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سُورَةُ الفُرۡقَانِ

25. अल-फ़ुरक़ान 

(मक्का में उतरी-आयतें 77)

परिचय

नाम

पहली ही आयत 'त बा-र-कल्लज़ी नज़्ज़-लल फ़ुर-क़ान' अर्थात् 'बहुत ही बरकतवाला है वह, जिसने यह फ़ुरक़ान (कसौटी) अवतरित किया' से लिया गया है। यह भी क़ुरआन की अधिकतर सूरतों के नामों की तरह पहचान के रूप में है, न कि विषय के शीर्षक के रूप में। फिर भी इस सूरा के विषय में यह नाम क़रीबी लगाव रखता है, जैसा कि आगे चलकर मालूम होगा।

उतरने का समय

वर्णन-शैली और विषय पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि इसके उतरने का समय भी वही है जो सूरा-23 मोमिनून आदि का है, अर्थात् मक्का निवास का मध्यकाल।

विषय और वार्ताएँ

इसमें उन सन्देहों और आपत्तियों पर वार्ता की गई है जो क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत और आपकी पेश की हुई शिक्षा पर मक्का के विधर्मियों की ओर से की जाती थीं। उनमें से एक-एक का जंचा-तुला उत्तर दिया गया है और साथ-साथ सत्य सन्देश से मुंँह मोड़ने के दुष्परिणाम भी स्पष्ट शब्दों में बताए गए हैं। अन्त में सूरा-23 मोमिनून की तरह ईमानवालों के नैतिक गुणों का एक चित्र खींचकर आम लोगों के सामने रख दिया गया है कि इस कसौटी पर कस कर देख लो, कौन खोटा है और कौन खरा है। एक ओर इस चरित्र एवं आचरण के लोग हैं जो मुहम्मद (सल्ल०) की शिक्षा से अब तक तैयार हुए है और आगे तैयार करने की कोशिश हो रही है। दूसरी ओर नैतिकता का वह नमूना है जो आम अरबो में पाया जाता है और जिसे बाक़ी रखने के लिए अज्ञानता के ध्वजावाहक एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं। अब स्वयं फ़ैसला करो कि इन दोनों नमूनों में से किसे पसन्द करते हो? यह एक सांकेतिक प्रश्‍न था जो अरब के हर वासी के सामने रख दिया गया और कुछ साल के भीतर एक छोटी सी तादाद को छोड़कर सारी क़ौम ने इसका जो उत्तर दिया वह समय की किताब में लिखा जा चुका है।

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سُورَةُ الفُرۡقَانِ
25. अल-फुरकान
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
تَبَارَكَ ٱلَّذِي نَزَّلَ ٱلۡفُرۡقَانَ عَلَىٰ عَبۡدِهِۦ لِيَكُونَ لِلۡعَٰلَمِينَ نَذِيرًا
(1) बड़ा बरकतवाला1 है वह जिसने यह फ़ुरक़ान 2 अपने बन्दे पर उतारा है 3, ताकि सारी दुनियावालों के लिए ख़बरदार कर देनेवाला हो 4
1. मूल में अरबी शब्द 'तबा-र-क' प्रयुक्त हुआ है जिसका पूरा अर्थ अत्यंत सम्पन्नता, बढ़ती और चढ़ती सम्पन्नता और उच्च श्रेणी की स्थिरता है। यह शब्द अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग हैसियतों से किसी चीज़ की समृद्धि के लिए या उसकी सुदृढ़ता और स्थायित्व की स्थिति स्पष्ट करने के लिए बोला जाता है। यहाँ जो विषय आगे चलकर बयान हो रहा है उसको दृष्टि में रखा जाए तो मालूम होता है कि इस जगह अल्लाह के लिए 'त-ब-र-क' एक अर्थ में नहीं, बहुत-से अर्थों में प्रयुक्त हुआ है- (1) बड़ा उपकारी और अत्यन्त ख़ैर-भलाईवाला, (2) अति बुजुर्ग और महान (3) अत्यंत पवित्र और विशुद्ध (4) अति उच्च व श्रेष्ठ, (5) पूर्ण सामर्थ्य की दृष्टि से श्रेष्ठ (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-23 अल-मोमिमून, टिप्पणी 14, सूरा-25 अल-फ़ुरक़ान, टिप्पणी 19)।
2. अर्थात् क़ुरआन मजीद । फ़ुरक़ान का अर्थ है दो चीज़ों को अलग-अलग करना या एक ही चीज़ के अंशों का अलग-अलग होना। कुरआन मजीद के लिए एक शब्द का प्रयोग या तो 'फ़ारिक' (अलग-अलग करनेवाला) के अर्थ में हुआ है या मफरूक (अलग-अलग किए हुए अंश) के अर्थ में, या फिर इसका अभिप्राय अतिशयोक्ति है। अगर इसे पहले और तीसरे अर्थ में लिया जाए तो इसका सही अनुवाद कसौटी और निर्णायक वस्तु व मानदंड होगा और अगर दूसरे अर्थ में लिया जाए तो इसका अर्थ अलग-अलग हिस्सों पर आधारित और अलग-अलग समयों में आनेवाले हिस्सों पर आधारित चीज़ होंगे। क़ुरआन मजीद को इन दोनों ही दृष्टि से 'अल-फुरकान' कहा गया है।
ٱلَّذِي لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَمۡ يَتَّخِذۡ وَلَدٗا وَلَمۡ يَكُن لَّهُۥ شَرِيكٞ فِي ٱلۡمُلۡكِ وَخَلَقَ كُلَّ شَيۡءٖ فَقَدَّرَهُۥ تَقۡدِيرٗا ۝ 1
(2) वह जो ज़मीन और आसमानों की बादशाही का मालिक है,5 जिसने किसी को बेटा नहीं बनाया है6, जिसके साथ बादशाही में कोई साझीदार नहीं है,7 जिसने हर चीज़ को पैदा किया, फिर उनका एक भाग्य निश्चित किया।8
5. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि “आसमानों और ज़मीन की बादशाही उसी के लिए है", अर्थात् वही इसका अधिकारी है और उसी के लिए वह मुख्य है।
6. अर्थात् न तो किसी से उसका कोई वंशीय-संबंध है और न किसी को उसने अपना बेटा बनाया है (कि इस) आधार पर उसे उपास्य होने का अधिकार पहुंचता हो। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-10 युनूस, टिप्पणी 66-68)।
وَٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةٗ لَّا يَخۡلُقُونَ شَيۡـٔٗا وَهُمۡ يُخۡلَقُونَ وَلَا يَمۡلِكُونَ لِأَنفُسِهِمۡ ضَرّٗا وَلَا نَفۡعٗا وَلَا يَمۡلِكُونَ مَوۡتٗا وَلَا حَيَوٰةٗ وَلَا نُشُورٗا ۝ 2
(3) लोगों ने उसे छोड़कर ऐसे उपास्य बना लिए जो चीज़ को पैदा नहीं करते, बल्कि स्वयं पैदा किए जाते हैं। 9 जो स्वयं अपने लिए भी किसी लाभ या हानि का अधिकार नहीं रखते, जो न मार सकते हैं, न जिला सकते हैं, न मरे हुए को फिर उठा सकते हैं। 10
9. सारगर्भित शब्द हैं जो हर प्रकार के नकली उपास्यों पर हावी हैं। वे भी जिनको अल्लाह ने पैदा किया है और इंसान उनको उपास्यं मान बैठा, जैसे फ़रिश्ते, जिन्न, नबी, वली, सूरज, चाँद, गृह, पेड़, नदी, जानवर आदि और वे भी जिनको इंसान स्वयं बनाता है और स्वयं ही उपास्य बना लेता है, जैसे पत्थर और लकड़ी के बुत।
10. सारांश यह कि अल्लाह ने अपने एक बंदे पर फुरकान इसलिए उतारा कि वास्तविकता तो थी वह और लोग उससे ग़ाफ़िल होकर पड़ गए इस गुमराही में , इसलिए एक बन्दा ख़बरदार करनेवाला बनाकर उठाया गया है ताकि लोगों को इस मूर्खता के बुरे नतीजों से खबरदार करे, और उसपर क्रमशः यह फुरकान उतारना शुरू किया गया है ताकि उसके ज़रिये से वह सत्य को असत्य से और खरे को खोटे से अलग करके दिखा दे।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّآ إِفۡكٌ ٱفۡتَرَىٰهُ وَأَعَانَهُۥ عَلَيۡهِ قَوۡمٌ ءَاخَرُونَۖ فَقَدۡ جَآءُو ظُلۡمٗا وَزُورٗا ۝ 3
(4) जिन लोगों ने नबी की बात मानने से इंकार कर दिया है, वे कहते हैं कि "यह फ़ुरक़ान एक मनगढन्त चीज़ है जिसे इस आदमी ने आप ही गढ़ लिया है और कुछ दूसरे लोगों ने इस काम में उसकी मदद की है।" बड़ा ज़ुल्म11 और महाझूठ है जिसपर ये लोग उतर आए हैं।
11. दूसरा अनुवाद 'बड़ी बे-इंसाफ़ी की बात' भी हो सकता है।
وَقَالُوٓاْ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ٱكۡتَتَبَهَا فَهِيَ تُمۡلَىٰ عَلَيۡهِ بُكۡرَةٗ وَأَصِيلٗا ۝ 4
(5) कहते हैं, "ये पुराने लोगों की लिखी हुई चीज़े हैं जिन्हें यह आदमी नक़ल कराता है और वह इसे सुबह और शाम सुनाई जाती हैं।”
قُلۡ أَنزَلَهُ ٱلَّذِي يَعۡلَمُ ٱلسِّرَّ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ إِنَّهُۥ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 5
(6) ऐ नबी इनसे कहो कि “इसे उतारा है उसने जो ज़मीन और आसमानों का भेद जानता है।‘’12 वास्तविकता यह है कि वह बड़ा क्षमाशील और दयावान है।13
12. यह वही आपत्ति है जो इस ज़माने के प्राच्यविद् क़ुरआन मजीद के विरुद्ध करते हैं, लेकिन यह विचित्र बात है कि नबी (सल्ल०) के समकालीन दुश्मनों में से किसी ने भी यह नहीं कहा कि तुम बचपन में बुहैरा राहिब से जब मिले थे उस वक़्त ये सारी बातें तुमने सीख ली थीं और न यह कहा कि जवानी में जब व्यापारिक यात्राओं के सिलसिले में बाहर जाया करते थे तब उस समय में तुमने ईसाई राहिबों (संन्यासियों) और यहूदी रिब्ब्यिों (विद्वानों) से जानकारियाँ ली थीं। इसलिए कि इन सारी यात्राओं का हाल उनको मालूम था। ये यात्राएं अकेले नहीं हुई थी, उनके अपने क़ाफ़िलों के साथ हुई थीं और वे जानते थे कि इनमें कुछ सीख आने का आरोप हम लगाएँगे तो हमारे अपने ही शहर में सैकड़ों ज़बाने हमको झुठला देंगी। यही कारण है कि मक्का के कुफ़्फ़ार ने इतने सफेद झूठ का दुस्साहस न किया और उसे बाद के अधिक निर्लज्ज लोगों के लिए छोड़ दिया। वे जो बात कहते थे वह नुबूवत से पहले के बारे में नहीं, बल्कि नुबूबत के दावे के समय के बारे में थी। उनका कहना यह था कि यह आदमी अनपढ़ है, स्वयं पढ़ करके नई जानकारियाँ प्राप्त कर नहीं सकता, पहले उसने कुछ सीखा न था, चालीस वर्ष की उम्र तक उन बातों में से कोई बात भी न जानता था जो आज उसके मुख से निकल रही हैं। अब आखिर ये जानकारियां आ कहाँ से रही हैं ? उनका स्रोत अवश्य ही कुछ अगले लोगों की किताबें हैं जिनके हिस्से रातों को चुपके चुपके अनुवाद और नकल कराए जाते हैं, उन्हें किसी से यह आदमी पढ़वाकर सुनता है और फिर उन्हें याद करके हमें दिन को सुनाता है। रिवायतो से मालूम होता है कि इस सिलसिले में वह कुछ आदमियों का नाम भी लेते थे जो अहले किताब थे, पढ़े-लिखे थे और मक्का में रहते थे, अर्थात् अदास (हुवैतिब बिन अब्दुल उज्जा का आज़ाद किया हुआ गुलाम), यसार (अला बिन हज़रमी का आज़ाद किया हुआ गुलाम) और जब (आमिर बिन रबीआ का आज़ाद किया हुआ गुलाम)। प्रत्यक्ष में बड़ी भारी आपत्ति मालूम होती है मगर उत्तर में सिरे से कोई दलील प्रस्तुत नहीं की गई है। इसका कारण यह है कि यह आपति थी ही इतनी पोच और बेवज़न कि इसके उत्तर में बस 'झूठ और जुल्म' कह देना काफ़ी था। इस वास्तविकता का प्रमाण) हमें उसी माहौल से मिल जाता है जिसमें इस्लाम के विरोधियों ने यह आपत्ति की थी- पहली बात यह थी कि मक्का के वे ज़ालिम सरदार जो एक-एक मुसलमान को मारते कूटते और तंग करते फिर रहे थे, उनके लिए यह बात कुछ भी मुशकिल न थी कि जिन-जिन लोगों के बारे में वे कहते थे कि यह पुरानौ-पुरानी किताबों के अनुवाद कर-करके मुहम्मद (सल्ल०) को याद कराया करते हैं, उनके घरों पर और स्वयं नबी (सल्ल०) के घर पर छापे मारते और वह सारा भंडार बरामद करके जनता के सामने ला रखते जो उनके दावे में इस काम के लिए जुटाया गया था, मगर वे बस खिक आपत्ति ही करते रहे और एक दिन भी यह निर्णायक कदम उठाकर उन्होंने न दिखाया। दूसरी बात यह थी कि इस सिलसिले में वे जिन लोगों के नाम लेते थे, वे कहीं बाहर के न थे, उसी शहर मक्का के रहनेवाले थे। उनकी योग्यताएँ किसी से छिपी हुई न थीं। हर आदमी जो थोड़ी-सी बुद्धि भी रखता था यह देख सकता था कि मुहम्मद (सल्ल०) जो चीज़ प्रस्तुत कर रहे हैं, वह किस दर्जे की है और वे किस श्रेणी के लोग हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि मुहम्मद (सल्ल०) इनसे यह सब कुछ प्राप्त करके ला रहे हैं। इसी लिए किसी ने भी इस आपत्ति को कोई महत्व न दिया। तीसरी बात यह थी कि वे सब लोग, जिनका इस सिलसिले में नाम लिया जा रहा था, बाहर के देशों से आए हुए ग़ुलाम थे जिनको उनके मालिकों ने आज़ाद कर दिया था। अरब की कामयाबी में कोई व्यक्ति भी किसी शक्तिशाली कबीले की हिमायत के बिना न जी सकता था। आजाद हो जाने पर भी गुलाम अपने पिछले मालिकों की सरपरस्ती में रहते थे और उनका समर्थन ही समाज में उनके लिए जिंदगी का सहारा होता था। [अब आख़िर यह कैसे संभव था कि ये लोग अपने सरपरस्तों को नाराज़ करके मुहम्मद (सल्ल०) के साथ इस पडयंत्र में शरीक हो जाते, जिससे लाभ की तो कोई आशा नहीं की जा सकती थी, अलबत्ता मुसीबतों और मुश्किलों के दरवाज़े उनके लिए अवश्य ही खुल जाते । ये [और इसी तरह के और भी] कारण थे जिनके आधार पर हर सुननेवाले की दृष्टि में यह आपत्ति स्वयं ही महत्वहीन थी। इसलिए क़ुरआन में उसको किसी भारी आपत्ति को हैसियत से जवाब देने के लिए उद्धृत नहीं किया गया है बल्कि यह बताने के लिए इसका उल्लेख किया गया है कि देखो, सत्य के विरोध में ये लोग कैसे अंधे हो गए हैं, और कितने स्पष्ट झूठ और बे-इंसाफ़ी पर उतर आए हैं।
13. इस जगह यह वाक्य बड़ा अर्थपूर्ण है। अर्थ यह है कि क्या शान है अल्लाह की दयालुता और क्षमाशीलता की, जो लोग सत्य को नीचा दिखाने के लिए ऐसे-ऐसे झूठ के तूफान उठाते हैं, उनको भी वह मोहलत देता है और सुनते ही अज़ाब कर कोड़ा नहीं बरसा देता। इस चेतावनी के साथ इसमें एक पहलू उपदेश का भी है कि ज़ालिमो, अब भी अगर अपनी दुश्मनी से बाज़ आ जाओ और हक़ बात को सीधी तरह मान लो तो जो कुछ आज तक करते रहे हो, वह सब माफ़ हो सकता है।
وَقَالُواْ مَالِ هَٰذَا ٱلرَّسُولِ يَأۡكُلُ ٱلطَّعَامَ وَيَمۡشِي فِي ٱلۡأَسۡوَاقِ لَوۡلَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِ مَلَكٞ فَيَكُونَ مَعَهُۥ نَذِيرًا ۝ 6
(7) कहते हैं, “यह कैसा रसूल है जो खाना खाता है और बाजारों में चलता फिरता है?14 क्यों न इसके पास कोई फ़रिश्ता भेजा गया जो इसके साथ रहता और (न माननेवालों को) धमकाता15?
14. अर्थात् एक तो इंसान का रसूल होना ही विचित्र बात है, फिर भी अगर आदमी ही रसूल बनाया गया था तो कम से कम वह बादशाहों और दुनिया के बड़े लोगों की तरह एक उच्च श्रेणी का व्यक्तित्व होना चाहिए था, न यह कि एक ऐसा आम आदमी जगत के स्वामी का पैग़म्बर बना दिया जाए जो बाज़ारों में चलता-फिरता है। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 26)
15. अर्थात् अगर आदमी ही को नबी बनाया गया था तो एक फ़रिश्ता उसके साथ कर दिया जाता, जो हर वक़्त कोड़ा हाथ में लिए रहता और लोगों से कहता कि मानो इसकी बात, वरना अभी अल्लाह का अज़ाब बरसा देता हूँ। यह तो बड़ी विचित्र बात है कि सृष्टि का स्वामी एक आदमी को पैग़म्बरी का महान पद प्रदान करके बस यूँ ही अकेला छोड़ दे और वह लोगों से गालियाँ और पत्थर खाता फिरे।
أَوۡ يُلۡقَىٰٓ إِلَيۡهِ كَنزٌ أَوۡ تَكُونُ لَهُۥ جَنَّةٞ يَأۡكُلُ مِنۡهَاۚ وَقَالَ ٱلظَّٰلِمُونَ إِن تَتَّبِعُونَ إِلَّا رَجُلٗا مَّسۡحُورًا ۝ 7
(8) या और कुछ नहीं तो इसके लिए कोई ख़ज़ाना ही उतार दिया जाता या इसके पास कोई बाग़ ही होता जिससे यह (निश्चिंतता की) रोज़ी प्राप्त करता"16, और ये ज़ालिम कहते हैं, "तुम लोग तो जादू के मारे17 एक आदमी के पीछे लग गए हो।
16. यह मानो उनकी मांग थी कि खुदा कम से कम इतना तो करता कि अपने रसूल के लिए रोज़ी का कोई अच्छा प्रबन्ध कर देता। यह क्या माजरा है कि अल्लाह का रसूल हमारे मामूली रईसों से भी गया-गुज़रा हो।
17. अर्थात दीवाना। अरबवासियों के नज़दीक दीवानगी के दो ही कारण थे, या तो किसी पर जिन्न का साया हो गया हो या किसी दुश्मन ने जादू करके पागल बना दिया हो। एक तीसरा कारण उनके नज़दीक और भी था और वह यह कि किसी देवी या देवता को शान में आदमी कोई गुस्ताखी कर बैठा हो और उसकी मार पड़ गई हो । मक्का के विधर्मी समय-समय पर ये तीनों कारण नबी (सल्ल०) के बारे में बयान करते थे।
ٱنظُرۡ كَيۡفَ ضَرَبُواْ لَكَ ٱلۡأَمۡثَٰلَ فَضَلُّواْ فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ سَبِيلٗا ۝ 8
(9) देखो, कैसे-कैसे तर्क ये लोग तुम्हारे आगे प्रस्तुत कर रहे हैं, ऐसे बहके है कि कोई ठिकाने की बात इनको नहीं सूझती।18
18. ये आपत्तियां भी जवाब देने के लिए नहीं, बल्कि यह बताने के लिए नकल की जा रही हैं कि आपत्ति करनेवाले अधिक दुश्मनी और तास्मन में कितने अंधे हो चुके हैं। उनकी जो बातें ऊपर उदत की गई हैं उनमें से कोई भी इस योग्य नहीं है उसपर गंभीरता के साथ वार्ता की जाए। इनका बस उल्लेख कर देना ही यह बताने के लिए पर्याप्त है कि विरोधियों का दामन बुद्धिगत तों से कितना खाली है और वे कैसी लचर और पोच बातों से एक तर्कपूर्ण सैद्धांतिक आहवान का मुकाबला कर रहे हैं। एक आदमी [इनके सामने अल्लाह का सन्देश रखता है। तौहीद और आखिरत और वह्य व रिसालत की सच्चाइयाँ प्रस्तुत करता है और स्पष्ट प्रमाणों के साथ प्रस्तुत करता है] मगर विरोध करनेवाले उनमें से किसी [बात पर भी कान नहीं धरते]। पूछते हैं तो यह पूछते हैं कि तुम खाते क्यों हो? बाजारों में क्यों चलते-फिरते हो? तुम्हारी अरदली में कोई फरिश्ता क्यों नहीं है? तुम्हारे पास कोई खजाना या बारा क्यों नहीं है? ये बातें ख़ुद ही बता रही थी कि दोनों पक्षों में से सत्य पर कौन है और कौन इसके मुकाबले में विवश होकर बे-तुकी हाँक रहा है।
تَبَارَكَ ٱلَّذِيٓ إِن شَآءَ جَعَلَ لَكَ خَيۡرٗا مِّن ذَٰلِكَ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ وَيَجۡعَل لَّكَ قُصُورَۢا ۝ 9
(10) बड़ी बरकतवाला है 19 वह जो अगर चाहे तो इनकी प्रस्तावित वस्तुओं से भी अधिक बढ़-चढ़कर तुमको दे सकता है, (एक नही) बहुत-से आरा जिनके नीचे नहरें बहती हो और बड़े बड़े महल।
19. यहाँ फिर वही 'तबा-र-क' का शब्द प्रयुक्त हुआ है ।जो आयत नं. 1 में प्रयुक्त हुआ था। और बाद का विषय बता रहा है कि इस जगह इसके अर्थ है "बड़े व्यापक साधनों का स्वामी है", "असीम सामर्थ्य रखनेवाला है", "इससे उच्च है कि किसी के पक्ष में कोई भलाई करना चाहे और न कर सके।"
بَلۡ كَذَّبُواْ بِٱلسَّاعَةِۖ وَأَعۡتَدۡنَا لِمَن كَذَّبَ بِٱلسَّاعَةِ سَعِيرًا ۝ 10
(11) वास्तविक बात है यह कि ये लोग "उस घड़ी"20 को झुठला चुके हैं 21- और जो उस घड़ी को झुठलाए, उसके लिए हमने भड़कती हुई आग जुटा रखी है।
20. मूल अरबी में शब्द 'अस्साअतः प्रयुक्त हुआ है। साअत का अर्थ घड़ी और समय के हैं और अल (उसपर अहद का है) लगने अर्थात् वह विशेष घड़ी जो आनेवाली है, जिसके बारे में हम पहले तुमको ख़बर दे चुके हैं। क़ुरआन मजीद में जगह-जगह यह एक पारिभाषिक शब्द के रूप में उस विशेष समय के लिए बोला गया है जबकि क़ियामत क़ायम होगी।
21. अर्थात् जो बातें ये कर रहे हैं इनकी वजह यह नहीं हैं कि उनको वास्तव में किसी माननीय आधार पर कुरआन के जाली 'कलाम' (वाणी) होने का सन्देह है, या उन्हें तुम्हारी रिसालत (ईश-दूतत्व) पर ईमान लाने से बस इस चीज़ ने रोक रखा है कि तुम खाना खाते और बाजारों में चलते-फिरते हो, या वे तुम्हारे सत्य संदेश को मान लेने को तैयार थे, मगर सिर्फ इसलिए एक गए किन कोई फरिश्ता तुम्हारी अरदली में था और न तुम्हारे लिए कोई खजाना उतारा गया था। वास्तविक कारण इनमें से कोई भी नहीं, बल्कि आख़िरत का इकार है जिसने उनको सत्य और असत्य के मामले में बिल्कुल गैर-मजीदा (अमरिण) बना दिया है। इसी का नतीजा है कि वे सिरे से किसी सोच विचार और जांच पड़ताल की जमात ही महसूस नहीं करते और तुम्हारे सर्वथा उचित संदेश को रद करने के लिए ऐसे-ऐसे हास्यप्रद प्रमाण पेश करने लगते हैं।
إِذَا رَأَتۡهُم مِّن مَّكَانِۭ بَعِيدٖ سَمِعُواْ لَهَا تَغَيُّظٗا وَزَفِيرٗا ۝ 11
(12) वह जब दूर से इनको देखेगी 22 तो ये उसके प्रकोप और ओश की आवाज़ें मुन लेंगे।
22. आग का किसी को देखना सम्भव है कि प्रतीकात्मक रूप में हो, जैसे हम कहते,"वह जामा मस्जिद के मीनार तुमको देख रहे हैं, और सम्भव है वास्तविक अर्थ में हो अर्थात जहन्नम की आग दुनिया की आग की तरह अचेतनशील न हो, बल्कि देख-भालका जलानेवाली हो।
وَإِذَآ أُلۡقُواْ مِنۡهَا مَكَانٗا ضَيِّقٗا مُّقَرَّنِينَ دَعَوۡاْ هُنَالِكَ ثُبُورٗا ۝ 12
(13) और अब यहाथ पाँच बजे उसमें एक तंग जगह दूसे जाएँगे तो अपनी मौत को पुकारने लगेंगे।
لَّا تَدۡعُواْ ٱلۡيَوۡمَ ثُبُورٗا وَٰحِدٗا وَٱدۡعُواْ ثُبُورٗا كَثِيرٗا ۝ 13
(14) (उस समय उनसे कहा जाएगा) आज एक मौत को नहीं बहुत-सी मौतों को पुकारो।
قُلۡ أَذَٰلِكَ خَيۡرٌ أَمۡ جَنَّةُ ٱلۡخُلۡدِ ٱلَّتِي وُعِدَ ٱلۡمُتَّقُونَۚ كَانَتۡ لَهُمۡ جَزَآءٗ وَمَصِيرٗا ۝ 14
(15) इनसे पूछो, “यह अंजाम अच्छा है या वह शाश्वत जन्नत जिसका वादा अल्लाह से डरने वाले परेहजसारों से किया गया है? जो उनके कर्म का बदला और उनके सफर की आख़िरी मंजिल होगी,
لَّهُمۡ فِيهَا مَا يَشَآءُونَ خَٰلِدِينَۚ كَانَ عَلَىٰ رَبِّكَ وَعۡدٗا مَّسۡـُٔولٗا ۝ 15
(16) जिसमें उनकी हर इच्छा पूरी होगी, जिसमें वे हमेशा-हमेशा रहेंगे। जिसका प्रदान करना तुम्हारे रब के जिम्मे एक ऐसा वादा है जिसको पूरा करना अनिवार्य है।23
23. मूल अरबी शब्द 'वअ-दम मममला' प्रयुक्त हुए हैं। अर्थात ऐसा वादा जिसको पूरा करने की माँग की जा सकती है। यहाँ एक आदमी यह सवाल उठा सकता है कि जन्नत का यह वादा और दोजख का यह डरावा किसी ऐसे आदमी को किस तरह प्रभावित कर सकता है, जो कियामत और दोबारा उठा कर जमा करने का और जन्नत व दोजन आदि का पहले ही ईकारी हो? इस दृष्टि से तो यह देखने में एक असंगत-सी बात लगती है, लेकिन थोड़ा-सा विचार किया जाए, तो बात आसानी से समझ में आ सकती है। अगर मामला यह हो कि मैं एक बात मनवाना चाहता हूँ और दूसरा नहीं मानना चाहता तो तर्क वितर्क और वार्ता-शैली कुछ और होती है, लेकिन अगर मैं अपने सम्बोधित व्यक्ति से इस ढंग से बातें कर रहा हूँ कि वार्ताधीन विषय मेरी बात मानने या न मानने का नहीं, बल्कि तुम्हारे अपने हित का है, तो सम्बोधित व्यक्ति चाहे कैसा ही हठधर्म हो, एक बार सोचने पर मजबूर हो जाता है। यहाँ वार्ता-शैली का तरीक़ा इसी दूसरे प्रकार का है। इसी स्थिति में सम्बोधित व्यक्ति को खुद अपनी भलाई को देखते हुए यह सोचना पड़ता है कि दूसरी ज़िंदगी के होने का चाहे प्रमाण मौजूद न हो, मगर बहरहाल उसके न होने का भी कोई प्रमाण नहीं है, और सम्भावना दोनों ही की है। अब अगर कहीं बात वही सत्य हुई जो यह व्यक्ति कह रहा है, तो निश्चय ही फिर हमारी खैर नहीं है। इस तरह यह वर्णन-शैली सम्बोधित व्यक्ति की हठधर्मी में एक दराड़ डाल देता है और इस दराड़ में और अधिक फैलाव उस समय पैदा होता है जब क़ियामत, हश्र, हिसाब और जन्नत-दोज़ख का ऐसा विस्तृत चित्र प्रस्तुत किया जाने लगता है कि जैसे कोई वहाँ का आँखों देखा हाल पर बयान कर रहा हो । (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-41 हा-मीम-अस्सज्दा, आयत 52, टिप्पणी 69.सूरा-46 अल:अहकाफ,आयत 10)
وَيَوۡمَ يَحۡشُرُهُمۡ وَمَا يَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ فَيَقُولُ ءَأَنتُمۡ أَضۡلَلۡتُمۡ عِبَادِي هَٰٓؤُلَآءِ أَمۡ هُمۡ ضَلُّواْ ٱلسَّبِيلَ ۝ 16
(17) और वही दिन होगा जबकि (तुम्हारा रख) इन लोगों को भी घर लाएगा और उनके इन उपास्यों 24 को भी बुला लेगा जिन्हें आज ये अल्लाह को छोड़कर पूज रहे हैं फिर वह उनसे पूछेगा, "क्या तुमने मेरे इन बंदों को गुमराह किया था? या ये स्वयं सीधे रास्ते से भटक गए थे?"25
24. आगे का विषय स्वयं स्पष्ट कर रहा है कि यहाँ उपास्यों से तात्पर्य बुत नहीं हैं, बल्कि फ़रिश्ते, नबी, बली, शहीद और सदाचारी लोग हैं, जिन्हें विभिन्न क़ौमों के मुशरिक उपास्य बना बैठे हैं।
25. यह विषय अनेक जगहों पर कुरआन मजीद में आया है, जैसे सूरा-34 (सबा) में है, "जिस दिन वह इन सबको जमा करेगा, फिर फ़रिश्तों से पूछेगा, क्या ये लोग तुम्हारी ही बन्दगी कर रहे थे?" वे कहेंगे : “पाक है आप की जात, हमारा ताल्लुक़ तो आपसे है, न कि इनसे। ये लोग तो जिन्नों (अर्थात् शैतानों) की बन्दगी कर रहे थे। इनमें से ये अधिकतर इन्हीं पर ईमान लाए हुए थे।" (आयत 40-41) इसी तरह सूरा-5 (माइदा) में है, और जब अल्लाह पूछेगा, ऐ मरयम के बेटे ईसा | क्या तूने लोगों से कहा था कि अल्लाह को छोड़कर मुझे और मेरी माँ को उपास्य बना लो? वह कहेगा : पाक है अपाकी ज़ात ! मेरे लिए यह कब उचित था कि वह बात कहता, जिसके कहने का मुझे अधिकार न था .......। मैंने तो उनसे बस वही कुछ कहा था जिसका आपने मुझे आदेश दिया था, यह कि अल्लाह की बन्दगी करो जो मेरा रब भी है तुम्हारा रब भी।" (आयत -116-117)
قَالُواْ سُبۡحَٰنَكَ مَا كَانَ يَنۢبَغِي لَنَآ أَن نَّتَّخِذَ مِن دُونِكَ مِنۡ أَوۡلِيَآءَ وَلَٰكِن مَّتَّعۡتَهُمۡ وَءَابَآءَهُمۡ حَتَّىٰ نَسُواْ ٱلذِّكۡرَ وَكَانُواْ قَوۡمَۢا بُورٗا ۝ 17
(18) वे निवेदन करेंगे, "पाक है आपकी ज़ात, हमारी तो यह भी मजाल न थी कि आपके सिवा किसी को अपना मौला (संरक्षक) बनाएँ। मगर आपने इनको और इनके बाप-दादा को ख़ूब जीवन-सामग्री दी, यहाँ तक कि ये शिक्षा भूल गए और दुर्भाग्यग्रस्त होकर रहे।"26
26. अर्थात् ये नीच और छिछोरे लोग थे। आपने रोज़ी दी थी कि शुक्र करें, ये खा-पीकर नमकहराम हो गए और वे सब उपदेश भुला बैठे जो आपके भेजे हुए नबियों ने उनको दिए थे।
فَقَدۡ كَذَّبُوكُم بِمَا تَقُولُونَ فَمَا تَسۡتَطِيعُونَ صَرۡفٗا وَلَا نَصۡرٗاۚ وَمَن يَظۡلِم مِّنكُمۡ نُذِقۡهُ عَذَابٗا كَبِيرٗا ۝ 18
(19) यूँ झुठला देगे वे (तुम्हारे उपास्य) तुम्हारी उन बातों को जो आज तुम कह रहे हो,27 फिर न तुम अपनी शामत को टाल सकोगे, न कहीं से मदद पा सकोगे, और जो भी तुममें से जुल्म करे28 उसे हम कठोर अज़ाब का मज़ा चखाएँगे।29
27. अर्थात् तुम्हारा यह धर्म, जिसको तुम सत्य समझे बैठे हो, बिलकुल निर्मूल सिद्ध होगा और तुम्हारे वे उपास्य जिनपर तुम्हें भरोसा है कि ये अल्लाह के यहाँ हमारे सिफ़ारिशी हैं उलटे तुमको दोषी ठहराकर ज़िम्मेदारी से बरी हो जाएंगे। तुमने जो कुछ भी अपने उपास्यों को दर्जा दे रखा है, अपने आप ही दे रखा है। उनमें से किसी ने भी तुमसे यह न कहा था कि हमें यह कुछ मानो।
28. यहाँ ज़ुल्म से तात्पर्य वास्तविकता और सत्यता पर ज़ुल्म है, अर्थात् कुफ़्र और शिर्क । प्रसंग स्वयं बता रहा है कि नबी को न माननेवाले और अल्लाह के बजाय दूसरों को उपास्य बना बैठनेवाले और आख़िरत का इंकार करनेवाले 'जुल्म करने के दोषी ठहराए जा रहे हैं।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا قَبۡلَكَ مِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ إِلَّآ إِنَّهُمۡ لَيَأۡكُلُونَ ٱلطَّعَامَ وَيَمۡشُونَ فِي ٱلۡأَسۡوَاقِۗ وَجَعَلۡنَا بَعۡضَكُمۡ لِبَعۡضٖ فِتۡنَةً أَتَصۡبِرُونَۗ وَكَانَ رَبُّكَ بَصِيرٗا ۝ 19
(20) ऐ नबी ! तुमसे पहले जो रसूल भी हमने भेजे थे, वे सब भी खाना खानवाले और बज़ारों में चलने-फिरनेवाले लोग ही थे। वास्तव में हमने तुम लोगों को एक-दूसरे के लिए आजमाइश का साधन बना दिया है।30 क्या तुम सब्र (धैर्य) करते हो? 31 तुम्हारा रब सब कुछ देखता है।32
30. अर्थात् रसूल और ईमानवालों के लिए इंकारी आज़माइश हैं और इंकार करनेवालों के लिए रसूल और ईमानवाले। इंकारियों ने ज़ुल्म और सितम और अज्ञानतापूर्ण शत्रुता की जो भट्टी गर्म कर रखी है, वही तो वह साधन है जिससे सिद्ध होगा कि रसूल और उसके सच्चे ईमानवाले पैरो खरा सोना है। खोट जिसमें भी होगी, वह इस भट्टी से बैरियत के साथ न गुज़र सकेगा और इस तरह विशुद्ध मानवालों का एक चुनिन्दा गिरोह छट कर निकल आएगा जिसके मक्काबले में फिर दुनिया की कोई ताकत न ठहर सकेगी। दूसरी ओर इंकारियों के लिए भी रसूल (सल्ल०) और रसूल के साथीगण एक कड़ी परीक्षा है। एक सामान्य व्यक्ति का अपनी ही बिरादरी के बीच से यकायक नबी बनाकर उता दिया जाना, उसके पास कोई फौज़-फर्रा, माल और दौलत न होना, उसके साथ कलामे इलाही (ईश-वाणी) और पवित्र आचरण के सिवा कोई अनोखी चीज़ का न होना, उसके शुरू के पैरोकारों में अधिकतर गरीबों, गुलामों और नव उन लोगों का शामिल होना और अल्लाह का इन कुछ मुट्ठी भर इंसानों को मानो भेड़ियों के बीच बे-सहारा छोड़ देना, यही वह छलनी है जो ग़लत किस्म के आदमियों को दीन की ओर आने से रोकती है और केवल ऐसे ही लोगों को छान-छानकर आगे गुजारती है जो हक को पहचाननेवाले और सच्चाई के माननेवाले हों।
31. अर्थात् उस मस्लहत को समझ लेने के बाद क्या अब तुमको सब आ गया कि परीक्षा की यह दशा उस कल्याणकारी उद्देश्य के लिए अति आवश्यक है जिसके लिए तुम काम कर रहे हो? क्या अब तुम वे चोटें खाने पर राज़ी हो जो इस परीक्षा के समय में लगनी ज़रूरी हैं?
۞وَقَالَ ٱلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ لِقَآءَنَا لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡنَا ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ أَوۡ نَرَىٰ رَبَّنَاۗ لَقَدِ ٱسۡتَكۡبَرُواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ وَعَتَوۡ عُتُوّٗا كَبِيرٗا ۝ 20
(21) जो लोग हमारे सामने पेश होने की आशंका नहीं रखते वे कहते है, "क्यों न फ़रिश्ते हमारे पास भेजे जाएँ,33. या फिर हम अपने रब को देखें।"34 बड़ा घमंड ले बैठे ये अपने मन में 35 और सीमा के आगे निकल गए ये अपनी उइंडता में।
33. अर्थात् अगर वास्तव में अल्लाह का इरादा यह है कि हम तक अपना सन्देश पहुँचाए तो हर आदमी के पास एक फ़रिश्ता आना चाहिए जो उसे बताए कि तेरा रब उसे यह निर्देश या आदेश देता है। या फ़रिश्तों का एक प्रतिनिधि मंडल सार्वजनिक सभा में हम सब के सामने आ जाए और अल्लाह का सन्देश पहुँचा दे। सूरा-6 (अनेआम) आयत 124 में भी उनकी इस आपत्ति का उल्लेख किया गया है।
34. अर्थात् अल्लाह स्वयं यहाँ पधारे और फरमाए कि बन्दो ! मेरा तुमसे यह निवेदन है।
يَوۡمَ يَرَوۡنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ لَا بُشۡرَىٰ يَوۡمَئِذٖ لِّلۡمُجۡرِمِينَ وَيَقُولُونَ حِجۡرٗا مَّحۡجُورٗا ۝ 21
(22) जिस दिन ये फ़रिश्तों को देखेंगे, वह अपराधियों के लिए किसी शुभ-सूचना का दिन न होगा।36 चीख़ उठेगे कि ख़ुदा की पनाह
36. यही विषय सूरा-6 (अन-आम), आयत 8 और सूरा-15 हिज्र, आयत 7-8 और आयत 51-65 में सविस्तार आ चुका है। इसके अलावा सूरा-17 (बनी इसराईल), आयत 90-95 में भी विधर्मियों की बहुत-सी अनोखी माँगों के साथ उसका उल्लेख करके उत्तर दिया गया है।
وَقَدِمۡنَآ إِلَىٰ مَا عَمِلُواْ مِنۡ عَمَلٖ فَجَعَلۡنَٰهُ هَبَآءٗ مَّنثُورًا ۝ 22
(23) और जो कुछ भी उनका किया-धरा है उसे लेकर हम धूल की तरह उड़ा देंगे।37
37. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-14 (इब्राहीम), टिप्पणी 25-26 ।
أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِ يَوۡمَئِذٍ خَيۡرٞ مُّسۡتَقَرّٗا وَأَحۡسَنُ مَقِيلٗا ۝ 23
(24) बस वही लोग जो जन्नत के अधिकारी है उस दिन अच्छी जगह ठहरेंगे और दोपहर बिताने के लिए अच्छी जगह पाएँगे।38
38. अर्थात् हश्र के मैदान में जन्नत के हक़दार लोग सम्मान के साथ बिठाए जाएंगे और हश्र के दिन की कड़ी दोपहर बिताने के लिए उनको आराम को जगह दी जाएगी। उस दिन की सारी कठोरताएँ अपराधियों के लिए होगी, न कि नेक और सदाचारियों के लिए, जैसा कि हदीस में आया है नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "कसम है उस ज़ान की जिसके हाथ में मेरी जान है, क़ियामत का महान और भयानक दिन एक मोमिन के लिए बहुत हलका कर दिया जाएगा, यहाँ तक कि इतना हलका जितना दुनिया में एक फ़र्ज़ नमाज़ पढ़ने का वक़्त होता है ।" (मुस्नद अहमद, रिवायत अबी सईद ख़ुदरी रजि०)
وَيَوۡمَ تَشَقَّقُ ٱلسَّمَآءُ بِٱلۡغَمَٰمِ وَنُزِّلَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ تَنزِيلًا ۝ 24
(25) आसमान को चीरता हुआ एक बादल उस दिन प्रकट होगा और फ़रिश्तों के परे के परे उतार दिए जाएंगे।
ٱلۡمُلۡكُ يَوۡمَئِذٍ ٱلۡحَقُّ لِلرَّحۡمَٰنِۚ وَكَانَ يَوۡمًا عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ عَسِيرٗا ۝ 25
(26) उस दिन सच्ची बादशाहो सिर्फ 'रहमान' (दयावान) को होगी,39 और वह इकारियों के लिए बड़ा कठिन दिन होगा।
39. अर्थात् वे सारी अवास्तविक बादशाहियाँ और सत्ताएँ समाप्त हो जाएंगी जो दुनिया में इंसान को धोखे में डालती हैं, वहाँ केवल एक बादशाही बाकी रह जाएगी और वह वही अल्लाह को बादशाही है जो इस सृष्टि का वास्तविक शासक है । सूरा-40 (मोमिन) में कहा गया है, वह दिन जबकि ये सब लोग बे नक़ाब होंगे, अल्लाह से इनकी कोई चीज़ छिपी हुई न होगी। पूछा जाएगा, आज बादशाहो किसकी है? हर ओर से उत्तर मिलेगा, अकेले अल्लाह की जो सबपर ग़ालिब है। (आयत 16) हदीस में इस विषय को और अधिक खोल दिया गया है । नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, अल्लाह एक हाथ में आसमानों और दूसरे हाथ में ज़मीन को लेकर कहेगा : मैं हूँ बादशाह, मैं हूँ शासक, अब कहाँ हैं ज़मौन के वे बादशाह, कहाँ हैं वे जब्बार (प्रभुत्वशाली)? कहाँ हैं, वे घमंडो लोग? (यह रिवायत मुस्नद अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम और अबू दाऊद में थोड़े-थोड़े शाब्दिक अन्तर के साथ बयान हुई है।)
وَيَوۡمَ يَعَضُّ ٱلظَّالِمُ عَلَىٰ يَدَيۡهِ يَقُولُ يَٰلَيۡتَنِي ٱتَّخَذۡتُ مَعَ ٱلرَّسُولِ سَبِيلٗا ۝ 26
(27) जालिम इंसान अपना हाथ चबाएगा और कहेगा, "काश ! मैंने रसूल का साथ दिया होता ।
يَٰوَيۡلَتَىٰ لَيۡتَنِي لَمۡ أَتَّخِذۡ فُلَانًا خَلِيلٗا ۝ 27
(28) हाय मेरा दुर्भाग्य ! काश, मैंने अमुक आदमी को दोस्त न बनाया होता
لَّقَدۡ أَضَلَّنِي عَنِ ٱلذِّكۡرِ بَعۡدَ إِذۡ جَآءَنِيۗ وَكَانَ ٱلشَّيۡطَٰنُ لِلۡإِنسَٰنِ خَذُولٗا ۝ 28
(29) उसके बहकावे में आकर मैंने वह नसीहत न मानी जो मेरे पास आई थी, शैतान इंसान के हक़ में बड़ा ही बे-वफ़ा निकला।"40
40. हो सकता है कि यह भी विधर्मी ही के कथन का एक हिस्सा हो और हो सकता है कि यह उसके कथन पर अल्लाह का अपना इर्शाद हो। इस दूसरी शक्ल में उचित अनुवाद यह होगा, और शैतान तो है ही इंसान को ठीक समय पर धोखा देनेवाला।"
وَقَالَ ٱلرَّسُولُ يَٰرَبِّ إِنَّ قَوۡمِي ٱتَّخَذُواْ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانَ مَهۡجُورٗا ۝ 29
(30) और रसूल कहेगा कि "ऐ मेरे रब ! मेरी क़ौम के लोगों ने इस क़ुरआन को मज़ाक़ का विषय41 बना लिया था।"
41. मूल में अरबी शब्द 'महजूर' प्रयुक्त हुआ है। अगर उसकी उत्पत्ति हजर से मानी जाए तो अर्थ होंगे 'छोड़ा हुआ' अर्थात् उन लोगों ने कुरआन को ध्यान देने योग्य ही न समझा। और अगर हुज्र से उत्पत्ति मानी जाए तो इसके दो अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि उन्होंने इसे निरर्थक और बकवास समझा, दूसरे यह कि उन्होंने इसे अपनी निरर्थक बात और अपनी बकवास का निशाना बना लिया।
وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَا لِكُلِّ نَبِيٍّ عَدُوّٗا مِّنَ ٱلۡمُجۡرِمِينَۗ وَكَفَىٰ بِرَبِّكَ هَادِيٗا وَنَصِيرٗا ۝ 30
(31) ऐ नबी ! हमने तो इसी तरह अपराधियों को हर नबी का शत्रु बनाया है42, और तुम्हारे लिए तुम्हारा रब ही मार्गदर्शन और सहायता को काफ़ी है।43
42. अर्थात् आज जो दुश्मनी तुम्हारे साथ की जा रही है, यह कोई नयी बात नहीं है। [हर नबी के साथ ऐसा ही होता रहा है। यह विषय सूरा-6 (अन-आम) आयत 112-113 में भी आ चुका है। और यह जो फ़रमाया कि हमने इनको शत्रु बनाया है, तो इसका अर्थ यह है कि हमारा प्राकृतिक नियम यही कुछ है, इसलिए हमारी इस इच्छा पर सब करो और प्राकृतिक क़ानून के तहत जिन परिस्थितियों से दोचार होना आवश्यक है, उनका मुकाबला ठंडे दिल और मज़बूत इरादे के साथ करते चले जाओ।
43. मार्गदर्शन से तात्पर्य सिर्फ सत्य-ज्ञान प्रदान करना ही नहीं है, बल्कि इस्लामी आन्दोलन को सफलतापूर्वक चलाने के लिए और दुश्मनों को चालों को विफल करने के लिए समय रहते सही उपायों का सुझाना भी है। और सहायता से तात्पर्य हर प्रकार की सहायता है। सत्य और असत्य के संघर्ष में जितने मोर्चे भी हर एक पर सत्यवादियों के समर्थन में कुमक पहुंचाना अल्लाह का काम है और कोई पहलू सहायता और मार्गदर्शन का ऐसा नहीं है जिसमें सत्यवादियों के लिए अल्लाह काफ़ी न हो, बशर्ते कि वे अल्लाह के संरक्षण पर ईमान और भरोसा रखें और हाथ पर हाथ धरे न बैठे रहें, बल्कि सरगर्मी के साथ असत्य के मुक़ाबले में सत्य की श्रेष्ठता के लिए जानें लड़ाएँ । यह बात दृष्टि में रहे कि आयत का यह दूसरा हिस्सा न होता तो पहला हिस्सा अत्यन्त हतोत्साहित करनेवाला था। इससे बढ़कर हतोत्साहित करनेवाली चीज़ और क्या हो सकती है कि एक आदमी को यह खबर दी जाए कि हमने जान-बूझकर तेरे सुपुर्द एक ऐसा काम किया है जिसे शुरू करते ही दुनिया भर के कुत्ते और भेड़िए तुझसे लिपट जाएँगे। लेकिन इस सूचना की सारो भयावहता तसल्ली के ये अक्षर सुनकर दूर हो जाती है कि इस प्राणघातक संघर्ष के मैदान में उतारकर हमने तुझे अकेला नहीं छोड़ दिया है, बल्कि हम स्वयं तेरे समर्थन को मौजूद हैं।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡلَا نُزِّلَ عَلَيۡهِ ٱلۡقُرۡءَانُ جُمۡلَةٗ وَٰحِدَةٗۚ كَذَٰلِكَ لِنُثَبِّتَ بِهِۦ فُؤَادَكَۖ وَرَتَّلۡنَٰهُ تَرۡتِيلٗا ۝ 31
(32) इनकार करनेवाले कहते हैं, "इस आदमी पर सारा क़ुरआन एक ही समय में क्यों न उतार दिया गया ?"44- हाँ, ऐसा इसलिए किया गया है कि उसको अच्छी तरह हम तुम्हारे मन में बिठाते रहें। 45 और (इसी उद्देश्य के लिए) हमने उसको एक विशेष क्रम के साथ अलग-अलग हिस्सों का रूप दिया है।
44. प्रश्न का अर्थ यह था कि अगर यह वास्तव में अल्लाह की किताब है तो पूरी किताब इकट्ठी एक समय में क्यों नहीं आ जाती? अल्लाह तो जानता है कि पूरी बात क्या है, जो वह फ़रमाना चाहता है। वह उतारनेवाला होता तो सब कुछ एक ही समय में कह देता, यह जो सोच-सोचकर कभी कोई विषय लाया जाता है और कभी कोई, यह इस बात की खुली निशानी है कि वह्य ऊपर से नहीं आती, यहीं कहीं से प्राप्त की जाती है या स्वयं गढ़-गढ़कर लाई जाती है।
45. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि “इसके द्वारा हम तुम्हारा दिल मज़बूत करते रहें” या “तुम्हारी हिम्मत बाँधते रहें।” इन शब्दों में ये दोनों अर्थ समाहित हैं और दोनों ही से तात्पर्य भी हैं। इस तरह एक ही वाक्य में कुरआन को एक क्रम के साथ उतारने के बहुत-से निहित उद्देश्य बयान कर दिए गए हैं- 1. वह एक-एक शब्द स्मृति में सुरक्षित हो सके, क्योंकि उसका प्रचार-प्रसार लिखित रूप में नहीं, बल्कि अनपढ़ नबी के द्वारा अनपढ़ क़ौम में मौखिक भाषण के रूप में हो रहा है। 2. उसकी शिक्षाएं अच्छी तरह मन में बैठ सकें। इसके लिए ठहर-ठहरकर थोड़ी-थोड़ी बात कहना और एक ही बात को अलग-अलग समयों में अलग-अलग तरीकों से बयान करना अधिक लाभप्रद है। 3. उसकी बताई हुई जीवन पद्धति पर मन जमता जाए। उसके लिए आदेश और हिदायत का धीरे-धीरे उतारना अधिक तत्वदर्शितापूर्ण है, वरना अगर सारा कानून और जिंदगी को पूरी (व्यवस्था) एक ही समय में बयान करके उसे कायम करने का आदेश दिया जाए तो बुद्धि और चेतना विक्षिप्त हो जाएं। इसके अलावा यह भी एक सत्य है कि हर आदेश अगर उचित समय पर दिया जाए तो उसकी हिकमत और रूह अधिक समझ में आती है, इसके मुक़ाबले में कि तमाम आदेश धारावार संग्रहित करके एक ही समय में दे दिए गए हों। 4. सत्य और असत्य निरंतर के संघर्ष के दौरान में] नबी और उसके अनुयायियों का साहस बंधाया जाता रहे । उसके लिए अल्लाह की ओर से बार-बार, वक़्त-वक़्त पर, मौके-मोके से पैग़ाम आना ज़्यादा उपयोगी है इसके मुकाबले में कि बस एक बार लंबा-चौड़ा आदेशपत्र देकर उम्र भर के लिए दुनिया भर के अवरोधों का मुक़ाबला करने के लिए यूँ ही छोड़ दिया जाए।
وَلَا يَأۡتُونَكَ بِمَثَلٍ إِلَّا جِئۡنَٰكَ بِٱلۡحَقِّ وَأَحۡسَنَ تَفۡسِيرًا ۝ 32
(33) और (इसकी यह मस्लहत भी है) कि जब कभी वह तुम्हारे सामने कोई निराली बात (या विचित्र प्रश्न) लेकर आए उसका ठीक जवाब ठीक समय पर हमने तुम्हें दे दिया और बेहतरीन तरीके से बात खोल दी।46
46. क़ुरआन के अवतरण में क्रम का यह तरीका अपनाने की एक और हिक्मत है। कुरआन मजीद के उतारने की वजह वास्तव में यह है कि अल्लाह कुफ़ और जाहिलियत और फिस्क (नाफ़रमानी) के मुक़ाबले में ईमान व इस्लाम और इताअत (आज्ञापालन) व तक्वा का एक आन्दोलन चलाना चाहता है और इसके लिए उसने एक नबी को आवाहक और मार्गदर्शक बनाकर उठाया है। इस आन्दोलन के दौरान में अगर एक ओर रहनुमाई करनेवालों और उसकी पैरवी करनेवालों को आवश्यकता के अनुसार शिक्षा और हिदायतें देना उसने अपने ज़िम्मे लिया है तो दूसरी ओर यह काम भी अपने ही ज़िम्मे रखा है कि विरोधी जब भी कोई आपत्ति या सन्देह या उलझन पेश करें, उसे वह साफ़ कर दे और जब भी वह किसी बात को ग़लत अर्थ पहनाएं, वह इसकी सही व्याख्या कर दे। इन विभिन्न ज़रूरतों के लिए जो भाषण अल्लाह की ओर से उतर रहे हैं, उनके संग्रह का नाम कुरआन है, और यह एक कानून की किताब या अख़लाक़ व फ़लसफ़ा की किताब नहीं, बल्कि आन्दोलन को किताब है जिसके बुजूद में आने का प्राकृतिक रूप यही है कि आन्दोलन के शुरू के प्रारंभिक क्षण के साथ शुरू हो और अन्तिम क्षणों तक जैसे-जैसे आन्दोलन चलता रहे, यह भी साथ-साथ आवश्यकता और अवसर के अनुसार उतरता रहे। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए इस सूरा का परिचय।)
ٱلَّذِينَ يُحۡشَرُونَ عَلَىٰ وُجُوهِهِمۡ إِلَىٰ جَهَنَّمَ أُوْلَٰٓئِكَ شَرّٞ مَّكَانٗا وَأَضَلُّ سَبِيلٗا ۝ 33
(34) जो लोग औंधे मुँह जहन्नम की ओर धकेले जानेवाले हैं उनका ठिकाना बहुत बुरा है और उनकी राह अत्यन्त ग़लत है।47
47. अर्थात् जो लोग सीधी बात को उलटी तरह से सोचते हैं और उलटे नतीजे निकालते हैं उनकी बुद्धि औंधी है। इसी वजह से वे कुरआन के सत्य होने पर दलील जुटानेवाली सच्चाइयों को उसके ग़लत ठहराने पर दलील दे रहे हैं, और इसी वजह से वे औंधे मुँह जहन्नम की ओर घसीटे जाएँगे।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ وَجَعَلۡنَا مَعَهُۥٓ أَخَاهُ هَٰرُونَ وَزِيرٗا ۝ 34
(35) हमने मूसा को किताब48 दी और उसके साथ उसके भाई हारून को सहायक के रूप में लगाया
فَقُلۡنَا ٱذۡهَبَآ إِلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا فَدَمَّرۡنَٰهُمۡ تَدۡمِيرٗا ۝ 35
(36) और उनसे कहा कि जाओ उस क़ौम की ओर जिसने हमारी आयतों को झुठला दिया49 है। अन्तत: उन लोगों को हमने नष्ट करके रख दिया।
49. अर्थात् उन आयतों को जो हज़रत याकूब और युसूफ (अलैहि.) के ज़रिए से उनको पहुँची थों, और जिनका प्रचार बाद में एक अवधि तक बनी इसराईल के सदाचारी लोग करते रहे।
وَقَوۡمَ نُوحٖ لَّمَّا كَذَّبُواْ ٱلرُّسُلَ أَغۡرَقۡنَٰهُمۡ وَجَعَلۡنَٰهُمۡ لِلنَّاسِ ءَايَةٗۖ وَأَعۡتَدۡنَا لِلظَّٰلِمِينَ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 36
(37) यही हाल नूह की क़ौम का हुआ जब उन्होंने रसूलों को झुठलाया। 50 हमने उनको डुबो दिया, और दुनिया भर के लोगों के लिए एक शिक्षाप्रद निशान बना दिया और उन ज्ञालिमों के लिए एक दर्दनाक अज़ाब हमने जुटा रखा है।51
50. चूँकि उन्होंने सिरे से यही बात मानने से इंकार कर दिया था कि इंसान कभी रसूल बनकर आ सकता है, इसलिए उनको झुठलाना अकेले हज़रत नूह (अलैहि०) का झुठलाना ही न था, बल्कि स्वतः नुबूबत पद को झुठलाना था।
51. अर्थात् आखिरत का अज़ाब।
وَعَادٗا وَثَمُودَاْ وَأَصۡحَٰبَ ٱلرَّسِّ وَقُرُونَۢا بَيۡنَ ذَٰلِكَ كَثِيرٗا ۝ 37
(38) इसी तरह आद और समूद और अर-रसवाले52 और बीच की सदियों के बहुत-से लोग नष्ट किए गए।
52. रस्सवालों के बारे में खोज न हो सकी कि ये कौन लोग थे । टीकाकारों ने अलग-अलग रिवायतें बयान की हैं, मगर इनमें कोई बात सन्तोषप्रद नहीं है। अधिक से अधिक जो कुछ कहा जा सकता है वह यही है कि यह एक ऐसी क़ौम थी जिसने अपने पैग़म्बर को कुएँ में फेंक कर या लटका कर मार दिया था। रस अरबी भाषा में पुराने कुएँ या अंधे कुएँ को कहते हैं।
وَكُلّٗا ضَرَبۡنَا لَهُ ٱلۡأَمۡثَٰلَۖ وَكُلّٗا تَبَّرۡنَا تَتۡبِيرٗا ۝ 38
(39) उनमें से हर एक को हमने (पहले नष्ट होनेवालों की मिसालें दे-देकर समझाया और अन्तत: हर एक को नष्ट कर दिया।
وَلَقَدۡ أَتَوۡاْ عَلَى ٱلۡقَرۡيَةِ ٱلَّتِيٓ أُمۡطِرَتۡ مَطَرَ ٱلسَّوۡءِۚ أَفَلَمۡ يَكُونُواْ يَرَوۡنَهَاۚ بَلۡ كَانُواْ لَا يَرۡجُونَ نُشُورٗا ۝ 39
(40) और उस बस्ती पर तो इनका गुज़र हो चुका है जिसपर अत्यंत बुरी वर्षा बरसाई गई थी।53 क्या इन्होंने उसका हाल देखा न होगा? मगर ये मौत के बाद दूसरी ज़िन्दगी की आशा ही नहीं रखते।54
53. अर्थात् लूत को क़ौम की बस्ती । अत्यंत बुरी बारिश से तात्पर्य पत्थरों को वर्षा है जिसका उल्लेख कई जगह क़ुरआन मजीद में हुआ है। हिजाज़वालों के काफिले फलस्तीन व शाम (सीरिया) जाते हुए उस इलाके से गुज़रते थे और [इस कौम के विनाश की निशानियाँ देखते थे।
54. अर्थात् चूँकि ये आख़िरत के माननेवाले नहीं हैं, इसलिए इन पुरातत्वों का अवलोकन उन्होंने सिर्फ़ एक तमाशाई की हैसियत से किया, इनसे कोई शिक्षा ग्रहण न की।
وَإِذَا رَأَوۡكَ إِن يَتَّخِذُونَكَ إِلَّا هُزُوًا أَهَٰذَا ٱلَّذِي بَعَثَ ٱللَّهُ رَسُولًا ۝ 40
(41) ये लोग जब तुम्हें देखते हैं तो तुम्हारा मज़ाक़ बना लेते हैं (कहते हैं)। “क्या यह आदमी है जिसे अल्लाह ने रसूल बनाकर भेजा है ?
إِن كَادَ لَيُضِلُّنَا عَنۡ ءَالِهَتِنَا لَوۡلَآ أَن صَبَرۡنَا عَلَيۡهَاۚ وَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ حِينَ يَرَوۡنَ ٱلۡعَذَابَ مَنۡ أَضَلُّ سَبِيلًا ۝ 41
(42) इसने तो हमें गुमराह करके अपने उपास्यों से विमुख ही कर दिया होता अगर हम उनकी श्रद्धा पर जम न गए होते।‘’55 अच्छा, वह वक़्त दूर नहीं है जब अज़ाब देखकर इन्हें खुद मालूम हो जाएगा कि कौन गुमराही में दूर निकल गया था।
55. विधर्मियों की ये दोनों बातें एक-दूसरे की विलोम हैं। पहली बात से मालूम होता है कि वे आपको तुच्छ समझ रहे हैं और मज़ाक उड़ाकर आपका महत्व कम करना चाहते हैं। दूसरी बात से मालूम होता है कि वे आपकी दलीलों की शक्ति और आपके व्यक्तित्व का लोहा मान रहे हैं और निस्संकोच मान लेते हैं कि अगर हम दुराग्रह और हठधर्मी से काम लेकर अपने खुदाओं की बन्दगी पर जम न गए होते तो यह व्यक्ति हमारे क़दम उखाड़ चुका होता। ये विरोधाभासी बातें (उनकी अत्यन्त बौखलाहट और पराभूत होने का खुला हुआ प्रमाण थो)।
أَرَءَيۡتَ مَنِ ٱتَّخَذَ إِلَٰهَهُۥ هَوَىٰهُ أَفَأَنتَ تَكُونُ عَلَيۡهِ وَكِيلًا ۝ 42
(43) कभी तुमने उस आदमी के हाल पर विचार किया है जिसने अपने मन की इच्छा को अपना ख़ुदा बना लिया हो?56 क्या तुम ऐसे आदमी को सीधे रास्ते पर लाने का जिम्मा ले सकते हो ?
56. मन की इच्छा को ख़ुदा बना लेने से तात्पर्य उसकी बन्दगी करना है और यह भी वास्तविकता की दृष्टि से वैसा ही शिर्क है जैसा बुत को पूजना या किसी सृष्ट-वस्तु को उपास्य बनाना। हज़रत अबू उमामा की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फरमाया, "इस आसमान के नीचे अल्लाह के सिवा जितने उपास्य भी पूजे जा रहे हैं, उनमें अल्लाह के नज़दीक सबसे बुरा उपास्य मन को वह कामना है जिसकी पैरवी की जा रही हो।" (तबरानी) और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-18 अल-कफ़, टिप्पणी 50 । जो आदमी अपनी इच्छा को बुद्धि के अधीन रखता हो और बुद्धि से काम लेकर फैसला करता हो वह अगर किसी प्रकार के शिर्क या कुफ़ में ग्रस्त भी हो तो उसको समझाकर सीधी राह पर लाया जा सकता है, लेकिन मन का बंदा और इच्छाओं का दास एक बे-नकेल का ऊँट है। उसे तो उसकी इच्छाएँ जिधर-जिधर ले जाएँगी, वह उनके साथ-साथ भटकता फिरेगा। ऐसे आदमी से सत्य को स्वीकार करने की कोई आशा नहीं की जा सकती।
أَمۡ تَحۡسَبُ أَنَّ أَكۡثَرَهُمۡ يَسۡمَعُونَ أَوۡ يَعۡقِلُونَۚ إِنۡ هُمۡ إِلَّا كَٱلۡأَنۡعَٰمِ بَلۡ هُمۡ أَضَلُّ سَبِيلًا ۝ 43
(44) क्या तुम समझते हो कि इनमें से अधिकतर लोग सुनते और समझते हैं? ये तो जानवरों की तरह हैं, बल्कि उनसे भी गए गुज़रे ।57
57. अर्थात् जिस तरह भेड़-बकरियों को यह पता नहीं होता कि हाँकनेवाला उन्हें चरागाह की ओर ले जा रहा है या बूचड़रवाने की ओर। वे बस आँखें बन्द करके हाँकनेवाले के इशारों पर चलती रहती हैं, इसी तरह ये आम लोग भी अपने मन के शैतान और गुमराह करनेवाले अपने नेताओं के इशारों पर आँखे बन्द किए चले जा रहे हैं, कुछ नहीं जानते कि वे उन्हें सफलता की ओर हाँक रहे हैं या नाश-विनाश की ओर। इस हद तक उनकी हालत भेड़-बकरियों जैसी है, लेकिन भेड़-बकरियों को अल्लाह ने बुद्धि व चेतना नहीं दी। वे अगर चरवाहे और कसाई में अन्तर नहीं करतीं तो कोई दोष नहीं। अलबत्ता अफ़सोस है उन इंसानों पर जो अल्लाह से बुद्धि व चेतना की नेमतें पाकर भी अपने आपको भेड़-बकरियों की-सी गफलत व अचेतावस्था में लिप्त कर लें। इस वार्ता का मूल सम्बोधन सामान्य जनों से ही है, यद्यपि सम्बोधन प्रत्यक्ष में नबी (सल्ल०) की ओर है। वास्तव में सुनाना उनको अभिप्रेत है कि ग़ाफ़िलो ! यह किस हाल में पड़े हुए हो । क्या अल्लाह ने तुम्हें समझ-बूझ इसलिए दी थी कि दुनिया में जानवरों की तरह ज़िंदगी गुज़ारो।
أَلَمۡ تَرَ إِلَىٰ رَبِّكَ كَيۡفَ مَدَّ ٱلظِّلَّ وَلَوۡ شَآءَ لَجَعَلَهُۥ سَاكِنٗا ثُمَّ جَعَلۡنَا ٱلشَّمۡسَ عَلَيۡهِ دَلِيلٗا ۝ 44
(45) तुमने देखा नहीं कि तुम्हारा रख किस तरह साया कैला देता है। अगर वह चाहता तो इसे स्‍थाई साया बना देता। हमने सूरज को मार दलील58 बनाया,
58. मल्लाहों की परिभाषा में दलील उस व्यक्ति को कहते हैं जो नावों को रास्ता दिखाता हो। साए पर सूरज के दलील बनाने का अर्थ यह है कि साए का कैलता और सिकुड़ता सूरज के बढ़ने-उतरने, निकलने और दूबने के अधीन है।
ثُمَّ قَبَضۡنَٰهُ إِلَيۡنَا قَبۡضٗا يَسِيرٗا ۝ 45
(46) फिर (जैसे-जैसे सूरज उठता जाता है। हम उस साए को धीरे-धीरे आपनी ओर समेटते चले जाते हैं।59
59. अपनी ओर समेटने से तात्पर्य गायव और फना करता है, क्योंकि हर चीज़ जो फना होती है वह अल्लाह ही की ओर पलटती है। हर चीज उसी की ओर से आती है और उसी की ओर जाती है। इस आयत में दो रूख़ हैं- एक प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष। प्रत्यक्ष की दृष्टि से ये गफलत में पड़े हुए मुशरिकों को बता रही हैं कि अगर तुम कुछ बुद्धि से काम लेते तो यही साया जिसे तुम हर समय देखते हो, तुम्हें यह शिक्षा देने के लिए पर्याप्त था कि नबी जिस तौहीद की शिक्षा तु दे रहा है, वह बिल्कुल सत्य है । तुम्हारी सारी जिंदगी इसी साए के उतार-चढ़ाव से जुड़ी हुई है। सदा-सर्वदा का साया हो जाए तो ज़मीन पर कोई जीव बाकी न रह सके । साया बिल्कुल न रहे, तब भी जीना कठिन है। धूप और साए में एक साथ परिवर्तन होते रहें, तब भी धरती के जीव-जन्तु इन झटकों को अधिक देर तक नहीं सहार सकते। मगर तत्त्वदर्शी स्रष्टा हा प्रकार की शक्ति रखनेवाला है, जिसने ज़मीन और सूरज के बीच ऐसा संतुलन स्थापित कर रखा है जो सदैव के लिए एक लगे-बंधे तरीक़े से धीरे-धीरे साया डालता और बढ़ाता-घटाता है और धीरे-धीरे बढ़ाता-उतारता रहता है और धूप क्रमश: निकलता-चलता और उतारता रहता है। यह तत्वदर्शितापूर्ण व्यवस्था न अंधी प्रकृति के हाथों स्वतः स्थापित हो सकती है और न बहुत-से साधिकार खुदा इसे स्थापित करके यूँ एक निरंतर नियमबद्धता के साथ चला सकते थे। [परोक्ष रूद्ध इस आयत का यह है कि कुछ व शिर्क की अज्ञानता का यह साया जो इस समय छाया हुआ है,कोई स्थायी बस्तु नहीं है। मार्गदर्शन का सूरज कुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) के रूप में निकल चुका है। ज्यों-ज्यों यह सूरज चढ़ेगा, यह साया सिमटता चला जाएगा।
وَهُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ لِبَاسٗا وَٱلنَّوۡمَ سُبَاتٗا وَجَعَلَ ٱلنَّهَارَ نُشُورٗا ۝ 46
(47) और यह अल्लाह ही है जिसने रात को तुम्हारे लिए वस्त्र 60, और नींद को मौत की शान्ति और दिन की जी उठने का समय61 बनाया।
60. अर्थात् ढाँकने और छिपानेवाली बस्तु ।
61. इस आयत के तीन पहलू है- एक पहलू से यह तौहीद की दलील जुना रही है, दूसरे पहलू से ये इसानी तजुर्वे से मौत के बाद की जिंदगी की संभावना का प्रमाण जुटा रही है, और तीसरे पहलू से यह एक गूगम रूप से शुभ सूचना दे रही है कि अज्ञानता की रात समाप्त हो चुकी, अब ज्ञान व चेतना और मार्गदर्शन एवं बोध का रौशन दिन निकल चुका है।
وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَرۡسَلَ ٱلرِّيَٰحَ بُشۡرَۢا بَيۡنَ يَدَيۡ رَحۡمَتِهِۦۚ وَأَنزَلۡنَا مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ طَهُورٗا ۝ 47
(48) और वही है जो अपनी रहमत के आगे-आगे हवाओं को शुभ-सूचना बनाकर भेजता है, फिर आसमान से पाक 62 पानी उतारता है
62. अर्थात ऐसा पानी जो हर तरह की गन्दगियों से भी पाक होता है और हर तरह के जहरीले पदार्थों और कीवाणुओं से भी पाक । जिसकी वजह से गन्दगियाँ पुलती हैं और इंसान, जीव, पेड़-पौधे सबको जीवन प्रदान करनेवाला शुद्ध जौहर प्राप्त होता है।
لِّنُحۡـِۧيَ بِهِۦ بَلۡدَةٗ مَّيۡتٗا وَنُسۡقِيَهُۥ مِمَّا خَلَقۡنَآ أَنۡعَٰمٗا وَأَنَاسِيَّ كَثِيرٗا ۝ 48
(49) ताकि एक मत योग को उसके द्वारा जीवन प्रदान करे और अपनी पति में से बहुत से जानवरों और इंसानों को सिंचित करे।63
63. इस आयत के भी यही तीन पहलू है जो ऊपरवाली आयत के थे। इसमें तौहीद के प्रमाण भी हैं और आख़िरत के प्रमाण पी और यह शुभ सूचना भी। कि अज्ञानता का काल जो वास्तव में सूखे व अकाल का दौर था | समाप्त हो चुका है और उसकी जगह अल्लाह) प्रकाशना ज्ञान का शुद्ध अमृत बरसा रहा है, सब नहीं तो बहुत से अल्लाह के बंदे इससे लाभ उठाएंगे ही।
وَلَقَدۡ صَرَّفۡنَٰهُ بَيۡنَهُمۡ لِيَذَّكَّرُواْ فَأَبَىٰٓ أَكۡثَرُ ٱلنَّاسِ إِلَّا كُفُورٗا ۝ 49
(50) इस करिश्मे को हम बार बार उनके सामने लाते हैं64 ताकि ने कुछ शिक्षा महण करें, मगर अधिकतर लोग इंकार और नाशुकी के सिवा कोई दूसरा रवैया अपनाने से इंकार कर देते है।65
64. मूल अरबी शब्द है- 'ल कद सर्रफ ना'। इसके तीन अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि बारिश के इस विषय को हमने बार-बार कुरआन में बयान करके वास्तविकता के पाने को समझाने की कोशिश की है। दूसरे यह कि हम बार-बार बरसात और उससे उत्पन्न होनेवाले जीवन-प्रकाश के चमत्कार उनको दिखाते रहते हैं। तीसरे यह कि हम वर्षा को गर्दिश देते रहते हैं, अर्थात हमेशा हर जगह-एक जैसी बारिश नहीं होती।
65. अगर पहले पहलू (अर्थात तौहीद के प्रमाण की दृष्टि से देखा जाए तो आयत का अर्थ यह है कि लोग आँखें खोलकर देखें, तो केवल बारिश की व्यवस्था ही में अल्लाह के एक होने पर प्रमाण जुटानेवाली पर्याप्त निशानियां मौजूद है, मगर इसके बावजूद कि हम बार-बार इस विषय की ओर तवज्जोह दिलाते हैं, ये नाशुक्रे) जालिम कोई शिक्षा नहीं लेते। दूसरे पहलू (अर्थात् आखिरत के प्रमाण की दृष्टि) से देखा जाए तो इसका अर्थ यह है कि हर साल इसके सामने बरसात की बरकत से मुर्दा पेड़-पौधे, कीड़े-मकौड़े के जी उठने का अद्भुत काम होता रहता है, मगर सब कुछ देखकर भी ये मूर्ख मौत के बाद की जिंदगी को असम्भव ही कहते चले जाते हैं। बार-बार उन्हें सत्या की इस स्पष्ट निशानी की ओर तवज्जोह दिलाई जाती है, मगर कुफ्र व इंकार इतना जड़ पकड़ चुका है कि किसी तरह नहीं टूटता। अगर तीसरे पहलू (अर्थात् सूखे से अज्ञानता की और कृपा की वर्षा से प्रकाशना व पैग़म्बरी की उपमा) को दृष्टि में रखकर देखा जाए तो आयत का अर्थ यह है कि मानव-इतिहास के दौरान में बार-बार यह दृश्य सामने आता रहा है कि जब कभी दुनिया पौम्बर और ईश-ग्रंथ की अनुकंपा से वंचित हुई, मानवता बंजर हो गई। और जब कभी प्रकाशना एवं पैग़म्बरी का अमृत इस धरती को मिल गया, मानवता का बाग़ लहलहा उठा। यह दृश्य इतिहास भी बार-बार दिखाता है और कुरआन भी इसकी ओर बार-बार तवज्जोह दिलाता है, मगर लोग फिर भी शिक्षा नहीं लेते। और आज अल्लाह ने नबी और किताब की नेमत से जिस बस्ती को अनुग्रहीत किया है, वह उसका शुक्र अदा करने के बजाय उलटी नाशुक्री करने पर तुली हुई है।
وَلَوۡ شِئۡنَا لَبَعَثۡنَا فِي كُلِّ قَرۡيَةٖ نَّذِيرٗا ۝ 50
(51) अगर हम चाहते तो एक एक बस्ती में एक-एक ख़बरदार करनेवाला उठा खड़ा करते।66
66. अर्थात् ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर न था। चाहते तो जगह-जगह नबी पैदा कर सकते थे, मगर हमने ऐसा नहीं किया और दुनिया भर के लिए एक ही नबी भेज दिया। जिस तरह एक सूरज सारी दुनिया के लिए काफी हो रहा है, उसी तरह यह हिदायत का अकेला सूरज ही सब दुनियावालों के लिए काफ़ी है।
فَلَا تُطِعِ ٱلۡكَٰفِرِينَ وَجَٰهِدۡهُم بِهِۦ جِهَادٗا كَبِيرٗا ۝ 51
(52) अत: ऐ नबी । इनकार करनेवालों की बात कदापि न मानो और इस कुरआन को लेकर उनके साथ जबरदस्त जिहाद (संघर्ष) करो।67
67. ज़बरदस्त जिहाद के तीन अर्थ है- एक अनथक प्रयास, जिसमें आदमी कोशिश और जिद्दोजुहद को कोई कसर न उठा रखे, दूसरे बड़े पैमाने पर जुद्दोजिहद, जिसमें आदमी अपने तमाम साधनों को लाकर डाल दे और तीसरे, चहुँमुखी प्रयास, जिसमें आदमी कोशिश का कोई पहलू और मुक़ाबले का कोई मोर्चा न छोड़े। इसमें ज़बान और कलम का जिहाद भी शामिल है और जान व माल का भी और तोप व बन्दूक का भी।
۞وَهُوَ ٱلَّذِي مَرَجَ ٱلۡبَحۡرَيۡنِ هَٰذَا عَذۡبٞ فُرَاتٞ وَهَٰذَا مِلۡحٌ أُجَاجٞ وَجَعَلَ بَيۡنَهُمَا بَرۡزَخٗا وَحِجۡرٗا مَّحۡجُورٗا ۝ 52
(53) और वाही है जिसने दो समुद्रों को मिला रखा है, एक स्वादिष्ट और मीठा, दूसरा कडूवा और खारा। और दोनों के दर्मियान एक परदा रोक है। एक रुकावट है जो उन्हें गड-महू होने से रोके हुए है।68
68. यह दशा हर उस समय उत्पन्न होती है जहाँ कोई बड़ी नदी समुद्र में आकर गिरती है। इसके अलावा स्वयं समुद्र में भी विभिन्न स्थानों पर मीठे पानी के स्रोत पाए जाते हैं जिनका पानी समुद्र के अत्यन्त खारे पानी के बीच भी अपनी मिठास पर कायम रहता है। तुर्की अमीरुल बहर सैयदी अलो रईस (कातिब रूमो) अपनी किताब 'मिरातुल ममालिक' में, जो सोलहवीं सदी ई. की किताब है, फ़ारस को खाड़ी के अन्दर ऐसे ही एक जगह को चिह्नित करता है। उसने लिखा है कि वहाँ खारे पानी के नीचे मीठे पानी के स्रोत हैं जिनमें से मैं स्वयं अपने बेड़े के लिए पीने का पानी प्राप्त करता रहा हूँ। बहरैन के करीब भी समुद्र की तह से इस प्रकार के बहुत से स्रोत निकले हुए हैं जिनसे लोग मीठा पानी हासिल करते हैं। यह तो है आयत का प्रत्यक्ष विषय जो अल्लाह की शक्ति के एक करिश्मे से उसके अल्लाह और एक पालनहार होने का प्रमाण जुटा रहा है, मगर उसके बीच से भी एक सूक्ष्म-संकेत एक दूसरे विषय की ओर होता है और वह यह है कि इंसानी समाज का समुद्र चाहे कितना ही कड़वा-खारा हो जाए, अल्लाह जब चाहे उसकी तह से सदाचारियों का मीठा स्रोत निकाल सकता है।
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ مِنَ ٱلۡمَآءِ بَشَرٗا فَجَعَلَهُۥ نَسَبٗا وَصِهۡرٗاۗ وَكَانَ رَبُّكَ قَدِيرٗا ۝ 53
(54) और वही है जिसने पानी से एक बशर (इंसान) पैदा किया, फिर उससे वंश और ससुराल अलो रईस (कातिब रूमो) अपनी किताब 'मिरातुल ममालिक' में, जो सोलहवीं सदी ई. की किताब है, फ़ारस को खाड़ी के अन्दर ऐसे के दो अलग सिलसिले चलाए।69 तेरा रब बड़ा ही सामर्थ्यवान है।
69. अर्थात् स्वयं में यही करिश्मा क्या कम था कि वह एक तुच्छ पानी की बूंद से इंसान जैसा अद्भुत प्राणी बना खड़ा करता है, मगर इस पर और अधिक करिश्मा यह है कि उसने इंसान का भी एक नमूना नहीं, बल्कि दो अलग नमूने (औरत और मर्द) बनाए, जिनसे ताल्लुकात का एक सिलसिला बेटों और पोतों का चलता है जो दूसरे घरों से पत्नियाँ लाते हैं। और संबंधों का एक दूसरा सिलसिला बेटियों और नवासियों का चलता है जो दूसरे घरों की बहुएँ बनकर जाती हैं। इस तरह परिवार से परिवार जुड़कर पूरा-पूरा देश एक नस्ल और सामाजिकता तथा संस्कृति से जुड़ जाते हैं।
وَيَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَنفَعُهُمۡ وَلَا يَضُرُّهُمۡۗ وَكَانَ ٱلۡكَافِرُ عَلَىٰ رَبِّهِۦ ظَهِيرٗا ۝ 54
(55) उस अल्लाह को छोड़कर लोग उनको पूज रहे है जो न उनको लाभ पहुँचा सकते हैं, न हानि, और ऊपर से और यह भी कि इंकार करनेवाला अपने रब के मुकाबले में हर विद्रोही का सहायक बना हुआ है।70
70. अर्थात् अल्लाह का कलिमा ऊँचा करने और उसके आदेशों और कानूनों को लागू करने के लिए जो कोशिश भी कहीं हो रही हो, इंकारी की |व्यावहारिक या कम से कम हार्दिक) हमदर्दियाँ इस प्रयास के साथ नहीं, बल्कि उन लोगों के साथ होंगी जो उसे नीचा दिखाने पर तत्पर हों। इसी तरह अल्लाह के आज्ञापालन और इताअत से नहीं, बल्कि उसकी अवज्ञा ही से इन्कारी की सारी दिलचस्पियाँ जुड़ी होंगी।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ إِلَّا مُبَشِّرٗا وَنَذِيرٗا ۝ 55
(56) ऐ नबी ! तुमको तो हमने बस एक खुशखबरी देनेवाला और खबरदार करनेवाला बनाकर भेजा है।71
71. अर्थात् तुम्हारा काम न किसी ईमान लानेवाले को बदला देना है, न किसी इंकार करनेवाले को सज़ा देना। तुम किसी को ईमान की ओर खींच लाने और इंकार से जबरदस्ती रोक देने पर नहीं नियुक्त हो। तुम्हारी ज़िम्मेदारी इससे अधिक कुछ नहीं कि जो सीधा रास्ता अपनाए उसे अच्छे अंजाम की शुभ-सूचना दे दो और जो अपनी पथभ्रष्टता पर जमा रहे, उसको अल्लाह की पकड़ से डरा दो। इस तरह की बातें क़ुरआन मजीद में जहाँ भी आई हैं, उनका वास्तविक सम्बोधन इन्कारियों से है और उद्देश्य वास्तव में उनको यह बताना है कि नबी एक निःस्वार्थ सुधारक है जो ईश्वर की सृष्टि की भलाई के लिए अल्लाह का सन्देश पहुँचाता है। अगर तुम उसकी बातमानोगे तो अपना ही भला करोगे, उसे कुछ न दे दोगे, न मानोगे तो अपनी हानि करोगे, उसका कुछ न बिगाड़ोगे। वह सन्देश पहुंचाकर अपना कर्तव्य निभा चुका, अब तुम्हारा मामला हमसे है।
قُلۡ مَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍ إِلَّا مَن شَآءَ أَن يَتَّخِذَ إِلَىٰ رَبِّهِۦ سَبِيلٗا ۝ 56
(57) इनसे कह दो कि “मैं इस काम पर तुमसे कोई मुआवज़ा नहीं माँगता, मेरा मुआवज़ा बस यही है कि जिसका जी चाहे वह अपने रब का रास्ता ग्रहण कर ले। 71अ
71अ. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-23, (अल-मोमिनून), टिप्पणी 70।
وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱلۡحَيِّ ٱلَّذِي لَا يَمُوتُ وَسَبِّحۡ بِحَمۡدِهِۦۚ وَكَفَىٰ بِهِۦ بِذُنُوبِ عِبَادِهِۦ خَبِيرًا ۝ 57
(58) ऐ नबी ! उस अल्लाह पर भरोसा रखो जो ज़िंदा है और कभी मरनेवाला नहीं। उसकी प्रशंसा के साथ उसका गुण-गान करो। अपने बन्दों के गुनाहों से बस उसी का बाख़बर होना काफ़ी है।
ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَا فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ ٱلرَّحۡمَٰنُ فَسۡـَٔلۡ بِهِۦ خَبِيرٗا ۝ 58
(59) वह जिसने छ: दिनों में जमीन और आसमानों को और उन सारी चीज़ों को बनाकर रख दिया जो आसमान व जमीन के बीच हैं, फिर आप ही 'अर्श' (सिंहासन) पर विराजमान हुआ ।72 रहमान (करुणामय ईश्वर), उसकी शान बस किसी जाननेवाले से पूछो।
72. अल्लाह के अर्श पर विराजमान होने की व्याख्या के लिए देखिए सूरा-7, आराफ़, टिप्पणी 41-42, सूरा-10, (युनूस), टिप्पणी 4, सूरा-10, (हूद) टिप्पणी 70 | ज़मीन और आसमान को छ: दिनों में पैदा करने का विषय 'मुतशाबिहात' (उपलक्षित) में से है जिसका अर्थ निश्चित करना कठिन है। संभव है कि एक दिन से तात्पर्य एक दौर हो। और सम्भव है कि इससे तात्पर्य समय की उतनी ही मात्रा हो जिसपर हम दुनिया में शब्द 'दिन' बोलते हैं। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-41,हा. मीम० अस्सज्दा, टिप्पणी 11-15)
وَإِذَا قِيلَ لَهُمُ ٱسۡجُدُواْۤ لِلرَّحۡمَٰنِ قَالُواْ وَمَا ٱلرَّحۡمَٰنُ أَنَسۡجُدُ لِمَا تَأۡمُرُنَا وَزَادَهُمۡ نُفُورٗا۩ ۝ 59
(60) उन लोगों से जब कहा जाता है कि इस रहमान को सज्दा करो तो कहते हैं, "रहमान क्या होता है? क्या बस जिसे तू कह दे, उसी को हम सज्दा करते फिरें।"73 यह पैग़ाम उनकी घृणा में उलटा और अभिवृद्धि कर देता है।74
73. यह बात वास्तव में वे केवल इनकारपूर्ण अहं (शोखी) और पूर्ण हठधर्मी के आधार पर कहते थे, जिस तरह फ़िरऔन ने हज़रत मूसा (अलैहि०) से कहा था, “रब्बुल आलमीन क्या होता है ?" हालाँकि न मक्का के विधर्मी दयावान प्रभु से बे-खबर थे और न फ़िरऔन ही सर्वजगत स्वामी अल्लाह से था। कुछ टीकाकारों ने इसका यह स्पष्टीकरण किया है कि अरबवालों के यहाँ अल्लाह के लिए 'रहमान' (दयावान) का पवित्र नाम प्रचलित न था, इसलिए उन्होंने यह आपत्ति की, लेकिन इस आयत की वर्णन-शैली स्वयं बता रही है कि यह आपत्ति न जानने की वजह से नहीं बल्कि अज्ञानतापूर्ण उदंडता के कारण थी। इसके अलावा यह बात ऐतिहासिक रूप से सिद्ध है कि अरब में अल्लाह के लिए प्राचीन काल से रहमान का शब्द परिचित व प्रचलित था। देखिए सूरा-32 (अस-सज्दा), टिप्पणी 5, सूरा-34 (सबा),टिप्पणी 35 ।
74. तमाम इस्लामी विद्वान सहमत हैं कि इस आयत को जो व्यक्ति पढ़े या सुने वह सजदा (सजदए तिलावत) करे। साथ ही यह भी नबी (सल्ल.) से साबित है कि आदमी जब इस आयत को सुने तो उत्तर में कहे, जादनल्लाहु ख़ुजूअम मा ज़ा-द लिल-अदाइ नुफ़ूरा (अर्थात् “अल्लाह करे हमारी विनम्रता इतनी ही बढ़े जितनी दुश्मनों की उद्दण्डता बढ़ती है।")
تَبَارَكَ ٱلَّذِي جَعَلَ فِي ٱلسَّمَآءِ بُرُوجٗا وَجَعَلَ فِيهَا سِرَٰجٗا وَقَمَرٗا مُّنِيرٗا ۝ 60
(61) बड़ा बरकतवाला है वह जिसने आसमान में बुर्ज बनाए75 और उसमें एक चिराग़76 और एक चमकता चाँद रौशन किया।
75. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-15 (अल-हिज्र), टिप्पणी 8 से 12 तक।
76. अर्थात् सूरज जैसा कि सूरा-71 (तूह) में स्पष्ट किया गया, "उसने सूरज को चिराग़ (प्रदीप) बनाया।”(आयत 16)
وَهُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ خِلۡفَةٗ لِّمَنۡ أَرَادَ أَن يَذَّكَّرَ أَوۡ أَرَادَ شُكُورٗا ۝ 61
(62) वही है जिसने रात और दिन को एक-दूसरे का स्थानापन्न बनाया, हर उस आदमी के लिए जो शिक्षा लेना चाहे ,या कृतज्ञ होना चाहे।77
77. ये दो श्रेणियाँ हैं जो अपने स्वरूप को दृष्टि से अलग और अपने स्वभाव की दृष्टि से एक-दूसरे के लिए अनिवार्य हैं। रात व दिन के आने-जाने की व्यवस्था पर विचार करने का पहला फल यह है कि आदमी उससे तौहीद (एकेश्वरवाद) को शिक्षा ले और अगर अल्लाह से ग़फ़लत में पड़ा हुआ था तो चौंक जाए और दूसरा परिणाम यह है कि अल्लाह के रब होने का एहसास करके विनम्रता के साथ सर को झुका दे और पूर्णरूप से कृतज्ञ बन जाए।
وَعِبَادُ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلَّذِينَ يَمۡشُونَ عَلَى ٱلۡأَرۡضِ هَوۡنٗا وَإِذَا خَاطَبَهُمُ ٱلۡجَٰهِلُونَ قَالُواْ سَلَٰمٗا ۝ 62
(63) रहमान के (वास्तविक) बन्दे वे78 हैं जो ज़मीन पर नर्म चाल चलते हैं79 और जाहिल उनके मुंह आएं तो कह देते हैं कि तुमको सलाम ।80
78. अर्थात् जिस रहमान को सज्दा करने के लिए कहा जा रहा है और तुम उससे मुँह मोड़ रहे हो, उसके जन्मजात बन्दे तो सभी हैं, मगर उसके प्रिय और पसंदीदा बन्दे वे हैं जो पूरी चेतना एवं विवेक के साथ बन्दगी अपना कर ये और ये गुण अपने भीतर पैदा करते हैं। साथ ही यह कि वह सज्दा, जिसकी तुम्हें दावत दी जा रही है, उसके परिणाम ये हैं जो उसकी बन्दगी स्वीकार करनेवालों के जीवन में नज़र आते हैं, और उससे इंकार के नतीज़े वे हैं जो तुम लोगों के जीवन में स्पष्ट हैं।
79. अर्थात् घमंड के साथ अकड़ते और ऐंठते हुए नहीं चलते, अत्याचार और उपद्रव करनेवालों (फ़सादियों) की तरह अपनी चाल से अपना बल दिखाने की कोशिश नहीं करते, बल्कि उनकी चाल एक सुस्वभाव वाले सज्जन और सदाचारी और सुशील व्यक्ति की-सी चाल होती है। 'नर्म चाल' से तात्पर्य बूढ़ोंवाली और बीमारवाली चाल नहीं है और न वह चाल है जो एक धोखेबाज़ और दिखावटी आदमी अपनी विनम्रता के प्रदर्शन या अपनी ईशभयता का प्रदर्शन करने के लिए बनावटी तरीके इस्तेमाल करता है। बल्कि इससे तात्पर्य एक भले आदमी की-सी स्वाभाविक चाल है ।। नबी (सल्ल.) स्वयं इस तरह मज़बूत कदम रखते हुए चलते थे कि मानो ढलान की ओर उतर रहे हैं। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-17 बनी इसराईल, टिप्पणो 43. सूरा-33 लुकमान टिप्पणी 33)
وَٱلَّذِينَ يَبِيتُونَ لِرَبِّهِمۡ سُجَّدٗا وَقِيَٰمٗا ۝ 63
(64) जो अपने रब के आगे सज्दे में और खड़े होकर रातें गुज़ारते हैं,81
81. अर्थात् वह उनके दिन की ज़िंदगी थी और यह उनको रातों की ज़िंदगी है। उनकी रातें न ऐयाशी में गुज़रती हैं, न नाच-गाने में, न खेल-तमाशे में और न डाके मारने और चोरियाँ करने में । अज्ञानता के इन प्रचलित कार्यक्रमों के विरुद्ध ये इस समाज के लोग हैं जिनकी रातें अल्लाह के हुजूर खड़े और बैठे और लेटे दुआ और इबादत करते गुज़रती हैं। क़ुरआन मजीद में जगह-जगह उनकी जिंदगी के इस पहलू को उभार कर पेश किया गया है। मिसाल के तौर पर दखिए सूरा-31 सज्दा (आयत 16) सूरा-91 ज़ारियात (आयत 17-18) और सूरा-39 जुमर (आयत 9)।
وَٱلَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَا ٱصۡرِفۡ عَنَّا عَذَابَ جَهَنَّمَۖ إِنَّ عَذَابَهَا كَانَ غَرَامًا ۝ 64
(65) जो दुआएँ करते हैं कि , “ऐ हमारे रब ! जहन्नम के अज़ाब से हमको बचा ले, उसका अज़ाब तो जान का लागू है,
إِنَّهَا سَآءَتۡ مُسۡتَقَرّٗا وَمُقَامٗا ۝ 65
(66) वह तो बड़ा ही बुरा ठिकाना और जगह है।82
82. अर्थात् यह इबादत उनमें कोई घमंड नहीं पैदा करती, बल्कि अपनी सारी नेकियों और इबादतों के बाद भी वे इस डर से कांपते रहते हैं कि कहीं हमारे अमल की कोताहियाँ हमको अज़ाब में न फंसा दे । वे अपनी इंसानी कमज़ोरियों को मानते हुए अज़ाब से बच निकलने ही को ग़नीमत समझते हैं और इसके लिए भी उनका भरोसा अपने कर्म पर नहीं, बल्कि अल्लाह की दया व कृपा पर होता है।
وَٱلَّذِينَ إِذَآ أَنفَقُواْ لَمۡ يُسۡرِفُواْ وَلَمۡ يَقۡتُرُواْ وَكَانَ بَيۡنَ ذَٰلِكَ قَوَامٗا ۝ 66
(67) जो ख़र्च करते हैं तो न फ़िजूलखची करते है, न कंजूसी, बल्कि उनका ख़र्च दोनों सीमाओं के बीच संतुलन पर स्थिर रहता है ।83
83. अर्थात् आम अरबवासियों के विपरीत न तो उनका हाल यह है कि ऐयाशी और शादी-ब्याह | और दिखावे के कामों में बेझिझक रुपये ख़र्च करें, न उनकी हालत यह है कि धन के एक पुजारी की तरह पैसा जोड़-जोड़कर रखें, न ख़ुद खाएं, न बाल बच्चों की ज़रूरतें अपनी सामर्थ पर पूरी करें और न किसी भलाई के रास्ते में ख़ुशदिली के साथ कुछ दें। इस्लामी दृष्टि से फिजूलख़र्ची तीन चीज़ों का नाम है- एक, नायज़ायज कामों में धन लगाना, दूसरे, ज़ायज कामों में ख़र्च करते हुए सीमा पार कर जाना। तीसरे, नेकी के कामों में ख़र्च करना मगर अल्लाह के लिए नहीं बल्कि दिखावे और नुमाइश के लिए। इसके विपरीत कंजूसी में दो चीजे हैं- एक, यह कि आदमी अपने और अपने बाल बच्चों की जरूरतों पर अपनी सामर्थ्य और हैसियत के अनुसार ख़र्च न करे। दूसरे, यह कि नेकी और भलाई के कामों में उसके हाथ से पैसा न निकले। इन दोनों अतियों के बीच में संतुलन की राह इस्लाम की राह है।
وَٱلَّذِينَ لَا يَدۡعُونَ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ وَلَا يَقۡتُلُونَ ٱلنَّفۡسَ ٱلَّتِي حَرَّمَ ٱللَّهُ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَلَا يَزۡنُونَۚ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ يَلۡقَ أَثَامٗا ۝ 67
(68) जो अल्लाह के सिवा किसी और उपास्य को ही पुकारते, अल्लाह की हराम की हुई किसी जान को बाहर कत्ल नहीं करते और न जिना (व्यभिचा) करते है।84- यह काम जो कोई करे वह अपने गुगात का बदला पाएगा,
84. अर्थात् वे उन तीन गुनाहों से बचते हैं जिनमें अरब के लोग बहुतायत के साथ लिप्त है- एक अल्लाह के साथ शिर्क, दूसरे नाहक कल, तीसरे जिना। इस विषय को नबी (सल्ल.) ने बहुत-सी हदीसों में बयान फ़रमाया है।
يُضَٰعَفۡ لَهُ ٱلۡعَذَابُ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَيَخۡلُدۡ فِيهِۦ مُهَانًا ۝ 68
(69) कियामत के दिन उसको बढ़ाकर अजाल दिया जाएगा85 और उसी में वह हमेशा अपमान के साथ पड़ा रहेगा
85. इसके दो अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि अज़ाब का सिलसिला टूटने न पाएगा, बल्कि एक के बाद एक जारी रहेगा, और दूसरे यह कि जो आदमी कुफ़ या शिर्क या नास्तिकता के साथ कत्ल और ज़िना और दूसरे गुनाहों का बोझ लिए हुए जाएगा, उसको विद्रोह की सज़ा अलग मिलेगी और एक-एक जुर्म की सज़ा अलग-अलग।
إِلَّا مَن تَابَ وَءَامَنَ وَعَمِلَ عَمَلٗا صَٰلِحٗا فَأُوْلَٰٓئِكَ يُبَدِّلُ ٱللَّهُ سَيِّـَٔاتِهِمۡ حَسَنَٰتٖۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 69
(70) अलावा इसके कि कोई (इन गुनाहों के बाद) तौबा कर चुका हो और ईमान लाकर भला काम करने लगा हो,86 ऐसे लोगों की बुराइयों को अल्लाह भलाइयों से बदल देगा।87 और वह बड़ा क्षमाशील और दयावान है।
86. यह शुभ-सूचना है उन लोगों के लिए जिनकी जिंदगी पहले तरह-तरह के अपराधों में पड़ी रही हो और अब वे अपने सुधार पर तैयार हों। यही आम माफ़ी (General Amnesty) का एलान था जिसने उस बिगड़े हुए समाज के लाखों लोगों को सहारा देकर स्थायी बिगाड़ से बचा लिया। उसी ने उनको आशा की किरण दिखाई और सुधार पर तैयार किया, वरना अगर उनसे यह कहा जाता है कि जो गुनाह तुम कर चुके हो उनकी सज़ा से अब तुम किसी तरह नहीं बच सकते, तो यह उन्हें निराश करके हमेशा के लिए बदी के भंवर में फंसा देता और कभी उनका सुधार न हो सकता।
87. इसके दो अर्थ हैं- एक यह कि जब वे तौबा कर लेंगे तो कुफ्त की ज़िंदगी में जो बुरे कर्म वे पहले किया करते थे, उनकी जगह अब आज्ञापालन और ईमान की ज़िंदगी में अल्लाह की तौफ़ीक़ से नेक काम करने लगेंगे और तमाम बुराइयों की जगह भलाइयाँ ले लेंगी। दूसरे यह कि तौबा के नतीजे में केवल इतना ही न होगा कि उनके आमालनामा से वे तमाम अपराध काट दिए जाएँगे जो उन्होंने कुफ़्र व गुनाह की ज़िंदगी में किए थे, बल्कि उनकी जगह हर एक के आमालनामे में यह नेकी लिख दी जाएगी कि यह वह बन्दा है जिसने द्रोह और अवज्ञा को छोड़कर आज्ञापालन और फ़रमाबरदारी अपना ली। फिर जितनी बार भी वे अपनी पिछली ज़िंदगी के बुरे कमों को याद करके लज्जित हुआ होगा और उसने अपने अल्लाह से माफी मांगी होगी, उसके हिसाब में उतनी ही नेकियाँ लिख दी जाएंगी। इस तरह उसके आमालनामे में तमाम पिछली बुराइयों की जगह भलाइयाँ ले लेंगी।
وَمَن تَابَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَإِنَّهُۥ يَتُوبُ إِلَى ٱللَّهِ مَتَابٗا ۝ 70
(71) जो आदमी तौबा करके भले कर्म अपनाता है, वह तो अल्लाह की ओर पलट आता है, जैसा कि पलटने का हक़ है।88
88. अर्थात् प्रकृति की दृष्टि से भी बन्दे की असल शरण-स्थली उसी की बारगाह है और नैतिक हैसियत से भी वही एक बारगाह है जिसकी ओर उसे पलटना चाहिए और परिणाम को ष्टि से भी उस बारगाह की ओर पलटना लाभप्रद है। इसके अलावा इसका अर्थ यह भी है कि वह पलटकर एक ऐसी बारगाह की ओर जाता है जो सच में है ही पलटने के योग्य जगह, सबसे अच्छी बारगाह, जहां से पलटनेवाले के लिए क्षमा ही क्षमा और भलाई ही भलाई है।
وَٱلَّذِينَ لَا يَشۡهَدُونَ ٱلزُّورَ وَإِذَا مَرُّواْ بِٱللَّغۡوِ مَرُّواْ كِرَامٗا ۝ 71
(72) (और रहमान के बन्दे वे हैं) जो झूठ के गवाह नहीं बनते89 और किसी लाव (व्यर्थ) चीज़ पर उनका गुज़र हो जाए तो सज्जन व्यक्तियों की तरह गुज़र जाते हैं।90
89. इसके भी दो अर्थ हैं- एक यह कि वे किसी झूठी बात की गवाही नहीं देते, और दूसरे यह कि वे झूठ को देखते नहीं, उसके तमाशाई नहीं बनते, उसको देखने का इरादा नहीं करते। इस दूसरे अर्थ की दृष्टि से झूठ' का शब्द बातिल और शर जैसा मतलब रखता है। इंसान जिस बुराई की ओर भी जाता है, स्वाद या चमक-दमक या ज़ाहिरी फ़ायदे के उस झूठे मुलम्मे की वजह से जाता है जो शैतान ने उस पर चढ़ा रखी है, इसलिए हर बातिल, हर गुनाह और हर बुराई इस लिहाज़ से झूठ है कि वह अपनी चमक-दमक से अपनी ओर लोगों को खींचती है।
90. 'लग्‍़व' का शब्द उस 'झूठ' पर भी हावी है जिसकी व्याख्या ऊपर की जा चुकी है और इसके साथ तमाम फ़िजूल, व्यर्थ और निरर्थक बातें और काम भी उसके अर्थ में शामिल हैं। (और अधिक व्याख्या के लिए दखिए सूरा-23 अल मोमिनून, टिप्पणी 4)
وَٱلَّذِينَ إِذَا ذُكِّرُواْ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ لَمۡ يَخِرُّواْ عَلَيۡهَا صُمّٗا وَعُمۡيَانٗا ۝ 72
(73) जिन्हें अगर उनके रब की आयतें सुनाकर नसीहत की जाती है तो वे उसपर अंधे और बहरे बनकर नहीं रह जाते91,
91. मूल में अरबी शब्द हैं “लम यख़िरू अलैहा सुम्मवं-व-उमयाना" जिनका शाब्दिक अनुवाद है “वे उनपर अंधे-बहरे बन कर नहीं गिरते।" लेकिन यहाँ गिरने का शब्द शाब्दिक अर्थ में नहीं, बल्कि मुहावरे के रूप में प्रयुक्त हुआ है। आयत का अर्थ यह है कि वे ऐसे लोग नहीं हैं जो अल्लाह की आयतें सुनकर टस से मस न हों, बल्कि वे उनका गहरा प्रभाव ग्रहण करते हैं और जो हिदायत उन आयतों में आई हो उसकी पैरवी करते हैं।
وَٱلَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَا هَبۡ لَنَا مِنۡ أَزۡوَٰجِنَا وَذُرِّيَّٰتِنَا قُرَّةَ أَعۡيُنٖ وَٱجۡعَلۡنَا لِلۡمُتَّقِينَ إِمَامًا ۝ 73
(74) जो दुआएँ माँगा करते हैं कि “ऐ हमारे रब ! हमें अपनी बीवियों और अपनी औलाद से आँखों की ठंडक 92 दे और हमको परहेजग़ारों का इमाम बना।’’93
أُوْلَٰٓئِكَ يُجۡزَوۡنَ ٱلۡغُرۡفَةَ بِمَا صَبَرُواْ وَيُلَقَّوۡنَ فِيهَا تَحِيَّةٗ وَسَلَٰمًا ۝ 74
(75) ये वे लोग जो अपने सब्र94 का फल ऊंची मंजिल के रूप में पाएँगे,95 शिष्टाचार अभिवादन से उनका स्वागत होगा।
94. सब्र का शब्द यहाँ अपने पूरे व्यापक व विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। सत्य के दुश्मनों के अत्याचारों को मर्दानगी के साथ बर्दाशत करना, सत्यधर्म को कायम और सरबुलन्द करने की जिद्दोजुहद में हर प्रकार की मुसीबतों और तकलीफों को सह जाना, हर डर और लालच के मुकाबले में सीधे रास्ते पर जमे रहना। शैतान के प्रलोभनों और मन की सारी इच्छाओं के विपरीत कर्तब्य को पूरा करना, तात्पर्य यह है कि इस एक शब्द के अन्दर दीन और दीनी रवैए और दीनी अखलाक की एक दुनिया की दुनिया समोकर रख दी गई है।
95. मूल में अरबी शब्द 'ग़ुरफ़ा’ प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ बुलन्द और ऊंची इमारत है। इसका अनुवाद आम तौर पर बालाखाना किया जाता है, जिससे आदमी के मन में एक दो मंज़िल कोठे का-सा चित्र आ जाता है, हालांकि सच तो यह है कि दुनिया में इंसान जो बड़ी से बड़ी और ऊंची से ऊंची इमारतें बनाता है, यहाँ तक कि हिन्दुस्तान का ताजमहल और अमेरीका के गगन भेदी Sky-Sirapers' तक जन्नत के उन महलों की सिर्फ़ एक भोंडी-सौ नकल है, जिनका एक धुंधला-सा चित्र आदम की औलाद के अचेतन (लाशय) में सुरक्षित चला आता है।
خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ حَسُنَتۡ مُسۡتَقَرّٗا وَمُقَامٗا ۝ 75
(76) वे हमेशा-हमेशा वहाँ रहेंगे। व्या ही अच्छा है वह ठिकाना और वह जगह।
قُلۡ مَا يَعۡبَؤُاْ بِكُمۡ رَبِّي لَوۡلَا دُعَآؤُكُمۡۖ فَقَدۡ كَذَّبۡتُمۡ فَسَوۡفَ يَكُونُ لِزَامَۢا ۝ 76
(77) ऐ नबी ! लोगों से कही, “मेरे रब की तुम्हारी क्या जरूरत पड़ी है अगर तुम उसको न पुकारो।96 अब जबकि तुमने झुठला दिया है, बहुत जल्द वह सज़ा पाओगे कि जान छुड़ानी मुश्किल होगी।"
96. अर्थात् अगर तुम अल्लाह से दुआएँ न माँगो और उसकी इबादत न करो और अपनी ज़रूरतों में उसको मदद के लिए न पुकारो, तो फिर तुम्हारा कोई वज़न भी अल्लाह की निगाह में नहीं है जिसकी वजह से वह तुम्हारी कण भर भी परवाह करे। सिर्फ रचना होने की हैसियत से तुममें और पत्थरों में कोई अन्तर नहीं। तुमसे अल्लाह की कोई ज़रूरत अटकी हुई नहीं है कि तुम बन्दगी न करोगे, तो उसका कोई काम रुका रह जाएगा। उसको तवज्जोह को जो चीज़ तुम्हारी ओर करती है, वह तुम्हारा उसकी ओर हाथ फैलाना और दुआएँ माँगना ही है । यह काम न करोगे तो कूड़े-करकट की तरह फेंक दिए जाओगे।