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سُورَةُ الأَنبِيَاءِ

21. अल-अंबिया

(मक्का में उतरी-आयतें 112)

परिचय

नाम

चूँकि इस सूरा में निरन्तर बहुत-से नबियों का उल्लेख हुआ है, इसलिए इसका नाम 'अल-अंबिया' रख दिया गया। यह विषय की दृष्टि से सूरा का शीर्षक नहीं है, बल्कि केवल पहचानने के लिए एक लक्षणमात्र है।

अवतरण काल

विषय और वर्णन-शैली, दोनों से यही मालूम होता है कि इसके उतरने का समय मक्का का मध्यवर्ती काल अर्थात् हमारे काल-विभाजन की दृष्टि से नबी (सल्ल०) की मक्की ज़िन्दगी का तीसरा काल है।

विषय और वार्ताएँ

इस सूरा में उस संघर्ष पर वार्ता की गई है जो नबी (सल्ल०) और क़ुरैश के सरदारों के बीच चल रहा था। वे लोग प्यारे नबी (सल्ल०) की रिसालत के दावे और आपकी तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत और आख़िरत के अक़ीदे पर जो सन्देह और आक्षेप पेश करते थे, उनका उत्तर दिया गया है। उनकी ओर से आपके विरोध में जो चालें चली जा रही थीं, उनपर डॉट-फटकार की गई है और उन हरकतों के बुरे नतीजों से सावधान किया गया है और अन्त में उनको यह एहसास दिलाया गया है कि जिस व्यक्ति को तुम अपने लिए संकट और मुसीबत समझ रहे हो वह वास्तव में तुम्हारे लिए दयालुता बनकर आया है।

अभिभाषण करते समय मुख्य रूप से जिन बातों पर वार्ता की गई है, वे ये हैं-

  1. मक्का के विधर्मियों की यह कुधारणा कि इंसान कभी रसूल नहीं हो सकता और इस आधार पर उनका हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को रसूल मानने से इंकार करना- इस कुधारणा का सविस्तार खण्डन किया गया है।
  2. उनका नबी (सल्ल०) पर और क़ुरआन पर विभिन्न और विरोधाभासी आक्षेप करना और किसी एक बात पर न जमना- इसपर संक्षेप में मगर बहुत ही जोरदार और अर्थगर्भित ढंग से पकड़ की गई है।
  3. उनका यह विचार कि ज़िन्दगी बस एक खेल है जिसे कुछ दिन खेलकर यों ही समाप्त हो जाना है [इसका कोई हिसाब-किताब नहीं]- इसका बड़े ही प्रभावी ढंग से तोड़ किया गया है।
  4. शिर्क पर उनका आग्रह और तौहीद के विरुद्ध उनका अज्ञानतापूर्ण पक्षपात - इसके सुधार के लिए संक्षेप में किन्तु महत्त्वपूर्ण और चित्ताकर्षक दलीलें भी दी गई है।
  5. उनका यह भ्रम कि नबी के बार-बार झुठालाने के बावजूद जब उनपर कोई अज़ाब नहीं आता तो अवश्य ही नबी झूठा है और अल्लाह के अज़ाब की धमकियाँ केवल धमकियाँ हैं- इसको दलीलों से और उपदेश देकर दोनों तरीक़ों से दूर करने की कोशिशें की गई हैं।

इसके बाद नबियों की जीवन-चर्याओं के महत्त्वपूर्ण घटनाओं से कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं जिनसे यह समझाना अभीष्ट है कि वे तमाम पैग़म्बर जो मानव-इतिहास के दौरान ख़ुदा की ओर से आए थे, इंसान थे। ईश्वरत्व और प्रभुता का उनमें लेशमात्र तक न था। इसके साथ इन्हीं ऐतिहासिक उदाहरणों से दो बातें और भी स्पष्ट हो गई हैं-एक यह कि नबियों पर तरह-तरह की मुसीबतें आती रही हैं और उनके विरोधियों ने भी उनको बर्बाद करने की कोशिशें को हैं, मगर आख़िरकार अल्लाह की ओर से असाधारण रूप से उनकी मदद की गई है। दूसरे यह कि तमाम नबियों का दीन एक था और वह वही दीन था जिसे मुहम्मद (सल्ल०) पेश कर रहे हैं। मानव-जाति का असल दीन यही है और बाक़ी जितने धर्म दुनिया में बने हैं, वे केवल गुमराह इंसानों द्वारा डाली हुई फूट और संभेद है। अन्त में यह बताया गया है कि इंसान की नजात (मुक्ति) का आश्रय इसी दीन की पैरवी अपनाने पर है और इसका उतरना तो साक्षात दयालुता है।

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سُورَةُ الأَنبِيَاءِ
21. अल-अंबिया
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
ٱقۡتَرَبَ لِلنَّاسِ حِسَابُهُمۡ وَهُمۡ فِي غَفۡلَةٖ مُّعۡرِضُونَ
(1) क़रीब आ गया है लोगों के हिसाब का वक़्त1 और वे हैं कि ग़फ़लत में मुँह मोड़े हुए हैं।2
1. अभिप्रेत है क़ियामत का क़रीब होना अर्थात् अब वह समय दूर नहीं है जब लोगों को अपना हिसाब देने के लिए अपने रब के आगे उपस्थित होना पड़ेगा। मुहम्मद (सल्ल०) का भेजा जाना इस बात की पहचान है कि मानव-जाति का इतिहास अपने अन्तिम युग में दाखिल हो रहा है। यही विषय है जिसे नबी (सल्ल०) ने एक हदीस में बयान फ़रमाया है। आपने अपनी दो उँगलियाँ खड़ी करके फ़रमाया, "मैं ऐसे समय पर भेजा गया हूँ कि मैं और क़ियामत इन दो उंगलियों की तरह है।" अर्थात मेरे बाद बस कियामत ही है। सम्भलना है तो मेरी दावत पर सम्भल जाओ। कोई और रास्ता दिखानेवाला, शुभ-सूचना देनेवाला और अज़ाब से डरानेवाला नहीं आनेवाला है।
2. अर्थात् किसी चेतावनी की ओर ध्यान नहीं करते, न स्वयं सोचते हैं कि हमारा अंजाम क्या होना है और न उस पैग़म्बर की बात सुनते हैं जो उन्हें सचेत करने की कोशिश कर रहा है।
مَا يَأۡتِيهِم مِّن ذِكۡرٖ مِّن رَّبِّهِم مُّحۡدَثٍ إِلَّا ٱسۡتَمَعُوهُ وَهُمۡ يَلۡعَبُونَ ۝ 1
(2) उनके पास जो ताज़ा नसीहत भी उनके रब की ओर से आती है,3 उसको तकल्लुफ़ से सुनते हैं और खेल में पड़े रहते हैं,4
3. अर्थात् क़ुरआन को हर नई सूरत जो मुहम्मद (सल्ल०) पर उतरती है और उन्हें सुनाई जाती है।
4. अरबी इबारत “व हुम यल् अबू-न" के दो अर्थ हो सकते हैं। एक वह जो ऊपर अनुवाद में अपनाया गया है और उसमें खेल से तात्पर्य यही ज़िंदगी का खेल है जिसे अल्लाह और आख़िरत से ग़ाफ़िल लोग खेलने में लगे हैं। दूसरा अर्थ यह है कि वे इसे गंभीरता से नहीं सुनते, बल्कि खेल और उपहास के रूप में सुनते हैं।
لَاهِيَةٗ قُلُوبُهُمۡۗ وَأَسَرُّواْ ٱلنَّجۡوَى ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ هَلۡ هَٰذَآ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡۖ أَفَتَأۡتُونَ ٱلسِّحۡرَ وَأَنتُمۡ تُبۡصِرُونَ ۝ 2
(3) दिल इनके (दूसरी ही चिन्ताओं में) निमग्न हैं। और ज़ालिम आपस में कानाफूसियाँ करते हैं कि “यह आदमी आख़िर तुम जैसा एक इंसान ही तो है। फिर क्या तुम आँखों देखते जादू के फन्दे में फँस जाओगे?5"
5. मूल अरबी का अनुवाद “फँसे जाते हो" भी हो सकता है और दोनों ही अर्थ सही हैं। कानाफूसियाँ मक्का के विधर्मियों के वे बड़े बड़े सरदार आपस में बैठकें करके किया करते थे, जिन्हें नबी (सल्ल०) की दावत का मुक़ाबला करने की बड़ी चिन्ता लगी हुई थी। वे कहते थे कि यह आदमी बहरहाल नबी तो हो नहीं सकता, क्योंकि हम हो जैसा इंसान है। अलबत्ता इस व्यक्ति की बातों में और इसके व्यक्तित्त्व में एक जादू है कि जो उसकी बात कान लगाकर सुनता है और उसके करीब जाता है, वह उसपर मोहित हो जाता है। इसलिए अगर अपनी कुशलता चाहते हो तो न उसकी सुनो, न उससे मेल-जोल रखो, क्योंकि उसकी बातें सुनना और उसके क़रीब जाना मानो आँखों देखते जादू के फैदे में फँसना है। जिस चीज़ की वजह से वे नबी (सल्ल०) पर “जादू" का आरोप लगाते थे, उसके कुछ उदाहरण नबी (सल्ल०) की जीवनी के प्राचीनतम लेखक मुहम्मद बिन इस्हाक़ (मृत्यु 152 हि०) ने बयान की है। [उदाहरणस्वरूप देखिए सूरा-41 (हा० मीम० अस-सज्दा) को टीका की भूमिका में उतबा बिन रबीआ का वृत्तांत।]
قَالَ رَبِّي يَعۡلَمُ ٱلۡقَوۡلَ فِي ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 3
(4) रसूल ने कहा, "मेरा रब हर उस बात को जानता है जो आसमान और ज़मीन में की जाए, वह सुननेवाला और जाननेवाला है।‘’6
6. अर्थात् रसूल ने कभी इस झूठे प्रोपगंडे और कानाफूसियों की इस मुहिम का उत्तर इसके सिवा न दिया कि "तुम लोग जो कुछ बातें बनाते हो, सब अल्लाह सुनता और जानता है, चाहे ज़ोर से कहो, चाहे चुपके चुपके कानों में फूँको। वह कभी अन्यायी शत्रुओं के मुक़ाबले में वैसा ही जवाब देने पर न उतर आया।
بَلۡ قَالُوٓاْ أَضۡغَٰثُ أَحۡلَٰمِۭ بَلِ ٱفۡتَرَىٰهُ بَلۡ هُوَ شَاعِرٞ فَلۡيَأۡتِنَا بِـَٔايَةٖ كَمَآ أُرۡسِلَ ٱلۡأَوَّلُونَ ۝ 4
(5) वे कहते हैं, "बल्कि ये बिखरे स्वप्न हैं, बल्कि यह इसकी मनगढ़त है, बल्कि यह आदमी कवि है,7 वरना यह लाए कोई निशानी जिस तरह पुराने जमाने के रसूल निशानियों के साथ भेजे गए थे।"
7. इसकी पृष्ठभूमि यह है कि नबी (सल्ल०) की दावत का प्रभाव जब फैलने लगा तो मक्का के सरदारों ने आपस में मशविरा करके यह तय किया कि आपके मुकाबले में प्रोपगंडा की एक मुहिम शुरू की जाए और हर उस व्यक्ति को जो मक्का में दर्शनार्थ आए आपके विरुद्ध पहले से ही इतना बदगुमान कर दिया जाए कि वह आपकी बात सुनने के लिए तैयार ही न हो। यह मुहिम वैसे तो बारह महीने चलती रहती थी, मगर विशेष रूप से हज के समय में अधिक से अधिक आदमी फैला दिए जाते थे जो तमाम बाहरी दर्शनार्थियों के खेमों में पहुंचकर उनको सचेत करते फिरते थे कि यहाँ ऐसा-ऐसा एक आदमी है, उससे होशियार रहना । इन बातों में तरह-तरह की बातें बनाई जाती थीं । कभी कहा जाता कि यह व्यक्ति जादूगर है । कभी कहा जाता कि एक वाणी उसने स्वयं गढ़ रखी है और कहता है कि अल्लाह की वाणी है। कभी कहा जाता कि अजी! वह वाणो क्या है, दीवानों की दीवानगी के गंदे विचारों का पुलिंदा है। कभी कहा जाता कि शायराना (कवित्वमय) विचार और तुक-बन्दियाँ हैं, जिनका नाम उसने कलामे इलाही (ईश्वरीय वाणी) रखा है। लेकिन इस झूठे प्रचार का परिणाम जो कुछ निकला, वह यह था कि नबी (सल्ल.) का नाम उन्होंने स्वयं देश के कोने-कोने में पहुंचा दिया। हर आदमी के मन में एक प्रश्न पैदा हो गया कि आख़िर मालूम तो हो वह कौन ऐसा आदमी है जिसके विरुद्ध यह तूफान खड़ा हो गया है ? [और वह क्या कहता है ? इस तरह कितने ही लोग आपके पास अपने आप पहुंचे और आपकी दावत से प्रभावित होकर आपको पैरवी करनेवाले बन गए। जिसका उत्कृष्ट उदाहरण तुफैल बिन अम्र दौसी हैं। (इनके विस्तृत वृत्तांत के लिए देखिए सीरत इब्ने हिशाम,खण्ड-2. 22-24)]
مَآ ءَامَنَتۡ قَبۡلَهُم مِّن قَرۡيَةٍ أَهۡلَكۡنَٰهَآۖ أَفَهُمۡ يُؤۡمِنُونَ ۝ 5
(6) हालांकि इनसे पहले कोई बस्ती भी, जिसे हमने नष्ट किया, ईमान न लाई। अब क्या ये ईमान लाएँगे?8
8. इस संक्षिप्त वाक्य में निशानी की माँग का जो उत्तर दिया गया है, उसमें तीन विषय हैं- एक यह कि तुम पिछले रसूलों को-सी निशानियाँ माँगते हो, मगर यह भूल जाते हो कि हठ-धर्म लोग उन निशानियों को देखकर भी ईमान न लाए थे। दूसरे यह कि तुम निशानी की मांग तो करते हो, मगर यह याद नहीं रखते कि जिस क़ौम ने भी खुला मोजज़ा आँखों से देख लेने के बाद ईमान लाने से इंकार किया है, वह फिर नष्ट हुए बिना नहीं रही है। तीसरे यह कि तुम्हारी मुँह-माँगी निशानी न भेजना तो तुमपर अल्लाह की एक बड़ी मेहरबानी है। अब तक तुम इंकार पर इंकार किए जाते रहे और अज़ाब में गिफ़्तार न हुए। क्या अब निशानी इसलिए माँगते हो कि उन कौमों का-सा अंजाम देखो जो निशानियाँ देखकर भी ईमान न लाई और नष्ट कर दी गई?
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا قَبۡلَكَ إِلَّا رِجَالٗا نُّوحِيٓ إِلَيۡهِمۡۖ فَسۡـَٔلُوٓاْ أَهۡلَ ٱلذِّكۡرِ إِن كُنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 6
(7) और ऐ नबी, हमने तुमसे पहले भी इंसानों ही को रसूल बनाकर भेजा था, जिनपर हम वल्य (प्रकाशना) किया करते थे।9 तुम लोग अगर ज्ञान नहीं रखते तो अहले किताब से पूछ लो।10
9. यह उत्तर है उनके इस कथन का कि “यह आदमी तुम जैसा एक इंसान ही तो है। वह नबी (सल्ल०) को इंसान होने की इस बात का प्रमाण समझते थे कि आप नबी नहीं हो सकते। उत्तर दिया गया कि पहले समय के जिन लोगों को तुम स्वयं मानते हो कि वे अल्लाह की ओर से भेजे गए थे, वे सब भी इंसान ही थे और इंसान होते हुए ही अल्लाह को वह्य उनपर आई थी। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-36 (यासीन), टिप्‍पणी 11)
10. अर्थात् ये यहूदी, जो आज इस्लाम की दुश्मनी में तुम्हारी हाँ में हाँ मिला रहे हैं और तुमको विरोध के दाव-पेंच सिखाया करते हैं, उन्हीं से पूछ लो कि मूसा और बनी इसराईल के दूसरे नबी कौन थे? इंसान ही थे या कोई और प्राणी?
وَمَا جَعَلۡنَٰهُمۡ جَسَدٗا لَّا يَأۡكُلُونَ ٱلطَّعَامَ وَمَا كَانُواْ خَٰلِدِينَ ۝ 7
(8) उन रसूलों को हमने कोई ऐसा शरीर नहीं दिया था कि वे खाते न हों और न वे सदा जीनेवाले थे।
ثُمَّ صَدَقۡنَٰهُمُ ٱلۡوَعۡدَ فَأَنجَيۡنَٰهُمۡ وَمَن نَّشَآءُ وَأَهۡلَكۡنَا ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 8
(9) फिर देख लो कि आखिरकार हमने उनके साथ अपने वादे पूरे किए और उन्हें और जिस-जिसको हमने चाहा, बचा लिया और मर्यादाहीन लोगों को नष्ट कर दिया।11
11. अर्थात् पिछला इतिहास का पाठ केवल इतना ही नहीं बताता कि पहले जो रसूल भेजे गए थे वे इंसान थे, बल्कि यह भी बताता है कि उनकी सहायता और समर्थन के और उनका विरोध करनेवालों को नष्ट कर देने के जितने वादे अल्लाह ने उनसे किए थे, वे सब पूरे हुए और हर वह क़ौम बर्बाद हुई जिसने उनको नीचा दिखाने का यत्न किया। अब तुम अपना अंजाम स्वयं सोच लो।
لَقَدۡ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكُمۡ كِتَٰبٗا فِيهِ ذِكۡرُكُمۡۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 9
(10) लोगो ! हमने तुम्हारी ओर एक ऐसी किताब भेजी है जिसमें तुम्हारा ही उल्लेख है। क्या तुम समझते नहीं हो?12
12. यह इकट्ठा जवाब है मक्का के विधर्मियों को उन विक्षिप्त बातों का जो वह क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) के बारे में कहते थे कि यह शायरी है, यह जादूगरी है, ये बिखरे सपने हैं, ये मनगढ़ंत कहानियाँ हैं, आदि । इसपर कहा जा रहा है कि इस किताब में आख़िर वह कौन-सी निराली बात है जो तुम्हारी समझ में न आती हो, जिसकी वजह से उसके बारे में तुम इतने परस्पर विरोधी मत कायम कर रहे हो। उसमें तो तुम्हारा अपना ही उल्लेख है । तुम्हारी ही मानसिकता और तुम्हारे ही ज़िंदगी के मामलों पर वार्ता की गई है। तुम्हारी ही प्रकृति और रचना एवं आरंभ और अन्त पर वार्ता है, तुम्हारे ही वातावरण से वे निशानियाँ चुन-चुनकर पेश की गई हैं जो वास्तविकता की ओर संकेत कर रही हैं और तुम्हारे ही नैतिक गुणों में से अच्छाइयों और बुराइयों का अन्तर खोल करके दिखाया जा रहा है, जिसके सही होने पर तुम्हारी अपनी अन्तरात्मा गवाही देती है। इन सब बातों में क्या चीज़ ऐसी उलझी हुई और पेचीदा है कि उसको समझने से तुम्हारी बुद्धि विवश हो?
وَكَمۡ قَصَمۡنَا مِن قَرۡيَةٖ كَانَتۡ ظَالِمَةٗ وَأَنشَأۡنَا بَعۡدَهَا قَوۡمًا ءَاخَرِينَ ۝ 10
(11) कितनी ही ज़ालिम बस्तियाँ हैं जिनको हमने पीसकर रखा दिया और उनके बाद दूसरी किसी क़ौम को उठाया।
فَلَمَّآ أَحَسُّواْ بَأۡسَنَآ إِذَا هُم مِّنۡهَا يَرۡكُضُونَ ۝ 11
(12) जब उनको हमारा अज़ाब महसूस हुआ 13 तो लगे वहाँ से भागने।
13. अर्थात् जब अल्लाह का अज़ाब सर पर आ गया और उन्हें मालूम हो गया कि आ गई विपत्ति ।
لَا تَرۡكُضُواْ وَٱرۡجِعُوٓاْ إِلَىٰ مَآ أُتۡرِفۡتُمۡ فِيهِ وَمَسَٰكِنِكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تُسۡـَٔلُونَ ۝ 12
(13) (कहा गया) “भागो नहीं, जाओ अपने उन्हीं घरों और ऐश के सामानों में जिनके अन्दर तुम चैन कर रहे थे, शायद कि तुमसे पूछा जाए।''14
14. इसके कई अर्थ हो सकते हैं, जैसे-तनिक अच्छी तरह इस अज़ाब का मुआयना करो ताकि कल कोई उसके बारे में पूछे तो ठीक बता सको। अपने वही ठाठ जमाकर फिर मजलिसें गर्म करो, शायद अब भी तुम्हारे नौकर-चाकर हाथ बाँधकर पूछे कि हुजूर क्या हुक्म है। अपनी वही कौंसिलें और कमेटियाँ जमाए बैठे रहो, शायद अब भी तुम्हारे बुद्धिमत्तापूर्ण मश्विरों और विवेकपूर्ण रायों से लाभ उठाने के लिए दुनिया हाज़िर हो।
قَالُواْ يَٰوَيۡلَنَآ إِنَّا كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 13
(14) कहने लगे, “हाय हमारा दुर्भाग्य ! निस्सन्देह हम दोषी थे।”
فَمَا زَالَت تِّلۡكَ دَعۡوَىٰهُمۡ حَتَّىٰ جَعَلۡنَٰهُمۡ حَصِيدًا خَٰمِدِينَ ۝ 14
(15) और वे यही पुकारते रहे, यहाँ तक कि हमने उनको खलियान कर दिया, जिंदगी की एक चिंगारी तक उनमें न रही।
وَمَا خَلَقۡنَا ٱلسَّمَآءَ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَا لَٰعِبِينَ ۝ 15
(16) हमने इस आसमान और जमीन को और जो कुछ इनमें है, कुछ खेल के तौर पर नहीं बनाया है।15
15. यह समीक्षा है उनके उस जीवन-सिद्धांत की जिसके कारण वह नबी (सल्ल०) की दावत पर ध्यान न देते थे। उनका विचार यह था कि इंसान दुनिया में बस यूँ ही स्वतंत्र छोड़ दिया गया है। जो कुछ चाहे करे और जिस तरह चाहे जिए। कोई पूछ-गछ उससे नहीं होनी है, सबको बस यूँ ही फ़ना हो जाना है। कोई दूसरी ज़िंदगी नहीं है जिसमें भलाई का बदला और बुराई की सज़ा हो । यह विचार वास्तव में इस बात का मा समानार्थी था कि सृष्टि की यह सारी व्यवस्था सिर्फ किसी खिलंडरे का खेल है जिसका कोई गंभीर उद्देश्य नहीं है और यही विचार पैग़म्बर को दावत से उनकी बेपरवाही का मूल कारण था।
لَوۡ أَرَدۡنَآ أَن نَّتَّخِذَ لَهۡوٗا لَّٱتَّخَذۡنَٰهُ مِن لَّدُنَّآ إِن كُنَّا فَٰعِلِينَ ۝ 16
(17) अगर हम कोई खिलौना बनाना चाहते और बस यही कुछ हमें करना होता तो अपने ही पास से कर लेते।16
16. अर्थात् हमें खेलना ही होता तो खिलौने बनाकर हम ख़ुद ही खेल लेते । इस स्थिति में यह जुल्म तो कदापि नहीं किया जाता कि खामखाह एक चेतना रखनेवाला, एक विवेकशील कर्तव्यनिष्ठ प्राणी को पैदा कर डाला जात. उसके दर्मियान सत्य व असत्य का यह संघर्ष और खींचातानियाँ कराई जाती और सिर्फ अपने मज़े और मनोरंजन के लिए हम नेक बन्दों को बे-वजह कष्टों में डालते । तुम्हारे प्रभु-पूज्य ने यह दुनिया कुछ रूमी अखाड़े (Colosseum) के रूप में नहीं बनाई है कि बन्दों को दरिंदों से लड़वाकर और उनकी बोटियाँ नुचवाकर ख़ुशी के ठठ्ठे लगाए।
بَلۡ نَقۡذِفُ بِٱلۡحَقِّ عَلَى ٱلۡبَٰطِلِ فَيَدۡمَغُهُۥ فَإِذَا هُوَ زَاهِقٞۚ وَلَكُمُ ٱلۡوَيۡلُ مِمَّا تَصِفُونَ ۝ 17
(18) मगर हम तो असत्य पर सत्य की चोट लगाते हैं जो उसका सिर तोड़ देती है और वह देखते-देखते मिट जाता है, और तुम्हारे लिए तबाही है उन बातों की वजह से जो तुम बनाते हो।17
17. अर्थात् हमारी यह दुनिया एक गंभीर व्यवस्था है जिसमें कोई असत्य चीज़ नहीं जम सकती। असत्य यहाँ जब भी सर उठाता है, सत्य से उसका टकराव होकर रहता है और आखिरकार असत्य मिटकर ही रहता है। इस दुनिया को अगर तुम तमाशागाह समझकर जियोगे या सत्य के विरुद्ध असत्य सिद्धांतों पर काम करोगे तो नतीजा तुम्हारा अपना ही विनाश होगा। मानवजाति का इतिहास उठाकर देख लो कि असत्य सिद्धांतों पर काम करनेवाली कौमें लगातार किस अंजाम से दो-चार होती रही हैं। फिर यह कौन-सी बुद्धिमत्ता है कि जब समझानेवाला समझाए तो उसका उपहास करो और जब अपने ही किए करतूतों के नतीजे अल्लाह के अज़ाब के रूप में सर पर आ जाए तो चीखने लगो कि "हाय हमारा दुर्भाग्य ! निस्सन्देह हम दोषी थे।"
وَلَهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَمَنۡ عِندَهُۥ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ عَنۡ عِبَادَتِهِۦ وَلَا يَسۡتَحۡسِرُونَ ۝ 18
(19) ज़मीन और आसमानों में जो कुछ भी है, अल्लाह का है।18 और जो (फ़रिश्ते) उसके पास हैं,19 वे न अपने आपको बड़ा समझकर उसकी बन्दगी से मुँह फेरते हैं और न खिन्न होते हैं।20
18. यहाँ से तौहीद (एकेश्वरवाद) के पक्ष में और शिर्क के खंडन में वार्ता शुरू होती है जो नबी (सल्ल०) और मक्का के मुश्किों के बीच विवाद की असल वजह थी। अब मुशिकों को यह बताया जा रहा है कि सृष्टि की यह व्यवस्था जिसमें तुम जी रहे हो, उसकी वास्तविकता यह है कि इस संपूर्ण व्यवस्था का पैदा करनेवाला, स्वामी, शासक और रब सिर्फ एक अल्लाह है। और इस सत्य के मुक़ाबले में असत्य यह है कि उसे बहुत-से ख़ुदाओं का संयुक्त शासक समझा जाए, या यह विचार किया जाए कि एक बड़े ख़ुदा की ख़ुदाई में दूसरे छोटे-छोटे खुदाओं का भी कुछ दख़ल है।
19. अर्थात् वही फ़रिश्ते जिनको अरब के मुश्रिक अल्लाह की सन्तान समझकर, या ईश्वरत्त्व में साझी मानकर उपास्य बनाए हुए थे।
يُسَبِّحُونَ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ لَا يَفۡتُرُونَ ۝ 19
(20) रात व दिन उसकी तस्बीह' (गुणगान) करते रहते हैं, दम नहीं लेते।
أَمِ ٱتَّخَذُوٓاْ ءَالِهَةٗ مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ هُمۡ يُنشِرُونَ ۝ 20
(21) क्या इन लोगों के बनाए हुए सांसारिक खुदा ऐसे हैं कि (बेजान को जान प्रदान करके) उठा खड़ा करते हो?21
21. वास्तव में मूल अरबी शब्द “युनशिरून” प्रयुक्त हुआ है जिसकी उत्पत्ति इनशार से हुई है। इनशार का अर्थ है 'बेजान पड़ी हुई चीज़ को उठा खड़ा करना', यद्यपि इस शब्द को कुरआन मजीद में सामान्य रूप से जिंदगी के बाद मौत के लिए प्रयुक्त किया गया है किन्तु पारिभाषिक अर्थ के अलावा मूल शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से यह बेजान चीज़ों में जिंदगी फूंक देने के लिए प्रयुक्त होता है और संदर्भ और पृष्ठभूमि को देखते हुए हम समझते हैं कि यह शब्द यहाँ इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तात्पर्य यह है कि जिन हस्तियों को इन्होंने 'खुदा' बना रखा है, क्या उनमें कोई ऐसा है जो निंजीव में जिंदगी पैदा करता हो? अगर एक अल्लाह के सिवा किसी में यह ताक़त नहीं है- और अरब के मुश्कि स्वयं मानते थे कि किसी में यह ताक़त नहीं है- तो फिर वे उनको खुदा और उपास्य किस लिए मान रहे हैं?
لَوۡ كَانَ فِيهِمَآ ءَالِهَةٌ إِلَّا ٱللَّهُ لَفَسَدَتَاۚ فَسُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ رَبِّ ٱلۡعَرۡشِ عَمَّا يَصِفُونَ ۝ 21
(22) अगर आसमान और ज़मीन में एक अल्लाह के सिवा दूसरे ख़ुदा भी होते तो (ज़मीन और आसमान) दोनों की व्यवस्था बिगड़ जाती।22 अत: पाक है अल्लाह, राजसिंहासन का मालिक,23 उन बातों से जो ये लोग बना रहे है।
22. तर्क देने का यह तरीक़ा सादा भी है और बहुत गहरा भी। सादा-सी बात, जिसको एक मोटी समझ का आदमी भी आसानी से समझ सकता है, यह है कि एक मामूली घर की व्यवस्था भी चार दिन कुशलतापूर्वक नहीं चल सकती अगर उस घर के दो स्वामी हों। और गहरी बात यह है कि सृष्टि की पूरी व्यवस्था, ज़मीन की तहों से लेकर दूर-दूर तक के ग्रहों तक, एक सर्वव्यापी कानून के अनुसार चल रहा है। यह एक क्षण के लिए भी स्थिर नहीं रह सकता और अगर इसकी असीम विभिन्न शक्तियों और अनगिनत चीज़ों के बीच अनुपात, सन्तुलन, समांजस्य और सहयोग न हो, और यह सब कुछ इसके बिना सम्भव नहीं है कि कोई अटल और ग़ालिब और ज़बरदस्त विधान इन अनगिनत चीज़ों और ताक़तों को पूरे मेल के साथ आपस में सहयोग करते रहने पर मजबूर कर रहा हो । अब यह किस तरह सोचा जा सकता है कि बहुत से तानाशाहों के शासन में एक विधान इस नियमबद्धता के साथ विधिवत चल सके? व्यवस्था का मौजूद होना, अनुशासन का पाया जाना स्वयं ही इस बात को अनिवार्य ठहराता है कि नियंता एक ही हो। क़ानून और विधान का सर्वव्यापी होना स्वयं ही इस बात पर गवाह है कि अधिकार एक ही सम्प्रभुत्त्व (सत्ता) में केन्द्रित है और वह विभिन्न शासकों में बंटी हुई नहीं है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-17 (बनी इसराईल),टिप्पणी 47,सूरा-23 (अल-मुअमिनून), टिप्पणी 85)
23. मूल अरबी में 'रब्बुल अर्श' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है सारे जगत् के राजसिंहासन का मालिक अर्थात् सृष्टि-राज के सिंहासन के स्वामी ।
لَا يُسۡـَٔلُ عَمَّا يَفۡعَلُ وَهُمۡ يُسۡـَٔلُونَ ۝ 22
(23) वह अपने कामों के लिए (किसी के आगे) उत्तरदायी नहीं है और सब उत्तरदायी हैं।
أَمِ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةٗۖ قُلۡ هَاتُواْ بُرۡهَٰنَكُمۡۖ هَٰذَا ذِكۡرُ مَن مَّعِيَ وَذِكۡرُ مَن قَبۡلِيۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ٱلۡحَقَّۖ فَهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 23
(24) क्या उसे छोड़कर उन्होंने दूसरे ख़ुदा बना लिए है? ऐ नबी । इनसे कहो कि “लाओ अपना प्रमाण, यह किताब भी मौजूद है जिसमें मेरे समय के लोगों के लिए नसीहत है और वे किताबें भी मौजूद हैं जिनमें मुझसे पहले लोगों के लिए नसीहत थी।‘’24 मगर इनमें से अधिकतर लोग वास्तविकता से अनभिज्ञ हैं, इसलिए मुँह मोड़े हुए हैं।25
24. पहले दो तर्क बुद्धिसंगत थे और यह तर्क नकली तर्क है। इसका अर्थ यह है कि आज तक जितनी किताबें भी अल्लाह की ओर से दुनिया के किसी देश में किसी क़ौम के पैग़म्बर पर उतरी हैं, उनमें से किसी में यह निकालकर दिखा दो कि एक अल्लाह, ज़मीन व आसमान के स्रष्टा के सिवा कोई दूसरा भी ईश्वरत्व में लेशमात्र साझीदार है और किसी और को भी बन्दगी और इबादत का हक़ पहुँचता है। फिर यह कैसा धर्म तुम लोगों ने बना रखा है जिसके समर्थन में न बुद्धि से कोई तर्क है और न आसमानी किताबें ही जिसके लिए कोई गवाही जुटाती हैं।
25. अर्थात् नबी की बात पर इनका ध्यान देना ज्ञान पर नहीं बल्कि अज्ञान पर आधारित है। सत्य से बेख़बर हैं, इसलिए समझानेवाले की बात को ध्यान देने योग्य नहीं समझते हैं ।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ مِن رَّسُولٍ إِلَّا نُوحِيٓ إِلَيۡهِ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنَا۠ فَٱعۡبُدُونِ ۝ 24
(25) हमने तुमसे पहले जो रसूल भी भेजा है, उसको यही वह्य की है कि मेरे सिवा कोई पूज्य नहीं है, अत: तुम लोग मेरी ही बन्दगी करो।
وَقَالُواْ ٱتَّخَذَ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَلَدٗاۗ سُبۡحَٰنَهُۥۚ بَلۡ عِبَادٞ مُّكۡرَمُونَ ۝ 25
(26) ये कहते हैं, "रहमान (करुणामय ईश्वर) औलाद रखता है।‘’26 पाक है अल्लाह, वे (अर्थात फ़रिश्ते) तो बन्दे हैं जिन्हें आदर दिया गया है,
26. यहाँ फिर फ़रिश्तों ही का उल्लेख है जिनको अरब के मुश्कि अल्लाह की बेटियाँ कहते थे। बाद के भाषण से यह बात खुद स्पष्ट हो जाती है।
لَا يَسۡبِقُونَهُۥ بِٱلۡقَوۡلِ وَهُم بِأَمۡرِهِۦ يَعۡمَلُونَ ۝ 26
(27) उनके हुज़ूर बढ़कर नहीं बोलते और बस उसके आदेश का पालन करते है ।
يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡ وَلَا يَشۡفَعُونَ إِلَّا لِمَنِ ٱرۡتَضَىٰ وَهُم مِّنۡ خَشۡيَتِهِۦ مُشۡفِقُونَ ۝ 27
(28) जो कुछ उसके सामने है उसे भी वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है, उसकी भी वह ख़बर रखता है। वे किसी की सिफ़ारिश नहीं करते सिवाय उसके जिसके पक्ष में सिफ़ारिश सुनने पर अल्लाह राजी हो, और वे उसके भय से डरे रहते है।27
27. मुश्रिक फ़रिश्तों को दो कारणों से उपास्य मनाते थे। एक यह कि उनके नज़दीक वे अल्लाह को सन्तान थे, दूसरे यह कि वे उनकी पूजा (खुशामद) करके उन्हें अल्लाह के यहाँ अपना शफीअ (सिफ़ारिशी) बनाना चाहते थे। “और कहते ये हैं कि ये अल्लाह के यहाँ हमारे सिफ़ारिशी हैं।” सूरा-10 (यूनुस) आयत 18 और सूरा-39 (अज़ जुमर) आयत 3 । “हम तो उनकी इबादत सिर्फ इसलिए करते हैं कि वे अल्लाह तक हमारी पहुँच करा दें।" इन आयतों में दोनों कारणों का खंडन कर दिया गया है। इस जगह यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि कुरआन सामान्य रूप से शफाअत (सिफ़ारिश) के शिर्कपूर्ण अकीदे को रद्द करते हुए इस वास्तविकता पर बल देता है कि जिन्हें तुम शिफ़ारिशी ठहराते हो, वे गैब का ज्ञान नहीं रखते और यह कि अल्लाह उन बातों को भी जानता है जो उनके सामने हैं और उन बातों को भी जो उनसे ओझल हैं। इससे यह बात समझना है कि आख़िर उनको सिफ़ारिश करने का निर्बाध और बिना शर्त अधिकार कैसे प्राप्त हो सकता है, जबकि वह हर व्यक्ति के अगले-पिछले और खुली-छिपी दशाओं को नहीं जानता। इसलिए चाहे फ़रिश्ते हों या नबी और सदाचारी लोग, हर एक का सिफ़ारिश करने का अधिकार अनिवार्य रूप से इस शर्त के साथ जुड़ा हुआ है कि अल्लाह उनको किसी के हक़ में शफ़ाअत को इजाज़त दे। अपने आप हर भले-बुरे की शफ़ाअत कर देने का कोई भी अधिकार नहीं रखता, और जब शफाअत सुनना या न सुनना और उसे स्वीकार करना या न करना बिल्कुल अल्लाह की मर्जी पर आश्रित है तो ऐसे अधिकार विहीन शफाअत करनेवाले इस योग्य कब हो सकते हैं कि उनके आगे सर झुका दिए जाएँ और माँगने के लिए हाथ फैला दिया जाए। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-20 (ता० हा०) टिप्पणी 85-80)
۞وَمَن يَقُلۡ مِنۡهُمۡ إِنِّيٓ إِلَٰهٞ مِّن دُونِهِۦ فَذَٰلِكَ نَجۡزِيهِ جَهَنَّمَۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 28
(29) और जो कोई उनमें से कह दे कि अल्लाह के सिवा मैं भी एक खुदा हूँ, तो उसे हम जहन्नम की सज़ा दें, हमारे यहाँ ज़ालिमों का यही बदला है।
أَوَلَمۡ يَرَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَنَّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ كَانَتَا رَتۡقٗا فَفَتَقۡنَٰهُمَاۖ وَجَعَلۡنَا مِنَ ٱلۡمَآءِ كُلَّ شَيۡءٍ حَيٍّۚ أَفَلَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 29
(30) क्या वे लोग, जिन्होंने (नबी की बात मानने से) इनकार कर दिया है, विचार नहीं करते कि ये सब आसमान और जमीन परस्पर मिले हुए थे, फिर हमने उन्हें अलग किया।28 और पानी से हर ज़िंदा चीज़ पैदा की?29 क्या वे (हमारे इस सृष्टि-संरचना कार्य को) नहीं स्वीकार करते?
28. मूल अरबी में 'र-त-क' और 'फ़-त-क' के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। र-त-क के अर्थ हैं यकजा होना, इकट्ठा होना, एक दूसरे से जुड़ा हुआ होना, मिला हुआ होना और फ़-त-क़ के अर्थ हैं फाड़ना और अलग करना । प्रत्यक्ष में इन शब्दों से जो बात समझ में आती है, वह यह है कि सृष्टि का आरंभिक रूप एक तोदे (Mass) का-सा था। बाद में उसको अलग-अलग हिस्सों में बाँट करके ज़मीन और दूसरे अंतरिक्षीय गृह अलग-अलग दुनियाओं की शक्ल में बनाए गए। (अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-41, हा० मीम० अस-सज्दा, टिप्पणी 13-14-15)
29. इससे जो अर्थ समझ में आता है वह यह कि पानी को अल्लाह ने जीवन-साधन और जीवन का मूल तत्त्व बनाया। उसी में और उसी से जीवन का आरंभ किया। दूसरी जगह इस अर्थ को इन शब्दों में बयान किया गया है, और अल्लाह ने हर जीवधारी को पानी से पैदा किया।" (सूरा-24 अन-नूर, आयत 45)
وَجَعَلۡنَا فِي ٱلۡأَرۡضِ رَوَٰسِيَ أَن تَمِيدَ بِهِمۡ وَجَعَلۡنَا فِيهَا فِجَاجٗا سُبُلٗا لَّعَلَّهُمۡ يَهۡتَدُونَ ۝ 30
(31) और हमने ज़मीन में पहाड़ जमा दिए ताकि वह इन्हें लेकर ढलक न जाए।30 और उसमें चौड़े विस्तृत रास्ते बना दिए,31 शायद कि लोग अपना राम्ला पाल्म का लें32
30. इसकी व्याख्या सूरा-16, (नह्ल) टिप्पणी न० 12 में गुज़र चुकी है।
31. यानी पहाड़ों के बीच में ऐसे दरें रख दिए और दरिया निकाल दिए जिनकी वजह से पहाड़ी इलाकों से गुज़रने और ज़मीन के एक हिस्सा से दूसरे हिस्से की ओर पार करने के रास्ते निकल आते हैं। इसी तरह ज़मीन के दूसरे हिस्सों की बनावट भी ऐसी रखी है कि एक इलाके से दूसरे इलाके तक पहुँचने के लिए राह बन जाती है या बना ली जा सकती है।
وَجَعَلۡنَا ٱلسَّمَآءَ سَقۡفٗا مَّحۡفُوظٗاۖ وَهُمۡ عَنۡ ءَايَٰتِهَا مُعۡرِضُونَ ۝ 31
(32) और हमने आपणान को एक सुरक्षित लत बना दिया,33 मगर ये है कि कायनात की निशानियों की तरफ़34 ध्यान ही नहीं देते ।
33. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-15 (हिज्र), टिणणी न० 08, 10, 11, 12
34. अर्थात् उन निशानियों की ओर जो आसमान में हैं।
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَۖ كُلّٞ فِي فَلَكٖ يَسۡبَحُونَ ۝ 32
(33) और वह अल्लाह ही है जिसने रात और दिन बनाए और सूरज और चाँद को पैदा किया। सब एक-एक फलक (कक्ष) में तैर रहे है।35
35. मूल अरबी में “कुल्लुन” और “यस्बहून" के शब्द प्रयुक्त हुए हैं जिनके अर्थ बताते हैं कि अभिप्रेत सिर्फ़ सूरज और चाँद ही नहीं हैं, बल्कि दूसरे आकाशीय ग्रह अर्थात् तारे भी मुराद हैं, वरना बहुवचन के बजाय द्विवचन का शब्द प्रयुक्त किया जाता। फ़लक जो फ़ारसी के चर्ख और गरदूँ का ठीक समनार्थी है, अरबी भाषा में आसमान के जाने-माने प्रचलित नामों में से है। "सब एक-एक फलक (कक्ष) में तैर रहे हैं" से दो बातें स्पष्ट रूप से समझ में आती हैं। एक यह कि ये सब तारे एक ही फलक में नहीं हैं, बल्कि हर एक का फ़लक अलग है। दूसरे यह कि फ़लक कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसमें ये तारे खूटियों की तरह जड़े हुए हों और वह ख़ुद इन्हें लिए हुए घूम रहा हो, बल्कि वे कोई तरल चीजें हैं या शून्य स्थान और वायुमण्डल जैसी चीज़ है, जिसमें इन तारों की गति तैरने की क्रिया से सादृश्य रखती है (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-36, (यासीन), टिप्पणी 37)। प्राचीन समय में लोगों के लिए आसमान व जमीन के र-त-क व फ़-त-क़ और पानी से हर जीवित चीज़ के पैदा किए जाने और तारों के एक-एक फ़लक में तैरने का अर्थ कुछ और था। वर्तमान समय में Physics (भौतिक विज्ञान) , Biology (जीव विज्ञान) और Astronomy (खगोल विज्ञान) की नई जानकारियों ने हमारे लिए इनका मतलब कुछ और कर दिया है और नहीं कह सकते कि आगे चलकर इंसान को जो जानकारियाँ प्राप्त होनी हैं, वे इन शब्दों के किन अर्थों पर रौशनी डालेंगी। बहरहाल वर्तमानकाल का इंसान इन तीनों आयतों को बिल्कुल अपनी आधुनिकतम जानकारियों के अनुसार पाता है। इस जगह यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि “व लहु मन फ़ि-स्समावाति वल अर्जि” अर्थात् ज़मीन और आसमान में जो कुछ भी है अल्लाह का है (21 : 19) से लेकर 'कज़ालि-क नजज़िज़-ज़ालिमीन' अर्थात् हमारे यहाँ ज़ालिमों का यही बदला है,(21 : 29) तक का भाषण शिर्क के खंडन में है, और 'अ-व-लम-य रल्लजी-न क-फरू' (अर्थात क्या वे लोग जिन्होंने नबी की बात मानने से) आयत-30, से लेकर 'फ़ी फ़-लकियं-यस-बहून' (अर्थात् एक-एक फ़लक़ में तैर रहे है) आयत 33 तक जो कुछ कहा गया है उसमें मतौहीद के लिए सकारात्मक (Positive) दलीलें दी गई हैं। उद्देश्य यह है कि सृष्टि की यह व्यवस्था जो तुम्हारे सामने है, क्या इसमें कहीं सर्व जगत् के स्वामी एक अल्लाह के सिवा किसी और की भी कोई कारीगरी तुम्हें नज़र आती है ? क्या यह व्यवस्था एक से अधिक खुदाओं की साझीदारी में बन सकती थी और इस विधिवत रूप से जारी रह सकती थी? क्या इस तत्त्वदर्शितापूर्ण व्यवस्था के बारे में कोई सूझ-बूझवाला आदमी यह सोच सकता है कि यह एक खिलंडरे का खेल है और उसने केवल मनोरंजन के लिए कुछ गुड़ियाँ बनाई हैं जिनसे कुछ समय तक खेलकर बस वह यूँ ही इनको मिट्टी में मिला देगा? यह सब कुछ अपनी आँखों से देख रहे हो और फिर भी नबी की बात मानने से इंकार किए जाते हो? तुमको नज़र नहीं आता कि ज़मीन व आसमान की एक-एक चीज़ उस एकेश्वरवाद की गवाही दे रही है जो 5 यह नवी तुम्हारे सामने पेश कर रहा है? इन निशानियों के होते तुम कहते हो कि 'फ़ल यातिना बिआयतिन (यह नबी कोई निशानी लेकर आए)। क्या नबी की एकेश्वरवाद की दावत के सत्य होने पर गवाही देने के लिए ये निशानियाँ काफ़ी नहीं हैं।
وَمَا جَعَلۡنَا لِبَشَرٖ مِّن قَبۡلِكَ ٱلۡخُلۡدَۖ أَفَإِيْن مِّتَّ فَهُمُ ٱلۡخَٰلِدُونَ ۝ 33
(34) और ऐ नबी !36 अमरता तो हमने तुमसे पहले भी किसी मनुष्य के लिए नहीं रखी है। अगर तुम मर गए तो क्या ये लोग हमेशा जीते रहेंगे?
36. यहाँ से फिर यह भाषणक्रम उस संघर्ष की ओर मुड़ता है जो नबी (सल्ल०) और आपके विरोधियों के बीच चल रहा था।
كُلُّ نَفۡسٖ ذَآئِقَةُ ٱلۡمَوۡتِۗ وَنَبۡلُوكُم بِٱلشَّرِّ وَٱلۡخَيۡرِ فِتۡنَةٗۖ وَإِلَيۡنَا تُرۡجَعُونَ ۝ 34
(35) हर जानदार को मौत का मज़ा चखना है।37 और हम अच्छे और बुरे हालात में डालकर तुम सबकी आज़माइश कर रहे हैं।38 अन्ततः तुम्हें हमारी ही ओर पलटना है।
37. यह छोटा-सा उत्तर है उन सारी धमकियों, बद-दुआओं, कोसने और क़त्ल के षड्यन्त्रों का जिनसे हर वक़्त नबी (सल्ल०) “का सत्कार किया जाता था। एक ओर कुरैश के दिग्गज लोग थे जो आए दिन आपको इस प्रचार के भयानक परिणामों की धमकियाँ देते रहते थे और उनमें से कुछ जोशीले विरोधी बैठ-बैठकर यह तक सोचा करते थे किसी तरह आपका काम तमाम कर दें। दूसरी ओर हर वह घर, जिसका कोई व्यक्ति इस्लाम ग्रहण कर लेता था, आपका शत्रु बन जाता था, उसकी औरतें आपको कलप-कलपकर कोसतीं और बद-दुआएँ देती थीं और उसके मर्द आपको डरावे देते फिरते थे, मुख्य रूप से हब्शा की हिजरत के बाद तो मक्का भर के घरों में हाहाकार मच गया था, क्योंकि मुश्किल ही से कोई ऐसा घराना बचा रह गया था जिसके किसी लड़के या लड़की ने हिजरत न की हो । ये सब लोग नबी (सल्ल०) के नाम की दुहाइयाँ देते थे कि इस आदमी ने हमारे घर बर्बाद किए हैं। इन्हीं बातों का जबाव इस आयत में दिया गया है और साथ-साथ नबी (सल्ल०) को भी ताकीद की गई है कि तुम इनकी परवाह किए बिना, निडर होकर अपना काम किए जाओ।
38. यानी राहत और रंज, ग़रीबी और अमीरी, ग़लबा और मग़लूबी, ताक़त और कमज़ोरी, सेहत और बीमारी, तात्पर्य यह है कि सभी विभिन्न परिस्थियों में तुम लोगों की परीक्षा ली जा रही है, ताकि देखें कि तुम अच्छे हालात में घमंडी, ज़ालिम, अल्लाह को भुला देनेवाले नफ़स के बन्दे तो नहीं बन जाते, और बुरे हालात में कमहिम्मती के साथ पस्त और निम्न तरीके और नाजाइज़ रास्ते तो अपनाने नहीं लगते, इसलिए किसी बुद्धिमान व्यक्ति को इन विभिन्न परिस्थितियों को समझने में ग़लती नहीं करनी चाहिए। जो हालत भी उसे पेश आए, उसको परीक्षा और आज़माइश के पहलू को दृष्टि में रखना चाहिए और उससे सकुशल गुज़रने की कोशिश करनी चाहिए। यह सिर्फ एक मूर्ख और छिछोरे आदमी का काम है कि जब अच्छे हालात आएँ तो फ़िरऔन बन जाए और जब बुरे हालात का सामना हो तो धरती पर नाक रगड़ने लगे।
وَإِذَا رَءَاكَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِن يَتَّخِذُونَكَ إِلَّا هُزُوًا أَهَٰذَا ٱلَّذِي يَذۡكُرُ ءَالِهَتَكُمۡ وَهُم بِذِكۡرِ ٱلرَّحۡمَٰنِ هُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 35
(36) ये सत्य के इंकारी जब तुम्हें देखते हैं तो तुम्हारा मज़ाक़ बना लेते हैं। कहते हैं, "क्या यह है वह व्यक्ति जो तुम्हारे पूज्यों की चर्चा किया करता है।''39 और उनका अपना हाल यह है कि रहमान, (करुणामय ईश्वर) के ज़िक्र के इंकारी हैं।40
39. अर्थात् बुराई के साथ उनका उल्लेख करता है। यहाँ इतनी बात और समझ लेनी चाहिए कि यह वाक्य उनके मज़ाक का विषय नहीं बता रहा है, बल्कि मज़ाक़ उड़ाने के कारण और बुनियाद पर रौशनी डाल रहा है। स्पष्ट है कि यह वाक्य अपने आप में कोई उपहास का वाक्य नहीं है। उपहास तो वह दूसरे ही शब्दों में उड़ाते होंगे और कुछ और ही तरह की आवाजें कसते और फबती चुस्त करते होंगे। अलबत्ता यह सारा दिल का बुख़ार जिस वजह से निकाला जाता था वह यह थी नबी उनके स्वयं के गढ़े हुए उपास्यों की ख़ुदाई का खंडन करते थे।
40. अर्थात् बुतों और बनावटी ख़ुदाओं का विरोध तो उन्हें इतना नागवार है कि उसका बदला लेने के लिए तुम्हारी हँसी उड़ाते हैं और तुम्हें अपमानित करते हैं, मगर उन्हें स्वयं अपने हाल पर शर्म नहीं आती कि अल्लाह से फिरे हुए हैं और उसका उल्लेख सुनकर आग बगोला हो जाते हैं।
خُلِقَ ٱلۡإِنسَٰنُ مِنۡ عَجَلٖۚ سَأُوْرِيكُمۡ ءَايَٰتِي فَلَا تَسۡتَعۡجِلُونِ ۝ 36
(37) इंसान उतावला पैदा हुआ है।41 अभी मैं तुमको अपनी निशानियाँ दिखाए देता हूँ, मुझसे जल्दी न मचाओ।42
41. मूल अरबी में "ख़ुलिक़ल इंसानु मिन अ-जल" के शब्द प्रयुक्त हुए हैं जिनका शाब्दिक अर्थ है “इंसान जल्दबाज़ी (उतावलापन) से बनाया गया है या पैदा किया गया है। लेकिन यह शाब्दिक अर्थ वाक्य का असल मक़सद नहीं है। जिस तरह हम अपनी भाषा में कहते हैं कि अमुक आदमी अक्ल का पुतला है और अमुक आदमी अक्षरों का बना हुआ है, वैसे ही अरबी भाषा में कहते हैं कि वह अमुक वस्तु से पैदा किया गया है, और अर्थ यह होता है कि अमुक वस्तु उसकी घुट्टी में है। यही बात जिसको यहाँ “इंसान जल्दबाज़ी से बनाया गया है” कहकर अदा किया गया है, दूसरी जगह “इंसान बड़ा ही उतावला है" (सूरा-17 बनी इसराईल, आयत 11) के शब्दों में बयान हुआ है।
42. बाद का भाषण साफ़ बता रहा है कि यहाँ 'निशानियों से क्या तात्पर्य है। वे लोग जिन बातों का उपहास करते थे, उनमें से एक अल्लाह के अज़ाब और क़ियामत और जहन्नम का विषय भी था। वे कहते थे कि यह आदमी आए दिन हमें डरावे देता है कि मेरा इंकार करोगे तो अल्लाह का अज़ाब टूट पड़ेगा और क़ियामत में तुमपर यह बनेगी और तुम लोग यूँ जहन्नम के ईंधन बनाए जाओगे, मगर हम रोज़ इंकार करते हैं और दनदनाते फिर रहे हैं, न कोई अज़ाब आता दिखाई देता है और न कोई क़ियामत ही टूटी पड़ रही है। इसी का उत्तर इन आयतों में दिया गया है।
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 37
(38) -ये लोग कहते हैं, “आखिर यह धमकी पूरी कब होगी अगर तुम सच्चे हो?"
لَوۡ يَعۡلَمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ حِينَ لَا يَكُفُّونَ عَن وُجُوهِهِمُ ٱلنَّارَ وَلَا عَن ظُهُورِهِمۡ وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 38
(39) काश, इंकार करनेवालों को उस समय का कुछ ज्ञान होता जबकि ये न अपने मुँह आग से बचा सकेंगे, न अपनी पीठे और न इनको कहीं से मदद पहुँचेगी।
بَلۡ تَأۡتِيهِم بَغۡتَةٗ فَتَبۡهَتُهُمۡ فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ رَدَّهَا وَلَا هُمۡ يُنظَرُونَ ۝ 39
(40) वह आफ़त अचानक आएगी और उन्हें इस तरह अकस्मात दबोच लेगी कि ये न उसे दूर कर सकेंगे और न इनको क्षण भर मुहलत ही मिल सकेगी।
وَلَقَدِ ٱسۡتُهۡزِئَ بِرُسُلٖ مِّن قَبۡلِكَ فَحَاقَ بِٱلَّذِينَ سَخِرُواْ مِنۡهُم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 40
(41) मज़ाक़ तुमसे पहले भी रसूलों का उड़ाया जा चुका है, मगर उनका मज़ाक़ उड़ानेवाले उसी चीज़ के फेर में आकर रहे जिसका वे मज़ाक़ उड़ाते थे।
قُلۡ مَن يَكۡلَؤُكُم بِٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ مِنَ ٱلرَّحۡمَٰنِۚ بَلۡ هُمۡ عَن ذِكۡرِ رَبِّهِم مُّعۡرِضُونَ ۝ 41
(42) ऐ नबी ! इनसे कहो, “कौन है जो रात को या दिन को तुम्हें रहमान से बचा सकता हो?"43 मगर ये अपने रब की नसीहत से मुँह मोड़ रहे हैं ।
43. अर्थात् अगर अचानक दिन को या रात को किसी समय अल्लाह का ज़बरदस्त हाथ तुमपर पड़ जाए तो आख़िर वह कौन-सा सशक्त समर्थक और सहायक है जो उसकी पकड़ से तुमको बचा लेगा?
أَمۡ لَهُمۡ ءَالِهَةٞ تَمۡنَعُهُم مِّن دُونِنَاۚ لَا يَسۡتَطِيعُونَ نَصۡرَ أَنفُسِهِمۡ وَلَا هُم مِّنَّا يُصۡحَبُونَ ۝ 42
(43) क्या ये कुछ ऐसे ख़ुदा रखते हैं जो हमारे मुक़ाबले में उनका समर्थन करें? वे तो न खुद अपनी मदद कर सकते हैं और न हमारा ही सर्मथन उनको प्राप्त है।
بَلۡ مَتَّعۡنَا هَٰٓؤُلَآءِ وَءَابَآءَهُمۡ حَتَّىٰ طَالَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡعُمُرُۗ أَفَلَا يَرَوۡنَ أَنَّا نَأۡتِي ٱلۡأَرۡضَ نَنقُصُهَا مِنۡ أَطۡرَافِهَآۚ أَفَهُمُ ٱلۡغَٰلِبُونَ ۝ 43
(44) असल बात यह है कि इन लोगों को और इनके बाप-दादओं को हम ज़िंदगी का सामान दिए चले गए यहाँ तक कि इनको दिन लग गए।44 मगर क्या इन्हें दिखाई नहीं देता कि हम पृथ्वी को अलग-अलग दिशाओं से घटाते चले आ रहे हैं?45 फिर क्या ये ग़ालिब आ जाएँगे?46
44. अर्थात् हमारी इस मेहरबानी और परवरिश से ये इस भ्रम में पड़ गए हैं कि यह सब कुछ उनका कोई निजी हक़ है जिसका छीननेवाला कोई नहीं। अपनी खुशहालियों और सरदारियों को ये पतनहीन समझने लगे हैं और ऐसे मद मस्त हो गए हैं कि इन्हें कभी यह विचार तक नहीं होता कि ऊपर कोई ख़ुदा भी है जो उनके भाग्यों के बनाने और बिगाड़ने में समर्थ है।
45. यह विषय इससे पहले सूरा-13 (रअ़द) आयत 41 में गुज़र चुका है और वहाँ हम इसकी व्याख्या भी कर चुके हैं (देखिए टिप्पणी 60)। यहाँ इस संदर्भ में यह एक और अर्थ भी दे रहा है, वह यह कि ज़मीन में हर ओर एक ग़ालिब ताक़त की कारफ़रमाई की ये निशानियाँ नज़र आती हैं कि अचानक कभी अकाल के रूप में, कभी बाढ़ के रूप में, कभी भूचाल के रूप में, कभी सर्दी या गर्मी के रूप में और कभी किसी और रूप में कोई बला ऐसी आ जाती है जो इंसान के सब किए-धरे पर पानी फेर देती है। हज़ारों-लाखों आदमी मर जाते हैं, बस्तियाँ तबाह हो जाती हैं, लहलहाती खेतियाँ गारत हो जाती हैं, पैदावार घट जाती है, कारोबार में मंदी आ जाती है, तात्पर्य यह है कि इंसान के जीवन-साधनों में कभी किसी ओर से कमी आ जाती है और कभी किसी ओर से, और इंसान अपना सारा ज़ोर लगाकर भी इन हानियों को नहीं रोक सकता । (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-32 अस-सजदा, टिप्पणी 33)
قُلۡ إِنَّمَآ أُنذِرُكُم بِٱلۡوَحۡيِۚ وَلَا يَسۡمَعُ ٱلصُّمُّ ٱلدُّعَآءَ إِذَا مَا يُنذَرُونَ ۝ 44
(45) इनसे कह दो कि “मैं तो वह्य के आधार पर तुम्हें सचेत कर रहा "- मगर बहरे पुकार को नहीं सुना करते, जबकि उन्हें ख़बरदार किया जाए।
وَلَئِن مَّسَّتۡهُمۡ نَفۡحَةٞ مِّنۡ عَذَابِ رَبِّكَ لَيَقُولُنَّ يَٰوَيۡلَنَآ إِنَّا كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 45
(46) और अगर तेरे रब का अज़ाब थोड़ा-सा इन्हें छू जाए47 तो अभी चीख उठे कि हाय हमारा दुर्भाग्य ! निस्सन्देह हम दोषी थे।
47. वही अज़ाब जिसके लिए ये जल्दी मचाते हैं और उपहास के रूप में कहते हैं कि लाओ ना वह अज़ाब, क्यों नहीं वह टूट पड़ता?
وَنَضَعُ ٱلۡمَوَٰزِينَ ٱلۡقِسۡطَ لِيَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ فَلَا تُظۡلَمُ نَفۡسٞ شَيۡـٔٗاۖ وَإِن كَانَ مِثۡقَالَ حَبَّةٖ مِّنۡ خَرۡدَلٍ أَتَيۡنَا بِهَاۗ وَكَفَىٰ بِنَا حَٰسِبِينَ ۝ 46
(47) क़ियामत के दिन हम ठीक-ठीक तौलनेवाले तराजू रख देंगे। फिर किसी व्यक्ति पर कण भर भी ज़ुल्म नहीं होगा। जिसका राई के दाने के बराबर भी कुछ किया-धरा होगा वह हम सामने ले आएँगे और हिसाब लगाने के लिए हम काफ़ी हैं।48
48. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-7 (अल-आराफ़), टिप्पणी 8-9। हमारे लिए यह समझना कठिन है कि वह तराज़ू कैसी होगी। बहरहाल वह कोई ऐसी चीज़ होगी जो भौतिक पदार्थो को तौलने के बजाए इंसान के चारित्रिक गुणों और कर्मों और उसकी नेकी और बदी को तौलेगी और ठीक-ठीक वज़न करके बता देगी कि नैतिक दृष्टि से किस व्यक्ति का क्या स्थान है। नेक है तो कितना नेक है और बुरा है तो कितना बुरा। अल्लाह ने उसके लिए हमारी भाषा के दूसरे शब्दों को छोड़कर 'तराजू का शब्द या तो इस कारण से चुना है कि उसकी स्थिति तराजू से मिलती-जुलती होगी या इस चुनाव का उद्देश्य यह विचार मन में बिठाना है कि जिस तरह एक तराजू के पलड़े दो चीज़ों के वज़न का अन्तर ठीक-ठीक बता देते हैं, उसी तरह हमारे न्याय की तराजू भी हर इंसान की जिंदगी के कारनामे को जाँचकर कुछ कमी-बेशी किए बिना बता देगी कि उसमें नेकी का पहलू ग़ालिब है या बदी का ।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَىٰ وَهَٰرُونَ ٱلۡفُرۡقَانَ وَضِيَآءٗ وَذِكۡرٗا لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 47
(48-49) पहले 49 हम मूसा और हारून को 'फ़ुरक़ान' और 'रौशनी' और 'ज़िक्र’50 प्रदान कर चुके हैं उन अल्लाह का डर रखनेवाले लोगों की भलाई के लिए51 जो बे-देखे अपने रब से डरे और जिनको (हिसाब की) उस घड़ी 52 का खटका लगा हुआ हो।
49. यहाँ से नबियों का उल्लेख आरंभ होता है और निरंतर बहुत-से नबियों के जीवन की विस्तृत या संक्षिप्त घटनाओं की ओर संकेत किए जाते हैं। यह उल्लेख जिस प्रसंग में आया है उसपर विचार करने से साफ़ मालूम होता है कि इससे अभिप्राय नीचे लिखी बातें मन में बिठाना है- एक यह कि तमाम पिछले नबी भी इंसान ही थे, कोई अनोखा प्राणी न थे। इतिहास में यह कोई नई घटना आज पहली बार ही नहीं घटित हुई है कि एक इंसान को रसूल बनाकर भेजा गया है। दूसरे यह कि पहले नबी भी इसी काम के लिए आए थे जो काम अब मुहम्मद (सल्ल०) कर रहे हैं। यही उनका मिशन था और यही उनकी शिक्षा थी। तीसरे यह कि नबियों के साथ अल्लाह का ख़ास मामला रहा है। बड़ी-बड़ी मुसीबतों से वे गुज़रे हैं। सालों साल मुसीबतों में फंसे रहे हैं, व्यक्तिगत और निजी मुसीबतों में भी और अपने विरोधियों की डाली हुई मुसीबतों में भी, मगर अन्ततः अल्लाह की सहायता और समर्थन उनको प्राप्त हुआ है, उसने अपनी दया और कृपा उनको प्रदान की है, उनकी दुआओं को क़बूल किया है, उनके कष्टों को दूर किया है, उनके विरोधियों को नीचा दिखाया है और चामत्कारिक रूप से उनकी मदद की है। चौथे यह कि अल्लाह के प्रिय और उसके बारगाह में मकबूल होने के बावजूद और उसकी ओर बड़ी-बड़ी आश्चर्यजनक शक्तियों के पाने के बावजूद,थे वे बन्दे और इंसान ही । ईश्वरत्त्व का पद उनमें से किसी को प्राप्त न था। राय और फैसले में उनसे ग़लती भी हो जाती थी, बीमार भी वे होते थे, आज़माइशों में भी डाले जाते थे, यहाँ तक कि कुसूर भी उनसे हो जाते थे और उनपर अल्लाह की ओर से पकड़ भी होती थी।
50. तीनों शब्द तौरात की प्रशंसा में प्रयुक्त हुए हैं, अर्थात् वह सत्य और असत्य का अन्तर दिखानेवाली कसौटी थी, वह इंसान को ज़िंदगी का सीधा रास्ता दिखानेवाली रौशनी थी और यह आदम की संतान को उसका भूला हुआ सबक़ याद दिलानेवाली नसीहत थी।
ٱلَّذِينَ يَخۡشَوۡنَ رَبَّهُم بِٱلۡغَيۡبِ وَهُم مِّنَ ٱلسَّاعَةِ مُشۡفِقُونَ ۝ 48
0
وَهَٰذَا ذِكۡرٞ مُّبَارَكٌ أَنزَلۡنَٰهُۚ أَفَأَنتُمۡ لَهُۥ مُنكِرُونَ ۝ 49
(50) और अब यह बरकतवाला "ज़िक्र" हमने (तुम्हारे लिए) उतारा है, फिर क्या तुम इसको कबूल करने से इंकारी हो?
۞وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَآ إِبۡرَٰهِيمَ رُشۡدَهُۥ مِن قَبۡلُ وَكُنَّا بِهِۦ عَٰلِمِينَ ۝ 50
(51) उससे भी पहले हमने इबाहीम को उसकी समझ प्रदान की थी और हम उसको अच्छी तरह 53 जानते थे।
53. 'समझ' हमने प्रयुक्त अरबी शब्द 'रुश्द' का अनुवाद किया है जिसका अर्थ है, "सही-ग़लत में अन्तर करके सही बात या तरीक़े को अपनाना और गलत बात या तरीके से बचना।" इस अर्थ की दृष्टि से 'रुश्द' का अनुवाद सदाचार भी हो सकता है, लेकिन चूंकि रुश्द का शब्द सिर्फ सदाचारिता को नहीं, बल्कि उस सदाचारिता को प्रकट करता है जो नतीजा हो सही चिंतन और सद्बुद्धि के प्रयोग का। इसलिए हमने 'समझ' के शब्द को इसके अर्थ से अधिक क़रीब समझा है। "इबराहीम को इसको समझ प्रदान की" अर्थात् जो समझ उसको मिली हुई थी, वह हमारी प्रदान को हुई थी। "हम उसको खूब जानते थे” अर्थात् हमारी यह देन कोई अंधी बाँट न थी। हमें मालूम था कि वह कैसा आदमी है, इसलिए हमने उसको प्रदान किया। "अल्लाह खूब जानता है कि अपनी पैग़म्बरी किसके हवाले करे" (सूरा-6 अल-अनआम, आयत 124)। इसमें एक सूक्ष्म संकेत है कुरैश के सरदारों की उस आपत्ति की ओर जो वे नबी (सल्ल०) पर करते थे। वे कहा करते थे कि आख़िर इस आदमी में कौन-से 'सुरखाव के पर' लगे हुए हैं कि अल्लाह हमें छोड़कर उसे रिसालत (पैग़म्बरी) के पद पर नियुक्त करे। इसका उत्तर विभिन्न जगहों पर क़ुरआन मजीद में विभिन्न तरीक़ों से दिया गया है। यहाँ केवल इस सूक्ष्म संकेत ही पर बस किया गया कि यही सवाल इबाहीम (अलैहि०) के बारे में भी हो सकता था। पूछा जा सकता था कि पूरे इराक देश में एक इबाहीम (अलैहि०) ही को क्यों यह नेमत प्रदान की गई, मगर हम जानते थे कि इब्राहीम (अलैहि०) में क्या योग्यता है, इसलिए उनकी पूरी कौम में से उनको इस नेमत के लिए चुना गया। हज़रत इबाहीम (अलैहि०) की पवित्र जीवनी के अनेक पहलू इससे पहले सूरा-2 बल-बकरा, आयत 124-141, 258-210, सूरा अल-अनआम, आयत 74.81, सूरा-9 अत-तौबा, आयत 114, सूरा-11 हूद, आयत 69.76, सूरा-14 इबाहीम, आयत 35-41, सूरा-15 अल-हिज्र, आयत 51-60, सूरा-16 अन-नहल, आयत 120-123 में गुज़र चुके हैं जिनपर एक दृष्टि डाल लेना लाभप्रद होगा।
إِذۡ قَالَ لِأَبِيهِ وَقَوۡمِهِۦ مَا هَٰذِهِ ٱلتَّمَاثِيلُ ٱلَّتِيٓ أَنتُمۡ لَهَا عَٰكِفُونَ ۝ 51
(52) याद करो वह मौक़ा 54 जबकि उसने अपने बाप और अपनी क़ौम से कहा था कि “ये मूर्तियाँ कैसी हैं जिनपर तुम लोग आसक्त हो रहे हो?"
54. जिस घटना का आगे उल्लेख किया जा रहा है, उसे पढ़ने से पहले अपने मन में यह बात ताज़ा कर लीजिए कि क़ुरैश के लोग हज़रत इब्राहीम की सन्तान थे। काबा उन्हीं का बनाया हुआ था। सारे अरब में काबा को केन्द्रीयता उन्हीं के ताल्लुक़ से स्थापित थी और कुरैश का सारा भ्रम इसी लिए बँधा हुआ था कि ये इब्राहीम की सन्तान हैं और इब्राहीमी काबा के मुजाविर हैं। आज इस ज़माने में और अरब से दूर-दराज़ के माहौल में तो हज़रत इब्राहीम का यह किस्सा केवल एक शिक्षाप्रद ऐतिहासिक घटना ही दीख पड़ती है, मगर जिस ज़माने और माहौल में सबसे पहले यह बयान किया गया था, उसको दृष्टि में रखकर देखिए तो महसूस होगा कि कुरैश के धर्म और उनके पुरोहितवाद पर यह ऐसी गहरी चोट थी जो ठीक उसकी जड़ पर जाकर लगती थी।
قَالُواْ وَجَدۡنَآ ءَابَآءَنَا لَهَا عَٰبِدِينَ ۝ 52
(53) उन्होंने उत्तर दिया, "हमने अपने बाप-दादा को इनकी उपासना करते पाया है।"
قَالَ لَقَدۡ كُنتُمۡ أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُمۡ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 53
(54) उसने कहा, “तुम भी गुमराह हो और तुम्हारे बाप-दादा भी खुली गुमराही में पड़े हुए थे।"
قَالُوٓاْ أَجِئۡتَنَا بِٱلۡحَقِّ أَمۡ أَنتَ مِنَ ٱللَّٰعِبِينَ ۝ 54
(55) उन्होंने कहा, “क्या तू हमारे सामने अपने असली विचार रख रहा है या उपहास करता है ?’’55
55. इस वाक्य का शाब्दिक अनुवाद यह होगा कि "क्या तू हमारे सामने सत्य पेश कर रहा है या खेलता है?" लेकिन वास्तविक अर्थ वही है जो ऊपर दिया गया है । इन लोगों को अपने दीन के सत्य पर होने का ऐसा विश्वास था कि वे यह सोचने के लिए भी तैयार न थे कि ये बातें कोई व्यक्ति गंभीरतापूर्वक कर सकता है। इसलिए उन्होंने कहा कि यह तुम केवल उपहास और खेल कर रहे हो या वास्तव में तुम्हारे यही विचार है।
قَالَ بَل رَّبُّكُمۡ رَبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ ٱلَّذِي فَطَرَهُنَّ وَأَنَا۠ عَلَىٰ ذَٰلِكُم مِّنَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 55
(56) उसने उत्तर दिया, “नहीं, बल्कि वास्तव में, तुम्हारा रब वही है जो ज़मीन और आसमानों का रब और उनको पैदा करनेवाला है। इसपर मैं तुम्हारे सामने गवाही देता हूँ
وَتَٱللَّهِ لَأَكِيدَنَّ أَصۡنَٰمَكُم بَعۡدَ أَن تُوَلُّواْ مُدۡبِرِينَ ۝ 56
(57) और अल्लाह की क़सम ! मैं तुम्हारी अनुपस्थिति में अवश्य ही तुम्हारी मूर्तियों की ख़बर लूँगा।56
56. अर्थात् अगर तुम प्रमाणों के आधार पर बात नहीं समझते हो तो मैं व्यवहारत: तुम्हें दिखा दूँगा कि ये बेबस हैं, इनके पास कुछ भी अधिकार नहीं हैं और इनको खुदा बनाना गलत है। रही यह बात कि व्यावहारिक अनुभवों और अवलोकन से यह बात वे किस तरह सिद्ध करेंगे, तो इसका कोई विवरण हज़रत इब्राहीम ने उस अवसर पर नहीं दिया।
فَجَعَلَهُمۡ جُذَٰذًا إِلَّا كَبِيرٗا لَّهُمۡ لَعَلَّهُمۡ إِلَيۡهِ يَرۡجِعُونَ ۝ 57
(58) चुनांचे उसने उनको टुकड़े-टुकड़े कर दिया 57 और सिर्फ़ उनके बड़े को छोड़ दिया ताकि शायद वे उसकी ओर रुजू करें।58
57. अर्थात् मौक़ा पाकर जबकि पुजारी और मुजाविर मौजूद न थे, हज़रत इब्राहीम उनके केन्द्रीय मूर्ति घर में घुस गए और सारी मूर्तियों को तोड़ डाला।
58. 'उसको ओर' का संकेत बड़ी मूर्ति की ओर भी हो सकता है और स्वयं हज़रत इब्राहीम की ओर भी। अगर पहली बात हो तो यह हज़रत इब्राहीम की ओर से उनके विश्वासों पर एक प्रकार का व्यंग्य है, अर्थात् अगर उनके नज़दीक सच में ये ख़ुदा हैं तो उन्हें अपने बड़े ख़ुदा के बारे में यह सन्देह होना चाहिए कि शायद बड़े साहब इन छोटे साहबों से किसी बात पर बिगाड़ गए हों और सबका कचूमर बना डाला हो या फिर बड़े साहब से यह पूछे कि हुजूर आपकी उपस्थिति में यह क्या हुआ? कौन यह काम कर गया और आपने उसे रोका क्यों नहीं? और अगर दूसरा अर्थ मान लिया जाए तो हज़रत इब्राहीम का मंशा इस कार्रवाई से यह था कि अपने बुतों का यह हाल देखकर शायद उनका ज़ेहन मेरी हो ओर जाएगा और ये मुझसे पूछेगे, तो फिर मुझको इनसे साफ़-साफ़ बात करने का अवसर मिल जाएगा।
قَالُواْ مَن فَعَلَ هَٰذَا بِـَٔالِهَتِنَآ إِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 58
(59) (उन्होंने आकर बुतों का यह हाल देखा तो) कहने लगे, "हमारे खुदाओं का यह हाल किसने कर दिया? बड़ा ही कोई ज़ालिम था वह !"
قَالُواْ سَمِعۡنَا فَتٗى يَذۡكُرُهُمۡ يُقَالُ لَهُۥٓ إِبۡرَٰهِيمُ ۝ 59
(60) (कुछ लोग) बोले, “हमने एक नव-जवान को उनकी चर्चा करते सुना था जिसका नाम इबाहीम है।"
قَالُواْ فَأۡتُواْ بِهِۦ عَلَىٰٓ أَعۡيُنِ ٱلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَشۡهَدُونَ ۝ 60
(61) उन्होंने कहा, "तो पकड़ लाओ उसे सबके सामने ताकि लोग देख लें (उसकी कैसी खबर ली जाती है)।"59
59. यह मानो हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) को मुँह माँगी मुराद थी, क्योंकि वह भी यही चाहते थे कि बात सिर्फ़ पुरोहितों और पुजारियों ही के सामने न हो, बल्कि आम लोग भी मौजूद हों और सब देख लें कि ये बुत जो उनकी ज़रूरतें पूरी करनेवाले बनाकर रखे गए हैं, कितने विवश हैं और स्वयं पुरोहित लोग इनको क्या समझते हैं। इस तरह इन पुजारियों से भी वही मूर्खता हुई जो फ़िरऔन से हुई थी। उसने भी जादूगरों से हज़रत मूसा का मुकाबला कराने के लिए देश भर के लोगों की भीड़ जमा की थी और इन्होंने भी हज़रत इबाहीम (अलैहि०) का मुकद्दमा सुनने के लिए आम लोगों को इकट्ठा कर लिया। वहाँ हज़रत मूसा को सबके सामने यह साबित करने का मौका मिल गया कि जो कुछ वे लाए हैं, वह जादू नहीं मोजज़ा है और यहाँ हज़रत इबाहीम को उनके शत्रुओं ने आप ही यह अवसर जुटा दिया कि वह आम लोगों के सामने उनको धोखा-घड़ी के जादू की कलई खोल दें।
قَالُوٓاْ ءَأَنتَ فَعَلۡتَ هَٰذَا بِـَٔالِهَتِنَا يَٰٓإِبۡرَٰهِيمُ ۝ 61
(62) (इबाहीम के आने पर) उन्होंने पूछा, “क्यों इब्राहीम ! तू ने हमारे ख़ुदाओं के साथ यह हरकत की है ?"
قَالَ بَلۡ فَعَلَهُۥ كَبِيرُهُمۡ هَٰذَا فَسۡـَٔلُوهُمۡ إِن كَانُواْ يَنطِقُونَ ۝ 62
(63) उसने जवाब दिया, “बल्कि यह सब कुछ इनके इस सरदार ने किया है, इन्ही से पूछ लो अगर ये बोलते हो?"60
60. यह अन्तिम वाक्य स्वयं स्पष्ट कर रहा है कि पहले वाक्य में हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) ने बुतों के तोड़ने के इस काम को बड़े बुत से जो जोड़ दिया है, इससे उनका अभिप्राय झूठ बोलना न था, बल्कि वह अपने विरोधियों के समक्ष तर्क प्रस्तुत करके उन्हें कायल करना चाहते थे। यह बात उन्होंने इसलिए कही थी कि वे लोग उत्तर में स्वयं इसको स्वीकार करें कि उनके ये उपास्य बिल्कुल विवश हैं और उनसे किसी कार्य की उम्मीद तक नहीं की जा सकती। ऐसे मौकों पर एक आदमी तर्क प्रस्तुत करने के लिए यथार्थ के विपरीत जो बात कहता है, उसे झूठ नहीं कहा जा सकता क्योंकि न वह झूठ की नीयत से ऐसी बात कहता है और न उसके सुननेवाले ही उसे झूठ समझते हैं। कहनेवाला इसे तर्क सिद्ध करने के लिए कहता है और सुननेवाला भी उसे इसी अर्थ में लेता है। दुर्भाग्य से हदीस की एक रिवायत में यह बात आ गई है कि हज़रत इब्राहीम अपनी जिंदगी में तीन बार झूठ बोले हैं। इनमें से एक 'झूठ' तो यह है और दूसरा 'झूठ' सूरा-37 (साफ़्फ़ात) में हज़रत इब्राहीम का बयान 'इन्नी सक्रीम' (अर्थात् मेरी तबीयत खराब है) है और तीसरा 'झूठ' उनका अपनी बीवी को बहन कहना है, जिसका उल्लेख कुरआन में नहीं, बल्कि बाइबल को किताब उत्पत्ति में आया है। लेकिन यह हदीस सिर्फ) इसी वजह से आपत्तिजनक नहीं है कि यह एक नबी को झूठा बता रही है, बल्कि इसलिए भी गलत है कि इसमें जिन तीन घटनाओं का उल्लेख किया गया है, वे तीनों ही विचारणीय हैं। उनमें से एक 'झूठ' का हाल अभी आप देख चुके हैं कि एक मामूली सूझ-बूझवाला व्यक्ति भी इस संदर्भ और पृष्ठभूमि में हज़रत इब्राहीम के इस कथन पर शब्द 'झूठ' को चरितार्थ नहीं कर सकता, कहाँ यह कि हम नबी (सल्ल०) से मआज़ल्लाह यह नासमझी की बात कहने की आशा करें। रहा 'इन्नी सक्रीम (अर्थात् मेरो तबीअत ख़राब है) वाली घटना, तो उसका झूठ होना सिद्ध नहीं हो सकता जब तक यह सिद्ध न हो जाए कि हज़रत इब्राहीम सच में उस समय बिल्कुल सही व तन्दुरुस्त थे और कोई छोटी-सी शिकायत भी उनको न थी। यह बात न कुरआन में कहीं बयान हुई है और न इस विचाराधीन रिवायत के सिवा किसी दूसरी प्रामाणिक रिवायत में इसका उल्लेख आया है। अब रह जाता है बीवी को बहन कह देने की घटना तो वह अपने आप में ऐसी निरर्थक बात है कि एक आदमी इसके सुनते ही यह कह देगा कि यह कदापि घटित नहीं हो सकती। किस्सा उस वक्त का बताया जाता है जब हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) अपनी बीवी हज़रत सारा (अलैहि०) के साथ मिल गए हैं। बाइबल के अनुसार उस समय हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) की उम्र 75 वर्ष और हज़रत सारा (अलैहि०) की उम्र 65 वर्ष से कुछ अधिक ही थी और इस उम्र में हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) को यह डर होता है कि मिस्र का राजा इस रूपवती महिला को हासिल करने के लिए मुझे क़त्ल कर देगा। चुनांचे वह बीवी से कहते हैं कि जब मिस्री तुम्हें पकड़कर बादशाह के पास ले जाने लगे तो तुम भी मुझे अपना भाई बताना और मैं भी तुम्हें अपनी बहन ताकि मेरी जान तो बच जाए (उत्पत्ति, अध्याय 12)। हदीस की विचाराधीन इस रिवायत में तीसरे 'झूठ' का आधार इसी स्पष्टतः निरर्थक और व्यर्थ इसराईली रिवायत पर है। क्या यह कोई उचित बात है कि जिस हदीस के मतन (मूल-पाठ) में ऐसी बातें हों, उसको भी हम नबी (सल्ल०) से जोड़ने पर केवल इसलिए आग्रह करें कि उसकी सनद मजरूह (त्रुटिपूर्ण) नहीं है [और हदीस शास्त्र के इस नियम का बिलकुल ही लिहाज़ न करें कि किसी वायत की सनद की मज़बूती से यह ज़रूरी नहीं है कि उसका मूल चाहे जितना आपत्तिपूर्ण हो, फिर भी उसे सही मान लिया जाए |] इसी तरह की सीमा बढ़ जाने की संतुलन नीति फिर मामले को बिगाड़कर उस निम्न सीमा तक पहुँचा देता है जिसका प्रदर्शन हदीस के इंकारी कर रहे हैं । (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए मेरी पुस्तक 'रसाइल व मसाइल' उर्दू भाग 2, पृ० 35-39)
فَرَجَعُوٓاْ إِلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ فَقَالُوٓاْ إِنَّكُمۡ أَنتُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 63
(64) यह सुनकर वे लोग अपनी अन्तरात्मा की ओर पलटे और (अपने दिलों में ) कहने लगे, “वास्तव में तुम स्वयं ही ज़ालिम हो।"
ثُمَّ نُكِسُواْ عَلَىٰ رُءُوسِهِمۡ لَقَدۡ عَلِمۡتَ مَا هَٰٓؤُلَآءِ يَنطِقُونَ ۝ 64
(65) मगर फिर उनकी मत पलट गई61 और बोले, “तू जानता है [कि ये बोलते नहीं हैं।"
61. कुछ लोगों ने [आयत के इस टुकड़े का अर्थ यह लिया है कि उन्होंने लज्जित होकर सिर झुका लिए, लेकिन संदर्भ और वर्णन-शैली इस अर्थ को स्वीकार करने से इंकार करती है। सही अर्थ यह है कि हज़रत इब्राहीम का जवाब सुनते ही पहले तो उन्होंने अपने दिलों में सोचा कि सच में ज़ालिम तो तुम ख़ुद हो, लेकिन इसके बाद तुरन्त ही उनपर हठ और अज्ञानता सवार हो गई और जैसा कि हठ को विशेषता है, उसके सवार होते ही उनकी बुद्धि औंध गई, दिमाग़ सीधा सोचते-सोचते यकायक उल्टा सोचने लगा।
قَالَ أَفَتَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَنفَعُكُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَا يَضُرُّكُمۡ ۝ 65
(66) इब्राहीम ने कहा, “फिर क्या तुम अल्लाह को छोड़कर] उन चीज़ों को पूज रहे हो जो न तुम्हें लाभ पहुँचाने पर समर्थ हैं न हानि ।
أُفّٖ لَّكُمۡ وَلِمَا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 66
(67) अफ़सोस है तुमपर और तुम्हारे इन उपास्यों पर जिनकी तुम अल्लाह को छोड़कर पूजा कर रहे हो ! क्या तुम कुछ भी बुद्धि नहीं रखते?"
قَالُواْ حَرِّقُوهُ وَٱنصُرُوٓاْ ءَالِهَتَكُمۡ إِن كُنتُمۡ فَٰعِلِينَ ۝ 67
(68) उन्होंने कहा, “जला डालो इसको और सर्मथन करो अपने खुदाओं की अगर तुम्हें कुछ करना है।"
قُلۡنَا يَٰنَارُ كُونِي بَرۡدٗا وَسَلَٰمًا عَلَىٰٓ إِبۡرَٰهِيمَ ۝ 68
(69) हमने कहा, “ऐ आग ! ठंडी हो जा और सलामती बन जा इब्राहीम पर।‘’62
62. शब्द स्पष्ट रूप से बता रहे हैं और प्रसंग और संदर्भ भी इस अर्थ की पुष्टि कर रहा है कि उन्होंने वस्तुतः इस फैसले पर अमल किया और जब आग का अलाव तैयार करके उन्होंने हज़रत इब्राहीम को उसमें फेंका तब अल्लाह ने आग को आदेश दिया कि वह इब्राहीम (अलैहि०) के लिए ठंडी हो जाए और अहानिकारक बनकर रह जाए। मगर स्पष्ट रूप से यह भी उन मोजज़ों में से एक है जो क़ुरआन में बयान किए गए हैं। अगर कोई आदमी इन मोजज़ों की इसलिए दूसरे अर्थ लेता है कि उसके नज़दीक अल्लाह के लिए भी जगत् की व्यवस्था के नियम (Routine) से हटकर कोई असामान्य काम करना सम्भव नहीं है, तो आख़िर वह अल्लाह को मानने का कष्ट क्यों उठाता है। और अगर वह इस तरह के अर्थ इसलिए निकालता है कि आधुनिककाल के कथित बुद्धिवादी ऐसी बातों मानने के लिए तैयार नहीं हैं, तो हम उससे पूछते हैं कि ऐ अल्लाह के बन्दे । तेरे ऊपर यह दायित्व किसने डाला था कि तू किसी न किसी तरह इन्हें मनवाकर ही छोड़े? जो आदमी कुरआन को, जैसा कि वह है,मानने के लिए तैयार नहीं है, उसे उसके हाल पर छोड़ो। उसे मनवाने के लिए कुरआन को उसके विचारों के अनुसार ढालने का यत्ल करना, जबकि क़ुरआन के शब्द कदम-कदम पर इस ढिलाई का विरोध कर रहे हों, आखिर किस प्रकार का प्रचार है और कौन बुद्धिमान व्यक्ति इसे वैध समझ सकता है । (और अधिक विस्तार के लिए देखिए सूरा-29 अनकबूत, टिप्पणी 39)
وَأَرَادُواْ بِهِۦ كَيۡدٗا فَجَعَلۡنَٰهُمُ ٱلۡأَخۡسَرِينَ ۝ 69
(70) वे चाहते थे कि इब्राहीम के साथ बुराई करें, मगर हमने उनको बुरी तरह विफल कर दिया
وَنَجَّيۡنَٰهُ وَلُوطًا إِلَى ٱلۡأَرۡضِ ٱلَّتِي بَٰرَكۡنَا فِيهَا لِلۡعَٰلَمِينَ ۝ 70
(71) और हम उसे और लूत को63 बचाकर उस भू-भाग की ओर निकाल ले गए जिसमें हमने दुनियावालों के लिए बरकतें रखी है।64
63. बाइबल के बयान के अनुसार हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) के दो भाई थे-नह्वर और हारान। हज़रत लूत (अलैहि०) हारान के बेटे थे, (उत्पत्ति, अध्याय 11, आयत 26) । सूरा-27 अनकबूत में हज़रत इब्राहीम का जो उल्लेख हुआ है उससे प्रत्यक्ष में तो यही मालूम होता है कि उनकी क़ौम में से सिर्फ़ एक हज़रत लूत ही उनपर ईमान लाए थे। (देखिए आयत 26)
64. अर्थात् शाम (सीरिया) और फलस्तीन का भू-भाग। उसकी बरकतें (अनुग्रहें) भौतिक भी हैं और आध्यात्मिक भी। भौतिक दृष्टि से वह दुनिया के सबसे उपजाऊ क्षेत्रों में से है और आध्यात्मिक दृष्टि से वह दो हजार वर्ष तक नबियों के आने का स्थान रहा है। दुनिया के किसी दूसरे हिस्से में इतनी भारी तादाद में नबी नहीं भेजे गए हैं।
وَوَهَبۡنَا لَهُۥٓ إِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ نَافِلَةٗۖ وَكُلّٗا جَعَلۡنَا صَٰلِحِينَ ۝ 71
(72) और हमने उसे इसहाक़ प्रदान किया और याकूब उसपर और ज़्यादा,65 और हर एक को भला (नेक) बनाया
65. अर्थात् बेटे के बाद पोता भी ऐसा हुआ जिसे नुबूवत (पैग़म्बरी) का पद प्रदान किया गया।
وَجَعَلۡنَٰهُمۡ أَئِمَّةٗ يَهۡدُونَ بِأَمۡرِنَا وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡهِمۡ فِعۡلَ ٱلۡخَيۡرَٰتِ وَإِقَامَ ٱلصَّلَوٰةِ وَإِيتَآءَ ٱلزَّكَوٰةِۖ وَكَانُواْ لَنَا عَٰبِدِينَ ۝ 72
(73) और हमने उनको इमाम बना दिया जो हमारे आदेश से रास्ता बताते थे। और हमने उन्हें वह्य के ज़रिये नेक कामों और नमाज़ क़ायम करने और ज़कात देने की हिदायत की, और वे हमारे इबादतगुज़ार थे।66
66. हज़रत इब्राहीम की जिंदगी के इस महत्वपूर्ण घटना का बाइबल में कोई उल्लेख नहीं है, बल्कि उनको जिंदगी के इराकी काल की कोई घटना भी इस किताब में जगह नहीं पा सको है । नमरूद से उनका टकराव, बाप और कौम से उनका संघर्ष, बुतपरस्ती के खिलाफ उनकी जिद्दोजुहद, आग में डाले जाने का किस्सा और अंततः देश को छोड़ने पर विवश होना इनमें से हर चीज़ बाइबल की किताब उत्पत्ति के लेखक की निगाह में ध्यान देने योग्य नहीं थी। वह सिर्फ उनकी हिजरत का उल्लेख करता है, मगर वह भी इस ढंग से कि जैसे एक परिवार रोज़ी की खोज में एक देश छोड़कर दूसरे देश में जाकर आबाद हो रहा है- तलमूद में अलबत्ता इबाहीम (अलैहि०) की जीवनी के इराक़ी काल के वे बहुत-से विवरण मिलते हैं जो क़ुरआन में विभिन्न जगहों पर बयान हुए हैं (एच० पोलानो, लंदन द्वारा “तलमूद के चुने हुए हिस्से”, पृ० 30-42)। मगर दोनों की तुलना करने से न सिर्फ यह कि क़िस्से के महत्त्वपूर्ण भागों में खुला अन्तर दीख पड़ता है, बल्कि एक व्यक्ति खुले तौर पर यह महसूस कर सकता कि तलमूद का बयान अधिकतर बेजोड़ और अनुमान के ख़िलाफ बातों से भरा हुआ है और इसके विपरीत क़ुरआन बिल्कुल खुली शक्ल में हज़रत इबाहीम की ज़िंदगी के महत्त्वपूर्ण घटनाओं को प्रस्तुत करता है, जिनमें कोई व्यर्थ बात आने नहीं पाई है। [जो व्यक्ति भी क़ुरआन और तलमूद के इन बयानों का तुलनात्मक अध्ययन करेगा उसपर] उन लोगों की गलती पूरी तरह खुल जाएगी जो यह समझते हैं कि कुरआन को बाइबल और यहूदी लिट्रेचर से बातें लेकर संकलित किया गया है।
وَلُوطًا ءَاتَيۡنَٰهُ حُكۡمٗا وَعِلۡمٗا وَنَجَّيۡنَٰهُ مِنَ ٱلۡقَرۡيَةِ ٱلَّتِي كَانَت تَّعۡمَلُ ٱلۡخَبَٰٓئِثَۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمَ سَوۡءٖ فَٰسِقِينَ ۝ 73
(74) और लूत को हमने तत्वदर्शिता और ज्ञान प्रदान किया67 और उसे उस बस्ती से बचाकर निकाल दिया जो बदकारियाँ (कुकर्म) करती थी-वास्तव में वह बड़ी ही बुरी अवज्ञा करनेवाली क़ौम थी
67. 'हुक्म और इल्म बनाना' सामान्य रूप से कुरआन मजीद में नुबूवत पद प्रदान करने का समानार्थी होता है। 'हुक्म' से तात्पर्य तत्त्वदर्शिता भी है, निर्णय करने की सही निर्णय-शक्ति भी और अल्लाह की ओर से शासन (Authority) प्राप्त होना भी । रहा 'इल्म' तो इससे तात्पर्य सत्य का वह ज्ञान है जो वह्य के ज़रिये प्रदान किया गया हो। हज़रत लूत (अलैहि०) के बारे में और अधिक विस्तार के लिए देखिए सूरा-7 (अल-आराफ़) आयत 80-84, सूरा-11 (हूद) आयत 69-83,सूरा-15 (अल हिज्र) आयत 57-76।
وَأَدۡخَلۡنَٰهُ فِي رَحۡمَتِنَآۖ إِنَّهُۥ مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 74
(75) और लूत को हमने अपनी रहमत में दाखिल किया, वह भले लोगों में से था।
وَنُوحًا إِذۡ نَادَىٰ مِن قَبۡلُ فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ فَنَجَّيۡنَٰهُ وَأَهۡلَهُۥ مِنَ ٱلۡكَرۡبِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 75
(76) और यही नेमत हमने नूह को दी। याद करो जबकि इन सबसे पहले उसने हमें पुकारा था।68 हमने उसकी दुआ क़बूल की और उसे और उसके घरवालों को बड़ी पीड़ा 69 से निजात दी
68. संकेत है हज़रत नूह (अलैहि०) की उस दुआ की ओर जो एक लम्बी अवधि तक अपनी क़ौम को सुधार के लिए बराबर कोशिश करते रहने के बाद अन्ततः थककर उन्होंने मांगी थी कि "पालनहार" मैं पराभूत हो गया हूँ, अब मेरी मदद को पहुँच।" (सूरा-54 अल-कमर, आयत 10) और "पालनहार ! ज़मीन पर एक सत्य का इंकारी बाशिंदा भी न छोड़।" (सूरा-71 नूह, आयत 26)
69. 'बड़ी पीड़ा से तात्पर्य या तो एक दुराचारी क़ौम के बीच जीवन बिताने की पीड़ा है या फिर तूफ़ान । हज़रत नूह (अलैहि०) के किस्से के विस्तृत विवरण के लिए देखिए सूरा-7,(अल-आराफ़), आयत 59-64, सूरा-10 (यूनुस) आयत 71-73, सूरा-11 (हूद), आयत 25-48,सूरा-17 (बनी इसराईल), आयत 3।
وَنَصَرۡنَٰهُ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمَ سَوۡءٖ فَأَغۡرَقۡنَٰهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 76
(77) और उस क़ौम के मुक़ाबले में उसकी मदद की जिसने हमारी आयतों को झुठला दिया था। वे बड़े बुरे लोग थे, अत: हमने उन सबको डुबो दिया।
وَدَاوُۥدَ وَسُلَيۡمَٰنَ إِذۡ يَحۡكُمَانِ فِي ٱلۡحَرۡثِ إِذۡ نَفَشَتۡ فِيهِ غَنَمُ ٱلۡقَوۡمِ وَكُنَّا لِحُكۡمِهِمۡ شَٰهِدِينَ ۝ 77
(78) और यही नेमत हमने दाऊद व सुलैमान को प्रदान की। याद करो वह मौक़ा जबकि वे दोनों एक खेत के मुक़द्दमे में फैसला कर रहे थे, जिसमें रात के वक़्त दूसरे लोगों को बकरियाँ फैल गई थी, और हम उनकी अदालत ख़ुद देख रहे थे।
فَفَهَّمۡنَٰهَا سُلَيۡمَٰنَۚ وَكُلًّا ءَاتَيۡنَا حُكۡمٗا وَعِلۡمٗاۚ وَسَخَّرۡنَا مَعَ دَاوُۥدَ ٱلۡجِبَالَ يُسَبِّحۡنَ وَٱلطَّيۡرَۚ وَكُنَّا فَٰعِلِينَ ۝ 78
(79) उस समय हमने सही फैसला सुलैमान को समझा दिया, हालाँकि हुक्म (तत्त्वदर्शिता) और (ज्ञान) हमने दोनों को ही प्रदान किया था।70 दाऊद के साथ हमने पहाड़ों और परिंदों को वशीभूत कर दिया था जो तस्बीह (गुणगान) करते थे।71 इस काम को करनेवाले हम ही थे
70. इस घटना का उल्लेख बाइबल में नहीं है और यहूदी साहित्य में भी हमें इसका कोई निशान नहीं मिला। मुसलमान टीकाकारों ने इसकी जो व्याख्या की है, वह यह है कि एक आदमी के खेत में दूसरे आदमी की बकरियाँ रात के समय घुस गई थीं। उसने हज़रत दाऊद (अलैहि०) के यहाँ दावा किया। उन्होंने फैसला किया कि उसकी बकरियाँ छीनकर इसे दे दो जाएँ। हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने इससे मतभेद किया और यह राय दी बकरियाँ उस समय तक खेतवाले के पास रहें, जब तक बकरीवाला उसके खेत को फिर से तैयार न कर दे। इसी के बारे में अल्लाह फ़रमा रहा है कि यह फैसला हमने सुलैमान को समझाया था, मगर चूँकि मुक़द्दमे का यह विवरण क़ुरआन में बयान नहीं हुआ है और न किसी हदोस में नबी (सल्ल०) से व्याख्या उल्लिखित है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि इस तरह के मुक़द्दमे में यही साबित-शुदा इस्लामी क़ानून है। यही कारण है कि इस्लामी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) के बीच इस बात में मतभेद हो गया है कि अगर किसी का खेत दूसरे आदमी के जानवर ख़राब कर दें तो कोई ज़ुर्माना लगेगा या नहीं और लगेगा तो किस शक्ल में लगेगा और किस शक्ल में नहीं। साथ ही यह भी कि हर्जाने की शक्ल क्या होगी? इस संदर्भ को देखते हुए हज़रत दाऊद व सुलैमान (अलैहि०) को इस प्रमुख घटना का उल्लेख करने से अभिप्रेत मन में यह बात बिठानी है कि अंबिया (अलैहि०) नबी होने और अल्लाह की ओर से असाधारण शक्ति और क्षमताएँ पाने के बावजूद होते इंसान ही थे, ईश्वरत्व का लेशमात्र भी उनमें न होता था। इस मुक़द्दमे में हज़रत दाऊद (अलैहि०) का मार्गदर्शन वह्य के ज़रिये से न किया गया और वह फैसला करने में ग़लती कर गए, हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की रहनुमाई की गई और उन्होंने सही फ़ैसला किया, हालाँकि नबी दोनों ही थे। आगे उन दोनों बुजुगों की जिन निपुणताओं का उल्लेख किया गया है वह भी यही बात समझाने के लिए है कि ये प्रकृति को दी हुई निपुणताएँ थीं और इस तरह की निपुणताएँ किसी को ख़ुदा नहीं बना देती। साथ ही इस आयत से अदालत का यह नियम मालूम हुआ कि अगर दो जज एक मुक़द्दमे का फैसला करें और दोनों के फैसले भिन्न हों तो यद्यपि सही फैसला एक ही का होगा, लेकिन दोनों सत्य पर होंगे, बशर्ते कि फैसला करने की अनिवार्य योग्यता दोनों में मौजूद हो, उनमें से कोई अज्ञानता और अनुभवहीनता के साथ निर्णय करने न बैठ जाए। नबी (सल्ल०) ने अपनी हदीसों में इस बात को और अधिक खोलकर बयान फरमाया है [देखिए अन्न बिन आस (रजि०) को रिवायत बुख़ारी शरीफ़ में और हज़रत बुरैदा (रजि०) की रिवायत इब्ने माजा और अबू दाऊद में] ।
71. यहाँ "दाऊद के साथ" शब्द प्रयुक्त हुए हैं, न कि "दाऊद (अलैहि०) के लिए" यानी “दाऊद (अलैहि०) के लिए नहीं बल्कि उनके साथ” पहाड़ और परिंदे सधाये गए थे और इस सघाने का सार यह था कि वे भी हज़रत दाऊद के साथ अल्लाह की तस्बीह (गुणगान) करते थे। यही बात सूरा-38 साद (आयत 18-19) में और सूरा-34, सबा (आयत 10) में भी] बयान की गई है। इन कथनों से जो बात समझ में आती है, वह यह है कि हज़रत दाऊद जब अल्लाह की प्रशंसा के गीत गाते थे तो उनकी ऊंची और सुरीली आवाज़ से पहाड़ गूंज उठते थे, परिन्दे ठहर जाते थे और एक समा बंध जाता था। इस अर्थ की पुष्टि उस हदीस से होती है जिसमें उल्लेख हुआ है कि एक बार हज़रत अबू मूसा अशअरी, जो असाधारण रूप से अच्छी आवाज़वाले बुजुर्ग थे, क़ुरआन की तिलावत कर रहे थे। नबी (सल्ल०) उधर से गुज़रे तो उनकी आवाज़ सुनकर खड़े हो गए और देर तक सुनते रहे? जब वह ख़त्म कर चुके तो आपने फरमाया,"इस आदमी को दाऊद के मधुर स्वर का एक भाग मिला है।'
وَعَلَّمۡنَٰهُ صَنۡعَةَ لَبُوسٖ لَّكُمۡ لِتُحۡصِنَكُم مِّنۢ بَأۡسِكُمۡۖ فَهَلۡ أَنتُمۡ شَٰكِرُونَ ۝ 79
(80) और हमने उसको तुम्हारे लाभ के लिए कवच बनाने की कला सिखा दी थी, ताकि तुमको एक-दूसरे को मार से बचाए,72 फिर क्या तुम कृतज्ञ हो?73
72. सूरा-34 सबा में और अधिक विवरण यह है : और हमने लोहे को उसके लिए नर्म कर दिया (और उसको निर्देश दिया कि) पूरी-पूरी कवचें बना और ठीक अंदाज़े से कड़ियाँ जोड़।' (आयत 10-11) इससे मालूम होता है कि अल्लाह ने हज़रत दाऊद (अलैहि०) को लोहे के इस्तेमाल की सामार्थ्य प्रदान की थी और मुख्य रूप से लड़ाई के कामों के लिए कवच बनाने का तरीका सिखाया था। वर्तमान समय का इतिहास और ज़माने की खोजें |बताती हैं। कि दुनिया में लोहे के इस्तेमाल का युग (Iron age)1200 और 1000 ई० पू० के बीच शुरू हुआ है और यही हज़रत दाऊद (अलैहि०) का काल है। स्वाभाविक बात है कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने सबसे पहले और सबसे बढ़कर इस नए अविष्कार को यौद्धिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया होगा, क्योंकि थोड़ी ही मुद्दत पहले आस-पास की दुश्मन क़ौमों ने इसी लोहे के हथियारों से उनकी क़ौम का जीना दूभर कर दिया था।
73. हज़रत दाऊद (अलैहि०) के बारे में और ज्यादा विवरण के लिए देखिए सूरा-2 (अल-बक़रा), आयत 251, सूरा-17 (बनी इसराईल),टिप्पणी 7,63।
وَلِسُلَيۡمَٰنَ ٱلرِّيحَ عَاصِفَةٗ تَجۡرِي بِأَمۡرِهِۦٓ إِلَى ٱلۡأَرۡضِ ٱلَّتِي بَٰرَكۡنَا فِيهَاۚ وَكُنَّا بِكُلِّ شَيۡءٍ عَٰلِمِينَ ۝ 80
(81) और सुलैमान के लिए हमने तेज़ हवा को वशीभूत कर दिया था जो उसके आदेश से उस भू-भाग की ओर चलती थी जिसमें हमने बरकतें रखी हैं,74 हम हर चीज़ का ज्ञान रखनेवाले थे।
74. इसका जो विवरण सूरा-34 (सबा) [आयत 12 और सूरा-38 (सॉद) आयत 36 में आया है] इससे मालूम होता है कि 'हवा' को हज़रत सुलैमान के लिए इस तरह आदेशाधीन कर दिया गया था कि उनके राज्य से एक महीने की राह तक की जगहों का सफर आसानी से किया जा सकता था। जाने में भी हमेशा उनकी मर्जी के अनुसार अनुकूल हवा मिलती थी और वापसी पर भी। बाइबल और नयी ऐतिहासिक खोजों से इस विषय पर जो रौशनी पड़ती है वह यह है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने अपने शासनकाल में बहुत बड़े स्तर पर समुद्री व्यापार का सिलसिला शुरू किया था। एक ओर इसयून जाबिर से उनके व्यापारिक जहाज़ लाल सागर में यमन और दूसरे दक्षिणी व पूर्वी देशों की ओर जाते थे और दूसरी ओर रूम सागर के बन्दरगाहों से उनका बेड़ा (जिसे बाइबल में 'तरसीसी बेड़ा' कहा गया है) पश्चिमी देशों की ओर जाया करता था। इसयून जाबिर में उनके समय की जो शानदार भट्ठी मिली है, उसके मुक़ाबले को कोई भट्ठी पश्चिमी एशिया और मध्य पूर्व में अभी तक नहीं मिली। पुरातत्त्व विभाग के विशेषज्ञों का अनुमान है कि यहाँ अदवम के अरबा इलाके की खानों से कच्चा लोहा और तांबा लाया जाता था और इस भट्ठी में पिघलाकर उसे दूसरे कामों के अलावा जहाज़ बनाने में भी इस्तेमाल किया जाता था। इससे क़ुरआन मजीद की उस आयत के अर्थ पर रौशनी पड़ती है जो सूरा-34 (सबा) में हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के बारे में आई है कि “और हमने उसके लिए पिघली हुई धातु का स्रोत बहा दिया। साथ ही इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखने से यह बात भी समझ में आ जाती है कि हज़रत सुलैमान के लिए एक महीने की राह तक हवा की रफ्तार को 'सधाने' का क्या अर्थ है । उस काल में समुद्री यात्राओं का पूरा दारोमदार अनुकूल हवा मिलने पर था और अल्लाह की हज़रत सुलैमान (अलैहि०) पर यह विशेष कृपा थी कि वह हमेशा उनके दोनों समुद्री बेड़ों को उनकी मर्जी के मुताबिक़ मिलती थी। फिर भी अगर हवा पर हज़रत सुलैमान (अलैहि०) को हुक्म चलाने का भी कोई अधिकार दिया गया हो जैसाकि "उसके हुक्म से चलती थी" के प्रत्यक्ष शब्दों से मालूम होता है, तो यह अल्लाह की सामार्थ्य से परे नहीं है।
وَمِنَ ٱلشَّيَٰطِينِ مَن يَغُوصُونَ لَهُۥ وَيَعۡمَلُونَ عَمَلٗا دُونَ ذَٰلِكَۖ وَكُنَّا لَهُمۡ حَٰفِظِينَ ۝ 81
(82) और शैतानों में से हमने ऐसे बहुत-सों को उसका अधीन बना दिया था जो उसके लिए ग़ोते लगाते और उसके सिवा दूसरे काम करते थे। इन सबकी निगरानी हम ही करनेवाले थे।75
75. इसका विवरण [सुरा-34 (सबा) की आयतें 12-18 में बयान हुई हैं, अलबत्ता इनमें 'शैतानों' के बजाय 'जिन्नों का शब्द प्रयुक्त हुआ है] वर्तमान काल के टीकाकार यह सिद्ध करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं कि वे जिन्न और शैतान जो हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लिए सधाए गए हैं, इंसान थे और आस-पास की कौमों में से उपलब्ध कराए गए थे, लेकिन सिर्फ यही नहीं कि क़ुरआन के शब्दों में उनके इस नये अर्थ के लिए कोई गुंजाइश नहीं है, बल्कि क़ुरआन में जहाँ-जहाँ भी यह किस्सा आया है, वहाँ का संदर्भ और वर्णन-शैली इस नये अर्थ को राह देने से साफ इंकार करती है। हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लिए इमारतें बनानेवाले अगर इंसान ही थे तो आखिर यह उन्हीं की कौन-सी विशेषता थी जिसको इस शान से क़ुरआन मजीद में बयान किया गया है। एहराम मिस्त्री से लेकर न्यूयार्क की गगन-भेदी इमारतों तक किस चीज़ को इंसान ने नहीं बनाया है और किस बादशाह या रईस या धन्ना सेठ के लिए वे 'जिन्न' और 'शैतान उपलब्ध नहीं हुए जो आप हज़रत सुलैमान के लिए उपलब्ध कर रहे हैं?
۞وَأَيُّوبَ إِذۡ نَادَىٰ رَبَّهُۥٓ أَنِّي مَسَّنِيَ ٱلضُّرُّ وَأَنتَ أَرۡحَمُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 82
(83) और यही (होशमन्दी और तत्वदर्शिता एवं ज्ञान की नेमत) हमने अय्यूब76 को दी थी। याद करो जबकि उसने अपने रब को पुकारा कि "मुझे बीमारी लग गई है और तू सबसे बढ़कर दयावान 77 है।”
76. हज़रत अय्यूब (अलैहि०) के व्यक्तित्त्व, काल, राष्ट्रीयता हर चीज़ के बारे में मतभेद है। [इस सिलसिले में] अधिक से अधिक भरोसेमंद गवाही अगर कोई है तो वह यह है कि यसइयाह नबी और हिज्कीएल नबी की किताबों में उनका उल्लेख हुआ है और ये किताबें ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक प्रामाणिक हैं। यसझ्याह नबी आठवों सदी और हिज़्कोएल नबी छठी सदी पूर्व मसीह में गुज़रे हैं, इसलिए यह बात निश्चित है कि हज़रत अय्यूब नवीं सदी या उससे पहले के बुजुर्ग हैं। रही उनकी राष्ट्रीयता, तो सूरा-4 (निसा) आयत 163 और सूरा-6 (अनआम) आयत 84 में जिस तरह उनका उल्लेख हुआ है, इससे अनुमान तो यही होता है कि वह बनी इसराईल ही में से थे, मगर बहब बिन मुब्बिह का यह बयान भी कुछ अनुमान से परे नहीं है कि वे हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के बेटे ईसू की नस्ल से थे।
77. दुआ कि शैली कितनी सूक्ष्म एवं मधुर है। अत्यंत अल्प शब्दों में अपने कष्ट का उल्लेख करते हैं और इसके बाद बस यह कहकर रह जाते हैं कि 'तू अर-हमुर्राहिमीन, (अर्थात् सबसे बढ़कर दयावान) है। आगे कोई शिकवा या शिकायत नहीं और न कोई आग्रह ।
فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ فَكَشَفۡنَا مَا بِهِۦ مِن ضُرّٖۖ وَءَاتَيۡنَٰهُ أَهۡلَهُۥ وَمِثۡلَهُم مَّعَهُمۡ رَحۡمَةٗ مِّنۡ عِندِنَا وَذِكۡرَىٰ لِلۡعَٰبِدِينَ ۝ 83
(84) हमने उसकी दुआ क़बूल की और जो तकलीफ़ उसे थी उसको दूर कर दिया।78 और सिर्फ़ उसके घरवाले ही उसको नहीं दिए, बल्कि उनके साथ उतने ही और भी दिए, अपनी विशेष रहमत के तौर पर और इसलिए कि यह एक शिक्षा हो उपासकों के लिए।79
78. सूरा-38 (साँद) की आयत 41-64 में इसका विवरण यह है कि अल्लाह ने उनसे फ़रमाया, “अपना पॉव मारो, यहाँ ठंडा पानी मौजूद है नहाने को और पीने को।" इससे मालूम होता है कि ज़मीन पर पाँव मारते ही अल्लाह ने उनके लिए एक प्राकृति स्रोत जारी कर दिया जिसके पानी में यह गुण था कि उससे नहाने से और उसके पीने से उनकी बीमारी दूर हो गई। यह इलाज इस बात की ओर संकेत करता है कि उनको कोई सरन बड़ा चर्म रोग हो गया था और बाइबल का बयान भी इसकी ताईद करता है कि उनका शरीर सिर से पाँव तक फोड़ों से भर गया था । (अय्यूब, अध्याय 2, आयत 7)
79. इस क़िस्से में क़ुरआन मजीद हज़रत अय्यूब (अलैहि०) को इस शान से पेश करता है कि वे साक्षात धैर्य दिखाई पड़ते हैं और फिर कहता है कि उनकी जिंदगी उपासकों के लिए एक आदर्श है, मगर दूसरी ओर बाइबल के 'सिफ़रे अय्यूब' पढ़िए तो वहाँ आपको एक ऐसे आदमी का चित्र दिखाई पड़ेगा जो अल्लाह के विरुद्ध साक्षात शिकायत और अपनी मुसीबत पर साक्षात फरियाद बना हुआ है। बार-बार उसके मुख से ये शब्द निकलते हैं: “नष्ट हो वह दिन जिसमें मैं पैदा हुआ।" "मैं गर्भ ही में क्यों न मर गया।” “मैंने पेट से निकलते ही क्यों न जान दे दी” और बार-बार वह ख़ुदा के खिलाफ शिकायतें करता है कि "सर्वशक्तिमान के तीर मेरे भीतर लगे हुए हैं, मेरी आत्मा उन्हीं के ज़हर को पी रही है, खुदा की डरावनी बातें मेरे ख़िलाफ पंक्तिबद्ध हैं।” “ऐ आदम की संतान के रखवाले। अगर मैंने गुनाह किया है तो तेरा क्या बिगाड़ता हूँ? तूने मुझे क्यों अपना निशाना बना लिया है यहाँ तक कि में अपने आपपर बोझ हूँ? तू मेरा गुनाह क्यों नहीं माफ़ करता और मेरी बदकारी क्यों नहीं दूर कर देता?" “मैं खुदा से कहूँगा कि मुझे मुलज़िम न ठहरा, मुझे बता कि तू मुझसे क्यों झगड़ता है? क्या तुझे अच्छा लगता है कि अंधेर करे और अपने हाथों की बनाई हुई चीज़ को तुच्छ जाने और दुष्टों की साज़िशों को रौशन करे?"-- यह किताब स्वयं अपने मुँह से बोल रही है कि यह न ख़ुदा का कलाम (वाणी) है, न खुद हज़रत अय्यूब (अलैहि०) का बल्कि यह हज़रत अय्यूब के समय का भी नहीं है। इनके सदियों बाद किसी आदमी ने अय्यूब (अलैहि०) के क़िस्से को बुनियाद बनाकर 'यूसुफ-ज़लोखा' की तरह एक दास्तान लिखी है और उसमें अय्यूब, अल-यफ़ज़ तेमानी, सोखी बिल्दू, नोमाती ज़ोफर, बराकील बोज़ी का बेटा अल-यहू, कुछ पात्र हैं जिनके मुख से सृष्टि-व्यवस्था के बारे में वास्तव में वह स्वयं अपना दर्शन बयान करता है। उसकी शायरी और उसके वर्णन-शैली की जितना भी जी चाहे प्रशंसा कर लीजिए, मगर पवित्र किताबों के संग्रह में एक आसमानी किताब को हैसियत से उसको जगह देने का कोई अर्थ नहीं।
وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِدۡرِيسَ وَذَا ٱلۡكِفۡلِۖ كُلّٞ مِّنَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 84
(85) और यही नेमत इस्माईल और इदरीस80 और जुलकिफ़्ल81 को दी कि ये सब धैर्यवान लोग थे,
80. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-19 मरयम,टिप्पणी 33 ।
81. ज़ुलक़िल का शब्दिक अर्थ है 'नसीब (भाग्य) वाला' और तात्पर्य है नैतिक श्रेष्ठता और आख़िरत के बदले की दृष्टि से नसीब बाला, न कि दुनिया के फ़ायदे और लाभों को दृष्टि से । यह उन बुज़ुर्गों का नाम नहीं, बल्कि लकब (उपाधि) है। क़ुरआन मजीद में दो जगह इनका उल्लेख हुआ है और दोनों जगह इनको इसी उपाधि से याद किया गया है, नाम नहीं लिया गया। टीकाकारों के कथन इस मामले में बहुत भिन्न हैं कि ये बुज़ुर्ग कौन हैं, किस देश और कौम से ताल्लुक रखते हैं और किस काल में गुज़रे हैं। [इसलिए] पूरे विश्वास और भरोसे के साथ नहीं कहा जा सकता कि वास्तव में यह कौन से नबी हैं। वर्तमान युग के टीकाकारों ने अपना झुकाब हिज्क्रीएल नबी की ओर प्रकट किया है, लेकिन हमें कोई यथोचित प्रमाण ऐसा नहीं मिला जिसके आधार पर यह राय बनाई जा सके, फिर भी अगर इसके लिए कोई प्रमाण मिल सके तो इस राय को प्राथमिकता दी जा सकती है, क्योंकि बाइबल की किताब हिज़्क़ी एल के देखने से मालूम होता है कि वास्तव में वह इस प्रशंसा के अधिकारी हैं जो इस आयत में की गई है। (देखिए अध्याय 24,आयत 15-27) बाइबल की किताब हिकी एल उन किताबों में से है जिन्हें पढ़कर सचमुच यह महसूस होता है कि यह इलहामी कलाम (ईश्वरीय वाणी) है।
وَأَدۡخَلۡنَٰهُمۡ فِي رَحۡمَتِنَآۖ إِنَّهُم مِّنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 85
(86) और उनको हमने अपनी रहमत में दाखिल किया कि वे नेकों में से थे।
وَذَا ٱلنُّونِ إِذ ذَّهَبَ مُغَٰضِبٗا فَظَنَّ أَن لَّن نَّقۡدِرَ عَلَيۡهِ فَنَادَىٰ فِي ٱلظُّلُمَٰتِ أَن لَّآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنتَ سُبۡحَٰنَكَ إِنِّي كُنتُ مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 86
(87) और मछलीवाले को भी हमने कृपापात्र बनाया।82 याद करो जबकि वह बिगड़कर चला गया था 83 और समझा था कि हम उसपर पकड़ न करेंगे।84 अन्तत: उसने अंधियारियों में से पुकारा,85 "नहीं है कोई ख़ुदा मगर तू, पाक है तेरी ज़ात, बेशक मैंने कुसूर किया।”
82. तात्पर्य है हज़रत यूनुस (अलैहि०), कहीं इनका नाम लिया गया है और कहीं 'जुनून' और 'साहिबुल-हूत' अर्थात 'मछलीवाले' की उपाधियों से याद किया गया है। मछलीवाला उन्हें इसलिए नहीं कहा गया कि वे मछलियाँ पकड़ते या बेचते थे, बल्कि इस कारण कि अल्लाह के आदेश से एक मछली ने उन्हें निगल लिया था, जैसा कि सूरा-37 (साफ़्फ़ात) आयत 142 में बयान हुआ है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 98-100, सूरा-37 अस्साफ़्फ़ात ,टिप्पणी 77-85)
83. अर्थात् वह अपनी क़ौम से नाराज़ होकर चले गए, इससे पहले कि अल्लाह की ओर से हिजरत का आदेश आता और उनके लिए अपनी ड्यूटी की जगह से हटना सही होता ।
فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ وَنَجَّيۡنَٰهُ مِنَ ٱلۡغَمِّۚ وَكَذَٰلِكَ نُـۨجِي ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 87
(88) तब हमने उसकी दुआ क़बूल की और ग़म से उसको नजात दी, और इसी तरह हम ईमानवालों को बचा लिया करते हैं।
وَزَكَرِيَّآ إِذۡ نَادَىٰ رَبَّهُۥ رَبِّ لَا تَذَرۡنِي فَرۡدٗا وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلۡوَٰرِثِينَ ۝ 88
(89) और जकरिया को, जबकि उसने अपने रब को पुकारा कि "ऐ पालनहार ! मुझे अकेला न छोड़, और बेहतरीन वारिस तो तू ही है।”
فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ وَوَهَبۡنَا لَهُۥ يَحۡيَىٰ وَأَصۡلَحۡنَا لَهُۥ زَوۡجَهُۥٓۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡخَيۡرَٰتِ وَيَدۡعُونَنَا رَغَبٗا وَرَهَبٗاۖ وَكَانُواْ لَنَا خَٰشِعِينَ ۝ 89
(90) अत: हमने उसकी दुआ कबूल की और उसे यह्या प्रदान किया और उसकी बीवी को उसके लिए ठीक कर दिया।86 ये लोग नेकी के कामों में दौड़-धूप करते थे और हमें चाहत और भय के साथ पुकारते थे, और हमारे आगे झुके हुए थे।87
86. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-3 (आले इमरान), आयत 37-41 टिप्पणियाँ सहित, सूरा-19 (मरयम), आयत 2-15 टिप्पणियाँ सहित । बीवी को ठीक कर देने से तात्पर्य उनका बांझपन दूर कर देना और बुढ़ापे के बावजूद गर्भ धारण करने योग्य बना देना है। “सबसे अच्छा वारिस तो तू ही है” अर्थात् तू औलाद न भी दे तो ग़म नहीं, तेरी पाक ज़ात वारिस होने के लिए काफ़ी है।
87. इस संदर्भ में नबियों का उल्लेख जिस उद्देश्य के लिए किया गया है, उसे फिर मन में ताज़ा कर लीजिए। हज़रत जकरिया (अलैहि०) को घटना का उल्लेख करने से मन में यह बिठाना है कि ये सारे नबी सिर्फ बन्दे और इंसान थे, खुदाई (ईश्वरत्त्व) का उनमें लेशमात्र तक न था। दूसरों को औलाद प्रदान करनेवाले न थे, बल्कि स्वयं अल्लाह के आगे औलाद के लिए हाथ फैलानेवाले थे। हज़रत युनूस (अलैहि०) का उल्लेख इसलिए किया गया कि एक नबी दृढ़संकल्प का मालिक होने के बावजूद जब उनसे कसूर हुआ तो उन्हें पकड़ लिया गया और जब वे अपने रब के आगे झुक गए तो उनपर कृपा भी ऐसी की गई कि मछली के पेट से जिंदा निकाल लाए गए। हज़रत अय्यूब (अलैहि०) का उल्लेख इसलिए किया गया कि नबी का किसी मुसीबत में पड़ जाना कोई अनोखी बात नहीं है और नबी भी जब मुसीबत में फंस जाता है तो अल्लाह ही के आगे शिफ़ा (आरोग्य) के लिए हाथ फैलाता है। वह दूसरों को शिफ़ा देनेवाला नहीं, अल्लाह से शिफ़ा माँगनेवाला होता है। फिर इन सब बातों के साथ एक ओर यह सत्य भी मन में बिठाना अभिप्रेत है कि ये सारे नबी तौहीद (एकेश्वरवाद) के कायल थे और अपनी ज़रूरतें एक अल्लाह के सिवा किसी के सामने न ले जाते थे और दूसरी ओर यह बताना भी अभिप्रेत है कि अल्लाह सदैव असाधारण रूप से अपने नबियों की मदद करता रहा है। शुरू में चाहे जैसी आज़माइशों का उन्हें मुक़ाबला करना पड़ा हो, मगर अन्ततः उनकी दुआएँ चमत्कार रूप से पूरी हुई हैं।
وَٱلَّتِيٓ أَحۡصَنَتۡ فَرۡجَهَا فَنَفَخۡنَا فِيهَا مِن رُّوحِنَا وَجَعَلۡنَٰهَا وَٱبۡنَهَآ ءَايَةٗ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 90
(91) और वह महिला जिसने अपने सतीत्व की रक्षा की थी,88 हमने उसके भीतर अपनी रूह से फूँका89 और उसे और उसके बेटे को दुनिया भर के लिए निशानी बना दिया।90
88. तात्पर्य हैं हज़रत मरयम अलैहिस्सलाम।
89. हज़रत आदम (अलैहि०) के बारे में यह फरमाया गया है कि "मैं मिट्टी से एक इंसान बना रहा हूँ। अतः (ऐ फ़रिश्तो।) जब मैं उसे पूरा बना लूँ और उसमें अपनी आत्मा से फूँक दूँ तो तुम उसके आगे सज्दे में गिर जाना।" (सूरा-38 साँद, आयत 71-72) और यही आत्मा की या अपनी आत्मा से फूँक देने की बात हज़रत ईसा (अलैहि०) के बारे में भी विभिन्न स्थानों पर कही गई है (देखिए सूरा-4 निसा, आयत 171, और सूरा-66 तहरीभ, आयत 12)। इसके साथ यह बात भी दृष्टि में रहे कि अल्लाह हज़रत ईसा (अलैहि०) के जन्म और हज़रत आदम (अलैहि०) के जन्म को एक-दूसरे के सदृश करार देता है, चुनांचे सूरा-3 आले इमरान में फ़रमाया : "ईसा की मिसाल अल्लाह के नज़दीक आदम को-सी है......।" (आयत 59) इन आयतों पर विचार करने से यह बात समझ में आती है कि नियमानुसार अस्तित्व में लाने के बजाय जब अल्लाह किसी को सीधे तौर पर अपने आदेश से अस्तित्त्व में लाकर जीवन प्रदान करता है तो उसको "अपनी आत्मा से फूँकने" के शब्दों से व्यक्त करता है। इस आत्मा का संबंध अल्लाह से शायद इस कारण जोड़ा गया है कि उसका फूँका जाना चमत्कार की असाधारण स्थिति रखता है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-4 निसा, टिप्पणी 212-213)
إِنَّ هَٰذِهِۦٓ أُمَّتُكُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَأَنَا۠ رَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُونِ ۝ 91
(92) यह तुम्हारा समुदाय (उम्मत) वास्तव में एक ही समुदाय है और मैं तुम्हारा रब हूँ, अतः तुम मेरी इबादत करो।
وَتَقَطَّعُوٓاْ أَمۡرَهُم بَيۡنَهُمۡۖ كُلٌّ إِلَيۡنَا رَٰجِعُونَ ۝ 92
(93) मगर (यह लोगों की कारस्तानी है कि उन्होंने आपस में अपने दीन को टुकड़े-टुकड़े कर डाला91 - सबको हमारी ओर पलटना है।
91. 'तुम' का सम्बोधन तमाम इंसानों से है। अर्थ यह है कि ऐ इंसानो ! तुम सब वास्तव में एक ही समुदाय और एक ही मिल्लत थे, दुनिया में जितने नबी भी आए, वे सब एक ही दोन लेकर आए थे और वह असल दीन यह था कि केवल एक अल्लाह हो इंसान का रब है और अकेले अल्लाह ही की बन्दगी और उपासना की जानी चाहिए। बाद में जितने धर्म पैदा हुए, वे इसी दीन को बिगाड़कर बना लिए गए। यह सोचना कि अमुक नबी अमुक धर्म का संस्थापक था और अमुक नबी ने अमुक धर्म की बुनियाद डाली और मानवता में यह सम्प्रदायों और धर्मों का विभेद नबियों का डाला हुआ है. मात्र एक असत्य धारणा है। अल्लाह के भेजे हुए नबी दस अलग-अलग धर्म नहीं बना सकते थे और न एक अल्लाह के सिवा किसी और को बन्दगी सिखा सकते थे।
فَمَن يَعۡمَلۡ مِنَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَلَا كُفۡرَانَ لِسَعۡيِهِۦ وَإِنَّا لَهُۥ كَٰتِبُونَ ۝ 93
(94) फिर जो नेक कर्म करेगा, इस हाल में कि वह ईमानवाला हो, तो उसके काम की उपेक्षा न होगी और उसे हम लिख रहे हैं।
وَحَرَٰمٌ عَلَىٰ قَرۡيَةٍ أَهۡلَكۡنَٰهَآ أَنَّهُمۡ لَا يَرۡجِعُونَ ۝ 94
(95) और संभव नहीं है कि जिस बस्ती को हमने नष्ट कर दिया हो, वह फिर पलट सके।92
92. इस आयत के तीन अर्थ हैं- एक यह कि जिस क़ौम पर एक बार अल्लाह का अज़ाब आ चुका हो, वह फिर कभी नहीं उठ सकती। उसका पुनरुत्थान और उसका नया जीवन संभव नहीं है। दूसरा यह कि नष्ट हो जाने के बाद फिर इस संसार में उसका पलटना और उसे दोबारा परीक्षा का अवसर मिलना असम्भव है। तीसरा यह कि जिस क़ौम की दुराचरण और सत्य के मार्गदर्शन की लगातार अवहेलना इस सीमा तक पहुंच जाती है कि अल्लाह की ओर से उसके विनाश का फैसला हो जाता है, उसे फिर पलटने और तौबा और प्रायश्चित करने का अवसर नहीं दिया जाता।
حَتَّىٰٓ إِذَا فُتِحَتۡ يَأۡجُوجُ وَمَأۡجُوجُ وَهُم مِّن كُلِّ حَدَبٖ يَنسِلُونَ ۝ 95
(96) यहाँ तक कि जब याजूज और माजूज खोल दिए जाएंगे और हर बुलन्दी से वे निकल पड़ेंगे
وَٱقۡتَرَبَ ٱلۡوَعۡدُ ٱلۡحَقُّ فَإِذَا هِيَ شَٰخِصَةٌ أَبۡصَٰرُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يَٰوَيۡلَنَا قَدۡ كُنَّا فِي غَفۡلَةٖ مِّنۡ هَٰذَا بَلۡ كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 96
(97) और सच्चे वादे को पूरा होने का समय क़रीब आ लगेगा93 तो यकायक उन लोगों की आँखें फटी-की-फटी रह जाएँगी जिन्होंने इंकार किया था। कहेंगे, “हाय हमारा दुर्भाग्य ! हम इस चीज की ओर से राफलत में पड़े हुए थे, बल्कि हम दोषी थे।‘’94
93. अर्थात् कियामत आने का समय। याजूज-माजूज की व्याख्या सूरा-18 कहफ़, टिप्पणी 62-69 में की जा चुकी है। उनके खोल दिए जाने का अर्थ यह है कि वे दुनिया पर इस तरह टूट पड़ेंगे, जैसे कोई शिकारी दरिंदा यकायक पिंजरे या बंधन से छोड़ दिया गया हो। "सच्चा वादा पूरा होने का समय क़रीब आ लगेगा" का संकेत स्पष्ट रूप से इस ओर है कि याजूज व माजूज का यह विश्वव्यापी उत्पात अन्तिम समय में होगा और उसके बाद जल्द ही कियामत आ जाएगी। नबी (सल्ल०) का वह कथन इस अर्थ को और अधिक खोल देता है जो इमाम मुस्लिम ने हुज़ैफ़ा बिन उसैद अल-सिफारी की रिवायत से नक़ल किया है कि "क़ियामत क़ायम न होगी जब तक तुम उससे पहले दस निशानियाँ न देख लो : धुआँ दज्जाल, पृथ्वी का जानवर, पश्चिम से सूरज का निकलना, मरयम के बेटे ईसा का उतरना, याजूज व माजूज का उत्पात और तीन बड़े ख़सूफ़ (ज़मीन का धंसना या landslide)-एक पूरब में, दूसरा पश्चिम में और तीसरा अरब प्रायद्वीप में, फिर सबसे आखिर में यमन से एक तेज़ आग उठेगी जो लोगों को महशर (क़ियामत) की ओर हाँकगी। (अर्थात् बस उसके बाद कियामत आ जाएगी) लेकिन कुरआन मजीद और हदीसों में याजूज व माजूज के बारे में जो कुछ बयान किया गया है, उससे यह स्पष्ट नहीं होता कि ये दोनों मिल जाएँगे और मिलकर दुनिया पर टूट पड़ेंगे। हो सकता है कियामत के करीब के समय में ये दोनों आपस ही में लड़ जाएँ और फिर उनकी लड़ाई एक विश्वव्यापी बिगाड़ एवं फसाद का कारण बन जाए।
94. 'ग़फ़लत में फिर एक प्रकार की विवशता पाई जाती है, इसलिए वे अपनी सफ़लत का उल्लेख करने के साद फिर स्वयं ही साना-साफ मान लेंगे कि हमको नबियों ने आकर इस दिन से ख़बरदार किया था, इसलिए वास्तव में हम गाफिल व बेख़बर न थे, बल्कि दोषी थे।
إِنَّكُمۡ وَمَا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ حَصَبُ جَهَنَّمَ أَنتُمۡ لَهَا وَٰرِدُونَ ۝ 97
(98) निस्सन्देह, तुम और तुम्हारे वे उपास्य जिन्हें तुम अल्लाह को छोड़कर पूजते हो, जहन्नम का ईधन हैं, वहीं तुमको जाना है।95
95. रिवायतों में आया है कि इस आयत पर अब्दुल्लाह बिन जबअरा ने आपत्ति को कि इस तरह तो सिर्फ़ हमारे ही उपास्य नहीं, मसीह और उजैर और फरिश्ते भी जहन्नम में जाएँगे, क्यों उनकी भी उपासना की जाती है। इसपर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "हाँ, हर वह आदमी जिसने पसन्द किया कि अल्लाह के बजाय उसकी उपासना की जाए, वह उन लोगों के साथ होगा जिन्होंने उसकी उपासना की। इससे मालूम होता है कि जिन लोगों ने ख़ुदा के बंदों को (ख़ुदापरस्ती) ईश्वरवादिता की शिक्षा दी थी और लोग उन्हीं को उपास्य बना बैठे या जो ग़रीब इस बात से बिल्कुल बेख़बर है कि दुनिया में उनकी बन्दगी की जा रही है और इस काम में उनकी इच्छा और प्रसन्नता का कोई दख़ल नहीं है, उनके जहन्नम में जाने की कोई वजह नहीं है, क्योंकि वे इस शिर्क के ज़िम्मेदार नहीं हैं। अलबत्ता जिन्होंने स्वत: उपास्य बनने की कोशिश की और जिनका ख़ुदा के बंदों के इस शिर्क में सच में दखल है, वे सब अपने उपासकों के साथ जहन्नम में जाएँगे। इसी तरह वे लोग भी जहन्नम में जाएँगे जिन्होंने अपने स्वार्थों के लिए अल्लाह को छोड़कर दूसरों को उपास्य बनवाया, क्योंकि इस रूप में मुशरिकों के साथ वास्तविक उपास्य वही करार पाएँगे, न कि वे जिनको इन दुष्टों ने प्रत्यक्ष में उपास्य बनवाया था। शैतान भी इसी श्रेणी में आता है। इसके अलावा पत्थर और लकड़ी के बुतो और पूजा के दूसरे सामानों को भी मुशरिकों के साथ जहन्नम में दाख़िल किया जाएगा, साकि वे उनपर जहन्नम की आग की ओर अधिक भड़कने का कारण बनें और यह देखकर उन्हें और पीड़ा हो कि जिनसे वे सिफारिश करने की उम्मीदें लगाए बैठे थे वे उलटे उनपर अज़ाब की भीषणता का कारण बने हुए हैं।
لَوۡ كَانَ هَٰٓؤُلَآءِ ءَالِهَةٗ مَّا وَرَدُوهَاۖ وَكُلّٞ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 98
(99) अगर ये सचमुच ख़ुदा होते तो वहाँ न जाते । अब सबको हमेशा उसी में रहना है।
لَهُمۡ فِيهَا زَفِيرٞ وَهُمۡ فِيهَا لَا يَسۡمَعُونَ ۝ 99
(100) वहाँ वे फुकारे मारेंगे96 और हाल यह होगा कि उसमें कान पड़ी आवाज़ न सुनाई देगी।
96. मूल शब्द 'जफीर' प्रयुक्त हुआ है। कड़ी गर्मी, मेहनत और थकन की हालत में जब आदमी लम्बा साँस लेकर उसको एक फुकार के रूप में निकालता है तो उसे अरबी भाषा में जफीर कहते हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ سَبَقَتۡ لَهُم مِّنَّا ٱلۡحُسۡنَىٰٓ أُوْلَٰٓئِكَ عَنۡهَا مُبۡعَدُونَ ۝ 100
(101) रहे वे लोग जिनके लिए हमारी ओर से भलाई का पहले ही फैसला हो चुका होगा, तो वे निश्चय ही उससे दूर रखे जाएँगे।97
97. इससे तात्पर्य वे लोग हैं जिन्होंने दुनिया में नेकी और सौभाग्य का मार्ग अपनाया।
لَا يَسۡمَعُونَ حَسِيسَهَاۖ وَهُمۡ فِي مَا ٱشۡتَهَتۡ أَنفُسُهُمۡ خَٰلِدُونَ ۝ 101
(102) उसको सरसराहट तक न सुनेंगे, और वे हमेशा-हमेशा अपनी मनभाती चीज़ों के बीच रहेंगे।
لَا يَحۡزُنُهُمُ ٱلۡفَزَعُ ٱلۡأَكۡبَرُ وَتَتَلَقَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ هَٰذَا يَوۡمُكُمُ ٱلَّذِي كُنتُمۡ تُوعَدُونَ ۝ 102
(103) वह इंतिहाई घबराहट का वक़्त उनको तनिक परेशान न करेगा98 और फ़रिश्ते बढ़कर उनको हाथों-हाथ लेंगे कि “यह तुम्हारा वही दिन है जिसका तुमसे वादा किया जाता था।"
98. अर्थात् महशर के दिन और अल्लाह के हुजूर पेशी का वक़्त, जो आम लोगों के लिए इंतिहाई घबराहट और परेशानी का समय होगा, उस समय नेक और सदाचारी लोगों पर एक प्रकार की शान्ति-सी छाई रहेगी, इसलिए कि सब कुछ उनकी आशाओं के अनुरूप हो रहा होगा। ईमान और भले कार्य की जो पूँजी लिए हुए वे दुनिया से विदा हुए थे, वह उस समय अल्लाह की मेहरबानी से उनकी ढाढ़स बँधाएगी और डर और दुख के बजाय उनके दिलों में यह आशा पैदा करेगी कि बहुत जल्द उन्हें अपनी कोशिश के अच्छे नतीजे मिलनेवाले हैं।
يَوۡمَ نَطۡوِي ٱلسَّمَآءَ كَطَيِّ ٱلسِّجِلِّ لِلۡكُتُبِۚ كَمَا بَدَأۡنَآ أَوَّلَ خَلۡقٖ نُّعِيدُهُۥۚ وَعۡدًا عَلَيۡنَآۚ إِنَّا كُنَّا فَٰعِلِينَ ۝ 103
(104) वह दिन जबकि आसमान को हम यूँ लपेटकर रख देंगे जैसे पंजी में पन्ने लपेट दिए जाते हैं। जिस तरह पहले हमने पैदाइश की शुरुआत की थी, उसी तरह हम फिर उसको दोहराएंगे। यह एक वादा है हमारे ज़िम्मे और यह काम हमें बहरहाल करना है,
وَلَقَدۡ كَتَبۡنَا فِي ٱلزَّبُورِ مِنۢ بَعۡدِ ٱلذِّكۡرِ أَنَّ ٱلۡأَرۡضَ يَرِثُهَا عِبَادِيَ ٱلصَّٰلِحُونَ ۝ 104
(105) और में हम नसीहत के बाद यह लिख चुके हैं कि ज़मीन के वारिस हमारे नेक बन्दे होंगे,
إِنَّ فِي هَٰذَا لَبَلَٰغٗا لِّقَوۡمٍ عَٰبِدِينَ ۝ 105
(106) इसमें एक बड़ी ख़बर है उपासना करनेवाले लोगों के लिए।99
99. इस आयत का अर्थ कुछ लोग यह लेते हैं कि दुनिया के वर्तमान जीवन में ज़मीन की विरासत (अर्थात् हुकूमत और फरमारवाई और ज़मीन के साधनों पर उपयोग का अधिकार) सिर्फ़ भले लोगों को मिला करती है। फिर इस सर्वमान्य नियम से वे यह नतीजा निकालते हैं कि भले और बुरे के अन्तर का मापदण्ड ज़मीन की यही विरासत है। जिसको यह विरासत मिले, वह भला है और जिसको न मिले, वह बुरा। इसके बाद वे आगे बढ़कर उन क़ौमों पर निगाह डालते हैं जो दुनिया में पहले ज़मीन की वारिस रही हैं और आज इस विरासत को मालिक बनी हुई हैं। यहाँ वे देखते हैं कि ख़ुदा के इनकारी, मुशरिक, नास्तिक, अवज्ञाकारी, दुराचारी, सब यह विरासत पहले भी पाते रहे हैं और आज भी पा रहे हैं। यह देखकर वे यह राय बनाते हैं कि क़ुरआन का बयान किया हुआ मान्य नियम तो ग़लत नहीं हो सकता। अब अनिवार्यः ग़लती जो कुछ है, वह 'भले सदाचारी' के उस अर्थ में है जो अब तक मुसलमान समझते रहे हैं। चुनांचे वे 'सदाचार' की एक नई कल्पना है जिसके अनुसार ज़मीन के वारिस होनेवाले सब लोग समान रूप से सदाचारी करार पा सकें, इससे हटकर कि वह हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ और हज़रत उमर फ़ारूक़ हों या चंगेज़ और हलाकू। इस नई कल्पना की खोज डार्विन का विकास-सिद्धान्त उनका मार्गदर्शन करता है और वह क़ुरआन के सदाचार को धारणा को डार्वियनी धारणा सलाहियत' (Fitness) से ले जाकर मिला देते हैं। इस नई व्याख्या के अनुसार इस आयत का अर्थ यह करार पाता है कि जो आदमी और गिरोह भी देशों को जीतने और उनपर ज़ोर और शक्ति के साथ अपना शासन चलाने और ज़मीन के साधनों का सफलता के साथ उपयोग करने की योग्यता रखता हो, वही अल्लाह का सदाचारी बन्दा है और उसका यह काम तमाम 'इबादत-गुज़ार इंसानों के लिए एक संदेश है कि 'इबादत' इस चीज़ का नाम है जो यह आदमी और गिरोह कर रहा है। अगर यह इबादत तुम नहीं करते और नतीजे में जमीन को विरासत से महरूम रह जाते हो, तो न तुम्हारी गिनती भले लोगों में हो सकती है और न तुमको अल्लाह का इबादत-गुज़ार बन्दा कहा जा सकता है। [इन लोगों की यह व्याख्या क़ुरआन की समष्टीय शिक्षाओं के विरुद्ध है और संदर्भ से भी कोई अनुकूलता नहीं रखती] टीका के सही नियमों को दृष्टि में रखकर देखा जाए तो आयत का अर्थ स्पष्ट है कि क़ियामत में जब लोग दुबारा पैदा किए जाएंगे, जिसका उल्लेख इससे पहले की आयत में हुआ है, ज़मीन के वारिस केवल भले लोग होंगे और उस शाश्वत जीवन की व्यवस्था में वर्तमान जीवन की क्षणिक व्यवस्था की-सी स्थिति बाक़ी न रहेगी कि ज़मीन पर दुराचारियों और अत्याचारियों को भी कब्जा हासिल हो जाता है। यह विषय सूरा-23 मोमिनून, आयत 10-11 में भी बयान हुआ है और इससे अधिक खुले शब्दों में सूरा-39 जुमर के अन्त में बयान किया गया है जहाँ अल्लाह कियामत का उल्लेख करने के बाद नेक लोगों का अंजाम यह बताता है कि "और जिन लोगों ने अपने.रब के डर से तक़वा अपनाया था वे जन्नत की ओर गिरोह दर गिरोह ले जाए जाएंगे, यहाँ तक कि जब वे वहाँ पहुंच जाएंगे तो उनके लिए जन्नत के दरवाज़े खोल दिए जाएंगे और उनके प्रबंधक उनसे कहेंगे कि सलाम हो तुमको, तुम बहुत अच्छे रहे, आओ, अब इसमें हमेशा रहने के लिए दाखिल हो जाओ और वे कहेंगे कि प्रशंसा है उस अल्लाह की जिसने हमसे अपना वादा पूरा किया और हमको ज़मीन का वारिस कर दिया। अब हम जन्नत में जहाँ चाहें अपनी जगह बना सकते हैं। अत: सबसे अच्छा बदला है अमल करनेवालों के लिए।" देखिए, ये दोनों आयतें एक ही विषय का वर्णन कर रही हैं और दोनों जगह ज़मीन की विरासत का ताल्लुक आख़िरत की दुनिया से है, न कि इस दुनिया से। अब ज़बूर को लीजिए जिसका हवाला इस आयत में दिया गया है। यद्यपि असली ज़बूर को प्रति कहीं मौजूद नहीं है, फिर भी जो ज़बूर इस समय मौजूद है, इसमें भी नेकी, सच्चाई और अल्लाह पर भरोसा करने के उपदेश के बाद कहा गया है- “क्योंकि दुराचारी काट डाले जाएंगे, लेकिन हलीम (सहनशीलता) वाले मुल्क के वारिस होंगे- उनको मोरास हमेशा के लिए होगी- सदाचारी जमीन के वारिस होंगे और उसमें हमेशा बसे रहेंगे।"37 दाऊद का मज़मूर, आयत 9-10,11-18-29) देखिए यहाँ सच्चे लोगों के लिए जमीन की हमेशा की विरासत का उल्लेख है और जाहिर है कि आसमानी किताबों के अनुसार हमेशगी और शाशवत जीवन का ताल्लुक आखिरत से है, न कि इस दुनिया की जिंदगी से । दुनिया में जमीन को क्षणिक विरासत जिस कायदे पर वितरित होती है, उसे सूरा-7 आराफ़ (आयत 128) में इस तरह बयान किया गया है कि "जमीन अल्लाह की है, अपने बन्दों में से जिसको चाहता है, उसका वारिस बनाता है।" अल्लाह के मंशा के तहत यह विरासत अल्लाह को माननेवाले और उसके इनकारी, सदाचारी और दुराचारी, फ़रमा-बरदार और नाफरमान सबको मिलती है, मगर कर्मों के बदले के रूप में नहीं, बल्कि परीक्षा के रूप में । जैसा कि इसी आयत के बाद दूसरी आयत में फ़रमाया," और वह तुमको ज़मीन में ख़लीफ़ा बनाएगा, फिर देखेगा कि तुम कैसे कार्य करते हो।" इस विरासत में हमेशगी और शाश्वतता नहीं है। इसके विपरीत आखिरत में इसी ज़मीन का शाश्वत बन्दोबस्त होगा और क़ुरआन के बहुत से खुले कथनों की रोशनी में वह इस नियम पर होगा कि "ज़मीन अल्लाह की है और वह अपने बन्दों में से सिर्फ़ ईमानवाले सदाचारियों को इसका वारिस बनाएगा, परीक्षा के रूप में नहीं, बल्कि सदाचार की उस नीति के शाश्वत बदले के रूप में जो उन्होंने दुनिया में अपनाई (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-24 अन-नूर, टिप्पणी 83)।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ إِلَّا رَحۡمَةٗ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 106
(107) ऐ नबी, हमने तो तुमको दुनियावालो के लिए रहमत बनाकर भेजा है।100
100. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि "हमने तुमको दुनियावालों के लिए रहमत (दयालुता) ही बनाकर भेजा है। दोनों स्थितियों में अर्थ यह है कि नबी (सल्ल०) का भेजा जाना वास्तव में मानव जाति के लिए अल्लाह की मेहरबानी और रहमत है, क्योंकि नबी (सल्ल०) ने आकर गफलत में पड़ी हुई दुनिया को चौंकाया है और उसे वह ज्ञान दिया है जो सत्य और असत्य का अन्तर खोल देता है और उसको बिल्कुल असंदिग्ध तरीके से बता दिया है कि उसके लिए विनाश का रास्ता कौन-सा है और सलामती (शांति एवं कुशलता) का रास्ता कौन-सा । मक्का के विधर्मी हुजूर (सल्ल०) के पैग़म्बर बनाए जाने को अपने लिए परेशानी और मुसीवत समझते थे और कहते थे कि इस आदमी ने हमारी क़ौम में फूट डाल दी है। इसपर फ़रमाया गया कि नादानो । तुम जिसे परेशानी समझ रहे हो यह वास्तव में तुम्हारे लिए अल्लाह की रहमत है।
قُلۡ إِنَّمَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّ أَنَّمَآ إِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ فَهَلۡ أَنتُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 107
(108) इनसे कहो, "मेरे पास जो वह्य आती है, वह यह है कि तुम्हारा पूज्य सिर्फ एक प्रभू है। फिर क्या तुम आज्ञाकारी होते हो?"
فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَقُلۡ ءَاذَنتُكُمۡ عَلَىٰ سَوَآءٖۖ وَإِنۡ أَدۡرِيٓ أَقَرِيبٌ أَم بَعِيدٞ مَّا تُوعَدُونَ ۝ 108
(109) अगर वे मुंह फेरे तो कह दो कि “मैने एलानिया तुमको सचेत कर दिया है। अब यह मैं नहीं जानता कि वह चीज जिसका तुमसे वादा किया जा रहा है101 क़रीब है, या दूर।
101. अर्थात् अल्लाह की पकड़ जो रिसालत की दावत को रद्द कर देने की शक्ल में आएगी, चाहे किसी भी प्रकार के अज़ाब के रूप में आए।
إِنَّهُۥ يَعۡلَمُ ٱلۡجَهۡرَ مِنَ ٱلۡقَوۡلِ وَيَعۡلَمُ مَا تَكۡتُمُونَ ۝ 109
(110) अल्लाह वे बाते भी जानता है जो ऊँची आवाज से कही जाती है और वे भी जो तुम छिपाकर करते हो।102
102. संकेत है उन विरोधपूर्ण बातों, षड्यन्त्रों और कानाफूसियों की ओर जिनका सूरा के आरंभ में उल्लेख किया गया था। अर्थ यह है कि इस भ्रम में न रहो कि ये हवा में उड़ गई और कभी उनकी पूछ-गछ न होगी।
وَإِنۡ أَدۡرِي لَعَلَّهُۥ فِتۡنَةٞ لَّكُمۡ وَمَتَٰعٌ إِلَىٰ حِينٖ ۝ 110
(111) मैं तो यह समझता हूँ कि शायद यह (विलम्ब) तुम्हारे लिए एक आजमाइश है103 और तुम्हें एक शेिष अवधि तक के लिए मजे करने का अवसर दिया जा रहा है।‘’
103. अर्थात् यह देर तो इसलिए की जा रही है कि तुम्हें संभलने के लिए काफी मोहलत दी जाए, मगर तुम इससे भ्रम में पड़ गए हो कि नबी की सब बातें झूठी हैं, वरना इसके झुठला देने के बाद हम कभी के धर लिए गए होते।
قَٰلَ رَبِّ ٱحۡكُم بِٱلۡحَقِّۗ وَرَبُّنَا ٱلرَّحۡمَٰنُ ٱلۡمُسۡتَعَانُ عَلَىٰ مَا تَصِفُونَ ۝ 111
(112) (आख़िरकार) रसूल ने कहा कि "ऐ मेरे रख । सत्य के साथ फैसला कर दे, और लोगो। तुम जो बाते बनाते हो उनके मुकाबले में हमारा कपाशील रब ही हमारे लिए मदद का सहारा है।"