(6) ऐ नबी इनसे कहो कि “इसे उतारा है उसने जो ज़मीन और आसमानों का भेद जानता है।‘’12 वास्तविकता यह है कि वह बड़ा क्षमाशील और दयावान है।13
12. यह वही आपत्ति है जो इस ज़माने के प्राच्यविद् क़ुरआन मजीद के विरुद्ध करते हैं, लेकिन यह विचित्र बात है कि नबी (सल्ल०) के समकालीन दुश्मनों में से किसी ने भी यह नहीं कहा कि तुम बचपन में बुहैरा राहिब से जब मिले थे उस वक़्त ये सारी बातें तुमने सीख ली थीं और न यह कहा कि जवानी में जब व्यापारिक यात्राओं के सिलसिले में बाहर जाया करते थे तब उस समय में तुमने ईसाई राहिबों (संन्यासियों) और यहूदी रिब्ब्यिों (विद्वानों) से जानकारियाँ ली थीं। इसलिए कि इन सारी यात्राओं का हाल उनको मालूम था। ये यात्राएं अकेले नहीं हुई थी, उनके अपने क़ाफ़िलों के साथ हुई थीं और वे जानते थे कि इनमें कुछ सीख आने का आरोप हम लगाएँगे तो हमारे अपने ही शहर में सैकड़ों ज़बाने हमको झुठला देंगी। यही कारण है कि मक्का के कुफ़्फ़ार ने इतने सफेद झूठ का दुस्साहस न किया और उसे बाद के अधिक निर्लज्ज लोगों के लिए छोड़ दिया। वे जो बात कहते थे वह नुबूवत से पहले के बारे में नहीं, बल्कि नुबूबत के दावे के समय के बारे में थी। उनका कहना यह था कि यह आदमी अनपढ़ है, स्वयं पढ़ करके नई जानकारियाँ प्राप्त कर नहीं सकता, पहले उसने कुछ सीखा न था, चालीस वर्ष की उम्र तक उन बातों में से कोई बात भी न जानता था जो आज उसके मुख से निकल रही हैं। अब आखिर ये जानकारियां आ कहाँ से रही हैं ? उनका स्रोत अवश्य ही कुछ अगले लोगों की किताबें हैं जिनके हिस्से रातों को चुपके चुपके अनुवाद और नकल कराए जाते हैं, उन्हें किसी से यह आदमी पढ़वाकर सुनता है और फिर उन्हें याद करके हमें दिन को सुनाता है। रिवायतो से मालूम होता है कि इस सिलसिले में वह कुछ आदमियों का नाम भी लेते थे जो अहले किताब थे, पढ़े-लिखे थे और मक्का में रहते थे, अर्थात् अदास (हुवैतिब बिन अब्दुल उज्जा का आज़ाद किया हुआ गुलाम), यसार (अला बिन हज़रमी का आज़ाद किया हुआ गुलाम) और जब (आमिर बिन रबीआ का आज़ाद किया हुआ गुलाम)। प्रत्यक्ष में बड़ी भारी आपत्ति मालूम होती है मगर उत्तर में सिरे से कोई दलील प्रस्तुत नहीं की गई है। इसका कारण यह है कि यह आपति थी ही इतनी पोच और बेवज़न कि इसके उत्तर में बस 'झूठ और जुल्म' कह देना काफ़ी था। इस वास्तविकता का प्रमाण) हमें उसी माहौल से मिल जाता है जिसमें इस्लाम के विरोधियों ने यह आपत्ति की थी-
पहली बात यह थी कि मक्का के वे ज़ालिम सरदार जो एक-एक मुसलमान को मारते कूटते और तंग करते फिर रहे थे, उनके लिए यह बात कुछ भी मुशकिल न थी कि जिन-जिन लोगों के बारे में वे कहते थे कि यह पुरानौ-पुरानी किताबों के अनुवाद कर-करके मुहम्मद (सल्ल०) को याद कराया करते हैं, उनके घरों पर और स्वयं नबी (सल्ल०) के घर पर छापे मारते और वह सारा भंडार बरामद करके जनता के सामने ला रखते जो उनके दावे में इस काम के लिए जुटाया गया था, मगर वे बस खिक आपत्ति ही करते रहे और एक दिन भी यह निर्णायक कदम उठाकर उन्होंने न दिखाया।
दूसरी बात यह थी कि इस सिलसिले में वे जिन लोगों के नाम लेते थे, वे कहीं बाहर के न थे, उसी शहर मक्का के रहनेवाले थे। उनकी योग्यताएँ किसी से छिपी हुई न थीं। हर आदमी जो थोड़ी-सी बुद्धि भी रखता था यह देख सकता था कि मुहम्मद (सल्ल०) जो चीज़ प्रस्तुत कर रहे हैं, वह किस दर्जे की है और वे किस श्रेणी के लोग हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि मुहम्मद (सल्ल०) इनसे यह सब कुछ प्राप्त करके ला रहे हैं। इसी लिए किसी ने भी इस आपत्ति को कोई महत्व न दिया।
तीसरी बात यह थी कि वे सब लोग, जिनका इस सिलसिले में नाम लिया जा रहा था, बाहर के देशों से आए हुए ग़ुलाम थे जिनको उनके मालिकों ने आज़ाद कर दिया था। अरब की कामयाबी में कोई व्यक्ति भी किसी शक्तिशाली कबीले की हिमायत के बिना न जी सकता था। आजाद हो जाने पर भी गुलाम अपने पिछले मालिकों की सरपरस्ती में रहते थे और उनका समर्थन ही समाज में उनके लिए जिंदगी का सहारा होता था। [अब आख़िर यह कैसे संभव था कि ये लोग अपने सरपरस्तों को नाराज़ करके मुहम्मद (सल्ल०) के साथ इस पडयंत्र में शरीक हो जाते, जिससे लाभ की तो कोई आशा नहीं की जा सकती थी, अलबत्ता मुसीबतों और मुश्किलों के दरवाज़े उनके लिए अवश्य ही खुल जाते । ये [और इसी तरह के और भी] कारण थे जिनके आधार पर हर सुननेवाले की दृष्टि में यह आपत्ति स्वयं ही महत्वहीन थी। इसलिए क़ुरआन में उसको किसी भारी आपत्ति को हैसियत से जवाब देने के लिए उद्धृत नहीं किया गया है बल्कि यह बताने के लिए इसका उल्लेख किया गया है कि देखो, सत्य के विरोध में ये लोग कैसे अंधे हो गए हैं, और कितने स्पष्ट झूठ और बे-इंसाफ़ी पर उतर आए हैं।
13. इस जगह यह वाक्य बड़ा अर्थपूर्ण है। अर्थ यह है कि क्या शान है अल्लाह की दयालुता और क्षमाशीलता की, जो लोग सत्य को नीचा दिखाने के लिए ऐसे-ऐसे झूठ के तूफान उठाते हैं, उनको भी वह मोहलत देता है और सुनते ही अज़ाब कर कोड़ा नहीं बरसा देता। इस चेतावनी के साथ इसमें एक पहलू उपदेश का भी है कि ज़ालिमो, अब भी अगर अपनी दुश्मनी से बाज़ आ जाओ और हक़ बात को सीधी तरह मान लो तो जो कुछ आज तक करते रहे हो, वह सब माफ़ हो सकता है।