(35) निश्चित रूप से53 जो मर्द और जो औरतें मुस्लिम हैं,54 मोमिन हैं,55 आज्ञाकारी हैं,56 सत्यवादी हैं,57 धैर्य रखनेवाले हैं,58 अल्लाह के आगे झुकनेवाले हैं,59 सदक़ा देनेवाले हैं,60 रोज़ा रखानेवाले हैं,61 अपने गुप्तांगों की रक्षा करनेवाले हैं62 और अल्लाह को बहुत अधिक याद करनेवाले हैं63, अल्लाह ने उनके लिए क्षमा और बड़ा बदला तैयार कर रखा है।64
53. पिछले पैराग्राफ़ के फ़ौरन बाद ही इस विषय का उल्लेख करके एक सूक्ष्म संकेत इस बात की ओर कर दिया है कि ऊपर नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों को जो हिदायतें दी गई हैं, वे उनके लिए खास नहीं हैं, बल्कि मुस्लिम समाज को आम तौर से अपने आचरण में सुधार इन्हीं हिदायतों के अनुसार करना चाहिए।
54. अर्थात् जिन्होंने इस्लाम को अपने लिए जीवन-व्यवस्था के रूप में अपना लिया है और यह तय कर लिया है कि अब वे उसी का पालन करते हुए जीवन बिताएँगे। दूसरे शब्दों में, जिनके अंदर इस्लाम की दी हुई चिन्तन-प्रणाली और जीवन बिताने के तौर-तरीके के विरुद्ध किसी प्रकार की रुकावट बाक़ी नहीं रही है, बल्कि वे उसका पालन और पैरवी का रास्ता अपना चुके हैं।
58. अर्थात् अल्लाह व रसूल के बताए हुए सीधे रास्ते पर चलने और अल्लाह के दीन को स्थापित करने में जो मुश्किलें और मुसीबतें भी सामने आएँ, जो ख़तरे भी सामने हों, जो तकलीफें भी उठानी पड़ें और जिन हानियों से भी दोचार होना पड़े, उनका पूरे जमाव के साथ मुक़ाबला करते हैं। कोई डर, लालच और मनेच्छाओं का कोई तक़ाज़ा उनको सीधे रास्ते से हटा देने में सफल नहीं होता।
59. अर्थात् वे घमंड, अहं और अभिमान से खाली हैं। वे इस वास्तविकता को अच्छी तरह जानते और समझते हैं कि हम बन्दे (दास) हैं और बन्दगी (दासता) से उच्च हमारी कोई हैसियत नहीं है। इसलिए उनके मन और शरीर दोनों ही अल्लाह के आगे झुके रहते हैं। उनपर अल्लाह का डर छाया रहता है। उनसे कभी वह रवैया नहीं सामने आता जो अपनी बड़ाई के घमंड में मुब्तला और अल्लाह से निडर लोगों से प्रकट हुआ करता है। वार्ता क्रम को सामने रखा जाए, तो मालूम होता है कि यहाँ इस ख़ुदातरसी के आम रवैये के साथ मुख्य रूप से 'झुकने' से तात्पर्य नमाज़ है, क्योंकि उसके बाद ही सदके और रोज़े का उल्लेख किया गया है।
60. इससे तात्पर्य सिर्फ़ फ़र्ज़ ज़कात अदा करना ही नहीं है, बल्कि आम खैरात (दान-पुण्य) भी इसमें शामिल है। तात्पर्य यह है कि वे अल्लाह की राह में खुले दिल से अपने माल ख़र्च करते हैं।
61. इसमें फ़र्ज़ और नफ़ल दोनों प्रकार के रोज़े शामिल हैं।
62. इसमें दो अर्थ सम्मिलित हैं-
एक, यह कि वे जिना (व्यभिचार) से बचते हैं।
दूसरा, यह कि वे निर्लज्जता और नग्नता से दूर रहते हैं।
63. अल्लाह को अधिक से अधिक याद करने का अर्थ यह है कि आदमी की ज़बान पर हर समय जिंदगी के हर मामले में किसी न किसी तरह अल्लाह का नाम आता रहे। यह स्थिति उस वक़्त तक पैदा नहीं होती, जब तक आदमी के दिल में अल्लाह का विचार बसकर न रह गया हो। यह चीज़ वास्तव में इस्लामी जिंदगी की जान है। दूसरी जितनी भी इबादतें हैं, इनके लिए बहरहाल कोई वक़्त होता है, जब वे अदा की जाती हैं और उन्हें अदा कर चुकने के बाद आदमी फ़ारिश हो जाता है। लेकिन यह वह इबादत है, जो हर समय चलती रहती है और यही इंसान की जिंदगी का स्थाई रिश्ता अल्लाह और उसकी बन्दगी के साथ जोड़े रखती है। स्वयं इबादतों और तमाम दीनी कामों में भी जान इसी चीज़ से पड़ती है कि आदमी का दिल सिर्फ़ इन विशेष कार्यों के वक़्त ही नहीं, बल्कि हर वक्त अल्लाह की ओर झुका हुआ और उनकी ज़बान निरंतर उसकी याद से तर रहे।
64. इस आयत में यह बता दिया गया है कि अल्लाह के यहाँ असल महत्त्व व मूल्य किन ख़ूबियों का है। ये इस्लाम की मौलिक मान्यताएँ (Basic Values) हैं, जिन्हें एक वाक्य में समेट दिया गया है। इन मान्यताओं की दृष्टि से मर्द और औरत के बीच कोई अन्तर नहीं है। कर्म की दृष्टि से तो बेशक दोनों जातियों का कार्य-क्षेत्र अलग है। मर्दो को जिंदगी के कुछ क्षेत्रों में काम करना है और औरतों को कुछ और क्षेत्रों में, लेकिन अगर ये ख़ूबियाँ दोनों में बराबर मौजूद हों तो अल्लाह के यहाँ दोनों का दर्जा बराबर और दोनों का बदला बराबर होगा। इस दृष्टि से उनके दों और बदले में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा कि एक ने चूल्हा-चक्की संभाला और दूसरे ने ख़िलाफ़त की मस्नद (राजगद्दी) पर बैठकर शरीअत के आदेश जारी किए। एक ने घर में बच्चे पाले और दूसरे ने लड़ाई के मैदान में जाकर अल्लाह और उसके दीन के लिए जान लड़ाई।