23. अल-मोमिनून
(मक्का में उतरी-आयतें 118)
परिचय
नाम
पहली ही आयत “क़द अफ़-ल-हल मोमिनून (निश्चय ही सफलता पाई है ईमान लानेवालों ने)" से लिया गया है।
उतरने का समय
वर्णनशैली और विषय, दोनों से यही मालूम होता है कि इस सूरा के उतरने का समय मक्का का मध्यकाल है। आयत 75-76 से स्पष्ट रूप से यह गवाही मिलती है कि यह मक्का के उस भीषण अकाल के समय में उतरी है जो विश्वस्त रिवायतों के अनुसार इसी मध्यकाल में पड़ा था।
विषय और वार्ताएँ
रसूल (सल्ल०) की पैरवी की दावत इस सूरा का केंद्रीय विषय है और पूरा भाषण इसी केंद्र के चारों ओर घूमता है। बात का आरंभ इस तरह होता है कि जिन लोगों ने इस पैग़म्बर की बात मान ली है, उनके भीतर ये और ये गुण पैदा हो रहे हैं और निश्चय ही ऐसे ही लोग दुनिया और आख़िरत की सफलता के अधिकारी हैं। इसके बाद इंसान की पैदाइश, आसमान और ज़मीन की पैदाइश, पेड़-पौधों और जानवरों की पैदाइश और सृष्टि की दूसरी निशानियों से तौहीद और आख़िरत के सत्य होने के प्रमाण जुटाए गए हैं, फिर नबियों (अलैहि०) और उनकी उम्मतों (समुदायों) के क़िस्से |बयान करके] कुछ बातें श्रोताओं को समझाई गई हैं-
एक यह कि आज तुम लोग मुहम्मद (सल्ल०) की दावत पर जो सन्देह और आपत्तियाँ कर रहे हो वे कुछ नई नहीं हैं, पहले भी जो नबी दुनिया में आए थे, उन सबपर उनके समय के अज्ञानियों ने यही आपत्तियाँ की थीं। अब देख लो कि इतिहास का पाठ क्या बता रहा है, आपत्ति करनेवाले सत्य पर थे या नबी?
दूसरे यह कि तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत के बारे में जो शिक्षा मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे हैं, यही शिक्षा हर युग के नबियों ने दी है।
तीसरे यह कि जिन क़ौमों ने नबियों की बात सुनकर न दो, वे अन्तत: नष्ट होकर रहीं।
चौथे यह कि अल्लाह की ओर से हर समय में एक ही दीन आता रहा है और सारे नबी एक ही उम्मत (समुदाय) के लोग थे, उस अकेले धर्म के सिवा, जो अलग-अलग धर्म तुम लोग दुनिया में देख रहे हो, ये सब लोगों के गढ़े हुए हैं।
इन क़िस्सों के बाद लोगों को यह बताया गया है कि वास्तविक चीज़ जिसपर अल्लाह के यहाँ प्रिय या अप्रिय होना आश्रित है, वह आदमी का ईमान और उसकी ख़ुदातर्सी और सत्यवादिता है। ये बातें इसलिए कही गई हैं कि नबी (सल्ल०) की दावत के मुक़ाबले में उस समय जो रुकावटें पैदा की जा रही थी, उसके ध्वजावाहक सब के सब मक्का के बुजुर्ग और बड़े-बड़े सरदार थे। वे अपनी जगह स्वयं भी यह घमंड रखते थे और उनके प्रभावाधीन लोग भी इस भ्रम में पड़े हुए थे कि नेमतों की बारिश जिन लोगों पर हो रही है, उनपर ज़रूर अल्लाह और देवताओं की कृपा है। रहे ये टूटे-मारे लोग जो मुहम्मद के साथ हैं, इनकी तो हालत स्वयं ही यह बता रही है कि अल्लाह इनके साथ नहीं है और देवताओं की तो मार ही इनपर पड़ी हुई है। इसके बाद मक्कावालों को अलग-अलग पहलुओं से नबी (सल्ल०) की नुबूवत पर सन्तुष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। फिर उनको बताया गया है कि यह अकाल जो तुमपर आ पड़ा है, यह एक चेतावनी है, बेहतर है कि इसको देखकर संभलो और सीधे रास्ते पर आ जाओ। फिर उनको नए सिरे से उन निशानियों की ओर ध्यान दिलाया गया है जो सृष्टि और स्वयं उनके अपने अस्तित्त्व में मौजूद हैं। और अल्लाह की तौहीद और मरने के बाद की ज़िन्दगी की खुली हुई गवाही दे रही हैं। फिर नबी (सल्ल०) को हिदायत की गई है कि चाहे ये लोग तुम्हारे मुक़ाबले में कैसा ही रवैया अपनाएँ, तुम भले तरीक़ों ही से बचाव करना । शैतान कभी तुमको जोश में लाकर बुराई का जवाब बुराई से देने पर तैयार न करने पाए।
वार्ता के अन्त में सत्य के विरोधियों को आख़िरत की पूछ-ताछ से डराया गया है और उन्हें सचेत किया गया है कि जो कुछ तुम सत्य की दावत और उसकी पैरवी करनेवालों के साथ कर रहे हो, उसका कड़ा हिसाब तुमसे लिया जाएगा।
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ٱلَّذِينَ هُمۡ فِي صَلَاتِهِمۡ خَٰشِعُونَ 1
(2) जो अपनी2 नमाज़ में ख़ुशूअ3 अपनाते है,
2. यहाँ से आयत 9 तक ईमान लानेवालों की जो विशेषताएँ बयान की गई हैं वे मानो प्रमाण हैं इस दावे के कि उन्होंने ईमान लाकर वास्तव में सफलता पाई है। दूसरे शब्दों में मानो यूँ कहा जा रहा है कि ऐसे लोग आख़िर क्यों न सफल हों जिनके ये और ये गुण हैं।
3. 'ख़ुशूअ' का वास्तविक अर्थ है किसी के आगे झुक जाना, दब जाना, विनम्रता और नर्मो दिखाना। इस स्थिति का ताल्लुक़ दिल से भी है और शरीर की प्रत्यक्ष दशा से भी । दिल का खुशूअ यह है कि आदमी किसी के रौब और महानता और प्रताप से अभिभूत हो जाएं और शरीर का खुशूअ यह है कि जब वह उसके सामने जाए तो सर झुक जाएं, अंग ढीले पड़ जाए, निगाह पस्त हो जाएँ, आवाज़ रब जाए और भयभीत होने के लक्षण उसपर उभर आएँ। नमाज़ में ख़ुशूअ से तात्पर्य मन और शरीर को यही दशा है और यही नमाज़ की मूल आत्मा है।
وَٱلَّذِينَ هُمۡ لِلزَّكَوٰةِ فَٰعِلُونَ 3
(4) ज़कात के तरीक़े पर चलते हैं5,
5. 'ज़कात देने' और 'जकात के तरीके का पाबन्द होने में अर्थ की दृष्टि से बड़ा अन्तर है। अरबी भाषा में ज़कात शब्द का अर्थ दो अर्थों में प्रयुक्त होता है - एक पवित्रता', दूसरे 'विकास और उन्नति' । किसी चीज़ की उन्नति में जो चीजे रोक बनती हो उनको दूर करना और उसके मूल तत्व को विकसित करना। ये दोनों विचार मिलकर जकात की पूरी अवधारणा बनाते हैं। फिर यह शब्द जब इस्लामी परिभाषा में ढलता है तो उसके दो अर्थ होते हैं- एक वह माल जो शुद्धि-ध्येय से निकाला जाए, दूसरा स्वयं शुद्धिकरण का काम। अगर 'यूतू-नज़-जका त' कहें तो इसका अर्थ यह होगा कि वे शुद्धि के ध्येय से अपने माल का एक हिस्सा देते या अदा करते हैं। इस तरह बात केवल माल देने तक सीमित हो जाती है। लेकिन अगर लिज़्ज़काति फ़ाअिलून' कहा जाए तो इसका अर्थ यह होगा कि वह शुद्धीकरण का कार्य करते हैं और इस रूप में बात केवल आर्थिक जकात अदा करने तक सीमित न होगी, बल्कि मन की शुद्धि करना, चरित्र को शुद्ध करना, जिंदगी को शुद्ध करना, माल को शुद्ध करना, तात्पर्य यह है कि हर पहलू के शुद्धीकरण तक व्यापक हो जाएगी और इससे अधिक यह कि इसका अर्थ सिर्फ अपनी ही जिंदगी की शुद्धीकरण तक सीमित न रहेगा, बल्कि अपने आस-पास की जिंदगी की शुद्धी तक भी फैल जाएगा। इसलिए दूसरे शब्दों में इस आयत का अनुवाद यूं होगा कि "वे शुद्धिकरण करनेवाले लोग हैं।" अर्थात् अपने आप को भी पाक करते हैं और दूसरों को पाक करने की सेवा भी करते हैं।
فَمَنِ ٱبۡتَغَىٰ وَرَآءَ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡعَادُونَ 6
(7) अलबत्ता जो उसके अलावा कुछ और चाहें, वही ज़्यादती करनेवाले हैं,7
7. संदर्भ से हटकर एक बात कही गई है जो उस भ्रम को दूर करने के लिए है जो “शर्मगाहों (गुप्तांगों) की रक्षा" के शब्द से पैदा होता है। दुनिया में पहले भी यह समझा जाता रहा है और आज भी बहुत-से लोग इस भ्रम में पड़े हुए हैं कि काम-शक्ति अपने आपमें एक बुरी चीज़ है और उसके तक़ाज़े पूरे करना, चाहे जायज़ तरीक़े ही से क्यों न हो बहरहाल नेक और अल्लाहवाले लोगों के लिए उचित नहीं हैं। इस भ्रम को बल मिलता अगर सिर्फ इतना ही कहकर बात समाप्त कर दी जाती कि सफलता प्राप्त ईमानवाले अपनी शर्मगाहों को बचाए रखते हैं क्योंकि इसका अर्थ यह लिया जा सकता था कि वे [शादी-ब्याह से भी बचे रहते हैं] इसलिए संदर्भ से हटकर एक वाक्य बढ़ाकर वास्तविकता साफ़ कर दी गई कि जायज़ जगह पर अपने मनों की कामना पूरी करना निन्दनीय चीज़ नहीं है, अलबत्ता गुनाह यह है कि आदमी वासना-तृप्ति करने के लिए इस प्रचलित और वैध तरीक़े से आगे बढ़ जाए-
बीच में आए इस वाक्य से कुछ आदेश निकलते हैं जिनको हम संक्षेप में यहाँ बयान करते हैं-
1. शर्मगाहों की सुरक्षा के सामान्य आदेश से दो प्रकार की औरतों को अलग रखा गया है- एक अज़्वाज (पत्निया), दूसरे ‘मा म-ल-कत ऐमानुहुम' (अर्थात वे औरतें जो उनकी मिल्कियत में है)। अरबी भाषा के मुहावरे और क़ुरआन के प्रयोग दोनों इसपर गवाह हैं कि 'अज़्वाज' उस पत्नी को कहते हैं जिसके साथ विधिवत विवाह किया गया है और माँ म-ल-क्त ऐमानुहुम'] लौंडी के लिए बोला जाता है, अर्थात् वह औरत जो आदमी के मिल्कयत में हो। इस तरह यह आयत स्पष्ट बता देती है कि अपनी विवाहित पत्नी की तरह मिल्कयत वाली लौंडी से भी यौन सम्बन्ध वैध है और इसकी वैधता का आधार 'निकाह' नहीं, बल्कि 'मिल्कियत' है। अगर इसके लिए भी निकाह शर्त होता तो इसे 'अज़्वाज' से अलग बयान करने की कोई ज़रूरत न थी, क्योंकि विवाह द्वारा प्राप्त होने की सूरत में वह भी ‘अज़्वाज' में दाखिल होती । (इस मसले को अधिक सविस्तार से जानने के लिए देखिए सूरा-4 अन-निसा, टिप्पणी 44)
2. 'इल्ला अला अज़्वाजिहिम औ मा म-ल-कत ऐमानुहुम' में 'अला' शब्द इस बात को स्पष्ट कर देता है कि संदर्भ से हटकर आए इस वाक्य में जो क़ानून बयान किया जा रहा है, इसका ताल्लुक़ सिर्फ़ मर्दो से है। बाक़ी तमाम आयतें 'कद अफ ल-हल मोमिनून' से लेकर 'खालिदून' तक का सर्वनाम पुल्लिंग के बावजूद मर्द व औरत दोनों इसमें शामिल हैं, क्योंकि अरबी भाषा में औरतों और मर्दो के योग का जब उल्लेख किया जाता है तो सर्वनाम पुल्लिंग ही इस्तेमाल किया जाता है । लेकिन यहाँ 'लिफरूजिहिम हाफ़िजून' के आदेश से अलग करते हुए अला का शब्द प्रयुक्त करके यह बात स्पष्ट कर दी गई कि यह छूट मुर्दों के लिए है, न कि औरतों के लिए। अगर "उनपर कहने" के बजाय “इनसे सुरक्षित न रखने में वे निन्दनीय नहीं हैं " कहा जाता तो उस समय यह आदेश भी मर्द और औरत दोनों पर लागू हो सकता था।
3. “अलबत्ता जो उसके अलावा कुछ और चाहें, वही ज़्यादती करनेवाले हैं” इस वाक्य ने उपरोक्त दो वैध शक्लों के सिवा काम-तृप्ति करने की तमाम दूसरी शक्लों को हराम कर दिया, चाहे वह ज़िना (व्यभिचार) हो या लूत जातिवाला कुकर्म (अर्थात् पुरुषों का समलैंगिक संबंध द्वारा कामतृप्ति) या जानवरों से बदकारी या कुछ और।
ثُمَّ خَلَقۡنَا ٱلنُّطۡفَةَ عَلَقَةٗ فَخَلَقۡنَا ٱلۡعَلَقَةَ مُضۡغَةٗ فَخَلَقۡنَا ٱلۡمُضۡغَةَ عِظَٰمٗا فَكَسَوۡنَا ٱلۡعِظَٰمَ لَحۡمٗا ثُمَّ أَنشَأۡنَٰهُ خَلۡقًا ءَاخَرَۚ فَتَبَارَكَ ٱللَّهُ أَحۡسَنُ ٱلۡخَٰلِقِينَ 13
(14) फिर उस बूँद को लोथड़े का रूप दिया, फिर लोथड़े को बोटी बना दिया, फिर बोटी की हड्डियाँ बनाईं, फिर हड्डियों पर मांस चढ़ाया12, फिर उसे एक दूसरा ही जीव बना खड़ा किया।13 अत: बड़ा ही बरकतवाला है14 अल्लाह, सब कारीगरों से अच्छा कारीगर,
12. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-22 (हज) की टिप्पणी 5,69।
13. अर्थात् यद्यपि यही सब कुछ जानवरों की संरचना में भी होता है, मगर अल्लाह ने इस संरचना प्रक्रिया से इंसान को एक और प्रकार का प्राणी बना खड़ा किया जो जानवरों से बिल्कुल भिन्न है। कोई भी व्यक्ति बच्चे को माँ के गर्भाशय में पलता बढ़ता देखकर यह सोच भी नहीं सकता कि यहाँ वह इंसान तैयार हो रहा है जो बाहर जाकर बुद्धि, विवेक और कला के ये कुछ कमाल दिखाएगा और ऐसी-ऐसी अद्भुत शक्तियाँ और क्षमताएँ इससे प्रकट होंगी। वहाँ वह हड्डियों और गोश्त-पोस्त का एक पुलिंदा-सा होता है, जिसमें प्रसव के आंरभ तक जीवन की आरंभिक विशेषताओं के सिवा कुछ नहीं होता, मगर बाहर आकर वह चीज़ ही कुछ और बन जाता है जिसका पेटवाले गर्भस्थ बच्चे से कोई मेल नहीं होता। फिर वह ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, उसकी ज़ात में 'यह कोई और ही चीज़' होने की दशा अधिक स्पष्ट होती और बढ़ती चली जाती है
وَلَقَدۡ خَلَقۡنَا فَوۡقَكُمۡ سَبۡعَ طَرَآئِقَ وَمَا كُنَّا عَنِ ٱلۡخَلۡقِ غَٰفِلِينَ 16
(17) और तुम्हारे ऊपर हमने सात रास्ते बनाए15, सृष्टि-कार्य से हम कुछ अनजान न थे16
15. मूल अरबी में शब्द 'तराहक प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ राप्ती के भी हैं और वर्गी के भी। अगर पहला अर्थ लिया जाए, तो शायद इससे तात्पर्य सात ग्रहों के पूमने के रास्ते हैं, और चूंकि उस समय का इंसान सात ग्रहों ही से परिचित था, इसलिए सात गानों का ही उल्लेख किया गया। इसका अर्थ यह नहीं है, कि इनके अलावा और दूसो ने नहीं हैं। और अगर दूसरा अर्थ लिया जाए, तो 'सब-अ-तराइक' का वही अर्थ होगा जो सब असमानातिन तिवाका (सात आसमान भारतले, 678) का अर्थ है, और यह जो फ़रमाया कि 'तुम्हारे पर हमने सात रास्ते बनाए, तो इसका एक तो सीधा साधा अर्थ वही है जो प्रत्यक्ष शब्दों से मन में आता है और दूसरा अर्थ यह है कि तुमसे भी अधिक बड़ी चीज हमने ये आसमान बनाए हैं, जैसा कि पूरा- 40 अल-मोमिनून आयत 57) [में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है।]
16. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है- "और प्राणियों की और से हम बेखबर न थे या नहीं हैं। पहले अनुवाद की दृष्टि से आयत का अर्थ यह है कि यह सब कुछ जो हमने बनाया है, यह बस यूँ ही किसी अनाड़ी के हाथों अललदप नहीं बन गया है, बल्कि इसे एक सोची-समझी योजना और पूरे ज्ञान के साथ बनाया गया है, महत्वपूर्ण नियम इसमें कार्यरत हैं, छोटी से लेकर बड़ी तक, सष्टि की सम्पूर्ण व्यवस्था में एक पूरा ताल-मेल पाया जाता है और इस महान जगत में हर ओर एक उद्देश्य नजर आता है जो बनानेवाले की तत्वदर्शिता है। दूसरे अनुवाद की दृष्टि से अर्थ यह होगा कि इस सृष्टि में जितनी भी वस्तुएँ हमने पैदा की है उसकी किसी जपत से हम कभी गाफिल और किसी हालत से कभी बेखबर नहीं रहे हैं, किसी चीज़ को हमने अपनी विरुद्ध बनने और चलने नहीं दिया है। किसी चीज़ की प्राकृतिक आवश्यकताएं उपलब्ध करने में हमने कोताही नहीं की है और एक एक कण और पते की हालत से हम बा-ख़बर रहे हैं।
وَأَنزَلۡنَا مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءَۢ بِقَدَرٖ فَأَسۡكَنَّٰهُ فِي ٱلۡأَرۡضِۖ وَإِنَّا عَلَىٰ ذَهَابِۭ بِهِۦ لَقَٰدِرُونَ 17
(18) और आसमान से जो हमने ठीक हिसाब के अनुसार एक विशेष मात्रा में पानी उतारा और उसको ज़मीन में ठहरा दिया 17, हम उसे जिस तरह चाहें ग़ायब कर सकते हैं।18
17. इससे तात्पर्य यद्यपि मौसमी वर्षा भी हो सकती है लेकिन आयत के शब्दों पर विचार करने से एक दूसरा अर्थ भी समझ में आता है और वह यह है कि सृष्टि के आरंभ ही में अल्लाह ने एक ही समय में इतनी मात्रा में पृथ्वी पर पानी उतार दिया था जो क़ियामत तक इस पृथ्वी की ज़रूरतों के लिए उसके ज्ञान में पर्याप्त था। वह पानी ज़मीन ही के निचले हिस्सों में ठहर गया, जिससे समुद्र और नदियाँ अस्तित्व में आई और ज़मीन के नीचे जल (Sub-Soil Water) पैदा हुआ। अब यह उसी पानी का उलट-फेर है जो गर्मी, सर्दी और हवाओं के द्वारा होता रहता है। इसी को वर्षाएँ, बर्फ़ से ढके पहाड़, नदी, चश्मे और कुएँ धरती के विभिन्न भागों में फैलाते रहते हैं और वही अनगिनत चीज़ों की पैदाइश और संरचना में शामिल होता और फिर हवा में धुलकर असल भंडार को ओर वापस जाता रहता है। शुरू से आज तक पानी के इस भंडार में न एक बूँद को कमी हुई और न एक बूँद की वृद्धि ही करने की कोई ज़रूरत पेश आई।
18. अर्थात् इसे ग़ायब कर देने की कोई एक ही शक्ल नहीं है, अनगिनत शक्लें सम्भव हैं और इनमें से जिसको हम जब चाहें अपना करके तुम्हें जिंदगी के इस सबसे महत्त्वपूर्ण साधन से वंचित कर सकते हैं।
فَأَنشَأۡنَا لَكُم بِهِۦ جَنَّٰتٖ مِّن نَّخِيلٖ وَأَعۡنَٰبٖ لَّكُمۡ فِيهَا فَوَٰكِهُ كَثِيرَةٞ وَمِنۡهَا تَأۡكُلُونَ 18
(19) फिर उस पानी के द्वारा हमने तुम्हारे लिए खजूर और अँगूर के बाग़ पैदा कर दिए, तुम्हारे लिए इन बागों में बहुत-से स्वादिष्ट फल है19 और उनसे तुम रोज़ी प्राप्त करते हो।20
19. अर्थात् खजूरों और अंगूरों के अलावा भी नाना प्रकार के मेवे और फल ।
20. अर्थात् इन बागों की पैदावार से जो फल, ग़ल्ले,लकड़ी और दूसरी चीजें विभिन्न रूपों में प्राप्त होती हैं, तुम अपनी रोज़ी पैदा करते हो । 'मिन्हा ताकुलून' में मिन्हा का सर्वनाम जन्नतों की ओर फिरता है, न कि फलों की ओर। और ताकुलून' का अर्थ सिर्फ यही नहीं है कि इन बागों के तुम फल खाते हो, बल्कि कुल मिलाकर रोजी प्राप्त करने का अर्थ लिए हुए है।
وَشَجَرَةٗ تَخۡرُجُ مِن طُورِ سَيۡنَآءَ تَنۢبُتُ بِٱلدُّهۡنِ وَصِبۡغٖ لِّلۡأٓكِلِينَ 19
(20) और वह पेड़ भी हमने पैदा किया जो तूरे सीना से निकलता है,21 तेल भी लिए हुए उगता है और खानेवालों के लिए सालन भी।
21. तात्पर्य है जैतून, जो रूम सागर के आस-पास के क्षेत्रों को पैदावार में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वस्तु है । तूर सौना से इसके जोड़ने का कारण शायद यह है कि वही क्षेत्र जिसका प्रसिद्धतम और स्पष्ट स्थान तूरे सोना है.इस पेड़ का असली वतन है।
22. अर्थात् दूध, जिसके बारे में कुरआन में दूसरी जगह फ़रमाया गया है कि खून और गोबर के बीच में यह एक तीसरी चीज़ है जो जानवर के भोजन से पैदा कर दी जाती है । (सूरा- 16 अन-नहल, आयत 66)
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا نُوحًا إِلَىٰ قَوۡمِهِۦ فَقَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥٓۚ أَفَلَا تَتَّقُونَ 22
(23) हमने नूह को उसकी क़ौम की ओर भेजा।24 उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो ! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारे लिए कोई उपास्य नहीं है, क्या तुम डरते नहीं हो?"25
24. तुलना के लिए देखिए सूरा-7 (अल-आराफ), आयत 59-64, सूरा-10 (यूनुस), आयत 71-73, सूरा-11 (हूद), आयत 25-48, सूरा-17 (बनी इसराईल), आयत 3, सूरा-21 (अल-अंबिया), आयत 76-77।
25. अर्थात् क्या तुम इस बात से बिल्कुल निडर हो कि जो तुम्हारा और सारी दुनिया का स्वामी और शासक है उसके राज्य में रहकर उसके बजाय दूसरों को बन्दगी और आज्ञापालन करने और दूसरों को अल्लाह और रब मान लेने के क्या नतीजे निकलेंगे?
فَقَالَ ٱلۡمَلَؤُاْ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ مَا هَٰذَآ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ يُرِيدُ أَن يَتَفَضَّلَ عَلَيۡكُمۡ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَأَنزَلَ مَلَٰٓئِكَةٗ مَّا سَمِعۡنَا بِهَٰذَا فِيٓ ءَابَآئِنَا ٱلۡأَوَّلِينَ 23
(24) उसकी क़ौम के जिन सरदारों ने मानने से इंकार किया, वे कहने लगे कि “यह आदमी कुछ नहीं है, मगर एक बशर (इंसान) तुम ही जैसा26 । इसका उद्देश्य यह है कि तुमपर श्रेष्ठता प्राप्त करे।27 अल्लाह को अगर भेजना होता तो फ़रिश्ते भेजता 27अ । यह बात तो हमने कभी अपने आप-दादों के समय में सुनी ही नहीं (कि बशर रसूल बनकर आए) ।
26. यह विचार तमाम पथभ्रष्ट लोगों की संयुक्त पथभ्रष्टाओं में से एक है कि बशर (मनुष्य) नबी नहीं हो सकता, और नबी बशर नहीं हो सकता। इसलिए कुरआन ने बार-बार इस अज्ञानतापूर्ण विचार का उल्लेख करके उसका खंडन किया है और इस बात को पूरे ज़ोर के साथ बयान किया है कि तमाम नबी इंसान थे और इंसानों के लिए इंसान ही नबी होना चाहिए। (विस्तार के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 63-69, सूरा-10 यूनुस, आयत 2, सूरा-11 हूद, 27-31, सूरा-12 यूसुफ़, आयत 109, सूरा-13 अर-रद आयत 38, सूरा-14 इब्राहीम आयत 10-11, सूरा-16 अन-नहल, आयत 43,सूरा-17 बनी इसराईल, आयत 94-95, सूरा-18 अल-कफ़, आयत 110, सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 3-34, सूरा-23 अल-मोमिनून, आयत 33-34,47', सूरा-25 अल-फ़ुरकान, आयत 7, 20, सूरा-26 अश-शुअरा, आयत 154,186, सूरा-36 यासीन, आयत 15, सूरा-41 हा० मीम० अस-सज्दा, आयत 6 मय टिप्पणी)
27. यह भी सत्य के विरोधियों का सबसे पुराना हथियार है कि जो आदमी भी सुधार के लिए कोशिश करने उते उसपर तुरन्त यह आरोप जड़ देते हैं कि कुछ नहीं, बस सत्ता का भूखा है। यही आरोप फ़िरऔन ने हज़रत मूसा और हारून (अलैहि०) पर लगाया था (सूरा-10 यूनुस, आयत 78)। यही हज़रत ईसा (अलैहि०) पर लगाया गया कि यह आदमी यहूदियों का बादशाह बनना चाहता है और इसी का सन्देह नबी (सल्ल०) से मुताल्लिक़ कुरैश के सरदारों को था। सही बात यह है कि जो लोग सारी उम्र दुनिया और उसके भौतिक लाभों और उसकी शान व शौकत ही के लिए अपनी जान खपाते रहते हैं, उनके लिए यह सोच पाना अत्यन्त कठिन, बल्कि असंभव होता है कि इसी दुनिया में कोई इंसान निष्ठा और निस्वार्थ भाव से मानवता की भलाई के लिए भी अपनी जान खपा सकता है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टिप्पणी 36)
فَأَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡهِ أَنِ ٱصۡنَعِ ٱلۡفُلۡكَ بِأَعۡيُنِنَا وَوَحۡيِنَا فَإِذَا جَآءَ أَمۡرُنَا وَفَارَ ٱلتَّنُّورُ فَٱسۡلُكۡ فِيهَا مِن كُلّٖ زَوۡجَيۡنِ ٱثۡنَيۡنِ وَأَهۡلَكَ إِلَّا مَن سَبَقَ عَلَيۡهِ ٱلۡقَوۡلُ مِنۡهُمۡۖ وَلَا تُخَٰطِبۡنِي فِي ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ إِنَّهُم مُّغۡرَقُونَ 26
(27) हमने उसपर वह्य की कि “हमारी निगरानी में और हमारी वह्य के अनुसार नौका तैयार कर, फिर जब हमारा आदेश आ जाए और वह तंदूर उबल पड़े 29 तो हर प्रकार के जानवरों में से एक-एक जोड़ा लेकर उसमें सवार हो जा, और अपने घरवालो को भी साथ ले, सिवाय उनके जिनके विरुद्ध पहले फैसला हो चुका है, और जालिमों के बारे में मुझसे कुछ न कहना, ये अब टूबनेवाले हैं।
29. कुछ लोगों ने तनूर से तात्पर्य ज़मीन ली है, कुछ ने ज़मीन का सबसे ऊँचा हिस्सा कहा है। कुछ कहते हैं कि 'का-रत्तन्नूर का अर्थ प्रातः का उदय होना है और कुछ की राय में यह 'हंगामा गर्म हो जाने' जैसा एक मुहावरा है, लेकिन कोई यथोचित कारण नज़र नहीं आता कि कुरआन के शब्दों को बिना किसी उचित संकेत के लाक्षणिक अर्थ में लिया जाए, जब कि प्रत्यक्ष अर्थ लेने में कोई बाधा नहीं है। इन शब्दों को पढ़कर शुरू में जो अर्थ मन में आता है वह यही कि कोई ख़ास तन्नूर पहले से चिह्नित कर दिया गया था कि तूफ़ान का आरंभ इसके नीचे से पानी उबलने पर होगा।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ وَإِن كُنَّا لَمُبۡتَلِينَ 29
(30) इस किस्से में बड़ी निशानियाँ है32, और आजमाइश दो हम कर के ही रहते हैं।33
32. अर्थात् शिक्षाप्रद बातें हैं जो ये बताती हैं कि तोहीट (एकेश्वरबाट) की दावत देनेवाले नबी इक पर थे और शिर्क पर आग्रह करनेवाले कुम्वार असत्य पर, और यह कि आज वही परिस्थिति मक्का में मैदा हो गई है जो किसी समय हज़रत नूह (अलैहि०) और उनकी क़ौम के बीच थी और इसका अंजाम भी कुछ उससे भिन्न होने वाला नहीं है और यह कि अल्लाह के फ़ैसले में चाहे देर कितनी ही लगे, मगर फ़ैसला अन्नत: होकर रहता है और वह अवश्य ही सत्याबालों के पक्ष में और असत्यबालों के विरुद्ध होता है।
33. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि ‘परिक्षा तो हमें करनी ही थी’ या ‘परीक्षा तो हमें करनी ही है।‘ तीनों अवस्थाओं में उद्देश्य उस सच्चाई पर सचेत करता है कि अल्लाह किसी क़ौम को भी अपनी ज़मीन और उनकी अनगिनत चीज़ो पर सत्ता देकर के बस यूँ ही उसके हाल पर नहीं छोड़ देता, बल्कि उसकी परीक्षा करता है और देखता रहता है कि वह अपनी सत्ता का किस तरह प्रयोग कर रही है । नूह (अलैहि०) की क़ौम के साथ जो कुछ हुआ, उसी क़ानून के अनुसार हुआ और दूसरी कोई क़ौम भी अल्लाह की ऐसी चहेती नहीं है कि वह बस उसे नेमतों पर हाथ मारने के लिए स्वतंत्र छोड़ दे। इस मामले से हर एक को अवश्य वास्ता पेश आता है।
ثُمَّ أَنشَأۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِمۡ قَرۡنًا ءَاخَرِينَ 30
(31) इनके बाद हमने एक दूसरे दौर की क़ौम उठाई।34
34. कुछ लोगों ने इससे तात्पर्य समूद (अलैहि०) की क़ौम लिया क्योंकि आगे चलकर उल्लेख हो रहा है कि यह क़ौम 'सैहा' के अज़ाब से नष्ट की गई और दूसरी जगहों पर क़ुरआन में बताया गया है कि समूद वह क़ौम है जिसपर यह अज़ाब आया (सूरा-11 हूद, आयत 67, सूरा-15 अल-हिज्ज, आयत 83, सूरा-54 अल-क़मर, आयत 31)। कुछ दूसरे लोग कहते हैं कि यह उल्लेख वास्तव में आद कौम का है, क्योंकि क़ुरआन के अनुसार नूह (अलैहि०) की क़ौम के बाद यही क़ौम उठाई गई थी। "भूल न जाओ कि तुम्हारे रब ने नूह की क़ौम के बाद तुमको उसका उत्तराधिकारी बनाया” (सूरा-7 आराफ़, आयत 69) । सही बात यही दूसरी मालूम होती है क्योंकि नूह की क़ौम के बाद का संकेत इसी ओर किया है। रहा सैहा (चीख, आवाज़, शोर, भारी हंगामा) तो सिर्फ़ अनुरूपता इस क़ौम को समूद करार देने के लिए काफ़ी नहीं है। इसलिए कि यह शब्द जिस तरह उस तेज़ आवाज़ के लिए प्रयुक्त होता है जो आम तबाही की वजह बने, उसी तरह उस शोर व हंगामा के लिए भी प्रयुक्त होता है जो आम तबाही के समय देखने को मिलता है, भले ही तबाही का कारण कुछ भी हो ।
وَقَالَ ٱلۡمَلَأُ مِن قَوۡمِهِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِلِقَآءِ ٱلۡأٓخِرَةِ وَأَتۡرَفۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا مَا هَٰذَآ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ يَأۡكُلُ مِمَّا تَأۡكُلُونَ مِنۡهُ وَيَشۡرَبُ مِمَّا تَشۡرَبُونَ 32
(33) उसकी क़ौम के जिन सरदारों ने मानने से इंकार किया और आखिरत की पेशी को झुठलाया, जिनको हमने सांसारिक जीवन में संपन्न बना रखा था,35 वे कहने लगे, "यह आदमी कुछ नहीं है मगर एक इंसान तुम्ही जैसा। जो कुछ तुम खाते हो, वही यह खाता है और जो कुछ तुम पीते हो, वही यह पीता है ।
35. ये विशेषताएँ विचार करने योग्य हैं। पैग़म्बर के विरोध में उठनेवाले असल लोग वे थे जिन्हें क़ौम की सरदारी मिली हुई थी। इन सबकी संयुक्त गुमराही यह थी कि वे आख़िरत के इंकारी थे, इसलिए अल्लाह के सामने किसी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही का उन्हें डर न था और इसी लिए वे दुनिया की इस जिंदगी पर आसक्त थे और भौतिक कल्याण और सफलता से उच्चतर किसी अन्य मूल्य को स्वीकार करनेवाले न थे, फिर इस पथ-भ्रष्टता में जिस चीज़ ने उनको बिल्कुल ही डुबो दिया था वह समृद्धि और सम्पन्नता थी जिसे वे अपने सत्य पर होने का प्रमाण समझते थे और यह मानने के लिए तैयार न थे कि वह अक़ौदा, वह नैतिक-व्यवस्था और वह जीवन-प्रणाली ग़लत भी हो सकती है जिसपर चलकर उन्हें दुनिया में ये कुछ सफलताएँ मिल रही हैं। मानव-इतिहास बार-बार इस सच्चाई को दोहराता रहा है कि सत्य संदेश का विरोध करनेवाले हमेशा इन्हीं तीन विशेषताओं के मालिक हुए हैं और यही उस समय का दृश्य भी था, जबकि नबी (सल्ल०) मक्का में सुधार की कोशिश फरमा रहे थे।
وَلَئِنۡ أَطَعۡتُم بَشَرٗا مِّثۡلَكُمۡ إِنَّكُمۡ إِذٗا لَّخَٰسِرُونَ 33
(34) अब अगर तुमने अपने ही जैसे एक इंसान की आज्ञापालन स्वीकार कर लिया तो तुम घाटे ही में रहे।36
36. कुछ लोगों ने यह ग़लत समझा है कि ये बातें वे लोग आपस में एक-दूसरे से करते थे । नहीं, यह सम्बोधन वास्तव में जनसामान्य से था। क़ौम के सरदारों को जब ख़तरा हुआ कि आम लोग पैग़म्बर के पवित्र व्यक्तित्व और दिल लगती बातों से प्रभावित हो जाएँगे और उनके प्रभावित होने के बाद हमारी सरदारी फिर किस पर चलेगी, तो उन्होंने ये भाषण करके आम लोगों को बहकाना शुरू किया, यह उसी मामले का एक दूसरा पहलू है जो ऊपर नूह (अलैहि०) की कौम के सरदारों के उल्लेख में बयान हुआ था। वे कहते थे कि यह अल्लाह की ओर से पैग़म्बरी-वैग़म्बरी कुछ नहीं है, सिर्फ सत्ता की भूख है जो इस आदमी से यह बातें करा रही हैं। ये फ़रमाते हैं कि भाइयो ! तनिक विचार तो करो कि आख़िर यह आदमी, तुमसे किस चीज़ में अलग है, वैसा ही गोश्त-पोस्त का आदमी है जैसे तुम हो । कोई अन्तर इसमें और तुममें नहीं है। कि फिर ये क्यों बड़ा बने और तुम इसके फरमान का पालन करो? इन भाषणों में यह बात मानो बिना किसी विवाद के मान्य थी कि हम जो तुम्हारे सरदार हैं, तो हमें तो होना ही चाहिए, हमारे गोश्त-पोस्त और खाने-पीने के तरीक़े की ओर देखने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता । विवाद में हमारी सरदारी नहीं है क्योंकि वह तो अपने आप कायम और मुसल्लम है, अलबत्ता विवाद यह नई सरदारी है जो अब कायम होती नज़र आ रही है। इस तरह इन लोगों की बात नूह (अलैहि०) की क़ौम के सरदारों की बात से कुछ अधिक अलग न थी जिनके नज़दीक आरोप के योग्य अगर कोई चीज़ थी तो वह 'सत्ता की भूख' थी जो किसी नये आनेवाले के अन्दर महसूस हो या जिसके होने पर सन्देह किया जा सके । रहा उनका अपना पेट, तो वे समझते थे कि सत्ता बहरहाल उसका स्वाभाविक भोजन है जिससे अगर वह बदहज़मी की हद तक भी भर जाए तो आपत्तिजनक नहीं।
إِنۡ هُوَ إِلَّا رَجُلٌ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗا وَمَا نَحۡنُ لَهُۥ بِمُؤۡمِنِينَ 37
(38) यह आदमी अल्लाह के नाम पर सिर्फ़ झूठ गढ़ रहा है। 36अ और हम कभी उसको माननेवाले नहीं हैं।”
36अ. ये शब्द स्पष्ट करते हैं कि अल्लाह की हस्ती के ये लोग भी इंकारी न थे, इनकी भी वास्तविक गुमराही शिर्क ही थी। दूसरी जगहों पर भी क़ुरआन मजीद में इस क़ौम का यही अपराध बयान किया गया है। देखिए सूरा-7 (अल-आराफ़), आयत 70, सूरा-11 (हूद), आयत-53-54, सूरा-41 (हा० मीम० अस-सज्दा), आयत 14, सूरा-46 (अल-अहकाफ़), आयत 21-22।
ثُمَّ أَرۡسَلۡنَا مُوسَىٰ وَأَخَاهُ هَٰرُونَ بِـَٔايَٰتِنَا وَسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٍ 44
(45-46) फिर हमने मूसा और उसके भाई हारून को अपनी निशानियों और 'खुली सनद'39 के साथ फ़िरऔन और उसके सरदारों की ओर भेजा, मगर उन्होंने घमंड किया और बड़ी-बड़ी शेखी बघारी।40
39. 'निशानियों' के बाद ‘खुली सनद' से तात्पर्य या तो यह है कि इन निशानियों का उनके साथ होना ही इस बात का खुला प्रमाण था कि वे अल्लाह के भेजे हुए पैग़म्बर हैं या फिर निशानियों से तात्पर्य असा (डंडे) के सिवा दूसरे वे तमाम चमत्कार हैं जो मिस्र में दिखाए गए थे और खुली सनद से तात्पर्य असा (डंडा) है, क्योंकि इसके द्वारा जो मोजज़े सामने आए उनके बाद तो यह बात बिल्कुल ही स्पष्ट हो गई थी कि ये दोनों भाई अल्लाह की ओर से नियुक्त हैं । (तफ़सील के लिए देखिए सूरा-43 अज-जुख़-रुफ़, टिप्पणी 43-44)
40. मूल में 'व कानू क़ौमन आलीन' के शब्द आए हैं जिनके दो अर्थ हो सकते हैं-एक तो यह कि वे बड़े घमंडी, ज़ालिम और दमनकारी थे। दूसरे यह कि वे बड़े ऊँचे बने और आत्मश्लाघी हुए।
فَقَالُوٓاْ أَنُؤۡمِنُ لِبَشَرَيۡنِ مِثۡلِنَا وَقَوۡمُهُمَا لَنَا عَٰبِدُونَ 46
(47) कहने लगे, "क्या हम अपने ही जैसे दो आदमियों पर ईमान ले आएँ?40अ और आदमी भी वे जिनकी क़ौम हमारी बन्दी है।‘’41
40अ. व्याख्या के लिए देखिए टिप्पणी 26।
41. मूल शब्द हैं- "जिनकी क़ौम हमारी उपासक है।" अरबी भाषा में किसी का आज्ञापालक होना और उसका उपासक होना, दोनों लगभग समान अर्थ रखते हैं। जो किसी को बन्दगी और आज्ञापालन करता है वह मानो उसकी ‘इबादत' करता है। इससे बड़ी महत्त्वपूर्ण रौशनी पड़ती है शब्द 'इबादत' के अर्थ पर और नबियों की उस दावत पर कि सिर्फ़ अल्लाह की इबादत करने और उसके सिवा हर एक की इबादत छोड़ देने की ताकीद जो वे करते थे, उसका पूरा अर्थ क्या था। इबादत उनके नज़दीक सिर्फ़ पूजा न थी। उनकी दावत यह नहीं थी कि सिर्फ़ पूजा अल्लाह की करो, बाक़ी बन्दगी और आज्ञापालन जिसका चाहो करते रहो, बल्कि वे इंसान को अल्लाह का उपासक भी बनाना चाहते थे और आज्ञापालक भी और इन दोनों अर्थों की दृष्टि से दूसरों की इबादत को ग़लत ठहराते थे। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-18 अल-कहफ़, टिप्पणी 50)
فَكَذَّبُوهُمَا فَكَانُواْ مِنَ ٱلۡمُهۡلَكِينَ 47
(48) अत: उन्होंने दोनों को झुठला दिया और तबाह होनेवालों से जा मिले।42
42. मूसा और फ़िरऔन के क़िस्से के विस्तृत विवरण के लिए देखिए सूरा-2 (अल-बक़रा), आयत 49-50, सूरा-7 (अल-आराफ़), 103-136, सूरा-10 (यूनुस),75-92, सूरा-11 (हूद), 96-99, सूरा-17 (बनी इसराईल), आयत 101-104, सूरा-20 (ता० हा०), आयत 9-80।
وَجَعَلۡنَا ٱبۡنَ مَرۡيَمَ وَأُمَّهُۥٓ ءَايَةٗ وَءَاوَيۡنَٰهُمَآ إِلَىٰ رَبۡوَةٖ ذَاتِ قَرَارٖ وَمَعِينٖ 49
(50) और इब्ने मरयम (मरयम के बेटे) और उसकी माँ को हमने एक निशानी बनाया।43 और उनको एक उच्च धरातल पर रखा जो तसल्ली की जगह थी और स्रोत उसमें जारी थे।44
43. यह नहीं फ़रमाया कि एक निशानी मरियम के बेटे थे और एक निशानी स्वयं मरियम । और यह भी नहीं फ़रमाया कि मरियम के बेटे और उनकी माँ को दो निशानियाँ बनाया, बल्कि फ़रमाया यह है कि वे दोनों मिलकर एक निशानी बनाए गए। इसका अर्थ इसके सिवा क्या हो सकता है कि बाप के बिना मरियम के बेटे का पैदा होना और मर्द से सहवास के बिना मरयम का गर्भवती होना ही वह चीज़ है जो इन दोनों को एक निशानी बनाती है। जो लोग इस बात के इंकारी है कि हज़रत ईसा बिना-बाप पैदा हुए थे वे माँ और बेटे के एक निशानी होने का क्या कारण बताएंगे? (अधिक विस्तार के लिए देखिए सूरा-3 आले इमरान, टिप्पणी 44-53, सूरा-4 अन-निसा, टिप्पणी 190, 212-213, सूरा-21 मरयम, टिप्पणी 15-22, सूरा-19 अल-अंबिया, टिप्पणी 89-90)
44. विभिन्न लोगों ने इससे तात्पर्य अलग-अलग स्थान लिए हैं। कोई दमिश्क कहता है, कोई अर-रमला, कोई बैतुल-मैक्दि़स और कोई मिस। मसीही उल्लेखों के अनुसार हज़रत मरयम हज़रत ईसा के जन्म के बाद उनकी रक्षा के लिए दो बार वतन छोड़ने पर विवश हुई। पहले हीरोदेस बादशाह के काल में वह उन्हें मिस ले गई, और उसकी मौत तक वहीं रहीं। फिर अज़-ख़लाऊस के शासन-काल में उनको गलील के शहर नासिरा में शरण लेनी पड़ी, (मती 2, 13-23)। अब यह बात विश्वास से नहीं कही जा सकती कि क़ुरआन का इशारा किस जगह की ओर है। मूल में शब्द 'रबवा' प्रयुक्त हुआ है। शब्दकोष में 'रबवा' उस उच्च स्थान को कहते हैं जो समतल हो और अपने आस-पास के क्षेत्र से ऊँची हो। अरबी आयत में "ज़ाते क़रार" शब्द प्रयुक्त हुआ है जिससे तात्पर्य यह है कि उस जगह ज़रूरत की सब चीजें पाई जाती हों और रहनेवाला वहाँ ख़ुशहाली का जीवन बसर कर सकता हो और मूल में 'मीन' शब्द प्रयुक्त हुआ है जिससे अभिप्रेत है बहता हुआ पानी या प्रवाहित स्त्रोत।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلرُّسُلُ كُلُواْ مِنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ وَٱعۡمَلُواْ صَٰلِحًاۖ إِنِّي بِمَا تَعۡمَلُونَ عَلِيمٞ 50
(51) ऐ पैग़म्बरो!45 खाओ पाक चीज़ें और कार्य करो भले46, तुम जो कुछ भी करते हो मैं उसको ख़ूब जानता हूँ।
45. पिछली आयतों (23-50) में कई नबियों का उल्लेख करने के बाद अब 'ऐ पैग़म्बरो ।' कहकर तमाम पैग़म्बरों को सम्बोधित करने से यह बताना अभिप्रेत है कि हर समय में अलग-अलग क़ौमों और अलग-अलग देशों में आनेवाले नबियों को यही आदेश दिया गया था और सब के सब काल और स्थान के भिन्न होने के बावजूद एक ही आदेश से सम्बोधित थे। बाद को आयत में चूँकि तमाम नबियों को एक मान समुदाय, एक जमाअत, एक गिरोह कहा गया है, इसलिए यहाँ वर्णन-शैली ऐसी अपनाई गई है कि निगाहों के सामने उन सबके एक गिरोह होने के चित्र खिंच जाएँ, मानो वे सारे के सारे एक जगह जमा हैं और सबको एक ही हिदायत दी जा रही है।
46. पाक चीज़ों से तात्पर्य ऐसी चीजें हैं जो अपने आप में भी पवित्र हों और फिर हलाल तरीक़े से भी प्राप्त हों। पाक-साफ़ खाने की हिदायत करके संन्यास और दुनिया-परस्ती के बीच इस्लाम के संतुलित मार्ग की ओर इशारा कर दिया गया। मुसलमान न तो राहिब (संन्यासी) की तरह अपने आपको पाक रोज़ी से वंचित करता है और न भौतिकवादियों की तरह हराम व हलाल के अंतर के बिना हर चीज़ पर मुँह मार देता है। भले कार्य से पहले पाक-साफ़ चीजें खाने की हिदायत से स्पष्ट संकेत इस ओर निकलता है कि हरामख़ोरी के साथ भले कार्य का कोई अर्थ नहीं है। भला होने के लिए पहली शर्त यह है कि आदमी हलाल रोज़ी खाए।
وَإِنَّ هَٰذِهِۦٓ أُمَّتُكُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَأَنَا۠ رَبُّكُمۡ فَٱتَّقُونِ 51
(52) और यह तुम्हारी उम्मत (समुदाय) एक ही उम्मत है और मैं तुम्हारा रब हूँ, अत: मुझी से तुम डरो।47
47. 'उम्मत' का शब्द लोगों के उस समूह के लिए प्रयुक्त होता जो संयुक्त आधार पर जमा हो । नबी चूँकि समय और स्थान की भिन्नता के बावजूद एक अक़ीदे, एक दीन और एक दावत पर जमा थे, इसलिए कहा गया कि इन सबकी एक ही उम्मत है। बाद का वाक्य स्वयं बता रहा है कि वह संयुक्त आधार क्या था जिसपर सब नबी जमा थे। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा- 2 अल-बक़रा, आयतें 130-133, 213, सूरा-3 आले इमरान, आयतें 19-20,33-34, 64,79-85 सूरा-4 अन-निसा, आयते 150-152, सूरा-7 अल-आराफ़, आयतें 59, 65,73-85, सूरा-12 यूसुफ़, आयतें 37-40, सूरा-19 मरयम, आयतें 49-59, सूरा-21 अल-अंबिया, आयतें 71-93।
فَذَرۡهُمۡ فِي غَمۡرَتِهِمۡ حَتَّىٰ حِينٍ 53
(54) अच्छा तो छोड़ो इन्हें, डूबे रहें अपनी ग़फ़लत में एक विशेष समय तक।49
49. पहले वाक्य और दूसरे वाक्य के बीच एक शून्य है जिसे भाषण की पृष्ठभूमि खुद भर रही है । पृष्ठभूमि यह है कि अल्लाह का एक बन्दा पाँच-छ: साल से लोगों को मूल धर्म की ओर बुला रहा है, तों और प्रमाणों से बात समझा रहा है, मगर इसके बावजूद न केवल यह कि लोग उस असत्य में मगन हैं जो उन्हें विरासत में मिला है और इस सत्य को मानकर नहीं दे रहे हैं, बल्कि हाथ-धोकर सत्य के इस दावत देनेवाले के पीछे पड़ जाते हैं। इस स्थिति में मूल सत्य-धर्म के एकत्व और बाद के ईजाद किए हुए धर्मों की वास्तविकता बयान करने के बाद यह कहना कि 'छोड़ो इन्हें, डूबे रहें अपनी ग़फ़लत में स्वतः इस अर्थ का प्रमाण जुटाता कि 'अच्छा अगर ये लोग नहीं मानते और अपनी गुमराहियों ही में मगन रहना चाहते हैं तो छोड़ो इन्हें। ' इस 'छोड़ो' [कहने का अर्थ इन ग़ाफ़िलों को झिझोड़ना है, न कि कुछ और ।] फिर ‘’एक विशेष समय तक" के शब्दों में एक बड़ी गहरी चेतावनी है जो यह बता रही है कि ग़फ़लत में डूबा रहना अधिक दिनों तक नहीं रह सकेगा। [बहुत जल्द इन्हें वास्तविकता का] पता चल जाएगा।
نُسَارِعُ لَهُمۡ فِي ٱلۡخَيۡرَٰتِۚ بَل لَّا يَشۡعُرُونَ 55
(56) तो मानो इन्हें भलाइयाँ देने में सक्रिय हैं? नहीं, असल मामले का इन्हें ज्ञान नहीं है।50
50. इस जगह पर सूरा की शुरू की आयतों पर फिर एक दृष्टि डाल लीजिए। उसी विषय को अब फिर एक दूसरे ढंग से दोहराया जा रहा है। ये लोग 'सफलता और भलाई' और 'ख़ुशहाली' का एक सीमित भौतिक विचार रखते थे। इनके नज़दीक ['सफलता' नाम था दुनिया के माल व इज़्ज़त का और दुनिया का माल व इज़्ज़त प्रमाण था सत्य पर होने और अल्लाह का प्रिय होने का। इस भ्रम को जो वास्तव में भौतिकवादी दृष्टि रखनेवालों की पथ-भ्रष्टता के महत्त्वपूर्ण कारणों में से है, कुरआन में अलग-अ बयान किया गया है। अलग-अलग तरीक़ों से इसका खंडन किया गया है और तरह-तरह से यह बताया गया है कि वास्तविक तथ्य क्या है। (मिसाल के तौर पर देखिए सूरा-2 अल-बकरा, आयत 126, 212, सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 32, सूरा-9 अत-तौबा, आयत 55,69,85, सूरा-10 युनूस, आयत 17, सूरा-11 हूद, आयत 3, 27-31, 38, 39, सूरा-13 अर-रअद, आयत 66, सूरा-18 अल-कहफ़, आयत 28, 32-43, 103-105, सूरा-19 मरयम, आयत 77-80, सूरा-20 ता० हा०, आयत 131-132, सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 44 टिप्पणी के साथ)
وَٱلَّذِينَ يُؤۡتُونَ مَآ ءَاتَواْ وَّقُلُوبُهُمۡ وَجِلَةٌ أَنَّهُمۡ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ رَٰجِعُونَ 59
(60) और जिनका हाल यह है कि देते हैं जो कुछ भी देते हैं और दिल उनके इस विचार से काँपते रहते हैं कि हमें अपने रब की ओर पलटना है, 54
54. अरबी भाषा में 'देने (ईता) का शब्द केवल माल या कोई भौतिक वस्तु देने ही के अर्थ में प्रयुक्त नहीं होता, बल्कि उन चीज़ों को देने के लिए भी बोला जाता है जो भौतिक तो नहीं होती किन्तु अन्य पक्षों से सार्थकता रखती हैं। इसलिए इस देने का अर्थ केवल यही नहीं है कि वे अल्लाह के रास्ते में माल देते हैं, बल्कि इसके अर्थ में अल्लाह को बन्दगी और आज्ञापालन करना भी शामिल है। इस अर्थ की दृष्टि से आयत का पूरा अर्थ यह हुआ कि वे अल्लाह के आज्ञापालन में जो कुछ भी नेकियाँ करते हैं, जो कुछ भी सेवाएँ करते हैं, जो कुछ भी क़ुर्बानियाँ करते हैं, उनपर वे फूलते नहीं हैं, बल्कि अपनी ताक़त भर सब कुछ करने के बाद भी डरते रहते हैं कि अल्लाह जाने यह क़बूल हो या न हो। यह आयत बताती है कि एक मोमिन किस मनोदशा के साथ अल्लाह की बन्दगी करता है।
وَلَا نُكَلِّفُ نَفۡسًا إِلَّا وُسۡعَهَاۚ وَلَدَيۡنَا كِتَٰبٞ يَنطِقُ بِٱلۡحَقِّ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ 61
(62) हम किसी आदमी को उसकी सामर्थ्य से अधिक कष्ट नहीं देते 55 और हमारे पास एक किताब है जो (हर एक का हाल) ठीक-ठीक बता देनेवाली है 56, और लोगों पर ज़ुल्म बहरहाल नहीं किया जाएगा57।
55. पिछली आयतों में बताया गया है कि पलाइयाँ लूटनेवाले और पहल करके उन्हें पा लेनेवाले वास्तव में कौन लोग हैं और उनकी विशेषताएँ क्या हैं। इस विषय के बाद तुरन्त ही यह कहना कि हम किसी को उसकी सामागे से अधिक का कष्ट नहीं देते, यह अर्थ रखता कि यह आचरण, यह चरित्र और यह व्यवहार मानवता के परे की कोई चीज़ नहीं है। तुम्ही जैसे हाड़-मांस के इंसान इस रवैए पर चलकर दिखा रहे हैं, इसलिए तुम यह नहीं कह सकते कि तुमसे किसी ऐसी चीज़ की मांग की जा रही है जो मानव-सामर्थ्य से बाहर है।
56. किताब से मुराद है आमालनामा (कर्म-पत्र) जो हर एक आदमी का अलग-अलग तैयार किया जा रहा है, जिसमें उसकी एक-एक बात, एक-एक हरकत, यहाँ तक कि विचारों और इरादों तक की एक-एक हालत लिखी जा रही है। इसी के बारे में सूरा-8 (कहफ़) में फरमाया गया है कि "और आमालनामा सामने रख दिया जाएगा, फिर तुम देखोगे कि अपराधी लोग उसकी लिखी बातों से डर रहे होंगे और कह रहे होंगे कि हाय हमारा दुर्भाग्य ! यह कैसी किताब है कि हमारी कोई छोटी या बड़ी हरकत ऐसी नहीं रह गई जो उसमें अंकित न हो .....।" (आयत 49)
حَتَّىٰٓ إِذَآ أَخَذۡنَا مُتۡرَفِيهِم بِٱلۡعَذَابِ إِذَا هُمۡ يَجۡـَٔرُونَ 63
(64) (वे अपने ये करतूत किए चले जाएँगे) यहाँ तक कि जब हम उनके ऐयाशों (विलासियों) को अज़ाब में पकड़ लेंगे 59 तो फिर वे डकराना (चिल्लाना) शुरू कर देंगे।60
59. 'ऐयाश' (विलासी) यहाँ 'मुत्-र-फ़ीन' का अनुवाद किया गया है। 'मुत्-र-फ़ीन' वास्तव में उन लोगों को कहते हैं जो दुनिया के माल व दौलत को पाकर मज़े कर रहे हों और अल्लाह और उनकी सृष्टि के हकों से ग़ाफ़िल हों। अज़ाब से तात्पर्य यहाँ शायद आख़िरत का अज़ाब नहीं है, बल्कि दुनिया का अज़ाब है जो इसी ज़िंदगी में ज़ालिमों को देखना पड़े।
60. मूल में अरबी शब्द 'जुआर' प्रयोग किया गया है जो बैल की उस आवाज़ को कहते हैं जो सख्त तकलीफ़ के वक़्त वह निकालता है। यह शब्द यहाँ उस आदमी की फ़रियाद और चीख-पुकार के अर्थ में बोला गया है जो किसी रहम का पात्र न हो । इसमें निन्दा और व्यंग्य का अन्दाज़ छिपा हुआ है।
أَفَلَمۡ يَدَّبَّرُواْ ٱلۡقَوۡلَ أَمۡ جَآءَهُم مَّا لَمۡ يَأۡتِ ءَابَآءَهُمُ ٱلۡأَوَّلِينَ 67
(68) तो क्या इन लोगों ने कभी इस वाणी पर विचार नहीं किया 64 ? या वह कोई ऐसी बात लाया है जो कभी उनके बाप-दादों के पास न आई थी 65?
64. अर्थात् क्या उनके इस रवैये का कारण यह है कि इस वाणी को उन्होंने समझा ही नहीं, इसलिए वे इसे नहीं मानते? स्पष्ट है कि यह कारण नहीं है। वे उसकी एक-एक बात अच्छी तरह समझते हैं और विरोध इसलिए करते हैं कि जो कुछ वह प्रस्तुत कर रहा है, उसे नहीं मानना चाहते।
65. अर्थात् क्या उनके इंकार का कारण यह है कि वह एक निराली बात प्रस्तुत कर रहा है जिससे इंसानी कान कभी परिचित ही न हुए थे ? स्पष्ट है कि यह कारण भी नहीं है। अल्लाह की ओर से नबियों का आना, किताबें लेकर आना, तौहीद की दावत देना, आखिरत की पूछ-ताछ से डराना, इनमें से कोई चीज़ भी ऐसी नहीं है जो इतिहास में आज पहली बार प्रकट हुई हो । स्वयं उनकी अपनी भूमि में इब्राहीम व इस्माईल (अलैहि०) आए, हूद और सालेह और शुऐब (अलैहि०) आए, उनके नाम आज तक उनकी ज़बानों पर हैं, उनको ये स्वयं अल्लाह का भेजा हुआ मानते हैं और उनको यह भी मालूम है कि वे मुश्कि न थे, बल्कि एक अल्लाह की बन्दगी सिखाते थे। इसलिए वास्तव में इनके इंकार की वजह यह भी नहीं है कि एक बिल्कुल ही अनोखी बात सुन रहे हैं जो कभी न सुनी गई थी। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-25 अल-फुकीन, टिप्पणी 84,सूरा-32 अस-सज्दा, टिप्पणी 5, सूरा-34 सबा, टिप्पणी 35)
أَمۡ لَمۡ يَعۡرِفُواْ رَسُولَهُمۡ فَهُمۡ لَهُۥ مُنكِرُونَ 68
(69) या ये अपने रसूल को कभी न जानते थे कि (अनजाना आदमी होने के कारण) उससे बिदकते हैं?66
66. अर्थात् क्या इनके इंकार का कारण यह है कि एक बिल्कुल अजनबी आदमी जिसको कभी जानते भी न थे, अचानक उनके बीच आ खड़ा हुआ है और कहता है कि मुझे मान लो । स्पष्ट है कि यह बात भी नहीं है। जो आदमी यह दावत पेश कर है [उससे और उसके पाक-साफ़ व्यक्तित्व से वे पूरी तरह परिचित हैं] फिर वे यह भी जानते हैं कि नुबूवत के दावे से एक दिन पहले तक भी किसी ने उसके मुख से कोई ऐसी बात न सुनी थी जिससे यह सन्देह किया जा सकता हो कि किसी दावे को तैयारियां की जा रही हैं। फिर उसकी ज़िंदगी इस बात पर भी गवाह है कि जो कुछ उसने दूसरों से कहा है, वह पहले स्वयं करके दिखाया है। ऐसे जाने-बूझे और जाँचे-परखे आदमी के बारे में वे नहीं कह सकते कि [नहीं मालूम वह कल को क्या साबित हो।] (इस सिलसिले में और अधिक व्याख्या कि लिए देखिए सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 21, सूरा-10 युनूस, टिप्पणी 21, सूरा-17 बनी इसराईल,टिप्पणी 105)
وَلَوِ ٱتَّبَعَ ٱلۡحَقُّ أَهۡوَآءَهُمۡ لَفَسَدَتِ ٱلسَّمَٰوَٰتُ وَٱلۡأَرۡضُ وَمَن فِيهِنَّۚ بَلۡ أَتَيۡنَٰهُم بِذِكۡرِهِمۡ فَهُمۡ عَن ذِكۡرِهِم مُّعۡرِضُونَ 70
(71) - और सत्य अगर कहीं उनकी इच्छाओं के पीछे चलता तो ज़मीन और आसमान और उनकी सारी आबादी की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती68 - नहीं, बल्कि हम उनका अपना ही जिक्र उनके पास लाए हैं और वे अपने ज़िक्र से मुँह मोड़ रहे हैं।69
68. दुनिया में नादान लोगों को सामान्य रूप से यह रीति होती है कि जो आदमी उनसे सत्य बात कहता है, वे उससे रुष्ट हो जाते हैं, मानो उनका अर्थ यह होता है कि बात वह कही जाए जो उनकी इच्छा के अनुसार हो, न कि वह जो वास्तविकता के अनुकूल हो। ऐसे लोग कभी यह सोचने का कष्ट नहीं करते कि वास्तविकता और उनकी इच्छा के बीच अगर मतभेद है तो यह कुसूर वास्तविकता का नहीं, बल्कि उनके अपने मन का है। वे इसका विरोध करके इसका कुछ न बिगाड़ सकेंगे। सृष्टि की यह भव्य व्यवस्था जिन अटल तथ्यों पर और नियमों पर आधारित है, उनकी छत्र-छाया में रहते हुए इंसान के लिए इसके सिवा कोई चारा ही नहीं है कि अपने विचारों, इच्छाओं और कार्यनीति को वास्तविकता के अनुकूल बनाए।
69. यहाँ ज़िक्र शब्द के तीन अर्थ हो सकते हैं और तीनों ही सही बैठते हैं-
1. ज़िक्र प्रकृति-वर्णन के अर्थ में। इस दृष्टि से आयत का अर्थ यह होगा कि हम उनकी अपनी ही वास्तविकता और प्रकृति और उनको अपेक्षाएँ उनके सामने प्रस्तुत कर रहे हैं, ताकि वे अपने इस भूले हुए पाठ को याद करें। मगर वे उसे स्वीकार करने से कतरा रहे हैं। उनका यह भागना किसी असम्बद्ध - वस्तु से नहीं, बल्कि अपने ही ज़िक्र से है।
2. ज़िक्र उपदेश के अर्थ में । इसकी रोशनी में आयत की व्याख्या यह होगी कि जो कुछ प्रस्तुत किया जा रहा है, यह उन्हीं के भले के लिए एक उपदेश है और उनका यह भागना किसी और चीज़ से नहीं, अपनी ही भलाई की बात से है।
3. ज़िक्र सम्मान व प्रतिष्ठत के अर्थ में । इस अर्थ को अपनाया जाए तो आयत का भाव होगा कि हम वह चीज़ उनके पास लाए हैं जिसे ये स्वीकार करें तो इन्हीं को सम्मान और प्रतिष्ठा मिलेगी। इससे उनका मुँह फेरना किसी और चीज़ से नहीं, अपनी ही तरक्की और अपने ही उठान के एक सुनहरे मौक़े से मुँह फेरना है।
أَمۡ تَسۡـَٔلُهُمۡ خَرۡجٗا فَخَرَاجُ رَبِّكَ خَيۡرٞۖ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلرَّٰزِقِينَ 71
(72) क्या तू उनसे कुछ माँग रहा है ? तेरे लिए तो तेरे रख का दिया ही बेहतर है, और वह सबसे अच्छा देनेवाला है।70
70. यह नबी (सल्ल०) को नुबूवत के हक़ में एक और प्रमाण है, अर्थात् यह कि आप अपने इस काम में बिल्कुल निःस्वार्थ हैं। कोई आदमी ईमानदारी के साथ यह आरोप नहीं लगा सकता कि आप ये सारे पापड़ इस लिए बेल रहे हैं कि कोई मनोकामना और स्वार्थ आप की दृष्टि में है। अच्छा-भला व्यापार चमक रहा था, अब धनहीनता के शिकार हो गए। कौम में आदर के साथ देखे जाते थे, अब गालियाँ और पत्थर खा रहे हैं, एक ऐसे कठोर संघर्ष में पड़ गए हैं जो किसी दम चैन नहीं लेने देता। इस पर तद्धिक यह कि बात वह लेकर उठे हैं जिसके कारण सारा देश दुश्मन हो गया है, यहाँ तक कि स्वयं अपने ही भाई-बन्धु ख़ून के प्यासे हो रहे है। कौन कह सकता है कि यह एक स्वार्थी व्यक्ति के करने का काम है। यह वह प्रमाण है जिसको क़ुरआन में न केवल नबी (सल्ल०) बल्कि सामान्यतः तमाम नबियों की सत्यता के प्रमाण में बार-बार पेश किया गया है। विस्तार के लिए देखिए सूरा-6 अल-अन आम, आयत 90, सूरा-40 यूनुस, आयत 72, सूरा-11 हूद, आयत 29, 51, सूरा-12 यूसुफ़, आयत 104, सूरा-25 अल-फ़ूनि, आयत 57, अश-शुअरा आयत 109, 127,145,164, 180, सूरा-34 सबा, आयत 47, सूरा-36 यासीन, आयत 21, सूरा-38 साँद, आयत 80, सूरा-42 अश-शूरा, आयत 23,सूरा-53 अन-नज्म, आयत 40 टिप्पणियों सहित ।
۞وَلَوۡ رَحِمۡنَٰهُمۡ وَكَشَفۡنَا مَا بِهِم مِّن ضُرّٖ لَّلَجُّواْ فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ 74
(75) अगर हम इनपर दया करें और वह पीड़ा, जिसमें आजकल ये प्रस्त हैं, दूर कर दें तो ये अपनी सरकशी में बिल्कुल ही बहक जाएँगे।72
72. संकेत है उस तकलीफ़ और मुसीबत की ओर जिसमें वे अकाल के कारण पड़े हुए थे। [याद रहे कि] नबी (सल्ल.) के काल में मक्कावालों को दो बार अकाल का सामना करना पड़ा है-
एक नुबूवत के आरंभ के कुछ समय बाद, दूसरा हिजरत के कई साल बाद जबकि सुमामा बिन उसाल ने यमामा से मक्के की ओर अनाज की बरामद रोक दी थी। यहाँ उल्लेख पहले अकाल का है । इस अकाल की ओर मक्की सूरतों में बहुतायत के साथ संकेत मिलते हैं। मिसाल के तौर पर देखिए सूरा-6 अल-अनआम, आयत 42-44, सूरा-7 अल-आराफ, आयत 94-99,सूरा-10 यूनुस, आयत 11, 12, 21, सूरा-16 अन-नहल', आयत 112-113,सूरा-44 अद-दुखान, आयत 10-16, टिप्पणी के साथ ।
حَتَّىٰٓ إِذَا فَتَحۡنَا عَلَيۡهِم بَابٗا ذَا عَذَابٖ شَدِيدٍ إِذَا هُمۡ فِيهِ مُبۡلِسُونَ 76
(77) अलबत्ता जब नौवत यहाँ तक पहुँच जाएगी कि हम इनपर कठोर अजाब का दरवाजा खोल दें, तो यकायक तुम देखोगे कि इस हालत में ये हर खैर (भलाई) से निराश हैं।73
73. मूल में अरबी शब्द 'मुब्लिसून' प्रयुक्त हुआ है जो "बलस" और 'इब्लास' से बना है। ये शब्द कई अर्थों में इस्तेमाल होते हैं। हैरत की वजह से दंग होकर रह जाना, भय और आतंक के कारण हतप्रभ हो जाना, रंज व राम के मारे हिम्मत हार जाना, हर ओर से निराश होकर हिम्मत छोड़ बैठना और इसी का एक पहलू निराशा और विफलता के कारण उत्तेजित (Desperate) हो जाना भी है, जिसके कारण शैतान का नाम इब्लीस रखा गया है। इस नाम में ये अर्थ भी निहित हैं कि निराशा और असफलता (Frusiation) के कारण उसका आहत अहं इतना उग्र हो गया है कि अब वह जान से हाथ धोकर हर बाजी खेल जाने और हर जुर्म को कर गुज़ारने पर तुला हुआ है।
وَهُوَ ٱلَّذِي يُحۡيِۦ وَيُمِيتُ وَلَهُ ٱخۡتِلَٰفُ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ 79
(80) वहीं जिंदगी देता है और वही मौत देता है। रात और दिन का आना-जाना उसी के कब्जे और सामर्थ्य में है।75 क्या तुम्हारी समझ में यह बात नहीं आती?76
75. ज्ञान के साधन (चेतना और चिन्तन-शक्ति) और उनके उचित उपयोग से इंसान की ग़फ़लत पर सचेत करने के बाद अब उन निशानियों की ओर ध्यान दिलाया गया है जिन्हें अगर खुली आँखों से देखा जाए और जिनकी निशानदेही से अगर सही तौर पर बात को समझा जाए या खुले कानों से किसी उचित तर्क को सुना जाए तो आदमी सत्य तक पहुँच सकता है।
76. स्पष्ट रहे कि यहाँ तौहीद और मरने के बाद के जीवन, दोनों के लिए एक साथ प्रमाण लाया जा रहा है और आगे तक जिन निशानियों की ओर ध्यान दिलाया गया है उनसे शिर्क के खंडन और आख़िरत के कार के खंडन दोनों के लिए प्रमाण जुटाया जा रहा है।
سَيَقُولُونَ لِلَّهِۚ قُلۡ فَأَنَّىٰ تُسۡحَرُونَ 88
(89) ये ज़रूर कहेंगे कि यह बात तो अल्लाह ही के लिए है। कहो, “फिर कहाँ से तुमको धोखा लगता है?’’82
82. मूल में अरबी शब्द 'अन्ना तुस-हरून' है जिनका शाब्दिक अर्थ है 'तुमपर कहाँ से जादू किया गया है ।' जादू की वास्तविकता यह है कि वह एक चीज़ को उसके मूल रूप और सही सूरत के विपरीत बनाकर दिखाता है और देखनेवाले के मन में यह ग़लत प्रभाव डालता है कि उस चीज़ की वास्तविकता वह है जो बनावटी तौर पर जादूगर प्रस्तुत कर रहा है। अत: आयत में जो प्रश्न किया गया है उसका अर्थ यह है कि किसने तुमपर यह जादू कर दिया है कि ये सब बातें जानने के बावजूद वास्तविकता तुम्हारी समझ में नहीं आती? प्रश्न का यह रूप और अधिक अर्थपूर्ण हो जाता है जब यह बात दृष्टि में रहे कि क़ुरैश के लोग नबी (सल्ल०) पर जादू का आरोप रखते थे। इस तरह मानो प्रश्न के इन्हीं शब्दों में यह विषय भी आ गया कि मूखों! जो आदमी तुम्हें मूल तथ्य (वह वास्तविकता जिसे तुम्हारी अपनी आपत्तियों के अनुसार वास्तविकता होना चाहिए) बताता है, वह तो तुमको नज़र आता है जादूगर, और जो लोग तुम्हें रात दिन वास्तविकता के विपरीत बातें बताते रहते हैं, यहाँ तक कि जिन्होंने तुमको स्पष्ट बुद्धि और तर्क के विरुद्ध, अनुभव और अवलोकन के विरुद्ध, तुम्हारी अपनी स्वीकार की हुई सच्चाइयों के विरुद्ध सरासर झूठी और निराधार बातों का माननेवाला बना दिया है, उनके बारे में कभी तुम्हें यह सन्देह नहीं होता कि वास्तविक जादूगर तो वे हैं।
بَلۡ أَتَيۡنَٰهُم بِٱلۡحَقِّ وَإِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ 89
(90) जो सत्य बात है वह हम इनके सामने ले आए हैं और कोई सन्देह नहीं कि ये लोग झूठे हैं।83
83. अर्थात् अपने इस कथन में झूठे कि अल्लाह के सिवा किसी और को भी ईश्वरत्व (ईश्वरत्व के गुणों, अधिकारों और हकों या इसमें कोई अंश) प्राप्त है, और अपने इस कथन में झूठे कि मृत्यु के बाद जीवन संभव नहीं है। उनका झूठ उनकी अपनी मानी हुई चीज़ों से सिद्ध है। एक ओर यह मानना कि ज़मीन व आसमान का मालिक और सृष्टि की हर वस्तु का पूर्ण अधिकारी (मुख़्तार) अल्लाह है और दूसरी ओर यह कहना कि ईश्वरत्व अकेले उसी की नहीं है, बल्कि दूसरों का भी (जो अवश्य ही उसके शासित ही होंगे) उसमें कोई हिस्सा है, ये दोनों बातें स्पष्ट रूप से एक दूसरे से टकरा रही हैं । इसी तरह एक ओर यह कहना कि हमको और इस महान सृष्टि को अल्लाह ने पैदा किया है और दूसरी ओर यह कहना कि अल्लाह अपनी ही पैदा की हुई चीज़ों को दोबारा पैदा नहीं कर सकता, स्पष्ट रूप से बुद्धि-विरुद्ध है। इसलिए उनकी अपनी मानी हुई सच्चाइयों से यह प्रमाणित है कि शिर्क और आख़िरत का इंकार, दोनों ही झूठे अक़ीदे हैं जो उन्होंने अपना रखे हैं।
مَا ٱتَّخَذَ ٱللَّهُ مِن وَلَدٖ وَمَا كَانَ مَعَهُۥ مِنۡ إِلَٰهٍۚ إِذٗا لَّذَهَبَ كُلُّ إِلَٰهِۭ بِمَا خَلَقَ وَلَعَلَا بَعۡضُهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۚ سُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ عَمَّا يَصِفُونَ 90
(91) अल्लाह ने किसी को अपनी औलाद नहीं बनाया है84, और कोई दूसरा ख़ुदा उसके साथ नहीं है। अगर ऐसा होता तो हर ख़ुदा अपनी सृष्टि को लेकर अलग हो जाता और फिर वे एक-दूसरे पर चढ़ दौड़ते।85 पाक है अल्लाह उन बातों से जो ये लोग बनाते हैं,
84. यहाँ किसी को यह भ्रम न हो कि यह कथन मात्र ईसाई मत के खंडन में है। नहीं। अरब के मुशरिक भी अपने उपास्यों को अल्लाह की सन्तान कहते थे और दुनिया के अधिकतर मुशरिक इस गुमराही में इनके हमख़याल रहे हैं। यहाँ आरंभ ही से सम्बोधन मक्का के कुफ्फार की ओर है और अन्त तक सम्पूर्ण भाषण में सम्बोधित वही हैं। इस संदर्भ में यकायक ईसाइयों की ओर वार्ता का रुख फिर जाना निरर्थक है। अलबत्ता प्रसंगवश इसमें उन तमाम लोगों के अक़ीदे का खंडन हो गया है जो अल्लाह से अपने उपास्यों या पेशवाओं का वंशीय सम्बन्ध जोड़ते हैं, चाहे वे ईसाई हों या अरब के मुश्रिक या कोई और।
85. अर्थात् यह किसी तरह सम्भव न था कि सृष्टि के विभिन्न भागों के स्रष्टा और स्वामी और अलग-अलग ख़ुदा होते और फिर उनके बीच ऐसा पूर्ण सहयोग होता जैसा कि तुम विश्व की इस पूरी व्यवस्था की अगणित शक्तियों और असंख्य वस्तुओं में और अनगिनत तारों और ग्रहों में पा रहे हो। व्यवस्था की नियमबद्धता और व्यवस्था के अंशों का ताल-मेल सत्ता की केंद्रीयता और एकत्व का स्वयं प्रमाण दे रही है। अगर सत्ता विभाजित होती तो सत्ताधारियों में मतभेद होना निश्चय ही अनिवार्य हो जाता और यह मतभेद उनके बीच लड़ाई और संघर्ष तक पहुंचे बिना नहीं रह सकता था। यही विषय सूरा-21 अंबिया [आयत 22 और सूरा-17 बनी इसराईल, आयत 42 में भी बयान हुआ है। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-17 बनी इसराईल टिप्पणी 47, सूरा-21 अल-अंबिया, टिप्पणी 32)
عَٰلِمِ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ فَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ 91
(92) खुले और छिपे का जाननेवाला, 86 वह उच्चतर है उस शिर्क से जिसको ये लोग प्रस्तावित कर रहे हैं।
86. इसमें एक सुक्ष्म संकेत है उस विशेष प्रकार के शिर्क की ओर जिसने पहले 'शफाअत' के शिर्क भरे अक़ीदे को, और फिर अल्लाह के अलावा किसी अन्य के लिए परोक्ष ज्ञान (जो कुछ हुआ, जो कुछ होगा उसका ज्ञान होने की) शक्ल इरिज़यार कर ली। यह शिर्क के इन दोनों पहलुओं का खंडन कर देती है । (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-20 ता. हा० ,टिप्पणी 85-86, सूरा-21 अल-अंबिया, टिप्पणी 27)
وَأَعُوذُ بِكَ رَبِّ أَن يَحۡضُرُونِ 97
(98) बल्कि ऐ मेरे रब ! मैं तो इससे भी तेरी पनाह माँगता कि वे मेरे पास आएँ।‘’88
88. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 71-72, सूरा-7 अल-आराफ, टिप्पणी 138, 150-152, सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 39, सूरा-15 अल-हिज्र, टिप्पणी 48, सूरा-16 अन-नहल, टिप्पणी 122-124,सूरा-17 बनी इसराईल, टिप्पणी, 58-63, सूरा-41 हा. मीम० अस-सज्दा, टिप्पणी 36-41।
حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَ أَحَدَهُمُ ٱلۡمَوۡتُ قَالَ رَبِّ ٱرۡجِعُونِ 98
(99) (ये लोग अपनी करनी से बाज़ न आएँगे) यहाँ तक कि जब इनमें से किसी को मौत आ जाएगी तो कहना शुरू करेगा कि “ऐ मेरे रब ! मुझे उसी दुनिया में वापस भेज दीजिए जिसे मैं छोड़ आया हूँ।89
89. मूल में अरबी 'रब्बिर्जिऊन' के शब्द हैं। अल्लाह को सम्बोधित करके बहुवचन में बिनती करने का एक कारण तो यह हो सकता है कि यह आदर के लिए हो, जैसा कि तमाम भाषाओं में तरीक़ा है, और दूसरा कारण कुछ लोगों ने यह भी बयान किया है कि यह शब्द दुआ को बार-बार दोहराने का विचार दिलाने के लिए है, अर्थात् वह 'इर्जिअनी, इर्जिअनी' (मुझे वापस भेज दे, मुझे वापस भेज दे) का अर्थ देता है। इसके अलावा कुछ टीकाकारों ने यह विचार भी व्यक्त किया है कि 'रब्बि' का सम्बोधन अल्लाह से है और इर्जिऊन' का सम्बोधन उन फ़रिश्तों से है जो इस अपराधी आत्मा को गिरफ्तार करके लिए जा रहे होंगे। अर्थात् बात यूँ है, 'हाय मेरे रब, मुझको वापस कर दो'।
لَعَلِّيٓ أَعۡمَلُ صَٰلِحٗا فِيمَا تَرَكۡتُۚ كَلَّآۚ إِنَّهَا كَلِمَةٌ هُوَ قَآئِلُهَاۖ وَمِن وَرَآئِهِم بَرۡزَخٌ إِلَىٰ يَوۡمِ يُبۡعَثُونَ 99
(100) आशा है अब मैं भले कार्य करूँगा।"90- हरगिज़ नहीं91, यह तो बस एक बात है जो वह बक रहा है।92 अब इन सब (मरनेवालों) के पीछे एक बरज़ख आड है दूसरी जिंदगी के दिन तक।93
90. यह विषय क़ुरआन मजीद में कई स्थानों पर आया है कि अपराधी मौत की सीमा में प्रवेश करने के वक़्त से लेकर आख़िरत में जहन्नम में पहु़ँचने तक, बल्कि इसके बाद भी बार-बार यही याचनाएँ करते रहेंगे कि हमें बस एक बार दुनिया में और भेज दिया जाए, अब हमारी तौबा है, अब हम कभी अवज्ञा नहीं करेंगे, अब हम सीधी राह चलेंगे। (विस्तार के लिए देखिए सूरा-6 अल-अनआम, आयत 27-28, सूरा-7 अल-आराफ़ 53, सूरा-14 इब्राहीम, 44-45, सूरा-23 अल-मोमिनून, 105-115, सूरा-26 अश-शुअरा, 102, सूरा-32 अस-सज्दा, 12-14, सूरा-35 फ़ातिर, 37, सूरा-39 अज़-जुमर, 58-59, सूरा-40 अल-मोमिन, 10-12, सूरा-42 अश-शुरा, 44,टिप्पणियाँ सहित)
91. अर्थात् उसको वापस नहीं भेजा जाएगा। इसका कारण यह है कि इस दुनिया में दोबारा परीक्षा के लिए आदमी को अगर वापस भेजा जाए तो अवश्य दो शक्लों में से एक ही शक्ल अपनानी होगी,या तो उसकी स्मृति और चेतना में वे सब चीजे सुरक्षित हों जिनका मरने के बाद उसने अवलोकन किया या उन सबको भुला करके उसे वैसा ही स्मृति-शून्य पैदा किया जाए जैसा वह पहले जीवन में था । पहली शक्ल में परीक्षा का उद्देश्य समाप्त हो जाता है क्योंकि इस दुनिया में तो आदमी की परीक्षा है ही इस बात की कि वह वास्तविकता को देखे-समझे बिना अपनी बुद्धि से सत्य को पहचानकर उसे मानता है या नहीं। अब अगर उसे सच्चाई आँखों से दिखा दी जाए और गुनाह का परिणाम व्यवहारतः दिखाकर गुनाह के चुनाव की राह म भी उसपर बन्द कर दी जाए तो फिर परीक्षा स्थल में उसे भेजना व्यर्थ है। इसके बाद कौन ईमान न लाएगा और कौन आज्ञापालन से मुँह मोड़ सकेगा। रही दूसरी शक्ल तो यह 'आजमाए को आज़माना' जैसा है। जो आदमी एक बार इसी परीक्षा में असफल हो चुका हो, उसे फिर ठीक वैसी ही एक और परीक्षा देने के लिए भेजना व्यर्थ है क्योंकि वह फिर वही कुछ करेगा जैसा. पहले कर चुका है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 अल-बकरा, टिप्पणी 228, सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 6,139-140, सूरा-10 यूनुस, की टिप्पणी 26)
فَإِذَا نُفِخَ فِي ٱلصُّورِ فَلَآ أَنسَابَ بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَئِذٖ وَلَا يَتَسَآءَلُونَ 100
(101) फिर ज्यों ही कि सूर फूँक दिया गया, उनके बीच कोई रिश्ता न रहेगा और न वे एक-दूसरे को पूछेगे।94
94. इसका अर्थ यह नहीं है कि बाप बाप न रहेगा और बेटा बेटा न रहेगा, बल्कि अर्थ यह है कि उस समय न बाप बेटे के काम आएगा, न बेटा बाप के। हर एक अपने हाल में कुछ इस तरह गिरफ्तार होगा कि दूसरे को पूछने तक का होश न होगा, कहाँ यह कि उसके साथ कोई हमदर्दी या उसकी कोई मदद कर सके। दूसरी जगहों पर इस विषय को यूं बयान किया गया है कि “कोई जिगरी दोस्त अपने दोस्त को न पूछेगा" (सूरा-70 अल-मआरिज, आयत 10) और "उस दिन अपराधी का जी चाहेगा कि अपनी सन्तान और पत्नी और भाई और अपनी हिमायत करनेवाले सबसे करीब कुन्बे और दुनिया भर के सब लोगों को फ़िदए (बदले) में दे दे और अपने आपको अज़ाब से बचा ले।" (सूरा-70 अल-मआरिज, आयत 11-14) और "वह दिन कि आदमी अपने भाई और मां और बाप और पत्नी और सन्तान से भागेगा। उस दिन हर आदमी अपने हाल में ऐसा फंसा होगा कि उसे किसी का होश न रहेगा।" (सूरा-80 अ-ब-स, आयत 34-37)
وَمَن يَدۡعُ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ لَا بُرۡهَٰنَ لَهُۥ بِهِۦ فَإِنَّمَا حِسَابُهُۥ عِندَ رَبِّهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلۡكَٰفِرُونَ 116
(117) और जो कोई अल्लाह के साथ किसी और उपास्य को पुकारे, जिसके लिए उसके पास कोई प्रमाण नहीं104, तो उसका हिसाब उसके रब के पास है।105 ऐसे इंकारी कभी सफलता नहीं पा सकते।106
104. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि 'जो कोई अल्लाह के साथ किसी और उपास्य को पुकारे, उसके लिए अपने इस कार्य के पक्ष में कोई तर्क नहीं है।
105. अर्थात् वह कोई हिसाब-किताब और पूछ-ताछ से बच नहीं सकता।