(86) तुम इस बात के कदापि उम्मीदवार न थे कि तुमपर किताब उतारी जाए, यह तो सिर्फ़ तुम्हारे रब की मेहरबानी से (तुमपर उतरी है109)। अत: तुम इनकारियों के सहायक न बनो110
109. यह बात मुहम्मद (सल्ल०) को नुबूवत के प्रमाण में प्रस्तुत की जा रही है। जिस तरह मूसा (अलैहि०) बिल्कुल बे-ख़बर थे कि उन्हें नबी बनाया जानेवाला है और एक महान मिशन पर वे नियुक्त किए जानेवाले हैं, उनके मन के किसी कोने में भी इसका इरादा या इच्छा तो दूर की बात, इसकी उम्मीद तक कभी न हुई धी, बस यकायक राह चलते उन्हें खींच बुलाया गया और नबी बनाकर उनसे वह आश्चर्यजनक काम ले लिया गया जो उनकी पिछली जिंदगी से कोई अनुकूलता नहीं रखता। ठीक ऐसा ही मामला प्यारे नबी (सल्ल०) के साथ भी पेश आया। मक्का के लोग स्वयं जानते थे कि हिरा की गुफा से जिस दिन आप नुबूवत का सन्देश लेकर उतरे उससे एक दिन पहले तक आपकी जिंदगी क्या थी, आपके काम क्या थे, आपकी बात-चीत क्या थी, आपकी बातें किस विषय पर होती थीं, आपकी रुचि और गतिविधियाँ किस प्रकार की थीं। यह पूरी जिंदगी सच्चाई, दयानत, अमानत और पाकबाज़ी से भरी जरूर थी। इसमें अति सज्जनता, शान्तिप्रिय वादे का ध्यान, हकों की अदायगी और जन-सेवा का रंग भी असाधारण तरीक़े से नुमायाँ था। मगर इसमें कोई चीज़ ऐसी मौजूद न थी जिसके कारण किसी की कल्पना में भी यह विचार आ सकता हो कि यह नेक बन्दा कल नुबूवत का दावा लेकर उठनेवाला है। आपसे सबसे ज़्यादा निकट सम्बन्ध रखनेवालों में, आपके रिश्तेदारों और पड़ोसियों और दोस्तों में कोई आदमी यह न कह सकता था कि आप पहले से नबी बनने की तैयारी कर रहे थे। किसी ने उन विषयों और मसलों के बारे में कभी एक शब्द तक आपकी ज़बान से न सुना था जो हिरा की गुफा की उस क्रान्तिकारी घड़ी के बाद यकायक आपकी ज़बान पर जारी होने शुरू हो गए। किसी ने आपको बह विशेष भाषा और उन शब्दों और परिभाषाओं का प्रयोग करते न सुना था जो अचानक कुरआन के रूप में ये लोग आपसे सुनने लगे। कभी आप उपदेश देने खड़े न हुए थे, कभी कोई दावत और आन्दोलन लेकर न उठे थे, बल्कि कभी आपकी किसी सरगर्मी से यह सन्देह तक न हो सकता था कि आप सामूहिक समस्याओं के हल या धार्मिक सुधार या नैतिक सुधार के लिए कोई काम शुरू करने की चिन्ता में हैं। इस क्रान्तिकारी घड़ी से एक दिन पहले तक आपकी जिंदगी एक ऐसे व्यापारी की जिंदगी नज़र आती थी जो सीधे-सादे जाइज़ तरीक़े से अपनी रोज़ी कमाता है, अपने बाल-बच्चों के साथ हँसी-ख़ुशी रहता है, मेहमानों का सत्कार, गरीबों की मदद और रिश्तेदारों से अच्छा व्यवहार करता है और कभी-कभी इबादत करने के लिए एकांत में जा बैठता है। ऐसे आदमी का यकायक एक विश्वव्यापी भूकम्प पैदा कर देनेवाले भाषण के साथ उठना, एक क्रान्तिकारी दावत शुरू कर देना, एक निराला लिट्रेचर पैदा कर देना, ज़िंदगी का एक स्थाई दर्शन, चिन्तन, नैतिकता और संस्कृति की एक व्यवस्था लेकर सामने आ जाना, इतना बड़ा परिवर्तन है जो मानव मनोविज्ञान की दृष्टि से किसी बनावट और तैयारी और इरादी कोशिश के बिना बिलकुल सामने नहीं आ सकता। इसलिए कि ऐसी हर कोशिश और तैयारी बहरहाल क्रमागत विकास के चरणों से गुजरती है और ये चरण उन लोगों से कभी छिपे नहीं रह सकते जिनके बीच आदमी रात-दिन ज़िंदगी गुज़ारता हो। अगर प्यारे नबी (सल्ल०) की जिंदगी इन चरणों से गुज़री होती तो मक्का में सैकड़ों ज़बानें यह कहनेवाली होती कि हम न कहते थे, यह आदमी एक दिन कोई बड़ा दावा लेकर उठनेवाला है, लेकिन इतिहास गवाह है कि मक्का के विधर्मियों ने आप पर हर तरह की आपत्तियाँ की मगर यह आपत्ति करनेवाला उनमें से कोई एक आदमी भी न था।
फिर यह बात कि आप स्वयं भी नुबूवत के इच्छुक या आशा और प्रतीक्षा वाले न थे, बल्कि पूरी बेख़बरी की हालत में अचानक आपको इस मामले का सामना करना पड़ा, इसका प्रमाण उस घटना से मिलता है जो हदीसों में वह्य की शरुआत की दशा के बारे में उल्लिखत हुई है । जिबील (अलैहि०) से पहली मुलाकात और सूरा अलक़ की आरंभिक आयतों के अवतरण के बाद आप हिरा की गुफा से कांपते और लरज़ते हुए घर पहुंचते हैं। घरवालों से कहते हैं कि "मुझे ओढ़ाओ, मुझे ओढ़ाओ" । कुछ देर के बाद जब तनिक डर और भय की दशा दूर होती है तो अपनी जीवन-संगिनी को सारी घटना सुनाकर कहते हैं कि “मुझे अपनी जान का डर है।" वह तुरन्त उत्तर देती हैं, “हरगिज़ नहीं, आपको अल्लाह कभी रंज में न डालेगा। आप तो नातेदारों के हक़ अदा करते हैं, असहाय को सहारा देते हैं, गरीबों की मदद करते हैं, मेहमानों का सत्कार करते हैं, हर भले काम में मदद करने के लिए तैयार रहते हैं।" फिर वह आपको लेकर वरका बिन नौफ़ल के पास जाती हैं जो उनके चचेरे भाई और अहले किताब में से एक विद्वान और सच्चे आदमी थे। वह आपसे पूरी घटना सुनने के बाद बे-झिझक कहते हैं कि “यह जो आपके पास आया था वही नामूस (विशेष काम पर नियुक्त फ़रिश्ता) है जो मूसा के पास आता था। काश, मैं जवान होता और उस समय तक जिंदा रहता जब आपकी क़ौम आपको निकाल देगी।" आप पूछते हैं, क्या ये लोग मुझे निकाल देंगे?" वह जवाब देते हैं, "हाँ, कोई आदमी ऐसा नहीं गुज़रा कि वह चीज़ लेकर आया हो जो आप लाए हैं और लोग उसके शत्रु न हो गए हों।"
यह पूरी घटना उस स्थिति का चित्र प्रस्तुत करती है जो बिल्कुल स्वाभाविक रूप से यकायक आशा के विपरीत एक अत्यन्त असाधारण अनुभव सामने आ जाने से किसी सीधे-सादे इंसान पर छा सकती है। अगर प्यारे नबी (सल्ल०) पहले से नबी बनने की चिन्ता में होते, अपने बारे में यह सोच रहे होते कि मुझ जैसे आदमी को नबी होना चाहिए और इस प्रतीक्षा में वह ध्यान मग्न होकर अपने चिन्तन पर ज़ोर डाल रहे होते कि कब कोई फ़रिश्ता आता है और मेरे पास सन्देश लाता है, तो हिरा की गुफावाला मामला पेश आते हो आप खुशी से उछल पड़ते और बड़े दम-दावे के साथ पहाड़ से उतर कर सीधे अपनी क़ौम के सामने पहुंचते और अपनी नुबूवत का एलान कर देते । लेकिन इसके विपरीत यहाँ हालत यह है कि जो कुछ देखा था उसपर दंग रह जाते हैं, काँपते और लरज़ते हुए घर पहुंचते हैं, लिहाफ़ ओढ़कर लेट जाते हैं। तनिक मन में ठहराव पैदा होता है तो बीवी को चुपके से बताते हैं कि आज गुफा की तंहाई में मुझपर यह हादसा गुज़रा है, मालूम नहीं क्या होनेवाला है, मुझे अपनी जान की ख़ैर नज़र नहीं आती। यह दशा नुबूवत के किसी उम्मीदवार की स्थिति से कितनी भिन्न है।
फिर बीवी से बढ़कर शौहर की ज़िंदगी, उसके हालात और उसके विचारों को कौन जान सकता है? आगर उनके तजुर्बे में पहले से यह बात आई हुई होती कि मियाँ नुबूवत के उम्मीदवार हैं और हर वक़्त फ़रिश्ते के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, तो उनका जवाब कदापि वह न होता जो हज़रत ख़दीज दिया। वे कहतीं कि मियाँ ! घबराते क्यों हो, जिस चीज़ को मुद्दतों से तमन्ना थी, वह मिल गई। चलो, अब पीरी की दुकान चमकाओ, मैं भी नज़राने संभालने की तैयारी करती हूँ। लेकिन वे पन्द्रह वर्ष तक आपके साथ रहते हुए आपकी जिंदगी का जो रंग देख चुकी थीं, उसके आधार पर उन्हें यह बात समझने में एक क्षण की भी देर नहीं लगी कि ऐसे नेक और निःस्वार्थ व्यक्ति के पास शैतान नहीं आ सकता, न अल्लाह उसको किसी बुरी आज़माइश में डाल सकता है। उसने जो कुछ देखा है वह पूर्णत: सच है।
और यही मामला वरका बिन नौफ़ल का भी है। वह कोई बाहर के आदमी नहीं थे, बल्कि नबी (सल्ल०) की अपनी बिरादरी के आदमी और करीब के रिश्ते से निस्बती भाई (साले) थे। फिर एक विद्वान ईसाई होने को हैसियत से नुबूवत, किताब और वय को बनावटी और जाली होने से अलग कर सकते थे । उम्र में कई साल बड़े होने की वजह से आपकी पूरी जिंदगी बचपन से उस वक़्त उनके सामने थी। उन्होंने भी आपकी ज़बान से हिरा की दास्तान सुनते ही तुरन्त कह दिया कि यह आनेवाला निश्चित रूप से वही फ़रिश्ता है जो मूसा (अलैहि०) पर वह्य लाता था, क्योंकि यहाँ भी वही शक्ल सामने आई थी जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के सामने आई थी कि एक अति पवित्र, चरित्र का सीधा-सादा व्यक्ति, जिसका ज़ेहन बिल्कुल खाली है, नुबूवत की चिन्ता तो दूर की बात, उसकी प्राप्ति का विचार भी उसके मन में कभी नहीं आया है, और अचानक वह पूरे होश व हवास की हालत में खुले तौर पर इस अनुभव से दोचार होता है । इसी चीज़ ने उनको दो और दो चार की तरह बिना किसी झिझक के इस नतीजे तक पहुँचा दिया कि यहाँ मन का कोई फरेब या शैतानी करिश्मा नहीं है, बल्कि इस सच्चे इंसान ने अपने किसी इरादे और इच्छा के विना जो कुछ देखा है,वह वास्तव में सच्चाई को देखा है।
यह मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी का ऐसा खुला हुआ प्रमाण है कि एक सत्यप्रिय व्यक्ति मुश्किल ही से इसका इंकार कर सकता है । इसी लिए कुरआन में बहुत-सी जगहों पर इसे नुबूवत की दलील की हैसियत से पेश किया गया है, जैसे सूरा-10 यूनुस में फ़रमाया-
"ऐ नबी । इनसे कहो कि अगर अल्लाह ने यह न चाहा होता तो मैं कभी यह कुरआन तुम्हें न सुनाता, बल्कि इसकी खबर तक वह तुमको न देता। आखिर मैं इससे पहले एक उम्र तुम्हारे बीच गुजार चुका हूँ। क्या तुम इतनी बात भी नहीं समझते?" (आयत 16)
और सूरा-42 शूरा में फ़रमाया-
"ऐ नबी ! तुम तो जानते तक न थे कि किताब क्या होती है और ईमान क्या होता है, मगर हमने इस वह्य को एक नूर बना दिया जिससे हम रहनुमाई करते हैं अपने बन्दों में से जिसकी चाहते है।" (आयत 52)
और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 21, सूरा-29 अनकबूत, टिप्पणी 88-92 सूरा-42 अश-शुरा, टिप्पणी 84 ।
110. अर्थात् जब अल्लाह ने यह नेमत तुम्हें बे-माँगे दी है तो इसका हक़ अब तुम पर यह है कि तुम्हारी सारी ताक़तें और मेहनतें इसका ध्वज उठाने पर, इसके प्रचार और प्रसार पर लगें। इसमें कोताही करने का अर्थ यह होगा कि तुमने सत्य के बजाय सत्य के इंकारियों की मदद की। इसका अर्थ यह नहीं है कि (अल्लाह की पनाह) नबी (सल्ल०) से ऐसी किसी कोताही का अंदेशा था, बल्कि वास्तव में इस तरह अल्लाह विधर्मियों को सुनाते हुए अपने नबी को यह हिदायत फ़रमा रहा है कि तुम इनके शोर व हंगामे और इनके विरोध के बावजूद अपना काम करो और इसकी कोई परवाह न करो कि सत्य के शत्रु इस दावत से अपने क़ौमी हित पर चोट लगने की क्या आशंका व्यक्त करते हैं ।