मदीना में उतरी आयते 200
परिचय
नाम
इस सूरा में एक स्थान पर 'आले इमरान' (इमरान के घरवालों) का उल्लेख हुआ है। उसी को पहचान के रूप में इसका यह नाम रख दिया गया है।
उतरने का समय और विषय
इसमें चार व्याख्यान हैं:
पहला व्याख्यान सूरा के आरंभ से आयत 32 तक है और वह शायद बद्र की लड़ाई के बाद क़रीबी समय ही में उतरा है। दूसरा व्याख्यान आयत 33, “अल्लाह ने आदम और और इबराहीम की संतान और इमरान की संतान को तमाम दुनियावालों पर प्राथमिकता देकर (अपनी रिसालत के लिए) चुन लिया था" से शुरू होता है और आयत 63 पर ख़त्म होता है। यह सन् 09 हिजरी में नजरान प्रतिनिधिमंडल के आगमन के अवसर पर उतरा। तीसरा व्याख्यान आयत 64 से आरंभ होता है और आयत 120 तक चलता है और इसका समय पहले व्याख्यान के समय से मिला हुआ लगता है। चौथा व्याख्यान आयत 121 से आरंभ होकर सूरा के अंत तक चलता है। यह उहुद की लड़ाई के बाद उतरा है।
सम्बोधन और वार्ताएँ
इन विभिन्न व्याख्यानों को मिलाकर जो चीज़ क्रमागत विषय बनाती है, वह उद्देश्य, अभिप्राय और केन्द्रीय विषय की एकरूपता है। सूरा का सम्बोधन मुख्य रूप से दो गिरोहों की ओर है : एक अहले-किताब (यहूदी और ईसाई), दूसरे वे लोग जो मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ईमान लाए थे।
पहले गिरोह को उसी ढंग से और आगे की बात पहुँचाई गई है, जिसका सिलसिला सूरा-2 (अल-बक़रा) में शुरू किया गया था। दूसरे गिरोह को, जो अब सर्वोत्तम गिरोह होने की हैसियत से सत्य का ध्वजावाहक और दुनिया के सुधार का ज़िम्मेदार बनाया जा चुका है, उसी सिलसिले में कुछ और आदेश दिए गए हैं जो सूरा-2 (अल-बक़रा) में शुरू हुआ था। उन्हें पिछले समुदायों के धार्मिक और नैतिक पतन का शिक्षाप्रद दृश्य दिखाकर सचेत किया गया है कि उनके पद-चिह्नों पर चलने से बचें। उन्हें बताया गया है कि एक सुधारक जमाअत होने की हैसियत से वे किस तरह काम करें।
उतरने का कारण
इस सूरा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि यह है : (1) सूरा-2 (अल-बकरा) में इस सत्य-धर्म पर ईमान लानेवालों को जिन आज़माइशों, मुसीबतों और कठिनाइयों से समय से पहले सचेत कर दिया गया था, वे पूरी तीव्रता के साथ सामने आ चुकी थीं। बद्र की लड़ाई में यद्यपि ईमानवालो को विजय मिली थी, लेकिन यह लड़ाई मानो भिड़ों के छत्ते में पत्थर मारने जैसी थी [चुनांचे इसके बाद हर ओर तूफ़ान के लक्षण दिखाई देने लगे और मुसलमान नित्य- भय और अनवरत अशांति से दोचार हो गए] (2) हिजरत के बाद नबी (सल्ल.) ने मदीना के आस-पास के यहूदी कबीलों के साथ जो समझौते किए थे, उन लोगों ने उन समझौतों का कुछ भी सम्मान न किया। [और बराबर उनका उल्लंघन करने लगे।] अन्तत: जब उनकी शरारतें और वादाख़िलाफ़ियाँ असह्य हो गई तो नबी (सल्ल.) ने बद्र के कुछ महीने बाद बनी-क़ैनुकाअ पर, जो इन यहूदी क़बीलों में सबसे अधिक उद्दण्ड थे, हमला कर दिया और उन्हें मदीना के आस-पास से निकाल बाहर किया, लेकिन इससे दूसरे यहूदी क़बीलों की दुश्मनी की आग और अधिक भड़क उठी। उन्होंने मदीना के मुनाफ़िक़ मुसलमानों और हिजाज़ के मुशरिक क़बीलों के साथ साँठ-गांठ करके इस्लाम और मुसलमानों के लिए हर ओर संकट ही संकट पैदा कर दिए। (3) बद्र की पराजय के बाद कुरैश के दिलों में अपने आप ही प्रतिशोध की आग भड़क रही थी कि उसपर यहूदियों ने और तेल छिड़क दिया। परिणाम यह हुआ कि एक ही साल बाद मक्का से तीन हज़ार की भारी सेना मदीना पर हमलावर हो गई और उहुद के दामन में वह लड़ाई हुई जो उहुद की लड़ाई के नाम से मशहूर है। (4) उहुद की लड़ाई में मुसलमानों की जो पराजय हुई, उसमें यद्यपि मुनाफ़िक़ों की चालों की एक बड़ी भूमिका थी, लेकिन उसके साथ मुसलमानों की अपनी कमज़ोरियों की भूमिका भी कुछ कम न थी, इसलिए यह ज़रूरत पेश आई कि लड़ाई के बाद उस लड़ाई की पूरी दास्तान की एक विस्तृत समीक्षा की जाए और इसमें इस्लामी दृष्टिकोण से जो कमज़ोरियाँ मुसलमानों के भीतर पाई गई थीं, उनमें से एक-एक की निशानदेही करके उसके सुधार के बारे में आदेश दिए जाएँ। इस संबंध में यह बात दृष्टि में रखने योग्य है कि इस लड़ाई पर क़ुरआन की समीक्षा उन सभी समीक्षाओं से कितनी भिन्न है जो दुनिया के सेनानायक अपनी लड़ाइयों के बाद किया करते हैं।
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