता है खुली हुई बद-हवासी का लक्षण है। वास्तव में वह हज़रत मूसा (अलैहि०) के बुद्धिसंगत और तर्कसंगत भाषण और फिर उनके मोजज़े को देखकर यह समझ गया था कि न केवल उसके दरबारी, बल्कि उसी की जनता के भी आम व खास हर श्रेणी के लोग इससे प्रभावित हुए बिना न रह सकेंगे। इसलिए उसने झूठ, फ़रेब और पक्षपात को उभारकर काम निकालने की कोशिश शुरू कर दी । (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-7, अल-आराफ़, टिप्पणी 87-88,89,सूरा-10 युनूस, टिप्पणी 75 1) इस जगह यह बात भी दृष्टि में रहनी चाहिए कि हर काल में सत्ताधारी व्यक्तियों ने हक़ की दावत देनेवालों को यही इलज़ाम दिया है कि वे वास्तव में सत्ता के भूखे हैं और सारी बातें इसी उद्देश्य के लिए कर रहे हैं। इसकी मिसालों के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 110-123, सूरा-10 यूनुस, आयत 78, सूरा-23 अल-मोमिनून, आयत 24।
قَالَ مَوۡعِدُكُمۡ يَوۡمُ ٱلزِّينَةِ وَأَن يُحۡشَرَ ٱلنَّاسُ ضُحٗى 58
(59) मूसा ने कहा, "उत्सव का दिन तय हुआ और दिन चढ़े लोग जमा हों।"31
31. फ़िरऔन का उद्देश्य यह था कि एक बार जादूगरों से लाठियों और रस्सियों के साँप बनवाकर दिखा दूँ तो मूसा के मोजज़े का जो प्रभाव लोगों के दिलों पर हुआ है वह दूर हो जाएगा। यह हज़रत मूसा (अलैहि०) को मुँह माँगी कामना थी। उन्होंने फ़रमाया कि अलग कोई दिन और जगह तय करने की क्या ज़रूरत है। उत्सव का दिन क़रीब है, जिसमें पूरे देश के लोग राजधानी में खिंचकर आ जाते हैं। वहीं मेले के मैदान में मुक़ाबला हो जाए ताकि सारी क़ौम देख ले, और वक़्त भी दिन की पूरी रौशनी का होना चाहिए ताकि शक व सन्देह के लिए कोई गुजाइश न रहे।
فَتَوَلَّىٰ فِرۡعَوۡنُ فَجَمَعَ كَيۡدَهُۥ ثُمَّ أَتَىٰ 59
(60) फ़िरऔन ने पलटकर अपने सारे हथकंडे जमा किए और मुक़ाबले में आ गया। 32
32. फ़िरऔन और उसके दरबारियों की निगाह में इस मुकाबले का महत्त्व यह था कि वे इसी के फ़ैसले पर अपने भाग्य का फैसला आश्रित समझ रहे थे। पूरे मुल्क में आदमी दौड़ा दिए गए कि जहाँ-जहाँ कोई दक्ष जादूगर मौजूद हो, उसे ले आएँ। इसी तरह आम लोगों को भी जमा करने पर मुख्य रूप से उभारा गया ताकि अपनी आँखों से जादू के कमालात देखकर मूसा के डंडे के रोब से सुरक्षित हो जाएँ (देखिए सूरा- 26 शुअरा, आयत 34-51)। इस जगह पर यह सच्चाई सामने रहनी चाहिए कि मिस्र के शाही परिवार और सरदारों के वर्ग का धर्म आम लोगों के धर्म से काफी भिन्न था (देखिए Joynbee को A Study of History, पृ० 31-32) । इसके अलावा मित्र में इससे पहले जो धार्मिक क्रान्तियाँ हुई हैं, उनकी बदौलत वहाँ की आबादी में अनेक ऐसे तत्त्व पैदा हो चुके थे जो अनेकेश्वरवादी धर्म के मुकाबले में एकेश्वरवादी धर्म को प्रमुखता देते थे या दे सकते थे, जैसे स्वयं बनी इसराईल और उनके सहधर्मी लोग आबादी का कम से कम दस प्रतिशत हिस्सा थे। इसके अलावा उस धार्मिक क्रांति को अभी पूरे ढेढ़ सौ वर्ष भी न गुज़रे थे जो फ़िरऔन आमीनोफ़िस या अख्नातून (1377-1360 ई. पूर्व) ने राज्य के ज़ोर से बरपा किया था, जिसमें सभी उपास्यों को ख़त्म करके सिर्फ एक उपास्य आतून बाकी रखा गया था। हालांकि इस क्रान्ति को बाद में सत्ता ही के बल पर उलट दिया गया, मगर कुछ न कुछ अपने प्रभाव वह भी छोड़ गई थी। इन परिस्थितियों को दृष्टि में रखा जाए तो फ़िरऔन की वह घबराहट अच्छी तरह समझ में आ जाती है जो उस मौके पर उसे हुई थी।
قَالَ لَهُم مُّوسَىٰ وَيۡلَكُمۡ لَا تَفۡتَرُواْ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗا فَيُسۡحِتَكُم بِعَذَابٖۖ وَقَدۡ خَابَ مَنِ ٱفۡتَرَىٰ 60
(61) मूसा ने (ठीक समय पर मुक़ाबिल गिरोह को सम्बोधित करके) कहा,33 "शामत के मारो, झूठी तोहमतें न बांधो अल्लाह पर34, वरना वह एक कठोर अज़ाब से तुम्हारा सत्यानाश कर देगा। झूठ जिसने भी गढ़ा, वह असफल हुआ।"
33. यह सम्बोधन जनसाधारण से न था, जिन्हें अभी हज़रत मूसा (अलैहि०) के बारे में यह फैसला करना था कि क्या वे मोजज़ा दिखाते हैं या जादू, बल्कि सम्बोधन फ़िरऔन और उसके दरबारियों से था जो उन्हें जादूगर क़रार दे रहे थे।
34. अर्थात् इस मोजज़े को जादू और इसके दिखानेवाले पैग़म्बर को झूठा जादूगर न करार दो।
فَتَنَٰزَعُوٓاْ أَمۡرَهُم بَيۡنَهُمۡ وَأَسَرُّواْ ٱلنَّجۡوَىٰ 61
(62) यह सुनकर उनके बीच मतभेद हो गया और वे चुपके चुपके आपस में मश्विरे करने लगे।35
35. इससे मालूम होता है कि ये लोग अपने दिलों में अपनी कमज़ोरी को स्वयं महसूस कर रहे थे। उनको मालूम था कि हजरत मूसा (अलैहि०) ने जो कुछ दिखाया था, वह जादू नहीं था। वे पहले ही से इस मुकाबले में हरते और हिचकिचाते हुए आए थे और जब बिल्कुल ठीक समय पर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उनको ललकारकर सचेत किया तो उनका इरादा यकायक डगमगा गया। उनका मतभेद इस मामले में हुआ होगा कि क्या इस बड़े त्यौहार के मौके पर, जबकि पूरे देश से आए, हुए आदमी इकट्ठे है,खुले मैदान और दिन की पूरी रोशनी यह मुकाबला करना ठीक है या नहीं। अगर यहाँ हम हार गए और सबके सामने जादू और मोजजे का अन्तर स्पष्ट हो गया तो फिर बात सँभाले से न सँभल सकेगी।
قَالُوٓاْ إِنۡ هَٰذَٰنِ لَسَٰحِرَٰنِ يُرِيدَانِ أَن يُخۡرِجَاكُم مِّنۡ أَرۡضِكُم بِسِحۡرِهِمَا وَيَذۡهَبَا بِطَرِيقَتِكُمُ ٱلۡمُثۡلَىٰ 62
(63) अन्ततः कुछ लोगों ने कहा36, "ये दोनों तो मात्र जादूगर हैं। इनका उद्देश्य यह है कि अपने जादू के जोर से तुमको तुम्हारी भूमि से बेदखल कर दें और तुम्हारी आदर्श जीवन-प्रणाली का अन्त कर दें।37
36. और यह कहनेवाले अनिवार्य रूप से फिरऔन की पार्टी के वे सरफिरे लोग होंगे जो हजरत मूसा (अलैहि०) के विरोध में हर बाजी खेल जाने पर तैयार थे। अनुभवी और सूझ बूझ वाले लोग कदम आगे बढ़ाते हुए झिझक रहे होंगे और ये सर फिरे जोशीले लोग कहते होंगे कि खाह-मखाह की दूरदर्शिता छोड़ दो और जी कड़ा करके मुक़ाबला कर डालो।
37. यानी उन लोगों की निर्भरता दो बातों पर थी- एक यह कि अगर जादूगर भी मूसा की तरह लाठियों से साँप बनाकर दिखा देंगे तो मूसा का जादूगर होना भरे मो में सिद्ध हो जाएगा। दूसरे यह कि वह पक्षपात की आग भड़काकर शासकों को अंधा जोश दिलाना चाहते थे और यह डर उनं दिला रहे थे कि मूसा का ग़ालिब आ जाना तुम्हारे हार्थों से देश के निकल जाने और तुम्हारे आदर्श (Ideal) जीवन-प्रणाली के समाप्त हो जाने के समान है। वे देश के प्रभावी वर्ग को डरा रहे थे कि आगर मूसा के हाथ सत्ता आ गई तो यह तुम्हारी संस्कृति और यह तुम्हारी कला, और यह तुम्हारी मनोहर सभ्यता और ये तुम्हारे मनोविहार और ये तुम्हारी औरतों की आज़ादियाँ (जिनके शानदार नमूने हजरत यूसुफ के जमाने की औरतें प्रस्तुत कर चुकी थी) तात्पर्य यह कि वह सब कुछ जिसके बिना जिंदगी का कोई मज़ा नहीं, नष्ट होकर रह जाएगा। इसके बाद तो निरी 'मुल्लाइयत' का दौर दौरा होगा। जिसे सहन करने से बेहतर मर जाना है।
فَأَجۡمِعُواْ كَيۡدَكُمۡ ثُمَّ ٱئۡتُواْ صَفّٗاۚ وَقَدۡ أَفۡلَحَ ٱلۡيَوۡمَ مَنِ ٱسۡتَعۡلَىٰ 63
(64) अपने सारे उपाय आज बहा कर लो और एका करके मैदान में आओ।38 बस यह समझ लो कि आज जो गालिब रहा वही जीत गया।"
38. अर्थात् इनके मुकाबले में एक संयुक्त मोर्चा प्रस्तुत करो। अगर इस समय तुम्हारे बीच आपस ही में फूट पड़ गई और ठीक मुकाबले के वक्त भरे मज्मे के सामने यह हिचकिचाहट और काना-फूसियाँ होने लगी, तो अभी हवा उखड़ जाएगी और लोग समझ लेंगे कि तुम खुद अपने सत्य पर होने का विश्वास नहीं रखते, बल्कि दिलों में चोर लिए हुए मुक़ाबले पर आए हो।
قَالَ بَلۡ أَلۡقُواْۖ فَإِذَا حِبَالُهُمۡ وَعِصِيُّهُمۡ يُخَيَّلُ إِلَيۡهِ مِن سِحۡرِهِمۡ أَنَّهَا تَسۡعَىٰ 65
(66) मूसा ने कहा, “नहीं तुम ही फेंको। यकायक उनकी रस्सियाँ और उनकी लाठियाँ उनके जादू के ज़ोर से मूसा को दौड़ती हुई महसूस होने लगीं।40
40. सूरा-आराफ़ में बयान हुआ था कि “जब उन्होंने अपने अक्षर फेंके तो लोगों की निगाहों पर जादू कर दिया और उनपर आतंक छा गया। (आयत 116)। यहाँ बताया जा रहा है कि यह प्रभाव सिर्फ आम लोगों पर ही नहीं हुआ था, स्वयं हज़रत मूसा (अलैहि०) भी जादू के प्रभाव से प्रभावित हुए थे। सिर्फ उनकी आँखों ही ने यह महसूस नहीं किया, बल्कि उनके मन पर भी यह प्रभाव पड़ा कि लाठियां और रस्सियाँ साँप बनकर दौड़ रही हैं।
فَأَوۡجَسَ فِي نَفۡسِهِۦ خِيفَةٗ مُّوسَىٰ 66
(67) और मूसा अपने दिल में डर गया।41
41. मालूम ऐसा होता है कि ज्यों ही हज़रता मूसा (अलैहि०) की ज़बान से फेंको' का शब्द निकला, जादूगरों ने यक-बरागी अपनी लाठियाँ और रस्स्यिाँ उनकी ओर फेंक दी और अचानक यह नज़र आया कि सैकड़ों साँप दोड़ते हुए उनकी तरफ़ चले आ रहे हैं। इस दृश्य से तत्काल अगर हज़रत मूसा ने एक भय अपने भीतर महसूस किया हो तो यह कोई विचित्र बात नहीं है। इंसान बहरहाल इंसान ही होता है, चाहे पैग़म्बर ही क्यों न हो, मानवता के तक़ाज़े उससे अलग नहीं हो सकते। इसके आलावा यह भी संभव है कि उस समय हज़रत मूसा (अलैहि०) को यह डर हुआ हो कि मोजज़े से इतना मिलता-जुलता दृश्य देखकर आम लोग ज़रूर फ़िल्ले में पड़ जाएँगे।
وَأَلۡقِ مَا فِي يَمِينِكَ تَلۡقَفۡ مَا صَنَعُوٓاْۖ إِنَّمَا صَنَعُواْ كَيۡدُ سَٰحِرٖۖ وَلَا يُفۡلِحُ ٱلسَّاحِرُ حَيۡثُ أَتَىٰ 68
(69) फे़क जो कुछ तेरे हाथ में है। अभी इनकी सारी बनावटी चीज़ों को निगले जाता है।42 ये जो कुछ बनाकर लाए हैं, यह तो जादूगर का फ़रेब है, और जादूगर कभी सफल नहीं हो सकता, भले ही वह किसी शान से आए।"
42. हो सकता है कि मोजज़े से जो अजगर पैदा हुआ था वह उन तमाम लाठियों और रस्सियों ही को निगल गया हो जो साँप बनी नज़र आ रहीं थीं, लेकिन जिन शब्दों में यहाँ और दूसरी जगहों पर कुरआन में इस घटना का उल्लेख हुआ है उनसे प्रत्यक्ष में तो यही गुमान होता है कि उसने लाठियों और रस्सियों को नहीं निगला, बल्कि उस जादू के प्रभाव को निष्क्रिय कर दिया जिसकी बदौलत वे साँप बनी नज़र आ रही थीं। सूरा आराफ़ और सूरा शुअरा में शब्द ये हैं कि "जो झूठ वे बना रहे थे, उसको यह निगले जा रहा था।" और यहाँ शब्द ये हैं कि निगल जाएगा उस चीज़ को जो उन्होंने बना रखी है। अब यह स्पष्ट है कि उनका झूठ और उनकी बनावट लाठियाँ और रस्सियाँ न थीं, बल्कि वह जादू था जिसकी वजह से वे साँप बनी नज़र आ रही थी।
فَأُلۡقِيَ ٱلسَّحَرَةُ سُجَّدٗا قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِرَبِّ هَٰرُونَ وَمُوسَىٰ 69
(70) आख़िर को यही हुआ कि सारे जादूगर सज्दे में गिरा दिए गए।43 और पुकार उठे, “मान लिया हमने हारून और मूसा के रब को।"44
43. अर्थात् जब उन्होंने मूसा (अलैहि०) को लाठी का कारनामा देखा तो उन्हें तत्काल विश्वास हो गया कि वह निश्चित रूप से मोजज़ा है। उनकी कला की चीज़ कदापि नहीं है। इसलिए वे इस तरह एक साथ अचानक सज्दे में गिरे जैसे किसी ने उठा-उठाकर उनको गिरा दिया हो।
44. इसका अर्थ यह है कि वहाँ सबको मालूम था कि यह मुक़ाबला किस आधार पर हो रहा है । पूर मज्मे में कोई भी इस भ्रम में न था कि मुकाबला मूसा और जादूगरों के करतब का हो रहा है और फैसला इस बात का होना है कि किसका करतब ज़बरदस्त है । सब यह जानते थे कि एक ओर मूसा अपने आपको अल्लाह, ज़मीन व आसमान का पैदा करनेवाले के पैग़म्बर की हैसियत से पेश कर रहे हैं और अपनी पैग़म्बरी के प्रयास में दावा कर रहे हैं कि उनकी लाठी मोजज़े के तौर पर वास्तव में अजगर बन जाती है और दूसरी ओर जादूगरों को खुले आम बुलाकर फ़िरऔन यह सिद्ध करना चाहता है कि लाठी से अजगर बन जाना मोजज़ा नहीं है, बल्कि सिर्फ़ जादू का कतरब है। दूसरे शब्दों में वहाँ फ़िरऔन और जादूगर और सारे तमाशाई आम और खास मोजज़े और जादू के अन्तर को जानते थे और परीक्षा इस बात की हो रही थी कि मूसा जो कुछ दिखा रहे हैं, यह जादू की क़िस्म से है या उस मोजज़े की किस्म से जो सारे जहानों के रब की कुदरत के करिश्मे के सिवा और किसी शक्ति से नहीं दिखाया जा सकता। यही कारण है कि जादूगरों ने अपने जादू को परास्त होते देखकर यह नहीं कहा कि "हमने मान लिया, मूसा हमसे अधिक कमालवाला है, बल्कि उन्हें तुरन्त विश्वास हो गया कि मूसा सच में सारे जहानों के रब अल्लाह के सच्चे पैग़म्बर हैं और वे पुकार उठे कि हम उस अल्लाह को मान गए जिसके पैग़म्बर की हैसियत से मूसा और हारून आए हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आम मज्मे पर इस हार के क्या-क्या प्रभा होंगे और फिर पूरे देश पर उसका कैसा प्रबल प्रभाव हुआ होगा। फ़िरऔन ने देश के सबसे बड़े केन्द्रीय मेले में यह मुक़ाबला इस उम्मीद पर कराया था कि जब मिस्र के हर कोने से आए हुए लोग अपनी आँखों से देख जाएँगे कि लाठी से साँप बना देना मूसा का कोई निराला कमाल नहीं है, हर जादूगर यह करतब दिखा लेता है, तो मूसा की हवा उखड़ जाएगी। लेकिन उसकी यह चाल उसी पर उलट पड़ी और गाँव-गाँव से आए हुए लोगों के सामने स्वयं जादूगरों ही ने मिलकर इस बात की पुष्टि कर दी मूसा जो कुछ दिखा रहे हैं, यह उनकी कला की चीज़ नहीं है, यह सच में मोजज़ा है जो सिर्फ़ अल्लाह का पैग़म्बर ही दिखा सकता है।
قَالَ ءَامَنتُمۡ لَهُۥ قَبۡلَ أَنۡ ءَاذَنَ لَكُمۡۖ إِنَّهُۥ لَكَبِيرُكُمُ ٱلَّذِي عَلَّمَكُمُ ٱلسِّحۡرَۖ فَلَأُقَطِّعَنَّ أَيۡدِيَكُمۡ وَأَرۡجُلَكُم مِّنۡ خِلَٰفٖ وَلَأُصَلِّبَنَّكُمۡ فِي جُذُوعِ ٱلنَّخۡلِ وَلَتَعۡلَمُنَّ أَيُّنَآ أَشَدُّ عَذَابٗا وَأَبۡقَىٰ 70
(71) फ़िरऔन ने कहा, “तुम इसपर ईमान ले आए, इससे पहले कि मैं तुम्हें इसकी अनुमति देता? मालूम हो गया कि यह तुम्हारा गुरु है, जिसने तुम्हें जादूगरी सिखाई थी 45। अच्छा, अब मैं तुम्हारे हाथ-पाँव विपरीत दिशा से कटवाता हूँ।46 और खजूर के तनों पर तुमको सूली देता हूँ।47 फिर तुम्हें पता चल जाएगा कि हम दोनों में से किसका अज़ाब अधिक कठोर और देर तक रहनेवाला है48 (अर्थात् यानी मैं तुम्हें अधिक कठोर सज़ा दे सकता हूँ या मूसा) ।
45. सूरा-7 (आराफ़) में शब्द इस प्रकार हैं, "यह एक षड्यंत्र है जो तुम लोगों ने राजधानी में साँठ-गांठ करके की है ताकि राज्य से उसके मालिकों को बे-दखल कर दो।" यहाँ इस बात का और अधिक विवरण यह दिया गया है कि तुम्हारे बीच केवल सांठ-गाँठ ही नहीं है, बल्कि मालूम यह होता है यह मूसा वास्तव में तुम्हारा सरदार और गुरु है, तुमने मोजज़े से हार नहीं मानी है, बल्कि अपने गुरु से जादू में हार मानी है और तुम आपस में यह तय करके आए हो कि अपने गुरु का ग़लबा साबित करके और उसे उसकी पैग़म्बरी का सुबूत बनाकर यहाँ राजनैतिक क्रान्ति पैदा कर दो।
46. अर्थात् एक ओर का हाथ और दूसरी ओर का पाँव ।
قَالُواْ لَن نُّؤۡثِرَكَ عَلَىٰ مَا جَآءَنَا مِنَ ٱلۡبَيِّنَٰتِ وَٱلَّذِي فَطَرَنَاۖ فَٱقۡضِ مَآ أَنتَ قَاضٍۖ إِنَّمَا تَقۡضِي هَٰذِهِ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَآ 71
(72) जादूगरों ने उत्तर दिया, "क़सम है उस हस्ती की जिसने हमें पैदा किया है, यह कदापि नहीं हो सकता कि हम रौशन निशानियाँ सामने आ जाने के बाद भी (सच्चाई पर) तुझे प्राथमिकता दें।49 तू जो कुछ करना चाहे कर ले। तू ज़्यादा से ज़्यादा बस इसी दुनिया की जिंदगी का फैसला कर सकता है।
49. दूसरा अनुवाद इस आयत का यह भी हो सकता है, "यह कदापि नहीं हो सकता है कि हम उन रौशन निशानियों के मुकाबले में जो हमारे सामने आ चुकी हैं, और उस हस्ती के मुकाबले में जिसने हमें पैदा किया है,तुझे प्राथमिकता दें।"
إِنَّهُۥ مَن يَأۡتِ رَبَّهُۥ مُجۡرِمٗا فَإِنَّ لَهُۥ جَهَنَّمَ لَا يَمُوتُ فِيهَا وَلَا يَحۡيَىٰ 73
(74) सच तो यह50 है कि जो अपराधी बनकर अपने रब के हुजूर हाज़िर होगा उसके लिए जहन्नम है जिसमें वह न जिएगा, न मरेगा।51
50. यह जादूगरों की बात पर अल्लाह की अपनी वृद्धि है। वर्णन-शैली स्वयं बता रही है कि यह वाक्य जादूगरों के कथन का भाग नहीं है।
51. अर्थात् मौत और ज़िंदगी के बीच लटकता रहेगा, न मौत आएगी कि उसके कष्ट और विपत्ति का अन्त कर दे और न जीने का ही कोई रस उसे प्राप्त होगा कि जीवन को मृत्यु पर प्राथमिकता दे सके। जीवन से उदासीन होगा, मगर मौत नसीब न होगी। मरना चाहेगा, मगर मर न सकेगा। कुरआन मजीद में दोज़ख़ के अज़ाबों के जितने विवरण दिए गए हैं, उनमें सबसे अधिक भयानक अज़ाब का रूप यही है जिसकी कल्पना से आत्मा काँप उठती है।
وَلَقَدۡ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰٓ أَنۡ أَسۡرِ بِعِبَادِي فَٱضۡرِبۡ لَهُمۡ طَرِيقٗا فِي ٱلۡبَحۡرِ يَبَسٗا لَّا تَخَٰفُ دَرَكٗا وَلَا تَخۡشَىٰ 76
(77) हमने52 मूसा पर वह्य की कि अब रातों रात मेरे बन्दों को लेकर चल पड़ और उनके लिए समुद्र में से सूखी सड़क बना ले।53 तुझे किसी के पीछा करने का तनिक भी डर न हो। और न (समुद्र के बीच से गुजरते हुए) डर लगे।
52. बीच में उन परिस्थितियों का विवरण दिया गया है जो उसके बाद मिस्र के लम्बे समय तक ठहरने के ज़माने में सामने आईं, अब उस समय का उल्लेख शुरू होता है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) को हुक्म हुआ कि बनी इसराईल को लेकर मिश्र से निकल खड़े हों।
53. इसका सार-संक्षेप यह है कि अल्लाह ने आखिरकार एक रात निश्चित फ़रमा दी जिसमें तमाम इसराईली और गैर-इसराईली मुसलमानों को (जिनके लिए "मेरे बन्दों" का व्यापक शब्द इस्तेमाल किया गया है) मिस्र के हर भाग से हिजरत के लिए निकल पड़ना था। ये सब लोग एक तयशुदा स्थान पर जमा हो कर क़ाफ़िले के रूप में रवाना हो गए। उस ज़माने में स्वेज़ नहर मौजूद न थी। लाल सागर से रूम सागर तक का पूरा क्षेत्र खुला हुआ था, मगर इस क्षेत्र के तमाम रास्तों पर फौजी छावनियाँ थीं, जिनसे सकुशल नहीं गुज़रा जा सकता था। इसलिए हज़रत मूसा (अलैहि.) ने लाल सागर की ओर जानेवाला रास्ता अपनाया, शायद उनका विचार यह था कि समुद्र के किनारे-किनारे चलकर सीना प्रायद्वीप की ओर निकल जाएँ। लेकिन उधर से फ़िरऔन एक भारी सेना लिए पीछा करते हुए ठीक उस मौक़े पर आ पहुँचा जब कि यह काफिला अभी समुद्र के तट पर ही था । सूरा 26 (शुअरा) में बयान हुआ है कि मुहाजिरों का क़ाफ़िला फ़िरऔनी फ़ौज और समुद्र के बीच बिल्कुल घिर चुका था। ठीक उसी समय अल्लाह ने हज़रत मूसा (अलैहि०) को आदेश दिया, “अपना डंडा समुद्र पर मार,” "तत्काल समुद्र फट गया और उसका हर पना टुकड़ा एक बड़े टीले की तरह खड़ा हो गया।" और बीच में सिर्फ यही नहीं कि क़ाफ़िले के गुजरने के लिए रास्ता निकल आया, बल्कि बीच का यह भाग ऊपर की आयत के अनुसार सूखकर सूखी सड़क की तरह बन गया । (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा 26 शुअरा, टिप्पणी 47)
وَأَضَلَّ فِرۡعَوۡنُ قَوۡمَهُۥ وَمَا هَدَىٰ 78
(79) फ़िरऔन ने अपनी क़ौम को गुमराह ही किया था, कोई सही रास्ता नहीं दिखाया था।55
55. बड़ी सूक्ष्म शैली में मक्का के काफ़िरों को सचेत किया जा रहा है कि तुम्हारे सरदार और लीडर भी तुमको उसी रास्ते पर लिए जा रहे हैं जिसपर फ़िरऔन अपनी क़ौम को ले जा रहा था। अब तुम स्वयं देख लो कि यह कोई सही मार्गदर्शन न था। [बाइबल की किताब निर्गमन में इस किस्से के जो विवरण बयान हुए हैं, उनका जाइज़ा लीजिए और क़ुरआन के बयान से उनका मुक़ाबला कीजिए, तो] उन लोगों के झूठ की वास्तविकता स्पष्ट हो जाएगी जो कहते हैं कि क़ुरआन में ये किस्से बनी इसराईल से नक़ल कर लिए गए। बाइबल के बयानों में न सिर्फ़ यह कि इस क़िस्से की सारी आत्मा बुरी तरह समाप्त कर दी गई है, बल्कि इनमें स्पष्ट विरोधाभास भी पाया जाता है। (देखिए किताब निर्गमन, अध्याय 4, आयत 2-5, अध्याय 5, आयत 2-3, अध्याय 7, आयत 8-12, अध्याय 14, आयत 15-16, और आयत 21-22]
يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ قَدۡ أَنجَيۡنَٰكُم مِّنۡ عَدُوِّكُمۡ وَوَٰعَدۡنَٰكُمۡ جَانِبَ ٱلطُّورِ ٱلۡأَيۡمَنَ وَنَزَّلۡنَا عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَنَّ وَٱلسَّلۡوَىٰ 79
(80) ऐ बनी इसराईल !56 हमने तुमको तुम्हारे दुश्मन से निजात दी और तूर की दाहिनी ओर57 तुम्हारी हाजिरी के लिए समय निश्चित किया58 और तुमपर मन व सलवा उतारा59
56. समुद्र को पार करने से लेकर सीना पर्वत के दामन में पहुंचने तक की दास्तान बीच में छोड़ दी गई है। इसका विवरण सूरा-7 (आराफ़), आयतें 130-147 में आ चुका है।
57. अर्थात् तूर के पूर्वी दामन में ।
وَإِنِّي لَغَفَّارٞ لِّمَن تَابَ وَءَامَنَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا ثُمَّ ٱهۡتَدَىٰ 81
(82) अलबत्ता जो तौबा कर ले और ईमान लाए और भले कर्म करे, फिर सीधा चलता रहे, उसके लिए मैं बहुत क्षमा करनेवाला हूँ।60
60. अर्थात् क्षमा के लिए चार शर्ते हैं। एक तौबा, अर्थात उदंडता व अवज्ञा या शिर्क व कुफ़ से बाज़ आ जाना। दूसरे ईमान अर्थात् अल्लाह और रसूल और किताब और आख़िरत को सच्चे दिल से मान लेना। तीसरे भला कर्म अर्थात अल्लाह और रसूल की हिदायतों के अनुसार भले कार्य करना। चौथे एह्तदा अर्थात् सीधे रास्ते पर जम जाना और फिर ग़लत रास्ते पर न जा पड़ना।
۞وَمَآ أَعۡجَلَكَ عَن قَوۡمِكَ يَٰمُوسَىٰ 82
(83) और61 क्या चीज़ तुम्हें अपनी क़ौम से पहले ले आई62, मूसा ?
61. यहाँ से वर्णन क्रम उस घटना के साथ जुड़ता है जो अभी ऊपर बयान हुआ है अर्थात बनी इसराईल से यह वादा किया गया था कि तुम तूर की दाहिनी ओर ठहरो और चालीस दिन की मुददत गुज़रने पर तुम्हें हिदायतनामा दिया जाएगा। अब उस मौक़े का उल्लेख शुरू होता है, जब हज़रत मूसा (अलैहि०) तूर के दामन में बनी इसराईल को छोड़कर शरीअत के आदेश लेने के लिए तूर पहाड़ पर गए।
62. अल्लाह के इस कथन से मालूम होता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) अपनी क़ौम को रास्ते ही में छोड़कर अपने रब की मुलाक़ात के शौक़ में आगे चले गए थे। तूर को ओर ऐमन में, जहाँ का वादा बनी इसराईल से किया गया था, अभी काफिला पहँचने भी न पाया था कि हज़रत मूसा (अलैहि०) अकेले रवाना हो गए और हाज़िरी दे दी। उस अवसर पर जो मामले अल्लाह और बन्दे के बीच हुए उनका विवरण सूरा-7 आराफ़, आयतें 142-147 में अंकित है। यहाँ उन घटनाओं का केवल वह भाग बयान किया जा रहा है जो बनी इसराईल के बछड़े को पूजा से सम्बन्धित है । इसके बयान से अभिप्राय मक्का के विधर्मियों को यह बताना है कि एक क़ौम में बुतपरस्ती के चलन का आरंभ किस प्रकार हुआ करता है और अल्लाह के नबी इस फ़ितने को अपनी कौम में सर उठाते देखकर कैसे बेचैन हो जाया करते हैं
قَالَ فَإِنَّا قَدۡ فَتَنَّا قَوۡمَكَ مِنۢ بَعۡدِكَ وَأَضَلَّهُمُ ٱلسَّامِرِيُّ 84
(85) “फ़रमाया, अच्छा, तो सुनो, हमने तुम्हारे पीछे तुम्हारी क़ौम को आज़माइश में डाल दिया और सामरी 63 ने उन्हें प्रथभ्रष्ट कर डाला।"63अ
63. यह उस व्यक्ति का नाम नहीं है, बल्कि स्पष्ट मालूम होता है कि यह बहरहाल कोई न कोई निस्बत ही है। मूल अरबी में अरबी शब्द निस्वत और सम्बन्ध के लिए आया है उससे निस्वत चाहे किमी क़बीले की तरफ या नस्ल की तरफ या किसी जगह की तरफ हो। फिर कुरआन जिस तरह अस्सामरी कहकर इसका उल्लेख कर रहा है, उससे यह भी अनमान होता है कि उस समय में सामरी कबीले या नस्ल या जगह के बहुत से लोग मौजूद थे, जिनमें से एक विशेष सामरी वह आदमी था जिसने बनी इसराईल में सुनहरे बछड़े की पूजा प्रचलित की। इससे अधिक कोई व्याख्या कुरआन की इस जगह की व्याख्या के लिए वास्तव में दरकार नहीं है, लेकिन यह जगह उन महत्वपूर्ण जगहों में से है जहाँ ईसाई मिशनरियों और मुख्य रूप से प्राच्य विद्या विचारकों ने कुरआन पर आलोचना की अति कर दी है। वे कहते हैं कि यह मआज़ल्लाह ! (अल्लाह की पनाह) कुरआन के लेखक की अज्ञानता का स्पष्ट प्रमाण है, इसलिए कि इसराईली राज्य की राजधानी सामरिया का इस घटना की कई सदी बाद 925 ई० पूर्व के करीब जमाने में निर्माण हुआ। फिर इसके भी कई सदी बाद इसराईलियों और गैर-इसराईलियों की वह मिश्रित नस्ल पैदा हुई जिसने 'सामरियों के नाम से ख्याति पाई । उनका विचार है कि इन सामरियों में चूँकि दूसरी शिर्कभरी बिदअतों के साथ-साथ सुनहरे बछड़े की पूजा का रिवाज भी था और यहूदियों के जरिये से मुहम्मद (सल्ल०) ने इस बात की सुन-गुन पा ली होगी, इसलिए उन्होंने ले जाकर उसका ताल्लुक हज़रत मूसा के युग से जोड़ दिया और यह किस्सा गढ़ डाला कि वहाँ सुनहरी बछड़े की पूजा का रिवाज डालनेवाला एक सामरी व्यक्ति था। शायद ज्ञान और खोज का दावा करनेवालों का अनुमान यह है कि पुराने समय में एक नाम का एक ही आदमी या क़बीला या स्थान हुआ करता था और एक नाम के दो या अधिक व्यक्तियों या कबीलों या स्थान के होने की निश्चित रूप से कोई संभावना न थी हालाँकि सुमेरी प्राचीन इतिहास की एक बड़ी प्रसिद्ध क़ौम थी, जो हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) के काल में इराक़ और उसके आस-पास के क्षेत्रों पर छाई हुई थी और इस बात की बड़ी संभावना है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के युग में इस कौम के या इसकी किसी शाखा के लोग मिस्र में सामरी कहलाते हो, फिर खुद उस सामरिया की मूल को भी देख लीजिए जिसके ताल्लुक से उत्तरी फ़िलस्तीन के लोग बाद में सामरी कहलाने लगे। बाइबल का बयान है कि इसराईल राज्य के शासक उमरी ने एक आदमी 'समर' नामी से वह पहाड़ खरीदा था जिसपर उसने बाद में अपनी राजधानी बनाई, और चूँकि पहाड़ के पिछले मालिक का नाम समर था इसलिए इस शहर का नाम सामरिया रखा गया (राजा 1, अध्याय 16, आयत 24)। इससे स्पष्ट है कि सामरिया के अस्तित्व में आने से पहले समर नाम के लोग पाए जाते थे और उनसे निस्बत पाकर उनकी नस्ल या कबीले का नाम सामरी और जगहों का नाम सामरिया होना कम से कम सम्भव अवश्य था।
63अ अर्थात सोने का बछड़ा बनाकर उन्हें उसकी पूजा में लगा दिया।
فَرَجَعَ مُوسَىٰٓ إِلَىٰ قَوۡمِهِۦ غَضۡبَٰنَ أَسِفٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ أَلَمۡ يَعِدۡكُمۡ رَبُّكُمۡ وَعۡدًا حَسَنًاۚ أَفَطَالَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡعَهۡدُ أَمۡ أَرَدتُّمۡ أَن يَحِلَّ عَلَيۡكُمۡ غَضَبٞ مِّن رَّبِّكُمۡ فَأَخۡلَفۡتُم مَّوۡعِدِي 85
(86) मूसा सख्त गुस्से और परेशानी की हालत में अपनी क़ौम की ओर पलटा । जाकर उसने कहा, "ऐ मेरी कौम के लोगो ! क्या तुम्हारे रब ने तुमसे अच्छे वादे नहीं किए थे?64 क्या तुम्हें दिन लग गए हैं?65 या तुम अपने रब का प्रकोप ही अपने ऊपर लाना चाहते थे कि तुमने मुझसे वादा- ख़िलाफ़ी की?’’66
64. “अच्छा वादा नहीं किया था" भी अनुवाद हो सकता है। मूल में जो अनुवाद हमने अपनाया है, उसका अर्थ यह है कि आज तक तुम्हारे रब ने तुम्हारे साथ जितनी भलाइयों का वादा भी किया है, वे सब तुम्हें मिलती रही हैं। तुम्हें मिस्र से सकुशल निकाला, दासता से छुटकारा दिलाया, तुम्हारे दुश्मन को तहस नहस कर दिया। तुम्हारे लिए इन जंगलों और पहाड़ी इलाकों में साये और भोजन का प्रबन्ध किया। क्या ये सारे अच्छे वादे पूरे नहीं हुए? दूसरे अनुवाद का अर्थ यह होगा कि तुम्हें शरीअत और आदेश-पत्र प्रदान करने का जो वादा किया गया था, क्या तुम्हारे नज़दीक वह किसी खैर और भलाई का वादा न था?
65. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि क्या वादा पूरा होने में बहुत देर लग गई कि तुम अधीर हो गए। पहले अनुवाद का अर्थ यह होगा कि तुमपर अल्लाह अभी-अभी जो महान उपकार कर चुका है, क्या उनको कुछ बहुत अधिक समय बीत गया है कि तुम उन्हें भूल गए? दूसरे अनुवाद का अर्थ स्पष्ट है कि आदेश-पत्र प्रदान करने का जो वादा किया गया था, उसको पूरा होने में कोई देर तो नहीं हुई है जिसको तुम अपने लिए उन और बहाना बना सको।
قَالُواْ مَآ أَخۡلَفۡنَا مَوۡعِدَكَ بِمَلۡكِنَا وَلَٰكِنَّا حُمِّلۡنَآ أَوۡزَارٗا مِّن زِينَةِ ٱلۡقَوۡمِ فَقَذَفۡنَٰهَا فَكَذَٰلِكَ أَلۡقَى ٱلسَّامِرِيُّ 86
(87) उन्होंने जवाब दिया, "हमने आपसे किए गए वादे के ख़िलाफ़ कार्य कुछ अपने अधिकार से नहीं किया, मामला यह हुआ कि लोगों के जेवरों के बोझ से हम लद गए थे और हमने बस उनको फेंक67 दिया था"
67. यह उन लोगों का बहाना था जो सामरी के फ़ितने के शिकार हुए। उनका कहना यह था कि हमने जेवर फेंक दिए थे। न हमारी कोई नीयत बछड़ा बनाने की थी, न हमें मालूम था कि क्या बननेवाला है। इसके बाद जो मामला पेश आया, वह था ही कुछ ऐसा कि उसे देखकर हम बेइजियार शिर्क में पड़ गए। “लोगों के जेवरों के बोझ से हम लद गए थे", इसका सीधा अर्थ तो यह है कि हमारे मर्दो और औरतों ने मिस्र की रस्मों के अनुसार जो भारी-भारी ज़ेवर पहन रखे थे, वे इस जंगल-जंगल घूमने में हमपर बोझ हो गए थे और हम परेशान थे कि इस बोझ को कहाँ तक लादे फिरें । लेकिन बाइबल का बयान है कि ये ज़ेवर मिस्र से चलते समय हर इसराईली घराने की औरतों और मर्दो ने अपने मित्री पड़ोसी से माँग कर ले लिए थे और इस तरह हर एक अपने पड़ोसी को लूटकर रातों रात हिजरत के लिए चल खड़ा हुआ था [और यह सब कुछ अल्लाह के आदेश की रौशनी में हज़रत मूसा (अलैहि०) के कहने पर हुआ था (किताब निर्गमन, अध्याय 3, 14-22, अध्याय 11, आयत 2-3, अध्याय 12, आयत 35-36]। आयत के दूसरे टुकड़े “और हमने बस उनको फेंक दिया था" का अर्थ हमारी समझ में यह आता है कि जब अपने ज़ेवरों को लादे फिरने से लोग तंग आ गए होंगे तो आपसी मश्विरे से यह बात तय पाई होगी कि सबके ज़ेवर एक जगह जमा कर लिए जाएँ और यह नोट कर लिया जाए कि किसका कितना सोना और किसकी कितनी चाँदी है, और फिर उनको गलाकर ईंटों और छड़ों के रूप में ढाल लिया जाए ताकि कौम के सारे सामान के साथ गधों और बैलों पर उनको लादकर चला जा सके। चुनांचे इस प्रस्ताव के अनुसार हर आदमी अपने ज़ेवर ला-लाकर ढेर में फेंकता चला गया होगा।
فَأَخۡرَجَ لَهُمۡ عِجۡلٗا جَسَدٗا لَّهُۥ خُوَارٞ فَقَالُواْ هَٰذَآ إِلَٰهُكُمۡ وَإِلَٰهُ مُوسَىٰ فَنَسِيَ 87
(88) फिर68 इसी तरह सामरी ने भी कुछ डाला और उनके लिए एक बछड़े की मूरत बनाकर निकाल लाया, जिसमें से बैल की-सी आवाज़ निकलती थी। लोग पुकार उठे, “यही है तुम्हारा खुदा और मूसा का ख़ुदा, मूसा इसे भूल गया।”
68. यहाँ से आयत 91 के अन्त तक के वाक्यों पर विचार करने से साफ़ महसूस होता है कि कौम का जवाब 'फेंक दिया था' पर समाप्त हो गया है और बाद का विवरण अल्लाह स्वयं बता रहा है। इससे वस्तुस्थिति यह मालूम होती है कि लोग पेश आनेवाले फ़ितने से बे-खबर अपने-अपने ज़ेवर ला-लाकर ढेर करते चले गए और सामरी साहब भी उनमें शामिल थे। बाद में ज़ेबर गलाने की सेवा सामरी साहब ने अपने ज़िम्मे ले ली और कुछ ऐसी चाल चली कि सोने की ईंटे या छड़ बनाने के बजाय एक बछड़े की मूर्ति भट्ठी से बरामद हुई, जिसमें से बैल की-सी आवाज़ निकलती थी। इस तरह सामरी ने क़ौम को धोखा दिया कि मैं तो सिर्फ़ सोना गलाने का क़ुसूरवार है, यह तुम्हारा खुदा आप ही इस रूप में प्रकट हो गया है।
قَالُواْ لَن نَّبۡرَحَ عَلَيۡهِ عَٰكِفِينَ حَتَّىٰ يَرۡجِعَ إِلَيۡنَا مُوسَىٰ 90
(91) मगर उन्होंने उससे कह दिया कि “हम तो इसी की पूजा करते रहेंगे जब तक कि मूसा हमारे पास वापस न आ जाए।69"
69. बाइबेल इसके विपरीत हज़रत हारून को आरोपित करती है कि बछड़ा बनना और उसे उपास्य क़रार देने का महापाप उन्हीं से हुआ था । (निर्गमन, अध्याय 32, आयत 1-5)
अधिक संभव है कि बनी इसराईल के यहाँ यह ग़लत रिवायत इस वजह से मशहूर हुई हो कि सामरी का नाम भी हारून ही हो और बाद के लोगों ने इस हारून को हारून नबी (अलैहिस्सलातु वस्सलाम) के साथ गड-मड कर दिया हो। लेकिन आज ईसाई मिशनरियों और पश्चिमी प्राच्य विद्या विचारकों को आग्रह है कि क़ुरआन यहाँ भी ज़रूर ग़लती पर है, बछड़े को ख़ुदा उनके मुक़द्दस नबी ने ही बनाया था और उनके दामन से इस कलंक को साफ़ करके क़ुरआन ने एक उपकार नहीं, बल्कि उल्टे ग़लती की है। यह है उन लोगों की हठधर्मी का हाल। और उनको नज़र नहीं आता कि इसी अध्याय में कुछ लाइन आगे चलकर स्वयं बाइबल अपनी ग़लत बयानी का रहस्य किस तरह खोल रही है। इस अध्याय की अन्तिम दस आयतों में बाइबिल यह बयान करती है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने इसके बाद बनी लावी को जमा किया और अल्लाह का यह हुक्म सुनाया कि जिन लोगों ने शिर्क का यह महापाप किया है, उन्हें क़त्ल किया जाए। चुनांचे उस दिन तीन हज़ार आदमी क़त्ल किए गए। अब सवाल यह है कि हज़रत हारून क्यों छोड़ दिए गए? अगर वही अपराध की नींव डालनेवाले थे तो उन्हें इस क़त्ले आम से किस तरह माफ़ किया जा सकता था? आगे चलकर बयान किया जाता है कि मूसा ने ख़ुदावन्द के पास जाकर अर्ज़ किया कि अब बनी इसराईल का पाप माफ़ कर दे, वरना मेरा नाम अपनी किताब में से मिटा दे। इसपर अल्लाह ने उत्तर दिया कि जिसने मेरा गुनाह किया है, मैं उसी का नाम अपनी किताब में से मिटाऊँगा, लेकिन हम देखते हैं कि हज़रत हारून का नाम नहीं मिटाया गया, बल्कि इसके विपरीत उनको और उनकी सन्तान को बनी इसराईल में सबसे बड़ा पद अर्थात् बनी लावी की सरदारी और मक्दिस की कहानत (पुरोहित का पद) प्रदान किया गया (गिनती, अध्याय 18, आयत 1-7)। क्या बाइबल की यह आन्तरिक साक्ष्य स्वयं उसके अपने पिछले बयान का खंडन और कुरआन के बयान की पुष्टि नहीं कर रही है?
قَالَ يَٰهَٰرُونُ مَا مَنَعَكَ إِذۡ رَأَيۡتَهُمۡ ضَلُّوٓاْ 91
(92.93) मूसा (क़ौम को डाँटने के बाद हारून की ओर पलटा और) बोला, "हारून ! तुमने जब देखा था कि ये पथभ्रष्ट हो रहे हैं तो किस चीज़ ने तुम्हारा हाथ पकड़ा था कि मेरे तरीक़े पर अमल न करो? क्या तुमने मेरे आदेश का उल्लंघन किया?70"
70. आदेश से तात्पर्य वह आदेश है जो पहाड़ पर जाते समय और अपनी जगह हज़रत हारून को बनी इसराईल की सरदारी सौंपते समय हज़रत मूसा (अलैहि०) ने दिया था। सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 142 में यह बात बीत चुकी है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने जाते हुए अपने भाई हाल से बता कि तुम मेरी बीमा में मेरी जानशीनी करो और देखो, सुधार करना, बिगाड़ पैदा करनेवालों के तरीके का पालन न करना।
قَالَ يَبۡنَؤُمَّ لَا تَأۡخُذۡ بِلِحۡيَتِي وَلَا بِرَأۡسِيٓۖ إِنِّي خَشِيتُ أَن تَقُولَ فَرَّقۡتَ بَيۡنَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَلَمۡ تَرۡقُبۡ قَوۡلِي 93
(94) हारून ने उत्तर दिया, “ऐ मेरी माँ के बेटे! मेरी दाढ़ी न पकड़, न मेरे सर के बाल खींच,71 मुझे इस बात का डर था कि आकर कहगा कि तुमने बनी इसराईल में फूट डाल दी और मरी बात का लिहाज़ न किया।‘’72
71. इन आयतों के अनुवाद में हमने इस बात को ध्यान में रखा है कि हज़रत मूसा (अलैहिक) छोटे भाई है, मगर मंसब (पद) के लिहाज से बड़े थे और हजरत हारून बड़े भाई थे, मगर मसब के लिहाज से छोटे थे।
72. हज़रत हारून (अलैहि०) के इस उत्तर का यह अर्थ कदापि नहीं है कि कौम का एक रहना उसके सीधे रास्ते पर रहने से अधिक महत्त्व रखता है और एकता चाहे वह शिर्क पर ही क्यों न हो,फूट से बेहतर है। इस आयत का यह अर्थ अगर कोई आदमी लेगा तो कुरआन से हिटायत के बजाय गुमराही लेगा। हज़रत हासन (अलैहि०) की पूरी बात समझने के लिए इस आयत को सूरा-7 (आराफ) की आयत 150 के साथ मिलाकर पढ़ना चाहिए जहाँ हजरत हारून फरमाते हैं कि "मेरी माँ के बेटे। इन लोगों ने मुझे दबा लिया और क़रीब था कि मुझे मार डालते । अत: तू दुश्मनों को मुझपर हँसने का मौका न दे और उस ज़ालिम गिरोह में मेरी गिनती न कर।" इससे वस्तु स्थिति का यह चित्र सामने आता है कि हजरत हारून (अलैहि०) ने लोगों को इस गुमराही से रोकने की पूरी कोशिश की, मगर उन्होंने आपके विरुद्ध भारी विवाद खड़ा कर दिया और आपको मार डालने पर तुल गए। विवश होकर आप इस आशंका से चुप हो गाए, कि कहीं हज़रत मूसा (अलैहि.) के आने से पहले यहाँ आपसी लड़ाई न शुरू हो जाए, और वे बाट में आकर शिकायत करें कि तुम अगर इस स्थिति से निमट न पा रहे थे तो तुमने मामले को इस हद तक क्यों बिगड़ जाने दिया? मेरे आने का इन्तिजार क्यों नहीं किया? सूरा-7 (आराफ) वाली आयत के अन्तिम वाक्य से यह भी मामूल होना है कि कौम में दोनों भाइयों के दुश्मनों की एक तादाद मौजूद थी।
قَالَ بَصُرۡتُ بِمَا لَمۡ يَبۡصُرُواْ بِهِۦ فَقَبَضۡتُ قَبۡضَةٗ مِّنۡ أَثَرِ ٱلرَّسُولِ فَنَبَذۡتُهَا وَكَذَٰلِكَ سَوَّلَتۡ لِي نَفۡسِي 95
(96) ठारने उत्तर दिया, "मैंने वह चीज़ देखी जो इन लोगों को नज़र न आई, अतः मैंने रमूल के घट चिहन से एक मुट्टी मिट्टी उठा ली और उसको डाल दिया। मेरे मन ने मुझे कुछ ऐसा ही सुझाया।‘’73
73. इस आयत की टीका में एक अनोखी खींचतान की गई है। लेकिन वर्णन क्रम में इसे रखका देखिए तो बड़ी आसानी से बात समझ में आ जाएगी कि सामरी एक बिगाड़ पैदा करनेवाला आदमी था जिसने ख़ूब सोच-समझकर एक जबरदस्त धोखादेही की स्कीम तैयार की थी। उसने सिर्फ यही नहीं किया कि सोने का बछड़ा बनाकर उसमें किसी उपाय से बछडे की-सी आवाज़ पैदा कर दी और सारी कौम के अज्ञानी और नासमझ लोगों को धोखे में डाल दिया, बल्कि इसपर यह धृष्टता भी की कि स्वयं हजरत मूसा (अलैहि०) के सामने एक फरेब भरी दास्तान गढ़कर रख दी। उसने दावा किया कि मुझे बह कुछ नज़र आया जो दूसरों को नज़र न आता था और साथ-साथ यह कहानी भी गढ़ दो कि रसूल के पद चिह्न की एक मुट्ठी भर मिट्टी से यह करामत (चमत्कार) प्रकट हुई है। रसूल से तात्पर्य सम्भव है जिबील (अलैहि०) ही हों, जैसा कि पुराने टीकाकारों ने समझा है, लेकिन शायद तात्पर्य स्वयं खुद हज़रत मूसा (अलैहि०) हैं। सामरी एक मक्कार आदमी था, उसने हज़रत मूसा (अलैहि०) को भी अपनी चाल के जाल में फाँसना चाहा और उनसे कहा कि श्रीमन् ! यह आपके पैरों के धूल को बरकत है कि मैंने जब उसे गले हुए सोने में डाला तो इस शान का बछड़ा उससे बरामद हुआ। वह इस तरह हज़रत मूसा (अलैहि०) को मानसिक घूस देना चाहता था, ताकि वे इसे अपने क़दमों के निशान की मिट्टी का करिश्मा समझकर फूल जाएँ। कुरआन इस सारे मामले को सामरी के छल ही के रूप में प्रस्तुत कर रहा है, अपनी ओर से घटना के रूप में बयान नहीं कर रहा है कि इससे कोई परेशानी पैदा होती हो।
قَالَ فَٱذۡهَبۡ فَإِنَّ لَكَ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ أَن تَقُولَ لَا مِسَاسَۖ وَإِنَّ لَكَ مَوۡعِدٗا لَّن تُخۡلَفَهُۥۖ وَٱنظُرۡ إِلَىٰٓ إِلَٰهِكَ ٱلَّذِي ظَلۡتَ عَلَيۡهِ عَاكِفٗاۖ لَّنُحَرِّقَنَّهُۥ ثُمَّ لَنَنسِفَنَّهُۥ فِي ٱلۡيَمِّ نَسۡفًا 96
(97) मूसा कहा, "अच्छा, अब तू जा, अब जिंदगी भर तुझे यही पुकारते रहना है कि मुझे न छूना।74 और तेरे लिए पूछ-ताल का एक समय निश्चित है जो तुझसे कदापि न टलेगा और देख अपने उस खुदा को जिसपर तू रोझा हुआ था, अब हम उसे जला डालेगे और टुकड़े-टुकड़े करके नदी में बहा देंगे।
74. अर्थात् केवल यही नहीं कि जिंदगी भर के लिए समाज से उसके संबंध तोड़ दिए गए और उसे बनाकर रख दिया गया, बल्कि यह ज़िम्मेदारी भी उसी पर डाली गई कि हर आदमी को वह स्वयं अपने अछूतपन के बारे में बताए और दूर ही से लोगों को सूचित करता रहे कि मैं अछूत हूँ, मुझे हाथ न लगाना ।
كَذَٰلِكَ نَقُصُّ عَلَيۡكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ مَا قَدۡ سَبَقَۚ وَقَدۡ ءَاتَيۡنَٰكَ مِن لَّدُنَّا ذِكۡرٗا 98
(99) ऐ नबी !75 इस तरह हम पिछले बीते हुए हालात की खबरें तुमको सुनाते हैं, और हमने मुख्य रूप से अपने यहाँ से तुमको एक 'ज़िक्र' (नसीहत का सबक) प्रदान किया है।76
75. मूसा (अलैहि०) का किस्सा समाप्त करके अब फिर भाषण की दिशा उस विषय को ओर मुड़ती है जिससे सूरा का आरम्भ हुआ था। आगे बढ़ने से पहले एक बार पलटकर सूरा को आरंभिक आयतों को पड़ लीजिए, जिनके बाद यकायक की हज़रत मूसा (अलैहि०) का किस्सा शुरू हो गया था। इससे आपको समझ में अच्छी तरह यह बात आ जाएगी कि सूरा में मूल वार्ता का विषय क्या है, बीच में मूसा (अलैहि०) का किस्सा किसलिए बयान हुआ है। और अब किस्सा समाप्त करके किस तरह भाषण अपने विषय की ओर पलट रहा है।
76. अर्थात् यह कुरआन जिसके बारे में सूरा के आरंभ में कहा गया था कि यह कोई अनहोना काम तुमसे लेने और तुमको बैठे-बिठाए एक परेशानी में डालने के लिए नहीं नाज़िल किया गया है, यह तो एक याददेहानी और नसीहत (तज़किरा) है हर उस व्यक्ति के लिए जिसके दिल में अल्लाह का कुछ डर हो।
خَٰلِدِينَ فِيهِۖ وَسَآءَ لَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ حِمۡلٗا 100
(101) और ऐसे सब लोग हमेशा उसके वबाल में गिरफ़्तार रहेंगे और कियामत के दिन उनके लिए (इस अपराध की ज़िम्मेदारी का बोझ) बड़ी पीड़ादायक बोझ होगा।77
77. इसमें पहली बात तो यह बताई गई है कि जो आदमी नसीहत के इस सबक़ अर्थात् कुरआन से मुँह मोड़ेगा, वह किसी और का नहीं, अपनी ही हानि करेगा। दूसरी बात यह बताई गई कि कोई आदमी, जिसको क़ुरआन की यह नसीहत पहुँचे और फिर वह इसे स्वीकार करने से पहलू बचाए, आखिरत में सज़ा पाने से बच नहीं सकता। आयत के शब्द आम हैं। किसी कौम, किसी देश, किसी समय के लिए मुख्य नहीं हैं।
يَوۡمَ يُنفَخُ فِي ٱلصُّورِۚ وَنَحۡشُرُ ٱلۡمُجۡرِمِينَ يَوۡمَئِذٖ زُرۡقٗا 101
(102) उस दिन जबकि सूर फूँका जाएगा78 और हम अपराधियों को इस हाल में घेर लाएँगे कि उनकी आँखें (दहशत के मारे) पथराई हुई होगी,79
78. सूर यानी नरसिंघा, क़रनाअ या बूक। आजकल इसी का बदल बिगुल है। अल्लाह अपनी सृष्टि की व्यवस्था को समझाने के लिए उन शब्दों और परिभाषाओं को इस्तेमाल करता है जो स्वयं मानव-जीवन में इसी से मिलती-जुलती व्यवस्था के लिए इस्तेमाल होते हैं। इन शब्दों और पारिभाषिक शब्दों के इस्तेमाल से अभिप्रेत हमारे विचार को असल चीज़ के करीब ले जाना है, न यह कि हम अल्लाह के राज्य की व्यवस्था को अलग-अलग चीज़ों को ठीक-ठीक उन सीमित अर्थों में लें और उन सीमित शक्लों में चीज़ें समझ लें जैसा कि वह हमारी जिंदगी में पाई जाती हैं। प्राचीन समय से लेकर आज तक लोगों को जमा करने और महत्त्वपूर्ण बातों का एलान करने के लिए कोई न कोई ऐसी चीज़ फूंकी जाती रही है जो सूर या बिगुल से मिलती-जुलती हो । अल्लाह बताता है कि ऐसी ही एक चीज़ क़ियामत के दिन फूँकी जाएगी जिसकी शक्ल हमारे नरसिंघा जैसी होगी।
79. मूल शब्द 'जुर्कन' प्रयुक्त हुआ है जो 'अज़रक़' का बहुवचन है। कुछ लोगों ने इसका अर्थ यह लिया है कि वे लोग ख़ुद ‘अज़रक’ (सफ़ेदी माइल नीलगूँ) हो जाएँगे, क्योंकि डर और दहशत के मारे उनका ख़ून सूख जाएगा और कुछ दूसरे लोगों ने इस शब्द को 'अज़कुल ऐन' (करंजी आँखोंवाले) के अर्थ में लिया है और वे इसका अर्थ यह लेते हैं कि भय की अधिकता से उनकी आंखें पथरा जाएँगी। जब किसी आदमी की आँख बे-नूर (ज्योतिहीन) हो जाती है तो उसकी आँख का रंग उजला पड़ जाता है।
يَتَخَٰفَتُونَ بَيۡنَهُمۡ إِن لَّبِثۡتُمۡ إِلَّا عَشۡرٗا 102
(103) आपस में चुपके-चुपके कहेंगे कि "दुनिया में मुश्किल ही से तुमने कोई दस दिन बिताए होंगे’’80
80. दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि “मौत के बाद से इस वक़्त तक तुमको मुश्किल ही से दस दिन बीते होंगे।” क़ुरआन मजीद की दूसरी जगहों से मालूम होता है कि क़ियामत के दिन लोग अपनी दुनिया की ज़िंदगी के बारे में भी यह अनुमान लगाएँगे कि वह बहुत थोड़ी थी। [देखिए, सूरा-23 (मोमिनून), आयत 112-113] और मौत से लेकर कियामत तक जो समय बीता होगा, उसके बारे में भी उनके अनुमान कुछ ऐसे ही होंगे [देखिए सूरा-30 (रूम), आयत 55-56] | इन विभिन्न स्पष्टीकरणों से सिद्ध होता है कि दुनिया की जिंदगी और बरज़ख की जिंदगी, दोनों ही को वे बहुत छोटी समझेंगे।
نَّحۡنُ أَعۡلَمُ بِمَا يَقُولُونَ إِذۡ يَقُولُ أَمۡثَلُهُمۡ طَرِيقَةً إِن لَّبِثۡتُمۡ إِلَّا يَوۡمٗا 103
(104) हमें 81 ख़ूब मालूम है कि वे क्या बातें कर रहे होंगे। (हम यह भी जानते हैं कि) उस समय उनमें से जो अधिक से अधिक सावधानी से अन्दाज़ा लगानेवाला होगा, वह कहेगा कि नहीं, तुम्हारी दुनिया की ज़िन्दगी बस एक दिन की ज़िन्दगी थी।
81. सन्दर्भ से हटकर बीच में आया एक वाक्य है जो भाषण के बीच सुननेवालों के इस सन्देह को दूर करने के लिए कहा गया है कि आखिर उस समय हश्र के मैदान में भागते हुए लोग चुपके चुपके जो बातें करेंगे, वे आज यहाँ कैसे बयान हो रही हैं।
لَّا تَرَىٰ فِيهَا عِوَجٗا وَلَآ أَمۡتٗا 106
(107) कि उसमें तुम कोई बल और सलवट न देखोगे।83
83. आख़िरत की दुनिया में धरती का जो नया रूप बनेगा उसे कुरआन मजीद में विभिन्न अवसरों पर बयान किया गया है | जैसे सूरा-84 (इंशिकाक़), आयत 3, सूरा-82 (इंफ़ितार) आयत 3, सूरा-81 (तक्वीर) आयत 6 और सूरा-20 (ता. हा.) की यह आयत।। इन सब आयतों को सामने रखने से जो रूप मन में उभरता है वह यह है कि आख़िरत की दुनिया में सम्पूर्ण भूमंडल समुद्रों को पाटकर, पहाड़ों को तोड़कर ऊँचे-नीचे स्थानों को समतल और जंगलों को साफ़ करके एक गेंद की तरह बना दिया जाएगा। यही वह रूप है जिसके बारे में सूरा-14 (इबराहीम) आयत 48 में फ़रमाया, “वह दिन जबकि धरती बदलकर कुछ से कुछ कर दी जाएगी।" और यही पृथ्वी का वह रूप होगा जिसपर हश्र कायम होगा और अल्लाह तआला अदालत फ़रमाएगा। फिर उसका अन्तिम और शाश्वत रूप वह बना दिया जाएगा जिसको सूरा-39 (ज़ुमर) आयत 74 में यूँ बयान फरमाया गया है कि "परहेज़गार लोग कहेंगे कि शुक्र है उस अल्लाह का जिसने हमसे अपने वादे पूरे किए और हमको धरती का वारिस बना दिया। हम उस जन्नत में जहाँ चाहे अपनी जगह बना सकते हैं। अतः सर्वश्रेष्ठ बदला है अमल करनेवालों के लिए।" इससे मालूम हुआ कि अन्ततः यह पूरा भू-मंडल जन्नत बना दिया जाएगा और अल्लाह के नेक और भले बन्दे इसके वारिस होंगे। (स्पष्ट रहे कि सहाबा व ताबईन में से इल्ने अब्बास और कतादा भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि जन्नत इसी धरती पर होगी और सूरा-53 (नज्म) की आयत "इन-द सिदरतिल मुन्तहा, इन-दहा जन्नतुल मावा” का मतलब यह बताते हैं कि इससे तात्पर्य वह जन्नत है जिसमें अब शहीदों की रूहें रखी जाती हैं।)
يَوۡمَئِذٖ يَتَّبِعُونَ ٱلدَّاعِيَ لَا عِوَجَ لَهُۥۖ وَخَشَعَتِ ٱلۡأَصۡوَاتُ لِلرَّحۡمَٰنِ فَلَا تَسۡمَعُ إِلَّا هَمۡسٗا 107
(108) उस दिन सब लोग पुकारनेवाले की पुकार पर सीधे चले आएँगे, कोई तनिक भर अकड़ न दिखा सकेगा, आवाजें रहमान के आगे दब जाएँगी, एक सरसराहट84 के सिवा तुम कुछ न सुनोगे ।
84. तात्पर्य यह है कि वहाँ कोई आवाज़, अलावा चलनेवालों के क़दमों की आहट और चुपके-चुपके बात करनेवालों की खुसर-फुसर के, नहीं सुनी जाएगी। एक घबराहटपूर्ण माहौल होगा।
يَوۡمَئِذٖ لَّا تَنفَعُ ٱلشَّفَٰعَةُ إِلَّا مَنۡ أَذِنَ لَهُ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَرَضِيَ لَهُۥ قَوۡلٗا 108
(109) उस दिन सिफ़ारिश काम न आएगी सिवाय इसके कि किसी को रहमान इसकी इजाजत दे और उसकी बात सुनना पसंद करे85
85. इस आयत के दो अनुवाद हो सकते हैं, एक वह जो ऊपर किया गया है। दूसरा यह कि "उस दिन सिफ़ारिश काम न आएगी, अलावा इसके कि किसी के पक्ष में रहमान इसकी अनुमति दे और इसके लिए सुनने पर राज़ी हो।" शब्द इतने व्यापक है जो दोनों अर्थ रखते हैं और सच्चाई भी यही है कि कियामत के दिन किसी को दम मारने तक का साहस न होगा, कहाँ यह कि कोई सिफ़ारिश के लिए अपने आप ज़बान खोल सके। सिफारिश वही कर सकेगा जिसे अल्लाह बोलने की इजाजत दे और उसी के पक्ष में कर सकेगा, जिसके लिए अल्लाह के दरबार से सिफारिश करने की इजाज़त मिल जाए। ये दोनों बातें क़ुरआन में कई जगहों पर खोलकर बता दी गई हैं | देखिए सूरा-2 (अल-बक़रा) आयत 255, सूरा-78 (नबा), आयत 38, सूरा-21 (अंबिया) आयत 28, सूरा-53 (नज्म) आयत 26 ]
يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡ وَلَا يُحِيطُونَ بِهِۦ عِلۡمٗا 109
(110) वह लोगों का अगला-पिछला सब हाल जानता है और दूसरों को उसका पूरा ज्ञान नहीं है86
86. यहाँ कारण बताया गया है कि सिफ़ारिश पर यह पाबन्दी क्यों है। फ़रिश्ते हों या नबी या वली, किसी को भी यह मालूम नहीं है और नहीं हो सकता कि किसका रिकार्ड कैसा है, कौन दुनिया में क्या करता रहा है। इसके विपरीत अल्लाह को हर एक के पिछले कारनामों और करतूतों का भी ज्ञान है। और वह यह भी जानता है कि अब उसकी नीति क्या है। ऐसी स्थिति में यह कैसे सही हो सकता है कि फ़रिश्तों, नबियों और भले लोगों को सिफ़ारिश की खुली छूट दे दी जाए और हर एक जिसके हक में जो सिफ़ारिश चाहे कर दे। इसलिए सिफारिश का सही, उचित और न्याय संगत तरीका वही हो सकता है जो इस आयत में बयान किया गया है। अर्थात् यह कि सिफ़ारिश करनेवाले। सिफारिश करने से पहले इजाज़त तलब करेंगे और जिसके पक्ष में अल्लाह उन्हें बोलने की इजाजत देगा केवल उसी के हक़ में वे सिफारिश कर सकेंगे। फिर सिफारिश के लिए भी शर्त यह होगी कि वह उचित और न्याय संगत हो। जैसा कि अल्लाह का यह इर्शाद “और बात ठीक कहेगा" स्पष्ट कर रहा है।
وَمَن يَعۡمَلۡ مِنَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَلَا يَخَافُ ظُلۡمٗا وَلَا هَضۡمٗا 111
(112) और किसी अन्याय या हक़ के मारे जाने का ख़तरा न होगा उस आदमी को जो भले कर्म करे और इसके साथ वह ईमानवाला भी हो।87
87. अर्थात् वहाँ फ़ैसला हर इंसान के गुणों (Merits) के आधार पर होगा। जो आदमी किसी अत्याचार के पाप का बोझ उठाए हुए आएगा, चाहे उसने अत्याचार अपने अल्लाह के हकों पर किया हो या अल्लाह के बन्दों के हक़ों पर या स्वयं अपने आपपर, बहरहाल यह चीज़ उसे सफलता का मुंह न देखने देगी। दूसरी ओर जो लोग ईमान और भले कर्म (केवल भले कर्म नहीं, बल्कि ईमान के साथ भले कर्म और केवल ईमान भी नहीं, बल्कि भले कर्म के साथ ईमान) लिए हुए आएँगे, उनके लिए वहाँ न तो इस बात का कोई अन्देशा है कि उनपर अत्याचार होगा अर्थात् खाह-मखाह बे-कुसूर उनको सज़ा दी जाएगी और न इसी बात का कोई खतरा है कि उनके किए-कराए पर पानी फेर दिया जाएगा, उनके जाइज़ हक़ मार खाए जाएँगे ।
وَكَذَٰلِكَ أَنزَلۡنَٰهُ قُرۡءَانًا عَرَبِيّٗا وَصَرَّفۡنَا فِيهِ مِنَ ٱلۡوَعِيدِ لَعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ أَوۡ يُحۡدِثُ لَهُمۡ ذِكۡرٗا 112
(113) और ऐ नबी ! इसी तरह हमने इसे अरबी क़ुरआन बनाकर उतारा है। 88 और इसमें तरह-तरह से चेतावानियाँ दी है, शायद कि ये लोग टेढ़े रास्ते पर चलने से बचे या इनमें कुछ होश के लक्षण इसके कारण पैदा हों।89
88. अर्थात् ऐसे ही विषयों, शिक्षाओं और उपदेशों से भरा हुआ। इसका इशारा उन तमाम विषयों की ओर है जो क़ुरआन में बयान हुए हैं, न कि केवल क़रीबी विषय की ओर जो ऊपरवाली आयतों में बयान हुआ है और इसके बयान का सिलसिला उन आयतों से जुड़ता है जो कुरआन के बारे में सूरा के शुरू में और फिर मूसा के किस्से के अन्त पर इर्शाद फरमाई गई हैं। अर्थ यह है कि वह 'तज्क़िरा' जो तुम्हारी ओर भेजा गया है और वह ‘ज़िक्र' जो हमने ख़ास अपने यहाँ से तुमको दिया है, इस शान का तज्क़िरा और ज़िक्र है।
89. अर्थात् अपनी ग़फ़लत से चौके और उनको कुछ इस बात का एहसास हो कि किन राहों में भटके चले जा रहे हैं और इस गुमराही का अंजाम क्या है।
فَتَعَٰلَى ٱللَّهُ ٱلۡمَلِكُ ٱلۡحَقُّۗ وَلَا تَعۡجَلۡ بِٱلۡقُرۡءَانِ مِن قَبۡلِ أَن يُقۡضَىٰٓ إِلَيۡكَ وَحۡيُهُۥۖ وَقُل رَّبِّ زِدۡنِي عِلۡمٗا 113
(114) अत: उच्च है अल्लाह, वास्तविक सम्राट90, और देखो क़ुरआन पढ़ने में जल्दी न किया करो, जब तक कि तुम्हारी ओर उसकी वह्य पूर्णता को न प्राप्त हो जाए और दुआ करो कि ऐ पालनहार ! मुझे और अधिक ज्ञान प्रदान कर।91
90. इस प्रकार के वाक्य क़ुरआन में सामान्य रूप से एक भाषण को समाप्त करते हुए कहे जाते हैं और अभिप्राय यह होता है कि कलाम का अन्त अल्लाह की प्रशंसा और गुण-गान पर हो । शैली और प्रसंग व संदर्भ पर विचार करने से स्पष्ट रूप से जान पड़ता है कि यहाँ एक भाषण समाप्त हो गया और “व ल-क़द अहिदना इला आ-द-म” से दूसरा भाषण शुरू होता है ।
91. वह बात क्या थी जिसपर यह चेतावनी दी गई, इसे स्वयं चेतावनी के शब्द ही स्पष्ट कर रहे हैं। नबी (सल्ल०) वह्य का संदेश वुसूल करने के दौरान में उसे याद करने और ज़बान से दोहराने की कोशिश फ़रमा रहे होंगे जिसके कारण आपका ध्यान बार-बार बट जाता होगा, वह्य अपनाने के क्रम में बाधा पड़ रही होगी। संदेश को सुनने पर पूरा ध्यान केन्द्रित नहीं हो रहा होगा। इस स्थिति को देखकर आपको आदेश दिया गया कि आप वह्य के उतरते समय उसे याद फ़रमाने की कोशिश न किया करें।
इससे मालूम होता है कि सूरा ता० हाका यह हिस्सा आरंभिक समयों की वह्यों में से है। आरंभ में जबकि नबी (सल्ल०) को अभी वह्य अपनाने की आदत अच्छी तरह नहीं पड़ी थी, आपसे कई बार ऐसा काम हो गया है और हर मौके पर कोई न कोई वाक्य इसपर आपको सचेत करने के लिए अल्लाह की ओर से कहा गया है |देखिए सूरा-75 (क़ियामा) आयत 16-19 और सूरा-87 (आला) आयत 6] । बाद में जब आपको वहय के सन्देशों को वुसूल करने की अच्छी तरह महारत हासिल हो गई तो इस तरह की स्थितियाँ आप पर पैदा होनी बन्द हो गई। इसी कारण बाद की सूरतों में ऐसी कोई चेतावनी हमें नहीं मिलती।
وَلَقَدۡ عَهِدۡنَآ إِلَىٰٓ ءَادَمَ مِن قَبۡلُ فَنَسِيَ وَلَمۡ نَجِدۡ لَهُۥ عَزۡمٗا 114
(115) हमने92 इससे पहले आदम को एक आदेश दिया था93, मगर वह भूल गया और हमने उसमें संकल्प न पाया।94
92. यहाँ से एक अलग भाषण आरंभ होता है। ऊपरवाले भाषण से इसके विषय से मेल खाती बातें बहुत हैं। जैसे यह कि-
1. वह भूला हुआ पाठ जिसे कुरआन याद दिला रहा है, वही पाठ है जो मानव-जाति को उसके जन्म के आरंभ में दिया गया था और जिसे याद दिलाते रहने का अल्लाह ने वादा किया था और जिसे याद दिलाने के लिए कुरआन से पहले भी बार-बार 'ज़िक्र' आते रहे हैं ।
2. इंसान उस पाठ को बार-बार शैतान के बहकाने से भूलता है। सबसे पहली भूल उसके पहले माँ-बाप से हुई थी और उसके बाद से इसका सिलसिला बराबर जारी है। इसी लिए इंसान इसका मुहताज है कि उसको बराबर याद दिलाया जाता रहे।
3. यह बात कि इंसान का सौभाग्य और दुर्भाग्य बिल्कुल उस व्यवहार पर आश्रित है जो अल्लाह के भेजे हुए इस 'ज़िक्र' के साथ वह करेगा जो बिल्कुल शुरू ही में साफ़-साफ़ बता दिया गया था।
4. एक चीज़ है भूल और संकल्प की कमी और इरादे की कमज़ोरी जिसके कारण इंसान अपने हमेशा के दुश्मन, शैतान के बहकावे में आ जाए और ग़लती कर बैठे। इसकी माफ़ी हो सकती है। शर्त यह है कि इंसान ग़लती का एहसास होते ही अपने रवैये की सुधार कर ले और विमुखता छोड़कर इताअत (आज्ञापालन) की ओर पलट जाए। दूसरी चीज़ है वह सरकशी और उदंडता और खूब सोच-समझकर अल्लाह के मुकाबले में शैतान की बन्दगी, जैसा कि फ़िरऔन और सामरी ने किया। इस चीज़ के लिए क्षमा की कोई सम्भावना नहीं है।
93. आदम (अलैहि०) का किस्सा इससे पहले सूरा-2 (बक़रा), सूरा-7 (आराफ़, दो जगहों पर) सूरा-15 (हिज्र) सूरा-17 (बनी इसराईल) और सूरा-18 (कहफ़) में गुज़र चुका है। यह सातवाँ मौका है जबकि इसे दोहराया जा रहा है। हर जगह वर्णन-क्रम से इसकी समानता अलग है। और हर जगह इसी समानता की दृष्टि से क़िस्से के विवरण अलग-अलग तरीके से बयान किए गए हैं। किस्से के जो हिस्से एक जगह के विषय से समानता रखते हैं, वे उसी जगह बयान हुए हैं। दूसरी जगह वे न मिलेंगे या वर्णनशैली थोड़ी अलग होगी।
فَقُلۡنَا يَٰٓـَٔادَمُ إِنَّ هَٰذَا عَدُوّٞ لَّكَ وَلِزَوۡجِكَ فَلَا يُخۡرِجَنَّكُمَا مِنَ ٱلۡجَنَّةِ فَتَشۡقَىٰٓ 116
(117) इसपर हमने आदम95 से कहा कि "देखो, यह तुम्हारा और तुम्हारी बीवी का शत्रु है 96, ऐसा न हो कि यह तुम् जन्नत से निकलवा दे 97 और तुम विपत्ति में पड़ जाओ।
95. यहाँ वह मूल उद्देश्य बयान नहीं किया गया है जो आदम (अलैहि०) को दिया गया था, अर्थात् यह कि "इस विशेष पेड़ का फल न खाना।" यहाँ चूँकि बताने की वास्तविक बात सिर्फ़ यह है कि इंसान किस तरह अल्लाह की अग्रिम चेतावनी और समझाने-बुझाने के बावजूद अपने जाने-बूझे दुश्मन के अपहरण से प्रभावित होकर ग़लत राहों पर जा पड़ता है, इसलिए अल्लाह ने वास्तविक आदेश का उल्लेख करने के बजाय यहाँ उस समझाने-बुझाने का उल्लेख किया है जो इस आदेश के साथ हज़रत आदम को किया गया था।
96. शत्रुता का प्रदर्शन उसी समय हो चुका था। आदम और हव्वा (अलैहि०) स्वयं देख चुके थे कि इब्लीस ने उनको सज्दा करने से इंकार किया है और साफ़-साफ़ यह कहकर किया है कि "मैं इससे बेहतर हूँ, तूने मुझे आग से पैदा किया है और इसको मिट्टी से" सूरा -7 (आराफ़) आयत 12, सूरा-38 (साद) आयत 761 फिर इतने ही पर उसने बस न किया, बल्कि अल्लाह से उसने मोहलत भी मांगी कि मुझे अपनी श्रेष्ठता और उसकी अयोग्यता सिद्ध करने का अवसर दीजिए, मैं इसे बहकाकर आपको दिखा दूँगा कि कैसा है यह आपका ख़लीफ़ा । इसलिए अल्लाह ने जब यह फ़रमाया कि यह तुम्हारा शत्रु है, तो यह सिर्फ़ एक परोक्ष की सूचना न थी, बल्कि एक ऐसी चीज़ थी जिसे मौके पर ही अपनी आँखों से दोनों मियां-बीवी देख चुके और अपने कानों से सुन चुके थे।
إِنَّ لَكَ أَلَّا تَجُوعَ فِيهَا وَلَا تَعۡرَىٰ 117
(118-119) यहाँ तो तुम्हें ये सुख-सुविधाएँ हासिल है कि न भूखे-नंगे रहते हो, न प्यास और धूप तुम्हें सताती है।‘’98
98. यह व्याख्या है उस विपत्ति की जिसमें जन्नत से निकलने के बाद इंसान को ग्रस्त हो जाना था। इस अवसर पर जन्नत की बड़ी और पूर्ण एवं श्रेष्ठ नेमतों का उल्लेख करने के बजाय उसकी चार बुनियादी नेमतों का उल्लेख किया गया, अर्थात् यह कि यहाँ तुम्हारे लिए भोजन, पानी, पहनावा और मकान का प्रबन्ध सरकारी तौर पर किया जा रहा है। इससे अपने आप यह बात आदम व हव्वा (अलैहि.) पर स्पष्ट हो गई कि अगर वे शैतान के बहकावे में आकर सरकार के आदेश के विरुद्ध कार्य करेंगे तो जन्नत से निकलकर उन्हें यहाँ की बड़ी नेमतें तो दूर की बात, ये बुनियादी सुख-सुविधाएँ तक न मिल पाएँगी। वे अपनी बिल्कुल आरंभिक आवश्यकताओं तक के लिए हाथ-पाँव मारने और अपनी जान खपाने पर विवश हो जाएँगे।
فَوَسۡوَسَ إِلَيۡهِ ٱلشَّيۡطَٰنُ قَالَ يَٰٓـَٔادَمُ هَلۡ أَدُلُّكَ عَلَىٰ شَجَرَةِ ٱلۡخُلۡدِ وَمُلۡكٖ لَّا يَبۡلَىٰ 119
(120) लेकिन शैतान ने उसको फुसलाया,99 कहने लगा, “आदम ! बताऊँ तुम्हें वह पेड़ जिससे शाश्वत जीवन और अपतनशील राज्य प्राप्त होता है? "100
99. यहाँ क़ुरआन स्पष्ट कर देता है कि आदम व हव्वा (अलैहि०) में से असल वह व्यक्ति जिसको शैतान ने भ्रमित किया, आदम (अलैहि०) थे, न कि हज़रत हव्वा, यद्यपि सूरा-7 (आराफ़) के बयान के अनुसार बात दोनों से कही गई थी और बहकाने में दोनों ही आए, लेकिन शैतान के भ्रमित करने की दिशा वास्तव में हज़रत आदम ही की ओर थी। इसके विरुद्ध बाइबल का बयान यह है कि साँप ने पहले औरत से बात की और फिर औरत ने अपने पति को बहकाकर पेड़ का फल उसे खिलाया । (उत्पत्ति, अध्याय 3)
100. सूरा-7 (आराफ़) में शैतान की बातों की ओर अधिक विवरण हमको यह मिलता है, “उसने कहा कि तुम्हारे रब ने तुमको इस पेड़ से सिर्फ इसलिए रोक दिया है कि कहीं तुम दोनों फ़रिश्ते न हो जाओ, या हमेशा जीते न रहो।" (आयत 20)
فَأَكَلَا مِنۡهَا فَبَدَتۡ لَهُمَا سَوۡءَٰتُهُمَا وَطَفِقَا يَخۡصِفَانِ عَلَيۡهِمَا مِن وَرَقِ ٱلۡجَنَّةِۚ وَعَصَىٰٓ ءَادَمُ رَبَّهُۥ فَغَوَىٰ 120
(121) आख़िर दोनों (पति-पत्नी) उस पेड़ का फल खा गए। नतीजा यह हुआ कि तुरन्त ही उनके गुप्तांग एक-दूसरे के आगे खुल गए और लगे दोनों अपने आप को जन्नत के पत्तों से ढाँकने।101 आदम ने अपने रब की अवज्ञा की और सीधे रास्ते से भटक गया।102
101. दूसरे शब्दों में अवज्ञा-कार्य होते ही वे सुख-सुविधाएँ उनसे छीन ली गई जो सरकारी प्रबन्ध से उनको जुटाई जाती थी, और इसका पहला प्रदर्शन वस्त्र छिन जाने के रूप में हुआ। भोजन, पानी और मकान को महरूमी की नौवत तो बाद को ही आनी थी।
102. यहाँ उस इंसानी कमज़ोरी की वास्तविकता को समझ लेना चाहिए जो आदम (अलैहि०) से प्रकट हुई। अल्लाह को वह अपना पैदा करनेवाला और रब जानते थे और दिल से मानते थे। जन्नत में उनको जो सुख-सुविधाएँ प्राप्त थीं उनका अनुभव उन्हें स्वयं हर क्षण हो रहा था। शैतान के द्वेष और वैर-भाव का भी उनको प्रत्यक्ष ज्ञान हो चुका था और अल्लाह [भी उन्हें इसके बारे में सचेत कर चुका था। इन सारी बातों के बावजूद जब शैतान ने उनको एक भला चाहनेवाला मेहरबान और हितैषी मित्र के भेष में आकर एक बेहतर हालत (शाश्वत जीवन और अमर राज्य) का लालच दिया तो वे उसके लालच के मुक़ाबले में न जम सके और फिसल गए। संकल्प की यह वह कमज़ोरी है जो इंसान से आरंभ ही में प्रकट हुई और बाद में कोई समय ऐसा नहीं गुज़रा है जबकि यह कमज़ोरी उसमें न पाई गई हो।
ثُمَّ ٱجۡتَبَٰهُ رَبُّهُۥ فَتَابَ عَلَيۡهِ وَهَدَىٰ 121
(122) फिर उसके रब ने उसे चुन लिया।103 और उसकी तौबा क़बूल कर ली और उसे रास्ते दिखाया।104
103. अर्थात् शैतान की तरह दरबार से धुत्कारकर निकाल न दिया गया, आज्ञा-पालन के प्रयास में विफल होकर जहाँ गिर गए थे, वहीं उन्हें पड़ा नहीं छोड़ दिया, बल्कि उठाकर फिर अपने पास बुला लिया और अपनी सेवा के लिए चुन लिया।
104. अर्थात् सिर्फ़ माफ़ ही न किया बल्कि आइन्दा के लिए सत्यमार्ग भी बताया और उसपर चलने का तरीक़ा भी सिखाया।
وَمَنۡ أَعۡرَضَ عَن ذِكۡرِي فَإِنَّ لَهُۥ مَعِيشَةٗ ضَنكٗا وَنَحۡشُرُهُۥ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ أَعۡمَىٰ 123
(124) और जो मेरे ज़िक्र (उपदेश पाठ) से मुँह मोड़ेगा, उसके लिए दुनिया में तंग जिंदगी होगी105 और क्रियामत के दिन हम उसे अंधा उठाएँगे।‘’106
105. दुनिया में संग ज़िदंगी होने का अर्थ यह नहीं है कि वह तंगदान हो जाएगा, बल्कि इसका अर्थ यह है कि यहाँ उसे चैन न मिलेगा। करोड़पति भी होगा तो बेचैन रहेगा, बहुत बड़े राज्य का शासक भी होगा तो बेकली और असंतोष से निजात न पाएगा। उसकी दुनिया की सफलताएँ हजारों प्रकार के अवैध उपायों का नतीजा होगी जिनके कारण अपनी अन्तरान्या मे लेकर पास-पड़ोस के पूरे सामूहिक वातावरण तक, हर चीज़ के साथ उसका बराबर संघर्ष चलता रहेगा जो उसे कभी शान्ति-सन्तोष और सच्चे आनद से लाभान्वित न होने देगी।
106. यहाँ आदम (अलैहि०) का किस्सा समाप्त होता है। यह किस्मा जिस तरीक़े से यहाँ और दूसरी जगहों पर बयान हुआ है, उसपर विचार करने से में यह समझा हूँ (अल्लाह ही बेहतर जानता है) कि जमीन की असल ख़िलाफत वही थी जो आदम (अलैहि०) को आरंभ में जन्नत में दी गई थी। वहाँ अल्लाह का ख़लीफ़ा इस शान से रखा गया था कि उसके खाने-पीने और पहनने रहने का सारा प्रबन्ध सरकार के जिम्मे था और सेवक (फ़रिश्ते) उसके आदेश के आधीन थे, मगर इस पद पर स्थायी नियुक्ति होने से पहले परीक्षा लेना ज़रूरी समझा गया, ताकि उम्मीदवार की क्षमताओं का हाल खुल जाए। चुनांचे परीक्षा ली गई और जो बात खुली वह यह थी कि यह उम्मीदवार लोभ से प्रभावित होकर फिसल जाता है, आज्ञापालन के संकल्प पर दृढ़ता नहीं दिखाता और उसके ज्ञान पर धूल ग़ालिब आ जाती है। इस परीक्षा के बाद आदम (अलैहि०) और उनकी सन्तान को स्थायी ख़िलाफ़त पर नियुक्त करने के बजाय परीक्षागत ख़िलाफ़त दी गई और आजमाइश के लिए एक अवधि (जो क्रियामत पर समाप्त होगी) निश्चत का दी गई। इस परीक्षा के युग में उम्मीदवारों के लिए रोजी-रोटी का सरकारी प्रबन्ध समाप्त कर दिया गया। अब अपनी रोजी-रोटी का प्रबन्ध उन्हें खुद करना है, अलबत्ता जमीन और उसकी चीज़ों पर उनके अधिकार बाक़ी हैं । परीक्षा इस बात की है कि अधिकार रखने के बावजूद ये आज्ञापालन करते हैं या नहीं, और अगर भूल हो जाती है या लालच के दबाव में आकर फिसलते हैं तो चेतावनी, याददिहनी और शिक्षा का प्रभाव अपनाकर संभलते भी हैं या नहीं। इस परीक्षागत ख़िलाफ़त के दौरान में हर एक के काम के तरीक़े का रिकार्ड सुरक्षित रहेगा और हिसाब के दिन जो लोग सफल होंगे उन्हीं को फिर स्थायी ख़िलाफ़त उस शाश्वत जीवन और अमर राज्य के साथ, जिसका लालच देकर शैतान ने आदेश के विरुद्ध काम कराया था, प्रदान की जाएगी। उस समय यह पूरी जमीन जन्नत बना दी जाएगी और उसके वारिस अल्लाह के वे नेक बन्दे होंगे जिन्होंने परीक्षागत खिलाफत में आज्ञापालन पर कायम रहकर, या भूल हो जाने के बाद आख़िर में आज्ञापालन की ओर पलटकर अपनी योग्यता सिद्ध कर दी होगी। जन्नत की इस जिंदगी को जो लोग मात्र खाने-पीने और एंडने की जिंदगी समझते हैं उनका विचार सही नहीं है। वहाँ बराबर उन्नति होती रहेगी बिना इसके कि किसी गिरावट का ख़तरा हो, और वहाँ अल्लाह की खिलाफत के शानदार काम इंसान अंजाम देगा, बिना इसके कि उसे फिर किसी विफलता का मुंह देखना पड़े। मगर उन प्रगतियों और उन सेवाओं के बारे में सोच पाना हमारे लिए उतना ही कठिन है जितना एक बच्चे के लिए यह सोच पाना कठिन होता है कि बड़ा होकर जब वह शादी करेगा तो दाम्पत्य जीवन का स्वरूप क्या होगा? इसी लिए क़ुरआन में जन्नत की ज़िंदगी के केवल उन्हीं लज्जतों का उल्लेख किया गया है जिनका हम इस दुनिया की लज्जतों पर विचार करके कुछ अनुमान लगा सकते हैं। आदम और हव्वा (अलैहि०) का किस्सा बाइबल को किताब उत्पत्ति (अध्याय 2, आयत 7-25, अध्याय 3, आयतें 1-23) में जिस तरह बयान हुआ है, उसको अगर कुरआन के इस बयान के मुकाबले में रखकर देखा जाए तो उन लोगों की पक्षपाती मनोवृति पर आश्चर्य होगा| जो यह कहते हुए नहीं शरमाते कि कुरआन में ये किस्से बनी इसराईल से नकल कर लिए गए हैं।
قَالَ كَذَٰلِكَ أَتَتۡكَ ءَايَٰتُنَا فَنَسِيتَهَاۖ وَكَذَٰلِكَ ٱلۡيَوۡمَ تُنسَىٰ 125
(126 अल्लाह फ़रमाएगा, "हाँ, इसी तरह तू ने हमारी आयतों को, जब कि वे तो पास आई थी, भुला दिया था, उसी तरह आज तू भुलाया जा रहा है।‘’107
107. क़ियामत के दिन नई जिंदगी के आरंभ से लेकर जहन्नम में दाख़िल होने तक जिन अलग-अलग दशाओं का सामना अपराधियों को करना होगा उनको क़ुरआन में अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग बयान किया गया है । एक दशा यह है : "तू इस चीज़ से ग़फ़लत में पड़ा हुआ था। अब हमने तेरे आगे से परदा हटा दिया है, आज तेरी निगाह बड़ी तेज़ है" अर्थात् तुझे ख़ूब नज़र आ रहा है। (सूरा-50 काफ़, आयत 22) दूसरी दशा यह है : “अल्लाह तो उन्हें टाल रहा है उस दिन के लिए जब हाल यह होगा कि आँखें फटी की फटी रह गई हैं, सर उठाए भागे चले जा रहे हैं, नजरें ऊपर जमी हैं और दिल हैं कि उड़े जाते (सूरा-14 इब्राहीम, आयत 43)। तीसरी दशा यह है : “और कियामत के दिन हम इसके लिए एक लेख-पत्र निकालेंगे जिसे वह खुली किताब पाएगा। पढ़ अपना कर्म-पत्र, आज अपना हिसाब लगाने के लिए खुद तू ही काफ़ी है।" (सूरा-21 बनी-इसराईल, आयत 13-14) और उन्हीं दशाओं में से एक यह भी है जो इस आयत में बयान हुई। मालूम ऐसा होता है कि अल्लाह की कुदरत से ये लोग आख़िरत के भयावह दृश्य और अपने कर्मों के दुष्परिणामों को तो ख़ूब देखेंगे, लेकिन बस उनकी आँखों की रौशनी यही कुछ देखने के लिए होगी। बाक़ी दूसरी हैसियतों से उनका हाल अंधे का सा होगा, जिसका न कोई हाथ पकड़कर चलानेवाला हो, न जिसे कुछ सूझता हो कि किधर जाए और अपनी ज़रूरतें कहाँ से पूरी करे। इसी दशा को इन शब्दों में बयान किया गया है कि जिस तरह तूने हमारी आयतों को भुला दिया था, उसी तरह आज तू भुलाया जा रहा है।" अर्थात् आज कोई परवाह न की जाएगी कि तू कहाँ-कहाँ ठोकरें खाकर गिरता है और कैसी-कैसी महरूमियाँ सहन कर रहा है, कोई तेरा हाथ न पकड़ेगा।
أَفَلَمۡ يَهۡدِ لَهُمۡ كَمۡ أَهۡلَكۡنَا قَبۡلَهُم مِّنَ ٱلۡقُرُونِ يَمۡشُونَ فِي مَسَٰكِنِهِمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّأُوْلِي ٱلنُّهَىٰ 127
(128) फिर क्या इन लोगों को 109 (इतिहास के इस पाठ से) कोई मार्गदर्शन न मिला कि इनसे पहले कितनी ही कौमों को हम नष्ट कर चुके हैं, जिनकी (बर्बाद की हुई) बस्तियों में आज ये चलते-फिरते हैं ? वास्तव में इसमें110 बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो सद्बुद्धि रखनेवाले हैं।
109. संकेत है मक्कावालों की ओर जिनहें उस समय सम्बोधित किया जा रहा था।
110. अर्थात् इतिहास के इस पाठ में, पुराने खण्डरात के इस देखने में और इंसानी नस्ल के इस अनुभव में।
فَٱصۡبِرۡ عَلَىٰ مَا يَقُولُونَ وَسَبِّحۡ بِحَمۡدِ رَبِّكَ قَبۡلَ طُلُوعِ ٱلشَّمۡسِ وَقَبۡلَ غُرُوبِهَاۖ وَمِنۡ ءَانَآيِٕ ٱلَّيۡلِ فَسَبِّحۡ وَأَطۡرَافَ ٱلنَّهَارِ لَعَلَّكَ تَرۡضَىٰ 129
(130) अत: ऐ नबी ! जो बातें ये लोग बनाते हैं, उनपर धैर्य से काम लो और अपने रब की प्रशंसा और गुणगान के साथ उसकी तस्बीह करो सूरज निकलने से पहले और डूबने से पहले, और रात के वक़्तों में तस्बीह करो और दिन के किनारों पर भी,111 शायद कि तुम राज़ी हो जाओ।112
111. अर्थात् चूँकि अल्लाह उनके लिए मोहलत की एक अवधि निश्चित कर चुका है, इसलिए उसकी दी हुई उस मोहलत के दौरान में ये जो कुछ भी तुम्हारे साथ करें उसको तुम्हें धैर्य के साथ सहन करना होगा। इस धैर्य और सहनशीलता की ताक़त तुम्हें नमाज़ से मिलेगी, जिसको तुम्हें उन समयों में पाबन्दी के साथ अदा करना चाहिए। 'रब की प्रशंसा व गुण-गान के साथ उसकी तस्बीह' करने से तात्पर्य नमाज़ है, जैसा कि आगे चलकर स्वयं कह दिया, "अपने घरवालों को नमाज़ की ताकीद करो और स्वयं भी उसके पाबन्द रहो।"
नमाज़ के समयों की ओर यहाँ भी स्पष्ट संकेत कर दिया गया है। सूरज निकलने से पहले फज्र की नमाज़, सूरज डूबने से पहले अस्र को नमाज़ और रात के वक्तों में इशा और तहज्जुद की नमाज़ । रहे दिन के किनारे, तो वे तीन ही हो सकते हैं। एक किनारा सुबह है, दूसरा किनारा सूरज ढलना और तीसरा किनारा शाम । इसलिए दिन के किनारों से तात्पर्य फ़ज्र, जुहर और मग़रिब की नमाज़ ही हो सकती है। (और अधिक विवरण के लिए देखिए सूरा-11 (हुद), टिप्पणी 113, सूरा-17 (बनी इसराईल), टिप्पणी 91-97, सूरा-30 (अर-रूम) टिप्पणी 24, सूरा-40 अल-मोमिन टिप्पणी 74|)
112. इसके दो अर्थ हो सकते हैं और शायद दोनों ही से अभिप्रेत हैं।
وَلَا تَمُدَّنَّ عَيۡنَيۡكَ إِلَىٰ مَا مَتَّعۡنَا بِهِۦٓ أَزۡوَٰجٗا مِّنۡهُمۡ زَهۡرَةَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا لِنَفۡتِنَهُمۡ فِيهِۚ وَرِزۡقُ رَبِّكَ خَيۡرٞ وَأَبۡقَىٰ 130
(131) और निगाह उठाकर भी न देखो दुनियावी जिंदगी की उस शान व शौकत को जो हमने इनमें से विभिन्न प्रकार के लोगों को दे रखी है। वह तो हमने उन्हें परीक्षा में डालने के लिए दी है, और तेरे रब की दी हुई हलाल रोज़ी113 ही बेहतर और बाकी रहनेवाली है।
113. मूल अरबी शब्द 'रिक' का अनुवाद हमने 'हलाल रोज़ी' किया है, क्योंकि अल्लाह ने कहीं भी हराम माल को 'रब का रिक' नहीं कहा है। अर्थ यह है कि तुम्हारा और तुम्हारे ईमानवाले साथियों का यह काम नहीं है कि ये अवज्ञाकारी दुष्कर्मी अवैध तरीकों से धन समेट समेटकर अपनी ज़िंदगी में जो प्रत्यक्ष चमक-दमक पैदा कर लेते हैं उसको ललचाई दृष्टि से देखो। जो पाक रोज़ी तुम अपने परिश्रम से कमाते हो, वह चाहे कितनी ही थोड़ी हो, सच्चे और ईमानदार लोगों के लिए वही बेहतर है और इसी में वह भलाई है जो दुनिया से आख़िरत तक बाकी रहनेवाली है।
وَأۡمُرۡ أَهۡلَكَ بِٱلصَّلَوٰةِ وَٱصۡطَبِرۡ عَلَيۡهَاۖ لَا نَسۡـَٔلُكَ رِزۡقٗاۖ نَّحۡنُ نَرۡزُقُكَۗ وَٱلۡعَٰقِبَةُ لِلتَّقۡوَىٰ 131
(132) अपने घरवालों को नमाज़ की ताक़ीद करो114 और स्वयं भी उसके पाबन्द रहो। हम तुमसे कोई रोज़ी नहीं चाहते, रोज़ी तो हम ही तुम्हें दे रहे हैं और अंजाम की भलाई धर्म-परायणता (तक़वा) ही के लिए है।115
114. तुम्हारे बाल-बच्चे भी अपनी तंगदस्ती और दुर्दशा के मुकाबले में इन हरामखोरों को ऐश व अय्याशी करते देखकर हताश न हों, इनसे कहो कि नमाज़ पढ़ो, यह चीज़ उनकी सोच को बदल देगी। वे पाक रोज़ी पर धैर्य से काम करनेवाले और सन्तोष करनेवाले हो जाएंगे और उस भलाई को जो ईमान व ईशभय से प्राप्त होती है, उस ऐश पर तर्जीह देने लगेंगे जो अवज्ञाकारिता, दुष्कर्म और दुनिया-परस्ती से प्राप्त होता है।
115. अर्थात् हम नमाज़ पढ़ने के लिए तुमसे इसलिए नहीं कहते हैं कि इससे हमारा कोई लाभ है। लाभ तुम्हारा अपना ही है और वह यह है कि तुममें ईश-भय पैदा होगा जो लोक और परलोक दोनों ही में अन्तिम और स्थायी सफलता का साधन है।
وَقَالُواْ لَوۡلَا يَأۡتِينَا بِـَٔايَةٖ مِّن رَّبِّهِۦٓۚ أَوَلَمۡ تَأۡتِهِم بَيِّنَةُ مَا فِي ٱلصُّحُفِ ٱلۡأُولَىٰ 132
(133) वे कहते हैं कि यह आदमी अपने रब की ओर से कोई निशानी (मोजज़ा) क्यों नहीं लाता? और क्या इनके पास अगले सहीफ़ों (किताबों) की तमाम शिक्षाओं का बयान खुलकर नहीं आ गया?"116
116. अर्थात् क्या यह कोई कम मोजज़ा (चमत्कार) है कि उन्हीं में से एक अनपढ़ आदमी ने वह किताब पेश की है जिसमें शुरू से अब तक की तमाम आसमानी किताबों के विषयों और शिक्षाओं का सार निकालकर रख दिया गया है। इंसान की हिदायत व रहनुमाई के लिए उन किताबों में जो कुछ था, वह सब न सिर्फ़ यह कि उसमें जमा कर दिया गया, बल्कि उसको ऐसा खोलकर स्पष्ट भी कर दिया गया कि मरुस्थल में रहनेवाले बद्दू तक भी उसको समझकर लाभ उठा सकते हैं।
قُلۡ كُلّٞ مُّتَرَبِّصٞ فَتَرَبَّصُواْۖ فَسَتَعۡلَمُونَ مَنۡ أَصۡحَٰبُ ٱلصِّرَٰطِ ٱلسَّوِيِّ وَمَنِ ٱهۡتَدَىٰ 134
(135) ऐ नबी ! इनसे कहो, हर एक परिणाम की प्रतीक्षा में है,117 अत: अब प्रतीक्षा करो, बहुत जल्द तुम्हें मालूम हो जाएगा कि कौन सीधी राह चक्षनेवाले हैं और कौन हिदायत पाए हुए हैं।
117. अर्थात् जबसे यह दावत तुम्हारे शहर में उठी है, न सिर्फ़ इस शहर का बल्कि पास-पड़ोस के क्षेत्र का भी, हर आदमी इन्तिज़ार कर रहा है कि उसका अंजाम आख़िरकार क्या होता है।