- अल-हज
(मक्का में उतरी-आयतें 78)
परिचय
नाम
इस सूरा की सत्ताइसवीं आयत "व अज़्ज़िनु फ़िन्नासि बिल हज्जि” अर्थात् "लोगों में हज के लिए सामान्य घोषणा कर दो" से लिया गया है।
उतरने का समय
इस सूरा में मक्की और मदनी सूरतों की विशेषताएँ मिली-जुली पाई जाती हैं। इसी कारण टीकाकारों में इस बात पर मतभेद हो गया है कि यह मक्की है या मदनी, लेकिन हमारे नज़दीक इसके विषय और वर्णन-शैली का यह रंग इस कारण है कि इसका एक भाग मक्की काल के अन्त में और दूसरा भाग मदनी काल के आरंभ में उतरा है। इसलिए दोनों कालों की विशेषताएँ इसमें इकट्ठा हो गई हैं।
आरंभिक भाग का विषय और वर्णन-शैली स्पष्ट रूप से बताते हैं कि यह मक्का में उतरा है और अधिक संभावना यह है कि मक्की ज़िन्दगी के अन्तिम चरण में हिजरत से कुछ पहले उतरा हो। यह भाग आयत 24 "व हुदू इलत्तय्यिबि मिनल कौलि व हुदू इला सिरातिल हमीद” अर्थात् "उनको पाक बात स्वीकार करने की हिदायत दी गई और उन्हें प्रशंसनीय गुणों से विभूषित ईश्वर का मार्ग दिखाया गया" पर समाप्त होता है।
इसके बाद “इन्नल्लज़ी-न क-फ़-रू व यसुद्दू-न अन सबील्लिाहि" अर्थात् “जिन लोगों ने कुफ़्र (इंकार) किया और जो (आज) अल्लाह के मार्ग से रोक रहे हैं" से यकायक विषय का रंग बदल जाता है और साफ़ महसूस होता है कि यहाँ से आख़िर तक का भाग मदीना तैयबा में उतरा है। असंभव नहीं कि यह हिजरत के बाद पहले ही साल ज़िल-हिज्जा में उतरा हो, क्योंकि आयत 25 से 41 तक का विषय इसी बात का पता देता है और आयत 39-40 के उतरने का कारण भी इसकी पुष्टि करता है। उस समय मुहाजिरीन अभी ताज़ा-ताज़ा ही अपने घर-बार छोड़कर मदीने में आए थे। हज के ज़माने में उनको अपना शहर और हज का इज्तिमाअ (सम्मेलन) याद आ रहा होगा और यह बात बुरी तरह खल रही होगी कि क़ुरैश के मुशरिकों ने उनपर मस्जिदे-हराम का रास्ता तक बन्द कर दिया है। उस समय वे इस बात का भी इन्तिज़ार कर रहे होंगे कि जिन ज़ालिमों ने उनको घरों से निकाला, मस्जिदे-हराम की ज़ियारत (दर्शन) से वंचित किया और अल्लाह का रास्ता अपनाने पर उनका जीना तक दूभर कर दिया, उनके विरुद्ध जंग लड़ने की अनुमति मिल जाए। यह ठीक मनोवैज्ञानिक अवसर था इन आयतों के उतरने का। इनमें पहले तो हज का उल्लेख करते हुए यह बताया गया है कि यह मस्जिदे-हराम (प्रतिष्ठित मस्जिद अर्थात् काबा) इसलिए बनाई गई थी और यह हज का तरीक़ा इसलिए शुरू किया गया था कि दुनिया में एक अल्लाह की बन्दगी की जाए, मगर आज वहाँ शिर्क हो रहा है और एक अल्लाह की बन्दगी करनेवालों के लिए उसके रास्ते बन्द कर दिए गए हैं। इसके बाद मुसलमानों को अनुमति दे दी गई है कि वे इन ज़ालिमों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ें और उन्हें बे-दख़ल करके देश में वह कल्याणकारी व्यवस्था स्थापित करें जिसमें बुराइयाँ दबें और नेकियाँ फैलें। इब्ने-अब्बास, मुजाहिद, उर्वह-बिन-ज़ुबैर, ज़ैद-बिन-असलम, मुक़ातिल-बिन-हय्यान, क़तादा और दूसरे बड़े टीकाकारों का बयान है कि यह पहली आयत है जिसमें मुसलमानों को युद्ध की अनुमति दी गई और हदीस और सीरत की रिवायतों से प्रमाणित है कि इस अनुमति के बाद तुरन्त ही क़ुरैश के विरुद्ध व्यावहारिक गतिविधियाँ शुरू कर दी गईं और पहली मुहिम सफ़र 02 हि० में लाल सागर के तट की ओर रवाना हुई जो वद्दान की लड़ाई या अबवा की लड़ाई के नाम से मशहूर है।
विषय और वार्ताएँ
इस सूरा में तीन गिरोहों को संबोधित किया गया है-मक्का के मुशरिक, दुविधा और संकोच में पड़े मुसलमान और सच्चे ईमानवाले लोग। मुशरिकों से सम्बोधन मक्का के आरंभ में किया गया और मदीना में उसका क्रम पूर्ण हुआ। इस सम्बोधन में उनको पूरा बल देकर सचेत किया गया है कि तुमने ज़िद और हठधर्मी के साथ अपने निराधार अज्ञानतापूर्ण विचारों पर आग्रह किया, अल्लाह को छोड़कर उन उपास्यों पर भरोसा किया जिनके पास कोई शक्ति नहीं और अल्लाह के रसूल को झुठला दिया। अब तुम्हारा अंजाम वही कुछ होकर रहेगा जो तुमसे पहले इस नीति पर चलनेवालों का हो चुका है। नबी को झुठलाकर और अपनी क़ौम के सबसे अच्छे तत्त्वों को अत्याचार का निशाना बनाकर तुमने अपना ही कुछ बिगाड़ा है। इसके नतीजे में अल्लाह का जो प्रकोप तुमपर उतरेगा, उससे तुम्हारे बनावटी उपास्य तुम्हें न बचा सकेंगे। इस चेतावनी और डरावे के साथ समझाने-बुझाने का पहलू बिल्कुल खाली नहीं छोड़ दिया गया है। पूरी सूरा में जगह-जगह याददिहानी और उपदेश भी है और शिर्क के विरुद्ध और तौहीद और आखिरत के पक्ष में प्रभावी तर्क भी प्रस्तुत किए गए है। दुविधा और संकोच में पड़े मुसलमान, जो अल्लाह की बन्दगी तो क़ुबूल कर चुके थे मगर इस राह में कोई ख़तरा उठाने को तैयार नहीं थे, उनको सम्बोधित करते हुए कड़ी डाँट-फटकार की गई है। उनसे कहा गया कि यह आखिर कैसा ईमान है कि राहत, ख़ुशी, ऐश मिले तो अल्लाह तुम्हारा प्रभु और तुम उसके बन्दे, मगर जहाँ अल्लाह की राह में विपदा आई और कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ीं, फिर न अल्लाह तुम्हारा प्रभु रहा और न तुम उसके बन्दे रहे, हालाँकि तुम अपनी इस नीति से किसी ऐसी विपत्ति और हानि और कष्ट को नहीं टाल सकते जो अल्लाह ने तुम्हारे भाग्य में लिख दिया हो। ईमानवालों से सम्बोधन दो तरीक़ों से किया गया है। एक सम्बोधन ऐसा है जिसमें वे स्वयं भी सम्बोधित हैं और अरब के आम लोग भी, दूसरे सम्बोधन में ईमानवाले सम्बोधित हैं।
पहले सम्बोधन में मक्का के मुशरिकों की इस नीति पर पकड़ की गई है कि उन्होंने मुसलमानों के लिए मस्जिदे-हराम (अर्थात काबा) का रास्ता बन्द कर दिया है, हालाँकि मस्जिदे-हराम (अर्थात् काबा) उनकी निजी सम्पत्ति नहीं है और वे किसी को हज से रोकने का अधिकार नहीं रखते। यह आपत्ति न केवल यह कि अपने आपमें सही थी, बल्कि राजनैतिक दृष्टि से यह क़ुरैश के विरुद्ध एक बहुत बड़ा हथियार भी था। इससे अरब के तमाम दूसरे क़बीलों के मन में यह प्रश्न पैदा कर दिया गया कि कुरैश हरम के मुजाविर हैं या मालिक? अगर आज अपनी निजी दुश्मनी के आधार पर वे गिरोह को हज से रोक देते और उसको सहन कर लिया जाता है, तो असंभव नहीं कि कल जिससे भी उनके सम्बन्ध बिगड़ें, उसको वे हरम की सीमाओं में प्रवेश करने से रोक दें और उसका उमरा और हज बन्द कर दें। इस सिलसिले में मस्जिदे-हराम का इतिहास बताते हुए एक ओर यह कहा गया है कि इबाहीम (अलैहि०) ने जब अल्लाह के आदेश से उसका निर्माण किया था तो सब लोगों का हज के लिए आम आह्वान किया था और वहाँ पहले दिन से स्थानीय निवासियों और बाहर से आनेवालों के अधिकार समान मान लिए गए थे। दूसरी ओर यह बताया गया कि यह घर शिर्क के लिए नहीं, बल्कि एक अल्लाह की बन्दगी के लिए बनाया गया था। अब यह क्या ग़ज़ब है कि वहाँ एक खुदा की बन्दगी पर तो रोक हो और बुतों की पूजा के लिए हो पूरी आज़ादी।
दूसरे सम्बोधन में मुसलमानों को कुरैश के ज़ुल्म का उत्तर ताक़त से देने की अनुमति दी गई है और साथ-साथ उनको यह भी बताया गया है कि जब तुम्हें सत्ता मिले तो तुम्हारा रवैया क्या होना चाहिए और अपने राज्य में तुमको किस उद्देश्य के लिए काम करना चाहिए। यह विषय सूरा के मध्य में भी है और अन्त में भी। अन्त में ईमानवालों के गिरोह के लिए "मुस्लिम” (आज्ञाकारी) के नाम विधिवत घोषणा करते हुए यह कहा गया है कि इब्राहीम के वास्तविक उत्तराधिकारी तो तुम लोग हो, तुम्हें इस सेवा के लिए चुन लिया गया है कि दुनिया में लोगों के सम्मुख सत्य की गवाही देने के पथ पर खड़े हो जाओ। अब तुम्हें नमाज़ क़ायम करके, ज़कात और ख़ैरात अदा करके अपने जीवन को श्रेष्ठ आदर्श जीवन बनाना चाहिए और अल्लाह के भरोसे पर अल्लाह के कलिमे को उच्च रखने के लिए 'जिहाद' करना चाहिए।
इस अवसर पर सूरा 2 (अल-बक़रा) और सूरा 8 (अल-अनफ़ाल) की भूमिकाओं पर भी दृष्टि डाल ली जाए तो समझने में अधिक आसानी होगी।
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يَوۡمَ تَرَوۡنَهَا تَذۡهَلُ كُلُّ مُرۡضِعَةٍ عَمَّآ أَرۡضَعَتۡ وَتَضَعُ كُلُّ ذَاتِ حَمۡلٍ حَمۡلَهَا وَتَرَى ٱلنَّاسَ سُكَٰرَىٰ وَمَا هُم بِسُكَٰرَىٰ وَلَٰكِنَّ عَذَابَ ٱللَّهِ شَدِيدٞ 1
(2) जिस दिन तुम उसे देखोगे, हाल यह होगा कि हर दूध पिलानेवाली अपने दूध पीते बच्चे से ग़ाफ़िल हो जाएगी,2 हर गर्भवती का गर्भ गिर जाएगा और लोग तुमको बेसुध नज़र आएँगे, हालाँकि वे नशे में न होंगे, बल्कि अल्लाह का अज़ाब ही कुछ ऐसा कठोर होगा।3
2. आयत में 'मुरजिअ के बजाय 'मुरज़िअ' का शब्द प्रयुक्त हुआ है। अरबी भाषा के अनुसार दोनों में अन्तर यह है कि 'मुरज़ि' उस औरत को कहते हैं जो दूध पिलानेवाली हो और 'मुरज़िअ उस दशा में बोलते हैं जबकि वह व्यावहारिक रूप से दूध पिला रही हो और बच्चा उसकी छाती मुंह में लिए हुए हो । अतः यहाँ चित्र यह खींचा गया है कि जब कियामत का भूकंप आएगा तो माएँ अपने बच्चों को दूध पिलाते-पिलाते छोड़कर भाग निकलेंगी और किसी माँ को यह होश न रहेगा कि उसके लाडले पर क्या बीती।
3. यहाँ इस बात का उद्देश्य स्पष्ट रहे कि कियामत का हाल बयान करना नहीं है, बल्कि अल्लाह के अज़ाब का डर दिलाकर उन बातों से बचने की ताकीद करना है जो उसके प्रकोप का कारण होती हैं । इसलिए क़ियामत की संक्षिप्त दशा के बाद आगे वास्तविक अभिप्राय पर वार्ता शुरू होती है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِن كُنتُمۡ فِي رَيۡبٖ مِّنَ ٱلۡبَعۡثِ فَإِنَّا خَلَقۡنَٰكُم مِّن تُرَابٖ ثُمَّ مِن نُّطۡفَةٖ ثُمَّ مِنۡ عَلَقَةٖ ثُمَّ مِن مُّضۡغَةٖ مُّخَلَّقَةٖ وَغَيۡرِ مُخَلَّقَةٖ لِّنُبَيِّنَ لَكُمۡۚ وَنُقِرُّ فِي ٱلۡأَرۡحَامِ مَا نَشَآءُ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى ثُمَّ نُخۡرِجُكُمۡ طِفۡلٗا ثُمَّ لِتَبۡلُغُوٓاْ أَشُدَّكُمۡۖ وَمِنكُم مَّن يُتَوَفَّىٰ وَمِنكُم مَّن يُرَدُّ إِلَىٰٓ أَرۡذَلِ ٱلۡعُمُرِ لِكَيۡلَا يَعۡلَمَ مِنۢ بَعۡدِ عِلۡمٖ شَيۡـٔٗاۚ وَتَرَى ٱلۡأَرۡضَ هَامِدَةٗ فَإِذَآ أَنزَلۡنَا عَلَيۡهَا ٱلۡمَآءَ ٱهۡتَزَّتۡ وَرَبَتۡ وَأَنۢبَتَتۡ مِن كُلِّ زَوۡجِۭ بَهِيجٖ 4
(5) लोगो, अगर तुम्हें मौत के बाद की जिंदगी के बारे में कुछ सन्देह है तो तुम्हें मालूम हो कि हमने तुमको मिट्टी से पैदा किया है, फिर नुत्फ़े (वीर्य) से,5 फिर खून के लोथड़े से, फिर मांस की बोटी से जो रूपवाली भी होती है और बिना रूप की भी।6 (यह हम इसलिए बता रहे हैं) ताकि तुम पर सत्य स्पष्ट करें। हम जिस (वीर्य) को चाहते हैं एक विशेष समय तक गर्भाशयों में ठहराए रखते हैं, गिर तूमको एक बच्चे के रूप में निकाल लाते हैं । (फिर तुम्हारा पालन पोषण करते हैं) ताकि तुम अपनी जवानी को पहुंची। और तुममें से कोई पहले ही वापस बुला लिया जाता है और कोई सबसे बुरी उप की ओर पर दिया जाता है, ताकि सब कुछ जानने के बाद फिर कुछ न जारे।7 और तुम देखते हो चि जागी। सूखी पड़ी है, फिर जहाँ हमने उसपर वर्षा की कि यकायक वह फलक उठी और पल गई और उसने हर प्रकार की सदश्य वास्पतियाँ उगलनी शुरू कर दी।
5. इसका अर्थ या तो यह है कि हर इंसान उन तत्त्वों से पैदा किया जाता है जो सब के सब ज़मीन से प्राप्त होते हैं और इस संरचना का आरंभ वीर्य से होता है। या यह कि मानव-जाति का आरंभ आदम (अलैहि०) से किया गया जो सीधे तौर पर मिट्टी से बनाए गए थे और फिर आगे मानवीय नस्ल का सिलसिला वीर्य से चला, जैसा कि सूरा-32 (सज्दा) आयत 7-8 में फ़रमाया गया है।
6. यह संकेत है उन विभिन्न हालातों की ओर जिनसे माँ के पेट में बच्चा गुज़रता है। इनकी वे विस्तृत बातें नहीं बयान को गई जो आजकल सिर्फ़ शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शक यंत्रों से देखी जा सकती है, बल्कि उन बड़े बड़े स्पष्ट परिवर्तनों का उल्लेख किया गया है जिनसे उस समय के सामान्य बह भी परिचित थे। अर्थात वीर्य ठहर जान के बाद आरंभ में जमे हुए खून का एक लोथड़ा-सा होता है, फिर वह मांस की एक बोरी में परिवर्तित होता है जिसमें पहले कुछ शक्ल नहीं होती और आगे चलकर मानव रूप स्पष्ट होता चला जाता है। गर्भपात की अलग-अलग अवस्थाओं में कि इंसानी पैदाइश के ये सब मरहले लोगों को देखने में आते थे, इसलिए उन्हीं की जोर संकेत किया गया है। इसको समझने के लिए पूर्ण ज्ञान की विस्तृत खोजों की न उस समय जरूरत थी, न आज है।
وَأَنَّ ٱلسَّاعَةَ ءَاتِيَةٞ لَّا رَيۡبَ فِيهَا وَأَنَّ ٱللَّهَ يَبۡعَثُ مَن فِي ٱلۡقُبُورِ 6
(7) और यह (इस बात का प्रमाण है) कि क़ियामत की घड़ी आकर रहेगी। इसमें किसी संदेह की गुंजाइश नहीं, और अल्लाह ज़रूर उन लोगों को उठाएगा जो क़ब्रों में जा चुके हैं।9
9. इन आयतों में इंसान की पैदाइश के विभिन्न हालतें, धरती पर वर्षा के प्रभाव और वनस्पतियों की पैदावार को पाँच सच्चाइयों की निशानदेही करनेवाले प्रमाण बताए गए हैं-
(1) यह कि अल्लाह ही सत्य है,
(2) यह कि वह मुर्दो को ज़िंदा करता है,
(3) यह कि वह हर चीज़ की सामर्थ्य रखता है,
(4) यह कि कियामत की घड़ी आकर रहेगी,
(5) यह कि अल्लाह ज़रूर उन सब लोगों को जिंदा करके उठाएगा जो मर चुके हैं।
अब देखिए कि ये निशानियाँ इन पाँचों सच्चाइयों की किस तरह निशानदेही करती हैं। सृष्टि की पूरी व्यवस्था को छोड़कर आदमी केवल अपनी ही पैदाइश पर विचार करे तो मालूम हो जाए कि एक-एक इंसान की हस्ती में अल्लाह की वास्तविक और वाक़ई तदबीर हर क्षण व्यवहारतः कार्यरत है। आदमी जो खाना खाता है, उसमें कहीं इंसानी बीज मौजूद नहीं होता, न उसमें कोई चीज़ ऐसी होती है जो मानवीय मन के लिए विशिष्टताएँ पैदा करती हो। यह खाना जिस्म में जाकर कहीं बाल, कहीं गोश्त और कहीं हड्डी बनाता है और एक विशेष स्थान पर पहुँचकर यही उस वीर्य में परिवर्तित हो जाता है जिसके अन्दर इंसान बनने की क्षमता रखनेवाले बीज मौजूद होते हैं। इन बीजों की बहुतायत का हाल यह है कि एक वक़्त में एक मर्द से जितना वीर्य निकलता है, उसके अन्दर कई करोड़ बीज पाए जाते हैं और उनमें से हर एक स्त्री अण्डाणु से मिलकर इंसान बन जाने की क्षमता रखता है, मगर यह किसी तत्त्वदर्शी सामर्थ्यवाले और महान शासक का फ़ैसला है जो इन. अनगिनत उम्मीदवारों में से किसी एक को विशेष वक़्त पर छाँटकर स्त्री अण्डाणु से मिलने का मौक़ा देता है और इस तरह गर्भ ठहर जाता है। फिर गर्भ ठहरते वक़्त मर्द के शुक्राणु और औरत के अण्डाणु कोशों (Egg Cell) के मिलने से जो चीज़ शुरू में बनती है, वह इतनी छोटी होती है कि सूक्ष्मदर्शक यंत्र के बिना नहीं देखी जा सकती। यह छोटी-सी चीज़ नौ महीने और कुछ दिनों में गर्भाशय के भीतर पलकर जिन अनगिनत मरहलों से गुज़रती हुई एक जीते-जागते इंसान का रूप अपनाती है, उनमें से हर मरहले पर विचार करो तो तुम्हारा दिल गवाही देगा कि यहाँ हर क्षण एक तत्त्वदर्शी क्रियाशील ख़ुदा का सोचा-समझा फ़ैसला काम करता रहा है। वही फैसला करता है कि किसे [क्या और कैसा बनाकर पैदा करना है ] । यह संरचना करने और रंग-रूप देने का कार्य, जो हर दिन करोड़ों औरतों के गर्भाशयों में हो रहा है, इसके दौरान में किसी वक़्त, किसी मरहले पर भी एक अल्लाह के सिवा दुनिया की कोई ताक़त लेशमात्र भी प्रभावित नहीं हो सकती। यह सब कुछ देखकर भी अगर किसी को इसमें सन्देह हो कि अल्लाह 'सत्य' है और सिर्फ़ अल्लाह ही 'सत्य' है तो निस्संदेह वह अक्ल का अंधा है।
दूसरी बात जो पेश की हुई निशानियों से सिद्ध होती है कि “अल्लाह मुर्दो को जिंदा करता है।” लोग आँखें खोलकर देखें तो उन्हें नज़र आए कि वह तो हर वक़्त मुदें जिला रहा है। जिन तत्वों से आपका शरीर बना है और जिन आहारों से वह पलता-बढ़ता है, उनका विशलेषण करके देख लीजिए। कोयला, लोहा, चूना, कुछ नमकीन चीजें, कुछ हवाएँ और ऐसी ही कुछ चीजें और हैं। इनमें से किसी चीज़ में भी जीवन और इंसानी जान की विशेषता मौजूद नहीं है, मगर इन्हीं मुर्दा, बेजान (तत्त्वों) को जमा करके आपको जीता-जागता अस्तित्व प्रदान कर दिया गया है। इसके बाद तनिक अपने आस-पास की ज़मीन पर नज़र डालिए। अनगिनत कई प्रकार की चीज़ों के बीज थे जिनको हवाओं और पक्षियों ने जगह-जगह फैला दिया था, और अनगिनत कई प्रकार की चीजों की जड़ें थीं जो जगह-जगह मिट्टी में मिली हुई पड़ी थीं, उनमें कहीं भी वनस्पति जीवन का कोई निशान मौजूद न था। आपके आस-पास की सूखी धरती इन लाखों मुर्दो को क़त्र बनी हुई थी मगर ज्यों ही कि पानी का एक छोटा पड़ा, हर ओर ज़िंदगी लहलहाने लगी, हर मुर्दा जड़ अपनी कब से जी उठी और हर बेजान बीज एक ज़िंदा पौधे की शक्ल इख्तियार कर गया । मुर्दो को जिंदा करने का यह अमल हर बरसात में आपकी आँखों के सामने होता है।
तीसरी चीज़ जो इन अवलोकनों से साबित होता है वह यह है कि अल्लाह हर चीज़ की क़ुदरत रखता है।" सारी क़ायनात को छोड़कर सिर्फ़ अपनी इसी ज़मीन को लीजिए और ज़मीन की भी तमाम हक़ीक़तों और वास्तविकताओं को छोड़कर सिर्फ़ इंसान और वनस्पतियों ही की ज़िंदगी पर नज़र डालकर देख लीजिए। यहाँ उसको सामर्थ्य के जो करिश्मे आपको नज़र आते हैं, क्या उन्हें देखकर कोई बुद्धिमान व्यक्ति यह बात कह सकता है कि अल्लाह बस वही कुछ कर सकता है जो आज हम उसे करते हुए देख रहे हैं और कल अगर वह कुछ और करना चाहे तो नहीं कर सकता?
चौथी और पाँचवीं बात, यानी यह है कि “कियामत की घड़ी आकर रहेगी" और यह कि "अल्लाह ज़रूर उन सब लोगों को जिंदा करके उठाएगा,जो मर चुके हैं ।" इन तीनों बातों का तार्किक परिणाम है, जो ऊपर बयान हुए हैं। अल्लाह के कामों को उसकी सामार्य के पहलू से देखिए तो दिल गवाही देगा कि वह जब चाहे क़ियामत बरपा कर सकता है और जब चाहे उन सब मरनेवालों को फिर से जिंदा कर सकता है जिनको पहले वह अनस्तित्व से अस्तिव में लाया था। और अगर उसके कामों को उसकी तत्त्वदर्शिता के पहलू से देखिए तो बुद्धि गवाही देगी कि ये दोनों काम भी वह ज़रूर करके रहेगा, क्योंकि यह बात किसी तरह भी क़बूल करने के योग्य नहीं हो सकती] कि अपनी इतनी बड़ी दुनिया इतने सरो-सामान और इतने अधिकारों के साथ इंसान के सुपुर्द करके वह भूल गया है, इसका वह हिसाब कभी नहीं लेगा? क्या किसी सही दिमाग़वाले आदमी की अक्ल यह गवाही दे सकती है कि इंसान के जो बुरे अमल सज़ा से बच निकले हैं, या जिन बुराइयों की आनुपातिक सज़ा उसे नहीं मिल सकी है, उनकी पूछ-ताछ के लिए कभी अदालत क़ायम न होगी और जो भलाइयाँ अपने न्यायपूर्ण इनाम से महरूम रह गई हैं, वे हमेशा महरूम ही रहेंगी? आगर ऐसा नहीं है तो क़ियामत और मरने के बाद की जिंदगी तत्त्वदर्शी ख़ुदा की तत्त्वदर्शिता की एक ज़रूरी अपेक्षा है जिसका पूरा होना नहीं, बल्कि न होना सर्वथा अक्ल से परे है।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَعۡبُدُ ٱللَّهَ عَلَىٰ حَرۡفٖۖ فَإِنۡ أَصَابَهُۥ خَيۡرٌ ٱطۡمَأَنَّ بِهِۦۖ وَإِنۡ أَصَابَتۡهُ فِتۡنَةٌ ٱنقَلَبَ عَلَىٰ وَجۡهِهِۦ خَسِرَ ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةَۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡخُسۡرَانُ ٱلۡمُبِينُ 10
(11) और लोगों में कोई ऐसा है जो किनारे पर रहकर अल्लाह की बन्दगी करता है,15 अगर लाभ हुआ तो सन्तुष्ट हो गया और जो कोई मुसीबत आ गई तो उल्टा फिर गया।16 उसकी दुनिया भी गई और आखिरत भी। यह है खुला घाटा।17
15. अर्थात् कुफ़्र और इस्लाम की सीमा पर खड़ा होकर बंदगी करता है जैसे एक दुविधा-ग्रस्त आदमी किसी फ़ौज के किनारे पर खड़ा हो, अगर जीत होती देखे तो साथ आ मिले और हार होती देखे तो चुपके से सटक जाए।
16. इससे अभिप्रेत हैं वे लोग जो आचरण में कमज़ोर, अक़ीदे में अस्थिर और मन के दास हैं। ये लोग इस्लाम ग्रहण तो करते हैं मगर लाभ की शर्त के साथ । उनका ईमान इस शर्त के साथ प्रतिबन्धित होता है कि अल्लाह का दीन उनसे किसी क़ुर्बानी की मांग न करे और न दुनिया में उनकी कोई इच्छा और आरज़ू पूरी होने से रह जाए।
يَدۡعُواْ لَمَن ضَرُّهُۥٓ أَقۡرَبُ مِن نَّفۡعِهِۦۚ لَبِئۡسَ ٱلۡمَوۡلَىٰ وَلَبِئۡسَ ٱلۡعَشِيرُ 12
(13) वह उनको पुकारता है जिनकी हानि उनके लाभ से अधिक क़रीब है।18 अत्यन्त बुरा है उसका स्वामी और अत्यंत बुरा है उसका साथी।19
18. पहली आयत में इस बात को साफ़ तौर पर नकार दिया है कि अल्लाह के अतिरिक्त जिनको उपास्य बना लिया गया है। वे किसी प्रकार का लाभ व हानि पहुँचाने की सामर्थ्य रखते हैं।
दूसरी आयत में उनकी हानि को उनके लाभ से अधिक निकट बताया गया है, क्योंकि उनसे दुआएँ माँगकर और उनके आगे ज़रूरत पूरी करने के लिए हाथ फैलाकर वह अपना ईमान तो तुरन्त और निश्चित रूप से खो देता है। रही यह बात कि वह लाभ उसे प्राप्त हो, जिसकी उम्मीद पर उसने उन्हें पुकारा था, तो सच्चाई क्या है, इससे हटकर प्रत्यक्ष की दृष्टि से भी वह स्वयं मानेगा कि उसकी प्राप्ति न तो निश्चित है और न निकट ही अवश्यभावी और हो सकता है कि अल्लाह उसको और अधिक फ़िल्ले में डालने के लिए किसी आस्ताने पर उसकी मुराद पूरी करा दे और हो सकता है कि उस आस्ताने पर वह अपना ईमान भी भेंट चढ़ा आए और अपनी मुराद भी न पाए।
19. अर्थात् जिसने भी उसको इस रास्ते पर डाला, चाहे वह कोई इंसान हो या शैतान, वह सबसे बुरा कार्यसाधक व संरक्षक और सबसे बुरा दोस्त और साथी है।
إِنَّ ٱللَّهَ يُدۡخِلُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَفۡعَلُ مَا يُرِيدُ 13
(14) (इसके विपरीत) अल्लाह उन लोगों को, जो ईमान लाए और जिन्होंने नेक काम किए,20 निश्चित रूप से ऐसी जनतों में दाखिल करेगा जिनके नीचे नहरें बह रही होगी। अल्लाह करता है जो कुछ चाहता है।21
20. अर्थात् जिनका हाल इस दुविधा और अनिश्चितता में ग्रस्त मुसलमानों का-सा नहीं है, बल्कि जो ठंडे दिल से ख़ूब सोच-समझकर अल्लाह और रसूल और आख़िरत को मानने का फैसला करते हैं, फिर क़दमों के पूरे जमाव के साथ हर हाल में । सत्य मार्ग पर चलते रहते हैं।
21. अर्थात् अल्लाह के अधिकार असीम हैं। दुनिया में, या आख़िरत में, या दोनों जगह, वह जिसको जो कुछ चाहता है देता है और जिससे जो कुछ चाहता है रोक लेता है। वह देना चाहे तो कोई रोकनेवाला नहीं, न देना चाहे तो कोई दिलवानेवाला नहीं।
مَن كَانَ يَظُنُّ أَن لَّن يَنصُرَهُ ٱللَّهُ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ فَلۡيَمۡدُدۡ بِسَبَبٍ إِلَى ٱلسَّمَآءِ ثُمَّ لۡيَقۡطَعۡ فَلۡيَنظُرۡ هَلۡ يُذۡهِبَنَّ كَيۡدُهُۥ مَا يَغِيظُ 14
(15) जो आदमी यह गुमान रखता हो कि अल्लाह दुनिया और आख़िरत में उसकी कोई सहायता न करेगा, उसे चाहिए कि एक रस्सी के ज़रिये आसमान तक पहुँचकर छेद करे, फिर देख ले कि क्या उसका उपाय किसी ऐसी चीज़ को रद्द कर सकता है जो उसको अप्रिय है?22
22. इस आयत की व्याख्या में बहुत-से [कथन मिलते हैं लेकिन इनमें से अधिकतर तो बिल्कुल ही प्रसंग और संदर्भ से असंबद्ध हैं, और कुछ] यद्यपि प्रसंग और संदर्भ से अधिक क़रीब हैं, लेकिन वार्ता के ठीक उद्देश्य तक नहीं पहुंचते । भाषण-क्रम को दृष्टि में रखा जाए तो साफ़ मालूम होता है कि यह गुमान करनेवाला आदमी वही है जो किनारे पर खड़ा होकर बन्दगी करता है जब तक हालात अच्छे रहते हैं, सन्तुष्ट रहता है, और जब कोई विपत्ति आती है तो अल्लाह से फिर जाता है और एक-एक आस्ताने पर माथा रगड़ने लगता है। इस आदमी को यह दशा क्यों है? इसलिए कि वह अल्लाह के फैसले पर राजी नहीं है और यह समझता है कि भाग्य के बनाव-बिगाड़ के सिरे अल्लाह के सिवा किसी और के हाथ में भी हैं। इस कारण कहा जा रहा है कि जिस आदमी के ये विचार हों वह अपना सारा ज़ोर लगाकर देख ले, यहाँ तक कि अगर आसमान को फाड़कर थिगली लगा सकता हो तो यह भी करके देख ले कि क्या उसका कोई उपाय अल्लाह के निश्चित किसी ऐसे फैसले को बदल सकता है जो उसको नागवार है। आसमान पर पहुँचने और शगाफ़ देने से तात्पर्य है वह बड़ी से बड़ी कोशिश जिसे इंसान सोच सकता है । इन शब्दों का कोई शाब्दिक अर्थ अभिप्रेत नहीं है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱلَّذِينَ هَادُواْ وَٱلصَّٰبِـِٔينَ وَٱلنَّصَٰرَىٰ وَٱلۡمَجُوسَ وَٱلَّذِينَ أَشۡرَكُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ يَفۡصِلُ بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدٌ 16
(17) जो लोग ईमान लाए23, और जो यहूदी हुए24, और साबई25, और नसारा,26 और मजूस,27 और जिन लोगों ने शिर्क किया28, इन सबके बीच अल्लाह क़ियामत के दिन फ़ैसला कर देगा29, हर चीज़ अल्लाह की नज़र में है ।
23. अर्थात् मुसलमान जिन्होंने अपने-अपने समय में अल्लाह के तमाम नबियों और उसकी किताबों को माना और मुहम्मद (सल्ल०) के समय में जिन्होंने पिछले नबियों के साथ आपपर भी ईमान लाना स्वीकार किया। उनमें सच्चे ईमानवाले भी शामिल थे और [दुविधाग्रस्त मुसलमान भी] ।
24. व्याख्या के लिए देखिए सूरा 4,(निसा), टिप्पणी 72।
28. अर्थात् अरब और दूसरे देशों के मुश्कि जो उपर्युक्त गिरोहों की तरह किसी विशेष नाम से याद न किए जाते थे। क़ुरआन मजीद उनको दूसरे गिरोहों से अलग करने के लिए मुश्किीन (अर्थात् बहुदेववादी) और 'अल्लज़ी-न अश-रकु' (अर्थात् जिन लोगों ने शिर्क किया) के पारिभाषिक नामों से याद करता है, यद्यपि ईमानवालों के सिवा बाक़ी सब ही के अक़ीदे व अमल में शिर्क दाखिल हो चुका था।
29. अर्थात् अल्लाह के बारे में विभिन्न इंसानी गिरोहों के बीच जो झगड़ा है, उसका फैसला इस दुनिया में नहीं होगा, बल्कि क़ियामत के दिन होगा। वहीं इस बात का दो-टूक फैसला कर दिया जाएगा कि इनमें से कौन सत्य पर है और कौन असत्य पर, यद्यपि एक अर्थ की दृष्टि से यह फैसला इस दुनिया में भी अल्लाह की किताबें करती रही हैं, लेकिन यहाँ फैसले का शब्द “झगड़ा चुकाने” और “फरीकों के दर्मियान फैसला करने” के अर्थ में इस्तेमाल हुआ है, जबकि एक के पक्ष में और दूसरे के विरुद्ध बाकायदा डिग्री दे दी जाए।
34. यहाँ अपमान और सम्मान से तात्पर्य सत्य व इंकार और उसका पालन है,क्योंकि इसका अनिवार्य परिणाम अपमान और सम्मान ही के रूप में प्रकट होता है। जो आदमी खुले-खुले और स्पष्ट सच्चाइयों को आँखें खोलकर न देखे और समझानेवाले की बात भी सुनकर न दे, वह स्वयं ही अपमान और निरादर को अपनी ओर बुला रहा है, और अल्लाह वही चीज़ उसके भाग्य में लिख देता है जो उसने स्वयं मांगी है। फिर जब अल्लाह ही ने उसको सत्यपालन का सौभाग्य न दिया तो अब कौन है जो उसको सम्मान और सौभाग्य प्रदान करे।
35. यहाँ 'तिलावत' का सज्दा अनिवार्य है, और सूरा हज्ज के इस सज्दे पर सभी विद्वान सहमत हैं। तिलावत के सन्दे की सार्थकता एवं हिकमत और उसके आदेशों के लिए देखिए सूरा-7 (आराफ़) टिप्पणी 157।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ يَسۡجُدُۤ لَهُۥۤ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ وَٱلشَّمۡسُ وَٱلۡقَمَرُ وَٱلنُّجُومُ وَٱلۡجِبَالُ وَٱلشَّجَرُ وَٱلدَّوَآبُّ وَكَثِيرٞ مِّنَ ٱلنَّاسِۖ وَكَثِيرٌ حَقَّ عَلَيۡهِ ٱلۡعَذَابُۗ وَمَن يُهِنِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِن مُّكۡرِمٍۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَفۡعَلُ مَا يَشَآءُ۩ 17
(18) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह के आगे सज्दा कर रहे हैं30 वे सब जो आसमान में हैं31 और जो ज़मीन में हैं, सूरज और चाँद और तारे और पहाड़ और पेड़ और जानवर और बहुत-से इंसान32 और बहुत-से वे लोग भी जो अज़ाब के हक़दार हो चुके है?33 और जिसे अल्लाह अपमानित और तिरस्कृत कर दे, उसे फिर कोई सम्मान देनेवाला नहीं है,34 अल्लाह करता है जो कुछ चाहता है।35
30. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-13, (रअद),टिप्पणी 24-25, सूरा-16 (अन-नहल) टिप्पणी 41-42।
31. अर्थात् फ़रिश्ते, आकाशीय ग्रह और वह पूरी सृष्टि जो ज़मीन से परे दूसरी दुनियाओं में हैं, चाहे वह इंसान की तरह बुद्धिवाले और अधिकारवाले हों या जानवर, पेड़-पौधे, पहाड़, नदी और हवा और रौशनी की तरह बुद्धिहीन व अधिकार रहित।
۞هَٰذَانِ خَصۡمَانِ ٱخۡتَصَمُواْ فِي رَبِّهِمۡۖ فَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ قُطِّعَتۡ لَهُمۡ ثِيَابٞ مِّن نَّارٖ يُصَبُّ مِن فَوۡقِ رُءُوسِهِمُ ٱلۡحَمِيمُ 18
(19-20) ये दो फ़रीक़ हैं जिनके बीच अपने रब के मामले में झगड़ा है।36 इनमें से वे लोग जिन्होंने इंकार किया, उनके लिए आग के कपड़े काटे जा चुके हैं,37 उनके सरों पर खौलता हुआ पानी डाला जाएगा जिससे उनकी खालें ही नहीं, पेट के अन्दर के हिस्से तक गल जाएँगे,
36. यहाँ अल्लाह के बारे में झगड़ा करनेवाले तमाम गिरोहों को उनकी बहुतायत के बावजूद दो फ़रीक़ों में विभाजित कर दिया गया है। एक फरीक़ वह जो नबियों की बात मानकर अल्लाह की सही बन्दगी इजियार करता है। दूसरा फ़रोक वह जो उनकी बात नहीं मानता और इंकार की राह अपनाता है, भले ही उसके अन्दर आपस में कितने ही मतभेद हों और उसने इंकार के कितने ही विभिन्न रूप अपना लिए हों।
37. भविष्य में जिस चीज़ का होना बिल्कुल ही निश्चित और यक़ीनी हो उसको ज़ोर देने के लिए इस प्रकार की शैली अपनाई जाती है कि मानो वह हो चुकी है। आग के कपड़ों से तात्पर्य शायद वही चीज़ है जिसे सूरा 14 (इब्राहीम) आयत 50 में “सराबी-लुहुम मिन कतिरान" (अर्थात् तारकोल के वस्त्र पहने होंगे) फ़रमाया गया है । (व्याख्या के लिए देखिए सूरा 14 इब्राहीम, टिप्पणी 58)
لِّيَشۡهَدُواْ مَنَٰفِعَ لَهُمۡ وَيَذۡكُرُواْ ٱسۡمَ ٱللَّهِ فِيٓ أَيَّامٖ مَّعۡلُومَٰتٍ عَلَىٰ مَا رَزَقَهُم مِّنۢ بَهِيمَةِ ٱلۡأَنۡعَٰمِۖ فَكُلُواْ مِنۡهَا وَأَطۡعِمُواْ ٱلۡبَآئِسَ ٱلۡفَقِيرَ 27
(28) ताकि वे लाभ देखें जो यहाँ उनके लिए रखे गए हैं,48 और कुछ निश्चित दिनों में उन जानवरों पर अल्लाह का नाम लें जो उसने उन्हें प्रदान किए हैं 49 ख़ुद भी खाएँ और तंगदस्त मुहताज को भी दें।50
48. इससे तात्पर्य केवल धार्मिक लाभ ही नहीं बल्कि दुनिया के लाभ भी हैं। यह उसी ख़ाना काबा और उसके हज की बरकत थी कि हज़रत इब्राहीम के समय से लेकर नबी (सल्ल०) के समय तक ढाई हजार वर्ष की मुद्दत में अरबों को एक एकता-केन्द्र प्राप्त रहा जिसने उनके अरबी होने को क़बीलों में बिल्कुल गुम होने से बचाए रखा। उनके केन्द्र से जुड़ने और हज के लिए हर साल देश के तमाम भागों से आते रहने के कारण उनकी भाषा एक रही, उनकी सभ्यता एक रही, उनके अन्दर अरब होने का एहसास बाक़ी रहा और उनको विचारों, जानकारियों और रहन-सहन के तरीकों के प्रचार के मौके मिलते रहे। फिर यह भी इसी हज की बरकत थी कि अरब की इस आम बद-अमनी में कम से कम चार महीने ऐसे अम्न के मिल जाते थे जिनमें देश के हर हिस्से का आदमी सफर करता था और व्यापारी काफ़िले भी सकुशल गुज़र सकते थे। इसलिए अरब के आर्थिक-जीवन के लिए भी हज एक रहमत था। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-3 आले इमरान, टिप्पणी 80-81, सूरा-5 अल-माइदा, टिप्पणी 113)
49. जानवरों से तात्पर्य मवेशी जानवर हैं, अर्थात् ऊँट, गाय, भेड़, बकरो जैसा कि सूरा-5, (अनआम), आयत 142-144 में स्पष्ट बयान हुआ है। उनपर अल्लाह का नाम लेने से तात्पर्य अल्लाह के नाम पर और उसका नाम लेकर उन्हें जिब्ह करना है, जैसा कि बाद का वाक्य स्वयं बता रहा है। यह वर्णन-शैली अपना कर मानो इस तथ्य पर सावधान किया गया है कि अल्लाह का नाम लिए बिना या अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर जानवर को जिब्ह करना कुफ़्फ़ार और मुशिकों का तरीका है। मुसलमान जब कभी जानवर को जिब्द करेगा, अल्लाह का नाम लेकर करेगा और जब कभी कुर्बानी करेगा, अल्लाह के लिए करेगा।
"कुछ निश्चित दिनों" से तात्पर्य कौन-से दिन हैं? इसमें मतभेद है। एक कथन यह है कि इनसे तात्पर्य अरबी महीना ज़िलहिज्जा के पहले दस दिन हैं। दूसरा कथन यह है कि इससे तात्पर्य यौमुन्नह (यानी (10 ज़िलहिज्जा) और इसके बाद तीन दिन हैं। तीसरा कथन यह है कि इससे तात्पर्य तीन दिन हैं, यौमुन्नह और दो दिन उसके बाद । हनफी व मालीकी मत में इसी पर फ़त्वा है।
ذَٰلِكَۖ وَمَن يُعَظِّمۡ حُرُمَٰتِ ٱللَّهِ فَهُوَ خَيۡرٞ لَّهُۥ عِندَ رَبِّهِۦۗ وَأُحِلَّتۡ لَكُمُ ٱلۡأَنۡعَٰمُ إِلَّا مَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡۖ فَٱجۡتَنِبُواْ ٱلرِّجۡسَ مِنَ ٱلۡأَوۡثَٰنِ وَٱجۡتَنِبُواْ قَوۡلَ ٱلزُّورِ 29
(30) यह था (काबा के निर्माण का उद्देश्य) और जो कोई अल्लाह की निश्चित की हुई हुई हुई पाबन्दियों का आदर करे, तो यह उसके रब के नज़दीक स्वयं उसी के लिए बेहतर है।54 और तुम्हारे लिए मवेशी जानवर हलाल किए गए,55 उन चीज़ों के अलावा जो तुम्हें बताई जा चुकी है।56 अत: बुतों की गन्दगी से बचो,57 झूठी बातों से परहेज़ करो,58
54. प्रत्यक्ष में तो यह एक सामान्य उपदेश है (और सभी पाबन्दियों से संबन्धित है), मगर इस वार्ताक्रम में ये पाबन्दियां कहीं अधिक अभिप्रेत हैं जो मस्जिदे हराम और हज और उमरे और हरमे मक्का के बारे में निश्चित की गई हैं।
55. इस अवसर पर मवेशी जानवरों के हलाल होने का उल्लेख करने का उद्देश्य दो ग़लत-फहमियों को दूर करना है। एक यह कि कुरैश और अरब के मुश्रिक बहीरा और साइबा और वसीला और हाम को भी अल्लाह की निषेद्ध की हुई चीज़ों में गिनते थे। इसलिए फरमाया गया है कि ये उसकी निश्चित की हुई निषेधित चीजें नहीं हैं, बल्कि उसने तमाम मवेशी जानवर हलाल किए हैं। दूसरे यह कि इहराम की हालत में जिस तरह शिकार हराम है उसी तरह कहीं यह न समझ लिया जाए कि मवेशी जानवरों का ज़िब्ह करना और उनको खाना भी हराम है। इसलिए बताया गया कि यह अल्लाह की निषेधित चीज़ों में से नहीं है।
حُنَفَآءَ لِلَّهِ غَيۡرَ مُشۡرِكِينَ بِهِۦۚ وَمَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَكَأَنَّمَا خَرَّ مِنَ ٱلسَّمَآءِ فَتَخۡطَفُهُ ٱلطَّيۡرُ أَوۡ تَهۡوِي بِهِ ٱلرِّيحُ فِي مَكَانٖ سَحِيقٖ 30
(31) एकाग्रचित होकर अल्लाह के बन्दे बनो, उसके साथ किसी को शरीक न करो। और जो कोई अल्लाह के साथ शिर्क करे तो मानो वह आसमान से गिर गया, अब या तो उसे परिन्दे उचक लें जाएँगे या हवा उसको ऐसी जगह ले जाकर फेंक देगी जहाँ उसके चीथड़े उड़ जाएँगे।59
59. इस मिसाल में आसमान से तात्पर्य है इंसान की स्वाभाविक स्थिति जिसमें वह एक ईश्वर के सिवा किसी का बन्दा नहीं होता और एकेश्वरवाद के सिवा उसकी प्रकृति और किसी धर्म को नहीं जानती। अगर इंसान नबियों को दी हुई रहनुमाई स्वीकार कर ले तो वह इसी स्वाभाविक दशा पर ज्ञान और विवेक के साथ स्थित हो जाता है और आगे उसकी उड़ान और अधिक ऊँचाइयों ही की ओर होती है,न कि पस्तियों की ओर। लेकिन शिर्क (और सिर्फ़ शिर्क ही नहीं, बल्कि अनीश्वरवाद और नास्तिकता भी) अपनाते ही वह अपनी प्रकृति के आसमान से यकायक गिर पड़ता है और फिर उसको दो परिस्थितियों में से कोई एक परिस्थिति ज़रूरी ही पेश आती है-
एक यह कि शैतान और गुमराह करनेवाले इंसान जिनको इस मिसाल में शिकारी परिंदों से उपमा की गई है, उसकी ओर झपटते हैं और हर एक उसे उचक ले जाने की कोशिश करता है।
दूसरे यह कि उसकी अपनी मनोकामनाएँ और उसकी अपनी भावनाएँ और विचार, जिन्हें हवा से उपमा दी गई है, उसे उड़ाए उड़ाए लिए फिरते हैं और अन्ततः उसको किसी गहरे खड्डे में ले जाकर फेंक देते हैं।
ذَٰلِكَۖ وَمَن يُعَظِّمۡ شَعَٰٓئِرَ ٱللَّهِ فَإِنَّهَا مِن تَقۡوَى ٱلۡقُلُوبِ 31
(32) यह है असल मामला (इसे समझ लो), और जो अल्लाह के निश्चित किए हुए 'शआइर'60 (चिह्नों) का आदर करे तो यह दिलों के तक़वा (धर्मपरायणता) से है।61
60. अर्थात् ख़ुदापरस्ती को निशानियाँ, चाहे वे आमाल (कर्म) हों, जैसे नमाज़, रोज़ा, हज आदि या चीज़े हों जैसे मस्जिद या कुर्बानी के ऊँट आदि । (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-5 अल-माइदा, टिप्पणी 5)
61. अर्थात् यह आदर दिल के तक्वा (ईशपरायणता) का नतीजा है और इस बात की निशानी है कि आदमी के दिल में कुछ न कुछ अल्लाह का डर है तभी तो वह उसके शआइर (प्रतीक, चिहन) का आदर कर रहा है। दूसरे शब्दों में अगर कोई आदमी जान-बूझकर अल्लाह के शआइर (प्रतीकों) का निरादर करे तो यह इस बात का खुला प्रमाण है कि उसका दिल अल्लाह के डर से खाली हो चुका है।
لَكُمۡ فِيهَا مَنَٰفِعُ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى ثُمَّ مَحِلُّهَآ إِلَى ٱلۡبَيۡتِ ٱلۡعَتِيقِ 32
(33) तुम्हें एक निश्चित समय तक उन (क़ुर्बानी के जानवरों) से लाभ उठाने का हक़ है,62 फिर उन (के क़ुर्बान करने) की जगह उसी पुराने घर के पास है।63
62. पहली आयत में अल्लाह के 'शआइर' (प्रतीकों) के आदर का आम हुक्म देने के बाद यह वाक्य एक भम को दूर करने के लिए कहा गया है। अल्लाह के शआइर में कुर्बानी के जानवर भी दाखिल हैं। सवाल पैदा होता है कि अल्लाह के शआइर के आदर का जो आदेश ऊपर दिया गया है क्या उसका तकाज़ा यह है कि क़ुर्बानी के जानवरों को अल्लाह के घर (काबा) की ओर जब ले जाने लगे तो उनको किसी तरह भी इस्तेमाल न किया जाए? इनपर सवारी करना या सामान लादना, इनके दूध पीना, अल्लाह के शआइर के आदर के विरुद्ध तो नहीं है? अरब के लोगों का यही विचार था। इसी भ्रम को दूर करने के लिए यहाँ फ़रमाया जा रहा है कि क़ुर्बानी की जगह पहुँचने तक तुम इन जानवरों से लाभ उठा सकते हो, ऐसा करना अल्लाह के शआइर के आदर के विपरीत नहीं है
63. जैसा कि दूसरी जगह (क़ुरआन, 5 : 95 में) फ़रमाया, “हदयम बालिग़ल-काबा” अर्थात् यह भेंट काबा पहुँचाई जाएगी। इससे तात्पर्य यह नहीं है कि काबा पर या मस्जिदे हराम में क़ुर्बानी की जाए, बल्कि हरम की सीमाओं में क़ुर्बानी करना अभिप्रेत है। यह एक और प्रमाण है इस बात का कि क़ुरआन काबा, या अल्लाह के घर या मस्जिदे हराम बोलकर आम तौर से हरमे मक्का मुराद लेता है, न कि सिर्फ़ वह इमारत ।
وَلِكُلِّ أُمَّةٖ جَعَلۡنَا مَنسَكٗا لِّيَذۡكُرُواْ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَىٰ مَا رَزَقَهُم مِّنۢ بَهِيمَةِ ٱلۡأَنۡعَٰمِۗ فَإِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ فَلَهُۥٓ أَسۡلِمُواْۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُخۡبِتِينَ 33
(34) हर उम्मत (समुदाय) के लिए हमने क़ुर्बानी का एक क़ायदा तय कर दिया है, ताकि (उस समुदाय के लोग उन जानवरों पर अल्लाह का नाम लें जो उसने उनको प्रदान किए हैं।64 (इन विभिन्न तरीक़ों के अन्दर मक़सद एक ही है।) अत: तुम्हारा ख़ुदा एक ही ख़ुदा है और उसी के तुम आज्ञापालक बनो। और ऐ नबी ! शुभ-सूचना दे दो विनम्रता अपनानेवालों को,65
64. इस आयत से दो बातें मालूम हुई-
एक यह कि कुर्बानी अल्लाह की भेजी हुई तमाम शरीअतों की उपासना-व्यवस्था का एक आवश्यक अंश रही है। इबादत में तौहीद के बुनियादी तक़ाज़ों में से एक यह भी है कि इंसान ने जिन-जिन शक्लों में अल्लाह को छोड़कर गैरों की इबादत की है, उन सबको गैर-अल्लाह के लिए मना करके सिर्फ़ अल्लाह के लिए मुख्य कर दिया जाए। |बन्दगी और उपासना के और कामों की तरह इंसान अपने ख़ुद के गढ़े हुए उपास्यों के लिए जानवरों की क़ुर्बानियाँ भी करता रहा है और अल्लाह की शरीअतों ने उनको भी ग़ैर के लिए बिल्कुल ही हराम और अल्लाह के लिए वाजिब कर दिया।
दूसरी बात इस आयत से यह मालूम हुई कि वास्तविक चीज़ अल्लाह के नाम पर कुर्बानी है, न कि ये विवरण कि क़ुर्बानी कब की जाए और कहाँ की जाए और किस तरह की जाए? इन विवरणों में विभिन्न नबियों को शरीअतों में परिस्थितियों के हिसाब से विभेद रहे हैं, मगर सबकी आत्मा और सबका उद्देश्य एक ही रहा है।
65. वास्तव में शब्द 'मुख़्वितीन' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ किसी एक शब्द से पूरी तरह व्यक्त नहीं होता। इसमें तीन अर्थ शामिल हैं-
1. दंभ और अहं छोड़कर अल्लाह के मुक़ाबले में विनम्रता अपनाना।
2. उसको बन्दगी और गुलामी पर सन्तुष्ट हो जाना।
3. उसके फैसलों पर राज़ी हो जाना।
ٱلَّذِينَ إِذَا ذُكِرَ ٱللَّهُ وَجِلَتۡ قُلُوبُهُمۡ وَٱلصَّٰبِرِينَ عَلَىٰ مَآ أَصَابَهُمۡ وَٱلۡمُقِيمِي ٱلصَّلَوٰةِ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ 34
(35) जिनका हाल यह है कि अल्लाह का ज़िक्र सुनते हैं तो उनके दिल काँप उठते हैं, जो मुसीबत भी उनपर आती है उसपर सब करते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं और जो कुछ रोजी हमने उनको दी है, उसमें से ख़र्च करते हैं।66
66. अर्थात् जो पाक रोज़ी हमने उन्हें दी है, उसमें से वे खर्च करते हैं। ख़र्च से तात्पर्य हर तरह का ख़र्च नहीं है, बल्कि अपनी और अपने घरवालों की जाइज़ ज़रूरतें पूरी करना, रिश्तेदारों, पड़ोसियों और ज़रूरतमंद लोगों की मदद करना, जन-हित के कामों में हिस्सा लेना और अल्लाह के कलिमा का बोल बाला करने में माल की क़ुर्बानी देना अभिप्रेत है।
وَٱلۡبُدۡنَ جَعَلۡنَٰهَا لَكُم مِّن شَعَٰٓئِرِ ٱللَّهِ لَكُمۡ فِيهَا خَيۡرٞۖ فَٱذۡكُرُواْ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَيۡهَا صَوَآفَّۖ فَإِذَا وَجَبَتۡ جُنُوبُهَا فَكُلُواْ مِنۡهَا وَأَطۡعِمُواْ ٱلۡقَانِعَ وَٱلۡمُعۡتَرَّۚ كَذَٰلِكَ سَخَّرۡنَٰهَا لَكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ 35
(36) और (क़ुर्बानी के) ऊँटो 67 को हमने तुम्हारे लिए अल्लाह के 'शआइर' में शामिल किया है, तुम्हारे लिए उनमें भलाई है।68 अत: उन्हें खड़ा करके 69 उनपर अल्लाह का नाम लो 70, और जब (क़ुर्बानी के बाद) उनकी पीठे ज़मीन पर टिक जाएँ 71 तो उनमें से स्वयं भी खाओ और उनको भी खिलाओ जो सन्तोष किए बैठे हैं और उनको भी जो अपनी ज़रूरत पेश करें। इन जानवरों को हमने इस तरह तुम्हारे लिए वशीभूत किया है, ताकि तुम कृतज्ञता प्रकट करो।72
67. मूल शब्द 'बुदन' प्रयुक्त हुआ है जो अरबी भाषा में ऊँटों के लिए खास है। मगर नबी (सल्ल०) ने क़ुर्बानी के हुक्म में गाय को भी ऊँटों के साथ शामिल फ़रमा दिया है । (मुस्लिम)
68. अर्थात् तुम उनसे अधिक से अधिक लाभ उठाते हो। यह संकेत है इस बात की ओर कि तुम्हें उनकी क़ुर्बानी क्यों करनी चाहिए। आदमी अल्लाह की दी हुई जिन-जिन चीज़ों से लाभ उठाता है, उनमें से हर एक की कुर्बानी उसको अल्लाह के नाम पर करनी चाहिए, न सिर्फ इस देन पर कृतज्ञता दिखाने के लिए, बल्कि अल्लह की महानता और उसके स्वामित्व को स्वीकार करने के लिए भी। ईमान और इस्लाम मन (नफ़्स) का त्याग है। नमाज़ और रोज़ा शरीर और उसकी शक्तियों की क़ुर्बानी है। ज़कात माल की क़ुर्बानी है। जिहाद समय और मानसिक व शारीरिक क्षमताओं का त्याग है। अल्लाह के रास्ते में लड़ना जान की क़ुर्बानी है। ये सभी एक-एक तरह की नेमत और एक-एक देन की कृतज्ञता है। इसी तरह जानवरों की क़ुर्बानी भी हमपर ज़रूरी की गई है, ताकि हम अल्लाह की उस महान अनुग्रह पर उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करें और उसको बड़ाई मानें कि उसने अपने पैदा किए हुए बहुत-से जानवरों को हमारे वशीभूत कर दिया जिनसे हम बेहिसाब लाभ उठाते हैं।
72. यहाँ फिर संकेत है इस विषय को ओर कि कुर्बानी का आदेश क्यों दिया गया है। फ़रमाया, इसलिए कि यह कृतज्ञता है उस महान नेमत का जो अल्लाह ने मवेशी जानवरों को तुम्हारे वशीभूत करके तुम्हें प्रदान की है।
لَن يَنَالَ ٱللَّهَ لُحُومُهَا وَلَا دِمَآؤُهَا وَلَٰكِن يَنَالُهُ ٱلتَّقۡوَىٰ مِنكُمۡۚ كَذَٰلِكَ سَخَّرَهَا لَكُمۡ لِتُكَبِّرُواْ ٱللَّهَ عَلَىٰ مَا هَدَىٰكُمۡۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُحۡسِنِينَ 36
(37) न उनके गोश्त अल्लाह को पहुँचते हैं, न ख़ून, भगर उसे तुम्हारा तकवा (ईश-परायणता) पहुँचता है।73 उसने इनको तुम्हारे लिए इस तरह वशीभूत किया है ताकि उसके प्रदान किए हुए मार्गदर्शन पर तुम उसकी बड़ाई बयान करो74 और ऐ नबी शुभ-सूचना दे दो भले कर्म करनेवालों को।
73. अज्ञानता-काल में अरब के लोग जिस तरह बुतों के नाम की गई कुर्बानी का गोश्त बुतों पर ले जाकर चढ़ाते थे उसी तरह अल्लाह के नाम की क़ुर्बानी का गोश्त काबा के सामने लाकर रखते और ख़ून उसकी दीवारों पर लड़ते थे। उनके नज़दीक यह क़ुर्बानी मानो इसलिए की जाती थी कि अल्लाह के समक्ष उसका ख़ून और गोश्त पेश किया जाए। इस अज्ञानता का परदा चाक करते हुए फ़रमाया कि असल चीज़ जो अल्लाह के सामने पेश होती है वह जानवर का ख़ून और गोश्त नहीं, बल्कि तुम्हारा तक़वा (ईशपरायणता) है। अगर तुम नेमत के प्रति कृतज्ञ-भावना के आधार पर विशुद्ध नीयत के साथ केवल अल्लाह ही के लिए क़ुर्बानी करोगे तो इस भावना और नीयत और निष्ठा का नज़राना उसके सामने पहुँच जाएगा, वरना खून और गोश्त यहीं धरा रह जाएगा।
74. अर्थात् दिल से उसकी महानता और श्रेष्ठता मानो और व्यवहार से उसका एलान और उसका प्रदर्शन करो। यह फिर क़ुर्बानी के आदेश और उद्देश्य और कारण की ओर इशारा है। क़ुर्बानी सिर्फ़ इसी लिए अनिवार्य नहीं की गई है कि ये जानवरों के वशीभूत होने के उपकार पर अल्लाह के प्रति कृतज्ञता है, बल्कि इसलिए भी अनिवार्य की गई है कि जिसके ये जानवर हैं और जिसने उन्हें हमारे लिए वशीभूत किया है उसके स्वामित्व अधिकारी को हम दिल से भी और व्यवहार से भी मानें, ताकि हमें कभी यह भूल न होने पाए कि यह सब कुछ हमारा अपना माल है। इसी विषय को यह वाक्य व्यक्त करता है जो कुर्बानी करते समय बोला जाता है कि "अल्लाहुम-म मिन क व ल-क।" अर्थात् ऐ अल्लाह ! तेरा ही माल है और तेरे ही लिए हाज़िर है।
इस जगह यह जान लेना चाहिए कि इस पैराग्राफ में क़ुर्बानी का जो हुक्म दिया गया है वह सिर्फ़ हाजियों ही के लिए नहीं है और सिर्फ मक्का में हज ही के मौक़े पर अदा करने के लिए नहीं है, बल्कि तमाम सामर्थ्य रखनेवाले मुसलमानों के लिए आम है, जहाँ भी वे हों, ताकि वे जानवरों को सधाने की नेमत पर शुक्रिया और अल्लाह की बड़ाई बयान करने का कर्तव्य भी निभाएँ और साथ-साथ अपनी-अपनी जगहों पर हाजियों के साथ हो जाएं। इस विषय को बहुत-सी सही हदीसों में स्पष्ट कर दिया गया है और बहुत-सी भरोसेमंद रिवायतों से यह भी सिद्ध है कि नबी (सल्ल०) खुद मदीना तैयिबा के संपूर्ण प्रवास-काल में हर साल बकरीद के मौक़े पर क़ुर्बानी करते रहे और मुसलमानों में आप ही की सुन्नत से यह तरीक़ा जारी हुआ। अतः यह बात शक व सन्देहों से परे है कि बकरीद के दिन जो क़ुर्बानी आम मुसलमान दुनिया भर में करते हैं, यह नबी (सल्ल०) को जारी की हुई सुन्नत है। हाँ, अगर मतभेद है तो इस मामले में कि क्या यह वाजिब है या केवल सुन्नत है ? लेकिन उम्मत के उलमा में से कोई भी इस बात को नहीं मानता कि [इसे पूरी तरह छोड़ा भी जा सकता है। यह नई उपज सिर्फ़ हमारे समय के कुछ लोगों को सूझी है, जिनके लिए उनका मन (नफ़्स) ही क़ुरआन भी है और सुन्नत भी।
أُذِنَ لِلَّذِينَ يُقَٰتَلُونَ بِأَنَّهُمۡ ظُلِمُواْۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ نَصۡرِهِمۡ لَقَدِيرٌ 38
(39) अनुमति दे दी गई उन लोगों को जिनके विरुद्ध युद्ध किया जा रहा है, क्योंकि वे मज़लूम (उत्पीड़ित) हैं।78 और अल्लाह निश्चिय ही उनकी सहायता की सामर्थ्य रखता है।79
78. यह अल्लाह के रास्ते में युद्ध के बारे में सबसे पहली आयत है जो उतरी । इस आयत में केवल अनुमति दी गई थी। बाद में सूरा-2. बक़रा की आयतें 190-193,216 और 224 उतरीं, जिनमें युद्ध का आदेश दिया गया । इन आदेशों में केवल कुछ महीनों का अन्तराल है। अनुमति हमारी खोज के अनुसार ज़िलज्जिा 01 हि० में अवतरित हुई और आदेश बद्र के युद्ध से कुछ पहले रजब या शाबान सन् 2 हित में अवतरित हुआ।
79. अर्थात् इसके बावजूद कि ये कुछ मुट्ठी भर आदमी हैं, अल्लाह इनको तमाम अरब मुश्किों पर ग़ालिब कर सकता है। यह बात दृष्टि में रहे कि जिस समय तलवार उठाने की यह अनुमति दी जा रही थी, मुसलमानों की सारी शक्ति सिर्फ़ मदीना के एक मामूली क़स्बे तक सीमित थी और मुहाजिरीन और अंसार मिलकर भी एक हज़ार की संख्या तक न पहुँचते थे। इस अवसर पर यह कथन कि “अल्लाह निश्चित रूप से उनकी सहायता करने की सामर्थ्य रखता है" अत्यन्त प्रासंगिक था। इसमें मुसलमानों की भी ढाढ़स बंधाई गई और शत्रुओं को भी सचेत किया गया कि [याद रखना] तुम्हारा मुक़ाबला वास्तव में इन मुट्ठी भर मुसलमानों से नहीं, बल्कि अल्लाह से है।
ٱلَّذِينَ أُخۡرِجُواْ مِن دِيَٰرِهِم بِغَيۡرِ حَقٍّ إِلَّآ أَن يَقُولُواْ رَبُّنَا ٱللَّهُۗ وَلَوۡلَا دَفۡعُ ٱللَّهِ ٱلنَّاسَ بَعۡضَهُم بِبَعۡضٖ لَّهُدِّمَتۡ صَوَٰمِعُ وَبِيَعٞ وَصَلَوَٰتٞ وَمَسَٰجِدُ يُذۡكَرُ فِيهَا ٱسۡمُ ٱللَّهِ كَثِيرٗاۗ وَلَيَنصُرَنَّ ٱللَّهُ مَن يَنصُرُهُۥٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَقَوِيٌّ عَزِيزٌ 39
(40) ये वे लोग हैं जो अपने घरों से नाहक़ निकाल दिए गए80 सिर्फ़ इस क़ुसूर पर कि वे कहते थे, “हमारा रब अल्लाह है"।81 अगर अल्लाह लोगों को एक-दूसरे के ज़रिये हटाता न रहे तो ख़ानक़ाहें और गिरजा और इबादतगाहे82 और मस्जिदें जिनमें अल्लाह का नाम कसरत से लिया जाता है, सब ढाह दी जाएँ।83 अल्लाह ज़रूर उन लोगों की मदद करेगा जो उसकी मदद करेंगे।84 अल्लाह बड़ा ताक़तवर और ज़बरदस्त है।
80. यह आयत स्पष्ट करती है कि सूरा हज का यह अंश अवश्य ही हिजरत के बाद उतरा है।
81. जिस ज़ुल्म के साथ ये लोग निकाले गए उसका अनुमान करने के लिए [हज़रत सुहैब रूमी, हज़रत उम्मे सलमा, हज़रत अबू सलमा और हज़रत अय्याश बिन रविआ रज़ियल्लाहु अन्हुम आदि की कुछ घटनाओं का अध्ययन पर्याप्त होगा]।
ٱلَّذِينَ إِن مَّكَّنَّٰهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ أَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَوُاْ ٱلزَّكَوٰةَ وَأَمَرُواْ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَنَهَوۡاْ عَنِ ٱلۡمُنكَرِۗ وَلِلَّهِ عَٰقِبَةُ ٱلۡأُمُورِ 40
(41) ये वे लोग हैं जिन्हें अगर हम धरती में सत्ता प्रदान करें तो वे नमाज़ स्थापित करेंगे, ज़कात देगे, नेकी का आदेश देंगे और बुराई से मना करेंगे।85 और तमाम मामलों का कार्य-फल अल्लाह के हाथ में है।86
85. अर्थात् अल्लाह के मददगार और उसके समर्थन और सहायता के हक़दार लोगों के गुण ये हैं कि अगर दुनिया में उन्हें शासन और सत्ता दी जाए तो उनका निजी चरित्र अवज्ञा, उदंडता और गर्व और घमंड के बजाय नमाज़ कायम करनेवाला हो, उनका धन भोग-विलास और मनोकामनाओं की पूर्ति के बजाय ज़कात अदा करने में लगे, उनका शासन नेकी को दबाने के बजाय उसे बढ़ाने की सेवा करे और उनकी शक्ति बुराइयों को फैलाने के बजाय उनके दबाने में काम आए। इस एक वाक्य में इस्लामी शासन के लक्ष्य और उसके कार्यकर्ताओं और अधिकारियों के गुणों का सत् निकालकर रख दिया गया है। कोई समझना चाहे तो इसी एक वाक्य से समझ सकता है कि इस्लामी शासन वास्तव में किस चीज़ का नाम है।
86. अर्थात् यह फैसला कि धरती का प्रबन्ध किस वक्त किसे सौंपा जाए वास्तव में अल्लाह ही के हाथ में है। उसी को यह शक्ति प्राप्त है कि जिनके दबदबे को देखकर लोग सोचते हों कि भला उनको कौन हिला सकेगा उन्हें ऐसा गिराए कि दुनिया के लिए शिक्षाप्रद उदाहरण बन जाएँ और जिन्हें देखकर कोई गुभान भी न कर सकता हो कि ये भी कभी उठ सकेंगे उन्हें ऐसा ऊंचा उठाए कि दुनिया में उनको प्रतिष्ठाओं और महानता के डंके बज जाएँ।
وَإِن يُكَذِّبُوكَ فَقَدۡ كَذَّبَتۡ قَبۡلَهُمۡ قَوۡمُ نُوحٖ وَعَادٞ وَثَمُودُ 41
(42-43-44) ऐ नबी ! अगर वे (यानी क़ुफ़्फ़ार) तुम्हें झुठलाते हैं87 तो उनसे पहले नूह की क़ौम और आद और समूद और इबाहीम को क़ौम और लूत की क़ौम और मदयनवाले भी झुठला चुके हैं और मूसा भी झुठलाए जा चुके हैं। इन सब सत्य के इंकारियों को मैंने पहले मोहलत दी, फिर पकड़ लिया,88 अब देख लो कि मेरी सज़ा कैसी थी।89
87. अर्थात् मक्का के कुफ्फार (विधर्मी)।
88. अर्थात् उनमें से किसी क़ौम को भी नबी को झुठलाते ही तुरन्त नहीं पकड़ लिया गया था, बल्कि हर एक को सोचने-समझने के लिए पर्याप्त समय दिया गया और पकड़ उस समय की गई जब कि इंसाफ़ के तक़ाज़े पूरे हो चुके थे। इसी तरह मक्का के कुफ्फार भी यह न समझें कि उनके बुरे दिन आने में जो देर लग रही है, वह इस कारण है कि नबी की चेतावनियाँ मात्र खाली-खुली धमकियाँ हैं। वास्तव में यह सोच विचार की मोहलत है जो अल्लाह अपने नियम के अनुसार दे रहा है, और इस मोहलत से अगर उन्होंने लाभ न उठाया तो उनका अंजाम भी वही होकर रहना है जो उनसे पहलों का हो चुका है।
وَيَسۡتَعۡجِلُونَكَ بِٱلۡعَذَابِ وَلَن يُخۡلِفَ ٱللَّهُ وَعۡدَهُۥۚ وَإِنَّ يَوۡمًا عِندَ رَبِّكَ كَأَلۡفِ سَنَةٖ مِّمَّا تَعُدُّونَ 46
(47) ये लोग अज़ाब के लिए जल्दी मचा रहे हैं।92 अल्लाह कदापि अपने वादे के विरुद्ध न करेगा, मगर तेरे रब के यहाँ का एक दिन तुम्हारी गिनती के हजार वर्ष के बराबर हुआ करता है।93
92. अर्थात् बार-बार चुनौती दे रहे हैं कि मियाँ अगर तुम सच्चे नबी हो तो क्यों नहीं आ जाता हमपर वह अज़ाब जो अल्लाह के भेजे हुए सच्चे नबी को झुठलाने पर आना चाहिए और जिसकी धमकियाँ भी तुम बार-बार हमें दे चुके हो।
93. अर्थात् मानव इतिहास में अल्लाह के फैसले तुम्हारी घड़ियों और जन्तरियों के अनुसार नहीं होते कि आज एक सही या ग़लत रीति अपनाई और कल उसके अच्छे या बुरे फल सामने आ गए। किसी क़ौम से अगर यह कहा जाए कि अमुक तरीका अपनाने का अंजाम तुम्हारी तबाही की शक्ल में निकलेगा, तो वह बड़ी ही मूर्ख होगी अगर उत्तर में यह तर्क लाए कि श्रीमान | इस तरीके को अपनाए हमें दस-बीस या पचास वर्ष हो चुके हैं, अभी तक तो हमारा कुछ बिगड़ा नहीं । ऐतिहासिक परिणामों के लिए दिन और महीने और साल तो दूर की बात, सदियाँ भी कोई बड़ी चीज़ नहीं है।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ مِن رَّسُولٖ وَلَا نَبِيٍّ إِلَّآ إِذَا تَمَنَّىٰٓ أَلۡقَى ٱلشَّيۡطَٰنُ فِيٓ أُمۡنِيَّتِهِۦ فَيَنسَخُ ٱللَّهُ مَا يُلۡقِي ٱلشَّيۡطَٰنُ ثُمَّ يُحۡكِمُ ٱللَّهُ ءَايَٰتِهِۦۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ 51
(52) और ऐ नबी ! तुमसे पहले हमने न कोई रसूल भेजा है, न नबी 96 (जिसके साथ यह मामला न पेश आया हो कि) जब उसने तमन्ना की,97 शैतान ने उसकी तमन्ना में विघ्न डाला।98 इस तरह जो कुछ भी शैतान बाधाएँ डालता है, अल्लाह उनको मिटा देता है और अपनी आयतों को पक्का कर देता है,99 अल्लाह सर्वज्ञ और तत्त्वदशी है।100
96. रसूल और नबी के अन्तर की व्याख्या सूरा-19 (मरयम) टिप्पणी 30 में की जा चुकी है।
97. 'तमन्ना' शब्द अरबी में दो अर्थों में प्रयुक्त होता है। एक अर्थ तो वही है जो उर्दू के शब्द तमन्ना का है, अर्थात् किसी चीज़ की इच्छा और कामना । दूसरा अर्थ तिलावत है, अर्थात् किसी चीज़ को पढ़ना।
وَلِيَعۡلَمَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ أَنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ فَيُؤۡمِنُواْ بِهِۦ فَتُخۡبِتَ لَهُۥ قُلُوبُهُمۡۗ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَهَادِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ 53
(54) और ज्ञानवान लोग जान लें कि यह सत्य है तेरे रब की ओर से और वे इसपर ईमान ले आएँ और उनके दिल उसके आगे झुक जाएँ, निश्चय ही अल्लाह ईमान लानेवालों को सदैव सीधा रास्ता दिखा देता है।101
101. अर्थात् शैतान की इन उपद्रवों को अल्लाह ने लोगों की आज़माइश और खरे को खोटे से अलग करने का एक साधन बना दिया है। बिगड़ी हुई मनोवृत्ति के लोग इन्हीं चीज़ों से ग़लत नतीजे निकालते हैं और ये उन लोगों की पथभ्रष्टता का साधन बन जाती हैं। पवित्र मनोवृत्ति के लोगों की यही बातें नबी और अल्लाह की किताब के सत्य होने का विश्वास दिलाती हैं और वे महसूस कर लेते हैं कि ये शैतान को शरारतें हैं और यह चीज़ उन्हें सन्तुष्ट कर देती है कि यह दावत निश्चित रूप से भलाई और सच्चाई की दावत है, वरना शैतान इसपर इतना न तिलमिलाता । नबी (सल्ल०) की दावत उस समय जिस मरहले में थी, उसे देखकर तमाम प्रत्यक्षदर्शी आँखें यह धोखा खा रही थीं कि आप अपने उद्देश्य में विफल हो गए हैं। देखनेवाले जो कुछ देख रहे थे, वह तो यही था कि एक आदमी, जिसकी इच्छा और आरजू यह थी कि उसकी क़ौम उसपर ईमान लाए, वह तेरह वर्ष (अल्लाह की पनाह) सर मारने के बाद आखिरकार अपने मुट्ठी भर अनुयायियों को लेकर वतन से निकल जाने पर मजबूर हो गया और मक्का के विधर्मी ग़ालिब रहे। इस परिस्थिति में जब लोग आपके इस बयान को देखते थे कि मैं अल्लाह का नबी हूँ और उसकी ताईद मेरे साथ है और क़ुरआन के इन एलानों को देखते थे कि नबी को झुठला देनेवाली क़ौम पर अज़ाब आ जाता है, तो उन्हें आपकी और क़ुरआन की सच्चाई में सन्देह होने लगता था, और आपके विरोधी इसपर बढ़-चढ़कर बातें बनाते थे कि कहाँ गई वह अल्लाह की ताईद और क्या हुई वे अज़ाब की धमकियाँ ? अब क्यों नहीं आ जाता वह अज़ाब जिससे हमको डरावे दिए जाते थे। इन्हीं बातों का उत्तर इससे पहले की आयतों में दिया गया था और इन्हीं के उत्तर में ये आयतें भी उतरी है। पहले की आयतों में उत्तर का रुख विधर्मियों की ओर था और इन आयतों में उसका रुख उन लोगों की तरफ़ है जो शत्रुओं के दुष्प्रचार से प्रभावित हो रहे थे। पूरे उत्तर का सारांश यह है कि-
“किसी क़ौम का अपने पैग़म्बर का झुठलाना मानव-इतिहास में कोई नई घटना नहीं है, पहले भी ऐसा ही होता रहा है, फिर इस झुठलाने का जो अंजाम हुआ वह तुम्हारी आँखों के सामने विनष्ट क़ौमों के खंडहरों के रूप में मौजूद है। शिक्षा लेना चाहो तो उससे ले सकते हो। रही यह बात कि झुठलाते ही वह अज़ाब क्यों न आ गया जिसकी धमकियाँ क़ुरआन को बहुत-सी आयतों में दी गई थीं, तो आख़िर यह कब कहा गया था कि किसी के झुठलाने से तुरन्त अज़ाब आ जाता है और नबी ने यह कब कहा था कि अज़ाब लाना उसका अपना काम है। इसका फैसला तो अल्लाह के हाथ में है और वह जल्दबाज़ नहीं है। मोहलत की यह अवधि अगर सदियों तक भी लंबी हो जाए तो यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि वे सब धमकियाँ खाली-खुली धमकियाँ ही थीं जो पैग़म्बर को झुठलानेवालों पर अज़ाब आने के बारे में की गई थीं। फिर यह बात भी कोई नई नहीं है कि पैग़म्बर की इच्छाओं और कामनाओं को पूरा होने में रुकावटें आ जाएँ या उसकी दावत के विरुद्ध झूठे आरोप और भांति-भांति के सन्देहों और आपत्तियों का एक तूफान उठ खड़ा हो। यह सब कुछ भी तमाम पिछले पैग़म्बरों की दावतों के मुक़ाबले में हो चुका है, मगर अन्ततः अल्लाह इन शैतानी फ़िलों की जड़ें काट देता है, रुकावटों के बावजूद सत्य की दावत को बढ़ावा मिलता है और मोहकम (अर्थात् स्पष्ट अर्थ रखनेवाली) आयतों के ज़रिये आरोपों की दरारें भर दी जाती हैं। शैतान और उसके चेले इन उपायों से अल्लाह की आयतों को नीचा दिखाना चाहते हैं मगर अल्लाह इन्हीं को इंसानों के बीच खोटे और खरे के अंतर का साधन बना देता है। इस ज़रिये से खरे आदमी सत्य की दावत की की ओर खिंच आते हैं और खोटे लोग छटकर अलग हो जाते हैं।"
۞ذَٰلِكَۖ وَمَنۡ عَاقَبَ بِمِثۡلِ مَا عُوقِبَ بِهِۦ ثُمَّ بُغِيَ عَلَيۡهِ لَيَنصُرَنَّهُ ٱللَّهُۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَعَفُوٌّ غَفُورٞ 59
(60) यह तो है उनका अंजाम, और जो कोई बदला ले, वैसा ही जैसा उसके साथ किया गया, और फिर उसपर अत्याचार भी किया गया हो तो अल्लाह उसकी मदद ज़रूर करेगा।104 अल्लाह क्षमा करनेवाला और दरगुज़र करनेवाला है।105
104. पहले उन पीड़ितों का उल्लेख था जो अत्याचार के मुकाबले में कोई जवाबी कार्रवाही न कर सके हों, और यहाँ उनका उल्लेख है जो ज़ालिमों के मुकाबले में शक्ति का प्रयोग करें।
इमाम शाफ़ई (रह०) ने इस आयत से यह तर्क प्रस्तुत किया है कि किसास (बदला) उसी रूप में लिया जाएगा जिस रूप में जुल्म किया गया हो। जैसे किसी आदमी ने अगर आदमी को डुबोकर मारा है तो उसे भी डुबोकर मारा जाएगा और किसी ने जलाकर मारा है तो उसे भी जलाकर मारा जाएगा, लेकिन हनफ़ी इस बात के कायल हैं कि हत्यारे ने क़त्ल चाहे किसी भी रूप में किया हो, उससे 'किसास' एक समुचित तरीक़े पर ही लिया जाएगा।
105. इस आयत के दो अर्थ हो सकते हैं और शायद दोनों ही मुराद हैं-
एक यह कि ज़ुल्म के मुक़ाबले में जो ख़ून-ख़राबा किया जाए वह अल्लाह के यहाँ माफ़ है, यद्यपि ख़ून-ख़राबा अपने आपमें कोई अच्छी चीज़ नहीं है।
दूसरे यह कि अल्लाह जिसके तुम बन्दे हो, माफ़ करनेवाला और दरगुज़र करनेवाला है। इसलिए तुमको भी, जहाँ तक भी तुम्हारे बस में हो, क्षमा और दरगुज़र से काम लेना चाहिए। ईमानवालों के चरित्र का ज़ेवर यही है कि वे सहनशील, विशाल हृदय और उदार हों । बदला लेने का अधिकार उन्हें अवश्य प्राप्त है, मगर बिल्कुल प्रतिशोधात्मक मनोवृत्ति अपने ऊपर ग़ालिब कर लेना उनके लिए उचित नहीं है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ يُولِجُ ٱلَّيۡلَ فِي ٱلنَّهَارِ وَيُولِجُ ٱلنَّهَارَ فِي ٱلَّيۡلِ وَأَنَّ ٱللَّهَ سَمِيعُۢ بَصِيرٞ 60
(61) यह इसलिए106 कि रात से दिन और दिन से रात निकालनेवाला अल्लाह ही है,107 और वह सुनता और देखता है।108
106. इस पैराग्राफ का ताल्लुक़ ऊपर के पूरे पैराग्राफ़ से है न कि सिर्फ क़रीब के अन्तिम वाक्य से। अर्थात् कुफ़्र और ज़ुल्म का रवैया अपनानेवालों पर अज़ाब लाना, ईमानवाले और भले बन्दों को पुरस्कार देना और पीडित सत्यवादियों की फ़रियाद सुनना और शक्ति से जुल्म का मुकाबला करनेवाले सत्यवादियों की मदद करना, यह सब किस कारण से है ? इसलिए कि अल्लाह के गुण ये और ये हैं।
107. अर्थात् पूरी सृष्टि व्यवस्था का वही शासक है और रात व दिन का आना-जाना उसी के कब्जे में है। इस प्रत्यक्ष अर्थ के साथ इस वाक्य में एक सूक्ष्म संकेत इस ओर भी है कि जो अल्लाह रात के अंधेरे में से दिन की रौशनी निकाल लाता है और चमकते हुए दिन पर रात का अंधेरा छा देता है, वही अल्लाह इसपर भी सामर्थ्यवान है कि आज जिसकी सत्ता का सूरज सर पर है, उनके ढलने और डूबने का दृश्य भी दुनिया को जल्दी ही दिखा दे और कुफ़्र और अज्ञानता की जो अंधियारी इस समय सत्य व सच्चाई के उदय का रास्ता रोक रही है, वह देखते ही देखते उसके आदेश से छट जाए और वह दिन निकल आए जिसमें सच्चाई और ज्ञान और मारफ़त (बोध) के नूर से दुनिया रौशन हो जाए।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَتُصۡبِحُ ٱلۡأَرۡضُ مُخۡضَرَّةًۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَطِيفٌ خَبِيرٞ 62
(63) क्या तुम देखते नहीं हो अल्लाह आसमान से पानी बरसाता है और उसके कारण धरती हरी-भरी हो जाती है?110 सच तो यह है वह सुक्ष्मदर्शी और ख़बर रखनेवाला है।111
110. यहाँ फिर प्रत्यक्ष अर्थ के पीछे एक सूक्ष्म संकेत छिपा हुआ है । प्रत्यक्ष अर्थ तो केवल अल्लाह की सामर्थ्य का बयान है मगर सूक्ष्म संकेत इसमें यह है कि जिस तरह अल्लाह की बरसाई हुई वर्षा का एक छींटा पड़ते हो तुम देखते हो कि सूखी पड़ी हुई धरती यकायक लहलहा उठती है, उसी तरह यह वह्य रूपी कृपा की वर्षा जो आज हो रही है, जल्द हो तुमको यह दृश्य दिखनेवाली है कि यही अरब का बंजर रेगिस्तान ज्ञान और चरित्र और शिष्ट संस्कृति की वह फुलवारी बन जाएगी जो आसमान की आँखों ने कभी न देखा था।
111. सूक्ष्मदर्शी है, अर्थात् अप्रत्यक्ष रूप से अपने इरादे पूरे करनेवाला है। उसके उपाय ऐसे होते हैं कि लोग उनके आरंभ में कभी उनके परिणाम को सोच भी नहीं सकते । लाखों बच्चे दुनिया में पैदा होते हैं, कौन जान सकता है कि इनमें से कौन इब्राहीम है जो तीन चौथाई दुनिया का रूहानी पेशवा होगा और कौन चंगेज़ है जो एशिया और यूरोप को नष्ट-विनष्ट कर डालेगा। सूक्ष्मदर्शी यंत्र जब बनाया गया था, उस समय का कौन सोच सकता था कि यह एटम बम और हाइड्रोजन बम तक नौबत पहुँचाएगा। कोलम्बस जब सफर को निकल रहा था तो किसे मालूम था कि यह संयुक्त राज्य अमेरीका की आधारशिला रखी जा है। तात्पर्य यह कि अल्लाह की योजनाएँ ऐसे सूक्ष्म तरीकों से पूरी होती हैं और इतनी अमूर्त होती हैं कि जब तक वे पूरी न हो जाएं किसी को पता नहीं चलता कि यह किस चीज़ के लिए काम हो रहा है। ख़बरवाला (ख़बीर) है, अर्थात् वह अपनी दुनिया के हालात, मस्लहतों और ज़रूरतों की खबर रखता है और जानता है कि अपने ईश्वरत्व का काम किस तरह करे।
لِّكُلِّ أُمَّةٖ جَعَلۡنَا مَنسَكًا هُمۡ نَاسِكُوهُۖ فَلَا يُنَٰزِعُنَّكَ فِي ٱلۡأَمۡرِۚ وَٱدۡعُ إِلَىٰ رَبِّكَۖ إِنَّكَ لَعَلَىٰ هُدٗى مُّسۡتَقِيمٖ 66
(67) हर समुदाय115 के लिए हमने इबादत का एक तरीक़ा116 निश्चित किया है जिसकी वह पैरवी करता है। अत: ऐ नबी ! वे इस मामले में तुमसे झगड़ा न करें117 तुम अपने रब की ओर दावत दो। निश्चय ही तुम सीधे रास्ते पर हो ।118
116. यहाँ 'मन-सक' अरबी शब्द क़ुर्बानी के अर्थ में नहीं बल्कि इबादत की पूरी व्यवस्था के बारे में है। इससे पहले इसी शब्द का अनुवाद 'कुर्बानी का नियम' किया गया था,क्योंकि वहाँ बाद का वाक्य “ताकि लोग उन पर अल्लाह का नाम लें उसने उनको प्रदान किए हैं" उसके व्यापक अर्थ में से सिर्फ़ क़ुर्बानी तात्पर्य होने को स्पष्ट कर रहा था, लेकिन यहाँ इसे सिर्फ़ क़ुर्बानी के अर्थ में लेने की कोई वजह नहीं है, बल्कि इबादत को भी अगर 'परस्तिश' के बजाय 'बन्दगी' के व्यापक अर्थ में लिया जाए तो उद्देश्य से अधिक निकट होगा। इस तरह मन-सक (बन्दगी का तरीक़ा) के वही अर्थ हो जाएँगे जो 'शरीअत' और 'मिन्हाज' के अर्थ हैं, और यह उसी मज़मून को दोहराना होगा जो सूरा-5 (माइदा) में फ़रमाया गया है कि "हमने तुममें से हर एक के लिए एक शरीअत और एक कार्य-पद्धति निश्चित की। (आयत 48)
117. अर्थात् जिस तरह पहले नबी अपने-अपने दौर के समुदायों के लिए इबादत का तरीक़ा लाए थे, उसी तरह इस दौर के समुदाय के लिए तुम इबादत का एक तरीक़ा लाए हो। अब किसी को तुमसे झगड़ने का अधिकार प्राप्त नहीं है, क्योंकि इस दौर के लिए इबादत का सही तरीक़ा यही है। सूरा-45 (जासिया) में इस विषय को यूं बयान फ़रमाया गया है- “फिर (बनी इसराईल के नबियों के बाद) ऐ मुहम्मद ! हमने तुमको दीन के मामले में एक शरीअत (तरीक़े) पर कायम किया, अतः तुम उसकी पैरवी करो और उन लोगों की ख़ाहिशों की पैरवी न करो जो ज्ञान नहीं रखते (आयत 18)। (विस्तृत व्याख्या के लिए देखिए सूरा-26 अश-शुअरा, टिप्पणी 20)
وَيَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَمۡ يُنَزِّلۡ بِهِۦ سُلۡطَٰنٗا وَمَا لَيۡسَ لَهُم بِهِۦ عِلۡمٞۗ وَمَا لِلظَّٰلِمِينَ مِن نَّصِيرٖ 70
(71) ये लोग अल्लाह को छोड़कर उनकी इबादत कर रहे है जिनके लिए न तो उसने कोई प्रमाण उतारा है और न ये स्वयं उनके बारे में कोई ज्ञान रखते हैं।120 इन ज़ालिमों के लिए कोई सहायक नहीं है।121
120. अर्थात् न तो अल्लाह की किसी किताब में यह कहा गया है कि हमने अमुक-अमुक को अपने साथ ईश्वरत्व में साझी बना लिया है इसलिए हमारे साथ तुम उनकी भी इबादत किया करो और न उनको किसी ज्ञानात्मक साधन से यह मालूम हुआ है कि ये लोग सच में ईश्वरत्व में भागीदार हैं और इस आधार पर उनको इबादत का हक पहुंचता है। अब ये जो तरह-तरह के उपास्य गढ़े गए हैं और उनके गुणों और अधिकारों के बारे में तरह-तरह के अकीदे गढ़ लिए गए हैं और उनके आस्तानों पर माथे टेके जा रहे हैं, दुआएं मांगी जा रही हैं, चढ़ावे चढ़ रहे हैं, नियाजें दी जा रही हैं, तवाफ़ किए जा रहे हैं और एतिकाफ़ हो रहे हैं, ये सब अज्ञानतापूर्ण विचारों के पालन के सिवा आख़िर और क्या है।
121. अर्थात् ये मूर्ख लोग समझ रहे हैं कि ये उपास्य दुनिया और आख़िरत में उनके सहायक हैं, हालांकि वास्तव में उनका कोई भी सहायक नही है। न ये उपास्य, क्योंकि इनके पास सहायता की कोई शक्ति नहीं और न अल्लाह, क्योंकि उससे ये विद्रोह अपना चुके हैं। इसलिए अपनी इस मूर्खता से ये आप अपने ही ऊपर अत्याचार कर रहे है।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا بَيِّنَٰتٖ تَعۡرِفُ فِي وُجُوهِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلۡمُنكَرَۖ يَكَادُونَ يَسۡطُونَ بِٱلَّذِينَ يَتۡلُونَ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِنَاۗ قُلۡ أَفَأُنَبِّئُكُم بِشَرّٖ مِّن ذَٰلِكُمُۚ ٱلنَّارُ وَعَدَهَا ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ 71
(72) और जब उनको हमारी साफ़-साफ़ आयतें सुनाई जाती हैं तो तुम देखते हो कि सत्य के इंकारियों के चेहरे बिगड़ने लगते हैं और ऐसा महसूस होता है कि अभी वे उन लोगों पर टूट पड़ेंगे जो उन्हें हमारी आयते सुनाते हैं। उनसे कहो, “मैं बताऊँ तुम्हें कि इससे बुरी क्या चीज़ है?122 आग, अल्लाह ने उसी का वादा उन लोगों के प्रति कर रखा है जो सत्य को स्वीकार करने से इंकार करें, और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है।"
122. अर्थात् ईश्वरीय वाणी की आयतें सुनकर जो गुस्से की जलन तुमको होती है, उससे ज्यादा तेज़ चीज़ या यह कि इन आयतों को सुनानेवालों के साथ जो अधिक से अधिक बुराई तुम कर सकते हो, उससे ज़्यादा बुरी चीज़ जिससे तुम्हें वास्ता पड़नेवाला है।
يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡۚ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ 75
(76) जो कुछ लोगों के सामने है उसे भी वह जानता है, और जो कुछ उनसे ओझल है, उसे भी वह जानता है।125 और सारे मामले उसी की ओर पलटते हैं।126
125. यह वाक्य क़ुरआन मजीद में सामान्य रूप से सिफ़ारिश के मुसिकाना अक़ीदे को रद्द करने के लिए आया करता है। इसलिए उस जगह पर पिछले वाक्य के बाद उसे दर्शाद फ़रमाने का अर्थ यह हुआ कि फ़रिश्ते और नबियों और सदाचारियों को अपने आप जरूरत पूरी करनेवाला और मुश्किल दूर करनेवाला समझकर न सही, अल्लाह के यहाँ सिफारिशी समझकर भी अगर तुम पूजते हो तो यह गलत है, क्योंकि सब कुछ देखने और सुननेवाला सिर्फ़ अल्लाह है, हर आदमी के प्रत्यक्ष और परोक्ष हालात वही जानता है, संसार के खुले और छिपे हितों से भी वही परिचित है, रिश्ते और नबियों सहित किसी सृष्टि को भी ठीक मालूम नहीं है कि किस वक्त क्या करना उचित है और क्या उचित नहीं है। इसलिए अल्लाह ने अपनी निकटतम सृष्टि को भी यह हक नहीं दिया है कि वह उसकी इजाजत के बगैर जो सिफारिश चाहें कर बैठें और उनकी सिफ़ारिश क़बूल हो जाए।
126. अर्थात् काम की तबीर करना बिल्कुल उसके अधिकार में है। सृष्टि के किसी छोटे या बड़े मामले की पनाहगाह कोई दूसरा नहीं है कि उसके पास तुम अपनी दरखास्तें ले जाओ। हर मामला उसी के आगे फ़ैसले के लिए पेश होना है। इसलिए मांगने के लिए हाथ फैलाना है तो उसी के आगे हाथ फैलाओ । इन अधिकारहीन हस्तियों से क्या मांगते हो जो स्वयं अपनी भी कोई हाजत आप पूरी कर लेने की सामर्थ्य नहीं रखता।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱرۡكَعُواْ وَٱسۡجُدُواْۤ وَٱعۡبُدُواْ رَبَّكُمۡ وَٱفۡعَلُواْ ٱلۡخَيۡرَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ۩ 76
(77) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, झुको और सज्दा करो, अपने रब की बटगी करो और नेक काम करो, इसी से आशा की जा सकती है कि तुमको सफलता127 प्राप्त हो ।
127. अर्थात् सफलता की आशा की जा सकती है तो यही रवैया अपनाने से की जा सकती है। लेकिन जो आदमी भी यह रवैया अपनाए, उसे अपने अमल पर घमंड न होना चाहिए, बल्कि अल्लाह की मेहरबानी और उसकी रहमत से उम्मीद बाँधनी चाहिएँ। वह सफलता दे,तभी कोई आदमी सफलता पा सकता है।
"शायद कि तुमको सफलता प्राप्त हो।” यह वाक्य कहने का अर्थ यह नहीं है कि इस तरह सफलता के मिलने में सन्देह है,बरिन्क वास्तव में यह अपनी शाहाना वर्णन-शैली है। बादशाह अगर अपने किसी नौकर से यह कहे कि अमुक काम करो, शायद कि तुम्हें अमुक पद मिल जाए, तो नौकर के घर शादियाने बज जाते हैं, क्योंकि यह सकितिक रूप एक वादा है और एक मेहरबान स्वामी से यह आशा नहीं की जा सकती कि किसी सेवा पर एक बदले की उम्मीद वह स्वयं दिलाए और फिर अपने वफादार सेवक को निराश करे। इमाम शाफई (रह०) और इमाम अहमद (रह०) आदि के नज़दीक सूरा हज की यह आयत भी सज्दा की आयत है। मगर इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) और इमाम मालिक (रह०) आदि इस जगह तिलावत के सन्दे के क़ायल नहीं है।
وَجَٰهِدُواْ فِي ٱللَّهِ حَقَّ جِهَادِهِۦۚ هُوَ ٱجۡتَبَىٰكُمۡ وَمَا جَعَلَ عَلَيۡكُمۡ فِي ٱلدِّينِ مِنۡ حَرَجٖۚ مِّلَّةَ أَبِيكُمۡ إِبۡرَٰهِيمَۚ هُوَ سَمَّىٰكُمُ ٱلۡمُسۡلِمِينَ مِن قَبۡلُ وَفِي هَٰذَا لِيَكُونَ ٱلرَّسُولُ شَهِيدًا عَلَيۡكُمۡ وَتَكُونُواْ شُهَدَآءَ عَلَى ٱلنَّاسِۚ فَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ وَٱعۡتَصِمُواْ بِٱللَّهِ هُوَ مَوۡلَىٰكُمۡۖ فَنِعۡمَ ٱلۡمَوۡلَىٰ وَنِعۡمَ ٱلنَّصِيرُ 77
(78) अल्लाह की राह में जिहाद करो, जैसा कि जिहाद करने का हक है।128 उसने तुम्हें अपने काम के लिए चुन लिया है।129 और दीन में तुमपर कोई तंगी नहीं130 रखी। कायम हो जाओ अपने बाप इब्राहीम के पंथ पर।131 अल्लाह ने पहले भी तुम्हारा नाम 'मुस्लिम' (आज्ञाकारी) रखा था और इस (क़ुरआन) में भी (तुम्हारा यही नाम है)132, ताकि रसूल तुमपर गवाह हो और तुम लोगों पर गवाह।133 अत: नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो और अल्लाह से जुड़ जाओ।134 वह है तुम्हारा स्वामी, बहुत ही अच्छा है वह स्वामी और बहुत ही अच्छा है वह मददगार !
128. जिहाद से तात्पर्य मात्र किताल (युद्ध नहीं है, बल्कि यह शब्द जिद्दोजुहद और संघर्ष और अथक प्रयास के अर्थ में इस्तेमाल होता है। फिर जिहाद और मुजाहिद में यह मतलब भी शामिल है कि रुकावट डालनेवाली कुछ ताकतें हैं जिनके मुकाबले में यह जिद्दोजुहद होनी चाहिए। और इसके साथ 'फिल्लाह' (अल्लाह की राह में) की कैद यह तय कर देती है कि रुकावटें डालनेवाली शक्तियाँ वे हैं जो अल्लाह की बन्दगी और उसकी रजा चाहने में और उसकी राह पर चलने में रुकावट हैं और जिद्दोजुहद का लक्ष्य यह है कि जिनकी रुकावटों को परास्त करके आदमी खुद भी अल्लाह की ठीक ठीक बन्दगी को और दुनिया में भी उसका कलिमा बुलन्द और अनास्था के कलिमे पस्त कर देने के लिए जान लड़ा दे। इस संघर्ष और यत्न का पहला निशाना आदमी की अन्तरात्मा की वह प्रकृति है जो आदमियों को बुराई पर उभारती है। जब तक उसको क़ाबू में न कर लिया जाए बाहर किसी कोशिश और प्रयल की संभावना नहीं है, इसी लिए नबी (सल्ल०) ने नफ़्स (के इस जिहाद को बड़ा जिहाद फ़रमाया है। इसके बाद जिहाद का लंबा-चौड़ा मैदान पूरी दुनिया है जिसमें काम करनेवाले तमाम विद्रोही, विद्रोह बढ़ानेवाली और विद्रोह पैदा करनेवाली ताक़तों के विरुद्ध दिल और दिमाग और जिस्म और माल की सारी ताक़तों के साथ कोशिश और प्रयास करना जिहाद का वह हक़ है जिसे अदा करने की यहाँ माँग की जा रही है।
129. अर्थात् तमाम मानव-जाति में से तुम लोग उसकी सेवा के लिए चुन लिए गए हो जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है। इस विषय को कुरआन मजीद में विभिन्न जगह पर विभिन्न तरीकों से बयान गया है।
133. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 (अल-बक़रा), टिप्पणी 144 ।
134. या दूसरे शब्दों में अल्लाह का दामन मज़बूती के साथ थाम लो। मार्गदर्शन और जिंदगी के क़ानून भी उसी से लो, आज्ञापालन भी उसी का करो, डर भी उसी का रखो, उम्मीदें भी उसी से बाँधो, मदद के लिए भी उसी के आगे हाथ फैलाओ और अपने भरोसा और विश्वास का सहारा भी उसी की ज़ात को बनाओ।