47. मुहम्मद
(मदीना में उतरी, आयतें 38)
परिचय
नाम
आयत 2 के वाक्यांश ‘व आमिनू बिमा नुज़्ज़ि-ल अला मुहम्मदिन' (उस चीज़ को मान लिया जो मुहम्मद पर उतरी है) से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि यह वह सूरा है जिसमें मुहम्मद (सल्ल०) का शुभ नाम आया है। इसके अतिरिक्त इसका एक और मशहूर नाम क़िताल' (युद्ध) भी है जो आयत 20 के वाक्यांश ‘व जुकि-र फ़ीहल क़िताल' (जिसमें युद्ध का उल्लेख था) से लिया गया है।
इसकी विषय-वस्तुएँ इस बात की गवाही देती हैं कि यह हिजरत के बाद मदीना में उस समय उतरी थी, जब युद्ध का आदेश तो दिया जा चुका था, लेकिन व्यावहारिक रूप से अभी युद्ध शुरू नहीं हुआ था। इसका विस्तृत प्रमाण आगे टिप्पणी 8 में मिलेगा।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
जिस कालखंड में यह सूरा उतरी है, उस समय परिस्थिति यह थी कि मक्का मुअज़्ज़मा में विशेष रूप से और अरब भू-भाग में सामान्य रूप से हर जगह मुसलमानों को ज़ुल्म और अत्याचार का निशाना बनाया जा रहा था और उनका जीना दूभर कर दिया गया था। मुसलमान हर ओर से सिमटकर मदीना तय्यिबा के शान्ति-गृह में इकट्ठा हो गए थे, मगर क़ुरैश के इस्लाम-विरोधी यहाँ भी उनको चैन से बैठने देने के लिए तैयार न थे। मदीने की छोटी-सी बस्ती हर ओर से शत्रुओं के घेरे में थी और वे उसे मिटा देने पर तुले हुए थे। मुसलमानों के लिए ऐसी स्थिति में दो ही रास्ते शेष बचे थे। या तो वे सत्य-धर्म की ओर बुलावे और उसके प्रचार-प्रसार ही से नहीं, बल्कि उसके अनुपालन तक से हाथ खींचकर अज्ञानता के आगे हथियार डाल दें। या फिर मरने-मारने के लिए उठ खड़े हों और सिर-धड़ की बाज़ी लगाकर हमेशा के लिए इस बात का फ़ैसला कर दें कि अरब भू-भाग में इस्लाम को रहना है या अज्ञान को। अल्लाह ने इस अवसर पर मुसलमानों को उसी दृढ़ संकल्प और साहस का रास्ता दिखाया जो ईमानवालों के लिए एक ही राह है। उसने पहले सूरा-22 हज (आयत 39) में उनको युद्ध की अनुज्ञा दी, फिर सूरा-2 बक़रा (आयत 190) में इसका आदेश दे दिया। मगर उस समय हर व्यक्ति जानता था कि इन परिस्थितियों में युद्ध का अर्थ क्या है। मदीना में ईमानवालों का एक मुट्ठी भर जन-समूह था, जो पूरे एक हज़ार सैनिक भी जुटा पाने की क्षमता न रखता था, और उससे कहा जा रहा था कि सम्पूर्ण अरब के अज्ञान से टकरा जाने के लिए खड़ा हो जाए। फिर युद्ध के लिए जिन साधनों की जरूरत थी, एक ऐसी बस्ती अपना पेट काटकर भी मुश्किल से वह जुटा सकती थी, जिसके अंदर सैकड़ों बे-घर-बार के मुहाजिर (हिजरत करनेवाले) अभी पूरी तरह से बसे भी न थे और चारों ओर से अरबवालों ने आर्थिक बहिष्कार करके उसकी कमर तोड़ रखी थी।
विषय और वार्ता
इसका विषय ईमानवालों को युद्ध के लिए तैयार करना और उनको इस सम्बन्ध में आरंभिक आदेश देना है। इसी पहलू से इसका नाम सूरा क़िताल (युद्ध) भी रखा गया है। इसमें क्रमश: नीचे की ये वार्ताएँ प्रस्तुत की गई हैं :
आरंभ में बताया गया है कि इस समय दो गिरोहों के बीच मुक़ाबला आ पड़ा है। एक गिरोह [सत्य के इंकारियों और अल्लाह के दुश्मनों का है। दूसरा गिरोह सत्य के माननेवालों का है।] अब अल्लाह का दो-टूक फ़ैसला यह है कि पहले गिरोह की तमाम कोशिशों और क्रिया-कलापों को उसने अकारथ कर दिया और दूसरे गिरोह की परिस्थितियाँ ठीक कर दीं। इसके बाद मुसलमानों को युद्ध सम्बन्धी प्रारम्भिक आदेश दिए गए हैं। उनको अल्लाह की सहायता और मार्गदर्शन का विश्वास दिलाया गया है। उनको अल्लाह की राह में क़ुर्बानियाँ करने पर बेहतरीन बदला पाने की आशा दिलाई गई है। फिर इस्लाम के शत्रुओं के बारे में बताया गया है कि वे अल्लाह के समर्थन और मार्गदर्शन से वंचित हैं। उनकी कोई चाल ईमानवालों के मुक़ाबले में सफल न होगी और वे इस दुनिया में भी और आख़िरत (परलोक) में भी बहुत बुरा अंजाम देखेंगे। इसके बाद वार्ता का रुख़ मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की ओर फिर जाता है जो लड़ाई का हुक्म आने से पहले तो बड़े मुसलमान बने फिरते थे, मगर यह हुक्म आ जाने के बाद अपनी कुशल-क्षेम की चिन्ता में इस्लाम विरोधियों से सांँठ-गाँठ करने लगे थे। उनको साफ़-साफ़ सचेत किया गया है कि अल्लाह और उसके दीन के मामले में निफ़ाक़ (कपट) अपनानेवालों का कोई कर्म भी अल्लाह के यहाँ स्वीकार्य नहीं है। फिर मुसलमानों को उभारा गया है कि वे अपनी अल्प संख्या और साधनहीनता और इस्लाम-विरोधियों की अधिक संख्या और उनके साज-सामान की अधिकता देखकर साहस न छोड़ें, उनके आगे समझौते की पेशकश करके कमज़ोरी प्रकट न करें जिससे उनके दुस्साहस इस्लाम और मुसलमानों के मुक़ाबले में और अधिक बढ़ जाएँ। बल्कि अल्लाह के भरोसे पर उठें और कुफ़्र (अधर्म) के उस पहाड़ से टकरा जाएँ। अल्लाह मुसलमानों के साथ है। अन्त में मुसलमानों को अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करने की दावत (आमंत्रण) दी गई है। यद्यपि उस समय मुसलमानों की आर्थिक दशा बहुत दयनीय थी किन्तु सामने समस्या यह खड़ी थी कि अरब में इस्लाम और मुसलमानों को ज़िन्दा रहना है या नहीं। इसलिए मुसलमानों से कहा गया कि इस समय जो व्यक्ति भी कंजूसी से काम लेगा, वह वास्तव में अल्लाह का कुछ न बिगाड़ेगा, बल्कि स्वयं अपने आप ही को तबाही के ख़तरे में डाल लेगा।
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