(29) अल्लाह एक मिसाल देता है। एक आदमी तो वह है जिसके मालिक होने में बहुत-से बद्आख्लाक (दुराचारी) स्वामी शरीक हैं जो उसे अपनी-अपनी ओर खींचते हैं और दूसरा व्यक्ति पूरे का पूरा एक ही स्वामी का दास है। क्या इन दोनों का हाल बराबर हो सकता है?48 अलहम्दु लिल्लाह!49 मगर अधिकतर लोग नादानी में पड़े हुए हैं।50
48. इस मिसाल में अल्लाह ने शिर्क और तौहीद (बहुदेववाद और एकेश्वरवाद) के अन्तर और इंसान की जिंदगी पर दोनों के प्रभावों को इस तरह खोलकर बयान फ़रमा दिया है कि इससे अधिक संक्षिपा शब्दों में इतना बड़ा विषय इतने प्रभावी हंग से समझा देना सम्भव नहीं है। यह बात हर आदमी मानेगा कि जिस आदमी के बहुत से मालिक या आका हों और हर एक उसको अपनी-अपनी ओर खींच रहा हो और मालिक वे भी ऐसे दुःस्वभाववाले हों कि हर एक उससे सेवा लेते हुए दूसरे मालिक के हुक्म पर दौड़ने की उसे मोहलत न देता हो, और उनके एक-दूसरे के विरोधी हुक्मों में, जिसके हुक्म की भी पाबन्दी वह न कर पाए, वह उसे डाँटने-फटकारने ही पर बस न करता हो, बल्कि सजा देने पर तुल जाता हो, ऐसे व्यक्ति को जिंदगी अवश्य ही बड़ी घुटन में होगी और इसके विपरीत वह आदमी बड़े आराम और चैन से रहेगा जो बस एक ही आका का नौकर और गुलाम हो और किसी दूसरे की ख़िदमत और उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने की कोशिश उसे न करनी पड़े। यह ऐसी सीधी सी बात है जिसे समझने के लिए किसी बड़े सोच-विचार की जरूरत नहीं है। इसके बाद किसी आदमी के लिए यह समझना भी कठिन नहीं रहता है कि इंसान के लिए जो शान्ति व सन्तोष एक अल्लाह की बन्दगी में है, वह बहुत-से ख़ुदाओं की बन्दगी में उसे कभी नहीं मिल सकता।
इस जगह पर यह बात भी अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि बहुत से दुष्ट स्वभाववाले और आपस में टकरानेवाले आकाओं को मिसाल पत्थर के बुतों पर सही नहीं उतरती, बल्कि उन जीते-जागते आक़ाओं पर ही सही उतरती है जो व्यावहारिक रूप से आदमी को विरोधाभासी आदेश देते हैं और वास्तव में उसको अपनी-अपनी ओर खींचते रहते हैं। पत्थर के बुत किसे हुक्म दिया करते हैं और कब किसी को खींचकर अपनी ख़िदमत के लिए बुलाते हैं। ये काम तो जिंदा आकाओं ही के करने के हैं। एक आक्रा आदमी के अपने नफ़्स (मन) में बैठा हुआ है जो तरह-तरह की इच्छाएँ उसके सामने पेश करता है और उसे मजबूर करता रहता है कि वह उन्हें पूरा करे। दूसरे अनगिनत आक़ा घर में, ख़़ानदान में, बिरादरी में, क़ौम और देश के समाज में, धार्मिक गुरुओं में, हुक्मरानों और क़ानून बनानेवालों में, कारोबार और अर्थतंत्र की सीमाओं में और संसार की संस्कृति पर ग़लबा (आधिपत्य) रखनेवाली ताक़तों में हर ओर मौजूद हैं, जिनके परस्पर विरोधी तक़ाज़े और अलग-अलग माँगें, हर वक्त आदमी को अपनी-अपनी ओर खींचते रहते हैं और उनमें से जिसका तकाज़ा पूरा करने में भी वह कोताही करता है, वह अपने कार्यक्षेत्रों में उसको सज़ा दिए बिना नहीं छोड़ता, अलबत्ता हर एक की सज़ा के हथियार अलग-अलग हैं। कोई दिल मसोसता है, कोई रूठ जाता है, कोई नक्कू बनाता है, कोई बाइकाट करता है, कोई दीवाला निकालता है, कोई मज़हब का वार करता है और कोई क़ानून की चोट लगाता है। इस घुटन से निकलने की कोई शक्ल इंसान के लिए इसके सिवा नहीं है कि वह तौहीद (एकेश्वरवाद) का दृष्टिकोण अपनाकर केवल एक ख़ुदा का बन्दा बन जाए और हर दूसरे की बन्दगी का पट्टा अपनी गरदन से उतार फेंके।
तौहीद (एकेश्वरवाद) का रास्ता अपनाने की भी दो शक्लें हैं, जिनके नतीजे अलग-अलग हैं।
एक शक्ल यह है कि एक व्यक्ति अपनी निजी हैसियत में एक ख़ुदा का बन्दा बनकर रहने का फ़ैसला करे और आसपास का माहौल इस मामले में उसका साथी न हो। इस रूप में यह तो हो सकता है कि बाहरी संघर्ष और घुटन उसके लिए पहले से भी ज़्यादा बढ़ जाए, लेकिन अगर उसने सच्चे दिल से यह रास्ता इख्तियार किया हो, तो उसे अन्दरूनी अम्न व इत्मीनान अवश्य ही मिल जाएगा। वह मन (नफ़्स) की हर उस कामना को रद्द कर देगा जो ईश-आदेशों के विरुद्ध हो या जिसे पूरा करने के साथ ख़ुदापरस्ती के तक़ाज़े पूरे न किए जा सकते हों। वह ख़ानदान, बिरादरी, क़ौम, हुकूमत, मज़हबी पेशवाई और आर्थिक सत्ता को किसी भी ऐसी माँग को क़बूल न करेगा जो अल्लाह के क़ानून से टकराती हो। इसके नतीजे में उसे अति कष्ट पहुँच सकता है, बल्कि अवश्य ही पहुँचेगा, लेकिन उसका दिल पूरी तरह सन्तुष्ट होगा कि जिस ख़ुदा का मैं बन्दा हूँ, उसकी बन्दगी का तकाजा पूरा कर रहा हूँ और जिनका बन्दा मैं नहीं हैं, उनका मुझपर कोई अधिकार नहीं है जिसके आधार पर मैं अपने रब के आदेश के विरुद्ध उनकी बन्दगी बजा लाऊँ । यह मन का सन्तोष और आत्मा की शान्ति व सुकून दुनिया की कोई शक्ति उससे नहीं छीन सकती यहाँ तक कि अगर उसे फाँसी पर भी चढ़ना पड़ जाए तो वह ठंडे दिल से चढ़ जाएगा और उसको तनिक भी पछतावा न होगा कि मैंने क्यों न झूठे खुदाओं के आगे सिर झुकाकर अपनी जान बचा ली।
दूसरी शक्ल यह है कि पूरा समाज इसी तौहीद (एकेश्वरवाद) की बुनियाद पर कायम हो जाए और उसमें चरित्र, सभ्यता, संस्कृति शिक्षा, धर्म, कानून, रस्म व रिवाज, राजनीति, अर्थतंत्र, तात्पर्य यह कि जिंदगी के हर क्षेत्र के लिए वे सिद्धान्त आस्था-स्वरूप में मान लिए जाएँ और व्यावहारिक रूप से प्रचलित हो जाएँ जो अल्लाह ने अपनी किताब और अपने रसूल के ज़रिये से दिए हैं। खुदा का दीन जिसको गुनाह कहता है, क़ानून उसी को अपराध ठहराए, सरकार की प्रशासनिक मशीन उसी को मिटाने की कोशिश करे, शिक्षा-दीक्षा उसी से बचने के लिए मन मस्तिष्क और चरित्र तैयार करे, धार्मिक प्लेटफार्मों से उसी के विरुद्ध आवाज़ उठे, समाज उसे दोषी ठहराए और हर आर्थिक कारोबार में उसपर रोक लग जाए। इसी तरह ख़ुदा का दीन जिस चीज़ को भलाई और नेकी करार दे, क़ानून उसका समर्थन करे, प्रशासन की शक्तियाँ उसे परवान चढ़ाने में लग जाएँ। शिक्षा-दीक्षा की पूरी व्यवस्था मन-मस्तिष्क में उसको बिठाने और आचरणों में उस रचा देने की कोशिश करे, धार्मिक प्लेटफार्म उसी की प्रेरणा दे, समाज उसी की प्रशंसा करे और अपने व्यावहारिक रस्म व रिवाज उसपर कायम कर दे और आर्थिक कारोबार भी उसी के अनुसार चले। यह वह शक्त है, जिसमें इंसान को पूर्ण आन्तरिक और बाह्य सन्तोष मिल जाता है और भौतिक, आध्यात्मिक प्रगति के तमाम दरवाजे उसके लिए खुल जाते हैं, क्योंकि उसमें रब की बन्दगी और गैर की बन्दगी के तक़ाज़ों का टकराव क़रीब-क़रीब समाप्त हो जाता है।
49. यहाँ अलहम्दु लिल्लाहि' की सार्थकता समझने के लिए यह नक़शा जेहन में लाइए कि ऊपर का सवाल लोगों के सामने पेश करने के बाद वक्ता ने मौन धारण किया, ताकि अगर तौहीद (एकेश्वरवाद) के विरोधियों के पास इसका कोई उत्तर हो तो दें। फिर जब उनसे कोई उत्तर न बन पड़ा और किसी ओर से यह आवाज न आई कि दोनों बराबर हैं, तो वक्ता ने कहा, 'अलहम्दु लिल्लाहि' अर्थात् अल्लाह का शुक्र है कि तुम स्वयं भी अपने दिलों में इन दोनों हालतों का अन्तर महसूस करते हो और तुममें से कोई भी यह कहने का साहस नहीं रखता कि एक आका (स्वामी) की बन्दगी से बहुत-से आकाओं की बन्दगी श्रेष्ठ है या दोनों बराबर हैं।