45. अल-जासिया
(मक्का में उतरी, आयतें 37)
परिचय
नाम
आयत 28 के वाक्यांश ‘व तरा कुल-ल उम्मतिन जासिया' अर्थात् “उस समय तुम हर गिरोह को घुटनों के बल गिरा (जासिया) देखोगे,” से लिया गया है। मतलब यह है कि यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'जासिया’ आया है।
उतरने का समय
इसकी विषय-वस्तुओं से साफ़ महसूस होता है कि यह सूरा-44 अद-दुखान के बाद निकटवर्ती समय में उतरी है। इन दोनों सूरतों की विषय-वस्तुओं में ऐसी एकरूपता पाई जाती है कि जिससे ये दोनों सूरतें जुड़वाँ महसूस होती हैं।
विषय और वार्ता
इसका विषय तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत (परलोकवाद) के बारे में मक्का के इस्लाम-विरोधियों के सन्देहों और आपत्तियों का उत्तर देना और [उनके विरोधात्मक] रवैये पर उनको सचेत करना है। वार्ता की शुरुआत एकेश्वरवाद के प्रमाणों से की गई है। इस सिलसिले में इंसान के अपने अस्तित्त्व से लेकर ज़मीन और आसमान तक हर ओर फैली हुई अनगिनत निशानियों की ओर संकेत करके बताया गया है कि तुम जिधर भी दृष्टि उठाकर देखो, हर चीज़ उसी तौहीद की गवाही दे रही है जिसे मानने से तुम इंकार कर रहे हो। आगे चलकर आयत 12-13 में फिर कहा गया है कि इंसान इस दुनिया में जितनी चीज़ों से काम ले रहा है और जो अनगिनत चीज़ें और शक्तियाँ इस जगत् में उसके हित में सेवारत हैं [वे सब की सब एक ख़ुदा की दी हुई और वशीभूत की हुई हैं]। कोई व्यक्ति सही सोच-विचार से काम ले तो उसकी अपनी बुद्धि ही पुकार उठेगी कि वही अल्लाह इंसान का उपकारी है और उसी का यह अधिकार है कि इंसान उसका आभारी हो। इसके बाद मक्का के इस्लाम-विरोधियों की उस हठधर्मी, घमंड, उपहास और कुफ़्र के लिए दुराग्रह पर कड़ी निंदा की गई है जिससे वे क़ुरआन की दावत (आह्वान) का मुक़ाबला कर रहे थे, और उन्हें सचेत किया गया है कि यह क़ुरआन [एक बहुत बड़ी नेमत (वरदान) है, इसे रद्द कर देने का अंजाम अत्यन्त विनाशकारी होगा] । इसी सम्बन्ध में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की पैरवी करनेवालों को आदेश दिया गया है कि ये अल्लाह से निडर लोग तुम्हारे साथ जो दुर्व्यवहार कर रहे हैं, उनपर क्षमा और सहनशीलता से काम लो। तुम धैर्य से काम लोगे तो अल्लाह ख़ुद उनसे निपटेगा और तुम्हें इस धैर्य का पुरस्कार देगा। फिर आख़िरत के अक़ीदे (धारणा) के बारे में इस्लाम-विरोधियों के अज्ञानपूर्ण विचारों की समीक्षा की गई है और उनके इस दावे के खंडन में कि मरने के बाद फिर कोई दूसरी जिंदगी नहीं है, अल्लाह ने निरन्तर कुछ प्रमाण दिए हैं। ये प्रमाण देने के बाद अल्लाह पूरे ज़ोर के साथ कहता है कि जिस तरह तुम आप से आप ज़िन्दा नहीं हो गए हो, बल्कि हमारे ज़िन्दा करने से ज़िन्दा हुए हो, इसी तरह तुम आप से आप नहीं मर जाते, बल्कि हमारे मौत देने से मरते हो, और एक वक़्त निश्चित रूप से ऐसा आना है, जब तुम सब एक ही समय में जमा किए जाओगे। जब वह समय आ जाएगा तो तुम स्वयं ही अपनी आँखों से देख लोगे कि अपने ख़ुदा के सामने पेश हो और तुम्हारा पूरा आमाल-नामा (कर्मपत्र) बिना घटाए-बढ़ाए तैयार है जो तुम्हारे एक-एक करतूत की गवाही दे रहा है। उस समय तुमको मालूम हो जाएगा कि आख़िरत के अक़ीदे (धारणा) का यह इंकार और उसका यह मज़ाक़ जो तुम उड़ा रहे हो, तुम्हें कितना महँगा पड़ा है।
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تَنزِيلُ ٱلۡكِتَٰبِ مِنَ ٱللَّهِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَكِيمِ 1
(2) इस किताब का उतरना अल्लाह की ओर से है जो प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी है।1
1. यह इस सूरा की छोटी-सी भूमिका है जिसमें श्रोताओं को दो बातों से सचेत किया गया है-
एक यह कि यह किताब मुहम्मद (सल्ल०) की अपनी रचना नहीं है, बल्कि अल्लाह की ओर से उनपर उतर रही है।
दूसरे यह कि इसे वह ख़ुदा उतार रहा है जो प्रभुत्वशाली भी है और तत्त्वदर्शी भी। उसका प्रभुत्वशाली होना इस बात का तकाज़ा करता है कि इंसान उसके आदेश का उल्लंघन करने का दुस्साहस न करे और उसका तत्त्वदर्शी होना इस बात का तकाज़ा करता है कि इंसान पूरे इत्मीनान के साथ उसके आदेशों का पालन करे, क्योंकि उसकी किसी शिक्षा के ग़लत या अनुचित या हानिकारक होने की कोई संभावना नहीं।
إِنَّ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ لَأٓيَٰتٖ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ 2
(3) वास्तविकता यह है कि आसमानों और ज़मीन में अनगिनत निशानियाँ हैं ईमान लानेवालों के लिए।2
2. भूमिका के बाद असल वार्ता का आरंभ इस तरह करने से साफ़ महसूस होता है कि पृष्टभूमि में मक्कावालों की वे आपत्तियाँ हैं जो वे नबी (सल्ल०) के पेश किए हुए एकेश्वरवाद के सन्देश पर कर रहे थे। कहा जा रहा है कि जिस सच्चाई को मानने की दावत तुम्हें दी जा रही है, उसकी सच्चाई की निशानियों से तो सारा जगत भरा पड़ा है। आँखें खोलकर देखो। तुम्हारे अन्दर और तुम्हारे बाहर हर ओर निशानियाँ ही निशानियाँ फैली हुई हैं जो गवाही दे रही हैं कि यह सारी सृष्टि एक ख़ुदा और एक ही ख़ुदा की पैदा की हुई है और वही अकेला इसका स्वामी, शासक और नियन्ता है।
फिर यह जो फ़रमाया कि “ये निशानियाँ ईमान लानेवालों के लिए हैं", इसका अर्थ यह है कि यद्यपि अपने आप में तो ये निशानियाँ सारे ही इंसानों के लिए हैं, लेकिन इन्हें देखकर सही नतीजे पर वही लोग पहुँच सकते हैं जो ईमान लाने के लिए तैयार हों। ग़फ़लत में पड़े हुए और हठधर्म लोगों के लिए इन निशानियों का होना और न होना बराबर है।
وَفِي خَلۡقِكُمۡ وَمَا يَبُثُّ مِن دَآبَّةٍ ءَايَٰتٞ لِّقَوۡمٖ يُوقِنُونَ 3
(4) और तुम्हारी अपनी पैदाइश में, और उन जानवरों में जिनको अल्लाह (धरती में) फैला रहा है। बड़ी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो विश्वास करनेवाली हैं।3
3. अर्थात् जिन लोगों के दिल के दरवाजे आस्था के लिए बन्द नहीं हुए हैं, वे जब अपनी पैदाइश पर और अपने अस्तित्त्व की बनावट पर और धरती में फैले हुए भाँति-भाँति के जानवरों पर सोच-विचार करेंगे तो उन्हें [अल्लाह के अस्तित्त्व और उसकी तौहीद की] अनगिनत निशानियाँ नज़र आएँगी। (व्याख्या के लिए देखिए [सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 25, 26; सूरा-16 अन-नहल, टिप्पणी 6 से 8; सूरा-22 अल-हज, टिप्पणी 5 से 9; सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 12, 13; सूरा-25 फ़ुरक़ान, टिप्पणी 69; सूरा-26 अश-शुअरा, टिप्पणी 57 से 59; सूरा-27 अन-नम्ल, टिप्पणी 80, 81; सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 26 से 32, 76 से 79] सूरा-32 सज्दा, टिप्पणी 14 से 18; सूरा-36 या-सीन, आयतें 71 से 73; सूरा-39 अज-जुमर, आयत 6; सूरा-40 अल-मोमिन, टिप्पणी 97,98, 110)
وَٱخۡتِلَٰفِ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مِن رِّزۡقٖ فَأَحۡيَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَا وَتَصۡرِيفِ ٱلرِّيَٰحِ ءَايَٰتٞ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ 4
(5) और रात और दिन के अन्तर और विभेद में 4 और उस रोज़ी में 5 जिसे अल्लाह आसमान में उतारता है, फिर उसके ज़रिये से मुर्दा धरती को जिला उठाता है,6 और हवाओं की गर्दिश में7 बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो बुद्धि से काम लेते हैं।
4. रात और दिन का यह अन्तर और विभेद इस दृष्टि से भी निशानी है कि दोनों अत्यन्त नियमित रूप से एक-दूसरे के बाद आते हैं, और इस दृष्टि से भी कि एक रौशनी (प्रकाशना) है और दूसरा अंधकार और इस दृष्टि से भी कि एक क्रम के साथ दिन [और रात छोटे-बड़े होते रहते हैं। ये विभिन्न प्रकार के अन्तर व विभेद जो रात और दिन में पाए जाते हैं और इनसे जो महान उद्देश्य जुड़े हुए हैं, वे इस बात की खुली निशानियाँ हैं कि सूरज और जमीन और ज़मीन में मौजूद चीज़ों का पैदा करनेवाला स्वामी और सत्ताधारी एक ही है। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी, 65; सूरा-27 अन-नम्ल, टिप्पणी 104; सूरा-28 अल-क़सस, आयत 71 से 73; सूरा-31 लुकमान, आयत 29, टिप्पणी 50; सूरा-36 या-सीन, आयत 37, टिप्पणी 32)
5. रोज़ी से मुराद यहाँ बारिश है, जैसा कि बाद के वाक्य से साफ़ मालूम हो जाता है।
تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱللَّهِ نَتۡلُوهَا عَلَيۡكَ بِٱلۡحَقِّۖ فَبِأَيِّ حَدِيثِۭ بَعۡدَ ٱللَّهِ وَءَايَٰتِهِۦ يُؤۡمِنُونَ 5
(6) ये अल्लाह की विधानियां हैं जिन हमारे सामने ठीक-ठीक बयान कर रहे हैं । अब आखिर अल्लाह और उसकी आयतों के बाद और कौन-सी बात है जिसपर ये लोग ईमान लाएँगे।8
8. अर्थात् जब अल्लाह की हस्ती और उसके एक होने पर स्वयं अल्लाह ही के बयान किए इन प्रमाणों के सामने आ जाने के बाद भी ये लोग ईमान नहीं लाते तो अब क्या चीज़ ऐसी आ सकती है जिससे इन्हें ईमान का दौलत प्राप्त हो जाए। अल्लाह की वाणी तो वह अन्तिम चीज़ है जिसके ज़रिये से कोई व्यक्ति यह नेमत (अनुग्रह) पा सकता है।
يَسۡمَعُ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِ ثُمَّ يُصِرُّ مُسۡتَكۡبِرٗا كَأَن لَّمۡ يَسۡمَعۡهَاۖ فَبَشِّرۡهُ بِعَذَابٍ أَلِيمٖ 7
(8) जिसके सामने अल्लाह की आयतें पढ़ी जाती हैं और वह उनको सुनता है, फिर पूरे गर्व के साथ अपने कुफ़्र (इंकार) पर इस तरह अड़ा रहता है कि मानो उसने उनको सुना ही नहीं।9 ऐसे व्यक्ति को दर्दनाक अज़ाब की ख़ुशख़बरी सुना दो।
9. दूसरे शब्दों में अन्तर और बहुत बड़ा अन्तर है उस व्यक्ति में जो नेक नीयती (अच्छे इरादे) के साथ अल्लाह की आयतों को खुले दिल से सुनता और गंभीरतापूर्वक उनपर विचार करता है और उस व्यक्ति में को इंकार का अन्तिम फैसला करके सुनता है। पहली किस्म के आदमी से बहरहाल यह आशा होती है कि दर-सबेर वह ईमान की दौलत पा लेगा। लेकिन दूसरे प्रकार का आदमी कभी ईमान नहीं ला सकता। इस हालत में आम तौर से वही लोग ग्रस्त होते हैं जिनके अन्दर तीन विशेषताएँ पाई जाती हैं-
एक यह कि वे झूठे होते हैं, इसलिए सच्चाई उनको अपील नहीं करती।
दूसरे, यह कि वे दुष्कर्मी होते हैं, इसलिए किसी ऐसी शिक्षा और मार्गदर्शन को मान लेना उन्हें अत्यन्त अप्रिय होता है जो उनपर नैतिक पाबन्दियाँ लगाता हो।
तीसरे यह कि वे घमंड में ग्रस्त होते हैं कि हम सब कुछ जानते हैं, हमें कोई क्या सिखाएगा, इसलिए अल्लाह की आयतों को वे सिरे से किसी सोच-विचार के योग्य ही नहीं समझते।
وَإِذَا عَلِمَ مِنۡ ءَايَٰتِنَا شَيۡـًٔا ٱتَّخَذَهَا هُزُوًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٞ مُّهِينٞ 8
(9) हमारी आयतों में से कोई बात जब उसकी जानकारी में आती है, तो वह उनका मज़ाक़ बना लेता है।10 ऐसे सब लोगों के लिए अपमान को यातना है।
10. अर्थात् इसी एक आयत का मजाक उड़ाने पर बस नहीं करता, बल्कि तमाम आयतों का मजाक उड़ाने लगता है। जैसे जब वह सुनता है कि कुरआन में अमुक बात बयान हुई है तो उसे सीधे अर्थ में लेने के बजाय पहले तो उसी में कोई टेढ़ खोजकर निकाल लाता है, ताकि उसे मजाक का विषय बनाए। फिर उसका मजाक उड़ाने के बाद कहता है, अजी, इसके क्या कहने हैं. ये तो रोज एक से एक निराली बात सुना रहे हैं। देखो, अमुक आयत में उन्होंने यह दिलचस्प बात कही है, और अमुक आयत के हास्यास्पद होने का तो जवाब ही नहीं है।
مِّن وَرَآئِهِمۡ جَهَنَّمُۖ وَلَا يُغۡنِي عَنۡهُم مَّا كَسَبُواْ شَيۡـٔٗا وَلَا مَا ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ أَوۡلِيَآءَۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٌ 9
(10) उनके आगे जहन्नम है।11 जो कुछ भी उन्होंने दुनिया में कमाया है, उसमें से कोई चीज़ उनके किसी काम न आएगी, न उनके चे संरक्षक ही उनके लिए कुछ कर सकेंगे जिन्हें अल्लाह को छोड़कर उन्होंने अपना वली (संरक्षक) चना रखा है।12 उनके लिए बड़ा अज़ाब है।
11. मूल अरबी शब्द हैं 'मिव-व्रराइहिम जहन्नम'। चरा' का शब्द अरबी भाषा में हर उस चीज़ के लिए बोला जाता है जो आदमी को दृष्टि से ओझल हो, चाहे वह आगे हो या पीछे। इसलिए दूसरा अनुवाद इन शब्दों का यह भी हो सकता है कि इनके पीछे जहन्नम है" अगर पहला अर्थ लिया जाए तो अर्थ यह होगा कि वे बेख़बर मुंह उठाए इस राह पर दौड़े जा रहे हैं और उन्हें एहसास नहीं है कि आगे जहन्नम है, जिसमें वे जाकर गिरनेवाले हैं।
दूसरा अर्थ लेने की शक्ल में मतलब यह होगा कि वे आखिरत से चिन्तारहित होकर अपनी इस शरारत में लोन हैं और उन्हें पता नहीं है कि जहन्नम उनके पीछे लगी हुई है।
12. यहाँ ‘वली' (सरपरस्त) का शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। एक वे देवियाँ और देवता और जिंदा या मुर्दा पेशवा जिनके बारे में मुशरिकों (बहुदेववादियों ने यह समझ रखा है कि जो आदमो उनसे जुड़ जाए, वह चाहे दुनिया में कुछ करता रहे, खुदा के यहाँ उसको पकड़ न हो सकेगी, क्योंकि उनके दख़ल देने से वे अल्लाह के प्रकोप से बच जाएँगे। दूसरे वे सरदार और लीडर और नेता और अधिकारी जिन्हें ख़ुदा से बेनियाज़ (निस्पृह) होकर लोग अपना मार्गदर्शक और पैरवी करने योग्य बनाते हैं और आँखें बन्द करके उनको पैरवी करते हैं और उन्हें प्रसन्न करने के लिए ख़ुदा को अप्रसन्न करने में तनिक भी नहीं झिझकते। यह आयत ऐसे सब लोगों को सचेत करती है कि जब इस रवैये के नतीजे में जहन्नम से उनको वास्ता पड़ेगा तो इन दोनों प्रकार के सरपरस्तों में से कोई भी उन्हें बचाने के लिए आगे न बढ़ेगा। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-42 अश-शूरा, टिप्पणी 6)
۞ٱللَّهُ ٱلَّذِي سَخَّرَ لَكُمُ ٱلۡبَحۡرَ لِتَجۡرِيَ ٱلۡفُلۡكُ فِيهِ بِأَمۡرِهِۦ وَلِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ 11
(12) वह अल्लाह ही तो है जिसने तुम्हारे लिए समुद्र को वशीभूत किया, ताकि उसके आदेश से नावें (नौकाएँ) उसमें चलें13 और तुम उसका अनुग्रह तलाश करो14 और कृतज्ञ हो।
13. व्याख्या के लिए देखिए, [सूरा-30 अर-रूम, आयत 69;] सूरा-37 लुकमान, टिप्पणी 55; सूरा-40 अल-मोमिन, टिप्पणी 110; सूरा-42 अश-शूरा, टिप्पणी 54
14. अर्थात् समुद्र में व्यापार, मछली पकड़ना, गोताख़ोरी, जहाज़रानी और दूसरे संसाधनों से हलाल रोज़ी हासिल करने की कोशिश करो।
وَسَخَّرَ لَكُم مَّا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا مِّنۡهُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ 12
(13) उसने ज़मीन और आसमानों की सारी ही चीज़ों को तुम्हारे लिए वशीभूत कर दिया,15 सब कुछ अपने पास से16 ---इसमें बड़ी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो सोच-विचार करनेवाले हैं।17
15. व्याख्या के लिए देखिए, [सूरा-14 इबराहीम, टिप्पणी 44,] सूरा-31 लुक़मान, टिप्पणी 35
16. इस वाक्य के दो अर्थ हैं- एक यह कि अल्लाह की यह देन दुनिया के बादशाहों की-सी देन नहीं है, जो जनता से प्राप्त किया हुआ माल जनता ही में से कुछ लोगों को प्रदान कर देते हैं, बल्कि सृष्टि की ये सारी नेमतें अल्लाह की अपनी पैदा की हुई हैं और उसने अपनी ओर से ये इंसान को दी हैं। दूसरे यह कि इन नेमतों के पैदा करने में न कोई अल्लाह का साझीदार है, न इन्हें इंसान के लिए वशीभूत करने में किसी और हस्ती का कोई दख़ल, अकेले अल्लाह ही उनका पैदा करनेवाला भी है और उसी ने अपनी ओर से वे इंसान को प्रदान की हैं।
قُل لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ يَغۡفِرُواْ لِلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ أَيَّامَ ٱللَّهِ لِيَجۡزِيَ قَوۡمَۢا بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ 13
(14) ऐ नबी! ईमान लानेवालों से कह दो कि जो लोग अल्लाह की ओर से बुरे दिन आने की कोई आशंका नहीं रखते,18 उनको हरकतों पर दरगुजर (क्षमा) से काम लें, ताकि अल्लाह ख़ुद एक गिरोह को उसकी कमाई का बदला दे।19
18. मूल अरबी शब्द हैं 'अल्लजी-न ला यरजू- न अय्यामल्लाह'। शाब्दिक अनुवाद यह होगा कि "जो लोग अल्लाह के दिनों को आशा नहीं रखते" लेकिन अरबी मुहावरे में ऐसे मौक़ों पर ‘अय्याम’ से तात्पर्य केवल दिन नहीं, बल्कि वे यादगार दिन होते हैं जिनमें महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाएँ घटी हो। यहाँ 'अय्यामुल्लाह' से तात्पर्य किसी क़ौम के बुरे दिन हैं, जब अल्लाह का प्रकोप उसपर टूट पड़े।
19. टिकाकारों ने इस आयत के दो अर्थ बयान किए हैं और आयत के शब्दों में दोनों अर्थ की गुंजाइश है-
एक यह कि ईमानवाले उस ज़ालिम गिरोह को ज्यादतियों पर दरगुज़र (क्षमा) से काम लें, ताकि अल्लाह उनको अपनी ओर से उनके धैर्य और बर्दाश्त और उनको सज्जनता का बदला दे और ख़ुदा के रास्ते में जो कष्ट उन्होंने सहन किए हैं, उनका बदला प्रदान करे।
दूसरा अर्थ यह है कि ईमानवाले उस गिरोह से दरगुजर करें, ताकि अल्लाह स्वयं उसके अत्याचारों का बदला उसे दे। इस आदेश का मकसद यह है कि मुसलमान अपने उच्च स्थान से नीचे उतरकर उन गिरे हुए आचरणवालों से उलझने और झगड़ने और उनके हर दुर्व्यवहार का उत्तर देने पर न उतर आएँ। जब तक सज्जनता और तर्क के साथ किसी आरोप और आपत्ति का उत्तर देना या किसी अत्याचार से बचाव करना संभव हो, उससे बचा न जाए, मगर जहाँ बात इन सीमाओं से गुजरती नजर आए. वहाँ चुप साध ली जाए और मामला अल्लाह के सुपुर्द कर दिया जाए। मुसलमान उनसे स्वयों उलझेंगे तो अल्लाह उससे निपटने के लिए उन्हें उनके हाल पर छोड़ देगा। दरगुज़र से काम लेंगे तो अल्लाह स्वये जालिमों से निपटेगा और उत्पीड़ितों को उनके धैर्य का बदला देगा।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحُكۡمَ وَٱلنُّبُوَّةَ وَرَزَقۡنَٰهُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ وَفَضَّلۡنَٰهُمۡ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ 15
(16) इससे पहले बनी इसराईल को हमने किताब और हुक्म20 और नुबूबत (पैग़म्बरी) थी। उनको हमने अच्छी जीवन-सामग्री दी, दुनिया भर के लोगों पर उन्हें श्रेष्ठता21 दी,
20. हुक्म से मुराद तीन चीजें है-
एक, किताब का ज्ञान और सूझ-बूझ और दीन को समझ।
दूसरी, किताब को मंशा के अनुसार काम करने की हिकमत।
तीसरी, मामलों में फ़ैसला करने की क्षमता।
21. यह अर्थ नहीं है कि हमेशा-हमेशा के लिए उन्हें तमाम दुनियावालों पर श्रेष्ठता प्रदान कर दी, बल्कि इसका सही अर्थ यह है कि उस ज़माने में दुनिया की तमाम क़ौमों में से बनी इसराईल को अल्लाह ने इस सेवा के लिए चुन लिया था कि वे अल्लाह की किताब के धारक और ख़ुदापरस्ती (ईशपरायणता) के अलमबरदार बनकर उठे।
وَءَاتَيۡنَٰهُم بَيِّنَٰتٖ مِّنَ ٱلۡأَمۡرِۖ فَمَا ٱخۡتَلَفُوٓاْ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَهُمُ ٱلۡعِلۡمُ بَغۡيَۢا بَيۡنَهُمۡۚ إِنَّ رَبَّكَ يَقۡضِي بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ 16
(17) और दीन (धर्म) के मामले में उन्हें खुली हिदायतें दे दी। फिर जो विभेद उनके बीच पैदा हुआ वह (न जानने की वजह से नहीं, बल्कि) ज्ञान आ जाने के बाद हुआ, और इस कारण हुआ कि वे आपस में एक-दूसरे पर ज्यादती करना चाहते थे।22 अल्लाह क़ियामत के दिन उन मामलों का फ़ैसला कर देगा जिनमें वे विभेद करते रहे हैं।
22. व्याख्या के लिए देखिए [सूरा-2 अल-बक़रा, टिप्पणी 230; सूरा-3 आले-इमरान, टिप्पणी 17;] सूरा-42 अश-शूरा, टिप्पणियाँ 22, 23)
ثُمَّ جَعَلۡنَٰكَ عَلَىٰ شَرِيعَةٖ مِّنَ ٱلۡأَمۡرِ فَٱتَّبِعۡهَا وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَ 17
(18) इसके बाद अब ऐ नबी ! हमने तुमको दीन (धर्म) के मामले में एक स्पष्ट राजमार्ग (शरीअत) पर क़ायम किया है।23 इसलिए तुम उसी पर चलो और उन लोगों की इच्छाओं का पालन न करो जो ज्ञान नहीं रखते।
23. मतलब यह है कि जो काम पहले बनी इस्राईल के सुपुर्द किया गया था, वह अब तुम्हारे सुपुर्द किया गया है। उन्होंने ज्ञान मिलने के बावजूद अपनी आपा-धापी से दीन में ऐसे विभेद पैदा किए और आपस में ऐसी गिरोहबन्दियाँ कर डाली जिनसे वे इस योग्य न रहे कि दुनिया को ख़ुदा के रास्ते पर बुला सकें। अब उसी दीन के स्पष्ट राजमार्ग पर तुम्हें खड़ा किया गया है, ताकि वह ख़िदमत अंजाम दो जिसे बनी इसराईल छोड़ भी चुके हैं और अदा करने के लायक भी नहीं रहे। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-42 अश-शूरा, आयत 13 से 15, टिप्पणियाँ 20 से 26 सहित।)
إِنَّهُمۡ لَن يُغۡنُواْ عَنكَ مِنَ ٱللَّهِ شَيۡـٔٗاۚ وَإِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٖۖ وَٱللَّهُ وَلِيُّ ٱلۡمُتَّقِينَ 18
(19) अल्लाह के मुक़ाबले में वे तुम्हारे कुछ भी काम नहीं आ सकते।24 ज़ालिम लोग एक-दूसरे के साथी हैं, और अल्लाह का डर रखनेवालों का साथी अल्लाह है।
24. अर्थात् अगर तुम उन्हें राजी करने के लिए अल्लाह के दीन में किसी प्रकार का परिवर्तन करोगे तो अल्लाह की पकड़ से वे तुम्हें न बचा सकेंगे।
هَٰذَا بَصَٰٓئِرُ لِلنَّاسِ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٞ لِّقَوۡمٖ يُوقِنُونَ 19
(20) ये विवेक (सूझ-बूझ) की रौशनियाँ हैं सब लोगों के लिए और मार्गदर्शन और दयालुता उन लोगों के लिए जो विश्वास रखें।25
25. अर्थ यह है कि यह किताब और यह शरीअत दुनिया के तमाम इंसानों के लिए वह रौशनी पेश करती है जो सत्य और असत्य का अन्तर स्पष्ट करनेवाली है। मगर इससे हिदायत (संमार्ग) वही लोग पाते हैं जो उसकी सच्चाई पर विश्वास करें, और उन्हीं के हक में यह रहमत है।
أَمۡ حَسِبَ ٱلَّذِينَ ٱجۡتَرَحُواْ ٱلسَّيِّـَٔاتِ أَن نَّجۡعَلَهُمۡ كَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ سَوَآءٗ مَّحۡيَاهُمۡ وَمَمَاتُهُمۡۚ سَآءَ مَا يَحۡكُمُونَ 20
(21) क्या26 वे लोग जिन्होंने बुराइयाँ की हैं, ये समझे बैठे हैं कि हम उन्हें और ईमान लानेवालों और अच्छे कर्म करनेवालों को एक जैसा कर देंगे कि उनका जीना और मरना समान हो जाए? बहुत बुरे हुक्म हैं जो ये लोग लगाते हैं।27
26. तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत के बाद अब यहाँ से आख़िरत पर वार्ता शुरू हो रही है।
27. यह आख़िरत के सत्य होने पर नैतिक तर्क है। नैतिकता में भलाई और बुराई और कर्मों में भलाई व बुराई के अन्तर का ज़रूरी तक़ाज़ा यह है कि अच्छे और बुरे लोगों का अंजाम समान न हो, बल्कि अच्छों को उनकी अच्छाई का अच्छा बदला मिले और बुरे अपनी बुराई का बुरा बदला पाएँ। यह बात अगर न हो तो सिरे से नैतिकता में ख़ूबी और ख़राबी का अन्तर ही निरर्थक हो जाता है और ख़ुदा पर अन्याय का आरोप आता है। मरते दम तक जिनका जीना समान नहीं रहा है, मौत के बाद अगर उनका अंजाम समान हो तो ख़ुदा की ख़ुदाई में इससे बढ़कर और क्या अन्याय हो सकता है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, [सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 10; सूरा-11 हूद, टिप्पणी 105; सूरा-16 अन-नल, टिप्पणी 35; सूरा-22 हज, टिप्पणी 9; सूरा-27 अन-नम्ल, टिप्पणी 86; सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 5,6;] सूरा-38 सॉद, आयत 28, टिप्पणी 30)
وَخَلَقَ ٱللَّهُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّ وَلِتُجۡزَىٰ كُلُّ نَفۡسِۭ بِمَا كَسَبَتۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ 21
(22) अल्लाह ने तो आसमानों और ज़मीन को सत्य के साथ पैदा किया है28 और इसलिए किया है कि हर प्राणी को उसकी कमाई का बदला दिया जाए। लोगों पर ज़ुल्म कदापि न किया जाएगा।29
28. अर्थात् अल्लाह ने ज़मीन और आसमान की पैदाइश खेल के तौर पर नहीं की है, बल्कि यह एक उद्देश्यपूर्ण तत्त्वदर्शिता पर आधारित व्यवस्था है। इस व्यवस्था में यह बात बिलकुल अकल्पनीय है कि बुरे और भले दोनों किस्म के इंसान अन्तत: मरकर मिट्टी हो जाएँ और इस मौत के बाद कोई दूसरी ज़िंदगी न हो, जिसमें न्याय के अनुसार उनके अच्छे और बुरे कर्मों का कोई अच्छा या बुरा नतीजा निकले। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, [सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 46; सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 11; सूरा-14 इबराहीम, टिप्पणी 26; सूरा-27 अन-नम्ल, टिप्पणी 6; सूरा-29 अल-अन्कबूत, टिप्पणी 75; सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 6)]
29. संदर्भ और प्रसंग में इस वाक्य का स्पष्ट अर्थ यह है कि अगर अच्छे इंसानों को उनकी नेकी का बदला न मिले, और ज़ालिमों को उनके जुल्म की सज़ा न दी जाए और पीड़ितों की कभी गुहार न सुनी जाए, तो यह ज़ुल्म होगा। ख़ुदा की ख़ुदाई में ऐसा ज़ुल्म कदापि नहीं हो सकता। इसी तरह ख़ुदा के यहाँ ज़ुल्म की यह दूसरी सूरत भी कभी सामने नहीं आ सकती कि किसी अच्छे इंसान को उसके हक़ (पात्रता) से कम बदला दिया जाए या किसी बुरे इंसान को उसके हक से अधिक सज़ा दे दी जाए।
أَفَرَءَيۡتَ مَنِ ٱتَّخَذَ إِلَٰهَهُۥ هَوَىٰهُ وَأَضَلَّهُ ٱللَّهُ عَلَىٰ عِلۡمٖ وَخَتَمَ عَلَىٰ سَمۡعِهِۦ وَقَلۡبِهِۦ وَجَعَلَ عَلَىٰ بَصَرِهِۦ غِشَٰوَةٗ فَمَن يَهۡدِيهِ مِنۢ بَعۡدِ ٱللَّهِۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ 22
(23) फिर क्या तुमने कभी उस व्यक्ति के हाल पर भी विचार किया जिसने अपने मन की इच्छा को अपना ख़ुदा बना लिया 30 और अल्लाह ने ज्ञान के बावजूद31 उसे गुमराही में फेंक दिया और उसके दिल और कानों पर मुहर लगा दी और उसकी आँखों पर परदा डाल दिया?32 अल्लाह के बाद अब कौन है जो उसे मार्ग दिखाए? क्या तुम लोग कोई शिक्षा नहीं लेते?33
30. मन की इच्छा को ख़ुदा बना लेने से तात्पर्य यह है कि आदमी अपनी इच्छाओं का दास बनकर रह जाए, जिस काम को उसका दिल चाहे, उसे कर गुजरे, भले ही ख़ुदा ने उसे हराम किया हो और जिस काम को उसका दिल न चाहे, उसे न करे, भले ही ख़ुदा ने उसे अनिवार्य कर दिया हो। जब आदमी इस तरह किसी का आज्ञापालन करने लगे तो इसका अर्थ यह है कि उसका उपास्य ख़ुदा नहीं है, बल्कि वह है जिसका वह इस तरह आज्ञापालन कर रहा है, यह देखे बीर कि वह जबान से उसको अपना ख़ुदा और उपास्य कहता हो या न कहता हो, और ठसका बुत बनाकर उसकी पूजा करता हो या न करता हो। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-34 सबा, टिप्पणी 63; सूरा-3 या-सीन, टिप्पणी 53; सूरा-42 अश-शूरा, टिप्पणी 38)
31. मूल अरबी शब्द हैं 'अ-जल्लहुल्लाहु अला इल्म'। एक अर्थ इन शब्दों का यह हो सकता है कि वह व्यक्ति आलिम (ज्ञानवान) होने के बावजूद अल्लाह की ओर से गुमराही में फेंका गया, क्योंकि वह मन की इच्छाओं का दास बन गया था।
दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि अल्लाह ने अपने इस ज्ञान के आधार पर कि वह अपने मन की इच्छा को अपना ख़ुदा बना बैठा है, उसे गुमराही में फेंक दिया।
وَقَالُواْ مَا هِيَ إِلَّا حَيَاتُنَا ٱلدُّنۡيَا نَمُوتُ وَنَحۡيَا وَمَا يُهۡلِكُنَآ إِلَّا ٱلدَّهۡرُۚ وَمَا لَهُم بِذَٰلِكَ مِنۡ عِلۡمٍۖ إِنۡ هُمۡ إِلَّا يَظُنُّونَ 23
(24) ये लोग कहते हैं कि ‘’ज़िंदगी बस यही हमारी दुनिया की जिंदगी है, यही हमारा मरना और जीना है और काल-चक्र (दिनों की गर्दिश) के सिवा कोई चीज़ नहीं जो हमें नष्ट करती हो।" वास्तव में इस मामले में इनके पास कोई ज्ञान नहीं है। ये सिर्फ़ अटकल के आधार पर ये बातें करते हैं।34
34. अर्थात् ज्ञान का कोई साधन ऐसा नहीं है जिससे इनको तहक़ीक़ से यह मालूम हो गया हो कि इस ज़िंदगी के बाद इंसान के लिए कोई दूसरी ज़िंदगी नहीं है और यह बात भी इन्हें मालूम हो गई हो कि इंसान की रूह किसी ख़ुदा के हुक्म से ग्रस्त नहीं की जा सकती, बल्कि आदमी सिर्फ़ दिनों की गर्दिश से मर कर नष्ट हो जाता है। आख़िरत के इंकारी ये बातें किसी ज्ञान के आधार पर नहीं, बल्कि सिर्फ़ अटकल के आधार पर करते हैं। ज्ञान के आधार पर अगर वे बात करें तो अधिक से अधिक जो कुछ कह सकते हैं, वह बस यह है कि "हम नहीं जानते कि मरने के बाद कोई जिंदगी है या नहीं।" लेकिन यह कदापि नहीं कह सकते कि "हम जानते हैं कि इस जिंदगी के बाद कोई दूसरी जिंदगी नहीं है।" इसी तरह ज्ञान के स्तर पर वे यह जानने का दावा नहीं कर सकते कि आदमी की रूह ख़ुदा के हुक्म से निकाली नहीं जाती, बल्कि वह सिर्फ़ उस तरह मरकर ख़त्म हो जाता है, जैसे एक घड़ी चलते-चलते रुक जाए। अधिक से अधिक जो कुछ वे कह सकते हैं, वह सिर्फ़ यह है कि हम इन दोनों में से किसी के बारे में यह नहीं जानते कि वास्तव में क्या सूरत पेश आती है। अब प्रश्न यह है कि जब मानवीय साधन ज्ञान की हद तक मरने के बाद की ज़िंदगी के होने या न होने और रूह के ग्रस्त होने या दिनों की गर्दिश से आप ही आप मर जाने की समान रूप से संभावना है, तो आख़िर क्या कारण है कि लोग आखिरत की संभावना को छोड़कर निश्चित रूप से आख़िरत के इंकार के हक़ में फ़ैसला कर डालते हैं। क्या इसका कारण इसके सिवा कुछ और है कि वास्तव में इस मामले का आख़िरी फ़ैसला वे प्रमाण के आधार पर नहीं, बल्कि अपनी इच्छा के आधार पर करते हैं? चूँकि उनका दिल यह नहीं चाहता कि मरने के बाद कोई ज़िंदगी हो और मौत की वास्तविकता शून्य और निरस्तित्व नहीं, बल्कि ख़ुदा की ओर से प्राण ग्रस्त करना हो, इसलिए वे अपने दिल को माँग को अपना विश्वास बना लेते हैं और दूसरी बात का इंकार कर देते हैं।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا بَيِّنَٰتٖ مَّا كَانَ حُجَّتَهُمۡ إِلَّآ أَن قَالُواْ ٱئۡتُواْ بِـَٔابَآئِنَآ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ 24
(25) और जब हमारी स्पष्ट आयतें इन्हें सुनाई35 जाती हैं, तो इनके पास कोई तर्क इसके सिवा नहीं होता कि उठा लाओ हमारे बाप-दादा को अगर तुम सच्चे हो।36
35. अर्थात् वे आयतें जिनमें आख़िरत की संभावना पर मज़बूत बौद्धिक (अकली) प्रमाण दिए गए हैं और जिनमें यह बताया गया है कि इसका होना पूरे तौर पर तत्त्वदर्शिता और न्याय का तक़ाज़ा है और इसके न होने से दुनिया की यह पूरी व्यवस्था निरर्थक हो जाती है।
36. दूसरे शब्दों में, उनकी इस दलील का मतलब यह था कि जब कोई उनसे यह कहे कि मौत के बाद दूसरी जिंदगी होगी तो उसे ज़रूर ही क़ब्र से उठाकर एक मुर्दा उनके सामने ले आना चाहिए। और अगर ऐसा नहीं किया जाता तो वे यह नहीं मान सकते कि मरे हुए इंसान किसी समय नए सिरे से ज़िंदा करके उठाए जानेवाले हैं, हालाँकि यह बात सिरे से किसी ने भी इनसे नहीं कही थी कि इस दुनिया में विभिन्न रूप से समय-समय पर मुर्दो को दोबारा ज़िंदा किया जाता रहेगा, बल्कि जो कुछ कहा गया था, वह यह था कि कियामत के बाद अल्लाह एक ही समय में तमाम इंसानों को नए सिरे से जिंदा करेगा और उन सबके कामों का हिसाब-किताब करके इनाम और सज़ा का फ़ैसला फ़रमाएगा।
قُلِ ٱللَّهُ يُحۡيِيكُمۡ ثُمَّ يُمِيتُكُمۡ ثُمَّ يَجۡمَعُكُمۡ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ لَا رَيۡبَ فِيهِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ 25
(26) ऐ नबी! इनसे कहो, अल्लाह हो तुम्हें जीवन प्रदान करता है, फिर वही तुम्हें मौत देता है,37 फिर वही तुमको उस क़ियामत के दिन जमा करेगा जिसके आने में कोई सन्देह नहीं।38 मगर अधिकतर लोग जानते नहीं हैं।39
37. यह उत्तर है उनकी इस बात का कि मौत समय-चक्र से आप ही आप आ जाती है। इसपर फ़रमाया जा रहा है कि ज़िन्दगी तुम्हें न संयोग से मिलती है, न तुम्हारी मौत अपने आप हो जाती है। एक ख़ुदा है जो तुम्हें जीवन प्रदान करता है और वही इसे छीन लेता है।
38. यह उत्तर है उनकी इस बात का कि उठा लाओ हमारे बाप-दादा को। इसपर फ़रमाया जा रहा है कि यह अब नहीं होगा और अलग-अलग रूप से नहीं होगा, बल्कि एक दिन सब इंसानों को जमा करने के लिए निश्चित है।
وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ يَوۡمَئِذٖ يَخۡسَرُ ٱلۡمُبۡطِلُونَ 26
(27) ज़मीन और आसमानों की बादशाही अल्लाह ही की है,40 और जिस दिन क़ियामत की घड़ी आ खड़ी होगी, उस दिन असत्यवादी घाटे में पड़ जाएँगे।
40. प्रसंग एवं सन्दर्भ को अगर दृष्टि में रखकर देखा जाए तो इस वाक्य से स्वयं यह अर्थ निकलता है कि जो ख़ुदा इस महान सृष्टि पर शासन कर रहा है, उसकी कुदरत से यह बात बिलकुल असंभव नहीं है कि जिन इंसानों को वह पहले पैदा कर चुका है, उन्हें दोबारा अस्तित्त्व में ले आए।
وَتَرَىٰ كُلَّ أُمَّةٖ جَاثِيَةٗۚ كُلُّ أُمَّةٖ تُدۡعَىٰٓ إِلَىٰ كِتَٰبِهَا ٱلۡيَوۡمَ تُجۡزَوۡنَ مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ 27
(28) उस समय तुम हर गिरोह को घुटनों के बल गिरा देखोगे।41 हर गिरोह को पुकारा जाएगा कि आए और अपना आमालनामा (कर्मपत्र) देखे। उनसे कहा जाएगा, "आज तुम लोगों को उन कर्मों का बदला दिया जाएगा जो तुम करते रहे थे।
41. अर्थात् वहाँ हश्र के मैदान का ऐसा हौल (भय) और ईश-अदालत का ऐसा रोब छा जाएगा कि बड़े-बड़े हेकड़ लोगों की अकड़ भी समाप्त हो जाएगी और विनम्रतापूर्वक सब घुटनों के बल गिरे होंगे।
هَٰذَا كِتَٰبُنَا يَنطِقُ عَلَيۡكُم بِٱلۡحَقِّۚ إِنَّا كُنَّا نَسۡتَنسِخُ مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ 28
(29) यह हमारा तैयार कराया हुआ आमालनामा है जो तुम्हारे ऊपर ठीक-ठीक गवाही दे रहा है। जो कुछ भी तुम करते थे, उसे हम लिखवाते जा रहे थे।"42
42. लिखवाने का सिर्फ़ यही एक संभव रूप नहीं है कि काग़ज़ पर क़लम से लिखवाया जाए। इंसानी कथनी-करनी को अंकित करने और दोबारा उनको ठीक उसी तरह पेश कर देने के कई दूसरे रूप इसी दुनिया में स्वयं इंसान मालूम कर चुका है, और हम सोच भी नहीं सकते कि आगे इसके सिलसिले में और क्या संभावनाएँ छुपी हुई हैं जो कभी इंसान की पकड़ में आ जाएँगी। अब यह कौन जान सकता है कि अल्लाह किस-किस तरह इंसान की एक-एक बात और उसकी गतिविधियों में से एक-एक चीज़ और उसकी नीयतों, इरादों, इच्छाओं और विचारों में से हर छिपी से छिपी चीज़ को अंकित करा रहा है और किस तरह वह हर आदमी, हर गिरोह, और हर क़ौम की जिंदगी का पूरा कारनामा, कुछ घटाए-बढ़ाए बिना, उसके सामने ला रखेगा।
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَفَلَمۡ تَكُنۡ ءَايَٰتِي تُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ فَٱسۡتَكۡبَرۡتُمۡ وَكُنتُمۡ قَوۡمٗا مُّجۡرِمِينَ 30
(31) और जिन लोगों ने इंकार किया था (उनसे कहा जाएगा), "क्या मेरी आयतें तुमको नहीं सुनाई जाती थीं? मगर तुमने घमंड किया43 और अपराधी बनकर रहे।
43. अर्थात् अपने घमंड में तुमने यह समझा कि अल्लाह की आयतों को मानकर आज्ञाकारी बन जाना तुम्हारी शान से गिरी हुई बात है और तुम्हारा स्थान बन्दगी के स्थान से बहुत ऊँचा है।
وَإِذَا قِيلَ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ وَٱلسَّاعَةُ لَا رَيۡبَ فِيهَا قُلۡتُم مَّا نَدۡرِي مَا ٱلسَّاعَةُ إِن نَّظُنُّ إِلَّا ظَنّٗا وَمَا نَحۡنُ بِمُسۡتَيۡقِنِينَ 31
(32) और जब कहा जाता था कि अल्लाह का वादा सच्चा है और क़ियामत के आने में कोई सन्देह नहीं, तो तुम कहते थे कि हम नहीं जानते कि क़ियामत क्या होती है, हम तो बस एक गुमान सा रखते हैं, विश्वास हमको नहीं है।’’44
44. इससे पहले आयत 24 में जिन लोगों का उल्लेख हो चुका है, वे आखिरत का बिल्कुल ही स्पष्ट इंकार करनेवाले थे। और यहाँ उन लोगों का उल्लेख किया जा रहा है जो उसपर विश्वास नहीं रखते, यद्यपि अटकल की हद तक उसकी संभावना के इंकारी नहीं है। प्रत्यक्ष रूप से इन दोनों गिरोहों में इस दृष्टि से बड़ा अन्तर है कि एक बिल्कुल इंकारी है और दूसरा उसकी संभावना का गुमान रखता है। लेकिन नतीजे और अंजाम की दृष्टि से इन दोनों में कोई अन्तर नहीं, इसलिए कि आख़िरत के इंकार और उसपर विश्वास न होने के नैतिक परिणाम बिलकुल एक जैसे हैं। कोई आदमी चाहे आख़िरत को न मानता हो, या उसपर विश्वास न रखता हो, दोनों शक्लों में अनिवार्य रूप से वह ख़ुदा के सामने अपनी जवाबदेही के एहसास से ख़ाली होगा, और यह एहसास का न होना उसको अवश्य ही चिन्तन व व्यवहार की गुमराही में डालकर रहेगा। सिर्फ़ आख़िरत विश्वास ही दुनिया में आदनी के रवैये को ठीक रख सकता है। यह अगर न हो तो सन्देह और इंकार, दोनों उसे एक ही तरह के ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैये पर डाल देते हैं, और चूँकि यही ग़ैर-ज़िम्मेदारी का रवैया आख़िरत की नाकामी का मूल कारण है, इसलिए दोज़ख़ में जाने से न इंकार करनेवाला बच सकता है, न सन्देह रखनेवाला।
وَبَدَا لَهُمۡ سَيِّـَٔاتُ مَا عَمِلُواْ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ 32
(33) उस वन्त उनपर उनके कर्मों की बुराइयाँ खुली जाएंगी45 और वे उसी चीज़ के फेर में आ जाएँगे जिसका वे मज़ाक़ उड़ाया करते थे।
45. अर्थात् वहाँ उनको पता चल जाएगा कि अपने जिन तौर-तरीकों, आदतों, हरकतों, कार्मों और मश्ग़लों को वे दुनिया में बहुत ‘ख़ूब' समझते थे, वे सब ‘नाख़ूब' थे। अपने आपको ग़ैर-जवाबदेह मानकर उन्होंने ऐसी बुनियादी ग़लती कर डाली जिसकी वजह से उनकी ज़िंदगी का पूरा कारनामा ही ग़लत होकर रह गया।
ذَٰلِكُم بِأَنَّكُمُ ٱتَّخَذۡتُمۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ هُزُوٗا وَغَرَّتۡكُمُ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَاۚ فَٱلۡيَوۡمَ لَا يُخۡرَجُونَ مِنۡهَا وَلَا هُمۡ يُسۡتَعۡتَبُونَ 34
(35) यह तुम्हारा अंजाम इसलिए हुआ है कि तुमने अल्लाह की आयतों का मज़ाक़ बना लिया था और तुम्हें दुनिया की ज़िंदगी ने धोखे में डाल दिया था। इसलिए आज न ये लोग दोज़ख़ से निकाले जाएंगे और न इनसे कहा जाएगा कि माफ़ी माँगकर अपने रब को राज़ी करो।''46
46. यह अन्तिम वाक्य इस अन्दाज़ में है जैसे कोई स्वामी अपने कुछ सेवकों को डाँटने के बाद दूसरों को सम्बोधित करके कहता है कि अच्छा, अब इन नालायकों की यह सज़ा है।