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سُورَةُ صٓ

38. सॉद

(मक्का में उतरी, आयतें 88) 

परिचय

नाम

इस सूरा के शुरू ही के अक्षर 'सॉद' को इस सूरा का नाम दिया गया है।

उतरने का समय

जैसा की आगे चलकर बताया जाएगा कि कुछ रिवायतों के अनुसार यह सूरा उस समय उतरी थी, जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मक्का मुअज़्ज़मा में खुल्लम-खुल्ला दावत (आह्वान) का आरंभ किया था। कुछ दूसरी रिवायतें इसके उतरने को हज़रत उमर (रज़ि०) के ईमान लाने के बाद की घटना बताती हैं। रिवायतों के एक और क्रम से मालूम होता है कि इसके उतरने का समय नुबूवत का दसवाँ या ग्यारहवाँ साल है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

इमाम अहमद, नसई और तिर्मिज़ी आदि ने जो रिवायतें नक़्ल की हैं, उनका सारांश यह है कि जब अबू-तालिब बीमार हुए और कुरैश के सरदारों ने महसूस किया कि अब यह उनका अन्तिम समय है, तो उन्होंने आपस में मश्‍वरा किया कि चलकर उनसे बात करनी चाहिए। वे हमारा और अपने भतीजे का झगड़ा चुका जाएँ तो अच्छा हो। इस राय पर सब सहमत हो गए और क़ुरैश के लगभग पच्चीस सरदार, जिनमें अबू-जहल, अबू-सुफ़ियान, उमैया-बिन-ख़ल्फ़, आस-बिन-वाइल, अस्वद-बिन-मुत्तलिब, उक़बा-बिन-अबी-मुऐत, उतबा और शैबा शामिल थे, अबू-तालिब के पास पहुँचे। उन लोगों ने पहले तो अपनी सामान्य नीति के मुताबिक़ नबी (सल्ल०) के विरुद्ध अपनी शिकायतें बयान की, फिर कहा कि हम आपके सामने एक न्याय की बात रखने आए हैं। आपका भतीजा हमें हमारे दीन पर छोड़ दे और हम उसे उसके दीन पर छोड़ देते हैं, लेकिन वह हमारे उपास्यों का विरोध और उनकी निंदा न करे। इस शर्त पर आप हमसे उसका समझौता करा दें। अबू-तालिब ने नबी (सल्ल०) को बुलाया और आप (सल्ल०) को वह बात बताई जो क़ुरैश के सरदारों ने उनसे कही थी। नबी (सल्ल०) ने उत्तर में कहा, "चचा जान! मैं तो इनके सामने एक ऐसी बात पेश करता हूँ जिसे अगर ये मान लें तो अरब इनके अधीन हो जाए और ग़ैर-अरब इन्हें कर (Tax) देने लग जाएँ।" उन्होंने पूछा, “वह बात क्या है ?" आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "ला इला-ह इल्लल्लाह" (नहीं है कोई उपास्य सिवाय अल्लाह के)। इसपर वे सब एक साथ उठ खड़े हुए और वे बातें कहते हुए निकल गए जो इस सूरा के शुरू के हिस्से में अल्लाह ने नक़्ल की हैं। इब्‍ने-सअद की रिवायत के अनुसार यह अबू-तालिब के मृत्यु-रोग की नहीं, बल्कि उस समय की घटना है, जब नबी (सल्ल०) ने सामान्य रूप से लोगों को सत्य की ओर बुलाना शुरू कर दिया था और मक्का में बराबर ये ख़बरें फ़ैलनी शुरू हो गई थीं कि आज फ़ुलाँ आदमी मुसलमान हो गया और कल फ़ुलाँ। ज़मख़शरी, राजी, नेशाबूरी (नेशापूरी) और कुछ दूसरे टीकाकार कहते हैं कि यह प्रतिनिधिमंडल अबूृ-तालिब के पास उस समय गया था जब हज़रत उमर (रज़ि०) के ईमान लाने पर क़ुरैश के सरदार बौखला गए थे। (मानो यह हबशा की हिजरत के बाद की घटना है।)

विषय और वार्ता

ऊपर जिस बैठक का उल्लेख किया गया है, उसकी समीक्षा करते हुए इस सूरा की शुरुआत हुई है। इस्लाम विरोधियों और नबी (सल्ल०) की बातचीत को आधार बनाकर अल्लाह ने बताया है कि इन लोगों के इंकार का मूल कारण इस्लामी दावत की कोई कमी नहीं है, बल्कि उनका अपना घमंड, जलन और अंधी पैरवी पर दुराग्रह है। इसके बाद अल्लाह ने सूरा के शुरू के हिस्से में भी और आख़िरी वाक्यों में भी इस्लाम विरोधियों को साफ़-साफ़ चेतावनी दी है कि जिस आदमी का आज तुम मज़ाक़ उड़ा रहे हो, बहुत जल्द वही ग़ालिब आकर रहेगा, और वह समय दूर नहीं जब उसके आगे तुम सब नतमस्तक नज़र आओगे। फिर बराबर नौ पैग़म्बरों का उल्लेख करके, जिनमें हज़रत दाऊद और सुलैमान (अलैहि०) का क़िस्सा अधिक विस्तार से है, अल्लाह ने यह बात सुननेवालों के मन में बिठाई है कि उसके न्याय का क़ानून बिल्कुल बे-लाग है। ग़लत बात चाहे कोई भी करे, वह उसपर पकड़ करता है, और उसके यहाँ वही लोग पसन्द किए जाते हैं जो ग़लती पर हठ न करें, बल्कि उससे अवगत होते ही तौबा कर लें। इसके बाद आज्ञाकारी बन्दों और सरकश बन्दों के उस अंजाम का चित्र खींचा गया है जो वे परलोक में देखनेवाले हैं। अन्त में आदम (अलैहि०) और इबलीस के क़िस्से का उल्लेख किया गया है और उसका अभिप्राय क़ुरैश के इस्लाम विरोधियों को यह बताना है कि मुहम्मद (सल्ल.) के आगे झुकने से जो अहंकार तुम्हारे रास्ते की रुकावट बन रहा है, वही अहंकार आदम के आगे झुकने में इबलीस के लिए भी रुकावट बना था। इसलिए जो अंजाम इबलीस का होना है, वही अन्ततः तुम्हारा भी होना है।

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سُورَةُ صٓ
38. सॉद
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
صٓۚ وَٱلۡقُرۡءَانِ ذِي ٱلذِّكۡرِ
(1-2) सॉद,1 क़सम है नसीहत भरे2 क़ुरआन की, बल्कि यही लोग, जिन्होंने मानने से इंकार किया है, बड़े धमंड और ज़िद में पड़े हुए हैं।3
1. यद्यपि तमाम 'हुरूफे-मुकत्तआत' (विलग अक्षरों) की तरह 'सॉद' के अर्थ को निश्चित करना भी कठिन है, लेकिन इब्ने-अब्बास (रजि०) और ज़हाक़ का यह कथन भी कुछ दिल लगता है कि इससे तात्पर्य है "सादिकुन फ़ी क़ौलिही" या "स-द-क़ मुहम्मदुन" अर्थात् मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सच्चे हैं, जो कुछ कह रहे हैं, सच कह रहे हैं।
2. मूल अरबी शब्द हैं 'ज़िज़िक्र'। इसके दो अर्थ हो सकते हैं, एक श्रेयवाला अर्थात् बुज़ुर्ग कुरआन, दूसरे तज़कीरवाला अर्थात् नसीहत से भरा हुआ क़ुरआन या भूला हुआ पाठ याद दिलानेवाला और ग़फ़लत से चौंकानेवाला क़ुरआन।
بَلِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فِي عِزَّةٖ وَشِقَاقٖ ۝ 1
0
كَمۡ أَهۡلَكۡنَا مِن قَبۡلِهِم مِّن قَرۡنٖ فَنَادَواْ وَّلَاتَ حِينَ مَنَاصٖ ۝ 2
(3) इनसे पहले हम ऐसी कितनी ही क़ौमों को हलाक कर चुके हैं, (और जब उनकी शामत आई है) तो वे चीख़ उठे हैं, मगर वह समय बचने का नहीं होता।
وَعَجِبُوٓاْ أَن جَآءَهُم مُّنذِرٞ مِّنۡهُمۡۖ وَقَالَ ٱلۡكَٰفِرُونَ هَٰذَا سَٰحِرٞ كَذَّابٌ ۝ 3
(4) इन लोगों को इस बात पर बड़ा आश्चर्य हुआ कि एक डरानेवाला ख़ुद इन्हीं में से आ गया।4 इंकारी कहने लगे, "यह जादूगर है,5 बड़ा झूठा है।
4. अर्थात् ये ऐसे मूर्ख लोग हैं कि जब एक देखा-भाला आदमी स्वयं उनकी अपनी जाति, अपनी क़ौम और अपनी ही बिरादरी में से उनको ख़बरदार करने के लिए नियुक्त किया गया है, तो उनको यह विचित्र बात मालूम हुई। हालाँकि विचित्र बात अगर होती तो यह होती कि इंसानों को ख़बरदार करने के लिए आसमान से कोई और मखलूक भेज दी जाती या उनके बीच यकायक एक अनजान आदमी कहीं बाहर से आ खड़ा होता और पैग़म्बरी शुरू कर देता।
5. नबी (सल्ल०) के लिए जादूगर का शब्द वे लोग इस अर्थ में बोलते थे कि यह आदमी कुछ ऐसा जादू करता है, जिससे आदमी दीवाना होकर उसके पीछे लग जाता है। [और फिर किसी बात की परवाह नहीं करता।] (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-21 अंबिया, टिप्पणी 5)
أَجَعَلَ ٱلۡأٓلِهَةَ إِلَٰهٗا وَٰحِدًاۖ إِنَّ هَٰذَا لَشَيۡءٌ عُجَابٞ ۝ 4
(5) क्या इसने सारे ख़ुदाओं की जगह बस एक ही ख़ुदा बना डाला? यह तो बड़ी विचित्र बात है।"
وَٱنطَلَقَ ٱلۡمَلَأُ مِنۡهُمۡ أَنِ ٱمۡشُواْ وَٱصۡبِرُواْ عَلَىٰٓ ءَالِهَتِكُمۡۖ إِنَّ هَٰذَا لَشَيۡءٞ يُرَادُ ۝ 5
(6) और क़ौम के सरदार यह कहते हुए निकल गए6 कि "चलो, और डटे रहो, अपने उपास्यों की उपासना पर। यह बात7 तो किसी और ही उद्देश्य से कही जा रही है।8
6. संकेत है उन सरदारों की ओर जो नबी (सल्ल०) की बात सुनकर अबू तालिब की सभा से उठ गए थे।
7. अर्थात् नबी (सल्ल०) का यह कहना कि कलिमा ला इला-ह इल्लल्लाह' (अल्लाह के अलावा कोई पूज्य-प्रभु नहीं) के कायल हो जाओ तो अरब व गैर-अरब सब तुम्हारे अधीन हो जाएंगे।
مَا سَمِعۡنَا بِهَٰذَا فِي ٱلۡمِلَّةِ ٱلۡأٓخِرَةِ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا ٱخۡتِلَٰقٌ ۝ 6
(7) यह बात हमने क़रीब के ज़माने की मिल्लत (पंथ) में किसी से नहीं सुनी।9 यह कुछ नहीं है मगर एक मनगढ़त बात।
9. अर्थात् क़रीब के ज़माने में हमारे अपने बुजुर्ग भी गुज़रे हैं, ईसाई और यहूदी भी हमारे देश और आसपास के देशों में मौजूद हैं और मजूसियों से ईरान और इराक और पूर्वी अरब भरा पड़ा है। किसी ने भी हमसे यह नहीं कहा कि इंसान बस एक अल्लाह, सारे जहानों के रब, को माने और दूसरे किसी को न माने। आख़िर एक अकेले ख़ुदा को कौन काफ़ी समझता है? अल्लाह के प्यारों के चमत्कारों और अधिकारों को तो एक दुनिया मान रही है और उनसे लाभान्वित होनेवाले बता रहे हैं कि इन दरबारों से लोगों का किस-किस तरह संकट दूर किया जाता है और उनकी आवश्यकता पूरी होती है।
أَءُنزِلَ عَلَيۡهِ ٱلذِّكۡرُ مِنۢ بَيۡنِنَاۚ بَلۡ هُمۡ فِي شَكّٖ مِّن ذِكۡرِيۚ بَل لَّمَّا يَذُوقُواْ عَذَابِ ۝ 7
(8) क्या हमारे बीच बस यही एक व्यक्ति रह गया था जिसपर अल्लाह का 'ज़िक्र' (अनुस्मारक) उतार दिया गया?" सच्ची बात यह है कि ये मेरे ज़िक्र' पर सन्देह कर रहे हैं।10 और ये सारी बातें इसलिए कर रहे हैं कि इन्होंने मेरे अज़ाब का मज़ा चखा नहीं है।
10. दूसरे शब्दों में अल्लाह फ़रमाता है कि ऐ मुहम्मद (सल्ल०), ये लोग वास्तव में तुम्हें नहीं झुठला रहे हैं, बल्कि मुझे झुठला रहे हैं। इन्हें सन्देह तुम्हारी सच्चाई पर नहीं है, मेरी शिक्षाओं पर है। तुम्हारी सच्चाई पर तो पहले इन्होंने कभी सन्देह नहीं किया था, आज जो यह सन्देह किया जा रहा है, यह वास्तव में मेरे 'ज़िक्र' की वजह से है। मैंने इनको नसीहत करने की ख़िदमत जब तुम्हारे सुपुर्द की तो ये उसी आदमी की सच्चाई में सन्देह करने लगे, जिसकी सच्चाई की पहले क़स्में खाया करते थे। (विस्तार के लिए देखिए, सूरा-6 अनआम, आयत 33 और टिप्पणी 21)
أَمۡ عِندَهُمۡ خَزَآئِنُ رَحۡمَةِ رَبِّكَ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡوَهَّابِ ۝ 8
(9) क्या तेरे दाता और ग़ालिब परवरदिगार की रहमत के ख़ज़ाने इनके कब्जे में हैं ?
أَمۡ لَهُم مُّلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَاۖ فَلۡيَرۡتَقُواْ فِي ٱلۡأَسۡبَٰبِ ۝ 9
(10) क्या ये आसमान व ज़मीन और उनके दर्मियान की चीज़ों के मालिक हैं? अच्छा तो ये कारण-कार्य पर आधारित लोक की ऊँचाइयों पर चढ़कर देखें!11
11. यह इस्लाम विरोधियों के उस कथन का उत्तर है कि "क्या हमारे बीच बस यही एक आदमी रह गया था जिसपर अल्लाह का ज़िक्र उतार दिया गया।" इसपर अल्लाह फ़रमा रहा है कि नबी हम किसको बनाएँ और किसे न बनाएँ, इसका निर्णय करना हमारा अपना काम है। ये लोग आखिर कब से इस निर्णय के अधिकारी हो गए। अगर ये उसके अधिकारी बनना चाहते हैं तो जगत् के शासक-पद पर अधिकार ज़माने के लिए आसमान पर पहुंचने की कोशिश करें, ताकि जिसे ये अपनी रहमत का अधिकारी समझें उसपर वस्य उत्तरे और जिसे हम हक़दार समझते हैं उसपर वह न उतरे। यह विषय कई जगहों पर क़ुरआन मजीद में बयान हुआ है, क्योंकि कुरैश के इस्लाम-विरोधी बार-बार कहते थे कि मुहम्मद (सल्ल०) कैसे नबी बन गए, क्या अल्लाह को कुरैश के बड़े-बड़े सरदारों में से कोई इस काम के लिए न मिला था। (देखिए सूरा-17 बनी इस्राईल, आयत 100, सूरा-43 अज़-जुफ, आयत 31-32)
جُندٞ مَّا هُنَالِكَ مَهۡزُومٞ مِّنَ ٱلۡأَحۡزَابِ ۝ 10
(11) यह तो जत्थों में से एक छोटा-सा जत्था है, जो इसी जगह हार खानेवाला है।12
12. 'इसी जगह' का संकेत मक्का मुअज्जमा की ओर है। अर्थात् जहाँ ये लोग ये बातें बना रहे हैं, इसी जगह एक दिन ये पराजित होनेवाले हैं और यहीं वह समय आनेवाला है जब ये मुँह लटकाए उसी व्यक्ति के सामने खड़े होंगे, जिसे आज ये तुच्छ समझकर नबी मानने से इंकार कर रहे हैं।
كَذَّبَتۡ قَبۡلَهُمۡ قَوۡمُ نُوحٖ وَعَادٞ وَفِرۡعَوۡنُ ذُو ٱلۡأَوۡتَادِ ۝ 11
(12-13) इनसे पहले नूह की क़ौम, और आद, और मेखोंवाला फ़िरऔन,13 और समूद, और लूत की क़ौम, और ऐकावाले झुठला चुके हैं। जत्थे वे थे।
13. फ़िरऔन के लिए 'मेखोंवाला' या तो इस अर्थ में प्रयुक्त किया गया है कि उसकी सल्तनत ऐसी मज़बूत थी, मानो मेख (खूटे) ज़मीन पर ठुकी हुई हो। या इस कारण कि उसकी भारी फ़ौज जहाँ ठहरती थी, वहाँ हर ओर खेमों की मेखें ही मेखें ठुकी नज़र आती हैं, या इस कारण कि वह जिससे नाराज़ होता था उसे मेखें ठोंककर अज़ाब दिया करता था। और सम्भव है कि मेखों से तात्पर्य अहरामे-मित्र हों जो ज़मीन के अन्दर मेख़ की तरह ठुके हुए हैं।
وَثَمُودُ وَقَوۡمُ لُوطٖ وَأَصۡحَٰبُ لۡـَٔيۡكَةِۚ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلۡأَحۡزَابُ ۝ 12
0
إِن كُلٌّ إِلَّا كَذَّبَ ٱلرُّسُلَ فَحَقَّ عِقَابِ ۝ 13
(14) उनमें से हर एक ने रसूलों को झुठलाया और मेरे अज़ाब का फ़ैसला उसपर चस्पा होकर रहा।
وَمَا يَنظُرُ هَٰٓؤُلَآءِ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ مَّا لَهَا مِن فَوَاقٖ ۝ 14
(15) ये लोग भी बस एक धमाके के इंतिज़ार में हैं, जिसके बाद कोई दूसरा धमाका न होगा।14
14. अर्थात् अज़ाब का एक ही कड़का उन्हें ख़त्म कर देने के लिए काफ़ी होगा, किसी दूसरे कड़के की ज़रूरत पेश न आएगी। दूसरा अर्थ इस वाक्य का यह भी हो सकता है कि इसके बाद फिर इन्हें कोई संभाला न मिल सकेगा, इतनी देर की भी मोहलत न मिलेगी, जितनी देर ऊँटनी का दूध निचोड़ते वक़्त एक बार सौंते हुए थन में दोबारा सौंतने तक दूध उतरने में लगती है।
وَقَالُواْ رَبَّنَا عَجِّل لَّنَا قِطَّنَا قَبۡلَ يَوۡمِ ٱلۡحِسَابِ ۝ 15
(16) और ये कहते हैं कि ऐ हमारे रब! हिसाब के दिन से पहले ही हमारा हिस्सा हमें जल्दी से दे दे।15
15. अर्थात् अल्लाह के अज़ाब का हाल तो है वह जो अभी बयान किया गया, और इन नादानों का हाल यह है कि ये नबी (सल्ल०) से मज़ाक के तौर पर कहते हैं कि जिस हिसाब के दिन से तुम हमें डराते हो, उसके आने तक हमारे मामले को न टालो, बल्कि हमारा हिसाब अभी चुकवा दो। जो कुछ भी हमारे हिस्से शामत लिखी है, वह तुरन्त ही आ जाए।
ٱصۡبِرۡ عَلَىٰ مَا يَقُولُونَ وَٱذۡكُرۡ عَبۡدَنَا دَاوُۥدَ ذَا ٱلۡأَيۡدِۖ إِنَّهُۥٓ أَوَّابٌ ۝ 16
(17) ऐ नबी! सब्र करो उन बातों पर जो ये लोग बनाते हैं।16 और इनके सामने हमारे बन्‍दे दाऊद का किस्सा बयान करो।17 जो बड़ी ताक़तों का मालिक था।18 हर मामले में अल्लाह की ओर रुजूअ करने वाला था
16. संकेत है मक्का के इस्लाम-विरोधियों की उन बातों की ओर जिनका उल्लेख ऊपर हो चुका है।
17. इस वाक्य का दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि "हमारे बन्दे दाऊद को याद करो।" पहले अनुवाद की दृष्टि से अर्थ यह है कि इस क्रिस्से में उन लोगों के लिए एक शिक्षा है और दूसरे अनुवाद की दृष्टि से क़िस्से की याद स्वयं तुम्हें सब करने में मदद देगी। चूँकि यह किस्सा बयान करने से दोनों ही बातें अभीष्ट हैं, इसलिए शब्द ऐसे इस्तेमाल किए गए हैं जिनके अन्दर दोनों अर्थ आ जाते हैं। हज़रत दाऊद (अलैहि०) के क़िस्से का विवरण इससे पहले सूरा-2 अल-बक़रा, टिप्पणी 273; सूरा-17 बनी इस्राईल, टिप्पणी 63; सूरा-21 अल-अंबिया, टिप्पणी 70, 71, 72; सूरा-27 अन-नम्ल, टिप्पणी 18, 19, 20; सूरा-34 सबा, टिप्पणी 14,15, 16, में आ चुका है।
إِنَّا سَخَّرۡنَا ٱلۡجِبَالَ مَعَهُۥ يُسَبِّحۡنَ بِٱلۡعَشِيِّ وَٱلۡإِشۡرَاقِ ۝ 17
(18) हमने पहाड़ों को उसके साथ वशीभूत रखा था कि सुबह व शाम वे उसके साथ तस्बीह (महिमागान) करते थे।
وَٱلطَّيۡرَ مَحۡشُورَةٗۖ كُلّٞ لَّهُۥٓ أَوَّابٞ ۝ 18
(19) परिंदे सिमट आते, सबके सब उसकी तस्वीह की और ध्यान मग्न हो जाते थे।19
19. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-21 अल-अंबिया, टिप्पणी 71
وَشَدَدۡنَا مُلۡكَهُۥ وَءَاتَيۡنَٰهُ ٱلۡحِكۡمَةَ وَفَصۡلَ ٱلۡخِطَابِ ۝ 19
(20) हमने उसका राज्य मज़बूत कर दिया था। उसको समझ-बूझ प्रदान की थी और निर्णायक बात कहने की क्षमता प्रदान की थी।20
20. अर्थात् उनकी बातें उलझी हुई न होती थीं कि सारा भाषण सुनकर भी आदमी न समझ सके कि कहना क्या चाहते हैं, बल्कि वे जिस मामले पर भी बातें करते, उसके तमाम बुनियादी पहलुओं को स्पष्ट करके रख देते और असल फ़ैसला-तलब मसले को ठीक-ठीक निश्चित करके उसका बिल्कुल दोटूक उत्तर दे देते थे। यह बात किसी व्यक्ति को उस वक्त तक हासिल नहीं होती जब तक उसे समझ-बूझ और वाक्य-शक्ति पूर्ण रूप से प्राप्त न हो।
۞وَهَلۡ أَتَىٰكَ نَبَؤُاْ ٱلۡخَصۡمِ إِذۡ تَسَوَّرُواْ ٱلۡمِحۡرَابَ ۝ 20
(21) फिर तुम्हें कुछ ख़बर पहुँची है उन मुक़द्दमेवालों की जो दीवार चढ़कर उसके बालाख़ाने (अटारी) में घुस आए थे?21
21. हज़रत दाऊद (अलैहि०) का उल्लेख जिस उद्देश्य के लिए इस जगह किया गया है, उससे अभिप्रेत वास्तव में वही क़िस्सा सुनाना है, जो यहाँ से शुरू होता है। इससे पहले उनके जो श्रेष्ठ गुण भूमिका के रूप में बयान किए हैं, उनका उद्देश्य सिर्फ यह बताना था कि दाऊद (अलैहि०) जिनके साथ यह मामला पेश आया है, किस श्रेणी के व्यक्ति थे।
إِذۡ دَخَلُواْ عَلَىٰ دَاوُۥدَ فَفَزِعَ مِنۡهُمۡۖ قَالُواْ لَا تَخَفۡۖ خَصۡمَانِ بَغَىٰ بَعۡضُنَا عَلَىٰ بَعۡضٖ فَٱحۡكُم بَيۡنَنَا بِٱلۡحَقِّ وَلَا تُشۡطِطۡ وَٱهۡدِنَآ إِلَىٰ سَوَآءِ ٱلصِّرَٰطِ ۝ 21
(22) जब वे दाऊद के पास पहुँचे, तो वह उन्हें देखकर घबरा गया।22 उन्होंने कहा, "डरिए नहीं, हम मुक़द्दमे के दो फ़रीक़ (पक्ष) हैं, जिनमें से एक ने दूसरे पर ज़्यादती की है। आप हमारे दर्मियान हक़ के साथ ठीक-ठीक फ़ैसला कर दीजिए, अन्याय न कीजिए और हमें सीधा रास्ता बताइए।
22. घबराने का कारण यह था कि दो आदमी समकालीन शासक के पास उसके शयन कक्ष में सीधे रास्ते से जाने के बजाय यकायक दीवार चढ़कर जा पहुंचे थे।
إِنَّ هَٰذَآ أَخِي لَهُۥ تِسۡعٞ وَتِسۡعُونَ نَعۡجَةٗ وَلِيَ نَعۡجَةٞ وَٰحِدَةٞ فَقَالَ أَكۡفِلۡنِيهَا وَعَزَّنِي فِي ٱلۡخِطَابِ ۝ 22
(23) यह मेरा भाई है।23 इसके पास 99 दुंबियाँ हैं और मेरे पास सिर्फ एक ही दुंबी है। इसने मुझसे कहा कि यह एक दुंबी भी मेरे हवाले कर दे और इसने बातों में मुझे दबा लिया।’’24
23. भाई से मुराद सगा भाई नहीं, बल्कि दीनी और क़ौमी भाई है।
24. आगे की बात समझने के लिए यह बात दृष्टि में रहनी ज़रूरी है कि याचक-पक्ष यह नहीं कह रहा है कि इस आदमी ने मेरी वह एक दुबी छीन ली और अपनी दुंबियों में मिला ली, बल्कि यह कह रहा है कि यह मुझसे मेरी ढुंबी माँग रहा है और इसने बातों में मुझे दबा लिया है, क्योंकि यह बड़े व्यक्तित्व का आदमी है और मैं एक गरीब आदमी हूँ। मैं अपने अन्दर इतनी सकत नहीं पाता कि इसकी माँग रद्द कर दूं।
قَالَ لَقَدۡ ظَلَمَكَ بِسُؤَالِ نَعۡجَتِكَ إِلَىٰ نِعَاجِهِۦۖ وَإِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلۡخُلَطَآءِ لَيَبۡغِي بَعۡضُهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٍ إِلَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَقَلِيلٞ مَّا هُمۡۗ وَظَنَّ دَاوُۥدُ أَنَّمَا فَتَنَّٰهُ فَٱسۡتَغۡفَرَ رَبَّهُۥ وَخَرَّۤ رَاكِعٗاۤ وَأَنَابَ۩ ۝ 23
(24) दाऊद ने उत्तर दिया, “इस आदमी ने अपनी दुंबियों के साथ तेरी दुंबी मिला लेने की माँग करके निश्चित रूप से तुझपर ज़ुल्म किया25 और सच तो यह है कि मिल-जुलकर साथ रहनेवाले लोग प्रायः एक-दूसरे पर ज़्यादतियाँ करते रहते हैं। बस वही लोग इससे बचे हुए हैं जो ईमान रखते और भले कर्म करते हैं, और ऐसे लोग कम ही हैं।" (यह बात कहते-कहते) दाऊद समझ गया कि यह तो हमने वास्तव में उसकी आज़माइश की है। अतएव उसने अपने रब से माफ़ी माँगी और सज्दे में गिर गया और रुजूअ कर लिया।26
25. यहाँ किसी को यह सन्देह न हो कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने एक ही फ़रीक़ की बात सुनकर अपना फ़ैसला कैसे दे दिया। असल बात यह है कि जब मुद्दई (वादी) की शिकायत पर मुद्दआ अलैह (प्रतिवादी) चुप रहा और उसके खंडन में कुछ न बोला, तो यह स्वयं ही उसके स्वीकार कर लेने जैसा था। इस आधार पर हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने यह राय कायम की कि बात वही कुछ है जो मुद्दई बयान कर रहा है।
26. इस बात में मतभेद है कि इस जगह तिलावत का सज्दा वाजिब है या नहीं। इमाम शाफ़ई (रह०) कहते हैं कि यहाँ सज्दा वाजिब नहीं है, बल्कि यह तो एक नबी की तौबा है और इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) इस जगह सज्दा वाजिब कहते हैं।
فَغَفَرۡنَا لَهُۥ ذَٰلِكَۖ وَإِنَّ لَهُۥ عِندَنَا لَزُلۡفَىٰ وَحُسۡنَ مَـَٔابٖ ۝ 24
(25) तब हमने उसका वह कुसूर माफ़ किया और निश्चय ही हमारे यहाँ उसके लिए सामीप्य का स्थान और अच्छा परिणाम है।27
27. इससे मालूम हुआ कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) से कुसूर तो ज़रूर हुआ था और वह कोई ऐसा क़ुसूर था जो दुंबियोंवाले मुक़द्दमे से किसी न किसी अंदाज़ से मेल खाता था, इसी लिए उसका फ़ैसला सुनाते हुए अचानक उनको यह ख़याल आया कि यह मेरी परीक्षा हो रही है, लेकिन वह कुसूर ऐसा बड़ा न था कि उसे क्षमा न किया जाता या अगर क्षमा किया जाता तो वह अपने उच्च पद से गिरा दिए जाते । अल्लाह यहाँ स्वयं स्पष्ट कर रहा है कि जब उन्होंने सज्दे में गिरकर तौबा की, तो न केवल यह कि उन्हें क्षमा कर दिया गया, बल्कि दुनिया और आख़िरत में उनको जो उच्च पद प्राप्त था, उसमें भी कोई अन्तर न आया।
يَٰدَاوُۥدُ إِنَّا جَعَلۡنَٰكَ خَلِيفَةٗ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱحۡكُم بَيۡنَ ٱلنَّاسِ بِٱلۡحَقِّ وَلَا تَتَّبِعِ ٱلۡهَوَىٰ فَيُضِلَّكَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَضِلُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ لَهُمۡ عَذَابٞ شَدِيدُۢ بِمَا نَسُواْ يَوۡمَ ٱلۡحِسَابِ ۝ 25
(26) (हमने उससे कहा) “ऐ दाऊद ! हमने तुझे ज़मीन में खलीफ़ा बनाया है, इसलिए तू लोगों के दर्मियान हक़ के साथ शासन कर और मन की इच्छाओं की पैरवी न कर कि वे तुझे अल्लाह के रास्ते से भटका देंगी। जो लोग अल्लाह की राह से भटकते हैं, निश्चय ही उनके लिए सान यजा है कि वे हिसाब के दिन को भूल गए।28
28. यह वह चेतावनी है जो इस मौके पर अल्लाह ने सौवा स्वीकार करने और उच्च पद की शुभ सूचना देने के साथ हजरत दानन्द (अलैहि०) की फ़रमाई । इससे यह बात अपने आप प्रकट हो जाती है कि जो काम उन्होंने किया था, उसमें मन की इच्छा का कुछ दाखल था, उसका प्रशासनिक सत्‍ता के अनुचित इस्‍तेमाल से भी कोई ताल्लक था और वह कोई ऐसा काम था जो न्याय के साथ शायन करनेवाले किया शासक को शोभा न देता था। यहाँ पहुँचकर तीन प्रश्न हमार सामने अति - एक, 40 कि, यह काम क्या था ? दूसरा, यह कि अल्लाह ने उसको साफ साझ वयान करने के बजाय इस तरह पार पाद ही उसकी ओर क्‍यों संकेत किया? तीसरा, यह कि इस सन्दर्भ में इसका उल्लेख किय कारण किया गया है। जिन लोगों ने बाइबिल का अध्ययन किया है, उनसे यह बात छिपी नहीं है कि इस किताब में हज़रत दाऊद (अलैहि०) पर करियाह हिती की पत्नी से जिना (व्यभिचार) करने और फिर अरियाह की एक लड़ाई में जान-बूझकर हलाक करवाकर उसकी बीवी से शादी कर लेने का खुला आरोप लगाया गया है, और यह भी कहा गया है कि यही औरत हजरत सुलैमान (अलैहि०) की माँ थी। यह पूरा क्रिस्मा बाइबिल की पुस्तक सयूहल द्वितीय, अध्याय 11-12 में अत्यन्त विस्तार के साथ लिखा हुआ है। इस क़िस्‍से के मशहूर होने के बाद यह जरूरत बाकी न थी कि कुरआन मजीद में उसके बारे में कोई विस्तृत विवरण दिया जाता। अल्लाह का यह नियम है, भी नहीं कि वह अपनी पवित्र किताब में ऐसी बातें खोलकर बयान कर। इसलिए यहाँ परदै परदे ही में इसकी और इशारा भी किया गया है और इसके साथ यह भी बता दिया गया है कि असल बात क्या थी और अहले किताब ने ठसे बना क्या दिया है। असल बात जो क़ुरआन मजीद के ऊपर के बयान से साफ समझ में आती है, वह यह है कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) नै करियाह (या जो कुछ भी उस आदमी का नाम रहा हो) से सिर्फ़ यह इच्छा व्यक्त की थी कि वह अपनी बीवी को तलाक़ दे दे (और यह इच्छा शायद इस कारण श्री कि उन्हें) इस औरत की खूबियों का किसी जरिये से ज्ञान हो गया था और उनके मन में यह विचार पैदा हुआ था कि ऐसी योग्य औरत एक मामूली आफसर की पत्नी होने के बजाय, देश की रानी होनी चाहिए। [फिर उस इच्छा के प्रकट करने में कोई बुराई उन्होंने इसलिए महसूस नहीं की कि बनी इसराईल के यहाँ यह कोई बुरी बात न समझी जाती थी। लेकिन चूंकि यह इच्छा एक आम आदमी की ओर से नहीं, बल्कि एक महान शासक और एक जबरदस्त धार्मिक महत्ता रखनेवाले व्यक्तित्व की ओर से प्रजा के एक व्यक्ति के सामने जाहिर की गई थी, इसलिए वह व्यक्ति किसी प्रत्यक्ष जबरदस्ती के बिना भी अपने आपको उसे स्वीकार करने पर मजबूर पा रहा था। इस अवसर पर, इससे पहले कि हजरत दाऊद (अलैहि०) की फरमाइश को पूरा करता, कौम के दो नेक आदमी अचानक हज़रत दाउद (अलैहि०) के पास पहुँच गए और उन्होंने एक फर्जी मुकद्दमे की शक्ल में यह मामला उनके सामने पेश कर दिया। हजरत दाऊद (अलैहि०) शुरू में तो यह समझे कि यह वास्तव में कोई मुकद्दमा है। चुनांचे उन्होंने उसे सुनकर अपना फैसला सुना दिया, लेकिन जवान से फैसले के शब्द निकलते ही उनकी अन्तरात्मा ने चेतावनी दी कि यह मिसाल पूरी तरह उनके और उस आदमी के मामले पर चस्पा होती हैं, और जिस काम को वे ज़ुल्म क़रार दे रहे हैं, वह स्वयं उनसे उस व्यक्ति के मामले में हो रहा है। यह एहसास दिल में पैदा होते ही वह सदै मैं गिर गए और तौबा की और अपने उस काम से रुजूअ फ़रमा लिया। क़ुरआन मजीद में इस जगह यह किस्सा दो उद्देश्यों के लिए बयान किया गया है। पहला उद्देश्य नबी (सल्ल०) को सब्र पर उभारना है और इस उद्देश्य के लिए आप (सल्ल०) को सम्बोधित करके फ़रमाया गया है, "जो बातें ये लोग तुम पर बनाते हैं, उनपर सब्र करो और हमारे बन्दे दाऊद को याद करो।" अर्थात् तुम्हें तो जादूगर और झूठा ही कहा जा रहा है, लेकिन हमारे बन्दे दाऊद पर तो ज़ालिमों ने जिना (व्यभिचार) और षड्यंत्रपूर्ण हत्या तक के आरोप लगा दिए, इसलिए इन लोगों से जो कुछ भी तुमको सुनना पड़े उसे सहते रहो। दूसरा उद्देश्य इस्लाम विरोधियों को यह बताना है कि तुम लोग हर हिसाब-किताब से निडर होकर दुनिया में तरह-तरह की ज़्यादतियाँ करते चले जाते हो, लेकिन जिस ख़ुदा की ख़ुदाई में तुम ये हरकतें कर रहे हो, वह किसी को भी हिसाब-किताब के बिना नहीं छोड़ता, यहाँ तक कि जो बन्दे उसके अतिप्रिय और करीबी होते हैं, वे भी अगर एक छोटी-सी ग़लती कर बैठे तो सारे जहान का रब उनकी कड़ी पकड़ करता है।
وَمَا خَلَقۡنَا ٱلسَّمَآءَ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَا بَٰطِلٗاۚ ذَٰلِكَ ظَنُّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۚ فَوَيۡلٞ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنَ ٱلنَّارِ ۝ 26
(27) हमने इस आसमान और ज़मीन की और इस दुनिया को जो उनके दर्मियान है, फ़ुज़ूल पैदा नहीं कर दिया है।29 यह तो उन लोगों का गुमान है जिन्होंने इंकार किया है, और ऐसे इंकारियों के लिए बर्बादी है जहन्नम की आग से।
29. अर्थात् सिर्फ़ खेल के तौर पर पैदा नहीं कर दिया है कि उसमें कोई हिक्मत (तत्वदर्शिता) न हो, कोई उद्देश्य और मक़सद न हो, कोई न्याय और इंसाफ़ न हो, और किसी अच्छे या बुरे काम का कोई नतीजा न निकले। यह इर्शाद पिछली वार्ता का सार भी है और आगे की वार्ता की भूमिका भी। पिछली वार्ता के बाद यह वाक्य इर्शाद फ़रमाने से अभिप्रेत यह सच्चाई सुननेवालों के मन में बिठा देनी है कि इंसान यहाँ बे-नकेल के ऊँट की तरह नहीं छोड़ दिया गया है कि जो कुछ जी चाहे करता रहे और उसपर कोई पूछ-गछ न हो। आगे की वार्ता की भूमिका के रूप में इस वाक्य से वार्ता की शुरुआत करके यह बात समझाई गई है कि जो आदमी इनाम और सज़ा को स्वीकार नहीं करता है, वह वास्तव में दुनिया को एक खिलौना और उसके बनानेवाले को खिलंडरा समझता है और उसका विचार यह है कि सृष्टि को पैदा करनेवाले ने दुनिया बनाकर और उसमें इंसान को पैदा करके एक व्यर्थ काम किया है। यही बात कुरआन मजीद में कई जगहों पर अलग-अलग तरीक़ों से कही गई है। मिसाल के तौर पर (देखिए, सूरा-23 अल-मोमिनून, आयत 115; सूरा-44 अद-दुखान, आयत 38-40)
أَمۡ نَجۡعَلُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ كَٱلۡمُفۡسِدِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِ أَمۡ نَجۡعَلُ ٱلۡمُتَّقِينَ كَٱلۡفُجَّارِ ۝ 27
(28) क्या हम उन लोगों को जो ईमान लाते और भले कर्म करते हैं और उनको जो ज़मीन में बिगाड़ पैदा करनेवाले हैं, बराबर कर दें? क्या परहेज़गारों को हम अवज्ञाकारियों जैसा कर दें?30
30. अर्थात् क्या तुम्हारे नज़दीक यह बात उचित है कि भले और बुरे दोनों अन्तत: बराबर हो जाएँ? क्या यह विचार तुम्हारे लिए सन्तोषजनक है कि किसी नेक इंसान को उसकी नेकी का कोई बदला और किसी बुरे आदमी को उसकी बुराई का कोई बदला न मिले? स्पष्ट है कि अगर आख़िरत न हो और अल्लाह की ओर से कोई हिसाब-किताब न हो और इंसानी कामों की कोई जज़ा व सज़ा न हो तो इससे अल्लाह की तत्त्वदर्शिता और उसके न्याय व इंसाफ़ दोनों का निषेध हो जाता है और सृष्टि की पूरी व्यवस्था एक अंधी व्‍यवस्‍था बनकर रह जाती है।
كِتَٰبٌ أَنزَلۡنَٰهُ إِلَيۡكَ مُبَٰرَكٞ لِّيَدَّبَّرُوٓاْ ءَايَٰتِهِۦ وَلِيَتَذَكَّرَ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 28
(29) -यह एक बड़ी बरकतवाली किताब31 है, जो (ऐ नबी!) हमने तुम्हारी ओर उतारी है, ताकि ये लोग इसकी आयतों पर विचार करें और बुद्धि व समझ रखनेवाले उससे शिक्षा लें।
31. 'बरकत' का शाब्दिक अर्थ है, 'खैर व सआदत (भलाई और सौभाग्य) में बढ़ोत्तरी।' क़ुरआन मजीद को बरकतवाली किताब कहने का अर्थ यह है कि यह इंसान के लिए बड़ी फ़ायदेमंद किताब है। उसकी जिंदगी को दुरुस्त करने के लिए बेहतरीन हिदायतें देती है। उसके पालन में आदमी का लाभ ही लाभ है, हानि का कोई ख़तरा नहीं है।
وَوَهَبۡنَا لِدَاوُۥدَ سُلَيۡمَٰنَۚ نِعۡمَ ٱلۡعَبۡدُ إِنَّهُۥٓ أَوَّابٌ ۝ 29
(30) और दाऊद को हमने सुलैमान (जैसा बेटा) दिया,32 बेहतरीन बन्दा, अपने रब की ओर अधिक से अधिक रुजूम करनेवाला।
32. हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का उल्लेख इससे पहले सूरा-2 बकरा, आयत 102; सूरा-21 अंबिया, आयत 77 से 82; सूरा-27 अन-नम्ल, आयत 15 से 44; सूरा-34 सबा, आयत 12 से 14 में गुजर चुका है।
إِذۡ عُرِضَ عَلَيۡهِ بِٱلۡعَشِيِّ ٱلصَّٰفِنَٰتُ ٱلۡجِيَادُ ۝ 30
(31-32-33) उल्लेखनीय है वह अवसर जब संध्या के समय उसके सामने खूब सधे हुए घोड़े पेश किए गए,33 तो उसने कहा, "मैंने इस माल34 की मुहब्बत को अपने रब की याद की वजह से अपनाया है।" यहाँ तक कि जब वे घोड़े निगाह से ओझल हो गए तो (उसने हुक्म दिया कि) उन्हें मेरे पास वापस लाओ, फिर लगा उनकी पिंडुलियों और गरदनों पर हाथ फेरने।35
33. मूल अरबी शब्द हैं अस्साफिनातुल जियाद'। इससे तात्पर्य ऐसे घोड़े हैं जो खड़े हों तो बड़े सुकून के साथ खड़े रहें, कोई उछल-कूद न करें, और जब दौड़ें तो बहुत तेज़ दौड़ें।
34. मूल अरबी में शब्द 'खैर' प्रयुक्त हुआ है जो अरबी भाषा में बहुत ज़्यादा माल' के लिए भी इस्तेमाल होता है और घोड़ों के लिए भी लाक्षणिक रूप से इस्तेमाल किया जाता है। हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने इन घोड़ों को चूँकि अल्लाह के रास्ते में जिहाद के लिए रखा था, इसलिए उन्होंने 'खैर' के शब्द से इनको व्यक्त किया।
فَقَالَ إِنِّيٓ أَحۡبَبۡتُ حُبَّ ٱلۡخَيۡرِ عَن ذِكۡرِ رَبِّي حَتَّىٰ تَوَارَتۡ بِٱلۡحِجَابِ ۝ 31
0
رُدُّوهَا عَلَيَّۖ فَطَفِقَ مَسۡحَۢا بِٱلسُّوقِ وَٱلۡأَعۡنَاقِ ۝ 32
0
وَلَقَدۡ فَتَنَّا سُلَيۡمَٰنَ وَأَلۡقَيۡنَا عَلَىٰ كُرۡسِيِّهِۦ جَسَدٗا ثُمَّ أَنَابَ ۝ 33
(34) और (देखो कि) सुलैमान को भी हमने आज़माइश में डाला और उसकी कुर्सी पर एक धड़ लाकर डाल दिया। फिर उसने रुजूअ किया
قَالَ رَبِّ ٱغۡفِرۡ لِي وَهَبۡ لِي مُلۡكٗا لَّا يَنۢبَغِي لِأَحَدٖ مِّنۢ بَعۡدِيٓۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡوَهَّابُ ۝ 34
(35) और कहा कि "ऐ मेरे रब! मुझे क्षमा कर दे और मुझे वह बादशाही दे जो मेरे बाद किसी के लिए शोभनीय न हो। निस्सन्देह तू ही असल दाता है।''36
36. वार्ता क्रम की दृष्टि से इस जगह असल मक़सद इसी घटना का उल्लेख करना है और पिछली आयतें भूमिका के रूप में इसी के लिए आई हैं। हज़रत दाऊद (अलैहि०) [की घटना की तरह, जो पहले गुज़र चुकी है] यहाँ भी वार्ता-क्रम यह है कि पहले हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के बुलन्द मरतबे और बन्दगी की शान का उल्लेख किया गया है, फिर बताया गया है कि उनको भी आज़माइश में डाला गया। फिर उनकी बन्दगी की यह शान दिखाई गई है कि जब उनकी कुर्सी पर एक धड़ लाकर डाल दिया गया, तो वह तुरन्त ही अपनी ग़लती पर सावधान हो गए और अपने रब से क्षमा माँगकर उन्होंने अपनी उस बात से रुजूअ कर लिया, जिसकी वजह से वे फ़ितने में पड़े थे। दूसरे शब्दों में, अल्लाह इन दोनों क़िस्सों से एक ही समय में दो बातें मन में बिठा देना चाहता है- एक यह कि उसके बेलाग मुहासबे (हिसाब-किताब और पकड़) से [हज़रत दाऊद और हज़रत सुलैमान (अलैहि०) जैसे ऊँचे दर्जे के नबी और प्रिय बन्दे] तक नहीं बच सके हैं, तो दूसरों की क्या हैसियत। दूसरे यह कि बन्दे के लिए सही रवैया यह है कि जिस समय भी उसे अपनी ग़लती का एहसास हो जाए, उसी समय वह विनम्रतापूर्वक अपने रब के आगे झुक जाए। इसी रवैये का नतीजा यह है कि अल्लाह ने उन बुजर्गों की ग़लतियों को केवल क्षमा ही नहीं किया, बल्कि उनपर और अधिक कृपाएँ की। यहाँ फिर यह सवाल पैदा होता है कि वह फ़ितना क्या था जिसमें हज़रत सुलैमान (अलैहि०) पड़ गए थे? और उनकी कुर्सी पर एक धड़ लाकर डाल देने का क्या अर्थ है? और इस धड़ का लाकर डाला जाना उनके लिए किस प्रकार की चेतावनी थी, जिसपर उन्होंने तौबा की? इसके जवाब में टीकाकारों ने [अलग- अलग बातें कही हैं, लेकिन वे या तो ऐसी हैं जिनका कुरआन के शब्द साथ नहीं देते या वे खुले तौर पर बुद्धि के विरुद्ध हैं। वास्तविकता तो यह है कि वह जगह क़ुरआन मजीद की सबसे मुश्किल जगहों में से है और निश्चित रूप से इसकी कोई व्याख्या करने के लिए हमें कोई निश्चित आधार नहीं मिलता। लेकिन हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की दुआ के ये शब्द कि "ऐ मेरे रब ! मुझे क्षमा कर दे और मुझको ऐसी बादशाही दे जो मेरे बाद किसी के लिए न हो।" अगर बनी इसराईल के इतिहास की रौशनी में पढ़े जाएँ जो प्रत्यक्ष में यूँ महसूस होता है कि उनके दिल में शायद यह कामना थी कि उनके बाद उनका बेटा उत्तराधिकारी हो और राज्य और शासन-सत्ता आगे उन्हीं की नस्ल में बाक़ी रहे। इसी चीज़ को अल्लाह ने उनके लिए 'फ़ितना' क़रार दिया और इसपर वे उस समय सचेत हुए जब उनका उत्तराधिकारी रजुआम एक ऐसा अयोग्य नवजवान बनकर उठा, जिसके लक्षण स्पष्ट रूप से बता रहे थे कि वह दाऊद व सुलैमान (अलैहि०) के शासन को चार दिन भी न सँभाल सकेगा। उनकी कुर्सी पर एक धड़ लाकर डाले जाने का अर्थ शायद यही है कि जिस बेटे को वे अपनी कुर्सी पर बिठाना चाहते थे, वह एक अनगढ़ व्यक्ति था। तब उन्होंने अपनी इस कामना से रुजूअ किया और अल्लाह से क्षमा माँगकर प्रार्थना की कि बस यह बादशाही मुझी पर समाप्त हो जाए। मैं अपने बाद अपनी नस्ल में बादशाही जारी रहने की कामना से बाज़ आया। बनी इस्राईल के इतिहास से भी यही मालूम होता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने अपने बाद किसी के लिए भी उत्तराधिकारी की वसीयत नहीं की थी।
فَسَخَّرۡنَا لَهُ ٱلرِّيحَ تَجۡرِي بِأَمۡرِهِۦ رُخَآءً حَيۡثُ أَصَابَ ۝ 35
(36) तब हमने उसके लिए हवा को वशीभूत कर दिया, जो उसके हुक्म से नर्मी के साथ चलती थी जिधर वह चाहता था,37
37. इसकी व्याख्या सूरा-21 अल-अंबिया की टीका में गुज़र चुकी है (देखिए टिप्पणी 74), अलबत्ता यहाँ एक बात स्पष्ट करनी ज़रूरी है। सूरा-21 अल-अंबिया में जहाँ हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लिए हवा को वशीभूत करने का उल्लेख किया गया है वहाँ अरी-ह आसिफ़तन' (तेज़ हवा) के शब्द प्रयुक्त हुए हैं और यहाँ इसी हवा के बारे में फ़रमाया गया है कि "वह उसके आदेश से नर्मी के साथ चलती थी।" इसका अर्थ यह है कि वह हवा अपने आप में तो तेज़ हवा थी, जैसा कि हवा के सहारे चलनेवाली नावों के चलाने के लिए चाहिए होती है, मगर हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लिए वह इस अर्थ में नर्म बना दी गई थी कि जिधर उनके व्यापारिक बेड़ों को सफ़र करने की ज़रूरत होती थी, उसी ओर वह चलती थी।
وَٱلشَّيَٰطِينَ كُلَّ بَنَّآءٖ وَغَوَّاصٖ ۝ 36
(37) और शैतानों को वशीभूत कर दिया, हर तरह के मेमार (निर्माता) और गोताखोर
وَءَاخَرِينَ مُقَرَّنِينَ فِي ٱلۡأَصۡفَادِ ۝ 37
(38) और दूसरे जो जंजीरों में जकड़े हुए थे।38
38. व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-21 अल-अंबिया, टिप्पणी 75; सूरा-27 अन-नम्ल, टिप्पणी 23, 28, 45 1 शैतानों से तात्पर्य जिन हैं, और 'जंजीरों से बंधे शैतानों' से तात्पर्य वे सेवा करनेवाले शैतान हैं, जिन्हें शरारत की सज़ा में कैद कर दिया जाता था, जिससे वे भागने और शरारत करने में असमर्थ रहते थे।
هَٰذَا عَطَآؤُنَا فَٱمۡنُنۡ أَوۡ أَمۡسِكۡ بِغَيۡرِ حِسَابٖ ۝ 38
(39) (हमने उससे कहा,) "यह हमारी बख़िशश है, तुझे अधिकार है, जिसे चाहे दे और जिससे चाहे रोक ले, कोई हिसाब नहीं।"39
39. इस आयत के तीन अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि यह हमारा अपार अनुग्रह (बख्श़‍िश) है, तुम्हें अधिकार है कि जिसे चाहे दो, जिसे चाहे न दो। दूसरे यह कि यह हमारा अनुग्रह है, जिसे चाहे दो और जिसे चाहे न दो। देने या न देने पर कोई पूछगछ न होगी। एक और अर्थ कुछ टीकाकारों ने यह भी बताया है कि ये शैतान पूरी तरह तुम्हारे कब्जे में दे दिए गए हैं, इनमें से जिसे चाहो रिहा कर दो और जिसे चाहो, रोक रखो, इस पर तुम्हारी कोई पकड़ न होगी।
وَإِنَّ لَهُۥ عِندَنَا لَزُلۡفَىٰ وَحُسۡنَ مَـَٔابٖ ۝ 39
(40) निश्चय ही उसके लिए हमारे यहाँ सामीप्य-स्थान और अच्छा परिणाम है।40
40. इस उल्लेख का मूल उद्देश्य यह बताना है कि अल्लाह को बन्दे की अकड़ जितनी अप्रिय है, उसकी विनम्रता की अदा उतनी ही प्रिय है। [इस विनम्रता के नतीजे में] इसपर वे कृपाएँ की जाती हैं जो दाऊद और सुलैमान (अलैहि०) पर की गईं। हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने क्षमा-याचना (इस्तिग़फ़ार) के बाद जो दुआ की थी, अल्लाह ने उसे शब्दश: पूरा किया और उनको वास्तव में ऐसी बादशाही दी जो न उनसे पहले किसी को मिली थी और न उनके बाद आज तक किसी को दी गई। हवाओं पर अधिकार और जिन्नों पर शासन एक ऐसी असाधारण शक्ति है जो मानव-इतिहास में सिर्फ़ हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ही को दी गई है, कोई दूसरा उसमें उनका शरीक नहीं है।
وَٱذۡكُرۡ عَبۡدَنَآ أَيُّوبَ إِذۡ نَادَىٰ رَبَّهُۥٓ أَنِّي مَسَّنِيَ ٱلشَّيۡطَٰنُ بِنُصۡبٖ وَعَذَابٍ ۝ 40
(41) और हमारे बन्दे अय्यूब का उल्लेख करो,41 जब उसने अपने रब को पुकारा कि शैतान मुझे सख्त तकलीफ़ और यातना में डाल दिया है।42
41. यह चौथी जगह है जहाँ हज़रत अय्यूब (अलैहि०) का उल्लेख कुरआन मजीद में आया है। उनके हालात का सविस्तार विवरण [जानने के लिए देखिए सूरा-21 अल-अंबिया, टिप्पणी 76 से 79]
42. इसका यह अर्थ नहीं है कि शैतान ने मुझे बीमारी में डाल दिया है और मेरे ऊपर मुसीबतें डाल दी गई हैं, बल्कि इसका सही अर्थ यह है कि बीमारी की तेज़ी, माल व दौलत की बर्बादी और रिश्ते-नातेदारों के मुँह मोड़ लेने से मैं जिस कष्ट और यातना में फँसा हूँ उससे बढ़कर कष्ट और यातना मेरे लिए यह है कि शैतान अपने वस्वसों से मुझे तंग कर रहा है, वह इन परिस्थितियों में मुझे अपने रब से निराश करने की कोशिश करता है, मुझे अपने रब का नाशुक्रा बनाना चाहता है और इस बात पर उतारू है कि मैं धैर्य का दामन हाथ से छोड़ बैठूँ। हज़रत अय्यूब (अलैहि०) की फ़रियाद का यह अर्थ हमारे नज़दीक दो कारणों से प्राथमिकता देने योग्य है। एक यह कि कुरआन मजीद के अनुसार अल्लाह ने शैतान को केवल वस्वसा डालने ही की ताक़त दी है, [न कि किसी को बीमार डाल देने की या शारीरिक पीड़ाएँ पहुँचाने की]। दूसरी यह कि सूरा-21 अल-अंबिया में जहाँ हज़रत अय्यूब (अलैहि०) अपनी बीमारी की शिकायत अल्लाह के सामने पेश करते हैं, वहाँ शैतान का कोई उल्लेख नहीं करते, बल्कि केवल यह कहते हैं कि "मुझे बीमारी लग गई है और तू सबसे बढ़कर दयावान है।"
ٱرۡكُضۡ بِرِجۡلِكَۖ هَٰذَا مُغۡتَسَلُۢ بَارِدٞ وَشَرَابٞ ۝ 41
(42) (हमने उसे आदेश दिया) अपना पाँव ज़मीन पर मार, यह है ठंडा पानी नहाने के लिए और पीने के लिए43
43. अर्थात् अल्लाह के आदेश से धरती पर पाँव मारते ही एक स्रोत निकल आया, जिसका पानी पीना और उसमें नहाना हजरत अय्यूब (अलैहि०) के रोग का इलाज था। गुमान यह है कि हजरत अय्यूब (अलैहि०) किसी सख्त चर्म रोग में ग्रस्त थे। बाइबिल का बयान भी यही है कि सर से पाँव तक उनका सारा शरीर फोड़ों से भर गया था।
وَوَهَبۡنَا لَهُۥٓ أَهۡلَهُۥ وَمِثۡلَهُم مَّعَهُمۡ رَحۡمَةٗ مِّنَّا وَذِكۡرَىٰ لِأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 42
(43) हमने उसे उसके अहलो-अयाल (परिजन) वापस दिए और उनके साथ उतने ही और44 अपनी ओर से रहमत के तौर पर, और सूझ बूझ रखनेवालों के लिए शिक्षा के रूप में।45
44. रिवायतों से मालूम होता है कि इस बीमारी में हज़रत अय्यूब (अलैहि०) की बीवी के सिवा और सब ने उनका साथ छोड़ दिया था, यहाँ तक कि औलाद तक उनसे मुँह मोड़ गई थी। इसी चीज़ की और अल्लाह संकेत कर रहा है कि जब हमने उनको स्वास्थ्य प्रदान किया तो सारा परिवार उनके पास पलट आया और फिर हमने उनको और अधिक सन्तान प्रदान की।
45. अर्थात् इसमें एक बुद्धिमान व्यक्ति के लिए यह शिक्षा है कि ईसान को न तो अच्छे हालात में अल्लाह को भूलकर सरकश बनना चाहिए और न ही बुरे हालात में उससे निराश होना चाहिए।
وَخُذۡ بِيَدِكَ ضِغۡثٗا فَٱضۡرِب بِّهِۦ وَلَا تَحۡنَثۡۗ إِنَّا وَجَدۡنَٰهُ صَابِرٗاۚ نِّعۡمَ ٱلۡعَبۡدُ إِنَّهُۥٓ أَوَّابٞ ۝ 43
(44) (और हमने उससे कहा) तिनकों का एक मुट्ठा ले और उससे मार दे, अपनी क़सम न तोड़।46 हमने उसे सब्र करनेवाला पाया, बेहतरीन बन्दा, अपने रब की और बहुत रुजूअ करनेवाला।47
46. इन शब्दों पर विचार करने से यह बात स्पष्ट होती है कि हज़रत अय्यूब (अलैहि०) ने बीमारी की हालत में नाराज़ होकर किसी को मारने की कसम खा ली थी। (रिवायतें यह बताती हैं कि बीवी को मारने की क़सम खाई थी) और इस कसम ही में उन्होंने यह भी कहा था कि तुझे इतने कोड़े मारूंगा। जब अल्लाह ने उनको स्वास्थ्य प्रदान कर दिया और रोगावस्था का वह गुस्सा दूर हो गया, जिसमें यह क़सम खाई गई थी, तो उनकी यह परेशानी हुई कि कसम पूरी करता हूँ तो खामखाह एक बे-गुनाह को मारना पड़ेगा और कसम तोड़ता हूँ तो यह भी एक गुनाह करना है। इस मुश्किल से अल्लाह ने उनको इस तरह निकाला कि उन्हें हुक्म दिया गया कि एक झाड लो, जिसमें उतने ही तिनके हों जितने कोड़े तुमने मारने की क़सम खाई थी और उस झाड़ से उस व्यक्ति को बस एक चोट लगा दो, ताकि तुम्हारी कसम भी पूरी हो जाए और उसे अनुचित कष्ट भी न पहुँचे। कुछ फ़क़ीह (धर्मशास्त्री) इस रियायत को हज़रत अय्यूब (अलैहि०) के लिए खास समझते हैं और कुछ धर्मशास्त्रियों के नज़दीक दूसरे लोग भी इस रियायत से लाभ उठा सकते हैं। कुछ लोगों ने क़ुरआन की इस आयत को शरई उपाय के लिए प्रमाण बताया है। इसमें सन्देह नहीं कि वह एक उपाय ही था, जो हज़रत अय्यूब (अलैहि०) को बताया गया था, लेकिन वह किसी कर्तव्य से बचने के लिए नहीं, बल्कि एक बुराई से बचने के लिए बताया गया। इसलिए शरीअत में केवल वही उपाय वैध हैं जो आदमी को अपने आपसे या किसी दूसरे व्यक्ति से ज़ुल्म और गुनाह और बुराई को दूर करने के लिए अपनाए जाएँ।
47. हज़रत अय्यूब (अलैहि०) का उल्लेख इस सन्दर्भ में यह बताने के लिए किया गया है कि अल्लाह के जैक बन्दै जब मुसीबतों और परेशानियों में गिरातार होते हैं तो अपने रब से शिकवा शिकायत नहीं करते, बल्कि सब के साथ उसकी डाली हुई आजमाइशी को बादाश्त करते हैं, उसी से मदद मांगते हैं और उसी की रहमत के उम्मीदवार बने रहते हैं। इसी लिए वे उन मेहरबानियों और कृयाओं के अधिकारी होते हैं, जिनकी मिसाल हजरत अय्यूब (अलैहि०) की जिंदगी में मिलती है। यहाँ तक कि अगर वे कभी बेचैन होकर किसी नैतिक झमेले में फंस भी जाते हैं, तो अल्लाह उनमें बुराई से बचाने के लिए एक राह निकाल देता है, जिस तरह उसने हज़रत अय्यूब (अलैहि०) के लिए निकाल दी।
وَٱذۡكُرۡ عِبَٰدَنَآ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ أُوْلِي ٱلۡأَيۡدِي وَٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 44
(45) और हमारे बन्दो, इबराहीम और इसहाक और याक़ूब का ज़िक्र करी। बड़ी कार्य शक्ति रखनेवाले और दूर दृष्टिवाले लोग थे।48
48. मूल अरबी शब्द है, 'उलिल ऐदी बल अबसर' यानी 'हार्थोंवाले और निगाहाँवाले।' हाथ से तात्पर्य शक्ति और सामर्थ्य है और इन नबियों को शक्ति और सामर्थ्यवाला कहने का अर्थ यह है कि ये अत्यन्त व्यवहार कुशल और सुकर्मी लोग थे, अल्लाह का आज्ञापालन करने और बुराइयों से बचने की भरपूर शक्ति रखते थे और दुनिया में अल्लाह का कलिमा बुलन्द करने के लिए उन्होंने बड़ी कोशिशें की थीं। निगाह से तात्पर्य आँखों का देखना नहीं, बल्कि दिल का देखना है। वे सत्य देखनेवाले और सत्य पहचाननेवाले लोग थे, दुनिया में अँधों की तरह नहीं चलते थे, बल्कि आँखें खोलकर ज्ञान और परख की पूरी रोशनी में हिदायत का सीधा रास्ता देखते हुए चलते थे। इन शब्दों में एक सूक्ष्म संकेत इस और भी है कि जो लोग दुष्कर्मी और पथभ्रष्ट हैं, वे वास्तव में हाथों और आँखों, दोनों से वंचित हैं। हायवाला वास्तव में वही है जो अल्लाह की राह में काम करे और आँखोवाला वास्तव में वही है जी सत्य की रोशनी और असत्य के अंधकार में अन्तर करे।
إِنَّآ أَخۡلَصۡنَٰهُم بِخَالِصَةٖ ذِكۡرَى ٱلدَّارِ ۝ 45
(46) हमने उनको एक विशुद्ध गुण के आधार पर चुन लिया था, और वह आख़िरत के घर की याद थी।49
49. अर्थात् उनकी तमाम श्रेष्ठताओं का मूल कारण यह था कि उनके भीतर दुनियातलबी और दुनियापरस्ती का अंश तक न था, उनकी सारी चिन्ता और कोशिश आख़िरत के लिए थी। यहाँ अल्लाह ने आख़िरत के लिए सिर्फ अद-दार (वह था या अल घर) का शब्द प्रयुक्त किया है। इससे यह सच्चाई मन में बिठानी है कि यह दुनिया मि में ईसान का घर है ही नहीं, बल्कि यह सिर्फ़ एक गुजरगाह है, एक मुसाफ़िरखाना है, जिस आदमी को बहरहाल विदा हो जाना है। अस्ल घर वही आखिरत का घर है। जो आदमी उसको पारने की चिन्ता करता है, वही समझदार और विवेकशील है और अल्लाह के नजदीक जरूर ही उसी को पसंदीदा इंसान होना चाहिए। रहा वह आदमी जो इस मुसाफिरखाने में अपने कुछ दिनों के आवास को सजाने के लिए वे हरकतें करता है, जिनसे आख़िरत का अस्ल घर उसके लिए उजड़ जाए, वह अक्ल का अंधा है, और स्वाभाविक बात है कि ऐसा आदमी अल्लाह को पसन्द नहीं आ सकता।
وَإِنَّهُمۡ عِندَنَا لَمِنَ ٱلۡمُصۡطَفَيۡنَ ٱلۡأَخۡيَارِ ۝ 46
(47) निश्चय ही हमारे यहाँ उनकी गणना चुने हुए नेक लोगों में है। हुए नेक लोगों में है।
وَٱذۡكُرۡ إِسۡمَٰعِيلَ وَٱلۡيَسَعَ وَذَا ٱلۡكِفۡلِۖ وَكُلّٞ مِّنَ ٱلۡأَخۡيَارِ ۝ 47
(48) और इस्माईल और अल-यसअ50 और ज़ुल-किफ़्ल51 का उल्लेख करो, ये सब नेक लोगों में से थे।
50. क़ुरआन मजीद में इनका उल्लेख केवल दो स्थानों पर आया है, एक सूरा-6 अनआम, आयत 86 में, दूसरे इस जगह। और दोनों जगहों पर कोई विस्तृत विवरण नहीं है, बल्कि सिर्फ नबियों के सिलसिले में उनका नाम लिया गया है। वे बनी इस्राईल के बुजुर्ग नबियों में से थे। जोर्डन (उर्दुन) नदी के किनारे एक जगह अबेल मेहोलह (Abel Meholah) के रहनेवाले थे। यहूदी और ईसाई उनको इलयिशअ (Elisha) के नाम से याद करते हैं। हज़रत इलियास (अलैहि०) जिस ज़माने में सीना प्रायद्वीप में शरण लिए हुए थे, उनको कुछ महत्त्वपूर्ण कामों के लिए शाम (सीरिया) व फ़िलिस्तीन की ओर वापस जाने का आदेश दिया गया, जिनमें से एक काम यह था कि हज़रत अल-यसअ (अलैहि०) को अपनी जानशीनी (उत्तराधिकार) के लिए तैयार करें। इस आदेश के अनुसार हज़रत इलियास (अलैहि०) इनकी बस्ती पर पहुंचे तो देखा कि ये बारह जोड़ी बैल आगे लिए जमीन जोत रहे हैं और स्वयं बाहरवीं जोड़ी के साथ हैं। उन्होंने इनके पास से गुज़रते हुए इनपर अपनी चादर डाल दी और ये खेती-बाड़ी छोड़कर साथ हो लिए। (राजा, अध्याय 19, वाक्य 15-21)। लगभग दस-बारह साल ये उनके प्रशिक्षण में रहे। फिर जब अल्लाह ने उनको उठा लिया, तो यह उनकी जगह नियुक्त हुए। (2-राजा, अध्याय 2) बाइबिल की किताब 2 राजा में अध्याय 2 से 13 तक उनका उल्लेख विस्तारपूर्वक मिलता है जिससे मालूम होता है कि उत्तरी फ़िलिस्तीन का इसराईली राज्य जब शिर्क और बुतपरस्ती और नैतिक गन्दगियों में डूबता ही चला गया तो अन्तत: उन्होंने याहू बिन यह सफ़्त बिन नम्सी को उस राजसी परिवार के विरुद्ध खड़ा किया, जिसकी करतूतों से इसराईल में ये बुराइयाँ फैली थीं और उसने न सिर्फ बअल (देवता) की पूजा को समाप्त किया, बल्कि उस दुष्चरित्र परिवार के बच्चे-बच्चे को क़त्ल कर दिया। लेकिन इस सुधारात्मक क्रान्ति से भी वे बुराइयाँ पूरी तरह न मिट सकी जो इसराईल की नस-नस में उतर चुकी थीं और हज़रत अल-यसअ (अलैहि०) की मृत्यु के बाद तो उन्होंने तूफ़ानी रूप धारण कर लिया, यहाँ तक कि सामरिया पर अशूरियों के एक के बाद एक हमले 37 साफ़्कात, टिप्पणी 70-71) शुरू हो गए। (और अधिक विस्तार के लिए देखिए तफ्सीर सूरा-17 बनी इसराईल, टिप्पणी 7 और सूरा-37 साफ़्फ़ात, टिप्‍पणी 70-71)
51. हज़रत जुल किफ़्ल (अलैहि०) का उल्लेख भी क़ुरआन मजीद में दो ही जगह आया है। एक सूरा-21 अंबिया, दूसरी यह जगह। इनके बारे में हम अपनी मालूमात और तहक़ीक़ सूरा-21 अंबिया में बयान कर चुके हैं। (देखिए टिप्पणी 81)
هَٰذَا ذِكۡرٞۚ وَإِنَّ لِلۡمُتَّقِينَ لَحُسۡنَ مَـَٔابٖ ۝ 48
(49) यह एक ज़िक्र था। (अब सुनो कि) परहेजगार लोगों के लिए निश्चय ही बेहतरीन ठिकाना है,
جَنَّٰتِ عَدۡنٖ مُّفَتَّحَةٗ لَّهُمُ ٱلۡأَبۡوَٰبُ ۝ 49
(50) सदा रहनेवाली जन्नतें, जिनके दरवाज़े उनके लिए खुले होंगे,52
52. मूल अरबी शब्द हैं 'मुफत्तहतल लहुमुल अबवाब'। इसके कई अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि इन जन्नतों में वे बे-रोक-टोक फिरेंगे, कहीं उनके लिए कोई रुकावट न होगी। दूसरे यह कि जन्नत के दरवाजे खोलने के लिए किसी कोशिश की ज़रूरत न होगी, बल्कि वे केवल उनके चाहने पर अपने आप खुल जाएंगे। तीसरे यह कि जन्नत के प्रबन्ध के लिए जो फ़रिश्ते नियुक्त होंगे, वे जन्नतवालों को देखते ही उनके लिए दरवाजे खोल देंगे। यह तीसरा विषय कुरआन मजीद में एक और जगह पर अधिक स्पष्ट शब्दों में बयान किया गया है- “यहाँ तक कि जब वे वहाँ पहुँचेंगे और उसके दरवाज़े पहले ही खोले जा चुके होंगे तो जन्नत के प्रबन्धक उनसे कहेंगे कि 'सलामुन अलैकुम' (तुमपर सलामती हो) स्वागतम, हमेशा के लिए इसमें दाखिल हो जाइए।" (सूरा-39 अज-जुमर, आयत 73)
مُتَّكِـِٔينَ فِيهَا يَدۡعُونَ فِيهَا بِفَٰكِهَةٖ كَثِيرَةٖ وَشَرَابٖ ۝ 50
(51) उनमें वे तकिए लगाए बैठे होंगे, ख़ूब-ख़ूब फल और पेय तलब कर रहे होंगे,
۞وَعِندَهُمۡ قَٰصِرَٰتُ ٱلطَّرۡفِ أَتۡرَابٌ ۝ 51
(52) और उनके पास शर्मीली हमसिन बीवियाँ53 होंगी।
53. 'हमसिन बीवियों' का अर्थ यह भी हो सकता है कि वे आपस में हमसिन (एक उम्र की) होंगी और यह भी कि वे अपने शौहरों की हमसिन होंगी।
هَٰذَا مَا تُوعَدُونَ لِيَوۡمِ ٱلۡحِسَابِ ۝ 52
(53) ये वे चीजें हैं जिन्हें हिसाब के दिन अता किए जाने का तुमसे वादा किया जा रहा है।
إِنَّ هَٰذَا لَرِزۡقُنَا مَا لَهُۥ مِن نَّفَادٍ ۝ 53
(54) यह हमारा दिया हुआ है जो कभी ख़त्म होनेवाला नहीं।
هَٰذَاۚ وَإِنَّ لِلطَّٰغِينَ لَشَرَّ مَـَٔابٖ ۝ 54
(55-56) यह तो है परहेज़गारों का अंजाम, और सरकशों के लिए सबसे बुरा ठिकाना है जहन्नम, जिसमें वे झुलसे जाएँगे, बहुत ही बुरी ठहरने की जगह।
جَهَنَّمَ يَصۡلَوۡنَهَا فَبِئۡسَ ٱلۡمِهَادُ ۝ 55
0
هَٰذَا فَلۡيَذُوقُوهُ حَمِيمٞ وَغَسَّاقٞ ۝ 56
(57-58) यह है उनके लिए। अत: वे मज़ा चखें खौलते हुए पानी और पीप54, लहू और इसी प्रकार की दूसरी कडुवाहटों का।
وَءَاخَرُ مِن شَكۡلِهِۦٓ أَزۡوَٰجٌ ۝ 57
0
هَٰذَا فَوۡجٞ مُّقۡتَحِمٞ مَّعَكُمۡ لَا مَرۡحَبَۢا بِهِمۡۚ إِنَّهُمۡ صَالُواْ ٱلنَّارِ ۝ 58
(59-60) (वे जहन्नम की ओर अपनी पैरवी करनेवालों को आते देखकर आपस में कहेंगे,) "यह एक फ़ौज तुम्हारे पास घुसी चली आ रही है, कोई स्वागत इनके लिए नहीं है। ये आग में झुलसनेवाले हैं।" वे उनको जवाब देंगे, "नहीं, बल्कि तुम ही झुलसे जा रहे हो, कोई स्वागत तुम्हारे लिए नहीं। तुम ही तो यह अंजाम हमारे सामने लाए हो। कैसी बुरी है यह ठहरने की जगह।"
قَالُواْ بَلۡ أَنتُمۡ لَا مَرۡحَبَۢا بِكُمۡۖ أَنتُمۡ قَدَّمۡتُمُوهُ لَنَاۖ فَبِئۡسَ ٱلۡقَرَارُ ۝ 59
0
قَالُواْ رَبَّنَا مَن قَدَّمَ لَنَا هَٰذَا فَزِدۡهُ عَذَابٗا ضِعۡفٗا فِي ٱلنَّارِ ۝ 60
(61) फिर वे कहेंगे, “ऐ हमारे रब! जिसने हमें इस अंजाम को पहुँचाने का प्रबन्ध किया उसको दोज़ख़ का दोहरा अज़ाब दे।"
وَقَالُواْ مَا لَنَا لَا نَرَىٰ رِجَالٗا كُنَّا نَعُدُّهُم مِّنَ ٱلۡأَشۡرَارِ ۝ 61
(62) और वे आपस में कहेंगे, "क्या बात है, हम उन लोगों को कहीं नहीं देखते, जिन्हें हम दुनिया में बुरा समझते थे?55
55. तात्पर्य हैं ईमानवाले, जिनको ये इस्लाम विरोधी दुनिया में बुरा समझते थे। अर्थ यह है कि वे हैरान हो-होकर हर ओर देखेंगे कि इस जहन्नम में हम और हमारे पेशवा तो मौजूद हैं, मगर उन लोगों का यहाँ कहीं पता-निशान तक नहीं है, जिनकी हम दुनिया में बुराइयाँ करते थे और अल्लाह, रसूल और आख़िरत की बातें करने पर जिनका मज़ाक़ हमारी सभाओं में उड़ाया जाता था।
أَتَّخَذۡنَٰهُمۡ سِخۡرِيًّا أَمۡ زَاغَتۡ عَنۡهُمُ ٱلۡأَبۡصَٰرُ ۝ 62
(63) हमने यूँ ही उनका मज़ाक़ बना लिया था, या वे कहीं नज़रों से ओझल हैं?"
إِنَّ ذَٰلِكَ لَحَقّٞ تَخَاصُمُ أَهۡلِ ٱلنَّارِ ۝ 63
(64) निस्सन्देह यह बात सच्ची है, दोज़ख़वालों में यही कुछ झगड़े होनेवाले हैं।
قُلۡ إِنَّمَآ أَنَا۠ مُنذِرٞۖ وَمَا مِنۡ إِلَٰهٍ إِلَّا ٱللَّهُ ٱلۡوَٰحِدُ ٱلۡقَهَّارُ ۝ 64
(65) (ऐ नबी !56) उनसे कहो, "मैं तो बस ख़बरदार करनेवाला हूँ।57 कोई वास्तविक उपास्य नहीं, मगर अल्लाह, जो यकता है, सब पर ग़ालिब,
56. अब वार्ता उसी विषय की ओर मुड़ रही है जिससे उसका आरंभ हुआ था। इस अंश को पढ़ते हुए पहले रुकूअ (यानी आयतें 1 से 14 तक) से मुक़ाबला करते जाइए, ताकि बात पूरी तरह समझ में आ सके।
57. आयत नं0 4 में कहा गया था कि ये लोग इस बात पर बड़ा आश्चर्य प्रकट कर रहे हैं कि एक ख़बरदार करनेवाला स्वयं उनके बीच से उठ खड़ा हुआ है। यहाँ कहा जा रहा है कि इनसे कहो, मेरा काम बस तुम्हें ख़बरदार कर देना है, अर्थात् मैं कोई फ़ौजदार नहीं हूँ कि ज़बरदस्ती तुम्हें ग़लत रास्ते से हटाकर सीधे रास्ते की ओर खींचूँ। मेरे समझाने से अगर तुम न मानोगे तो अपना ही नुक़सान करोगे। बेख़बर ही रहना अगर तुम्हें पसन्द है तो अपनी ग़फ़लत में मस्त पड़े रहो, अपना अंजाम स्वयं देख लोगे।
رَبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَا ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡغَفَّٰرُ ۝ 65
(66) आसमानों और ज़मीन का मालिक और उन सारी चीजों का मालिक जो उनके बीच हैं, ज़बरदस्त और क्षमा करनेवाला।"
قُلۡ هُوَ نَبَؤٌاْ عَظِيمٌ ۝ 66
(67-68) इनसे कहो, “यह एक बड़ी ख़बर है जिसको सुनकर तुम मुँह फेरते हो।''58
58. यह उत्तर है इस्लाम विरोधियों की उस बात का जो आयत 5 में गुज़र चुकी है कि "क्या इस आदमी ने सारे ख़ुदाओं की जगह बस एक ख़ुदा बना डाला? यह तो बड़ी विचित्र बात है।" इस पर कहा जा रहा है कि तुम चाहे कितनी ही नाक-भौं चढ़ाओ, मगर यह है एक सच्चाई, जिसकी खबर मैं तुम्हें दे रहा हूँ और तुम्हारे नाक-भौं चढ़ाने से यह वास्तविकता बदल नहीं सकती। इस उत्तर में केवल वास्तविकता का बयान ही नहीं है, बल्कि इसके सही होने का प्रमाण भी इसमें मौजूद है। मुशरिक कहते थे कि उपास्य बहुत से हैं, जिनमें से एक अल्लाह भी है, तुमने सारे उपास्यों को समाप्त करके बस एक उपास्य कैसे बना डाला? इसके उत्तर में कहा गया कि वास्तविक उपास्य केवल एक अल्लाह ही है, क्योंकि वह सबपर ग़ालिब है, ज़मीन और आसमान का मालिक है और सृष्टि की हर चीज़ उसकी मिल्कियत है। उसके अलावा इस सृष्टि में जिन हस्तियों को तुमने उपास्य बना रखा है, उनमें से कोई हस्ती भी ऐसी नहीं है जो उसके आधिपत्य और उसकी मिल्कियत में न हो। ये हस्तियाँ जो ख़ुद अधीन और मिल्कियत में हैं, उस ग़ालिब और मालिक के साथ खुदाई में शरीक कैसे हो सकती हैं और आख़िर किस अधिकार के आधार पर उन्हें उपास्य करार दिया जा सकता है?
أَنتُمۡ عَنۡهُ مُعۡرِضُونَ ۝ 67
0
مَا كَانَ لِيَ مِنۡ عِلۡمِۭ بِٱلۡمَلَإِ ٱلۡأَعۡلَىٰٓ إِذۡ يَخۡتَصِمُونَ ۝ 68
(69) (इनसे कहो) "मुझे उस समय की कोई ख़बर न थी जब सबसे ऊँचे दरवारवालों (मलए आला) में झगड़ा हो रहा था।
إِن يُوحَىٰٓ إِلَيَّ إِلَّآ أَنَّمَآ أَنَا۠ نَذِيرٞ مُّبِينٌ ۝ 69
(70) मुझको तो वह्य के ज़रिये से ये बातें सिर्फ़ इसलिए बताई जाती हैं कि मैं खुला-खुला ख़बरदार करनेवाला हूँ।"
إِذۡ قَالَ رَبُّكَ لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ إِنِّي خَٰلِقُۢ بَشَرٗا مِّن طِينٖ ۝ 70
(71) जब तेरे रब ने फ़रिश्तों से कहा,59 ‘’मैं मिट्टी से एक बशर (इंसान) बनानेवाला हूँ,60
59. यह उस झगड़े का विवरण है जिसकी ओर ऊपर की आयत में संकेत किया गया है और झगड़े से तात्पर्य शैतान का अल्लाह से झगड़ा है, जैसा कि आगे के बयान से स्पष्ट हो रहा है। इस सिलसिले में यह बात ध्यान में रहनी चाहिए कि 'मलए आला' से तात्पर्य फ़रिश्ते हैं और अल्लाह की शैतान से बातचीत आमने-सामने नहीं, बल्कि किसी फ़रिश्ते के वास्ते से हुई है। इसलिए किसी को यह भ्रम न होना चाहिए कि अल्लाह तआला' मलए-आला' में शामिल था। जो क़िस्सा यहाँ बयान किया जा रहा है, वह इससे पहले निम्नलिखित जगहों पर गुज़र चुका है। सूरा-2 बकरा, आयत 30-39; सूरा-7 आराफ़, आयत 11-24; सूरा-15 हिज्र, आयत 28-43; सूरा-17 बनी इस्राईल, आयत 61-65; सूरा-18 कहफ़, आयत 50; सूरा-20 ता-हा, आयत 115-124
60. 'बशर' का शाब्दिक अर्थ है 'स्थूल शरीर' जिसका ऊपरी भाग किसी दूसरी चीज़ से ढका हुआ न हो। इंसान की पैदाइश के बाद तो यह शब्द इंसान ही के लिए प्रयुक्त होने लगा है, लेकिन पैदाइश से पहले इसका उल्लेख शब्द बशर से करने और उसको मिट्टी से बनाने का स्पष्ट अर्थ यह है कि "मैं मिट्टी का एक पुतला बनानेवाला हूँ, जिसके बाल व पर न होंगे, अर्थात् जिसकी खाल दूसरे प्राणियों की तरह ऊन या सूफ़ या बालों और परों से ढकी हुई न होगी।"
فَإِذَا سَوَّيۡتُهُۥ وَنَفَخۡتُ فِيهِ مِن رُّوحِي فَقَعُواْ لَهُۥ سَٰجِدِينَ ۝ 71
(72) फिर जब मैं उसे पूरी तरह बना दूं और उसमें अपनी रूह फूंक दूं,61 तो तुम उसके आगे सज्दे में गिर जाओ।"62
61. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-15 हिज्र, टिप्पणी 17-19; सूरा-32 सज्दा, टिप्पणी 16
فَسَجَدَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ كُلُّهُمۡ أَجۡمَعُونَ ۝ 72
(73) इस आदेश के अनुसार फ़रिश्ते सब के सब सज्दे में गिर गए.
إِلَّآ إِبۡلِيسَ ٱسۡتَكۡبَرَ وَكَانَ مِنَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 73
(74) मगर इबलीस ने अपनी बड़ाई का घमंड किया और वह इंकार करनेवाला में से हो गया।63
63. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 बक़रा, टिप्पणी 47; सूरा-18 कहफ़, टिप्पणी 48
قَالَ يَٰٓإِبۡلِيسُ مَا مَنَعَكَ أَن تَسۡجُدَ لِمَا خَلَقۡتُ بِيَدَيَّۖ أَسۡتَكۡبَرۡتَ أَمۡ كُنتَ مِنَ ٱلۡعَالِينَ ۝ 74
(75) रब ने फ़रमाया, "ऐ इबलीस! तुझे क्या चीज़ उसको सज्दा करने से रोक बनी, जिसे मैंने अपने दोनों हाथों से बनाया है।64 तू बड़ा बन रहा है या तू है ही कुछ ऊँचे दर्जे की हस्तियों में से।"
64. ये शब्द इंसानी संरचना की श्रेष्ठता पर प्रमाण के रूप में प्रयुक्त किए गए हैं। बादशाह का अपने सेवकों से कोई काम कराना यह अर्थ रखता है कि वह एक साधारण काम था जो सेवकों से करा लिया गया। इसके विपरीत बादशाह का किसी काम को अपने आप अंजाम देना इस बात का प्रमाण है कि वह एक श्रेष्ठ और उत्तम काम था। अत: अल्लाह के लिए इस कथन का अर्थ यह है कि जिसे मैंने स्वयं किसी माध्यम और वास्ते के बगैर बनाया है, उसके आगे झुकने से तुझे किस चीज़ ने रोका? 'दोनों हाथों के शब्द से शायद इस बात की ओर संकेत करना अभिप्रेत है कि इस नई मख़लूक़ (प्राणी) में अल्लाह की संरचना किस शान की और कितनी अद्भुत है, इसके दो महत्त्वपूर्ण पहलू पाए जाते हैं। एक यह कि इसे प्राणी का शरीर प्रदान किया गया, जिसके कारण वह प्राणियों की जाति में से एक जाति है। दूसरे यह कि इसके अन्दर वह रूह डाल दी गई जिसके कारण वह अपने गुणों और विशेषताओं में धरती की तमाम तमाम मख़लूक़ (सृष्टि) से सर्वश्रेष्ठ हो गया।
قَالَ أَنَا۠ خَيۡرٞ مِّنۡهُ خَلَقۡتَنِي مِن نَّارٖ وَخَلَقۡتَهُۥ مِن طِينٖ ۝ 75
(76) उसने उत्तर दिया, "मैं इससे बेहतर हूँ, आपने मुझको आग से पैदा किया है और इसको मिट्टी से।"
قَالَ فَٱخۡرُجۡ مِنۡهَا فَإِنَّكَ رَجِيمٞ ۝ 76
(77-78) फ़रमाया, “अच्छा, तू यहाँ से निकल जा,65 तू मरदूद है66 और तेरे ऊपर बदले के दिन तक मेरी फिटकार है।‘’67
65. अर्थात् उस जगह से जहाँ आदम की पैदाइश हुई और जहाँ आदम के आगे फरिश्तों को सदा करने का हुक्म हुआ और जहाँ इबलीस ने अल्लाह की अवज्ञा की।
66. मूल अरबी शब्द 'रजीम' प्रयुक्त हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है 'फेंका हुआ' या मारा हुआ'। और मुहावरे में यह शब्द उस व्यक्ति के लिए प्रयुक्त किया जाता है जिसे 'इज्ज़त के स्थान से गिरा दिया गया हो और रुसवा और बेइज्ज़त करके रख दिया गया हो। सूरा-7 आराफ में यही विषय इन शब्दों में अदा किया गया है, "तो तू निकल जा, तू रुसवा और बेइज्जत हस्तियों में से है।"
وَإِنَّ عَلَيۡكَ لَعۡنَتِيٓ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلدِّينِ ۝ 77
0
قَالَ رَبِّ فَأَنظِرۡنِيٓ إِلَىٰ يَوۡمِ يُبۡعَثُونَ ۝ 78
(79) वह बोला, "ऐ मेरे रब ! यह बात है तो फिर उस समय तक के लिए मुझे मोहलत दे दे, जब ये लोग दोबारा उठाए जाएँगे।"
قَالَ فَإِنَّكَ مِنَ ٱلۡمُنظَرِينَ ۝ 79
(80-81) फ़रमाया, "अच्छा, तुझे उस दिन तक की मोहलत है, जिसका समय मुझे मालूम है।"
إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡوَقۡتِ ٱلۡمَعۡلُومِ ۝ 80
0
قَالَ فَبِعِزَّتِكَ لَأُغۡوِيَنَّهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 81
(82) उसने कहा, "तेरी हरजत की कसम ! मैं इन सब लोगों को बहका कर रहूँगा,"
إِلَّا عِبَادَكَ مِنۡهُمُ ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 82
(83) अलावा तेरे उन बन्दों के जिन्हें तूने खास कर लिया है।’’68
68. इसका यह अर्थ नहीं है कि "मैं तेरे चुने हुए बन्दों को बहकाऊँगा नहीं", बल्कि इसका अर्थ यह है कि "तेरे चुने हुए बन्दों पर मेरा बस न चलेगा।"
قَالَ فَٱلۡحَقُّ وَٱلۡحَقَّ أَقُولُ ۝ 83
(84-85) फ़रमाया, "तो सत्य यह है, और मैं सत्य ही कहा करता हूँ कि मैं जहन्नम को तुझसे69 और उन सब लोगों से भर दूंगा जो इन इंसानों में से तेरा पालन करेंगे।’’70
69. 'तुझसे' का सम्बोधन सिर्फ़ 'इबलीस' ही से नहीं है, बल्कि शैतानों की पूरी जाति से है, अर्थात् इबलीस और उसके शैतानों का वह पूरा गिरोह जो उसके साथ मिलकर मानव जाति को गुमराह करने में लगा रहेगा।
70. यह पूरा क़िस्सा क़ुरैश के सरदारों के इस कथन के उत्तर में सुनाया गया है कि “क्या हमारे बीच बस यही एक आदमी रह गया था जिसपर ज़िक्र उतारा गया?" इसका एक उत्तर तो वह था जो आयत नं० 9 और 10 में दिया गया था। दूसरा उत्तर यह है और इसमें कुरैश के सरदारों को बताया गया है कि मुहम्मद (सल्ल०) के मुकाबले में तुम्हारा द्वेष (हसद) और अपनी बड़ाई का घमंड आदम (अलैहि०) के मुक़ाबले में इबलीस के द्वेष और घमंड से मिलता-जुलता है। इबलीस ने भी अल्लाह के इस अधिकार को मानने से इंकार किया था कि जिसे वह चाहे, अपना ख़लीफ़ा बनाए और तुम भी उसके उस अधिकार को मानने से इंकार कर रहे हो कि जिसे वह चाहे, अपना रसूल बनाए। उसने आदम के आगे झुकने का आदेश न माना और तुम मुहम्मद (सल्ल०) का अनुसरण करने का आदेश नहीं मान रहे हो। इसके साथ तुम्हारी (इबलीस से) यह एकरूपता बस इस हद पर समाप्त न हो जाएगी, बल्कि तुम्हारा अंजाम भी फिर वही होगा जो उसके लिए मुकद्दर हो चुका है, अर्थात् दुनिया में अल्लाह की फिटकार और आख़िरत में जहन्नम की आग।
لَأَمۡلَأَنَّ جَهَنَّمَ مِنكَ وَمِمَّن تَبِعَكَ مِنۡهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 84
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قُلۡ مَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٖ وَمَآ أَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُتَكَلِّفِينَ ۝ 85
(86) (ऐ नबी!) इनसे कह दो कि मैं इस प्रचार पर तुमसे कोई बदला नहीं माँगता,71 और न मैं बनावटी लोगों में से हूँ।72
71. अर्थात् में एक नि:स्वार्थ व्यक्ति हूँ, अपने किसी निजी स्वार्थ के लिए यह प्रचार नहीं कर रहा हूँ।
72. अर्थात् मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो अपनी बड़ाई कायम करने के लिए झूठे दावे लेकर उठ खड़े होते हैं और वह कुछ बन बैठते हैं जो वास्तव में वे नहीं होते। यह बात नबी (सल्ल०) के मुख से सिर्फ मक्का के इस्लाम विरोधियों की सूचना के लिए नहीं कहलवाई गई है, बल्कि इसके पीछे नबी (सल्ल०) की वह पूरी जिंदगी गवाही के तौर पर मौजूद है जो पैग़म्बरी से पहले इन्हीं इस्लाम-विरोधियों के बीच चालीस वर्षों तक गुजर चुकी थी।
إِنۡ هُوَ إِلَّا ذِكۡرٞ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 86
(87) यह तो एक नसीहत है तमाम जहानवालों के लिए।
وَلَتَعۡلَمُنَّ نَبَأَهُۥ بَعۡدَ حِينِۭ ۝ 87
(88) और थोड़ी मुद्दत ही गुज़रेगी कि तुम्हें इसका हाल स्वयं मालूम हो जाएगा।73
73. अर्थात् जो तुममें से जिंदा रहेंगे, वे कुछ साल के अन्दर अपनी आँखों से देख लेंगे कि जो बात मैं कह रहा हूँ, वह पूरी होकर रही। और जो मर जाएँगे, उनको मौत के दरवाजे से गुज़रते ही पता चल जाएगा कि सच्चाई वही कुछ है जो मैं बयान कर रहा हूँ।