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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ

36. या-सीन

(मक्का में उतरी, आयतें 83)

 

परिचय

नाम

शुरू ही के दोनों अक्षरों को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

वर्णन-शैली पर विचार करने से महसूस होता है कि इस सूरा के उतरने का समय या तो मक्का के मध्यकाल का अंतिम समय है, या फिर यह [नबी (सल्ल.) के] मक्का निवासकाल के अन्तिम समय की सूरतों में से है।

विषय और वार्ता

वार्ता का उद्देश्य क़ुरैश के इस्लाम-विरोधियों को मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत पर ईमान न लाने और अत्याचार और उपहास से उसका मुक़ाबला करने के अंजाम से डराना है। इसमें डरावे का पहलू बढ़ा हुआ और स्पष्ट है, किन्तु बार-बार डराने के साथ दलीलों से समझाया भी गया है। दलीलें तीन बातों की दी गई हैं-

तौहीद (एकेश्वरवाद) पर जगत् में पाई जानेवाली निशानियों और सामान्य बुद्धि से, आख़िरत पर जगत् में पाई जानेवाली निशानियों, सामान्य बुद्धि और स्वयं इंसान के अपने अस्तित्व से, और मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी की सत्यता पर इस बात से कि आप संदेश पहुँचाने में यह सारी मशक्कत केवल नि:स्वार्थ भाव से सहन कर रहे थे, और इस बात से कि जिन बातों की ओर आप लोगों को बुला रहे थे, वे सर्वथा उचित थीं। इन दलीलों के बल पर डाँट-फटकार, निन्दा और चेतावनी की वार्ताएँ बड़े ज़ोरदार तरीक़े से बार-बार प्रस्तुत हुई हैं, ताकि दिलों के ताले टूटें और जिनके भीतर सत्य स्वीकार करने की थोड़ी-सी क्षमता भी हो, वे प्रभावित हुए बिना न रह सकें। इमाम अहमद, अबू-दाऊद, नसाई, इब्ने-माजा और तबरानी (रह०) आदि ने माक़िल-बिन-यसार (रजि०) से रिवायत किया है कि नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया है कि यह सूरा क़ुरआन का दिल है। यह उसी तरह की मिसाल है जिस तरह सूरा फ़ातिहा को 'उम्मुल-क़ुरआन' फ़रमाया गया है। फ़ातिहा को उम्मुल-क़ुरआन क़रार देने की वजह यह है कि उसमें क़ुरआन मजीद की सम्पूर्ण शिक्षा का सार आ गया है। सूरा या-सीन को कुरआन का धड़कता हुआ दिल इसलिए फ़रमाया गया है कि यह क़ुरआन की दावत को बड़े ज़ोरदार तरीक़े से पेश करती है, जिससे ठहराव टूटता और रूह में हरकत पैदा होती है। इन्हीं हज़रत माक़िल-बिन-यसार (रज़ि०) से इमाम अहमद, अबू-दाऊद, इब्ने-माजा (रह०) ने यह रिवायत भी नक़्ल की है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अपने मरनेवालों पर सूरा या-सीन पढ़ा करो।" इसका कारण यह है कि मरते समय मुसलमान के मन में न सिर्फ़ यह कि तमाम इस्लामी अक़ीदे ताज़ा हो जाएँ, बल्कि मुख्य रूप से उसके सामने आख़िरत का पूरा चित्र भी आ जाए और वह जान ले कि दुनिया की ज़िन्दगी से गुज़रकर अब आगे किन मंज़िलों से उसको वास्ता पेश आनेवाला है। इस निहितार्थ को पूरा करने के लिए उचित यह मालूम होता है कि अरबी न जाननेवाले आदमी को सूरा या-सीन सुनाने के साथ उसका अनुवाद भी सुना दिया जाए, ताकि याद दिलाने का हक़ पूरी तरह अदा हो जाए।

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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
36. या-सीन
سُورَةُ يسٓ
36. या-सीन
يسٓ
(1) या-सीन1
1. इब्ने-अब्बास (रजि०), इक्रिमा, जहाक, हसन बसरी और सुफ़ियान बिन उऐना (रह०) का कथन है कि इसका अर्थ है, 'ऐ इंसान !' या ऐ व्यक्ति!' और कुछ टीकाकारों ने इसे 'या सैयद (श्रीमान, जनाब)' का संक्षिप्त रूप भी कहा है। इस अर्थ के अनुसार इन शब्दों में जिसे सम्बोधित किया गया है, वे नबी (सल्ल०) ही हैं।
وَٱلۡقُرۡءَانِ ٱلۡحَكِيمِ ۝ 1
(2) क़सम है हिकमतवाले क़ुरआन की
إِنَّكَ لَمِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 2
(3) कि तुम निश्चय ही रसूलों में से हो, 2
2. इस तरह वार्ता का आरंभ करने का कारण यह नहीं है कि मआज़ल्लाह (अल्लाह की पनाह) नबी (सल्ल०) को अपने नबी और पैगम्बर होने में कोई सन्देह था और आप (सल्ल०) को विश्वास दिलाने के लिए अल्लाह को यह बात फ़रमाने की ज़रूरत पेश आई। बल्कि इसका कारण यह है कि उस समय कुरैशी विधर्मी पूरी उग्रता के साथ नबी (सल्ल०) की पैग़म्बरी का इंकार कर रहे थे, इसलिए अल्लाह ने किसी भूमिका के बिना वार्ता का आरंभ ही इस वाक्य से किया कि "तुम निश्चय ही रसूलों में से हो", फिर इस बात पर क़ुरआन की क़सम खाई गई है, और क़ुरआन की प्रशंसा में शब्द हिकमतवाला प्रयोग किया गया है। इसका अर्थ यह है कि तुम्हारे नबी होने का स्पष्ट प्रमाण यह क़ुरआन है जो पूरे का पूरा हिकमत से भरा हुआ है। यह चीज़ स्वयं गवाही दे रही है कि जो आदमी ऐसी हिकमत भरी वाणी प्रस्तुत कर रहा है वह निश्चय ही अल्लाह का रसूल है। कोई इंसान ऐसी वाणी की रचना की शक्ति नहीं रखता है और मुहम्मद (सल्ल०) को जो लोग जानते हैं, वे कदापि इस भ्रम में नहीं पड़ सकते कि यह वाणी आप स्वयं गढ़-गढ़कर ला रहे हैं या किसी दूसरे इंसान से सीख-सीखकर सुना रहे हैं। इस विषय की व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 21, 45, 46, सूरा-17 बनी इसराईल, टिप्पणी 106, 107, 108, सूरा-26 अश-शुअरा, टिप्पणी 1, सूरा-27 अन-नम्ल, टिप्पणी 93, सूरा-28 अल-क़सस, टिप्पणी 62, 63, 64, 109, सूर.-29 अल-अनकबूत, टिप्पणी 88, 89, 90,91
عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 3
(4) सीधे रास्ते पर हो
تَنزِيلَ ٱلۡعَزِيزِ ٱلرَّحِيمِ ۝ 4
(5) (और यह क़ुरआन) ग़ालिब (प्रभुत्वशाली) और रहीम (दयामय) हस्ती का उतारा हुआ है, 3
3. यहाँ क़ुरआन को अवतरित करनेवाले के दो गुण बयान किए गए हैं। एक यह कि वह ग़ालिब (प्रभुत्वशाली) और ज़बरदस्त है, दूसरे यह कि वह दयावान है। पहला गुण बयान करने का अभिप्राय इस सच्चाई पर सचेत करता है कि यह कुरआन किसी बे-ज़ोर नसीहत करनेवाले की नसीहत नहीं है, जिसे तुम नज़रअंदाज़ कर दो तो तुम्हारा कुछ न बिगड़े, बल्कि यह जगत् के उस स्वामी का फ़रमान है जो सब पर ग़ालिब (प्रभावी) है, जिसके फ़ैसलों को लागू होने से कोई शक्ति नहीं रोक सकती और जिसकी पकड़ से बच जाने की सामर्थ्य किसी को प्राप्त नहीं है। और दूसरा गुण बयान करने से अभिप्राय यह एहसास दिलाना है कि यह सरासर उसकी मेहरबानी है कि उसने तुम्हारी हिदायत व रहनुमाई के लिए अपना रसूल भेजा और यह महान ग्रंथ उतारा, ताकि तुम गुमराहियों से बचकर उस सीधे रास्ते पर चल सको जिससे तुम्हें दुनिया और आख़िरत की सफलता प्राप्त हो।
لِتُنذِرَ قَوۡمٗا مَّآ أُنذِرَ ءَابَآؤُهُمۡ فَهُمۡ غَٰفِلُونَ ۝ 5
(6) ताकि तुम ख़बरदार करो एक ऐसी क़ौम को जिसके बाप-दादा ख़बरदार न किए गए थे और इस वजह से वे ग़फ़लत में पड़े हुए हैं।4
4. इस आयत का दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि “तुम डराओ एक क़ौम के लोगों को उसी बात से जिससे उनके बाप-दादा डराए गए थे, क्योंकि वे ग़फ़लत में पड़े हुए हैं।" पहला अर्थ अगर लिया जाए तो बाप-दादा से तात्पर्य क़रीबी ज़माने के बाप-दादा होंगे, क्योंकि बहुत पहले के ज़माने में अरब की धरती पर बहुत-से नबी आ चुके थे और दूसरा अर्थ अपनाने की सूरत में तात्पर्य यह होगा कि पुराने ज़माने में जो सन्देश नबियों के ज़रिये से इस क़ौम के बाप-दादों के पास आया था, उसको अब फिर नया करो, क्योंकि ये लोग उसे भुला चुके हैं। इस जगह यह सन्देह पैदा होता है कि इस क़ौम के पिछलों पर जो समय ऐसा गुज़रा था, जिसमें कोई ख़बरदार करनेवाला उनके पास नहीं आया, उस समय अपनी गुमराही के वे किस तरह ज़िम्मेदार हो सकते थे? इसका जवाब मालूम करने के लिए देखिए सूरा-34 सबा, टिप्पणी 5
لَقَدۡ حَقَّ ٱلۡقَوۡلُ عَلَىٰٓ أَكۡثَرِهِمۡ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 6
(7) इनमें से अधिकतर लोग अज़ाब के फैसले के हक़दार हो चुके हैं, इसी लिए वे ईमान नहीं लाते।5
5. यह उन लोगों का उल्लेख है जो नबी (सल्ल०) के पैग़ाम के मुक़ाबले में दुराग्रह और हठधर्मी से काम ले रहे थे और जिन्होंने तय कर लिया था कि आप (सल्ल०) की बात बहरहाल मानकर नहीं देनी है। उनके बारे में फ़रमाया गया है कि, "ये लोग अज़ाब के फैसले के हक़दार हो चुके हैं, इसलिए ये ईमान नहीं लाते।" इसका अर्थ यह है कि जो लोग नसीहत पर कान नहीं धरते, उनपर स्वयं उनके अपने कर्मों का फल आच्छादित (मुसल्लत) कर दिया जाता है और फिर उन्हें ईमान का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता।
إِنَّا جَعَلۡنَا فِيٓ أَعۡنَٰقِهِمۡ أَغۡلَٰلٗا فَهِيَ إِلَى ٱلۡأَذۡقَانِ فَهُم مُّقۡمَحُونَ ۝ 7
(8) हमने उनकी गरदनों में तौक़ (पट्टे) डाल दिए हैं, जिनसे वे ठोड़ियों तक जकड़े गए हैं, इसलिए वे सिर उठाए खड़े हैं।6
6. इस आयत में 'तौक़' (पट्टे) से तात्पर्य उनकी अपनी हठधर्मी है जो उनके लिए सत्य स्वीकार करने में बाधक बन रही थी। ठोड़ियों तक जकड़े जाने' और 'सर उठाए खड़े होने' से तात्पर्य गरदन को वह अकड़ है जो घमंड और अहं का परिणाम होती है। अल्लाह यह फ़रमा रहा है कि हमने उनके दुराग्रह और हठधर्मी को उनकी गरदन का पट्टा बना दिया है और जिस घमंड और अहं में ये पड़े हैं, उसकी वजह से उनकी गरदनें इस तरह अकड़ गई हैं कि अब भले ही कोई रौशन से रौशन सच्चाई उनके सामने आ जाए, ये उसकी ओर ध्यान तक न देंगे।
وَجَعَلۡنَا مِنۢ بَيۡنِ أَيۡدِيهِمۡ سَدّٗا وَمِنۡ خَلۡفِهِمۡ سَدّٗا فَأَغۡشَيۡنَٰهُمۡ فَهُمۡ لَا يُبۡصِرُونَ ۝ 8
(9) हमने एक दीवार उनके आगे खड़ी कर दी है और एक दीवार उनके पीछे। हमने उन्हें ढाँक दिया है, उन्हें अब कुछ नहीं सूझता।7
7. एक दीवार आगे और एक पीछे खड़ी कर देने से तात्पर्य यह है कि इसी हठधर्मी और घमंड का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ है कि ये लोग न अतीत के इतिहास से कोई शिक्षा लेते हैं और न भविष्य के परिणामों पर कभी विचार करते हैं।
وَسَوَآءٌ عَلَيۡهِمۡ ءَأَنذَرۡتَهُمۡ أَمۡ لَمۡ تُنذِرۡهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 9
(10) उनके लिए बराबर है, उन्हें सचेत करो या न करो, ये न मानेंगे।8
8. अर्थ यह है कि तुम्हारा सामान्य प्रचार हर तरह के व्यक्तियों तक पहुँचता है। इनमें से कुछ लोग वे हैं जिनका उल्लेख ऊपर हुआ है और कुछ दूसरे लोग वे हैं, जिनका उल्लेख आगे की आयत में आ रहा है। पहले प्रकार के लोगों से जब वास्ता पड़े तो उनके पीछे न पड़ो मगर उनके इस रवैये से निराश और हताश होकर अपना काम छोड़ भी न बैठो, क्योंकि तुम्हें नहीं मालूम कि इंसानों की इसी भीड़ में वे अल्लाह के बन्दे कहाँ हैं जो नसीहत क़बूल करनेवाले और अल्लाह से डरकर सीधे रास्ते पर आ जानेवाले हैं।
إِنَّمَا تُنذِرُ مَنِ ٱتَّبَعَ ٱلذِّكۡرَ وَخَشِيَ ٱلرَّحۡمَٰنَ بِٱلۡغَيۡبِۖ فَبَشِّرۡهُ بِمَغۡفِرَةٖ وَأَجۡرٖ كَرِيمٍ ۝ 10
(11) तुम तो उसी आदमी को सचेत कर सकते हो जो नसीहत की पैरवी करे और बे-देखे दयावान ख़ुदा से डरे। उसे माफ़ी और बाइज्ज़त बदले की ख़ुशख़बरी दे दो।
إِنَّا نَحۡنُ نُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَنَكۡتُبُ مَا قَدَّمُواْ وَءَاثَٰرَهُمۡۚ وَكُلَّ شَيۡءٍ أَحۡصَيۡنَٰهُ فِيٓ إِمَامٖ مُّبِينٖ ۝ 11
(12) हम निश्चय ही एक दिन मुर्दो को जिंदा करनेवाले हैं। जो कुछ कर्म उन्होंने किए हैं, वे सब हम लिखते जा रहे हैं, और जो कुछ निशान उन्होंने पीछे छोड़े हैं, वे भी हम लिख रहे हैं।9 हर चीज़ को हमने एक खुली किताब में लिख रखा है।
9. इससे मालूम हुआ कि इंसान का आमालनामा (कर्म-फल) तीन प्रकार की बातों पर आधारित है। एक यह कि हर आदमी जो कुछ भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, वह अल्लाह के रिकार्ड में लिख लिया जाता है। दूसरे, अपने आस-पास की चीज़ों और स्वयं अपने देह के अंगों पर जो निशान (Impressions) भी इंसान डालता है, वे सब के सब अंकित हो जाते हैं। तीसरे, अपने मरने के बाद अपनी आनेवाली नस्ल पर, अपने समाज पर और पूरी मानवता पर अपने अच्छे और बुरे कर्मों के जो प्रभाव वह छोड़ गया है, वे जिस समय तक और जहाँ-जहाँ तक अपना काम करते रहेंगे, वे सब उसके हिसाब में लिखे जाते रहेंगे।
وَٱضۡرِبۡ لَهُم مَّثَلًا أَصۡحَٰبَ ٱلۡقَرۡيَةِ إِذۡ جَآءَهَا ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 12
(13) इन्हें मिसाल के तौर पर उस बस्तीवालों का किस्सा सुनाओ, जबकि उसमें रसूल आए थे।10
10. पुराने टीकाकार सामान्यतः इस ओर गए हैं कि इस बस्ती से तात्पर्य शाम (सीरिया) का नगर अन्ताकिया है और जिन रसूलों का उल्लेख यहाँ किया गया है, उन्हें हज़रत ईसा (अलैहि०) ने तब्लीग़ (धर्म-प्रचार) के लिए भेजा था। लेकिन यह बात ऐतिहासिक दृष्टि से बिल्कुल निराधार है। आबादी का निर्धारण न क़ुरआन में किया गया है, न किसी सहीह हदीस में, बल्कि यह बात भी किसी प्रामाणिक सूत्र से मालूम नहीं होती कि ये रसूल कौन थे और किस समय में भेजे गए थे। कुरआन मजीद जिस उद्देश्य के लिए यह क़िस्सा यहाँ बयान कर रहा है, उसे समझने के लिए बस्ती का नाम और रसूलों के नाम मालूम होने की कोई ज़रूरत नहीं है। क़िस्से के बयान करने का उद्देश्य क़ुरैश के लोगों को यह बताना है कि तुम हठधर्मी, पक्षपात और सत्य के इंकार की उसी रीति पर चल रहे हो, जिसपर उस बस्ती के लोग चले थे और उसी अंजाम से दोचार होने की तैयारी कर रहे हो, जिससे वे दोचार हुए।
إِذۡ أَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡهِمُ ٱثۡنَيۡنِ فَكَذَّبُوهُمَا فَعَزَّزۡنَا بِثَالِثٖ فَقَالُوٓاْ إِنَّآ إِلَيۡكُم مُّرۡسَلُونَ ۝ 13
(14) हमने उनकी ओर दो रसूल भेजे और उन्होंने दोनों को झुठला दिया। फिर हमने तीसरा मदद के लिए भेजा और उन सबने कहा, "हम तुम्हारी ओर रसूल की हैसियत से भेजे गए हैं।"
قَالُواْ مَآ أَنتُمۡ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُنَا وَمَآ أَنزَلَ ٱلرَّحۡمَٰنُ مِن شَيۡءٍ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا تَكۡذِبُونَ ۝ 14
(15) बस्तीवालों ने कहा, “तुम कुछ नहीं हो, मगर हम जैसे कुछ इंसान, 11 और दयावान ख़ुदा ने कदापि कोई चीज़ नहीं उतारी है,12 तुम सिर्फ़ झूठ बोलते हो।"
11. दूसरे शब्दों में, उनका कहना यह था कि तुम चूंकि इंसान हो, इसलिए अल्लाह के भेजे हुए रसूल नहीं हो सकते। यही विचार मक्का के इस्लाम-विरोधियों का भी था। वे कहते थे कि मुहम्मद रसूल नहीं हैं, क्योंकि वे इंसान हैं । (देखिए सूरा-25 अल-फुन, आयत 7 और सूरा-21 अंबिया, आयत 3) क़ुरआन मजीद मक्का के विधर्मियों के इस अज्ञानतापूर्ण विचार का खंडन करते हुए बताता है कि यह कोई नई अज्ञानता नहीं है जो आज पहली बार इन लोगों से प्रकट हो रही हो, बल्कि प्राचीन काल से ही तमाम अज्ञानी लोग इसी भ्रम में पड़े रहे हैं कि जो इंसान है वह रसूल नहीं हो सकता और जो रसूल है, वह इंसान नहीं हो सकता। [यही बात हज़रत नूह (अलैहि०) से उनकी क़ौम ने कही थी, (सूरा-23 अल-मुअमिनून, आयत 24)। यही बात आद क़ौम ने हज़रत हूद (अलैहि०) से कही थी (सूरा-23 अल-मुअमिनून, आयत 33, 34)। यही आपत्ति समूद क़ौम ने हज़रत सालेह (अलैहि०) पर की थी (सूरा-54 अल-क़मर, आयत 24)] ग़रज़ यही मामला क़रीब-करीब तमाम नबियों के साथ पेश आया था। (सूरा-14 इबराहीम, आयत 10, 11)
12. यह एक और अज्ञानता है जिसमें मक्का के इस्लाम-विरोधी पड़े हुए थे और आज के तथाकथित बुद्धिवादी भी ग्रस्त हैं एवं प्राचीन काल से वह्य (प्रकाशना) व रिसालत (पैग़म्बरी) का इंकार करनेवाले हर ज़माने के लोग इसमें ग्रस्त रहे हैं। इन सब लोगों का सदा से यह विचार रहा है कि अल्लाह सिरे से इंसानी रहनुमाई के लिए कोई वह्य नहीं उतारता। उसको सिर्फ ऊपरी दुनिया के मामलों से दिलचस्पी है। इंसानों का मामला उसने इंसानों पर ही छोड़ रखा है।
قَالُواْ رَبُّنَا يَعۡلَمُ إِنَّآ إِلَيۡكُمۡ لَمُرۡسَلُونَ ۝ 15
(16) रसूलों ने कहा, "हमारा रब जानता है कि हम ज़रूर तुम्हारी ओर रसूल बनाकर भेजे गए हैं,
وَمَا عَلَيۡنَآ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 16
(17) और हमपर साफ़-साफ सन्देश पहुँचा देने के सिवा कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।’’ 13
13. अर्थात् हमारा काम इससे अधिक कुछ नहीं है कि जो सन्देश तुम तक पहुँचाने के लिए सारे जहान के रख ने हमारे सुपुर्द किया है, वह तुम्हें पहुँचा दें। इसके बाद तुम्हें अधिकार है कि मानो या न मानो।
قَالُوٓاْ إِنَّا تَطَيَّرۡنَا بِكُمۡۖ لَئِن لَّمۡ تَنتَهُواْ لَنَرۡجُمَنَّكُمۡ وَلَيَمَسَّنَّكُم مِّنَّا عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 17
(18) बस्तीवाले कहने लगे, "हम तो तुम्हें अपने लिए अपशकुन समझते हैं।14 अगर तुम बाज़ न आए तो हम तुमको पथराव करके मार डालेंगे और हमसे तुम बड़ी दर्दनाक सज़ा पाओगे।'
14. इससे उन लोगों का तात्पर्य यह था कि तुम हमारे लिए अशुभ हो, तुमने आकर हमारे उपास्यों के विरुद्ध जो बातें करनी शुरू की हैं, उनकी वजह से देवता हमसे रुष्ट हो गए हैं और अब जो विपत्ति भी हमपर आ रही है वह तुम्हारे कारण ही आ रही है। ठीक यही बातें अरब के इस्लाम-विरोधी और मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) भी नबी (सल्ल०) के बारे में कहा करते थे। (देखिए सूरा-4 अन-निसा, आयत 78)
قَالُواْ طَٰٓئِرُكُم مَّعَكُمۡ أَئِن ذُكِّرۡتُمۚ بَلۡ أَنتُمۡ قَوۡمٞ مُّسۡرِفُونَ ۝ 18
(19) रसूलों ने जवाब दिया, "तुम्हारा अपशकुन तो तुम्हारे अपने साथ लगा हुआ है।15 क्या ये बाते तुम इसलिए करते हो कि तुम्हें नसीहत की गई? असल बात यह है कि तुम हद से गुज़रे हुए लोग हो।’’ 16
15. अर्थात् कोई किसी के लिए अशुभ नहीं है। हर व्यक्ति का भाग्य-पत्र उसकी अपनी गरदन में लटका हुआ है। बुराई देखता है तो अपने भाग्य की देखता है और भलाई देखता है तो वह भी उसके अपने ही भाग्य की होती है।
16. अर्थात् वास्तव में तुम भलाई से भागना चाहते हो और हिदायत के बजाय गुमराही तुम्हें पसन्द है, इसलिए सत्य और असत्य का फ़ैसला दलील से करने के बजाय अंधविश्वासों और बकवासों के सहारे ये बहानेबाज़ियाँ कर रहे हो।
وَجَآءَ مِنۡ أَقۡصَا ٱلۡمَدِينَةِ رَجُلٞ يَسۡعَىٰ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱتَّبِعُواْ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 19
(20) इतने में शहर के दूर दराज़ गोशे से एक आदमी दौड़ता हुआ आया और बोला, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! रसूलों की पैरवी अपनाओ,
ٱتَّبِعُواْ مَن لَّا يَسۡـَٔلُكُمۡ أَجۡرٗا وَهُم مُّهۡتَدُونَ ۝ 20
(21) पैरवी करो उन लोगों की जो तुमसे कोई बदला नहीं चाहते और ठीक रास्ते पर हैं।17
17. इस एक वाक्य में उस अल्लाह के बन्दे ने पैग़म्बरी की सच्चाई के सारे तर्क समेटकर रख दिए। एक नबी की सच्चाई दो ही बातों से जाँची जा सकती है। एक, उसकी कथनी-करनी, दूसरे उसका नि:स्वार्थ होना। उस आदमी के तर्क देने का उद्देश्य यह था कि एक तो ये लोग पूर्णत: बुद्धिसंगत बात कह रहे हैं और उनका अपना आचरण बिल्कुल निष्कलंक है, दूसरे कोई आदमी इस बात की निशानदेही नहीं कर सकता कि इस दीन की दावत ये अपने किसी निजी स्वार्थ के लिए दे रहे हैं। इसके बाद कोई कारण नज़र नहीं आता कि उनकी बात क्यों न मानी जाए।
وَمَالِيَ لَآ أَعۡبُدُ ٱلَّذِي فَطَرَنِي وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 21
(22) आख़िर क्यों न मैं उस हस्ती की बन्दगी करूँ जिसने मुझे पैदा किया है और जिसकी ओर तुम सबको पलटकर जाना है? 18
18. इस वाक्य के दो भाग हैं- पहले भाग में वह कहता है कि पैदा करनेवाले की बन्दगी करना तो पूर्ण रूप से बुद्धि और स्वभाव का तक़ाज़ा है। बुद्धि से परे बात अगर कोई है तो वह यह कि आदमी उनकी बन्दगी करे जिन्होंने उसे पैदा नहीं किया है। दूसरे भाग में वह अपनी क़ौम के लोगों को यह एहसास दिलाता है कि मरना आख़िर तुमको भी है, और उसी ख़ुदा की ओर जाना है जिसकी बन्दगी अपनाने पर तुम्हें आपत्ति है। अब तुम स्वयं सोच लो कि उससे मुँह मोड़कर तुम किस भलाई की आशा कर सकते हो।
ءَأَتَّخِذُ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةً إِن يُرِدۡنِ ٱلرَّحۡمَٰنُ بِضُرّٖ لَّا تُغۡنِ عَنِّي شَفَٰعَتُهُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَا يُنقِذُونِ ۝ 22
(23) क्या मैं उसे छोड़कर दूसरे उपास्य बना लूँ? हालाँकि अगर दयावान ख़ुदा मुझे कोई नुकसान पहुँचाना चाहे तो उनकी सिफ़ारिश मेरे किसी काम आ सकती है और न वे मुझे छुड़ा ही सकते हैं।19
19. अर्थात् न वे अल्लाह के ऐसे चहेते हैं कि मैं खुला अपराध करूँ और वह सिर्फ उनकी सिफ़ारिश पर मुझे क्षमा कर दे और न उनके अन्दर इतना ज़ोर है कि अल्लाह मुझे सज़ा देना चाहे और वे अपने बलबूते पर मुझे छुड़ा ले जाएँ।
إِنِّيٓ إِذٗا لَّفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 23
(24) अगर मैं ऐसा करूँ20 तो मैं खुली गुमराही में पड़ जाऊँगा।
20. अर्थात् यह जानते हुए भी अगर मैं उनको उपास्य बनाऊँ।
إِنِّيٓ ءَامَنتُ بِرَبِّكُمۡ فَٱسۡمَعُونِ ۝ 24
(25) मैं तो तुम्हारे रब पर ईमान ले आया,21 तुम भी मेरी बात मान लो।"
21. इस वाक्य में अपना संदेश किस ढंग से पहुँचाया जाए इस बारे में एक सूक्ष्म बात छिपी हुई है। यह कहकर उस आदमी ने उन लोगों को यह एहसास दिलाया कि जिस रब पर मैं ईमान लाया हूँ, वह सिर्फ़ मेरा ही रब नहीं है, बल्कि तुम्हारा रब भी है। उसपर ईमान लाकर मैंने ग़लती नहीं की है, बल्कि उसपर ईमान न लाकर तुम ही ग़लती कर रहे हो।
قِيلَ ٱدۡخُلِ ٱلۡجَنَّةَۖ قَالَ يَٰلَيۡتَ قَوۡمِي يَعۡلَمُونَ ۝ 25
(26-27) (अन्ततः उन लोगों ने उसे क़त्ल कर दिया और) उस आदमी से कह दिया गया कि "दाख़िल हो जा जन्नत में।’’22 उसने कहा, "काश, मेरी क़ौम को मालूम होता कि मेरे रब ने किस चीज़ की बदौलत मेरी मरिफ़रत (माफ़ी) फ़रमा दी और मुझे इज्जतदार लोगों में दाख़िल फ़रमाया।’’ 23
22. अर्थात् शहीद होते ही उस आदमी को जन्नत की शुभ-सूचना दी गई। ज्यों ही कि वह मौत के दरवाज़े से गुज़रकर दूसरी दुनिया में पहुँचा, फ़रिश्ते उसके स्वागत को मौजूद थे और उन्होंने उसे शुभ-सूचना दे दी कि आलीशान जन्नत उसके इंतिज़ार में है। इस वाक्य के अर्थ में टीकाकारों के बीच मतभेद है। क़तादा कहते हैं कि "अल्लाह ने उसी वक्त उसे जन्नत में दाखिल कर दिया और वह वहाँ जिंदा है, रोज़ी पा रहा है।" और मुजाहिद कहते हैं कि "यह बात फ़रिश्तों ने उससे शुभ-सूचना के रूप में कही और इसका अर्थ यह है कि क़ियामत के बाद जब तमाम ईमानवाले जन्नत में दाख़िल होंगे, तो वह भी उनके साथ दाख़िल होगा।"
23. उस ईमानवाले व्यक्ति के उच्च चरित्र का एक नमूना है। जिन लोगों ने उसे अभी-अभी क़त्ल किया था, उनके विरुद्ध कोई गुस्सा और बदले की भावना उसके मन में न थी कि वह अल्लाह से उनके हक़ में बद-दुआ करता। इसके बजाय वह अब भी उनका भला चाह रहा था। मरने के बाद उसके दिल में अगर कोई तमन्ना पैदा हुई तो वह बस यह थी कि काश ! मेरी क़ौम मेरे इस अच्छे अंजाम से अवगत हो जाए और मेरी जिंदगी से नहीं, तो मेरी मौत से शिक्षा लेकर सीधा रास्ता अपनाए। इस घटना को बयान करके अल्लाह ने मक्का के इस्लाम-विरोधियों को परोक्ष रूप से इस हक़ीक़त पर सचेत किया है कि मुहम्मद (सल्ल०) और उनके साथी ईमानवाले भी उसी तरह तुम्हारे सच्चे हितैषी हैं जिस तरह वह ईमानवाला व्यक्ति अपनी क़ौम का हितैषी था। यह आयत भी उन आयतों में से है जिनसे बरज़ख़ की जिंदगी का खुला प्रमाण मिलता है। इससे मालूम होता है कि मरने के बाद से क़ियामत तक का समय पूर्ण शून्य और अस्तित्वहीनता का समय नहीं है, जैसा कि कुछ अल्पज्ञानी गुमान करते हैं, बल्कि उस काल में देह के बिना आत्मा जीवित रहती है, बात करती और बात सुनती है, भावनाएँ रखती है, ख़ुशी और ग़म महसूस करती है और दुनियावालों के साथ भी उसकी दिलचस्पियाँ बाक़ी रहती हैं। अगर यह न होता तो मरने के बाद उस ईमानवाले व्यक्ति को जन्नत की शुभ-सूचना कैसे दी जाती और वह अपनी क़ौम के लिए यह तमन्ना कैसे करता कि काश! वह उसके अच्छे अंजाम से अवगत हो जाए।
بِمَا غَفَرَ لِي رَبِّي وَجَعَلَنِي مِنَ ٱلۡمُكۡرَمِينَ ۝ 26
0
۞وَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَىٰ قَوۡمِهِۦ مِنۢ بَعۡدِهِۦ مِن جُندٖ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَمَا كُنَّا مُنزِلِينَ ۝ 27
(28) उसके बाद उसकी क़ौम पर हमने आसमान से कोई फ़ौज नहीं उतारी। हमें फ़ौज भेजने की कोई ज़रूरत न थी।
إِن كَانَتۡ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ فَإِذَا هُمۡ خَٰمِدُونَ ۝ 28
(29) बस एक धमाका हुआ और यकायक वे सब बुझकर24 रह गए।
24. इन शब्दों में एक सूक्ष्म व्यंग्य है। अपनी शक्ति पर उनका घमंड और सत्यधर्म के विरुद्ध उनका उत्साह और जोश उनके नज़दीक मानो एक भड़कता शोला था, लेकिन इस शोले की ताक़त इससे अधिक कुछ न निकली कि अल्लाह के अज़ाब की एक ही चोट ने उसको ठंडा करके रख दिया।
يَٰحَسۡرَةً عَلَى ٱلۡعِبَادِۚ مَا يَأۡتِيهِم مِّن رَّسُولٍ إِلَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 29
(30) अफ़सोस, बन्दों के हाल पर ! जो रसूल (पैग़म्बर) भी उनके पास आया, उसका वे मज़ाक़ ही उड़ाते रहे।
أَلَمۡ يَرَوۡاْ كَمۡ أَهۡلَكۡنَا قَبۡلَهُم مِّنَ ٱلۡقُرُونِ أَنَّهُمۡ إِلَيۡهِمۡ لَا يَرۡجِعُونَ ۝ 30
(31) क्या उन्होंने देखा नहीं कि उनसे पहले कितनी ही क़ौमों को हम हलाक कर चुके हैं और उसके बाद वे फिर कभी उनकी ओर पलटकर न आए? 25
25. अर्थात् ऐसे मिटे कि उनका कहीं नाम व निशान तक बाक़ी न रहा।
وَإِن كُلّٞ لَّمَّا جَمِيعٞ لَّدَيۡنَا مُحۡضَرُونَ ۝ 31
(32) उन सबको एक दिन हमारे सामने हाजिर किया जाना है।
وَءَايَةٞ لَّهُمُ ٱلۡأَرۡضُ ٱلۡمَيۡتَةُ أَحۡيَيۡنَٰهَا وَأَخۡرَجۡنَا مِنۡهَا حَبّٗا فَمِنۡهُ يَأۡكُلُونَ ۝ 32
(33) इन लोगों26 के लिए बेजान धरती एक निशानी है।27 हमने उसको जीवन प्रदान किया और उससे अन्न निकाला, जिसे ये खाते हैं।
26. पिछली आयतों में मक्का के इस्लाम-विरोधियों के [इस्लाम का] इंकार करने, झुठलाने और सत्य का विरोध करने की उस नीति की निंदा की गई थी जो उन्होंने नबी (सल्ल०) के मुक़ाबले में अपना रखी थी। अब वार्ता का रुख उस असल झगड़े की ओर फिरता है जो उनके और नबी (सल्ल०) के बीच संघर्ष का मूल कारण था, अर्थात् 'तौहीद (एकेश्वरवाद) और आखिरत' का अक़ीदा, जिसे नबी (सल्ल०) पेश कर रहे थे और विरोधी मानने से इंकार कर रहे थे।
27. अर्थात् इस बात की निशानी कि तौहीद' (एकेश्वरवाद) ही सत्य है और शिर्क (अनेकेश्वरवाद) पूर्णत: निराधार है।
وَجَعَلۡنَا فِيهَا جَنَّٰتٖ مِّن نَّخِيلٖ وَأَعۡنَٰبٖ وَفَجَّرۡنَا فِيهَا مِنَ ٱلۡعُيُونِ ۝ 33
(34) हमने उसमें खजूरों और अंगूरों के बाग़ पैदा किए और उसके भीतर से स्रोत (चश्मे) फोड़ निकाले,
لِيَأۡكُلُواْ مِن ثَمَرِهِۦ وَمَا عَمِلَتۡهُ أَيۡدِيهِمۡۚ أَفَلَا يَشۡكُرُونَ ۝ 34
(35) ताकि ये उसके फल खाएँ। यह सब कुछ उनके अपने हाथों का पैदा किया हुआ नहीं है।28 फिर क्या ये शुक्र अदा नहीं करते? 29
28. इस वाक्य का दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है, “ताकि ये खाएँ उसके फल और वे चीजें जो उनके अपने हाथ बनाते हैं," अर्थात् वे कृत्रिम खाद्य पदार्थ जो प्राकृतिक उपज से ये लोग ख़ुद तैयार करते हैं, जैसे, रोटी, सालन, मुरब्बे, अचार, चटनियाँ और अनगिनत दूसरी चीजें।
29. इन संक्षिप्त शब्दों में जमीन की पैदावार को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। आदमी रात-दिन इस धरती की पैदावार खा रहा है, और अपने नज़दीक इसे एक मामूली बात समझता है, लेकिन अगर वह ग़फलत का परदा हटाकर ध्यान से देखे तो उसे मालूम हो कि मिट्टी के इस फ़र्श से लहलहाती खेतियों और हरे-भरे बागों का उगना और उसके भीतर स्रोतों और नहरों का प्रवाहित होना कोई खेल नहीं है, जो आप से आप हुए जा रहा हो, बल्कि इसके पीछे एक महान तत्वदर्शिता और कुदरत रखनेवाली सत्ता तथा एक महान पालनहार ख का हाथ है। धरती की वास्तविकता पर विचार कीजिए। जिन तत्त्वों से मिलकर यह बनी है, उनमें अपने आप किसी उगने-बढ़ने और विकसित होने की शक्ति नहीं है। ये सब तत्त्व अलग-अलग भी और हर मेल और मिलावट के बाद भी बिल्कुल अविकासशील पदार्थ हैं और इस कारण उनके भीतर जीवन नाम की कोई चीज़ नहीं पाई जाती। अब प्रश्न यह है कि इस बेजान धरती के भीतर से वनस्पतीय जीवन का प्रकट होना आखिर कैसे सम्भव हुआ? इसकी खोज आप करेंगे तो मालूम होगा कि कुछ बड़ी-बड़ी वजहें हैं जो अगर पहले न जुटा दी गई होती, तो यह जीवन सिरे से अस्तित्व में नहीं आ सकता था: पहले, धरती के विशेष भागों में उसकी ऊपरी सतह पर बहुत-से ऐसे पदार्थों की तह चढ़ाई गई जो वनस्पतियों की खुराक बनने के लिए उपयुक्त हो सकते थे और इस तह को नर्म रखा गया ताकि वनस्पतियों की जड़ें उसमें फैलकर अपनी ख़ुराक चूस सकें। दूसरे, धरती पर अलग-अलग तरीकों से पानी जुटाने का प्रबंध किया गया, ताकि खाद्य पदार्थ उसमें घुलकर इस योग्य हो जाएँ कि वनस्पतियों की जड़ें उनको सोख सकें। तीसरे, ऊपर के वायुमंडल में हवा पैदा की गई जो आसमानी विपदाओं से धरती की रक्षा करती है, जो वर्षा लाने का साधन बनती है और अपने भीतर वे गैसें भी रखती हैं जो पेड़-पौधों की जिंदगी और उनके पलने-बढ़ने के लिए ज़रूरी हैं। चौथे, सूर्य और पृथ्वी का सम्बन्ध इस तरह स्थापित किया गया कि पेड़-पौधों को उचित तापमान और उचित मौसम मिल सके। ये चार बड़े-बड़े कारक, (जो स्वयं में अनगिनत उपकारकों का समूह हैं) जब पैदा कर दिए गए तब पेड़-पौधों और वनस्पतियों का अस्तित्त्व में आना संभव हुआ। फिर इन अनुकूल परिस्थितियों के पैदा कर देने के बाद पेड़-पौधे पैदा किए गए और उनमें से हर एक का बीज ऐसा बनाया गया कि जब ठसे अनुकूल ज़मीन, पानी, हवा और मौसम मिले तो उनके भीतर वनस्पतीय जीवन की गति शुरू हो जाए। साथ ही इसी बीज में यह प्रबन्ध भी कर दिया गया कि हर प्रकार के बीज से अवश्य ही उसी प्रकार का बूटा अपने तमाम प्रजातीय और विरासती गुणों के साथ पैदा हो और उससे भी आगे बढ़कर और कारीगरी यह की गई कि पेड़-पौधों की दस-बीस या सौ-पचास नहीं, बल्कि अगणित प्रजातियाँ पैदा की गई और उनको इस तरह बनाया गया कि वे उन अनगिनत प्रजातिवाले जीवधारियों और मानव जाति की खुराक, दवा, पहनावा और अनगिनत दूसरी ज़रूरतों को पूरा कर सकें, जिन्हें पेड़-पौधों के बाद धरती पर अस्तित्व में लाया जाना था। इस आश्चर्यजनक प्रबन्ध पर जो आदमी भी विचार करेगा, वह अगर हठधर्मी और दुराग्रह का शिकार नहीं है तो उसका दिल गवाही देगा कि यह सब कुछ आप से आप नहीं हो सकता। यह खुले तौर पर एक विवेकपूर्ण तत्वदर्शिता से परिपूर्ण योजना है, जिसके तहत, जमीन, पानी, हवा और मौसम की अनुकूलताएँ पौधों के साथ और पेड़-पौधों की अनुकूलताएँ जानवरों और इंसानों की ज़रूरतों के साथ ईतिहाई नज़ाकतों और बारीकियों को ध्यान में रखते हुए कायम की गई हैं। कोई होशमंद इंसान यह नहीं सोच सकता कि ऐसी व्यापक अनुकूलताएँ मात्र संयोग से कायम हो सकती हैं। फिर यही प्रबन्ध इस बात का भी प्रमाण जुटाता है कि यह बहुत-से ख़ुदाओं का कारनामा नहीं हो सकता। यह तो एक ही ऐसे ख़ुदा का प्रबन्ध है और हो सकता है, जो ज़मीन, हवा, पानी, सूरज, पेड़-पौधे, पशुओं और मानव-जाति, सबका पैदा करनेवाला और पालनेवाला है। इनमें से हर एक के ख़ुदा अलग-अलग होते तो आख़िर कैसे सोचा जा सकता है कि एक ऐसा भरपूर और व्यापक और गहरी तत्वदर्शितापूर्ण अनुकूलताएँ रखनेवाली योजना बन जाती और लाखों-करोड़ों साल तक इतनी नियमबद्धता के साथ चलती रहती।
سُبۡحَٰنَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلۡأَزۡوَٰجَ كُلَّهَا مِمَّا تُنۢبِتُ ٱلۡأَرۡضُ وَمِنۡ أَنفُسِهِمۡ وَمِمَّا لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 35
(36) पाक है वह हस्ती30 जिसने तमाम क़िस्मों के जोड़े पैदा किए, चाहे वे ज़मीन की वनस्पतियों में से हों, या स्वयं उनकी अपनी जाति (अर्थात् मानव-जाति) में से या उन चीजों में से जिनको ये जानते तक नहीं हैं।31
30. अर्थात् कमी और दोष की हर क्रिस्म से पाक, हर ग़लती और कमज़ोरी से पाक और इस बात से पाक कि कोई उसका शरीक और साझीदार हो । मुशरिकों के अक़ीदों का खंडन करते हुए सामान्य रूप से क़ुरआन मजीद में ये शब्द इसलिए इस्तेमाल किए जाते हैं कि शिर्क का हर अक़ीदा अपनी वास्तविकता में अल्लाह पर किसी न किसी कमी और किसी न किसी कमज़ोरी और दोष का आरोप है।
31. यह तौहीद (एकेश्वरवाद) के हक में एक और तर्क है। औरत और मर्द का जोड़ तो स्वयं इंसान के अपने पैदा होने का कारण है। पशुओं की नस्लें भी नर व मादा के जोड़ों से चल रही हैं। पेड़-पौधों के बारे में भी इंसान जानता है कि उनमें जोड़े' का नियम काम कर रहा है, यहाँ तक कि बे-जान पदार्थों तक में भी अलग-अलग चीजें जब एक-दूसरे से जोड़ खाती हैं, तब कहीं उनसे तरह-तरह के सम्मिश्रण अस्तित्त्व में आते हैं। स्वयं पदार्थ का बुनियादी योग निगेटिव और पॉज़िटिव विद्युत ऊर्जा के मिलने से हुआ है। बे-लाग बुद्धि रखनेवाला कोई आदमी न तो इस चीज़ को एक आकस्मिक घटना कह सकता है और न यह माना सकता है कि विभिन्न ख़ुदाओं ने इन अनगिनत जोड़ों को पैदा करके उनके बीच इस हिकमत और समझ-बूझ के साथ जोड़ लगाए होंगे। जोड़ों का एक-दूसरे के लिए जोड़ होना और उनके मेल से नई चीज़ों का पैदा होना स्वयं पैदा करनेवाले के एक होने का स्पष्ट प्रमाण है।
وَءَايَةٞ لَّهُمُ ٱلَّيۡلُ نَسۡلَخُ مِنۡهُ ٱلنَّهَارَ فَإِذَا هُم مُّظۡلِمُونَ ۝ 36
(37) इनके लिए एक और निशानी रात है। हम उसके ऊपर से दिन हटा देते हैं, तो इनपर अँधेरा छा जाता है32
32. ईसान अगर इस बात पर विचार करे कि दिन कैसे गुज़रता है और रात कैसे आती है, और दिन के जाने और रात के आने में क्या हिकमतें काम कर रही हैं, तो उसे स्वयं महसूस हो जाए कि यह एक सामर्थ्यवान और तत्त्वदर्शी रब के अस्तित्त्व का और उसके एक होने का खुला प्रमाण है। दिन कभी नहीं जा सकता और रात कभी नहीं आ सकती, जब तक कि ज़मीन के सामने से सूरज न हटे। दिन के हटने और रात के आने में जो अत्यन्त नियमबद्धता पाई जाती है, वह इसके बिना संभव न थी कि सूरज और जमीन को एक ही अटल नियम ने जकड़ रखा हो। फिर इस रात और दिन के आने-जाने का जो गहरा ताल्लुक ज़मीन की मखलूकों के साथ पाया जाता है, वह इस बात का स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत करता है कि किसी ने यह व्यवस्था उच्च कोटि की सूझ-बूझ और विवेक के साथ सोच-समझ कर स्थापित की है। ज़मीन पर इंसान और हैवान और पेड़-पौधों का अस्तित्त्व, बल्कि यहाँ पानी और हवा और विभिन्न खनिज-पदार्थों का अस्तित्त्व भी वास्तव में नतीजा है इस बात का कि ज़मीन को सूरज से एक विशेष दूरी पर रखा गया है और फिर यह प्रबन्ध किया गया है कि धरती के विभिन्न भाग बार-बार निश्चित अन्तराल के बाद सूरज के सामने आते और उसके सामने से हटते रहें। अगर ऐसा न होता तो इस धरती पर कोई जिंदगी सम्भव न होती। दिल की आँखें बन्द न हों तो आदमी इस व्यवस्था के भीतर एक ऐसे ख़ुदा की कार्यशीलता स्पष्ट रूप से देख सकता है, जिसने इस ज़मीन पर इस विशेष प्रकार के प्राणी को वुजूद में लाने का इरादा किया और ठीक-ठीक उसकी ज़रूरतो के अनुसार ज़मीन और सूरज के बीच ये सम्बन्ध स्थापित किए।
وَٱلشَّمۡسُ تَجۡرِي لِمُسۡتَقَرّٖ لَّهَاۚ ذَٰلِكَ تَقۡدِيرُ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡعَلِيمِ ۝ 37
(38) और सूरज, वह अपने ठिकाने की ओर चला जा रहा है।33 यह प्रभुत्वशाली सर्वज्ञ हस्ती का बाँधा हुआ हिसाब है।
33. ठिकाने से तात्पर्य वह जगह भी हो सकती है, जहाँ जाकर सूरज को अन्त में ठहर जाना है और वह समय भी हो सकता है जब वह ठहर जाएगा। इस आयत का सही अर्थ इंसान उसी समय निश्चित कर सकता है, जबकि उसे सृष्टि की वास्तविकताओं का ठीक-ठीक ज्ञान हो जाए, लेकिन इंसानी ज्ञान का हाल यह है कि वह हर ज़माने में बदलता रहा है। सूरज के बारे में प्राचीन काल के लोग यह विश्वास रखते थे कि वह ज़मीन के चारों ओर चक्कर लगा रहा है। बाद में यह सिद्धान्त सामने आया कि वह अपनी जगह ठकरा हुआ है, फिर यह सिद्धान्त भी स्थाई न बन सका और अब आज के युग के खगोलशास्त्री कहते हैं कि अपने पूरे सौर मंडल को लिए हुए 20 किलोमीटर (लगभग 12 मील) हर सेकेंड की रफ्तार से हरकत कर रहा है। (देखिए इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, शब्द 'स्टार' Star और शब्द 'सन' Sun)
وَٱلۡقَمَرَ قَدَّرۡنَٰهُ مَنَازِلَ حَتَّىٰ عَادَ كَٱلۡعُرۡجُونِ ٱلۡقَدِيمِ ۝ 38
(39) और चाँद, उसके लिए हमने मंज़िलें निश्चित कर दी हैं, यहाँ तक कि उनसे गुज़रता हुआ वह फिर खजूर की सूखी डाल की तरह रह जाता है।34
34. अर्थात् महीने के बीच में चाँद की गर्दिश हर दिन विधिवत बदलती रहती है। एक दिन वह पहली का चाँद बनकर निकलता है। फिर हर दिन बढ़ता चला जाता है, यहाँ तक कि चौदहवीं रात को बद्रे-कामिल (पूर्णिमा का चाँद) बन जाता है। इसके बाद हर दिन घटता चला जाता है, यहाँ तक कि अन्त में फिर अपने आरंभिक रूप में वापस पहुँच जाता है।
لَا ٱلشَّمۡسُ يَنۢبَغِي لَهَآ أَن تُدۡرِكَ ٱلۡقَمَرَ وَلَا ٱلَّيۡلُ سَابِقُ ٱلنَّهَارِۚ وَكُلّٞ فِي فَلَكٖ يَسۡبَحُونَ ۝ 39
(40) न सूरज के बस में यह है कि वह चाँद को जा पकड़े35 और न रात दिन से आगे निकल सकती है।36 सब एक-एक फ़लक (कक्ष) में तैर रहे हैं।37
35. इस वाक्य के दो अर्थ लिए जा सकते हैं और दोनों सही हैं। एक यह कि सूरज में यह शक्ति नहीं है कि चाँद को पकड़कर अपनी ओर खींच ले या स्वयं उसके गर्दिश क्षेत्र में दाखिल होकर उससे जा टकराए।दूसरा यह कि जो समय चाँद के निकलने और प्रकट होने के लिए तय कर दिया गया है, उसमें सूरज कभी नहीं आ सकता। यह सम्भव नहीं है कि रात को चाँद चमक रहा हो और यकायक सूरज क्षितिज पर आ जाए।
36. अर्थात् ऐसा भी कभी नहीं होता कि दिन की तयशुदा मुद्दत ख़त्म होने से पहले रात आ जाए और जो समय दिन की रौशनी के लिए तय है, उनमें वह अपने अंधकार लिए हुए यकायक आ मौजूद हो।
وَءَايَةٞ لَّهُمۡ أَنَّا حَمَلۡنَا ذُرِّيَّتَهُمۡ فِي ٱلۡفُلۡكِ ٱلۡمَشۡحُونِ ۝ 40
(41) इनके लिए यह भी एक निशानी है कि हमने इनकी नस्ल को भरी हुई नाव में सवार कर दिया, 38
38. 'भरी हुई नाव ' से तात्पर्य है हज़रत नूह (अलैहि०) की नाव । और इंसानी नस्ल को उसपर सवार कर देने का अर्थ यह है कि उस नाव में प्रत्यक्षतः हज़रत नूह (अलैहि०) के कुछ साथी ही बैठे हुए थे, मगर वास्तव में क़ियामत तक पैदा होनेवाले तमाम इंसान उसपर सवार थे, क्योंकि तूफ़ाने-नूह में उनके सिवा बाक़ी आदम की समस्त सन्‍तानों को डुबो दिया गया था और बाद की इंसानी नस्‍ल सिर्फ़ इन्‍हीं नाववालों से चली।
وَخَلَقۡنَا لَهُم مِّن مِّثۡلِهِۦ مَا يَرۡكَبُونَ ۝ 41
(42) और फिर इनके लिए वैसी ही नावें और पैदा की जिनपर ये सवार होते हैं।39
39. इससे यह संकेत निकलता है कि इतिहास में पहली नाव जो बनी, वह हज़रत नूह (अलैहि०) वाली नाव थी। नाव बनाने की शिक्षा सबसे पहले अल्लाह ने नूह (अलैहि०) को दी और जब उनकी बनाई हुई नाव पर सवार होकर अल्लाह के कुछ बन्दे तूफ़ान से बच निकले तो आगे उनकी नस्ल ने समुद्री यात्राओं के लिए नाव (नौका) के बनाने का सिलसिला शुरू कर दिया।
وَإِن نَّشَأۡ نُغۡرِقۡهُمۡ فَلَا صَرِيخَ لَهُمۡ وَلَا هُمۡ يُنقَذُونَ ۝ 42
(43) हम चाहें तो इनको डुबो दें, कोई इनकी फ़रियाद सुननेवाला न हो और किसी तरह ये न बचाए जा सकें।
إِلَّا رَحۡمَةٗ مِّنَّا وَمَتَٰعًا إِلَىٰ حِينٖ ۝ 43
(44) बस हमारी रहमत (कृपा) ही है जो इन्हें पार लगाती है और एक विशेष समय तक जिंदगी से फ़ायदा उठाने का मौक़ा देती है।40
40. पिछली निशानियों का उल्लेख तौहीद (एकेश्वरवाद) के प्रमाणों की हैसियत से किया गया था और इस निशानी का उल्लेख यह एहसास दिलाने के लिए किया गया है कि इंसान को प्रकृति की शक्तियों के उपयोग के जो अधिकार भी प्राप्त हैं, वे अल्लाह के दिए हुए हैं। उसके अपने प्राप्त किए हुए नहीं हैं। और उन शक्तियों पर उपयोग के जो तरीके उसने खोज निकाले हैं, वे भी अल्लाह की रहनुमाई से उसके ज्ञान में आए हैं, उसके अपने मालूम किए हुए नहीं हैं। फिर जिन शक्तियों पर भी अल्लाह ने उनको प्रभुत्व प्रदान किया है, उनपर उसका क़ाबू उसी समय तक चलता है, जब तक अल्लाह की मर्जी यह होती है कि वे उसके वशीभूत रहें, वरना जब अल्लाह की मर्जी कुछ और होती है तो वही शक्तियाँ, जो इंसान की सेवा में लगी होती हैं, अचानक उसपर पलट पड़ती हैं और आदमी अपने आपको उनके सामने बिल्कुल बेबस पाता है। इस वास्तविकता पर सचेत करने के लिए अल्‍लाह ने समुद्री यात्रा के मामले को सिर्फ़ नमूने के तौर पर पेश किया है।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمُ ٱتَّقُواْ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيكُمۡ وَمَا خَلۡفَكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 44
(45) इन लोगों से जब कहा जाता है कि बचो उस अंजाम से जो तुम्हारे आगे आ रहा है और तुम्हारे पीछे गुज़र चुका है,41 शायद कि तुमपर दया की जाए, (तो ये सुनी-अनसुनी कर जाते हैं।)
41. अर्थात् जो तुमसे पहले की कौमे देख चुकी हैं।
وَمَا تَأۡتِيهِم مِّنۡ ءَايَةٖ مِّنۡ ءَايَٰتِ رَبِّهِمۡ إِلَّا كَانُواْ عَنۡهَا مُعۡرِضِينَ ۝ 45
(46) इनके सामने इनके रब की आयतों में से जो आयत भी आती है, ये उसकी ओर ध्यान नहीं देते।42
42. आयतों से तात्पर्य अल्लाह की किताब की आयतें भी हैं, जिनके ज़रिये से इंसानों को नसीहत की जाती है और वे आयतें भी मुराद हैं, जो सृष्टि की निशानियों और स्वयं इंसान के वुजूद और उसके इतिहास में मौजूद हैं, जो इंसान को सीख दिलाती हैं, शर्त यह है कि वह सीख लेने के लिए तैयार हो।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ أَنفِقُواْ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُ قَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنُطۡعِمُ مَن لَّوۡ يَشَآءُ ٱللَّهُ أَطۡعَمَهُۥٓ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 46
(47) और जब इनसे कहा जाता है कि अल्लाह ने जो रोज़ी तुम्हें दी है, उसमें से कुछ अल्लाह की राह में भी ख़र्च करो, तो ये लोग जिन्होंने इंकार किया है, ईमान लानेवालों को जवाब देते हैं, "क्या हम उनको खिलाएँ जिन्हें अगर अल्लाह चाहता तो ख़ुद खिला देता? तुम तो बिल्कुल ही बहक गए हो।’’ 43
43. इससे यह बताना अभिप्रेत है कि [सत्य के] इंकार ने सिर्फ़ उनकी बुद्धि ही अंधी नहीं की है, बल्कि उनकी नैतिक चेतना को भी मुर्दा कर दिया है। वे न अल्लाह के बारे में सही सोच से काम लेते हैं, न मख़लूक (सृष्टि) के साथ सही नीति अपनाते हैं।
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 47
(48) ये लोग44 कहते हैं कि "यह क़ियामत की धमकी आखिर कब पूरी होगी? बताओ, अगर तुम सच्चे हो।''45
44. तौहीद (एकेश्वरवाद) के बाद दूसरा मुद्दा जिसपर नबी (सल्ल0) और विधर्मियों के बीच झगड़ा था, वह आख़िरत का विषय था। यहाँ इसी बात को लेकर आख़िरत की दुनिया का एक शिक्षाप्रद चित्र उनके सामने खींचा गया है, ताकि उन्हें यह मालूम हो कि जिस चीज़ का वे इंकार कर रहे हैं, वह उनके इंकार से टलनेवाली नहीं है।
45. इस तरह के सवाल वे सिर्फ कठहुज्जती के लिए चुनौती के रूप में करते थे और उनका मक़सद यह कहना था कि कोई क़ियामत-वियामत नहीं आनी है, तुम ख़ामखाह हमें उसके डरावे देते हो। इसी कारण उनके जवाब में यह नहीं फ़रमाया गया कि क़ियामत फ़लाँ दिन आएगी, बल्कि उन्हें यह बताया गया कि वह आएगी और इस शान से आएगी।
مَا يَنظُرُونَ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ تَأۡخُذُهُمۡ وَهُمۡ يَخِصِّمُونَ ۝ 48
(49) वास्तव में ये जिस चीज़ की राह तक रहे हैं, वह बस एक धमाका है जो यकायक इन्हें ठीक उस हालत में धर लेगा जब ये (अपने दुनिया के मामलों में) झगड़ रहे होंगे
فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ تَوۡصِيَةٗ وَلَآ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 49
(50) और उस समय ये वसीयत तक न कर सकेंगे, न अपने घरों को पलट सकेंगे।46
46. अर्थात् ऐसा नहीं होगा कि क़ियामत धीरे-धीरे आ रही है और लोग देख रहे हैं कि वह आ रही है, बल्कि वह इस तरह आएगी कि लोग पूरे इत्मीनान के साथ अपनी दुनिया के कारोबार चला रहे हैं, और उनके दिमाग़ के किसी कोने में भी यह ख़याल मौजूद नहीं है कि दुनिया के खात्मे की घड़ी आ पहुँची है। इस हालत में अचानक एक ज़ोर का कड़ाका होगा और जो जहाँ होगा, वहीं धरा का धरा रह जाएगा।
وَنُفِخَ فِي ٱلصُّورِ فَإِذَا هُم مِّنَ ٱلۡأَجۡدَاثِ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ يَنسِلُونَ ۝ 50
(51) फिर एक सूर फूंका जाएगा और यकायक ये अपने रब के सामने पेश होने के लिए अपनी-अपनी क़ब्रों से निकल पड़ेंगे।47
47. सूर के बारे में विस्तृत विवरण के लिए (देखिए सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 78)। हदीस में हज़रत अबू हुरैरा (रजि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया : इसराफ़ील सूर पर मुँह रखे अर्श (ईशसिंहासन) की ओर देख रहे हैं और प्रतीक्षा में हैं कि कब फूंक मारने का हुक्म होता है। यह सूर तीन बार फूंका जाएगा। पहला नफ़ख़तुल फ़ज़अ, जो ज़मीन व आसमान की सारी मखलूक (सृष्टि) को सहमा देगा। दूसरा नफ़ख़तुस-सअक़, जिसे सुनते ही सब हलाक होकर गिर जाएँगे। फिर जब एक अल्लाह के सिवा कोई बाक़ी न रहेगा, तो ज़मीन बदलकर कुछ से कुछ कर दी जाएगी और उसे चादर की तरह ऐसा सपाट कर दिया जाएगा कि उसमें कोई ज़रा-सी सिलवट तक न रहेगी। फिर अल्लाह अपनी सृष्टि (मखलूक) को बस एक झिड़की देगा जिसे सुनते ही हर आदमी जिस जगह मरकर गिरा था, उसी जगह वह उसी बदली हुई ज़मीन पर उठ खड़ा होगा, और यही नफ़ख़तुल-क़ियाम लिरब्बिल आलमीन [यानी वह नफ़ख़ (फूंकना) जिसे सुनकर सब लोग सारे जहान के रब के सामने खड़े हो जाएँगे] है। इसी विषय का समर्थन कुरआन मजीद के भी बहुत-से कथनों से होता है। (देखिए सूरा-14 इबराहीम, आयत 48, सूरा-20 ता-हा, आयत 105,106, 107)
قَالُواْ يَٰوَيۡلَنَا مَنۢ بَعَثَنَا مِن مَّرۡقَدِنَاۜۗ هَٰذَا مَا وَعَدَ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَصَدَقَ ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 51
(52) घबरा कर कहेंगे, "अरे, यह किसने हमे हमारी ख़्वाबगाह से उठा खड़ा किया?’’48 --"यह वही चीज़ है जिसका दयावान ख़ुदा ने वादा किया था और रसूलों की बात सच्ची थी।’’49
48. अर्थात् उस समय उन्हें यह एहसास न होगा कि वे मर चुके थे और अब एक लम्बी मुद्दत के बाद दोबारा जिंदा करके उठाए गए हैं, बल्कि वे इस विचार में होंगे कि हम सोए पड़े थे। अब यकायक किसी भयानक घटना की वजह से हम जाग उठे हैं और भागे जा रहे हैं। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-20 ता०हा०, टिप्पणी 80)
49. हो सकता है कि कुछ देर बाद स्वयं उन्हीं लोगों की समझ में मामले की वास्तविकता आ जाए और वे आप ही अपने दिलों में कहें कि हाय, हमारा दुर्भाग्य! यह तो वही चीज़ है जिसकी ख़बर अल्लाह के रसूल हमें देते थे और हम उसे झुठलाया करते थे। यह भी हो सकता है कि ईमानवाले उनको बताएँ कि यह सपने (नींद) से जागना नहीं, बल्कि मौत के बाद दूसरी जिंदगी है और यह भी हो सकता है कि यह जवाब क़ियामत का पूरा वातावरण उनको दे रहा हो, या फ़रिश्ते उनको सच्चाई बताए |
إِن كَانَتۡ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ فَإِذَا هُمۡ جَمِيعٞ لَّدَيۡنَا مُحۡضَرُونَ ۝ 52
(53) एक ही ज़ोर की आवाज़ होगी और सब के सब हमारे सामने हाज़िर कर दिए जाएँगे।
فَٱلۡيَوۡمَ لَا تُظۡلَمُ نَفۡسٞ شَيۡـٔٗا وَلَا تُجۡزَوۡنَ إِلَّا مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 53
(54) आज किसी50 पर कण भर भी ज़ुल्म न किया जाएगा और तुम्हें वैसा ही बदला दिया जाएगा जैसे तुम कर्म करते रहे थे
50. यह वह सम्बोधन है जो अल्लाह इंकारियों और मुशरिकों और नाफरमानों और मुजरिमों से उस समय कहेगा जब वे उसके सामने हाज़िर किए जाएंगे।
إِنَّ أَصۡحَٰبَ ٱلۡجَنَّةِ ٱلۡيَوۡمَ فِي شُغُلٖ فَٰكِهُونَ ۝ 54
(55) -आज जन्नती लोग मज़े करने में लगे हुए हैं।51
51. इस वार्ता को समझने के लिए यह बात जेहन में रहनी चाहिए कि नेक ईमानवाले हश्र के मैदान में रोककर नहीं रखे जाएँगे, बल्कि आरंभ ही में उनको बिला-हिसाब या हल्के-फुल्के हिसाब के बाद जन्नत में भेज दिया जाएगा, क्योंकि उनका रिकार्ड साफ़ होगा। उन्हें अदालत के दौरान में इन्तिज़ार का कष्ट देने की कोई जरूरत न होगी। इसलिए अल्लाह हश्र के मैदान में जवाबदेही करनेवाले अपराधियों को बताएगा कि देखो, जिन नेक लोगों को तुम दुनिया में मूर्ख समझकर उनका मज़ाक़ उड़ाते थे, वे अपनी अक्लमंदी के कारण आज जन्नत के मज़े लूट रहे हैं और तुम जो अपने आपको बड़ा चतुर और होशियार समझ रहे थे, यहाँ खड़े अपने अपराधों की जवाबदेही कर रहे हो।
هُمۡ وَأَزۡوَٰجُهُمۡ فِي ظِلَٰلٍ عَلَى ٱلۡأَرَآئِكِ مُتَّكِـُٔونَ ۝ 55
56) वे और उनकी बीवियाँ घने सायों में हैं, मस्नदों पर तकिए लगाए हुए,
لَهُمۡ فِيهَا فَٰكِهَةٞ وَلَهُم مَّا يَدَّعُونَ ۝ 56
(57) हर प्रकार की स्वादिष्ट वस्तुएँ खाने-पीने को उनके लिए वहाँ मौजूद हैं, जो कुछ वे तलब करें, उनके लिए हाज़िर है,
سَلَٰمٞ قَوۡلٗا مِّن رَّبّٖ رَّحِيمٖ ۝ 57
, (58) मेहरबान रब की ओर से, उनको सलाम कहा गया है
وَٱمۡتَٰزُواْ ٱلۡيَوۡمَ أَيُّهَا ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 58
(59)-और ऐ अपराधियो! आज तुम छटकर अलग हो जाओ।52
52. इसके दो अर्थ हो सकते हैं, एक यह कि नेक और सदाचारी ईमानवालों से अलग हो जाओ, क्योंकि दुनिया में चाहे तुम उनकी कौम और उनके कुंबे और बिरादरी के लोग रहे हो, मगर यहाँ अब तुम्हारा उनका कोई रिश्ता बाक़ी नहीं है। और दूसरा अर्थ यह कि तुम आपस में अलग-अलग हो जाओ। तुममें से एक-एक आदमी को अब अकेले अपनी निजी हैसियत में अपने कर्मों की जवाबदेही करनी होगी।
۞أَلَمۡ أَعۡهَدۡ إِلَيۡكُمۡ يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ أَن لَّا تَعۡبُدُواْ ٱلشَّيۡطَٰنَۖ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 59
(60) आदम के बच्चो ! क्या मैंने तुमको हिदायत न की थी कि शैतान की बन्दगी न करो, वह तुम्हारा खुला दुश्मन है
وَأَنِ ٱعۡبُدُونِيۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ ۝ 60
(61) और मेरी ही बन्दगी करो, यह सीधा रास्ता है? 53
53. यहाँ फिर अल्लाह ने 'इबादत' को इताअत (आज्ञापालन) के अर्थ में इस्तेमाल किया है। हम इससे पहले कई जगहों पर इस विषय की व्याख्या कर चुके हैं (देखिए सूरा-4 अन-निसा, टिप्पणी 145, सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 87, 107, सूरा-9 अत-तौबा, टिप्पणी 31, सूरा-14 इबराहीम, टिप्पणी 32, सूरा-18 अल-कहफ़, टिप्पणी 50, सूरा-34 सबा, टिप्पणी 63) । इस आयत की व्याख्या करते हुए इमाम राज़ी अपनी 'तफ़्सीरे कबीर' में लिखते हैं, "शैतान की इबादत न करो का अर्थ है, उसका आज्ञापालन न करो। इसका तर्क यह है कि उसको सिर्फ सज्दा करने से ही नहीं मना किया गया है, बल्कि उसका आज्ञापालन करना, और उसके आदेश का पालन करने से भी रोका गया है। इसलिए इताअत इबादत है।" इसके बाद इमाम राज़ी यह सवाल उठाते हैं कि अगर इबादत आज्ञापालन के अर्थ में है तो क्या आयत अल्लाह का, रसूल का और अपने अधिकारियों का आज्ञापालन करो" में हमको रसूल और ज़िम्मेदारों की इबादत का हुक्म दिया गया है? फिर इस सवाल का जवाब वे यह देते हैं कि "उनकी इताअत (आज्ञापालन) जबकि अल्लाह के हुक्म से हो, तो वह अल्लाह ही की इबादत और उसी की इताअत होगी। क्या देखते नहीं हो कि फ़रिश्तों ने अल्लाह के हुक्म से आदम को सज्दा किया और यह अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न थी। अधिकारियों की इताअत (आज्ञापालन) उनकी इबादत सिर्फ़ उस शक्ल में होगी जबकि ऐसे मामलों में उनकी इताअत (आज्ञापालन) की जाए जिनमें अल्लाह ने उनकी इताअत की इजाजत नहीं दी है।" (तफ़्सीरे-कबीर, भाग 7, पृ० 103)
وَلَقَدۡ أَضَلَّ مِنكُمۡ جِبِلّٗا كَثِيرًاۖ أَفَلَمۡ تَكُونُواْ تَعۡقِلُونَ ۝ 61
(62) मगर इसके बावजूद उसने तुममें से एक बड़े गिरोह को गुमराह कर दिया। क्या तुम बुद्धि नहीं रखते थे?54
54. अर्थात् अगर तुम अक्ल से महरूम रखे गए होते, तो तुम्हारे लिए उज्ज़ की कोई गुंजाइश थी, लेकिन तुम्हारे पास तो अल्लाह की दी हुई अक्ल मौजूद थी और तुम्हें अल्लाह ने अपने पैग़म्बरों के ज़रिये से सावधान भी कर दिया था, इसपर भी जब तुम अपने दुश्मन के फ़रेब में आए और वह तुम्हें गुमराह करने में सफल हो गया तो अपनी इस मूर्खता की ज़िम्मेदारी से तुम किसी तरह छुटकारा नहीं पा सकते।
هَٰذِهِۦ جَهَنَّمُ ٱلَّتِي كُنتُمۡ تُوعَدُونَ ۝ 62
(63) यह वही जहन्नम है, जिससे तुमको डराया जाता रहा था।
ٱصۡلَوۡهَا ٱلۡيَوۡمَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 63
(64) जो कुफ़्र तुम दुनिया में करते रहे हो, उसके बदले में अब इसका ईंधन बनो।
ٱلۡيَوۡمَ نَخۡتِمُ عَلَىٰٓ أَفۡوَٰهِهِمۡ وَتُكَلِّمُنَآ أَيۡدِيهِمۡ وَتَشۡهَدُ أَرۡجُلُهُم بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 64
(65) आज हम इनके मुँह बन्द किए देते हैं, इनके हाथ हमसे बोलेंगे और इनके पाँव गवाही देंगे कि ये दुनिया में क्या कमाई करते रहे हैं।55
55. यह हुक्म उन हेकड़ अपराधियों के मामले में दिया जाएगा जो अपने अपराधों को मानने से इंकार करेंगे, गवाहियों को भी झुठला देंगे और आमालनामे को भी सही न मानेंगे, तब अल्लाह हुक्म देगा कि अच्छा, अपनी बकवास बंद करो और देखो कि तुम्हारे शरीर के अपने अंग तुम्हारी करतूतों की क्या कहानी सुनाते हैं। इस सिलसिले में यहाँ सिर्फ हाथों और पैरों की गवाही का उल्लेख फ़रमाया गया है, मगर दूसरी जगहों पर बताया गया है कि उनकी आँखें, उनके कान, उनकी ज़बाने और उनके शरीर की खालें भी पूरी दास्तान सुना देंगी कि वे उनसे क्या काम लेते रहे हैं- "उस दिन उनकी ज़बानें, उनके हाथ और उनके पैर गवाही देंगे उसकी जो कुछ वे करते रहे है।’’ (सूरा-24 अन-नूर, आयत 24) "यहाँ तक कि जब वे आएँगे तो उनके कान, उनकी आँखें, उनकी खालें उनके कामों की गवाही देंगी।" (सूरा-41 हा-मीम अस-सज्दा, आयत 20) यहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि एक ओर तो अल्लाह फ़रमाता है कि हम उनके मुँह बन्द कर देंगे और दूसरी और सूरा 24 नूर की आयत में फ़रमाता है कि उनकी ज़बानें गवाही देंगी, इन दोनों बातों में ताल-मैल कैसे पैदा किया जाएगा? इसका उत्तर यह है कि मुँह बन्द कर देने से तात्पर्य उनके बोलने का अधिकार छीन लेना है, यानी इसके बाद वे अपनी ज़बान से अपनी मर्जी के मुताबिक़ बात न कर सकेंगे और ज़बानों की गवाही से तात्पर्य यह है कि उनकी ज़बाने खुद यह दास्तान सुनानी शुरू कर देंगी कि हमसे इन ज़ालिमों ने क्या काम लिया था, कैसी कैसी अधर्म की बातें बकी थीं, क्या-क्या झूठ बोले थे, क्या-क्या फितने पैदा किए थे और किस-किस मौके पर उन्होंने हमारे ज़रिये से क्या-क्या बातें की थीं।
وَلَوۡ نَشَآءُ لَطَمَسۡنَا عَلَىٰٓ أَعۡيُنِهِمۡ فَٱسۡتَبَقُواْ ٱلصِّرَٰطَ فَأَنَّىٰ يُبۡصِرُونَ ۝ 65
(66) हम चाहें तो इनकी आँखें मूँद दें, फिर ये रास्ते की ओर लपक कर देखें, कहाँ से इन्हें रास्ता सुझाई देगा?
وَلَوۡ نَشَآءُ لَمَسَخۡنَٰهُمۡ عَلَىٰ مَكَانَتِهِمۡ فَمَا ٱسۡتَطَٰعُواْ مُضِيّٗا وَلَا يَرۡجِعُونَ ۝ 66
(67) हम चाहें तो इन्हें इनकी जगह ही पर इस तरह विकृत करके रख दें कि ये न आगे चल सके, न पीछे पलट सकें।56
56. क़ियामत का चित्र खींचने के बाद अब उन्हें बताया जा रहा है कि यह क़ियामत तो ख़ैर तुम्हें दूर की चीज़ नज़र आती है, मगर तनिक होश में आकर देखो कि खुद इस दुनिया में, जिसकी। दगी पर तुम फूले हुए हो, तुम किस तरह अल्लाह की कुदरत के हाथ में बेबस हो। ये आँखें जिनकी ज्योति के सहारे तुम अपनी दुनिया के सारे काम चला रहे हो, अल्लाह के एक इशारे से अँधी हो सकती हैं। ये टाँगे, जिनके बल पर यह सारी दौड़-धूप दिखा रहे हो, अल्लाह के एक हुक्म से इनपर अचानक फ़ालिज गिर सकता है।
وَمَن نُّعَمِّرۡهُ نُنَكِّسۡهُ فِي ٱلۡخَلۡقِۚ أَفَلَا يَعۡقِلُونَ ۝ 67
(68) जिस आदमी को हम लंबी उम्र देते हैं, उसकी बनावट को हम उलट ही देते हैं।57 क्या (यह हालत देखकर) इन्हें अक्ल नहीं आती?
57. बनावट उलट देने से तात्पर्य यह है कि अल्लाह बुढ़ापे में आदमी की हालत बच्चों की-सी कर देता है। जिस कमज़ोरी की हालत से उसने दुनिया में अपनी जिंदगी की शुरुआत की थी, जिंदगी के आख़िर में वह उसी हालत को पहुँच जाता है।
وَمَا عَلَّمۡنَٰهُ ٱلشِّعۡرَ وَمَا يَنۢبَغِي لَهُۥٓۚ إِنۡ هُوَ إِلَّا ذِكۡرٞ وَقُرۡءَانٞ مُّبِينٞ ۝ 68
(69) हमने इस (नबी) को शेअर (काव्य) नहीं सिखाया है और न शायरी इसको शोभा ही देती है।58 यह तो एक नसीहत है और साफ़ पढ़ी जानेवाली किताब,
58. यह इस बात का उत्तर है कि इस्लाम-विरोधी तौहीद (एकेश्वरवाद) और आखिरत और मरने के बाद की जिंदगी और जलत और दोलख के बारे में नबी (सल्ल०) की बातों को मात्र शायरी (काव्य) कहकर अपने नज़दीक बेवज़न ठहराने की कोशिश करते थे। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-26 शुअरा, टिपणी 147 से 145)।
لِّيُنذِرَ مَن كَانَ حَيّٗا وَيَحِقَّ ٱلۡقَوۡلُ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 69
(70) ताकि वह हर उस व्यक्ति को ख़बरदार कर दें, जो जिंदा हो59 और इंकार करनेवालों पर बात सत्यापित हो जाए।
59. जिन्दा से तात्पर्य सोचने और समझनेवाला इंसान है, जिसकी हालत पत्थर की-सी न हो कि आप उसके सामने चाहे कितने ही उचित ढंग से सत्य और असत्य का अन्तर बयान करें और कितनी ही दर्दमंदी के साथ उसको नसीहत कर, वह न कुछ सुने, न समझे और न अपनी जगह से सरके।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّا خَلَقۡنَا لَهُم مِّمَّا عَمِلَتۡ أَيۡدِينَآ أَنۡعَٰمٗا فَهُمۡ لَهَا مَٰلِكُونَ ۝ 70
(71) क्या ये लोग देखते नहीं हैं कि हमने अपने हाथों की बनाई हुई चीज़ों60 में से इनके लिए मवेशी पैदा किए हैं और अब ये उनके मालिक हैं।
60. 'हाथों' का शब्द अल्लाह के लिए लाक्षणिक रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसका यह अर्थ नहीं है कि अल्लाह की पनाह । वह पाक ज़ात जिस्म रखती है और ईसानों की तरह हाथों से काम करती है, बल्कि इससे यह पहसास दिलाना अभिप्रेत है कि इन चीजों को अल्लाह ने स्वयं बनाया है, इनकी पैदाइश में किसी दूसरे का कण भर दाखल नहीं है।
وَذَلَّلۡنَٰهَا لَهُمۡ فَمِنۡهَا رَكُوبُهُمۡ وَمِنۡهَا يَأۡكُلُونَ ۝ 71
(72) हमने उन्हें इस तरह इनके बस में कर दिया है कि उनमें से किसी पर ये सवार होते हैं, किसी का ये मांस खाते हैं,
وَلَهُمۡ فِيهَا مَنَٰفِعُ وَمَشَارِبُۚ أَفَلَا يَشۡكُرُونَ ۝ 72
(73) और उनके अन्दर इनके लिए तरह-तरह के फ़ायदे और पीने की चीजें हैं। फिर क्या ये कृतज्ञ नहीं होते? 61
61. नेमत को गुनहम (नेमत देनेवाले) के सिवा किसी और की देन समझना, उसपर किसी और का उपकार मानना और नेमत देनेवाले के सिवा किसी और से नेमत पाने की उम्मीद रखना या नेमत तलब करना, यह सब नेमत की नाशुक्री है । इसी तरह यह भी नेमत की नाशुक्री है कि आदमी नेमत देनेवाले की दी हुई नेमत को उसकी मर्जी के खिलाफ इस्तेमाल करे । इसलिए एक मुशरिक और इंकारी और मुनाफ़िक़ और फ़ासिक ईसान, सिा ज़बान से शुक्र के शब्द अदा करके अल्लाह का शुक्र अदा करनेवाला बन्दा क़रार नहीं पा सकता । मक्का के कुपकार (इकारी) इस बात के इंकारी न थे कि इन जानवरों को अल्लाह ने पैदा किया है। उनमें से कोई भी यह नहीं कहता था कि इनके पैदा करने में दूसरे उपास्यों का कोई दखल है, मगर ये सब कुछ मानने के बावजूद जब वे अल्लाह की दी हुई नेमतों पर अपने उपास्यों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते और उनके आगे गजें और नियाज पेश करते और उनसे और अधिक नेमतों की दुआएँ माँगते और उनके लिए कुलानियों करते थे तो अल्लाह के लिए उनका ज़बानी शुक्र बिल्कुल निरर्थक हो जाता था। इसी लिए अल्लाह उनको नेमत का ईकारी और एहसान फरामोश (कृतघ्न) क़रार दे रहा है।
وَٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ ءَالِهَةٗ لَّعَلَّهُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 73
(74) यह सब कुछ होते हुए इन्होंने अल्लाह के सिवा दूसरे ख़ुदा बना लिए हैं और यह उम्मीद के इनकी मदद की जाएगी।
لَا يَسۡتَطِيعُونَ نَصۡرَهُمۡ وَهُمۡ لَهُمۡ جُندٞ مُّحۡضَرُونَ ۝ 74
(75) वे इनकी कोई मदद नहीं कर सकते, बल्कि ये लोग के लिए हाज़िर रहनेवाली सेना बने हुए हैं।62
62. अर्थात् वे झूठे उपास्य बेचारे स्वयं अपने अस्तित्व और अपनी रक्षा और अपनी ज़रूरतों के लिए इन इबादत-गुज़ारों के मुहताज हैं। इनके लश्कर न हों तो उन गरीबों की खुदाई एक दिन न चले। ये उनके हाज़िर रहनेवाले ग़ुलाम बने हुए हैं। ये उनकी बारगाहें बना और सजा रहे हैं। ये उनके लिए प्रोपगंडा करते फिरते हैं। ये ख़ुदा की मखलूक (सृष्टि) को उनका आसक्त बनाते हैं। ये उनके समर्थन में लड़ते और झगड़ते हैं, तब कहीं उनकी खुदाई चलती है, वरना उनका कोई पूछनेवाला भी न हो। वे असली ख़ुदा नहीं हैं कि कोई उनको माने या न माने, वे अपने ज़ोर पर आप सारी सृष्टि पर शासन कर रहे हैं।
فَلَا يَحۡزُنكَ قَوۡلُهُمۡۘ إِنَّا نَعۡلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعۡلِنُونَ ۝ 75
(76) अच्छा, जो बातें ये बना रहे हैं वे न करें, इनकी छिपी और खुली सब बातों को हम जानते हैं।63
63. सम्बोधन है नबी (सल्ल०) से। और खुली और छिपी बातों का संकेत इस ओर है कि मक्का के इस्लाम-विरोधियों के वे बड़े-बड़े सरदार जो आप (सल्ल०) के ख़िलाफ़ झूठ के तूफान उठा रहे थे, वे अपने दिलों में जानते और अपनी निजी बैठकों में मानते थे कि नबी (सल्ल०) पर जो आरोप वे लगा रहे हैं, वे सरासर निराधार हैं। वे लोगों को आप (सल्ल०) के विरुद्ध बदगुमान करने के लिए आप (सल्ल०) को शायर (कवि), काहिन, जादूगर, मजनून और न जाने क्या-क्या कहते थे, मगर स्वयं उनकी अन्तरात्मा इस बात को मानती थी और आपस में एक-दूसरे के सामने वे इक़रार करते थे कि ये सब झूठी बातें हैं जो सिर्फ़ आप (सल्ल०) की दावत को नीचा दिखाने के लिए वे गढ़ रहे हैं। इसी लिए अल्लाह अपने नबी से फ़रमाता है कि इन लोगों की बेहूदा बातों पर रंजीदा न हो, सच्चाई का मुक़ाबला झूठ से करनेवाले अन्तत: इस दुनिया में भी विफल होंगे और आख़िरत में भी अपना बुरा अंजाम देख लेंगे।
أَوَلَمۡ يَرَ ٱلۡإِنسَٰنُ أَنَّا خَلَقۡنَٰهُ مِن نُّطۡفَةٖ فَإِذَا هُوَ خَصِيمٞ مُّبِينٞ ۝ 76
(77) क्या64 इंसान देखता नहीं है कि हमने उसे वीर्य से पैदा किया और फिर वह खुला बनकर खड़ा हो गया? 65
65. अर्थात् वह वीर्य जिसमें सिर्फ एक शुरू के जीवाणु के सिवा कुछ न था, उसको विकसित करके हमने इस हद तक पहुँचाया कि वह न सिर्फ़ जानवरों की तरह चलने-फिरने और खाने-पीने लगा, बल्कि इससे आगे बढ़कर उसमें सूझ-बूझ, चेतना और वाद-विवाद, तर्क-वितर्क, वक्तव्य तथा भाषण आदि की वे योग्यताएँ पैदा हो गई जो किसी जानदार को नसीब नहीं हैं, यहाँ तक वह अपने पैदा करनेवाले के भी मुँह आने लगा है।
وَضَرَبَ لَنَا مَثَلٗا وَنَسِيَ خَلۡقَهُۥۖ قَالَ مَن يُحۡيِ ٱلۡعِظَٰمَ وَهِيَ رَمِيمٞ ۝ 77
(78) अब वह हमपर मिसालें फिट करता है66 और अपनी पैदाइश को भूल जाता है।67 कहता है, "कौन इन हड्डियों को जिंदा करेगा, जब कि ये सड़-नाल गई हो।"
66. अर्थात् हमें मख़लूक़ात (सृष्टि) की तरह मजबूर और बेबस समझता है और यह समझता है कि जिस तरह इंसान किसी मुर्दे को जिंदा नहीं कर सकता, उसी तरह हम भी नहीं कर सकते।
67. अर्थात यह बात भूल जाता है कि हमने बैजान पदार्थ से जिंदगी का वह आरंभिक जीवाणु पैदा किया जो उसके पैदा करने का जरिया बना और फिर इस जीवाणु को पाल-पीसकर उसे यहाँ तक बढ़ा लाए कि आज वह हमारे सामने बार्ने छाँटने के क़ाबिल है।
قُلۡ يُحۡيِيهَا ٱلَّذِيٓ أَنشَأَهَآ أَوَّلَ مَرَّةٖۖ وَهُوَ بِكُلِّ خَلۡقٍ عَلِيمٌ ۝ 78
(79) इससे कहो, इन्हें वही जिंदा करेगा, जिसने पहले इन्हें पैदा किया था, और वह पैदा करने का हर काम जानता है।
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُم مِّنَ ٱلشَّجَرِ ٱلۡأَخۡضَرِ نَارٗا فَإِذَآ أَنتُم مِّنۡهُ تُوقِدُونَ ۝ 79
(80) वही जिसने तुम्हारे लिए हरे-भरे पेड़ से आग पैदा कर दी और तुम उससे अपने चूल्हे रोशन करते हो।68
68. या तो इसका अर्थ यह है कि उसने ही-भी पैड़ों में वह आग पकड़नेवाला तत्त्व रखा है जिसकी वजह से तुम लकड़ियों से आग जलाते हो, या फिर यह संकेत है मार्च और अफार नाम के दो पेड़ों की ओर जिनको हरी-भरी शाखाओं को लेकर अरबवाले एक-दूसरे पर मारते थे, तो उनसे आग झड़ने लगती थी। प्राचीन समय में अरब के बद आग जलाने के लिए वही तरकीब इस्तेमाल करते थे और सम्भव है आज भी करते हो।
أَوَلَيۡسَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِقَٰدِرٍ عَلَىٰٓ أَن يَخۡلُقَ مِثۡلَهُمۚ بَلَىٰ وَهُوَ ٱلۡخَلَّٰقُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 80
(81) क्या वह जिसने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया, इसकी शक्ति नहीं रखता कि इन जैसों को पैदा कर सके? क्यों नहीं, जबकि वह कुशल महास्रष्टा है।
إِنَّمَآ أَمۡرُهُۥٓ إِذَآ أَرَادَ شَيۡـًٔا أَن يَقُولَ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 81
(82) बह ती जब किसी चीज का इरादा करता है तो उसका काम बस यह है कि उसे आदेश दे कि हो जा और वह हो जाती है।
فَسُبۡحَٰنَ ٱلَّذِي بِيَدِهِۦ مَلَكُوتُ كُلِّ شَيۡءٖ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 82
(83) पाक है वह जिसके हाथ में हर चीज़ की पूर्ण सत्ता है, और उसी की और तुम पलटाए जानेवाले हो।