(13) उसने तुम्हारे लिए दीन का वही तरीक़ा निश्चित किया है, जिसका हुक्म उसने नूह को दिया था और जिसे (ऐ मुहम्मद!) अब तुम्हारी ओर हमने वह्य के ज़रिये से भेजा है, और जिसकी हिदायत हम इबराहीम और मूसा और ईसा को दे चुके हैं, इस ताकीद के साथ कि स्थापित करो इस दीन को और इसमें अलग-अलग न हो जाओ।20 यही बात इन मुशरिकों को अति अप्रिय लगी है, जिसकी ओर (ऐ मुहम्मद!) तुम इन्हें बुला रहे हो। अल्लाह जिसे चाहता है, अपना कर लेता है और वह अपनी ओर आने का रास्ता उसी को दिखाता है जो उसकी ओर रूजूअ करे।21
20. अर्थात् मुहम्मद (सल्ल०) किसी नए धर्म के संस्थापक नहीं हैं, न नबियों में से कोई अपने किसी अलग धर्म का संस्थापक गुज़रा है, बल्कि अल्लाह की ओर से एक ही दीन (धर्म) है, जिसे शुरू से तमाम नबी पेश करते चले आ रहे हैं और इसी को मुहम्मद (सल्ल०) भी पेश कर रहे हैं। इस सिलसिले में [सिर्फ़ पाँच नबियों का नाम लिया गया है, मगर] इसका मक़सद यह नहीं है कि उन्हीं पाँच नबियों को उस दीन की हिदायत की गई थी। बल्कि असल मक़सद बताना है कि दुनिया में जितने नबी भी आए हैं, सब एक ही दीन (धर्म) लेकर आए हैं और नमूने के तौर पर उन पाँच महान नबियों का नाम ले दिया गया है, जिनसे दुनिया को सबसे ज्यादा मशहूर आसमानी विधि-विधान (शरीअतें) मिले हैं।
यह आयत चूँकि दीन और उसके मक़सद पर बड़े महत्वपूर्ण रूप से प्रकाश डालती है, इसलिए ज़रूरी है कि इसपर पूरी तरह विचार करके इसे समझा जाए।
फ़रमाया कि 'श-र-अलकुम' (मुकर्रर किया तुम्हारे लिए) । शरअ का शाब्दिक अर्थ रास्ता बनाना और पारिभाषिक रूप में इसका अर्थ है तरीका और नियम और विधान निर्धारित करना। अरबी भाषा में इसी पारिभाषिक अर्थ की दृष्टि से' तशरीअ' का शब्द क़ानून बनाने का समानार्थी समझा जाता है। यह ईश्वरीय विधि-विधान वास्तव में उन उसूली हक़ीक़तों का स्वाभाविक और तार्किक नतीजा है जो क़ुरआन में जगह-जगह बयान हुई हैं कि अल्लाह ही जगत की हर चीज़ का स्वामी है और वही इंसान का वास्तविक वली (सरपरस्त) है और इंसानों के बीच में जिस बात में भी विभेद हो, उसका फ़ैसला करना उसी का काम है।
फिर फ़रमाया, मिनद्दीन' (दीन के एक रूप में) शाह वलीयुल्लाह साहब ने इसका अनुबाद ‘अज़आईन' किया है यानी अल्लाह ने जो शरीअत निर्धारित की है, उसकी हैसियत आईन यानी क़ानून की है। वास्तव में दीन के मानी ही किसी की सरदारी और हाकिमियत स्वीकार करके उसके हुबमों को मानने के हैं। और जब यह शब्द तरीक़े के अर्थ में बोला जाता है तो इससे मुराद वह तरीक़ा होता है जिसकी पैरवी करना आदमी अनिवार्य समझे और जिसके निर्धारित करनेवाले को मुताअ़ [यानी आज्ञापालन कराने का अधिकारी] माने। इस आधार पर अल्लाह के मुक़र्रर किए हुए. इस तरीके को दीन की हैसियत रखनेवाली शरीयता कहने का स्पष्ट अर्थ यह है कि यह बन्दों के लिए उनके मालिक का वह क़ानून है जिसका अनुपालन अनिवार्य है।
इसके बाद इशाद हुआ है कि दीन की हैसियत रखनेवाली यह शरीअत वही है जिसकी हिदायत नूह और इबराहीम और मूसा (अलैहि०) को दी थी और उसी की हिदायत अब मुहम्मद (सल्ल०) को दी गई है।
इस इर्शाद से कई बातें निकलती हैं-
एक यह कि अल्लाह ने जब उचित समझा है, एक व्यक्ति को अपना रसूल मुकरी करके यह शरीयत उसके हवाले की है।
दूसरे यह कि यह शरीअत शुरू ही से एक जैसी रही है। खुदा की और से बहुत-से दीन (धर्म) नहीं आए हैं, बल्कि जब भी आया है, यही एक दीन आया है।
तीसरे यह कि अल्लाह की बादशाही और हाक्रिमियत भालने के साथ उन लोगों की रिसालत (पैग़म्बरी) को मानना जिनके जरिये से यह शरीअत भेजी गई है और इस वहय (प्रकाशना) को स्वीकार करना जिसमें यह शरीअत बयान की गई है इस दीन का अभिन्न अंग है।
इसके बाद फ़रमाया कि इन सब नबियों को दीन की हैसियत रखनेवाली यह शीअल इस हिदायत और ताकीद के साथ दी गई थी कि ‘अक़ीमुद्दीन' । इसका अनुवाद शाह वलीयुल्लाह साहब ‘क़ायम कुनीद दीन रा' (दीन को स्थापित करो) किया है और शाह रफीउद्दीन साहब श्रीर शाह अब्दुल क़ादिर साहब ने 'क़ायम रखी दीन को'। ये दोनों अनुवाद ठीक हैं। 'इक़ामत' का अर्थ क़ायम करने के भी हैं और क़ायम रखने के भी, और नबी (अलैहि०) इन दोनों ही कामों पर लगाए गए थे।
अब हमारे सामने दी प्रश्न आते हैं-
एक यह कि 'दीन को कायम करने से तात्पर्य क्या है?
दूसरे यह कि स्वयं दीन का क्या अर्थ है?
क़ायम करने का शब्द जब किसी भौतिक या स्थूल चीज़ के लिए इस्तेमाल होता है, तो इससे तात्पर्य बैठे को उठाना या किसी चीज़ के बिखरे हुए अशो की जमा करके बुलन्द करना होता है। लेकिन जो चीज़ें भौतिक नहीं, बल्कि अभौतिक एवं चेतनात्मक होती हैं, उनके लिए जब क़ायम करने का शब्द इस्तेमाल किया जाता है, तो इससे तात्पर्य उस चीज़ का सिर्फ़ प्रचार-प्रसार करना नहीं, बल्कि उसपर जैसा कि हक़ है अमल दरामद करना, उसे रिवाज देना और उसे व्यावहारिक रूप से लागू करना होता है।
अब दूसरे प्रश्न को लीजिए [अर्थात् यह कि दीन से क्या मुराद है?] क़ुरआन मजीद का जब हम गहराई से अध्ययन करते हैं तो इसमें जिन चीज़ों की गिनती दीन में की गई है, उनमें नीचे लिखी चीज़ें भी हमें मिलती हैं-
(1) "और उनको हुक्म नहीं दिया गया, मगर इस बात का कि एकाग्र होकर अपने दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करते हुए उसकी इबादत करें और नमान कायम करें और ज़कात दें, और यहीं सीधे रास्ते पर चलनेवाले समुदाय का दीन है।" (सूरा-98 अल- बेयिना, आयत 5)
इससे मालूम हुआ कि नमाज़ और ज़कात इस दीन में शामिल हैं, हालांकि इन दोनों के हुक्म विभिन्न शरीअतों में अलग-अलग रहे हैं, लेकिन शरीअतों के अलग-अलग होने के बावजूद अल्लाह इन दोनों चीज़ों को दीन में शुमार कर रहा है।
(2) "तुम्हारे लिए हराम (निषिद्ध) किया गया मुरदार और खून और सुअर का मांस और वह जानवर जो अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर ज़िव्ह किया गया हो और वह जो गला घुटकर या चोट-खाकर या ऊँचाई से गिरकर या टक्कर खाकर मरा हो, या जिसे किसी दरिंदे ने फाड़ा हो, सिवाय उसके जिसे तुमने जिंदा पाकर ज़िब्ह कर लिया और वह जो किसी आस्ताने पर जिब्ह किया गया हो। साथ ही यह भी तुम्हारे लिए हराम किया गया कि तुम पांसों के जरिये से अपनी किस्मत मालूम करो। ये सब काम फ़िस्क़ (नाफ़रमानी के काम) हैं। आज (इस्लाम के) ईकारियों को तुम्हारे दीन की ओर से निराशा हो चुकी है, इसलिए तुम उनसे न डरो, बल्कि मुझसे डरो। आज मैंने तुम्हारे दीन को तुम्हारे लिए पूर्ण कर दिया......।’’
(सूरा-5 अल-माइदा, आयत 3)
इससे मालूम हुआ कि शरीअत के ये सब आदेश भी दीन ही हैं।
(3) "युद्ध करो उन लोगों से जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान नहीं लाते और जो कुछ अल्लाह और उसके रसूल ने हराम किया है, उसे हराम नहीं करते और सत्य धर्म को अपना दीन नहीं बनाते।’’ (सूरा-9 अत-तौबा, आयत 29)
मालूम हुआ कि अल्लाह और आख़िरत पर ईमान लाने के साथ हलाल व हराम के उन हुक्मों को मानना और उनकी पावन्दी करना भी दौन है जो अल्लाह और उसके रसूल ने दिए हैं।
(4) "जिना करनेवाली (व्यभिचारिणी) औरत और मर्द, दोनों में से हर एक को सौ कोड़े मारो और उनपर तरस खाने की भावना अल्लाह के दीन के मामले में तुम्हें न सताए, अगर तुम अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखते हो।’’ (सूरा-24 अन-नूर, आयत 2)
"यूसुफ़ अपने भाई को बादशाह के दीन (क़ानून) में पकड़ लेने का अधिकारी न था।"
(सूरा-12 यूसुफ, आयत 76)
इससे मालूम हुआ कि फौजदारी कानून भी दीन है। अगर आदमी बुदा के फ़ौजदारी क़ानून पर चले, तो वह ख़ुदा के दीन की पैरवी कर रहा है और अगर बादशाह के क़ानून पर चले तो वह बादशाह के दीन की पैरवी कर रहा है।
ये चार तो वे नमूने है जिनमे शरीयत के हुक्मो को खुले शब्दो मे दींन कहा गया है।लेकिन इसके अलावा अगर ध्यान से देखा जाए तो मालुम होता हैं कि जिन गुनाहो पर अल्लाह ने जहन्न्म की धमकी दी है।
(जैसे ज़िना, सूदख़ोरी, ईमानवाले का क़त्ल, यतीम का माल खाना, अन्यायपूर्ण ढंग से लोगों से माल लेना आदि) और जिन जुर्मों को ख़ुदा के अज़ाब का कारण करार दिया है, (जैसे लूत की क़ौम का अमल अर्थात् पदों का समलैंगिक सम्बन्ध बनाना और लेन-देन में शुऐन की क़ौम का रवैया)। इनकी रोकथाम भी ज़रूरी तौर पर दीन ही में शुमार होनी चाहिए, इसलिए कि दीन अगर जहन्नम और अल्लाह के अज़ाब से बचाने के लिए नहीं आया है तो और किस चीज़ के लिए आया है ? इसी तरह [शरीअत के और भी बहुत-से आदेश हैं जो अपने प्रकार की दृष्टि से बहरहाल दीन ही का हिस्सा क़रार पाते हैं। इस तफ़्सील (विवरण) से मालूम हुआ कि दीन के अर्थ में शरीअत (विधि-विधान) भी शामिल है और दीन कायम करने से मुराद शरीअत की पूरी व्यवस्था को स्थापित करना और उसे लागू करना है।]
आयत "हमने तुममें से हर समुदाय के लिए एक शरीअत और एक राह निश्चित कर दी," [से यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि शरीअत चूँकि हर समुदाय के लिए अलग थी और आदेश सिर्फ उस दीन के क़ायम करने का दिया गया है जो तमाम नबियों के दर्मियान संयुक्त था, इसलिए 'इक़ामते-दीन' के हुक्म में 'इकामते-शरीअत' शामिल नहीं है। [इस आयत को इसके संदर्भ के साथ] अगर कोई व्यक्ति ध्यानपूर्वक पढ़े तो मालूम होगा कि इस आयत का सही अर्थ यह है कि जिस नबी की उम्मत को जो शरीअत भी अल्लाह ने दी थी, वह उस उम्मत के लिए दीन थी और उसकी नुबूवत के दौर में उसी को क़ायम करना बांछनीय था। और अब चूँकि हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) नुबूवत का दौर है, इसलिए मुहम्मद (सल्ल०) की उम्मत जो शरीअत दी गई है, वह इस दौर के लिए दीन है और उसका क़ायम करना ही दीन का क़ायम करना है। रहा इन शरीअतों का विभेद, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि ख़ुदा की भेजी हुई शरीअतें आपस में टकरा रही थीं, बल्कि इसका अर्थ यह है कि उनकी गौण बातों और विवरणों में हालात के लिहाज़ से कुछ अन्तर रहा है। मिसाल के तौर पर नमाज़ और रोज़े को देखिए। नमाज़ तमाम शरीअतों में फ़र्ज़ रही है, मगर क़िब्ला सारी शरीअतों का एक न था और इसके वक़्त और रक्अतें और अंशों में भी फ़र्क था। इसी तरह रोज़ा हर शरीअत में फ़र्ज़ था, मगर रमज़ान के 30 रोज़े दूसरी शरीअतों में न थे। इससे यह नतीजा निकालना सही नहीं है कि सिर्फ नमाज और रोजा तो 'इकामते दीन में शामिल हैं, मगर एक ख़ास तरीक़े से नमाज़ पढ़ना और खास ज़माने में रोजा रखना इकामते-दीन' से अलग है, बल्कि इससे सही तौर पर जो नतीजा निकलता है, वह यह है कि हर नबी की उम्मत के लिए उस वक़्त की शरीअत में नमाज़ और रोजे के लिए जो कायदे मुकर्रर किए गए थे, उन्हीं के अनुसार उस ज़माने में नमाज़ पढ़ना और रोज़ा रखना दीन कायम करना था, और अब इक्रामते-दीन यह है कि इन इबादतों के लिए मुहम्मद (सल्ल०) की शरीअत में जो तरीक़ा रखा गया है, उनके अनुसार उन्हें अदा किया जाए। इन्हीं दो मिसालों पर शरीअत के दूसरे तमाम हुक्मों का अन्दाज़ा कर लीजिए।
'इक़ामते-दीन' का आदेश देने के बाद आखिर में फ़रमाया, "इसके अन्दर अलग-अलग न हो जाओ।" दीन में अलग-अलग होने से तात्पर्य यह है कि आदमी दीन के अन्दर अपनी ओर से कोई निराली बात ऐसी निकाले जिसकी कोई उचित गुंजाइश उसमें न हो और आग्रह करे कि उसकी निकाली हुई बात के मानने ही पर कुफ्र व ईमान निर्भर है, फिर जो माननेवाले हों, उन्हें लेकर न माननेवालों से अलग हो जाए। [इस विषय पर विस्तृत वार्ता के लिए देखिए सूरा-2 बकरा, आयत 213; सूरा-3 आले-इमरान, आयत 78, 19, 51; सूरा-4 अन-निसा, आयत 170, 171; सूरा-5 अल-माइदा, आयत 77; सूरा-6 अल-अनआम, आयत 159; सूरा-16 अन-नहल, आयत 116-124; सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 92-97; सूरा-22 अल-हज, आयत 67, 68; सूरा-23 अल-मोमिनून, आयत 51 से 53; सूरा-28 अल-क़सस, आयत 52,53; सूरा-30 अर-रूम, आयत 30 से 32 टिप्पणियाँ सहित]
21. अर्थ यह है कि तुम इन लोगों के सामने दीन का स्पष्ट राजमार्ग पेश कर रहे हो और ये नासमझ इस नेमत का मूल्य समझने के बजाय उलटे इसपर बिगड़ रहे हैं। मगर इन्हीं के बीच इन्हीं की कौम वे लोग मौजूद हैं जो अल्लाह की ओर रुजूम कर रहे हैं। अब यह अपना-अपना भाग्य है कि कोई या नियत को पाए और कोई इससे नफ़रत, दुश्मनी करे। मगर अल्लाह की बाँट अंधी बाँट नहीं है। वह उसी को अपनी ओर खींचता है, जो उसकी ओर बढ़े।