41. हा-मीम अस-सजदा
(मक्का में उतरीं, आयतें 54)
परिचय
नाम
सूरा का नाम दो शब्दों को जोड़कर बना है एक हा-मीम, दूसरा अस-सजदा। अर्थ यह है कि वह सूरा जिसकी शुरुआत हा-मीम से होती है और जिसमें एक जगह सजदे की आयत आई है।
उतरने का समय
विश्वस्त रिवायतों के अनुसार इसके उतरने का समय हज़रत हमज़ा (रज़ि०) के ईमान लाने के बाद और हज़रत उमर (रज़ि०) के ईमान लाने से पहले है। मशहूर ताबिई मुहम्मद-बिन-काब अल-क़रज़ी [रिवायत करते हैं कि] एक बार क़ुरैश के कुछ सरदार मस्जिदे-हराम (काबा) में महफ़िल जमाए बैठे थे और मस्जिद के एक दूसरे कोने में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल०) अकेले मौजूद थे। उत्बा-बिन-रबीआ ने क़ुरैश के सरदारों [के मश्वरे से नबी (सल्ल०) के पास जाकर] कहा, "भतीजे ! यह काम जो तुमने शुरू किया है, इससे अगर तुम्हारा उद्देश्य धन प्राप्त करना है, तो हम सब मिलकर तुमको इतना कुछ दिए देते हैं कि तुम हममें सबसे अधिक धनवान हो जाओ। अगर इससे अपनी बड़ाई चाहते हो तो हम तुम्हें अपना सरदार बनाए लेते हैं, अगर बादशाही चाहते हो तो हम तुम्हें अपना बादशाह बना लेते हैं, और अगर तुमपर कोई जिन्न आता है तो हम अपने ख़र्च पर तुम्हारा इलाज कराते हैं।" उतबा ये बातें करता रहा और नबी (सल्ल०) चुपचाप सुनते रहे। फिर आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अबुल-वलीद! आपको जो कुछ कहना था, कह चुके?" उसने कहा, "हाँ।" आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अच्छा, अब मेरी सुनो।" इसके बाद आप (सल्ल०) ने 'बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम' (अल्लाह के नाम से जो अत्यन्त कृपाशील और दयावान है) पढ़कर इसी सूरा को पढ़ना शुरू किया और उतबा अपने दोनों हाथ पीछे ज़मीन पर टेके ध्यान से सुनता रहा। सजदे की आयत (38) पर पहुँचकर आप (सल्ल०) ने सजदा किया और फिर सिर उठाकर फ़रमाया, “ऐ अबुल-वलीद ! मेरा जवाब आपने सुन लिया। अब आप जानें और आप का काम।" उतबा उठकर क़ुरैश के सरदारों के पास वापस आया और उनसे कहा, "ख़ुदा की क़सम! मैंने ऐसा कलाम (वाणी) सुना कि कभी इससे पहले न सुना था। ख़ुदा की क़सम ! न यह शेर (कविता) है, न सेहर (जादू) है, न कहानत (ज्योतिष विद्या)। ऐ क़ुरैश के सरदारो ! मेरी बात मानो और उस आदमी को उसके हाल पर छोड़ दो। मैं समझता हूँ कि यह वाणी कुछ रंग लाकर रहेगी।" क़ुरैश के सरदार उसकी यह बात सुनते ही बोल ठटे, “वलीद के बाप! आख़िर उसका जादू तुम पर भी चल गया।‘’ (इब्ने-हिशाम, भाग 1, पृ० 313-314)
विषय और वार्ता
उतबा की इस बातचीत के जवाब में जो व्याख्यान अल्लाह की ओर से उतरा, उसमें उन बेहूदा बातों की ओर सिरे से कोई ध्यान नहीं दिया गया जो उसने नबी (सल्ल.) से कही थीं, और केवल उस विरोध को वार्ता का विषय बनाया गया है जो क़ुरआन मजीद के पैग़ाम को नीचा दिखाने के लिए मक्का के विधर्मियों की ओर से उस समय अत्यन्त हठधर्मी और दुराचार के साथ किया जा रहा था। इस अंधे और बहरे विरोध के उत्तर में जो कुछ फ़रमाया गया है, उसका सारांश यह है-
(1) यह अल्लाह की उतारी हुई वाणी है और अरबी भाषा में है। अज्ञानी लोग इसके अंदर ज्ञान का कोई प्रकाश नहीं पाते, मगर समझ-बूझ रखनेवाले उस प्रकाश को देख भी रहे हैं और उससे फ़ायदा भी उठा रहे हैं।
(2) तुमने अगर अपने दिलों पर गिलाफ़ (आवरण) चढ़ा लिए हैं और अपने कान बहरे कर लिए हैं, तो नबी के सुपुर्द यह काम नहीं है कि [वह ज़बरदस्ती तुम्हें अपनी बात सुना और समझा दे। वह तो] सुननेवालों ही को सुना सकता है और समझनेवालों ही को समझा सकता है।
(3) तुम चाहे अपनी आँखें और कान बन्द कर लो और अपने दिलों पर परदा डाल लो, लेकिन सत्य यही है कि तुम्हारा ख़ुदा बस एक ही है, और तुम किसी दूसरे के बन्दे नहीं हो।
(4) तुम्हें कुछ एहसास भी है कि यह शिर्क (बहुदेववाद) और कुफ़्र (इंकार) की नीति तुम किसके साथ अपना रहे हो? उस ख़ुदा के साथ जो तुम्हारा और सम्पूर्ण सृष्टि का पैदा करनेवाला, मालिक और रोज़ी देनेवाला है। उसका साझीदार तुम उसकी तुच्छ मख़्लूक़ात (सृष्ट चीज़ों) को बनाते हो?
(5) अच्छा, नहीं मानते तो ख़बरदार हो जाओ कि तुमपर उसी तरह का अज़ाब टूट पड़ने को तैयार है जैसा आद और समूद जातियों पर आया था।
(6) बड़ा ही अभागा है वह इंसान जिसके साथ ऐसे जिन्नों और इंसानों में से शैतान लग जाएँ जो उसकी मूर्खताओं को उसके सामने सुन्दर बनाकर पेश करें। इस तरह के नादान लोग आज तो यहाँ एक-दूसरे को बढ़ावे-चढ़ावे दे रहे हैं, लेकिन क़ियामत के दिन इनमें से हर एक कहेगा कि जिन लोगों ने मुझे बहकाया था, वे मेरे हाथ लग जाएँ तो उन्हें पाँव तले रौंद डालूँ।
(7) यह क़ुरआन एक अटल किताब है। इसे तुम अपनी घटिया चालों और अपने झूठ के हथियारों से हरा नहीं सकते।
(8) तुम कहते हो कि यह क़ुरआन किसी अजमी (गैर-अरबी) भाषा में आना चाहिए था, लेकिन अगर अजमी भाषा में उसे भेजते तो तुम ही लोग कहते कि यह भी विचित्र उपहास है, अरब क़ौम के मार्गदर्शन के लिए अजमी भाषा में वार्तालाप किया जा रहा है । इसका अर्थ यह है कि तुम्हें वास्तव में मार्गदर्शन अभीष्ट ही नहीं है।
(9) कभी तुमने यह भी सोचा कि अगर वास्तव में सत्य यही सिद्ध हुआ कि यह क़ुरआन अल्लाह की ओर से है तो इसका इंकार करके तुम किस अंजाम का सामना करोगे।
(10) आज तुम नहीं मान रहे हो, मगर बहुत जल्द तुम अपनी आँखों से देख लोगे कि इस क़ुरआन की दावत (पैग़ाम) पूरी दुनिया पर छा गई है और तुम स्वयं उससे पराजित हो चुके हो।
विरोधियों को यह उत्तर देने के साथ उन समस्याओं की ओर भी ध्यान दिया गया है जो इस कठिन रुकावटों के माहौल में ईमानवालों के और ख़ुद नबी (सल्ल०) के सामने थीं। ईमानवालों को यह कहकर हिम्मत बंधाई गई कि तुम वास्तव में बेसहारा नहीं हो, बल्कि जो आदमी ईमान की राह पर मज़बूती से जम जाता है, अल्लाह के फ़रिश्ते उसपर उतरते हैं और दुनिया से लेकर आख़िरत तक उसका साथ देते हैं। नबी (सल्ल०) को बताया गया कि [दावत की राह में रुकावट बनी चट्टानें देखने में बड़ी कठोर नज़र आती हैं, किन्तु अच्छे चरित्र और सुशीलता का हथियार वह हथियार है जो उन्हें तोड़कर और पिघलाकर रख देगा। सब्र के साथ उससे काम लो, और जब कभी शैतान उत्तेजना पैदा करके किसी दूसरे हथियार से काम लेने पर उकसाए. तो अल्लाह से पनाह माँगो।
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ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰٓ إِلَى ٱلسَّمَآءِ وَهِيَ دُخَانٞ فَقَالَ لَهَا وَلِلۡأَرۡضِ ٱئۡتِيَا طَوۡعًا أَوۡ كَرۡهٗا قَالَتَآ أَتَيۡنَا طَآئِعِينَ 10
(11) फिर उसने आसमान की ओर रुख़ किया जो उस समय सिर्फ़ धुआँ था।14 उसने आसमान और ज़मीन से कहा, "अस्तित्त्व ग्रहण करो, चाहे तुम चाहो या न चाहो।" दोनों ने कहा, "हम आ गए फ़रमाबरदारों की तरह।"15
14. इस जगह पर तीन बातों का स्पष्टीकरण ज़रूरी है। एक यह कि आसमान से तात्पर्य यहाँ पूरी सृष्टि है, जैसा कि बाद के वाक्यों से स्पष्ट है।
दूसरे यह कि धुएँ से तात्पर्य पदार्थ की वह आरंभिक स्थिति है, जिसमें वह सृष्टि का रूप देने से पहले एक बिखरे हुए रूपहीन अंशों की धूल की तरह वातावरण में फैला हुआ था।
तीसरे यह कि 'फिर उसने आसमान की ओर रुख किया' वाक्य में 'सुम-म' (फिर) का शब्द समय के किसी क्रम के लिए नहीं, बल्कि वर्णन क्रम के लिए प्रयुक्त हुआ है। (और व्याख्या के लिए देखिए सूरा-39 ज़ुमर, टिप्पणी 12) चुनांचे आगे कहा जाता है कि "उसने आसमान और ज़मीन से कहा कि अस्तित्त्व में आ जाओ और उन्होंने कहा, "हम आ गए फ़रमाबरदारों की तरह।" इससे यह बात स्पष्ट हो जाती हैं
कि इस आयत का अर्थ यह नहीं है कि ज़मीन बनाने के बाद और उसमें आबादी की व्यवस्था करने के बाद उसने आसमान बनाए, बल्कि इस आयत और बाद की आयतों में उल्लेख उस समय का हो रहा है जब न ज़मीन थी, न आसमान था, बल्कि सृष्टि रचना का आरंभ किया जा रहा था।
15. इन शब्दों में अल्लाह ने अपने पैदा करने के तरीके की दशा को ऐसे ढंग से बयान किया है, जिससे अल्लाह की सृजन-शक्ति और इंसान की कारीगरी का अंतर बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। सृष्टि का पदार्थ धुएँ के रूप में फैला हुआ था। अल्लाह ने चाहा कि उसे वह रूप दे जो अब सृष्टि की है। इस उद्देश्य के लिए उसे किसी इंसान कारीगर की तरह बैठकर ज़मीन और चाँद, सूरज और दूसरे तारे और ग्रह घड़ने नहीं पड़े, बल्कि उसने सृष्टि की उस रूप-रेखा को, जो उसके मन में थी, बस यह आदेश दे दिया कि वह अस्तित्व में आ जाए, अर्थात् धुएँ की तरह फैला हुआ तत्त्व उन आकाश गंगाओं, तारों और ग्रहों के रूप में ढल जाए जिन्हें वह पैदा करना चाहता था। उधर आदेश हुआ और इधर वह तत्त्व सिकुड़ और सिमटकर फ़रमाबरदारों की तरह अपने स्वामी की बनाई हुई रूप-रेखा के अनुसार ढलता चला गया, यहाँ तक कि 48 घंटों में ज़मीन समेत सारी सृष्टि बनकर तैयार हो गई।
अल्लाह की सृजन-विधि की इसी दशा को कुरआन मजीद में दूसरी कई जगहों पर इस तरह बयान फ़रमाया गया है कि अल्लाह जब किसी काम का निर्णय करता है तो बस उसे आदेश देता है कि हो जा, और वह हो जाता है। (देखिए सूरा-2 बकरा, आयत 117; सूरा-3 आले इमरान, आयत 47,59; सूरा-16 अन-नल, आयत 40; सूरा-19 मरयम, आयत 35; सूरा-36 या-सीन, आयत 82; सूरा-40 अल-मोमिन, आयत 68)
فَأَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ رِيحٗا صَرۡصَرٗا فِيٓ أَيَّامٖ نَّحِسَاتٖ لِّنُذِيقَهُمۡ عَذَابَ ٱلۡخِزۡيِ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَعَذَابُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَخۡزَىٰۖ وَهُمۡ لَا يُنصَرُونَ 15
(16) अन्ततः हमने कुछ अशुभ दिनों में प्रचंड तूफ़ानी हवा उनपर भेज दी,20 ताकि उन्हें दुनिया ही की जिंदगी में अपमान और रुसवाई के अज़ाब का मज़ा चखा दें,21 और आख़िरत का अज़ाब तो इससे भी अधिक रुसवा करनेवाला है। वहाँ कोई उनकी सहायता करनेवाला न होगा।
20. 'अशुभ दिनों' का अर्थ यह नहीं है कि वे दिन अपने आप में अशुभ थे और अनाव इसलिए आया कि ये अशुभ दिन आद क़ौमों पर आ गए थे। यह अर्थ अगर होता तो अजाव दूर तथा नज़दीक की सारी ही क़ौमों पर आ जाता। इसलिए सही अर्थ यह है कि उन दिनों में चूँकि इस क़ौमों पर खुदा का अनाव आया, इस कारण वे दिन आद जाति के लिए अशुभ थे। इस आयत को दिनों के अशुभ और शुभ होने की दलील बनाना सही नहीं हैं।
क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर इस अजाब का जो विवरण आया है, वह यह है कि यह हवा बराबर सात रात और आट दिन तक चलती रही। इसके जोर से लोग इस तरह गिर-गिरकर मर गए, और मर- मरकर गिर पड़े जैसे खजूर के खोखले तने गिरे पड़े हों। (सूरा-69 अल-हाक्का, आयत 7) जिस चीज़ पर से भी यह हवा गुज़र गई, उसको ध्वस्त करके रख दिया। (सूरा-51 अज़-ज़ारियात, आयत 42) जिस समय यह हवा आ रही थी, उस समय आद जाति के लोग ख़ुशियाँ मना रहे थे कि ख़ूब घटा घिरकर आई है, वर्षा होगी और सूखे धानों में पानी पड़ जाएगा। मगर वह आई तो इस तरह आई कि उसने उनके पूरे क्षेत्र को तबाह करके रख दिया। (सूरा-46 अल-अहक़ाफ़, आयत 24-25)
21. यह अपमान और रुसवाई का अज़ाब उनके उस अहंकार और घमंड का जवाब था जिसके कारण वे ज़मीन में किसी हक़ के बगैर बड़े बन बैठे थे और ताल ठोंक-ठोंककर कहते थे कि हमसे अधिक शक्तिशाली कौन है। अल्लाह ने उनको इस तरह अपमानित किया कि उनकी आबादी के बड़े हिस्से को नष्ट कर दिया, उनकी संस्कृति को मिट्टी में मिलाकर रख दिया और उनका थोड़ा हिस्सा जो बाक़ी रह गया, वह दुनिया की उन्हीं क़ौमों के आगे अपमानित और रुसवा हुआ, जिनपर कभी ये लोग अपना रौब जताते थे। (आद जाति के किस्से के विवरण के लिए देखिए सूरा-7 आराफ़, आयत 65-72; सूरा-11 हूद, आयत 50-60; सूरा-23 अल-मुअमिनून, आयत 31-41; सूरा-26 अश-शुअरा, आयत 123 से 139; सूरा-29 अल-अन्कबूत आयत 38)
حَتَّىٰٓ إِذَا مَا جَآءُوهَا شَهِدَ عَلَيۡهِمۡ سَمۡعُهُمۡ وَأَبۡصَٰرُهُمۡ وَجُلُودُهُم بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ 19
(20 ) उनके अगलों को पिछलों के आने तक रोक रखा जाएगा,24 फिर जब सब वहाँ पहुँच जाएँगे तो उनके कान और उनकी आँख और उसके जिस्म की खालें उनपर गवाही देंगी कि वे दुनिया में क्या कुछ करते रहे हैं।25
24. अर्थात् ऐसा नहीं होगा कि एक-एक नस्ल और एक-एक पीढ़ी का हिसाब करके उसका फ़ैसला एक के बाद एक किया जाता रहे, बल्कि तमाम अगली-पिछली नस्लें एक ही समय में जमा की आएँगी और उन सबका इकट्ठा हिसाब किया जाएगा। इसलिए कि एक आदमी अपनी जिंदगी में जो कुछ भी अच्छे-बुरे कर्म करता है, उसके प्रभाव उसकी जिंदगी के साथ समाप्त नहीं हो जाते, बल्कि उसके मरने के बाद भी लम्बी मुद्दत तक चलते रहते हैं और वह उन प्रभावों के लिए जिम्मेदार होता है। इसी तरह एक नस्ल अपने ज़माने में जो कुछ भी करती है, उसके प्रभाव बाद की नस्लों में सदियाँ जारी रहते हैं और अपनी इस विरासत के लिए वह जिम्मेदार होती है। हिसाब-किताब और न्याय के लिए इन सारे ही प्रभावों और नतीजों का जायजा लेना और उनकी गवाहियाँ जुटाना जरूरी है। इसी वजह से क़ियामत के दिन नस्ल पर नस्ल आती जाएगी और ठहराई जाती रहेगी। अदालत का काम उस समय शुरू होगा जब अगले-पिछले सब जमा हो जाएँगे। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-7 आराफ़, टिप्पणी 30)
25. हदीसों में इसकी व्याख्या यह आई है कि जब कोई हेकड़ अपराधी अपने अपराधों का इंकार ही करता चला जाएगा और तमाम गवाहियों को भी झुठलाने पर तुल जाएगा, तो फिर अल्लाह के हुक्म से उसके शरीर के अंग एक-एक करके गवाही देंगे कि उसने उनसे क्या-क्या काम लिए थे। यह विषय हज़रत अनस, हज़रत अबू मूसा अशअरी, हज़रत अबू सईद खुदरी और हजरत इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने नबी (सल्ल) से उल्लिखित किया है और मुस्लिम, नसई, इले-जरीर, इले-अबी हातिम, बज्ज़ार आदि हदीस के आलिमों ने इन हदीसों को बयान किया है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-36 या-सीन, टिप्पणी 55)
यह आयत उन बहुत-सी आयतों में से एक है, जिनसे यह सिद्ध होता है कि आख़िरत की दुनिया केवल एक आध्यात्मिक दुनिया नहीं होगी, बल्कि ईसान वहाँ दोबारा उसी तरह शरीर व आत्मा के साथ ज़िंदा किए जाएँगे जिस तरह वे अब इस दुनिया में हैं। यही नहीं उनको शरीर भी वही दिया जाएगा, जिसमें अब वे रहते हैं। वही तमाम तत्तव और अणु (Atoms), जिनसे उनके बदन इस दुनिया में बनाए गए थे, क़ियामत के दिन जमा कर दिए जाएंगे ओर वे अपने इन्हीं पिछले जिस्मों के साथ उठाए जाएंगे, जिनके अन्दर रहकर वे दुनिया में काम कर चुके थे। स्पष्ट है कि इंसान के अंग वहाँ उसी रूप में तो गवाही दे सकते हैं जबकि वे वही अंग हों जिनसे उसने अपनी पहली जिंदगी में कोई अपराध किया था। इस विषय पर क़ुरआन मजीद की नीचे लिखी आयतें भी पक्का सुबूत हैं- सूरा-17 बनी इस्राईल, आयत 49-51, 98; सूरा-23 अल-मुमिनून, आयत 35-38, 82-83; सूरा-24 अन-नूर, आयत 24; सूरा-41 अस्सज्दा, आयत 10; सूरा-36 या-सीन, आयत 65, 78, 79; सूरा-37 अस्साफ़्फात, आयत 16-18; सूरा-56 अल-वाक़िआ, आयत 47-50; सूरा-79 अन-नाज़िआत, आयत 10-14।
وَلَوۡ جَعَلۡنَٰهُ قُرۡءَانًا أَعۡجَمِيّٗا لَّقَالُواْ لَوۡلَا فُصِّلَتۡ ءَايَٰتُهُۥٓۖ ءَا۬عۡجَمِيّٞ وَعَرَبِيّٞۗ قُلۡ هُوَ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ هُدٗى وَشِفَآءٞۚ وَٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ فِيٓ ءَاذَانِهِمۡ وَقۡرٞ وَهُوَ عَلَيۡهِمۡ عَمًىۚ أُوْلَٰٓئِكَ يُنَادَوۡنَ مِن مَّكَانِۭ بَعِيدٖ 43
(44) अगर हम इसको अजमी (गैर-अरबी) कुरआन बनाकर भेजते तो ये लोग कहते, "क्यों न इसकी आयतें खोलकर बयान की गईं हैं। कैसी विचित्र बात है कि वाणी अजमी है और सुननेवाले अरबी।"54 इनसे कहो, यह कुरआन ईमान लानेवालों के लिए तो मार्गदर्शन और रोग-मुक्ति (शिफ़ा) है, मगर जो लोग ईमान नहीं लाते, उनके लिए यह कानों की डाट और आँखों की पट्टी है। उनका हाल तो ऐसा है जैसे उनको दूर से पुकारा जा रहा हो।55
54. यह उस हठधर्मी का एक और नमूना है जिससे नबी (सल्ल०) का मुकाबला किया जा रहा था। इस्लाम-विरोधी कहते थे कि मुहम्मद (सल्ल०) अरब हैं, अरबी उनकी मातृभाषा है। वे अगर अरबी में क़ुरआन प्रस्तुत करते हैं तो यह कैसे समझा जा सकता है कि यह वाणी उन्होंने स्वयं नहीं गढ़ ली है, बल्कि उनपर अल्लाह ने उतारा है। उनकी इस वाणी को अल्लाह की उतारी हुई वाणी तो उस समय माना जा सकता था, जब ये किसी ऐसी भाषा में अचानक धुआँधार भाषण देना शुरू कर देते, जिसे ये नहीं जानते। जैसे, फ़ारसी या रूमी या यूनानी। इसपर अल्लाह फ़रमाता है कि अब उनकी अपनी भाषा में क़ुरआन भेजा गया है, जिसे ये समझ सकें, तो इनको यह आपत्ति है कि एक अरब के द्वारा अस्वों के लिए अरबी भाषा में यह वाणी क्यों उतारी गई। लेकिन अगर किसी दूसरी भाषा में यह भेजा जाता तो उस समय यही लोग यह आपत्ति करते कि यह मामला भी ख़ूब है। अरब क़ौम में एक अरब को रसूल बनाकर भेजा गया है, मगर वाणी उसपर ऐसी भाषा में उतारी गई है जिसे न रसूल समझता है, न क़ौम।
55. दूर से जब किसी को पुकारा जाता है तो उसके कान में एक आवाज़ तो पड़ती है, मगर उसकी समझ में वह नहीं आता कि कहनेवाला क्या कह रहा है। यह ऐसा अनुपम उदाहरण है जिससे हठधर्म विरोधियों की मानसिकता का पूरा चित्र निगाहों के सामने खिंच जाता है। स्वाभाविक बात यह है कि जो आदमी किसी तास्सुब (पक्षपात) में नहीं पड़ा होता, उससे अगर आप बातें करें तो वह उसे सुनता है, समझने का यत्न करता है, और उचित बात होती है तो खुले दिल से उसको स्वीकार कर लेता है। इसके विपरीत जो आदमी आपके विरुद्ध न सिर्फ पक्षपात, बल्कि बैर और द्वेष रखता हो, उसको आप अपनी बात समझाने का चाहे कितना ही प्रयत्न करें, वह सिरे से उसकी ओर ध्यान ही न करेगा। आपकी सारी बात सुनकर भी उसकी समझ में कुछ न आएगा कि आप इतनी देर तक क्या कहते रहे हैं, और आपको भी यूँ महसूस होगा कि जैसे आपकी आवाज़ उसके कान के पर्दो से उचटकर बाहर ही बाहर गुज़रती रही है, दिल और दिमाग तक पहुँचने का कोई रास्ता नहीं पा सकी।