(मदीना में उतरी, कुल आयतें 176)
परिचय
उतरने का समय और विषय
इस सूरा में बहुत से व्याख्यान है जो शायद सन् 03 हि० के अन्त से लेकर सन् 04 हि० के अन्त या सन् 05 हि० के आरंभ तक अलग-अलग समय में उतरे हैं। यद्यपि यह कहना मुश्किल है कि किस जगह से किस जगह तक की आयतें एक व्याख्यान क्रम के रूप में उतरी थीं और उनके उतरने का ठीक समय क्या है, लेकिन कुछ आदेश और घटनाओं की ओर कुछ संकेत ऐसे हैं जिनके उतरने की तारीख़ें हमें रिवायतों (उल्लेखों) से मालूम हो जाती हैं, इसलिए उनकी मदद से हम इन अलग-अलग व्याख्यानों की एक सरसरी-सी हदबन्दी कर सकते हैं जिनमें ये आदेश और ये संकेत आए हुए है।
जैसे हमें मालूम है कि विरासत के बंटवारे और यतीमों (अनाथों) के अधिकारों के बारे में आदेश उहुद की लड़ाई के बाद आए थे, जबकि मुसलमानों के सत्तर आदमी शहीद हो गए इस कारण हम सोच सकते हैं कि शुरू के चार रुकूअ और पाँचवें रुकूअ की पहली तीन आयतें उसी समय में उतरी होंगी। रिवायतों में 'सलाते खौफ़' (ठीक लड़ाई की स्थिति में नमाज़ पढ़ने) का उल्लेख हमें 'ज़ातुर्रिक़ाअ' की लड़ाई में मिलता है जो सन् 04 हि० में हुई। इसलिए अनुमान लगाया जा सकता है कि इसी के क़रीब के समय में वह भाषण आया होगा जिसमें इस नमाज़ का तरीक़ा बताया गया है । (रुकूअ 15) मदीना से बनी-नज़ीर का निकाला जाना रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० में हुआ, इसलिए प्रबल संभावना यह है कि वह भाषण इससे पहले क़रीबी समय ही में उतरा होगा जिसमें यहूदियों को अंतिम चेतावनी दी गई है कि 'ईमान ले आओ, इससे पहले कि हम चेहरे बिगाड़कर पीछे फेर दें।'
पानी न मिलने पर 'तयम्मुम' की इजाज़त बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के अवसर पर दी गई थी जो 05 हि० में हुई। इसलिए वह भाषण जिसमें तयम्मुम का उल्लेख है, उसी के निकटवर्ती काल का समझना चाहिए। (रुकूअ 7)
उतरने के कारण और वार्ताएँ
इस तरह कुल मिलाकर सूरा के उतरने का समय मालूम हो जाने के बाद हमें उस समय के इतिहास पर एक नज़र डाल लेनी चाहिए ताकि सूरा के विषय को समझने में सहायता ली जा सके।
नबी (सल्ल.) के सामने उस समय जो काम था उसे तीन बड़े-बड़े विभागों में बाँटा जा सकता है। एक उस नए संगठित इस्लामी समाज का विकास जिसकी बुनियाद हिजरत के साथ ही मदीना तैयबा और उसके आस-पास के क्षेत्रों में पड़ चुकी थी। दूसरे उस संघर्ष का मुक़ाबला जो अरब के मुशरिकों (अनेकेश्वरवादियों), यहूदी क़बीलों और मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की सुधार-विरोधी शक्तियों के साथ ज़ोर-शोर से चल रहा था। तीसरे इस्लाम की दावत को इन विरोधी शक्तियों के विरोध के बावजूद फैलाना। अल्लाह की ओर से इस अवसर पर जितने व्याख्यान आए, वे सब इन्हीं तीनों विभागों में बंटे हुए हैं।
इस्लामी समाज को संगठित करने के लिए सूरा बक़रा में जो आदेश दिए गए थे, अब यह समाज उससे अधिक आदेश की माँग कर रहा था। इसलिए सूरा निसा के इन व्याख्यानों में अधिक विस्तार में बताया गया कि मुसलमान अपने सामूहिक जीवन को इस्लामी तरीक़े पर किस तरह ठीक करें। किताबवालों के नैतिक और धार्मिक रवैए पर आलोचना करके मुसलमानों को सावधान किया गया कि अपने से पहले की उम्मतों (समुदायों) के पद-चिन्हों पर चलने से बचें। मुनाफ़िक़ों के तरीक़ों की आलोचना करके सच्ची ईमानदारी के तक़ाज़े स्पष्ट किए गए।
सुधार-विरोधी शक्तियों से जो संघर्ष चल रहा था उसने उहुद की लड़ाई के बाद अधिक गंभीर रूप ले लिया था। इन परिस्थितियों में अल्लाह ने एक ओर उत्साहवर्द्धक भाषणों के द्वारा मुसलमानों को मुक़ाबले के लिए उभारा और दूसरी ओर युद्ध की स्थिति में काम करने के लिए उन्हें विभिन्न आवश्यक आदेश दिए। मुसलमानों को बार-बार लड़ाइयों और झड़पों में जाना पड़ता था, और अक्सर ऐसे रास्तों से गुज़रना होता था जहाँ पानी नहीं मिल सकता था। इजाज़त दी गई कि पानी न मिले तो ग़ुस्ल (स्नान) और ‘वुज़ू’ (नमाज़ से हाथ-पैर और मुँह आदि धोने की प्रक्रिया) दोनों के बजाय ‘तयम्मुम' कर लिया जाए। साथ ही, ऐसी स्थिति में नमाज़ को संक्षिप्त करने की भी इजाज़त दे दी गई और जहाँ ख़तरा सिर पर हो, वहाँ सलाते-खौफ़ (डर की स्थिति में नमाज़) अदा करने का तरीक़ा बताया गया। अरब के अलग-अलग क्षेत्रों में जो मुसलमान विरोधी क़बीलों के बीच में बिखरे हुए थे (उनके बारे में) सविस्तार आदेश दिए गए।
यहूदियों के सख़्त दुश्मनी भरे और साज़िशी रवैये और उनके वादों के बार-बार तोड़ने पर उनकी कड़ी पकड़ की गई और उन्हें स्पष्ट शब्दों में अंतिम चेतावनी दे दी गई।
मुनाफ़िक़ों के अलग-अलग गिरोह अलग-अलग रवैये अपनाए हुए थे। इन सबको अलग-अलग वर्गों में बाँटकर हर वर्ग के मुनाफ़िक़ों के बारे में बता दिया गया कि उनके साथ यह बर्ताव होना चाहिए।
ऐसे तटस्थ क़बीले, जिनके साथ समझौते हुए थे, उनके साथ जो रवैया मुसलमानों का होना चाहिए था उसको भी स्पष्ट किया गया। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि मुसलमान का अपना चरित्र कलंक रहित हो, क्योंकि इस संघर्ष में यह मुट्ठी भर जमाअत अगर जीत सकती थी तो अपने अच्छे चरित्र ही के बल पर जीत सकती थी। इसलिए मुसलमानों को अच्छे से अच्छे चरित्र की शिक्षा दी गई और जो कमज़ोरी भी उनकी जमाअत में ज़ाहिर हुई, उसपर कड़ी पकड़ की गई। इस्लामी सुधार आह्वान को स्पष्ट करने के अलावा यहूदियों, ईसाइयों और मुशरिकों, तीनों गिरोहों के ग़लत धार्मिक विचारों और बुरे चरित्र एवं आचरण पर इस सूरा में आलोचना करके उनको सच्चे दीन (धर्म) की ओर दावत दी गई है।
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يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ٱتَّقُواْ رَبَّكُمُ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن نَّفۡسٖ وَٰحِدَةٖ وَخَلَقَ مِنۡهَا زَوۡجَهَا وَبَثَّ مِنۡهُمَا رِجَالٗا كَثِيرٗا وَنِسَآءٗۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِي تَسَآءَلُونَ بِهِۦ وَٱلۡأَرۡحَامَۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَيۡكُمۡ رَقِيبٗا
(1) लोगो, अपने रब से डरो, जिसने तुमको एक जान से पैदा किया और उसी जान से उसका जोड़ा बनाया और इन दोनों से बहुत मर्द और औरत दुनिया में फैला दिए।1 उस अल्लाह से डरो जिसका वास्ता देकर तुम एक-दूसरे से अपने हक़ माँगते हो, और रिश्ते-नातों के संबंधों को बिगाड़ने से बचो। विश्वास करो कि अल्लाह तुमपर निगरानी कर रहा है।
1. चूंकि आगे चलकर इंसानों के आपसी हक़ बयान करने हैं और मुख्य रूप से पारिवारिक व्यवस्था की बेहतरी और मज़बूती के लिए ज़रूरी कानूनों का उल्लेख किया जाना है, इसलिए शुरुआत इस तरह हुई कि एक ओर अल्लाह से डरने और उसकी नाराज़ी से बचने की ताकीद की और दूसरी ओर यह बात मन-मस्तिष्क में बिठाई कि सभी इंसान एक असल (मूल) से हैं और एक-दूसरे का खून और हाड़-मांस हैं। 'तुमको एक जान से पैदा किया' अर्थात् इंसानों की पैदाइश सबसे पहले एक व्यक्ति से की। दूसरी जगह कुरआन स्वयं इसकी व्याख्या करता है कि वह पहला इंसान आदम था जिससे दुनिया में इंसानी नस्ल फैली-उसी जान से उसका जोड़ा बनाया', इसका विस्तृत विवरण हमारी जानकारी में नहीं है। आम तौर पर जो बात टीकाकार बयान करते हैं और जो बाइबल में भी बयान की गई है वह यह है कि आदम को पसली से हल्ला को पैदा किया गया । (तलमूद में और अधिक विस्तार के साथ यह बताया गया है कि हज़रत हव्वा को हज़रत आदम (अलै०) की दाहिनी ओर की तेरहवीं पसली से पैदा किया गया था), लेकिन अल्लाह को किताब इस बारे में चुप है और जो हदीस इसके समर्थन में पेश की जाती है, उसका अर्थ वह नहीं है जो लोगों ने समझा है। इसलिए बेहतर यह है कि बात को इसी तरह अस्पाट रहने दिया जाए जिस तरह अल्लाह ने उसे अस्पष्ट रखा है और उसके विस्तार में जाकर वस्तुस्थिति निश्चित करने में समय न नष्ट किया जाए।
وَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا تُقۡسِطُواْ فِي ٱلۡيَتَٰمَىٰ فَٱنكِحُواْ مَا طَابَ لَكُم مِّنَ ٱلنِّسَآءِ مَثۡنَىٰ وَثُلَٰثَ وَرُبَٰعَۖ فَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا تَعۡدِلُواْ فَوَٰحِدَةً أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۚ ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَلَّا تَعُولُواْ 2
(3) और अगर तुमको डर हो कि यतीमों के साथ न्याय न कर सकोगे, तो जो औरतें तुमको पसन्द आएँ उनमें से दो-दो, तीन-तीन, चार-चार से निकाह कर लो। 4 लेकिन अगर तुम्हें डर हो कि उनके साथ न्याय न कर सकोगे तो फिर एक ही पत्नी रखो। 5 या उन औरतों को पत्नी बनाऔ जो तुम्हारे कब्जे में आई हैं, 6 अन्याय से बचने के लिए यह उचित नीति से अधिक क़रीब है।
4. टीकाकारों ने इसके तीन अर्थ बयान किए हैं-
I. हज़रत आइशा (रज़ि.) इसकी व्याख्या करती हुई कहती हैं कि अज्ञानता काल में जो यतीम बच्चियाँ लोगों के संरक्षण में होती थीं उनके माल और उनकी सुन्दरता के कारण या इस विचार से कि उनका कोई सर-धरा तो है नहीं, जिस तरह हम चाहेंगे दबाकर रखेंगे, वे उनके साथ स्वयं निकाह कर लेते थे और फिर उनपर जुल्म किया करते थे। इसपर कहा गया कि अगर तुमको आशंका हो कि यतीम लड़कियों के साथ न्याय न कर सकोगे तो दूसरी औरतें दुनिया में मौजूद हैं, उनमें से जो तुम्हें पसन्द आएँ उनके साथ निकाह कर लो। इसी सूरा में उन्नीसवें रुकूअ को पहली आयत (127) इस व्याख्या की पुष्टि करती है।
II. इने अब्बास (रजि.) और उनके शिष्य इक्रिमा इसकी व्याख्या इस तरह करते हैं कि अज्ञानताकाल में निकाह की कोई सीमा न थी। एक-एक आदमी दस-दस बीवियाँ कर लेता था और जब बीवियों की इस बड़ी संख्या से खर्चे बढ़ जाते थे तो मजबूर होकर अपने यतीम भतीजों, भाँजों और दूसरे बेबस रिश्तेदारों के हक़ों पर हाथ डालता था। इसपर अल्लाह ने निकाह के लिए चार की सीमा निश्चित कर दी और फ़रमाया कि अत्याचार और अन्याय से बचने की शक्ल यह है कि एक से लेकर चार तक इतनी बीवियाँ करो जिनके साथ तुम न्याय कर सको।
III. सईद बिन जुबैर और क़तादा और कुछ दूसरे टीकाकार कहते हैं कि जहाँ तक यतीमों का मामला है, अज्ञानी लोग भी उनके साथ अन्याय करने को अच्छी नज़र से नहीं देखते थे। लेकिन औरतों के मामले में उनके जेहन न्याय व इन्साफ़ के विचार से खाली थे। जितनी चाहते थे। शादियाँ कर लेते थे और फिर उनके साथ बड़ा अन्याय करते थे। इसपर कहा गया कि अगर तुम यतीमों के साथ अन्याय करने से डरते हो तो औरतों के साथ भी अन्याय करने से डरो । एक तो चार से अधिक निकाह ही न करो और इस चार की सीमा में भी बस उतनी बीवियाँ रखो जिनके साथ न्याय कर सको।
आयत के शब्दों में इन तीनों व्याख्याओं की गुंजाइश है और असंभव नहीं कि तात्पर्य तीनों से हो । इसके अतिरिक्त इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि अगर तुम यतीमों के साथ वैसे न्याय नहीं कर सकते तो उन औरतों से निकाह कर लो जिनके साथ यतीम बच्चे हैं।
[नोट 'कुरआन-प्रबोध के लेखक ने अनूदित कुरआन मजीद' में,जिसमें संक्षिप्त टिप्पणियाँ हैं, इस जगह निम्न टिप्पणी अंकित की है-।
"ध्यान रहे कि यह आयत एक से अधिक बीवियाँ करने की इजाजत देने के लिए नहीं आई थी, क्योंकि इसके उतरने से पहले ही यह काम जाइज़ (वैध) था और स्वयं अल्लाह के रसूल (सल्ल.) की एक से अधिक बीवियाँ उस समय मौजूद थीं। वास्तव में यह इसलिए उतरी थी कि लड़ाइयों में शहीद होनेवालों के जो बच्चे यतीम रह गए थे उनकी समस्या को हल करने के लिए कहा गया कि अगर इन यतीमों के हक़ तुम वैसे नहीं अदा कर सकते तो उन औरतों से निकाह कर लो जिनके साथ यतीम बच्चे हैं।"
5. इस बात पर मुस्लिम समुदाय के सभी धर्मशास्त्री सहमत है कि इस आयत के अनुसार पत्नियों की तादाद की हदबन्दी कर दी गई है और एक ही समय में चार से अधिक पत्नियों रखने को मना कर दिया गया है। रिवायतों से भी इसकी पुष्टि होती है। साथ ही यह आयत बहुपत्नी विवाह के सही होने को न्याय की शर्त से प्रतिबंधित करती है । जो आदमी न्याय की शर्त पूरी नहीं करता, मगर एक से अधिक पत्नियों करने की इजाज़त से फायदा उठाता है, वह अल्लाह के साथ दगाबाजी करता है। इस्लामी राज्य की अदालतों की अधिकार प्राप्त है कि जिस पत्नी या जिन पत्नियों के साथ वह न्याय कर रहा हो उनकी फरियाद ध्यान से सुनें।
कुछ लोग पश्चिम विचारों से प्रभावित होकर यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि क़ुरआन का मूल उद्देश्य बहुपत्नीत्व परम्परा को (जो वास्तव में पश्चिम की दृष्टि में बुरा तरीक़ा है) मिटा देना था, मगर चूँकि यह तरीक़ा बहुत अधिक रिवाज पा चुका था इसलिए उसपर केवल पाबन्दियाँ लगा के छोड़ दिया गया। लेकिन इस प्रकार की बातें वास्तव में केवल मानसिक दासता का परिणाम है । बहुपत्नी विवाह अपने आपमें एक बुराई होना, बजाए खुद मानने योग्य नहीं है, क्योंकि कुछ परिस्थितियों में यह चीज़ एक सांस्कृतिक तथा नैतिक ज़रूरत बन जाती है। कुरआन ने स्पष्ट शब्दों में इसको वैध ठहराया है और इशारे तक में भी इसकी निन्दा में कोई ऐसा शब्द इस्तेमाल नहीं किया है जिससे मालूम हो कि वास्तव में वह उसे रोक देना चाहता था।
وَلَا تُؤۡتُواْ ٱلسُّفَهَآءَ أَمۡوَٰلَكُمُ ٱلَّتِي جَعَلَ ٱللَّهُ لَكُمۡ قِيَٰمٗا وَٱرۡزُقُوهُمۡ فِيهَا وَٱكۡسُوهُمۡ وَقُولُواْ لَهُمۡ قَوۡلٗا مَّعۡرُوفٗا 4
(5) और अपने वे माल जिन्हें अल्लाह ने तुम्हारे लिए ज़िन्दगी बाक़ी रखने का साधन बनाया है, नासमझ लोगों के हवाले न करो। हाँ, उन्हें खाने और पहनने के लिए दो और उनकी अच्छी रहनुमाई करो।8
8. इस आयत में मुस्लिम समुदाय को यह व्यापक आदेश दिया गया है कि माल, जो ज़िन्दगी बाक़ी रखने का साधन है, बहरहाल ऐसे नासमझ लोगों के अधिकार और इस्तेमाल में न रहना चाहिए जो उसे ग़लत तरीक़े से इस्तेमाल करके सांस्कृतिक और आर्थिक व्यवस्था और अन्ततः नैतिक व्यवस्था को बिगाड़ दें। सम्पत्ति के अधिकार, जो किसी व्यक्ति को अपनी सम्पत्तियों पर प्राप्त हैं, इतनी असीम नहीं हैं कि अगर वह इन अधिकारों को सही ढंग से इस्तेमाल करने के योग्य न हो और उनके इस्तेमाल से सामूहिक बिगाड़ पैदा कर दे तब भी उसके वे अधिकार छीने न जा सकें। इस आदेश के अनुसार छोटे पैमाने पर हर मालवाले को इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि वह अपना माल जिसके हवाले कर रहा है वह उसके इस्तेमाल की योग्यता रखता है या नहीं, और बड़े पैमाने पर इस्लामी राज्य को इस बात की व्यवस्था करनी चाहिए कि जो लोग अपने मालों पर स्वयं स्वामित्त्वपूर्ण उपभोग की योग्यता न रखते हों या जो लोग अपने धन को बुरे तरीकों से इस्तेमाल कर रहे हों, उनकी सम्पत्तियों को वह अपने अधिकार में ले ले और उनकी ज़िन्दगी की ज़रूरतों का प्रबंध कर दे।
وَٱبۡتَلُواْ ٱلۡيَتَٰمَىٰ حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغُواْ ٱلنِّكَاحَ فَإِنۡ ءَانَسۡتُم مِّنۡهُمۡ رُشۡدٗا فَٱدۡفَعُوٓاْ إِلَيۡهِمۡ أَمۡوَٰلَهُمۡۖ وَلَا تَأۡكُلُوهَآ إِسۡرَافٗا وَبِدَارًا أَن يَكۡبَرُواْۚ وَمَن كَانَ غَنِيّٗا فَلۡيَسۡتَعۡفِفۡۖ وَمَن كَانَ فَقِيرٗا فَلۡيَأۡكُلۡ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ فَإِذَا دَفَعۡتُمۡ إِلَيۡهِمۡ أَمۡوَٰلَهُمۡ فَأَشۡهِدُواْ عَلَيۡهِمۡۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ حَسِيبٗا 5
(6) और यतीमों को जाँचते रहो, यहाँ तक कि वे निकाह की उम्र को पहुँच जाएँ।9 फिर तुम अगर उनमें योग्यता पाओ तो उनके माल उनको सौंप दो।10 ऐसा कभी न करना कि न्याय की सीमाओं का उल्लंघन करके इस डर से उनके माल जल्दी-जल्दी खा जाओ कि वे बड़े होकर अपने अधिकार की माँग करेंगे। यतीम का जो सरपरस्त (अभिभावक) धनी हो, वह परहेज़गारी से काम ले और जो ग़रीब हो, वह प्रचलित भले तरीके से खाए।11 फिर जब उनके माल उनको सौंपने लगो तो लोगों को इसपर गवाह बना लो, और हिसाब लेने के लिए अल्लाह काफ़ी है।
9. अर्थात् जब वे वयस्क हो रहे हों तो देखते रहो कि उनका मानसिक विकास कैसा है और उनमें अपने मामलों को स्वयं अपनी ज़िम्मेदारी पर चलाने की योग्यता किस हद तक पैदा हो रही है।
10. माल उनके हवाले करने के लिए दो शर्ते लगाई गई हैं-एक वयस्क होना, दूसरे समझदारी यानी माल के सही इस्तेमाल की योग्यता। पहली शर्त के बारे में तो मुस्लिम समुदाय के फुकहा (धर्मशास्त्रियों) में पूर्ण सहमति है। दूसरी शर्त के बारे में इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) की राय यह है कि अगर वयस्क होने की उम्र को पहुँचने पर यतीम में योग्यता और समझ न पाई जाए तो यतीम के वली (अभिभावक) को ज़्यादा से ज़्यादा सात साल और इन्तिज़ार करना चाहिए, फिर चाहे योग्यता और समझ पाई जाए या न पाई जाए, उसका माल उसके हवाले कर दिया जाए। इमाम अबू यूसुफ़, इमाम मुहम्मद और इमाम शाफ़ई (रह०) की राय यह है कि माल हवाले किए जाने के लिए हर स्थिति में योग्यता (रुश्द) का पाया जाना अनिवार्य है। शायद बाद के लोगों के मतानुसार यह बात अधिक उचित होगी कि इस मामले में शरीअत के क़ाज़ी से रुजू किया जाए और अगर क़ाज़ी पर सिद्ध हो जाए कि उसमें योग्यता और पूर्ण सहमति नहीं पाई जाती तो वह उसके मामलों की निगरानी के लिए स्वयं कोई उचित प्रबन्ध कर दे।
لِّلرِّجَالِ نَصِيبٞ مِّمَّا تَرَكَ ٱلۡوَٰلِدَانِ وَٱلۡأَقۡرَبُونَ وَلِلنِّسَآءِ نَصِيبٞ مِّمَّا تَرَكَ ٱلۡوَٰلِدَانِ وَٱلۡأَقۡرَبُونَ مِمَّا قَلَّ مِنۡهُ أَوۡ كَثُرَۚ نَصِيبٗا مَّفۡرُوضٗا 6
(7) मर्दो के लिए उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और करीबी रिश्तेदारों ने छोड़ा हो, और औरतों के लिए भी उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और क़रीबी रिश्तेदारों ने छोड़ा हो, चाहे थोड़ा हो या बहुत12, और यह हिस्सा (अल्लाह की ओर) से निश्चित किया हुआ है।
12. इस आयत में स्पष्ट रूप से पाँच क़ानूनी हुक्म दिए गए हैं-एक यह कि मीरास सिर्फ मर्दो ही का हिस्सा नहीं है, बल्कि औरतें भी उसकी हक़दार हैं। दूसरे यह कि मीरास बहरहाल बँटनी चाहिए, चाहे वह कितनी ही कम हो, यहाँ तक कि अगर मरनेवाले ने एक गज़ कपड़ा छोड़ा है और दस वारिस हैं तो उसे भी दस हिस्सों में बँटना चाहिए। यह और बात है कि एक वारिस दूसरे वारिसों से उनका हिस्सा ख़रीद ले। तीसरे इस आयत से यह बात भी मालूम होती है कि विरासत का क़ानून हर प्रकार के मालों और मिल्कियतों पर लागू होगा, चाहे वे चल हों या अचल, कृषीय हों या अकृषीय या पैतृक हों या अपैतृक या अन्य । चौथे इससे मालूम होता है कि मीरास का हक़ उस समय पैदा होता है जब मृतक (मूरिस) ने कोई माल छोड़ा हो। पाँचवें, इससे यह नियम भी निकलता है कि क़रीबी रिश्तेदार की मौजूदगी में दूर का रिश्तेदार मीरास न पाएगा। आगे इसी नियम को आयत 11 के अन्त में और आयत 33 में और अधिक स्पष्ट किया गया है।
يُوصِيكُمُ ٱللَّهُ فِيٓ أَوۡلَٰدِكُمۡۖ لِلذَّكَرِ مِثۡلُ حَظِّ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۚ فَإِن كُنَّ نِسَآءٗ فَوۡقَ ٱثۡنَتَيۡنِ فَلَهُنَّ ثُلُثَا مَا تَرَكَۖ وَإِن كَانَتۡ وَٰحِدَةٗ فَلَهَا ٱلنِّصۡفُۚ وَلِأَبَوَيۡهِ لِكُلِّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا ٱلسُّدُسُ مِمَّا تَرَكَ إِن كَانَ لَهُۥ وَلَدٞۚ فَإِن لَّمۡ يَكُن لَّهُۥ وَلَدٞ وَوَرِثَهُۥٓ أَبَوَاهُ فَلِأُمِّهِ ٱلثُّلُثُۚ فَإِن كَانَ لَهُۥٓ إِخۡوَةٞ فَلِأُمِّهِ ٱلسُّدُسُۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصِي بِهَآ أَوۡ دَيۡنٍۗ ءَابَآؤُكُمۡ وَأَبۡنَآؤُكُمۡ لَا تَدۡرُونَ أَيُّهُمۡ أَقۡرَبُ لَكُمۡ نَفۡعٗاۚ فَرِيضَةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمٗا 10
(11) तुम्हारी सन्तान के बारे में अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि मर्द का हिस्सा दो औरतों के बराबर है।15 अगर (मरनेवाले को वारिस) दो से अधिक लड़कियाँ हों तो उन्हें छोड़ी हुई सम्पत्ति का दो तिहाई दिया जाए।16 और अगर एक ही लड़की वारिस हो तो छोड़ी हुई सम्पत्ति का आधा भाग उसका है। अगर मृतक संतानवाला हो तो उसके माँ-बाप में से हर एक को छठा हिस्सा मिलना चाहिए।17 और अगर वह सन्तानवाला न हो और माँ-बाप ही उसके वारिस हों, तो माँ को तीसरा हिस्सा दिया जाए18 और अगर मैयत (मृतक) के भाई-बहन भी हों तो माँ छठे हिस्से को हक़दार होगी19, (ये सब हिस्से उस समय निकाले जाएँगे) जबकि वसीयत जो मरनेवाले ने की हो पूरी कर दी जाए और कर्ज जो उसपर हो अदा कर दिया जाए।20 तुम नहीं जानते कि तुम्हारे माँ-बाप और तुम्हारी सन्तान में से कौन लाभ पहुंचाने की दृष्टि से तुमसे अधिक निकट है। ये हिस्से अल्लाह ने निश्चित कर दिए हैं और अल्लाह निश्चय ही तमाम तथ्यों का ज्ञान रखता और सारी मस्लहतों का जाननेवाला है।21
15. मीरास के मामले में यह सर्वप्रथम सैद्धांतिक आदेश है कि मर्द का हिस्सा औरत से दोगुना है। चूँकि शरीअत ने पारिवारिक जीवन में मर्द पर अधिक आर्थिक ज़िम्मेदारियों का बोझ डाला है और औरत को बहुत-सी आर्थिक ज़िम्मेदारियों के बोझ से बचाए रखा है, इसलिए न्याय का तकाज़ा यही था कि मीरास में औरत का हिस्सा मर्द की अपेक्षा कम रखा जाता।
16. यही आदेश दो लड़कियों का भी है। अर्थ यह है कि अगर किसी व्यक्ति ने कोई लड़का न छोड़ा हो और उसकी सन्तान में सिर्फ लड़कियाँ ही लड़कियाँ हों, तो चाहे दो लड़कियाँ हों या दो से अधिक, हर स्थिति में उसको कुल छोड़ी हुई सम्पत्ति का दो-तिहाई हिस्सा उन लड़कियों में बंटेगा और बाक़ी एक-तिहाई दूसरे वारिसों में, लेकिन अगर मरनेवाले का सिर्फ एक लड़का हो तो इसपर सभी सहमत हैं कि दूसरे वारिसों की गैर मौजूदगी में वह पूरी सम्पत्ति का वारिस होगा और दूसरे वारिस मौजूद हों तो उनका हिस्सा देने के बाद बाकी सब सम्पत्ति उसे मिलेगी।
20. व़सीयत के उल्लेख को क़र्ज पर इसलिए प्राथमिकता दी गई है कि क़र्ज़ का होना हर मरनेवाले के हक़ में ज़रूरी नहीं है और वसीयत करना उसके लिए ज़रूरी है। लेकिन आदेश की दृष्टि से मुस्लिम समुदाय इसपर एक मत है कि कर्ज को वसीयत पर प्राथमिकता प्राप्त है अर्थात् अगर मृतक के ज़िम्मे क़र्ज़ हो तो सबसे पहले मृतक को छोड़ो सम्पत्ति से वह अदा किया जाएगा, फिर वसीयत पूरी की जाएगी और इसके बाद विरासत बंटेगी। वसीयत के बारे में सूरा (2) बक़रा को टिप्पणी 182 में हम बता चुके हैं कि आदमी को अपने कुल माल के तिहाई हिस्से की हद तक वसीयत करने का अधिकार है और यह वसीयत का नियम इसलिए निश्चित किया गया है कि विरासत के कानून के अनुसार जिन रिश्तेदारों को मीरास में से हिस्सा नहीं पहुँचता, उनमें से जिसको या जिस-जिसको आदमी मदद का हक़दार पाता हो, उसके लिए अपने अधिकार से हिस्सा निश्चित कर दे। जैसे कोई यतीम पोता या पोतो मौजूद है या किसी बेटे की विधवा मुसीबत के दिन काट रही है या कोई भाई या बहन या भाभी या भतीजा या भाँजा या और कोई रिश्तेदार ऐसा है जो सहारे का मुहताज नज़र आता है तो उसके हक़ में वसीयत के ज़रिए से हिस्सा निश्चित किया जा सकता है और अगर रिश्तेदारों में कोई ऐसा नहीं है तो दूसरे हक़दारों के लिए या किसी जनहित के काम में खर्च करने के लिए वसीयत की जा सकती है। सारांश यह कि आदमी की कुल मिल्कियत में से दो तिहाई या इससे कुछ ज़्यादा के बारे में शरीअत ने मीरास का नियम बना दिया है जिसमें से शरीअत के बताए हुए वारिसों को निश्चित हिस्सा मिलेगा और एक तिहाई या उससे कुछ कम को ख़ुद उसकी समझ पर छोड़ा गया है कि अपने खास ख़ानदानी हालात के अनुसार (जो ज़ाहिर है कि हर आदमी के मामले में अलग-अलग होंगे) जिस तरह उचित समझे, बाँटने की वसीयत कर दे। फिर अगर कोई आदमी अपनी वसीयत में जुल्म करे या दूसरे शब्दों में अपने अधिकारों को ग़लत तौर पर इस तरह इस्तेमाल करे जिससे किसी के जाइज़ हक़ों पर प्रभाव पड़ता हो, तो उसके लिए यह विकल्प रख दिया गया है कि परिवार के लोग आपसी रज़ामंदी से उसको सुधार लें या शरीअत के क़ाज़ी से दख़ल देने की दरख़्वास्त की जाए और वह वसीयत को ठीक कर दे।
21. यह उत्तर है उन सब नासमझों को जो मीरास के इस ईश्वरीय क़ानून को नहीं समझते और अपनी त्रुटिपूर्ण बुद्धि से इस कमी को पूरा करना चाहते हैं जो उनके नज़दीक अल्लाह के बनाए हुए क़ानून में रह गई है।
21. यह उत्तर है उन सब नासमझों को जो मीरास के इस ईश्वरीय क़ानून को नहीं समझते और अपनी त्रुटिपूर्ण बुद्धि से इस कमी को पूरा करना चाहते हैं जो उनके नज़दीक अल्लाह के बनाए हुए क़ानून में रह गई है।
21. यह उत्तर है उन सब नासमझों को जो मीरास के इस ईश्वरीय क़ानून को नहीं समझते और अपनी त्रुटिपूर्ण बुद्धि से इस कमी को पूरा करना चाहते हैं जो उनके नज़दीक अल्लाह के बनाए हुए क़ानून में रह गई है।
21. यह उत्तर है उन सब नासमझों को जो मीरास के इस ईश्वरीय क़ानून को नहीं समझते और अपनी त्रुटिपूर्ण बुद्धि से इस कमी को पूरा करना चाहते हैं जो उनके नज़दीक अल्लाह के बनाए हुए क़ानून में रह गई है।
21. यह उत्तर है उन सब नासमझों को जो मीरास के इस ईश्वरीय क़ानून को नहीं समझते और अपनी त्रुटिपूर्ण बुद्धि से इस कमी को पूरा करना चाहते हैं जो उनके नज़दीक अल्लाह के बनाए हुए क़ानून में रह गई है।
21. यह उत्तर है उन सब नासमझों को जो मीरास के इस ईश्वरीय क़ानून को नहीं समझते और अपनी त्रुटिपूर्ण बुद्धि से इस कमी को पूरा करना चाहते हैं जो उनके नज़दीक अल्लाह के बनाए हुए क़ानून में रह गई है।
21. यह उत्तर है उन सब नासमझों को जो मीरास के इस ईश्वरीय क़ानून को नहीं समझते और अपनी त्रुटिपूर्ण बुद्धि से इस कमी को पूरा करना चाहते हैं जो उनके नज़दीक अल्लाह के बनाए हुए क़ानून में रह गई है।
۞وَلَكُمۡ نِصۡفُ مَا تَرَكَ أَزۡوَٰجُكُمۡ إِن لَّمۡ يَكُن لَّهُنَّ وَلَدٞۚ فَإِن كَانَ لَهُنَّ وَلَدٞ فَلَكُمُ ٱلرُّبُعُ مِمَّا تَرَكۡنَۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصِينَ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٖۚ وَلَهُنَّ ٱلرُّبُعُ مِمَّا تَرَكۡتُمۡ إِن لَّمۡ يَكُن لَّكُمۡ وَلَدٞۚ فَإِن كَانَ لَكُمۡ وَلَدٞ فَلَهُنَّ ٱلثُّمُنُ مِمَّا تَرَكۡتُمۚ مِّنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ تُوصُونَ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٖۗ وَإِن كَانَ رَجُلٞ يُورَثُ كَلَٰلَةً أَوِ ٱمۡرَأَةٞ وَلَهُۥٓ أَخٌ أَوۡ أُخۡتٞ فَلِكُلِّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا ٱلسُّدُسُۚ فَإِن كَانُوٓاْ أَكۡثَرَ مِن ذَٰلِكَ فَهُمۡ شُرَكَآءُ فِي ٱلثُّلُثِۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصَىٰ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٍ غَيۡرَ مُضَآرّٖۚ وَصِيَّةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَلِيمٞ 11
(12) और तुम्हारी बीवियों ने जो कुछ छोड़ा हो उसका आधा हिस्सा तुम्हें मिलेगा अगर वे निस्सन्तान हों, वरना सन्तान होने की स्थिति में छोड़ी हुई सम्पत्ति का एक चौथाई हिस्सा तुम्हारा है जबकि वसीयत जो उन्होंने की हो पूरी कर दी जाए और क़र्ज़ जो उन्होंने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए, और वे तुम्हारी छोड़ी हुई सम्पत्ति में से चौथाई की हक़दार होंगी अगर तुम निस्सन्तान हो । वरना सन्तानवाला होने की स्थिति में उनका हिस्सा आठवाँ 22 होगा इसके बाद कि जो वसीयत तुमने की हो वह पूरी कर दी जाए और जो क़र्ज़ तुमने छोड़ा हो वह अदा कर दिया जाए।
और अगर वह मर्द या औरत (जिसको मीरास बँटनी है) निस्संतान भी हो और उसके माँ-बाप भी जिन्दा न हों, मगर उसका एक भाई या एक बहन मौजूद हो तो भाई और बहन हर एक को छठा हिस्सा मिलेगा, और भाई-बहन एक से अधिक हों तो कुल सम्पत्ति के एक तिहाई में वे सब शरीक होंगे,23 जबकि वसीयत जो की गई हो पूरी कर दी जाए और क़र्ज़ जो मृतक ने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए, बस शर्त यह है कि वह नुक़सान पहुँचानेवाली न हो।24 यह आदेश है अल्लाह की ओर से, और अल्लाह जानता-देखता और सहनशील है।25
22. अर्थात् चाहे एक बीवी हो या कई बीवियाँ हों, औलाद होने की शक्ल में वे आठवें हिस्से की और औलाद न होने की शक्ल में चौथाई की हिस्सेदार होंगी और यह चौथाई या आठवाँ हिस्सा सब बीवियों में बराबरी के साथ बाँटा जाएगा।
23. क़ी पाँचवे में छठा हिस्सा या दो तिहाई जो बचते हैं, उनमें अगर कोई और वारिस मौजूद हो तो उसको हिस्सा मिलेगा, वरना इस पूरी बाकी मिल्कियत के बारे में उस आदमी को वसीयत करने का हक़ होगा।
इस आयत के बारे में टीकाकार सहमत हैं कि इसमें भाई और बहनों से अभिप्राय ऐसे भाई-बहन हैं जिनके बाप अलग-अलग हैं और माँ एक है। रहे सगे भाई बहन और वे सौतेले भाई-बहन जो बाप की ओर से मैयत के साथ रिश्ता रखते हों, तो उनका हुक्म इस सूरा के अंत में आया है।
وَلَيۡسَتِ ٱلتَّوۡبَةُ لِلَّذِينَ يَعۡمَلُونَ ٱلسَّيِّـَٔاتِ حَتَّىٰٓ إِذَا حَضَرَ أَحَدَهُمُ ٱلۡمَوۡتُ قَالَ إِنِّي تُبۡتُ ٱلۡـَٰٔنَ وَلَا ٱلَّذِينَ يَمُوتُونَ وَهُمۡ كُفَّارٌۚ أُوْلَٰٓئِكَ أَعۡتَدۡنَا لَهُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا 17
(18) मगर तौबा उन लोगों के लिए नहीं है जो बुरे काम किए चले जाते हैं, यहाँ तक कि जब उनमें से किसी की मृत्यु का समय आ जाता है उस समय वह कहता है कि अब मैंने तौबा की। और इसी तरह तौबा उन लोगों के लिए भी नहीं है जो मरते दम तक इंकारी रहें। ऐसे लोगों के लिए तो हमने दर्दनाक सज़ा तैयार कर रखी है।27
27. तौबा का अर्थ पलटना और रुजू करना है । गुनाह के बाद बन्दे का अल्लाह से तौबा करना यह अर्थ रखता है कि एक गुलाम, जो अपने आका का नाफरमान (अवज्ञाकारी) बनकर उससे मुँह फेर गया था, अब अपने किए पर लज्जित है और सेवा और आज्ञापालन की ओर पलट आया है और अल्लाह की ओर से बन्दे पर तौबा यह अर्थ रखती है कि दास की ओर से मालिक की जो कृपा-दृष्टि फिर गई थी, वह नये सिरे से उसकी ओर पलट आई। अल्लाह इस आयत में फ़रमाता है कि मेरे यहाँ क्षमा केवल उन बन्दों के लिए है, जो समझ-बूझ कर नहीं, बल्कि नासमझी की बुनियाद पर कुसूर करते हैं और जब आँखों पर से अज्ञानता का परदा हटता है तो लज्जित होकर अपने कुसूरों की माफ़ी माँग लेते हैं। ऐसे बन्दे, जब भी अपनी ग़लती पर लज्जित होकर अपने स्वामी की ओर पलटेंगे, उसका दरवाज़ा खुला पाएंगे कि-
ई दरगहे मादरगहे नौ मीदी नीस्त
सद बार अगर तौबा शिकस्ती बाज़ आ।
(यह द्वार माँ के द्वार की तरह है, यहाँ निराशा की कोई बात नहीं। सौ बार भी अगर तौबा टूट जाए तो भी गुनाह को छोड़ दे।)
मगर तौबा उनके लिए नहीं है जो खुदा से निडर और बेपरवाह होकर पूरी उम्र गुनाह पर गुनाह किए चले जाएँ और फिर ठीक उस समय जबकि मौत का फ़रिश्ता सामने खड़ा हो, माफ़ी माँगने लगे। इसी विषय को नबी (सल्ल.) ने इन शब्दों में बयान किया है कि 'अल्लाह बन्दे की तौबा बस उसी समय तक क़बूल करता है जब तक कि मौत की निशानियाँ शुरू न हों', क्योंकि परीक्षा की अवधि जब पूरी हो गई और ज़िन्दगी की किताब समाप्त हो चुकी तो अब पलटने का कौन-सा मौक़ा है। इसी तरह जब कोई आदमी कुफ़्र की हालत में दुनिया से विदा हो जाए और दूसरी ज़िन्दगी की सीमा में दाखिल होकर अपनी आँखों से देख ले कि मामला उसके विरुद्ध है, जो वह दुनिया में समझता रहा, तो उस समय माफ़ी माँगने का कोई अवसर नहीं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا يَحِلُّ لَكُمۡ أَن تَرِثُواْ ٱلنِّسَآءَ كَرۡهٗاۖ وَلَا تَعۡضُلُوهُنَّ لِتَذۡهَبُواْ بِبَعۡضِ مَآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ إِلَّآ أَن يَأۡتِينَ بِفَٰحِشَةٖ مُّبَيِّنَةٖۚ وَعَاشِرُوهُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ فَإِن كَرِهۡتُمُوهُنَّ فَعَسَىٰٓ أَن تَكۡرَهُواْ شَيۡـٔٗا وَيَجۡعَلَ ٱللَّهُ فِيهِ خَيۡرٗا كَثِيرٗا 18
(19) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! तुम्हारे लिए यह हलाल (वैध) नहीं है कि ज़बरदस्ती औरतों के वारिस बन बैठो28 और न यह हलाल (वैध) है कि उन्हें तंग करके उस महर का कुछ हिस्सा उड़ा लेने की कोशिश करो जो तुम उन्हें दे चुके हो। हाँ, अगर वे कोई खुली बदचलनी कर बैठे (तो ज़रूर तुम्हें तंग करने का अधिकार है29)। उनके साथ भले ढंग से जीवन बिताओ, अगर तुम्हें वे नापसन्द हो तो हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो, मगर अल्लाह ने उसी में बहुत कुछ भलाई रख दी हो ।30
28. इससे तात्पर्य यह है कि पति के मरने के बाद उसके परिजन उसकी विधवा को मृतक की मीरास समझकर उसके वली-वारिस न बन बैठें। औरत का पति जब मर गया तो वह आज़ाद है। इद्दत (शोक-अवधि) गुज़ारकर जहाँ चाहे जाए और जिससे चाहे निकाह कर ले।
29. माल उड़ाने के लिए नहीं बल्कि बदचलनी की सज़ा देने के लिए।
وَلَا تَنكِحُواْ مَا نَكَحَ ءَابَآؤُكُم مِّنَ ٱلنِّسَآءِ إِلَّا مَا قَدۡ سَلَفَۚ إِنَّهُۥ كَانَ فَٰحِشَةٗ وَمَقۡتٗا وَسَآءَ سَبِيلًا 21
(22) और जिन औरतों से तुम्हारे बाप विवाह कर चुके हों उनसे कदापि विवाह न करो, मगर जो पहले हो चुका सो हो चुका। 32 वास्तव में यह एक अश्लील कर्म है, अप्रिय है और बुरा चलन है। 33
32. इसका अर्थ यह नहीं है कि अज्ञानताकाल में जिसने सौतेली माँ से निकाह कर लिया था वह इस आदेश के आने के बाद भी अपनी पत्नी बनाकर रख सकता है, बल्कि अर्थ यह है कि पहले जो इस तरह के निकाह किए गए थे उनसे पैदा होनेवाली सन्तान अब यह आदेश आने के बाद हरामी करार न पाएगी और न अपने बापों के माल में उनकी विरासत का हक़ समाप्त हो जाएगा। संस्कृति और समाज के मामलों में अज्ञानता के ग़लत तरीकों को हराम करार देते हुए आम तौर से कुरआन मजीद में यह बात ज़रूर कही जाती है कि "जो हो चुका सो हो चुका।" इसके दो अर्थ हैं-एक यह कि अज्ञानकाल और नासमझी के युग में जो ग़लतियाँ तुम लोग करते रहे उनकी पकड़ नहीं की जाएगी। शर्त यह है कि अब आदेश आ जाने के बाद अपनी नीति में सुधार कर लो और जो ग़लत काम हैं उन्हें छोड़ दो। दूसरे यह कि अतीत के किसी तरीक़े को अब अगर हराम ठहराया गया है तो इससे यह नतीजा निकालना सही नहीं है कि पिछले कानून या रस्म व रिवाज के अनुसार जो काम पहले किए जा चुके हैं उनको समाप्त और उनसे पैदा होनेवाले नतीजों को नाजाइज़ और डाली गई ज़िम्मेदारियों को अनिवार्य रूप से खत्म किया जा रहा है।
33. इस्लामी क़ानून में यह कर्म फ़ौजदारी जुर्म है और जिस पर दस्तंदाज़ी करने का पुलिस को अधिकार प्राप्त है। अबू दाऊद, नसई और मुसनद अहमद में ये रिवायतें मिलती हैं कि नबी (सल्ल.) ने इस अपराध के करनेवालों को मौत और जायदाद की ज़ब्ती की सज़ा दी है और इब्ने माजा ने इब्ने अब्बास (रज़ि.) से जो रिवायत नक़ल की है उससे मालूम होता है कि प्यारे नबी (सल्ल.) ने यह मूल नियम बताया था कि “जो आदमी महरम औरतों (वे करीबी रिश्ते की औरतें जिनसे विवाह न हो सके) में से किसी के साथ ज़िना (व्यभिचार) करे उसे क़त्ल की सज़ा दो।" फुक़हा (धर्मशास्त्रियों) के बीच इस मसले में मतभेद है। इमाम अहमद तो इसी बात के समर्थक हैं कि ऐसे आदमी को क़त्ल किया जाए और उसका माल ज़ब्त कर लिया जाए। [बाक़ी तीनों इमामों के नज़दीक ऐसे आदमी पर ज़िना की सज़ा लागू होगी।]
حُرِّمَتۡ عَلَيۡكُمۡ أُمَّهَٰتُكُمۡ وَبَنَاتُكُمۡ وَأَخَوَٰتُكُمۡ وَعَمَّٰتُكُمۡ وَخَٰلَٰتُكُمۡ وَبَنَاتُ ٱلۡأَخِ وَبَنَاتُ ٱلۡأُخۡتِ وَأُمَّهَٰتُكُمُ ٱلَّٰتِيٓ أَرۡضَعۡنَكُمۡ وَأَخَوَٰتُكُم مِّنَ ٱلرَّضَٰعَةِ وَأُمَّهَٰتُ نِسَآئِكُمۡ وَرَبَٰٓئِبُكُمُ ٱلَّٰتِي فِي حُجُورِكُم مِّن نِّسَآئِكُمُ ٱلَّٰتِي دَخَلۡتُم بِهِنَّ فَإِن لَّمۡ تَكُونُواْ دَخَلۡتُم بِهِنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ وَحَلَٰٓئِلُ أَبۡنَآئِكُمُ ٱلَّذِينَ مِنۡ أَصۡلَٰبِكُمۡ وَأَن تَجۡمَعُواْ بَيۡنَ ٱلۡأُخۡتَيۡنِ إِلَّا مَا قَدۡ سَلَفَۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا 22
(23) तुमपर हराम की गईं तुम्हारी माएँ34, बेटियाँ 35, बहनें 36, फूफियाँ, खालाएँ, भतीजियाँ, भाँजियाँ 37 और तुम्हारी वे माएँ जिन्होंने तुमको दूध पिलाया हो और तुम्हारी दूध शरीक बहनें 38 और तुम्हारी बीवियों की माएँ 39 और तुम्हारी बीवियों की लड़कियाँ जिन्होंने तुम्हारी गोदों में परवरिश पाई है 40-उन बीवियों की लड़कियाँ जिनसे तुम्हारा पति-पत्नी का संबंध स्थापित हो चुका हो, वरना अगर (सिर्फ़ विवाह हुआ हो और) पति-पत्नी संबंध नहीं हुआ हो तो (उन्हें छोड़कर उनकी लड़कियों से निकाह कर लेने में) तुम्हारी कोई पकड़ नहीं है और तुम्हारे उन बेटों की बीवियाँ, जो तुम्हारे वीर्य्य से हों 41, और यह भी तुमपर हराम किया गया है कि एक निकाह में दो बहनों को जमा करो 42, लेकिन जो पहले हो गया, सो हो गया, अल्लाह क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।43
34. माँ से तात्पर्य सगी और सौतेली दोनों प्रकार की माएँ हैं, इसलिए दोनों हराम हैं। साथ ही इसी आदेश में बाप की माँ और माँ की माँ भी शामिल हैं। इस मामले में उलमा का मतभेद है कि जिस औरत से बाप का शारीरिक संबंध हो चुका हो या उसे उसने [कामातुरता से हाथ लगाया हो] वह भी बेटे पर हराम है या नहीं। इसी तरह पूर्व समय के इस्लामी विद्वानों में इस बात में भी मतभेद रहा है कि जिस औरत से बेटे अवैध संबंध हो चुका हो वह बाप पर हराम है या नहीं और जिस मर्द से माँ या बेटी का अवैध संबंध रहा हो या बाद में हो जाए उससे निकाह माँ और बेटी दोनों के लिए हराम है या नहीं, लेकिन वास्तविकता यह है कि अल्लाह की शरीअत का स्वभाव इस मामले में उन क़ानूनी बाल की खाल निकालने को स्वीकार नहीं करता जिसपर निकाह और गैर-निकाह और निकाह से पहले और निकाह के बाद और छूने और देखने में अन्तर किया जाता है। सीधी और साफ़ बात यह है कि पारिवारिक जीवन में एक ही औरत के साथ बाप और बेटे के, या एक ही मर्द के साथ माँ और बेटी की काम भावनाओं का स्थापित होना बड़े-बड़े बिगाड़ों का कारण है और शरीअत इसे कदापि सहन नहीं कर सकती [जैसा कि नबी (सल्ल.) के बहुत-से कथनों से साफ़ स्पष्ट होता है ।]
35. बेटी के आदेश में पोती और नवासी भी शामिल हैं। अलबत्ता इस मामले में [फुकहा का] मतभेद है कि अवैध संबंध के नतीजे में जो लड़की हुई हो दह भी हराम है या नहीं।
39. इस बारे में मतभेद है कि जिस औरत से केवल निकाह हुआ हो उसकी माँ हराम है या नहीं। इमाम अबू हनीफ़ा, मालिक, अहमद और शाफ़ई (रह.) इसको हराम मानते हैं और हज़रत अली (रज़ि.) को राय यह है कि जब तक किसी औरत से यौन-संबंध स्थापित न हुआ हो उसकी माँ हराम नहीं होती।
40. ऐसी लड़की के हराम होने के लिए यह शर्त नहीं है कि उसने सौतेले बाप के घर में परवरिश पाई हो। ये शब्द अल्लाह ने केवल इस रिश्ते की कोमलता जाहिर करने के लिए इस्तेमाल फ़रमाए हैं । मुस्लिम समुदाय के फुकहा (धर्मशास्त्री) इस बात पर लगभग एक मत हैं कि सौतेली बेटी आदमी [अर्थात् सौतेले बाप] पर बहरहाल हराम है, चाहे उसने सौतेले बाप के घर में परवरिश पाई हो या न पाई हो।
41. यह क़ैद इस उद्देश्य के लिए बढ़ाई गई है कि जिसे आदमी ने बेटा बना लिया हो उसकी विधवा या तलाकशुदा औरत आदमी पर हराम नहीं है। हराम केवल उस बेटे की पत्नी है जो आदमी के अपने वीर्य्य से हो और बेटे ही की तरह पोते और नाती की बीवी भी दादा और नाना पर हराम है।
42. नबी (सल्ल.) की हिदायत है कि ख़ाला (मौसी) और भाँजी, फूफी और भतीजी को भी एक साथ निकाह में रखना हराम है। इस मामले में यह नियम समझ लेना चाहिए कि ऐसी दो औरतों को जमा करना बहरहाल हराम है जिनमें से कोई एक अगर मर्द होती तो उसका निकाह दूसरी से हराम होता।
43. अर्थात् अज्ञानता-काल में जो अत्याचार तुम लोग करते रहे हो कि दो-दो बहनों से एक ही समय में निकाह कर लेते थे, इसपर पूछताछ न होगी, बशर्ते कि अब उससे रुक जाओ। (देखिए टिप्पणी 32) इसी आधार पर यह आदेश है कि जिस आदमी ने कुफ़्र की हालत में दो बहनों को निकाह में जमा कर रखा हो उसे इस्लाम लाने के बाद एक को रखना और एक को छोड़ना होगा।
۞وَٱلۡمُحۡصَنَٰتُ مِنَ ٱلنِّسَآءِ إِلَّا مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۖ كِتَٰبَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡۚ وَأُحِلَّ لَكُم مَّا وَرَآءَ ذَٰلِكُمۡ أَن تَبۡتَغُواْ بِأَمۡوَٰلِكُم مُّحۡصِنِينَ غَيۡرَ مُسَٰفِحِينَۚ فَمَا ٱسۡتَمۡتَعۡتُم بِهِۦ مِنۡهُنَّ فَـَٔاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ فَرِيضَةٗۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِيمَا تَرَٰضَيۡتُم بِهِۦ مِنۢ بَعۡدِ ٱلۡفَرِيضَةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمٗا 23
(24) और वे औरतें भी तुमपर हराम हैं जो किसी दूसरे के निकाह में हों (मुहसनात), अलबत्ता ऐसी औरतें इससे अलग है जो (लड़ाई में) तुम्हारे हाथ आएँ।44 यह अल्लाह का क़ानून है जिसकी पाबन्दी तुमपर अनिवार्य कर दी गई है। इनके अलावा जितनी औरते हैं उन्हें अपने मालों के जरिए से प्राप्त करना तुम्हारे लिए हलाल कर दिया गया है, शर्त यह है कि निकाह के घेरे में उनको सुरक्षित करो, न यह कि स्वच्छन्द काम-तृप्ति करने लगो। फिर जो दाम्पत्य जीवन का आनन्द तुम उनसे लो, उसके बदले उनके मह्रर अनिवार्य समझते हुए अदा करो, अलबत्ता महर निश्चित हो जाने के बाद आपस की रजामंदी से तुम्हारे बीच अगर कोई समझौता हो जाए तो इसमें कोई दोष नहीं, अल्लाह जाननेवाला और तत्त्वदशी है।
44. अर्थात् जो औरतें लड़ाई में पकड़ी हुई आएँ और उनके काफिर शौहर दारुल हर्ब (वह देश जिससे लड़ाई छिड़ी हो) में मौजूद हों, वे हराम नहीं हैं क्योंकि दारुल हर्ब से दारुल इस्लाम (इस्लामी देश) में आने के बाद उनके निकाह टूट गए। ऐसी औरतों के साथ निकाह भी किया जा सकता है और जिसके कब्जे में वे हों, वह उनसे सहवास भी कर सकता है। अलबत्ता फुकहा के बीच इस बात में मतभेद है कि अगर मियाँ और बीवी दोनों एक साथ गिरफ्तार हों तो उनका क्या हुक्म है। इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) और उनके शिष्य कहते है कि उनका निकाह बाक़ी रहेगा और इमाम मालिक व इमाम शाफ़ई (रह०) का विचार यह है कि उनका निकाह भी बाक़ी न रहेगा।
लौंडियों से सहवास के मामले में बहुत-सी भ्रान्तियाँ लोगों के मन में हैं, इसलिए नीचे लिखी बातों को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए-
1.जो औरतें लड़ाई में क़ैद हों उनको पकड़ते ही हर सिपाही उनके साथ संभोग कर लेने का अधिकारी नहीं है, बल्कि इस्लामी क़ानून यह है कि ऐसी औरतें प्रशासन के सुपुर्द कर दी जाएँगी। प्रशासन को अधिकार है कि चाहे उनको रिहा कर दे, चाहे उनसे फ़िदया (जुर्माना) ले, चाहे उनका तबादला उन मुसलमान कैदियों से करे जो शत्रु के हाथ में हों और चाहे तो उन्हें सिपाहियों में बाँट दे। एक सिपाही केवल उस औरत ही से सहवास करने का अधिकारी है जो प्रशासन की ओर से विधिवत उसकी मिल्कियत में दी गई हो।
2. जो औरत इस तरह किसी की मिल्कियत में दी जाए उसके साथ भी उस समय तक संभोग नहीं किया जा सकता जब तक कि उसे एक बार माहवारी के दिन न आ जाएँ और यह इत्मीनान न हो ले कि वह गर्भवती नहीं है, इससे पहले संभोग करना हराम है और अगर वह गर्भवती हो तो बच्चा जनने से पहले भी संभोग नाजाइज़ है।
3. लड़ाई में पकड़ी हुई औरतों से सहवास के मामले में यह शर्त नहीं है कि वे अहले किताब ही में से हो। उनका धर्म चाहे कोई हो, बहरहाल जब वह बाँट दी जाएँगी तो जिनके हिस्से में वे आएँ, वे उनसे सहवास कर सकते हैं।
4. जो औरत जिस आदमी के हिस्से में दी गई हो केवल वही उसके साथ सहवास कर सकता है, किसी दूसरे को उसे हाथ लगाने का अधिकार नहीं है। इस औरत से जो सन्तान होगी वह उसी आदमी की जाइज़ सन्तान समझी जाएगी जिसकी मिल्कियत में वह औरत है। उस औलाद के क़ानूनी हक़ वही होंगे जो शरीअत में सगी सन्तान के लिए निश्चित हैं। सन्तानवाली हो जाने के बाद वह औरत बेची न जा सकेगी और मालिक के मरते ही वह आपसे आप आज़ाद हो जाएगी।
5. जो औरत इस तरह किसी आदमी को मिल्कियत में आई हो उसे अगर उसका मालिक किसी दूसरे आदमी के निकाह में दे दे तो फिर मालिक को उससे बाकी दूसरी तमाम सेवाएँ लेने का अधिकार तो रहता है, लेकिन यौन-संबंध स्थापित करने का अधिकार बाक़ी नहीं रहता।
6. जिस तरह शरीअत ने बीवियों की तादाद पर चार की पाबन्दी लगाई है उस तरह लौंडियों की तादाद पर नहीं लगाई, लेकिन इस.मामले में कोई सीमा निश्चित न करने से शरीअत का मंशा यह नहीं था कि मालदार लोग अनगिनत लौंडियाँ खरीद-खरीदकर जमा कर लें और अपने घर को भोग-विलास का घर बना लें, बल्कि वास्तव में इस मामले में अनिश्चय का कारण युद्ध की परिस्थितियों का अनिश्चित होना है।
7. मिल्कियत के तमाम दूसरे हकों की तरह वे मालिकाना हक़ भी स्थानातरित किए जा सकते हैं जो किसी व्यक्ति को कानून के अनुसार लड़ाई के किसी कैदी पर राज्य ने प्रदान किए हों।
8. प्रशासन की ओर से मिल्कियत के हकों का विधिवत दिया जाना वैसा ही एक वैधानिक कर्म है, जैसे निकाह एक वैधानिक कर्म है, इसलिए कोई यथोचित कारण नहीं कि जो आदमी निकाह में किसी प्रकार की घृणा महसूस नहीं करता, वह खामखाह लौंडी से सहवास करने में घृणा महसूस करे।
9. लड़ाई के कैदियों में से किसी औरत को किसी आदमी की मिल्कियत में दे देने के बाद फिर राज्य उसे वापस लेने का अधिकारी नहीं रहता। बिल्कुल उसी तरह जैसे किसी औरत का वली (अभिभावक) उसको किसी के निकाह में दे चुकने के बाद फिर वापस लेने का अधिकारी नहीं रहता।
10. अगर कोई फौजी कमांडर केवल सामयिक और अस्थाई रूप से अपने सिपाहियों को क़ैदी औरतों से वासना तृप्ति की अनुमति दे दे और केवल कुछ समय के लिए उन्हें सेना में बाँट दे तो यह इस्लामी कान के अनुसार पूरी तरह एक नाजाइज़ (अवैध) कर्म है। इसमें और ज़िना (व्यभिचार) में कोई अन्तर नहीं है, और ज़िना इस्लामी क़ानून में अपराध है।
(विस्तृत वार्ता के लिए देखिए हमारी किताब 'तफहीमात, भाग 2 और 'रसाइल व मसाइल' भाग 1)
وَمَن لَّمۡ يَسۡتَطِعۡ مِنكُمۡ طَوۡلًا أَن يَنكِحَ ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ فَمِن مَّا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُم مِّن فَتَيَٰتِكُمُ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِۚ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِإِيمَٰنِكُمۚ بَعۡضُكُم مِّنۢ بَعۡضٖۚ فَٱنكِحُوهُنَّ بِإِذۡنِ أَهۡلِهِنَّ وَءَاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِ مُحۡصَنَٰتٍ غَيۡرَ مُسَٰفِحَٰتٖ وَلَا مُتَّخِذَٰتِ أَخۡدَانٖۚ فَإِذَآ أُحۡصِنَّ فَإِنۡ أَتَيۡنَ بِفَٰحِشَةٖ فَعَلَيۡهِنَّ نِصۡفُ مَا عَلَى ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ مِنَ ٱلۡعَذَابِۚ ذَٰلِكَ لِمَنۡ خَشِيَ ٱلۡعَنَتَ مِنكُمۡۚ وَأَن تَصۡبِرُواْ خَيۡرٞ لَّكُمۡۗ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ 24
(25) और जो आदमी तुममें से इतनी सामर्थ्य न रखता हो कि खानदानी मुसलमान औरतों (मुहसनात) से निकाह कर सके, उसे चाहिए कि तुम्हारी उन लौडियों में से किसी के साथ निकाह कर ले जो तुम्हारे क़ब्जे में हों और ईमानवाली हों। अल्लाह तुम्हारे ईमानों का हाल अच्छी तरह जानता है। तुम सब एक ही गिरोह के लोग हो 45, इसलिए उनके सरपरस्तों की इजाज़त से उनके साथ निकाह कर लो और भले तरीके से उनके महर अदा कर दो ताकि वे निकाह के घेरे में सुरक्षित होकर रहे, स्वच्छन्द काम-तृप्ति न करती फिरें और न चोरी-छिपे अवैध सम्बन्ध बनाएँ। फिर जब वे निकाह के घेरे में सुरक्षित हो जाएँ और इसके बाद कोई बदचलनी कर बैठे तो उनपर उस सज़ा की अपेक्षा आधी सज़ा है जो खानदानी औरतों (मुहसनात) के लिए निर्धारित है।46 यह सुविधा 47 तुममें से उन लोगों के लिए पैदा की गई है जिनको शादी न करने से तक़्वा (संयम) के भंग हो जाने का डर हो, लेकिन अगर तुम धैर्य से काम करो तो यह तुम्हारे लिए बेहतर है और अल्लाह क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।
45. अर्थात् रहन-सहन में लोगों के बीच जो स्तर का अन्तर है, वह सिर्फ औपचारिकता है, वरना वास्तव में सब मुसलमान बराबर हैं और अगर उनके बीच विभेद का कोई वास्तविक कारण है तो वह ईमान है जो सिर्फ़ ऊँचे घरानों ही का हिस्सा नहीं है। संभव है कि एक लौंडी ईमान, चरित्र और आचरण में एक कुलीन औरत से श्रेष्ठ हो।
46. सरसरी निगाह में यहाँ एक पेचीदगी पैदा होती है जिससे ख़ारिजी गिरोह और उन दूसरे लोगों ने लाभ उठाया है जो रजम (पत्थरों से मार मारकर मार डालने के आदेश) के इंकारी हैं। वे कहते हैं कि "अगर आज़ाद शादीशुदा औरत के लिए इस्लामी शरीअत में ज़िना की सज़ा रजम है तो उसकी आधी सज़ा क्या हो सकती है जो लौंडी को दी जाए? इसलिए यह आयत इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि इस्लाम में रजम की सज़ा है ही नहीं।" लेकिन उन लोगों ने कुरआन के शब्दों पर विचार नहीं किया। इस रुकूअ में शब्द मुहसनात' (सुरक्षित स्त्रिया) दो अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। एक 'शादीशुदा औरतें' जिनको पति को सुरक्षा प्राप्त हो, दूसरे 'खानदानी औरतें जिनको खानदान की सुरक्षा प्राप्त हो, यद्यपि वे शादीशुदा न हों। इस विचाराधीन आयत में 'मुहसनात' का शब्द लौंडी के मुक़ाबले में ख़ानदानी के लिए दूसरे अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, न कि पहले अर्थ में जैसा कि आयत के विषय से पूरी तरह स्पष्ट है। इसके विपरीत लौडियों के लिए 'मुहसनात' का शब्द पहले अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जब उन्हें निकाह की सुरक्षा प्राप्त हो जाए (फ़-इज़ा उहसिन-न) तब उनके लिए ज़िना करने पर वह सजा है जिसका उल्लेख हुआ। अब अगर गहरी निगाह से देखा जाए तो यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि खानदानी औरत को दो तरह की सुरक्षा प्राप्त हो जाती है- एक ख़ानदान की सुरक्षा, जिसके आधार पर वे शादी के बिना सुरक्षित होती हैं। दूसरी पति की सुरक्षा, जिसके कारण उसके लिए खानदान की सुरक्षा पर एक और सुरक्षा की बढ़ोत्तरी हो जाती है। इसके विपरीत लौंडी जब तक लौंडी है, मुहसना नहीं है, क्योंकि उसको किसी ख़ानदान की सुरक्षा प्राप्त नहीं है, अलबत्ता निकाह होने पर उसको केवल पति की सुरक्षा प्राप्त होती है और वह भी अधूरी, क्योंकि पति की सुरक्षा में आने के बाद भी न तो वह उन लोगों की बन्दगो से आज़ाद होती है, जिनकी मिल्कियत में वह थी और न उसे समाज में वह पद प्राप्त होता है जो कुलीन औरत को प्राप्त होता है, इसलिए उसे जो सज़ा दी जाएगी वह सौर-शादीशुदा खानदानी औरतों की सज़ा से आधी होगी, न कि शादीशुदा खानदानी औरतों की सज़ा से । साथ ही यहीं से यह बात भी मालूम हो गई कि कुरआन 24 : 2 में ज़िना को जिस सज़ा का उल्लेख है वह सिर्फ गैर-शादीशुदा ख़ानदानी औरतों के लिए है, जिनके मुकाबले में यहाँ शादीशुदा लौंडी की सज़ा आधी बयान को गई है। रहीं शादीशुदा ख़ानदानी औरतें तो वे गैर-शादीशुदा 'मुहसनात' से अधिक सख्त सज़ा की हक़दार हैं, क्योंकि वे दोहरी सुरक्षा तोड़ती हैं । यद्यपि कुरआन इनके लिए रजम की सज़ा को स्पष्ट नहीं करता, लेकिन अति सुन्दर ढंग से उसकी ओर इशारा करता है, जो मन्दबुद्धि लोगों से छिपा रह जाए तो रह जाए किन्तु नबी के विवेक से छिपा नहीं रह सकता था।
وَٱللَّهُ يُرِيدُ أَن يَتُوبَ عَلَيۡكُمۡ وَيُرِيدُ ٱلَّذِينَ يَتَّبِعُونَ ٱلشَّهَوَٰتِ أَن تَمِيلُواْ مَيۡلًا عَظِيمٗا 26
(27) हाँ, अल्लाह तो तुम्हारी ओर दयालुता के साथ पलटना चाहता है, मगर जो लोग स्वयं अपनी कामवासनाओं के पोछे चल रहे हैं, वे चाहते हैं कि तुम सीधे रास्ते से हटकर दूर निकल जाओ।49
49. यह मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) और रूढ़िवादी अज्ञानियों और मदीना के बाहरी हिस्से में बसे यहूदियों की ओर संकेत है जिनको वे सुधार अत्यंत असहय हो रहे थे जो संस्कृति और समाज में सदियों को जमी और रची-बसी हुई कुप्रथाओं और रस्म व रिवाज के विरुद्ध किए जा रहे थे। मीरास में लड़कियों का हिस्सा, विधवा का ससुराल की बंधनों से रिहाई पाना और इद्दत के बाद उसका किसी भी व्यक्ति से विवाह के लिए आज़ाद हो जाना, सौतेली माँ से निकाह का हराम होना, दो बहनों को एक साथ निकाह में जमा किए जाने को हराम करार देना, लेपालक ले को विरासत से वंचित करना और मुँहबोले बाप के लिए लेपालक की विधवा और तलाक़शुदा का हलाल होना । ये और इसी तरह के दूसरे सुधारों में से एक-एक चीज़ ऐसी थी जिसपर बड़े-बूढ़े और बाप-दादा की रस्मों के अनुपालक चीख-चीख उठते थे। मुद्दतों इन आदेशों पर चर्चे होते रहते थे। दुष्ट इन बातों को लेकर नबी (सल्ल.) और आपके सुधारात्मक सन्देश के विरुद्ध लोगों को भड़काते फिरते थे। मिसाल के तौर पर जो आदमी भी किसी ऐसे निकाह से पैदा हुआ था जिसे अब इस्लामी शरीअत हराम करार दे रही थी उसको यह कह कहकर भड़काया जाता था कि लीजिए, आज जो नये आदेश वहाँ आए हैं उनकी रौशनी में आपकी माँ और आपके बाप का ताल्लुक अवैध ठहरा दिया गया है। इस तरह ये नासमझ लोग उस सुधार के काम में रुकावटें डाल रहे थे जो उस समय अल्लाह के आदेशों के तहत अंजाम दिया जा रहा था। दूसरी ओर यहूदी थे जिन्होंने सदियों बाल को खाल निकालते रहने से अल्लाह की सच्ची शरीअत पर अपने खुद के घड़े हुए हुक्मो और कानूनों का एक भारो खोल चढ़ा रखा था। अनगिनत पाबन्दिया और बारीकियाँ और सख्ति़याँ थीं जो उन्होंने शरीअत में बढ़ा ली थीं। अधिकांश हलाल चीज़ों को वे हराम कर बैठे थे। बहुत-सी अंधविश्वास की बातें थीं जिनको उन्होंने ईश्वरीय क़ानून में दाखि़ल कर लिया था। अब यह बात उनके धार्मिक नेताओं और आम लोगों दोनों की मनोवृत्ति और स्वभाव के बिलकुल विपरीत थी कि वे इस सीधी-सादी शरीअत का मूल्य पहचान सकते जो क़ुरआन पेश कर रहा था। वे कुरआन के आदेशों को सुनकर बेताब हो हो जाते थे। वे एक-एक चीज़ पर सौ-सौ आपत्तियाँ करते थे। उनकी माँग यह थी कि या तो कुरआन उनके धर्म विधानों द्वारा पैदा की गई रीतियों और उनके समस्त भ्रमक विश्वासों और अनर्गल बातों को अल्लाह की शरीअत करार दे, वरना यह कदापि अल्लाह की किताब नहीं है। उदाहरण के रूप में यहूदियों के यहाँ प्रथा थी कि माहवारी के दिनों में औरत को बिलकुल 'गन्दगी' समझा जाता था, न उसका पकाया हुआ खाना खाते, न उसके हाथ का पानी पीते, न उसके साथ फर्श पर बैठते, बल्कि उसके हाथ से हाथ छू जाने को भी अप्रिय समझते थे। इन कुछ दिनों में औरत खुद अपने घर में अछूत बनकर रह जाती थी। यही चलन यहूदियों से प्रभावित होकर मदीने के अंसार में भी चल पड़ा था। जब नबी (सल्ल.) मदीना तशरीफ़ लाए तो आपसे इसके बारे में प्रश्न किया गया। उत्तर में वह आयत अवतरित हुई जो सूरा 2 (बक़रा की आयत नं:222, रुकूअ-28 के आरंभ) में अंकित है। नबी (सल्ल.) ने इस आयत की रौशनी में हुक्म दिया कि माहवारी के दिनों में सिर्फ संभोग नाजाइज़ है। बाकी तमाम ताल्लुकात औरतों के साथ उसी तरह रखे जाएँ जिस तरह दूसरे दिनों में होते हैं। इसपर यहूदियों में शोर मच गया। वे कहने लगे कि यह आदमी तो कसम खाकर बैठा है कि जो-जो कुछ हमारे यहाँ हराम है, उसे हलाल करके रहेगा और जिस-जिस चीज़ को हम अपवित्र कहते हैं, उसे पवित्र ठहराएगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَأۡكُلُوٓاْ أَمۡوَٰلَكُم بَيۡنَكُم بِٱلۡبَٰطِلِ إِلَّآ أَن تَكُونَ تِجَٰرَةً عَن تَرَاضٖ مِّنكُمۡۚ وَلَا تَقۡتُلُوٓاْ أَنفُسَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِكُمۡ رَحِيمٗا 28
(29) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो। आपस में एक-दूसरे के माल ग़लत ढंग से न खाओ, लेन-देन होना चाहिए आपस की रज़ामंदी से 50 और स्वयं अपनी हत्या न करो। 51 विश्वास करो कि अल्लाह तुम्हारे ऊपर मेहरबान है।52
50. 'ग़लत ढंग' से अभिप्रेत वे तमाम तरीके हैं जो सत्य के प्रतिकूल हों और शरीअत और नैतिकता की दृषि से नाजाइज़ (अवैध) हों। 'लेन-देन' से अभिप्रेत यह है कि आपस में हित और लाभ का तबादला होना चाहिए, जिस प्रकार व्यापार और उद्योग-धंधों में होता है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए मेहनत करता है और वह उसका मुआवजा देता है। आपस की रज़ामंदी' से तात्पर्य यह है कि लेन-देन न तो किसी नाजाइज़ दबाव से हो और न छल-कपट से। रिश्वत और सूद में प्रत्यक्ष रूप से रज़ामंदी होती है, मगर सच तो यह है कि वह रज़ामंदी मजबूरी के तहत होती है और दबाव का नतीजा होती है। जुए में भी प्रत्यक्ष रूप से रजामंदी होती है, मगर सच तो यह है कि जुए में हिस्सा लेनेवाला हर आदमी उस ग़लत उम्मीद पर रज़ामंद होता है कि जीत उसकी होगी। हारने के इरादे से कोई भी राज़ी नहीं होता । छल-कपट के कारोबार में भी प्रत्यक्ष रूप से रज़ामंदी होती है, मगर इस भ्रम की वजह से होती है कि भीतर छल कपट नहीं है। अगर दूसरे फरीक को मालूम हो कि तुम उससे छल-कपट कर रहे हो तो वह कदापि इसपर तैयार न हो।
51. यह वाक्य पिछले वाक्य का पूरक भी हो सकता है और स्वयं एक स्थायी वाक्य भी। अगर पिछले वाक्य का पूरक समझा जाए तो इसका अर्थ यह है कि दूसरों का माल अवैध रूप से खाना स्वयं अपने आपको विनाश में डालना है। दुनिया में इससे संस्कृति-व्यवस्था खराब होती है और इसके बुरे नतीजों से हरामख़ोर आदमी स्वयं भी नहीं बच सकता और आखिरत में इसके कारण आदमी कड़ी सज़ा का हक़दार बन जाता है और अगर इसे स्थायी रूप से एक वाक्य समझा जाए तो इसके दो अर्थ हैं-एक यह कि एक-दूसरे की हत्या न करो, दूसरे यह कि आत्महत्या न करो। अल्लाह ने ऐसे व्यापक शब्दों का प्रयोग किया है और वर्णन-क्रम ऐसा रखा है कि इससे ये तीनों अर्थ निकलते हैं और तीनों सही हैं।
إِن تَجۡتَنِبُواْ كَبَآئِرَ مَا تُنۡهَوۡنَ عَنۡهُ نُكَفِّرۡ عَنكُمۡ سَيِّـَٔاتِكُمۡ وَنُدۡخِلۡكُم مُّدۡخَلٗا كَرِيمٗا 30
(31) अगर तुम उन बड़े-बड़े गुनाहों से बचते रहो, जिनसे तुम्हें मना किया जा रहा है, तो तुम्हारी छोटी-मोटी बुराइयों को हम तुम्हारे हिसाब से हटा देंगे 53 और तुमको सम्मानित जगह में दाखिल करेंगे।
53. अर्थात् हम तंगदिल और तंगनज़र नहीं हैं कि छोटी-छोटी बातों पर पकड़कर अपने बन्दों को सज़ा दें। अगर तुम्हारा आमालनामा (कर्म-पत्र) भारी अपराधों से खाली हो तो छोटी खताओं को नज़रअंदाज़ कर दिया जाएगा और तुमपर चार्जशीट लगाई ही न जाएगी, किन्तु यदि भारी अपराध करके आओगे, तो फिर मुक़द्दमा कायम किया जाएगा, उसमें छोटी ख़ताएँ भी पकड़ में आ जाएँगी।
यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि बड़े गुनाह और छोटे गुनाह में मूल अन्तर क्या है। जहाँ तक मैंने क़ुरआन और सुन्नत पर विचार किया है, मुझे ऐसा मालूम होता है (अल्लाह ही बेहतर जाने) कि तीन चीजें हैं जो किसी कर्म को बड़ा गुनाह बनाती हैं-
1. किसी का हक़ मार लेना, चाहे वह अल्लाह हो जिसका हक़ मारा गया है, या माँ-बाप हों या दूसरे इंसान, या स्वयं अपना मन। फिर जिसका हक़ जितना अधिक है उतना ही उसके हक़ को मारना अधिक बड़ा गुनाह है। इसी आधार पर गुनाह को 'जुल्म' भी कहा जाता है और इसी आधार पर कुरआन में 'शिर्क' को 'बड़ा जुल्म' कहा गया है।
2. अल्लाह से निडर होना और उसके मुकाबले में अहंकार, जिसके कारण आदमी अल्लाह के करने न करने के आदेशों की परवाह न करे और अवज्ञा के इरादे से जान-बूझकर वह काम करे जिससे अल्लाह ने मना किया है और जान बूझकर उन कामों को न करे जिनका उसने आदेश दिया है। यह अवज्ञा जितनी ज़्यादा ढिठाई और दुस्साहस और निर्भीकता की मनोदशा अपने भीतर लिए हुए होगी, उतना ही गुनाह भी सख़्त होगा। इस अर्थ की दष्टि से गुनाह के लिए अरबी में- 'फिस्क' और 'मासियत' शब्द इस्तेमाल किए गए हैं।
3. उन बंधनों को तोड़ना और उन संबंधों को बिगाड़ना जिनके जोड़ने, मज़बूत बनाने और ठीक होने पर मानव-जीवन की शान्ति निर्भर करती है, चाहे ये संबंध बन्दे और अल्लाह के बीच हों या बन्दे और बन्दे के बीच । फिर जो संबंध जितना ज़्यादा अहम है और जिसके करने से शान्ति को जितनी ज़्यादा हानि पहुँचती है और जिसके मामले में शांति स्थापना की जितनी अधिक आशा की जाती है, उतना ही उसको तोड़ने और काटने और खराब करने का गुनाह ज़्यादा बड़ा है। जैसे व्यभिचार और उसके अनेक रूपों पर विचार कौजिए। यह काम अपने आपमें संस्कृति व्यवस्था को नष्ट करनेवाला है, इसलिए अपने आपमें एक बड़ा गुनाह है, परन्तु इसके अलग-अलग रूप एक-दूसरे से गुनाह में अधिक उग्र हैं। शादीशुदा आदमी का ज़िना करना अविवाहित के मुकाबले में ज़्यादा बड़ा गुनाह है, विवाहित औरत से व्यभिचार करना अविवाहिता से करने के मुकाबले में ज़्यादा बड़ा गुनाह है, पड़ोसी के घरवाले से व्यभिचार करना गैर-पड़ोसी से करने के मुकाबले में ज़्यादा बुरा है। महरम औरतों, जैसे बहन या बेटी या माँ से व्यभिचार करना गैर-औरत से करने के मुकाबले में ज़्यादा कुत्सित और घृणित है। मस्जिद में व्यभिचार करना किसी और जगह करने के अधिक संगीन अपराध है । इन उदाहरणों से एक ही काम के बहुत-से रूपों के बीच गुनाह होने की हैसियत से रूपों का अन्तर इन्हीं कारणों से है जो ऊपर बताए गए हैं। जहाँ शान्ति-स्थापना की आशा जितनी अधिक है, जहाँ मानवीय संबंध जितने अधिक माननीय हैं और जहाँ इन संबंधों को काटना जितना अधिक बिगाड़ का कारण है, वहाँ व्यभिचार का करना उतना ही अधिक बड़ा गुनाह है। इसी अर्थ की दृष्टि से गुनाह के लिए 'फुजूर' का पारिभाषिक शब्द प्रयुक्त किया जाता है।
وَلَا تَتَمَنَّوۡاْ مَا فَضَّلَ ٱللَّهُ بِهِۦ بَعۡضَكُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۚ لِّلرِّجَالِ نَصِيبٞ مِّمَّا ٱكۡتَسَبُواْۖ وَلِلنِّسَآءِ نَصِيبٞ مِّمَّا ٱكۡتَسَبۡنَۚ وَسۡـَٔلُواْ ٱللَّهَ مِن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٗا 31
(32) और जो कुछ अल्लाह ने तुममें से किसी को दूसरों के मुकाबले में अधिक दिया है उसकी तमन्ना न करो। जो कुछ मर्दो ने कमाया है, उसके अनुसार उनका हिस्सा है और जो कुछ औरतों ने कमाया है, उसके अनुसार उनका हिस्सा। हाँ, अल्लाह से उसके फज्ल (उदारदान) की दुआ माँगते रहो, निस्संदेह अल्लाह हर चीज़ का ज्ञान रखता है।54
54. इस आयत में एक बड़ा महत्वपूर्ण नैतिक निर्देश दिया गया है जिसे अगर ध्यान में रखा जाए तो सामाजिक जीवन में इंसान को बड़ी शान्ति मिल जाए। अल्लाह ने तमाम इंसानों को एक जैसा नहीं बनाया है, बल्कि उनके बीच अनगिनत हैसियतों से फ़र्क रखे हैं, कोई खूबसूरत है और कोई बदसूरत, किसी की आवाज़ में माधुर्यता है और किसी की आवाज़ घृणास्पद, कोई शक्तिशाली है और कोई शक्तिहीन, कोई स्वस्थ है और कोई जन्मजात कमज़ोर । किसी को शारीरिक और मानसिक शक्तियों में से कोई शक्ति अधिक दी है और किसी को कोई दूसरी शक्ति, किसी को बेहतर हालात में पैदा किया है और किसी को बदतर हालात में, किसी को अधिक साधन दिए हैं और किसी को कम । इसी अन्तर और विशिष्टता पर मानव-संस्कृति की अनेकरूपता आधारित है और ठीक हिकमत का तकाज़ा भी है। जहाँ इस अन्तर को उसकी स्वाभाविक सीमाओं से बढ़ाकर इंसान अपने कृत्रिम अन्तरों को उसपर अभिवृद्धि करता है, वहाँ एक प्रकार का बिगाड़ पैदा हो जाता है और जहाँ सिरे से इस अन्तर को ही मिटा देने के लिए प्रकृति से संघर्ष का प्रयास किया जाता है, वहाँ एक-दूसरे प्रकार का बिगाड़ पैदा होता है। आदमी की यह मनोवृत्ति कि जिसे किसी हैसियत से अपने मुकाबले में बढ़ा हुआ देखे, बेचैन हो जाए, यही सामाजिक जीवन में डाह, जलन, द्वेष-भाव,शत्रुता, संघर्ष और खींच-तान की जड़ है और इसका नतीजा यह होता है कि जो चीज़ उसे वैध तरीकों से नहीं मिलती उसे बह फिर अवैध उपायों से प्राप्त करने पर उतर आता है। अल्लाह इस आयत में इसी मानसिकता से बचने की हिदायत फ़रमा रहा है। उसके कहने का अर्थ यह है कि जो चीज़ उसने दूसरों को दी हो उसको तमन्ना न करो, अलबत्ता अल्लाह से कृपा की दुआ करो, वह जिस कृपा को अपने ज्ञान और हिकमत से तुम्हारे लिए उचित समझेगा, प्रदान कर देगा। और यह जो फ़रमाया कि "मर्दो ने जो कुछ कमाया है उसके अनुसार उनका हिस्सा है और जो कुछ औरतों ने कमाया है उसके अनुसार उनका हिस्सा" इसका अर्थ जहाँ तक मैं समझ सका हूँ, यह है कि मर्दो और औरतों में से जिसको जो कुछ अल्लाह ने दिया है उसको इस्तेमाल करके जो जितनी और जैसी बुराई या भलाई कमाएगा, उसी के अनुसार या दूसरे शब्दों में उसी रूप में अल्लाह के यहाँ हिस्सा पाएगा।
ٱلرِّجَالُ قَوَّٰمُونَ عَلَى ٱلنِّسَآءِ بِمَا فَضَّلَ ٱللَّهُ بَعۡضَهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ وَبِمَآ أَنفَقُواْ مِنۡ أَمۡوَٰلِهِمۡۚ فَٱلصَّٰلِحَٰتُ قَٰنِتَٰتٌ حَٰفِظَٰتٞ لِّلۡغَيۡبِ بِمَا حَفِظَ ٱللَّهُۚ وَٱلَّٰتِي تَخَافُونَ نُشُوزَهُنَّ فَعِظُوهُنَّ وَٱهۡجُرُوهُنَّ فِي ٱلۡمَضَاجِعِ وَٱضۡرِبُوهُنَّۖ فَإِنۡ أَطَعۡنَكُمۡ فَلَا تَبۡغُواْ عَلَيۡهِنَّ سَبِيلًاۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيّٗا كَبِيرٗا 33
(34) मर्द औरतों पर क़व्वाम (मामलों के ज़िम्मेदार) हैं,56 इस आधार पर कि अल्लाह ने उनमें से एक को दूसरे पर फ़ज़ीलत (विशिष्टता) दी है57 और इस आधार पर कि मर्द अपने माल ख़र्च करते हैं। इसलिए जो भली औरते हैं, वे आज्ञापालन करनेवाली होती हैं और मर्दो के पीछे अल्लाह की सुरक्षा और निगरानी में उनके अधिकारों की रक्षा करती है58 । और जिन औरतों से तुम्हें उद्दंडता का डर हो, उन्हें समझाओ, सोने की जगहों में उनसे अलग रहो और मारो59 , फिर अगर वे तुम्हारी बात मानने लगे तो अकारण उसपर हाथ उठाने के लिए बहाने न खोजो, विश्वास रखो कि ऊपर अल्लाह मौजूद है जो बड़ा और सर्वोच्च है।
56. अरबी शब्द 'क़व्वाम या क़य्यिम' उस व्यक्ति को कहते हैं जो किसी व्यक्ति या संस्था या व्यवस्था के मामलों को ठीक-ठाक चलाने और उसकी रक्षा और देखभाल करने और उसकी ज़रूरतें पूरी करने का ज़िम्मेदार हो।
57. यहाँ 'फ़ज़ीलत' श्रेष्ठता, प्रतिष्ठा और सम्मान के अर्थ में नहीं है, जैसा कि एक आम हिन्दी-उर्दू पाठक इस शब्द का अर्थ ले सकता है, बल्कि यहाँ यह शब्द इस अर्थ में है कि मर्द को अल्लाह ने प्राकृतिक रूप से कुछ ऐसी विशेषताएँ और क्षमताएँ प्रदान की हैं जो औरत जाति को नहीं दी और अगर दी हैं तो उससे कम दी हैं। इस आधार पर पारिवारिक व्यवस्था में मर्द ही ' क़व्वाम ' होने की योग्यता रखता है और औरत प्राकृतिक रूप से ऐसी बनाई गई है कि उसे पारिवारिक जीवन में मर्द की रक्षा और निगरानी के अन्तर्गत रहना चाहिए।
وَإِنۡ خِفۡتُمۡ شِقَاقَ بَيۡنِهِمَا فَٱبۡعَثُواْ حَكَمٗا مِّنۡ أَهۡلِهِۦ وَحَكَمٗا مِّنۡ أَهۡلِهَآ إِن يُرِيدَآ إِصۡلَٰحٗا يُوَفِّقِ ٱللَّهُ بَيۡنَهُمَآۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا خَبِيرٗا 34
(35) और अगर तुम लोगों को कहीं पति-पत्नी के संबंधों के बिगड़ जाने का डर हो तो एक फैसला करनेवाला मध्यस्थ) मर्द के रिश्तेदारों में से और एक औरत के रिश्तेदारों में से नियुक्त करो, वे दोनों60 सुधार करना चाहेंगे तो अल्लाह उनके बीच मेल-मिलाप का रास्ता निकाल देगा। अल्लाह सब कुछ जानता है और खबर रखनेवाला है।61
60. दोनों से तात्पर्य हकम (मध्यस्थ) भी हैं और पति-पत्नी भी। हर झगड़े में सुलह होना संभव है, बशर्ते कि दोनों फरीक (पक्ष) भी सुलह चाहते हों और बीचवाले भी चाहते हों कि दोनों पक्ष में किसी तरह सुलह-सफ़ाई हो जाए।
61. इस आयत में आदेश दिया गया है कि जहाँ पति-पत्नी में मनमुटाव हो जाए, वहाँ झगड़े से अलगाव तक नौबत पहुंचने या अदालत में मामला जाने से पहले घर के घर ही में सुधार की कोशिश कर लेनी चाहिए, और उसका उपाय यह है कि पति-पत्नी में से हर एक के परिवार का एक-एक आदमी इस उद्देश्य के लिए नियुक्त किया जाए कि दोनों मिलकर मतभेद की वजहों की जाँच करें और फिर आपस में सिर जोड़कर बैठे और हल की कोई शक्ल निकालें। यह पंच या मध्यस्थ नियुक्त करनेवाला कौन हो? इस सवाल को अल्लाह ने अस्पष्ट रखा है, ताकि अगर पति-पत्नी स्वयं चाहें तो अपने-अपने रिश्तेदारों में से स्वयं ही एक-एक आदमी को अपने मतभेद का निर्णय करने के लिए चुन लें, वरना दोनों परिवारों के बड़े-बूढ़े हस्तक्षेप करके पंच नियुक्त करें और अगर मुक़द्दमा अदालत में पहुँच ही जाए तो अदालत स्वयं ही कोई कार्रवाई करने से पहले पारिवारिक पंच नियुक्त करके सुधार की कोशिश करे।
इस मामले में मतभेद है कि मध्यस्थों (पंचों) के अधिकार क्या हैं। इस्लामी धर्मशास्त्रियों में से एक गिरोह कहता है कि ये मध्यस्थ निर्णय करने का अधिकार नहीं रखते, अलबत्ता समस्या हल करने की जो शक्ल उनके नज़दीक उचित हो, उसके लिए सिफ़ारिश कर सकते हैं। मानना या न मानना पति-पत्नी के अधिकार में है। हाँ, अगर पति-पत्नी ने उनको तलाक़ या खुलअ या किसी और मामले का फैसला कर देने के लिए अपना वकील बनाया हो तो ऐसी स्थिति में उनका फैसला मानना पति-पत्नी के लिए अनिवार्य होगा। यह हनफ़ी और शाफ़ई उलमा का मत है। दूसरे गिरोह के नज़दीक दोनों पंचों को मेल-मिलाप का फैसला करने का अधिकार है, मगर अलगाव का फैसला वे नहीं कर सकते। यह हसन बसरी और कतादा और कुछ दूसरे इस्लामी विद्वानों का कथन है । एक और गिरोह इस बात का कायल है कि इन पंचों को मिलाने और अलग कर देने के पूरे अधिकार हैं। इब्ने अब्बास, सईद बिन जुबैर, इबराहीम नख़ई, शाबी, मुहम्मद बिन सोरोन और कुछ दूसरे इस्लामी धर्मज्ञों ने यही मत अपनाया है।
हज़रत उसमान (रजि.) और हज़रत अली (रजि.) के निर्णयों को जो नज़ीरें हम तक पहुंची हैं, उनसे मालूम होता है कि ये दोनों पंच नियुक्त करते हुए अदालत की ओर से उनको फैसले का अधिकार दे देते थे। नाँचे हज़रत अकील बिन अबी तालिब और उनकी बीवी फ़ातिमा बिन्त उत्बा बिन रबीआ का मुकद्दमा जब हज़रत उसमान (रजि.) की अदालत में पेश हुआ तो उन्होंने पति के परिवार में से हज़रत इब्ने अब्बास (रजि.) को और पत्नी के परिवार में से हज़रत मुआविया बिन अबी सुफियान (रजि.) को पंच नियुक्त किया और उनसे कहा कि अगर आप दोनों की राय में उनके बीच अलगाव कर देना ही उचित हो तो अलगाव कर दें। इसी तरह एक मुकद्दमे में हज़रत अली (रजि.) ने मध्यस्थ नियुक्त किए और उनको अधिकार दिया कि चाहे मिला दें और चाहे अलग कर दें। इससे मालूम होता है कि पंच अपने तौर पर अदालती अधिकार नहीं रखते। अलबत्ता अगर अदालत उनको नियुक्त करते समय उन्हें अधिकार दे दे तो फिर उनका फ़ैसला एक अदालती फैसले की तरह लागू होगा।
۞وَٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ وَلَا تُشۡرِكُواْ بِهِۦ شَيۡـٔٗاۖ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَٰنٗا وَبِذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱلۡجَارِ ذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡجَارِ ٱلۡجُنُبِ وَٱلصَّاحِبِ بِٱلۡجَنۢبِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِ وَمَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ مَن كَانَ مُخۡتَالٗا فَخُورًا 35
(36) और तुम सब अल्लाह की बन्दगी करो, उसके साथ किसी को साझी न बनाओ, माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो। रिश्तेदारों और यतीमों और मुहताजों के साथ सद्व्यवहार करो और पडोसी रिश्तेदार से, अजनबी पड़ोसी से, पहलू के साथी62 और मुसाफ़िर से और उन लौंडी ग़ुलामों से जो तुम्हारे क़ब्जे में हों, अच्छे व्यवहार का मामला रखो, विश्वास करो कि अल्लाह किसी ऐसे आदमी को पसन्द नहीं करता जो अपने अहं में चूर हो और अपनी बड़ाई पर घमंड करे।
62. अरबी में 'अस्साहिब बिल जंबि' कहा गया है, जिससे तात्पर्य हर समय साथ उठने-बैठनेवाला मित्र भी है और ऐसा आदमी भी जिससे कहीं किसी समय आदमी का साथ हो जाए। जैसे आप बाज़ार में जा रहे हों और कोई आदमी आपके साथ रास्ता चल रहा हो, या किसी दुकान पर आप सौदा खरीद रहे हों और कोई दूसरा खरीदार भी आपके पास बैठा हो, या सफर के दौरान में कोई आदमी आपका साथी हो । यह क्षणिक साथ भी प्रत्येक सभ्य और सज्जन व्यक्ति पर एक अधिकार निश्चित करता है जिसकी अपेक्षा यह है कि वह यथासंभव उस साथी के साथ अच्छा व्यवहार करे और उसे कष्ट देने से बचे।
ٱلَّذِينَ يَبۡخَلُونَ وَيَأۡمُرُونَ ٱلنَّاسَ بِٱلۡبُخۡلِ وَيَكۡتُمُونَ مَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۗ وَأَعۡتَدۡنَا لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٗا مُّهِينٗا 36
(37) और ऐसे लोग भी अल्लाह को पसन्द नहीं हैं जो कंजूसी करते हैं और दूसरों को भी कंजूसी की हिदायत करते हैं और जो कुछ अल्लाह ने अपनी कृपा से उन्हें दिया है उसे छिपाते हैं।63 नेमत के ऐसे नाशुक्रों (कृतघ्न व्यक्तियों) के लिए हमने अपमानजनक अज़ाब तैयार कर रखा है।
63. अल्लाह की कृपा को छिपाना यह है कि आदमी इस तरह रहे मानो अल्लाह ने उसपर कृपा नहीं की है, जैसे किसी को अल्लाह ने धन दिया हो और वह अपनी हैसियत से गिरकर रहे, न अपने ऊपर और न बीवी-बच्चों पर खर्च करे, न अल्लाह के बन्दों की मदद करे, न अच्छे कामों में हिस्सा ले। लोग देखें तो समझें कि बेचारा बड़ा ही फटे हाल है। यह वास्तव में अल्लाह की सख्त नाशुक्रो (कृतघ्नता) है। हदीस में आया है कि नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया, "अल्लाह जब किसी बन्दे को नेमत देता है तो वह पसन्द करता है कि इस नेमत का प्रभाव बन्दे पर प्रकट हो अर्थात् उसके खाने-पीने, रहने-सहने, कपड़ा और मकान और उसके लेन-देन, हर चीज़ से अल्लाह की दी हुई यह नेमत प्रकट होती रहे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَقۡرَبُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَأَنتُمۡ سُكَٰرَىٰ حَتَّىٰ تَعۡلَمُواْ مَا تَقُولُونَ وَلَا جُنُبًا إِلَّا عَابِرِي سَبِيلٍ حَتَّىٰ تَغۡتَسِلُواْۚ وَإِن كُنتُم مَّرۡضَىٰٓ أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٍ أَوۡ جَآءَ أَحَدٞ مِّنكُم مِّنَ ٱلۡغَآئِطِ أَوۡ لَٰمَسۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَلَمۡ تَجِدُواْ مَآءٗ فَتَيَمَّمُواْ صَعِيدٗا طَيِّبٗا فَٱمۡسَحُواْ بِوُجُوهِكُمۡ وَأَيۡدِيكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَفُوًّا غَفُورًا 42
(43) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! जब तुम नशे की हालत में हो तो नमाज़ के क़रीब 65 न जाओ। नमाज़ उस वक़्त पढ़नी चाहिए जब तुम जानो कि क्या कह रहे हो 66 और इसी तरह नापाकी 67 की हालत में भी नमाज़ के क़रीब न जाओ जब तक कि गुस्ल (स्नान) न कर लो, अलावा इसके कि रास्ते से गुज़रते हो 68 और अगर कभी ऐसा हो कि तुम बीमार हो, या सफ़र में हो या तुममें से कोई आदमी ज़रूरत पूरी करके आए या तुमने औरतों को हाथ लगाया हो 69 और फिर पानी न मिले तो पाक मिट्टी से काम लो और उससे अपने चेहरों और हाथों पर मसह कर लो (हाथ फेर लो)।70 बेशक अल्लाह नर्मी से काम लेनेवाला और क्षमा करनेवाला है।
65. यह शराब के बारे में दूसरा आदेश है। पहला आदेश वह था जो सूरा 2 (अल-बक़रा) आयत 219 में आ चुका है। उसमें केवल यह बताकर छोड़ दिया गया था कि शराब बुरी चीज़ है, अल्लाह को पसन्द नहीं। चुनाँचे मुसलमानों में से एक गिरोह उसके बाद ही शराब से परहेज़ करने लगा था, मगर बहुत-से लोग उसे पहले ही की तरह इस्तेमाल करते रहे थे, यहाँ तक कि कभी-कभी नशे की हालत में ही नमाज़ पढ़ने खड़े हो जाते थे और कुछ-का-कुछ पढ़ जाते थे। संभवतः सन् 04 हिजरी के आरंभ में यह दूसरा आदेश आया और नशे में नमाज़ पढ़ने से रोक दिया गया। इसका प्रभाव यह हुआ कि लोगों ने अपने शराब पीने के समय बदल दिए और ऐसे समयों में शराब पीनी छोड़ दी जिनमें यह डर होता कि कहीं नशे ही की हालत में नमाज़ का समय न आ जाए। इसके कुछ दिनों बाद शराब के बिलकुल ही हराम किए जाने का वह आदेश आया जो सूरा-5 (अल-माइदा) आयत 90-91 में है। यहाँ यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि आयत में 'सुक्र' अर्थात् नशे का शब्द आया है, इसलिए यह आदेश सिर्फ शराब के लिए मुख्य न था, बल्कि हर नशीली चीज़ के लिए आम था और अब भी इसका आदेश बाक़ी है। यद्यपि नशीली चीज़ों का इस्तेमाल अपने आपमें हराम है, लेकिन नशे की हालत में नमाज़ पढ़ना दोहरा और बहुत बड़ा गुनाह (महापाप) है।
66. इसी वजह से नबी (सल्ल.) ने हिदायत फ़रमाई है कि जब किसी व्यक्ति पर नींद का ग़लबा हो रहा हो और वह नमाज़ पढ़ने में बार-बार ऊँच जाता हो तो उसे नमाज़ छोड़कर सो जाना चाहिए। कुछ लोग इस आयत के आधार पर यह नतीजा निकालते हैं कि जो व्यक्ति नमाज़ में पढ़ी जानेवाली अरबी इबारत का अर्थ नहीं समझता उसकी नमाज़ नहीं होती, किन्तु उनका यह अनुचित और ज़बरदस्ती का तर्क तो है ही, स्वयं कुरआन के शब्द भी इसका साथ नहीं देते । कुरआन में ‘हत्ता तफ़क़हू' या 'हत्ता तफ़हमू मा तकूलून' [यहाँ तक कि तुम समझो कि क्या कह रहे हो] नहीं फ़रमाया है, बल्कि 'हत्ता तअ-लमू मा तकूलून' [जब तुम जानो कि क्या कह रहे हो।] फ़रमाया है। अर्थात् नमाज़ में आदमी को इतना होश रहना चाहिए कि वह यह जाने कि वह क्या चीज़ अपनी ज़बान से अदा कर रहा है। ऐसा न हो कि वह खड़ा हो तो नमाज़ पढ़ने और शुरू कर दे कोई ग़ज़ल।
70. आदेश का विस्तृत रूप यह है कि आगर आदमी बे-वुजू है या उसे गुस्ल को ज़रूरत है और पानी नहीं मिलता तो तयम्मुम करके नमाज़ पढ़ सकता है। अगर मरीज़ है और गुस्ल या वुजू करने से उसको नुक़सान का डर है तो पानी मौजूद होने के बावजूद तयम्मुम की इजाज़त से फायदा उठा सकता है। 'तयम्मुम' का अर्थ इरादा करना है। अर्थ यह है कि जब पानी न मिले या पानी हो और उसका इस्तेमाल संभव न हो तो पाक मिट्टी पवित्रता प्राप्त करने के लिए) से काम लो।
तयम्मुम के तरीक़े में फुक़हा (इस्लामी विधिवेताओं) के बीच मतभेद है। एक गिरोह के नज़दीक उसका तरीका यह है कि एक बार मिट्टी पर हाथ मारकर मुंह पर फेर लिया जाए, फिर दूसरी बार हाथ मारकर कुहनियों तक हाथों पर फेर लिया जाए । इमाम अबू हनीफ़ा, इमाम शाफ़ई, इमाम मालिक और अधिकतर (इस्लामी विधिवेताओं) का यही मत है और सहाबा व ताबईन में से हज़रत अली (रज़ि.), अब्दुल्लाह बिन उमर (रह०), हसन बसरी, शाबी और सालिम बिन अब्दुल्लाह (रज़ि.) आदि इसके कायल थे। दूसरे गिरोह के नज़दीक सिर्फ एक बार हाथ मारना काफी है। वही हाथ मुँह पर भी फेर लिया जाए और उसी को कलाई तक हाथों पर भी फेर लिया जाए, कुहनियों तक मसह करने की ज़रूरत नहीं। यह अता, महूल, औज़ाई और अहमद बिन हंबल (रह.) का मत है और आम तौर से अहले हदीस भी इसी के क़ायल हैं।
तयम्मुम के लिए ज़रूरी नहीं है कि ज़मीन ही पर हाथ मारा जाए। इस उद्देश्य के लिए हर धूल से अटी चीज़ और हर वह चीज़ जो ज़मीन के सूखे कणों पर सम्मिलित हो, काफ़ी है।
कुछ लोग आपत्ति करते हैं कि इस तरह मिट्टी पर हाथ मारकर मुंह और हाथों पर फेर लेने से आखिर पाकी किस तरह प्राप्त हो सकती है, लेकिन वास्तव में यह आदमी में पाकी का एहसास और नमाज़ का सम्मान कायम रखने के लिए एक महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक उपाय है। इससे लाभ यह है कि आदमी चाहे कितनी ही
मुद्दत तक पानी इस्तेमाल करने में समर्थ न हो, बहरहाल उसके भीतर पाकी का एहसास बाक़ी रहेगा, पाकी के जो नियम शरीअत में निर्धारित कर दिए गए हैं उनको पाबन्दी वह बराबर करता रहेगा और उसके मन से नमाज़ के काबिल होने की हालत और नमाज़ के क़ाबिल न होने की हालत का अन्तर कभी मिट न सकेगा।
مِّنَ ٱلَّذِينَ هَادُواْ يُحَرِّفُونَ ٱلۡكَلِمَ عَن مَّوَاضِعِهِۦ وَيَقُولُونَ سَمِعۡنَا وَعَصَيۡنَا وَٱسۡمَعۡ غَيۡرَ مُسۡمَعٖ وَرَٰعِنَا لَيَّۢا بِأَلۡسِنَتِهِمۡ وَطَعۡنٗا فِي ٱلدِّينِۚ وَلَوۡ أَنَّهُمۡ قَالُواْ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَا وَٱسۡمَعۡ وَٱنظُرۡنَا لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۡ وَأَقۡوَمَ وَلَٰكِن لَّعَنَهُمُ ٱللَّهُ بِكُفۡرِهِمۡ فَلَا يُؤۡمِنُونَ إِلَّا قَلِيلٗا 45
(46) जो लोग यहूदी बन गए हैं 72 उनमें कुछ लोग हैं जो शब्दों को उनकी जगह से फेर देते हैं 73 और सत्य धर्म के विरुद्ध डंक मारने के लिए अपनी जुबानों को तोड़-मोड़कर कहते हैं,'समिअ़ना व अ़सैना'74 (हमने सुना, लेकिन हम मानते नहीं) और 'इस्मा गैर-मुस्मइन’75 (सुनिए, आप ऐसे नहीं की कोई सुनाए) और 'राअि़ना’76 (हमारी रिआयत करें), हालाँकि अगर वे कहते 'समिझना व अतअना' (हमने सुना और माना) और 'इस्मा' (सुनिए) और 'उनजुरना' (हमारी ओर ध्यान दे) तो यह उन्हीं के लिए बेहतर था और अधिक ठीक रीति थी, मगर उनपर तो उनकी असत्यवादिता के कारण अल्लाह की फिटकार पड़ी हुई है, इसलिए वे कम ही ईमान लाते हैं।
72. यह नहीं फ़रमाया कि “यहूदी हैं", बल्कि यह फ़रमाया कि “यहूदी बन गए हैं" क्योंकि आरंभ में तो वे भी मुसलमान (आज्ञाकारी) ही थे जिस तरह हर नबी की उम्मत (समुदाय) वास्तव में मुसलमान होती है, मगर बाद में वे सिर्फ यहूदी बनकर रह गए।
73. इसके तीन अर्थ हैं : एक यह कि अल्लाह की किताब के शब्दों में परिवर्तन कर देते हैं। दूसरे यह कि अपनी मनमानी व्याख्या से किताब को आयतों का अर्थ कुछ से कुछ बना देते हैं, तीसरे यह कि ये लोग मुहम्मद (सल्ल.) और आपके अनुपालकों को संगति में आकर उनकी बातें सुनते हैं और वापस जाकर लोगों के सामने गलत तरीकों से बयान करते हैं। बात कुछ कही जाती है और वे उसे अपनी दुष्टता से कुछ का कुछ बनाकर लोगों में प्रचार करते हैं, ताकि उन्हें बदनाम किया जाए और उनके बारे में भ्रान्तियाँ फैलाकर लोगों को इस्लामी जमाअत की ओर आने से रोका जाए।
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَغۡفِرُ أَن يُشۡرَكَ بِهِۦ وَيَغۡفِرُ مَا دُونَ ذَٰلِكَ لِمَن يَشَآءُۚ وَمَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَقَدِ ٱفۡتَرَىٰٓ إِثۡمًا عَظِيمًا 47
(48) अल्लाह बस 'शिर्क' ही को क्षमा नहीं करता।79 इसके अलावा दूसरे जितने भी गुनाह हैं, वह जिसके लिए चाहता है, क्षमा कर देता है।80 अल्लाह के साथ जिसने किसी और को शरीक ठहराया उसने तो बहुत ही बड़ा झूठ घड़ लिया, और बड़े सख्त गुनाह की बात की।
79. यह इसलिए फरमाया कि किताबबाले (अहले किताब) यद्यपि नबियों और आसमानी किताबों के पैरवी के दावेदार थे, मगर शिर्क में पड़ गए थे।
80. इसका अर्थ यह नहीं है कि आदमी बस शिर्क न करे, बाक़ी दूसरे गुनाह दिल खोलकर करता रहे, बल्कि वास्तव में इससे यह बात मन में बिठाना अभीष्ट है कि शिर्क (बहुदेववाद) जिसको उन लोगों ने बहुत मामूली चीज़ समझ रखा था, तमाम गुनाहों से बड़ा गुनाह है, यहाँ तक कि और गुनाहों की माफ़ी तो संभव है मगर यह एक ऐसा गुनाह है कि क्षमा नहीं किया जा सकता। यहूदी धार्मिक नेता शरीअत के छोटे-छोटे आदेशों का तो बड़ा ध्यान रखते थे, बल्कि उनका सारा समय उन गौन बातों की नाप-तौल ही में गुज़रता था जिन्हें उनके धार्मिक विधिवेत्ताओं (फ़क़ीहों) ने ज़बरदस्ती खोज-खोजकर निकाले थे। मगर शिर्क उनकी निगाह में ऐसा हल्का कार्य था कि न स्वयं उससे बचने की चिन्ता करते थे, न अपनी क़ौम को शिर्क भरे विचारों और कार्यों से बचाने की कोशिश करते थे और न मुशरिकों (बहुदेववादियों) की मैत्री और समर्थन ही में उन्हें कोई दोष दिखाई देता था।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ أُوتُواْ نَصِيبٗا مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡجِبۡتِ وَٱلطَّٰغُوتِ وَيَقُولُونَ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ هَٰٓؤُلَآءِ أَهۡدَىٰ مِنَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ سَبِيلًا 50
(51) क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्हें किताब के ज्ञान में से कुछ अंश दिया गया है और उनका हाल यह है कि जिब्त 81 और ताग़ूत 82 को मानते हैं और अधर्मियों के बारे में कहते हैं कि ईमान लानेवालों से तो यही अधिक सही रास्ते पर हैं।83
81. जिब्त का मूल अर्थ है अवास्तविक, तथ्यहीन और निरर्थक चीज़। इस्लाम को भाषा में जादू, कहानत (ज्योतिष), फ़ालगीरी, टोने-टोटके, शकुन और मुहूर्त और दूसरी तमाम अंधविश्वासपूर्ण और काल्पनिक बातों को 'जिब्त' की संज्ञा दी गई है। अतः हदीस में आया है कि जानवरों को आवाज़ों से फाल लेना, ज़मीन पर जानवरों के कदम के निशानों से शकुन निकालना और फालगीरी के दूसरे तरीके सब ‘जिब्त' ही हैं। 'जिब्त' का अर्थ वहीं है जिसे हम हिन्दी में 'अंधविश्वास' कहते हैं और जिसके लिए अंग्रेज़ी में Superstitions का शब्द प्रयोग किया जाता है।
82. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 (बक़रा),टिप्पणी न० 286, 288
أَمۡ يَحۡسُدُونَ ٱلنَّاسَ عَلَىٰ مَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۖ فَقَدۡ ءَاتَيۡنَآ ءَالَ إِبۡرَٰهِيمَ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَءَاتَيۡنَٰهُم مُّلۡكًا عَظِيمٗا 53
(54) फिर क्या ये दूसरों से इसलिए जलन रखते हैं कि अल्लाह ने उन्हें अपना अनुग्रह प्रदान किया ? 85 अगर यह बात है तो इन्हें मालूम हो कि हमने तो इबराहीम की सन्तान को किताब और गहरी समझ दी और महान राज्य प्रदान किया 86 ,
85. अर्थात् ये अपनी अयोग्यता के बावजूद अल्लाह की जिस कृपा और जिस इनाम की आशा स्वयं लगाए बैठे थे उसे जब दूसरों को प्रदान कर दिया गया और अरब के उम्मियों (अपढ़ों) में एक महान नबी के प्रकट होने से वह आध्यात्मिक, नैतिक और मानसिक व व्यावहारिक जीवन पैदा हो गया, जिसका अनिवार्य फल उत्थान और प्रतिष्ठा है, तो अब ये उसपर जल रहे हैं और ये बातें इसी जलन के कारण इनके मुँह से निकल रही हैं।
86. 'महान राज्य' का अर्थ दुनिया की इमामत (नेतृत्व) और रहनुमाई और विश्व की क़ौमों पर नेतृत्व सम्बन्धी प्रभुत्व है जो अल्लाह की किताब का ज्ञान पाने और उस ज्ञान और तत्वदर्शिता के अनुसार आचरण करने से अनिवार्य रूप से प्राप्त होता है।
۞إِنَّ ٱللَّهَ يَأۡمُرُكُمۡ أَن تُؤَدُّواْ ٱلۡأَمَٰنَٰتِ إِلَىٰٓ أَهۡلِهَا وَإِذَا حَكَمۡتُم بَيۡنَ ٱلنَّاسِ أَن تَحۡكُمُواْ بِٱلۡعَدۡلِۚ إِنَّ ٱللَّهَ نِعِمَّا يَعِظُكُم بِهِۦٓۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ سَمِيعَۢا بَصِيرٗا 57
(58) मुसलमानो! अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि अमानतें अमानतवालों के सुपुर्द करो और जब लोगों के बीच फैसला करो तो न्याय के साथ फ़ैसला करो।88 अल्लाह तुमको अति उत्तम नसीहत करता है और निश्चय ही अल्लाह सब कुछ सुनता और देखता है।
88. अर्थात् तुम उन बुराइयों से बचे रहना जिनमें बनी इसराईल लिप्त हो गए हैं। बनी इसराईल की बुनियादी गलतियों में से एक यह थी कि उन्होंने अपने पतन के ज़माने में अमानते अर्थात् जि़म्मेदारी के पद और धार्मिक नेतृत्व और राष्ट्रीय नेतृत्व के पद (Positions of Trust) ऐसे लोगों को देने शुरू कर दिए जो अयोग्य, अनुदार, भ्रष्ट, बेईमान और दुराचारी थे। परिणामत: बुरे लोगों के नेतृत्व में सारी कौम खराब होती चली गई। मुसलमानों को आदेश दिया जा रहा है कि तुम ऐसा न करना, बल्कि अमानतें उन लोगों के सुपुर्द करना जो उनके योग्य हो, अर्थात् जिनमें अमानत का बोझ उठाने की योग्यता हो । बनी इसराईल की दूसरी बड़ी कमज़ोरी यह थी कि वे न्याय की आत्मा से खाली हो गए थे। वे निजी और जातीय स्वार्थों के लिए निस्संकोच ईमान निगल जाते थे, खुली हठधर्मो बरत जाते थे। न्याय के गले पर छूरी फेरने में उन्हें तनिक झिझक न होती । उनके अन्याय का सबसे कडुवा तजुर्बा उस ज़माने में स्वयं मुसलमानों को हो रहा था। एक ओर उनके सामने अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल.) और उनपर ईमान लानेवालों की पाकीज़ा जिन्दगियाँ थीं, दूसरी ओर वे लोग थे जो बुतों को पूज रहे थे, बेटियों को ज़िन्दा गाड़ देते थे, सौतेली माओं तक से विवाह कर लेते थे और काबा के चारों ओर बिलकुल नंगे होकर तवाफ़ (परिक्रमा) करते थे। ये नाम मात्र के अहलेकिताब इनमें से दूसरे गिरोह को पहले गिरोह पर प्रमुखता देते थे और उनको यह कहते हुए तनिक भी लज्जा न होती थी कि पहले गिरोह के मुकाबले में यह दूसरा गिरोह अधिक सही रास्ते पर है। अल्लाह उनके इस अन्याय पर सचेत करने के बाद अब मुसलमानों को हिदायत करता है कि तुम कहीं ऐसे अन्याय करनेवाले न बन जाना, चाहे किसी से दोस्ती हो या दुश्मनी, किसी भी स्थिति में जब भी बात कहो न्याय की कहो और फैसला जब करो तो न्याय के साथ करो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَأُوْلِي ٱلۡأَمۡرِ مِنكُمۡۖ فَإِن تَنَٰزَعۡتُمۡ فِي شَيۡءٖ فَرُدُّوهُ إِلَى ٱللَّهِ وَٱلرَّسُولِ إِن كُنتُمۡ تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۚ ذَٰلِكَ خَيۡرٞ وَأَحۡسَنُ تَأۡوِيلًا 58
(59) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! बात मानो अल्लाह की और बात मानो रसूल की और उन लोगों की जो तुममें से ज़िम्मेदार (आदेश देने के अधिकारी) हो, फिर अगर तुम्हारे बीच किसी मामले में झगड़ा हो जाए तो उसे अल्लाह और रसूल की ओर फेर दो 89 अगर तुम सच में अल्लाह और आखिरत के दिन पर ईमान रखते हो। काम का यही एक राही तरीका है और परिणाम की दृष्टि से भी अच्छा है।90
89. यह आयत इस्लाम की पूर्ण धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक व्यवस्था का आधार और इस्लामी राज्य के संविधान की पहली धारा है। इसमें नीचे लिखे चार नियम स्थाई रूप से बयान कर दिए गए है-
1. इस्लामी व्यवस्था में आदेश देने का वास्तविक अधिकारी अल्लाह है। एक मुसलमान सबसे पहले अल्लाह का बन्दा है, बाकी जो कुछ भी है उसके बाद है।
2. इस्लामी व्यवस्था की दूसरी बुनियाद रसूल का आज्ञापालन है। यह अपने आपमें कोई स्थाई आज्ञापालन नहीं है, बल्कि अल्लाह के आज्ञापालन का एक ही व्यावहारिक रूप है। हम अल्लाह का आज्ञापालन सिर्फ़ उसी तरीके से कर सकते हैं कि रसूल का आज्ञापालन करें। अल्लाह का कोई आज्ञापालन रसूल के प्रमाण के बिना विश्वसनीय नहीं है और रसूल की पैरवी से मुंह मोड़ना ख़ुदा के विरुद्ध विद्रोह है।
3. उपरोक्त दोनों आज्ञापालनों के बाद और इनके मातहत तीसरा आज्ञापालन, जो इस्लामी व्यवस्था में मुसलमानों पर अनिवार्य है, वह उन सब ज़िम्मेदारों का आज्ञापालन है जो स्वयं मुसलमानों में से हों। ज़िम्मेदार के अर्थ में वे सब लोग शामिल हैं जो मुसलमानों के सामूहिक मामलों के उच्चाधिकारी हों, चाहे वे मानसिक और वैचारिक मार्गदर्शन करनेवाले उलमा हों, या राजनीतिक मार्गदर्शन करनेवाले लीडर हों या राज्य के प्रशासनिक अधिकारी या अदालती फैसला करनेवाले जज या सांस्कृतिक, सामाजिक मामलों में कबीलों, बस्तियों और मुहल्लों की रहनुमाई करनेवाले बुजुर्ग और सरदार ।
4. चौथी बात, जो इसमें एक स्थायी और निश्चित नियम के रूप में तय कर दी गई है, यह है कि इस्लामी व्यवस्था में अल्लाह का आदेश और रसूल का तरीका बुनियादी कानून और अन्तिम प्रमाण (FinalAuthority) है, मुसलमानों के बीच या शासन और जनता के बीच जिस मामले में भी विवाद पैदा होगा, उसमें फैसले के लिए कुरआन व हदीस की ओर रुजूअ किया जाएगा और जो फैसला वहाँ से मिलेगा, उसके सामने सभी सर झुका देंगे। इस तरह ज़िन्दगी के तमाम मामलों में अल्लाह की किताब और अल्लाह के रसूल (सल्ल.) की सुन्नत को प्रमाण, युक्ति और अन्तिम बात मान लेना इस्लामी व्यवस्था की वह अनिवार्य विशेषता है जो उसे अधर्म पर आधारित जीवन-व्यवस्था से स्पष्टतः अलग कर देती है। जिस व्यवस्था में यह चीज़ न पाई जाए, वह निश्चित रूप से एक गैर-इस्लामी व्यवस्था है।
90. क़ुरआन मजीद चूंकि केवल क़ानून ही की किताब नहीं है, बल्कि सिखाने, हिदायत देने नसीहत की किताब भी है, इसलिए पहले वाक्य में जो वैधानिक सिद्धांत बयान किए गए थे, इस दूसरे वाक्य में उनके मर्म निहित हित समझाए जा रहे हैं। इसमें दो बातें कही गई हैं—एक यह कि उपरोक्त चारों सिद्धांतों का अनुपालन ईमान की अनिवार्य माँग है। मुसलमान होने का दावा और इन सिद्धांतों से मुँह फेरे रखना ये दोनों चीजें एक जगह जमा नहीं हो सकतीं। दूसरे यह कि इन सिद्धांतों पर अपनी जीवन-प्रणाली के निर्माण करने में ही मुसलमानों की भलाई भी है। केवल यही एक चीज़ उनको दुनिया में सीधे रास्ते पर क़ायम रख सकती है और इसी से उनकी आखि़रत भी सफल हो सकती है। यह नसीहत ठीक उस आख्यान की समाप्ति पर की गई जिसमें यहूदियों की नैतिक और धार्मिक दशा की समीक्षा की जा रही थी। इस तरह एक अति सूक्ष्म ढंग से मुसलमानों को सचेत किया गया है कि तुमसे पहले की उम्मत धर्म के इन आधारभूत सिद्धांतों से विमुख होकर जिस पस्ती में गिर चुकी है, उससे शिक्षा लो। जब कोई गिरोह अल्लाह को किताब और उसके रसूल की हिदायत को पीठ पीछे डाल देता है और ऐसे सरदारों और मार्गदर्शकों के पीछे लग जाता है जो अल्लाह और रसूल का आज्ञापालन न करते हों और अपने धार्मिक गुरुओं और राजनीतिक शासकों से किताब व सुन्नत का प्रमाण पूछे बिना उनका आज्ञापालन करने लगता है, तो वह उन खराबियों में पड़े होने से किसी तरह बच नहीं सकता जिनमें बनी इसराईल पड़ गए थे।
فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤۡمِنُونَ حَتَّىٰ يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيۡنَهُمۡ ثُمَّ لَا يَجِدُواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ حَرَجٗا مِّمَّا قَضَيۡتَ وَيُسَلِّمُواْ تَسۡلِيمٗا 64
(65) नहीं, ऐ मुहम्मद ! तुम्हारे रब की क़सम ! ये कभी ईमानवाले नहीं हो सकते जब तक कि अपने आपसी मतभेदों में ये तुमको फैसला करनेवाला न मान लें, फिर जो कुछ तुम फ़ैसला करो उसपर अपने दिलों में भी कोई तंगीन महसूस करें, बल्कि पूरी तरह मान लें।95
95. इस आयत का आदेश सिर्फ नबी (सल्ल.) की ज़िन्दगी तक सीमित नहीं है, बल्कि क़यामत तक के लिए है। जो कुछ अल्लाह की ओर से नबी (सल्ल.) लाए हैं और जिस तरीक़े पर अल्लाह के मार्गदर्शन की हिदायत और उसके अधीन आपने व्यवहार किया है, वह सदा-सर्वदा के लिए मुसलमानों के बीच निर्णायक प्रमाण है और इस प्रमाण को मानने या न मानने ही पर आदमी के मोमिन (ईमानवाला) होने और न होने का निर्णय है। हदीस में इसी बात को नबी (सल्ल.) ने इस तरह से फरमाया है, कि “तुममें से कोई आदमी मोमिन नहीं हो सकता, जब तक कि उसकी मनेच्छाएँ उस तरीके के अधीन न हो जाएं जिसे मैं लेकर आया हूँ।‘’
وَلَوۡ أَنَّا كَتَبۡنَا عَلَيۡهِمۡ أَنِ ٱقۡتُلُوٓاْ أَنفُسَكُمۡ أَوِ ٱخۡرُجُواْ مِن دِيَٰرِكُم مَّا فَعَلُوهُ إِلَّا قَلِيلٞ مِّنۡهُمۡۖ وَلَوۡ أَنَّهُمۡ فَعَلُواْ مَا يُوعَظُونَ بِهِۦ لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۡ وَأَشَدَّ تَثۡبِيتٗا 65
(66) अगर हमने उन्हें आदेश दिया होता कि अपने आपको हलाक कर दो या अपने घरों से निकल जाओ तो इनमें से कम ही आदमी इसपर अमल करते 96, हालाँकि जो नसीहत उन्हें की जाती है, अगर ये इसे व्यवहार में लाते तो यह उनके लिए ज्यादा अच्छाई और अधिक जमाव का कारण 97 होता
96. अर्थात् जब उनका हाल यह है कि शरीअत की पाबन्दी करने से तनिक-भर नुक़सान या थोड़ा-सा कष्ट भी ये सहन नहीं कर सकते तो उनसे किसी बड़े त्याग की कदापि आशा नहीं की जा सकती। अगर जान देने या घर-बार छोड़ने की मांग उनसे की जाए तो ये तुरन्त भाग खड़े होंगे और ईमान और आज्ञापालन के बजाय इंकार व अवज्ञा की राह लेंगे।
97. अर्थात् अगर ये लोग शक, सन्देह और संकोच छोड़कर एकाग्र होकर रसूल का आज्ञापालन और उसकी पैरवी पर स्थिर हो जाते और डांवाडोल न रहते तो उनकी जिन्दगी अनिश्चितता से बच जाती। इनके विचार, चरित्र और व्यवहार सब के सब एक स्थायी और सुदृढ़ आधार पर स्थापित हो जाते और इन्हें वे बरकतें मिल जाती जो एक सीधे रास्ते पर कदम जमाकर चलने से मिला करती हैं। जो आदमी डाँवाडोल और संकोच में पड़ा है, कभी इस रास्ते पर चले और कभी उस रास्ते पर और इत्मीनान किसी रास्ते के भी सही होने पर उसे प्राप्त न हो, उसकी सारी जिन्दगी पानी पर बने चित्र जैसी बीत जाती है और निरर्थक कोशिश बनकर रह जाती है।
وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَ فَأُوْلَٰٓئِكَ مَعَ ٱلَّذِينَ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِم مِّنَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ وَٱلصِّدِّيقِينَ وَٱلشُّهَدَآءِ وَٱلصَّٰلِحِينَۚ وَحَسُنَ أُوْلَٰٓئِكَ رَفِيقٗا 68
(69) जो लोग अल्लाह और रसूल का आज्ञापालन करेंगे, वे उन लोगों के साथ होंगे जिनपर अल्लाह ने इनाम फ़रमाया है अर्थात् नबी और सिद्दीक़ और शहीद और भले (सदाचारी) लोग।99 कैसे अच्छे हैं ये साथी जो किसी को मिलें !100
99. इसका अर्थ यह है कि आखिरत में वे इन लोगों के साथ होंगे। यह अर्थ नहीं है कि इनमें से कोई अपने इस कार्य के कारण नबी भी बन जाएगा। सिद्दीक़ से तात्पर्य वह आदमी है जो बहुत ही सच्चा हो, जिसके अन्दर सच्चाई और सत्यप्रियता पूर्णरूप से पाई जाती हो, जब साथ दे तो सत्य और न्याय ही का साथ दे और सच्चे दिल से दे और जिस चीज़ को सत्य के विरुद्ध पाए, उसके विरुद्ध डटकर खड़ा हो जाए और तनिक कमज़ोरी न दिखाए।
‘'शहीद" का वास्तविक अर्थ गवाह है। इससे अभिप्रेत वह आदमी है जो अपने ईमान की सच्चाई पर अपनी ज़िन्दगी की पूरी रीति-नीति से गवाही दे। अल्लाह की राह में लड़कर जान देनेवाले को भी शहीद इसी कारण कहते हैं कि वह जान देकर सिद्ध कर देता है कि वह जिस चीज़ पर ईमान लाया था उसे वास्तव में सच्चे दिल से सत्य समझता था और उसे इतना प्रिय रखता था कि उसके लिए जान कुरबान करने में भी उसने झिझक न दिखाई। ऐसे सच्चे लोगों को भी शहीद कहा जाता है जो इतने भरोसेमंद हों कि जिस चीज़ पर वह गवाही दें, उसका सही व सत्य पर होना बे-झिझक मान लिया जाए।
'सालेहीन' (भले लोग) से अभिप्रेत वे लोग हैं जो अपने विचारों और अक़ीदों में, अपनी नीयत और इरादों में और अपनी कथनी-करनी में सीधे रास्ते पर हुए हों और कुल मिलाकर अपनी ज़िन्दगी में अच्छी नीति अपनाते हों।
100. अर्थात् वह मनुष्य भाग्यशाली है जिसे ऐसे लोग दुनिया में साथ के लिए मिल जाएँ और जिसका अंजाम आखि़रत में भी ऐसे ही लोगों के साथ हो । किसी आदमी के एहसास मुर्दा हो जाएं तो बात दूसरी है, वरना वास्तव में दुराचारियों और चरित्रहीनों के साथ जीवन बिताना दुनिया ही में एक अत्यंत दुखद यातना है, कहाँ यह कि आखिरत में भी आदमी उन्हीं के साथ उस अंजाम से दोचार हो जो उनके लिए तय है। इसी लिए अल्लाह के नेक बन्दों की सदैव यही कामना रही है कि उनको भले लोगों का समाज मिले और मरकर भी वे भले लोगों के ही साथ रहें।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ يُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۖ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱلطَّٰغُوتِ فَقَٰتِلُوٓاْ أَوۡلِيَآءَ ٱلشَّيۡطَٰنِۖ إِنَّ كَيۡدَ ٱلشَّيۡطَٰنِ كَانَ ضَعِيفًا 75
(76) जिन लोगों ने ईमान का रास्ता अपनाया है, वे अल्लाह की राह में लड़ते हैं और जिन्होंने कुफ़्र का रास्ता अपनाया है, वे तागत की राह में लड़ते हैं।105 अत: शैतान के साथियों से लड़ो और यकीन जानो कि शैतान की चाले वास्तव में बड़ी कमज़ोर हैं।106
105. यह अल्लाह का दोटूक निर्णय है। अल्लाह की राह में इस उद्देश्य के लिए लड़ना कि धरती पर अल्लाह का दीन (धर्म) स्थापित हो, यह ईमानवालों का काम है। और जो वास्तव में ईमानवाला है, वह इस काम से कभी बाज़ न रहेगा और ताग़ूत की राह में इस उद्देश्य के लिए लड़ना कि अल्लाह की ज़मीन पर अल्लाह के बागि़यों का राज हो, यह इंकार करनेवालों का काम है और कोई ईमान रखनेवाला आदमी यह काम नहीं कर सकता।
106. अर्थात् प्रत्यक्ष में शैतान और उसके साथी बड़ी तैयारियाँ करके उठते हैं और बड़ी ज़बरदस्त चालें चलते हैं। लेकिन ईमानवालों को न उनकी तैयारियों से भयभीत होना चाहिए और न उनकी चालों से डरना चाहिए। आखि़रकार उनका अंजाम नाकामी है।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ قِيلَ لَهُمۡ كُفُّوٓاْ أَيۡدِيَكُمۡ وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقِتَالُ إِذَا فَرِيقٞ مِّنۡهُمۡ يَخۡشَوۡنَ ٱلنَّاسَ كَخَشۡيَةِ ٱللَّهِ أَوۡ أَشَدَّ خَشۡيَةٗۚ وَقَالُواْ رَبَّنَا لِمَ كَتَبۡتَ عَلَيۡنَا ٱلۡقِتَالَ لَوۡلَآ أَخَّرۡتَنَآ إِلَىٰٓ أَجَلٖ قَرِيبٖۗ قُلۡ مَتَٰعُ ٱلدُّنۡيَا قَلِيلٞ وَٱلۡأٓخِرَةُ خَيۡرٞ لِّمَنِ ٱتَّقَىٰ وَلَا تُظۡلَمُونَ فَتِيلًا 76
(77) तुमने उन लोगों को भी देखा जिनसे कहा गया था कि अपने हाथ रोके रखो और नमाज़ कायम करो और ज़कात दो? अब जो उन्हें युद्ध का आदेश दिया गया तो उनमें से एक फ़रीक़ का हाल यह है कि लोगों से ऐसा डर रहा है जैसे अल्लाह से डरना चाहिए या कुछ इससे भी बढ़कर।107 कहते हैं, ऐ अल्लाह ! यह हमपर युद्ध करने का आदेश क्यों लिख दिया? क्यों न हमें अभी कुछ और मोहलत दी? इनसे कहो, दुनिया की ज़िन्दगी की पूँजी थोड़ी है और आख़िरत एक अल्लाह से डरनेवाले व्यक्ति के लिए ज्यादा अच्छी है, और तुमपर ज़ुल्म तनिक भर भी न किया जाएगा108,
107. इस आयत के तीन भाव हैं और तीनों अपनी-अपनी जगह सही है-
एक अभिप्राय यह है कि प्रारंभ में ये लोग स्वयं लड़ाई के लिए बेताब थे। बार-बार कहते थे कि साहब ! हम पर जुल्म किया जा रहा है, हमें सताया जाता है, मारा जाता है, गालियाँ दी जाती हैं, आख़िर हम कब तक धीरज से काम लें, हमें लड़ने की इजाजत दी जाए। उस वक़्त उनसे कहा जाता था कि धैर्य से काम लो और नमाज़ व ज़कात से अभी अपने मन को सुधारते रहो, तो यह धैर्य व सहनशीलता का आदेश उनपर बोझ होता था, मगर अब जो लड़ाई का आदेश दे दिया गया तो उन्हीं तक़ाज़ा करनेवालों में से एक गिरोह दुश्मनों की भीड़ और लड़ाई के ख़तरे देख-देखकर सहमा जा रहा है।
दूसरा अर्थ यह है कि जब तक मांग नमाज़, ज़कात और ऐसे ही बिना किसी जोखिम के कामों की थी और जानें लड़ाने का कोई प्रश्न बीच में न आया था, ये लोग पक्के दीनदार (धार्मिक) थे, मगर अब जो सत्य के लिए जान-जोखिम का काम शुरू हुआ तो उनपर कपकपी छा गई।
तीसरा भाव यह है कि पहले तो लूट-खसोट और स्वार्थों से भरी लड़ाइयों के लिए उनकी तलवार हर समय म्यान से निकली पड़ती थी और रात-दिन का काम ही लड़ाई था। उस समय उन्हें रेज़ी से हाथ रोकने और नमाज़ व ज़कात से मन को सुधारने के लिए कहा गया था। अब जो अल्लाह के लिए तलवार उठाने का आदेश दिया गया, तो वे लोग जो स्वार्थ के लिए लड़ने में शेरदिल थे, अल्लाह के लिए लड़ने में बुज़दिल बने जाते हैं। तलवारवाला वह हाथ जो मन और शैतान की राह में बड़ी तेज़ी दिखाता था, अब अल्लाह की राह में ठंडा हुआ जाता है।
ये तीनों अर्थ अलग-अलग प्रकार के लोगों पर चरितार्थ होते हैं और आयत के शब्द इतने अर्थगर्भित हैं कि तीनों अर्थ समान रूप से लिए जा सकते हैं।
108. अर्थात् अगर तुम अल्लाह के धर्म की सेवा करोगे और उसकी राह में जान लड़ा दोगे तो यह संभव नहीं, कि अल्लाह के यहाँ तुम्हारा बदला समाप्त हो जाए।
أَيۡنَمَا تَكُونُواْ يُدۡرِككُّمُ ٱلۡمَوۡتُ وَلَوۡ كُنتُمۡ فِي بُرُوجٖ مُّشَيَّدَةٖۗ وَإِن تُصِبۡهُمۡ حَسَنَةٞ يَقُولُواْ هَٰذِهِۦ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۖ وَإِن تُصِبۡهُمۡ سَيِّئَةٞ يَقُولُواْ هَٰذِهِۦ مِنۡ عِندِكَۚ قُلۡ كُلّٞ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِۖ فَمَالِ هَٰٓؤُلَآءِ ٱلۡقَوۡمِ لَا يَكَادُونَ يَفۡقَهُونَ حَدِيثٗا 77
(78) रही मौत, तो जहाँ भी तुम हो, वह बहरहाल तुम्हें आकर रहेगी, चाहे तुम कैसी ही मज़बूत इमारतों में हो। अगर उन्हें कोई लाभ पहुँचता है तो कहते हैं कि यह अल्लाह की ओर से है और अगर कोई क्षति पहुँचती है तो कहते हैं कि ऐ नबी ! यह आपकी वजह से है।109 कहो, सब कुछ अल्लाह ही की ओर से है। आखिर इन लोगों को क्या हो गया है कि कोई बात इनकी समझ में नहीं आती।
109. अर्थात जब विजय और सफलता प्राप्त होती है, तो उसे अल्लाह का अनुग्रह ठहराते हैं और भूल जाते हैं कि अल्लाह ने उनपर यह अनुग्रह नबी ही के द्वारा किया है, किन्तु जब स्वयं अपनी ग़लतियों और कमज़ोरियों की वजह से कहीं हार होती है और बढ़ते हुए कदम पीछे पड़ने लगते हैं तो पूरा आरोप नबी के सिर थोपते हैं और स्वयं उतर दायित्व से बरी होना चाहते हैं।
أَفَلَا يَتَدَبَّرُونَ ٱلۡقُرۡءَانَۚ وَلَوۡ كَانَ مِنۡ عِندِ غَيۡرِ ٱللَّهِ لَوَجَدُواْ فِيهِ ٱخۡتِلَٰفٗا كَثِيرٗا 81
(82) क्या ये लोग कुरआन पर विचार नहीं करते? अगर यह अल्लाह के सिवा किसी और की ओर से होता तो इसमें बहुत कुछ बे-मेल बयान पाए जाते।111
111. मुनाफि़क़ (ढोंगी एवं पाखण्डी) और कमज़ोर ईमानवालों के जिस रवैए पर ऊपर को आयतों में चेतावनी दी गई है, उसकी बड़ी और असली वजह यह थी कि उन्हें कुरआन के बारे में सन्देह था कि वह अल्लाह की ओर से है। उन्हें विश्वास न होता था कि रसूल पर वास्तव में वस्य उतरती है और यह जो कुछ आदेश आ रहे हैं, सीधे-सीधे अल्लाह ही के पास से आ रहे हैं। इसी लिए उनके कपटपूर्ण आचरण की निन्दा करने के बाद अब फरमाया जा रहा है कि ये लोग कुरआन पर विचार ही नहीं करते, अन्यथा यह वाणी तो स्वयं गवाही दे रही है कि यह अल्लाह के अतिरिक्त किसी दूसरे की वाणी नहीं हो सकती । कोई इंसान इस बात की सामर्थ्य नहीं रखता कि वर्षों वह अलग-अलग परिस्थितियों में, अलग-अलग अवसरों पर, अलग-अलग विषयों पर आख्यान देना रहे और शुरू से अन्त तक उसके सारे वक्तव्य ऐसे अनुरूप, एक रंग, एक सन्तुलित संग्रह बन जाएं, जिसका कोई भाग दूसरे भाग से टकराए नहीं, जिसमें नीति के बदले जाने का कहीं चिह्न तक न मिले, जिसमें बात करनेवाले के मन की भिन्न-भिन्न दशाएँ अपने विभिन्न रंग न दिखाएँ और जिसपर पुनरावलोकन तक की कभी ज़रूरत सामने न आए।
وَإِذَا جَآءَهُمۡ أَمۡرٞ مِّنَ ٱلۡأَمۡنِ أَوِ ٱلۡخَوۡفِ أَذَاعُواْ بِهِۦۖ وَلَوۡ رَدُّوهُ إِلَى ٱلرَّسُولِ وَإِلَىٰٓ أُوْلِي ٱلۡأَمۡرِ مِنۡهُمۡ لَعَلِمَهُ ٱلَّذِينَ يَسۡتَنۢبِطُونَهُۥ مِنۡهُمۡۗ وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ لَٱتَّبَعۡتُمُ ٱلشَّيۡطَٰنَ إِلَّا قَلِيلٗا 82
(83) ये लोग जहाँ कोई सन्तोषपद या भय की खबर सुन पाते हैं, उसे लेकर फैला देते हैं, हालाँकि अगर ये उसे रसूल और अपनी जमाअत के ज़िम्मेदार लोगों तक पहुँचाएँ तो वह ऐसे लोगों की जानकारी में आ जाए जो इनके बीच इस बात की क्षमता रखते हैं कि इससे सही नतीजा निकाल सकें।112 तुम लोगों पर अल्लाह की मेहरबानी और रहमत न होती तो (तुम्हारी कमज़ोरियाँ ऐसी थी कि) कुछ को छोड़कर तुम सब शैतान के पीछे लग गए होते।
112. वह चूँकि हँगामे का मौका था इसलिए हर ओर अफवाहें उड़ रही थीं, कभी ख़तरे को निराधार झूठी ख़बरें आती और उनसे यकायक मदीना और उसके आस-पास में परेशानी फैल जाती, कभी कोई चालाक दुश्मन किसी वास्तविक खतरे को छिपाने के लिए सन्तोषप्रद ख़बरें भेज देना और लोग उन्हें सुनकर ग़फ़लत में पड़ जाते । इन अफवाहों में वे लोग बड़ी दिलचस्पी लेते थे जो सिर्फ हंगामा चाहते थे, जिनके लिए इस्लाम और अज्ञानता का यह संघर्ष कोई महत्त्व न रखता था, जिन्हें कुछ ख़बर न थी कि इस प्रकार के अनुत्तरदायित्वपूर्ण दुष्प्रचार के परिणाम कितने व्यापक प्रभाव डालनेवाले हो सकते हैं। इनके कान में जहाँ कोई भनक पड़ जाती उसे लेकर जगह-जगह फूंकते फिरते थे। इन्हीं लोगों को इस आयत में फटकारा गया है और उन्हें सख्ती के साथ सचेत किया गया है कि अफवाहें फैलाने से बाज़ रहें और हर ख़बर जो उनको पहुँचे उसे जि़म्मेदार लोगों तक पहुँचाकर चुप हो जाएँ।
۞فَمَا لَكُمۡ فِي ٱلۡمُنَٰفِقِينَ فِئَتَيۡنِ وَٱللَّهُ أَرۡكَسَهُم بِمَا كَسَبُوٓاْۚ أَتُرِيدُونَ أَن تَهۡدُواْ مَنۡ أَضَلَّ ٱللَّهُۖ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ سَبِيلٗا 87
(88) फिर यह तुम्हें क्या हो गया है कि मुनाफ़िक़ों (पाखण्डियों) के बारे में तुम्हारे बीच दो राएँ पाई जाती हैं।116 हालाँकि जो बुराइयाँ उन्होंने कमाई हैं, उनकी वजह से अल्लाह उन्हें उलटा फेर चुका है।117 क्या तुम चाहते हो कि जिसे अल्लाह ने रास्ता नहीं दिखाया उसे तुम रास्ता दिखा दो? हालाँकि जिसको अल्लाह ने रास्ते से भटका दिया उसके लिए तुम कोई रास्ता नहीं पा सकते।
116. यहाँ उन मुनाफ़िक़ मुसलमानों की समस्या पर वार्ता की गई है जो मक्का में और अरब के दूसरे हिस्सों में इस्लाम तो स्वीकार कर चुके थे, मगर हिजरत करके 'दारुल इस्लाम' की ओर चले जाने के स्थान पर पहले ही की तरह अपनी इंकारी क़ौम ही के साथ रहते-बसते थे और कम-ज़्यादा उन तमाम कार्रवाइयों में व्यावहारिक रूप से भाग लेते थे जो उनकी क़ौम इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध करती थी। मुसलमानों के लिए यह समस्या बड़ी जटिल थी कि उनके साथ आख़िर क्या मामला किया जाए। कुछ लोग कहते थे कि कुछ भी हो, आखिर ये हैं तो मुसलमान ही-कलिमा पढ़ते हैं, नमाज़ अदा करते हैं, रोज़े रखते हैं, कुरआन की तिलावत करते हैं, इनके साथ इंकार करनेवाला जैसा व्यवहार कैसे किया जा सकता है। अल्लाह ने इस रुकूअ में इसी मतभेद को सुलझाया है।
इस अवसर पर एक बात को स्पष्ट रूप से समझ लेना ज़रूरी है, अन्यथा आशंका है कि न केवल इस जगह को बल्कि क़ुरआन मजीद की उन तमाम जगहों को समझने में आदमी ठोकर खाएगा जहाँ हिजरत न करनेवाले मुसलमानों की मुनाफिकों में गिनती की गई है। सच तो यह है कि जब नबी (सल्ल.) ने मदीना तेथिया की ओर हिजरत फरमाई और एक छोटा-सा भू-भाग अरब की धरती में ऐसा मिल गया जहाँ एक ईमानवाले के लिए अपने दीन व ईमान के तकाज़ों को पूरा करना संभव था, तो आम हुक्म दे दिया गया कि. जहाँ-जहाँ, जिस-जिस क्षेत्र और जिस-जिस कबीले में ईमानवाले विरोधियों से दबे हुए हैं और इस्लामी जीवन जीने की आजादी नहीं रखते, वहाँ से वे हिजरत करें और मदीना के 'दारुल इस्लाम में आ जाएँ। उस समय जो लोग हिजरत का सामर्थ्य रखते थे, और फिर सिर्फ इसलिए उठकर न आए कि उन्हें अपने घर-बार, नाते-रिश्तेदार और अपने स्वार्थ इस्लाम के मुकाबले में अधिक प्रिय थे, वे सब मुनाफ़िक़ क़रार दिए गए और जो लोग वास्तव में बिलकुल विवश थे, उनको 'मुस्तज-अफ़ोन' (कमज़ोर लोगों) में गिनती
की गई, जैसा कि आगे रुकूअ 14 में आ रहा है। अब यह स्पष्ट है कि 'दारुल कुफ़' के रहनेवाले किसी मुसलमान को सिर्फ हिजरत न करने पर मुनाफ़िक केवल इसी रूप में कहा जा सकता है कि जबकि दारुल इस्लाम की ओर से ऐसे तमाम मुसलमानों के लिए या तो आम बुलावा हो, या कम-से-कम उसने उनके लिए अपने दरवाजे खुले रखे हों। इस स्थिति में बेशक वे सब मुसलमान मुनाफ़िक़ क़रार पाएँगे जो दारुल कुफ़ को दारुल इस्लाम बनाने की कोई कोशिश भी न कर रहे हों और सामर्थ्य के बाद हिजरत भी न करें, लेकिन अगर दारुल इस्लाम की ओर से न तो बुलावा ही हो और न उसने अपने दरवाज़े ही मुहाजिरों के लिए खुले रखे हों, तो इस रूप में सिर्फ हिजरत न करना किसी आदमी को मुनाफ़िक़ न बना देगा, बल्कि वह मुनाफ़िक़ सिर्फ उस वक़्त कहलाएगा जबकि वास्तव में कोई निफ़ाक़ भरा काम करे।
117. अर्थात् जिस दोरंगी और मस्लहत परस्ती और आख़िरत के मुकाबले में दुनिया को प्रमुखता देने की जो नीति उन्होंने अपनाई है, उसकी वजह से अल्लाह ने उन्हें उसी ओर फेर दिया है जिस ओर से ये आए थे। उन्होंने कुफ़ से निकलकर इस्लाम की ओर आगे क़दम बढ़ाया तो ज़रूर था, मगर इस सरहद में आने और ठहरने के लिए एकाग्रचित हो जाने की ज़रूरत थी, हर उस हित को कुरबान कर देने की ज़रूरत थी जो इस्लाम व ईमान के हित से टकराता हो और आखिरत पर ऐसे विश्वास की ज़रूरत थी जिसकी वजह से आदमी इत्मीनान के साथ अपनी दुनिया को कुरबान कर सकता हो। यह उनको गवारा न हुआ, इसलिए जिधर से आए थे उलटे पाँव उधर ही वापस चले गए। अब उनके विषय में मतभेद का कौन-सा अवसर शेष है?
إِلَّا ٱلَّذِينَ يَصِلُونَ إِلَىٰ قَوۡمِۭ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُم مِّيثَٰقٌ أَوۡ جَآءُوكُمۡ حَصِرَتۡ صُدُورُهُمۡ أَن يُقَٰتِلُوكُمۡ أَوۡ يُقَٰتِلُواْ قَوۡمَهُمۡۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَسَلَّطَهُمۡ عَلَيۡكُمۡ فَلَقَٰتَلُوكُمۡۚ فَإِنِ ٱعۡتَزَلُوكُمۡ فَلَمۡ يُقَٰتِلُوكُمۡ وَأَلۡقَوۡاْ إِلَيۡكُمُ ٱلسَّلَمَ فَمَا جَعَلَ ٱللَّهُ لَكُمۡ عَلَيۡهِمۡ سَبِيلٗا 89
(90) अलबत्ता वे मुनाफ़िक़ (ईमान लाने का ढोंग करनेवाले) इस आदेश के अपवाद हैं, जो किसी ऐसी क़ौम से जा मिलें, जिसके साथ तुम्हारा समझौता है।119 इसी तरह वे मुनाफ़िक़ भी इस आदेश के अपवाद हैं, जो तुम्हारे पास आते हैं और लड़ाई से दुखी है, न तुमसे लड़ना चाहते हैं, न अपनी क़ौम से। अल्लाह चाहता तो उनको तुमपर मुसल्लत कर देता और वे भी तुमसे लड़ते। इसलिए अगर वे तुमसे किनारा अपना लें और लड़ने से रुके रहे और तुम्हारी ओर सुलह और समझौते का हाथ बढ़ाएँ तो अल्लाह ने तुम्हारे लिए उनपर हाथ डालने का कोई रास्ता नहीं रखा है।
119. यह अपवाद इस आदेश का नहीं है कि "उन्हें मित्र और सहायक न बनाया जाए", बल्कि इस आदेश से है कि "उन्हें पकड़ा और मारा जाए।” अर्थ यह है कि अगर ये ईमान का ढोंग करनेवाले पाखण्डी मुसलमान, जिन्हें क़त्ल किया जाना ज़रूरी है, किसी ऐसी इस्लाम-विरोधी कौम की सीमाओं में “पनाह" ले लें जिसके साथ इस्लामी राज्य का समझौता हो चुका हो तो उसके क्षेत्र में उनका पीछा नहीं किया जाएगा और न यही जाइज़ होगा कि इस्लाम के अधिकार प्राप्त क्षेत्र का कोई मुसलमान निष्पक्षता रखनेवाले देश में किसी ऐसे मुनाफि़क़ (कपटाचारी मुसलमान) को, जिसका कत्ल किया जाना आवश्यक है, पाए और मार डाले । सम्मान वस्तुतः मुनाफि़क़ के ख़ून का नहीं, बल्कि समझौते का है।
وَمَا كَانَ لِمُؤۡمِنٍ أَن يَقۡتُلَ مُؤۡمِنًا إِلَّا خَطَـٔٗاۚ وَمَن قَتَلَ مُؤۡمِنًا خَطَـٔٗا فَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖ وَدِيَةٞ مُّسَلَّمَةٌ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦٓ إِلَّآ أَن يَصَّدَّقُواْۚ فَإِن كَانَ مِن قَوۡمٍ عَدُوّٖ لَّكُمۡ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖۖ وَإِن كَانَ مِن قَوۡمِۭ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُم مِّيثَٰقٞ فَدِيَةٞ مُّسَلَّمَةٌ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦ وَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖۖ فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ شَهۡرَيۡنِ مُتَتَابِعَيۡنِ تَوۡبَةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا 91
(92) किसी ईमानवाले का यह काम नहीं है कि दूसरे ईमानवाले को कत्ल करें, अलावा इसके कि उससे चूक हो जाए 120, और ओ आदमी किसी मोमिन को गलती से क़त्ल कर दे तो उसका कफ़्फ़ारा यह है कि एक मोमिन को दासता से आज़ाद कर दे।121 और मक्तूल के वारिसों को बहा (अर्थदंड) दे 122 सिवाय इस परिस्थिति के कि वे धूवहा माफ कर दें। लेकिन अगर वह क़त्ल होनेवाला मुसलमान किसी ऐसी क्रीम से था जिससे तुम्हारी दुश्मनी हो, तो उसका कफ़्फ़ारा एक मोमिन ग़ुलाम आज़ाद करना है। और अगर वह किसी ऐसी ग़ैर-मुस्लिम क़ौम का आदमी था जिससे तुम्हारा समझौता हो, तो उसके वारिसों को बहा दिया जाएगा और एक मोमिन ग़ुलाम को आज़ाद करना होगा।123 फिर जो गुलाम न पाए, वह निरंतर दो महीने के रोजे रखे।124 यह इस गुनाह पर अल्लाह से तौबा करने का तरीक़ा है।125 और अल्लाह सर्वज्ञ और बड़ी सूझवाला है।
120. यहाँ उन मुनाफि़क़ मुसलमानों का उल्लेख नहीं है जिनके क़त्ल की अपर अनुमति दी गई है, बल्कि उन मुसलमानों का उल्लेख है जो या तो दारुल इस्लाम के बाशिंदे हों या अगर दारुल हर्ब या दारुल कुफ़्र में भी हो तो इस्लाम विरोधियों की कार्रवाइयों में उनके शरीक होने का कोई प्रमाण न हो। उस समय बहुत-से लोग ऐसे भी थे जो इस्लाम अपनाने के बाद अपनी वास्तविक विवशता के कारण इस्लाम-विरोधी क़बीलों के दर्मियान ठहरे हुए थे और अधिकतर ऐसा संयोग आ जाता था कि मुसलमान किसी दुश्मन क़बीले पर हमला करते और वहाँ अनजाने में कोई मुसलमान उनके हाथ से मारा जाता था, इसलिए अल्लाह ने यहाँ उस शक्ल का हुक्म बयान फ़रमाया है जबकि ग़लती से कोई मुसलमान किसी मुसलमान के हाथ से मारा जाए।
121. चूँकि क़त्ल किया जानेवाला मोमिन था, इसलिए उसके क़त्ल का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) एक मोमिन ग़ुलाम की आज़ादी क़रार दिया गया।
125. अर्थात् यह 'जुर्माना नहीं, बल्कि 'तौबा' और 'कफ्फारा' है। आत्मग्लानि और पश्चताप और अपने आपको सुधारने का कोई अंश नहीं होता बल्कि आम तौर से वह अत्यंत रुचिहीनता के साथ मजबूरी में दिया जाता है और बेज़ारी और कडुवाहट अपने पीछे छोड़ जाता है, इसके विपरीत अल्लाह चाहता है कि जिस बन्दे से खता हुई है वह इबादत, भले काम और हक़ों की अदाएगी के ज़रिये से उसका प्रभाव अपनी आत्मा पर से धो दे और आत्मालानि और पश्चाताप के साथ अल्लाह की ओर रुजू करे, ताकि न सिर्फ यह गुनाह माफ़ हो, बल्कि आगे के लिए उसका मन ऐसी ग़लतियों के दोहराए जाने से भी बचा रहे। कफ्फारा का शाब्दिक अर्थ है 'छिपानेवाली चीज़'। किसी भले काम को गुनाह का 'कफ़्फ़ारा' करार देने का अर्थ यह है कि यह नेकी उस गुनाह पर छा जाती है और उसे ढाँक लेती है, जैसे किसी दीवार पर दाग़ लग गया हो और उसपर सफ़ेदी फेरकर दाग़ का असर मिटा दिया जाए।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا ضَرَبۡتُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَتَبَيَّنُواْ وَلَا تَقُولُواْ لِمَنۡ أَلۡقَىٰٓ إِلَيۡكُمُ ٱلسَّلَٰمَ لَسۡتَ مُؤۡمِنٗا تَبۡتَغُونَ عَرَضَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا فَعِندَ ٱللَّهِ مَغَانِمُ كَثِيرَةٞۚ كَذَٰلِكَ كُنتُم مِّن قَبۡلُ فَمَنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡكُمۡ فَتَبَيَّنُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا 93
(94) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! जब तुम अल्लाह की राह में जिहाद के लिए निकलो तो दोस्त दुश्मन में अलर को और ओ पला से तुम्हारा अभिवादन कर, उसे तुरंत न कह दो कि तू मोमिन (ईमानवाला) नहीं है।126 अगर तुम सांसारिक लाभ बाहर हो ला अल्लाह के पास तुम्हारे लिए 'ग़नीयत' के बहुत-से माल है। आखि़र इसी दशा में तुम स्वयं भी तो इससे पहले ग्रस्त रह चुके हो, फिर अल्लाह ने तुमपर उपकार किया 127, इसलिए जाँच-परख से काम लो, जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसकी ख़बर रखता है।
126. इस्लाम के आरंभिक काल में 'अस्सलामु अलैकुम’ का शब्द मुसलमानों के लिए पहचान की हैसियत रखता था और एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को देखकर यह शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त करता था कि मैं तुम्हारे 'ही गिरोह का आदमी हूँ, मित्र और हितैषी हूँ, मेरे पास तुम्हारे लिए सुख-शान्ति के सिवा कुछ नहीं है, इसलिए न तुम मुझसे वैर करो और न मेरी ओर से शत्रुता और हानि की आशंका रखो। जिस प्रकार फ़ौज में एक शब्द पहचान (Password) के रूप में निश्चित किया जाता है और रात के वक़्त एक फौज़ के आदमी एक दूसरे के पास से गुजरते हुए उसे इस उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करते हैं कि विरोधी फौज़ के आदमियों से अलग हो। इसी तरह सलाम का शब्द की मुसलमानों में पहचान के रूप में निश्चित किया गया था। मुख्य रूप से उस समय में इस पहचान का महत्व इस वजह से और भी अधिक था कि उस समय अब के नव मुस्लिमों और गैर मुस्लिम विधर्मियों के बीच पहनावा, भाषा और किसी दूसरी चीज़ में कोई विशेष अन्तर न था जिसके कारण एक मुसलमान समरी नजर में दूसरे मुसलमान को नहीं पहचान पाता था।
लेकिन लड़ाइयों के अवसर पर एक पेचीदगी यह सामने आती थी कि मुसलमान जब किसी शत्रु गिरोह पर हमला करते और वहाँ कोई मुसलमान इस लपेट में आ जाता तो वे हमलावर मुसलमानों को यह बताने के लिए कि वह भी उनका दीनी भाई (धर्म-भाई) है, 'अस्सलामु अलैकुम' या 'ला इला-ह-इल्लल्लाहु’ पुकारता था, मगर मुसलमानों को इसपर यह सन्देह होता था कि यह कोई 'इस्लाम- दुश्मन विधर्मी’ है जो केवल जान बचाने के लिए बहाना कर रहा है, इसलिए, कभी वे उसे क़त्ल कर बैठते थे और उसकी चीज़ 'गनीमत' के तौर पर ले जाते थे। नबी (सल्ल.) ने ऐसे हर अवसर पर अति कठोरता के साथ डाँट पिलाई, परन्तु इस प्रकार की घटनाएँ निरंतर सामने आती रहीं। अन्ततः अल्लाह ने क़ुरआन मजीद में इस पेचीदगी को हल किया। आयत का उद्देश्य यह है कि जो आदमी अपने आपको मुसलमान की हैसियत से पेश कर रहा है, उसके बारे में तुम्हें सरसरी तौर पर यह निर्णय कर देने का अधिकार नहीं है कि वह केवल जान बचाने के लिए झूठ बोल रहा है। हो सकता है कि वह सच्चा हो और हो सकता है कि झूठा हो। सच्चाई तो जाँच पड़ताल ही से मालूम हो सकती है। बिना जाँच-पड़ताल किए छोड़ देने में यदि इसकी संभावना है कि एक दुश्मन झूठ बोलकर अपनी जान बचा ले जा सकता है, तो क़त्ल कर देने में इसकी भी संभावना है कि एक मोमिन बेगुनाह तुम्हारे हाथ से मारा जा सकता है और किसी भी परिस्थिति में एक विधर्मी-शत्रु को छोड़ देने की ग़लती करना कहीं अच्छा है, इसकी तुलना में कि एक मोमिन की हत्या ग़लती से कर बैठो।
127. अर्थात् एक समय तुमपर भी ऐसा बीत चुका है कि वैयक्तिक रूप से विभिन्न शत्रु कबीलों में बिखरे हुए थे, अपने इस्लाम को उत्पीड़न और अत्याचार के डर से छिपाने पर विवश थे और तुम्हारे पास ईमान की मौखिक स्वीकारोक्ति के सिवा अपने ईमान का कोई साक्ष्य मौजूद न था। अब यह अल्लाह का उपकार है कि उसने तुमको समष्टीय जीवन प्रदान किया और तुम इस योग्य हुए कि विधर्मियों के मुकाबले में इस्लाम का झंडा बुलंद करने उठे हो । इस उपकार के प्रति यह कोई उचित कृतज्ञता नहीं है कि जो मुसलमान अभी पहली दशा में पड़े हुए हैं उनके साथ तुम नर्मी और रिआयत से काम न लो।
لَّا يَسۡتَوِي ٱلۡقَٰعِدُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ غَيۡرُ أُوْلِي ٱلضَّرَرِ وَٱلۡمُجَٰهِدُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡۚ فَضَّلَ ٱللَّهُ ٱلۡمُجَٰهِدِينَ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ عَلَى ٱلۡقَٰعِدِينَ دَرَجَةٗۚ وَكُلّٗا وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ وَفَضَّلَ ٱللَّهُ ٱلۡمُجَٰهِدِينَ عَلَى ٱلۡقَٰعِدِينَ أَجۡرًا عَظِيمٗا 94
(95) मुसलमानों में से वे लोग जो किसी विवशता के बिना घर बैठे रहते हैं और वे जो अल्लाह की राह में जान व माल से जिहाद करते हैं, दोनों की हैसियत बराबर नहीं है। अल्लाह ने बैठनेवालों की अपेक्षा जान व माल से जिहाद करनेवालों का दर्जा बड़ा रखा है। यद्यपि हर एक के लिए अल्लाह ने भलाई ही का वादा फ़रमाया है, मगर उसके यहाँ मुजाहिदों की सेवाओं का मुआवज़ा बैठनेवालों से कहीं अधिक है।128
128. यहाँ उन बैठनेवालों का उल्लेख नहीं है जिनको जिहाद पर जाने का आदेश दिया जाए और वे बहाने करके बैठे रहें या आम एलान हो और जिहाद अनिवार्य हो जाए फिर भी वे लड़ाई पर जाने से जी चुराएं, बल्कि यहाँ उल्लेख उन बैठनेवालों का है जो जिहाद के फ़र्जे किफ़ाया होने के रूप में लड़ाई के मैदान की ओर जाने के बजाय दूसरे कामों में लगे रहें। पहली दो स्थितियों में जिहाद के लिए न निकलनेवाला सिर्फ़ मुनाफि़क़ ही हो सकता है और उसके लिए अल्लाह की ओर से किसी भलाई का वादा नहीं है, अलावा इसके कि वह किसी वास्तविक विवशता का शिकार हो । इसके विपरीत यह आखिरी शक्ल ऐसी है जिसमें इस्लामी जमाअत का पूरा सैन्य बल वांछित नहीं होता, बल्कि उसका केवल एक ही भाग वांछित होता है। इस स्थिति में अगर शासनाध्यक्ष की ओर से अपील की जाए कि कौन हैं सिर की बाज़ी लगानेवाले जो फ़्लाँ मुहिम के लिए अपने आपको पेश करते हैं, तो जो लोग इस पुकार को सहर्ष स्वीकार करने के लिए उठ खड़े हों, वे श्रेष्ठ हैं उनके मुक़ाबले में जो दूसरे कामों में लगे रहें, भले ही वे दूसरे काम भी अपने आप में लाभप्रद ही हों।
إِنَّ ٱلَّذِينَ تَوَفَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ ظَالِمِيٓ أَنفُسِهِمۡ قَالُواْ فِيمَ كُنتُمۡۖ قَالُواْ كُنَّا مُسۡتَضۡعَفِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ قَالُوٓاْ أَلَمۡ تَكُنۡ أَرۡضُ ٱللَّهِ وَٰسِعَةٗ فَتُهَاجِرُواْ فِيهَاۚ فَأُوْلَٰٓئِكَ مَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ وَسَآءَتۡ مَصِيرًا 96
(97) जो लोग अपने आपपर ज़ुल्म कर रहे थे 129, उनके प्राणों को जब फ़रिश्तों ने ग्रस्त किया, तो उनसे पूछा कि यह तुम किस दशा में थे? तो उन्होंने उत्तर दिया कि हम धरती पर कमजोर व मजबूर थे। फरिश्तों ने कहा, “क्या अल्लाह की धरती विशाल न थी कि तुम उसमें हिजरत करते?’’130 ये वे लोग हैं जिनका ठिकाना जहन्नम है, और वह बड़ा ही बुरा ठिकाना है।
129. अभिप्रेत वे लोग हैं जो इस्लाम स्वीकार करने के बाद भी अभी तक बिना किसी मजबूरी और विवशता के अपनी विधर्मो कौम ही के बीच रह रहे थे और अर्ध मुस्लिम और अर्ध विधर्मियों का जीवन जीने पर राज़ी थे, जबकि एक इस्लामी राज्य की स्थापना हो चुकी थी जिसकी ओर हिजरत करके अपने धर्म और अक़ीदे के मुताबिक पूरी इस्लामी ज़िन्दगी बसर करना उनके लिए संभव हो गया था और इस्लामी राज्य की ओर से उनको बुलाया भी जा चुका था कि अपने ईमान को बचाने के लिए वे उसकी ओर हिजरत (प्रस्थान) कर आएँ । यही उनका अपने आपपर जुल्म था। क्योंकि उनको पूरी इस्लामी ज़िन्दगी के मुकाबले में इस आधे कुधर्म और आधे इस्लाम पर जिस चीज़ ने सन्तुष्ट कर रखा था, वह कोई वास्तविक मजबूरी न थी, बल्कि सिर्फ अपने आपके सुख और अपने परिवार, अपनी जायदाद व मिल्कियत और अपनी दुनिया के लाभ को मुहब्बत थी जिसे उन्होंने अपने धर्म पर प्राथमिकता दे रखी थी। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए टिप्पणी न० 116)
130. अर्थात् जब एक जगह अल्लाह के विद्रोहियों का ग़लबा था और अल्लाह के दीन के क़ानून पर अमल करना संभव न था तो वहाँ रहना क्या ज़रूर था? क्यों न उस जगह को छोड़कर किसी ऐसे भू-भाग को ओर स्थानांतरित हो गए जहाँ अल्लाह के क़ानून का पालन संभव होता?
۞وَمَن يُهَاجِرۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ يَجِدۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُرَٰغَمٗا كَثِيرٗا وَسَعَةٗۚ وَمَن يَخۡرُجۡ مِنۢ بَيۡتِهِۦ مُهَاجِرًا إِلَى ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ ثُمَّ يُدۡرِكۡهُ ٱلۡمَوۡتُ فَقَدۡ وَقَعَ أَجۡرُهُۥ عَلَى ٱللَّهِۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا 99
(100) जो कोई अल्लाह की राह में हिजरत करेगा, वह ज़मीन में पनाह लेने के लिए बहुत जगह और गुजर-बसर के लिए बड़ी गुंजाइश पाएगा और जो अपने घर से अल्लाह और रसूल की ओर हिजरत के लिए निकले, फिर रास्ते ही में उसे मौत आ जाए तो उसका बदला अल्लाह के जिम्मे अनिवार्य हो गया। अल्लाह बड़ा क्षमा करनेवाला और दयावान है।131
131. यहाँ यह बात समझ लेनी चाहिए कि जो व्यक्ति अल्लाह के दीन पर ईमान लाया हो उसके लिए ग़ैर इस्लामी और अधार्मिक व्यवस्था के अधीन रहकर जीवन बिताना केवल दो ही परिस्थितियों में वैध हो सकता है। एक यह कि वह इस्लाम को उस भू-भाग पर ग़ालिब करने और अधार्मिक व्यवस्था को इस्लामिक धर्म-व्यवस्था में बदलने का संघर्ष करता रहे, जिस तरह नबी (अलै०) और उनके आरंभिक अनुपालक करते रहे हैं। दूसरे यह कि वह वास्तव में वहां से निकलने की कोई राह न पाता हो और अत्यन्त घृणा और अनिच्छा के साथ वहाँ उपायहीन होकर ठहरा हुआ हो। इन दो परिस्थितियों के अतिरिक्त हर परिस्थिति में गैर-इस्लामी और अधार्मिक व्यवस्था के अधीन रहकर जीवन बिताना एक अनवरत पाप है।
कुछ लोगों को एक हदीस से भ्रम हुआ है जिसमें कहा गया है कि मक्का-विजय के बाद अब हिजरत नहीं है, हालांकि वास्तव में यह हदीस कोई स्थाई आदेश नहीं है, बल्कि उस समय की परिस्थितियों में अरबों से ऐसा कहा गया था। जब तक अरब का एक बड़ा हिस्सा गैर-इस्लामी और अधार्मिक राज्या तथा युद्ध क्षेत्र था और सिर्फ मदीना और उसके पास-पड़ोस में इस्लामी आदेश लागू हो रहे थे. मुसलमानों के लिए ताकीद के साथ आदेश था कि हर ओर से सिमटकर इस्लामी राज्य में आ जाएँ। मगर जब मक्का की विजय के बाद आब में विधर्मियों का जोर टूट गया और लगभग पूरा देश इस्लाम के अधीन आ गया तो नबी (सल्ल.) ने फरमाया कि अब हिजरत की जरूरत बाकी नहीं रही है। इससे यह तात्पर्य कदापि न था कि तमाम दुनिया के मुसलमानों के लिए तमाम परिस्थितियों में क़ियामत तक के लिए हिजरत का अनिवार्य होना समाप्त कर दिया गया है।
وَإِذَا ضَرَبۡتُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَلَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَقۡصُرُواْ مِنَ ٱلصَّلَوٰةِ إِنۡ خِفۡتُمۡ أَن يَفۡتِنَكُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْۚ إِنَّ ٱلۡكَٰفِرِينَ كَانُواْ لَكُمۡ عَدُوّٗا مُّبِينٗا 100
(101) और जब तुम लोग सफ़र के लिए निकलो तो कोई दोष नहीं अगर नमाज़ छोटी कर दो।132 (मुख्य रूप से) जबकि तुम्हें डर हो कि काफ़िर (विरोधी) तुम्हें सताएँगे 133, क्योंकि वे खुल्लम-खुल्ला तुम्हारी शत्रुता पर तुले हुए हैं।
132. शान्ति के समय में सफ़र में नमाज़ का कस (छोटा करना) यह है कि जिन वक़्तों को नमाज़ में चार रक्अतें फर्ज (अनिवार्य) हैं उनमें दो रकअतें पढ़ी जाएं और लड़ाई की हालत में कस के लिए कोई सीमा निर्धारित नहीं है। युद्ध की परिस्थितियां जिस तरह भी अनुमति दें, नमाज़ उसी प्रकार पढ़ी जाए। जमाअत का मौक़ा हो तो जमाअत से पढ़ो, वरना अलग-अलग ही सही, क़िब्ला रुख न हो सकते हो तो जिधर भी रुख़ हो, सवारों पर बैठे हुए और चलते हुए भी पढ़ सकते हो। रुकूअ और सज्दा संभव न हो तो इशारे ही से सही, ज़रूरत पड़े तो नमाज़ ही की हालत में चल भी सकते हैं, कपड़ों में खून लगा हुआ हो तब भी हरज नहीं। इन सब सुविधाओं के बावजूद अगर ऐसी खतरनाक स्थिति हो कि किसी तरह नमाज़ न पढ़ी जा सके तो मजबूरी की वजह से आगे के लिए स्थगित कर दी जाए, जैसा कि खंदक की लड़ाई के मौक़े पर हुआ।
133. ज़ाहिरी और खारिजी सम्प्रदाय के लोगों ने इस वाक्य का यह अर्थ लिया है कि कास्त्र सिर्फ लड़ाई को स्थिति के लिए है और शान्ति की स्थिति के सफ़र में कास्त्र करना क़ुरआन के विरुद्ध है। लेकिन हदीस को प्रामाणिक रिवायतों से सिद्ध है कि हज़रत उमर (रज़ि.) ने जब यही सन्देह प्यारे नबी (सल्ल.) के सामने पेश किया तो नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया “कि यह कास्त्र की इजाज़त एक इनाम है जो अल्लाह ने तुम्हें दिया है, इसलिए उसके इनाम को स्वीकार करो।" यह बात लगभग परम्परा से सिद्ध है कि नबी (सल्ल.) ने डर और शांति दोनों परिस्थितियों के सफर में कास्त्र फरमाया है। इब्ने अब्बास इसकी व्याख्या करते हैं कि ‘’नबी (सल्ल.) मदीना से मक्का तशरीफ़ ले गए और उस वक्त अल्लाह के सिवा किसी का डर न था, मगर आपने दो ही रक्अतें पढ़ीं।‘’ इसलिए मैंने अनुवाद में "मुख्य रूप से" शब्दों को कोष्ठक में बढ़ा दिया है।
وَإِذَا كُنتَ فِيهِمۡ فَأَقَمۡتَ لَهُمُ ٱلصَّلَوٰةَ فَلۡتَقُمۡ طَآئِفَةٞ مِّنۡهُم مَّعَكَ وَلۡيَأۡخُذُوٓاْ أَسۡلِحَتَهُمۡۖ فَإِذَا سَجَدُواْ فَلۡيَكُونُواْ مِن وَرَآئِكُمۡ وَلۡتَأۡتِ طَآئِفَةٌ أُخۡرَىٰ لَمۡ يُصَلُّواْ فَلۡيُصَلُّواْ مَعَكَ وَلۡيَأۡخُذُواْ حِذۡرَهُمۡ وَأَسۡلِحَتَهُمۡۗ وَدَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡ تَغۡفُلُونَ عَنۡ أَسۡلِحَتِكُمۡ وَأَمۡتِعَتِكُمۡ فَيَمِيلُونَ عَلَيۡكُم مَّيۡلَةٗ وَٰحِدَةٗۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ إِن كَانَ بِكُمۡ أَذٗى مِّن مَّطَرٍ أَوۡ كُنتُم مَّرۡضَىٰٓ أَن تَضَعُوٓاْ أَسۡلِحَتَكُمۡۖ وَخُذُواْ حِذۡرَكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ أَعَدَّ لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٗا مُّهِينٗا 101
(102) और ऐ नबी ! जब तुम मुसलमानों के दर्मियान हो और (युद्ध की हालत में) उन्हें नमाज़ पढ़ाने खड़े हो134, तो चाहिए कि135 इनमें से एक गिरोह तुम्हारे साथ खड़ा हो और अपने हथियार लिए रहे, फिर जब वह सज्दा कर ले तो पीछे चला जाए और दूसरा गिरोह जिसने अभी नमाज़ नहीं पढ़ी है, आकर तुम्हारे साथ पढ़े और वह भी चौकन्ना रहे और अपने हथियार लिए रहे136 क्योंकि कुफ़्फ़ार (विरोधी) इस ताक में हैं कि तुम अपने हथियारों और अपने सामान की तरफ़ से तनिक असावधान हो तो वे तुमपर यकबारगी टूट पड़ें। अलबत्ता अगर तुम बारिश की वजह से कष्ट का अनुभव करो या बीमार हो तो हथियार रख देने में कोई दोष नहीं, मगर फिर भी चौकने रहो। यक़ीन रखो कि अल्लाह ने काफि़रों (विरोधियों) के लिए रुसवा कर देनेवाला अज़ाब तैयार कर रखा है।137
134. इमाम अबू यूसुफ़ और हसन बिन जि़याद ने इन शब्दों से अपना यह मत व्यक्त किया है कि ‘भय की नमाज़’ केवल नबी (सल्ल.) के ज़माने के लिए मुख्य थी। लेकिन कुरआन में इसको बहुत-सी मिसालें मौजूद है कि नबी (सल्ल.) को सम्बोधित करके एक आदेश दिया गया है और वही आदेश आपके बाद आपके उत्तराधिकारियों के लिए भी है। इसलिए भय की दशा में नमाज़ को प्यारे नबी (सल्ल.) के साथ विशिष्ट करने का कोई कारण नहीं, फिर बहुत-से महान सहाथियों से साबित है कि उन्होंने नबी (सल्ल.) के बाद भी भय की दशा में नमाज़ पढ़ी है और इस सिलसिले में किसी सहाबी के मतभेद का उल्लेख नहीं किया गया है।
135. भय की दशा में नमाज़ का यह आदेश उस स्थिति के लिए है जबकि शत्रु के हमले का ख़तरा तो हो. मगर व्यवहारतः युद्ध हो रहा हो। रही वह स्थिति कि जब व्यवहारतः युद्ध हो रहा हो तो इस परिस्थिति में हनफ़ीया के नज़दीक नमाज़ आगे के लिए स्थगित कर दी जाएगी। इमाम मालिक (रह.) और इमाम सौरी के नज़दीक अगर रुकूअ और सज्दा संभव न हो तो इशारे से पढ़ ली जाएगी। इमाम शाफ़ई के नज़दीक नमाज़ हो की हालत में थोड़ा-सा मुक़ाबला भी किया जा सकता है। नबी (सल्ल.) के कार्यों से सिद्ध है कि आपने खंदक़ की लड़ाई के मौके पर चार नमाजें नहीं पढ़ों और फिर मौका पाकर क्रमश: उन्हें अदा किया, हालाँकि खंदक़ की लड़ाई से पहले भय की दशा में नमाज़ का आदेश आ चुका था।
إِنَّآ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ لِتَحۡكُمَ بَيۡنَ ٱلنَّاسِ بِمَآ أَرَىٰكَ ٱللَّهُۚ وَلَا تَكُن لِّلۡخَآئِنِينَ خَصِيمٗا 104
(105) ऐ नबी !140 हमने यह किताब सत्य के साथ तुम्हारी और अवतरित की है, ताकि जो सीधा रास्ता अल्लाह ने तुम्हें दिखाया है उसके अनुसार लोगों के बीच निर्णय करो। तुम विश्वासघाती लोगों की ओर से झगड़नेवाले न बनो,
140. इस आयत से लेकर 113 तक की आयत (रुकूअ 12 एवं रुकूअ 13) में एक महत्त्वपूर्ण घटना पर वार्त्ता की गई है जो उसी काल में पेश आई थी। क़िस्सा यह है कि अंसार कबीला बनी जफर में एक आदमी तामा या बशीर बिन-उबेरिक था। उसने एक अंसारी की कवच चुरा ली और जब उसका पता लगाया जाने लगा तो चोरी किए गए माल को एक यहूदी के यहाँ रख दिया। कवच के मालिक ने प्यारे नबी (सल्ल.) के पास इस्तिग़ासा किया और तामा पर अपना सन्देह व्यक्त किया। मगर तामा और उसके भाई-बन्दों और बनी ज़फ़र के बहुत-से लोगों ने आपस में साँठ-गांठ करके उस यहूदी पर सारा दोष आरोपित कर दिया। यहूदी से पूछा गया तो उसने इसकी ज़िम्मेदारी लेने से इंकार किया, लेकिन ये लोग तामा की हिमायत में ज़ोर-शोर से वकालत करते रहे और कहा कि यह यहूदी दुष्ट, जो सत्य का इंकार और अल्लाह के रसूल का इंकार करनेवाला है, इसकी बात का क्या भरोसा, बात हमारी मानी जानी चाहिए क्योंकि हम मुसलमान हैं। निकट था कि नबी (सल्ल.) इस मुक़द्दमे की ज़ाहिरी रिपोर्ट से प्रभावित होकर उस यहूदी के विरुद्ध फ़ैसला सुना देते और इस्तिग़ासा करनेवाले को भी बनी उबेरिक पर आरोप लगाने पर चेतावनी देते, इतने में वह्य आई और मामले की सारी सच्चाई खोल दी गई।
यद्यपि एक काज़ी (जज) की हैसियत से नबी (सल्ल.) का साक्ष्य के अनुसार फैसला कर देना अपने आपमें आपके लिए कोई ग़लत बात न होती और ऐसी परिस्थितियाँ काजियों (जजों) के सामने आती रहती हैं कि उनके सामने ग़लत रिपोर्ट पेश करके वास्तविकता के विरुद्ध निर्णय प्राप्त कर लिए जाते हैं, लेकिन उस समय जबकि इस्लाम और कुफ़्र के बीच एक ज़ोरदार संघर्ष चल रहा था, अगर नबी (सल्ल.) मुक़द्दमे की रिपोर्ट के अनुसार यहूदी के खिलाफ़ फैसला सुना देते तो इस्लाम के विरोधियों को आपके विरुद्ध और पूरे इस्लामी समुदाय और स्वयं इस्लामी सन्देश के विरुद्ध एक सशक्त नैतिक हथियार मिल जाता । वे यह कहते फिरते कि अजी, यहाँ सत्य और न्याय का क्या प्रश्न है। यहाँ तो वही जत्थाबन्दी और पक्षपात काम कर रहा है। जिसके विरुद्ध प्रचार किया जाता है। इसी खतरे से बचाने के लिए अल्लाह ने विशेष रूप से इस मुक़द्दमे में हस्तक्षेप किया।
इन आयतों (105 से 113) में एक ओर उन मुसलमानों की सख्ती के साथ निन्दा की गई है जिन्होंने सिर्फ़ ख़ानदान और कबीले के पक्षपात में अपराधियों का समर्थन किया था। दूसरी ओर आम मुसलमानों को यह शिक्षा दी गई है कि न्याय के विषय में किसी पक्षपात का दखल न होना चाहिए। यह कदापि न्याय नहीं है कि अपने गिरोह का आदमी अगर ग़लती पर हो तो उसका अनुचित समर्थन किया जाए और दूसरे गिरोह का आदमी अगर सत्य पर हो तो उसके साथ अन्याय किया जाए।
وَلَأُضِلَّنَّهُمۡ وَلَأُمَنِّيَنَّهُمۡ وَلَأٓمُرَنَّهُمۡ فَلَيُبَتِّكُنَّ ءَاذَانَ ٱلۡأَنۡعَٰمِ وَلَأٓمُرَنَّهُمۡ فَلَيُغَيِّرُنَّ خَلۡقَ ٱللَّهِۚ وَمَن يَتَّخِذِ ٱلشَّيۡطَٰنَ وَلِيّٗا مِّن دُونِ ٱللَّهِ فَقَدۡ خَسِرَ خُسۡرَانٗا مُّبِينٗا 118
(119) मैं उन्हें बहकाऊँगा, मैं उन्हें कामनाओं में उलझाऊँगा, मैं उन्हें हुक्म दूँगा और वे मेरे हुक्म से जानवरों के कान फाड़ेंगे।147 और मैं उन्हें हुक्म दूँगा और वे मेरे हुक्म से ईश्वरीय संरचना में परिवर्तन148 करेंगे। उस शैतान को जिसने अल्लाह को छोड़कर अपना बली व सरपरस्त बना लिया, वह स्पष्टत: घाटे में पड़ गया।
147. अरब के अंधविश्वासों में से एक की ओर संकेत है। उनके यहाँ तरीका था कि जब ऊँटनी पाँच या दस बच्चे जन लेती तो उसके कान फाड़कर उसे अपने देवता के नाम पर छोड़ देते और उससे काम लेना हराम समझते थे। इसी तरह जिस ऊंट के वीर्य से दस बच्चे हो जाते उसे भी देवता के नाम पर दान कर दिया जाता था और कान चीरना इस बात की निशानी थी कि यह दान किया हुआ जानवर है।
148. 'ईश्वरीय संरचना’ में परिवर्तन करने का अर्थ चीज़ों की मौलिक संरचना में परिवर्तन करना नहीं है। अगर इसका यह अर्थ लिया जाए तब तो पूरी मानव सभ्यता ही शैतान के अपहरण का फल समझी जाएगी, इसलिए कि सभ्यता तो नाम ही उन प्रयोगों का है जो मानव अल्लाह की बनाई हुई चीज़ों में करता है। वास्तव में इस जगह जिस परिवर्तन को शैतानी काम कहा गया है, वह यह है कि इंसान किसी चीज से वह काम ले जिसके लिए अल्लाह ने उसे पैदा नहीं किया है और किसी चीज़ से बह काम न ले जिसके लिए अल्लाह ने उसे पैदा किया है। दूसरे शब्दों में दे तमाम कार्य, जो इंसान अपनी और चीज़ों की प्रकृति के विरुद्ध करता है और वे तमाम रूप जो वह प्रकृति-इच्छा से बचने के लिए अपनाता है, इस आयत के अनुसार शैतान के गुमराही में डालनेवाले आन्दोलनों का परिणाम हैं। जैसे लूत के जातिवालों के कुकृत्य, बर्थ कंट्रोल, संन्यास, ब्रह्मचर्य, मर्दो और औरतों को बाँझ बनाना, मर्दो को हिजड़ा बनाना, औरतों को उन सेवाओं से हटाना जो प्रकृति ने उनके सुपुर्द की हैं और उन्हें संस्कृति के उन विभागों में घसीट लाना जिनके लिए मर्द पैदा किए गए हैं। ये और इस तरह के दूसरे बहुत-से कर्म जो शैतान के चेले दुनिया में कर रहे हैं, वास्तव में यह अर्थ रखते हैं कि ये लोग सृष्टि को पैदा करनेवाले के ठहराए हुए कानूनों को गलत समझते हैं और उनमें सुधार लाना चाहते हैं।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٖ مُّحِيطٗا 125
(126) आसमानों और जमीन में जो कुछ है, अल्लाह का है150, और अल्लाह हर चीज़ को अपने घेरे में लिए हुए है।151
150. अर्थात् अल्लाह के आगे अपने को समर्पित कर देना और उदंडता और मनमानी से रुक जाना, इसलिए कि सबसे अच्छा तरीका यही है और यह वास्तविकता के ठीक अनुकूल भी है। जब अल्लाह ज़मीन व आसमान का और उन सारी चीज़ों का मालिक है जो ज़मीन व आसमान में हैं तो इंसान के लिए सही नीति यही है कि उसकी बन्दगी और आज्ञापालन पर तैयार हो जाए और उदंडता छोड़ दे।
151. अर्थात् अगर इंसान अल्लाह के आगे अपने को समर्पित न करे और स्वच्छंदता और उद्दण्डता से न रुके, तो वह अल्लाह की पकड़ से बचकर कहीं भाग नहीं सकता, अल्लाह की कुदरत उसको हर ओर से घेरे हुए है।
وَيَسۡتَفۡتُونَكَ فِي ٱلنِّسَآءِۖ قُلِ ٱللَّهُ يُفۡتِيكُمۡ فِيهِنَّ وَمَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ فِي يَتَٰمَى ٱلنِّسَآءِ ٱلَّٰتِي لَا تُؤۡتُونَهُنَّ مَا كُتِبَ لَهُنَّ وَتَرۡغَبُونَ أَن تَنكِحُوهُنَّ وَٱلۡمُسۡتَضۡعَفِينَ مِنَ ٱلۡوِلۡدَٰنِ وَأَن تَقُومُواْ لِلۡيَتَٰمَىٰ بِٱلۡقِسۡطِۚ وَمَا تَفۡعَلُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِهِۦ عَلِيمٗا 126
(127) लोग तुमसे औरतों के मामले में फतवा (धर्मादेश) पूछते हैं।152 कहो, अल्लाह तुम्हें उनके मामले में फ़तवा देता है और साथ ही वे आदेश भी याद दिलाता है जो पहले से तुमको इस किताब में सुनाए जा रहे हैं।153 अर्थात् वे आदेश जो उन यतीम लड़कियों के बारे में हैं जिनके हक़ तुम अदा नहीं करते 154 और जिनके निकाह करने से तुम रुके रहते हो (या लालच के कारण तुम स्वयं उनसे निकाह कर लेना चाहते हो)155 और वे आदेश जो उन बच्चों के बारे में हैं जो बेचारे कोई ज़ोर नहीं रखते।156 अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि यतीमों के साथ इंसाफ़ पर क़ायम रहो, और जो भलाई तुम करोगे वह अल्लाह ज्ञान से छिपी न रह जाएगी।
152. इसको स्पष्ट नहीं किया गया कि औरतों के मामले में लोग क्या फ़तवा (धर्मादेश) पूछते थे, लेकिन आयत 128 से 130 तक में जो फ़तवा दिया गया है उससे प्रश्न किस प्रकार का है यह बात अपने आप स्पष्ट हो जाती है।
153. यह पूछे गए मूल प्रश्न का उत्तर नहीं है, बल्कि लोगों के प्रश्नों पर ध्यान देने से पहले अल्लाह ने उन आदेशों के पालन पर फिर एक बार जोर दिया है जो इसी सूरा के शुरू में यतीम लड़कियों के बारे में मुख्य रूप से और यतीम बच्चों के बारे में सामान्य रूप से दिए गए थे। इससे मालूम होता है कि अल्लाह की दृष्टि में यतीमों के हकों का महत्व कितना अधिक है।
وَإِنِ ٱمۡرَأَةٌ خَافَتۡ مِنۢ بَعۡلِهَا نُشُوزًا أَوۡ إِعۡرَاضٗا فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَآ أَن يُصۡلِحَا بَيۡنَهُمَا صُلۡحٗاۚ وَٱلصُّلۡحُ خَيۡرٞۗ وَأُحۡضِرَتِ ٱلۡأَنفُسُ ٱلشُّحَّۚ وَإِن تُحۡسِنُواْ وَتَتَّقُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا 127
(128) अगर157 किसी औरत को अपने पति से दुर्व्यवहार या बेरुखी की आशंका हो तो कोई दोष नहीं कि पति और पत्नी (कुछ हक़ों की कमी-बेशी पर) आपस में समझौता कर लें। समझौता बहरहाल बेहतर है।158 मन तंगदिली की ओर जल्द झुक जाते हैं159, लेकिन अगर तुम लोग एहसान (उपकार) की नीति अपनाओ और अल्लाह से डरकर काम लो तो विश्वास रखो कि अल्लाह तुम्हारे इस तरीके से बेखबर न होगा।160
157. यहाँ से मूल प्रश्न का उत्तर शुरू होता है । इस उत्तर को समझने के लिए ज़रूरी है कि पहले प्रश्न को अच्छी तरह समझ लिया जाए। अज्ञानता-काल में एक व्यक्ति अनगिनत बीवियाँ करने के लिए स्वतंत्र था और इन बीवियों के लिए कुछ भी हक निश्चित न थे। इस सूरा-4 (निसा) की आरंभिक आयतें जब उतरी तो इस स्वतंत्रता पर दो प्रकार की पाबन्दियाँ लगाई गई। एक यह कि बीवियों की संख्या अधिक-से-अधिक चार तक सीमित कर दी गई। दूसरे यह कि एक से ज़्यादा बीवियाँ रखने के लिए इंसाफ़ (अर्थात् समानता का व्यवहार) को शर्त ठहरा दिया गया। अब यह सवाल पैदा हुआ कि अगर किसी आदमी की बीवी बाँझ है या किसी स्थायी रोग से पीड़ित या लैंगिक संबंध बनाने के योग्य नहीं रही है, ऐसी परिस्थितियों में यदि पति दूसरी पत्नी ब्याह लाता है, तो क्या उसपर ज़रूरी है कि दोनों के साथ एक जैसा लगाव रखे? एक जैसी मुहब्बत रखे ? देह-सम्बन्धों में भी समानता दिखाए? और अगर वह ऐसा न करे तो क्या इंसाफ़ की शर्त का तकाज़ा यह है कि वह दूसरा विवाह करने के लिए पहली पत्नी को छोड़ दे? साथ ही यह कि अगर पहली पत्नी स्वयं अलग न होना चाहे तो क्या पति-पत्नी में इस प्रकार का मामला हो सकता है कि जिस पत्नी से लगाव न रह गया हो वह अपने कुछ हक़ों से स्वयं हाथ खींचकर पति को तलाक देने से रुक जाने पर तैयार कर ले? क्या ऐसा करना इंसाफ़ की शर्त के विरुद्ध तो न होगा? ये प्रश्न हैं जिनका जवाब इन आयतों में दिया गया है।
158. अर्थात तलाक़ और जुदाई से बेहतर है कि इस तरह आपस में समझौता करके एक औरत उसी पति के साथ रहे जिसके साथ वह उम्र का एक हिस्सा बिता चुकी है।
وَلَن تَسۡتَطِيعُوٓاْ أَن تَعۡدِلُواْ بَيۡنَ ٱلنِّسَآءِ وَلَوۡ حَرَصۡتُمۡۖ فَلَا تَمِيلُواْ كُلَّ ٱلۡمَيۡلِ فَتَذَرُوهَا كَٱلۡمُعَلَّقَةِۚ وَإِن تُصۡلِحُواْ وَتَتَّقُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا 128
(129) बीवियों के दर्मियान पूरा-पूरा न्याय करना तुम्हारे बस में नहीं है। तुम चाहो भी तो तुम्हें इसका सामर्थ्य नहीं है, इसलिए (अल्लाह के कानून का आशय पूरा करने के लिए यह पर्याप्त है कि एक बीवी की ओर इस तरह न झुक जाओ कि दूसरी को अधर में लटकता छोड़ दो।161 अगर तुम अपनी नीति ठीक रखो और अल्लाह से डरते रहो तो अल्लाह क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।162
161. अर्थ यह है कि आदमी तमाम परिस्थितियों में तमाम हैसियतों से दो या अधिक बीवियों के बीच बराबरी का बर्ताव नहीं कर सकता। एक रूपवती है और दूसरी कुरूप, एक युवती है और दूसरी बूढ़ी, एक हमेशा की रोगिणी है और दूसरी स्वस्थ, एक चिड़चिड़ी है और दूसरी हँसमुख, और इसी तरह के दूसरे अन्तर भी संभव हैं जिनकी वजह से एक बीवी की ओर स्वाभाविक रूप से आदमी का लगाव कम और दूसरी की ओर अधिक हो सकता है। ऐसी परिस्थितियों में क़ानून यह माँग नहीं करता कि प्रेम व लगाव और शारीरिक सम्बन्धों में अवश्य ही दोनों के बीच बराबरी का बर्ताव किया जाए, बल्कि केवल यह माँग करता है कि जब तुम लगाव न होने के बाद भी एक औरत को तलाक़ नहीं देते और उसको अपनी इच्छा या स्वयं उसकी इच्छा की वजह से बीवी बनाए रखते हो तो उससे कम-से-कम इस सीमा तक सम्बन्ध अवश्य रखो कि वह व्यवहारतः पतिहीन स्त्री जैसी होकर न रह जाए। ऐसी परिस्थितियों में एक बीवी के मुकाबले में दूसरी की ओर झुकाव का ज्यादा होना तो स्वाभाविक बात है, लेकिन ऐसा भी न होना चाहिए कि दूसरी इस तरह होकर रह जाए मानो कि उसका कोई पति नहीं है।
इस आयत से कुछ लोग यह नतीजा निकाल लेते हैं कि क़ुरआन एक ओर न्याय की शर्त के साथ
बहु-पत्नि विवाह की अनुमति देता है और दूसरी ओर न्याय को असंभव बताकर इस अनुमति को व्यावहारिक रूप से निरस्त कर देता है, लेकिन वास्तव में ऐसा नतीजा निकालने के लिए इस आयत में कोई गुंजाइश नहीं है। अगर सिर्फ इतना ही कहने को पर्याप्त समझा गया होता कि "तुम औरतों के बीच इंसाफ़ नहीं कर सकते” तो यह नतीजा निकाला जा सकता था, मगर इसके बाद ही जो यह फरमाया गया कि “इसलिए एक बीवी की ओर बिलकुल न झुक पड़ो।" इस वाक्य ने कोई गुंजाइश उस अर्थ के लिए बाक़ी न छोड़ी जो मसीही यूरोप के पीछे चलनेवाले लोग इससे निकालना चाहते हैं।
162. अर्थात् अगर, जहाँ तक संभव हो, तुम जान-बूझकर अत्याचार न करो और न्याय ही से काम लेने की कोशिश करते रहो तो स्वाभाविक मजबूरियों के कारण जो थोड़ी-बहुत कोताहिया तुमसे न्याय के मामले में होंगी, उन्हें अल्लाह क्षमा कर देगा।
مَّن كَانَ يُرِيدُ ثَوَابَ ٱلدُّنۡيَا فَعِندَ ٱللَّهِ ثَوَابُ ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ سَمِيعَۢا بَصِيرٗا 133
(134) जो व्यक्ति केवल दुनिया के प्रतिफल की इच्छा रखता हो उसे मालूम होना चाहिए कि अल्लाह के पास दुनिया का बदला भी है और आख़िरत का बदला भी, और अल्लाह सुननेवाला और देखनेवाला है।163
163. सामान्य रूप से कानूनी आदेशों के बयान कर देने के बाद और मुख्य रूप से सभ्यता और संस्कृति के उन पहलुओं के सुधार पर जोर देने के बाद, जिनमें इंसान प्रायः अत्याचार और ज़ुल्म करता रहा है, अल्लाह इस प्रकार के कुछ प्रभावकारी व्यापक वाक्यों में एक संक्षिप्त उपदेश अवश्य देता है और इससे अभिप्रेत यह होता है कि लोगों को उन आदेशों के पालन पर तैयार किया जाए। ऊपर चूँकि औरतों और यतीम बच्चों के साथ न्याय और सद्व्यवहार का आदेश दिया गया है, इसलिए इसके बाद ज़रूरी समझा गया कि कुछ बातें ईमानवालों के मन में बिठा दी जाएँ।
एक यह कि तुम कभी इस भुलावे में न रहना कि किसी के भाग्य का बनाना और बिगाड़ना तुम्हारे हाथ में है, अगर तुम उससे हाथ खींच लोगे तो उसका कोई ठिकाना न रहेगा। नहीं, तुम्हारे-उसके और सभी के भाग्यों का स्वामी अल्लाह है और अल्लाह के पास अपने किसी बन्दे या बन्दी की मदद का एक तुम ही अकेले साधन नहीं हो। ज़मीन और आसमान के उस मालिक के संसाधन अथाह हैं और वह अपने संसाधनों से काम लेने की समझ-बूझ भी रखता है।
दूसरे यह कि तुम्हें और तुम्हारी तरह पिछले तमाम नबियों की उम्मतों (समुदायों) को हमेशा यही आदेश दिया जाता रहा है कि अल्लाह से डरते हुए काम करो। इस आदेश के पालन में तुम्हारी अपनी सफलता है, अल्लाह का कोई लाभ नहीं। अगर तुम उसके विरुद्ध आचरण अपनाओगे, तो पिछली उम्मतों ने नाफ़रमानी करके अल्लाह का क्या बिगाड़ लिया है जो तुम बिगाड़ सकोगे? सृष्टि के उस स्रष्टा और शासक को न पहले किसी की परवाह थी, न अब तुम्हारी परवाह है। उसके आदेश से पीठ फेरोगे तो वह तुमको हटाकर किसी दूसरी क़ौम को सरबुलंद कर देगा और तुम्हारे हट जाने से उसके राज्य की शोभा में कोई अन्तर न आएगा।
तीसरे यह कि अल्लाह के पास दुनिया के लाभ भी हैं और आख़िरत के लाभ भी, सामयिक और क्षणिक लाभ भी हैं, चिरकालिक और शाश्वत लाभ भी। अब यह तुम्हारी अपनी क्षमता, हौसले और हिम्मत की बात है कि तुम उससे किस प्रकार के लाभ चाहते हो। अगर तुम केवल दुनिया के क्षणिक लाभ पर ही रौझते हो और उनके लिए शाश्वत जीवन के लाभों को त्याग देने के लिए तैयार हो तो अल्लाह यही कुछ तुमको यहीं और अभी दे देगा, मगर फिर आखिरत के शाश्वत लाभों में तुम्हारा कोई हिस्सा न रहेगा। दरिया तो तुम्हारी खेती को हमेशा के लिए सींचने को तैयार है. मगर यह तुम्हारी अपनी क्षमता की कमी और साहस की पस्ती है कि सिर्फ एक फ़स्ल की सिंचाई को हमेशा के सूखे (अकाल) की क़ीमत पर ख़रीदते हो। कुछ क्षमता में व्यापकता और हौसला हो तो आज्ञापालन और बन्दगी का वह रास्ता अपनाओ जिससे दुनिया व आख्रिस्त दोनों के लाभ तुम्हारे हिस्से में आएँ।
आखि़र में फ़रमाया, अल्लाह सुननेवाला और देखनेवाला है। इसका अर्थ यह है कि अल्लाह अंधा और बहरा नहीं है कि किसी बेखबर बादशाह की तरह अंधाधुंध काम करे और अपने अनुदान और अनुग्रह के विषय में भले और बुरे में कोई अन्तर न करे। वह पूरी बा-खबरी के साथ अपनी इस सृष्टि पर शासन कर रहा है। हर एक की क्षमता और हौसले पर उसकी दृष्टि है। हर एक के गुणों को वह जानता है। उसे ख़ूब मालूम है कि तुममें से कौन किस राह में अपनी मेहनतें लगा रहा है और कोशिशें कर रहा है। तुम उसकी अवज्ञा का रास्ता अपना कर उन बख्शिशों की उम्मीद नहीं कर सकते जो उसने सिर्फ आज्ञापालकों ही के लिए ख़ास की हैं।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُونُواْ قَوَّٰمِينَ بِٱلۡقِسۡطِ شُهَدَآءَ لِلَّهِ وَلَوۡ عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۡ أَوِ ٱلۡوَٰلِدَيۡنِ وَٱلۡأَقۡرَبِينَۚ إِن يَكُنۡ غَنِيًّا أَوۡ فَقِيرٗا فَٱللَّهُ أَوۡلَىٰ بِهِمَاۖ فَلَا تَتَّبِعُواْ ٱلۡهَوَىٰٓ أَن تَعۡدِلُواْۚ وَإِن تَلۡوُۥٓاْ أَوۡ تُعۡرِضُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا 134
(135) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो । न्याय के ध्वजावाहक164 और अल्लाह के लिए प्रवाह बनो165, यद्यपि तुम्हारे न्याय और तुम्हारी गवाही की चोट स्वयं तुम्हारे अपने व्यावसन या तुम्हारे मॉ-बाप या रिश्तेदारों ही पर क्यों न पड़ती हो। मामले से संबंध रखनेवाला पच चाहे मालदार हो या गरीब, अल्लाह तुमसे ज़्यादा उनका भला चाहनेवाला है, इसलिए अपनी मनेच्छा के अनुपालन में न्याय से न हटो और अगर तुमने लगी-लिपटी बात कही या सच्चाई से पहलू बचाया तो जान रखो कि जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को उसकी ख़बर है।
164. यह फ़रमाने पर बस नहीं किया कि न्याय की नीति पर चलो, बल्कि यह फरमाया कि न्याय के ध्वजावाहक बनो। तुम्हारा काम सिर्फ़ न्याय करना ही नहीं है, बल्कि न्याय का झंडा लेकर उठना है। तुम्हें इस बात का तत्पर होना चाहिए कि ज़ुल्म मिटे और उसकी जगह न्याय और सच्चाई स्थापित हो । न्याय को अपनी स्थापना के लिए जिस सहारे की जरूरत है, मोमिन होने की हैसियत से तुम्हारा स्थान यह है कि वह साहारा तुम बनो।
165. अर्थात् तुम्हारी गवाही केवल अल्लाह के लिए होनी चाहिए, किसी की रिआयत और पश्च का समावेश उसमें न हो, कोई निजी स्वार्थ या अल्लाह के सिवा किसी की प्रसन्नता तुम्हारे सामने न हो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ ءَامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلَّذِي نَزَّلَ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ مِن قَبۡلُۚ وَمَن يَكۡفُرۡ بِٱللَّهِ وَمَلَٰٓئِكَتِهِۦ وَكُتُبِهِۦ وَرُسُلِهِۦ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ فَقَدۡ ضَلَّ ضَلَٰلَۢا بَعِيدًا 135
(136) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो ! ईमान लाओ 166 अल्लाह पर और उसके समूल घर और उस किताब पर जो अल्लाह ने अपने रसूल पर उतारी है और हर उस किताब पर जो इससे पहले वह उतार चुका है। जिसने अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों और आखिरत के दिन से इंकार किया 167 वह गुमराही में भटककर बहुत दूर निकल गया।
166. ईमान लानेवालों से कहना कि ईमान लाओ, प्रत्यक्ष में विचित्र लगता है लेकिन वास्तव में यहाँ शब्द ईमान दो अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। ईमान लाने का एक अर्थ यह है कि आदमी इंकार के बाजाय इक़रार की राह अपनाए। न माननेवालों से अलग होकर माननेवालों में शामिल हो जाए और इसका दूसरा अर्थ यह है कि आदमी जिस चीज़ को माने, उसे सच्चे दिल से माने, पूरी गंभीरता और निष्ठा के साथ माने। आयत में सम्बोधन उन तमाम मुसलमानों से है जो पहले अर्थ की दृष्टि से 'माननेवालों’ में गिने जाते हैं और उनसे माँग यह की गई है कि दूसरे अर्थ की दृष्टि से सच्चे ईमानवाले बनें।
167. इंकार (कुफ्र) करने के भी दो अर्थ हैं। एक यह कि आदमी साफ़-साफ़ इंकार कर दे। दूसरे यह कि ज़बान से तो माने,मगर दिल से नं माने या अपनी कर्म-नीति से सिद्ध कर दे कि वह जिस चीज़ को मानने का दावा कर रहा है, वस्तुत: वह उसे नहीं मानता। यहाँ इंकार से ये दोनों भाव अभीष्ट हैं और आयत का अभिप्राय लोगों को इस बात पर सचेत करना है कि इस्लाम की इन मूल धारणाओं के साथ इंकार की इन दोनों क्रिस्मों में से जिस किस्म की नीति भी व्यक्ति अपनाएगा उसका परिणाम सत्य से दूरी और असत्य की राहों में विफलता और भटकाव के सिवा कुछ न होगा।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ثُمَّ كَفَرُواْ ثُمَّ ءَامَنُواْ ثُمَّ كَفَرُواْ ثُمَّ ٱزۡدَادُواْ كُفۡرٗا لَّمۡ يَكُنِ ٱللَّهُ لِيَغۡفِرَ لَهُمۡ وَلَا لِيَهۡدِيَهُمۡ سَبِيلَۢا 136
(137) रहे वे लोग जो ईमान लाए, फिर इंकार किया, फिर ईमान लाए, फिर इंकार किया, फिर अपने इकार में बढ़ते चले गए 168, तो अल्लाह कभी भी उनको क्षमा न करेगा और न कभी उनको सीधा रास्ता दिखाएगा।
168. इससे तात्पर्य वे लोग हैं जिनके लिए धर्म केवल एक विनोदप्रिय मनोरंजन है,एक खिलौना है जिससे वे अपने विचारों या अपनी इच्छाओं के अनुसार खेलते रहते हैं। जब दिमाग़ में एक लहर उठी, मुसलमान हो गए और जब दूसरी लहर उठी विधर्मी बन गए। या जब फ़ायदा मुसलमान बन जाने में नज़र आया, मुसलमान बन गए और जब दूसरी ओर कोई भारी स्वार्थ नज़र आया तो उसकी पूजा करने के लिए निस्संकोच उसी ओर चले गए। ऐसे लोगों के लिए अल्लाह के पास न क्षमा है,न मार्गदर्शन । और यह जो फ़रमाया कि "फिर अपने विधर्म में बढ़ते चले गए", तो इसका अर्थ यह है कि एक आदमी केवल विधर्मी बन जाने ही पर बस न करे, बल्कि इसके बाद दूसरे लोगों को भी इस्लाम से फेरने की कोशिश करे, इस्लाम के विरुद्ध गुप्त षड्यंत्र और एलानिया उपाय शुरू कर दे और अपनी शक्ति इस कोशिश में खर्च करने लगे कि विधर्म का बोलबाला हो और इसके मुकाबले में अल्लाह के धर्म का ध्वज झुक जाए। यह कुफ़ (विधर्म) में और अधिक प्रगति और एक अपराध पर बार-बार किए गए अपराधों की बढ़ोत्तरी है, जिसका वबाल भी केवल विधर्मिता से अनिवार्यत: अधिक होना चाहिए।
ٱلَّذِينَ يَتَرَبَّصُونَ بِكُمۡ فَإِن كَانَ لَكُمۡ فَتۡحٞ مِّنَ ٱللَّهِ قَالُوٓاْ أَلَمۡ نَكُن مَّعَكُمۡ وَإِن كَانَ لِلۡكَٰفِرِينَ نَصِيبٞ قَالُوٓاْ أَلَمۡ نَسۡتَحۡوِذۡ عَلَيۡكُمۡ وَنَمۡنَعۡكُم مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۚ فَٱللَّهُ يَحۡكُمُ بَيۡنَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ وَلَن يَجۡعَلَ ٱللَّهُ لِلۡكَٰفِرِينَ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ سَبِيلًا 140
(141) ये मुनाफ़िक़ तुम्हारे मामले में इंतिज़ार कर रहे हैं (कि ऊँट किस करवट बैठता है), अगर अल्लाह की ओर से जीत तुम्हारी हुई तो आकर कहेंगे कि क्या हम तुम्हारे साथ न थे? अगर 'इंकारियों' का पलड़ा भारी रहा तो उनसे कहेंगे कि क्या हम तुम्हारे विरुद्ध लड़ने पर समर्थ न थे, और फिर भी हमने तुमको मुसलमानों से बचाया?171 बस अल्लाह ही तुम्हारे और उनके मामले का फैसला कियामत के दिन करेगा और (इस फैसले में) अल्लाह ने इंकार करनेवालों (विधर्मियों) के लिए मुसलमानों पर ग़ालिब आने का कदापि कोई रास्ता नहीं छोड़ा है।
171. हर युग के मुनाफ़िक़ों की यही विशेषता है। मुसलमान होने की हैसियत से जो लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं, उनको ये अपने ज़बानी इक़रार और इस्लाम के दायरे में नाममात्र को शामिल होने के ज़रिये से हासिल करते हैं और जो फायदे काफिर होने की हैसियत से हासिल होने संभव हैं, उनके लिए कुफ़्फ़ार (विरोधियों) से जाकर मिलते हैं और हर प्रकार से उनको विश्वास दिलाते हैं कि हम कोई पक्षपाती मुसलमान नहीं हैं, हमारे नाम का ताल्लुक मुसलमानों से ज़रूर है, मगर हमारी दिलचस्पियाँ और वफादारियाँ तुम्हारे साथ हैं, विचार, सभ्यता और रुचि की दृष्टि से हर प्रकार का मेल तुम्हारे साथ है और कुफ्र व इस्लाम के संघर्ष में हमारा वज़न जब पड़ेगा, तुम्हारे ही पलड़े में पड़ेगा।
إِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ يُخَٰدِعُونَ ٱللَّهَ وَهُوَ خَٰدِعُهُمۡ وَإِذَا قَامُوٓاْ إِلَى ٱلصَّلَوٰةِ قَامُواْ كُسَالَىٰ يُرَآءُونَ ٱلنَّاسَ وَلَا يَذۡكُرُونَ ٱللَّهَ إِلَّا قَلِيلٗا 141
(142) ये मुनाफ़िक़ अल्लाह के साथ धोखेबाजी कर रहे हैं, हालाँकि वास्तव में अल्लाह ही ने उन्हें धोखे में डाल रखा है। जब ये नमाज़ के लिए उठते हैं तो कसमसाते हुए सिर्फ़ लोगों को दिखाने के लिए उठते हैं, और अल्लाह को कम ही याद करते हैं।172
172. नबी (सल्ल.) के समय में कोई आदमी मुसलमानों की जमाअत का सदस्य समझा ही नहीं जा सकता था जब तक कि वह नमाज़ का पाबन्द न हो। जिस तरह तमाम दुनियावी पार्टियाँ और संस्थाएं अपनी मीटिंगों, सभाओं और सम्मेलनों में किसी सदस्य के अकारण सम्मिलित न होने को समझती हैं कि उसकी रुचि नहीं रही और लगातार कुछ मीटिंगों में अनुपस्थित रहने पर उसे सदस्यता से निकाल देती हैं, उसी तरह इस्लामी जमाअत के किसी सदस्य॑ का जमाअत के साथ नमाज़ का न पढ़ना उस समय इस बात का स्पष्ट प्रमाण समझा जाता था कि वह आदमी इस्लाम में कोई रुचि नहीं रखता, और अगर वह निरंतर कई बार जमाअत से और-हाज़िर रहता तो यह समझ लिया जाता था कि वह मुसलमान नहीं है। इस वजह से पक्के-से-पक्के मुनाफ़िकों को भी उस ज़माने में पाँचों वक़्त मस्जिद की हाज़िरी ज़रूर देनी पड़ती थी, क्योंकि इसके बिना वे मुसलमानों की जमाअत में शुमार किए ही नहीं जा सकते थे। अलबत्ता, जो चीज़ उन्हें सच्चे ईमानवालों से अलग करती थी वह यह थी कि सच्चे मोमिन दिल के लगाव के साथ आते थे, समय से पहले मस्जिदों में पहुँच जाते थे, नमाज़ से फ़ारिग़ होकर भी मस्जिदों में ठहरे रहते थे और उनकी एक-एक हरकत से स्पष्ट होता था कि नमाज़ से उनको सच्ची दिलचस्पी है। इसके विपरीत अजान की आवाज़ सुनते ही मुनाफ़िक़ की जान पर बन आती थी, दिल पर जब करके उठता था। उसके आने का अंदाज़ स्पष्ट रूप से बताता था कि आ नहीं रहा, बल्कि अपने आपको खींचकर ला रहा है, जमाअत ख़त्म होते ही इस तरह भागता था मानो किसी कैदी को रिहाई मिली है, और उसकी तमाम हरकतों से साफ़ प्रतीत होता था कि यह आदमी अल्लाह के ज़िक्र (स्मरण) से कोई लगाव नहीं रखता।
مَّا يَفۡعَلُ ٱللَّهُ بِعَذَابِكُمۡ إِن شَكَرۡتُمۡ وَءَامَنتُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ شَاكِرًا عَلِيمٗا 146
(147) आख़िर अल्लाह को क्या पड़ी है कि तुम्हें खामखाह सज़ा दे अगर तुम शुक्रगुज़ार (कृतज्ञ), बन्दे बने रहो175 और ईमान की नीति पर चलो। अल्लाह बड़ा गुणग्राहक है176 और सबके हाल को जानता है।
175. शुक्र का मूल अर्थ है उपकार की अभिस्वीकृति और कृतज्ञता की अनुभूति का होना। आयत का अर्थ यह है कि 'यदि तुम अल्लाह के प्रति कृतघ्नता और नमकहरामी की नीति न अपनाओ, बल्कि सही तौर पर उसके कृतज्ञ बनकर रहो, तो कोई कारण नहीं कि अल्लाह खामखाह तुम्हें सज़ा दे ।
एक उपकार करनेवाले के प्रति सही कृतज्ञतापूर्ण नीति यही हो सकती है कि आदमी दिल से उसके उपकार को माने, मुख से उसको स्वीकार करे और व्यवहार से कृतज्ञ होने का प्रमाण दे। इन्हीं तीन चीज़ों के योग का नाम शुक्र है और इस शुक्र की अपेक्षा यह है कि एक तो आदमी उपकार को उसी से जोड़े जिसने वस्तुत: उपकार किया है, किसी अन्य को कृतज्ञता-अभिव्यक्ति और नेमत के स्वीकारने में उसका हिस्सेदार न बनाए । दूसरे आदमी का दिल अपने उपकारी के लिए प्रेम और वफ़ादारी की भावना से भरा हुआ हो और उसके विरोधियों के प्रति थोड़ी भी आसक्ति और निष्ठा का अंश अपने हृदय में न रखे। तीसरे वह उपकारक का आज्ञापालक और फ़रमांबरदार हो और उसकी दी हुई नेमतों को उसके दिशानिर्देश के विरुद्ध इस्तेमाल न करे।
176. मूल अरबी में शब्द 'शाकिर' प्रयुक्त हुआ है जिसका अनुवाद हमने गुणग्राहक (कद्रदां) किया है। शुक्र जब अल्लाह की ओर से बन्दे तरफ हो तो इसका अर्थ 'ख़िदमत की क़बूलियत' या 'गुणग्राहकता' होगा और जब बन्दे की ओर से अल्लाह की तरफ़ हो तो उसको 'नेमत का समादर या उपकार मानने' के अर्थ में लिया जाएगा। अल्लाह की ओर से उसके बन्दों का शुक्रिया अदा किए जाने का अर्थ यह है कि अल्लाह नाकद्री करनेवाला नहीं है, जितनी और जैसी सेवाएँ भी बन्दे की ओर से उसकी राह में की जाती हैं, अल्लाह के यहाँ उनका सम्मान किया जाता है, किसी की सेवाएं ऐसी नहीं होती जिसके बदले उन्हें इनआम या पुरस्कार न मिले।
إِن تُبۡدُواْ خَيۡرًا أَوۡ تُخۡفُوهُ أَوۡ تَعۡفُواْ عَن سُوٓءٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَفُوّٗا قَدِيرًا 148
(149) (उत्पीड़ित होने की स्थिति में यद्यपि तुम्हें अपशब्द कहने का अधिकार है) किन्तु यदि तुम खुले व छिपे में भलाई हो किए जाओ या कम-से-कम बुराई को माफ़ कर दो तो अल्लाह (का गुण भी यही है कि वह) बड़ा क्षमा करनेवाला है, (हालाँकि सज़ा देने की) पूरी सामर्थ्य रखता है।177
177. इस आयत में मुसलमानों को एक अत्यन्त उच्च श्रेणी की नैतिक शिक्षा दी गई है। मुनाफ़िक और यहूदी और बुतपरस्त सब-के-सब उस समय हर संभव तरीके से इस्लाम की राह में रोड़े अटकाने और उसकी पैरवी क़बूल करनेवालों को सताने और परेशान करने पर तुले हुए थे। कोई बुरी-से-बुरी चाल ऐसी न थी जो वे इस नये आन्दोलन के विरुद्ध इस्तेमाल न कर रहे हों। इसपर मुसलमानों में घृणा और क्रोध को भावनाओं का उत्पन्न होना एक स्वाभाविक बात थी। अल्लाह ने उनके दिलों में इस प्रकार की भावनाओं का तूफ़ान उठते देखकर फरमाया कि अपशब्द बोलने के लिए मुँह खोलना तुम्हारे अल्लाह की दृष्टि में कोई शोभनीय काम नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि तुमपर जुल्म हुआ है, और अगर पीड़ित व्यक्ति अत्याचारी के विरुद्ध आवाज़ उठाए तो उसका उसे हक़ पहुँचता है, लेकिन फिर भी श्रेष्ठ यही है कि ख़ुफ़िया हो या एलानिया, हर हाल में भलाई किए जाओ और बुराइयों से दरगुज़र (क्षमा) करो, क्योंकि तुमको अपने शिष्टाचार में अल्लाह के शिष्टाचार से अधिक निकट होना चाहिए। जिस अल्लाह का सान्निध्य तुम चाहते हो, उसकी शान यह है कि वह बड़ा सौम्य और सहिष्णु है, कठोर-से-कठोर अपराधियों तक को रोज़ी देता है और बड़े-से-बड़े अपराधों पर भी दरगुज़र किए चला जाता है, इसलिए उसका सान्निध्य प्राप्त करने के लिए तुम भी अत्यन्त साहसी और उदार हृदय बनो।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦ وَلَمۡ يُفَرِّقُواْ بَيۡنَ أَحَدٖ مِّنۡهُمۡ أُوْلَٰٓئِكَ سَوۡفَ يُؤۡتِيهِمۡ أُجُورَهُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا 151
(152) इसके विपरीत जो लोग अल्लाह और उसके तमाम रसूलों को माने और उनके बीच भेदभाव न करें उनको हम ज़रूर उनके बदले देंगे।179 और अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दयावान है।180
179. अर्थात् जो लोग अल्लाह को अपना अकेला उपास्य और स्वामी मान लें और उसके भेजे हुए तमाम रसूलों की पैरवी स्वीकार करें, केवल वे ही अपने कामों पर बदला पाने के हकदार हैं और वे जिस श्रेणी का सद्कर्म करेंगे, उसी श्रेणी का बदला पाएँगे। रहे वे लोग जिन्होंने अल्लाह के प्रभुत्व और आधिपत्य को किसी को उसका साझीदार बनाए बिना स्वीकार न किया या जिन्होंने अल्लाह के प्रतिनिधियों में से कुछ को स्वीकार और कुछ को अस्वीकार करने की विद्रोहापूर्ण नीति अपनाई, तो उनके लिए किसी काम पर किसी बदले का प्रश्न सिरे से पैदा ही नहीं होता, क्योंकि ऐसे लोगों का कोई कर्म अल्लाह की निगाह में विधिसंगत कृत्य नहीं है।
180. अर्थात् जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाएँगे उनका हिसाब लेने में अल्लाह कठोरता से काम न लेगा, बल्कि उनके साथ अत्यन्त नर्मी और क्षमा से काम लेगा।
يَسۡـَٔلُكَ أَهۡلُ ٱلۡكِتَٰبِ أَن تُنَزِّلَ عَلَيۡهِمۡ كِتَٰبٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِۚ فَقَدۡ سَأَلُواْ مُوسَىٰٓ أَكۡبَرَ مِن ذَٰلِكَ فَقَالُوٓاْ أَرِنَا ٱللَّهَ جَهۡرَةٗ فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّٰعِقَةُ بِظُلۡمِهِمۡۚ ثُمَّ ٱتَّخَذُواْ ٱلۡعِجۡلَ مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡهُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُ فَعَفَوۡنَا عَن ذَٰلِكَۚ وَءَاتَيۡنَا مُوسَىٰ سُلۡطَٰنٗا مُّبِينٗا 152
(153) ऐ नबी ! ये किताबवाले अगर आज तुमसे माँग रहे हैं कि तुम आसमान से कोई लेख उनपर उतरवाओ181 तो इससे बढ़-चढ़कर अपराधपूर्ण माँगें ये पहले मूसा से कर चुके हैं। उससे तो इन्होंने कहा था कि हमें अल्लाह को प्रत्यक्ष दिखा दो, और इसी उदंडता के कारण यकायकी उनपर बिजली टूट182 पड़ी थी, फिर उन्होंने बछड़े को अपना उपास्य बना लिया, हालांकि ये खुली-खुली निशानियाँ देख चुके थे।183 इसपर भी हमने इनसे दरगुज़र किया। हमने मूसा को स्पष्ट आदेश दिया
181. मदीने के यहूदी नबी (सल्ल.) से जो विचित्र मांगें करते थे उनमें से एक यह भी थी कि हम आपकी पैग़म्बरी उस समय तक स्वीकार न करें जब तक कि हमारी आँखों के सामने एक लिखी-लिखाई किताब आसमान से न उतरे या हममें से एक-एक आदमी के नाम ऊपर से इस विषय का लेख न आ जाए कि ये मुहम्मद हमारे रसूल हैं, इनपर ईमान लाओ।
182. यहाँ किसी घटना का विस्तृत विवरण देना उद्देश्य नहीं है, बल्कि मक़सद यहूदियों के अपराधों की एक संक्षिप्त सूची प्रस्तुत करना है, इसलिए उनके समष्टीय इतिहास की कुछ स्पष्ट घटनाओं की ओर सरसरी इशारे किए गए हैं। इस आयत में जिस घटना का उल्लेख है, वह सूरा बकरा, आयत 55 में भी गुंज़र चुकी है। (देखिए सूरा-2 (बक़रा),टिप्पणी न.71)
فَبِمَا نَقۡضِهِم مِّيثَٰقَهُمۡ وَكُفۡرِهِم بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَقَتۡلِهِمُ ٱلۡأَنۢبِيَآءَ بِغَيۡرِ حَقّٖ وَقَوۡلِهِمۡ قُلُوبُنَا غُلۡفُۢۚ بَلۡ طَبَعَ ٱللَّهُ عَلَيۡهَا بِكُفۡرِهِمۡ فَلَا يُؤۡمِنُونَ إِلَّا قَلِيلٗا 154
(155) अन्तत: उनके वचन के भंग करने की वजह से और इस वजह से कि इन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठलाया और बहुत-से पैग़म्बरों को नाहक क़त्ल किया और यहाँ तक कहा कि हमारे दिल ग़िलाफ़ों में सुरक्षित हैं187, हालाँकि188 वास्तव में उनकी असत्यवादिता की वजह से अल्लाह ने उनके दिलों पर ठप्पा लगा दिया है, और इसी वजह से ये बहुत कम ईमान लाते हैं
187. अर्थात् तुम कुछ भी कहो, हमारे दिलों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। यहूदियों के इस कथन की ओर क़ुरआन 2 : 88 में भी संकेत किया गया है। वास्तव में ये लोग तमाम असत्यवादी अज्ञानियों की तरह इस बात पर गर्व करते थे कि जो धारणाएँ, पूर्वाग्रह और परम्पराएँ हमने अपने बाप-दादा से पाए हैं, उनपर हमारा विश्वास इतना दृढ़ है कि किसी तरह हम उनसे नहीं हटाए जा सकते । (देखिए सूरा-2 (अल-बक़रा) की टिप्पणी नं-94)
188. यह वह वाक्य है जिसमें सन्दर्भ से हटकर एक अन्य बात कही गई है।
وَبِكُفۡرِهِمۡ وَقَوۡلِهِمۡ عَلَىٰ مَرۡيَمَ بُهۡتَٰنًا عَظِيمٗا 155
(156)-फिर अपने कुफ़ (अधर्म)189 में ये इतने बढ़े कि मरयम पर बड़ा लांछन लगाया190,
189. यह वाक्य व्याख्यान के मूल विषय से संबंध रखता है।
190. हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के जन्म का मामला यहूदी क़ौम में वास्तव में कणभर भी संदिग्ध न था, बल्कि जिस दिन वे पैदा हुए थे, उसी दिन अल्लाह ने पूरी क़ौम को इस बात पर गवाह बना दिया था कि यह एक असाधारण व्यक्तित्व का बच्चा है जिसका जन्म चमत्कार (मोजज़) का परिणाम है, न कि किसी नैतिक अपराध का । (और इसका प्रमाण पालने में लेटे हुए स्वयं उस नवजात शिशु की ज़बान से दिलाया था, जब) उस बालक ने बहुत साफ और उच्च भाषा में भीड़ को सम्बोधित करके कहा कि 'मैं अल्लाह का बन्दा हूँ, अल्लाह ने मुझे किताब दी है और नबी बनाया है। (क़ुरआन 19 : 30) यही कारण है कि हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) के योवनावस्था को पहुँचने तक कभी किसी ने न हजरत मरयम पर व्यभिचार का लांछन लगाया, न हज़रत ईसा को नाजाइज पैदाइश का ताना दिया, लेकिन जब तीस वर्ष की उम्र को पहुँचकर आपने नुबूवत के काम का आरंभ किया और जब आपने यहूदियों को उनके दुष्कर्मों पर निंदा करनी शुरू की, उनके धार्मिक विद्वानों और (धर्मशास्त्रियों को उनके पाखंड पर टोका, विशिष्टजन और जनसामान्य को उस नैतिक पतन पर सचेत किया जिसके वे शिकार हो गए थे और उस खतरे से भरे रास्ते की ओर अपनी कौम को दावत दी जिसमें अल्लाह के दीन को व्यावहारिक रूप से स्थापित करने के लिए के त्याग सहन करने पड़ते थे, तो ये धृष्ट अपराधी सत्य की आवाज़ को दबाने के लिए हर प्रकार के गंदे से गंदे हथकण्डों को इस्तेमाल करने पर उतर आए। उस समय उन्होंने वह बात कही जो तीस साल तक न कही थी कि मरयम (अलैहि०), अल्लाह की पनाह, व्यभिचारिणी हैं और उनका बेटा ईसा व्यभिचार-जन्य है हालाँकि ये अन्यायौं पूरे यक़ीन के साथ जानते थे कि ये दोनों माँ-बेटे इस गन्दगी से बिल्कुल पवित्र हैं। वास्तव में उनका यह लांछन किसी वास्तविक सन्देह का नतीजा न था जो वास्तव में उनके दिलों में मौजूद होता, बल्कि मात्र लांछन था जो उन्होंने जान-बूझकर केवल सत्य के विरोध में गढ़ा था। इसी कारण अल्लाह ने इसे अन्याय और झूठ के बजाय कुत' (अधर्म की संज्ञा दी) है, क्योंकि इस लांछन से उनका मूल उद्देश्य अल्लाह के धर्म का रास्ता रोकना था, न कि एक निर्दोष औरत पर लांछन लगाना। 63 में इसका उल्लेख हो चुका है और सूरा-7 (आराफ़), आयत 171 में फिर उसकी ओर इशारा आएगा।
وَقَوۡلِهِمۡ إِنَّا قَتَلۡنَا ٱلۡمَسِيحَ عِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ رَسُولَ ٱللَّهِ وَمَا قَتَلُوهُ وَمَا صَلَبُوهُ وَلَٰكِن شُبِّهَ لَهُمۡۚ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِ لَفِي شَكّٖ مِّنۡهُۚ مَا لَهُم بِهِۦ مِنۡ عِلۡمٍ إِلَّا ٱتِّبَاعَ ٱلظَّنِّۚ وَمَا قَتَلُوهُ يَقِينَۢا 156
(157) और खुद कहा कि हमने मसीह (अर्थात्) मरयम के बेटे ईसा (जो) अल्लाह का रसूल है को क़त्ल कर दिया है।191 –हालाँकि192 वास्तव में उन्होंने उसको न क़त्ल किया, न सूली पर चढ़ाया, बल्कि मामला उनके लिए संदिग्ध बना दिया गया193, और जिन लोगों ने इसके बारे में मतभेद किया है वे भी वास्तव में सन्देह में पड़े हुए हैं, उनके पास इस विषय में कोई ज्ञान नहीं है, मात्र अटकल ही का अनुसरण है।194 उन्होंने मसीह को वास्तव में क़त्ल नहीं किया,
191. अर्थात् आपराधिक साहस इतना बढ़ा हुआ था कि रसूल को रसूल जानते थे इसके उपरांत भी उसकी हत्या का यत्न किया और गर्व से यह कहा कि हमने अल्लाह के रसूल की हत्या की है। ऊपर पालने की घटना का जो हवाला दिया गया है उसपर विचार करने से यह बात साफ़ हो जाती है कि यहूदियों के लिए मसीह (अलैहि.) की नुबूवत में सन्देह करने की कोई गुंजाइश बाक़ी न थी, फिर जो रौशन निशानियाँ उन्होंने आपको ओर से देखीं (जिनका उल्लेख क़ुरआन,3 : 49 में हो चुका है) उनके बाद तो यह मामला बिल्कुल कि आप अल्लाह के पैग़म्बर हैं। इसलिए सत्य यह है कि उन्होंने जो कुछ आपके साथ [किया, यह जानते हुए किया कि आप अल्लाह के पैग़म्बर हैं]-प्रत्यक्ष में यह बात बड़ी विचित्र मालूम होती है कि कोई क़ौम किसी व्यक्ति को नबी जानते और मानते हुए उसकी हत्या कर दे, मगर सच तो यह है कि बिगड़ी हुई कौमों के तौर-तरीके होते ही कुछ विचित्र हैं-वे अपने बीच किसी के लिए तैयार नहीं होतीं जो उनकी बुराइयों पर उन्हें टोके और नाजाइज़ कामों से उनको रोके । ऐसे लोग, चाहे वे नबी ही क्यों न हों, हमेशा दुष्चरित्र कौमों में क़ैद और क़त्ल को सज़ाएँ पाते ही रहे हैं । (यहूदियों का इतिहास तो ऐसे कुकृत्यों से भरा पड़ा है।)
192. इस वाक्य में फिर सन्दर्भ से हटकर एक अन्य बात कही गई है।
بَل رَّفَعَهُ ٱللَّهُ إِلَيۡهِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمٗا 157
(158) बल्कि अल्लाह ने उसको अपनी ओर उठा लिया।195अल्लाह तत्त्वदर्शी है।" यह तो केवल किसी ऐसी घटना के उपरांत ही प्रासंगिक और उचित हो सकता है जिसमें अल्लाह की महान शक्ति और तत्वदर्शिता असाधारण रूप से प्रकट हुई हो।
प्रबल शक्ति रखनेवाला और तत्त्वदर्शी है।
195. यह उस मामले की वास्तविकता है जो अल्लाह ने बताई है। इसमें सुदद और स्पष्ट रूप से जो चीज़ बताई गई है वह केवल यह है कि हज़रत मसीह को कत्ल करने में यहूदी सफल नहीं हुए और यह कि अल्लाह ने उनको अपनी ओर उठा लिया। (परन्तु क़ुरआन इस बात का कोई स्पष्टीकरण प्रस्तुत नहीं करता कि वे शरीर और आत्मा दोनों के साथ उठाए गए या स्वाभाविक मौत देकर केवल उनकी आत्मा उठाई गई, फिर भो) उसकी वर्णन-शैली पर विचार करने से यह बात बिल्कुल स्पष्टतः महसूस होती है कि उठाए जाने की शक्त और परिस्थिति चाहे जो हो, बहरहाल मसीह (अलैहि०) के साथ अल्लाह ने ऐसा कोई मामला ज़रूर किया है जो असाधारण प्रकार का है। यह असाधारणता तीन चीज़ों से व्यक्त होती है-
एक यह कि ईसाइयों में मसीह (अलैहि.) के शरीर और आत्मा सहित उठाए जाने की धारणा पहले से मौजूद थी और उन कारणों में से थी जिनकी वजह से एक बहुत बड़ा गिरोह मसीह के ख़ुदा होने का क़ायल हुआ है, लेकिन इसके बावजूद क़ुरआन ने न केवल यह कि उसका स्पष्टतः खण्डन नहीं किया बल्कि ठीक वही 'रफ' (Ascension अर्थात् उठाना) का शब्द इस्तेमाल किया जो ईसाई इस घटना के लिए इस्तेमाल करते हैं। स्पष्ट किताब की शान से यह बहुत दूर है कि वह किसी विचार का खंडन करना चाहती हो और फिर ऐसी भाषा इस्तेमाल करे जो इस विचार को और अधिक ताक़त पहुँचा दे।
दूसरे यह कि आगर मसीह (अलैहि०) का उठाया जाना वैसा ही उठाया जाना होता, जैसा कि हर मरनेवाला दुनिया से उठाया जाता है या अगर इस उठाए जाने से तात्पर्य केवल पद और श्रेणी की उच्चता होती, जैसे हज़रत इदरीस के बारे में फ़रमाया गया है कि 'रफअनाहु मकानन अलीया' (उसे हमने बुलन्द मक़ाम पर उठाया था) तो इस विषय की वर्णन-शैली यह न होती जो हम यहाँ देख रहे हैं। इसको बयान करने के लिए अधिक उचित शब्द ये ही हो सकते थे कि "निश्चय ही उन्होंने मसीह को क़त्ल नहीं किया, बल्कि अल्लाह ने उसको जिन्दा बचा लिया और फिर स्वाभाविक मौत दी। यहूदियों ने उसको अपमानित करना चाहा था, मगर अल्लाह ने उसको और अधिक प्रतिष्ठित पद प्रदान किया ।"
तीसरे यह कि अगर यह उठाया जाना वैसा ही मामूली क़िस्म का उठाया जाना होता, जैसे हम मुहावरे में किसी मरनेवाले को कहते हैं कि उसे अल्लाह ने उठा लिया तो उसका उल्लेख करने के बाद यह वाक्य बिल्कुल अप्रासंगिक था कि 'अल्लाह प्रबल शक्ति रखनेवाला और तत्त्वदर्शी है।" यह तो केवल किसी ऐसी घटना के उपरांत ही प्रासंगिक और उचित हो सकता है जिसमें अल्लाह की महान शक्ति और तत्वदर्शिता असाधारण रूप से प्रकट हुई हो।
प्रबल शक्ति रखनेवाला और तत्त्वदर्शी है। इसके उत्तर में क़ुरआन से अगर कोई प्रमाण प्रस्तुत किया जा सकता है तो वह अधिक-से-अधिक सिर्फ़ यह है कि सूरा-3 (आले इमरान) में अल्लाह ने मुत-वफ्फी-क' शब्द प्रयुक्त किया है दिखिए कुरआन 3:55), लेकिन जैसा कि हम 3 : 55 की टिप्पणी न० 51 में स्पष्ट कर चुके हैं, यह शब्द स्वाभाविक मौत के अर्थ में स्पष्ट नहीं है, बल्कि प्राण प्रस्त करने तथा प्राण और शरीर प्रस्त करने दोनों के अर्थ निकल सकते हैं, इसलिए यह उन संभावित पहलुओं को निरस्त करने के लिए काफी नहीं है जो हमने ऊपर बयान किए हैं। कुछ लोग जो मसीह की स्वाभाविक मौत पर पूरा जोर देते हैं, सवाल करते हैं कि 'तवफ्फी' शब्द प्राण लेने और शरीर के उठा लेने के लिए इस्तेमाल होता है, इसका कोई और उदाहरण भी है? लेकिन जबकि प्राण व शरीर के उठाए जाने की घटना तमाम मानवजाति के इतिहास में एक ही बार घटी हो तो इस अर्थ पर इस शब्द के इस्तेमाल का उदाहरण पूछना सिर्फ एक निरर्थक बात है।
وَإِن مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ إِلَّا لَيُؤۡمِنَنَّ بِهِۦ قَبۡلَ مَوۡتِهِۦۖ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يَكُونُ عَلَيۡهِمۡ شَهِيدٗا 158
(159) और किताबवालों में से कोई ऐसा न होगा जो उसकी मृत्यु से पूर्व उसपर ईमान न ले आएगा196 और क्रियामत के दिन वह उनपर गवाही देगा197
196. इस वाक्य के दो अर्थ बताए गए हैं और शब्दों में दोनों अर्थ समान रूप से पाए जाते हैं। एक अर्थ वह जो हमने अनुबाद में अपनाया है और दूसरे यह कि "किताबवालों में से कोई ऐसा नहीं है जो अपनी मौत से पहले मसीह पर ईमान न ले आए।" किताबवालों से अभिप्रेत यहूदी हैं और हो सकता है कि ईसाई भी हों। पहले अर्थ की दृष्टि से मतलब यह होगा कि मसीह की स्वाभाविक मृत्यु जब घटित होगी, उस समय जितने किताबवाले मौजूद होंगे वे सब उनपर [अर्थात् उनकी रिसालत (ईशदूत्त्व) परा ईमान ला चुके होंगे, दूसरे अर्थ की दृष्टि से अर्थ यह होगा कि तमाम किताबवालों पर मरने से ठीक पहले मसीह को रिसालत की वास्तविकता स्पष्ट हो जाती है और वे मसीह पर ईमान ले आते हैं, मगर यह उस समय होता है जबकि ईमान लाना लाभप्रद नहीं हो सकता।
197. अर्थात् यहूदियों और ईसाइयों ने मसीह (अलैहि.) के साथ और उस सन्देश के साथ, जो आप लाए थे, जो मामला किया है उसपर आप अल्लाह की अदालत में गवाही देंगे। इस गवाही का कुछ विवरण अगली पाँचवी सूरा माइदा की आयत 116 से 118 में आनेवाला है।
فَبِظُلۡمٖ مِّنَ ٱلَّذِينَ هَادُواْ حَرَّمۡنَا عَلَيۡهِمۡ طَيِّبَٰتٍ أُحِلَّتۡ لَهُمۡ وَبِصَدِّهِمۡ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ كَثِيرٗا 159
(160, 161) मतलब यह कि 198 इन यहूदियों की इसी अन्यायपूर्ण नीति के आधर पर और इस आधार पर कि ये बहुत ज़्यादा अल्लाह के रास्ते से रोकते हैं199 और सूद (ब्याज) लेते हैं जिससे इन्हें मना किया गया था 200, और लोगों के माल अवैध डंग से खाते हैं, हमने बहुत-सी वे पाक चीज़े उनपर हराम कर दी जो पहले उनके लिए हलाल (वैध) थी 201, और जो लोग इनमे से इंकार करनेवाले हैं उनके लिए हमने दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है 202,
198. सन्दर्भ से हटकर बीच में आई हुई बात के समाप्त होने के बाद यहाँ से फिर वही आख्यान-क्रम शुरू होता है जो ऊपर से चला आ रहा है।
199. अर्थात् इसी को काफी नहीं समझते कि स्वयं अल्लाह के रास्ते से फिरे हुए हैं, बल्कि इतने निडर अपराधी बन चुके हैं कि दुनिया में अल्लाह के बन्दों को गुमराह करने के लिए जो आन्दोलन भी चलता है, प्रायः उसके पीछे यहूदी मानसिकता और यहूदी पूँजी ही काम करती दीख पड़ती है और सत्य के रास्ते पर बुलाने के लिए जो आन्दोलन भी शुरू होता है, प्रायः उसके मुकाबले में यहूदी ही सबसे बढ़कर रुकावट बनते हैं, जबकि ये अभागे अल्लाह की किताब रखनेवाले और नबियों के वारिस हैं। उनका सबसे ताज़ा अपराध यह कम्युनिस्ट आन्दोलन है जिसे यहूदी दिमाग़ ने घड़ा है और यह यहूदी छत्रछाया में ही पला-बढ़ा है। इन नाममात्र के किताबवालों के नसीब में यह अपराध भी लिखा था कि दुनिया के इतिहास में पहली बार जो जीवन प्रणाली और शासन प्रणाली अल्लाह की स्पष्ट अवज्ञा पर, अल्लाह से खुल्लम-खुल्ला शत्रुता पर, धर्म परायणता को मिटा देने के स्पष्ट संकल्प पर निर्मित की गई, उसके घड़नेवाले और बुनियाद डालनेवाले मूसा (अलैहि.) के नामलेवा हो । कम्युनिज्म के बाद नये युग में गुमराही का दूसरा बड़ा सुतून (स्तंभ) फ्रायड का दर्शन है और मजे की बात यह है कि वह भी बनी इसराईल ही का एक आदमी है।
لَّٰكِنِ ٱلرَّٰسِخُونَ فِي ٱلۡعِلۡمِ مِنۡهُمۡ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ يُؤۡمِنُونَ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ وَمَآ أُنزِلَ مِن قَبۡلِكَۚ وَٱلۡمُقِيمِينَ ٱلصَّلَوٰةَۚ وَٱلۡمُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ أُوْلَٰٓئِكَ سَنُؤۡتِيهِمۡ أَجۡرًا عَظِيمًا 161
(162) मगर इनमें से जो लोग परिपक्व ज्ञान रखनेवाले हैं और ईमानदार हैं, वे सब उस शिक्षा पर ईमान लाते हैं जो तुम्हारी ओर उतारी गई है और जो तुमसे पहले उतारी गई थी। 203 इस तरह के ईमान लानेवाले और नमाज़ व ज़कात की पाबन्दी करनेवाले और आख़िरत के दिन पर सच्चा ईमान रखनेवाले लोगों को हम अवश्य बड़ा प्रतिफल देंगे।
203. अर्थात् उनमें से जो लोग आसमानी किताबों की सच्ची शिक्षा को जानते हैं और हर प्रकार के पक्षपात, अज्ञानता, बाप-दादा की पैरवी और मन की दासता से मुक्त होकर उस सच्ची बात को सच्चे दिल से मानते हैं, जिनका प्रमाण आसमानी किताबों से मिलता है, उनका आचरण-व्यवहार विरोधी व अत्याचारी यहूदियों के आम आचरण-व्यवहार से बिल्कुल अलग है। उनको एक ही दृष्टि में महसूस हो जाता है कि जिस दीन को शिक्षा पिछले नबियों ने दी थी, उसी की शिक्षा क़ुरआन दे रहा है, इसलिए वे विशुद्ध हृदय से सत्यवादिता के साथ दोनों पर ईमान ले आते हैं।
۞إِنَّآ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ كَمَآ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ نُوحٖ وَٱلنَّبِيِّـۧنَ مِنۢ بَعۡدِهِۦۚ وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ وَٱلۡأَسۡبَاطِ وَعِيسَىٰ وَأَيُّوبَ وَيُونُسَ وَهَٰرُونَ وَسُلَيۡمَٰنَۚ وَءَاتَيۡنَا دَاوُۥدَ زَبُورٗا 162
(163) ऐ नबी ! हमने तुम्हारी ओर उसी तरह वह्य भेजी है जिस तरह नूह और उसके बाद के पैग़म्बरों की ओर भेजी थी।204 हमने इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़, याकूब और याक़ूब की औलाद, ईसा, अय्यूब, यूनुस, हारून और सुलैमान की ओर बह्य भेजी। हमने दाऊद को ज़बूर205 दी।
204. इससे यह बताना अभीष्ट है कि मुहम्मद (सल्ल.) कोई अनोखी चीज़ लेकर नहीं आए हैं जो पहले न आई हो । उनका यह दावा नहीं है कि मैं दुनिया में पहली बार एक नई चीज़ प्रस्तुत कर रहा हूँ, बल्कि वास्तव में उनको भी उसी एक ज्ञान-स्रोत से मार्ग-दर्शन मिला है जिससे तमाम पिछले नबियों को मार्ग-दर्शन मिलता रहा है और वे भी उसी एक सच्चाई और वास्तविकता को पेश कर रहे हैं जिसे दुनिया के विभिन्न भागों में पैदा होनेवाले पैग़म्बर सदा से प्रस्तुत करते चले आए हैं।
वह्य का अर्थ है- इशारा करना, दिल में कोई बात डालना, ग़ुप्त रूप से कोई बात कहना, सन्देश भेजना।
205. [बाइबल के पुराने नियम' में संकलित 19 वीं किताब जो हिन्दी में भजन-संहिता और अंग्रेजी में Psalms (साम्स) के नाम से पाई जाती है, वही 'ज़बूर' है।] यह पूरी-की-पूरी दाऊद (अलैहि.) के माध्यम से प्रस्तुत ईश्वरीय पुस्तक " ज़बूर" नहीं है। उसमें दूसरे लोगों की पद्यमय बातें बहुलता के साथ भर दी गई हैं और उन्हें अपने-अपने लिखनेवालों से जोड़ दिया गया है। परन्तु जो पद्य स्पष्ट हैं कि वे हज़रत दाऊद के हैं, उनके अंदर वास्तव में सत्यवाणी की रौशनी महसूस होती है। इसी तरह बाइबल में सुलैमान के "नीति वचन" के नाम से जो किताब मौजूद है उसमें भी बहुत-कुछ मिलावट पाई जाती है और उसके अन्तिम दो अध्याय तो स्पष्ट रूप से बाद के बढ़ाए हुए लगते हैं, मगर इसके बावजूद इन "नीति-वचन" का बड़ा भाग सही और सत्य मालूम होता है। इन दो किताबों के साथ एक और किताब हज़रत अय्यूब (अलैहि.) के नाम से भी बाइबल में अंकित है, लेकिन तत्त्वदर्शिता के बहुत-से हीरे अपने भीतर रखने के बावजूद उसे पढ़ते हुए यह विश्वास नहीं होता कि वास्तव में हज़रत अय्यूब (अलैहि०) से इस किताब को संबद्ध करना सही है, इसलिए कि कुरआन में और स्वयं इस किताब के आरंभ में हज़रत अय्यूब (अलैहि.) के जिस बड़े सब (महान धैर्य) की प्रशंसा की गई है, उसके बिल्कुल विपरीत वह सारी किताब हमें यह बताती है कि हज़रत अय्यूब (अलैहि.) अपनी मुसीबत के ज़माने में अल्लाह के खिलाफ़ साक्षात शिकायत बने हुए थे। यहाँ तक कि उनके साथ उठने-बैठनेवाले उन्हें इस बात पर सन्तुष्ट करने का प्रयास करते थे कि अल्लाह अत्याचारी नहीं है किन्तु वे किसी प्रकार मान कर न देते थे।
इन किताबों के अलावा बाइबल में बनी इसराईल के नबियों की सत्रह किताबें और भी अंकित हैं जिनका बड़ा भाग सही जान पड़ता है।
رُّسُلٗا مُّبَشِّرِينَ وَمُنذِرِينَ لِئَلَّا يَكُونَ لِلنَّاسِ عَلَى ٱللَّهِ حُجَّةُۢ بَعۡدَ ٱلرُّسُلِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمٗا 164
(165) ये सारे रसूल शुभ-सूचना देनेवाले और डरानेवाले बनाकर भेजे गए थे207 ताकि उनको भेजे जाने के बाद लोगों के पास अल्लाह के मुकाबले में प्रस्तुत करने के लिए कोई तर्क शेष न रहे।208 और अल्लाह बहरहाल ग़ालिब रहनेवाला और तत्त्वदशी है।
207. अर्थात् इन सबका एक ही काम था और वह यह कि जो लोग अल्लाह की भेजी हुई शिक्षा पर ईमान लाएँ और अपने रवैए को उसके अनुसार ठीक-ठाक कर लें, उन्हें सफलता और सौभाग्य की शुभ-सूचना सुना दें और जो बिचार और व्यवहार को ग़लत राहों पर चलते रहें, उनको इस ग़लत रवैए के बुरे अंजाम से सूचित कर दें।
208. अर्थात् इन समस्त पैग़म्बरों के भेजने का एक ही उद्देश्य था और वह यह था कि अल्लाह मानवजाति के सामने अपनी बात इस प्रकार सतर्क और स्पष्ट रूप में रख देना चाहता था, ताकि आख़िरी अदालत के मौक़े पर कोई पथभ्रष्ट अपराधी उसके सामने यह बहाना न कर सके कि हम नहीं जानते थे और आपने हमें वस्तुस्थिति से अवगत कराने का कोई प्रबन्ध नहीं किया था। इसी उद्देश्य के लिए अल्लाह ने दुनिया के विभिन्न भूभागों में पैग़म्बर भेजे और किताबें अवतरित कीं। इन पैग़म्बरों ने मानवजाति की बहुत बड़ी संख्या तक सत्य-ज्ञान पहुँचाया और अपने पीछे किताबें छोड़ गए, जिनमें से कोई-न-कोई किताब इंसानों के मार्गदर्शन के लिए प्रत्येक युग में विद्यमान रही है। अब यदि कोई व्यक्ति पथभ्रष्ट होता है तो उसका दोष अल्लाह पर और उसके पैग़म्बरों पर नहीं आता, बल्कि या तो स्वयं उस व्यक्ति पर आता है कि उस तक सन्देश पहुँचा और उसने स्वीकार नहीं किया या उन लोगों पर आता है जिनको सीधा रास्ता मालूम था और उन्होंने अल्लाह के बन्दों को पथभ्रष्टता में लिप्त देखा, मगर उन्हें सचेत न किया।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ قَدۡ جَآءَكُمُ ٱلرَّسُولُ بِٱلۡحَقِّ مِن رَّبِّكُمۡ فَـَٔامِنُواْ خَيۡرٗا لَّكُمۡۚ وَإِن تَكۡفُرُواْ فَإِنَّ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا 169
(170) लोगो ! यह रसूल तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से सत्य लेकर आ गया है, ईमान ले आओ, तुम्हारे ही लिए बेहतर है, और अगर इंकार करते हो तो जान लो कि आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है, सब अल्लाह का है।209 और अल्लाह जाननेवाला भी है और गहरी समझवाला भी।210
209. अर्थात् ज़मीन व आसमान के स्वामी की अवज्ञा करके तुम उसको कोई क्षति नहीं पहुंचा सकते, नुक़सान जो कुछ होगा, तुम्हारा अपना होगा।
210. अर्थात् तुम्हारा खुदा न तो बे-खबर है कि उसके राज्य में रहते हुए तुम शरारतें करो और उसे मालूम न हो और न वह नादान है कि उसे अपने आदेशों का उल्लघंन करनेवालों से निबटने का तरीक़ा न आता हो।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَا تَغۡلُواْ فِي دِينِكُمۡ وَلَا تَقُولُواْ عَلَى ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡحَقَّۚ إِنَّمَا ٱلۡمَسِيحُ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ رَسُولُ ٱللَّهِ وَكَلِمَتُهُۥٓ أَلۡقَىٰهَآ إِلَىٰ مَرۡيَمَ وَرُوحٞ مِّنۡهُۖ فَـَٔامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦۖ وَلَا تَقُولُواْ ثَلَٰثَةٌۚ ٱنتَهُواْ خَيۡرٗا لَّكُمۡۚ إِنَّمَا ٱللَّهُ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ سُبۡحَٰنَهُۥٓ أَن يَكُونَ لَهُۥ وَلَدٞۘ لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلٗا 170
(171) ऐ किताबवालो ! अपने धर्म के विषय में अत्युक्ति से काम न लो 211 और अल्लाह की ओर सत्य के सिवा कोई बात न जोड़ो, मरियम का बेटा ईसा मसीह इसके सिवा कुछ न था कि अल्लाह का एक रसूल था, और एक फरमान था 212 जो अल्लाह ने मरयम की ओर भेजा और एक रूह थी अल्लाह की ओर से 213 (जिसने मरयम के गर्भाशय में बच्चे का रूप धारण किया)। अत: तुम अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाओ214 और न कहो कि 'तीन' हैं 215, रुक जाओ, यह तुम्हारे ही लिए बेहतर है। अल्लाह तो बस एक ही ईश्वर है। वह पाक है इससे कि कोई उसका बेटा हो 216। ज़मीन और आसमानों की सारी चीज़े उसकी मिलकियत हैं217 और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति और ख़बरगीरी के लिए बस वही काफ़ी है। 218
211. यहाँ किताबवालों से अभिप्रेत ईसाई हैं और 'गुलू' का अर्थ है किसी चीज़ की पुष्टि और समर्थन में मर्यादा पार कर जाना। यहूदियों का अपराध यह था कि वे मसीह के इंकार और विरोध में मर्यादा को पार कर गए और ईसाइयों का अपराध यह है कि वे मसीह के प्रति श्रद्धा और प्रेम में मर्यादा पार कर गए और उनको खुदा का बेटा, बल्कि स्वयं ख़ुदा ठहरा लिया।
212. मूल शब्द 'कलिमा' प्रयुक्त हुआ है। मरयम की तरफ़ कलिमा भेजने का अर्थ यह है कि अल्लाह ने हज़रत मरयम (अलैहि०) के रहम (गर्भाशय) पर यह फरमान उतारा कि किसी मर्द के वीर्य से सिंचित हुए बिना गर्भ-धारण कर लें। ईसाइयों को शुरू में मसीह (अलैहि०) के बिना बाप के जन्म लेने का यही रहस्य बताया गया था, मगर उन्होंने यूनानी दर्शन से गुमराह होकर पहले शब्द 'कलिमा' को वाक्य या बोल (Logos) का समानार्थी समझ लिया। फिर इस कलाम व वाणी से अभिप्रेत अल्लाह के वैयक्तिक कलाम के गुण का अर्थ ले लिया, फिर यह विचार किया कि अल्लाह के इस वैयक्तिक गुण ने मरयम (अलैहि०) के गर्भ में प्रवेश करके वह शारीरिक रूप धारण किया जो मसीह के रूप में प्रकट हुआ। इस तरह ईसाइयों में मसीह (अलैहि०) के ख़ुदा होने की विकृत धारणा पैदा हुई और इस ग़लत विचार ने जड़ पकड़ ली कि ख़ुदा ने स्वयं अपने आपको या अपने अनादिकालिक गुणों में से एवं वाणी व कलाम के गुण को मसीह के रूप में प्रकट किया है।
يَسۡتَفۡتُونَكَ قُلِ ٱللَّهُ يُفۡتِيكُمۡ فِي ٱلۡكَلَٰلَةِۚ إِنِ ٱمۡرُؤٌاْ هَلَكَ لَيۡسَ لَهُۥ وَلَدٞ وَلَهُۥٓ أُخۡتٞ فَلَهَا نِصۡفُ مَا تَرَكَۚ وَهُوَ يَرِثُهَآ إِن لَّمۡ يَكُن لَّهَا وَلَدٞۚ فَإِن كَانَتَا ٱثۡنَتَيۡنِ فَلَهُمَا ٱلثُّلُثَانِ مِمَّا تَرَكَۚ وَإِن كَانُوٓاْ إِخۡوَةٗ رِّجَالٗا وَنِسَآءٗ فَلِلذَّكَرِ مِثۡلُ حَظِّ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۗ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ أَن تَضِلُّواْۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمُۢ 175
(176) ऐ नबी ! लोग219 तुमसे कलाला220 के मामले में फ़तवा (धर्मादेश) पूछते हैं। कहो, अल्लाह तुम्हें फ़तवा देता है। अगर कोई आदमी नि:सन्तान मर जाए और उसकी एक बहन हो।221 जो वह उसके छोड़े हुए माल में से आधा पाएगी और अगर बहन नि:सन्तान मरे तो भाई उसका वारिस होगा।222 अगर मैयत की वारिस दो बहनें हो तो वे छोड़े हुए माल में से दो-तिहाई की हक़दार होंगी223 और अगर कई भाई-बहनें हो तो औरतों का इकहरा और मर्दों का दोहरा हिस्सा होगा। अल्लाह तुम्हारे लिए आदेशों को स्पष्ट करता है ताकि तुम भटकते न फिरो, और अल्लाह हर चीज़ का ज्ञान रखता है।
219. यह आयत इस सूरा के उतरने के बहुत बाद उतरी है । कुछ रिवायतों से तो यहाँ तक मालूम होता है कि यह कुरआन की सबसे आखिरी आयत है। यह बयान अगर सही न भी हो तब भी कम से कम इतना तो सिद्ध है कि यह आयत सन् 09 हिजरी में अवतरित हुई और सूरा निसा इससे बहुत पहले एक पूर्ण सूरा के रूप में पढ़ी जा रही थी। इसी कारण इस आयत को उन आयतों के क्रम में शामिल नहीं किया गया जो विरासत के आदेशों से संबंधित सूरा के आरंभ में आई हैं, बल्कि इसे परिशिष्ट के रूप में अन्त में शामिल कर दिया गया।
220. कलाला के अर्थ में मतभेद है। कुछ के मतानुसार कलाला वह व्यक्ति है जो निस्सन्तान भी हो और जिसके बाप और दादा भी जीवित न हों और कुछ के निकट कलाला उस मरनेवाले व्यक्ति को कहा जाता है जो नि:संतान रहा हो। हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) अन्तिम समय तक इस मामले में कोई निश्चित राय न बना सके। लेकिन आम फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) की इस राय को मान लिया है कि कलाला केवल पहले रूप के हो अर्थ में है और स्वयं कुरआन में भी इसकी पुष्टि होती है। क्योंकि यहाँ कलाला की बहन को छोड़े हुए माल के आधे का वारिस क़रार दिया गया है, हालांकि अगर कलाला का बाप जिन्दा हो तो बहन को सिरे से कोई हिस्सा पहुंचता ही नहीं।