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سُورَةُ الشُّورَىٰ

42. अश-शूरा

(मक्का में उतरी, आयतें 53)

परिचय

नाम

आयत 38 के वाक्यांश “व अमरुहुम शूरा बैन-हुम' अर्थात् 'वे अपने मामले आपस के परामर्श (अश-शूरा) से चलाते हैं' से लिया गया है। इस नाम का अर्थ यह है कि वह सूरा जिसमें शब्द 'शूरा' आया है।

उतरने का समय

इसकी विषय-वस्तु पर विचार करने से साफ़ महसूस होता है कि यह सूरा-41 'हा-मीम अस-सजदा' के ठीक बाद उतरी होगी, क्योंकि यह एक तरह से बिल्कुल उसकी अनुपूरक दिखाई देती है। सूरा-41 (हा-मीम अस-सजदा) में क़ुरैश के सरदारों के अंधे-बहरे विरोध पर बड़ी गहरी चोटें की गई थीं। उस चेतावनी के तुरन्त बाद यह सूरा अवतरित की गई, जिसने समझाने-बुझाने का हक़ अदा कर दिया।

विषय और वार्ता

बात इस तरह आरंभ की गई है कि [मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर वह्य (ईश-प्रकाशना) का आना कोई निराली बात नहीं] ऐसी ही वह्य, इसी तरह के आदेश के साथ अल्लाह इससे पहले भी नबियों (उनपर ख़ुदा की दया और कृपा हो) पर निरन्तर भेजता रहा है। इसके बाद बताया गया है कि नबी सिर्फ़ ग़ाफ़िलों को चौंकाने और भटके हुओं को रास्ता बताने आया है। [वह खुदा के पैदा किए हुए लोगों के भाग्यों का मालिक नहीं बनाया गया है।] उसकी बात न माननेवालों की पकड़ करना और उन्हें अज़ाब देना या न देना अल्लाह का अपना काम है। फिर इस विषय के रहस्य को स्पष्ट किया गया है कि अल्लाह ने सारे इंसानों को जन्म ही से सीधे रास्ते पर चलनेवाला क्यों न बना दिया और यह मतभेद की सामर्थ्य क्यों दे दी, जिसकी वजह से लोग विचार और कर्म के हर उलटे-सीधे रास्ते पर चल पड़ते हैं। इसके बाद यह बताया गया है कि जिस धर्म को मुहम्मद (सल्ल०) पेश कर रहे हैं, वह वास्तव में है क्या? उसका पहला आधार यह है कि अल्लाह चूँकि जगत् और इंसान का पैदा करनेवाला, मालिक और वास्तविक संरक्षक है, इसलिए वही इंसान का शासक भी है और उसी का यह अधिकार है कि इंसान को दीन और शरीअत (धर्म और विधि-विधान अर्थात् धारणा और कर्म की प्रणाली) प्रदान करे। दूसरे शब्दों में, प्राकृतिक प्रभुत्त्व की तरह विधि-विधान सम्‍बन्‍धी प्रभुत्‍व भी अल्‍लाह के लिए विशिष्‍ट है। इसी आधार पर अल्‍लाह तआला ने आदिकालत से इंसान के लिए एक धर्म निर्धारित किया है। वह एक ही धर्म या जो हर युग में तमाम नबियों को दिया जाता रहा। कोई नबी भी अपने किसी अलग धर्म का प्रवर्तक नहीं था। वह धर्म हमेशा इस उद्देश्य के लिए भेजा गया है कि ज़मीन पर वही स्थापित, प्रचलित और लागू हो। पैग़म्‍बर इस धर्म के सिर्फ़ प्रचार पर नहीं, बल्कि उसे स्थापित करने की सेवा कार्य पर लगाए गए थे। मानव-जाति का मूल धर्म यही था, किन्‍तु नबियों के बाद हमेशा यही होता रहा कि स्‍वार्थी लोग उसके अन्‍दर अपने स्‍वेच्‍छाचार, अहंकार और आत्‍म-प्रदर्शन की भावना के कारण अपने स्‍वार्थ के लिए साम्प्रदायिकता खड़ी करके नए-नए धर्म निकालते रहे। अब मुहम्मद (सल्ल०) इसलिए भेजे गए है कि कृत्रिम पंथों और कृत्रिम धर्मों और इंसानों के गढ़े हुए धर्मों की जगह वही मूल धर्म लोगों के सामने प्रस्तुत करें और (पूरे जमाव के साथ) उसी को स्थापित करने की कोशिश करें। तुम लोगों को यह एहसास नहीं है कि अल्लाह के दीन को छोड़कर अल्लाह के अतिरिक्त दूसरों के बनाए हुए दीन (धर्म) और क़ानून को अपनाना अल्‍लाह के मुक़ाबले में कितना बड़ा दुस्‍साहास है। अल्‍लाह के नज़दीक यह सब से बुरा शिर्क और बड़ा संगीन अपराध है, जिसकी कड़ी सज़ा भुगतनी पड़ेगी। इस तरह दीन की एक स्पष्ट धारणा प्रस्तुत करने के बाद फ़रमाया गया है कि तुम लोगों को समझाकर सीधे रास्‍ते पर लाने के लिए जो बेहतर से बेहतर तरीक़ा सम्भव था, वह प्रयोग में लाया जा चुका। इसपर भी अगर तुम मार्ग न पाओ तो दुनिया में कोई चीज़ तुम्हें सीधे रास्ते पर नहीं ला सकती। इन यथार्थ तथ्यों को बयान करते हुए बीच-बीच में संक्षेप में तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत (परलोकवाद) की दलीलें दी गई हैं और दुनियापरस्‍ती के नतीजों पर सचेत किया गया है। फिर वार्ता को समाप्त करते हुए दो महत्त्वपूर्ण बातें कही गई हैं। एक यह कि मुहम्मद (सल्ल०) का अपनी समस्याओं और वार्ताओं से बिलकुल अनभिज्ञ रहना और फिर यकायक इन दोनों चीजों को लेकर दुनिया के सामने आ जाना, आप (सल्ल.) के नबी होने का स्पष्ट प्रमाण है। दूसरे यह कि अल्लाह ने यह शिक्षा तमाम नबियों की तरह आप (सल्ल.) को भी तीन तरीक़ों से दी है, एक वह्य (प्रकाशना), दूसरे परदे के पीछे से आवाज़ और तीसरे फ़रिश्तों के द्वारा सन्देश। यह स्पष्ट इसलिए किया गया कि विरोधी लोग यह आरोप न लगा सकें कि नबी (सल्ल०) अल्लाह से उसके सम्मुख होकर बात करने का दावा कर रहे हैं।

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سُورَةُ الشُّورَىٰ
42. अश-शूरा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
حمٓ
(1) हा-मीम।
عٓسٓقٓ ۝ 1
(2) ऐन-सीन-क़ाफ़।
كَذَٰلِكَ يُوحِيٓ إِلَيۡكَ وَإِلَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكَ ٱللَّهُ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 2
(3) इसी तरह अल्लाह प्रभुत्त्वशाली और तत्त्वदर्शी तुम्हारी ओर और तुमसे पहले गुज़रे हुए (रसूलों) की ओर वह्य (प्रकाशना) करता रहा है।1
1. वार्ता के आरंभ का यह अंदाज़ स्वयं बता रहा है कि पृष्ठभूमि में वे छिड़ी हुई बातें हैं जो मक्का मुअज़्ज़मा की हर सभा, हर चौपाल, हर कूचा व बाज़ार और हर मकान और दुकान में उस समय नबी (सल्ल०) के पैग़ाम और कुरआन के विषयों पर हो रही थीं। इन्हीं चूं-चूं और कानाफूसियों पर प्रत्यक्षतः अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को सम्बोधित करते हुए, मगर वास्तव में इस्लाम-विरोधियों को सुनाते हुए, कहा गया है कि जो बातें क़ुरआन में बयान की जा रही हैं, यही बातें अल्लाह ने वह्य के ज़रिये से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर अवतरित की हैं और पहले रसूलों पर भी वह यही बातें अवतरित करता रहा है। ये कुछ निराली बातें नहीं हैं।
لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَلِيُّ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 3
(4) आसमानों और ज़मीन में जो कुछ भी है, उसी का है, वह श्रेष्ठ और महान है।2
2. भूमिका के रूप में ये वाक्य केवल अल्लाह की प्रशंसा में नहीं कहे जा रहे हैं, बल्कि उनका हर शब्द उस पृष्ठभूमि से गहरा ताल्लुक रखता है जिसमें ये आयतें उतरी हैं। नबी (सल्ल०) के एकेश्वरवाद की ओर बुलाने पर लोग ताज्जुब से कान खड़े कर-कर के कहते थे कि अगर अकेला एक अल्लाह ही उपास्य, ज़रूरतें पूरी करनेवाला और शरीअत (नियम-विधान) देनेवाला है, तो फिर हमारे बुजुर्ग क्या हुए? इसपर फ़रमाया गया है कि यह पूरी सृष्टि सर्वोच्च अल्लाह की मिल्कियत है। मालिक के साथ उसकी मिल्कियत में किसी और की ख़ुदावन्दी (प्रभुता) आख़िर किस तरह चल सकती है? फिर फ़रमाया गया कि वह श्रेष्ठ और महान है, अर्थात् इससे उच्च और श्रेष्ठतर है कि कोई उसके बराबर का हो और उसकी ज़ात (हस्ती), गुणों, अधिकारों और हक़ों में से किसी चीज़ में भी हिस्सेदार बन सके।
تَكَادُ ٱلسَّمَٰوَٰتُ يَتَفَطَّرۡنَ مِن فَوۡقِهِنَّۚ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يُسَبِّحُونَ بِحَمۡدِ رَبِّهِمۡ وَيَسۡتَغۡفِرُونَ لِمَن فِي ٱلۡأَرۡضِۗ أَلَآ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 4
(5) क़रीब है कि आसमान ऊपर से फट पड़ें।3 फ़रिश्ते अपने रब की प्रशंसा के साथ महिमागान कर रहे हैं और ज़मीनवालों के हक में माफ़ी की प्रार्थनाएँ किए जाते हैं।4 आगाह रहो, वास्तव में अल्लाह क्षमाशील और दयावान है।5
3. अर्थात् यह कोई साधारण बात तो नहीं है कि किसी मखलूक (प्राणी) का वंश ख़ुदा से जा मिलाया गया और उसे ख़ुदा का बेटा या बेटी ठहरा दिया गया। किसी को ज़रूरतें पूरी करनेवाला और फ़रियाद सुननेवाला ठहरा लिया गया। किसी को हुक्म देने, मना करने और हलाल व हराम का अधिकारी मान लिया गया। ख़ुदा के मुक़ाबले में ये वे दुस्साहस हैं, जिनपर आर आसमान फट पड़े तो कुछ असंभव नहीं है। (यही बात सूरा 19 मरयम, आयत 88-91 में भी कही गई है।)
4. अर्थ यह है कि फरिश्ते इंसानों की ये बातें सुन सुनकर कानों पर हाथ रखते हैं और ख़ुदा की प्रशंसा के साथ उसका महिमागान करते हुए कहते हैं कि किसकी यह हैसियत हो सकती है कि सारे जहानों के रब के साथ ईश्वरत्व और आदेश देने में शरीक हो सके। फिर वे महसूस करते हैं कि यह ऐसा महा अपराध दुनिया में किया जा रहा है, जिसपर अल्लाह का गज़ब हर वास्त भड़क सकता है, इसलिए वे धरती पर बसनेवाले युद को और ख़ुदा को भूले हुए इन बन्दों के हक़ में बार-बार दया की प्रार्थना करते हैं।
وَٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ أَوۡلِيَآءَ ٱللَّهُ حَفِيظٌ عَلَيۡهِمۡ وَمَآ أَنتَ عَلَيۡهِم بِوَكِيلٖ ۝ 5
(6) जिन लोगों ने उसको छोड़कर अपने कुछ दूसरे सरपरस्त 6 (संरक्षक) बना रखे हैं, अल्लाह ही उनपर निगरौं है, तुम उनके हवालेदार नहीं हो।7
6. मूल में अरबी शब्द 'औलिया' प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ अरबी भाषा में अत्यन्त व्यापक है। झूठे उपास्यों के बारे में गुमराह इंसानों के अलग-अलग विश्वास और बहुत-सी विभिन्न कार्यनीतियाँ हैं जिनको क़ुरआन मजीद में 'अल्लाह के सिवा दूसरों को अपना वली (सरपरस्त) बनाना' बताया गया है। क़ुरआन मजीद का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से शब्द 'बली' के निम्नलिखित अर्थ मालूम होते हैं- (1) जिसके कहने पर आदमी चले, जिसकी हिदायत पर अमल करे और जिसके निर्धारित किए हुए तरीक़ों, रस्मों और क़ानूनों और नियमों का पालन करे। (क़ुरआन सूरा-4 अन-निसा, आयत 118-120, सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 3,27-30) (2) जिसकी रहनुमाई (Guidance) पर आदमी भरोसा करे और यह समझे कि वह उसे सही रास्ता बतानेवाला और ग़लती से बचानेवाला है। (कुरआन, सूरा-2 अल-बकरा, आयत 257; सूरा-17 बनी इसाईल, आयत 97: सूरा-18 अल-कहफ़, आयत 17, 50; सूरा-45 अल-जासिया, आयत 19) (3) जिसके बारे में आदमी यह समझे कि मैं दुनिया में चाहे कुछ करता रहूँ, वह मुझे उसके बुरे नतीजों से और अगर ख़ुदा है और आख़िरत भी होनेवाली है तो उसके अजाब से बचा लेगा। (क़ुरआन, सूरा-4 अन-निसा, आयत 123, 173; सूरा-6 अल-अनआम, आयत 51; सूरा-13 अर-अद, आयत 37: सूरा-29 अल-अनकबूत, आयत 22; सूरा-33 अल-अहजाब, आयत 65; सूरा-39 अज-जुमर, आयत 3) (4) जिसके बारे में आदमी यह समझे कि वह दुनिया में अनैसर्गिक तरीक़े से उसकी मदद करता है, आपदाओं और कठिनाइयों से उसकी रक्षा करता है, उसे रोजगार दिलाता है, सन्तान देता है, मुरादें पूरी करता है और दूसरी हर प्रकार की ज़रूरतें पूरी करता है। (क़ुरआन, सूरा-11 हूद, आयत 20; सूरा-13 अर-रअद, आयत 16; सूरा -29 अल-अन्कबूत, आयत 41) कुछ जगहों पर क़ुरआन में वली का शब्‍द इनमें से किसी एक अर्थ में इस्तेमाल किया गया है और कुछ जगहों पर व्यापक रूप से उसके सभी अर्थ मुराद हैं। यह आयत जिसकी व्याख्या की जा रही है उन्हीं में से एक है।
7. 'अल्लाह ही उनपर निगराँ है' अर्थात् वह उनके तमाम कामों को देख रहा है और उनसे पूछागछ और उनकी पकड़ करना तो उसी का काम है। 'तुम इनके हवालेदार नहीं हो', यह सम्बोधन नबी (सल्ल०) से है। अर्थ यह है कि उनका भाग्य तुम्हारे हवाले नहीं कर दिया गया है कि जो तुम्हारी बात न मानेगा, उसे तुम तहस-नहस करके रख दोगे। इस वादय में सम्बोधन यद्यपि प्रत्यक्ष में नबी (सल्ल०) से ही है, लेकिन असल मक़सद इस्लाम विरोधियों को यह बताना है कि अल्लाह का नबी उस तरह का कोई दावा नहीं रखता जैसे ऊँचे-ऊँचे दावे ख़ुदा के क़रीब होने और रूहानियत का ढोंग रचानेवाले आम तौर से तुम्हारे यहाँ किया करते हैं।
وَكَذَٰلِكَ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ قُرۡءَانًا عَرَبِيّٗا لِّتُنذِرَ أُمَّ ٱلۡقُرَىٰ وَمَنۡ حَوۡلَهَا وَتُنذِرَ يَوۡمَ ٱلۡجَمۡعِ لَا رَيۡبَ فِيهِۚ فَرِيقٞ فِي ٱلۡجَنَّةِ وَفَرِيقٞ فِي ٱلسَّعِيرِ ۝ 6
(7) हाँ, इसी तरह ऐ नबी ! यह अरबी क़ुरआन हमने तुम्हारी और वह्य किया है,8 ताकि तुम बस्तियों के केन्द्र (मक्का शहर) और उसके आसपास रहनेवालों को ख़बरदार कर दो9 और जमा होने के दिन से डरा दो,10 जिसके आने में कोई सन्देह नहीं। एक गिरोह को जन्‍नत में जाना है और दूसरे गिरोह को दोज़ख़ में।
8. 'अरबी क़ुरआन' कहकर श्रोताओं को सावधान किया गया है कि यह तुम्हारी अपनी भाषा में है। तुम सीधे तौर पर इसे स्वयं समझ सकते हो। इसके विषयों पर विचार करके देखो कि यह पाक-साफ़ और नि:स्वार्थ रहनुमाई क्या जगत के स्वामी के अलावा किसी और की ओर से भी हो सकती है?
9. अर्थात् उन्हें ग़फ़लत से चौंका दो और सचेत कर दो कि चिन्तन और आस्थाओं की जिन गुमराहियों और चरित्र और आचरण की जिन ख़राबियों में तुम लोग पड़े हुए हो, उनका अंजाम तबाही के सिवा कुछ नहीं है।
وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَجَعَلَهُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَلَٰكِن يُدۡخِلُ مَن يَشَآءُ فِي رَحۡمَتِهِۦۚ وَٱلظَّٰلِمُونَ مَا لَهُم مِّن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٍ ۝ 7
(8) अगर अल्लाह चाहता तो इन सबको एक ही उम्मत (समुदाय) बना देता, मगा वह जिसे चाहता है अपनी रहमत में दाख़िल करता है, और ज़ालिमों का न कोई वली (संरक्षक) है, न मददगार।11
11. यह विषय इस वार्ता क्रम में तीन उद्देश्यों के लिए आया है : एक यह कि इसका मकसद नबी (सल्ल०) को शिक्षा देना और तसल्ली देना है। इसमें नबी (सल्ल०) को यह बात समझाई गई है कि आप मक्का के इस्लाम-विरोधियों की अज्ञानता व पथभ्रष्टता और ऊपर से उनके दुराग्रह और हठधर्मी को देख-देखकर इतना ज्यादा न कुढ़ें । अल्लाह की इच्छा यही है कि इंसानों को इख़्तियार और चुनाव की आज़ादी दी जाए। फिर जो हिदायत (मार्गदर्शन) चाहे, उसे हिदायत मिले और जो गुमराह ही होना पसन्द करे ठसे जाने दिया जाए, जिधर वह जाना चाहता है। अगर यह अल्लाह की मस्लहत न होती तो नवियाँ और किताबों के भेजने की ज़रूरत ही क्या थी, इसके लिए तो अल्लाह का एक इशारा काफ़ी था जो पैदा करने के लिए कर देता। सारे इंसान उसी तरह उसके आज्ञापालक होते, जिस तरह नबी, पहाड़, पेड़, मिट्टी, पत्थर और सब जानदार हैं। इस उद्देश्य के लिए यह विषय दूसरी जगहों पर भी क़ुरआन मजीद में बयान हुआ है। (देखिए सूरा-6 अल-अनआम, आयत 35, 36, 107) दूसरा, इसका सम्बोधन उन तमाम लोगों से है जो इस मानसिक उलझन में गिरफ्तार थे और अब भी हैं कि अगर अल्लाह वास्तव में ईसानों की रहनुमाई करना चाहता था और आस्था और कर्म के ये विभेद, जो लोगों में फैले हुए हैं, उसे पसन्द न थे और अगर उसे पसन्द यही था कि लोग ईमान और इस्लाम का रास्ता अपनाएँ, तो इसके लिए आख़िर वह्य (प्रकाशना), किताब और नुबूवत की क्या ज़रूरत थी? यह काम तो वह आसानी से इस तरह कर सकता था कि सबको ईमानवाला और फ़रमाँबरदार पैदा कर देता। इसी उलझन का एक पहलू यह तर्क भी था कि जब अल्लाह ने ऐसा नहीं किया है, तो जरूर वे अलग-अलग तरीके, जिनपर हम चल रहे हैं, उसको पसन्द हैं और हम जो कुछ कर रहे हैं उसी की मर्जी से कर रहे हैं, इसलिए उसपर आपत्ति का किसी को अधिकार नहीं है। (इस भ्रम को दूर करने के लिए भी यह विषय क़ुरआन में कई स्थानों पर बयान किया गया है। देखिाए सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 80, 110, 124, 125; सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 101; सूरा-11 हूद, टिप्पणी 116; सूरा-16 अन-नल, टिप्पणी 10, 30 से 32) तीसरा, इसका मकसद ईमानवालों को उन कठिनाइयों की वास्तविकता समझानी है जो दीन के प्रचार और लोगों के सुधार के रास्ते में प्रायः पेश आती हैं। जो लोग अल्लाह की दी हुई चुनाव व इरादे की आज़ादी और उसकी बुनियाद पर तबीयतों और तरीकों के विभेद की वास्तविकता को नहीं समझते, वे कभी तो सुधार के काम में सुस्त रफ्तारी को देखकर निराश होने लगते हैं और चाहते हैं कि अल्लाह की ओर से कुछ करामर्ते और मौजले (चमत्कार) सामने आएँ ताकि उन्हें देखते ही लोगों के दिल बदल जाएँ और कभी वे ज़रूरत से ज्यादा जोश से काम लेकर सुधार के अनुचित तरीके अपनाने की ओर उन्मुख हो जाते हैं। इस मकसद के लिए भी यह विषय कुछ जगहों पर क़ुरआन मजीद में इर्शाद हुआ है। देखिए [सूरा-13 अर-रजद, आयत 31, सूरा-16 अन-नहल, आयत 91-95] इन उद्देश्यों के लिए एक बड़ा महत्त्वपूर्ण विषय संक्षेप के साथ इन शब्दों में बयान फ़रमाया गया है। दुनिया में अल्लाह की वास्तविक 'खिलाफ़त' (प्रतिनिधित्त्व) और आख़िरत में उसकी जन्नत कोई मामूली रहमत नहीं है, जो मिट्टी और पत्थर और गधों और घोड़ों जैसी चीज़ों पर एक आम रहमत के रूप में बाँट दी जाए। यह तो एक ख़ास रहमत और बहुत ऊँचे दर्जे की रहमत है जिसके लिए फ़रिश्तों तक को योग्य न समझा गया। इसी लिए इंसान को एक इख़्तियार रखनेवाले प्राणी के रूप में पैदा करके अल्लाह ने अपनी ज़मीन के ये विशाल संसाधन उसके इस्तेमाल में दिए और ये हंगामा पैदा करनेवाली ताक़तें उसको प्रदान की, ताकि यह उस परीक्षा से गुज़र सके, जिसमें सफल होकर ही कोई बन्दा उसकी यह ख़ास रहमत पाने के योग्य हो सकता है। यह रहमत अल्लाह की अपनी चीज़ है। इसपर किसी का एकाधिकार नहीं है, न कोई इसे अपनी निजी योग्यता की बुनियाद पर दावे से ले सकता है, न किसी में यह ताक़त है कि इसे ताक़त के बल पर हासिल कर सके। इसे वही ले सकता है जो अल्लाह के सामने बन्दगी पेश करे, उसको अपना वली (सरपरस्त) बनाए और उसका दामन थामे। तब अल्लाह उसकी मदद और रहनुमाई करता है और उसे इस परीक्षा से सकुशल गुज़रने का सौभाग्य प्रदान करता है, ताकि वह उसकी रहमत में दाख़िल हो सके। लेकिन जो ज़ालिम अल्लाह ही से मुँह मोड़ ले और उसके बजाय दूसरों को अपना वली बना बैठे, अल्लाह को कुछ ज़रूरत नहीं पड़ी है कि ख़ामखाह ज़बरदस्ती उसका वली बने और दूसरे जिनको वह वली बनाता है, सिरे से कोई ज्ञान, कोई शक्ति और किसी प्रकार के अधिकार ही नहीं रखते कि उसके वली होने का हक़ अदा करके उसे सफल करा दें।
أَمِ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ أَوۡلِيَآءَۖ فَٱللَّهُ هُوَ ٱلۡوَلِيُّ وَهُوَ يُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 8
(9) क्या ये (नादान हैं कि) इन्होंने उसे छोड़कर दूसरे वली बना रखे हैं ? वली तो अल्लाह ही है, वही मुर्दो को ज़िंदा करता है, और वह हर चीज़ पर सामर्थ्य रखता है।12
12. अर्थात् वली (संरक्षक) बनाना कोई मन समझौते की चीज़ नहीं है कि आप जिसे चाहें, अपना वली बना बैठे और वह यथार्थ में भी आपका सच्चा और असली वली (संरक्षक) बन जाए और वली होने का हक़ अदा कर दे। यह तो एक तथ्य है जो लोगों की इच्छाओं के साथ बनता और बदलता नहीं चला जाता, बल्कि जो वास्तव में वली है, वही बली है, चाहे आप उसे वली न समझें और न मानें और जो वास्तव में वली नहीं है, वह वली नहीं है, चाहे आप मरते दम तक उसे वली समझते और मानते चले जाएँ। अब रहा यह प्रश्न कि सिर्फ़ अल्लाह ही के वास्तविक वली होने और दूसरे किसो के न होने का प्रमाण क्या है? तो इसका उत्तर यह है कि इंसान का वास्तविक वली वहीं हो सकता है जो मौत को जिंदगी में बदल देता है, जिसने बेजान तत्त्वों में जान डालकर जीता-जागता इंसान पैदा किया है, और जो वली होने का हक़ अदा करने का सामर्थ्य और अधिकार भी रखता है। वह अगर अल्लाह के सिवा कोई और हो तो उसे वली बनाओ, और अगर वह सिर्फ अल्लाह ही है, तो फिर उसके सिवा किसी और को अपना वली बना लेना अज्ञानता और मूर्खता और आत्महत्या के सिवा और कुछ नहीं है।
وَمَا ٱخۡتَلَفۡتُمۡ فِيهِ مِن شَيۡءٖ فَحُكۡمُهُۥٓ إِلَى ٱللَّهِۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبِّي عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُ وَإِلَيۡهِ أُنِيبُ ۝ 9
(10) तुम्हारे13 बीच जिस मामले में भी मतभेद हो, उसका फ़ैसला करना अल्लाह का काम है।14 वही अल्लाह15 मेरा रब है, उसी पर मैंने भरोसा किया और उसी की और मैं रुजूम करता हूँ16
13. इस पूरे पैराग्राफ़ के वाक्य यद्यपि अल्लाह की ओर से वह्य (अवतरित) हैं, लेकिन इसमें वार्ता अल्लाह के मुख से नहीं है, बल्कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के मुख से है। मानो सर्वोच्च व महान अल्लाह अपने नबी को हिदायत दे रहा है कि तुम यह एलान करो। इस तरह के विषय क़ुरआन मजीद में कहीं तो ‘कुल’ (ऐ नवी! कहो) से आरंभ होते हैं और कहीं इसके बिना ही शुरू हो जाते हैं। सिर्फ़ वार्ताशैली बता देती है कि यहाँ वार्ता अल्लाह के मुख से नहीं है, बल्कि अल्लाह के रसूल के मुख से है। बल्कि कहीं-कहीं तो वाणी अल्लाह की होती है और बोलनेवाले ईमानवाले होते हैं। जैसे सूरा-1 अल-फ़ातिहा में है, या बोलनेवाले फ़रिश्ते होते हैं, जैसे सूरा-19 मरयम, आयत 64-65 ।
14. यह अल्लाह की सृष्टि का स्वामी और वास्तविक वली (संरक्षक) होने की स्वाभाविक और तार्किक अपेक्षा है। जब बादशाही और विलायत (संरक्षण) उसी की है तो अनिवार्यतः फिर हाकिम भी वही है और इंसानों के आपसी झगड़ों-विवादों का फैसला करना भी उसी का काम है। चाहे इन झगडा-विवादों का सम्बन्ध दुनिया से हो या आख़िरत से, क्योंकि अल्लाह जिस तरह आखिरत का 'मालिकि यौमिदीन' (बदला दिए जाने के दिन का मालिक) है, उसी तरह इस दुनिया का भी अहकमुल हाकिमीन' (सब हाकिमों से बड़ा हाकिम) है, और जिस तरह वह अक़ीदे के (आस्था-सम्बन्धी) विभेदों में यह तय करनेवाला है कि सत्य क्या है, और असत्य क्या, ठीक उसी तरह क़ानूनी हैसियत से भी बही यह तय करनेवाला है कि इंसान के लिए, [सही क्या है और ग़लत क्या। फिर जिस संदर्भ व प्रसंग में यह आयत आई है, उसके अन्दर यह एक और अर्थ भी दे रही है, और वह यह है कि विभेदों का फ़ैसला करना अल्लाह का सिर्फ़ क़ानूनी अधिकार ही नहीं है, बल्कि अल्लाह वास्तव में व्यावहारिक रूप से भी सत्य और असत्य का फ़ैसला कर रहा है, जिसकी वजह से असत्य और उसके पुजारी अन्ततः तबाह होते हैं और सत्य और उसके अनुयायी सरबलन्द किए जाते हैं, चाहे इस फैसले के लागू करने में दुनियावालों को कितनी ही देर होती नजर आती हो। यह विषय आगे आयात 24 में भी आ रहा है और इससे पहले क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर गुजर चुका है। [देखिए, सूरा-13 अर-रबद, आयत 17, 40-41; सूरा-14 इबराहीम, आयत 18, 23 से 27; सूरा-17 बनी इसराईल, आयत 86; सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 18, 44]
فَاطِرُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ جَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ أَزۡوَٰجٗا وَمِنَ ٱلۡأَنۡعَٰمِ أَزۡوَٰجٗا يَذۡرَؤُكُمۡ فِيهِۚ لَيۡسَ كَمِثۡلِهِۦ شَيۡءٞۖ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡبَصِيرُ ۝ 10
(11) आसमानों और जमीन का बनानेवाला, जिसने तुम्हारी अपनी जिंस (जाति) से तुम्हारे लिए जोड़े पैदा किए, और इसी तरह जानवरों में भी (उन्हीं की जिंस के) जोड़े बनाए, और इस तरीक़े से वह तुम्हारी नस्लें फैलाता है। सृष्टि की कोई चीज़ उस जैसी नहीं,17 वह सब कुछ सुनने और देखनेवाला है।18
17. मूल अरबी शब्द हैं 'लै-स कमिस्लिही शैउन' यानी “कोई चीज़ बिल्कुल उसके जैसी नहीं है।" टीकाकारों और भाषाविदों में से कुछ कहते हैं कि इसमें शब्द 'मिस्ल' पर 'क़ाफ़' की बढ़ोत्तरी मुहावरे के तौर पर की गई है, जिससे अभिप्राय सिर्फ बात में ज़ोर पैदा करना होता है। कुछ दूसरे लोगों का कथन यह है कि उस जैसा कोई नहीं कहने के बजाय उसके सदृश कोई नहीं कहने में अतिशयोक्ति है। मुराद यह है कि अगर मान लीजिए कि अल्लाह का कोई मिस्ल होता तो उस जैसा भी कोई न होता, कहाँ यह कि स्वयं अल्लाह जैसा कोई हो।
18. अर्थात् एक ही वक़्त में सारे जगत् में हरएक की सुन रहा है और हर चीज़ को देख रहा है।
لَهُۥ مَقَالِيدُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُۚ إِنَّهُۥ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 11
(12) आसमानों और ज़मीन के ख़ज़ानों की कुंजियाँ उसी के पास हैं, जिसे चाहता है खुली रोज़ी देता है और जिसे चाहता है नपा-तुला देता है। उसे हर चीज़ का ज्ञान है।19
19. ये प्रमाण हैं इस बात के कि केवल अल्लाह ही सच्चा वली (सरपरस्त) क्यों है और क्यों उसी पर भरोसा करना सही है और क्यों उसी की ओर रुजूअ किया जाना चाहिए। (व्याख्या के लिए देखिए [सूरा-27 अन-नम्ल, आयत 60 से 65, टिप्पणियाँ सहित; सूरा-30 अर-रूम, आयत 19 से 27 टिप्पणियाँ सहित])
۞شَرَعَ لَكُم مِّنَ ٱلدِّينِ مَا وَصَّىٰ بِهِۦ نُوحٗا وَٱلَّذِيٓ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ وَمَا وَصَّيۡنَا بِهِۦٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَمُوسَىٰ وَعِيسَىٰٓۖ أَنۡ أَقِيمُواْ ٱلدِّينَ وَلَا تَتَفَرَّقُواْ فِيهِۚ كَبُرَ عَلَى ٱلۡمُشۡرِكِينَ مَا تَدۡعُوهُمۡ إِلَيۡهِۚ ٱللَّهُ يَجۡتَبِيٓ إِلَيۡهِ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِيٓ إِلَيۡهِ مَن يُنِيبُ ۝ 12
(13) उसने तुम्हारे लिए दीन का वही तरीक़ा निश्चित किया है, जिसका हुक्म उसने नूह को दिया था और जिसे (ऐ मुहम्मद!) अब तुम्हारी ओर हमने वह्य के ज़रिये से भेजा है, और जिसकी हिदायत हम इबराहीम और मूसा और ईसा को दे चुके हैं, इस ताकीद के साथ कि स्थापित करो इस दीन को और इसमें अलग-अलग न हो जाओ।20 यही बात इन मुशरिकों को अति अप्रिय लगी है, जिसकी ओर (ऐ मुहम्मद!) तुम इन्हें बुला रहे हो। अल्लाह जिसे चाहता है, अपना कर लेता है और वह अपनी ओर आने का रास्ता उसी को दिखाता है जो उसकी ओर रूजूअ करे।21
20. अर्थात् मुहम्मद (सल्ल०) किसी नए धर्म के संस्थापक नहीं हैं, न नबियों में से कोई अपने किसी अलग धर्म का संस्थापक गुज़रा है, बल्कि अल्लाह की ओर से एक ही दीन (धर्म) है, जिसे शुरू से तमाम नबी पेश करते चले आ रहे हैं और इसी को मुहम्मद (सल्ल०) भी पेश कर रहे हैं। इस सिलसिले में [सिर्फ़ पाँच नबियों का नाम लिया गया है, मगर] इसका मक़सद यह नहीं है कि उन्हीं पाँच नबियों को उस दीन की हिदायत की गई थी। बल्कि असल मक़सद बताना है कि दुनिया में जितने नबी भी आए हैं, सब एक ही दीन (धर्म) लेकर आए हैं और नमूने के तौर पर उन पाँच महान नबियों का नाम ले दिया गया है, जिनसे दुनिया को सबसे ज्यादा मशहूर आसमानी विधि-विधान (शरीअतें) मिले हैं। यह आयत चूँकि दीन और उसके मक़सद पर बड़े महत्‍वपूर्ण रूप से प्रकाश डालती है, इसलिए ज़रूरी है कि इसपर पूरी तरह विचार करके इसे समझा जाए। फ़रमाया कि 'श-र-अलकुम' (मुकर्रर किया तुम्हारे लिए) । शरअ का शाब्दिक अर्थ रास्‍ता बनाना और पारिभाषिक रूप में इसका अर्थ है तरीका और नियम और विधान निर्धारित करना। अरबी भाषा में इसी पारिभाषिक अर्थ की दृष्टि से' तशरीअ' का शब्द क़ानून बनाने का समानार्थी समझा जाता है। यह ईश्वरीय विधि-विधान वास्तव में उन उसूली हक़ीक़तों का स्वाभाविक और तार्किक नतीजा है जो क़ुरआन में जगह-जगह बयान हुई हैं कि अल्लाह ही जगत की हर चीज़ का स्वामी है और वही इंसान का वास्‍तविक वली (सरपरस्त) है और इंसानों के बीच में जिस बात में भी विभेद हो, उसका फ़ैसला करना उसी का काम है। फिर फ़रमाया, मिनद्दीन' (दीन के एक रूप में) शाह वलीयुल्लाह साहब ने इसका अनुबाद ‘अज़आईन' किया है यानी अल्लाह ने जो शरीअत निर्धारित की है, उसकी हैसियत आईन यानी क़ानून की है। वास्तव में दीन के मानी ही किसी की सरदारी और हाकिमियत स्‍वीकार करके उसके हुबमों को मानने के हैं। और जब यह शब्द तरीक़े के अर्थ में बोला जाता है तो इससे मुराद वह तरीक़ा होता है जिसकी पैरवी करना आदमी अनिवार्य समझे और जिसके निर्धारित करनेवाले को मुताअ़ [यानी आज्ञापालन कराने का अधिकारी] माने। इस आधार पर अल्लाह के मुक़र्रर किए हुए. इस तरीके को दीन की हैसियत रखनेवाली शरीयता कहने का स्पष्ट अर्थ यह है कि यह बन्दों के लिए उनके मालिक का वह क़ानून है जिसका अनुपालन अनिवार्य है। इसके बाद इशाद हुआ है कि दीन की हैसियत रखनेवाली यह शरीअत वही है जिसकी हिदायत नूह और इबराहीम और मूसा (अलैहि०) को दी थी और उसी की हिदायत अब मुहम्मद (सल्ल०) को दी गई है। इस इर्शाद से कई बातें निकलती हैं- एक यह कि अल्लाह ने जब उचित समझा है, एक व्यक्ति को अपना रसूल मुकरी करके यह शरीयत उसके हवाले की है। दूसरे यह कि यह शरीअत शुरू ही से एक जैसी रही है। खुदा की और से बहुत-से दीन (धर्म) नहीं आए हैं, बल्कि जब भी आया है, यही एक दीन आया है। तीसरे यह कि अल्लाह की बादशाही और हाक्रिमियत भालने के साथ उन लोगों की रिसालत (पैग़म्‍बरी) को मानना जिनके जरिये से यह शरीअत भेजी गई है और इस वहय (प्रकाशना) को स्वीकार करना जिसमें यह शरीअत बयान की गई है इस दीन का अभिन्न अंग है। इसके बाद फ़रमाया कि इन सब नबियों को दीन की हैसियत रखनेवाली यह शीअल इस हिदायत और ताकीद के साथ दी गई थी कि ‘अक़ीमुद्दीन' । इसका अनुवाद शाह वलीयुल्लाह साहब ‘क़ायम कुनीद दीन रा' (दीन को स्थापित करो) किया है और शाह रफीउद्दीन साहब श्रीर शाह अब्दुल क़ादिर साहब ने 'क़ायम रखी दीन को'। ये दोनों अनुवाद ठीक हैं। 'इक़ामत' का अर्थ क़ायम करने के भी हैं और क़ायम रखने के भी, और नबी (अलैहि०) इन दोनों ही कामों पर लगाए गए थे। अब हमारे सामने दी प्रश्न आते हैं- एक यह कि 'दीन को कायम करने से तात्पर्य क्या है? दूसरे यह कि स्वयं दीन का क्या अर्थ है? क़ायम करने का शब्द जब किसी भौतिक या स्थूल चीज़ के लिए इस्तेमाल होता है, तो इससे तात्‍पर्य बैठे को उठाना या किसी चीज़ के बिखरे हुए अशो की जमा करके बुलन्द करना होता है। लेकिन जो चीज़ें भौतिक नहीं, बल्कि अभौतिक एवं चेतनात्मक होती हैं, उनके लिए जब क़ायम करने का शब्द इस्तेमाल किया जाता है, तो इससे तात्पर्य उस चीज़ का सिर्फ़ प्रचार-प्रसार करना नहीं, बल्कि उसपर जैसा कि हक़ है अमल दरामद करना, उसे रिवाज देना और उसे व्‍यावहारिक रूप से लागू करना होता है। अब दूसरे प्रश्न को लीजिए [अर्थात् यह कि दीन से क्या मुराद है?] क़ुरआन मजीद का जब हम गहराई से अध्ययन करते हैं तो इसमें जिन चीज़ों की गिनती दीन में की गई है, उनमें नीचे लिखी चीज़ें भी हमें मिलती हैं- (1) "और उनको हुक्म नहीं दिया गया, मगर इस बात का कि एकाग्र होकर अपने दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करते हुए उसकी इबादत करें और नमान कायम करें और ज़कात दें, और यहीं सीधे रास्‍ते पर चलनेवाले समुदाय का दीन है।" (सूरा-98 अल- बेयिना, आयत 5) इससे मालूम हुआ कि नमाज़ और ज़कात इस दीन में शामिल हैं, हालांकि इन दोनों के हुक्म विभिन्न शरीअतों में अलग-अलग रहे हैं, लेकिन शरीअतों के अलग-अलग होने के बावजूद अल्लाह इन दोनों चीज़ों को दीन में शुमार कर रहा है। (2) "तुम्हारे लिए हराम (निषिद्ध) किया गया मुरदार और खून और सुअर का मांस और वह जानवर जो अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर ज़िव्ह किया गया हो और वह जो गला घुटकर या चोट-खाकर या ऊँचाई से गिरकर या टक्कर खाकर मरा हो, या जिसे किसी दरिंदे ने फाड़ा हो, सिवाय उसके जिसे तुमने जिंदा पाकर ज़िब्ह कर लिया और वह जो किसी आस्ताने पर जिब्ह किया गया हो। साथ ही यह भी तुम्हारे लिए हराम किया गया कि तुम पांसों के जरिये से अपनी किस्मत मालूम करो। ये सब काम फ़िस्‍क़ (नाफ़रमानी के काम) हैं। आज (इस्लाम के) ईकारियों को तुम्हारे दीन की ओर से निराशा हो चुकी है, इसलिए तुम उनसे न डरो, बल्कि मुझसे डरो। आज मैंने तुम्हारे दीन को तुम्हारे लिए पूर्ण कर दिया......।’’ (सूरा-5 अल-माइदा, आयत 3) इससे मालूम हुआ कि शरीअत के ये सब आदेश भी दीन ही हैं। (3) "युद्ध करो उन लोगों से जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान नहीं लाते और जो कुछ अल्लाह और उसके रसूल ने हराम किया है, उसे हराम नहीं करते और सत्य धर्म को अपना दीन नहीं बनाते।’’ (सूरा-9 अत-तौबा, आयत 29) मालूम हुआ कि अल्लाह और आख़िरत पर ईमान लाने के साथ हलाल व हराम के उन हुक्मों को मानना और उनकी पावन्दी करना भी दौन है जो अल्लाह और उसके रसूल ने दिए हैं। (4) "जिना करनेवाली (व्यभिचारिणी) औरत और मर्द, दोनों में से हर एक को सौ कोड़े मारो और उनपर तरस खाने की भावना अल्लाह के दीन के मामले में तुम्हें न सताए, अगर तुम अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखते हो।’’ (सूरा-24 अन-नूर, आयत 2) "यूसुफ़ अपने भाई को बादशाह के दीन (क़ानून) में पकड़ लेने का अधिकारी न था।" (सूरा-12 यूसुफ, आयत 76) इससे मालूम हुआ कि फौजदारी कानून भी दीन है। अगर आदमी बुदा के फ़ौजदारी क़ानून पर चले, तो वह ख़ुदा के दीन की पैरवी कर रहा है और अगर बादशाह के क़ानून पर चले तो वह बादशाह के दीन की पैरवी कर रहा है। ये चार तो वे नमूने है जिनमे शरीयत के हुक्मो को खुले शब्दो मे दींन कहा गया है।लेकिन इसके अलावा अगर ध्यान से देखा जाए तो मालुम होता हैं कि जिन गुनाहो पर अल्लाह ने जहन्न्म की धमकी दी है। (जैसे ज़िना, सूदख़ोरी, ईमानवाले का क़त्ल, यतीम का माल खाना, अन्यायपूर्ण ढंग से लोगों से माल लेना आदि) और जिन जुर्मों को ख़ुदा के अज़ाब का कारण करार दिया है, (जैसे लूत की क़ौम का अमल अर्थात् पदों का समलैंगिक सम्बन्ध बनाना और लेन-देन में शुऐन की क़ौम का रवैया)। इनकी रोकथाम भी ज़रूरी तौर पर दीन ही में शुमार होनी चाहिए, इसलिए कि दीन अगर जहन्नम और अल्लाह के अज़ाब से बचाने के लिए नहीं आया है तो और किस चीज़ के लिए आया है ? इसी तरह [शरीअत के और भी बहुत-से आदेश हैं जो अपने प्रकार की दृष्टि से बहरहाल दीन ही का हिस्सा क़रार पाते हैं। इस तफ़्सील (विवरण) से मालूम हुआ कि दीन के अर्थ में शरीअत (विधि-विधान) भी शामिल है और दीन कायम करने से मुराद शरीअत की पूरी व्यवस्था को स्थापित करना और उसे लागू करना है।] आयत "हमने तुममें से हर समुदाय के लिए एक शरीअत और एक राह निश्चित कर दी," [से यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि शरीअत चूँकि हर समुदाय के लिए अलग थी और आदेश सिर्फ उस दीन के क़ायम करने का दिया गया है जो तमाम नबियों के दर्मियान संयुक्त था, इसलिए 'इक़ामते-दीन' के हुक्म में 'इकामते-शरीअत' शामिल नहीं है। [इस आयत को इसके संदर्भ के साथ] अगर कोई व्यक्ति ध्यानपूर्वक पढ़े तो मालूम होगा कि इस आयत का सही अर्थ यह है कि जिस नबी की उम्मत को जो शरीअत भी अल्लाह ने दी थी, वह उस उम्मत के लिए दीन थी और उसकी नुबूवत के दौर में उसी को क़ायम करना बांछनीय था। और अब चूँकि हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) नुबूवत का दौर है, इसलिए मुहम्मद (सल्ल०) की उम्मत जो शरीअत दी गई है, वह इस दौर के लिए दीन है और उसका क़ायम करना ही दीन का क़ायम करना है। रहा इन शरीअतों का विभेद, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि ख़ुदा की भेजी हुई शरीअतें आपस में टकरा रही थीं, बल्कि इसका अर्थ यह है कि उनकी गौण बातों और विवरणों में हालात के लिहाज़ से कुछ अन्तर रहा है। मिसाल के तौर पर नमाज़ और रोज़े को देखिए। नमाज़ तमाम शरीअतों में फ़र्ज़ रही है, मगर क़िब्ला सारी शरीअतों का एक न था और इसके वक़्त और रक्अतें और अंशों में भी फ़र्क था। इसी तरह रोज़ा हर शरीअत में फ़र्ज़ था, मगर रमज़ान के 30 रोज़े दूसरी शरीअतों में न थे। इससे यह नतीजा निकालना सही नहीं है कि सिर्फ नमाज और रोजा तो 'इकामते दीन में शामिल हैं, मगर एक ख़ास तरीक़े से नमाज़ पढ़ना और खास ज़माने में रोजा रखना इकामते-दीन' से अलग है, बल्कि इससे सही तौर पर जो नतीजा निकलता है, वह यह है कि हर नबी की उम्मत के लिए उस वक़्त की शरीअत में नमाज़ और रोजे के लिए जो कायदे मुकर्रर किए गए थे, उन्हीं के अनुसार उस ज़माने में नमाज़ पढ़ना और रोज़ा रखना दीन कायम करना था, और अब इक्रामते-दीन यह है कि इन इबादतों के लिए मुहम्मद (सल्ल०) की शरीअत में जो तरीक़ा रखा गया है, उनके अनुसार उन्हें अदा किया जाए। इन्हीं दो मिसालों पर शरीअत के दूसरे तमाम हुक्मों का अन्दाज़ा कर लीजिए। 'इक़ामते-दीन' का आदेश देने के बाद आखिर में फ़रमाया, "इसके अन्दर अलग-अलग न हो जाओ।" दीन में अलग-अलग होने से तात्पर्य यह है कि आदमी दीन के अन्दर अपनी ओर से कोई निराली बात ऐसी निकाले जिसकी कोई उचित गुंजाइश उसमें न हो और आग्रह करे कि उसकी निकाली हुई बात के मानने ही पर कुफ्र व ईमान निर्भर है, फिर जो माननेवाले हों, उन्हें लेकर न माननेवालों से अलग हो जाए। [इस विषय पर विस्तृत वार्ता के लिए देखिए सूरा-2 बकरा, आयत 213; सूरा-3 आले-इमरान, आयत 78, 19, 51; सूरा-4 अन-निसा, आयत 170, 171; सूरा-5 अल-माइदा, आयत 77; सूरा-6 अल-अनआम, आयत 159; सूरा-16 अन-नहल, आयत 116-124; सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 92-97; सूरा-22 अल-हज, आयत 67, 68; सूरा-23 अल-मोमिनून, आयत 51 से 53; सूरा-28 अल-क़सस, आयत 52,53; सूरा-30 अर-रूम, आयत 30 से 32 टिप्पणियाँ सहित]
21. अर्थ यह है कि तुम इन लोगों के सामने दीन का स्पष्ट राजमार्ग पेश कर रहे हो और ये नासमझ इस नेमत का मूल्य समझने के बजाय उलटे इसपर बिगड़ रहे हैं। मगर इन्हीं के बीच इन्हीं की कौम वे लोग मौजूद हैं जो अल्लाह की ओर रुजूम कर रहे हैं। अब यह अपना-अपना भाग्य है कि कोई या नियत को पाए और कोई इससे नफ़रत, दुश्मनी करे। मगर अल्लाह की बाँट अंधी बाँट नहीं है। वह उसी को अपनी ओर खींचता है, जो उसकी ओर बढ़े।
وَمَا تَفَرَّقُوٓاْ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَهُمُ ٱلۡعِلۡمُ بَغۡيَۢا بَيۡنَهُمۡۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةٞ سَبَقَتۡ مِن رَّبِّكَ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى لَّقُضِيَ بَيۡنَهُمۡۚ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ أُورِثُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡ لَفِي شَكّٖ مِّنۡهُ مُرِيبٖ ۝ 13
(14) लोगों में जो विभेद पैदा हुआ, वह इसके बाद हुआ कि उनके पास ज्ञान या चुका था,22 और इस कारण हुआ कि वे आपस में एक-दूसरे पर ज्यादती करना चाहते थे।23 अगर तेरा रब पहले ही यह न फ़रमा चुका होता कि एक निश्चित समय तक फ़ैसला स्थगित रखा जाएगा, तो उनका झगड़ा चुका दिया गया होता।24 और वास्तविकता यह है कि अगलों के बाद जो लोग किताब के वारिस बनाए गए, वे उसकी ओर से बड़े विकलताजनक सन्देह में पड़े हुए हैं।25
22. अर्थात् यह विभेद उनमें अल्लाह की ओर से ज्ञान आ जाने के बाद पैदा हुआ। इसलिए वे लोग ख़ुद इसके ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने दीन के साफ़-साफ़ नियम और शरीअत के रमष्ट आदेश से हटकर नए-नए धर्म और पंथ बनाए।
23. अर्थात् इस विभेद पैदा करने की प्रेरणा किसी अच्छी भावना से नहीं मिली थी, बल्कि ये अपनी निराली उपज दिखाने की इच्छा, अपना अलग झंडा बुलन्द करने की चिन्ता, आपस की ज़िद्दम-ज़िद्दा, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश और धन और वैभव की तलब का नतीजा थी। यही वह मूल कारण था जो नए-नए अक़ीदे (धारणाओं) और दर्शनी, इबादत के नए नए तरीक़े और मजहबी उम्मी, और ज़िंदगी की नई-नई व्यवस्था ईजाद करने का कारण बना और इसी न ख़ुदा के बन्दों के एक बड़े हिस्से को दीन के स्‍पष्‍ट राजमार्ग से हटाकर अलग-अलग राहों पर डाल दिया।
فَلِذَٰلِكَ فَٱدۡعُۖ وَٱسۡتَقِمۡ كَمَآ أُمِرۡتَۖ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡۖ وَقُلۡ ءَامَنتُ بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ مِن كِتَٰبٖۖ وَأُمِرۡتُ لِأَعۡدِلَ بَيۡنَكُمُۖ ٱللَّهُ رَبُّنَا وَرَبُّكُمۡۖ لَنَآ أَعۡمَٰلُنَا وَلَكُمۡ أَعۡمَٰلُكُمۡۖ لَا حُجَّةَ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمُۖ ٱللَّهُ يَجۡمَعُ بَيۡنَنَاۖ وَإِلَيۡهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 14
(15) (चूकि यह हालत पैदा हो चुकी है,) इसलिए ऐ नबी! अब तुम उस दीन की ओर बुलाओ, और जिस तरह तुम्हें आदेश दिया गया है, उसी पर मज़बूती के साथ क़ायम हो जाओ, और इन लोगों की इच्छाओं का पालन न करो,26 और इनसे कह दो कि “अल्लाह ने जो किताब भी उतारी है, मैं उसपर ईमान लाया।27 मुझे हुक्म दिया गया है कि मैं तुम्हारे बीच न्याय करूँ।28 अल्लाह ही हमारा रब भी है और तुम्हारा रब भी। हमारे कर्म हमारे लिए हैं और तुम्हारे कर्म तुम्हारे लिए।" हमारे और तुम्हारे बीच कोई झगड़ा नहीं।30 अल्लाह एक दिन हम सबको जमा करेगा और उसी की ओर सबको जाना है।"
26. अर्थात् उनको राज़ी करने के लिए इस दीन के अन्दर कोई परिवर्तन और कमी-बेशी न करो। कुछ लो और कुछ दो' के उसूल पर इन गुमराह लोगों से कोई समझौता न करो। इनके अंधविश्वासों, तास्सुबों (पक्षपातों) और अज्ञानतापूर्ण तौर-तरीक़ों के लिए दीन में कोई गुंजाइश केवल इस लालच में आकर न निकालो कि किसी न किसी तरह ये इस्लाम के दायरे में आ जाएँ।
27. दूसरे शब्दों में, इन विभेद डालनेवाले लोगों की तरह नहीं हूँ, जो ख़ुदा की भेजी हुई कुछ किताबों को मानते हैं और कुछ को नहीं मानते। मैं हर उस किताब को मानता हूँ जिसे ख़ुदा ने भेजा है।
وَٱلَّذِينَ يُحَآجُّونَ فِي ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مَا ٱسۡتُجِيبَ لَهُۥ حُجَّتُهُمۡ دَاحِضَةٌ عِندَ رَبِّهِمۡ وَعَلَيۡهِمۡ غَضَبٞ وَلَهُمۡ عَذَابٞ شَدِيدٌ ۝ 15
(16) अल्लाह की पुकार को आगे बढ़कर स्वीकार कर लेने के बाद जो लोग (स्वीकार करनेवालों से) अल्लाह के मामले में झगड़ते हैं,31 उनका वाद-विवाद उनके रब के नज़दीक असत्य है, और उनपर उसका प्रकोप है और उनके लिए सख्त अज़ाब है।
31. यह संकेत है उस परिस्थिति की ओर जो मक्का में उस समय आए दिन पेश आ रही थी। जहाँ किसी के बारे में लोगों को मालूम हो जाता कि वह मुसलमान हो गया है, हाथ धोकर उसके पीछे पड़ जाते, मुद्दतों उसकी जान मुसीबत में डाले रखते, न घर में उसे चैन लेने दिया जाता, न मुहल्ले और बिरादरी में। जहाँ भी वह जाता, एक न समाप्त होनेवाली बहस छिड़ जाती, जिसका मकसद यह होता कि किसी तरह वह मुहम्मद (सल्ल०) का साथ छोड़कर उसी गुमराही और अज्ञानता में पलट आए जिससे वह निकला है।
ٱللَّهُ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ وَٱلۡمِيزَانَۗ وَمَا يُدۡرِيكَ لَعَلَّ ٱلسَّاعَةَ قَرِيبٞ ۝ 16
(17) वह अल्लाह ही है जिसने सत्य के साथ किताब और मीज़ान (तराज़ू) उतारी है।32 और तुम्हें क्या ख़बर, शायद कि फैसले की घड़ी क़रीब ही आ लगी हो।33
32. मीज़ान से तात्पर्य अल्लाह की शरीअत है जो तराज़ू की तरह तौलकर सही और ग़लत, सत्य और असत्य अन्याय और न्याय, सच और झूठ का अन्तर स्पष्ट कर देती है। ऊपर नबी (सल्ल०) के मुख से यह कहलवाया गया था कि "मुझे आदेश दिया गया है कि तुम्हारे बीच न्याय करूँ।" यहाँ बता दिया गया है कि इस पवित्र किताब के साथ वह मीज़ान आ गई है जिसके द्वारा यह न्याय स्थापित किया जाएगा।
33. अर्थात् जिसको सीधा होना है, बिना देर किए सीधा हो जाए। फैसले की घड़ी को दूर समझकर टालना नहीं चाहिए। एक साँस के बारे में भी आदमी यक़ीन के साथ नहीं कह सकता कि उसके बाद दूसरी साँस की मोहलत उसे ज़रूर ही मिल जाएगी। हर साँस आख़िरी साँस हो सकती है।
يَسۡتَعۡجِلُ بِهَا ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِهَاۖ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مُشۡفِقُونَ مِنۡهَا وَيَعۡلَمُونَ أَنَّهَا ٱلۡحَقُّۗ أَلَآ إِنَّ ٱلَّذِينَ يُمَارُونَ فِي ٱلسَّاعَةِ لَفِي ضَلَٰلِۭ بَعِيدٍ ۝ 17
(18) जो लोग उसके आने पर ईमान नहीं रखते, वे तो उसके लिए जल्दी मचाते हैं, मगर जो उसपर ईमान रखते हैं, वे उससे डरते हैं और जानते हैं कि निश्चय ही वह आनेवाली है। ख़ूब सुन लो, जो लोग उस घड़ी के आने में सन्देह डालनेवाली बहसें करते हैं, वे गुमराही में बहुत दूर निकल गए हैं।
ٱللَّهُ لَطِيفُۢ بِعِبَادِهِۦ يَرۡزُقُ مَن يَشَآءُۖ وَهُوَ ٱلۡقَوِيُّ ٱلۡعَزِيزُ ۝ 18
(19) अल्लाह अपने बन्दों पर बहुत मेहरबान है।34 जिसे जो कुछ चाहता है देता है,35 और वह बड़ी शक्तिवाला और प्रभुत्त्वशाली है।36
34. मूल में अरबी शब्द 'लतीफ़' प्रयुक्त हुआ है, जिसका पूरा अर्थ शब्द 'मेहरबान' से अदा नहीं होता। इस शब्द में दो अर्थ शामिल हैं। एक यह कि अल्लाह अपने बन्दों से बड़ा स्नेह करता है और मेहरबान है। दूसरा यह कि वह बड़ी बारीकी के साथ उनकी अति सूक्ष्म ज़रूरतों पर भी नज़र रखता है। यहाँ बन्दों से तात्पर्य सिर्फ़ ईमानवाले नहीं, बल्कि तमाम बन्दे हैं, अर्थात् अल्लाह की यह 'कृपा' उसके सब बन्दों पर आम है।
35. अर्थ यह है कि इस सार्वजनिक 'कृपा ' का तक़ाज़ा यह नहीं है कि सब बन्दों को सब कुछ बराबर-बराबर दे दिया जाए। [इसके विपरीत उसने] किसी को कोई चीज़ दी है तो किसी दूसरे को कोई और चीज़। किसी को एक चीज़ ज़्यादा दी है और किसी को कोई दूसरी चीज़।
مَن كَانَ يُرِيدُ حَرۡثَ ٱلۡأٓخِرَةِ نَزِدۡ لَهُۥ فِي حَرۡثِهِۦۖ وَمَن كَانَ يُرِيدُ حَرۡثَ ٱلدُّنۡيَا نُؤۡتِهِۦ مِنۡهَا وَمَا لَهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِن نَّصِيبٍ ۝ 19
(20) जो कोई आख़िरत की खेती चाहता है, उसकी खेती को हम बढ़ाते हैं और जो दुनिया की खेती चाहता है, उसे दुनिया ही में से देते हैं, मगर आख़िरत में उसका कोई भाग नहीं है।37
37. पिछली आयत में दो वास्‍तविकताएँ बयान की गई थी, जिन्‍हें हम हर समय, हर ओर देख रहे हैं। एक यह कि तमाम बन्‍दों पर सामान्‍य रूप से अल्‍लाह की कृपा है। दूसरे यह कि उसकी देन और बख्श़िश और रोज़ी पहुँचना सबके लिए बराबर नहीं है, बल्कि उसमें अन्तर और कमी-बेशी पाई जाती है। अब इस आयत में बताया जा रहा है कि इस कृपा और रोज़ी पहुँचाने में आंशिक अन्तर तो बहुत हैं, मगर एक बहुत बड़ा सैद्धान्तिक अन्तर भी है, और वह यह कि आख़िरत के चाहनेवालों के लिए एक तरह की रोज़ी है और दुनिया के चाहनेवाले के लिए दूसरी तरह की रोज़ी। यह एक बड़ी महत्त्वपूर्ण वास्तविकता है जिसे इन संक्षिप्त शब्दों में बयान किया गया है। ज़रूरत है कि इसे सविस्तार समझ लिया जाए, क्योंकि यह हर इंसान को अपनी नीति निर्धारित करने में मदद देती है। आख़िरत और दुनिया, दोनों के लिए कोशिशें और अमल करनेवालों को इस आयत में किसान से उपमा दी गई है जो ज़मीन तैयार करने से लेकर फ़सल के तैयार होने तक बराबर मेहनत करता है और उसी में अपनी जान लगा देता है। और ये सारी मेहनतें इस मक़सद से करता है कि अपनी खेती में जो बीज वह बो रहा है, उसकी फ़सल काटे और उसके फल से लाभ उठाए। लेकिन नीयत और मक़सद के अन्तर और बहुत बड़ी हद तक कार्य-नीति के अन्तर से भी, आख़िरत की खेती बोनेवाले किसान और दुनिया की खेती बोनेवाले किसान के बीच बहुत बड़ा अन्तर पैदा हो जाता है, इसलिए दोनों की मेहनतों के नतीजे और फल भी अल्लाह ने अलग-अलग रखे हैं, हालाँकि दोनों के काम करने की जगह यही ज़मीन है। आख़िरत की खेती बोनेवाले के बारे में अल्लाह ने यह नहीं फ़रमाया कि दुनिया उसे नहीं मिलेगी। दुनिया तो कम या ज़्यादा बहरहाल उसको मिलनी ही है, क्योंकि यहाँ सर्वोच्च एवं महान अल्लाह की आम (सार्वजनिक) कृपा में उसका भी हिस्सा है और रोज़ी अच्छे और बुरे सभी को यहाँ मिल रही है। लेकिन अल्लाह ने उसे ख़ुशख़बरी दुनिया मिलने की नहीं, बल्कि इस बात की सुनाई है कि उसकी आख़िरत की खेती बढ़ाई जाएगी, क्योंकि उसी का वह इच्छुक है और उसी के अंजाम की उसे चिन्ता लगी हुई है। इस खेती के बढ़ाए जाने की बहुत-सी शक्लें हैं, जैसे, जितनी ज़्यादा अच्छी नीयत और इरादे के साथ वह आख़िरत के लिए भले कर्म करता जाएगा उसे और ज़्यादा भले कर्म का सुअवसर दिया जाएगा, और उसका सीना भलाइयों के लिए खोल दिया जाएगा। पवित्र उद्देश्य के लिए पवित्र साधन इख़्तियार करने का जब वह संकल्प कर लेगा, तो उसके लिए पवित्र साधनों ही में बरकत (बढ़ोत्तरी) दी जाएगी और अल्लाह इसकी नौबत न आने देगा कि उसके लिए भलाई के सारे दरवाज़े बंद होकर सिर्फ़ बुराई ही के दरवाज़े खुले रह जाएँ। और सबसे ज़्यादा यह कि दुनिया में उसकी थोड़ी नेकी भी आखिरत में कम से कम दस गुनी तो बढ़ा ही दी जाएगी और अधिक की कोई सीमा नहीं है। हज़ारों-लाखों गुनी भी अल्लाह, जिसके लिए चाहेगा, बढ़ा देगा। रहा दुनिया को खेती बोनेवाला अर्थात् वह व्यक्ति जो आख़िरत नहीं चाहता और सब कुछ दुनिया ही के लिए करता है, उसे अल्लाह ने उसकी मेहनत के दो नतीजे साफ़-साफ़ सुना दिए हैं। एक यह कि चाहे वह कितना ही सिर मारे, जितनी दुनिया वह प्राप्त करना चाहता है, वह पूरी की पूरी उसे नहीं मिल जाएगी, बल्कि उसका एक हिस्सा ही मिलेगा, जितना अल्लाह ने उसके लिए निश्चित कर दिया है। दूसरे यह कि उसे जो कुछ मिलना है, बस दुनिया ही में मिल जाएगा, आख़िरत की भलाइयों में उसका कोई हिस्सा नहीं है।
أَمۡ لَهُمۡ شُرَكَٰٓؤُاْ شَرَعُواْ لَهُم مِّنَ ٱلدِّينِ مَا لَمۡ يَأۡذَنۢ بِهِ ٱللَّهُۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةُ ٱلۡفَصۡلِ لَقُضِيَ بَيۡنَهُمۡۗ وَإِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 20
(21) क्या ये लोग अल्लाह के कुछ ऐसे साझीदार रखते हैं जिन्होंने इनके लिए दीन की तरह का एक ऐसा तरीक़ा निश्चित कर दिया है, जिसकी अल्लाह ने अनुमति नहीं दी?38 अगर फ़ैसले की न हो गई होती तो इनका झगड़ा चुका दिया गया होता।39 निश्चय ही इन ज़ालिमों के लिए दर्दनाक अज़ाब है।
38. इस आयत में साझीदार से तात्पर्य स्पष्ट है वे साझीदार नहीं हैं जिनसे लोग दुआएँ माँगते हैं, या जिनकी नज़्र व नियाज़ चढ़ाते हैं या जिनके आगे पूजा-पाठ की रस्में अदा करते हैं, बल्कि निश्चित रूप से इनसे मुराद वे इंसान हैं, जिनको लोगों ने (ईश्वरीय) आदेश में साझीदार ठहरा लिया है, जिनको सिखाई हुई विचारधाराएँ और आस्थाएँ, मतों और दर्शनों पर लोग ईमान लाते हैं, जिनके दिए हुए मूल्यों को मानते हैं, जिनके पेश किए हुए नैतिक सिद्धान्तों और संस्कृति और सभ्यता के मानदंडों को क़बूल करते हैं, जिनके निर्धारित किए हुए क़ानूनों, तरीक़ों और नियमों को अपनी धार्मिक रस्मों और इबादतों में, अपने निजी जीवन में, अपने रहन-सहन में, अपने नागरिक जीवन में, अपने कारोबार और लेन-देन में, अपनी अदालतों में और अपनी राजनीति और हुकूमत में इस तरह अपनाते और लागू करते हैं कि जैसे यही वह शरीअत है जिसकी पैरवी उनको करनी चाहिए। [यह अल्लाह के दीन के मुकाबले में पूरे का पूरा एक दीन है, और यह वैसा ही शिर्क है जैसा ख़ुदा के अलावा किसी को सज्दा करना और ख़ुदा के अलावा किसी से दुआएँ माँगना शिर्क है। और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, [(सूरा-2 अल-बकरा, आयत 172, 256; सूरा-3 आले-इमरान, आयत 64; सूरा-4 अन-निसा, आयत 60; सूरा-5 अल-माइदा, आयत 1, 87: सूरा-6 अल-अनआम, आयत 118 से 121, 136 से 137; सूरा-9 अत-तौबा, आयत 31; सूरा-10 यूनुस, आयत 59; सूरा-14 इबराहीम, आयत 22; सूरा-16 अन-नहल, आयत 114 से 116; सूरा-18 अल-कहफ़, आयत 52; सूरा-19 मरयम आयत 42 से 44; सूरा-28 अल-कसस, आयत 62 से 63; सूरा-34 अस सबा, आयत 41; सूरा-36 या-सीन, आयत 60 टिप्पणियाँ सहित।)]
39. अर्थात् अल्लाह के मुकाबले में यह ऐसा सख्त दुस्साहस है कि अगर फैसला कियामत पर न उठा रखा गया होता, तो दुनिया में हर उस व्यक्ति पर अज़ाब भेज दिया जाता जिसने अल्लाह का बन्दा होते हुए अल्लाह की ज़मीन पर स्वयं अपना दीन जारी किया। और वे सब लोग भी तबाह कर दिए जाते, जिन्होंने, अल्लाह के दीन को छोड़कर, दूसरों के बनाए हुए दीन को स्वीकार किया।
تَرَى ٱلظَّٰلِمِينَ مُشۡفِقِينَ مِمَّا كَسَبُواْ وَهُوَ وَاقِعُۢ بِهِمۡۗ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فِي رَوۡضَاتِ ٱلۡجَنَّاتِۖ لَهُم مَّا يَشَآءُونَ عِندَ رَبِّهِمۡۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَضۡلُ ٱلۡكَبِيرُ ۝ 21
(22) तुम देखोगे कि ये ज़ालिम उस वक़्त अपने किए के अंजाम से डर रहे होंगे और वह उनपर आकर रहेगा। इसके विपरीत जो लोग ईमान ले आए हैं और जिन्होंने भले कर्म किए हैं वे जन्नत के बागों में होंगे। जो कुछ भी वे चाहेंगे, अपने रब के यहाँ पाएँगे। यही बड़ा अनुग्रह है।
ذَٰلِكَ ٱلَّذِي يُبَشِّرُ ٱللَّهُ عِبَادَهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِۗ قُل لَّآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ أَجۡرًا إِلَّا ٱلۡمَوَدَّةَ فِي ٱلۡقُرۡبَىٰۗ وَمَن يَقۡتَرِفۡ حَسَنَةٗ نَّزِدۡ لَهُۥ فِيهَا حُسۡنًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ شَكُورٌ ۝ 22
(23) यह है वह चीज़ जिसकी खुशखबरी अल्लाह अपने उन बन्दों को देता है, जिन्होंने मान लिया और भले कर्म किए। ऐ नबी ! इन लोगों से कह दो कि में इस काम पर तुमसे कोई बदला नहीं चाहता हूँ।40 अलबत्ता 'क़राबत' (समीपता) की मुहब्बत ज़रूर चाहता हूँ।41 जो कोई भलाई कमाएगा, हम उसके लिए उस भलाई में ख़ूबी की बढ़ोत्तरी कर देंगे। निस्सन्देह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और गुणग्राहक है।42
40. 'इस काम' से तात्पर्य वह कोशिश है जो नबी (सल्ल०) लोगों को अल्लाह के अजाब से बचाने और जन्नत की खुशखबरी का हक़दार बनाने के लिए कर रहे थे।
41. मूल अरबी शब्द है इल्लल मुव्द्द-त फ़िलक़ुर्बा' अर्थात् मैं तुमसे कोई बदला नहीं चाहता, मगर क़ुर्बा' की मुहब्बत ज़रूर चाहता हूँ। इस शब्द 'कुर्बा' में टीकाकारों के बीच बड़ा मतभेद पैदा हो गया है। एक गिरोह ने इसको 'क़राबत' अर्थात् रिश्तेदारी के अर्थ में लिया है और आयत का अर्थ यह बयान किया गया है कि "मैं तुमसे इस काम का कोई बदला नहीं माँगता, मगर यह ज़रूर चाहता हूँ कि तुम लोग (अर्थात् क़ुरैशवाले) कम से कम उस रिश्तेदारी का तो लिहाज़ करो जो मेरे और तुम्हारे बीच है। यह क्‍या सितम है कि सबसे बढ़कर तुम ही मेरी दुश्मनी पर तुल गए हो।" दूसरा गिरोह 'क़ुर्बा' को क़ुर्ब और तक़र्रुब (क़रीब होने) के अर्थ में लेता है और आयत का अर्थ यह बताता है कि "मैं तुमसे इस काम पर कोई बदला इसके सिवा नहीं चाहता कि तुम्हारे अन्दर अल्लाह से क़रीब होने की चाहत पैदा हो जाए।" अर्थात् तुम ठीक हो जाओ, बस यही मेरा बदला है। तीसरा गिरोह 'क़ुर्बा' को रिश्तेदारों के अर्थ में लेता है और आयत का अर्थ यह बयान करता है कि "मैं तुमसे इस काम पर कोई बदला इसके सिवा नहीं चाहता कि तुम मेरे रिश्तेदारों से मुहब्बत करो।" फिर इस गिरोह के कुछ लोग 'रिश्तेदारों से तात्पर्य अब्दुल मुत्तलिब का पूरा कुटुम्ब समझते हैं और कुछ इसे केवल हज़रत अली और फ़ातिमा (रजि०) और उनकी सन्तान तक सीमित रखते हैं। लेकिन कई कारणों से यह टीका किसी तरह भी स्वीकार्य नहीं हो सकती । एक तो जिस समय मक्का मुअज्जमा में सूरा शूरा उतरी है, उस समय हज़रत अली और फ़ातिमा (रज़ि०) की शादी तक नहीं हुई थी, सन्तान का क्या प्रश्न और अब्दुल मुत्तलिब के कुटुम्ब में सब के सब नबी (सल्ल०) का साथ नहीं दे रहे थे, बल्कि उनमें से कुछ खुल्लम-खुल्ला दुश्मनों के साथी थे, और अबू लहब की दुश्मनी को तो सारी दुनिया जानती है। दूसरे, नबी (सल्ल०) के रिश्तेदार सिर्फ़ अब्दुल मुत्तलिब के कुटुम्ब ही न थे। आप (सल्ल०) की आदरणीय माँ, आप (सल्ल०) के आदरणीय पिता और आप (सल्ल०) की बीवी हज़रत ख़दीजा के वास्ते से क़ुरैश के तमाम घरानों में आपकी रिश्तेदारियाँ थीं। इन सब घरानों में आप (सल्ल०) के बेहतरीन समर्थक भी थे और अत्यन्त बुरे दुश्मन भी। आख़िर नबी (सल्ल०) के लिए यह कैसे सम्भव था कि इन सब रिश्तेदारों में से आप (सल्ल०) सिर्फ़ अब्दुल मुत्तलिब के कुटुम्ब को अपना रिश्तेदार क़रार देकर मुहब्बत की इस मांग को उन्हीं के लिए खास रखते। तीसरी बात जो इन सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है, वह यह है कि एक नबी जिस उच्च स्थान पर खड़ा होकर अल्लाह की ओर बुलाने की पुकार बलन्द करता है, उस स्थान से इस बड़े काम पर यह बदला माँगना कि तुम मेरे रिश्तेदारों से मुहब्बत करो, इतनी गिरी हुई बात है कि कोई अच्छी रुचि और स्वभाव रखनेवाला व्यक्ति इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता कि अल्लाह ने अपने नबी को यह बात सिखाई होगी और नबी ने क़ुरैश के लोगों में खड़े होकर यह बात कही होगी। फिर यह बात और भी अधिक बे-मौका नज़र आती है, जब हम देखते हैं कि इस वाणी का सम्बोधन ईमानवालों से नहीं, बल्कि इंकार करनेवालों से है। ऊपर से सारी वार्ता उन्हीं को सम्बोधित करते हुए होती चली आ रही है और आगे भी वार्ता उन्हें ही सम्बोधित करके की गई है। इस वार्ताक्रम में विरोधियों से किसी प्रकार का बदला चाहने का आख़िर सवाल ही कहाँ पैदा होता है। बदला तो उन लोगों से मांगा जाता है, जिनकी दृष्टि में उस काम का कोई मूल्य हो जो किसी व्यक्ति ने उनके लिए अंजाम दिया हो। इस्लाम का इंकार करनेवाले नबी (सल्ल०) के इस काम को कैसा महत्त्व दे रहे थे कि आप (सल्ल०) उनसे यह बात फ़रमाते कि यह सेवा जो मैंने तुम्हारी अंजाम दी है, इसपर तुम मेरे रिश्तेदारों से मुहब्बत करना। वे तो उलटा उसे अपराध समझ रहे थे और उसके आधार पर आप (सल्ल०) की जान के पीछे पड़े हुए थे।
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗاۖ فَإِن يَشَإِ ٱللَّهُ يَخۡتِمۡ عَلَىٰ قَلۡبِكَۗ وَيَمۡحُ ٱللَّهُ ٱلۡبَٰطِلَ وَيُحِقُّ ٱلۡحَقَّ بِكَلِمَٰتِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 23
(24) क्या ये लोग कहते हैं कि इस व्यक्ति ने अल्लाह पर झूठा आरोप गढ़ लिया है?43 अगर अल्लाह चाहे तो तुम्हारे दिल पर मुहर कर दे।44 वह असत्य को मिटा देता है और सत्य को अपने फ़रमानों से सत्य कर दिखाता है।45 वह सीनों के छिपे हुए रहस्य जानता है।46
43. अर्थ यह है कि ऐ नबी ! क्या ये लोग इतने दुस्साहसी और निडर हैं कि तुम जैसे व्यक्ति पर झूठ और वह भी अल्लाह पर बोहतान जैसे घिनौने आरोप रखते हुए इन्हें तनिक भी शर्म नहीं आती? ये तुमपर तोहमत लगाते हैं कि तुम इस कुरआन को ख़ुद गढ़ करके झूठ-मूट अल्लाह से जोड़ देते हो?
44. अर्थात् इतने बड़े झूठ केवल वही लोग बोला करते हैं, जिनके दिलों पर मोहर लगी हुई है। अगर अल्लाह चाहे तो तुम्हें भी उनमें शामिल कर दे, मगर उसकी यह मेहरबानी है कि उसने तुम्हें इस गिरोह से अलग रखा है। इस उत्तर में उन लोगों पर सख्त व्यंग्य है जो नबी (सल्ल०) पर यह आरोप रख रहे थे। अर्थ यह है कि ऐ नबी ! इन लोगों ने तुम्हें भी अपने ही गुण एवं आचार का आदमी समझ लिया है। जिस तरह ये स्वयं अपने हित के लिए हर बड़े से बड़ा झूठ बोल जाते हैं, उन्होंने सोचा कि तुम भी उसी तरह अपनी दुकान चमकाने के लिए एक झूठ गढ़ लाए हो, लेकिन यह अल्लाह की कृपा है कि उसने तुम्हारे दिल पर वह मोहर नहीं लगाई है, जो इनके दिलों पर लगा रखी है।
وَهُوَ ٱلَّذِي يَقۡبَلُ ٱلتَّوۡبَةَ عَنۡ عِبَادِهِۦ وَيَعۡفُواْ عَنِ ٱلسَّيِّـَٔاتِ وَيَعۡلَمُ مَا تَفۡعَلُونَ ۝ 24
(25) वही है जो अपने बन्दों से तौबा क़बूल करता है और बुराइयों को माफ़ करता है, हालाँकि तुम लोगों के सब कामों का उसे ज्ञान है।47
47. पिछली आयत के तुरन्त बाद तौबा पर उभारने से अपने आप यह बात सामने आती है कि ज़ालिमो! अब भी अपनी इन हरकतों से रुक जाओ और तौबा कर लो तो अल्लाह माफ़ कर देगा। तौबा का अर्थ यह है कि आदमी अपने किए पर शर्मिन्दा हो, जो बुराई उसने की हो या करता रहा हो, उससे रुक जाए और आगे उसे न करे। लेकिन कोई तौबा उस वक्त तक वास्तविक तौबा नहीं है, जब तक कि वह अल्लाह को राज़ी करने की नीयत से न हो। किसी दूसरी वजह या मक़सद से किसी बुरे काम को छोड़ देना सिरे से तौबा की परिभाषा ही में नहीं आता।
وَيَسۡتَجِيبُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَيَزِيدُهُم مِّن فَضۡلِهِۦۚ وَٱلۡكَٰفِرُونَ لَهُمۡ عَذَابٞ شَدِيدٞ ۝ 25
(26) वह ईमान लानेवालों और भले कर्म करनेवालों की दुआ क़बूल करता है और अपनी मेहरबानी से उनको और अधिक देता है। रहे इंकार करनेवाले, तो उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।
۞وَلَوۡ بَسَطَ ٱللَّهُ ٱلرِّزۡقَ لِعِبَادِهِۦ لَبَغَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَٰكِن يُنَزِّلُ بِقَدَرٖ مَّا يَشَآءُۚ إِنَّهُۥ بِعِبَادِهِۦ خَبِيرُۢ بَصِيرٞ ۝ 26
(27) अगर अल्लाह अपने सब बन्दों को खुली रोज़ी दे देता तो वे ज़मीन में सरकशी का तूफ़ान खड़ा कर देते, मगर वह एक हिसाब से जितना चाहता है, उतारता है। निश्चय ही वह अपने बन्दों की ख़बर रखनेवाला है और उनपर निगाह रखता है।48
48. जिस वार्ता-क्रम में यह बात कही गई है, उसे दृष्टि में रखा जाए तो स्पष्ट रूप से महसूस होता है कि यहाँ वास्तव में अल्लाह उस मूल कारण की ओर इशारा कर रहा है, जो मक्का के इस्लाम-विरोधियों की सरकशी में काम कर रहा था। यद्यपि रोम और ईरान के मुक़ाबले में उनकी कोई हस्ती न थी और आसपास की क़ौमों में वे एक पिछड़ी क़ौम के एक व्यापार पेशा कबीले, या दूसरे शब्दों में बंजारों से ज्यादा हैसियत न रखते थे, मगर अपनी इस ज़रा-सी दुनिया में उनको दूसरे अरबवासियों के मुकाबले में जो ख़ुशहालो और बड़ाई मिली हुई थी, उसने उनको इतना घमंडी और अहंकारी बना दिया था कि वे अल्लाह के नबी की बात पर कान धरने के लिए किसी तरह तैयार न थे। इसी पर फ़रमाया जा रहा है कि अगर कहीं हम इन संकुचित हृदय के लोगों पर वास्तव में रोज़ी के दरवाजे खोल देते, तो ये बिल्कुल ही फट पड़ते। मगर हमने इन्हें देखकर ही रखा है और नाप-तौल कर हम इन्हें उतना ही दे रहे हैं, जो इनको आपे से बाहर न होने दे। इस अर्थ की दृष्टि से यह आयत दूसरे शब्दों में वही विषय बयान कर रही है जो सूरा- अत-तौबा, आयत 68, 70; सूरा-18 अल-कहफ़, आयत 32, 42; सूरा-28 अल-क्रसस, आयत 75,82; सूरा-30 अर-रूम, आयत 9; सूरा-34 सबा, आयत 34, 36 और सूरा-40 अल-मोमिन, आयत 82,85 में बयान हुआ है।
وَهُوَ ٱلَّذِي يُنَزِّلُ ٱلۡغَيۡثَ مِنۢ بَعۡدِ مَا قَنَطُواْ وَيَنشُرُ رَحۡمَتَهُۥۚ وَهُوَ ٱلۡوَلِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 27
(28) वही है जो लोगों के निराश हो जाने के बाद बारिश बरसाता है और अपनी रहमत फैला देता है, और वही प्रशंसा के योग्य वली (सरपरस्त) है।49
49. यहाँ वली (सरपरस्त) से तात्पर्य वह हस्ती है जो अपनी पैदा की हुई सारी सृष्टि के मामलों की सरपरस्ती करती है। जिसने बन्दों की ज़रूरतों को पूरा करने का ज़िम्मा ले रखा है।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦ خَلۡقُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَثَّ فِيهِمَا مِن دَآبَّةٖۚ وَهُوَ عَلَىٰ جَمۡعِهِمۡ إِذَا يَشَآءُ قَدِيرٞ ۝ 28
(29) उसकी निशानियों में से है यह ज़मीन और आसमानों की पैदाइश, और ये जानदार रचनाएँ जो उसने दोनों जगह फैला रखी हैं।50 वह जब चाहे उन्हें इकट्ठा कर सकता है।51
50. अर्थात् ज़मीन में भी और आसमानों में भी। यह खुला इशारा है इस और कि जिंदगी सिर्फ़ ज़मीन पर ही नहीं पाई जाती, बल्कि दूसरे ग्रहों में भी जानदार रचनाएँ (मख़लूकात) मौजूद हैं।
51. अर्थात् जिस तरह वह इन्हें फैला देने का सामर्थ्य रखता है, उसी तरह वह उन्हें जमा कर लेने का भी सामर्थ्य रखता है, इसलिए यह सोचना ग़लत है कि क़ियामत नहीं आ सकती और तमाम अगलों-पिछलों को एक ही समय में उठाकर इकट्ठा नहीं किया जा सकता।
وَمَآ أَصَٰبَكُم مِّن مُّصِيبَةٖ فَبِمَا كَسَبَتۡ أَيۡدِيكُمۡ وَيَعۡفُواْ عَن كَثِيرٖ ۝ 29
(30) तुम लोगों पर जो विपत्ति भी आई है, तुम्हारे अपने हाथों की कमाई से आई है, और बहुत-से कुसूरों को वह वैसे ही माफ़ कर जाता है।52
52. स्पष्ट रहे कि यहाँ तमाम इंसानी परेशानियों का कारण बयान नहीं किया जा रहा है, बल्कि बात उन लोगों से की जा रही है जो उस वक़्त मक्का मुअज्जमा में इंकार और अवज्ञा का रवैया अपनाए हुए थे। उनसे फ़रमाया जा रहा है कि अगर अल्लाह तुम्हारी सारी ग़लतियों पर पकड़ करता तो तुम्हें जीता ही न छोड़ता, लेकिन ये परेशानियाँ और मुसीबतें जो तुमपर आई हैं (शायद इशारा है मक्का के उस अकाल की ओर जो उस ज़माने में पड़ गया था), ये मात्र चेतावनी के लिए हैं ताकि तुम होश में आओ और यह समझने की कोशिश करो कि जिस खुदा से तुम विद्रोह कर रह हो, उसके मुक़ाबले में तुम कितने बे-बस हो और यह जानो कि जिन्हें तुम अपना वली (सरपरस्त) और काम बनानेवाला बनाए बैठे हो, वे अल्लाह की पकड़ से बचाने में तुम्हारे किसी काम नहीं आ सकते। और अधिक व्याख्या के लिए यह बयान कर देना भी ज़रूरी है कि जहाँ तक निष्ठावान मोमिन का ताल्लुक है, उसके लिए अल्लाह का कानून इससे अलग है। उसपर जो तकलीफें और मुसीबतें भी आती हैं, वे सब उसके गुनाहों, ख़ताओं और कोताहियों का प्रायश्चित बनती चली जाती हैं। सहीह हदीस में है कि "मुसलमान को जो रंज और दुख, चिन्ता और ग़म और परेशानी भी पेश आती है, यहाँ तक कि एक काँटा भी अगर उसको चुभता है तो अल्लाह उसको उसकी किसी न किसी ग़लती का प्रायश्चित बना देता है।" (बुख़ारी, मुस्लिम) रहीं वे मुसीबतें जो अल्लाह की राह में उसका बोलबाला करने के लिए कोई मोमिन सहन करता है, तो वे सिर्फ कोताहियों का प्रायश्चित ही नहीं होतीं, बल्कि अल्लाह के यहाँ पदोन्नति (दर्जे बलन्द होने) का साधन भी बनती हैं। उनके बारे में यह सोचने की कोई गुंजाइश नहीं है कि वे गुनाहों की सज़ा के तौर पर आती हैं।
وَمَآ أَنتُم بِمُعۡجِزِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِۖ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٖ ۝ 30
(31) तुम ज़मीन में अपने ख़ुदा को निरुपाय कर देनेवाले नहीं हो और अल्लाह के मुकाबले में तुम कोई समर्थक और सहायक नहीं रखते।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِ ٱلۡجَوَارِ فِي ٱلۡبَحۡرِ كَٱلۡأَعۡلَٰمِ ۝ 31
(32) उसकी निशानियों में से हैं ये जहाज़ जो समुद्र में पहाड़ों की तरह नज़र आते हैं।
إِن يَشَأۡ يُسۡكِنِ ٱلرِّيحَ فَيَظۡلَلۡنَ رَوَاكِدَ عَلَىٰ ظَهۡرِهِۦٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّكُلِّ صَبَّارٖ شَكُورٍ ۝ 32
(33-34) अल्लाह जब चाहे हवा को ठहरा दे और ये समुद्र की पीठ पर खड़े के खड़े रह जाएँ - इसमें बड़ी निशानियाँ हैं हर उस आदमी के लिए जो पूर्ण रूप से धैर्य रखनेवाला और कृतज्ञता दिखलानेवाला हो 53-या (उनपर सवार होनेवालों के) बहुत-से गुनाहों को माफ़ करते हुए उनके कुछ ही करतूतों के बदले में उन्हें डुबो दे,
53. 'धैर्य रखनेवाले' से तात्पर्य वह आदमी है जो अपने मन को काबू में रखे और अच्छे और बुरे तमाम हालात में बन्दगी के रवैये पर जमा रहे। कृतज्ञता दिखलानेवाला' से तात्पर्य वह व्यक्ति है, जो ख़ुदा के प्रदान किए हुए सौभाग्य से चाहे कितना ही ऊँचा उठ जाए, वह उसे अपना कमाल नहीं, बल्कि अल्लाह का उपकार ही समझता रहे और वह चाहे जितना ही नीचे गिरा दिया जाए, उसकी निगाह अपनी महरूमियों के बजाय उन नेमतों पर ही केन्द्रित रहे जो बुरे से बुरे हालात में भी आदमी को हासिल रहती हैं, और ख़ुशहाली और बदहाली दोनों हालतों में उसकी ज़बान और उसके दिल से अपने रब का शुक्र ही अदा होता रहे।
أَوۡ يُوبِقۡهُنَّ بِمَا كَسَبُواْ وَيَعۡفُ عَن كَثِيرٖ ۝ 33
0
وَيَعۡلَمَ ٱلَّذِينَ يُجَٰدِلُونَ فِيٓ ءَايَٰتِنَا مَا لَهُم مِّن مَّحِيصٖ ۝ 34
(35) और उस समय हमारी आयतों में झगड़े करनेवालों को पता चल जाए कि उनके लिए कोई पनाहगाह नहीं है।54
54. क़ुरैश के लोगों को अपने व्यापारिक कारोबार के सिलसिले में हबश और अफ्रीक़ा के तटवर्ती क्षेत्रों की ओर भी जाना होता था और इन यात्राओं में वे पानी के पालवाले जहाज़ों और नावों पर लाल सागर से गुज़रते थे जो एक बड़ा ख़तरनाक समुद्र है। इसलिए जिस स्थिति का चित्र अल्लाह ने यहाँ खींचा है उसे क़ुरैश के लोग अपने निजी अनुभवों की रौशनी में पूरी तरह महसूस कर सकते थे।
فَمَآ أُوتِيتُم مِّن شَيۡءٖ فَمَتَٰعُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَمَا عِندَ ٱللَّهِ خَيۡرٞ وَأَبۡقَىٰ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَلَىٰ رَبِّهِمۡ يَتَوَكَّلُونَ ۝ 35
(36) जो कुछ भी तुम लोगों को दिया गया है वह केवल दुनिया की कुछ दिनों की जिंदगी का सरो-सामान है,55 और जो कुछ अल्लाह के यहाँ है, वह उत्तम भी है और बाकी रहनेवाला भी।56 वह उन लोगों के लिए जो ईमान लाए हैं और अपने रब पर भरोसा करते हैं।57
55. अर्थात् बड़ी से बड़ी दौलत भी जो दुनिया में किसी आदमी को मिली है, एक थोड़ी-सी अवधि ही के लिए मिलती है। कुछ साल वह उसको बरत लेता है और फिर सब कुछ छोड़कर दुनिया से खाली हाथ विदा हो जाता है। इस माल पर इतराना किसी ऐसे इंसान का काम नहीं है जो अपनी और इस धन व दौलत की, और ख़ुद इस दुनिया की हक़ीक़त को समझता हो।
56. अर्थात् वह दौलत अपनी हैसियत और हालत की दृष्टि से भी ऊँचे दर्जे की है और फिर वक़्ती और अस्थाई भी नहीं है, बल्कि हमेशा रहनेवाली और कभी न खत्म होनेवाली है।
وَٱلَّذِينَ يَجۡتَنِبُونَ كَبَٰٓئِرَ ٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡفَوَٰحِشَ وَإِذَا مَا غَضِبُواْ هُمۡ يَغۡفِرُونَ ۝ 36
(37) जो बड़े-बड़े गुनाहों और बेहयाई के कामों से बचते हैं58 और अगर गुस्सा आ जाए तो दरगुज़र कर जाते हैं।59
58. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-4 अन-निसा, आयत 31: सूरा-6 अल-अनआम, आयत 151; सूरा-16 अन-नह्ल, आयत 9 और सूरा-53 अन-नज्म, आयत 32 ।
59. अर्थात् वे ग़ुसैल और झल्ले नहीं होते, उनके स्वभाव में बदले की भावना नहीं होती, बल्कि वे अल्‍लाह के बन्दों से माफ़ी का और अनदेखी का मामला करते हैं और किसी बात पर ग़ुस्सा आ भी जाता है तो उसे पी जाते हैं।
وَٱلَّذِينَ ٱسۡتَجَابُواْ لِرَبِّهِمۡ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَأَمۡرُهُمۡ شُورَىٰ بَيۡنَهُمۡ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 37
(38-39) जो अपने रब का आदेश मानते हैं,60 नमाज़ क़ायम करते हैं, अपने मामले आपस के मश्विरे से चलाते हैं।61 हमने जो कुछ भी रोज़ी उन्हें दी है उसमें से ख़र्च करते हैं,62 और जब उनपर ज्यादती की जाती है तो उसका मुकाबला करते हैं-63
60. शाब्दिक अनुवाद होगा, "अपने रब की पुकार पर लब्बैक कहते (दौड़ पड़ते हैं", अर्थात् जिस काम के लिए भी अल्लाह बुलाता है, उसके लिए दौड़ पड़ते हैं और जिस चीज़ की भी अल्लाह दावत देता है, उसे स्वीकार करते हैं।
61. इस चीज़ को यहाँ ईमानवालों के बेहतरीन गुणों में शुमार किया गया है और सूरा-3 आले-इमरान, आयत 159 में इसका आदेश दिया गया है। इस कारण मुशावरत (सलाह-मश्विरा करना) इस्‍लामी ज़िंदगी का एक अहम स्तम्भ है और मश्विरे के बिना सामूहिक काम चलाना न सिर्फ़ अज्ञानता का तरीक़ा है, बल्कि अल्लाह के निश्चित किए हुए नियमों का खुला उल्लंघन है। "आपस में मश्वि‍रा कर लिया करो" का नियम स्वयं अपने प्रकार और स्वभाव की दृष्टि से पाँच बातों का तक़ाज़ा करता है। एक, यह कि सामूहिक मामले जिन लोगों के हकों और मामलों से ताल्लुक़ रखते थे, उन्हें राय देने की पूरी आज़ादी प्राप्त हो और वे इस बात से पूरी तरह बा-ख़बर रखे जाएँ कि उनके मामले वास्तव में किस तरह चलाए जा रहे हैं, और उन्हें इस बात का भी पूरा अधिकार प्राप्त हो कि अगर ये अपने मामलों के प्रबन्ध में कोई ग़लती या कमी या कोताही देखें तो उसपर टोक सकें, विरोध कर सकें और सुधार होता न देखें तो अपने अधिकारियों को बदल सकें। दूसरी, यह कि सामूहिक मामलों को चलाने की ज़िम्मेदारी जिस आदमी पर भी डालनी हो, उसे लोगों की रजामंदी से नियुक्त किया जाए और यह रज़ामंदी उनकी स्वतंत्र रज़ामंदी हो। तीसरी, यह कि अगुवा या अध्यक्ष को मश्विरा देने के लिए भी वे लोग नियुक्त किए जाएँ जिनको जनता का विश्वास प्राप्त हो। चौथी, यह कि मश्विरा देनेवाले अपने ज्ञान और ईमान और अन्तरात्मा के अनुसार राय दें और इस तरह की राय व्यक्त करने की उन्हें पूरी आज़ादी हासिल हो। पाँचवीं, यह कि जो मश्विरा सलाहकारों की सर्वसम्मति से दिया जाए, या जिसे उनके बहुमत का समर्थन प्राप्त हो, उसे स्वीकार किया जाए। अल्लाह यह नहीं फ़रमा रहा है कि "उनके मामलों में उनसे मश्विरा लिया जाता है", बल्कि यह फरमा रहा है कि, "उनके मामले आपस के मश्विरे से चलते हैं।" इस कथन की पूर्ति सिर्फ मश्विरा ले लेने से नहीं हो जाती, बल्कि इसके लिए ज़रूरी है कि मश्विरा लेने में सर्वसम्मति या बहुमत से जो बात तय हो, उसी के अनुसार मामले चलें। इस्लाम में मश्विरे के सिद्धान्त की इस व्याख्या के साथ ही यह बुनियादी बात भी निगाह में रहनी चाहिए कि यह शूरा मुसलमानों के मामलों को चलाने में तानाशाह और सर्वाधिकारी नहीं है, बल्कि अनिवार्य रूप से उस दीन की सीमाओं में सीमित है जो अल्लाह ने ख़ुद अपनी ओर से निश्चित किया है और इस मूल नियम की पाबन्द है कि "तुम्हारे बीच जिस मामले में भी मतभेद हो, उसका फ़ैसला करना अल्लाह का काम है" और "तुम्हारे बीच जो झगड़ा और विवाद हो, उसमें अल्लाह और रसूल की ओर रुजू करो।"
وَٱلَّذِينَ إِذَآ أَصَابَهُمُ ٱلۡبَغۡيُ هُمۡ يَنتَصِرُونَ ۝ 38
0
وَجَزَٰٓؤُاْ سَيِّئَةٖ سَيِّئَةٞ مِّثۡلُهَاۖ فَمَنۡ عَفَا وَأَصۡلَحَ فَأَجۡرُهُۥ عَلَى ٱللَّهِۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 39
(40) बुराई64 का बदला वैसी ही बुराई65 है, फिर जो कोई माफ़ कर दे और सुधर जाए उसका बदला अल्‍लाह के ज़िम्मे है,66 अल्लाह ज़ालिमों को पसन्द नहीं करता।67
64. यहाँ से आयत 43 तक जो कुछ कहा गया है, पिछली आयत की व्याख्या है।
65. यह पहला सैद्धान्तिक नियम है, जिसे बदला लेते समय ध्यान में रखना चाहिए। बदले की वैध सीमा यह है कि जितनी बुराई किसी के साथ की गई हो, उतनी ही बुराई वह उसके साथ कर सकता है। उससे ज़्यादा बुराई करने का वह हक़ नहीं रखता।
وَلَمَنِ ٱنتَصَرَ بَعۡدَ ظُلۡمِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ مَا عَلَيۡهِم مِّن سَبِيلٍ ۝ 40
(41) और जो लोग जुल्म होने के बात बदला लें, उनकी निंदा नहीं की जा सकती।
إِنَّمَا ٱلسَّبِيلُ عَلَى ٱلَّذِينَ يَظۡلِمُونَ ٱلنَّاسَ وَيَبۡغُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 41
(42) निंदनीय तो वे हैं जो दूसरों पर ज़ुल्म करते हैं और ज़मीन में नाहक़ ज़्यादतियाँ करते हैं। ऐसे लोगों के लिए दर्दनाक अज़ाब है।
وَلَمَن صَبَرَ وَغَفَرَ إِنَّ ذَٰلِكَ لَمِنۡ عَزۡمِ ٱلۡأُمُورِ ۝ 42
(43) अलबत्ता जो व्यक्ति सब से काम ले और माफ़ करे, तो यह बड़े हौसले के कामों में से है।68
68. स्पष्ट रहे कि इन आयतों में ईमानवालों के जो गुण बताए गए हैं, वे उस समय व्यावहारिक रूप से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के साथियों की जिंदगी में मौजूद थे, और मक्का के इस्लाम-विरोधी अपनी आँखों से उनको देख रहे थे। इस तरह अल्लाह ने वास्तव में इस्लाम-विरोधियों को यह बताया है कि दुनिया की कुछ दिनों की जिंदगी गुज़ारने का जो सरो-सामान पाकर तुम आपे से बाहर हुए जाते हो, असल दौलत वह नहीं है, बल्कि असल दौलत ये चरित्र और गुण हैं जो क़ुरआन का मार्गदर्शन स्वीकार करके तुम्हारे ही समाज के इन ईमानवालों ने अपने अन्दर पैदा किए हैं।
وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِن وَلِيّٖ مِّنۢ بَعۡدِهِۦۗ وَتَرَى ٱلظَّٰلِمِينَ لَمَّا رَأَوُاْ ٱلۡعَذَابَ يَقُولُونَ هَلۡ إِلَىٰ مَرَدّٖ مِّن سَبِيلٖ ۝ 43
(44) जिसको अल्लाह ही गुमराही में फेंक दे उसका कोई सँभालनेवाला अल्लाह के बाद नहीं है।69 तुम देखोगे कि ये ज़ालिम जब अज़ाब देखेंगे तो कहेंगे, अब पलटने का भी कोई रास्ता है?70
69. अर्थ यह है कि अल्लाह ने क़ुरआन जैसी बेहतरीन किताब उन लोगों के मार्गदर्शन के लिए भेजी जो सर्वथा उचित और अत्यन्त प्रभावी और हृदयग्राही तरीके से इनको सत्य का ज्ञान दे रही है और ज़िन्दगी का सही रास्ता बता रही है। अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) जैसा नबी उनके मार्गदर्शन के लिए भेजा, जिससे बेहतर चरित्र और आचरण का आदमी कभी उनकी निगाहों ने न देखा था, और इस किताब और इस रसूल की शिक्षा-दीक्षा के नतीजे भी अल्लाह ने ईमान लानेवालों के जीवन में उन्हें आँखों से दिखा दिए। अब अगर कोई व्यक्ति यह सब कुछ देखकर भी हिदायत (संमार्ग) से मुँह मोड़ता है तो अल्लाह फिर उसी गुमराही में उसे फेंक देता है, जिससे निकलने का वह इच्छुक नहीं है।
70. अर्थात् आज जबकि पलट आने का मौक़ा है, ये पलटने से इंकार कर रहे हैं। कल जब फ़ैसला हो चुकेगा और सज़ा का हुक्म लागू हो जाएगा, उस समय अपनी शामत देखकर ये चाहेंगे कि अब इन्हें पलटने का मौक़ा मिले।
وَتَرَىٰهُمۡ يُعۡرَضُونَ عَلَيۡهَا خَٰشِعِينَ مِنَ ٱلذُّلِّ يَنظُرُونَ مِن طَرۡفٍ خَفِيّٖۗ وَقَالَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّ ٱلۡخَٰسِرِينَ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ وَأَهۡلِيهِمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ أَلَآ إِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ فِي عَذَابٖ مُّقِيمٖ ۝ 44
(45-46) और तुम देखोगे कि ये जहन्नम के सामने जब लाए जाएँगे तो ज़िल्लत (अपमान) के मारे झुके जा रहे होंगे और उसको नज़र बचा-बचाकर कनखियों से देखेंगे।71 उस वक्त वे लोग, जो ईमान लाए थे, कहेंगे कि वास्तव में अस्ल घाटा उठानेवाले वही हैं जिन्होंने आज क़ियामत के दिन अपने आपको और अपने संबंधियों को घाटे में डाल दिया। ख़बरदार रहो, ज़ालिम लोग स्थायी अज़ाब में होंगे और उनके कोई समर्थक और संरक्षक न होंगे जो अल्लाह के मुक़ाबले में उनकी मदद को आएँ। जिसे अल्लाह गुमराही में फेंक दे, उसके लिए बचाव का कोई रास्ता नहीं।
71. इंसान का नियम है कि जब कोई भयानक दृश्य उसके सामने होता है और वह जान रहा होता है कि बहुत जल्द वह उस बला के चंगुल में आनेवाला है जो सामने नज़र आ रही है, तो पहले तो डर के मारे वह आँखें बन्द कर लेता है, फिर उससे रहा नहीं जाता और देखने की कोशिश करता है कि वह बला कैसी है और अभी उसमें कितनी दूर है। लेकिन इसका भी साहस नहीं होता कि सिर उठाकर निगाह भरकर उसे देखे। इसलिए वह बार-बार जरा-सी आँखें खोलकर उसे कनखियों से देखता है और फिर डर के मारे आँखें बन्‍द कर लेता है। जहनम की ओर जानेवालों की इसी स्थिति का चित्र इस आयत में खींचा गया है।
وَمَا كَانَ لَهُم مِّنۡ أَوۡلِيَآءَ يَنصُرُونَهُم مِّن دُونِ ٱللَّهِۗ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِن سَبِيلٍ ۝ 45
0
ٱسۡتَجِيبُواْ لِرَبِّكُم مِّن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَ يَوۡمٞ لَّا مَرَدَّ لَهُۥ مِنَ ٱللَّهِۚ مَا لَكُم مِّن مَّلۡجَإٖ يَوۡمَئِذٖ وَمَا لَكُم مِّن نَّكِيرٖ ۝ 46
(47) मान लो अपने रब की बात इससे पहले कि वह दिन आए जिसके टलने की कोई शक्ल अल्लाह की और से नहीं है।72 उस दिन तुम्हारे लिए पनाह की कोई जगह न होगी और न कोई तुम्हारे हाल को बदलने की कोशिश करनेवाला होगा।73
72. अर्थात् अल्लाह न स्वयं उसे टालेगा और न किसी दूसरे में यह शक्ति है कि उसे टाल सके।
73. मूल अरबी शब्द है, 'मा लकुम मिन नकीर'। इसके कई अर्थ और भी हैं- एक यह कि तुम अपने करतूतों में से किसी का इंकार न कर सकोगे। दूसरा यह कि तुम वेष बदलकर कहीं छिप न सकोगे। तीसरा यह कि तुम्हारे साथ जो कुछ भी किया जाएगा, उसपर न तुम कोई आपत्ति कर सकोगे और न नाराज़ी व्यक्त कर सकोगे। चौथा यह कि तुम्हारे बस में न होगा कि जिस हालत में तुम डाले गए हो, उसे बदल सको।
فَإِنۡ أَعۡرَضُواْ فَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ عَلَيۡهِمۡ حَفِيظًاۖ إِنۡ عَلَيۡكَ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُۗ وَإِنَّآ إِذَآ أَذَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ مِنَّا رَحۡمَةٗ فَرِحَ بِهَاۖ وَإِن تُصِبۡهُمۡ سَيِّئَةُۢ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡ فَإِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ كَفُورٞ ۝ 47
(48) अब अगर ये लोग मुँह मोड़ते हैं तो ऐनची ! हमने तुमको उनपर निगरी बनाकर तो नहीं भेजा है।74 तुमपर तो सिर्फ़ बात पहुँचा देने की जिम्मेदारी है। इंसान का हाल यह है कि जब हम उसे अपनी रहमत का मज़ा चखाते हैं तो उसपर कूल जाता है और अगर उसके अपने हाथों का किया-धरा किसी मुसीबत के रूप में उसपर उलट पड़ता है तो बड़ा कृवन (नाशुक्रा) बन जाता है।75
74. अर्थात् तुम्हारे ऊपर यह जिम्मेदारी तो नहीं डाली गई है कि तुम उन्हें ज़रूर सीधे रास्ते ही पर ला के रहो और न इस बात को तुमसे कोई पूछ-गछ होनी है कि ये लोग क्यों सीधे रास्ते पर न आए।
75. इंसान से तात्पर्य यहाँ बे छिछोरे और संकुचित हृदय के लोग हैं, जिनका ऊपर से उल्लेख चला आ रहा है। जिन्हें दुनिया की कुछ रोजी मिल गई है, तो उसपर फूले नहीं समाते और समझाकर सीधे रास्ते पर लाने को कोशिश की जाती है, तो सुनकर नहीं देते। लेकिन अगर किसी समय अपने ही करतूतों की बदौलत उनको शामत आ जाती है तो भाग्य को रोना शुरू कर देते हैं और उन सारी नेमतों को भूल जाते हैं जो अल्लाह ने उन्हें दी हैं, और कभी यह समझने की कोशिश नहीं करते कि जिस हालत में वे पड़े हुए हैं, उसमें उनका अपना क्या कुसूर है। इस तरह न खुशहाली उनके सुधार में मददगार होती है, न बदहाली ही उन्हें शिक्षा देकर सीधे रास्ते पर ला सकती है। वार्ता-क्रम को दृष्टि में रखा जाए तो मालूम हो जाता है कि वास्तव में यह उन लोगों के रवैये पर व्यंग्य है, जिन्हें ऊपर की वार्ता में सम्बोधित किया गया था। मगर उनको सम्बोधित करके यह नहीं कहा गया कि तुम्हारा हाल यह है, बल्कि बात यूँ कही गई कि इंसान में आम तौर पर यह कमजोरी पाई जाती है और यही उसके बिगाड़ का मूल कारण है। इससे प्रचार-प्रसार के तरीक़े का यह नुक्‍ता हाथ आता है कि सम्बोधित लोगों की कमज़ोरियों पर सीधे तौर पर चोट नहीं करनी चाहिए, बल्कि आम अन्दाज़ में उनका उल्लेख करना चाहिए, ताकि वह चिढ़ न जाए और उसकी अन्तरात्मा में अगर कुछ भी जीवन बाक़ी है तो ठंडे दिल से अपनी कमी को समझने की कोशिश करे।
لِّلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ يَهَبُ لِمَن يَشَآءُ إِنَٰثٗا وَيَهَبُ لِمَن يَشَآءُ ٱلذُّكُورَ ۝ 48
(49-50) अल्लाह ज़मीन और आसमानों की बादशाही का मालिक है,76 जो कुछ चाहता है पैदा करता है, जिसे चाहता है लड़कियाँ देता है, जिसे चाहता है लड़के देता है, जिसे चाहता है लड़के और लड़कियाँ मिला-जुलाकर देता है और जिसे चाहता है बाँझ कर देता है। वह सब कुछ जानता और हर चीज़ की सामर्थ्‍य रखता है।77
76. अर्थात् इंकार व शिर्क की मूर्खता में जो लोग पड़े हुए हैं, वे अगर समझाने से नहीं मानते, तो न मानें, सत्य अपनी जगह सत्य है। जमीन व आसमान की बादशाही का मालिक अकेला सर्वोच्च अल्लाह है। उससे विद्रोह करनेवाला न अपने बल-बूते पर जीत सकता है, न उन हस्तियों में से कोई आकर उसे बचा सकती है जिन लोगों ने अपनी मूर्खता से ईश्वरीय अधिकारों का मालिक समझ रखा है।
77. यह अल्लाह की बादशाही के निर्वाच्य (Absolute) होने का स्पष्ट प्रमाण है। कोई इंसान चाहे वह बड़ी से बड़ी दुनियात्री सत्ता का मालिक बना फिरता हो या आध्यात्मिक शक्ति का मालिक समझा जाता हो, कभी इसपर समर्थ नहीं हो सका है कि दूसरे को दिलवाना तो दूर की बात, खुद अपने यहाँ अपनी इच्छा के अनसार सन्तान पैदा कर सके। जिसे अल्लाह ने बाँझ कर दिया वह किसी दवा और किसी इलाज और किसी ताबीज-गंडे से सन्तानवाला न बन सका। जिसे अल्लाह ने लड़कियाँ ही लड़कियाँ दी, वह एक बेटा भी किसी उपाय से प्राप्त न कर सका और जिसे अल्लाह ने लड़के ही लड़के दिए, वह एक बेटी भी किसी तरह नपासका। इस मामले में हर एक पूर्ण रूप से बेबस रहा है, बल्कि बच्चे के जन्म से पहले कोई दाह तक न मालूम कर सका कि माँ के पेट में क्या पल रहा है भली सन्तान या बुरी। यह सब कुछ देखकर भी अगर कोई ख़ुदा की ख़ुदाई में सर्वाधिकारी होने का गुमान करे या किसी दूसरी हस्ती को अधिकारों में दख़ल देनेवाला समझे, तो यह उसकी अपनी ही नादानी है जिसकी सजा वह ख़ुद भुगतेगा। किसी के अपनी जगह कुछ समझ बैठने से वास्तविकता में कण भर भी परिवर्तन नहीं होता।
أَوۡ يُزَوِّجُهُمۡ ذُكۡرَانٗا وَإِنَٰثٗاۖ وَيَجۡعَلُ مَن يَشَآءُ عَقِيمًاۚ إِنَّهُۥ عَلِيمٞ قَدِيرٞ ۝ 49
0
۞وَمَا كَانَ لِبَشَرٍ أَن يُكَلِّمَهُ ٱللَّهُ إِلَّا وَحۡيًا أَوۡ مِن وَرَآيِٕ حِجَابٍ أَوۡ يُرۡسِلَ رَسُولٗا فَيُوحِيَ بِإِذۡنِهِۦ مَا يَشَآءُۚ إِنَّهُۥ عَلِيٌّ حَكِيمٞ ۝ 50
(51) किसी इंसान78 का यह मकाम नहीं है कि अल्लाह उससे आमने-सामने बात करे। उसकी बात था तो ‘वह्य' (इशार) के रूप में होती है79 या परदे के पीछे से,80 या फिर वह कोई पैग़ाम पहुँचानेवाला (करिश्ता) भेजता है और वह उसके आदेश से जो कुछ वह चाहता है वह्य करता है।81 वह सर्वोच्च और तत्त्वदर्शी है।82
78. वार्ता समाप्त करते हुए उसी विषय को फिर लिया गया है जो शुरू में बयान किया गया था। बात को पूरी तरह समझने के लिए इस सूरा की पहली आवत और उसकी टिप्पणी पर दोबारा नज़र डाल लीजिए।
79. यहाँ वह्य से मुराद है इलाका, इलहाम, दिल में कोई बात डाल देना या सपने में कुछ दिखा देना, जैसे हजरत इबराहीम और हजरत यूसुफ (अलैहि०) को दिखाया गया, (सूरा-12 यूसुफ, आयतें 4, 100, मूग-37 अस्मारकात, आयत 102)
وَكَذَٰلِكَ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ رُوحٗا مِّنۡ أَمۡرِنَاۚ مَا كُنتَ تَدۡرِي مَا ٱلۡكِتَٰبُ وَلَا ٱلۡإِيمَٰنُ وَلَٰكِن جَعَلۡنَٰهُ نُورٗا نَّهۡدِي بِهِۦ مَن نَّشَآءُ مِنۡ عِبَادِنَاۚ وَإِنَّكَ لَتَهۡدِيٓ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 51
(52) और इसी तरह (ऐ नबी !) हमने अपने हुक्म से एक रूह (प्राण एचं सारतत्व) तुम्हारी और वय की है।83 तुम्हें कुछ पता न था कि किताब क्या होती और ईमान क्या होता है?84 मगर उस रूह को हमने एक रोशनी बना दिया, जिससे हम राह दिखाते है अपने बन्‍दों में से जिसे चाहते हैं। निश्‍चय ही तुम सीधे रास्‍ते की ओर रहनुमाई कर रहे हो,
83. ‘इसी तरह’ से तात्पर्य केवल अन्तिम तरीका नहीं है, बल्कि ये तीनों तरीके हैं जिनका ऊपर की आयतों में उल्लेख हुआ है और 'सह' से तात्पर्य वय या वह शिक्षा है जो वस्य के जरिये से नबी (सल्ल०) को दी गई। यह बात कुरान और हदीस दोनों से साबित है कि नबी (सल्ल०) को इन तीनों तरीक़ो से हिदायतें दी गई हैं-(1) हदीस में हज़रत आइशा (रज़ि०) का बयान है कि नबी (सल्‍ल०) पर वह्य आने की शुरूआत ही सच्‍चे सपनों से हुई थी। (बुख़ारी व मुस्लिम) यह सिलसिला बाद में भी जारी रहा है। क़ुरआन मजीद में भी आप (सल्‍ल०) के एक सपने का स्‍पष्‍ट शब्‍दों उल्‍लेख हुआ है। (सूरा-48 अल-फ़त्ह, आयत 27) (2) मेराज के मौक़े पर नबी (सल्‍ल०) को वह्य की दूसरी क़िस्‍त से भी नवाज़ा गया। कई सहीह हदीसों में नबी (सल्‍ल०) को पाँच वक्‍़तों की नमाज़ का आदेश दिए जाने और नबी (सल्‍ल०) के उसपर बार-बार निवेदन करने का उल्लेख जिम का आया है, उससे स्पष्ट मालूम होता है कि उस वक्त अल्लाह और उसके बन्‍दे मुहम्‍मद (सल्‍ल०) के बीच वैसी ही बातचीत हुई थी जैसी तूर पहाड़ के दामन में हजरत मूसा (अलैहि०) और अल्‍लाह के बीच हुई। (3) रही तीसरी क़िस्म, तो उसके बारे में क़ुरआन ख़दद ही गवाही देता है कि उसे जिबरील अमीन के ज़रिये से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) तक पहुंचाया गया है। (सूरा-2 अल-बक़रा, आयत 97; सूरा-26 अश-शुअरा, आयत 192 से 195)
84. अर्थात् नबी बनने से पहले कभी नबी (सल्ल.) के मन में यह विचार तक न आया था कि आप (सल्‍ल०) को कोई किताब मिलनेवाली है या मिलनी चाहिए। इसी तरह आप (सल्‍ल०) को अल्‍लाह पर ईमान तो ज़रूर हासिल था, मगर न आप चेतन रूप में इस विवरण को जानते थे कि इंसान को अल्लाह के बारे में क्या-क्या बातें माननी चाहिएँ और न आप (सल्ल०) को यह मालूम था कि उसके साथ फ़रिश्ते और नुबूवत और आसमानी किताबें और आखिरत के बारे में भी बहुत-सी बातों का मानना जरूरी है। ये दोनों बातें ऐसी था जो स्वयं मक्का के इस्लाम-विरोधियों से भी छिपी हुई न थीं।
صِرَٰطِ ٱللَّهِ ٱلَّذِي لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ أَلَآ إِلَى ٱللَّهِ تَصِيرُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 52
(53) उस ख़ुदा के रास्ते की ओर जो ज़मीन और आसमानों की हर चीज़ का मालिक है। ख़बरदार रहो, सारे मामले अल्लाह ही की ओर रूजूअ करते हैं।85
85. यह अन्तिम चेतावनी है जो इस्लाम-विरोधियों को दी गई है। इसका अर्थ यह है कि नबी ने कहा और तुमने सुनकर रह कर दिया। इसपर बात समाप्त नहीं हो जानी है। दुनिया में जो कुछ हो रहा है, वह सब अल्लाह के सामने पेश होना है और आखिरकार उसी के दरबार से यह फैसला होना है कि किसका क्या अंजाम होना चाहिए।