24. अन-नूर
(मदीना में उतरी-आयतें 64)
परिचय
नाम
आयत 35 'अल्लाहु नूरुस्समावाति वल अरज़ि' (अल्लाह आसमानों और ज़मीन का नूर है) से लिया गया है।
उतरने का समय
इसपर सभी सहमत हैं कि यह सूरा बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के बाद उतरी है, लेकिन इस बारे में मतभेद है कि क्या यह लड़ाई सन् 05 हि० में अहज़ाब की लड़ाई से पहले हुई थी या सन् 15 हि० में अहज़ाब की लड़ाई के बाद। वास्तविक घटना क्या है, इसकी जाँच शरीअत के उस निहित हित [को समझने के लिए भी ज़रूरी है जो परदे के आदेशों में पाया जाता है, क्योंकि ये] आदेश क़ुरआन की दो ही सूरतों में आए हैं, एक यह सूरा-24, दूसरी सूरा-33 अहज़ाब, जो अहज़ाब को लड़ाई के अवसर पर उतरी है और इसमें सभी सहमत हैं। इस उद्देश्य से जब हम संबंधित रिवायतों की छानबीन करते हैं तो सही बात यही मालूम होती है कि यह सूरा सन् 06 हि० के उत्तरार्द्ध में सूरा अहज़ाब के कई महीने बाद उतरी है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
जिन परिस्थतियों में यह सूरा उतरी है, वे संक्षेप में ये हैं-
बद्र की लड़ाई में विजय प्राप्त करने के बाद अरब में इस्लामी आंदोलन का जो उत्थान शुरू हुआ था, वह ख़न्दक (खाई) की लड़ाई तक पहुँचते-पहुँचते इस हद तक पहुंँच चुका था कि मुशरिक (बहुदेववादी) यहूदी, मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) और इन्तिज़ार करनेवाले, सभी यह महसूस करने लगे थे कि इस नई उभरती ताकत को मात्र हथियार और सेनाओं के बल पर पराजित नहीं किया जा सकता। [इसलिए अब उन्होंने एक नया उपाय सोचा और अपनी इस्लाम दुश्मन] गतिविधियों का रुख़ जंगी कार्रवाइयों से हटाकर नीचतापूर्ण हमलों और आन्तिरिक षड्यंत्रों की ओर फेर दिया। यह नया उपाय पहली बार ज़ी-क़ादा 05 हि० में सामने आया, जब कि नबी (सल्ल0) ने अरब से लेपालक की अज्ञानतापूर्ण रीति का अन्त करने के लिए ख़ुद अपने मुँह बोले बेटे (ज़ैद-बिन-हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु) की तलाक़शुदा बीवी (जैनब-बिन्ते-जहश रज़ि०) से निकाह किया। इस अवसर पर मदीना के मुनाफ़िक़ दुष्प्रचार का भारी तूफ़ान लेकर उठ खड़े हुए और बाहर से यहूदियों और मुशरिकों ने भी उनकी आवाज़ से आवाज़ मिलाकर आरोप गढ़ने शुरू कर दिए। इन बेशर्म झूठ गढ़नेवालों ने नबी (सल्ल०) पर निकृष्ट झूठे नैतिक आरोप लगाए ।
दूसरा आक्रमण बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के अवसर पर किया गया। [जब एक मुहाजिर और एक अंसारी के मामूली से झगड़े को मुनाफ़िक़ों के सरदार अब्दुल्लाह-बिन-उबई ने एक बड़ा भारी फ़ितना बना देना चाहा। इस घटना का विवरण आगे सूरा-63 अल-मुनाफ़िकून के परिचय में आ रहा है। यह आक्रमण] पहले से भी अधिक भयानक था।
वह घटना अभी ताज़ा ही थी कि उसी सफ़र में उसने एक और भयानक फ़ितना उठा दिया। यह हज़रत आइशा (रज़ि०) को आरोपित करने का फ़ितना था। इस घटना को स्वयं उन्हीं के मुख से सुनिए, वे फ़रमाती हैं कि-
"बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के अवसर पर मैं नबी (सल्ल०) के साथ थी।। वापसी पर, जब हम मदीना के क़रीब थे, एक मंज़िल (पड़ाव) पर रात के समय अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने पड़ाव किया और अभी रात का कुछ हिस्सा बाक़ी था कि कूच की तैयारियांँ शुरू हो गई। मैं उठकर अपनी ज़रूरत पूरी करने निकली और जब पलटने लगी तो पड़ाव के क़रीब पहुँचकर मुझे लगा कि मेरे गले का हार टूटकर कहीं गिर पड़ा है। मैं उसे खोजने में लग गई और इतने में क़ाफ़िला रवाना हो गया।
क़ायदा यह था कि मैं कूच के समय अपने हौदे में बैठ जाती थी और चार आदमी उसे उठाकर ऊँट पर रख देते थे। हम औरतें उस वक़्त खाने-पीने की चीज़ों की कमी की वजह से बहुत हलकी-फुलकी थीं। मेरा हौदा उठाते समय लोगों को यह महसूस ही नहीं हुआ कि मैं उसमें नहीं हूँ। वे बेख़बरी में ख़ाली हौदा ऊँट पर रखकर रवाना हो गए।
मैं जब हार लेकर पलटी तो वहाँ कोई न था। आख़िर अपनी चादर ओढ़कर वही लेट गई और दिल में सोच लिया कि आगे जाकर जब ये लोग मुझे न पाएँगे तो स्वयं ही ढूँढते हुए आ जाएँगे। इसी हालत में मुझको नींद आ गई। सुबह के वक़्त सफ़वान-बिन-मुअत्तल सुलमी (रज़ि०) उस जगह से गुज़रे जहाँ मैं सो रही थी और मुझे देखते ही पहचान लिया, क्योंकि परदे का आदेश आने से पहले वे मुझे कई बार देख चुके थे। (यह साहब बद्री सहाबियों में से थे । इनको सुबह देर तक सोने की आदत थी, इसलिए ये भी फ़ौजी पड़ाव पर कहीं पड़े सोते रह गए थे और अब उठकर मदीना जा रहे थे।)
मुझे देखकर उन्होंने ऊँट रोक लिया और सहसा उनके मुख से निकला, "इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन (निस्सन्देह हम अल्लाह के हैं और उसी की ओर हमें पलटना है।) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की पत्नी यहीं रह गईं।" इस आवाज़ से मेरी आँख खुल गई और मैंने उठकर तुरन्त अपने मुँह पर चादर डाल ली। उन्होंने मुझसे कोई बात न की, लाकर अपना ऊँट मेरे पास बिठा दिया और अलग हटकर खड़े हो गए। मैं ऊँट पर सवार हो गई और वे नकेल पकड़कर रवाना हो गए। दोपहर के क़रीब हमने सेना को पा लिया, जबकि वह अभी एक जगह जाकर ठहरी ही थी और लश्करवालों को अभी यह पता न चला था कि मैं पीछे छूट गई हूँ। इसपर लांछन लगानेवालों ने लांछन लगा दिए और उनमें सब से आगे-आगे अब्दुल्लाह-बिन-उबई था।
“मगर मैं इससे बे-ख़बर थी कि मुझपर क्या बातें बन रही हैं। मदीना पहुँचकर मैं बीमार हो गई और एक माह के क़रीब पलंग पर पड़ी रही। शहर में इस लांछन की ख़बरें उड़ रही थीं। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के कानों तक भी बात पहुँच चुकी थी, मगर मुझे कुछ पता न था। अलबत्ता जो चीज़ मुझे खटकती थी, वह यह कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का वह ध्यान मेरी ओर न था जो बीमारी के ज़माने हुआ करता था। आख़िर आप (सल्ल०) से इजाज़त लेकर मैं अपनी माँ के घर चली गई, ताकि वे मेरी देखभाल अच्छी तरह कर सकें ।
“एक दिन रात के समय ज़रूरत पूरी करने के लिए मैं मदीने के बाहर गई। उस वक़्त तक हमारे घरों में शौचालय न थे और हम लोग जंगल ही जाया करते थे। मेरे साथ मिस्तह-बिन-उसासा को माँ भी थीं। [उनकी ज़बानी मालूम हुआ कि] लांछन लगानेवाले झूठे लोग मेरे बारे में क्या बातें उड़ा रहे हैं? यह दास्तान सुनकर मेरा ख़ून सूख गया। वह ज़रूरत भी मैं भूल गई जिसके लिए आई थी। सीधे घर गई और रात रो-रोकर काटी।"
आगे चलकर हज़रत आइशा (रजि०) फ़रमाती हैं कि एक दिन अल्लाह के रसूल (सल्त०) ने ख़ुतबे (अभिभाषण) में फ़रमाया, “मुसलमानो ! कौन है जो उस व्यक्ति के हमलों से मेरी इज़्ज़त बचाए जिसने मेरे घरवालो पर आरोप रखकर मुझे बहुत ज़्यादा दुख पहुँचाया है। अल्लाह की क़सम ! मैंने न तो अपनी बीवी ही में कोई बुराई देखी है और न उस व्यक्ति में जिसके साथ तोहमत लगाई जाती है। वह तो कभी मेरी अनुपस्थति में मेरे घर आया भी नहीं।"
इस पर उसैद-बिन-हुज़ैर (रजि०) औस के सरदार (कुछ रिवायतों में साद-बिन-मुआज़ रज़ि०) ने उठकर कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल ! अगर वह हमारे क़बीले का आदमी है तो हम उसकी गरदन मार दें और अगर हमारे भाई खज़रजियों में से है तो आप हुक्म दें, हम उसे पूरा करने के लिए हाज़िर हैं।"
यह सुनते ही साद बिन उबादा, खज़रज के सरदार उठ खड़े हुए और कहने लगे, “झूठ कहते हो, तुम हरगिज़ उसे नहीं मार सकते।" उसैद-बिन-हुजैर (रज़ि०) ने जवाब में कहा, “तुम मुनाफ़िक़ हो, इसलिए मुनाफ़िक़ों का पक्ष लेते हो।" इस पर मस्जिदे-नबवी में एक हंगामा खड़ा हो गया, हालाँकि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) मिम्बर पर तशरीफ़ रखते थे। क़रीब था कि औस और खज़रज मस्जिद ही में लड़ पड़ते, मगर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको ठंडा किया और फिर मिम्बर पर से उतर आए।
इन विवेचनों से पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि अब्दुल्लाह-बिन-उबई ने यह शोशा छोड़कर एक ही समय में कई शिकार करने की कोशिश की।
एक ओर उसने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) की इज़्ज़त पर हमला किया। दूसरी ओर उसने इस्लामी आन्दोलन की श्रेष्ठतम नैतिक प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाने की कोशिश की। तीसरी ओर उसने यह एक ऐसी चिंगारी फेंकी थी कि अगर इस्लाम अपने अनुपालकों के जीवन की काया न पलट चुका होता तो मुहाजिरीन, अंसार और ख़ुद अंसार के भी दोनों क़बीले (औस और खज़रज) आपस में लड़ मरते।
विषय और वार्ताएँ
ये थीं वे परिस्थितियाँ, जिनमें पहले हमले के मौक़े पर सूरा-33 (अहज़ाब) की आयतें 28 से लेकर 73 तक उतरीं और दूसरे हमले के मौक़े पर यह सूरा नूर उतरी। इस पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखकर इन दोनों सूरतों का क्रमवार अध्ययन किया जाए तो वह हिकमत (तत्वदर्शिता) अच्छी तरह समझ में आ जाती है जो उनके आदेशों में निहित है। मुनाफ़िक़ मुसलमानों को उस मैदान में परास्त करना चाहते थे, जो उनकी श्रेष्ठता का असल क्षेत्र था। अल्लाह ने बजाय इसके कि मुसलमानों को जवाबी हमले करने पर उकसाता, पूरा ध्यान उनपर यह शिक्षा देने पर लगाया कि तुम्हारे मुक़ाबले के नैतिक क्षेत्र में जहाँ-जहाँ अवरोध मौजूद हैं उनको हटाओ और उस मोर्चे को और अधिक मज़बूत करो। [ज़ैनब (रज़ि०) के निकाह के मौके पर] जब मुनाफ़िक़ो और काफ़िरों (दुश्मनों) ने तूफ़ान उठाया था, उस वक़्त सामाजिक सुधार के संबंध में वे आदेश दिए गए थे जिनका उल्लेख सूरा-33 अहज़ाब में किया गया है। फिर जब लांछन की घटना से मदीना के समाज में एक हलचल पैदा हुई तो यह सूरा नूर नैतिकता, सामाजिकता और क़ानून के ऐसे आदेशों के साथ उतारी गई जिनका उद्देश्य यह था कि एक तो मुस्लिम समाज को बुराइयों के पैदा होने और उनके फैलाव से सुरक्षित रखा जाए और अगर वे पैदा ही हो जाएँ तो उनकी भरपूर रोकथाम की जाए।
इन आदेशों और निर्देशों को उसी क्रम के साथ ध्यान से पढ़िए जिसके साथ वे इस सूरा में उतरे हैं, तो अन्दाज़ा होगा कि क़ुरआन ठीक मनोवैज्ञानिक अवसर पर मानव-जीवन के सुधार और निर्माण के लिए किस तरह क़ानूनी, नैतिक और सामाजिक उपायों को एक साथ प्रस्तावित करता है। इन आदेशों और निर्देशों के साथ-साथ मुनाफ़िक़ों और ईमानवालों की वे खुली-खुली निशानियाँ भी बयान कर दी गईं जिनसे हर मुसलमान यह जान सके कि समाज में निष्ठावान ईमानवाले कौन लोग और मुनाफ़िक़ कौन हैं ? दूसरी ओर मुसलमानों के सामूहिक अनुशासन को और कस दिया गया। इस पूरी वार्ता में प्रमुख चीज़ देखने की यह है कि पूरी सूरा नूर उस कटुता से ख़ाली है जो अश्लील और घृणित हमलों के जवाब में पैदा हुआ करती है। इतनी अधिक उत्तेजनापूर्ण परिस्थितियों में कैसे ठंडे तरीक़े से क़ानून बनाए जा रहे हैं, सुधारवादी आदेश दिए जा रहे हैं, सूझ-बूझ भरे निरदेश दिए जा रहे हैं और शिक्षा और उपदेश देने का हक़ अदा किया जा रहा है। इससे केवल यही शिक्षा नहीं मिलती कि हमें फ़ितनों के मुक़ाबले में तीव्र से तीव्र उत्तेजना के अवसरों पर भी किस तरह ठंडे चिन्तन, विशाल हृदयता और विवेक से काम लेना चाहिए, बल्कि इससे इस बात का प्रमाण भी मिलता है कि यह कलाम (वाणी) मुहम्मद (सल्ल०) का अपना गढ़ा हुआ नहीं है, किसी ऐसी हस्ती ही का उतारा हुआ है जो बहुत उच्च स्थान से मानवीय परिस्थतियों और दशाओं को देख रही है और अपने आप में उन परिस्थतियों और दशाओं से अप्रभावित होकर विशुद्ध निर्देश और मार्गदर्शन के पद का हक़ अदा कर रही है। अगर यह हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की अपनी लिखी होती तो आपकी अति उच्चता और श्रेष्ठता के बावजूद उसमें उस स्वाभाविक कटुता का कुछ न कुछ प्रभाव तो ज़रूर पाया जाता जो स्वयं अपनी प्रतिष्ठा पर निकृष्ट हमलों को सुनकर एक सज्जन पुरुष की भावनाओं में अनिवार्य रूप से पैदा हो जाया करती है।
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ٱلزَّانِيَةُ وَٱلزَّانِي فَٱجۡلِدُواْ كُلَّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا مِاْئَةَ جَلۡدَةٖۖ وَلَا تَأۡخُذۡكُم بِهِمَا رَأۡفَةٞ فِي دِينِ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۖ وَلۡيَشۡهَدۡ عَذَابَهُمَا طَآئِفَةٞ مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ 1
(2) व्यभिचारिणी औरत और व्यभिचारी मर्द दोनों में से हर एक को सौ कोड़े मारो2 और उनपर तरस खाने का जज़्बा अल्लाह के दीन के मामले में तुम्हारे अन्दर पैदा न हो अगर तुम अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखते हो।3 और उनको सज़ा देते वक़्त ईमानवालों का एक गिरोह मौजूद रहे।4
2. इस प्रकरण के बहुत से कानूनी, नैतिक और ऐतिहासिक पहलू व्याख्या योग्य हैं जिन [का पूरा विवरण मालूम किए बिना] वर्तमान युग में एक आदमी के लिए इस ईश-विधान का समझना कठिन है। इसलिए नीचे हम इसके विभिन्न पहलुओं पर क्रमशः रौशनी डालेंगे:
i. ज़िना (व्यभिचार) का नैतिक दृष्टि से बुरा होना या धार्मिक रूप से पाप होना या सामाजिक दृष्टि से दोषपूर्ण और आपत्तिजनक होना एक ऐसी चीज़ है जिसपर प्राचीनतम समयों से आज तक तमाम मानव-समाज एकमत रहे हैं। यही वजह है कि हर ज़माने में मानव-समाजों ने विवाह की रीति के साथ-साथ व्यभिचार की रोक-थाम की भी किसी न किसी रूप में ज़रूर कोशिश की है,अलबत्ता इस कोशिश की शक्लों में विभिन्न कानूनों और नैतिक व सांस्कृतिक और धार्मिक व्यवस्थाओं में अन्तर रहा है।
ii. ज़िना की दृष्टि में व्यभिचार के अवैध होने पर सहमत होने के बाद मतभेद जिस मामले में हुआ है वह उसके अपराध, अर्थात कानून की दृष्टि में दण्ड का भागी होने का मामला है और यही वह स्थान है जहाँ से इस्लाम और दूसरे धर्मों और कानूनों का मतभेद शुरू होता है। मानव-स्वभाव से करीब जो समाज रहे हैं, उन्होंने हमेशा व्यभिचार को एक अपराध ही समझा है और इसके लिए कड़ी सज़ाएँ रखी हैं, लेकिन जैसे-जैसे मानव-समाजों को सभ्यता दूषित करती गई है, रवैया नर्म होता चला गया है। इस मामले में सबसे पहली ढील, जो आम तौर से बढ़ती गई, यह थी कि कुमारीगमन (Fornication) और विवाहित स्त्री-पुरुष परगमन (Adultry) में अन्तर करके पहले कार्य को एक साधारण-सी ग़लती और बादवाले कार्य को दंडनीय अपराध करार दिया गया। मात्र ज़िना की सज़ा प्राचीन मिस्र, बाबिल और आशूर (असीरिया) के क़ानून में बहुत हल्की थी। इसी कानून को यूनान और रूम ने अपनाया और इसी से अन्ततः यहूदी भी प्रभावित हो गए। बाइबिल में यह सिर्फ एक ऐसा अपराध है जिससे मर्द पर मात्र माली जुर्माना ज़रूरी होता है (देखिए किताब निर्गमन, अध्याय 22 आयत 16-17)। हिन्दू मत का भी लगभग यही हाल है, (देखिए मनुस्मृति अध्याय 8, श्लोक 365-366) । वास्तव में इन सब कानूनों में परस्त्री गमन ही असल और बड़ा अपराध था अर्थात् यह कि कोई व्यक्ति (भले ही वह विवाहित हो या अविवाहित) किसी ऐसी स्त्री से संभोग करे जो दूसरे व्यक्ति की पत्नी हो। इस कर्म के अपराध होने की बुनियाद यह न थी कि एक मर्द और औरत ज़िना कर बैठे, बल्कि यह थी कि उन दोनों ने मिलकर एक व्यक्ति को इस ख़तरे में डाल दिया है कि उसे किसी ऐसे बच्चे को पालना पड़े जो उसका नहीं है। मानो ज़िना नहीं, बल्कि वंश के गड-मड हो जाने का ख़तरा और एक के बच्चे का दूसरे के खर्च पर पलना और उसका वारिस होना वास्तविक अपराध-आधार था जिसकी वजह से औरत और मर्द दोनों अपराधी समझे जाते। ईसाइयों के यहाँ व्यभिचार अगर अविवाहित मर्द, अविवाहिता औरत से करे तो यह पाप तो है, मगर दंडनीय अपराध नहीं है। और अगर इस काम का कोई एक फ़रीक विवाहित हो तो यह अपराध है, मगर इसको अपराध बनानेवाली चीज़ वास्तव में वचनभंगता है न कि मात्र व्यभिचार। फिर इस अपराध की कोई सज़ा इसके सिधा नहीं है कि जिना करनेवाले मर्द की पत्नी अपने पति के ख़िलाफ़ बेवफ़ाई का दावा करके अलगाव की डिग्री हासिल कर ले और व्यभिचारिणी औरत का शौहर एक ओर अपनी पत्नी पर दावा करके अलगाव की डिग्री ले और दूसरी ओर उस व्यक्ति से भी जुर्माना लेने का हक़दार हो जिसने उसकी पत्नी को ख़राब किया।
वर्तमान युग के पश्चिमी कानून जिनका पालन अब स्वयं मुसलमानों के भी अधिकतर देश कर रहे हैं, उन्हीं विचारों पर आधारित हैं। उनके नज़दीक व्यभिचार दोष या दुराचार या पाप जो कुछ भी हो, अपराध बहरहाल नहीं है। इसे अगर कोई चीज़ अपराध बना सकती है तो वह 'जब' (ज़ोर-ज़बरदस्ती) है, जबकि दूसरे फ़ीक़ की मर्जी के खिलाफ़ ज़बरदस्ती उससे संभोग किया जाए।
iii. इस्लामी क़ानून इन तमाम धारणाओं के विपरीत व्यभिचार को स्वयं में एक दंडनीय अपराध करार देता है और विवाहित होकर व्यभिचार करना उसके नज़दीक अपराध की तीव्रता को और अधिक बढ़ा देता है, न इस कारण कि अपराधी ने किसी से किए हुए 'वचन' को भंग किया या किसी दूसरे के बिस्तर पर हाथ डाला, बल्कि इस आधार पर कि उसके लिए अपनी इच्छाओं को पूरा करने का एक वैध साधन मौजूद था और फिर भी उसने अवैध साधन का उपयोग किया। इस्लामी कानून व्यभिचार को इस दृष्टिकोण से देखता है कि यह वह कर्म है जिसकी अगर आज़ादी हो जाए तो एक ओर मानव-जाति की और दूसरी ओर मानव-संस्कृति की जड़ कट जाए।
iv. इस्लाम मानव-समाज को व्यभिचार के खतरे से बचाने के लिए सिर्फ कानूनी सज़ा के हथियार पर निर्भर नहीं करता, बल्कि इसके लिए बड़े पैमाने पर सुधारपूर्ण और रोक-थाम के उपायों को अपनाता है, और यह क़ानूनी सज़ा उसने मात्र एक अन्तिम उपाय के रूप में सुनिश्चित किया है। [इस क़ानूनी सज़ा के निश्चित करने से पहले औरतों और मर्दो के मेल-मिलापवाला रहन-सहन बन्द किया गया, बनी-सँवरी औरतों का बाहर निकलना बन्द किया गया और उन साधनों और कारणों का द्वार बन्द कर दिया गया जो व्यभिचार के अवसर और उसकी सुविधाएँ जुटाते हैं।
v. व्यभिचार को दंडनीय अपराध तो सन् 03 हित में ही करार दे दिया गया था, मगर उस वक़्त यह एक कानूनी अपराध न था, बल्कि उसकी हैसियत एक 'सामाजिक' या 'पारिवारिक' अपराध जैसी थी, जिसपर परिवारवालों ही को अपने तौर पर दंड दे लेने का अधिकार था। (देखिए सूरा-4 निसा, आयत 15-16) इसके बाद यह आदेश उतरा और उसने पिछले आदेश को निरस्त कर के व्यभिचार को एक क़ानूनी अपराध, सरकार के हस्तक्षेप योग्य (Cognizable Offence) करार दे दिया।
vi. इस आयत में व्यभिचार जो सज़ा मुकर्रर की गई, वह वास्तव में 'मात्र व्यभिचार' की सज़ा है, शादी-शुदा होने के बाद व्यभिचार का अपराध करने की सज़ा नहीं है, जो इस्लामी कानून की दृष्टि में कठोरतम अपराध है। यह बात खुद कुरआन ही के एक इशारे से मालूम होती है कि वह यहाँ उस व्यभिचार की सज़ा बयान कर रहा है जिसके दोनों फरीक़ अविवाहित हों। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-4 अन-निसा, टिप्पणी 46)
vii. यह बात कि शादी-शुदा होने के बाद व्यभिचार की सज़ा क्या है, कुरआन मजीद नहीं बताता, बल्कि इसका ज्ञान हमें हदीस से प्राप्त होता है। अधिकांश विश्वसनीय रिवायतों से साबित है कि नबी (सल्ल०) ने न सिर्फ़ कथन के रूप में इसकी सज़ा रज़म (पत्थर मार-मारकर खत्म कर देना) बयान फ़रमाई है, बल्कि व्यावहारिक रूप से आपने कई मुक़द्दमों में यही सज़ा लागू भी की है।
vii. ज़िना को क़ानूनी परिभाषा में इस्लामी धर्मशास्त्रियों के बीच मतभेद है । इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) के मतानुयायी इसकी परिभाषा यह करते हैं कि “एक मर्द का किसी ऐसी औरत से आगे से संभोग करना, जो न तो उसके निकाह में हो और न उसकी बांदी हो और न इस मामले में सन्देह का कोई उचित कारण हो कि उसने बीवी या बांदी समझते हुए उससे संभोग किया है। इसके विपरीत इमाम शाफ़ई के मतानुयायी इसको परिभाषा यूँ बयान करते हैं, "गुप्तांग का ऐसे गुप्तांग में दाखिल करना जो शरीअत की दृष्टि से अवैध हो, मगर स्वभावतः जिसकी ओर आकर्षित हुआ जा सकता हो", और इमाम मालिक के मतानुयायियों के नज़दीक इसकी परिभाषा यह है कि “शरई हक़ या इसी जैसे किसी हक़ के बिना आगे या पीछे के गुप्तांगों में मर्द या औरत से संभोग करना।” इन दोनों परिभाषाओं के अनुसार क़ौमे लूत का अमल अर्थात् किसी पुरुष का किसी पुरुष के साथ लैंगिक संबंध भी ज़िना में समझा जा सकता है, लेकिन सही बात [वही है जो इमाम अबू हनीफ़ा के मतवालों ने कही है।]
ix. क़ानून की दृष्टि से किसी व्यभिचार को दंडनीय ठहराने के लिए सिर्फ़ शिश्न को प्रविष्ट कर देना काफ़ी है, पूरा अंग दाख़िल करना या पूर्ण संभोग करना इसके लिए ज़रूरी नहीं है। इसके विपरीत अगर शिश्न दाख़िल न हो |बल्कि इससे निम्न प्रकार की अश्लीलता में कोई जोड़ा लिप्त पाया जाए, तो इस] के लिए सिर्फ़ सजा है । यह सजा अगर कोड़े के रूप में हो तो दस कोड़ों से अधिक नहीं लगाए जा सकते।
x. किसी व्यक्ति (मर्द या औरत) को अपराधी ठहरा देने के लिए सिर्फ यह बात काफ़ी नहीं है कि उससे जिना का कर्म हो गया है, बल्कि इसके लिए अपराधी में कुछ शर्ते पाई जानी चाहिए। ये शर्ते अविवाहित के व्यभिचार के मामले में और हैं, और एहसान (विवाहित होने के बाद की जिना के मामलों में और। अविवाहित के जिना के मामले में शर्त यह है कि अपराधी पागल न हो और बालिग़ हो। अगर किसी पागल या किसी बच्चे से यह दुष्कर्म हो जाए, तो वह व्यभिचार के दण्ड-विधान में नहीं आएगा। और विवाहित स्त्री पुरुष के व्यभिचार के लिए बुद्धिवाला और बालिग होने के अलावा कुछ और शर्ते भी हैं-
पहली पारी यह है कि अपराधी स्वतंत्र हो (अर्थात गुलाम या दास न हो)।
दूसरी शर्त यह है कि अपराधी विधिवत रूप से विवाहित हो,
तीसरी शर्त यह है कि उसका मात्र निकाह (विवाह) ही न हुआ हो, बल्कि विवाह के बाद स्पष्ट रूप से संभोग कर चुका हो।
चौथी शर्त यह है कि अपराधी मुसलमान हो। इसमें मुस्लिम विद्वानों के बीच मतभेद है। इमाम शफई (रह०), इमाम अबू यूसुफ (रह.) और इमाम अहमद (रह.) इसको नहीं मानते। उनके नज़दीक इस्लामी राज्य का कोई विवाहित गैर-मुस्लिम भी अगर व्यभिचार करेगा तो रज्म किया जाएगा, लेकिन इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) और हमाम मालिक (रह०) इस बात पर सहमत हैं कि विवाहित स्त्री-पुरुष के द्वारा व्यभिचार करने की सजा रज्म सिर्फ मुसलमान के लिए है।
xi. व्यभिचार करनेवाले को अपराधी ठहरा देने के लिए यह भी जरूरी है कि उसने अपनी स्वतंत्र इच्छा से यह कर्म किया हो। जोर-जबरदस्ती से अगर किसी व्यक्ति को इस कर्म के करने पर विवश किया गया हो तो वह न अपराधी है,न सजा का पात्र ।
xii. इस बात पर मुस्लिम समुदाय के तमाम धर्मशास्त्री सहमत हैं कि इस विचाराधीन आयत में 'इनको कोड़े मारो' में सम्बोधन जन साधारण की ओर नहीं है, बल्कि इस्लामी राज्य के अधिकारी और क़ाज़ी (जज) है।
xiii. इस्लामी कानून जिना की सज़ा को राज्य के कानून का एक हिस्सा करार देता है, इसलिए राज्य की सभी जनता पर यह आदेश लागू होगा, भले ही वह मुस्लिम हो या गैर-मुस्लिम।
xiv. इस्लामी क़ानून यह अनिवार्य नहीं समझता कि कोई व्यक्ति अपने अपराध को स्वयं स्वीकार करे या जो लोग किसी व्यक्ति के व्यभिचार के अपराध से सूचित हों, वे ज़रूर ही उसकी ख़बर अधिकारियों तक पहुँचाएँ, अलबत्ता जब अधिकारियों को इसकी सूचना हो जाए तो फिर इस अपराध के लिए क्षमा की कोई गुंजाइश नहीं है।
xv. इस्लामी कानून में यह अपराध समझौता कराने योग्य नहीं है, न सतीत्त्व का मुआवज़ा या आर्थिक ज़ुर्मानों की शक्ल में दिया दिलाया जा सकता है।
xvi, इस्लामी राज्य किसी व्यक्ति के खिलाफ़ जिना के जुर्म में कोई कार्रवाई न करेगा जब तक कि उसके जुर्म का प्रमाण न मिल जाए।
xvii. व्यभिचार के अपराध का पहला संभव प्रमाण यह है कि शहादत (गवाही) उस पर क़ायम हो। इसके बारे में क़ानून के महत्त्वपूर्ण अंश ये हैं :
(क) ज़िना के लिए कम से कम चार चश्मदीद गवाह होने चाहिएँ। गवाही के बिना क़ाज़ी (जज) मात्र अपने जान के आधार पर फैसला नहीं कर सकता, भले ही वह अपनी आँखों से अपराध होते हुए देख चुका हो,
(ख) गवाह ऐसे लोग होने चाहिएँ जो गवाही के इस्लामी क़ानून के अनुसार भरोसेमंद हों।
(ग) गवाहों को इस बात की गवाही देनी चाहिए कि उन्होंने अपराधी मर्द और औरत को ठीक संभोग करने की स्थिति में देखा है।
(घ) गवाहों को इस मामले में सहमत होना चाहिए कि उन्होंने कब, कहां, किसको, किससे व्यभिचार करते देखा है। इन बुनियादी बातों में मतभेद उनकी गवाही को अमान्य कर देता है।
गवाही की ये शर्ते स्वयं बता रही हैं कि इस्लामी कानून का मंशा यह नहीं है कि टकटकियाँ लगी हों और रोज़ लोगों की पीठों पर कोड़े बरसते रहें बल्कि वे ऐसी स्थिति ही में यह कड़ी सज़ा देता है जबकि तमाम सुधारों और रोक-थाम के उपायों के बावजूद इस्लामी समाज में कोई जोड़ा इतना निर्लज्ज हो कि चार-चार आदमी उसको अपराध करते देख लें।
xviii. इस बारे में मतभेद है कि क्या मात्र गर्भ का पाया जाना, जबकि औरत का कोई पति या बांदी का कोई स्वामी मालूम न हो, व्यभिचार के सबूत के लिए परिस्थितिजन्य प्रमाण के तौर पर पर्याप्त है या नहीं? हज़रत उमर (रजि०) का मत यह है कि यह गवाही के लिए काफ़ी है और इसी को इमाम मालिक के मतानुयायी ने अपनाया है, मगर आम तौर पर धर्मशात्री [गर्भ को परिस्थितिजन्य प्रमाण के रूप में काफ़ी नहीं समझते।
xix. इस बात में भी मतभेद है कि अगर व्यभिचार के गवाहों में मतभेद हो जाए या और किसी वजह से उनकी गवाहियों से अपराध सिद्ध न हो, तो क्या उलटे गवाह झूठे आरोप की सज़ा पाएंगे? धर्मशास्त्रियों का एक गिरोह कहता है कि इस स्थिति में वे झूठे समझे जाएंगे और उन्हें अस्सी कोड़ों की सज़ा दी जाएगी। दूसरा गिरोह कहता है कि उनको सज़ा नहीं दी जाएगी, क्योंकि वे गवाह की हैसियत से आए हैं, न कि मुद्दई की हैसियत से। और अगर इस तरह गवाहों को सज़ा दी जाए तो फिर व्यभिचार की गवाही मिलने का दरवाज़ा ही बन्द हो जाएगा।
XX. गवाही के सिवा दूसरी चीज़ जिससे व्यभिचार का अपराध सिद्ध हो सकता है वह अपराधी की अपनी स्वीकारोक्ति है यह स्वीकारोक्ति स्पष्ट और खुले शब्दों में व्यभिचार करने के बारे में होनी चाहिए और अदालत को पूरी तरह यह इत्मीनान कर लेना चाहिए कि अपराधी किसी बाहरी दबाव के बिना स्वत: होश व हवास की हालत में यह स्वीकार कर रहा है।
xxi. [ज़िना के मुक़द्दमों की नज़ीरों से] यह साबित होता है कि स्वीकार करनेवाले अपराधी से यह नहीं पूछा जाएगा कि उसने किससे व्यभिचार किया, क्योंकि इस तरह एक के बजाय दो को सज़ा देनी पड़ेगी और शरीअत लोगों को सजाएँ देने के लिए बेचैन नहीं है। अलबत्ता अगर अपराधी स्वयं यह बताए कि इस कार्य का दूसरा फरीक़ फ़ला है तो उससे पूछा जाएगा। अगर वह भी स्वीकार करे तो उसे भी सज़ा दी जाएगी, लेकिन अगर वह इंकार कर दे तो सिर्फ़ स्वीकार करनेवाला अपराधी ही सज़ा का पात्र होगा।
xxii. अपराध के सबूत के बाद व्यभिचारी मर्द और औरत को क्या सज़ा दी जाए, इस मसले में धर्मशास्त्रियों के दर्मियान मतभेद हो गया है। विभिन्न धर्मशास्त्रियों के मत इस बारे में निम्न है-
विवाहित मर्द-औरत के लिए ज़िना की सज़ा : इमाम अहमद, दाऊद, ज़ाहिरी और इस्हाक बिन राहवैह के नज़दीक सौ कोड़े लगाना और इसके बाद संगसार करना है। शेष तमाम धर्मशास्त्री इस बात पर सहमत हैं कि उनकी सज़ा सिर्फ संगसारी है । रज्म और कोड़े की सज़ा को जमा नहीं किया जाएगा।
अविवाहित की सज़ा : इमाम शाफ़ई और इमाम अहमद आदि के नज़दीक सौ कोड़े और एक साल का देश निकाला, मर्द और औरत दोनों के लिए। इमाम मालिक और इमाम औज़ाई के नज़दीक मर्द के लिए सौ कोड़े और एक साल का देश निकाला और औरत के लिए केवल सौ कोड़े। इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) और उनके शिष्य कहते हैं कि इस स्थिति में व्यभिचार की सज़ा मर्द और औरत दोनों के लिए सिर्फ़ सौ कोड़े हैं। इसपर किसी और सज़ा, जैसे क़ैद या देश-निकाले की वृद्धि हद (अर्थात् अल्लाह द्वारा निश्चित दण्ड)
नहीं, बल्कि ताज़ीर (जज की ओर से परिस्थितीय दण्ड) है । जज अगर यह देखे कि अपराधी बदचलन है या अपराधी मर्द और औरत दोनों के ताल्लुक़ात बहुत गहरे हैं, तो ज़रूरत के मुताबिक़ वह उन्हें नगर-निकाला भी दे सकता है और कैद भी कर सकता है (हद और ताज़ीर में अन्तर यह है कि हद एक निश्चित सज़ा है जो अपराध के सबूत को शर्ते पूरी होने के बाद अनिवार्य रूप से दी जाएगी और ताज़ीर उस सज़ा को कहते हैं जो कानून से मात्रा और स्थिति की दृष्टि में बिल्कुल निश्चित न कर दी गई हो, बल्कि जिसमें आदलत मुक़द्दमे की स्थिति को दृष्टि से कमी-बेशी कर सकती है।)
इन विभिन्न मतों (मस्लकों) में से हर एक ने भिन्न-भिन्न हदीसों का सहारा लिया है, लेकिन इन तमाम हदीसों पर सामूहिक दृष्टि डालने से स्पष्ट हो जाता है कि इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) और उनके साथियों का मस्लक ही सही है।
xxiii, कोड़ा मारने की स्थिति के बारे में पहला संकेत स्वयं क़ुरआन के शब्द 'फ़ज्लिदू' में मिलता है। 'जल्द' शब्द 'जिल्द' (खाल) से लिया गया। इसके यही अर्थ तमाम भाषाविदों और टीकाकारों ने लिए हैं कि 'मार' ऐसी होनी चाहिए जिसका प्रभाव खाल तक रहे, मांस तक न पहुँचे । 'मार' के लिए चाहे कोड़ा इस्तेमाल किया जाए या बेत, दोनों दशाओं में वह औसत दर्जे का होना चाहिए, न बहुत मोटा और कठोर और न बहुत पतला और नर्म। 'मार' भी औसत दर्जे की होनी चाहिए [पूरी ताक़त से हाथ को तानकर न मारना चाहिए]। तमाम धर्मशास्त्री इसपर सहमत हैं कि 'मार' घाव पैदा करनेवाली नहीं होनी चाहिए। मर्द को खड़ा करके मारना चाहिए और औरत को बिठाकर। तेज़ सर्दी और तेज़ गर्मी के वक़्त मारना निषिद्ध है। जाड़े में गर्म वक़्त और गर्मी में ठण्डे वक्त मारने का हुक्म है । बाँधकर मारने की भी अनुमति नहीं है, अलावा इसके कि अपराधी भागने की कोशिश करे। मार का काम उजडु जल्लादों से नहीं लेना चाहिए, बल्कि ज्ञानी व विवेकी पुरुषों से यह सेवा लेनी चाहिए, जो जानते हों कि शरीअत का तकाज़ा पूरा करने के लिए किस तरह मारना उचित है? गर्भवती महिला को कोड़े की सज़ा देनी हो तो बच्चा जनने के बाद नापाकी का समय बीत जाने तक इन्तिज़ार करना होगा और रज्म करना हो तो जब तक उसके बच्चे का दूध जान छूट जाए, सज़ा नहीं दी जा सकती। अगर जिना गवाहियों से साबित हो तो मार का आरंभ गवाह करेंगे और अगर स्वीकार करने के कारण सज़ा दी जा रही हो तो काज़ी (जज) स्वयं आरंभ करेगा ताकि गवाह अपनी गवाही को और जज अपने फैसलों को खेल न समझ बैठे !
xxiv. रज्म की सज़ा में जब अपराधी मर जाए तो फिर उससे पूरी तरह मुसलमानों का-सा मामला किया जाएगा। उसका कफ़न-दफ़न किया जाएगा, उसकी नमाज़े जनाज़ा पढ़ी जाएगी, उसको आदर के साथ मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफ़न किया जाएगा, उसके हक़ में मरिफ़रत को दुआ की जाएगी और किसी के लिए जाइज़ न होगा कि उसका उल्लेख बुराई के साथ करे।
xxv. मुहर्रमात अर्थात् वे औरतें जिनसे निकाह करना अवैध है, उनसे ज़िना के बारे में शरीअत का क़ानून (सूरा-4 निसा) टिप्णी 33 में और पुरुष का पुरुष से लैंगिक संबंध के बारे में शरई फैसला सूरा-7 (आराफ़) टिप्पणी 68 में बयान किया जा चुका है।
3. प्रथम बात जो इस आयत में ध्यान देने की है वह यह है कि यहाँ फौजदारी कानून को 'अल्लाह का दीन (ईश्वरीय धर्म) कहा जा रहा है। मालूम हुआ कि सिर्फ नमाज़ और रोज़ा और हज व ज़कात ही दीन नहीं है, राज्य का क़ानून भी दीन है। दूसरी चीज़ जो इसमें ध्यान देने की है, वह अल्लाह की यह चेतावनी है कि ज़ानी और ज़ानिया (व्यभिचारी और व्यभिचारिणी) पर मेरी निश्चित सज़ा लागू करने में अपराधी के लिए दया और प्रेम की भावना तुम्हारा हाथ न पकड़े। कुछ टीकाकारों ने इस आयत का अर्थ यह लिया है कि अपराधी को अपराध सिद्ध होने के बाद छोड़ न दिया जाए और न सज़ा में कमी की जाए, बल्कि पूरे सौ कोड़े मारे जाएँ और कुछ ने यह अर्थ लिया है कि हलको मार न मारी जाए जिसकी कोई पीड़ा ही अपराधी महसूस न करे। आयत के शब्द दोनों अर्थों पर हावी हैं और इसके अतिरिक्त यह अभिप्रेत भी है कि व्यभिचारी को वही सज़ा दी जाए जो अल्लाह ने निश्चित की है, उसे किसी और सज़ा से न बदल दिया जाए। कोड़े के बजाए कोई और सज़ा देना, अगर दया और प्रेम-भाव के कारण हो, तो पाप है और अगर इस विचार के आधार पर हो कि कोड़ों की सज़ा एक पाशविक सज़ा है तो यह बिल्कुल ही कुफ़्र है।
قُل لِّلۡمُؤۡمِنِينَ يَغُضُّواْ مِنۡ أَبۡصَٰرِهِمۡ وَيَحۡفَظُواْ فُرُوجَهُمۡۚ ذَٰلِكَ أَزۡكَىٰ لَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا يَصۡنَعُونَ 29
(30) ऐ नबी । मोमिन मर्दो से कहो कि अपनी नजरें बचाकर रखें 29 और अपने गुप्तांगो की रक्षा करें,30 यह उनके लिए अधिक पवित्र तरीक़ा है। जो कुछ वे करते हैं अल्लाह को उसकी ख़बर रहती है।
29. मूल अरबी में शब्द है 'यग़ुज़्ज़ू मिन अब्सारिहिम' । 'गज' का अर्थ है किसी चीज़ को कम करना, पटाना और पस्त करना। 'गज्जि बसर' का अनुवाद सामान्य रूप से नीची निगाह करना या रखना किया जाता है, लेकिन वास्तव में इस आदेश का अर्थ हर वक्त नीचे ही देखते रहना नहीं है, बल्कि पूरी तरह निगाह भरकर न देखना और निगाहों को देखने के लिए बिल्कुल आजाद न छोड़ देना है। यह अर्थ 'नजर बचाने' से ठीक अदा होता है। अर्थात् जिस चीज़ को देखना उचित न हो उससे नज़र हटा ली जाए, इससे हटकर कि आदमी निगाह नीची करे, या किसी और तरफ़ उसे बचा ले जाए। 'मिन अन्सारिहिम' का अर्थ यहाँ हुक्म तमाम नज़रों के बचाने के नहीं है, बल्कि कुछ नज़रों को बचाने का है। दूसरे शब्दों में अल्लाह का मंशा यह नहीं है कि किसी चीज़ को भी निगाह भरकर न देखा जाए, बल्कि वह सिर्फ़ एक विशेष दायरे में निगाह पर यह पाबन्दी लगाना चाहता है। अब यह बात प्रसंग व संदर्भ के देखने से मालूम होती है कि यह पाबन्दी जिस चीज़ पर लगाई गई है वह है मदों का औरतों को देखना या दूसरे लोगों के गुप्तांग पर निगाह डालना, या अश्लील दृश्यों पर निगाह जमाना। अल्लाह की किताब के इस आदेश की जो व्याख्या नबी (सल्ल०) ने की है, उसका विवरण नीचे दिया जा रहा है-
(i) आदमी के लिए यह बात वैध नहीं है कि वह अपनी बीवी या अपनी महरम औरतों के सिवा किसी दूसरी औरत को निगाह भरकर देखे। एक बार अचानक नज़र पड़ जाए तो वह माफ है, लेकिन यह माफ़ नहीं है कि आदमी ने पहली नज़र में जहाँ कोई आकर्षण महसूस किया हो, वहाँ फिर नज़र दौड़ाए। नबी (सल्ल०) ने इस तरह के तांक-झांक को आँख की बदकारी का नाम दिया है । (बुख़ारी, मुस्लिम, अबू दाऊद)
(ii) इससे किसी को यह भ्रम न हो कि औरतों को खुले मुंह फिरने की खुली छूट थी तभी तो निगाह नीची रखने का आदेश दिया गया, वरना अगर चेहरे का परदा लागू किया जा चुका होता तो फिर नज़र बचाने या न बचाने का क्या प्रश्न । यह तर्क बौद्धिक दृष्टि से भी गलत है और वास्तविकता की दृष्टि से भी। बौद्धिक दृष्टि से यह इसलिए ग़लत है कि चेहरे का परदा आम तौर पर प्रचलित हो जाने के बावजूद ऐसे अवसर सामने आ सकते हैं जब कि अचानक किसी मर्द और औरत का आमना सामना हो जाए, और मुसलमान औरतों में परदा प्रचलित होने के बावजूद बहरहाल गैर-मुस्लिम औरतें तो वे परदा ही रहेंगी, इसलिए सिर्फ़ नज़रें नीची रखने का आदेश इस बात की दलील नहीं बन सकता कि आवश्यक रूप से औरतें खुले मुँह फिरें और वास्तविकता की दृष्टि से यह इसलिए ग़लत है कि सूरा-33 अहजाब में परदे के आदेशों के उतरने के बाद जो परदा मुस्लिम समाज में प्रचलित किया गया था, उसमें चेहरे का परदा शामिल था और नबी (सल्ल०) के मुबारक जमाने में इसका प्रचलित होना बहुत-सी हदीसों से सिद्ध होता है। उदाहरण के तौर पर इफ्क की घटना के बारे में हज़रत आइशा (रजि०) का बयान देखिए जो भूमिका में गुज़र चुका है, उसमें वह फ़रमाती हैं कि “वह (अर्थात् सफ़वान बिन मुअत्तल (रजि०) मुझे देखते ही पहचान गया, क्योंकि परदे के आदेश से पहले वह मुझे देख चुका था। मुझे पहचानकर जब उसने 'इला लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन' पढ़ा तो उसकी आवाज़ से मेरी आँख खुल गई और मैंने अपनी चादर से मुँह ढाँप लिया।" (बुख़ारी, मुस्लिम, अहमद, इब्ने जरीर, सीरत इब्ने हिशाम)
(iii) नज़रें नीची रखने के इस आदेश का अपवाद केवल वे शक्लें हैं जिनमें किसी औरत को देखने की कोई वास्तविक ज़रूरत हो । जैसे, कोई व्यक्ति किसी औरत से निकाह करना चाहता हो। इस उद्देश्य के लिए [रसूल सल्ल० के इर्शाद के अनुसार] औरत को देख लेने की न सिर्फ इजाज़त है, बल्कि ऐसा करना कम से कम पसन्दीदा तो अवश्य है, (अहमद, तिर्मिज़ी, नसई, इब्ने माजा, दारमी)। इसी से फ़ुक़हा ने यह नियम लिया है कि ज़रूरत पड़ने पर देखने की दूसरी शक्लें भी जाइज़ हैं, जैसे अपराधों की जाँच के सिलसिले में किसी संदिग्ध औरत को देखना, या अदालत में गवाही के मौक़े पर क़ाज़ी का किसी गवाह औरत को देखना या इलाज के लिए डॉक्टर का रोगी औरत को देखना आदि।
(iv) आँखें नीची रखने के आदेश का तात्पर्य यह भी है कि आदमी किसी औरत और मर्द के गुप्तांगों पर निगाह न डाले।
30. गुप्तांगों की रक्षा से तात्पर्य सिर्फ़ अवैध कामतृप्ति से बचना ही नहीं है, बल्कि अपने गुप्तांगों को दूसरे के सामने खोलने से भी बचना है। मर्द के लिए गुप्तांगों की सीमाएं नबी (सल्ल०) ने नाफ (नाभि) से घुटने तक निश्चित की हैं। (दारकुली, बैहक़ी)। तंहाई में भी नंगा रहने से मना किया गया है। चुनांचे प्यारे नबी (सल्ल०) का इर्शाद है, "खबरदार, कभी नंगे न रहो, क्योंकि तुम्हारे साथ वे हैं जो कभी तुमसे अलग नहीं होते (अर्थात् भलाई और रहमत के फ़रिश्ते) सिवाय उस वक़्त के जब तुम ज़रूरत पूरी करते हो या अपनी बीवियों के पास जाते हो, इसलिए इनसे शर्म करो और इनके आदर को ध्यान में रखो।" (तिर्मिज़ी)
وَقُل لِّلۡمُؤۡمِنَٰتِ يَغۡضُضۡنَ مِنۡ أَبۡصَٰرِهِنَّ وَيَحۡفَظۡنَ فُرُوجَهُنَّ وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنۡهَاۖ وَلۡيَضۡرِبۡنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَىٰ جُيُوبِهِنَّۖ وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا لِبُعُولَتِهِنَّ أَوۡ ءَابَآئِهِنَّ أَوۡ ءَابَآءِ بُعُولَتِهِنَّ أَوۡ أَبۡنَآئِهِنَّ أَوۡ أَبۡنَآءِ بُعُولَتِهِنَّ أَوۡ إِخۡوَٰنِهِنَّ أَوۡ بَنِيٓ إِخۡوَٰنِهِنَّ أَوۡ بَنِيٓ أَخَوَٰتِهِنَّ أَوۡ نِسَآئِهِنَّ أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُنَّ أَوِ ٱلتَّٰبِعِينَ غَيۡرِ أُوْلِي ٱلۡإِرۡبَةِ مِنَ ٱلرِّجَالِ أَوِ ٱلطِّفۡلِ ٱلَّذِينَ لَمۡ يَظۡهَرُواْ عَلَىٰ عَوۡرَٰتِ ٱلنِّسَآءِۖ وَلَا يَضۡرِبۡنَ بِأَرۡجُلِهِنَّ لِيُعۡلَمَ مَا يُخۡفِينَ مِن زِينَتِهِنَّۚ وَتُوبُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ جَمِيعًا أَيُّهَ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ 30
(31) और ऐ नबी ! मोमिन औरतों से कह दो कि अपनी नज़रें बचाकर रखें31 और अपने गुप्तांगों की रक्षा करें।32 और अपना33 बनाव-सिंगार न दिखाएँ34 अलावा उसके जो अपने आप प्रकट हो जाए35, और अपने सीनों पर अपनी ओढ़नियों के आँचल डाले रहें36, वे अपना बनाव-सिंगार न जाहिर करें मगर इन लोगों के सामने37 पति, बाप, पतियों के बाप38, अपने बेटे, पतियों के बेटे39, भाई40, भाइयों के बेटे41, बहनों के बेटे42, अपने मेल-जोल की औरतें43, अपनी लौंडी44, दास, वे अधीन मर्द जो किसी और तरह का प्रयोजन (गरज़) न रखते हों45, और वे बच्चे जो औरतों की छिपी बातों से अभी परिचित न हुए हो46 वे अपने पाँव ज़मीन पर मारती हुई न चला करें कि अपनी जो ज़ीनत उन्होंने छिपा रखी हो, उसे लोग जान जाएँ।47 ऐ ईमानवालो ! तुम सब मिलकर अल्लाह से तौबा करो48, आशा है कि सफलता पाओगे।49
31. औरतों के लिए भी नज़र नीची रखने के आदेश वही हैं जो मर्दो के लिए हैं, अर्थात् उन्हें जान-बूझकर पराए मर्दो को न देखना चाहिए, निगाह पड़ जाए तो हटा लेनी चाहिए, और दूसरों के गुप्तांगों को देखने से बचना चाहिए। लेकिन मर्द के औरत को देखने के मुकाबले में औरत के मर्द को देखने के मामले में आदेश थोड़े-से अलग हैं। इस सिलसिले में उल्लिखित विभिन्न) हदीसों को जमा करने से मालूम होता है कि औरतों के मर्दो को देखने के मामले में इतनी सरजी नहीं है जितनी मर्दो के औरतों को देखने के मामले में है। एक सभा में आमने-सामने बैठकर देखने से मना किया गया है। रास्ता चलते हुए या दूर से कोई जायज़ क़िस्म का खेल-तमाशा देखते हुए मर्दो पर निगाह पड़ने से नहीं मना किया गया है, और कोई वास्तविक ज़रूरत पेश आ जाए तो एक घर में रहते हुए भी देखने में दोष नहीं है।
32. अर्थात् अवैध रूप से कामतृप्ति से भी बचें और अपने गुप्तांगों को दूसरों के सामने खोलने से भी। इस मामले में औरतों के लिए भी वही आदेश हैं जो मर्दो के लिए हैं, लेकिन औरत के छिपाने वाले अंगों की सीमाएं मर्दो से अलग हैं, साथ ही औरतों के छिपानेवाले अंग मर्दो के लिए अलग हैं और औरतों के लिए अलग। मर्दो के लिए औरत का सतर (छुपाने योग्य अंग) हाथ और मुंह के सिवा उसका पूरा जिस्म है, जिसे शौहर के सिवा किसी दूसरे मर्द, यहाँ तक कि बाप और भाई के सामने भी न खुलना चाहिए और औरत को ऐसा बारीक या चुस्त वस्त्र भी न पहनना चाहिए जिससे बदन अन्दर से झलके या की बनावट नज़र आए। हज़रत आइशा (रजि०) की रिवायत है कि उनकी बहन हज़रत अस्मा बिन्त अबू बक़्र अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सामने आई और वह बारीक कपड़े पहने हुए थी। नबी (सल्ल०) ने तुरन्त मुंह फेर लिया और फ़रमाया, “अस्मा । जब औरत बालिग़ हो जाए तो जायज़ नहीं है कि मुंह और हाथ के सिवा उसके शरीर का कोई हिस्सा नज़र आए।" (अबू दाऊद)। और औरत के लिए औरत के सतर की सीमाएँ वही हैं जो मर्द के लिए मर्द के सतर की हैं। अर्थात् नाफ़ और घुटने के बीच का हिस्सा। इसका यह अर्थ नहीं है कि औरतों के सामने औरत अर्ध नग्न रहे, बल्कि अर्थ केवल यह है कि नाफ़ और घुटने के बीच का हिस्सा ढाँकना फर्ज है और दूसरे हिस्सों का ढाँकना फर्ज नहीं है।
36. मानता काल में औरतें दोपट्टों के प्रति लापरवाह रहा रहती थीं। इस आयत के उतरने के बाद मुसलमान औरतों में दोपट्टों को राइज किया गया, जिसका उद्देश्य यह नहीं था कि आजकल की लड़कियों की तरह बस उसे बल देकर गले का हार बना दिया जाए, बल्कि यह था कि उसे ओढ़कर सर, कमर, सीना सब अच्छी तरह डॉक लिए जाएँ। हजरत आइशा (रजि०) फरमाती हैं कि जब सूरा नूर उतरी तो अल्लाह के रसूल (सल्ल.) से उसे सुनकर लोग अपने घरों की ओर पलटे और जाकर उन्होंने अपनी बीवियों, बेटियों, बहनों को उसकी आयतें सुनाई। औरतों ने बारीक कपड़े छोड़कर अपने मोटे-मोटे कपड़े, छाँटे और उनके कपडे बनाए, (हने कसीर, भाग 3.40 284, अबू दाऊद, किताबुल्लिबास)। यह बात कि दोपट्टा बारीक कपड़े का न होना चाहिए, इन आदेशों के स्वभाव और उद्देश्य पर विचार करने से स्वयं ही आदमी की समझ में आ जाती है। फिर साहिबे शरीअत नबी (सल्ल०) ने स्वयं भी इसे स्पष्ट कर दिया है । (देखिए, अबू दाऊद, किताबुल्लबास में देहया कलबी रजि० की रिवायत)
37. अर्थात् जिस क्षेत्र में एक औरत अपनी पूरी जीनत के साथ आज़ादी से रह सकती है वह इन लोगों पर सम्मिलित है। इस क्षेत्र से बाहर जो लोग भी हैं, चाहे वे रिश्तेदार हों या पराए, बहरहाल एक औरत के लिए जायज़ नहीं है कि वह इनके सामने बनाव-सिंगार के साथ आए।
38. बाप के अर्थ में केवल बाप ही नहीं, बल्कि दादा-परदादा और नाना-परनाना भी शामिल हैं, इसलिए एक औरत अपनी ददिहाल और ननिहाल और अपने पति के ददिहाल और ननिहाल के इन सब बुजुर्गों के सामने उसी तरह आ सकती है जिस तरह अपने बाप और ससुर के सामने आ सकती है।
39. बेटों में पोते-परपोते, नाती-परनाती सब सम्मिलित हैं और इस मामले में सगे-सौतेले का कोई अन्तर नहीं है। अपने सौतेले बच्चों की औलाद के सामने औरत उसी तरह आज़ादी के साथ ज़ीनत ज़ाहिर कर सकती है, जिस तरह स्वयं अपनी औलाद और औलाद की औलाद के सामने कर सकती है।
40. 'भाइयों' में सगे और सौतेले और माँ-जाए भाई सब सम्मिलित हैं।
41. भाई-बहनों से तात्पर्य तीनों प्रकार के भाई-बहन हैं और उनके बेटों, पोतों और नातियों, सब उनको औलाद के अन्तर्गत आते हैं।
42. यहाँ चूँकि रिश्तेदारों का क्षेत्र समाप्त हो रहा है और आगे गैर-रिश्तेदार लोगों का उल्लेख है, इसलिए आगे बढ़ने से पहले तीन मामलों को अच्छी तरह समझ लीजिए, क्योंकि इनके न समझने से कई उलझनें पैदा होती है-
पहला मामला यह है कि कुछ लोग ज़ीनत ज़ाहिर करने की आज़ादी को सिर्फ उन रिश्तेदारों तक सीमित समझते हैं जिनका नाम यहाँ लिया गया है, बाकी सब लोगों को यहाँ तक कि सगे चचा और सगे माँमू तक को उन रिश्तेदारों में गिनते हैं जिनसे परदा किया जाना चाहिए और तर्क यह देते हैं कि इनका नाम क़ुरआन में नहीं लिया गया है लेकिन यह बात सही नहीं है। सगे चचा और माँमू तो दूर की बात, नबी (सल्ल०) ने तो दूध के चचा और माँमू से भी परदा करने की हज़रत आइशा (रजि०) को इजाज़त न दी। (सिहाहे सित्ता और मुस्नद अहमद) इससे मालूम हुआ कि नबी (सल्ल०) ने स्वयं इस आयत से यह नियम लिया है कि जिन-जिन रिश्तेदारों से एक औरत का निकाह हराम है, वे सब इसी आयत के हुक्म में दाखिल हैं। जैसे चचा, माँमू, दामाद और दूध के शरीक रिश्तेदार।
दूसरा मामला यह है कि जिन रिश्तेदारों से हमेशा के लिए हराम होने का रिश्ता न हो (अर्थात् जिनसे एक कुँवारी या विधवा औरत का निकाह जाइज़ हो) वे न तो महरम रिश्तेदारों के हुक्म में हैं कि औरतें बे-तकल्लुफ़ उनके सामने अपनी ज़ीनत के साथ आएँ और न बिल्कुल परायों के हुक्म में कि औरतें उनसे वैसा ही मुकम्मल परदा करें जैसा परायों से किया जाता है। इन दोनों सीमाओं के बीच ठीक-ठीक क्या रवैया होना चाहिए यह शरीअत में तय नहीं किया गया है, क्योंकि यह चीज़ तय नहीं हो सकती। इसकी सीमाएँ अलग-अलग रिश्तेदारों के मामले में उनके रिश्ते, उनकी उम्र, औरत की उम्र, ख़ानदानी ताल्लुक़ात और संपर्क और दोनों फरीक़ के हालात (जैसे मकान का मिला होना या अलग-अलग मकानों में रहना) की दृष्टि से अवश्य अलग-अलग होंगे और होने चाहिएं। इस मामले में नबी (सल्ल०) का अपना तरीक़ा जो कुछ था उससे हमको यही मार्गदर्शन मिलता है। बहुत-सी हदोसों से साबित है कि हज़रत अस्मा बिन्त अबू बक्र, जो नबी (सल्ल०) की साली थीं, आपके सामने होती थीं और अन्तिम समय तक आपके और उनके बीच कम से कम चेहरे और हाथों की हद तक कोई परदा न था (देखिए अबू दाऊद, किताबुल हज्ज, बाबुल महरम, युअद्दिबु गुलामह)। इसी तरह हज़रत उम्मे हानी, जो अबू तालिब की साहबज़ादी और नबी (सल्ल०) की चचेरी बहन थीं, अन्तिम समय तक हुजूर (सल्ल०) के सामने होती रहीं और कम से कम मुँह और चेहरे का परदा उन्होंने आपसे कभी नहीं किया। (देखिए अबू दाऊद, किताबुस्सौम, बाबुन-फ़न्नीयति फ़िसौमि वरुख्सतु फोहि)। दूसरी ओर हम देखते हैं कि हज़रत फ़ज़्ल बिन अब्बास और अब्दुल मुत्तलिब बिन रबीआ [जिनकी अभी शादियां नहीं हुई थीं, ये दोनों हज़रत जैनब (रजि०) के मकान पर हुजूर (सल्ल०) की सेवा में हाज़िर होते हैं । हज़रत जैनब (रजि०) फ़ज़ल को सगी फुफेरी बहन हैं और अब्दुल मुत्तलिब बिन रबीआ के बाप से भी उनका वही रिश्ता है जो फ़ज़्ल से है। लेकिन वह इन दोनों के सामने नहीं होती और हुजूर (सल्ल०) की उपस्थिति में उनके साथ पर्दे के पीछे से बात करती हैं, (अबू दाऊद, किताबुल ख़िराज)। इन दोनों प्रकार की घटनाओं को मिलाकर देखा जाए तो मामले की शक्ल वही कुछ समझ में आती है जो ऊपर हम बयान कर आए हैं।
तीसरा मामला यह है कि जहाँ रिश्ते में शुब्हा पड़ जाए वहाँ महरम रिश्तेदार से भी सावधानी के तौर परदा करना चाहिए।
43. मूल शब्द 'निसाइहिन-न' प्रयुक्त हुआ है जिसका शाब्दिक अनुवाद है उनकी औरतें'। उससे तात्पर्य किन औरतों से है, इस संबंध में फुकहा और टीकाकारों के विभिन्न कथन पाए जाते हैं। एक गिरोह कहता है कि इससे तात्पर्य सिर्फ़ मुसलमान औरतें हैं। गैर-मुस्लिम औरतें चाहे वे जिम्मी हों या किसी और प्रकार की, उनसे मुसलमान औरतों को उसी तरह परदा करना चाहिए जिस तरह मर्दो से किया जाता है। दूसरा गिरोह कहता है कि इससे तात्पर्य तमाम औरतें हैं। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि अगर सच में अल्लाह का मंशा भी यही था तो फिर 'उनकी औरतें' कहने का क्या अर्थ? इस शक्ल में तो केवल 'औरतें' कहना चाहिए था। तीसरी राय यह है और यही बुद्धिसंगत भी है और कुरआन के शब्दों से अधिक निकट भी कि इससे वास्तव में उनके मेल-जोल की औरतें, उनकी जानी-बूझी औरतें, उनसे ताल्लुकात रखनेवाली औरतें और उनके काम-काज में हिस्सा लेनेवाली औरतें अभिप्रेत हैं, चाहे वे मुस्लिम हों या गैर-मुस्लिम। और अभीष्ट उन औरतों को इस दायरे से निकालना है जो या तो अजनबी हों कि उनके चरित्र और आचरण का हाल मालूम न हो, या जिनके प्रत्यक्ष हालात संदिग्ध हों और उनपर भरोसा न किया जा सके। इस राय का समर्थन उन सही हदीसों से भी मालूम होता है जिनमें नबी (सल्ल.) की पाक बीवियों के पास ज़िम्मी औरतों की हाज़िरो का उल्लेख हुआ है। इस मामले में असल चीज़ जिसका ध्यान रखा जाएगा वह धार्मिक मतभेद नहीं, बल्कि नैतिक हालत है।
وَلۡيَسۡتَعۡفِفِ ٱلَّذِينَ لَا يَجِدُونَ نِكَاحًا حَتَّىٰ يُغۡنِيَهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۗ وَٱلَّذِينَ يَبۡتَغُونَ ٱلۡكِتَٰبَ مِمَّا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡ فَكَاتِبُوهُمۡ إِنۡ عَلِمۡتُمۡ فِيهِمۡ خَيۡرٗاۖ وَءَاتُوهُم مِّن مَّالِ ٱللَّهِ ٱلَّذِيٓ ءَاتَىٰكُمۡۚ وَلَا تُكۡرِهُواْ فَتَيَٰتِكُمۡ عَلَى ٱلۡبِغَآءِ إِنۡ أَرَدۡنَ تَحَصُّنٗا لِّتَبۡتَغُواْ عَرَضَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَمَن يُكۡرِههُّنَّ فَإِنَّ ٱللَّهَ مِنۢ بَعۡدِ إِكۡرَٰهِهِنَّ غَفُورٞ رَّحِيمٞ 32
(33) और जो निकाह का मौक़ा न पाएँ उन्हें चाहिए कि पाकदामनी अपनाएं, यहाँ तक कि अल्लाह अपनी मेहरबानी से उनको सम्पन्न कर दे।54
और जिन लोगों पर तुम्हें स्वामित्व का अधिकार प्राप्त हो उनमें से जो मुकातबत (लिखा-पढ़ी) को दर्ख़ास्त करें55, उनसे मुकातबत56 कर लो, अगर तुम्हें मालूम हो कि उनके अन्दर भलाई है57, और उनको उस माल में से दो जो अल्लाह ने तुम्हें दिया है।58 और अपनी लौडियों को अपनी दुनिया के लाभों के लिए वेश्यावृत्ति पर विवश न करो, जबकि वे स्वयं पाकदामन रहना चाहती हों59। और जो कोई उनको विवश करे तो इस ज़बरदस्ती के बाद अल्लाह उनके लिए क्षमा फ़रमानेवाला और दया करनेवाला है।
54. इन आयतों की सबसे अच्छी व्याख्या वे हदीसे हैं जो इस सिलसिले में नबी (सल्ल०) से उल्लिखित हैं। हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रजि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फरमाया, “नौजवानो ! तुममें से जो आदमी विवाह कर सकता हो उसे कर लेना चाहिए, क्योंकि यह निगाह को बदनज़री से बचाने और आदमी की पाक दामनी कायम रखने का बड़ा साधन है, जो सामर्थ्य न रखता हो वह रोज़े रखे, क्योंकि रोज़े आदमी की तबीयत का जोश ठंडा कर देते हैं । (बुख़ारी व मुस्लिम) हज़रत अबू हुरैरह (रजि०) रिवायत करते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फरमाया, तीन आदमी हैं जिनकी सहायता अल्लाह के ज़िम्मे है-
एक वह आदमी जो पाक दामन रहने के लिए निकाह करे, दूसरे वह मुकातिब (वह दास जो लिखा-पड़ी करके वचन के अनुसार दासता से मुक्त होना चाहे), जो किताबत (लिखा-पढ़ी) का माल अदा करने की नीयत रखे, तीसरे वह आदमी जो अल्लाह की राह में जिहाद के लिए निकले।" (तिर्मिज़ी,नसई, इब्ने माजा, अहमद और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-4 (निसा), आयत 25)
55. 'मुकातबत' के शाब्दिक अर्थ तो हैं लिखा-पढ़ी', मगर परिभाषा में यह शब्द इस अर्थ में बोला जाता है कि कोई दास या दासी अपनी मुक्ति के लिए अपने स्वामी को एक मुआवज़ा अदा करने की पेशकश करे और जब स्वामी उसे स्वीकार कर ले तो दोनों के बीच शर्तों की लिखा-पढ़ी हो जाए। इस्लाम में दासों की मुक्ति के लिए जो शक्लें रखी गई हैं, यह उनमें से एक है।
59. इसका अर्थ यह नहीं है कि अगर लौडियाँ स्वयं न पाकदामन रहना चाहती हों तो उनको वेश्यावृत्ति पर विवश किया जा सकता है, बल्कि इसका अर्थ यह है कि अगर लौंडी स्वयं अपनी इच्छा से बदकारी कर बैठे तो वह अपने अपराध की ख़ुद ज़िम्मेदार है, क़ानून उसके अपराध पर उसी को पकड़ेगा, लेकिन आगर उसका स्वामी ज़बरदस्ती उससे यह पेशा कराए, तो ज़िम्मेदारी स्वामी की है और वही पकड़ा जाएगा। रहा 'दुनिया के लाभों के लिए का वाक्य तो वास्तव में यह आदेश सिद्ध करने के लिए शर्त और क़ैद के रूप में प्रयुक्त नहीं हुआ है कि अगर मालिक उसकी कमाई नहीं खा रहा हो तो लौंडी को वेश्यावृत्ति पर विवश करने में वह अपराधी न हो, बल्कि इससे अभीष्ट उस कमाई को भी हराम के आदेश में शामिल करना है जो इस अवैध ज़बरदस्ती के ज़रिये प्राप्त की गई हो। इस आदेश का पूर्ण उद्देश्य अच्छी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि उन परिस्थितियों को भी दृष्टि में रखा जाए जिनमें यह उतरा है। उस समय अरब में वेश्यावृत्ति के दो रूप प्रचलित थे। एक घरेलू पेशा, दूसरे बाकायदा चकला। घरेलू पेशा करनेवाली अधिकतर आज़ाद की हुई लौंडियाँ होती थीं जिनका कोई संरक्षक न होता या ऐसी आज़ाद औरतें होती थीं जिनको सहारा देनेबाला कोई परिवार या कबीला न होता। दूसरा रूप अर्थात् खुली वेश्यावृत्ति, पूर्ण रूप से लौंडियों के ज़रिये से होती थी। इसके दो तरीक़े थे-
एक यह कि लोग अपनी जवान लौडियों पर एक भारी रकम लगा देते थे कि हर महीने इतना कमा कर हमें दिया करें और वे बेचारियाँ बदकारी कराकर यह मांग पूरी करती थीं।
दूसरा तरीक़ा यह था कि लोग अपनी जवान-जवान सुन्दर लौंडियों को कोठों पर बिठा देते थे और उनके दरवाज़ों पर झंडे लगा देते थे जिन्हें देखकर दूर ही से मालूम हो जाता था कि जरूरतमंद आदमी' कहाँ अपनी ज़रूरत पूरी कर सकता है। ये औरतें 'कलीकियात' कहलाती थीं और इनके घर 'मवावीर के नाम से मशहूर थे । बड़े-बड़े रईसों ने इस तरह के 'चकले' खोल रखे थे। [मुनाफ़िक़ों के सरदार अब्दुल्लाह बिन उबई की ऐसी ही एक लौंडी] जिसका नाम मुआज़ा था, मुसलमान हो गई और उसने तौबा करनी चाही। इब्ने उबई ने उस पर सख्ती की। उसने जाकर हज़रत अबू बक्र (रजि०) से शिकायत की। उन्होंने मामला नबी (सल्ल०) तक पहुंचाया और नबी (सल्ल०) ने आदेश दे दिया कि लौंडी उस ज़ालिम के कब्जे से निकाल ली जाए । (इब्ने जरीर, भाग 18, पृ० 55-58, 103-104, अल-इस्तीआबे इब्ने अब्दुल बर, भाग 2, पृ० 762, इब्ने कसीर, भाग 3 पृ० 288-289)
यही समय था जब अल्लाह के पास से यह आयत उतरी। इस पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखा जाए तो साफ़ मालूम हो जाता है कि मूल उद्देश्य सिर्फ लौडियों को ज़िना (व्यभिचार) के अपराध पर मजबूर करने से रोकना नहीं है, बल्कि इस्लामी राज्य की सीमाओं में वेश्यावृत्ति (Prostitution) के कारोबार को बिल्कुल क़ानून-विरुद्ध करार दे देना है और साथ-साथ उन औरतों के लिए माफ़ी का एलान भी है जो इस कारोबार में बलात् इस्तेमाल की गई हों। अल्लाह की ओर से यह फरमान आ जाने के बाद नबी (सल्ल०) ने एलान फ़रमा दिया कि “इस्लाम में वेश्यावृत्ति के लिए कोई गुंजाइश नहीं है।" (अबू दाऊद) दूसरा हुक्म जो नबी (सल्ल०) ने दिया वह यह था कि व्यभिचार के जरिये से प्राप्त होनेवाली आमदनी हराम, नापाक और पूर्णत: निषिद्ध है । (बुख़ारी, मुस्लिम) तीसरा आदेश नबी (सल्ल०) ने यह दिया कि लौंडी से वैध रूप से केवल हाथ-पाँव को सेवा ली जा सकती है और स्वामी कोई ऐसी रक़म उसपर लागू या उसे वुसूल नहीं कर सकता जिसके बारे में वह न जानता हो कि यह रकम वह कहां से और क्या करके लाती है (अबू दाऊद, किताबुल इजारा)। इस तरह नबी (सल्ल०) ने कुरआन की इस आयत के मंशा के अनुसार वेश्यावृत्ति की उन तमाम शक्लों को धार्मिक दृष्टि से नाजाइज़ और क़ानून की दृष्टि से निषिद्ध कर दिया जो उस वक़्त अरब में प्रचलित थीं।
۞ٱللَّهُ نُورُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ مَثَلُ نُورِهِۦ كَمِشۡكَوٰةٖ فِيهَا مِصۡبَاحٌۖ ٱلۡمِصۡبَاحُ فِي زُجَاجَةٍۖ ٱلزُّجَاجَةُ كَأَنَّهَا كَوۡكَبٞ دُرِّيّٞ يُوقَدُ مِن شَجَرَةٖ مُّبَٰرَكَةٖ زَيۡتُونَةٖ لَّا شَرۡقِيَّةٖ وَلَا غَرۡبِيَّةٖ يَكَادُ زَيۡتُهَا يُضِيٓءُ وَلَوۡ لَمۡ تَمۡسَسۡهُ نَارٞۚ نُّورٌ عَلَىٰ نُورٖۚ يَهۡدِي ٱللَّهُ لِنُورِهِۦ مَن يَشَآءُۚ وَيَضۡرِبُ ٱللَّهُ ٱلۡأَمۡثَٰلَ لِلنَّاسِۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ 34
(35) अल्लाह,61 आसमानों और जमीन का नूर है62 । (सृष्टि में) उसके नूर की मिसाल ऐसी है जैसे एक ताक में चिराग़ रखा हुआ हो, चिराग़ एक फ़ानूस में हो, फ़ानूस का हाल यह हो कि जैसे मोती की तरह चमकता हुआ तारा, और वह चिराग़ ज़ैतून के एक ऐसे मुबारक63 पेड़ के तेल से रौशन किया जाता हो जो न पूर्वी हो, न पश्चिमी64, जिसका तेल आप ही आप भड़क पड़ता हो, चाहे आग उसको न लगे। (इस तरह) रौशनी पर रौशनी (बढ़ने के सभी साधन इकट्ठा हो गए हो) ।65 अल्लाह अपने नूर की ओर जिसकी चाहता है रहनुमाई फ़रमाता है66। वह लोगों को मिसालों से बात समझाता है, वह हर चीज़ को अच्छी तरह जानता है।67
61. यहाँ से बात मुनाफ़िक़ो (कपटाचारियों) के बारे में शुरू होती है जो इस्लामी समाज में फ़िलों पर फ़िले उठाए चले जा रहे थे। ये लोग |प्रत्यक्ष रूप से। मुसलमानों में शामिल थे, लेकिन वास्तव में उनकी दुनियापरस्ती ने उनकी आँखें अंधी कर रखी थीं और ईमान के दावे के बावजूद वे उस नूर से बिल्कुल अनजान थे जो कुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) के कारण दुनिया में फैल रहा था। इस मौक़े पर उनको सम्बोधित किए बिना उनके बारे में जो कुछ कहा जा रहा है उससे अभिप्रेत तीन मामले हैं-
एक यह कि उनको पाया जाए।
दूसरे यह कि ईमान और निफाक (कपटाचार) का अन्तर स्पष्ट रूप से खोलकर बयान कर दिया जाए।
तीसरे यह कि मुनाफ़िकों को स्पष्ट चेतावनी दी जाए कि अल्लाह के जो वादे ईमानवालों के लिए हैं, वे सिर्फ़ उन्हीं लोगों को पहुँचते हैं जो सच्चे दिल से ईमान लाएँ और फिर उस ईमान के तक़ाज़े पूरे करें।
62. आसमानों और जमीन का शब्द कुरआन मजीद में सामान्यतः 'सृष्टि' (कायनात) के अर्थ में प्रयोग होता है। इसलिए दूसरे शब्दों में आयत का अनुवाद यह भी हो सकता है कि अल्लाह सम्पूर्ण सृष्टि का नूर है । नूर से तात्पर्य यह चीज है जिसकी वजह से चीजें प्रकट होती हैं, अर्थात् जो आप से आप प्रकट हो और दूसरी चीजों को प्रकट करे। इंसान के मन में नूर और रौशनी का वास्तविक अर्थ यही है। अल्लाह के लिए शब्द 'नूर' का प्रयोग इसी मूल अर्थ की दृष्टि से किया गया है, न इस अर्थ में कि 'मआजल्लाह' (अल्लाह की पनाह) वह कोई किरण है जो एक लाख 86 हजार मील प्रति सेकंड की रफ्तार से चलती है और हमारी आँख के परदे पर पड़कर दिमाग के चक्षु केन्द्र को प्रभावित करती है। रौशनी की यह विशेष स्थिति उस अर्थ की वास्तविकता में शामिल नहीं है जिसके लिए मानव-मस्तिष्क ने यह शब्द गढ़ा है, बल्कि इसे हम उन रोशनियों के लिए इस्तेमाल करते हैं जो इस भौतिक जगत के अन्दर हमारे अनुभव में आते हैं। अल्लाह के लिए इंसानी भाषा के जितने शब्द भी बोले जाते हैं,वह अपने मूल अर्थ की दृष्टि से बोले जाते हैं, न कि उनके भौतिक स्वरूपों की दृष्टि से । मिसाल के तौर पर हम उसके लिए देखने का शब्द बोलते हैं। इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह इंसानों और हैवानों की तरह आँख नामी एक अंग के जरिये से देखता है। इसी तरह 'नूर' के बारे में भी यह विचार करना केवल एक संकीर्ण विचार है कि इसका अर्थ केवल किरण के रूप ही में पाया जाता है जो किसी चमकनेवाले ग्रह से निकलकर आँख के परदे पर पड़ा हो । अल्लाह के लिए यह शब्द इस सीमित अर्थ में नहीं है, बल्कि व्यापक अर्थ में है, अर्थात् इस सृष्टि में वही एक वास्तविक "प्रकटन-कारण” है, बाक़ी यहाँ अंधेरे के सिवा कुछ नहीं है। दूसरी रौशनी देनेवाली चीजें भी उसकी प्रदान की रौशनी से रौशन और रौशनगर है, वरना उनके पास अपना कुछ नहीं, जिससे वे यह करिश्मा दिखा सकें । नूर का शब्द ज्ञान के लिए भी प्रयुक्त होता है और उसके विपरीत अज्ञानता को अंधकार से परिभाषित किया जाता है। अल्लाह तआला इस अर्थ में भी सृष्टि का नूर है कि यहाँ वास्तविकताओं का ज्ञान और संमार्ग का ज्ञान अगर मिल सकता है तो उसी से मिल सकता है, उससे अनुग्रही हुए बिना अज्ञानता का अंधकार और नतीजे में गुमराही और पथभ्रष्टता के सिवा और कुछ सुभव नहीं है।
66. अर्थात् यद्यपि अल्लाह का यह नूर सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशमान कर रहा है, मगर उसकी अनुभूति हर एक को प्राप्त नहीं होती। उसकी अनुभूति और उसके यश से लाभान्वित होने का सौभाग्य अल्लाह ही जिसको चाहता है प्रदान करता है, वरना जिस तरह अंधे के लिए दिन और रात बराबर हैं, उसी तरह अविवेकी एवं चेतनाहीन इंसान के लिए बिजली और सूरज और चाँद और तारों की रौशनी तो रौशनी है, मगर अल्लाह का नूर उसको सुझाई नहीं देता।
67. इसके दो अर्थ हैं-
एक यह कि वह जानता है कि किस तथ्य को किस मिसाल से अति उत्तम ढंग से समझाया जा सकता है। दूसरे यह कि वह जानता है कि कौन इस नेमत का हक़दार है और कौन नहीं है। इसका हक़दार केवल वही है जिसे अल्लाह जानता है कि वह उसका इच्छुक और सच्चा इच्छुक है।
وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنكُمۡ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَيَسۡتَخۡلِفَنَّهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ كَمَا ٱسۡتَخۡلَفَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ وَلَيُمَكِّنَنَّ لَهُمۡ دِينَهُمُ ٱلَّذِي ٱرۡتَضَىٰ لَهُمۡ وَلَيُبَدِّلَنَّهُم مِّنۢ بَعۡدِ خَوۡفِهِمۡ أَمۡنٗاۚ يَعۡبُدُونَنِي لَا يُشۡرِكُونَ بِي شَيۡـٔٗاۚ وَمَن كَفَرَ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ 54
(55) अल्लाह ने वादा फ़रमाया है तुममें से उन लोगों के साथ जो ईमान लाएँ और नेक अमल करें कि वह उनको उसी तरह जमीन में ख़लीफ़ा बनाएगा जिस तरह उनसे पहले गुज़रे हुए लोगों को बना चुका है। उनके लिए उनके उस दीन को मज़बूत बुनियादों पर क़ायम कर देगा जिसे अल्लाह ने उनके लिए पसन्द किया है और उनकी (वर्तमान) भय की हालत को निश्चिन्तता से में बदल देगा। अत: वे मेरी बन्दगी करें और मेरे साथ किसी को शरीक न करें।83 और जो इसके बाद कुफ़्र करे84, तो ऐसे ही लोग फ़ासिक़ हैं ।
83. इस कथन का अभीष्ट मुनाफ़िकों को सचेत करना है कि अल्लाह ने मुसलमानों को खिलाफ़त देने का जो वादा किया है, वह उन मुसलमानों से किया है जो ईमान के सच्चे हों, चरित्र और आचरण की दृष्टि से नेक हों, अल्लाह के पसन्दीदा दीन की पैरवी करनेवाले हों और हर तरह के शिर्क से पाक होकर अल्लाह की विशुद्ध बन्दगी व गुलामी के पाबन्द हों। इन गुणों से खाली और मात्र ज़बान से ईमान के दावेदार लोग न इस वादे के योग्य हैं और न यह उनसे कहा ही गया है। अत: वे इसमें हिस्सेदार होने की आशा न रखें। कुछ लोग खिलाफ़त को केवल हुकूमत और शासनाधिकार और प्रभुत्व व सत्ता के अर्थ में लेते हैं, फिर इस आयत से यह नतीजा निकालते हैं कि जिसको भी दुनिया में सत्ता प्राप्त है उसे खिलाफ़त प्राप्त है और वह मोमिन और सदाचारी और अल्लाह के पसन्दीदा दीन का अनुयायी और सत्य की बन्दगी पर अमल करनेवाला और शिर्क से बचनेवाला है, और इसपर और ज़्यादा सितम यह ढाते हैं कि अपने इस ग़लत नतीजे को ठीक बिठाने के लिए ईमान, सदाचार, सत्य-धर्म, ईश-उपासना और शिर्क, हर चीज़ का अर्थ बदलकर वह कुछ बना डालते हैं जो उनके इस विचारधारा के अनुसार हो। यह क़ुरआन के अर्थों में सबसे बुरा बिगाड़ है, जो यहूदी व ईसाई के बिगाड़ों से भी बाज़ी ले गया है। क़ुरआन वास्तव में ख़िलाफ़त और 'इस्तिख्लाफ' (ख़लीफ़ा बनाया जाने) को तीन विभिन्न अर्थों में इस्तेमाल करता है और हर जगह प्रसंग और संदर्भ को देखने से पता चल जाता है कि कहाँ किस अर्थ में यह शब्द बोला गया है-
इसका एक अर्थ है,"अल्लाह के दिए हुए अधिकारों का धारक होना।" इस अर्थ में आदम की पूरी औलाद ज़मीन में ख़लीफ़ा है।
दूसरा अर्थ है "अल्लाह की संप्रभुता को मानते हुए उसके शरई हुक्म (न कि केवल प्राकृतिक हुक्म) के तहत ख़िलाफ़त के अधिकारों के इस्तेमाल करना'। इस अर्थ में केवल सदाचारी ईमानवाला ही ख़लीफ़ा क़रार पाता है।
तीसरा अर्थ है 'एक दौर की सत्ताधारी क़ौम के बाद दूसरी क़ौम का उसकी जगह लेना।' पहले दोनों अर्थों के अनुसार ख़िलाफ़त 'नियावत' (प्रतिनिधित्व) के अर्थ में है और अन्तिम अर्थ ख़िलाफ़त 'जानशीनी' (उत्तराधिकार) के अर्थ में लिया गया है। और इस शब्द के ये दोनों अर्थ अरबी भाषा में प्रचलित हैं। अब जो आदमी भी यहाँ इस सन्दर्भ में 'इस्तिख्लाफ़ की आयत' को पढ़ेगा, वह एक क्षण के लिए भी इस मामले में सन्देह नहीं कर सकता कि इस जगह 'खिलाफ़त' का शब्द उस हुकूमत के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जो अल्लाह के शरई हुक्म के अनुसार (न कि केवल प्राकृतिक नियमों के अनुसार) उसकी नियाबत (प्रतिनिधित्व) का ठीक-ठाक हक़ अदा करनेवाला हो । इसी लिए विधर्मी तो दूर की बात, इस्लाम का दावा करनेवाले मुनाफ़िक़ों तक को इस वादे में शरीक करने से इंकार किया जा रहा है । इसी लिए फ़रमाया जा रहा है कि इसके हक़दार सिर्फ़ ईमान और अच्छे कर्मों के गुणों से विभूषित लोग हैं। इसी लिए ख़िलाफ़त के क़ायम होने का परिणाम यह बताया जा रहा है कि अल्लाह का पसन्द किया हुआ दीन अर्थात इस्लाम मज़बूत बुनियादों पर क़ायम हो जाएगा और इसी लिए इस इनाम को प्रदान करने की शर्त यह बताई जा रही है कि ख़ालिस अल्लाह की बन्दगी पर कायम रहो जिसमें शिर्क को तनिक भर भी मिलावट न होने पाए। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-21 अंबिया, टिप्पणी 19)। इस जगह एक और बात भी उल्लेखनीय है। यह वादा बाद के मुसलमानों को तो अप्रत्यक्ष रूप से पहुँचता है। प्रत्यक्ष रूप से उसका संबोधन उन लोगों से था जो नबी (सल्ल०) के समय में मौजूद थे। वादा जब किया गया था उस समय वास्तव में मुसलमानों पर भय कि स्थिति बनी हुई थी और इस्लाम धर्म ने अभी हिजाज़ की धरती में भी मज़बूत जड़ नहीं पकड़ी थी। इसके कुछ साल बाद भय की यह हालत न सिर्फ शान्ति में बदल गई, बल्कि इस्लाम अरब से निकलकर एशिया और अफ्रीका के बड़े हिस्से पर छा गया और इसकी जड़ें अपनी जन्मभूमि ही में नहीं, पूरी दुनिया पर जम गयी। यह इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण है कि अल्लाह ने अपना वायदा अबू बक्र सिद्दीक़ (रजि०), उमर फ़ारूक़ (रजि०) और उस्मान ग़नी (रजि०) के समय में पूरा कर दिया। इसके बाद कोई न्यायप्रिय व्यक्ति बड़ी कठिनाई ही से इस बात में सन्देह कर सकता है कि इन तीनों हज़रात की ख़िलाफ़त की ख़ुद क़ुरआन पुष्टि करता है और इनके सदाचारी ईमानवाले होने की गवाही अल्लाह स्वयं दे रहा है। इसमें अगर किसी को सन्देह हो तो नहजुल बलाग़ा में सय्यिदना अली कर्मल्लाहु वजहू का वह भाषण पढ़ ले जो उन्होंने हज़रत उमर को ईरानियों के मुक़ाबले पर स्वयं जाने के इरादे से बाज़ रखने के लिए किया था इसमें वे फ़रमाते हैं, "इस काम की उन्नति व अवनति, आधिक्य व अल्पता पर आश्रित नहीं है। यह तो अल्लाह का धर्म है जिसको उसने उन्नति प्रदान की और अल्लाह का शुक्र है जिसका उसने समर्थन व सहायता की, यहाँ तक कि यह उन्नति करके इस मंज़िल तक पहुँच गया। हमसे तो अल्लाह स्वयं फ़रमा चुका है, "अल्लाह ने वादा किया है उन लोगों को जो ईमान लाए हैं और जिन्होंने भले कर्म किए हैं कि उन्हें जमीन में ज़रूर खलीफा बनाएगा ...।" अल्लाह इस वादे को पूरा करके रहेगा और अपनी फौज की मदद ज़रूर करेगा। इस्लाम में कय्यिम' प्रमुख (अधिकारी) का स्थान वही है जो मोतियों के हार में रिश्ते (धागा) का स्थान है। रिश्ता टूटते ही मोती बिखर जाते हैं और सिलसिला टूट जाता है और बिखर जाने के बाद फिर जमा होना कठिन हो जाता । इसमें सन्देह नहीं कि अरव तादाद में थोड़े हैं, मगर इस्लाम ने उनको ज्यादा और संगठन ने उनको सशक्त बना दिया है। आप यहाँ कुत्व बनकर जमे बैठे रहें और अरब की चक्की को अपने गिर्द घुमाते रहे और यहीं से बैठे-बैठे लड़ाई की आग भड़काते रहें। वरना आप अगर एक बार यहाँ से हट गए तो हर ओर से अरब की व्यवस्था टूटना शुरू हो जाएगी और नौबत यह आ जाएगी कि आपको सामने के दुश्मनों के मुकाबले में पीछे के ख़तरों की अधिक चिंता होगी और उधर ईरानी आप ही के ऊपर नज़रें जमा देंगे कि यह अरब की जड़ है। इसे काट दो तो बेड़ा पार है । इसलिए वे सारा ज़ोर आपको समाप्त कर देने पर लगा देंगे। रही वह बात जो आपने फ़रमाई है कि इस वक़्त अजम (गैर-अरब) वाले बड़ी भारी संख्या में उमड़ आए हैं, तो इसका उत्तर यह है कि इससे पहले भी हम जो उनसे लड़ते रहे हैं तो कुछ संख्या की अधिकता के बल पर नहीं लड़ते रहे हैं, बल्कि अल्लाह के समर्थन और उसकी सहायता ही ने आज तक हमें कामयाब कराया है।"
देखनेवाला स्वयं ही देख सकता है कि भाषण में जनाबे अमीर (अली रजि०) किसपर इस्तिनाफ़ की आयत को चरितार्थ कर रहे हैं।
84. कुफ़्र से तात्पर्य यहाँ नेमतों की नाशुक्री भी हो सकती है और सत्य का इंकार भी। पहला अर्थ उन लोगों पर चरितार्थ होगा जो ख़िलाफ़त की नेमत पाने के बाद सत्य के मार्ग से हट जाएँ और दूसरा अर्थ उन लोगों पर चरितार्थ होगा जो मुनाफ़िक़ होंगे, जो अल्लाह का यह वादा सुन लेने के बाद भी अपनी मुनाफ़िक़ाना (कपट पूर्ण) रविश न छोड़ें।
لَّيۡسَ عَلَى ٱلۡأَعۡمَىٰ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡأَعۡرَجِ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡمَرِيضِ حَرَجٞ وَلَا عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۡ أَن تَأۡكُلُواْ مِنۢ بُيُوتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ ءَابَآئِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أُمَّهَٰتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ إِخۡوَٰنِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أَخَوَٰتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أَعۡمَٰمِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ عَمَّٰتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أَخۡوَٰلِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ خَٰلَٰتِكُمۡ أَوۡ مَا مَلَكۡتُم مَّفَاتِحَهُۥٓ أَوۡ صَدِيقِكُمۡۚ لَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَأۡكُلُواْ جَمِيعًا أَوۡ أَشۡتَاتٗاۚ فَإِذَا دَخَلۡتُم بُيُوتٗا فَسَلِّمُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۡ تَحِيَّةٗ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِ مُبَٰرَكَةٗ طَيِّبَةٗۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ 60
(61) कोई दोष नहीं अगर कोई अंधा, या लंगड़ा, या रोगी (किसी के घर से खा ले) और न तुम्हारे ऊपर इसमें कोई दोष है कि अपने घरों से खाओ या अपने बाप-दादा के घरों से, या अपनी माँ-नानी के घरों से, या अपने भाइयों के घरों से, या अपनी बहनों के घरों से, या अपने चचाओं के घरों से, या अपनी फूफियों के घरों से, या अपने मामुओं के घरों से, या अपनी खालाओं के घरों से, था उन घरों से जिनकी कुजियाँ तुम्हारी सुपुर्दगी में हो, या अपने दोस्तों के घरों से।95 इसमें भी कोई दोष नही कि तुम लोग मिलकर खाओ या अलग-अलग96, अलबत्ता जब घरों में दाख़िल हुआ करो तो अपने लोगों को सलाम किया करो, अच्छी दुआ, अल्लाह की ओर से निश्चित की हुई, बड़ी बरकतवाली और पाक । इसी तरह अल्लाह तुम्हारे सामने आयते बयान करता है, उम्मीद है कि तुम सूझ-बूझ से काम लोगे।
95. इस आयत को समझने के लिए तीन बातों को समझ लेना आवश्यक है-
एक यह कि आयत के दो भाग हैं। पहला भाग बीमार, लंगड़े, अंधे और इसी तरह के अपंग विवश लोगों के बारे में है और दूसरा आम लोगों के बारे में।
दूसरे यह कि कुरआन की नैतिक शिक्षाओं की वजह से हराम व हलाल और जाइज़ व नाजाइज़ का अन्तर करने के मामले में ईमानवालों की चेतना शक्ति बड़ी नाजुक हो गई थी। इल्ने अब्बास (रजि०) के कथन के अनुसार अल्लाह ने जब उनको हुक्म दिया कि 'एक-दूसरे के माल नाजाइज़ तरीक़ों से न खाओ' तो लोग एक-दूसरे के यहाँ खाना खाने में भी बड़ी सावधानी बरतने लगे थे, यहाँ तक कि बिल्कुल कानूनी शर्तों के अनुसार घरवालों की दावत व इजाजत जब तक न हो, वे समझते थे कि किसी रिश्तेदार या दोस्त के यहाँ खाना भी नाजाइज़ है।
तीसरे यह कि इसमें अपने घरों से खाने का जो उल्लेख है, वह इजाजत देने के लिए नहीं बल्कि मन में यह बिठाने के लिए है कि अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के यहाँ खाना भी ऐसा ही है जैसे अपने यहाँ खाना।
इन तीन बातों को समझ लेने के बाद आयत का यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ तक विवश व्यक्ति का ताल्लुक है, वह अपनी भूख दूर करने के लिए हर घर और हर जगह से खा सकता है, उसकी विवशता अपने आप में सारे समाज पर उसका अधिकार क़ायम कर देती है। इसलिए जहाँ से भी उसको खाने के लिए मिले, वह उसके लिए जाइज़ है। रहे आम आदमी, तो उनके लिए उनके अपने घर और उन लोगों के घर जिनका उल्लेख किया गया है, बराबर हैं। इनमें से किसी के यहाँ खाने के लिए घरवालों की विधिवत अनुमति | जरूरी नहीं है।। आदमी अगर इनमें से किसी के यहाँ जाए और घर का मालिक मौजूद न हो और उसके बीवी-बच्चे खाने को कुछ पेश करें तो वह नि:संकोच भाव से खाया जा सकता है। दोस्तों के बारे में यह बात ध्यान में रहे कि उनसे तात्पर्य अंतरंग और घनिष्ठ मित्र हैं।
96. प्राचीन काल के अरबवासियों में कुछ कबीलों की संस्कृति यह थी कि हर एक अलग-अलग खाना लेकर बैठे और खाए । ने मिलकर एक ही जगह खाना बुरा समझते थे। इसके विपरीत कुछ क़बीले अकेले खाने को बुरा जानते थे, यहाँ तक कि भूखे रह जाते थे अगर कोई साथ खानेवाला न हो। यह आयत इसी तरह की पाबन्दियों को खत्म करने के लिए है।