46. अल-अहक़ाफ़
(मक्का में उतरी, आयतें 35)
परिचय
नाम
आयत 21 के वाक्यांश 'इज़ अन-ज़-र क़ौमहू बिल अहक़ाफ़ि' (जबकि उसने अहक़ाफ़ में अपनी क़ौम को सावधान किया था) से लिया गया है।
उतरने का समय
एक ऐतिहासिक घटना के अनुसार जिसका उल्लेख आयत 29 से 32 में हुआ है कि यह सूरा सन् 10 नबवी के अन्त में या सन् 11 नबवी के आरंभ में उतरी।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
सन् 10 नबवी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पवित्र जीवन में अत्यन्त कठिनाई का वर्ष था। तीन वर्ष से क़ुरैश के सभी क़बीलों ने मिलकर बनी-हाशिम और मुसलमानों का पूर्ण सामाजिक बहिष्कार कर रखा था और नबी (सल्ल०) अपने घराने और अपने साथियों के साथ अबू-तालिब की घाटी में घिरकर रह गए थे। क़ुरैश के लोगों ने हर ओर से इस मुहल्ले की नाकाबन्दी कर रखी थी, जिससे गुज़रकर किसी प्रकार की रसद अन्दर न पहुँच सकती थी। लगातार तीन वर्ष के इस सामाजिक बहिष्कार ने मुसलमानों और बनी-हाशिम की कमर तोड़कर रख दी थी और उनपर ऐसे-ऐसे कठिन समय बीत गए थे, जिनमें अकसर घास और पत्ते खाने की नौबत आ जाती थी। किसी तरह यह घेराव इस वर्ष टूटा ही था कि नबी (सल्ल०) के चचा अबू-तालिब का, जो दस साल से आप के लिए ढाल बने हुए थे, देहान्त हो गया और इस घटना को घटित हुए मुश्किल से एक महीना हुआ था कि आप (सल्ल०) की जीवन संगिनी हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) का भी देहान्त हो गया, जो नुबूवत के आरम्भ से लेकर उस समय तक आप (सल्ल०) के लिए शान्ति और सांत्वना का कारण बनी रही थीं। इन लगातार आघातों और कष्टों के कारण से नबी (सल्ल०) इस साल को 'आमुल हुज़्न' (रंज और दुख का साल) कहा करते थे। हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) और अबू-तालिब के इन्तिक़ाल के बाद मक्का के इस्लाम-विरोधी नबी (सल्ल०) के मुक़ाबले में और अधिक दुस्साहसी हो गए। पहले से अधिक आप (सल्ल०) को तंग करने लगे, यहाँ तक कि आप (सल्ल०) का घर से बाहर निकलना भी कठिन हो गया। आख़िरकार आप (सल्ल०) इस इरादे से ताइफ़ गए कि बनी-सक़ीफ़ को इस्लाम की ओर बुलाएँ और अगर वे इस्लाम स्वीकार न करें तो उन्हें कम से कम इस बात पर तैयार करें कि वे आप (सल्ल०) को अपने यहाँ चैन से बैठकर काम करने का मौक़ा दे दें। मगर [वहाँ के बड़े लोगों ने] न सिर्फ़ यह कि आप (सल्ल०) की कोई बात न मानी, बल्कि आप (सल्ल०) को नोटिस दे दिया कि उनके शहर से निकल जाएँ। विवश होकर आप (सल्ल०) को ताइफ़ छोड़ देना पड़ा। जब आप (सल्ल०) वहाँ से निकलने लगे तो सक़ीफ़ के सरदारों ने अपने यहाँ के लफँगों को आप (सल्ल०) के पीछे लगा दिया। वे रास्ते के दोनों और आप (सल्ल०) पर व्यंग्य करते, गालियाँ देते और पत्थर मारते चले गए, यहाँ तक कि आप (सल्ल०) घावों से चूर हो गए और आप (सल्ल०) की जूतियाँ ख़ून से भर गई। इसी हालत में आप (सल्ल०) ताइफ़ से बाहर एक बाग़ की दीवार की छाया में बैठ गए और अपने रब से [दुआ करने में लग गए।] टूटा दिल लेकर और दुखी होकर पलटे। जब आप क़र्नुल-मनाज़िल के क़रीब पहुँचे तो ऐसा महसूस हुआ कि आसमान पर एक बादल-सा छाया हुआ है। नज़र उठाकर देखा तो जिबरील (फ़रिश्ते) सामने थे। उन्होंने पुकारकर कहा, "आपकी क़ौम ने जो कुछ आपको उत्तर दिया है, अल्लाह ने उसे सुन लिया। अब यह पहाड़ों का प्रबंधक फ़रिश्ता अल्लाह ने भेजा है, आप जो आदेश देना चाहें, इसे दे सकते हैं।" फिर पहाड़ों के फ़रिश्ते ने आप (सल्ल०) को सलाम करके निवेदन किया, "आप कहें तो दोनों ओर से पहाड़ इन लोग पर उलट दूँ।" आप (सल्ल०) ने उत्तर दिया, "नहीं, बल्कि मैं आशा रखता हूँ कि अल्लाह उनकी नस्ल से ऐसे लोगों पैदा करेगा जो एक अल्लाह की, जिसका कोई साझीदार नहीं, बन्दगी करेंगे।" (हदीस : बुख़ारी)
इसके बाद आप (सल्ल०) कुछ दिन नख़ला नामक जगह पर जाकर ठहर गए। इन्हीं दिनों में एक रात को आप (सल्ल०) नमाज़ में क़ुरआन मजीद पढ़ रहे थे कि जिन्नों के एक गिरोह का उधर से गुज़र हुआ। उन्होंने क़ुरआन सुना, ईमान लाए, वापस जाकर अपनी क़ौम में इस्लाम का प्रचार शुरू कर दिया और अल्लाह ने अपने नबी (सल्ल०) को यह ख़ुशख़बरी सुनाई कि इंसान चाहे आपकी दावत से भाग रहे हों, मगर बहुत-से जिन्न उसके आसक्त हो गए हैं और वे उसे अपनी जाति में फैला रहे हैं।
विषय और वार्ता
सूरा का विषय इस्लाम-विरोधियों को उनकी गुमराहियों के नतीजों से सचेत करना है जिनमें वे न केवल पड़े हुए थे, बल्कि बड़ी हठधर्मी और गर्व व अहंकार के साथ उनपर जमे हुए थे। उनकी दृष्टि में दुनिया की हैसियत केवल एक निरुद्देश्य खिलौने की थी और उसके अन्दर अपने आपको वे अनुत्तरदायी प्राणी समझ रहे थे। तौहीद की दावत (एकेश्वरवाद का बुलावा) उनके विचार में असत्य था। वे क़ुरआन के बारे में यह मानने को तैयार न थे कि यह जगत्-स्वामी की वाणी है। उनकी दृष्टि में इस्लाम के सत्य न होने का एक बड़ा प्रमाण यह था कि सिर्फ़ कुछ नौवजवान, कुछ ग़रीब लोग और कुछ ग़ुलाम ही उसपर ईमान लाए हैं। वे क़ियामत और मरने के बाद की ज़िंदगी और प्रतिदान और दण्ड की बातों को मनगढ़ंत कहानी समझते थे। इस सूरा में संक्षेप में इन्हीं गुमराहियों में से एक-एक का तर्कयुक्त खंडन किया गया है और इस्लाम विरोधियों को सचेत किया गया है कि तुम अगर क़ुरआन की दावत को रद्द कर दोगे, तो ख़ुद अपना ही अंजाम ख़राब करोगे।
(व्याख्या के लिए देखिए : सूरा-39, अज़-ज़ुमर, टिप्पणी-1; सूरा-45, अल-जासिया, टिप्पणी-1; सूरा-32, अस-सजदा, टिप्पणी-1)
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مَا خَلَقۡنَا ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَآ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَأَجَلٖ مُّسَمّٗىۚ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ عَمَّآ أُنذِرُواْ مُعۡرِضُونَ 2
(3) हमने ज़मीन और आसमानों को और उन सारी चीज़ों को, जो उनके बीच हैं, सत्य पर और एक विशेष अवधि के निर्धारण के साथ पैदा किया है।2 मगर ये इंकार करने वाले लोग उस वास्तविकता से मुँह मोड़े हुए हैं, जिससे इनको सचेत किया गया है।3
2. ब्याख्या के लिए देखिए (सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 46; सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 11, सूरा-14 इबराहीम टिप्पणी 26; सूरा-15 अल-हिज्र, टिप्पणी 47; सूरा-16 अन-नहल, टिप्पणी 6, सूरा-21 अल-अंबिया, टिप्पणी 15 से 17; सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 102, 103; सूरा-29 अल-अन्कबूत, टिप्पणी 75; सूरा-30 अर-रूम, टिप्पणी 6]; सूरा-31 लुक्रमान, टिप्पणी 51; सूरा-44 अद-दुख़ान, टिप्पणी ; सूरा-45 अल-जासिया, टिप्पणी 28
3. अर्थात् वास्तव में सत्य तो यह है कि सृष्टि की यह व्यवस्था एक उद्देश्यपूर्ण तत्त्वदर्शिता पर आधारित व्यवस्था है जिसमें अनिवार्य रूप से भले और बुरे और ज़ालिम व मजलूम का फ़ैसला इंसाफ़ के साथ होना है, और सृष्टि की वर्तमान व्यवस्था नित्य एवं शाश्वत नहीं है, बल्कि इसकी एक खास उम्र निश्चित है, जिसकी समाप्ति पर उसे अनिवार्य रूप से छिन्न-भिन्न हो जाना है, और ख़ुदा की अदालत के लिए भी एक समय सुनिश्चित है जिसके आने पर बह ज़रूर कायम होनी है, लेकिन जिन लोगों ने ख़ुदा के रसूल और उसकी किताब को मानने से इंकार कर दिया है वे इन तथ्यों से मुंह मोड़े हुए हैं। आगे की वार्ता समझने के लिए यह बात दृष्टि में रहनी चाहिए कि इंसान की सबसे बड़ी बुनियादी ग़लती वह है जो वह ख़ुदा के बारे में अपने अक़ीदे के निर्धारण में करता है। इस मामले को हल्का-फुल्का समझकर किसी गहरे और गंभीर चिन्तन और शोध के बिना एक सरसरी या सुनी-सुनाई धारणा बना लेना ऐसी बड़ी बेवकूफ़ी है जो दुनिया की जिंदगी में इंसान के पूरे रवैये को और हमेशा-हमेशा के लिए उसके अंजाम को ख़राब करके रख देती है। लेकिन जिस कारण आदमी इस ख़तरनाक आसान पसन्दी में ग्रस्त हो जाता है, वह यह है कि वह अपने आपको गैर-ज़िम्मेदार और अनुत्तरदाई समझ लेता है और इस भ्रम में पड़ जाता है कि या तो मरने के बाद सिरे से कोई जिंदगी नहीं है जिसमें मुझे पूछ-गच्छ का सामना करना पड़े, या अगर ऐसी कोई जिंदगी हो और वहाँ पूछ-गच्छ भी हो तो जिन हस्तियों का दामन मैंने थाम रखा है, वे मुझे बुरे अंजाम से बचा लेंगी।
قُلۡ أَرَءَيۡتُم مَّا تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ أَرُونِي مَاذَا خَلَقُواْ مِنَ ٱلۡأَرۡضِ أَمۡ لَهُمۡ شِرۡكٞ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِۖ ٱئۡتُونِي بِكِتَٰبٖ مِّن قَبۡلِ هَٰذَآ أَوۡ أَثَٰرَةٖ مِّنۡ عِلۡمٍ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ 3
(4) ऐ नबी! इनसे कहो, ''कभी तुमने आँखें खोलकर देखा भी कि वे हस्तियाँ हैं क्या जिन्हें तुम ख़ुदा को छोड़कर पुकारते हो? तनिक मुझे दिखाओ तो सही कि ज़मीन में उन्होंने क्या पैदा किया है ? या आसमानों के बनाने और उसके प्रबंध में उनका कोई भाग है? इससे पहले आई हुई कोई किताब या ज्ञान का कोई अवशेष (इन धारणाओं के प्रमाण में) तुम्हारे पास हो तो वही ले आओ अगर तुम सच्चे हो।''4
4. चूँकि सम्बोधित लोग एक मुशरिक क़ौम के लोग हैं, इसलिए उनको बताया जा रहा है कि ज़िम्मेदारी के एहसास की कमी की वजह से वे किस तरह बे-सोचे-समझे एक अत्यन्त अबौद्धिक धारणा से चिमटे हुए हैं। वे अल्लाह को सृष्टि का पैदा करनेवाला मानने के साथ बहुत-सी दूसरी हस्तियों को उपास्य बनाए हुए थे, इन्हीं हस्तियों के बारे में इनसे पूछा जा रहा है कि इन्हें आख़िर किस आधार पर तुमने अपना उपास्य मान रखा है ? स्पष्ट है कि अल्लाह के साथ किसी को उपासना में हिस्सेदार क़रार देने के लिए दो ही आधार हो सकते हैं, या तो आदमी को स्वयं ज्ञान के किसी ज़रिये से यह मालूम हो कि ज़मीन व आसमान के बनाने में वास्तव में उसका भी कोई हिस्सा है ? या अल्लाह ने ख़ुद यह फ़रमाया हो कि फलाँ साहब भी ख़ुदाई (ईश्वरत्त्व) के काम में मेरे शरीक हैं। अब अगर कोई मुशरिक [इन दोनों बातों में से किसी एक का भी दावा नहीं कर सकता] हो तो लाज़िमी तौर से उसका अक़ीदा पूर्ण रूप से निराधार ही होगा।
इस आयत में पहले आई हुई किताब' से मुराद कोई ऐसी किताब है जो क़ुरआन से पहले अल्लाह की ओर से भेजी गई हो और ज्ञान के अवशेष' से तात्पर्य पुराने ज़माने के नबी और सदाचारी लोगों की शिक्षाओं का कोई ऐसा भाग है जो बाद की नस्लों को किसी भरोसेमंद ज़रिये से पहुँचा हो। इन दोनों साधनों से जो कुछ भी इंसान को मिला है, उसमें कहीं शिर्क का लेशमात्र तक मौजूद नहीं है।
وَمَنۡ أَضَلُّ مِمَّن يَدۡعُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَن لَّا يَسۡتَجِيبُ لَهُۥٓ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَهُمۡ عَن دُعَآئِهِمۡ غَٰفِلُونَ 4
(5) आख़िर उस आदमी से अधिक बहका हुआ इंसान और कौन होगा, जो अल्लाह को छोड़कर उन्हें पुकारे जो क़ियामत तक उसे उत्तर नहीं दे सकते,5 बल्कि इससे भी बे-ख़बर हैं कि पुकारनेवाले उनको पुकार रहे हैं।6
5. उत्तर देने से तात्पर्य किसी की अर्जी पर फैसला जारी करना है। अर्थ यह है कि कोई व्यक्ति अगर उन उपास्यों से फ़रियाद या इस्तिगासा करे, या उनसे कोई दुआ माँगे, तो चूँकि उनके हाथ में कोई शक्ति और अधिकार नहीं है, इसलिए वह उसकी अर्जी पर कोई कार्रवाई 'नहीं' या 'हाँ' के रूप में नहीं कर सकते। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-39 अज़-जुमर, टिप्पणी 33)
6. अर्थात् उन तक इन पुकारनेवालों की पुकार सिरे से पहुँचती ही नहीं। न वे खुद अपने कानों से उसको सुनते हैं, न किसी ज़रिये से उन तक यह खबर पहुँचती है कि दुनिया में कोई उन्हें पुकार रहा है। अल्लाह के इस कथन को विस्तृत रूप में यूँ समझिए कि दुनिया भर के मुशरिक लोग ख़ुदा के सिवा जिन हस्तियों से दुआएँ माँगते रहे हैं, वे तीन प्रकार की हो सकती हैं- एक निर्जीव और बुद्धिविहीन मखलूक्त (संरचना); दूसरे वे बुजुर्ग इंसान, जो गुज़र चुके हैं; तीसरे वे गुमराह इंसान जो स्वयं बिगड़े हुए थे और दूसरों को बिगाड़ कर दुनिया से विदा हुए। पहले प्रकार के उपास्यों का तो अपने उपासकों की दुआओं से बे-ख़बर रहना स्पष्ट ही है। रहे दूसरे प्रकार के उपास्य उनके बेख़बर होने के दो कारण हैं। एक यह कि वे अल्लाह के यहाँ इस हाल में हैं जहाँ इंसानी आवाजें सीधे तौर पर उन तक नहीं पहुँचतीं। दूसरे यह कि अल्लाह और उसके फ़रिश्ते भी उन तक यह ख़बर नहीं पहुँचाते कि जिन लोगों को आप सारी उम्र अल्लाह से दुआ माँगना सिखाते रहे थे, वे अब उलटे आपसे दुआएँ माँग रहे हैं। इसलिए कि इस ख़बर से बढ़कर उनको कष्ट पहुँचानेवाली कोई चीज़ नहीं हो सकती, और अल्लाह अपने इन नेक बन्दों की आत्माओं को पीड़ा देना कदापि पसन्द नहीं करता। इसके बाद तीसरे प्रकार के उपास्यों के मामले पर विचार कीजिए तो मालूम होगा कि इनके बे-ख़बर रहने के भी दो ही कारण हैं। एक यह कि वे आरोपियों की हैसियत से अल्लाह के यहाँ हवालात में बन्द हैं, जहाँ दुनिया की कोई आवाज़ उन्हें नहीं पहुँचती। दूसरे यह कि अल्लाह और उसके फ़रिश्ते भी उन्हें यह खबर नहीं पहुँचाते कि तुम्हारा मिशन दुनिया में अत्यन्त सफल हो रहा है और लोग तुम्हारे पीछे तुम्हें उपास्य बनाए बैठे हैं, इसलिए कि ये ख़बरें उनके लिए खुशी का कारण बनेंगी और ख़ुदा इन ज़ालिमों को कदापि खुश नहीं करना चाहता।
इस सिलसिले में यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि अल्लाह अपने नेक बन्दों को दुनियावालों के सलाम और उनकी रहमत की दुआ पहुँचा देता है, क्योंकि ये चीजें उनके लिए ख़ुशी का कारण हैं, और इसी तरह वह अपराधियों को दुनियावालों के धिक्कार और फिटकार और डाँट-डपट से सूचित कर देता है, जैसे बद्र की लड़ाई में मारे जानेवाले इस्लाम-विरोधी शत्रुओं को एक हदीस के अनुसार नबी (सल्ल०) की फिटकार सुनवा दी गई, क्योंकि यह उनके लिए पीड़ा का कारण है। लेकिन कोई ऐसी बात जो अच्छे लोगों के लिए रंज का कारण या अपराधियों के लिए खुशी का कारण हो, वह उन तक नहीं पहुंचाई जाती। इस व्याख्या से मुर्दो के सुनने के मामले की वास्तविकता अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا بَيِّنَٰتٖ قَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَهُمۡ هَٰذَا سِحۡرٞ مُّبِينٌ 6
(7) इन लोगों को जब हमारी साफ़-साफ़ आयतें सुनाई जाती हैं, और सत्य इनके सामने आ जाता है तो ये इंकार करनेवाले लोग उसके बारे में कहते हैं कि यह तो खुला जादू है।8
8. इसका अर्थ यह है कि जब कुरआन की आयतें मक्का के इस्लाम-विरोधियों के सामने पढ़ी जाती थीं, तो वे स्पष्ट रूप से महसूस करते थे कि इस कलाम (वाणी) की शान इंसानी कलाम से कहीं अधिक उच्च है, मगर वे कि अपने इंकार पर अड़े रहने का फैसला कर चुके थे, इसलिए सीधी तरह इस कलाम को वह्य का कलाम (ईशवाणी) मान लेने के बजाय यह बात बनाते थे कि यह कोई जादू का चमत्कार है। (एक और पहलू जिसके अनुसार वे क़ुरआन को जादू कहते थे, उसकी व्याख्या हम इससे पहले कर चुके हैं। देखिए (सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 5] सूरा-साँद, टिप्पणी 5)
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰهُۖ قُلۡ إِنِ ٱفۡتَرَيۡتُهُۥ فَلَا تَمۡلِكُونَ لِي مِنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔاۖ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَا تُفِيضُونَ فِيهِۚ كَفَىٰ بِهِۦ شَهِيدَۢا بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡۖ وَهُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ 7
(8) क्या उनका कहना यह है कि रसूल ने इसे ख़ुद गढ़ लिया है?9 इनसे कहो, "अगर मैंने इसे स्वयं गढ़ लिया है तो तुम मुझे ख़ुदा को पकड़ से कुछ भी न बचा सकोगे, जो बातें तुम बनाते हो, अल्लाह उनको ख़ूब जानता है। मेरे और तुम्हारे बीच वहीं गवाही देने के लिए पर्याप्त है।10 और वह बड़ा क्षमाशील और दयावान है।''11
9. अर्थ यह है कि क्या ये लोग इतने निर्लज्ज हैं कि मुहम्मद (सल्ल.) पर क़ुरआन स्वयं गढ़ लाने का आरोप लगाते हैं ? हालाँकि ये अच्छी तरह जानते हैं कि यह उनका गढ़ा हुआ कलाम नहीं हो सकता, और इनका इसे जादू कहना स्वयं इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार करना है कि यह एक असाधारण वाणी है जिसका किसी इंसान की रचना होना उनके अपने नज़दीक भी संभव नहीं है।
10. चूंकि उनके आरोप का केवल निराधार और पूर्णत: हठधर्मी पर आधारित होना बिलकुल स्पष्ट था, इसलिए उसके खंडन के लिए प्रमाण प्रस्तुत करने की कोई आवश्यकता न थी। अत: यह कहने को पर्याप्त समझ गया कि अगर सच में मैंने ख़ुद एक कलाम गढ़ करके अल्लाह से जोड़ देने का बड़ा अपराध किया है, जैसा कि तुम आरोप लगा रहे हो, तो मुझे ख़ुदा की पकड़ से बचाने के लिए तुम न आओगे, लेकिन अपार निमट लेगा। वास्तविकता अल्लाह से छिपी हुई नहीं है।
قُلۡ مَا كُنتُ بِدۡعٗا مِّنَ ٱلرُّسُلِ وَمَآ أَدۡرِي مَا يُفۡعَلُ بِي وَلَا بِكُمۡۖ إِنۡ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّ وَمَآ أَنَا۠ إِلَّا نَذِيرٞ مُّبِينٞ 8
(9) इनसे कहो, "मैं कोई निराला रसूल तो नहीं हूँ, मैं नहीं जानता कि कल तुम्हारे साथ क्या होता है और मेरे साथ क्या मैं तो सिर्फ़ उस प्रकाशना (वहय) की पैरवी करता हूँ जो मेरे पास भेजी जाती है और मैं एक साफ़-साफ़ सचेत कर देनेवाले के सिवा और कुछ नहीं हूँ।"12
12. इस कशान की पृष्ठभूमि यह है कि जब नबी (सल्ल०) ने अपने आपको ख़ुदा के रसूल की हैसियत से प्रस्तुत किया तो मक्का के लोग इस पर तरह-तरह की बातें बनाने लगे। वे कहते थे कि यह कैसा रसूल है जो बाल-बच्चे रखता है. बाज़ारों में चलता-फिरता है, खाता-पीता है और हम जैसे इंसानों की तरह ज़िंदगी बसर करता है। [(इन बातों की व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-25 फुरकान, आयतें 7,8)] फिर वे आप (सल्ल०) से तरह-तरह के चमत्कारों की मांग करते थे और परोक्ष की बातें आप (सल्ल०) से पूछते थे। उसके विचार में किसी व्यक्ति का ख़ुदा का रसूल होना यह अर्थ रखता था कि उसे सामान्य मनुष्य से बढ़कर शक्ति व सामथर्य प्राप्त हो और परोक्ष के परदे में छिपी हुई हर चीज़ उस पर प्रकट हो।
यही बातें हैं जिनका जवाब इन वाक्यों में दिया गया है। फ़रमाया, इनसे कहो, "मैं कोई निराला रसूल तो नहीं हूँ।" अर्थात् मेरा रसूल बनाया जाना दुनिया के इतिहास में कोई पहली घटना तो नहीं है कि तुम्हें यह समझने में परेशानी हो कि रसूल कैसा होता है और कैसा नहीं होता। मुझसे पहले बहुत-से रसूल आ चुके हैं और मैं उनसे भिन्न नहीं हूँ। इसके बाद फ़रमाया कि उनके जवाब में यह भी कहो, "मैं नहीं जानता कि कल मेरे साथ क्या होनेवाला है और तुम्हारे साथ क्या। मैं तो सिर्फ उस प्रकाशना (वय) का अनुपालन करता हूँ जो मुझे भेजी जाती है।" अर्थात् मैं परोक्ष का जाननेवाला नहीं हूँ। तुम्हारा भविष्य तो दूर की बात, मुझे तो अपना भविष्य भी मालूम नहीं है। जिस चीज़ का वह्य के ज़रिये से मुझे ज्ञान दे दिया जाता है, बस उसी को मैं जानता हूँ। अन्त में फ़रमाया कि इनसे कह दो, "मैं एक साफ़-साफ़ ख़बरदार कर देनेवाले के सिवा और कुछ नहीं हूँ।" अर्थात् मैं ईश्वरीय अधिकारों का स्वामी नहीं हूँ कि वे अजीब व गरीब मोजज़े (चमत्कार) तुन्हें दिखाऊँ, जिनको माँग आए दिन तुम मुझसे करते रहते हो। मुझे जिस काम के लिए भेजा गया है, वह तो केवल यह है कि लोगों के सामने सीधा रास्ता रखू और जो लोग उसे स्वीकार न करें, उन्हें बुरे अंजाम से ख़बरदार कर दूँ।
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِن كَانَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِ وَكَفَرۡتُم بِهِۦ وَشَهِدَ شَاهِدٞ مِّنۢ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ عَلَىٰ مِثۡلِهِۦ فَـَٔامَنَ وَٱسۡتَكۡبَرۡتُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ 9
(10) ऐ नबी! इनसे कहो, "कभी तुमने सोचा भी कि अगर यह वाणो अल्लाह ही की ओर से हुई और तुमने इसका इंकार कर दिया, (तो तुम्हारा क्या अंजाम होगा?13) और इस जैसी एक वाणी पर तो इसराईल की संतान का एक गवाह गवाही भी दे चुका है। वह ईमान ले आया और तुम अपने घमंड में पड़े रहे।14 ऐसे ज़ालिमों को अल्लाह हिदायत नहीं दिया करता।
13. यह वही विषय है जो इससे पहले एक दूसरे तरीके से सूरा-41 हा-मीम अस-सदा, आयत 52 में आ चुका है। व्याख्या के लिए देखिए [उल्लिखित सूरा.] टिप्पणी 69
14. [इस बारे में टीकाकारों को राएँ अलग-अलग हैं कि इस ' गवाह' से तात्पर्य कौन है, लेकिन] अधिक सही बात वही मालूम होती है जो टीकाकार नेसाबूरी और इब्ने-कसीर ने बयान की है कि यहाँ गवाह से तात्पर्य कोई विशेष व्यक्ति नहीं, बल्कि बनी इस्राईल का एक आम व्यक्ति है। अल्लाह के कचन का अर्थ यह है कि क़ुरआन मजीद जो शिक्षा तुम्हारे सामने प्रस्तुत कर रहा है, यह कोई अनोखी चीज़ भी नहीं है जो दुनिया में पहली बार तुम्हारे ही सामने प्रस्तुत की गई हो और तुम यह बहाना कर सको कि हम यह निराली बात कैसे मान लें,जो मानव-जाति के सामने कभी आई हीन थी। इससे पहले यही शिक्षाएँ इसी तरह वह्य के ज़रिये से बनी इस्राईल के सामने तौरात और दूसरी आसमानी किताबों के रूप में आ चुकी हैं और उनका एक आम व्यक्ति उनको मान चुका है, और यह भी मान चुका है कि अल्लाह को वह्य इन शिक्षाओं के उतरने का साधन है। इसलिए तुम लोग यह दावा नहीं कर सकते कि वह्य और ये शिक्षाएं समझ में न आनेवाली चीजें हैं। सही बात केवल यह है कि तुम्हारा अहंकार और निराधार घमंड ईमान लाने में बाधक है।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَوۡ كَانَ خَيۡرٗا مَّا سَبَقُونَآ إِلَيۡهِۚ وَإِذۡ لَمۡ يَهۡتَدُواْ بِهِۦ فَسَيَقُولُونَ هَٰذَآ إِفۡكٞ قَدِيمٞ 10
(11) जिन लोगों ने मानने से इंकार कर दिया है, वे ईमान लानेवालों के बारे में कहते हैं कि अगर इस किताब को मान लेना कोई अच्छा काम होता तो ये लोग इस मामले में हमसे आगे नहीं बढ़ सकते थे।15 चूंकि इन्होंने उससे हिदायत न पाई इसलिए अब ये अवश्य कहेंगे कि यह तो पुराना झूठ है।16
15. इनका मतलब यह था कि अगर यह क़ुरआन सत्य होता और मुहम्मद (सल्ल०) एक सही बात की और दावत दे रहे होते तो क़ौम के सरदार, मुखिया और प्रतिष्ठित जन आगे बढ़कर इसको स्वीकार करते। आख़िर यह कैसे हो सकता है कि कुछ अनुभवहीन लड़के और कुछ निचले दर्जे के दास तो एक उचित बात को मान लें और क़ौम के बड़े-बड़े लोग, जो होशियार, चतुर और अनुभवी हैं और जिनकी बुद्धि व कार्य-प्रणाली पर आज तक क़ौम भरोसा करती रही है, उसको रद्द कर दें।
16. अर्थात् इन लोगों ने अपने आपको सत्य व असत्य की कसौटी बना रखा है। ये समझते हैं कि जिस हिदायत को ये क़बूल न करें, वह ज़रूर गुमराही (पथभ्रष्टता) ही होनी चाहिए, लेकिन ये इसे 'नया झूठ' कहने का साहस नहीं रखते, क्योंकि इससे पहले भी नबी (अलैहि०) यही शिक्षाएँ प्रस्तुत करते रहे हैं। इसलिए इसे ये 'पुराना झूठ' कहते हैं, मानो इनके नज़दीक वे सब लोग भी सूझ-बूझ से वंचित थे जो हज़ारों वर्ष से इन तथ्यों को प्रस्तुत करते और मानते चले आ रहे हैं, और तमाम समझ-बूझ सिर्फ़ इनके हिस्से में आ गई है।
وَوَصَّيۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ بِوَٰلِدَيۡهِ إِحۡسَٰنًاۖ حَمَلَتۡهُ أُمُّهُۥ كُرۡهٗا وَوَضَعَتۡهُ كُرۡهٗاۖ وَحَمۡلُهُۥ وَفِصَٰلُهُۥ ثَلَٰثُونَ شَهۡرًاۚ حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغَ أَشُدَّهُۥ وَبَلَغَ أَرۡبَعِينَ سَنَةٗ قَالَ رَبِّ أَوۡزِعۡنِيٓ أَنۡ أَشۡكُرَ نِعۡمَتَكَ ٱلَّتِيٓ أَنۡعَمۡتَ عَلَيَّ وَعَلَىٰ وَٰلِدَيَّ وَأَنۡ أَعۡمَلَ صَٰلِحٗا تَرۡضَىٰهُ وَأَصۡلِحۡ لِي فِي ذُرِّيَّتِيٓۖ إِنِّي تُبۡتُ إِلَيۡكَ وَإِنِّي مِنَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ 14
(15) हमने इंसान को हिदायत की कि वह अपने माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करे। उसकी माँ ने मशक्कत उठाकर उसे पेट में रखा और मशक्कत उठाकर ही उसको जना, और उसके गर्भ और दूध छुड़ाने में तीस महीने लग गए।19 यहाँ तक कि जब वह अपनी पूरी ताक़त को पहुँचा और चालीस साल का हो गया तो उसने कहा, "ऐ मेरे रब! मुझे तौफ़ीक़ (सौभाग्य) दे कि मैं तेरी उन नेमतों का शुक्र अदा करूँ जो तूने मुझे और मेरे माँ-बाप को दी, और ऐसा अच्छा कर्म करूँ जिससे तू राज़ी हो20 और मेरी सन्तान को भी नेक बनाकर मुझे सुख दे, मैं तेरे समक्ष तौबा करता हूँ और आज्ञाकारी (मुस्लिम) बन्दों में से हूँ।"
19. यह आयत इस बात की ओर संकेत करती है कि यद्यपि सन्तान को माँ और बाप दोनों ही की सेवा करनी चाहिए, लेकिन माँ का हक़ अपने महत्त्व में इस कारण अधिक है कि वह सन्तान के लिए अधिक कष्ट उठाती है। यही बात उस हदीस से मालूम होती है जो थोड़ी-से शाब्दिक अन्तर के साथ बुख़ारी, मुस्लिम, अबू दाऊद, तिर्मिज़ी, इब्ने-माजा, मुस्नद अहमद और इमाम बुख़ारी की अ-द-बुल मुफ़रद में आई है कि एक साहब ने नबी (सल्ल०) से पूछा कि किसकी सेवा का अधिकार मुझ पर अधिक है? फ़रमाया, तेरी माँ का। उन्होंने पूछा, इसके बाद कौन? फ़रमाया, तेरी माँ। उन्होंने पूछा, इसके बाद कौन? फ़रमाया तेरी माँ। उन्होंने पूछा, इसके बाद कौन? फ़रमाया, तेरा बाप। नबी (सल्ल०) का यह कथन ठीक ठीक इस आयत का भाव प्रकट करता है, क्योंकि इसमें भी माँ के तिहरे अधिकार की ओर संकेत किया गया है-
(1) उसकी माँ ने मशक्कत उठाकर उसे पेट में रखा,
(2) मशक्कत उठाकर ही उसको जना,
(3) और उसके गर्भ और दूध छुड़ाने में 30 महीने लग गए।
यह आयत और सूरा-31 लुकमान की आयत 14 और सूरा-2 बक़रा की आयत 233, इन तीनों आयतों को मिलाकर पढ़ने से नीचे लिखे क़ानूनी आदेश सामने आते हैं :
(1) जो औरत निकाह (शादी) के बाद छ: महीने से कम अवधि में सही व सालिम (भला चंगा) बच्चा जने (अर्थात् वह गर्भपात न हो, बल्कि शिशु प्रसव हो), वह व्यभिचारिणी क़रार पाएगी और उसके बच्चे का वंश उसके पति से सिद्ध न होगा।
(2) जो औरत निकाह के छ: महीने बाद या इससे ज़्यादा मुद्दत में ज़िंदा सलामत बच्चा जने, उसपर व्यभिचार का आरोप सिर्फ़ इस पैदाइश की बुनियाद पर नहीं लगाया जा सकता। बच्चा अनिवार्य रूप से उसके पति ही का माना जाएगा।
(3) दूध पिलाने की अधिक से अधिक मुद्दत दो साल है। इस उम्र के बाद अगर किसी बच्चे ने किसी औरत का दूध पिया हो तो वह उसकी दूध शरीक माँ क़रार नहीं पाएगी और न ही दूध पिलाने के आदेश उसपर लागू होंगे जो सूरा-4 निसा आयत 23 में बयान हुए हैं। इस मामले में इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) ने सावधानी बरतते हुए दो साल के बजाय ढाई साल की अवधि प्रस्तावित की है, ताकि दूध पीने की हुरमत जैसे नाज़ुक मस्अले में ख़ता कर जाने की संभावना बाक़ी न रहे। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-लुक़मान, टिप्पणी 23) । इस जगह यह जान लेना फ़ायदे से खाली न होगा कि नवीनतम चिकित्सीय खोजों के अनुसार माँ के पेट में एक बच्चे को कम से कम 28 हफ्तों की ज़रूरत होती है, जिनमें वह पल-बढ़कर जिंदा पैदा होने के योग्य हो सकता है। यह अवधि साढ़े छ: महीने से कुछ अधिक बनती है। इस्लामी क़ानून में आधे महीने के क़रीब और रियायत दी गई है, क्योंकि एक औरत का व्यभिचारिणी क़रार पाना और एक बच्चे का वंश से वंचित हो जाना बड़ा सख़्त मामला है। और इसकी नज़ाकत यह तक़ाज़ा करती है कि माँ और बच्चे, दोनों को उसके क़ानूनी नतीजों से बचाने के लिए अधिक से अधिक गुंजाइश दी जाए। इसके अलावा किसी डॉक्टर, किसी क़ाज़ी, यहाँ तक कि स्वयं गर्भवती औरत और उसे गर्भवती करनेवाले मर्द को भी ठीक-ठीक यह मालूम नहीं हो सकता कि गर्भ किस समय ठहरा है। यह बात भी इसका तक़ाज़ा करती है कि गर्भ की कम से कम क़ानूनी मुद्दत निश्चित करने में कुछ दिनों की और अधिक गुंजाइश रखी जाए।
20. अर्थात् मुझे ऐसे अच्छे कर्म का सौभाग्य प्रदान कर जो अपने वाह्य रूप से भी ठीक-ठीक तेरे क़ानून के अनुरूप हो और वास्तव में भी तेरे यहाँ स्वीकार्य होने के योग्य हो। एक कर्म अगर दुनियावालों के नज़दीक बड़ा अच्छा हो, मगर अल्लाह के कानून की पैरवी उसमें न की गई हो, तो दुनिया के लोग चाहे उसकी कितनी ही प्रशंसा करें, अल्लाह के यहाँ वह किसी प्रशंसा का अधिकारी नहीं हो सकता। दूसरी ओर एक कर्म ठीक-ठीक शरीअत के अनुसार होता है और प्रत्यक्ष में उसकी शक्ल में कोई कमी नहीं होती, मगर नीयत की खराबी, दिखावा, ख़ुदपसन्दी, घमंड, अहंकार और दुनियातलबी उसको भीतर से खोखला कर देती है तो वह भी इस योग्य नहीं रहता कि अल्लाह के यहाँ स्वीकार्य हो।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ نَتَقَبَّلُ عَنۡهُمۡ أَحۡسَنَ مَا عَمِلُواْ وَنَتَجَاوَزُ عَن سَيِّـَٔاتِهِمۡ فِيٓ أَصۡحَٰبِ ٱلۡجَنَّةِۖ وَعۡدَ ٱلصِّدۡقِ ٱلَّذِي كَانُواْ يُوعَدُونَ 15
(16) इस तरह के लोगों से हम उनके अच्छे कामों को स्वीकार करते हैं और उनकी बुराइयों को टाल जाते हैं।21 ये जन्नती लोगों में शामिल होंगे उस सच्चे वादे के अनुसार जो इनसे किया जाता रहा है
21. अर्थात् दुनिया में उन्होंने जो बेहतर से बेहतर कर्म किया है, आख़िरत में उनका दर्जा उसी की दृष्टि से तय किया जाएगा और उनकी गलतियों, ख़ताओं और कमजोरियों की पकड़ नहीं की जाएगी। यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे एक नर्म दिल और क़द्र शनास (गुणग्राहक) स्वामी अपने ख़िदमतगुज़ार और वफ़ादार सेवक की क़द्र उसकी छोटी-छोटी सेवाओं के लिहाज से नहीं, बल्कि उसकी किसी ऐसी ख़िदमत के लिहाज से करता है जिसमें, उसने कोई बड़ा कारनामा अंजाम दिया हो, या जानिसारी और वफ़ादारी का कमाल कर दिखाया हो और ऐसे सेवक के साथ वह यह मामला नहीं किया करता कि उसकी छोटी-छोटी-सी कोताहियों को पकड़ करके उसको सारी सेवाओं पर पानी फेर दे।
وَيَوۡمَ يُعۡرَضُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ عَلَى ٱلنَّارِ أَذۡهَبۡتُمۡ طَيِّبَٰتِكُمۡ فِي حَيَاتِكُمُ ٱلدُّنۡيَا وَٱسۡتَمۡتَعۡتُم بِهَا فَٱلۡيَوۡمَ تُجۡزَوۡنَ عَذَابَ ٱلۡهُونِ بِمَا كُنتُمۡ تَسۡتَكۡبِرُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّ وَبِمَا كُنتُمۡ تَفۡسُقُونَ 19
(20) फिर जब ये इंकारी आग के सामने ला खड़े किए जाएँगे, तो उनसे कहा जाएगा, "तुम अपने हिस्से की नेमतें अपनी दुनिया की जिंदगी में समाप्त कर चुके और उनका आनन्द तुमने उठा लिया, अब जो घमंड तुम ज़मीन में किसी अधिकार के बिना करते रहे और जो नाफरमानियाँ तुमने की, उनके बदले में आज तुमको अपमान का अज़ाब दिया जाएगा।24
24. अपमान का अजाब उस घमंड के हिसाब से है जो उन्होंने किया। वे अपने आपको बड़ी चीज़ समझते थे। उनका विचार यह था कि रसुल पर ईमान लाकर गरीब और फ़कीर ईमानवालों के गिरोह में शामिल हो जाना उनकी शान से गिरी हुई बात है, इसलिए अल्लाह उनको आखिरत में अपमानित व रुसवा करेगा और उनके घमंड को मिट्टी में मिलाकर रख देगा।
۞وَٱذۡكُرۡ أَخَا عَادٍ إِذۡ أَنذَرَ قَوۡمَهُۥ بِٱلۡأَحۡقَافِ وَقَدۡ خَلَتِ ٱلنُّذُرُ مِنۢ بَيۡنِ يَدَيۡهِ وَمِنۡ خَلۡفِهِۦٓ أَلَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّا ٱللَّهَ إِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ 20
(21) तनिक इन्हें आद के भाई (हूद) का क़िस्सा सुनाओ, जबकि उसने अहकाफ़ में अपनी क़ौम को सचेत किया था25 - और ऐसे सचेत करनेवाले इससे पहले भी गुज़़र चुके थे और इसके बाद भी आते रहे-कि“अल्लाह के सिवा किसी को जन्दगी न को, मुझे तुम्हारे प्रति एक बड़े भयंकर दिन के अजाब की आशंका है।"
25. चूँकि क़ुरैश के सरदार अपनी बड़ाई का घमंड करते थे और अपनी दौलत और सरदारी पर फूले न समाते थे, इसलिए यहाँ उनको आद कौम का किस्सा सुनाया जा रहा है, जिसके बारे में अरब में प्रसिद्ध था कि पुराने समय में यह इस भूभाग की सबसे ज़्यादा शक्तिशाली क़ौम थी।
'अहक़ाफ़' बहुवचन है हिक़्फ़ का। इसका शाब्दिक अर्थ है रेत के लम्बे-लम्बे दीले, जो ऊँचाई में पहाड़ो की सीमा को न पहुँचे हों। लेकिन पारिभाषिक रूप में यह आरब रेणिस्तान के दक्षिणी-पश्चिमी भाग का नाम है जहाँ आज कोई आबादी नहीं है।
इब्ने-इस्हाक़ का बयान है कि आद का इलाक़ा उमान से यमन तक फैला हुआ था, और क़ुरआन मजीद हमें बताता है कि उनका असल वतन अहक़ाफ़ था, जहाँ से निकल कर वे आसपास के देशों में फैले और कमज़ोर क़ौमों पर छा गए। आज के समय तक भी दक्षिणी अरब के बाशिंदों में यही बात प्रसिद्ध है कि आद इसी इलाक़े में आबाद थे। वर्तमान शहर मुकल्ला में लगभग 125 मील के फ़ासले पर उत्तर को ओर हज़रमौत में एक जगह है जहाँ लोगों ने हज़रत हूद (अलैहि०) का मज़ार (क़ब्र) बना रखा है, और वह 'हूद की क़ब्र' ही के नाम से मशहूर है।
अहक़ाफ़ की वर्तमान स्थिति को देखकर कोई आदमी यह सोच भी नहीं सकता कि कभी यहाँ एक शानदार संस्कृति रखनेवाली शक्तिशाली क़ौम आबाद थी। अनुमान यही है कि हज़ारों वर्ष पहले यह एक हरा-भरा इलाक़ा होगा और बाद में जलवायु के परिवर्तन ने इसे रेगिस्तान बना दिया होगा। आज उसकी हालत यह है कि वह एक लंबा-चौड़ा रेगिस्तान है, जिसके अन्दरूनी हिस्सों में जाने का भी कोई साहस नहीं करता। सन् 1843 ई० में बवेरिया का एक फ़ौजी आदमी उसके दक्षिणी किनारे पर पहुँच गया था। वह कहता है कि हज़रमौत के उत्तरी पठार पर खड़े होकर देखा जाए तो यह रेगिस्तान एक हज़ार फुट गहराई में नज़र आता है। इसमें जगह-जगह ऐसे सफ़ेद भू-भाग हैं जिनमें कोई चीज़ गिर जाए तो वह रेत में डूबती चली जाती है और बिलकुल सड़-गल जाती है। अरब के बढ़े इस क्षेत्र से बहुत डरते हैं और किसी क़ीमत पर वहाँ जाने के लिए तैयार नहीं होते। एक मौके पर जब बटू उस फ़ौजी आदमी को वहाँ ले जाने पर राज़ी न हुए तो वह अकेला वहाँ गया। उसका बयान है कि यहाँ की रेत बिलकुल बारीक पाउडर की तरह है। मैंने दूर से एक शाक़ौल उसमें फेंका तो वह पाँच मिनट के भीतर उसमें डूब गया और उस रस्सी का सिरा गल गया जिसके साथ वह बंधा हुआ था।
قَالَ إِنَّمَا ٱلۡعِلۡمُ عِندَ ٱللَّهِ وَأُبَلِّغُكُم مَّآ أُرۡسِلۡتُ بِهِۦ وَلَٰكِنِّيٓ أَرَىٰكُمۡ قَوۡمٗا تَجۡهَلُونَ 22
(23) उसने कहा, “इसका ज्ञान तो अल्लाह को है,26 मैं सिर्फ़ वह सन्देश तुम्हें पहुँचा रहा हूँ जिसे देकर मुझे भेजा गया है, मगर मैं देख रहा हूँ कि तुम लोग अज्ञानता बरत रहे हो।"27
26. अर्थात् यह बात अल्लाह ही जानता है कि तुमपर अज़ाब कब आएगा। इसका फ़ैसला करना मेरा काम नहीं है कि तुमपर कब अज़ाब भेजा जाए और कब तक तुम्हें मोहलत दी जाए।
27. अर्थात् तुम अपनी नासमझी से मेरी इस चेतावनी को मज़ाक़ समझ रहे हो और खेल के तौर पर अज़ाब की माँग किए जाते हो। तुम्हें अन्दाज़ा नहीं है कि ख़ुदा का अज़ाब क्या चीज़ होता है और तुम्हारी हरकतों की वजह से वह कितना ज़्यादा तुम्हारे क़रीब आ चुका है।
فَلَمَّا رَأَوۡهُ عَارِضٗا مُّسۡتَقۡبِلَ أَوۡدِيَتِهِمۡ قَالُواْ هَٰذَا عَارِضٞ مُّمۡطِرُنَاۚ بَلۡ هُوَ مَا ٱسۡتَعۡجَلۡتُم بِهِۦۖ رِيحٞ فِيهَا عَذَابٌ أَلِيمٞ 23
(24-25) फिर जब उन्होंने उस अज़ाब को अपनी घाटियों की ओर आते देखा, तो कहने लगे, "यह बादल है जो हमको सींच देगा''- "नहीं,28 बल्कि यह वही चीज़ है जिसके लिए तुम जल्दी मचा रहे थे। यह हवा का तूफ़ान है जिसमें दर्दनाक अज़ाब चला आ रहा है, अपने रब के आदेश से हर चीज़ को नष्ट कर डालेगा।" अन्ततः उनका हाल यह हुआ कि उनके रहने की जगहों के सिवा वहाँ कुछ नजर न आता था। इस तरह हम अपराधियों को बदला दिया करते हैं।29
28. यहाँ पर इस बात का कोई ख़ुलासा नहीं है कि उनको यह जवाब किसने दिया। वार्ता-शैली से अपने आप यह बात मालूम होती है कि यह वह जवाब था जो वस्तुस्थिति ने व्यावहारतः उनको दिया। वे समझते थे कि यह बादल है जो उनकी घाटियों को सींचने आया है और वास्तव में था वह हवा का तूफ़ान जो उन्हें नष्ट-विनष्ट करने के लिए बढ़ा चला आ रहा था।
29. आद क़ौम के क़िस्से के विवरण के लिए देखिए (सूरा-7 अल-आराफ़, टिप्पणी 51 से 56; सूरा-11 हूद, टिप्पणी 54 से 65 सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 34 से 37; सूरा-26 अश-शुअरा, टिप्पणी 88 से 94; सूरा-29 अल-अकबूत, टिप्पणी 65 से 66;] सूरा-41 हा-मीम अस-सज्दा, टिप्पणी 20, 21
وَلَقَدۡ مَكَّنَّٰهُمۡ فِيمَآ إِن مَّكَّنَّٰكُمۡ فِيهِ وَجَعَلۡنَا لَهُمۡ سَمۡعٗا وَأَبۡصَٰرٗا وَأَفۡـِٔدَةٗ فَمَآ أَغۡنَىٰ عَنۡهُمۡ سَمۡعُهُمۡ وَلَآ أَبۡصَٰرُهُمۡ وَلَآ أَفۡـِٔدَتُهُم مِّن شَيۡءٍ إِذۡ كَانُواْ يَجۡحَدُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ 25
(26) उनको हमने वह कुछ दिया था, जो तुम लोगों को नहीं दिया है।30 उनको हमने कान, आँखें और दिल, सब कुछ दे रखे थे, मगर न वे कान उनके किसी काम आए, न आँखें, न दिल, क्योंकि वे अल्लाह की आयतों का इंकार करते थे,31 और उसी चीज़ के घेरे में वे आ गए जिसका वे मज़ाक़ उड़ाते थे।
30. अर्थात् धन, दौलत, शक्ति, सत्ता किसी चीज़ में भी तुम्हारा और उनका कोई मुकाबला नहीं है। तुम्हारा सत्ता क्षेत्र तो मक्का शहर की सीमाओं से बाहर कहीं भी नहीं, और वे ज़मीन के एक बड़े हिस्से पर छाए हुए थे।
31. इस संक्षिप्त से वाक्य में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य बयान किया गया है। खुदा की आयते ही वे चीज़ हैं जो इंसान को वास्तविकता की सही समझ और परख प्रदान करती हैं। यह समझा और परख इंसान को प्राप्त हो, तो वह आँखों से ठीक देखता है, कानों से ठीक सुनता है और दिल व दिमाग से ठीक सोचता और सही फ़ैसले करता है, लेकिन जब वह अल्लाह की आयतों को मानने से इंकार कर देता है, तो आँखें रखते हुए भी उसे सत्य पहचाननेवाली निगाह नहीं प्राप्त होती, कान रखते हुए भी वह नसीहत की हर बात के लिए बहरा होता है और दिल व दिमाग़ की जो नेमतें ख़ुदा ने उसे दी हैं, उनसे उलटा सोचता और एक से एक ग़लत नतीजा निकालता चला जाता है, यहाँ तक कि उसकी ये सारी ताक़तें स्वयं उसकी अपने ही विनाश में लगने लगती हैं।
فَلَوۡلَا نَصَرَهُمُ ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ قُرۡبَانًا ءَالِهَةَۢۖ بَلۡ ضَلُّواْ عَنۡهُمۡۚ وَذَٰلِكَ إِفۡكُهُمۡ وَمَا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ 27
(28) फिर क्यों न उन हस्तियों ने उनकी मदद की, जिन्हें अल्लाह को छोड़कर उन्होंने अल्लाह से क़रीब होने का माध्यम समझते हुए उपास्य बना लिया था?32 बल्कि वे तो उनसे खोए गए, और यह था उनके झूठ और उन बनावटी धारणाओं का अंजाम जो उन्होंने गढ़ रखी थीं।
32. अर्थात् उन हस्तियों के साथ श्रद्धा का आरंभ तो इन्होंने इस विचार से किया था कि ये ख़ुदा के प्रिय बन्दे हैं, इनके वास्ते से खुदा के यहाँ हमारी पहुँच होगी। मगर बढ़ते-बढ़ते इन्होंने स्वयं इन्हीं हस्तियों को उपास्य बना लिया। इन्हीं को मदद के लिए पुकारने लगे, इन्हीं से दुआएँ माँगने लगे और इन्हीं के बारे में यह समझ लिया कि ये ख़ुद मुख्तार (स्वावलम्बी) लोग हैं। हमारी फ़रियाद यही सुनेंगे और मुश्किल यही दूर करेंगे। इस गुमराही से इनको निकालने के लिए अल्लाह ने अपनी आयतें अपने रसूलों के ज़रिये से भेजकर तरह-तरह से इनको समझाने की कोशिश की, मगर वे अपने इन झूठे ख़ुदाओं की बन्दगी पर अड़े रहे और आग्रह किए चले गए कि हम अल्लाह के बजाय इन्हीं का दामन थामे रहेंगे। अब बताओ, इन मुशरिक क़ौमों पर जब इनकी गुमराही के कारण अल्लाह का अज़ाब आया तो इनके वे फ़रियाद सुननेवाले और मुश्किल दूर करनेवाले उपास्य कहाँ मर रहे थे? क्यों न वे इस बुरे समय में इनकी मदद को आए?
وَإِذۡ صَرَفۡنَآ إِلَيۡكَ نَفَرٗا مِّنَ ٱلۡجِنِّ يَسۡتَمِعُونَ ٱلۡقُرۡءَانَ فَلَمَّا حَضَرُوهُ قَالُوٓاْ أَنصِتُواْۖ فَلَمَّا قُضِيَ وَلَّوۡاْ إِلَىٰ قَوۡمِهِم مُّنذِرِينَ 28
(29) (और वह घटना भी उल्लेखनीय है) जब हम जिन्नों के एक गिरोह को तुम्हारी और ले आए थे, ताकि क़ुरआन सुनें।33 जब वे उस जगह पहुँचे (जहाँ तुम क़ुरआन पढ़ रहे थे) तो उन्होंने आपस में कहा, चुप हो जाओ। फिर जब वह पढ़ा जा चुका तो वे सचेत करनेवाले बनकर अपनी क़ौम की और पलटे।
33. इस आयत की व्याख्या में जो रिवायतें हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रजि०) वग़ैरह से उल्लिखित है, वे सब इस बात पर सहमत हैं कि जिन्नों की पहली हाज़िरी की यह घटना, जिसका इस आयत में उल्लेख है, बतने-नखला में घटी थी और इब्ने-इस्हाक़, अबू नुऐम अस्फ़हानी आदि का बयान है कि यह उस समय की घटना है जब नबी (सल्ल०) ताइफ़ से निराश होकर मक्का मुअज्जमा की ओर वापस हुए रास्ते में आप (सल्ल०) नख़ला में ठहरे, वहाँ इशा या फ़ज्र या तहज्जुद की नमाज़ में आप (सल्ल०) क़ुरआन की तिलावत (पाठ) कर रहे थे कि जिन्नों के एक गिरोह का उधर से गुज़र हुआ और वह आप (सल्ल.) का क़ुरआन-पाठ सुनने के लिए ठहर गया। इसके साथ तमाम रिवायतें इस बात पर भी सहमत हैं कि इस मौक़े पर जिन्न नबी (सल्ल०) के सामने नहीं आए थे, न आप (सल्ल०) ने उनके आने को महसूस किया था, बल्कि बाद में अल्लाह ने वह्य के ज़रिये से आप (सल्ल०) को उनके आने और क़ुरआन सुनने की ख़बर दी।
قَالُواْ يَٰقَوۡمَنَآ إِنَّا سَمِعۡنَا كِتَٰبًا أُنزِلَ مِنۢ بَعۡدِ مُوسَىٰ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلۡحَقِّ وَإِلَىٰ طَرِيقٖ مُّسۡتَقِيمٖ 29
(30) उन्होंने जाकर कहा, "ऐ हमारी क़ौम के लोगो! हमने एक किताब सुनी है जो मूसा के बाद उतारी गई है, पुष्टि करनेवाली है अपने से पहले आई हुई किताबों की, मार्गदर्शन करती है सत्य और सीधे रास्ते की ओर। 34
34. इससे मालूम हुआ कि ये जिन्न पहले से हज़रत मूसा (अलैहि०) और आसमानी किताबों पर ईमान लाए हुए थे। क़ुरआन सुनने के बाद इन्होंने महसूस किया कि यह वही शिक्षा है जो पिछले नबी देते आए हैं, इसलिए वे इस किताब (क़ुरआन) और इसके लानेवाले रसूल (सल्ल०) पर भी ईमान ले आए।
يَٰقَوۡمَنَآ أَجِيبُواْ دَاعِيَ ٱللَّهِ وَءَامِنُواْ بِهِۦ يَغۡفِرۡ لَكُم مِّن ذُنُوبِكُمۡ وَيُجِرۡكُم مِّنۡ عَذَابٍ أَلِيمٖ 30
(31) ऐ हमारी कौम के लोगो! अल्लाह की ओर बुलानेवाले की दावत कबूल कर लो और उसपर ईमान ले आओ, अल्लाह तुम्हारे गुनाहों को माफ़ करेगा और तुम्हें दर्दनाक अज़ाब से बचा देगा।"35
35. विश्वसनीय रिवायतों से मालूम होता है कि इसके बाद जिन्नों के एक के बाद एक गिरोग नबी (सल्ल०) के पास उपस्थित होने लगे और आप (सल्ल०) से उनकी आमने-सामने मुलाक़ातें होती रही। इस बारे में जो रिवायतें हदीस की किताबों में उल्लिखित हुई हैं, उनको जमा करने से मालूम होता है कि हिजरत से पहले मक्का मुअज़्ज़मा में कम से कम छ: गिरोह आए थे।
इनमें से एक गिरोह के बारे में हज़रत अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद (रजि०) फ़रमाते हैं कि एक दिन अल्लाह के रसूल (सल्ल०) मक्का में रात भर ग़ायब रहे। हम लोग बड़े परेशान थे कि कहीं आप (सल्ल०) पर कोई हमलान कर दिया गया हो। सुबह सवेरे हमने आप (सल्ल०) को हिरा की ओर से आते हुए देखा। पूछने पर आप (सल्ल०) ने बताया कि एक जिन्न मुझे बुलाने आया था। मैंने उसके साथ आकर वहाँ जिन्नों के एक गिरोह को क़ुरआन सुनाया। (मुस्लिम, मुस्नद अहमद, तिर्मिज़ी, अबू दाऊद)
हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रजि०) ही की एक और रिवायत है कि एक बार मक्का में नबी (सल्ल०) ने सहाबा से फ़रमाया कि आज रात तुममें से कौन मेरे साथ जिन्नों की मुलाक़ात के लिए चलता है? मैं आप (सल्ल०) के साथ चलने को तैयार हो गया। मक्का के ऊपरी हिस्से में एक जगह नबी (सल्ल०) ने लकीर खींच कर मुझसे फ़रमाया कि इससे आगे न बढ़ना। फिर आप (सल्ल०) आगे चले गए और खड़े होकर क़ुरआन पढ़ना शुरू किया। मैंने देखा कि बहुत से लोग हैं जिन्होंने आप (सल्ल०) का थर रखा है और वे मेरे और आप (सल्ल०) के दर्मियान रोक बने हुए हैं। (इने जरीर; बैहक़ी, दलाइल़न्नुबूव:; अबू नुऐम अस्फ़हानी, दलाइलुन्नुबुवः)
एक और मौक़े पर भी रात के वक्त हज़रत अब्दुल्लाह बिन मस्जद (रजि०) नबी (सल्ल०) के साथ थे और मक्का मुअज़्ज़मा में हजूम नामक जगह पर जिन्नों के एक मुक़द्दमे का आप (सल्ल०) ने फ़ैसला फ़रमाया। इसके कई सालों के बाद इल्ने मसऊद (रजि०) ने कूफ़ा में जाटों (खेती-बाड़ी करने वाले लोगों) के एक गिरोह को देखकर कहा कि हजूम की जगह पर जिन्नों के जिस गिरोह को मैंने देखा था, वह इन लोगों से बहुत मिलता-जुलता था। (इब्ने जरीर)
فَٱصۡبِرۡ كَمَا صَبَرَ أُوْلُواْ ٱلۡعَزۡمِ مِنَ ٱلرُّسُلِ وَلَا تَسۡتَعۡجِل لَّهُمۡۚ كَأَنَّهُمۡ يَوۡمَ يَرَوۡنَ مَا يُوعَدُونَ لَمۡ يَلۡبَثُوٓاْ إِلَّا سَاعَةٗ مِّن نَّهَارِۭۚ بَلَٰغٞۚ فَهَلۡ يُهۡلَكُ إِلَّا ٱلۡقَوۡمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ 34
(35) अत: ऐ नबी ! सब्र करो जिस तरह संकल्पवान रसूलों ने सब्र किया है और इनके मामले में जल्दी न करो।37 जिस दिन ये लोग उस चीज़ को देख लेंगे, जिससे इन्हें डराया जा रहा है, तो इन्हें मालूम होगा कि जैसे दुनिया में दिन की एक घड़ी भर से ज़्यादा नहीं रहे थे। बात पहुँचा दी गई। अब क्या अवज्ञाकारी लोगों के सिवा और कोई तबाह होगा?
37.अर्थात् जिस तरह तुमसे पहले आए हुए अगले नबी अपनी क़ौम की विमुखता, विरोध, अवरोध और तरह-तरह की पीड़ा पहुँचाने का मुक़ाबला वर्षों लगातार धैर्य और अनथक प्रयास के साथ करते रहे, उसी तरह तुम भी करो और यह विचार दिल में न लाओ कि या तो ये लोग जल्दी से ईमान ले आएँ या फिर अल्लाह इनपर अज़ाब भेज दे।