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سُورَةُ الزُّخۡرُفِ

43. अज़-ज़ुख़रुफ़

(मक्का में उतरी, आयतें 89)

परिचय

नाम

आयत 35 के शब्द ‘वज़्ज़ुख़रुफ़न ' (चाँदी और सोने के) से लिया गया है। अर्थ यह है कि वह वह सूरा हैं जिसमें शब्द ‘ज़ुख़रुफ़' आया है।

उतरने का समय

इसकी वार्ताओं पर विचार करने से साफ़ महसूस होता है कि यह सूरा भी उसी कालखण्ड में उतरी है जिसमें सूरा-40 अल-मोमिन, सूरा-41 हा-मीम अस-सजदा और सूरा-42 अश-शूरा उतरीं। [यह वह समय था,] जब मक्का के इस्लाम-विरोधी नबी (सल्ल.) की जान के पीछे पड़े हुए थे।

विषय और वार्ता

इस सूरा में पूरे ज़ोर के साथ क़ुरैश और अरबवालों को उन अज्ञानतापूर्ण धारणाओं और अंधविश्वासों की आलोचना की गई है, जिनपर वे दुराग्रह किए चले जा रहे थे, और अत्यन्त दृढ़ और दिल में घर करनेवाले तरीक़े से उनके बुद्धिसंगत न होने को उजागर किया गया है। वार्ता का आरंभ इस तरह किया गया है कि तुम लोग अपनी दुष्टता के बल पर यह चाहते हो कि इस किताब का उतरना रोक दिया जाए, मगर अल्लाह ने कभी दुष्टताओं की वजह से नबियों को भेजना और किताबों को उतारना बन्द नहीं किया है, बल्कि उन ज़ालिमों को तबाह कर दिया है जो उसके मार्गदर्शन का रास्ता रोककर खड़े हुए थे। यही कुछ वह अब भी करेगा। इसके बाद बताया गया है कि वह धर्म क्या है जिसे ये लोग सीने से लगाए हुए हैं और वे प्रमाण क्या हैं जिनके बल-बूते पर ये मुहम्मद (सल्ल०) का मुक़ाबला कर रहे हैं। ये स्वयं मानते हैं कि ज़मीन और आसमान का और इनका अपना और इनके उपास्यों का पैदा करनेवाला [भी और इनको रोज़ी देनेवाला भी] अल्लाह ही है। फिर भी दूसरों को अल्लाह के साथ प्रभुत्व में साझी करने पर हठ किए चले जा रहे हैं। बन्दों को अल्लाह की सन्तान कहते हैं और [फ़रिश्तों के बारे में] कहते हैं कि ये अल्लाह की बेटियाँ हैं। उनकी उपासना करते हैं। आख़िर इन्हें कैसे मालूम हुआ कि फ़रिश्ते औरतें हैं ? इन अज्ञानतापूर्ण बातों पर टोका जाता है तो तक़दीर का बहाना बनाते हैं और कहते हैं कि अगर अल्लाह हमारे इस काम को पसन्द न करता तो हम कैसे इन बुतों की पूजा कर सकते थे, हालाँकि अल्लाह की पसन्द और नापसन्द मालूम होने का माध्यम उसकी किताबें हैं, न कि वे काम जो दुनिया में उसकी मशीयत (उसकी दी हुई छूट) के अन्तर्गत हो रहे हैं। [अपने शिर्क का एक तर्क यह भी] देते हैं कि बाप-दादा से यह काम यों ही होता चला आ रहा है। मानो इनके नज़दीक किसी धर्म के सत्य होने के लिए यह पर्याप्त प्रमाण है, हालाँकि इबराहीम (अलैहि०) ने जिनकी सन्तान होने पर ही इनका सारा गर्व और इनकी विशिष्टता निर्भर करती है, ऐसे अंधे अनुसरण को रद्द कर दिया था, जिसका साथ कोई बुद्धिसंगत प्रमाण न देता हो। फिर अगर इन लोगों को पूर्वजों का अनुसरण ही करना था, तो इसके लिए भी अपने सबसे बड़े पूर्वज इबराहीम और इसमाईल (अलैहि०) को छोड़कर इन्होंने अपने सबसे बड़े अज्ञानी पूर्वजों का चुनाव किया। मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी स्वीकार करने में इन्हें संकोच है तो इस कारण कि उनके पास माल-दौलत और राज्य और सत्ता तो है ही नहीं। कहते हैं कि अगर अल्लाह हमारे यहाँ किसी को नबी बनाना चाहता तो हमारे दोनों शहरों (मक्का और ताइफ़) के बड़े आदमियों में से किसी को बनाता। इसी कारण फ़िरऔन ने भी हज़रत मूसा (अलैहि०) को तुच्छ जाना था और कहा था कि आसमान का बादशाह अगर मुझ ज़मीन के बादशाह के पास कोई दूत भेजता तो उसे सोने के कंगन पहनाकर और फ़रिश्तों की एक फ़ौज उसकी अरदली में देकर भेजता। यह फ़क़ीर कहाँ से आ खड़ा हुआ। आख़िर में साफ़-साफ़ कहा गया है कि न अल्लाह की कोई सन्तान है, न आसमान और ज़मीन के प्रभु अलग-अलग हैं और न अल्लाह के यहाँ कोई ऐसा सिफ़ारिशी है जो जान बूझकर गुमराही अपनानेवालों को उसकी सज़ा से बचा सके।

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سُورَةُ الزُّخۡرُفِ
43. अज़-ज़ुख़रुफ़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
حمٓ
(1) हा० मीम०।
وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُبِينِ ۝ 1
(2) क़सम है इस स्पष्ट किताब की
إِنَّا جَعَلۡنَٰهُ قُرۡءَٰنًا عَرَبِيّٗا لَّعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 2
(3) कि हमने इसे अरबी भाषा का क़ुरआन बनाया है, ताकि तुम लोग इसे समझो।1
1. क़ुरआन मजीद की क़सम जिस बात पर खाई गाई है, वह यह है कि इस किताब के रचनाकार 'हम' है न कि मुहम्मद (सल्ल०) और क़सम खाने के लिए क़ुरआन के जिस गुण को चुना गया है, वह यह है कि यह स्पष्ट किताब है। इस गुण के साथ क़ुरआन के इंश-वाणी होने पर स्वयं क़ुरआन की क़सम खाना आप से आप यह अर्थ दे रहा है कि लोगो ! यह खुली किताब तुम्हारे सामने मौजूद है, इसे आँखें खोलकर देखो इसके विषय, इसकी शिक्षा, इसको भाषा, ये सारी चीजें इस सत्य की खुली गवाही दे रही हैं कि इसका स्वताकार जगत् स्वामी के अलावा कोई दूसरा हो नहीं सकता। फिर यह जो फ़रमाया कि ‘‘हमने इसे अरबी भाषा का क़ुरआन बनाया है, ताकि तुम इसे समझो" इसके दो अर्थ हैं- एक यह कि वह किसी और भाषा में नहीं है, बल्कि तुम्हारो अपनी भाषा में है, इसलिए इसे जाँचने-परखने और इसके महत्व का अन्दाजा करने में तुम्हें कोई कठिनाई पेश नहीं आ सकती। दुसरा अर्थ इस कथन का यह है कि इस किताब की भाषा हमने अरबी इसलिए रखी है कि हम अरब क़ौम को सम्बोधित कर रहे हैं, और वे अरबी भाषा के कुरआन ही को समझ सकते हैं। अरबी में क़ुरआन उतारने के इस स्पष्ट सर्वथा उचित कारण को नजरअंदाज करके जो आदमी सिर्फ इस बुनियाद पर इसे कलामे-इलाही (ईशवाणी) के बजाय कलामे-मुहम्मद (मुहम्मद-वाणी) करार देता है कि मुहम्मद (सल्ल०) की मातृभाषा भी आवी है, तो वह बड़ी ज्यादती करता है। (इस दूसरे अर्थ को समझने के लिए सूरा-41 हा-मीम अस्सज्‍दा, आयत 44, टिप्पणी 54 सहित देखें)
وَإِنَّهُۥ فِيٓ أُمِّ ٱلۡكِتَٰبِ لَدَيۡنَا لَعَلِيٌّ حَكِيمٌ ۝ 3
(4) और वास्तव में यह मूल किताब में अंकित है,2 हमारे यहाँ बड़ी उच्‍चकोटि की और तत्वदर्शिता से भरी किताब।3
2. 'मूल किताब' से तात्पर्य है 'अस्त किताब', अर्थात् वह किताब जिससे तमाम नबियों पर उतरनेवाली किताबें उद्धृत हैं। इसी के लिए सूरा-35 बुरूज में लोहे-महफूज' (सुरक्षित पट्टिका) के शब्द प्रयुक्त किए गए हैं। अर्थात् ऐसा लौह (पट्टिका) जिसका लिखा मिट नहीं सकता और जो हर प्रकार की विकृति से सुरक्षित है। क़ुरआन के बारे में यह फरमाकर कि यह 'मूल किताब' में है, एक अहम हक़ीक़त पर सावधान फ़रमाया गया है। अल्लाह की ओर से अलग-अलग समयों में अलग-अलग देशों और क़ौमों के लिए विभिन्न नबियों पर अलग-अलग भाषाओं में किताबें अवतरित होती रही है, मगर उन सब में दावत एक ही आक़ीदे को ओर दी गई है और कुल मिलाकर यह एक ही दीन है, जिसे ये सब किताबें लेकर आई है। इसकी वजह यह है कि इन सबका मूल एक है और केवल आलेख अलग-अलग हैं। एक ही अर्थ हैं जो अल्लाह के यहाँ एक बुनियादी किताब में अंकित हैं और जब कभी जरूरत पेश आई है, उसने किसी नबी को भेजकर यह अर्थ स्थिति और अवसर को देखते हुए एक विशेष लेख और विशेष भाषा में उतार दिए हैं। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-28 अश-शुअरा, आयत 192 से 196, टिणणियाँ सहित)
3. इस वाक्य का ताल्लुक स्पष्ट किताब' से भी है और 'मूल किताब' से भी। अर्थात् यह परिचय क़ुरआन का भी है और उस मूल किताब का भी, जिससे कुरआन नकल किया गया था उद्धृत है। इस परिचय का अभिप्राय यह बात मन-मस्तिष्क में बिठाना है कि यह एक उच्च कोटि की किताब है, जिसे उसकी बेमिसाल शिक्षा, उसकी चमत्कारपूर्ण वर्णनशैली, उसकी दोषरहित तत्त्वदर्शिता और उसके महान रचनाकार के व्यकिात्त्व ने बुलन्द किया है। यह किसी के गिराने से कैसे गिर जाएगी? (देखिए टिप्पणी 39)
أَفَنَضۡرِبُ عَنكُمُ ٱلذِّكۡرَ صَفۡحًا أَن كُنتُمۡ قَوۡمٗا مُّسۡرِفِينَ ۝ 4
(5) अब क्या हम तुमसे विरक्त होकर नसीहत का यह सबक तुम्हारे यहाँ भेजना छोड़ दें, सिर्फ़ इसलिए कि तुम हद से गुजरे हुए लोग हो?4
4. इस एक वाक्य में वह पूरी कहानी समेट दी गई है जो मुहम्मद (सल्ल०) के नुबूवत (पैग़म्बरी) के एलान के समय से लेकर इन आयतों के उतरने तक पिछले कुछ सालों में हो गुजरी थी। [और जो क़ुरआन के सुधार सन्देश के जवाब में कुरैश के निकृष्ट विरोध, शरारतों और दुश्मनियों पर आधारित थी। इस दास्तान को सामने रखकर] कहा जा रहा है कि क्या तुम्हारी इस नालायकी की वजह से हम तुम्हारे सुधार की कोशिशें छोड़ दें, शिक्षा और उपदेश का सिलसिला रोक दें? और तुम्हें उसी पस्ती में पड़ा रहने दें जिसमें तुम सदियों से गिरे हुए हो? क्या तुम्हारे नज़दीक वास्तव में हमारी रहमत का तकाज़ा यही होना चाहिए।
وَكَمۡ أَرۡسَلۡنَا مِن نَّبِيّٖ فِي ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 5
(6) पहले गुजरी हुई क़ौमों में भी बार-बार हमने नबी भेजे हैं।
وَمَا يَأۡتِيهِم مِّن نَّبِيٍّ إِلَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 6
(7) कभी ऐसा नहीं हुआ कि कोई नबी उनके यहाँ आया हो और उन्होंने उसका ममममउड़ाया हो।5
5. अर्थात् यह बेहूदगी अगर नबी और किताब के भेजने में रुकावट होती तो किसी कौम में भी कोई नबी न आता, न कोई किताब भेजी जाती।
فَأَهۡلَكۡنَآ أَشَدَّ مِنۡهُم بَطۡشٗا وَمَضَىٰ مَثَلُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 7
(8) फिर जो लोग इनसे कहीं ज्यादा ताक़तवर थे, उन्हें हमने नष्ट कर दिया, पिछली क़ौमों की मिसालें गुज़र चुकी हैं।6
6. अर्थात् विशेष व्यक्तियों को बेहूदगी का नतीजा यह कभी नहीं हुआ कि पूरी मानव जाति को नुबूवत (पैग़म्बरी) और किताब के मार्गदर्शन से वंचित कर दिया जाता, बल्कि इसका नतीजा हमेशा यही हुआ है कि जो लोग बातिलपरस्ती (असत्यवादिता) के नशे और अपनी ताक़त के घमंड में बदमस्त होकर नबियों का मज़ाक उड़ाने से बाज न आएँ, उन्हें आख़िरकार तबाह कर दिया गया।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّنۡ خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ لَيَقُولُنَّ خَلَقَهُنَّ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 8
(9) अगर तुम इन लोगों से पूछो कि ज़मीन और आसमानों को किसने पैदा किया है, तो ये स्वयं कहेंगे कि "उन्हें उसी प्रभुत्वशाली सर्वज्ञ हस्ती ने पैदा किया है।''
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ مَهۡدٗا وَجَعَلَ لَكُمۡ فِيهَا سُبُلٗا لَّعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 9
(10) यही ना जिससे तुम्हारे लिए इस ज़मीन को गहवारा बनाया।7 और उसमें तुम्हारे लिए रास्ते बना दिए,8 ताकि तुम अपनी अभीष्ट मंज़िल की राह पा सको।9
7. अर्थात् जिस तरह एक बच्चा अपने पालने में आराम से लेटा होता है, ऐसे आराम की जगह तुम्हारे लिए उस शानदार भू भाग को बना दिया जो वायुमंडल में स्थित है, हालाँकि उसकी एक साधारण सी झुरझुरी कभी भूकंप के रूप में आकर तुम्हें खबर दे देती है कि यह किसी बला का भयावह देव है जिसे अल्लाह ने तुम्हारे लिए वशीभूत कर रखा है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-27 अन नम्ल, टिप्पणी 74)
8. पहाड़ों के बीच-बीच में दरें, और फिर पहाड़ी और मैदानी इलाकों में नदी, वे कुदरती रास्ते हैं जो अल्लाह ने ज़मीन की पीठ पर बना दिए हैं। इंसान इन्हीं की मदद से धरती पर फैला है। फिर अल्लाह ने और ज़्यादा मेहरबानी यह की कि पूरी धरती को एक जैसा बनाकर नहीं रख दिया, बल्कि उसमें तरह-तरह के ऐसे भूचिह्न (Landmarks) बना दिए जिनकी मदद से इंसान विभिन्न क्षेत्रों को पहचानता है और एक क्षेत्र और दूसरे क्षेत्र का अन्तर महसूस करता है। यह दूसरा महत्त्वपूर्ण माध्यम है जिसकी बदौलत इंसान के लिए ज़मीन में चलत-फिरत आसान हुई।
وَٱلَّذِي نَزَّلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءَۢ بِقَدَرٖ فَأَنشَرۡنَا بِهِۦ بَلۡدَةٗ مَّيۡتٗاۚ كَذَٰلِكَ تُخۡرَجُونَ ۝ 10
(11) जिसने एक विशेष मात्रा में आसमान से पानी उतारा10 और उसके ज़रिये से मुर्दा ज़मीन को जिला उठाया। इसी तरह एक दिन तुम ज़मीन से निकाले आओगे।11
10. अर्थात् हर क्षेत्र के लिए वर्षा की एक औसत मात्रा निश्चित की जो एक लम्बी अवधि तक हर वर्ष सरल तरीक़े से चलती रहती है। फिर वह उसको अलग अलग ज़मानों में और अलग-अलग समयों में जगह-जगह फैलाकर इस तरह बरसाता है कि आम तौर से वह बड़े पैमाने पर ज़मीन को उपजाऊ बनने के लिए लाभदायक होती है। [और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-15 अल-हिज, टिप्पणी 13, 14; सूरा-40 अल-मोमिन, टिप्पणी 17]
11. यहाँ पानी के ज़रिये से ज़मीन के अंदर उपज की क्षमता पैदा करने को एक ही समय में दो चीज़ों का प्रमाण बनाया गया है- एक यह कि ये काम एक ख़ुदा की क़ुदरत और हिकमत से हो रहे हैं। दूसरे यह कि मौत के बाद दोबारा जिंदगी हो सकती है और होगी। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, [सूरा-16 अन-नहल, टिप्पणी 53अ; सूरा-22 अल-हज, टिप्पणी 9; सूरा-27 अन-नम्ल, टिप्पणी 73; सूरा-30 अर रूम, टिप्पणी 25, 35;] सूरा-35 अल-फ़ातिर, टिप्पणी 19; सूरा-36 या-सीन, टिप्पणी 29)
وَٱلَّذِي خَلَقَ ٱلۡأَزۡوَٰجَ كُلَّهَا وَجَعَلَ لَكُم مِّنَ ٱلۡفُلۡكِ وَٱلۡأَنۡعَٰمِ مَا تَرۡكَبُونَ ۝ 11
(12) वही, जिसने ये तमाम जोड़े पैदा किए12 और जिसने तुम्हारे लिए नावों और जानवरों को सवारी बनाया,
12. जोड़ों से तात्पर्य सिर्फ़ नानव-जाति के औरत-मर्द और जीव-जन्तुओं व पेड़-पौधों के नर व मादा ही नहीं हैं, बल्कि दूसरी अनगिनत चीजें भी हैं, जिनको पैदा करनेवाले ने एक-दूसरे का जोड़ बनाया है और जिनके मेल-जोल या मिलन से दुनिया में नई-नई चीजें वुजूद में आती हैं। इन जोड़ों की बनावट, उनके आपसी मेल और उनके काम की अलग-अलग शक्लों और उनके मिलने से पैदा होनेवाले नतीजों पर अगर इंसान विचार करे तो उसका दिल यह गवाही दिए बिना नहीं रह सकता कि जगत का यह सारा कारख़ाना किसी एक ही प्रबल रचनाकार तत्त्वदर्शी का बनाया हुआ है, और उसी के संचालन से यह चल रहा है।
لِتَسۡتَوُۥاْ عَلَىٰ ظُهُورِهِۦ ثُمَّ تَذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ رَبِّكُمۡ إِذَا ٱسۡتَوَيۡتُمۡ عَلَيۡهِ وَتَقُولُواْ سُبۡحَٰنَ ٱلَّذِي سَخَّرَ لَنَا هَٰذَا وَمَا كُنَّا لَهُۥ مُقۡرِنِينَ ۝ 12
(13) ताकि तुम उनकी पीठ पर चढ़ो और जब उनपर बैठो तो अपने रब का उपकार याद करो और कहो कि, "पाक है वह जिसने हमारे लिए इन चीज़ों को वशीभूत कर दिया, वरना हम इन्हें क़ाबू में लाने की शक्ति न रखते थे13
13. अर्थात् ज़मीन की तमाम मख़लूक (सृष्ट चीज़ों) में से अकेले इंसान को नाव और जहाज़ चलाने और सवारी के लिए जानवर इस्तेमाल करने की यह ताक़त अल्लाह ने [जो दी है उसका उपकार न महसूस करना] दिल के मुर्दा और बुद्धि और अन्तरात्मा के चेतनाहीन होने की निशानी है। एक ज़िंदा और सचेत दिल और अन्तरात्मा रखनेवाला इंसान तो इन सवारियों पर जब बैठेगा तो उसका दिल नेमत के एहसास और नेमत के शुक्र की भावना से लबालब हो जाएगा। वह पुकार उठेगा कि पाक (पवित्र) है वह हस्ती जिसने मेरे लिए इन चीज़ों को वशीभूत किया।
وَإِنَّآ إِلَىٰ رَبِّنَا لَمُنقَلِبُونَ ۝ 13
(14) और एक दिन हमें अपने रब की ओर पलटना है।’’14
14. अर्थ यह है कि हर यात्रा पर जाते हुए याद कर लो कि आगे एक बड़ी और अन्तिम यात्रा भी सामने है। अगर इस शिक्षा के नैतिक परिणामों [पर विचार किया जाए तो मालूम होगा कि] यही एक चीज़ हर उस गतिविधि पर बाँध बाँध देने के लिए काफ़ी है जो बुराई के लिए हो।
وَجَعَلُواْ لَهُۥ مِنۡ عِبَادِهِۦ جُزۡءًاۚ إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ لَكَفُورٞ مُّبِينٌ ۝ 14
(15) (यह सब कुछ जानते और मानते हुए भी) इन लोगों ने उसके बन्दों में से कुछ को उसका अंश बना डाला।15 वास्तविकता यह है कि इंसान खुला कृतघ्न है।
15. 'अंश बना देने' से तात्पर्य यह है कि अल्लाह के किसी बन्दे को उसकी सन्तान ठहराया जाए, क्योंकि सन्तान अनिवार्य रूप से बाप ही की जाति की और उसके वुजूद का एक अंश होती है, और किसी व्यक्ति को अल्लाह का बेटा या बेटी कहने का अर्थ ही यह है कि उसे अल्लाह की हस्ती में शरीक किया जा रहा है। इसके अलावा किसी मखलूक को अल्लाह का अंश बनाने की एक शक्ल यह भी है कि उसे उन गुणों और अधिकारों का स्वामी ठहराया जाए जो अल्लाह ही के लिए ख़ास हैं, क्योंकि इस शक्ल में आदमी उपास्य और रब होने को अल्लाह और उसके बन्दों के बीच बाँटता है और उसका एक अंश बन्दों के हवाले कर देता है।
أَمِ ٱتَّخَذَ مِمَّا يَخۡلُقُ بَنَاتٖ وَأَصۡفَىٰكُم بِٱلۡبَنِينَ ۝ 15
(16) क्या अल्लाह ने अपनी मख्लूक़ (रचना) में से अपने लिए बेटियाँ चुनीं और तुम्हें बेटे प्रदान किए?
وَإِذَا بُشِّرَ أَحَدُهُم بِمَا ضَرَبَ لِلرَّحۡمَٰنِ مَثَلٗا ظَلَّ وَجۡهُهُۥ مُسۡوَدّٗا وَهُوَ كَظِيمٌ ۝ 16
(17) और हाल यह है कि जिस सन्तान को ये लोग उस दयालु ख़ुदा से सम्बद्ध करते हैं, उसके पैदा होने की ख़बर जब ख़ुद इनमें से किसी को दी जाती है तो उसके मुंह पर स्याही छा जाती है और वह दुख से भर जाता है।16
16. अरब के मुशरिक कहते थे कि फ़रिश्ते अल्लाह की बेटियाँ हैं। उनके बुत उन्होंने औरतों की शक्ल के बना रखे थे, और यही उनकी वे देवियाँ थीं जिनकी पूजा की जाती थी। इसपर अल्लाह फ़रमाता है कि एक तो तुमने उसके साथ दूसरों को उपास्य बनाया, हालाँकि जिन्हें तुम उपास्य बना रहे हो वे ख़ुदा नहीं, बल्कि बन्दे हैं। फिर और अधिक अन्याय यह किया कि कुछ बन्दों को गुणों ही में नहीं, बल्कि अल्लाह की हस्ती में भी उसका शरीक बना डाला और यह अक़ीदा ईजाद किया कि वे अल्लाह की औलाद हैं। इसपर भी तुमने बस न किया और अल्लाह के लिए वह औलाद प्रस्तावित की जिसे तुम स्वयं अपने लिए लज्जा और अपमान का कारण समझते हो। बेटी घर में पैदा हो जाए तो तुम्हारा मुँह काला हो जाता है, ख़ून का-सा घूँट पीकर रह जाते हो, बल्कि कभी-कभी जिंदा बच्ची को दफ़न कर देते हो। यह औलाद तो आई अल्लाह के हिस्से में और बेटे जो तुम्हारे नज़दीक गर्व करने योग्य औलाद हैं, आरक्षित हो गए तुम्हारे लिए? इसपर तुम्हारा दावा यह है कि हम अल्लाह के माननेवाले हैं।
أَوَمَن يُنَشَّؤُاْ فِي ٱلۡحِلۡيَةِ وَهُوَ فِي ٱلۡخِصَامِ غَيۡرُ مُبِينٖ ۝ 17
(18) क्या अल्लाह के हिस्से में वह सन्तान आई जो ज़ेवरों में पाली जाती है और वाद-विवादों में अपना अभिप्राय पूरी तरह स्पष्ट भी नहीं कर सकती?17
17. दूसरे शब्दों में, जो नर्म व नाज़ुक और कमज़ोर औलाद है, वह तुमने अल्लाह के हिस्से में डाली, और ख़म ठोंककर मैदान में उतरनेवाली औलाद स्वयं ले उड़े। इस आयत से औरतों के लिए जेवर के जायज़ होने का पहलू निकलता है, क्योंकि अल्लाह ने उसके लिए ज़ेवर को एक स्वाभाविक चीज़ बताया है। यही बात नबी (सल्ल०) के कथनों से भी सिद्ध है।
وَجَعَلُواْ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ ٱلَّذِينَ هُمۡ عِبَٰدُ ٱلرَّحۡمَٰنِ إِنَٰثًاۚ أَشَهِدُواْ خَلۡقَهُمۡۚ سَتُكۡتَبُ شَهَٰدَتُهُمۡ وَيُسۡـَٔلُونَ ۝ 18
(19) इन्होंने फ़रिश्तों को, जो दयावान ख़ुदा के खास बन्दे हैं,18 औरतें क़रार दे लिया। क्या उनके शरीर की बनावट इन्होंने देखी है?19 इनकी गवाही लिख ली जाएगी और इन्हें इसकी जवाबदेही करनी होगी?
18. अर्थात् स्त्री या पुरुष होने से परे हैं। यह मतलब सन्दर्भ से स्वयं निकल रहा है।
19. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि "क्या उनकी पैदाइश के वक़्त ये मौजूद थे?"
وَقَالُواْ لَوۡ شَآءَ ٱلرَّحۡمَٰنُ مَا عَبَدۡنَٰهُمۗ مَّا لَهُم بِذَٰلِكَ مِنۡ عِلۡمٍۖ إِنۡ هُمۡ إِلَّا يَخۡرُصُونَ ۝ 19
(20) ये कहते हैं, “अगर दयावान खुदा चाहता (कि हम उनकी इबादत न करें) तो हम कभी उनको न पूजते।20 ये इस मामले की वास्तविकता को बिल्कुल नहीं जानते, सिर्फ़ तीर-तुक्के लड़ाते हैं।
20. यह अपनी गुमराही पर भाग्य से उनकी दलील थी जो हमेशा से बुरे काम करनेवाले लोगों का तरीक़ा रहा है। उनका कहना यह था कि हमारा फ़रिश्तों की इबादत करना इसी लिए तो संभव हुआ कि अल्लाह ने हमें यह काम करने दिया। अगर वह न चाहता कि हम यह काम करें तो हम कैसे कर सकते थे। फिर एक लंबी मुद्दत से हमारे यहाँ यह काम हो रहा है और अल्लाह की ओर से इसपर कोई अज़ाब न आया। इसके माने ये हैं कि अल्लाह को हमारा यह काम नापसन्द नहीं है।
أَمۡ ءَاتَيۡنَٰهُمۡ كِتَٰبٗا مِّن قَبۡلِهِۦ فَهُم بِهِۦ مُسۡتَمۡسِكُونَ ۝ 20
(21) क्या हमने इससे पहले कोई किताब इनको दी थी, जिसका प्रमाण (फरिश्तों के प्रति अपनी इस पूजा के लिए) ये अपने पास रखते हों?21
21. मतलब यह है कि ये लोग अपनी अज्ञानता से यह समझते हैं कि जो कुछ दुनिया में हो रहा है, वह चूँकि अल्लाह की इच्छा से हो रहा है, इसलिए ज़रूर उसको अल्लाह की ख़ुशी भी हासिल है। हालाँकि अल्लाह की पसन्द और नापसन्द मालूम होने का ज़रिया वे घटनाएँ नहीं हैं जो दुनिया में हो रही हैं, बल्कि अल्लाह की किताब है जो उसके रसूल के जरिये से आती है और जिसमें अल्लाह स्वयं बताता है कि उसे कौन-सी धारणाएँ, कौन-से कर्म और कौन-से चरित्र पसन्द हैं और कौन-से नापसन्द। तो अगर क़ुरआन से पहले आई हुई कोई किताब इन लोगों के पास ऐसी मौजूद हो, जिसमें अल्लाह ने यह फ़रमाया हो कि फ़रिश्ते भी मेरे साथ तुम्हारे उपास्य हैं और तुमको उनकी इबादत भी करनी चाहिए, तो ये लोग उसका हवाला दें। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, [सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 71, 80, 110, 124, 125; सूरा-7 अल-आराफ़, टिप्पणी 17, 183; सूरा-10 यूनुस, टिप्पिणी 101; सूरा-11 हृद, टिप्पणी 116; सूरा-13 अर-रअद, टिप्पणी 49; सूरा-16 अन-नहल, टिप्पणी 10, 30 से 32, 94-95,] सूरा-39 ज़ुमर, टिप्पणी 20; सूरा-42 शूरा, टिप्पणी 11)
بَلۡ قَالُوٓاْ إِنَّا وَجَدۡنَآ ءَابَآءَنَا عَلَىٰٓ أُمَّةٖ وَإِنَّا عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِم مُّهۡتَدُونَ ۝ 21
(22) नहीं, बल्कि ये कहते हैं कि हमने अपने बाप-दादा को एक तरीक़े पर पाया है और हम उन्हीं के पद-चिह्नों पर चल रहे हैं।22
22. अर्थात् इनके पास अल्लाह की किसी किताब का कोई प्रमाण नहीं है, बल्कि प्रमाण केवल यह है कि बाप-दादा से यूँ ही होता चला आ रहा है, इसलिए हम भी उन्हीं की पैरवी में फ़रिश्तों को देवियाँ बनाए बैठे हैं।
وَكَذَٰلِكَ مَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ فِي قَرۡيَةٖ مِّن نَّذِيرٍ إِلَّا قَالَ مُتۡرَفُوهَآ إِنَّا وَجَدۡنَآ ءَابَآءَنَا عَلَىٰٓ أُمَّةٖ وَإِنَّا عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِم مُّقۡتَدُونَ ۝ 22
(23) इसी तरह तुमसे पहले जिस बस्ती में भी हमने कोई डरानेवाला भेजा, उसके खाते-पीते लोगों ने यही कहा कि हमने अपने बाप-दादा को एक तरीक़े पर पाया है और हम उन्हीं के पद-चिह्नों की पैरवी कर रहे हैं।23
23. यह बात विचारणीय है कि नबियों के मुकाबले में उठकर बाप-दादा की पैरवी का झंडा ऊँचा करनेवाले हर ज़माने में अपनी क़ौम के खाते-पीते लोग ही क्यों रहे हैं ? इसके मूल कारण दो थे- एक यह कि खाते-पीते और खुशहाल वर्ग अपनी दुनिया बनाने और उससे आनन्दित होने में इतने मग्न होते हैं कि अपने दंभ के कारण और असत्य के व्यर्थ तर्क-वितर्क में सर खपाने के लिए तैयार नहीं होते। दूसरे यह कि जमी-जमाई व्यवस्था से उनके हित पूरी तरह जुड़ चुके होते हैं और नबियों की पेश की हुई व्यवस्था को देखकर पहली ही नज़र में वे भाँप जाते हैं कि यह आएगा तो इनकी चौधराहट की चादर भी लपेटकर रख दी जाएगी और इनके लिए हराम के खाने और हराम के काम की भी कोई आज़ादी बाक़ी न रहेगी। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-6 अल-अनआम, आयत 123, 124; सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 60, 66, 75, 88,109, 127; सूरा-11 हूद आयत 27, 38; सूरा-17 बनी इसराईल, आयत 104; सूरा-16 अल-मोमिनून, आयत 24, 33, 46 से 48;] सूरा-34 सबा, आयत 34, टिप्पणी 54)
۞قَٰلَ أَوَلَوۡ جِئۡتُكُم بِأَهۡدَىٰ مِمَّا وَجَدتُّمۡ عَلَيۡهِ ءَابَآءَكُمۡۖ قَالُوٓاْ إِنَّا بِمَآ أُرۡسِلۡتُم بِهِۦ كَٰفِرُونَ ۝ 23
(24) हर नबी ने उससे पूछा, क्या तुम उसी डगर पर चले जाओगे, चाहे मैं तुम्हें उस रास्ते से ज़्यादा सही रास्ता बताऊँ जिसपर तुमने अपने बाप-दादा को पाया है ? उन्होंने सारे रसूलों को यही जवाब दिया कि जिस दीन को और बुलाने के लिए तुम भेजे गए हो, हम उसके इंकारी हैं।
فَٱنتَقَمۡنَا مِنۡهُمۡۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 24
(25) अन्तत: हमने उनकी ख़बर ले डाली और देख लो कि झुठलानेवालों का क्या अंजाम हुआ।
وَإِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِيمُ لِأَبِيهِ وَقَوۡمِهِۦٓ إِنَّنِي بَرَآءٞ مِّمَّا تَعۡبُدُونَ ۝ 25
(26) याद करो वह समय जब इबराहीम ने अपने बाप और अपनी क़ौम से कहा था कि24 "तुम जिनकी बन्दगी करते हो, मेरा उनसे कोई ताल्लुक़ नहीं।
24. विस्तृत विवरण के लिए देखिए [सूरा-2 अल-बकरा, आयत 124 से 133; सूरा-6 अल-अनआम, आयत 74 से 83; सूरा-14 इबराहीम, आयत 35 से 41; सूरा-19 मरयम, आयत 41 से 50; सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 51 से 73; सूरा-26 अश-शुअरा, आयत 69 से 87; सूरा-29 अल-अनकबूत, आयत 16 से 27] ; सूरा-37 अस्साफ़्फ़ात, आयत 83 से 100, टिप्पणी 44 से 55
إِلَّا ٱلَّذِي فَطَرَنِي فَإِنَّهُۥ سَيَهۡدِينِ ۝ 26
(27) मेरा ताल्लुक़ सिर्फ़ उससे है जिसने मुझे पैदा किया, वही मेरा मार्गदर्शन करेगा।’’25
25. इन शब्दों में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने केवल अपना अकीदा (विश्वास) ही बयान नहीं किया, बल्कि इसका तर्क भी दे दिया। दूसरे उपास्यों से ताल्लुक़ न रखने का कारण यह है कि न उन्होंने पैदा किया है, न वे किसी मामले में सही रहनुमाई करते हैं, न कर सकते हैं। और केवल एक अल्लाह, जिसका कोई साझीदार नहीं, से ताल्लुक़ जोड़ने का कारण यह है कि वही पैदा करनेवाला है और वही इंसान का सही मार्गदर्शन करता है और कर सकता है।
وَجَعَلَهَا كَلِمَةَۢ بَاقِيَةٗ فِي عَقِبِهِۦ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 27
(28) और इबराहीम यही कलिमा26 अपने पीछे अपनी औलाद में छोड़ गया ताकि वे इसकी ओर रुजू करें।27
26. अर्थात् यह बात कि पैदा करनेवाले के अलावा कोई उपास्य होने का अधिकारी नहीं है।
27. अर्थात् जब भी सीधे रास्ते से तनिक क़दम हटे तो यह कलिमा उनके मार्गदर्शन के लिए मौजूद रहे और वे उसी की ओर पलट आएँ। इस घटना को जिस मक़सद के लिए यहाँ बयान किया गया है, वह यह है कि क़ुरैश के इस्लाम-विरोधियों की अशिष्टता और दुर्जनता को पूरी तरह उजागर कर दिया जाए और उन्हें इस बात पर शर्म दिलाई जाए कि तुमने बुज़ुर्गों की पैरवी अपनाई भी तो उसके लिए अपने बेहतरीन बुज़ुर्ग हज़रत इबराहीम और हज़रत इसमाईल (अलैहि०) को छोड़कर अपने अत्यन्त बुरे पुरखों को चुना, जिन्होंने हज़रत इबराहीम व इसमाईल (अलैहि०) के तरीक़ों को छोड़कर आसपास की बुतपरस्त क़ौमों से शिर्क सीख लिया।
بَلۡ مَتَّعۡتُ هَٰٓؤُلَآءِ وَءَابَآءَهُمۡ حَتَّىٰ جَآءَهُمُ ٱلۡحَقُّ وَرَسُولٞ مُّبِينٞ ۝ 28
(29) (इसके बावजूद जब ये लोग दूसरों की बन्‍दगी करने लगे तो मैंने उनको मिटा नहीं दिया) बल्कि मैं उन्‍हें और उनके बाप- दादा की जीवन-सामग्री देता रहा, यहाँ तक कि इनके पास सत्य और खोल-खोलकर बयान करनेवाला रसूल28 आ गया।
28. मूल अरबी में रमूनुम-मुबीन' के शब्द प्रयुक्त हुए हैं, जिनका दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि ऐसा रमूल आ गया जिसका रसुल होना बिल्कुल साफ और स्पष्ट था।
وَلَمَّا جَآءَهُمُ ٱلۡحَقُّ قَالُواْ هَٰذَا سِحۡرٞ وَإِنَّا بِهِۦ كَٰفِرُونَ ۝ 29
(30) मगर जब वह सत्य इनके पास आया तो इन्होंने कह दिया कि यह तो जादू है29 और हम इसको मानने से इंकार करते हैं।
29. व्याख्या के लिए देखिए, [सूरा-21 अल-अंबिया, टिप्पणी 5, सूरा-38 साँद, टिप्पणी 5
وَقَالُواْ لَوۡلَا نُزِّلَ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانُ عَلَىٰ رَجُلٖ مِّنَ ٱلۡقَرۡيَتَيۡنِ عَظِيمٍ ۝ 30
(31) कहते हैं कि यह क़ुरआन दोनों नगरों के बड़े आदमियों में से किसी पर क्यों न उतारा गया?30
30. दोनों नगरों से तात्पर्य मक्का और ताइफ हैं। इस्लाम विरोधियों का यह कहना था कि अगर वाक़ई ख़ुदा को कोई रसूल भेजना होता और वह उसपर अपनी किताब उतारने का इरादा करता तो हमारे इन केन्द्रीय शहरों में से किसी बड़े आदमी को इस मकसद के लिए चुनता। रमूल बनाने के लिए अल्लाह को मिला भी तो वह व्यक्ति जो यतीम (अनाथ) पैदा हुआ, जिसके [पास न दौलत है, न किसी वंश की सरदारी।] ये था उन लोगों का तर्क । पहले तो वे यही मानने को तैयार न थे कि कोई बशर (ईसान) भी रमूल हो सकता है, मगर जब क़ुरआन मजीद में एक के बाद एक प्रमाण देकर उनके इस विचार को पूरी तरह ग़लत साबित कर दिया गया, तो उन्होंने यह दूसरा पैंतरा बदला कि अच्छा, इंसान ही रमूल सही, मगर वह कोई बड़ा आदमी होना चाहिए।
أَهُمۡ يَقۡسِمُونَ رَحۡمَتَ رَبِّكَۚ نَحۡنُ قَسَمۡنَا بَيۡنَهُم مَّعِيشَتَهُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَرَفَعۡنَا بَعۡضَهُمۡ فَوۡقَ بَعۡضٖ دَرَجَٰتٖ لِّيَتَّخِذَ بَعۡضُهُم بَعۡضٗا سُخۡرِيّٗاۗ وَرَحۡمَتُ رَبِّكَ خَيۡرٞ مِّمَّا يَجۡمَعُونَ ۝ 31
(32) क्या तेरे रख रहमत ये लोग बाँटते हैं? दुनिया की जिंदगी में इनके गुजर-बसर के साधनों को तो हमने इनके बीच बांट हैं, और इनमें से कुछ लोगों को कुछ दूसरे लोगों पर हमने कहीं अधिक उच्चता दी है ताकि ये एक दूसरे से सेवा लें।31 और तेरे रख की रहमत (अर्थात् नुबूबत) उस दौलत से अधिक मूल्यवान है जो (इनके धनवान) समेट रहे हैं।32
31. यह उनकी आपत्ति का उत्तर है, जिसके अंदर कुछ थोड़े से शब्दों में बहुत सी महत्त्वपूर्ण बातें कही गई हैं- पहली बात यह कि क्या यह तय करना इनका काम है कि अल्लाह अपनी रहमत किसको प्रदान करें और किसको प्रदान न करे? (यहाँ रब की रहमत से मुराद उसकी आम रहमत है, जिसमें से हर एक को कुछ न कुछ मिलता रहता है।) दूसरी बात यह कि नुबूवत (पैगम्बरी) तो खैर बहुत बड़ी चीज़ है, दुनिया में जिंदगी बसर करने के जो आम साधन हैं, उनका बँटवारा भी हमने अपने ही हाथ में रखा है, किसी और के हवाले नहीं कर दिया। हम किसी को सुन्दर और किसी को बदसूरत, किसी को शक्तिशाली देव, किसी को कमज़ोर, किसी को बुद्धिमान और किसी को मन्दबुद्धि, किसी को सही-सलामत अंगोंवाला और किसी को अपंग, किसी को अमीर बाप का बेटा और किसी को फ़कीर बाप का बेटा और किसी को तरक़्क़ी-याफ़्ता (उन्नत) क़ौम का व्यक्ति, और किसी को ग़ुलाम या पिछड़ी जाति का व्यक्ति पैदा करते हैं। इस पैदाइशी बँटवारे में कोई तनिक भर भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता। जिसको जो कुछ हमने बना दिया है, वही कुछ बनने पर वह मजबूर है और इन अलग-अलग पैदाइशी हालतों का जो प्रभाव भी किसी के भाग्य पर पड़ता है, उसे बदल देना किसी के बस में नहीं है। फिर इंसानों के बीच रोजी, ताक़त, इज्जत, शोहरत, धन, सत्ता आदि का वितरण भी हम ही कर रहे हैं। पूरी दुनिया की इस विश्वव्यापी व्यवस्था में ये लोग कहाँ फ़ैसला करने चले हैं कि जगत का मालिक किसे अपना नबी बनाए और किसे न बनाए। तीसरी बात यह कि इस ईश-प्रबन्ध में यह स्थाई नियम सामने रखा गया है कि सब कुछ एक ही को या सब कुछ सबको न दे दिया जाए। आँखें खोलकर देखो, हर ओर तुम्हें बन्दों के बीच हर पहलू में अन्तर ही अन्तर दिखाई पड़ेगा। किसी को हमने कोई चीज़ दी है तो दूसरी किसी चीज़ से उसको वंचित कर दिया है और वह किसी और को प्रदान कर दी है, यह इस हिकमत के आधार पर किया गया है कि कोई इंसान दूसरों से बेनियाज़ न हो, बल्कि हर एक किसी न किसी मामले में दूसरे का मुहताज रहे। अब यह कैसा मूर्खतापूर्ण विचार तुम्हारे दिमाग़ में समाया है कि जिसे हमने शासन और सत्ता दी है, उसी को नुबूवत भी दे दी जाए? क्या इसी तरह तुम यह भी कहोगे कि बुद्धि, ज्ञान, धन, सौन्दर्य, शक्ति, सत्ता और दूसरे तमाम गुण एक ही में जमा कर दिए जाएँ और जिसको एक चीज़ नहीं मिली है उसे दूसरी भी कोई चीज़ न दी जाए?
32. यहाँ रब की रहमत से मुराद उसकी विशेष रहमत अर्थात् नुबूवत (पैग़म्बरी) है। मतलब यह है कि तुम अपने जिन धनवानों को उनके धन, शक्ति और सरदारी की वजह से बड़ी चीज़ समझ रहे हो, वे इस दौलत के योग्य नहीं हैं जो मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह (सल्ल०) को दी गई है। यह दौलत उस दौलत से कहीं ऊँचे दर्जे की है और इसके लिए योग्यता की कसौटी कुछ और है। तुमने अगर यह समझ रखा है कि तुम्हारा हर चौधरी और सेठ नबी बनने के योग्य है, तो यह तुम्हारे अपने ही मन की हीनता है। अल्लाह से इस नादानी की आशा क्यों रखते हो?
وَلَوۡلَآ أَن يَكُونَ ٱلنَّاسُ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ لَّجَعَلۡنَا لِمَن يَكۡفُرُ بِٱلرَّحۡمَٰنِ لِبُيُوتِهِمۡ سُقُفٗا مِّن فِضَّةٖ وَمَعَارِجَ عَلَيۡهَا يَظۡهَرُونَ ۝ 32
(33) अगर यह आशंका न होती कि सारे लोग एक ही तरीक़े के हो जाएँगे, तो हम दयावान ख़ुदा का इंकार करनेवालों के घरों की छतें, और उनकी सीढ़ियाँ जिनसे वे अपने बालाख़ानों (ऊपरी मंज़िलों) पर चढ़ते हैं।
وَلِبُيُوتِهِمۡ أَبۡوَٰبٗا وَسُرُرًا عَلَيۡهَا يَتَّكِـُٔونَ ۝ 33
(34) और उनके दरवाज़ों और उनके तख्त जिनपर वे तकिए लगाकर बैठते हैं,
وَزُخۡرُفٗاۚ وَإِن كُلُّ ذَٰلِكَ لَمَّا مَتَٰعُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَٱلۡأٓخِرَةُ عِندَ رَبِّكَ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 34
(35) सब चाँदी और सोने के बना देते।33 यह तो केवल दुनिया की जिंदगी की सामग्री है, और आख़िरत तेरे रब के यहाँ केवल हर रखनेवालों के लिए है।
33. अर्थात् यह सोना-चाँदी, जिसका किसी को मिल जाना तुम्हारी निगाह में नेमत की इन्तिहा और मूल्यवान होने की पराकाष्ठा है, अल्लाह की नज़र में इतनी तुच्छ चीज़ है कि अगर तमाम इंसानों के अधर्म की ओर ढलक पड़ने का ख़तरा न होता, तो हर विधर्मी का घर सोने-चाँदी का बना होता। इस सोने-चाँदी की अधिकता आखिर कब से इंसान की सज्जनता और मन की पवित्रता और आत्मा की पाकी की दलील बन गई? यह माल तो उन अत्यन्त दुराचारी इंसानों के पास भी पाया जाता है जिनके घिनौने चरित्र की सड़ाध से सारा समाज दुर्गंध से भर जाता है। इसे तुमने आदमी की बड़ाई की कसौटी बना रखा है।
وَمَن يَعۡشُ عَن ذِكۡرِ ٱلرَّحۡمَٰنِ نُقَيِّضۡ لَهُۥ شَيۡطَٰنٗا فَهُوَ لَهُۥ قَرِينٞ ۝ 35
(36) जो व्यक्ति रहमान की याद से34 ग़फ़लत बरतता है, हम उसपर एक शैतान मुसल्लत (नियुक्त) कर देते हैं और वह उसका साथी बन जाता है ।
34. व्यापक शब्द है। रहमान की याद' से मुराद उसकी याद भी है, उसकी ओर से आया हुआ उसका उपदेश भी, और यह क़ुरआन भी।
وَإِنَّهُمۡ لَيَصُدُّونَهُمۡ عَنِ ٱلسَّبِيلِ وَيَحۡسَبُونَ أَنَّهُم مُّهۡتَدُونَ ۝ 36
(37) ये शैतान ऐसे लोगों को सीधे रास्ते पर आने से रोकते हैं और वे अपनी जगह यह समझते हैं कि हम ठीक जा रहे हैं।
حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَنَا قَالَ يَٰلَيۡتَ بَيۡنِي وَبَيۡنَكَ بُعۡدَ ٱلۡمَشۡرِقَيۡنِ فَبِئۡسَ ٱلۡقَرِينُ ۝ 37
(38) अन्तत: जब यह व्यक्ति हमारे यहाँ पहुँचेगा तो अपने शैतान से कहेगा, “काश, मेरे और तेरे बीच पूरब-पच्छिम की दूरी होती, तू तो सबसे बुरा साथी निकला।"
وَلَن يَنفَعَكُمُ ٱلۡيَوۡمَ إِذ ظَّلَمۡتُمۡ أَنَّكُمۡ فِي ٱلۡعَذَابِ مُشۡتَرِكُونَ ۝ 38
(39) उस समय इन लोगों से कहा जाएगा कि जब तुम ज़ुल्म कर चुके तो आज यह बात तुम्हारे लिए कुछ भी लाभप्रद नहीं है कि तुम और तुम्हारे शैतान अज़ाब में सहभागी हैं।35
35. अर्थात इस बात में तुम्‍हारे लिए तसल्‍ली का कोई पहलू नहीं है कि तुम्‍हें ग़लत राह पर डालनेवाले को सज़ा मिल रही है, क्योंकि वही सज़ा गुमराही अपनाने के बदले में तुम भी पा रहे हो।
أَفَأَنتَ تُسۡمِعُ ٱلصُّمَّ أَوۡ تَهۡدِي ٱلۡعُمۡيَ وَمَن كَانَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 39
(40) अब क्या ऐ नबी! तुम बहरों को सुनाओगे? या अँधों और खुली गुमराही में पड़े हुए लोगों को राह दिखाओगे?36
36. मतलब यह है कि जो सुनने के लिए तैयार हों और जिन्होंने सच्चाइयों की ओर से आँखें बन्द न कर ली हों, उनकी ओर ध्यान दो और अंधों को दिखाने और बहरों को सुनाने की कोशिश में अपनी जान न खपाओ, न इस ग़म में अपने आपको घुलाते रहो कि तुम्हारे ये भाई-बंद क्यों सीधे रास्ते पर नहीं आते और क्यों अपने आपको ख़ुदा के अज़ाब का हक़दार बना रहे हैं।
فَإِمَّا نَذۡهَبَنَّ بِكَ فَإِنَّا مِنۡهُم مُّنتَقِمُونَ ۝ 40
(41) अब तो हमें इनको सज़ा देनी है, चाहे हम तुम्हें दुनिया से उठा लें,
أَوۡ نُرِيَنَّكَ ٱلَّذِي وَعَدۡنَٰهُمۡ فَإِنَّا عَلَيۡهِم مُّقۡتَدِرُونَ ۝ 41
(42) या तुमको आँखों से इनका वह अंजाम दिखा दें जिसका हमने इनसे वादा किया है, हमें इन पर पूरी सामर्थ्य प्राप्त है।37
37. मक्का के इस्लाम-विरोधी यह समझ रहे थे कि मुहम्मद (सल्ल०) की ज़ात ही उनके लिए मुसीबत बनी हुई है। यह काँटा बीच से निकल जाए तो फिर सब अच्छा हो जाएगा। इस ग़लत गुमान के कारण वे रात-दिन बैठ-बैठकर मश्विरे करते थे कि आप (सल्ल०) को किसी न किसी तरह ख़त्म कर दिया जाए। इसपर अल्लाह उनकी ओर से रुख फेरकर अपने नबी को सम्बोधित करते हुए फ़रमाता है कि तुम्हारे रहने या न रहने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। तुम ज़िंदा रहोगे तो तुम्हारी आँखों के सामने उनकी शामत आएगी, उठा लिए जाओगे तो तुम्हारे पीछे उनकी ख़बर ली जाएगी। कर्मों का दुष्परिणाम अब उनका दामन थाम चुका है जिससे ये बच नहीं सकते।
فَٱسۡتَمۡسِكۡ بِٱلَّذِيٓ أُوحِيَ إِلَيۡكَۖ إِنَّكَ عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 42
(43) तुम हर हाल में उस किताब को मज़बूती से थामे रहो जो वह्य के ज़रिये से तुम्हारे पास भेजी गई है, निश्चय ही तुम सीधे रास्ते पर हो।38
38. अर्थात् तुम इस चिन्ता में न पड़ो कि अन्याय और बेईमानी के साथ सत्य का विरोध करनेवाले अपने किए की क्या और कब सज़ा पाते हैं, न इस बात की चिन्ता करो कि इस्लाम को तुम्हारी जिंदगी में उन्नति प्राप्त होती है या नहीं। तुम्हारे लिए बस यह इत्मीनान काफ़ी है कि तुम हक़ पर हो। इसलिए नतीजों की चिन्ता किए बिना अपना कर्तव्य निभाते चले जाओ और यह अल्लाह पर छोड़ दो कि वह असत्य का सिर तुम्हारे सामने नीचा करता है या तुम्हारे पीछे।
وَإِنَّهُۥ لَذِكۡرٞ لَّكَ وَلِقَوۡمِكَۖ وَسَوۡفَ تُسۡـَٔلُونَ ۝ 43
(44) वास्तविकता तो यह है कि यह किताब तुम्हारे लिए और तुम्हारी क़ौम के लिए बहुत बड़ा सम्मान है और बहुत जल्द तुम लोगों को इसकी जवाबदेही करनी होगा39
39. अर्थात् इससे बढ़कर किसी आदमी का सौभाग्य नहीं हो सकता कि तमाम इंसानों में से उसको अल्लाह अपनी किताब अवतरित करने के लिए चुने और किसी क़ौम के हक़ में भी इससे बड़े सौभाग्य की कल्पना नहीं की जा सकती कि दुनिया की दूसरी सब क़ौमों को छोड़कर अल्लाह उसके यहाँ अपना नबी पैदा करे और उसकी भाषा में अपनी किताब उतारे और उसे दुनिया में ईश सन्देशवाहक बनकर उठने का अवसर दे। इस महान श्रेय का एहसास अगर कुरैश और अरबवालों को नहीं है और वे उसकी नाक़द्री करना चाहते हैं तो एक समय आएगा जब उन्हें इसकी जवाबदेही करनी होगी।
وَسۡـَٔلۡ مَنۡ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ مِن رُّسُلِنَآ أَجَعَلۡنَا مِن دُونِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ءَالِهَةٗ يُعۡبَدُونَ ۝ 44
(45) तुमसे पहले हमने जितने रसूल भेजे थे, उन सबसे पूछ देखो, क्या हमने दयावान ख़ुदा के सिवा कुछ दूसरे उपास्य भी मुक़र्रर किए थे कि उनकी बन्दगी की जाए?40
40. रसूलों से पूछने का मतलब उनकी लाई हुई किताबों से मालूम करना है, अर्थात् यह कि अल्लाह के रसूल दुनिया में जो शिक्षाएँ छोड़ गए हैं, उन सब में तलाश करके देख लो। आखिर किसने यह बात सिखाई थी कि महान अल्लाह के सिवा भी कोई उपासना का अधिकारी है?
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مُوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَآ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦ فَقَالَ إِنِّي رَسُولُ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 45
(46) हमने41 मूसा को अपनी निशानियों के साथ42 फ़िरऔन और उसके राज्य प्रमुखों के पास भेजा, और उसने जाकर कहा कि मैं जगत के पालनहार का रसूल हूँ।
41. यह किस्सा यहाँ तीन उद्देश्यों के लिए बयान किया गया है- एक यह कि अल्लाह जब किसी देश और किसी क़ौम में अपना नबी भेजकर उसे वह अवसर प्रदान करता है जो मुहम्मद (सल्ल०) को नबी बनाकर अब अरबवालों को उसने प्रदान किया है, और वह उसकी क़द्र करने और उससे लाभ उठाने के बजाय वह मूर्खता दिखाती है जो फ़िरऔन और उसकी क़ौम ने दिखाई थी, तो फिर उसका वह अंजाम होता है जो इतिहास में शिक्षाप्रद नमूना बन चुका है। दूसरे यह कि फ़िरऔन ने भी मूसा (अलैहि०) को इसी तरह तुच्छ समझा था जिस तरह अब क़ुरैश के इस्लाम-विरोधी अपने सरदारों के मुकाबले में मुहम्मद (सल्ल०) को तुच्छ समझ रहे हैं। मगर अल्लाह का फैसला कुछ और था जिसने आख़िर बता दिया कि वास्तव में तुच्छ व अपमानित कौन था। तीसरे यह कि अल्लाह की आयतों के साथ मज़ाक़ और उसकी चेतावनियों के मुक़ाबले में हेकड़ी दिखाना कोई सस्ता सौदा नहीं है, बल्कि यह सौदा बहुत महँगा पड़ता है। इसकी सज़ा जो भुगत चुके हैं, उनकी मिसाल से शिक्षा न लोगे तो स्वयं भी एक दिन वही सजा भुगत कर रहोगे।
42. इनसे तात्पर्य वे प्रारम्भिक निशानियाँ हैं जिन्हें लेकर हज़रत मूसा (अलैहि०) फ़िरऔन के दरबार में गए थे, अर्थात् असा (डंडा) और यदे-वैज़ा (सफ़ेद हाथ) (व्याख्या के लिए देखिए [सूरा-7 अल-आराफ़, आयतें 106 से 117; सूरा-20 ता-हा, आयत 19 से 22, 56; सूरा-26 अश-शुअरा, आयत 32 से 46, सूरा-27 अन-नम्ल, आयत 10 से 12; सूरा-28 अल-क़सस, आयत 31 से 32]
فَلَمَّا جَآءَهُم بِـَٔايَٰتِنَآ إِذَا هُم مِّنۡهَا يَضۡحَكُونَ ۝ 46
(47) फिर जब उसने हमारी निशानियाँ उनके सामने पेश की तो वे ठट्टे मारने लगे।
وَمَا نُرِيهِم مِّنۡ ءَايَةٍ إِلَّا هِيَ أَكۡبَرُ مِنۡ أُخۡتِهَاۖ وَأَخَذۡنَٰهُم بِٱلۡعَذَابِ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 47
(48) हम एक पर एक ऐसी निशानी उनको दिखाते चले गए जो पहली से बढ़-चढ़कर थी, और हमने उनको अज़ाब में धर लिया कि वे अपने रवैये से बाज़ आएँ।43
43. इन निशानियों से तात्पर्य वे निशानियाँ हैं जो बाद में अल्लाह ने हज़रत मूसा (अलैहि०) के जरिये से उनको दिखाई। [विस्तार के लिए देखिए सूरा-17 बनी इसराईल, टिप्पणी 113]
وَقَالُواْ يَٰٓأَيُّهَ ٱلسَّاحِرُ ٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ بِمَا عَهِدَ عِندَكَ إِنَّنَا لَمُهۡتَدُونَ ۝ 48
(49) हर अज़ाब के मौके पर वे कहते, "ऐ जादूगर! अपने रब की ओर से जो पद तुझे मिला हुआ है, उसके आधार पर हमारे लिए उससे दुआ कर, हम ज़रूर सीधे रास्ते पर आ जाएँगे।"
فَلَمَّا كَشَفۡنَا عَنۡهُمُ ٱلۡعَذَابَ إِذَا هُمۡ يَنكُثُونَ ۝ 49
(50) मगर ज्यों ही कि हम उनपर से अज़ाब हटा देते, वे अपनी बात से फिर जाते थे।44
44. फ़िरऔन और उसकी क़ौम के सरदारों की हठधर्मी का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जब वे अल्लाह के अज़ाब से तंग आकर हज़रत मूसा (अलैहि०) से उसके टलने की दुआ कराना चाहते थे, उस वक्त भी वे आप (अलैहि०) को पैग़म्बर कहने के बजाय जादूगर ही कहकर सम्बोधित करते थे। हालाँकि वे जादू की वास्तविकता से अपरिचित न थे, और उनसे यह बात छिपी हुई न थी कि ये चमत्कार किसी जादू से सामने नहीं आ सकते। रहा यह प्रश्न कि जब दुआ की दरखास्त करते वक्त भी वह खुल्लम-खुल्ला हज़रत मूसा (अलैहि०) का अपमान करता था, तो आप (अलैहि०) उसकी दरख़ास्त क़बूल ही क्यों करते थे? इसका उत्तर यह है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के सामने अल्लाह के हुक्‍म से उन लोगों पर हुज्जत पूरी करनी थी। [यानी सत्य को इस प्रकार स्पष्ट कर देना था कि उनके पास असत्य पर चलने के लिए किसी प्रकार की दलील बाक़ी न रहे] अज़ाब टालने के लिए उनका आप (अलैहि०) से दुआ की दरख़ास्त करना यह सिद्ध कर रहा था कि अपने दिलों में वे जान चुके हैं कि ये अज़ाब क्यों आ रहे हैं? कहाँ से आ रहे हैं? और कौन उन्हें टाल सकता है? इसके बावजूद जब वे हठधर्मी के साथ आप (अलैहि०) को जादूगर कहते थे और अज़ाब टल जाने के बाद सीधा रास्ता क़बूल करने के वादे से फिर जाते थे, तो वास्तव में वे अल्लाह के नबी का कुछ न बिगाड़ते थे, बल्कि अपने विरुद्ध उस मुक़द्दमे को और अधिक मज़बूत करते चले जाते थे जिसका फ़ैसला अल्लाह ने उनको पूरी तरह जड़ से उखाड़ फेंकने की शक्ल में कर दिया।
وَنَادَىٰ فِرۡعَوۡنُ فِي قَوۡمِهِۦ قَالَ يَٰقَوۡمِ أَلَيۡسَ لِي مُلۡكُ مِصۡرَ وَهَٰذِهِ ٱلۡأَنۡهَٰرُ تَجۡرِي مِن تَحۡتِيٓۚ أَفَلَا تُبۡصِرُونَ ۝ 50
(51) एक दिन फ़िरऔन ने अपनी क़ौम के दर्मियान पुकारकर कहा,45 "लोगो! क्या मिस्र की बादशाही मेरी नहीं है, और ये नहरें मेरे नीचे नहीं बह रही हैं? क्या तुम लोगों को नज़र नहीं आता?46
45. शायद पूरी क़ौम में पुकारने का व्यावहारिक रूप यह रहा होगा कि फ़िरऔन ने जो बात अपने दरबार में राज्य के सरदारों और अधिकारियों और क़ौम के बड़े-बड़े लोगों को सम्बोधित करके कही थी, उसी को मुनादी करनेवालों के ज़रिये से पूरे देश के शहरों और गाँवों में फैलाया गया होगा।
46. मुनादी का यह विषय ही स्पष्ट रूप से बता रहा है कि हिज़ मजेस्टी (महामहिम) के पाँव तले से ज़मीन निकली जा रही थी। हज़रत मूसा (अलैहि०) के एक के बाद एक आनेवाले चमत्कारों ने देश के लोगों का विश्वास अपने देवताओं पर से डगमगा दिया था और फ़िरऔनों का बाँधा हुआ वह सारा जादू टूट गया था, जिसके द्वारा ख़ुदाओं का अवतार बनकर यह परिवार मिस्र में अपनी खुदावन्दो चला रहा था। इसी परिस्थिति को देखकर फ़िरऔन चीख़ उठा कि कमबख्तो ! तुम्हें आँखों से नज़र नहीं आता कि इस देश में बादशाही किस की है और नील नदी से निकली हुई ये नहरें, जिनपर तुम्हारा सम्पूर्ण आर्थिक ढाँचा निर्भर करता है, किसके आदेश से जारी हैं ? ये विकास (Development) के काम तो मेरे और मेरे वंश के द्वारा किए हुए हैं और तुम आसक्त हो रहे हो इस फ़क़ीर पर।
أَمۡ أَنَا۠ خَيۡرٞ مِّنۡ هَٰذَا ٱلَّذِي هُوَ مَهِينٞ وَلَا يَكَادُ يُبِينُ ۝ 51
(52) मैं बेहतर हूँ या यह व्यक्ति जो अपमानित और तुच्छ है?47 और अपनी बात भी खोलकर बयान नहीं कर सकता?48
47. अर्थात् जिसके पास न माल व दौलत है, न अधिकार व सत्ता।
48. सूरा-20 ता-हा में यह बात आ चुकी है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) को जब नुबूवत के पद पर नियुक्त किया जा रहा था, उस वक़्त उन्होंने अल्लाह से दरख़ास्त की थी कि मेरी ज़बान की गिरह खोल दीजिए, ताकि लोग मेरी बात अच्छी तरह समझ लें, और उसी वक़्त उनकी दूसरी दरख़ास्तों के साथ यह दरख़ास्त भी क़बूल कर ली गई थी। (आयत 27 से 36) इसलिए फ़िरऔन की इस आपत्ति का कारण कोई 'लुकनत' (हकलापन) न थी जो आप (अलैहि०) की ज़बान में हो (जैसा कि कुछ टीकाकारों का विचार है) बल्कि इसका मतलब यह था कि यह व्यक्ति न जाने क्या उलझी-उलझी बातें करता है, मेरी समझ में तो कभी इसका मकसद आया नहीं।
فَلَوۡلَآ أُلۡقِيَ عَلَيۡهِ أَسۡوِرَةٞ مِّن ذَهَبٍ أَوۡ جَآءَ مَعَهُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ مُقۡتَرِنِينَ ۝ 52
(53) क्यों न इसपर सोने के कंगन उतारे गए ? या फ़रिश्तों का एक दस्ता उसकी अरदली में न आया?''49
49. फिरऔन का मतलब यह था कि अगर वास्तव में मूसा (अलैहि०) को आसमान के बादशाह ने उसके पास अपना दूत बनाकर भेजा था, तो इसे सम्मानस्वरूप शाही जोड़ा मिला होता और फ़रिश्तों के परे के परे (झुंड के झंड) इसके साथ आए होते।
فَٱسۡتَخَفَّ قَوۡمَهُۥ فَأَطَاعُوهُۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمٗا فَٰسِقِينَ ۝ 53
(54) उसने अपनी क़ौम को हल्का समझा और उन्होंने उसका पालन किया, वास्तव में वे थे ही अवज्ञाकारी लोग।50
50. इस संक्षिप्त वाक्य में एक बहुत बड़ी सच्चाई बयान की गई है। जब कोई व्यक्ति किसी देश में अपनी तानाशाही चलाने की कोशिश करता है और उसके लिए खुल्लम-खुल्ला हर तरह की चाल चलता है.हर फरेब और धोखा-धड़ी से काम लेता है, खुले बाजार में अन्तरात्मा के खरीदने-बेचने का कारोबार चलाता है और जो बिकते नहीं उन्हें बेरहमी के साथ कुचलता और रौंदता है, तो चाहे जबान से वह यह बात न कहे, मगर अपने व्यवहार से साफ़ स्पष्ट कर देता है कि वह वास्तव में इस देश के निवासियों को बुद्धि और चरित्र और मरदानगी की दृष्टि से हल्का समझता है। और उसने उनके बारे में यह राय बनाई कि मैं इन मूर्ख, अन्तरात्माविहीन और बुज़दिल लोगों को जिधर चाहूँ, हाँककर ले जा सकता हूँ। फिर जब उसकी ये चालें सफल हो जाती हैं और देश के नागरिक इसके हाथ बँधे दास बन जाते हैं, तो वे अपने व्यवहार से सिद्ध कर देते हैं कि उस नीच ने जो कुछ इन्हें समझा था, वास्तव में वे वही कुछ हैं और उनके इस नीचता में पड़े रहने की असल वजह यह होती है कि वे बुनियादी तौर पर 'फ़ासिक' (दुराचारी) होते हैं। उनको इससे कुछ लेना-देना नहीं होता है कि सत्य क्या है और असत्य क्या । इनके लिए असल अहमियत सिर्फ़ अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की होती है।
فَلَمَّآ ءَاسَفُونَا ٱنتَقَمۡنَا مِنۡهُمۡ فَأَغۡرَقۡنَٰهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 54
(55) अन्ततः जब उन्होंने हमें ग़ज़बनाक कर दिया तो हमने उनसे बदला लिया और उनको इकट्ठा डुबो दिया
فَجَعَلۡنَٰهُمۡ سَلَفٗا وَمَثَلٗا لِّلۡأٓخِرِينَ ۝ 55
(56) और बादवालों के लिए आगे गुज़रे हुए और शिक्षाप्रद नमूना बनाकर रख दिया।51
51. अर्थात् जो उनके अंजाम से शिक्षा न लें और उन्हीं की नीति पर चलें, उनके लिए वे गुजरे हुए लोग हैं और जो शिक्षा लेनेवाले हैं, उनके लिए दृष्टान्त है।
۞وَلَمَّا ضُرِبَ ٱبۡنُ مَرۡيَمَ مَثَلًا إِذَا قَوۡمُكَ مِنۡهُ يَصِدُّونَ ۝ 56
(57) और ज्यों ही कि मरयम के बेटे की मिसाल दी गई, तुम्हारी क़ौम के लोगों ने उसपर शोर मचा दिया
وَقَالُوٓاْ ءَأَٰلِهَتُنَا خَيۡرٌ أَمۡ هُوَۚ مَا ضَرَبُوهُ لَكَ إِلَّا جَدَلَۢاۚ بَلۡ هُمۡ قَوۡمٌ خَصِمُونَ ۝ 57
(58) और लगे कहने कि हमारे उपास्य अच्छे हैं या वे?52 यह मिसाल वे तुम्हारे सामने सिर्फ़ कुतर्क के लिए लाए हैं।, वास्तविकता यह है कि ये हैं ही झगड़ालू लोगा।
52. इससे पहले आयत 45 में यह बात गुज़र चुकी है कि "तुमसे पहले जो रसूल हो गुजरे हैं, उन सबसे पूछ देखो क्या हमने दयावान ख़ुदा के सिवा कुछ दूसरे उपास्य भी नियुक्त किए थे कि उनकी बन्दगी की जाए?" यह व्याख्यान जब मक्कावालों के सामने हो रहा था तो एक व्यक्ति ने, जिसका नाम रिवायतों में अब्दुल्लाह बिन ज़बअरा आया है, आपत्ति जड़ दी कि क्यों साहब, ईसाई मरयम के बेटे को ख़ुदा का बेटा करार देकर उसकी उपासना करते हैं या नहीं? फिर हमारे उपास्य क्या बुरे हैं? इस पर इस्लाम-विरोधियों के मजमे से एक ज़ोर का कहक़हा बलन्द हुआ और नारे लगने शुरू हो गए कि इसका क्या उत्तर है। लेकिन उनकी इस बेहूदगी पर वार्ताक्रम तोड़ा नहीं गया, बल्कि जो विषय चला आ रहा था, पहले उसे पूर्ण किया गया और फिर उस सवाल की ओर ध्यान दिया गया जो आपत्ति करनेवाले ने उठाया था।
إِنۡ هُوَ إِلَّا عَبۡدٌ أَنۡعَمۡنَا عَلَيۡهِ وَجَعَلۡنَٰهُ مَثَلٗا لِّبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 58
(59) मरयम का बेटा इसके सिवा कुछ न था कि एक बन्दा था, जिसपर हमने इनाम किया और बनी इसराईल के लिए उसे अपने चमत्कार का एक नमूना बना दिया।53
53. चमत्कार का नमूना बनाने से मुराद हज़रत ईसा (अलैहि०) को बे-बाप के पैदा करना और फिर उनको वे 'मोजज़े' (चमत्कार) देना है, जो न तो उनसे पहले किसी को दिए गए थे, न उनके बाद। अल्लाह के कथन का अभिप्राय यह है कि केवल इस असाधारण जन्म और इन बड़े मोजज़ों (चमत्कारों) की वजह से उनको बन्दगी (दासता) से परे समझना और अल्लाह का बेटा कहकर उनकी इबादत करना ग़लत है। उनकी हैसियत एक बन्दे से ज़्यादा कुछ न थी, जिसे हमने अपने इनामों से नवाज़कर अपनी क़ुदरत का नमूना बना दिया था। (विस्तार के लिए देखिए, [सूरा-3 आले-इमरान, आयत 45 से 49,59; सूरा-4 अन-निसा, आयत 156; सूरा-5 अल-माइदा, आयत 17, 75, 110; सूरा-19 मरयम, आयत 19 से 35; सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 91, 92; सूरा-23 अल-मुअमिनून आयत 50, 51]
وَلَوۡ نَشَآءُ لَجَعَلۡنَا مِنكُم مَّلَٰٓئِكَةٗ فِي ٱلۡأَرۡضِ يَخۡلُفُونَ ۝ 59
(60) हम चाहें तो तुमसे फ़रिश्ते पैदा कर दें,54 जो ज़मीन में तुम्हारे उत्तराधिकारी हों।
54. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि तुममें से कुछ को फ़रिश्ता बना दें।
وَإِنَّهُۥ لَعِلۡمٞ لِّلسَّاعَةِ فَلَا تَمۡتَرُنَّ بِهَا وَٱتَّبِعُونِۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ ۝ 60
(61) और वह (अर्थात् मरयम का बेटा) वास्तव में क़ियामत की एक निशानी है,55 तो तुम उसमें सन्देह न करो और मेरी बात मान लो, यही सीधा रास्ता है।
55. इस वाक्य का यह अनुवाद भी हो सकता है कि वह क़ियामत के ज्ञान का एक माध्यम है। यहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि 'वह' से मुराद क्या चीज़ है? हज़रत हसन बसरी और सईद बिन ज़ुबैर (रह०) के नज़दीक इससे तात्पर्य क़ुरआन है, अर्थात् क़ुरआन से आदमी यह ज्ञान प्राप्त कर सकता है कि क़ियामत आएगी। लेकिन प्रसंग-संदर्भ को देखते हुए यह व्याख्या बिल्कुल असम्बद्ध है। वार्ताक्रम में कोई संकेत ऐसा मौजूद नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि इशारा क़ुरआन की ओर है। दूसरे टीकाकार
وَلَا يَصُدَّنَّكُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُۖ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 61
(62) ऐसा न हो शैतान तुमको उससे रोक दें56 कि वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।
56. अर्थात् क़ियामत पर ईमान लाने से रोक दे।
وَلَمَّا جَآءَ عِيسَىٰ بِٱلۡبَيِّنَٰتِ قَالَ قَدۡ جِئۡتُكُم بِٱلۡحِكۡمَةِ وَلِأُبَيِّنَ لَكُم بَعۡضَ ٱلَّذِي تَخۡتَلِفُونَ فِيهِۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 62
(63) और जब ईसा खुली निशानियाँ लिए हुए आया था तो उसने कहा था कि "मैं तुम लोगों के पास तत्त्वदर्शिता लेकर आया हूँ, और इसलिए आया हूँ कि तुमपर कुछ उन बातों की वास्तविकता खोल दूं जिनमें तुम विभेद कर रहे हो, इसलिए तुम अल्लाह से डरो और मेरा पालन करो।
إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ رَبِّي وَرَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُوهُۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ ۝ 63
(64) सत्य तो यह है कि अल्लाह ही मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी। उसी की तुम इबादत करो, यही सीधा रास्ता है।''57
57. अर्थात् ईसाई भले ही कुछ करते और कहते रहें, ईसा (अलैहि०) ने स्वयं कभी यह नहीं कहा था कि मैं ख़ुदा हूँ या ख़ुदा का बेटा हूँ और तुम मेरी उपासना करो, बल्कि उनका पैग़ाम वही था जो दूसरे तमाम नबियों का पैग़ाम था और अब जिसकी ओर मुहम्मद (सल्ल०) तुमको बुला रहे हैं। (व्याख्या के लिए देखिए, [सूरा-3 आले-इमरान, आयत 50, 51, (टिप्पणी 48 सहित), 60,61; सूरा-4 अन-निसा, आयत 171, 172; सूरा-5 अल-माइदा, आयत 72, 116, 117; सूरा-19 मरयम, आयत 30 से 36])
فَٱخۡتَلَفَ ٱلۡأَحۡزَابُ مِنۢ بَيۡنِهِمۡۖ فَوَيۡلٞ لِّلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡ عَذَابِ يَوۡمٍ أَلِيمٍ ۝ 64
(65) मगर (उसकी इस स्पष्ट शिक्षा के बावजूद) गिरोहों ने आपस में विभेद किया,58 तो तबाही है उन लोगों के लिए जिन्होंने जुल्म किया एक दर्दनाक दिन के अज़ाब से।
58. अर्थात् एक गिरोह ने उनका इंकार किया तो विरोध में इस हद तक पहुँच गया कि उनपर अवैध जन्म का आरोप लगाया और उनको अपने नज़दीक सूली पर चढ़वाकर छोड़ा। दूसरे गिरोह ने उनको स्वीकार किया तो श्रद्धा में अत्यधिक आगे बढ़कर उनको ख़ुदा बना बैठा और फिर एक इंसान के ख़ुदा होने का मसला उसके लिए ऐसी गुत्थी बना जिसे सुलझाते-सुलझाते उसमें अनगिनत समुदाय बन गए थे। (व्याख्या के लिए देखिए, [सूरा-4 अन-निसा, टिप्पणी 211 से 218; सूरा-5 अल-माइदा, टिप्पणी 39, 40, 101, 130])
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّا ٱلسَّاعَةَ أَن تَأۡتِيَهُم بَغۡتَةٗ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 65
(66) क्या ये लोग अब बस इसी चीज़ के इन्तिज़ार में हैं कि अचानक इनपर क़ियामत आ जाए और इन्हें ख़बर भी न हो?
ٱلۡأَخِلَّآءُ يَوۡمَئِذِۭ بَعۡضُهُمۡ لِبَعۡضٍ عَدُوٌّ إِلَّا ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 66
(67) वह दिन जब आएगा तो ईश-भय रखनेवालों को छोड़कर शेष सभी मित्र एक-दूसरे के शत्रु हो जाएँगे।59
59. दूसरे शब्दों में, सिर्फ़ वे दोस्तियाँ बाक़ी रह जाएँगी जो दुनिया में नेकी और ख़ुदातरसी (ईशपरायणता) पर क़ायम हैं। दूसरी तमाम दोस्तियाँ दुश्मनी में बदल जाएँगी और आज गुमराही, ज़ुल्म व सितम और बुराई में जो लोग एक-दूसरे के साथी और सहयोगी बने हुए हैं, कल क़ियामत के दिन वही एक-दूसरे पर आरोप लगाने और अपनी जान छुड़ाने की कोशिश कर रहे होंगे। यह विषय क़ुरआन मजीद में बार-बार जगह-जगह बयान किया गया है ताकि हर व्यक्ति इसी दुनिया में अच्छी तरह सोच ले कि किन लोगों का साथ देना उसके लिए लाभदायक है और किन का साथ विनाशकारी।
يَٰعِبَادِ لَا خَوۡفٌ عَلَيۡكُمُ ٱلۡيَوۡمَ وَلَآ أَنتُمۡ تَحۡزَنُونَ ۝ 67
(68-69) उस दिन उन लोगों से जो हमारी आयतों पर ईमान लाए थे और आज्ञाकारी बनकर रहे थे, कहा जाएगा कि “ऐ मेरे बन्दो, आज तुम्हारे लिए कोई डर नहीं और न तुम्हें कोई ग़म सताएगा।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَكَانُواْ مُسۡلِمِينَ ۝ 68
0
ٱدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ أَنتُمۡ وَأَزۡوَٰجُكُمۡ تُحۡبَرُونَ ۝ 69
(70) दाख़िल हो जाओ जन्नत में तुम और तुम्हारी बीवियाँ,60 तुम्हें प्रसन्न कर दिया जाएगा।"
60. मूल अरबी में अजवाज (जोड़े) का शब्द प्रयुक्त हुआ है, जो बीवियों के लिए भी प्रयुक्त हो सकता है और ऐसे लोगों के लिए भी जो किसी के साथी, हमजोली और एक ही संगठन के हों। यह बहुअर्थी शब्द इसी लिए प्रयुक्त किया गया है ताकि इसके अर्थ में दोनों दाखिल हो जाएँ। ईमानवालों की मोमिन बीवियाँ भी उनके साथ होंगी और उनके मोमिन दोस्त भी जन्नत में उनके साथी होंगे।
يُطَافُ عَلَيۡهِم بِصِحَافٖ مِّن ذَهَبٖ وَأَكۡوَابٖۖ وَفِيهَا مَا تَشۡتَهِيهِ ٱلۡأَنفُسُ وَتَلَذُّ ٱلۡأَعۡيُنُۖ وَأَنتُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 70
(71) उनके आगे सोने के थाल और साग़र (जाम) फिराए जाएँगे और हर मनभाती और निगाहों को आनन्द देनेवाली चीज़ वहाँ मौजूद होगी। उनसे कहा जाएगा कि "तुम अब यहाँ हमेशा रहोगे।
وَتِلۡكَ ٱلۡجَنَّةُ ٱلَّتِيٓ أُورِثۡتُمُوهَا بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 71
(72) तुम इस जन्नत के वारिस अपने उन कर्मों की वजह से हुए हो जो तुम दुनिया में करते रहे।
لَكُمۡ فِيهَا فَٰكِهَةٞ كَثِيرَةٞ مِّنۡهَا تَأۡكُلُونَ ۝ 72
(73) तुम्हारे लिए यहाँ ढेर सारे मेवे मौजूद हैं, जिन्हें तुम खाओगे।"
إِنَّ ٱلۡمُجۡرِمِينَ فِي عَذَابِ جَهَنَّمَ خَٰلِدُونَ ۝ 73
(74) रहे अपराधी, तो वे सदैव जहन्नम के अज़ाब में ग्रस्त रहेंगे,
لَا يُفَتَّرُ عَنۡهُمۡ وَهُمۡ فِيهِ مُبۡلِسُونَ ۝ 74
(75) कभी उनके अज़ाब में कमी न होगी, और वे उसमें निराश पड़े होंगे।
وَمَا ظَلَمۡنَٰهُمۡ وَلَٰكِن كَانُواْ هُمُ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 75
(76) उनपर हमने ज़ुल्म नहीं किया, बल्कि वे स्वयं ही अपने ऊपर ज़ुल्म करते रहे।
وَنَادَوۡاْ يَٰمَٰلِكُ لِيَقۡضِ عَلَيۡنَا رَبُّكَۖ قَالَ إِنَّكُم مَّٰكِثُونَ ۝ 76
(77) वे पुकारेंगे, "ऐ मालिक61 तेरा रब हमारा काम ही तमाम कर दे तो अच्छा है।" वह जवाब देगा, "तुम यूँ ही पड़े रहोगे,
61. मालिक से तात्पर्य है जहन्नम का दारोगा, जैसा कि सन्दर्भ से ख़ुद स्पष्ट हो रहा है।
لَقَدۡ جِئۡنَٰكُم بِٱلۡحَقِّ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَكُمۡ لِلۡحَقِّ كَٰرِهُونَ ۝ 77
(78) हम तुम्हारे पास सत्य लेकर आए थे, मगर तुममें से अधिकतर को सत्य ही अप्रिय था।62
62. अर्थात् हमने वास्तविकता तुम्हारे सामने खोलकर रख दी, मगर तुम वास्तविकता के बजाय क़िस्से-कहानियों के शौक़ीन थे और सच्चाई तुम्हें अत्यन्त अप्रिय थी। अब अपने इस मूर्खतापूर्ण चुनाव का अंजाम देखकर बिलबिलाते क्यों हो? हो सकता है कि यह जहन्नम के दारोगा ही के जवाब का एक हिस्सा हो और यह भी हो सकता है कि उसका जवाब "तुम यूँ ही पड़े रहोगे'' पर समाप्त हो गया हो और यह दूसरा वाक्य अल्लाह का अपना कथन हो। पहली शक्ल में जहन्नम के दारोगा का यह कथन कि "हम तुम्हारे पास सत्य लेकर आए थे।" ऐसा ही है जैसे राज्य का कोई अधिकारी राज्य की ओर से बोलते हुए 'हम' का शब्द प्रयुक्त करता है और उसका अभिप्राय यह होता है कि हमारी सरकार ने यह काम किया या यह आदेश दिया।
أَمۡ أَبۡرَمُوٓاْ أَمۡرٗا فَإِنَّا مُبۡرِمُونَ ۝ 78
(79) क्या इन लोगों ने कोई कार्रवाई करने का फ़ैसला कर लिया है?63 अच्छा तो हम भी फिर एक फ़ैसला किए लेते हैं।
63. संकेत है उन बातों की ओर जो कुरैश के सरदार अपनी गुप्त सभाओं में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के विरुद्ध कोई निर्णायक क़दम उठाने के लिए कर रहे थे।
أَمۡ يَحۡسَبُونَ أَنَّا لَا نَسۡمَعُ سِرَّهُمۡ وَنَجۡوَىٰهُمۚ بَلَىٰ وَرُسُلُنَا لَدَيۡهِمۡ يَكۡتُبُونَ ۝ 79
(80) क्या इन्होंने यह समझ रखा है कि हम इनके रहस्य की बातें और इनकी कानाफूसियाँ सुनते नहीं हैं? हम सब कुछ सुन रहे हैं और हमारे फ़रिश्ते इनके पास ही लिख रहे हैं।
قُلۡ إِن كَانَ لِلرَّحۡمَٰنِ وَلَدٞ فَأَنَا۠ أَوَّلُ ٱلۡعَٰبِدِينَ ۝ 80
(81) इनसे कहो, "अगर वास्तव में रहमान (दयावान ईश्वर) की कोई सन्तान होती तो सबसे पहले इबादत (उपासना) करनेवाला मैं होता।''64
64. मतलब यह है कि मेरा किसी को ख़ुदा की सन्तान न मानना और जिन्हें तुम उसकी सन्तान ठहरा रहे हो, उनकी इबादत (उपासना) से इंकार करना किसी आग्रह और हठधर्मी के कारण नहीं है। मैं जिस कारण इससे इंकार करता हूँ, वह केवल यह है कि कोई ख़ुदा का बेटा या बेटी नहीं है और तुम्हारी ये धारणाएँ वास्तविकता के विरुद्ध हैं, वरना मैं तो अल्लाह का ऐसा वफ़ादार (आज्ञापालक) बन्दा हूँ कि अगर मान लीजिए, वास्तविकता यही होती तो तुमसे पहले मैं बन्दगी में सिर झुका देता।
سُبۡحَٰنَ رَبِّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ رَبِّ ٱلۡعَرۡشِ عَمَّا يَصِفُونَ ۝ 81
(82) पाक है आसमानों और ज़मीन का शासक, सिंहासन मालिक, उन सारी बातों से, जो ये लोग उससे जोड़ते हैं।
فَذَرۡهُمۡ يَخُوضُواْ وَيَلۡعَبُواْ حَتَّىٰ يُلَٰقُواْ يَوۡمَهُمُ ٱلَّذِي يُوعَدُونَ ۝ 82
(83) अच्छा, इन्हें अपने तथ्यहीन विचारों में मग्न और अपने खेल में लगे रहने दो, यहाँ तक कि ये अपना वह दिन देख लें जिसका इन्हें भय दिलाया जा रहा है।
وَهُوَ ٱلَّذِي فِي ٱلسَّمَآءِ إِلَٰهٞ وَفِي ٱلۡأَرۡضِ إِلَٰهٞۚ وَهُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 83
(84) वही एक आसमान में भी ख़ुदा है और ज़मीन में भी ख़ुदा, और वही तत्त्वदर्शी और सब कुछ जाननेवाला है।65
65. अर्थात् आसमान और जमीन के ख़ुदा अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि सारे जगत का एक ही ख़ुदा है। उसी की तत्त्वदर्शिता इस पूरी सृष्टि व्यवस्था में क्रियाशील है और वही तमाम तथ्यों का ज्ञान रखता है।
وَتَبَارَكَ ٱلَّذِي لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَا وَعِندَهُۥ عِلۡمُ ٱلسَّاعَةِ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 84
(85) बहुत उच्च और श्रेष्ठ है वह जिसके अधिकार में ज़मीन और आसमानों और हर उस चीज़ की बादशाही है जो ज़मीन और आसमान के बीच पाई जाती है,66 और वही क़ियामत की घड़ी का ज्ञान रखता है, और उसी की ओर तुम सब पलटाए जानेवाले हो।67
66. अर्थात् उसकी हस्ती इससे कहीं अधिक उच्च व श्रेष्ठ है कि कोई खुदाई में उसका साझीदार हो और इस विशाल जगत की फ़रमांरवाई (शासन) में कुछ भी दखल रखता हो। ज़मीन और आसमान में जो भी हैं, सब उसके बन्दे और दास हैं और उसके आदेशों के अधीन हैं।
67. अर्थात् दुनिया में भले ही तुम किसी को अपना समर्थक और सरपरस्त बनाते फिरो, मगर मरने के बाद तुम्हारा वास्ता उसी एक ख़ुदा से पड़ना है।
وَلَا يَمۡلِكُ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِهِ ٱلشَّفَٰعَةَ إِلَّا مَن شَهِدَ بِٱلۡحَقِّ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 85
(86) उसको छोड़कर ये लोग जिन्हें पुकारते हैं वे किसी शफ़ाअत (सिफ़ारिश) का अधिकार नहीं रखते, अलावा इसके कि कोई ज्ञान के आधार पर सत्य की गवाही दे।68
68. इस वाक्य के कई अर्थ हैं- एक यह कि लोगों ने जिन-जिन को दुनिया में उपास्य बना रखा है, उनमें से सिर्फ़ वे लोग शफ़ाअत (सिफ़ारिश) करने के योग्य होंगे जिन्होंने ज्ञान के साथ (न कि बे-जाने-बूझे) सत्य की गवाही दी थी। दूसरे यह कि जिन्हें सिफ़ारिश करने का अधिकार प्राप्त होगा, वे भी सिर्फ उन लोगों की सिफ़ारिश कर सकेंगे जिन्होंने दुनिया में जान-बूझकर (न कि ग़फ़लत और बेख़बरी के साथ) सत्य की गवाही दी हो। तीसरे यह कि कोई व्यक्ति अगर यह कहता है कि उसने जिन हस्तियों को उपास्य बना रखा है, वे अनिवार्य रूप से शफ़ाअत (सिफ़ारिश) के अधिकार रखती हैं और उन्हें अल्लाह के यहाँ ऐसा ज़ोर हासिल है कि जिसे चाहें बख्शवा लें, तो वह गलत कहता है। वह बताए कि क्या वह ज्ञान के आधार पर इस बात की सत्य पर आधारित होने की गवाही दे सकता है। इस आयत से गौण रूप से दो बड़े महत्त्वपूर्ण नियम भी निकलते हैं- एक, यह कि इससे मालूम होता है कि ज्ञान के बिना सत्य की गवाही देना चाहे दुनिया में मान्य हो, मगर अल्लाह के यहाँ मान्य नहीं है। दुनिया में तो जो व्यक्ति कलिमए-शहादत (यानी ख़ुदा के एक होने और मुहम्मद (सल्ल०) के ख़ुदा का रसूल होने की गवाही का मूल मंत्र) ज़बान से अदा करेगा, हम उसको मुसलमान मान लेंगे, लेकिन अल्लाह के यहाँ सिर्फ वही व्यक्ति ईमानवालों में गिना जाएगा जिसने अपने ज्ञान व बुद्धि की हद तक यह जानते और समझते हुए शहादत का कलिमा याद किया हो कि वह किस चीज़ का इंकार और किस चीज़ को स्वीकार कर रहा है। दूसरे, इससे गवाही के क़ानून का यह नियम निकलता है कि गवाही के लिए ज्ञान शर्त है। गवाह जिस घटना की गवाही दे रहा हो, उसका अगर उसे ज्ञान नहीं है तो उसकी गवाही व्यर्थ है।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّنۡ خَلَقَهُمۡ لَيَقُولُنَّ ٱللَّهُۖ فَأَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ ۝ 86
(87) और अगर तुम इनसे पूछो कि इन्हें किसने पैदा किया है तो ये स्वयं कहेंगे कि अल्लाह ने।69 फिर कहाँ से ये धोखा खा रहे हैं ।
69. इस आयत के दो अर्थ हैं- एक यह कि अगर तुम इनसे पूछो कि स्वयं इनको किसने पैदा किया है तो कहेंगे कि अल्लाह ने। दूसरा यह कि अगर तुम इनसे पूछो कि इनके उपास्यों का पैदा करनेवाला कौन है, तो ये कहेंगे कि अल्लाह।
وَقِيلِهِۦ يَٰرَبِّ إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ قَوۡمٞ لَّا يُؤۡمِنُونَ ۝ 87
(88) क़सम है रसूल के इस कथन की कि ऐ रब! ये वे लोग हैं जो मानकर नहीं देते।70
70. यह क़ुरआन मजीद की अत्यन्त कठिन आयतों में से है। मेरे नज़दीक सबसे अधिक सही बात वही है जो शाह अब्दुल कादिर साहब के अनुवाद से मालूम होती है। अर्थात् आयत का अर्थ यह है कि क़सम है रसूल के इस कथन की कि "ऐ रब! ये वे लोग हैं जो मानकर नहीं देते।" कैसा अजीब है इन लोगों का धोखा खाना कि स्वयं मानते हैं कि इनका और इनके उपास्यों का पैदा करनेवाला अल्लाह ही है और फिर भी पैदा करनेवाले को छोड़कर मख़लूक (रचना) ही की उपासना पर आग्रह किए जाते हैं। रसूल के इस कथन की क़सम खाने का अभिप्राय यह है कि इन लोगों का यह रवैया साफ़ सिद्ध किए दे रहा है कि वास्तव में ये हठधर्म हैं, क्योंकि इनके रवैये का अनुचित और अतर्क-संगत होना इनकी अपनी स्वीकारोक्ति से स्पष्ट है और ऐसा अनुचित और अतर्क-संगत रवैया केवल वही व्यक्ति अपना सकता है जो न मानने का निर्णय किए बैठा हो। दूसरे शब्दों में, यह क़सम इस अर्थ में है कि बिल्कुल ठीक कहा रसूल ने वास्‍तव में ये मानकर देनेवाले लोग नहीं हैं।
فَٱصۡفَحۡ عَنۡهُمۡ وَقُلۡ سَلَٰمٞۚ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 88
(89) अच्छा, ऐ नबी! इनसे नज़र हटा लो और कह दो कि सलाम है तुम्हें,71 बहुत जल्द इन्हें मालूम हो जाएगा।
71. अर्थात् उनकी कठोर बातों और मज़ाक़ उड़ाने और फनी कसने जैसी बातों पर न उनके लिए बद-दुआ करो (श्राप दो) और न उनके जवाब में कोई कठोर बात कहो, बस सलाम करके उनसे अलग हो जाओ।