(13) लोगो, हमने तुमको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया और फिर तुम्हारी क़ौमें और बिरादरियाँ बना दी, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। वास्तव में अल्लाह की दृष्टि में तुममें सबसे अधिक इज्जतवाला वह है जो तुममें सबसे ज्यादा परहेज़गार है।28 निश्चय ही अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और ख़बर रखनेवाला है।29
28. पिछली आयतों में ईमानवालों को सम्बोधित करके वे आदेश दिए गए थे जो मुस्लिम समाज को ख़राबियों से बचाए रखने के लिए ज़रूरी हैं। अब इस आयत में पूरी मानव-जाति को सम्बोधित करके उस बड़ी गुमराही का सुधार किया गया है जो दुनिया में सदैव विश्वव्यापी बिगाड़ का कारण बनी रही है। अर्थात् नस्ल, रंग, भाषा, देश और जातीयता (क़ौमियत) का तास्सुब (पक्षपात)। इस छोटी-सी आयत में अल्लाह ने तमाम इंसानों को सम्बोधित करके तीन अति महत्त्वपूर्ण मौलिक तथ्यों का उल्लेख किया है-
एक, यह कि तुम सबका मूल एक ही है, एक ही मर्द और एक ही औरत से तुम्हारी पूरी जाति अस्तित्व में आई है। और आज तुम्हारी जितनी नस्लें भी दुनिया में पाई जाती हैं, वे वास्तव में एक आरंभिक नस्ल की शाखाएँ हैं, जो एक माँ और एक बाप से शुरू हुई थी। जन्म के इस क्रम में किसी जगह भी उस भेद-भाव और ऊँच-नीच के लिए कोई आधार मौजूद नहीं है जिसके मिथ्या दंभ में तुम पड़े हुए हो।
दूसरे, यह कि अपने मूल की दृष्टि से एक होने के बावजूद तुम्हारा क़ौमों और क़बीलों में बँट जाना एक स्वाभाविक बात थी। मगर इस स्वाभाविक अन्तर और विभेद का तकाज़ा यह हरगिज़ न था कि इसके आधार पर ऊँच-नीच, सज्जन-दुर्जन, श्रेष्ठ-नीच के भेद-भाव कायम किए जाएँ, एक नस्ल दूसरी नस्ल पर अपनी श्रेष्ठता जताए, एक रंग के लोग दूसरे रंग के लोगों को तुच्छ और हीन जानें, एक क़ौम दूसरी क़ौम पर अपनी श्रेष्ठता जमाए और इंसानी हक़ों में एक गिरोह को दूसरे गिरोह पर प्राथमिकता प्राप्त हो। स्रष्टा (पैदा करनेवाले) ने जिस कारण इंसानी गिरोहों को क़ौमों और क़बीलों का रूप दिया था, वह सिर्फ़ यह था कि उनके बीच आपसी परिचय और सहयोग का स्वाभाविक रूप यही था। मगर यह सिर्फ़ शैतानी अज्ञानता थी कि जिस चीज़ को अल्लाह की बनाई हुई प्रकृति ने परिचय का ज़रिया बनाया था उसे गर्व और घृणा का ज़रिया बना लिया गया और फिर नौबत ज़ुल्म और ज्यादती तक पहुंचा दी गई।
तीसरे, यह कि इंसान और इंसान के बीच श्रेष्ठता और उच्चता का आधार अगर कोई है और हो सकती है तो वह सिर्फ नैतिक श्रेष्ठता है। जन्म की दृष्टि से तमाम इंसान बराबर हैं। असल चीज़ जिसकी बुनियाद पर एक आदमी को दूसरों पर श्रेष्ठता प्राप्त होती है, वह यह है कि वह दूसरों से बढ़कर ख़ुदा से डरनेवाला, बुराइयों से बचनेवाला और नेकी और पवित्रता की राह पर चलनेवाला हो।
यही तथ्य जो क़ुरआन की एक छोटी-सी आयत में बयान किए गए हैं, अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको अपने विभिन्न भाषणों और कथनों में ज्यादा खोलकर बयान फ़रमाया है। [उदाहरण के तौर पर] मक्का की विजय के मौके पर काबा के तवाफ़ के बाद आप (सल्ल०) ने जो उपदेश दिया था, उसमें फ़रमाया, "शुक्र है उस अल्लाह का जिसने तुमसे अज्ञानता का दोष और उसका घमंड दूर कर दिया। लोगो, तमाम इंसान बस दो ही भागों में बँटते हैं। एक, अच्छा (सत्कर्मी) और परहेज़गार, जो अल्लाह की दृष्टि में आदरवाला है। दूसरा, फ़ाजिर (बुरा) और शकी (दुष्ट), जो अल्लाह की दृष्टि में अपमानित है। वरना सारे इंसान आदम की सन्तान हैं और अल्लाह ने आदम को मिट्टी से पैदा किया था।" (तिर्मिज़ी) इस सिलसिले में एक भ्रम को दूर कर देना भी ज़रूरी है। शादी-ब्याह के मामले में इस्लामी क़ानून कुफ़ू (बराबरी) को जो महत्व देता है, उसका कुछ लोग यह अर्थ समझते हैं कि कुछ बिरादरियाँ सज्जन और कुछ नीच हैं और उनके बीच शादी आपत्तिजनक है। लेकिन वास्तव में यह एक ग़लत विचार है। इस्लामी क़ानून के अनुसार हर मुसलमान मर्द की हर मुसलमान औरत से शादी हो सकती है, मगर वैवाहिक जीवन की सफलता इस पर निर्भर करती है कि मियाँ-बीवी (पति-पत्नी) के बीच आदतों, स्वभावों, रहने-सहने के ढंग, पारिवारिक परम्पराओं और आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में ज्यादा से ज्यादा अनुकूलता हो, ताकि वे एक-दूसरे के साथ अच्छी तरह निवाह कर सकें। 'कु' का वास्तविक उद्देश्य यही है। जहाँ मर्द और औरत के बीच इस दृष्टि से बहुत ज्यादा दूरी हो, वहाँ इस बात की आशा कम ही हो सकती है कि जीवन भर वे एक साथ रह सकेंगे। इसलिए इस्लामी क़ानून ऐसे जोड़ लगाने को नापसन्द करता है, इसका कारण यह नहीं है कि दोनों पक्षों में से एक सज्जन और दूसरा नीच है, बल्कि इसका कारण यह है कि स्थितियों में अधिक स्पष्ट अन्तर और विभिन्नता हो तो शादी-ब्याह का ताल्लुक़ बनाने में वैवाहिक जीवन के असफल हो जाने की अधिक संभावना होती है।
29. अर्थात् यह बात अल्लाह ही जानता है कि कौन वास्तव में एक उच्च श्रेणी का मनुष्य है और कौन गुणों की दृष्टि से निचली श्रेणी का है। लोगों ने अपने आप ऊँच या नीच के जो पैमाने बना रखे हैं, वह अल्लाह के यहाँ चलनेवाले नहीं हैं।