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سُورَةُ الزُّمَرِ

39. अज़-ज़ुमर

(मक्‍का में उतरी, आयतें 75)

परिचय

नाम

इस सूरा का नाम आयत नं0 71 और 73 ("वे लोग जिन्होंने इंकार किया था, जहन्नम की ओर गिरोह के गिरोह (ज़ुमरा) हाँके जाएँगे" और "जो लोग अपने रब की अवज्ञा से बचते थे, उन्हें गिरोह के गिरोह (ज़ुमरा) जन्नत की ओर ले जाया जाएगा।") से लिया गया है। मतलब यह है कि वह सूरा जिसमें शब्द 'ज़ुमर' आया है।

उतरने का समय

आयत नं0 10 (और अल्लाह की धरती विशाल है) से इस बात की और स्पष्ट संकेत मिलता है कि यह सूरा हबशा की हिजरत से पहले उतरी थी।

विषय और वार्ता

यह पूरी सूरा एक उत्तम और अति प्रभावकारी अभिभाषण है जो हबशा की हिजरत से कुछ पहले मक्का-मुअज़्ज़मा के अत्याचार और हिंसा से परिपूर्ण वातावरण में दिया गया था। इसका सम्बोधन अधिकतर क़ुरैश के इस्लाम-विरोधियों से है, यद्यपि कहीं-कहीं ईमानवालों को भी सम्बोधित किया गया है। इसमें हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सन्देश की दावत का मूल उद्देश्य बताया गया है और वह यह है कि इंसान अल्लाह की ख़ालिस (विशुद्ध) बन्दगी अपनाए और किसी दूसरे के आज्ञापालन और इबादत से अपनी ख़ुदापरस्ती को दूषित न करे। इस बुनियादी बात को बार-बार अलग-अलग ढंग से पेश करते हुए बहुत ही ज़ोरदार तरीक़े से तौहीद (एकेश्वरवाद) का सत्य होना और उसे मानने के अच्छे नतीजे, और शिर्क (बहुदेववाद) की ग़लती और उसपर जमे रहने के बुरे नतीजों को स्पष्ट किया गया है और लोगों को दावत दी गई है कि वे अपने ग़लत रवैये को छोड़कर अपने रब की दयालुता की ओर पलट आएँ। इस सिलसिले में ईमानवालों को निर्देश दिया गया है कि अगर अल्लाह की बन्दगी के लिए एक जगह तंग हो गई है तो उसकी धरती फैली हुई है, अपना दीन बचाने के लिए किसी और तरफ़ निकल खड़े हो, अल्लाह तुम्हारे धैर्य का बदला देगा। दूसरी ओर नबी (सल्ल०) से कहा गया है कि इन इस्लाम-विरोधियों को इस ओर से बिल्कुल निराश कर दो कि उनका अत्याचार कभी तुमको इस राह से फेर सकेगा।

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سُورَةُ الزُّمَرِ
39. अज़-ज़ुमर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
تَنزِيلُ ٱلۡكِتَٰبِ مِنَ ٱللَّهِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَكِيمِ
(1) इस किताब का उतरना अल्लाह जबरदस्त और तत्वदर्शी की ओर से है।1
1. वह इस सूरा की संक्षिप्त भूमिका है, जिसमें बस यह बताना काफी समझा गया है कि यह मुहम्‍मद (सल्ल०) का अपना कलाम (वाणी) नहीं है, जैसा कि इंकार करनेवाले कहते हैं, बल्कि यह अल्लाह का कलाम (वाणी) है जो उसने खुद उतारा है। इसके साथ अल्लाह के गुणों का उल्लेखः करके श्रोताओं (सुननेवालों) को दी तथ्यों पर सावधान किया गया है, ताकि वे इस बाशी की कोई सामान्य वस्तु न समझे बल्कि इसका महत्व महसूस करें- एक यह कि जिस अल्लाह ने इसे उतारा है, वह अजीज़' है, अर्थात् ऐसा जबरदस्त है कि उसके इरादों और फ़ैसलों को लागू होने से कोई शक्ति रोक नहीं सकती। दूसरे वह कि वह हकीम (तत्वदर्शी) है, अर्थात् जो हिदायत बह इस किताब में दे रहा है, उसमें सरासर दानाई (विवेक) है और सिर्फ़ एक अज्ञानी और नासमझ आदमी ही उससे मुंह मोड़ सकता है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-32 अस- सज़्दा, टिप्पणी 1)
إِنَّآ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ فَٱعۡبُدِ ٱللَّهَ مُخۡلِصٗا لَّهُ ٱلدِّينَ ۝ 1
(2) (ऐ नबी!) यह किताब हमने तुम्हारी और सत्य के साथ उतारी है।2 इसलिए तुम अल्लाह ही की बन्दगी करो, दीन को उसी के लिए ख़ालिस करते हुए।3
2. अर्थात् इसमें जो कुछ है सत्य और सच्चाई है, असत्य की कोई मिलावट इनमें नहीं है।
3. यह एक बड़ी ही अहम आयत है जिसमें इस्लामी दाबत (सन्देश) के मूल उद्देश्य को बयान किया गया है। इसकी बुनियादी बातें दो हैं- एक यह कि माँग अल्लाह की इबादत करने की है, दूसरे यह कि ऐसी इबादत की माँग है जो दोन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करते हुए की जाए। इबादत अ-ब-द धातु से बना है और यह शब्द आजाद' के मुक़ाबले में ‘ग़ुलाम’ और ‘दास’ के लिए अरबी भाषा में बोला जाता है। इस अर्थ के लिहाज से इबादत' में दो अर्थ पैदा हुए हैं। एक पूजा और उपासना, जैसा कि अरबी भाषा के मशहूर शब्द्कोश ‘लिसानुल-अरब’ में है। दूसरे विनम्रतापूर्वक आज्ञापालन और खुशदिली और पूरे शौक के साथ आज्ञापालन जैसा कि 'लिसानुल-अरब' में है। अतः शब्दकोष की इन प्रामाणिक व्याख्याओं के अनुसार माँग सिर्फ़ अल्लाह की पूजा और उपासना व परस्तिश ही की नहीं है, बल्कि उसके हुक्मों की बिना किसी संकोच पैरवी और उसके शरई (धार्मिक) कानून की पूरी ख़ुशदिली और चाव के साथ पैरवी और उसने जिन कामों को करने का हुक्म दिया है और जिन बातों से रोका है, उनका दिल व जान से पालन करने की भी है। 'दीन' का शब्द अरबी भाषा में बहुत-से अर्थ रखता है- एक अर्थ है 'गलबा' व इक्तिदार (प्रभुत्व व शासन), मालिक और हाकिम की हैसियत से अधिकार, राजनीति और शासन और दूसरों पर फैसला लागू करना। यह अर्थ लिसानुल-अरब" में भी दिया गया है। दूसरा अर्थ है आज्ञापालन, फ़रमाबरदारी और गुलामी। लिसानुल-अरब' में यह अर्थ भी दिया गया है। तीसरा अर्थ है वह आदत और तरीका, जिसकी इंसान पैरवी करे। यह अर्थ भी 'लिसानुल-अरब' शब्द कोष में दिया गया है। इन तीनों अर्थों को ध्यान में रखते हुए इस आयत में 'दीन' का अर्थ होता है "वह तरीक़ा और रवैया जो किसी की सत्ता स्वीकार करके और किसी का आज्ञापालन क़बूल करके इंसान अपनाए।"और दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करके उसकी बन्दगी करने का अर्थ यह है कि "आदमी अल्लाह की बन्दगी के साथ किसी दूसरे की बन्दगी शामिल न करे, बल्कि उसी की पूजा व परस्तिश, उसी की हिदायत की पैरवी और उसी के हुक्मों का पालन करे।"
أَلَا لِلَّهِ ٱلدِّينُ ٱلۡخَالِصُۚ وَٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ أَوۡلِيَآءَ مَا نَعۡبُدُهُمۡ إِلَّا لِيُقَرِّبُونَآ إِلَى ٱللَّهِ زُلۡفَىٰٓ إِنَّ ٱللَّهَ يَحۡكُمُ بَيۡنَهُمۡ فِي مَا هُمۡ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي مَنۡ هُوَ كَٰذِبٞ كَفَّارٞ ۝ 2
(3) ख़बरदार ख़ालिस दीन अल्लाह का हक़ है।4 रहे वे लोग जिन्होंने उसके सिवा दूसरे अभिभावक बना रखे हैं, (और अपने इस कार्य का कारण यह बताते हैं कि) हम तो उनकी इबादत सिर्फ इसलिए करते हैं कि वे अल्लाह तक हमारी पहुँच करा दें।5 अल्लाह निश्चय ही उनके बीच उन तमाम बातों का निर्णय कर देगा जिनमें वे विभेद कर रहे हैं।6 अल्लाह किसी ऐसे व्यक्ति को राह नहीं दिखाता जो झूठा और सत्य का इंकारी हो।7
4. अर्थ यह है कि अल्लाह के लिए दीन को ख़ालिस करके उसकी बन्दगी तुमको करनी चाहिए, क्योंकि शुद्ध और बे-मिलावट आज्ञापालन और बन्दगी अल्लाह का हक़ है। दूसरे शब्दों में, बन्दगी का हक़दार कोई दूसरा है ही नहीं कि अल्लाह के साथ उसकी भी पूजा व परस्तिश और उसके हुक्मों और क़ानूनों का भी पालन किया जाए।
5. अर्थात् पैदा करनेवाला तो हम अल्लाह ही को मानते हैं और अस्ल उपास्य उसी को समझते हैं, लेकिन उसकी बारगाह बहुत ऊँची है, जिस तक हमारी पहुँच भला कहाँ हो सकती है। इसलिए हम इन बुज़ुर्ग हस्तियों को माध्यम बनाते हैं, ताकि ये हमारी दुआएँ और इल्तिजाएँ अल्लाह तक पहुँचा दें।
لَّوۡ أَرَادَ ٱللَّهُ أَن يَتَّخِذَ وَلَدٗا لَّٱصۡطَفَىٰ مِمَّا يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ سُبۡحَٰنَهُۥۖ هُوَ ٱللَّهُ ٱلۡوَٰحِدُ ٱلۡقَهَّارُ ۝ 3
(4) अगर अल्लाह किसी को बेटा बनाना चाहता तो अपनी रचनाओं में से जिसको चाहता, चुन लेता।8 पाक है वह इससे (कि कोई उसका बेटा हो), वह अल्लाह है, अकेला और सबपर ग़ालिब।9
8. अर्थात् अल्लाह का बेटा होना तो सिरे से ही असंभव है। संभव अगर कोई चीज है, तो वह केवल यह है कि किसी को अल्लाह चुन ले। अब यह जाहिर है कि मखलूक (सृष्ट जीव) चाहे कितनी ही विशिष्ट ही जाए, मगर वह औलाद की हैसियत नहीं अपना सकती, क्योंकि ख़ालिक (स्रष्टा) और मख़लूक (सृष्टि) में अत्यन्त वड़ा तात्विक अन्तर है और वलदियत अनिवार्य रूप से वालिद (पिता) और औलाद में तात्विक समानता का तक़ाज़ा करती है।इसके साथ यह बात भी निगाह में रहनी चाहिए कि अगर अल्लाह किसी को बेटा बनाना चाहता तो ऐसा करता" के शब्द इस्तेमाल किए गए हैं, जिनसे अपने आप यह अर्थ निकलता है कि अल्लाह ने ऐसा करना कभी नहीं चाहा। इस वर्णनशैली से यह बात मन-मस्तिष्क में बिठा देनी है कि किसी को बेटा बना लेना तो दूर की बात अल्लाह ने तो ऐसा करने का कभी इरादा भी नहीं किया है।
9. ये वे तर्क हैं जिनके द्वारा इस धारणा का खंडन किया गया है कि ईश्वर की कोई सन्तान भी होती है। पहला प्रमाण यह है कि अल्लाह हर कमी, ऐब और कमजोरी से पाक है, और स्पष्ट है कि औलाद की ज़रूरत अपूर्ण और निर्बल को हुआ करती है। जो व्यक्ति फ़ानी (मिट जानेवाला) होता है, वही इसका मुहताज होता है कि उसके यहाँ औलाद हो, ताकि उसकी नस्ल और जाति बाक़ी रहे और किसी को लेपालक भी वही व्यक्ति बनाता है जो या तो लावारिस होने की वजह से किसी को वारिस बनाने की ज़रूरत महसूस करता है या मुहब्बत की भावना के वशीभूत होकर किसी को बेटा बना लेता है। ये इंसानी कमज़ोरियाँ अल्लाह से जोड़ना और उनकी बुनियाद पर मज़हबी अक़ीदे (धार्मिक आस्थाएँ) बना लेना अज्ञान और कम निगाही के सिवा और क्या है। दूसरी दलील यह है कि वह अकेला अपनी जान में एक है, किसी जाति का सदस्य नहीं है। और स्पष्ट है कि औलाद अनिवार्य रूप से सहजाति होती है, साथ ही औलाद की कोई कल्पना जोड़े के बिना नहीं हो सकती और जोड़ा भी सहजाति का ही हो सकता है। इसलिए वह व्यक्ति बड़ा अज्ञानी और नासमझ है जो इस एक और अकेली हस्ती के लिए औलाद प्रस्तावित करता है। तीसरा प्रमाण यह है कि वह क़हार (ग़ालिब) है। अर्थात् दुनिया में जो चीज़ भी है उससे मालूब और उसकी ज़बरदस्त पकड़ में जकड़ी हुई है, इस सृष्टि में कोई किसी दर्जे में भी उस जैसा नहीं है, जिसकी बिना पर उसके बारे में यह गुमान किया जा सकता हो कि अल्लाह से उसका कोई रिश्ता है।
خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّۖ يُكَوِّرُ ٱلَّيۡلَ عَلَى ٱلنَّهَارِ وَيُكَوِّرُ ٱلنَّهَارَ عَلَى ٱلَّيۡلِۖ وَسَخَّرَ ٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَۖ كُلّٞ يَجۡرِي لِأَجَلٖ مُّسَمًّىۗ أَلَا هُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡغَفَّٰرُ ۝ 4
(5) उसने आसमानों और ज़मीन को सत्य के साथ पैदा किया है।10 वही दिन पर रात और रात पर दिन को लपेटता है। उसी ने सूरज और चाँद को इस तरह वशीभूत कर रखा है कि हर एक निश्चित समय तक चले जा रहा है। जान रखो, वह ज़बरदस्त है और क्षमा करनेवाला है।11
10. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-14 इबराहीम, टिप्पणी 26; सूरा-16 अन-नहल, टिप्पणी 6; सूरा-29 अल-अनकबूत, टिप्पणी 75
11. अर्थात् ज़बरदस्त ऐसा है कि अगर वह तुम्हें अज़ाब देना चाहे तो कोई ताक़त उसे रोक नहीं सकती, मगर यह उसकी कृपा है कि तुम यह कुछ गुस्ताखियाँ कर रहे हो और फिर भी वह तुमको तुरन्त पकड़ नहीं लेता, बल्कि मोहलत पर मोहलत दिए जाता है।
خَلَقَكُم مِّن نَّفۡسٖ وَٰحِدَةٖ ثُمَّ جَعَلَ مِنۡهَا زَوۡجَهَا وَأَنزَلَ لَكُم مِّنَ ٱلۡأَنۡعَٰمِ ثَمَٰنِيَةَ أَزۡوَٰجٖۚ يَخۡلُقُكُمۡ فِي بُطُونِ أُمَّهَٰتِكُمۡ خَلۡقٗا مِّنۢ بَعۡدِ خَلۡقٖ فِي ظُلُمَٰتٖ ثَلَٰثٖۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمۡ لَهُ ٱلۡمُلۡكُۖ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ فَأَنَّىٰ تُصۡرَفُونَ ۝ 5
(6) उसी ने तुमको एक जान से पैदा किया, फिर वही है जिसने उस जान से उसका जोड़ा बनाया।12 और उसी ने तुम्हारे लिए मवेशियों में से आठ नर व मादा पैदा किए।13 वह तुम्हारी माँओं के पेटों में तीन-तीन अंधकारमय पर्यों के भीतर तुम्हें एक के बाद एक रूप देता चला जाता है।14 यही अल्लाह (जिसके ये काम हैं) तुम्हारा रब है।15 बादशाही उसी की है।16 कोई उपास्य उसके सिवा नहीं है,17 फिर तुम किधर से फिराए जा रहे हो? 18
12. यह अर्थ नहीं है कि पहले हज़रत आदम (अलैहि०) से इंसानों को पैदा कर दिया और फिर उनकी बीवी हज़रत हव्वा (रजि०) को पैदा किया, बल्कि यहाँ वार्ता में काल-क्रम के बजाय वार्ता-क्रम है, जिसके उदाहरण हर भाषा में पाए जाते हैं।
13. मवेशी (चौपायों) से तात्पर्य हैं ऊँट, गाय, भेड़ और बकरी। उनके चार नर और चार मादा मिलकर आठ नर व मादा होते हैं।
17. दूसरे शब्दों में तर्क यह दिया जा रहा है कि जब वही तुम्हारा रब है और उसी की सारी बादशाही है तो फिर अवश्य ही तुम्हारा उपास्य (माबूद) भी वही है। दूसरा कोई उपास्य कैसे हो सकता है जबकि न पालन-क्रिया में उसका कोई हिस्सा, न बादशाही में कोई उसका दख़ल।
18. यह नहीं फ़रमाया कि तुम किधर फिरे जा रहे हो? कहा यह गया कि तुम किधर से फिराए जा रहे हो अर्थात् कोई दूसरा है जो तुमको उलटी पट्टी पढ़ा रहा है और तुम उसके बहकावे में आकर ऐसी सीधी-सी अक़्ल की बात भी नहीं समझ रहे हो। दूसरी बात जो इस वर्णनशैली से स्वयं निकल रही है, वह यह है कि 'तुम' का सम्बोधन फिरानेवालों से नहीं, बल्कि उन लोगों से है जो उनके प्रभाव में आकर फिर रहे थे। फिरानेवाले उसी समाज में सबके सामने मौजूद थे और हर ओर अपना काम एलानिया कर रहे थे, इसलिए उनका नाम लेने की ज़रूरत न थी। उनको सम्बोधित करना भी बेकार था, क्योंकि वे अपने स्वार्थों के लिए लोगों को एक अल्लाह की बन्दगी से फेरने और दूसरों की बन्दगी में फाँसने और फाँसे रखने की कोशिश कर रहे थे। ऐसे लोग स्पष्ट है कि समझाने से समझनेवाले न थे। क्योंकि न समझने ही में उनका हित था। अलबत्ता उन लोगों की हालत दयनीय थी जो उनके चकमे में आ रहे थे। उनका कोई स्वार्थ इस कारोबार से जुड़ा हुआ न था, इसलिए वे समझाने से समझ सकते थे। यही वजह है कि गुमराह करनेवाले कुछ आदमियों से रुख फेरकर गुमराह होनेवाले आम लोगों को सम्बोधित किया जा रहा है।
إِن تَكۡفُرُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَنِيٌّ عَنكُمۡۖ وَلَا يَرۡضَىٰ لِعِبَادِهِ ٱلۡكُفۡرَۖ وَإِن تَشۡكُرُواْ يَرۡضَهُ لَكُمۡۗ وَلَا تَزِرُ وَازِرَةٞ وِزۡرَ أُخۡرَىٰۚ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّكُم مَّرۡجِعُكُمۡ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 6
(7) अगर तुम इकार करो तो अल्लाह तुमसे बेनियाज़ (बेपरवाह) है।19 लेकिन वह अपने बन्दों के लिए इंकार को पसन्द नहीं करता20 और अगर तुम शुक्र करो तो उसे वह तुम्हारे लिए पसन्द करता है।21 कोई बोझ उठानेवाला किसी दूसरे का बोझ न उठाएगा।22 अन्ततः तुम सबको अपने रब की ओर पलटना है, फिर वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या करते रहे हो, वह तो दिलों का हाल तक जानता है।
19. अर्थात् तुम्हारे इंकार से उसकी ख़ुदाई और प्रभुत्व में कण भर कमी नहीं आ सकती। तुम मानोगे तब भी वह अल्लाह है, और न मानोगे तब भी वह अल्लाह है और रहेगा।
20. अर्थात् वह अपने किसी हित के लिए नहीं बल्कि स्वयं बन्दों के हितों के लिए यह पसन्द नहीं करता कि वे इंकार करें, क्योंकि इंकार स्वयं उन्हीं के लिए हानिप्रद है। यहाँ यह बात सामने रहनी चाहिए कि अल्लाह की इच्छा और चीज़ है और रिजा दूसरी चीज़। दुनिया का कोई काम भी अल्लाह की इच्छा के विना नहीं हो सकता, मगर उसकी रिजा के विरुद्ध बहुत-से काम हो सकते हैं, और रात दिन होते रहते हैं। जैसे दुनिया में अत्याचारियों और ज़ालिमों का हुक्मराँ होना, चोरों और डाकुओं का पाया जाना, कातिलों और व्यभिचारियों का मौजूद होना इसी लिए संभव है कि अल्लाह ने अपनी प्राकृतिक व्यवस्था में इन बुराइयों के प्रकट होने और इन दुष्टों के मौजूद होने की गुंजाइश रखी है। फिर इनको बुराई करने के अवसर भी वही देता है और उसी तरह देता है जिस तरह भलों को भलाई के अवसर देता है। अगर वह सिरे से इन कामों की गुंजाइश ही न रखता और इनके करनेवालों को अवसर ही न देता तो दुनिया में कभी कोई बुराई प्रकट न होती। यह सब कुछ उसकी इच्छा से है। लेकिन इच्छा के तहत किसी कर्म का हो जाना यह अर्थ नहीं रखता कि अल्लाह की रिजा (ख़ुशी) भी उसको हासिल है।
۞وَإِذَا مَسَّ ٱلۡإِنسَٰنَ ضُرّٞ دَعَا رَبَّهُۥ مُنِيبًا إِلَيۡهِ ثُمَّ إِذَا خَوَّلَهُۥ نِعۡمَةٗ مِّنۡهُ نَسِيَ مَا كَانَ يَدۡعُوٓاْ إِلَيۡهِ مِن قَبۡلُ وَجَعَلَ لِلَّهِ أَندَادٗا لِّيُضِلَّ عَن سَبِيلِهِۦۚ قُلۡ تَمَتَّعۡ بِكُفۡرِكَ قَلِيلًا إِنَّكَ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلنَّارِ ۝ 7
(8) इंसान पर जब कोई विपत्ति आती है23 तो वह अपने रब की ओर रुजूअ करके उसे पुकारता है।24 फिर जब उसका रब उसे अपनी नेमत प्रदान कर देता है, तो वह उस विपत्ति को भूल जाता है, जिसपर वह पहले पुकार रहा था।25 और दूसरों को अल्लाह का समकक्ष ठहराता है,26 ताकि उसकी राह से गुमराह करे।27 (ऐ नबी !) उससे कहो कि थोड़े दिन अपने इंकार का मज़ा ले ले, निश्चय ही तू दोज़ख़ में जानेवाला है।
23. इंसान से मुराद यहाँ वह विधर्मी इंसान है जिसने नाशुक्री का रवैया अपना रखा हो।
24. अर्थात् उस समय उसे वे दूसरे उपास्य याद नहीं आते जिन्हें वह अपने अच्छे हाल में पुकारा करता था, बल्कि इन सबसे निराश होकर वह सिर्फ अल्लाह, सारे जहानों के रब, की ओर रुजूअ करता है। यह मानो इस बात का प्रमाण है कि वह अपने दिल की गहराइयों में दूसरे उपास्यों के बेइख्तियार होने का एहसास रखता है और इस सच्चाई की चेतना भी उसके मन में कहीं न कहीं दबी-छिपी मौजूद है कि वास्तविक अधिकारों का मालिक अल्लाह ही है।
أَمَّنۡ هُوَ قَٰنِتٌ ءَانَآءَ ٱلَّيۡلِ سَاجِدٗا وَقَآئِمٗا يَحۡذَرُ ٱلۡأٓخِرَةَ وَيَرۡجُواْ رَحۡمَةَ رَبِّهِۦۗ قُلۡ هَلۡ يَسۡتَوِي ٱلَّذِينَ يَعۡلَمُونَ وَٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَۗ إِنَّمَا يَتَذَكَّرُ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 8
(9) (क्या इस आदमी का रवैया बेहतर है या उस आदमी का) जो आदेश का पालन करता रात की घड़ियों में खड़ा रहता और सज्दे करता है। आख़िरत से डरता और अपने रब की रहमत से उम्मीद लगाता है ? इनसे पूछो, क्या जाननेवाले और न जाननेवाले दोनों कभी बराबर हो सकते हैं?28 नसीहत तो बुद्धि रखनेवाले ही क़बूल करते हैं।
قُلۡ يَٰعِبَادِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ رَبَّكُمۡۚ لِلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ فِي هَٰذِهِ ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٞۗ وَأَرۡضُ ٱللَّهِ وَٰسِعَةٌۗ إِنَّمَا يُوَفَّى ٱلصَّٰبِرُونَ أَجۡرَهُم بِغَيۡرِ حِسَابٖ ۝ 9
(10) (ऐ नबी!) कहो कि ऐ मेरे बन्दो, जो ईमान लाए हो! अपने रब से डरो।29 जिन लोगों ने इस दुनिया में अच्छा रवैया अपनाया है, उनके लिए भलाई है।30 और अल्लाह की धरती विशाल है,31 सब्र करनेवालों को तो उनका बदला बे-हिसाब दिया जाएगा।32
29. अर्थात् सिर्फ़ मानकर न रह जाओ, बल्कि उसके साथ तक़वा (परहेज़गारी) भी अपनाओ। जिन चीज़ों का अल्लाह ने आदेश दिया है, उनपर अमल करो, जिनसे रोका है, उनसे बचो और दुनिया में अल्लाह की पकड़ से डरते हुए काम करो।
30. दुनिया और आख़िरत दोनों की भलाई। उनकी दुनिया भी सुधरेगी और आख़िरत भी।
قُلۡ إِنِّيٓ أُمِرۡتُ أَنۡ أَعۡبُدَ ٱللَّهَ مُخۡلِصٗا لَّهُ ٱلدِّينَ ۝ 10
(11) (ऐ नबी!) इनसे कहो, मुझे आदेश दिया गया है कि दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करके उसकी बन्दगी करूँ,
وَأُمِرۡتُ لِأَنۡ أَكُونَ أَوَّلَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 11
(12) और मुझे आदेश दिया गया है कि सबसे पहले मैं खुद मुस्लिम (आज्ञाकारी) बनूं।33
33. अर्थात् मेरा काम सिर्फ दूसरों से कहना ही नहीं है, स्वयं करके दिखाना भी है, जिस राह पर लोगों को बुलाता हूँ उसपर सबसे पहले मैं चलता हूँ।
قُلۡ إِنِّيٓ أَخَافُ إِنۡ عَصَيۡتُ رَبِّي عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 12
(13) कहो, अगर मैं अपने रब की अवज्ञा करूँ तो मुझे एक बड़े दिन के अज़ाब का डर है।
قُلِ ٱللَّهَ أَعۡبُدُ مُخۡلِصٗا لَّهُۥ دِينِي ۝ 13
(14) कह दो कि मैं तो अपने दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करके उसी को बन्दगी करूँगा,
فَٱعۡبُدُواْ مَا شِئۡتُم مِّن دُونِهِۦۗ قُلۡ إِنَّ ٱلۡخَٰسِرِينَ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ وَأَهۡلِيهِمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ أَلَا ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡخُسۡرَانُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 14
(15) तुम उसके सिवा जिस-जिस की बन्दगी करना चाहो, करते रहो। कहो, असल दीवालिए तो वही हैं जिन्होंने क़ियामत के दिन अपने आपको और अपने लोगों और परिवारवालों को घाटे में डाल दिया। ख़ूब सुन रखो, यही खुला दीवाला है।34
34. दीवाला सामान्य रूप से उस चीज़ को कहते हैं कि कारोबार में आदमी को लगाई हुई सारी पूँजी डूब जाए और बाज़ार में उसपर दूसरों के मुतालबे इतने चढ़ जाएँ कि अपना सब कुछ देकर भी वह उनसे छुटकारा न पा सके। यही मिसाल इस्लाम विरोधियों और मुशरिकों के लिए अल्लाह ने यहाँ इस्तेमाल की है। इंसान को जिंदगी, उम्र, बुद्धि, शरीर, ताक़तें और योग्यताएँ, साधन और अवसर जितनी चीजें भी दुनिया में हासिल हैं, उन सबका योग वास्तव में वह पूँजी है, जिसे वह दुनिया की जिंदगी के कारोबार में लगाता है। यह सारी पूँजी अगर किसी ने इस झूठी कल्पना पर लगा दी कि कोई ख़ुदा नहीं है या बहुत से ख़ुदा हैं, जिनका मैं बन्दा हूँ और किसी को मुझे हिसाब नहीं देना है या हिसाब-किताब के समय कोई दूसरा आकर मुझे बचा लेगा, तो इसका अर्थ यह है कि उसने घाटे का सौदा किया और अपना सब कुछ डुबो दिया। यह है पहला घाटा। दूसरा घाटा यह है कि इस ग़लत सोच पर उसने जितने काम भी किए, इन सब में वह अपने आप से लेकर दुनिया के बहुत-से इंसानों और अगली नस्लों और अल्लाह की दूसरी बहुत-सी मख़लूक (सृष्टि) पर उम्र भर जुल्म करता रहा। इसलिए उसपर अनगिनत मुतालबे चढ़ गए, मगर उसके पल्ले कुछ नहीं है जिससे वह इन माँगों का भुगतान भुगत सके। इस पर और ज़्यादा घाटा यह है कि वह स्वयं ही नहीं डूबा, बल्कि अपने बाल-बच्चों, नाते-रिश्तेदारों, दोस्तों अपनी क़ौम के लोगों को भी अपनी ग़लत शिक्षा-दीक्षा और ग़लत मिसाल से ले डूबा । यही तीन घाटे हैं, जिनके योग को अल्लाह स्पष्ट घाटा कह रहा है।
لَهُم مِّن فَوۡقِهِمۡ ظُلَلٞ مِّنَ ٱلنَّارِ وَمِن تَحۡتِهِمۡ ظُلَلٞۚ ذَٰلِكَ يُخَوِّفُ ٱللَّهُ بِهِۦ عِبَادَهُۥۚ يَٰعِبَادِ فَٱتَّقُونِ ۝ 15
(16) उनपर आग की छतरियाँ ऊपर से भी छाई होंगी और नीचे से भी। यह वह अंजाम है, जिससे अल्लाह अपने बन्दों को डराता है, अत: ऐ मेरे बन्दो ! मेरे प्रकोप से बचो।
وَٱلَّذِينَ ٱجۡتَنَبُواْ ٱلطَّٰغُوتَ أَن يَعۡبُدُوهَا وَأَنَابُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ لَهُمُ ٱلۡبُشۡرَىٰۚ فَبَشِّرۡ عِبَادِ ۝ 16
(17) इसके विपरीत जिन लोगों ने ताग़ूत35 की बन्दगी से मुँह फेर लिया और अल्लाह की ओर रुजूअ कर लिया, उनके लिए शुभ-सूचना है। तो (ऐ नबी!) शुभ-सूचना सुना दो मेरे उन बन्दों को
35. 'ताग़ूत' तुग़ियान से है, जिसका अर्थ सरकशी है। किसी को तागी (सरकश) कहने के बजाय अगर ताग़ूत (सरकशी) कहा जाए तो इसका अर्थ यह है कि वह अत्यन्त सरकश है। मिसाल के तौर पर किसी को सुंदर के बजाय अगर यह कहा जाए कि वह सौन्दर्य है तो इसका अर्थ यह होगा कि वह सुन्दरता में पराकाष्ठा को पहुँचा हुआ है। अल्लाह के अलावा जो उपास्य बना लिए गए हैं उनको तागूत इसलिए कहा गया है कि अल्लाह के सिवा दूसरे की बन्दगी करना तो सिर्फ सरकशी है, मगर जो दूसरों से अपनी बन्दगी कराए, वह बड़े ऊँचे दर्जे का सरकश है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 अल-बक़रा, टिप्पणी 286-288; सूरा-4 अन-निसा, टिप्पणी 91-105)। तागूत' का शब्द यहाँ बहुत-से ताग़ूतों के लिए इस्तेमाल किया गया है।
ٱلَّذِينَ يَسۡتَمِعُونَ ٱلۡقَوۡلَ فَيَتَّبِعُونَ أَحۡسَنَهُۥٓۚ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ هَدَىٰهُمُ ٱللَّهُۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمۡ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 17
(18) जो बात को ध्यान से सुनते हैं और उसके बेहतरीन पहलू की पैरवी करते हैं।36 ये वे लोग हैं जिनको अल्लाह ने हिदायत दी है और यही सूझ-बूझवाले हैं।
36. इस आयत के दो अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि वे हर आवाज़ के पीछे नहीं लग जाते, बल्कि हर एक की बात सुनकर उसपर विचार करते हैं और जो सच्ची बात होती है उसे स्वीकार कर लेते हैं। दूसरी बात यह कि वे बात को सुनकर गलत अर्थ निकालने की कोशिश नहीं करते, बल्कि उसके अच्छे और बेहतर पहलू को अपनाते हैं।
أَفَمَنۡ حَقَّ عَلَيۡهِ كَلِمَةُ ٱلۡعَذَابِ أَفَأَنتَ تُنقِذُ مَن فِي ٱلنَّارِ ۝ 18
(19) (ऐ नबी!) उस आदमी को कौन बचा सकता है जिसपर अज़ाब का फ़ैसला चस्पाँ हो चुका हो?37 क्या तुम उसे बचा सकते हो जो आग में गिर चुका हो?
37. अर्थात् जिसने अपने आपको अल्लाह के अज़ाब का हक़दार बना लिया हो और अल्लाह ने निर्णय कर लिया हो कि उसे अब सज़ा देनी है।
لَٰكِنِ ٱلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ رَبَّهُمۡ لَهُمۡ غُرَفٞ مِّن فَوۡقِهَا غُرَفٞ مَّبۡنِيَّةٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ وَعۡدَ ٱللَّهِ لَا يُخۡلِفُ ٱللَّهُ ٱلۡمِيعَادَ ۝ 19
(20) अलबत्ता जो लोग अपने रब से डरकर रहें, उनके लिए ऊँची इमारतें हैं, मंज़िल पर मंज़िल बनी हुई, जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। यह अल्लाह का वादा है। अल्लाह कभी अपने वादे के विरुद्ध नहीं करता।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَسَلَكَهُۥ يَنَٰبِيعَ فِي ٱلۡأَرۡضِ ثُمَّ يُخۡرِجُ بِهِۦ زَرۡعٗا مُّخۡتَلِفًا أَلۡوَٰنُهُۥ ثُمَّ يَهِيجُ فَتَرَىٰهُ مُصۡفَرّٗا ثُمَّ يَجۡعَلُهُۥ حُطَٰمًاۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَذِكۡرَىٰ لِأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 20
(21) क्या तुम नहीं देखते कि अल्लाह ने आसमान से पानी बरसाया, फिर उसको स्रोतों, चश्मों और नदियों38 के रूप में ज़मीन के भीतर प्रवाहित किया, फिर उस पानी के ज़रिये से वह तरह-तरह की खेतियाँ निकालता है, जिनकी क़िस्में अलग-अलग हैं, फिर वे खेतियाँ पककर सूख जाती हैं, फिर तुम देखते हो कि वे पीली पड़ गईं, फिर आख़िरकार अल्लाह उनको भुस बना देता है। वास्तव में इसमें एक शिक्षा है बुद्धि रखनेवालों के लिए।39
38. मूल अरबी में शब्द 'यनाबीअ' प्रयुक्त हुआ है जो इन तीनों चीज़ों के लिए बोला जाता है।
39. अर्थात् इससे एक बुद्धिवाला व्यक्ति यह शिक्षा लेता है कि यह दुनिया की जिंदगी और उसकी शोभायें सब अस्थाई हैं। हर बहार का अंजाम पतझड़ है। हर जवानी का अंजाम बुढ़ापा और मौत है। हर उन्नति अन्ततः पतन का शिकार होनेवाली है। इसलिए यह दुनिया वह चीज़ नहीं है जिसके सौन्दर्य पर आसक्त होकर आदमी अल्लाह और आख़िरत को भूल जाए और यहाँ की कुछ दिनों की बहार के मज़े लूटने के लिए ऐसी हरकतें करे जो उसकी आख़िरत को बर्बाद कर दें। फिर एक बुद्धिमान व्यक्ति उन दृश्यों से यह शिक्षा भी लेता है कि इस दुनिया की बहार और पतझड़ अल्लाह ही के अधिकार में है। अल्लाह जिसको चहाता है, परवान चढ़ाता है और जिसे चाहता है, ख़स्ता व ख़राब कर देता है। न किसी के बस में यह है कि अल्लाह जिसे परवान चढ़ा रहा हो उसको वह फलने फूलने से रोक दे और न कोई यह शक्ति रखता है कि जिसे अल्लाह मिटाना चाहे उसे वह धूल धूसरित होने से बचा ले।
أَفَمَن شَرَحَ ٱللَّهُ صَدۡرَهُۥ لِلۡإِسۡلَٰمِ فَهُوَ عَلَىٰ نُورٖ مِّن رَّبِّهِۦۚ فَوَيۡلٞ لِّلۡقَٰسِيَةِ قُلُوبُهُم مِّن ذِكۡرِ ٱللَّهِۚ أُوْلَٰٓئِكَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 21
(22) अब क्या वह आदमी जिसका सीना अल्लाह ने इस्लाम के लिए खोल दिया40 और वह अपने रब की ओर से एक रौशनी पर चल रहा है,41 ( उस व्यक्ति की तरह हो सकता है जिसने इन बातों से कोई शिक्षा न ली?) तबाही है उन लोगों के लिए जिनके दिल अल्लाह की नसीहत से और अधिक कठोर हो गए।42 वे खुली गुमराही में पड़े हुए हैं।
40. अर्थात् जिसे अल्लाह ने यह सौभाग्य दिया कि इन सच्चाइयों से शिक्षा ले और इस्लाम के सत्य होने पर सन्तुष्ट हो जाए। किसी बात पर आदमी का सीना खुल जाना वास्तव में उस स्थिति का नाम है कि आदमी के दिल में उस बात के बारे में कोई खटक, दुविधा, सन्देह या शुबहा बाक़ी न रहे और उसे किसी ख़तरे का एहसास और किसी नुकसान का डर भी उस बात के स्वीकार या इख्तियार करने में बाधा न बने, बल्कि पूरी सन्तुष्टि के साथ वह यह निर्णय कर ले कि यह चीज़ सत्य है, अत: चाहे कुछ हो जाए, मुझे इसी पर चलना है। इस तरह का फ़ैसला करके जब आदमी इस्लाम की राह को स्वीकार कर लेता है तो अल्लाह और रसूल की ओर से जो आदेश भी उसे मिलता है, वह उसे बलात नहीं, बल्कि सहर्ष स्वीकार करता है। किताब व सुन्नत में जो अक्रीदे और विचार और जो विधान और नियम भी उसके सामने आते हैं, वह उन्हें इस तरह क़बूल करता है कि मानो यही उसके दिल की आवाज है। किसी अवैध लाभ को छोड़ने पर उसे कोई पछतावा नहीं होता, बल्कि वह समझता है कि मेरे लिए सिरे से वह कोई लाभ था ही नहीं, उलटा एक हानि थी, जिससे अल्लाह की मेहरबानी से मैं बच गया। इसी तरह कोई नुकसान भी अगर सच्चाई पर कायम रहने की सूरत में उसे पहुँचे तो वह उसपर अफ़सोस नहीं करता, बल्कि ठंडे दिल से उसे सहन करता है। और अल्लाह की राह से मुँह मोड़ने के मुक़ाबले में वह नुकसान उसे हल्का नज़र आता है। यही हाल उसका ख़तरे पेश आने पर भी होता है। वह समझता है कि मेरे लिए कोई दूसरा रास्ता सिरे से है ही नहीं कि इस ख़तरे से बचने के लिए उधर निकल जाऊँ। अल्लाह का सीधा रास्ता एक ही है, जिसपर मुझे बहरहाल चलना है। खतरा आता है तो आता रहे।
41. अर्थात् अल्लाह की किताब और अल्लाह के रसूल की सुन्नत के रूप में ज्ञान की एक रौशनी उसे मिल गई है, जिसके उजाले में वह हर-हर कदम पर स्पष्ट रूप से देखता जाता है कि जिंदगी की अनगिनत पगडंडियों के बीच में सत्य का सीधा रास्ता कौन-सा है।
ٱللَّهُ نَزَّلَ أَحۡسَنَ ٱلۡحَدِيثِ كِتَٰبٗا مُّتَشَٰبِهٗا مَّثَانِيَ تَقۡشَعِرُّ مِنۡهُ جُلُودُ ٱلَّذِينَ يَخۡشَوۡنَ رَبَّهُمۡ ثُمَّ تَلِينُ جُلُودُهُمۡ وَقُلُوبُهُمۡ إِلَىٰ ذِكۡرِ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ هُدَى ٱللَّهِ يَهۡدِي بِهِۦ مَن يَشَآءُۚ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِنۡ هَادٍ ۝ 22
(23) अल्लाह ने सर्वोत्तम वाणी उतारी है, एक ऐसी किताब जिसके तमाम अंश परस्पर मिलते-जुलते हैं43 और जिसमें बार-बार विषय दोहराए गए हैं। उसे सुनकर उन लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं जो अपने रब से डरनेवाले हैं, और फिर उनके शरीर और उनके दिल नर्म होकर अल्लाह के ज़िक्र (याद) की ओर उन्मुख हो जाते हैं। यह अल्लाह की हिदायत है जिससे वह सीधे रास्ते पर ले आता है, जिसे चाहता है। और जिसे अल्लाह ही हिदायत न दे, उसके लिए फिर कोई हिदायत देनेवाला नहीं है।
43. अर्थात् उनमें कोई टकराव और मतभेद नहीं है। पूरी किताब शुरू से आखिर तक एक ही उद्देश्य, एक ही धारणा और विचार और व्यवहार की एक ही व्यवस्था पेश करती है। इसका हर अंश दूसरे अंश की और हर विषय दूसरे विषय की पुष्टि व समर्थन और व्याख्या करता है और अर्थ और वर्णन दोनों की दृष्टि से उसमें पूर्ण समानता (Consistency) पाई जाती है।
أَفَمَن يَتَّقِي بِوَجۡهِهِۦ سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ وَقِيلَ لِلظَّٰلِمِينَ ذُوقُواْ مَا كُنتُمۡ تَكۡسِبُونَ ۝ 23
(24) अब उस आदमी की दुरावस्था का तुम क्या अन्दाज़ा कर सकते हो जो क़ियामत के दिन अज़ाब की सख़्त मार अपने मुँह पर लेगा?44 ऐसे ज़ालिमों से तो कह दिया जाएगा कि अब चखो मज़ा उस कमाई का जो तुम करते रहे थे।45
44. किसी चोट को आदमी अपने मुँह पर उस समय लेता है, जबकि वह बिल्कुल मजबूर व बेबस हो, वरना जब तक वह उसे रोकने की कुछ भी सामर्थ्य रखता है, वह अपने शरीर के हर हिस्से पर चोट खाता रहता है, मगर मुँह पर मार नहीं पड़ने देता। इसलिए उस आदमी की अत्यन्त विवशता का चित्र यहाँ यह कहकर खाँच दिया गया है कि वह सख़्त मार अपने मुँह पर लेगा।
45. मूल अरबी में शब्द 'क-स-ब' प्रयुक्त हुआ है, जिससे मुराद कुरआन मजीद की परिभाषा में 'जज़ा (इनाम) व सजा' का वह हक है जो आदमी अपने कर्म के नतीजे में कमाता है। भले कार्य करनेवाले की वास्तविक कमाई यह है कि वह अल्लाह के अज (इनाम) का हक़दार बनता है, और गुमराही और बुरा रास्ता अपनानेवालों की कमाई वह सजा है जो उसे आखिरत में मिलनेवाली है।
كَذَّبَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ فَأَتَىٰهُمُ ٱلۡعَذَابُ مِنۡ حَيۡثُ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 24
(25) इनसे पहले भी बहुत-से लोग इसी तरह झुठला चुके हैं। आख़िर उनपर अज़ाब ऐसे रुख से आया, जिधर उनका ध्यान भी न जा सकता था।
فَأَذَاقَهُمُ ٱللَّهُ ٱلۡخِزۡيَ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَعَذَابُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَكۡبَرُۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 25
(26) फिर अल्लाह ने उनको दुनिया ही की जिंदगी में रुसवाई का मज़ा चखाया, और आख़िरत का अज़ाब तो इससे कहीं कठोर है, काश! ये लोग जानते।
وَلَقَدۡ ضَرَبۡنَا لِلنَّاسِ فِي هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ مِن كُلِّ مَثَلٖ لَّعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ ۝ 26
(27) हमने इस क़ुरआन में लोगों को तरह-तरह की मिसालें दी हैं कि ये होश में आएँ।
قُرۡءَانًا عَرَبِيًّا غَيۡرَ ذِي عِوَجٖ لَّعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ ۝ 27
(28) ऐसा क़ुरआन जो अरबी भाषा में है,46 जिसमें कोई टेढ़ नहीं है,47 ताकि ये बुरे अंजाम से बचें।
46. अर्थात् यह किसी पराई भाषा में नहीं आया है कि मक्का और अरब के लोग उसे समझने के लिए किसी अनुवादक, दुभाषिए या व्याख्याकर्ता के मुहताज हों, बल्कि यह उनकी अपनी भाषा में है जिसे सीधे तौर पर स्वयं समझ सकते हैं।
47. अर्थात् इसमें ऐंच-पेंच की भी कोई बात नहीं है कि आम आदमी के लिए उसको समझने में कोई कठिनाई हो।
ضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلٗا رَّجُلٗا فِيهِ شُرَكَآءُ مُتَشَٰكِسُونَ وَرَجُلٗا سَلَمٗا لِّرَجُلٍ هَلۡ يَسۡتَوِيَانِ مَثَلًاۚ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 28
(29) अल्लाह एक मिसाल देता है। एक आदमी तो वह है जिसके मालिक होने में बहुत-से बद्आख्लाक (दुराचारी) स्वामी शरीक हैं जो उसे अपनी-अपनी ओर खींचते हैं और दूसरा व्यक्ति पूरे का पूरा एक ही स्वामी का दास है। क्या इन दोनों का हाल बराबर हो सकता है?48 अलहम्दु लिल्लाह!49 मगर अधिकतर लोग नादानी में पड़े हुए हैं।50
48. इस मिसाल में अल्लाह ने शिर्क और तौहीद (बहुदेववाद और एकेश्वरवाद) के अन्तर और इंसान की जिंदगी पर दोनों के प्रभावों को इस तरह खोलकर बयान फ़रमा दिया है कि इससे अधिक संक्षिपा शब्दों में इतना बड़ा विषय इतने प्रभावी हंग से समझा देना सम्भव नहीं है। यह बात हर आदमी मानेगा कि जिस आदमी के बहुत से मालिक या आका हों और हर एक उसको अपनी-अपनी ओर खींच रहा हो और मालिक वे भी ऐसे दुःस्वभाववाले हों कि हर एक उससे सेवा लेते हुए दूसरे मालिक के हुक्म पर दौड़ने की उसे मोहलत न देता हो, और उनके एक-दूसरे के विरोधी हुक्मों में, जिसके हुक्म की भी पाबन्दी वह न कर पाए, वह उसे डाँटने-फटकारने ही पर बस न करता हो, बल्कि सजा देने पर तुल जाता हो, ऐसे व्यक्ति को जिंदगी अवश्य ही बड़ी घुटन में होगी और इसके विपरीत वह आदमी बड़े आराम और चैन से रहेगा जो बस एक ही आका का नौकर और गुलाम हो और किसी दूसरे की ख़िदमत और उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने की कोशिश उसे न करनी पड़े। यह ऐसी सीधी सी बात है जिसे समझने के लिए किसी बड़े सोच-विचार की जरूरत नहीं है। इसके बाद किसी आदमी के लिए यह समझना भी कठिन नहीं रहता है कि इंसान के लिए जो शान्ति व सन्तोष एक अल्लाह की बन्दगी में है, वह बहुत-से ख़ुदाओं की बन्दगी में उसे कभी नहीं मिल सकता। इस जगह पर यह बात भी अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि बहुत से दुष्ट स्वभाववाले और आपस में टकरानेवाले आकाओं को मिसाल पत्थर के बुतों पर सही नहीं उतरती, बल्कि उन जीते-जागते आक़ाओं पर ही सही उतरती है जो व्यावहारिक रूप से आदमी को विरोधाभासी आदेश देते हैं और वास्तव में उसको अपनी-अपनी ओर खींचते रहते हैं। पत्थर के बुत किसे हुक्म दिया करते हैं और कब किसी को खींचकर अपनी ख़िदमत के लिए बुलाते हैं। ये काम तो जिंदा आकाओं ही के करने के हैं। एक आक्रा आदमी के अपने नफ़्स (मन) में बैठा हुआ है जो तरह-तरह की इच्छाएँ उसके सामने पेश करता है और उसे मजबूर करता रहता है कि वह उन्हें पूरा करे। दूसरे अनगिनत आक़ा घर में, ख़़ानदान में, बिरादरी में, क़ौम और देश के समाज में, धार्मिक गुरुओं में, हुक्मरानों और क़ानून बनानेवालों में, कारोबार और अर्थतंत्र की सीमाओं में और संसार की संस्कृति पर ग़लबा (आधिपत्य) रखनेवाली ताक़तों में हर ओर मौजूद हैं, जिनके परस्पर विरोधी तक़ाज़े और अलग-अलग माँगें, हर वक्त आदमी को अपनी-अपनी ओर खींचते रहते हैं और उनमें से जिसका तकाज़ा पूरा करने में भी वह कोताही करता है, वह अपने कार्यक्षेत्रों में उसको सज़ा दिए बिना नहीं छोड़ता, अलबत्ता हर एक की सज़ा के हथियार अलग-अलग हैं। कोई दिल मसोसता है, कोई रूठ जाता है, कोई नक्कू बनाता है, कोई बाइकाट करता है, कोई दीवाला निकालता है, कोई मज़हब का वार करता है और कोई क़ानून की चोट लगाता है। इस घुटन से निकलने की कोई शक्ल इंसान के लिए इसके सिवा नहीं है कि वह तौहीद (एकेश्वरवाद) का दृष्टिकोण अपनाकर केवल एक ख़ुदा का बन्दा बन जाए और हर दूसरे की बन्दगी का पट्टा अपनी गरदन से उतार फेंके। तौहीद (एकेश्वरवाद) का रास्ता अपनाने की भी दो शक्लें हैं, जिनके नतीजे अलग-अलग हैं। एक शक्ल यह है कि एक व्यक्ति अपनी निजी हैसियत में एक ख़ुदा का बन्दा बनकर रहने का फ़ैसला करे और आसपास का माहौल इस मामले में उसका साथी न हो। इस रूप में यह तो हो सकता है कि बाहरी संघर्ष और घुटन उसके लिए पहले से भी ज़्यादा बढ़ जाए, लेकिन अगर उसने सच्चे दिल से यह रास्ता इख्तियार किया हो, तो उसे अन्दरूनी अम्न व इत्मीनान अवश्य ही मिल जाएगा। वह मन (नफ़्स) की हर उस कामना को रद्द कर देगा जो ईश-आदेशों के विरुद्ध हो या जिसे पूरा करने के साथ ख़ुदापरस्ती के तक़ाज़े पूरे न किए जा सकते हों। वह ख़ानदान, बिरादरी, क़ौम, हुकूमत, मज़हबी पेशवाई और आर्थिक सत्ता को किसी भी ऐसी माँग को क़बूल न करेगा जो अल्लाह के क़ानून से टकराती हो। इसके नतीजे में उसे अति कष्ट पहुँच सकता है, बल्कि अवश्य ही पहुँचेगा, लेकिन उसका दिल पूरी तरह सन्तुष्ट होगा कि जिस ख़ुदा का मैं बन्दा हूँ, उसकी बन्दगी का तकाजा पूरा कर रहा हूँ और जिनका बन्दा मैं नहीं हैं, उनका मुझपर कोई अधिकार नहीं है जिसके आधार पर मैं अपने रब के आदेश के विरुद्ध उनकी बन्दगी बजा लाऊँ । यह मन का सन्तोष और आत्मा की शान्ति व सुकून दुनिया की कोई शक्ति उससे नहीं छीन सकती यहाँ तक कि अगर उसे फाँसी पर भी चढ़ना पड़ जाए तो वह ठंडे दिल से चढ़ जाएगा और उसको तनिक भी पछतावा न होगा कि मैंने क्यों न झूठे खुदाओं के आगे सिर झुकाकर अपनी जान बचा ली। दूसरी शक्ल यह है कि पूरा समाज इसी तौहीद (एकेश्वरवाद) की बुनियाद पर कायम हो जाए और उसमें चरित्र, सभ्यता, संस्कृति शिक्षा, धर्म, कानून, रस्म व रिवाज, राजनीति, अर्थतंत्र, तात्पर्य यह कि जिंदगी के हर क्षेत्र के लिए वे सिद्धान्त आस्था-स्वरूप में मान लिए जाएँ और व्यावहारिक रूप से प्रचलित हो जाएँ जो अल्लाह ने अपनी किताब और अपने रसूल के ज़रिये से दिए हैं। खुदा का दीन जिसको गुनाह कहता है, क़ानून उसी को अपराध ठहराए, सरकार की प्रशासनिक मशीन उसी को मिटाने की कोशिश करे, शिक्षा-दीक्षा उसी से बचने के लिए मन मस्तिष्क और चरित्र तैयार करे, धार्मिक प्लेटफार्मों से उसी के विरुद्ध आवाज़ उठे, समाज उसे दोषी ठहराए और हर आर्थिक कारोबार में उसपर रोक लग जाए। इसी तरह ख़ुदा का दीन जिस चीज़ को भलाई और नेकी करार दे, क़ानून उसका समर्थन करे, प्रशासन की शक्तियाँ उसे परवान चढ़ाने में लग जाएँ। शिक्षा-दीक्षा की पूरी व्यवस्था मन-मस्तिष्क में उसको बिठाने और आचरणों में उस रचा देने की कोशिश करे, धार्मिक प्लेटफार्म उसी की प्रेरणा दे, समाज उसी की प्रशंसा करे और अपने व्यावहारिक रस्म व रिवाज उसपर कायम कर दे और आर्थिक कारोबार भी उसी के अनुसार चले। यह वह शक्त है, जिसमें इंसान को पूर्ण आन्तरिक और बाह्य सन्तोष मिल जाता है और भौतिक, आध्यात्मिक प्रगति के तमाम दरवाजे उसके लिए खुल जाते हैं, क्योंकि उसमें रब की बन्दगी और गैर की बन्दगी के तक़ाज़ों का टकराव क़रीब-क़रीब समाप्त हो जाता है।
49. यहाँ अलहम्दु लिल्लाहि' की सार्थकता समझने के लिए यह नक़शा जेहन में लाइए कि ऊपर का सवाल लोगों के सामने पेश करने के बाद वक्ता ने मौन धारण किया, ताकि अगर तौहीद (एकेश्वरवाद) के विरोधियों के पास इसका कोई उत्तर हो तो दें। फिर जब उनसे कोई उत्तर न बन पड़ा और किसी ओर से यह आवाज न आई कि दोनों बराबर हैं, तो वक्ता ने कहा, 'अलहम्दु लिल्लाहि' अर्थात् अल्लाह का शुक्र है कि तुम स्वयं भी अपने दिलों में इन दोनों हालतों का अन्तर महसूस करते हो और तुममें से कोई भी यह कहने का साहस नहीं रखता कि एक आका (स्वामी) की बन्दगी से बहुत-से आकाओं की बन्दगी श्रेष्ठ है या दोनों बराबर हैं।
إِنَّكَ مَيِّتٞ وَإِنَّهُم مَّيِّتُونَ ۝ 29
(30) (ऐ नबी!) तुम्हें भी मरना है और इन लोगों को भी मरना है।51
51. पिछले वाक्य और इस वाक्य के बीच एक सूक्ष्म अन्तराल है जिसकी पूर्ति संदर्भ और प्रसंग का विचार करके हर सूझ-बूझवाला व्यक्ति कर सकता है। इसमें यह विषय छुपा हुआ है कि इस-इस तरह तुम एक साफ़-सीधी बात सीधे तरीके से इन लोगों को समझा रहे हो और ये लोग न सिर्फ हठधर्मी से तुम्हारी बात रद्द कर रहे हैं, बल्कि इस खुली सच्चाई को दबाने के लिए तुम्हारे पीछे पड़ गए हैं, अच्छा, हमेशा तुम्हें रहना है, न इन्हें । दोनों को एक दिन मरना है। अंजाम सबके सामने आ जाएगा।
ثُمَّ إِنَّكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ عِندَ رَبِّكُمۡ تَخۡتَصِمُونَ ۝ 30
(31) अन्तत: क़ियामत के दिन तुम सब अपने रब के सामने अपना-अपना मुकद्दमा पेश करोगे।
۞فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن كَذَبَ عَلَى ٱللَّهِ وَكَذَّبَ بِٱلصِّدۡقِ إِذۡ جَآءَهُۥٓۚ أَلَيۡسَ فِي جَهَنَّمَ مَثۡوٗى لِّلۡكَٰفِرِينَ ۝ 31
(32) फिर उस आदमी से बढ़कर ज़ालिम और कौन होगा, जिसने अल्लाह पर झूठ बाँधा और जब सच्चाई उसके सामने आई तो उसे झुठला दिया। क्या ऐसे लोगों के लिए जहन्नम में कोई ठिकाना नहीं है?
وَٱلَّذِي جَآءَ بِٱلصِّدۡقِ وَصَدَّقَ بِهِۦٓ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُتَّقُونَ ۝ 32
(33) और जो आदमी सच्चाई लेकर आया और जिन्होंने उसको सच माना, वही अज़ाब से बचनेवाले हैं।52
52. अर्थ यह है कि क़ियामत के दिन अल्लाह की अदालत में जो मुक़द्दमा होना है, उसमें सज़ा पानेवाले कौन होंगे, यह बात तुम आज ही सुन लो। सज़ा अनिवार्य रूप से उन्हीं ज़ालिमों को मिलनी है जिन्होंने ये झूठे अक़ीदे गढ़े कि ख़ुदा के साथ उसकी जात, गुणों, अधिकारों और हक़ों में कुछ दूसरी हस्तियाँ भी शरीक हैं, और इससे भी बढ़कर उनका जुल्म यह है कि जब उनके सामने सच्चाई पेश की गई तो उन्होंने उसे मान कर न दिया, बल्कि उलटा उसी को झूठा क़रार दिया जिसने सच्चाई पेश की । रहा वह आदमी जो सच्चाई लाया और वे लोग जिन्होंने उसकी पुष्टि की, तो स्पष्ट है कि अल्लाह की अदालत से उनके सजा पाने का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता।
لَهُم مَّا يَشَآءُونَ عِندَ رَبِّهِمۡۚ ذَٰلِكَ جَزَآءُ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 33
(34) उन्हें अपने रब के यहाँ वह सब कुछ मिलेगा, जिसकी वे इच्छा करेंगे।53 यह है नेकी करनेवालों का बदला।
53. यह बात ध्यान में रहे कि यहाँ 'जन्नत’ में नहीं, बल्कि उनके के यहाँ' के शब्द कहे गए हैं और स्पष्ट है कि अपने रब के यहाँ तो बन्दा मरने के बाद ही पहुँच जाता है। इसलिए आयत का यह मंशा मालूम होता है कि जन्नत में पहुँच कर ही नहीं, बल्कि मरने के वक़्त से जन्नत में दाखिल होने तक के समय में भी नेक मोमिन के साथ अल्लाह का यही मामला रहेगा। वह बरजख़ के अज़ाब से, क़ियामत के दिन की सब्जियों से, हिसाब की कड़ी पकड़ से, हश्र के मैदान की रुसवाई से, अपनी कोताहियों और गलतियों की पकड़ से ज़रूर ही बचना चाहेगा और महान अल्लाह उसकी ये सारी इच्छाएँ पूरी फ़रमाएगा।
لِيُكَفِّرَ ٱللَّهُ عَنۡهُمۡ أَسۡوَأَ ٱلَّذِي عَمِلُواْ وَيَجۡزِيَهُمۡ أَجۡرَهُم بِأَحۡسَنِ ٱلَّذِي كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 34
(35) ताकि जो सबसे बुरे काम उन्होंने किए थे, उन्हें अल्लाह उनके हिसाब से निकाल दे और जो उत्तम कर्म वे करते रहे, उनके अनुसार उनको बदला दे।54
54. नबी (सल्ल०) पर जो लोग ईमान लाए थे, अज्ञानता-काल में उनसे आस्था और नैतिकता संबंधी दोनों ही तरह के अत्यन्त बुरे काम हो चुके थे और ईमान लाने के बाद उन्होंने सिर्फ यही एक नेकी न की थी कि उस झूठ को छोड़ दिया जिसे वे पहले मान रहे थे और वह सच्चाई स्वीकार कर ली जिसे नबी (सल्ल०) ने पेश फ़रमाया था, बल्कि इससे अधिक यह कि उन्होंने चरित्र, इबादतों और मामलों में सर्वोत्तम अत्यन्त अच्छे कर्म किए थे। अल्लाह फ़रमाता है कि उनके वे अत्यन्त बुरे कर्म जो अज्ञानता काल में उनसे हुए थे, उनके में से मिटा दिए जाएंगे और उनको इनाम उन कर्मों के अनुसार दिया जाएगा, जो उनके कर्म-पत्र में सबसे उत्तम होंगे।
أَلَيۡسَ ٱللَّهُ بِكَافٍ عَبۡدَهُۥۖ وَيُخَوِّفُونَكَ بِٱلَّذِينَ مِن دُونِهِۦۚ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِنۡ هَادٖ ۝ 35
(36) (ऐ नबी!) क्या अल्लाह अपने बन्दे के लिए काफ़ी नहीं है? ये लोग उसके सिवा दूसरों से तुमको डराते हैं,55 हालाँकि अल्लाह जिसे गुमराही में डाल दे उसे कोई रास्ता दिखानेवाला नहीं है,
55. मक्का के इस्लाम-विरोधी नबी (सल्ल०) से कहा करते थे कि तुम हमारे उपास्यों की शान में गुस्ताखिया करते हो। तुम्हें मालूम नहीं है कि ये कैसी ज़बरदस्त चमत्कार करनेवाली हस्तियाँ हैं। उनका अनादर तो जिसने भी किया, वह बर्बाद हो गया। तुम भी अगर अपनी बातों से बाज़ न आए तो ये तुम्हारा तख्ता उलट देंगे।
وَمَن يَهۡدِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِن مُّضِلٍّۗ أَلَيۡسَ ٱللَّهُ بِعَزِيزٖ ذِي ٱنتِقَامٖ ۝ 36
(37) और जिसे वह हिदायत दे उसे भटकानेवाला भी कोई नहीं। क्या अल्लाह ज़बरदस्त और बदला लेनेवाला नहीं है?56
56. अर्थात् यह भी हिदायत से उनकी महरूमी ही का करिश्मा है कि इन मूर्खो को अपने इन उपास्यों की शक्ति और आदर का तो बडा धीयान है मगर उन्हे इस बात का धीयान कभी आता की अल्लाह भी कोई ज़बरदस्त हस्ती है और उसके साथ दूसरों को साझी ठहराकर उसका जो अनादर ये कर रहे हैं, उसकी भी कोई सजा उन्हें मिल सकती है।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّنۡ خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ لَيَقُولُنَّ ٱللَّهُۚ قُلۡ أَفَرَءَيۡتُم مَّا تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ إِنۡ أَرَادَنِيَ ٱللَّهُ بِضُرٍّ هَلۡ هُنَّ كَٰشِفَٰتُ ضُرِّهِۦٓ أَوۡ أَرَادَنِي بِرَحۡمَةٍ هَلۡ هُنَّ مُمۡسِكَٰتُ رَحۡمَتِهِۦۚ قُلۡ حَسۡبِيَ ٱللَّهُۖ عَلَيۡهِ يَتَوَكَّلُ ٱلۡمُتَوَكِّلُونَ ۝ 37
(38) इन लोगों से अगर तुम पूछो कि ज़मीन और आसमानों को किसने पैदा किया है तो ये स्वयं कहेंगे कि अल्लाह ने। इनसे पूछो, जब सच्चाई यह है तो तुम्हारा क्या विचार है कि अगर अल्लाह मुझे कोई हानि पहुँचाना चाहे तो क्या तुम्हारी ये देवियाँ, जिन्हें तुम अल्लाह को छोड़कर पुकारते हो, मुझे उसकी पहुँचाई हुई हानि से बचा लेंगी? या अल्लाह मुझपर दया करना चाहे, तो क्या ये उसकी रहमत को रोक सकेंगी? तो इनसे कह दो कि मेरे लिए अल्लाह ही काफ़ी है, भरोसा करनेवाले उसी पर भरोसा करते हैं।57
57. इने-अबी हातिम ने इने-अब्बास से रिवायत नक़ल की है कि नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया, "जो आदमी चाहता हो कि सब इंसानों से अधिक शक्तिशाली हो जाए, उसे चाहिए कि अल्लाह पर भरोसा करे और जो आदमी चाहता हो कि सबसे बढ़कर मालदार हो जाए, उसे चाहिए कि जो कुछ अल्लाह के पास है उसपर ज़्यादा भरोसा रखे, उस चीज़ के मुकाबले में जो उसके अपने हाथ में है। और जो आदमी चाहता हो कि सबसे ज्यादा इज्जतवाला हो जाए, उसे चाहिए कि प्रतापी और शक्तिशाली अल्लाह से डरे।"
قُلۡ يَٰقَوۡمِ ٱعۡمَلُواْ عَلَىٰ مَكَانَتِكُمۡ إِنِّي عَٰمِلٞۖ فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ ۝ 38
(39-40) इनसे साफ़ कहो कि "हे मेरी क़ौम के लोगो! तुम अपनी जगह अपना काम किए जाओ।58 मैं अपना काम करता रहूँगा। जल्द ही तुम्हें मालूम हो जाएगा कि किसपर रुसवा करनेवाला अज़ाब आता है और किसे वह सज़ा मिलती है जो कभी टलनेवाली नहीं।"
58. अर्थात् मुझे नीचा दिखाने के लिए जो कुछ तुम कर रहे हो और कर सकते हो, वह किए जाओ, अपनी करनी में कोई कसर न उठा रखो।
مَن يَأۡتِيهِ عَذَابٞ يُخۡزِيهِ وَيَحِلُّ عَلَيۡهِ عَذَابٞ مُّقِيمٌ ۝ 39
0
إِنَّآ أَنزَلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ لِلنَّاسِ بِٱلۡحَقِّۖ فَمَنِ ٱهۡتَدَىٰ فَلِنَفۡسِهِۦۖ وَمَن ضَلَّ فَإِنَّمَا يَضِلُّ عَلَيۡهَاۖ وَمَآ أَنتَ عَلَيۡهِم بِوَكِيلٍ ۝ 40
(41) (ऐ नबी!) हमने सब इंसानों के लिए यह किताब सत्य के साथ तुमपर उतार दी है। अब जो सीधा रास्ता अपनाएगा, अपने लिए अपनाएगा और जो भटकेगा, उसके भटकने का वबाल उसी पर होगा, तुम उनके ज़िम्मेदार नहीं हो।59
59. अर्थात् तुम्हारे सुपुर्द उन्हें सीधे रास्ते पर ले आना नहीं है। तुम्हारा काम केवल यह है कि उनके सामने साधा रास्ता पेश कर दो। इसके बाद अगर ये गुमराह रहें, तो तुमपर कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।
ٱللَّهُ يَتَوَفَّى ٱلۡأَنفُسَ حِينَ مَوۡتِهَا وَٱلَّتِي لَمۡ تَمُتۡ فِي مَنَامِهَاۖ فَيُمۡسِكُ ٱلَّتِي قَضَىٰ عَلَيۡهَا ٱلۡمَوۡتَ وَيُرۡسِلُ ٱلۡأُخۡرَىٰٓ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمًّىۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 41
(42) वह अल्लाह ही है जो मौत के समय रूहों (प्राणों) को ग्रस्त लेता है और जो अभी नहीं मरा है, उसकी रूह नींद में ग्रस्त लेता है,60 फिर जिसपर वह मौत का फैसला लागू करता है उसे रोक लेता है और दूसरों की रूहें एक निश्चित समय के लिए वापस भेज देता है। इसमें बड़ी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो सोच-विचार करनेवाले हैं।61
60. नींद की हालत में रूह ग्रस्त लेने से तात्पर्य अनुभूति, चेतना, सूझ-बूझ और अधिकार तथा इरादे की ताकतों को मुअत्तल (स्थगित) कर देना है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसपर उर्दू भाषा की यह कहावत वास्तव में चरितार्थ होती है कि सोया और मुआ (मरा) बराबर।
61. इस कथन से अल्लाह तआला हर इंसान को यह एहसास दिलाना चाहता है कि मौत और जिंदगी किस तरह उसके इख़तियार में है। कोई व्यक्ति भी यह जमानत नहीं रखता कि रात को जब वह सोएगा तो सुबह ज़रूर ही वह जिंदा उठेगा। किसी को भी यह मालूम नहीं कि एक घड़ी भर में उसपर क्या मुसीबत आ सकती है और दूसरा क्षण उसपर जिंदगी का क्षण होता है या मौत का। हर समय सोते में या जागते में, घर बैठे या कहीं चलते-फिरते, आदमी के शरीर की कोई अन्दरूनी खराबी या बाहर से कोई अनजानी आफ़त यकायक वह रूप धारण कर सकती है जो उसके लिए मृत्यु सन्देश बन जाए। इस तरह जो इंसान अल्लाह के हाथ में बेबस है वह कितना बड़ा नादान है अगर उसी अल्लाह से लापरवाह या विमुख हो।
أَمِ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ شُفَعَآءَۚ قُلۡ أَوَلَوۡ كَانُواْ لَا يَمۡلِكُونَ شَيۡـٔٗا وَلَا يَعۡقِلُونَ ۝ 42
(43) क्या उस अल्लाह को छोड़कर इन लोगों ने दूसरों को सिफ़ारिशी बना रखा है?62 इनसे कहो, क्या वे सिफ़ारिश करेंगे, भले ही उनके अधिकार में कुछ हो न हो और वे समझते भी न हों?
62. अर्थात् एक तो इन लोगों ने अपने तौर पर स्वयं ही यह मान लिया कि कुछ हस्तियाँ अल्लाह के यहाँ बड़ी शक्तिशाली हैं, जिनकी सिफ़ारिश किसी तरह टल नहीं सकती, हालाँकि उनके सिफ़ारिशी होने का न कोई प्रमाण, न अल्लाह ने कभी यह कहा कि उनको मेरे यहाँ यह हैसियत प्राप्त है और न स्वयं उन हस्तियों ने कभी यह दावा किया कि हम अपने ज़ोर से तुम्हारे सारे काम बनवा दिया करेंगे। इसपर और अधिक मूर्खता उन लोगों की यह है कि असल मालिक को छोड़कर उन काल्पनिक सिफ़ारिशियों ही को सब कुछ समझ बैठे हैं और इनकी सारी भक्तियाँ-श्रद्धाएँ उन्हीं के लिए अर्पित हैं।
قُل لِّلَّهِ ٱلشَّفَٰعَةُ جَمِيعٗاۖ لَّهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ ثُمَّ إِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 43
(44) कहो, सिफ़ारिश सारी की सारी अल्लाह के अधिकार में है।63 आसमानों और ज़मीन की बादशाही का वही स्वामी है। फिर उसी की ओर तुम पलटाए जानेवाले हो।
63. अर्थात किसी का यह ज़ोर नहीं है कि अल्लाह के सामने स्वयं सिफ़ारिशी बनकर उठ ही सके, कहाँ यह कि अपनी सिफ़ारिश मनवा लेने को ताक़त भी उसमें हो। यह बात तो बिल्कुल अल्लाह के अधिकार में है कि जिसे चाहे सिफ़ारिश की अनुमति दे और जिसे चाहे न दे और जिसके हक में चाहे किसी को सिफ़ारिश करने दे और जिसके हक़ में चाहे न करने दे। (सिफ़ारिश की इस्लामी अवधारणा और ग़ैर-इस्लामी अवधारणा का अन्तर समझने के लिए देखिए, सूरा 2 अल-बक़रा, टिप्पणी 281; सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 33; सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 5-24; सूरा-11 हूद, टिप्पणी 84; सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 85-86; सूरा-21 अल-अंबिया, टिप्पणी 27; सूरा-22 अल-हज्ज, टिप्पणी 125; सूरा-34 अस-सबा, टिप्पणी 40)
وَإِذَا ذُكِرَ ٱللَّهُ وَحۡدَهُ ٱشۡمَأَزَّتۡ قُلُوبُ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِۖ وَإِذَا ذُكِرَ ٱلَّذِينَ مِن دُونِهِۦٓ إِذَا هُمۡ يَسۡتَبۡشِرُونَ ۝ 44
(45) जब अकेले अल्लाह का ज़िक्र (स्मरण) किया जाता है तो आखिरत पर ईमान न रखनेवालों के दिल कुढ़ने लगते हैं, और जब उसके सिवा दूसरों का ज़िक्र होता है तो यकायक वे खुशी से खिल उठते हैं।64
64. यह बात लगभग सारी दुनिया के बहुदेववादी प्रवृत्ति रखनेवाले लोगों में समान रूप से विद्यमान है। यहाँ तक कि मुसलमानों में भी जिन अभागों को यह बीमारी लग गई है, वे भी इस दोष से मुक्त नहीं हैं। मुख से कहते हैं कि हम अल्लाह को मानते हैं, लेकिन हालत यह है कि अकेले अल्लाह का ज़िक्र कीजिए तो उनके चेहरे बिगड़ने लगते हैं। कहते हैं, जरूर यह आदमी बुजुर्गों और वलियों को नहीं मानता, जभी तो बस अल्लाह ही अल्लाह की बातें किए जाता है, और अगर दूसरों का जिक्र किया जाए तो उनके दिलों की कली खिल जाती है और प्रसन्नता से उनके चेहरे दमकने लगते हैं। इस आचरण से स्पष्ट होता है कि इनको वास्तव में दिलचस्पी और मुहब्बत किससे है। अल्लामा आलूसी ने तफ्सीर रूहुल मआनी' में इस जगह स्वयं अपना एक अनुभव बयान किया है। फ़रमाते हैं कि एक दिन मैंने देखा कि एक आदमी अपनी किसी मुसीबत में एक मरे हुए बुजुर्ग को मदद के लिए पुकार रहा है। मैंने कहा, अल्लाह के बन्दे! अल्लाह को पुकार। अल्लाह ख़ुद फ़रमाता है कि "और जब आपसे (ऐ पैग़म्बर!) मेरा बन्दा मेरे बारे में कुछ पूछे, तो (कहो) मैं बहुत क़रीब हूँ। पुकारनेवाले की पुकार मैं सुनता हूँ।" मेरी यह बात सुनकर उसे बहुत ग़ुस्सा आया और बाद में लोगों ने मुझे बताया कि वह कहता था कि यह आदमी वलियों का इंकारी है और कुछ लोगों ने उसको यह कहते भी सुना कि अल्लाह के मुक़ाबले में वली जल्दी सुन लेते हैं।
قُلِ ٱللَّهُمَّ فَاطِرَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ عَٰلِمَ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ أَنتَ تَحۡكُمُ بَيۡنَ عِبَادِكَ فِي مَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 45
(46) कहो, ऐ अल्लाह! आसमानों और ज़मीन के पैदा करनेवाले, हाज़िर व ग़ायब के जाननेवाले, तू ही अपने बन्दों के दर्मियान उस चीज़ का फ़ैसला करेगा जिसमें वे विभेद करते रहे हैं ।
وَلَوۡ أَنَّ لِلَّذِينَ ظَلَمُواْ مَا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا وَمِثۡلَهُۥ مَعَهُۥ لَٱفۡتَدَوۡاْ بِهِۦ مِن سُوٓءِ ٱلۡعَذَابِ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ وَبَدَا لَهُم مِّنَ ٱللَّهِ مَا لَمۡ يَكُونُواْ يَحۡتَسِبُونَ ۝ 46
(47) अगर इन ज़ालिमों के पास ज़मीन की सारी दौलत भी हो और उतनी ही और भी, तो ये क्रियामत के दिन के बुरे अज़ाब से बचने के लिए सब कुछ फ़िद्ये (मुक्ति-प्रतिदान) में देने के लिए तैयार हो जाएँगे। वहाँ अल्लाह की ओर से उनके सामने वह कुछ आएगा जिसका उन्होंने कभी अंदाज़ा ही नहीं किया है।
وَبَدَا لَهُمۡ سَيِّـَٔاتُ مَا كَسَبُواْ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 47
(48) वहाँ अपनी कमाई के सारे बुरे नतीजे उनपर खुल जाएँगे और वही चीज़ उनपर मुसल्लत हो जाएगी, जिसका ये मजाक उड़ाते रहे हैं।
فَإِذَا مَسَّ ٱلۡإِنسَٰنَ ضُرّٞ دَعَانَا ثُمَّ إِذَا خَوَّلۡنَٰهُ نِعۡمَةٗ مِّنَّا قَالَ إِنَّمَآ أُوتِيتُهُۥ عَلَىٰ عِلۡمِۭۚ بَلۡ هِيَ فِتۡنَةٞ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 48
(49) यही इंसान65 जब ज़रा-सी मुसीबत उसे छू जाती है तो हमें पुकारता है और जब हम उसे अपनी ओर से नेमत देकर तृप्त कर देते हैं तो कहता है कि यह तो मुझे ज्ञान के आधार पर दिया गया है।66 नहीं, बल्कि यह आज़माइश है, मगर इनमें से अधिकतर लोग जानते नहीं हैं।67
65. अर्थात् जिसे अल्लाह के नाम से चिढ़ है और अकेले अल्लाह का जिक्र सुनकर जिसका चेहरा बिगड़ने लगता है।
66. इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि अल्लाह जानता है कि मैं इस नेमत के योग्य है, इसी लिए उसने मुझे यह कुछ दिया है, वरना अगर उसके नजदीक मैं एक बुरा और बद-आकीदा (धर्मभ्रष्ट) और बुरे काम करनेवाला आदमी होता तो मुझे ये नेमतें क्यों देता। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि यह तो मुझे मेरी योग्यता के आधार पर मिला है।
قَدۡ قَالَهَا ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ فَمَآ أَغۡنَىٰ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 49
(50) यही बात इनसे पहले गुज़रे हुए लोग भी कह चुके हैं, मगर जो कुछ वे कमाते थे वह उनके किसी काम न आया।68
68. अर्थ यह है कि जब उनकी शामत आई तो वह योग्यता भी धरी रह गई जिसका उन्हें दावा था, और यह बात भी खुल गई कि वे अल्लाह के पसन्दीदा वन्दे न थे। स्पष्ट है कि अगर उनकी यह कमाई उनको प्रियता और क्षमता के आधार पर होती तो शामत कैसे आ जाती।
فَأَصَابَهُمۡ سَيِّـَٔاتُ مَا كَسَبُواْۚ وَٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡ هَٰٓؤُلَآءِ سَيُصِيبُهُمۡ سَيِّـَٔاتُ مَا كَسَبُواْ وَمَا هُم بِمُعۡجِزِينَ ۝ 50
(51) फिर अपनी कमाई के बुरे नतीजे उन्होंने भुगते, और उन लोगों में से भी जो ज़ालिम हैं, वे बहुत जल्द अपनी कमाई के बुरे नतीजे भुगतेंगे, ये हमें बेबस (निरुपाय) कर देनेवाले नहीं हैं।
أَوَلَمۡ يَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 51
(52) और क्या उन्हें मालूम नहीं है कि अल्लाह जिसकी रोजी चाहता है कुशादा कर देता है और जिसकी चाहता है, तंग कर देता है?69 इसमें निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।
69. अर्थात् आजीविका (रोज़ी) की तंगी और कुशादगी अल्लाह के एक दूसरे ही विधान पर आधारित है जिसके निहितार्थ और हित कुछ और हैं। आजीविका के इस वितरण का आधार आदमी की योग्यता और क्षमता या उसके प्रिय या अप्रिय होने पर कदापि नहीं है। (इस विषय के विस्तृत विवरण के लिए देखिए, सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 23; सूरा-11 हूद, टिप्पणी 3; सूरा-13 अर-रअद, टिप्पणी 42; सूरा-18 अल-कह्फ़, टिप्पणी 37-38; सूरा-19 मरयम, टिप्पणी 45; सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 113-114; सूरा-21 अल-अंबिया, टिप्पणी 99; सूरा-23 अल-मुअमिनून, टिप्पणी 1, 50; सूरा-28 अल-कसस, टिप्पणी 97-98, 101; सूरा-34 सूरा सबा, टिप्पणी 54-60)
۞قُلۡ يَٰعِبَادِيَ ٱلَّذِينَ أَسۡرَفُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ لَا تَقۡنَطُواْ مِن رَّحۡمَةِ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَغۡفِرُ ٱلذُّنُوبَ جَمِيعًاۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 52
(53) (ऐ नबी!) कह दो कि ऐ मेरे बन्दो,70 जिन्होंने अपनी जानों पर ज़्यादती की है,अल्लाह की रहमत से निराश न हो जाओ, निश्चय ही अल्लाह सारे गुनाह क्षमा कर देता है। वह तो क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।71
70. कुछ लोगों ने इन शब्दों का यह विचित्र अर्थ निकाला है कि अल्लाह ने नबी (सल्ल०) को स्वयं ऐ मेरे बन्दो!' कहकर लोगों को सम्बोधित करने का आदेश दिया है इसलिए सब इंसान नबी (सल्ल०) के बन्दे हैं। यह वास्तव में एक ऐसा अर्थ है जिसे अर्थ नहीं, बल्कि कुरआन के अर्थों में अत्यन्त निकृष्ट परिवर्तन की दृष्टि से सबसे बुरी विकृति और अल्लाह की वाणी के साथ खेल कहना चाहिए। अज्ञानी श्रद्धालुओं का कोई गिरोह तो इस बात को सुनकर झूम उठेगा, लेकिन यह अर्थ अगर सही हो तो फिर पूरा क़ुरआन ग़लत हुआ जाता है, क्योंकि क़ुरआन तो शुरू से आख़िर तक इंसानों को सिर्फ़ अल्लाह का बन्दा क़रार देता है और उसकी सारी शिक्षा ही यह है कि तुम एक अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करो। मुहम्‍मद (सल्ल०) स्वयं बन्दे थे। उनको अल्लाह ने रब नहीं, बल्कि रसूल बनाकर भेजा था, और इसलिए भेजा था कि स्वयं भी उसी की बन्दगी करें और लोगों को भी उसी की बन्दगी सिखाएँ। आरिवर किसी बुद्धिवाले व्यक्ति के दिमाग में यह बात कैसे समा सकती है कि मक्का मुअज्जमा में कुरैश के इस्लाम विरोधियों के बीच खड़े होकर एक दिन मुहम्मद (सल्ल०) ने यकायक यह एलान कर दिया होगा कि तुम तो उज्‍़ज़ा और शम्स देवता के बजाए वास्तव में मुहम्मद के बन्दे हो। (अल्लाह इस तरह की बुरी धारणाओं से हमें पनाह में रखे।)
71. यह सम्बोधन तमाम इंसानों से है। केवल ईमानवालों को सम्बोधित ठहराने के लिए कोई वजनी दलील नहीं है। और जैसा कि अल्लामा इब्ने-कसीर ने लिखा है कि आम इंसानों को सम्बोधित करके यह बात कहने का अर्थ यह नहीं है कि अल्लाह तौबा के बिना और अल्लाह की ओर उन्मुख हुए बिना सारे गुनाह माफ़ कर देता है, बल्कि बादवाली आयतों में अल्लाह ने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है कि गुनाहों की माफ़ी की सूरत बन्दगी और आज्ञापालन की ओर पलट आना और अल्लाह के उतारे हुए सन्देश की पैरवी अपना लेना है। वास्तव में यह आयत उन लोगों के लिए आशा का सन्देश लेकर आई थी जो अज्ञानता में क़त्‍ल, जिना (दुराचार), चोरी, डाके और ऐसे ही सख्त गुनाहों में पड़े रह चुके थे और इस बात से निराश थे कि ये अपराध कभी क्षमा न हो सकेंगे। उनसे फ़रमाया गया है कि अल्लाह की रहमत से निराश न हो जाओ। जो कुछ भी तुम कर चुके हो, उसके बाद अब अगर अपने रब के आज्ञापालन की ओर पलट आओ तो सब कुछ माफ़ हो जाएगा। इस आयत का यही अर्थ इब्ने-अब्बास (रजि०), क़तादा, मुजाहिद और इब्ने-ज़ैद (रह०) ने बयान किया है। (इब्ने-जरीर, बुख़ारी, मुस्लिम, अबू दाऊद, तिर्मिज़ी) (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए : सूरा-25 अल-फ़ुरक़ान, टिप्पणी 86)
وَأَنِيبُوٓاْ إِلَىٰ رَبِّكُمۡ وَأَسۡلِمُواْ لَهُۥ مِن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَكُمُ ٱلۡعَذَابُ ثُمَّ لَا تُنصَرُونَ ۝ 53
(54) पलट जाओ अपने रब की ओर और आज्ञाकारी बन जाओ उसके, इससे पहले कि तुमपर अज़ाब आ जाए और फिर कहीं से तुम्‍हें सहायता न मिल सके।
وَٱتَّبِعُوٓاْ أَحۡسَنَ مَآ أُنزِلَ إِلَيۡكُم مِّن رَّبِّكُم مِّن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَكُمُ ٱلۡعَذَابُ بَغۡتَةٗ وَأَنتُمۡ لَا تَشۡعُرُونَ ۝ 54
(55) और पैरवी अपना लो अपने रब की भेजी हुई किताब के श्रेष्‍ठतम पहलू की,72 इससे पहले कि तुमपर अचानक अजाब आ जाए और तुमको ख़बर भी न हो।
72. अल्लाह की किताब के श्रेष्ठतम पहलू की पैरवी करने का अर्थ यह है कि अल्लाह ने जिन कामों का आदेश दिया है आदमी उनका पालन करे, जिन कामों से उसने मना किया है उनसे बचे और मिसालों और किस्सों में जो कुछ उसने फ़रमाया है, उससे शिक्षा और नसीहत हासिल करे। इसके विपरीत जो व्यक्ति आदेश से मुँह मोड़ता है, मना की हुई चीज़ों को करता है और अल्लाह की शिक्षा और नसीहत का कोई असर नहीं लेता, वह अल्लाह की किताब के बदतरीन पहलू को इख़्तियार करता है, यानी वह पहलू अपनाता है जिससे अल्लाह की किताब सबसे बुरा ठहराती है।
أَن تَقُولَ نَفۡسٞ يَٰحَسۡرَتَىٰ عَلَىٰ مَا فَرَّطتُ فِي جَنۢبِ ٱللَّهِ وَإِن كُنتُ لَمِنَ ٱلسَّٰخِرِينَ ۝ 55
(56) कहीं ऐसा न हो कि आप में कोई आदमी कहे, "आफ़सोस मेरी उस कोताही पर जो मैं अल्लाह के हाक में करता रहा, बल्कि मैं तो उलटा मजाक उड़ानेवालों में शामिल था।"
أَوۡ تَقُولَ لَوۡ أَنَّ ٱللَّهَ هَدَىٰنِي لَكُنتُ مِنَ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 56
(57) या कहे " काश! अल्लाह ने मेरा मार्गदर्शन किया होता तो मैं भी (अल्लाह से) डरनेवालों में से होता"
أَوۡ تَقُولَ حِينَ تَرَى ٱلۡعَذَابَ لَوۡ أَنَّ لِي كَرَّةٗ فَأَكُونَ مِنَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 57
(58) या अजाब देखकर को, "काश ! मुझे एक अवसर और मिल जाए और मैं भी भले कर्म करनेवालों में शामिल हो आऊँ।"
بَلَىٰ قَدۡ جَآءَتۡكَ ءَايَٰتِي فَكَذَّبۡتَ بِهَا وَٱسۡتَكۡبَرۡتَ وَكُنتَ مِنَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 58
(59) (और उस समय उसे यह उत्तर मिले कि) "क्यों नहीं, मेरी आयतें तेरे पास आ चुकी थीं, फिर तूने उन्हें झुठलाया और घमंड किया और तू इंकार करनेवालों में से था।"
وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ تَرَى ٱلَّذِينَ كَذَبُواْ عَلَى ٱللَّهِ وُجُوهُهُم مُّسۡوَدَّةٌۚ أَلَيۡسَ فِي جَهَنَّمَ مَثۡوٗى لِّلۡمُتَكَبِّرِينَ ۝ 59
(60) आज जिन लोगों ने अल्लाह पर झूठ बाँधे हैं, क़ियामत के दिन तुम देखोगे कि उनके मुँह काले होंगे। क्या जहन्नम में अहंकारियों के लिए काफ़ी जगह नहीं है ?
وَيُنَجِّي ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ بِمَفَازَتِهِمۡ لَا يَمَسُّهُمُ ٱلسُّوٓءُ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 60
(61) इसके विपरीत जिन लोगों ने यहाँ डर रखा है, उनके सफलता-उपक्रम के कारण अल्लाह उनको नजात (मुक्ति) देगा, उनको न कोई चोट पहुंचेगी और न वे दुखी होंगे।
ٱللَّهُ خَٰلِقُ كُلِّ شَيۡءٖۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ وَكِيلٞ ۝ 61
(62) अल्लाह हर चीज़ का पैदा करनेवाला है और वही हर चीज़ पर निगहबान है?73
73. अर्थात् उसने दुनिया को पैदा करके छोड़ नहीं दिया है, बल्कि वही हर चीज़ की ख़बरगीरी और देखभाल कर रहा है। दुनिया की तमाम चीजें जिस तरह उसके पैदा करने से वुजूद में आई हैं, उसी तरह वे उसके बाक़ी रखने से बाक़ी हैं, उसके परवरिश करने से फल-फूल रही हैं और उसकी हिफ़ाज़त और निगरानी में काम कर रही हैं।
لَّهُۥ مَقَالِيدُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 62
(63) ज़मीन और आसमानों के ख़ज़ानों की कुँजियाँ उसी के पास हैं और जो लोग अल्लाह की आयतों का इंकार करते हैं, वही घाटे में रहनेवाले हैं।
قُلۡ أَفَغَيۡرَ ٱللَّهِ تَأۡمُرُوٓنِّيٓ أَعۡبُدُ أَيُّهَا ٱلۡجَٰهِلُونَ ۝ 63
(64) (ऐ नबी!) इनसे कहो, "फिर क्या ऐ अज्ञानियो ! तुम अल्लाह के सिवा किसी और को बन्दगी करने के लिए मुझसे कहते हो?"
وَلَقَدۡ أُوحِيَ إِلَيۡكَ وَإِلَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكَ لَئِنۡ أَشۡرَكۡتَ لَيَحۡبَطَنَّ عَمَلُكَ وَلَتَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 64
(65) (यह बात तुम्हें उनसे स्पष्ट रूप से कह देनी चाहिए, क्योंकि) तुम्हारी ओर और तुमसे पहले गुज़रे हुए तमाम नबियों की ओर यह वह्य भेजी जा चुकी है कि अगर तुमने शिर्क किया तो तुम्हारा कर्म नष्ट हो जाएगा74 और तुम घाटे में रहोगे।
74. अर्थात् शिर्क के साथ किसी काम को नेक काम नहीं कहा जाएगा, और जो आदमी भी मुशरिक रहते हुए अपने नज़दीक बहुत-से कामों को नेक काम समझते हुए करेगा, उनपर वह किसी बदले का अधिकारी न होगा और उसकी पूरी जिंदगी पूरे तौर पर बर्बाद और अकारथ होकर रह जाएगी।
بَلِ ٱللَّهَ فَٱعۡبُدۡ وَكُن مِّنَ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 65
(66) इसलिए (ऐ नबी!) तुम बस अल्लाह ही की बन्दगी करो और कृतज्ञ बन्दों में से हो जाओ।
وَمَا قَدَرُواْ ٱللَّهَ حَقَّ قَدۡرِهِۦ وَٱلۡأَرۡضُ جَمِيعٗا قَبۡضَتُهُۥ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَٱلسَّمَٰوَٰتُ مَطۡوِيَّٰتُۢ بِيَمِينِهِۦۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 66
(67) इन लोगों ने अल्लाह की क़द्र ही न की जैसा कि उसकी क़द्र करने का हक़ है।75 (उसकी पूर्ण सामर्थ्य का हाल तो यह है कि) क़ियामत के दिन पूरी ज़मीन उसकी मुट्ठी में होगी और आसमान उसके सीधे हाथ में लिपटे हुए होंगे।76 पाक और सर्वोच्च है यह उस शिव से जी ये लोग करते हैं।77
75. अर्थात् उनको अल्लाह की महानता और महत्ता का कुछ अनुमान ही नहीं है। उन्होंने कभी यह समझने की कोशिश ही नहीं की कि सर्वजगत् के स्वामी अल्लाह का मक़ाम कितना ऊँचा है और वे तुच्छ हस्तियाँ क्या चीज़ हैं जिनको ये नादान लोग 'ख़ुदाई में शरीक और उपास्य होने का अधिकारी बनाए बैठे हैं।
76. ज़मीन और आसमान पर अल्लाह के पूर्ण प्रभुत्व और अधिकार का चित्रण करने के लिए सही न होने और हाथ पर लिपटे होने का रूपक का प्रयोग हुआ है। जिस तरह एक आदमी किसी छोटी सी गेंद को मुठ्ठी में दबा लेता है और उसके लिए यह एक साधारण काम है, या एक आदमी एक समाल की लपट कर हाथ में ले लेता है और उसके लिए यह कोई कठिन काम नहीं होता, उसी तरह कियामत के दिन तमाम ईसान (जो आज अल्लाह की महानता और महत्ता का अनुमान लगा नहीं पाते) अपनी आँखों से देख लेंगे कि ज़मीन और आसमान अल्लाह की क़ुदरत के हाथों में एक तुच्छ गंद और एक छोटे से कमाल की तरह हैं। मुस्‍नद अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, नसई, इब्ने माजा और इसने जरीर आदि में हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर और हज़रत अबू हुरैरा (रजि०) की रिवायतें नकल की गई हैं कि एक बार नबी (सल्ल०) मिबर पर ख़ुत्‍बा दे रहे थे। खुत्वा ही के दौरान आपने यह आयत तिलावत फरमाई और फ़रमाया, " अल्लाह आसमानों और ज़मीनों (अर्थात् ग्रहों) को अपनी मुट्ठी में लेकर इस तरह फिराएगा, जैसे एक बच्चा गेंद फिराता है, और फ़रमाएगा, 'मैं हूँ एक अल्लाह, मैं हूँ बादशाह, मैं हूँ बलशाली, मैं हूँ बड़ाई का अधिकारी । कहाँ हैं ज़मीन के बादशाह ? कहाँ हैं दमनकारी? कहाँ हैं घमंडी अहंकारी? यह कहते-कहते नबी (सल्ल०) पर ऐसी कपकपी छा गई कि हमें खतरा होने लगा कि कहीं आप मिंबर समेत गिर न पड़ें।
وَنُفِخَ فِي ٱلصُّورِ فَصَعِقَ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ إِلَّا مَن شَآءَ ٱللَّهُۖ ثُمَّ نُفِخَ فِيهِ أُخۡرَىٰ فَإِذَا هُمۡ قِيَامٞ يَنظُرُونَ ۝ 67
(68) और उस दिन सूर फूँका जाएगा78 और वे सब मरकर गिर जा जो आसमानों और ज़मीन में हैं, अलावा उनके जिन्हें अल्लाह जिंदा रखना चाहे । फिर एक दूसरा सूर फूँका जाएगा और यकायक सब के सब उठकर देखने लगेंगे।79
78. सूर (नरसिंघा) की व्याख्या के लिए देखिए, सूरा 6 अनाम, टिप्पणी 47; सूरा-14 इबराहीम, टिप्पणी 57: सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 78; सूरा-22 अल-हज्ज, टिप्पणी 1।
79. यहाँ केवल दो बार सूर (नरसिंघा) फूँके जाने का उल्लेख है। इनके अलावा सूरा नाल में इन दोनों से पहले एक और सूर के फूँके जाने का उल्लेख भी हुआ है, जिसे सुनकर जमीन व आसमान के सारी मख़लूक (सृष्टि) दहशत में पड़ जाएंगे, (आयत 87) | इसी आधार पर हदीसों में तीन बार सूर के फूँके जाने का उल्लेख किया गया है। एक घबरा देनेवाला सूर, दूसरा मार गिरा देनेवाला सूर, तीसरा वह सूर जिसे फूंकते ही तमाम इंसान जी उठेंगे और अपने रब के हुजूर पेश होने के लिए अपनी क़ब्रों से निकल आएंगे।
وَأَشۡرَقَتِ ٱلۡأَرۡضُ بِنُورِ رَبِّهَا وَوُضِعَ ٱلۡكِتَٰبُ وَجِاْيٓءَ بِٱلنَّبِيِّـۧنَ وَٱلشُّهَدَآءِ وَقُضِيَ بَيۡنَهُم بِٱلۡحَقِّ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 68
(69) ज़मीन अपने रब के नूर में चमक उठेगी, कर्म-पत्रिका लाकर रख दी जाएगी। नबी और तमाम गवाह80 हाज़िर कर दिए जाएंगे, लोगों के दर्मियान ठीक-ठीक न्याय के साथ फ़ैसला कर दिया जाएगा, उनपर कोई ज़ुल्म न होगा,
80. गवाहों से तात्पर्य वे गवाह भी हैं जो इस बात की गवाही देंगे कि लोगों तक अल्लाह का सन्देश पहुंचा दिया गया था, और वे गवाह भी जो लोगों के कर्मों की गवाही प्रस्तुत करेंगे। ज़रूरी नहीं है कि ये गवाह केवल इंसान ही हों। फ़रिश्ते और जिन्न और हैवान और इंसानों के अपने अंग और दरो-दीवार और पेड़-पत्थर, सब इन गवाहों में शामिल होंगे।
وَوُفِّيَتۡ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا عَمِلَتۡ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِمَا يَفۡعَلُونَ ۝ 69
(70) और हर जीव, को जो कुछ भी उसने कर्म किया था, उसका पूरा-पूरा बदला दे दिया जाएगा। लोग जो कुछ भी करते हैं, अल्लाह उसको ख़ूब जानता है।
وَسِيقَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِلَىٰ جَهَنَّمَ زُمَرًاۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءُوهَا فُتِحَتۡ أَبۡوَٰبُهَا وَقَالَ لَهُمۡ خَزَنَتُهَآ أَلَمۡ يَأۡتِكُمۡ رُسُلٞ مِّنكُمۡ يَتۡلُونَ عَلَيۡكُمۡ ءَايَٰتِ رَبِّكُمۡ وَيُنذِرُونَكُمۡ لِقَآءَ يَوۡمِكُمۡ هَٰذَاۚ قَالُواْ بَلَىٰ وَلَٰكِنۡ حَقَّتۡ كَلِمَةُ ٱلۡعَذَابِ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 70
(71) (इस फैसले के बाद) वे लोग जिन्होंने इंकार किया था, जहन्नम की ओर गिरोह के गिरोह हाँके जाएँगे, यहाँ तक कि जब वे वहाँ पहुँचेंगे तो उसके दरवाज़े खोले जाएँगे81 और उसके कारिंदे उनसे कहेंगे, "क्या तुम्हारे पास तुम्हारे अपने लोगों में से ऐसे रसूल नहीं आए थे, जिन्होंने तुमको तुम्हारे रब की आयतें सुनाई हों और तुम्हें इस बात से डराया हो कि एक समय तुम्हें यह दिन भी देखना होगा?" वे उत्तर देंगे, "हाँ, आए थे, मगर अज़ाब का फैसला इंकार करनेवालों पर चिपक गया।"
81. अर्थात् जहन्नम के दरवाज़े पहले से खुले न होंगे, बल्कि उनके पहुँचने पर खोले जाएँगे, जिस तरह अपराधियों के पहुंचने पर जेल का दरवाज़ा खोला जाता है और उनके प्रवेश करते ही बन्द कर दिया जाता है।
قِيلَ ٱدۡخُلُوٓاْ أَبۡوَٰبَ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَاۖ فَبِئۡسَ مَثۡوَى ٱلۡمُتَكَبِّرِينَ ۝ 71
(72) कहा जाएगा, "दाख़िल हो जाओ जहन्नम के दरवाज़ों में, यहाँ अब तुम्हें हमेशा रहना है, बड़ा ही बुरा ठिकाना है यह अहंकारियों के लिए।"
وَسِيقَ ٱلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ رَبَّهُمۡ إِلَى ٱلۡجَنَّةِ زُمَرًاۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءُوهَا وَفُتِحَتۡ أَبۡوَٰبُهَا وَقَالَ لَهُمۡ خَزَنَتُهَا سَلَٰمٌ عَلَيۡكُمۡ طِبۡتُمۡ فَٱدۡخُلُوهَا خَٰلِدِينَ ۝ 72
(73-74) और जो लोग अपने रब की अवज्ञा से बचते थे, उन्हें गिरोह के गिरोह जन्नत की और ले जाया जाएगा, यहाँ तक कि जब वे वहाँ पहुँचेंगे और उसके दरवाज़े पहले ही खोले जा चुके होंगे तो उसके प्रबन्धक उनसे कहेंगे कि “सलाम हो तुमपर, बहुत अच्छे रहे, दाख़िल हो जाओ इसमें सदा के लिए।” और वे कहेंगे कि “शुक्र है उस अल्लाह का जिसने हमारे साथ अपना वादा सच कर दिखाया और हमको ज़मीन का वारिस बना दिया।82 अब हम जन्नत में जहाँ चाहें, अपनी जगह बना सकते हैं।''83 तो बेहतरीन बदला है कर्म करनेवालों के लिए।84
82. व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 83, 106; सूरा-21 अंबिया, टिप्पणी 99
83. अर्थात् हममें से हर एक को जो जन्नत प्रदान की गई है, वह अब हमारी मिल्कियत है और इसमें हमें पूरे अधिकार प्राप्त हैं।
وَقَالُواْ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي صَدَقَنَا وَعۡدَهُۥ وَأَوۡرَثَنَا ٱلۡأَرۡضَ نَتَبَوَّأُ مِنَ ٱلۡجَنَّةِ حَيۡثُ نَشَآءُۖ فَنِعۡمَ أَجۡرُ ٱلۡعَٰمِلِينَ ۝ 73
0
وَتَرَى ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ حَآفِّينَ مِنۡ حَوۡلِ ٱلۡعَرۡشِ يُسَبِّحُونَ بِحَمۡدِ رَبِّهِمۡۚ وَقُضِيَ بَيۡنَهُم بِٱلۡحَقِّۚ وَقِيلَ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 74
(75) और तुम देखोगे कि फ़रिश्ते अर्श के चारों ओर घेरा बनाए हुए अपने रब की स्तुति और महिमा गान कर रहे होंगे, और लोगों के दर्मियान ठीक ठीक हक़ के साथ फ़ैसला कर दिया जाएगा, और पुकार दिया जाएगा कि प्रशंसा है अल्लाह, सारे जहानों के पालनहार के लिए।85
85. अर्थात् पूरी सृष्टि अल्लाह की प्रशंसा और शुक्र करने लगेगी।