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سُورَةُ الحُجُرَاتِ

49. अल-हुजुरात

(मदीना में उतरी, आयतें 18)

परिचय

नाम

आयत 4 के वाक्यांश "इन्नल्लज़ी-न युनादू-न-क मिंव-वरा-इल हुजुरात" (जो लोग तुम्हें कमरों अर्थात् हुजरों के बाहर से पुकारते हैं) से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि वह सूरा जिसमें शब्द हुजुरात आया है।

उतरने का समय

यह बात उल्लेखों से भी मालूम होती है और सूरा की विषय-वस्तु से भी इसकी पुष्टि होती है कि यह सूरा अलग-अलग मौक़ों पर उतरे आदेशों और निर्देशों का संग्रह है जिन्हें विषय की अनुकूलता के कारण जमा कर दिया गया है। इसके अलावा उल्लेखों से यह भी मालूम होता है कि इनमें से अधिकतर आदेश मदीना तय्यिबा के अन्तिम समय में उतरे हैं।

विषय और वार्ता

इस सूरा का विषय मुसलमानों को उन शिष्ट नियमों की शिक्षा देना है जो ईमानवालों के गौरव के अनुकूल है। आरंभ की पाँच आयतों में उनको वह नियम सिखाया गया है जिसका उन्हें अल्लाह और उसके रसूल के मामले में ध्यान रखना चाहिए। फिर यह आदेश दिया गया है कि अगर किसी आदमी या गिरोह या क़ौम के विरुद्ध कोई ख़बर मिले तो ध्यान से देखना चाहिए कि ख़बर मिलने का माध्यम भरोसे का है या नहीं। भरोसे का न हो तो उसपर कार्रवाई करने से पहले जाँच-पड़ताल कर लेनी चाहिए कि ख़बर सही है या नहीं। इसके बाद यह बताया गया है कि अगर किसी समय मुसलमानों के दो गिरोह आपस में लड़ पड़ें तो इस स्थिति में दूसरे मुसलमानों को क्या नीति अपनानी चाहिए।

फिर मुसलमानों को उन बुराइयों से बचने की ताकीद की गई है जो सामाजिक जीवन में बिगाड़ पैदा करती हैं और जिनकी वजह से आपस के सम्बन्ध ख़राब होते हैं। इसके बाद उन क़ौमी (जातीय) और नस्ली (वंशगत) भेद-भाव पर चोट की गई है जो दुनिया में व्यापक बिगाड़ का कारण बनते हैं। [इस सिलसिले में] सर्वोच्च अल्लाह ने यह कहकर इस बुराई की जड़ काट दी है कि तमाम इंसान एक ही मूल (अस्ल) से पैदा हुए हैं और क़ौमों और क़बीलो में उनका बँट जाना परिचय के लिए है, न कि आपस में गर्व के लिए। और एक इंसान पर दूसरे इंसान की श्रेष्ठता के लिए नैतिक श्रेष्ठता के सिवा और कोई वैध आधार नहीं है। अन्त में लोगों को बताया गया है कि मौलिक चीज़ ईमान का मौखिक दावा नहीं है, बल्कि सच्चे दिल से अल्लाह और उसके रसूल को मानना, व्यावहारिक रूप से आज्ञापालक बनकर रहना और निष्ठा के साथ अल्लाह की राह में अपनी जान और माल खपा देना है।

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سُورَةُ الحُجُرَاتِ
49. अल-हुजुरात
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُقَدِّمُواْ بَيۡنَ يَدَيِ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ
(1) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह और उसके रसूल से आगे न बढ़ो1 और अल्लाह से डरो, अल्लाह सब कुछ सुनने और जाननेवाला है।2
1. अर्थात् अल्लाह और उसके रसूल से आगे बढ़कर न चलो, पीछे चलो। आगे चलनेवाले न बनो, पैरवी करनेवाले बनकर रहो। यह कथन अपने आदेश में सूरा-49 अहज़ाब की आयत 36 से एक क़दम आगे है। वहाँ कहा गया था कि जिस मामले का फैसला अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) ने कर दिया हो, उसके बारे में किसी ईमानवाले को स्वयं कोई अलग फ़ैसला लेने का अधिकार बाक़ी नहीं रहता। और यहाँ कहा गया है कि ईमानवालों को अपने मामले में आगे बढ़ के अपने आप फ़ैसले नहीं कर लेने चाहिएँ, बल्कि पहले यह देखना चाहिए कि अल्लाह की किताब और उसके रसूल (सल्ल०) की सुन्नत में उनके बारे में क्या निर्देश मिलते हैं। यह आदेश मुसलमानों के केवल व्यक्तिगत मामलों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उनके तमाम सामूहिक मामलों पर भी यह लागू होता है। वास्तव में यह इस्लामी क़ानून की मूलधारा है जिसकी पाबन्दी से न मुसलमानों की हुकूमत मुक्त हो सकती है, न उनका न्यायालय और न संसद।
2. अर्थात् अगर कभी तुमने अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) के आदेश पर अपनी राय को आगे रखा, तो जान रखो कि तुम्हारा वास्ता उस अल्लाह से है जो तुम्हारी सब बातें सुन रहा है और तुम्हारी नीयतों तक को जानता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَرۡفَعُوٓاْ أَصۡوَٰتَكُمۡ فَوۡقَ صَوۡتِ ٱلنَّبِيِّ وَلَا تَجۡهَرُواْ لَهُۥ بِٱلۡقَوۡلِ كَجَهۡرِ بَعۡضِكُمۡ لِبَعۡضٍ أَن تَحۡبَطَ أَعۡمَٰلُكُمۡ وَأَنتُمۡ لَا تَشۡعُرُونَ ۝ 1
(2) ऐलोगो जो ईमान लाए हो, अपनी आवाज़ नबी की आवाज़ से ऊँची न करो, और न नबी के साथ ऊँची आवाज़ से बात करो, जिस तरह तुम आपस में एक-दूसरे से करते हो।3 कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा किया-कराया सब नष्ट हो जाए और तुम्हें ख़बर भी न हो।4
3. इस [कथन] का उद्देश्य यह था कि नबी (सल्ल०) के साथ मुलाक़ात और बातचीत में ईमानवाले आप (सल्ल०) का पूरा-पूरा आदर ध्यान में रखें। किसी आदमी की आवाज़ आप (सल्ल०) की आवाज़ से ऊँची न हो। आप (सल्ल०) को सम्बोधित करते हुए लोग यह भूल न जाएँ कि वे किसी आम आदमी या अपने बराबरवाले से नहीं, बल्कि अल्लाह के रसूल को सम्बोधित कर रहे हैं। इसलिए आम आदमियों के साथ बातचीत और आप (सल्ल०) के साथ बातचीत में स्पष्ट अन्तर होना चाहिए और किसी को आपसे ऊँची आवाज़ में बात न करनी चाहिए। यह शिष्टाचार यद्यपि नबी (सल्ल०) की मजलिस के लिए सिखाया गया था और यह बात उन लोगों से कही गई थी जो नबी (सल्ल०) के समय में मौजूद थे, मगर बाद के लोगों को भी ऐसे तमाम अवसरों पर इसी शिष्टाचार को ध्यान में रखना चाहिए जब आप (सल्ल०) का ज़िक्र हो रहा हो या आप (सल्ल०) का कोई आदेश सुनाया जाए या आप (सल्ल०) की हदीसें बयान की जाएँ।
4. इस कथन से मालूम होता है कि दीन में रसूल (सल्ल०) के व्यक्तित्व की महानता का क्या स्थान है। रसूल (सल्ल०) के आदर में तनिक-सी कमी भी इतना बड़ा पाप है कि इससे आदमी की उम्र भर की कमाई नष्ट हो सकती है। इसलिए कि आप (सल्ल०) का आदर वास्तव में उस ख़ुदा का आदर है जिसने आप (सल्ल०) को अपना रसूल बनाकर भेजा है, और आप (सल्ल०) के आदर में कमी करने का अर्थ है अल्लाह के आदर में कमी करना।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَغُضُّونَ أَصۡوَٰتَهُمۡ عِندَ رَسُولِ ٱللَّهِ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ ٱمۡتَحَنَ ٱللَّهُ قُلُوبَهُمۡ لِلتَّقۡوَىٰۚ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَأَجۡرٌ عَظِيمٌ ۝ 2
(3) जो लोग अल्लाह के रसूल के सामने बात करते हुए अपनी आवाज़ पस्त (दबी) रखते हैं, वे वास्तव में वही लोग हैं जिनके दिलों को अल्लाह ने परहेज़गारी (तक़वा) के लिए जाँच लिया है,5 उनके लिए माफ़ी है और बड़ा बदला।
5. अर्थात् जो लोग अल्लाह की आज़माइशों में पूरे उतरे हैं और इन आज़माइशों से गुज़र कर जिन्होंने सिद्ध कर दिया है कि उनके दिलों में वास्तव में तक़वा (परहेज़गारी) मौजूद है, वही लोग अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का मान-सम्मान ध्यान में रखते हैं। इस कथन से अपने आप यह बात निकलती है कि जो दिल रसूल (सल्ल०) के आदर से खाली है, वह वास्तव में तक़वा से ख़ाली है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُنَادُونَكَ مِن وَرَآءِ ٱلۡحُجُرَٰتِ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 3
(4) ऐ नबी ! जो लोग तुम्हें हुजरों (कमरों) के बाहर से पुकारते हैं, उनमें से अधिकतर बुद्धिहीन हैं।
وَلَوۡ أَنَّهُمۡ صَبَرُواْ حَتَّىٰ تَخۡرُجَ إِلَيۡهِمۡ لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 4
(5) अगर वे तुम्हारे बाहर निकलने तक सब्र करते तो उन्हीं के लिए अच्छा था।6 अल्लाह माफ़ करनेवाला और दया करनेवाला है।7
6. नबी (सल्ल०) के शुभकाल में जिन लोगों ने आप (सल्ल०) की संगति में रहकर इस्लामी शिष्टाचार और सभ्यता का प्रशिक्षण पाया था, वे तो आप (सल्ल०) के समयों को हमेशा ध्यान में रखते थे, लेकिन अरब के उस वातावरण में जहाँ आमतौर से लोगों को किसी शिष्टाचार की तरबियत न मिली थी, बार-बार ऐसे अनघड़ लोग भी आप (सल्ल०) से मुलाक़ात के लिए आ जाते थे जो [आते ही] आप (सल्ल०) की पाक बीवियों के हुजरों का चक्कर काटकर बाहर ही से आप (सल्ल०) को पुकारते फिरते थे। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को लोगों की इन हरकतों से बड़ा कष्ट होता था, मगर अपनी स्वाभाविक नम्रता और सहनशीलता के कारण इसे बर्दाश्त किए जा रहे थे। अन्ततः अल्लाह ने इस मामले में हस्तक्षेप किया और इस अशिष्ट तरीके की निन्दा करते हुए लोगों यह आदेश दिया कि जब वे आप (सल्ल०) से मिलने के लिए आएँ और आप (सल्ल०) को मौजूद न पाएँ तो पुकार-पुकारकर आप (सल्ल०) को बुलाने के बजाय सब्र के साथ बैठकर उस समय का इंतिज़ार करें, जब आप (सल्ल०) स्वयं उनसे मुलाक़ात के लिए बाहर तशरीफ़ ले आएँ।
7. अर्थात् अब तक जो कुछ हुआ, सो हुआ, आगे इस ग़लती को दोहराया न जाए तो अल्लाह पिछली ग़लतियों को माफ़ कर देगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن جَآءَكُمۡ فَاسِقُۢ بِنَبَإٖ فَتَبَيَّنُوٓاْ أَن تُصِيبُواْ قَوۡمَۢا بِجَهَٰلَةٖ فَتُصۡبِحُواْ عَلَىٰ مَا فَعَلۡتُمۡ نَٰدِمِينَ ۝ 5
(6) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अगर कोई फ़ासिक़ (अवज्ञाकारी) तुम्हारे पास कोई ख़बर लेकर आए तो जाँच कर लिया करो, कहीं ऐसा न हो कि तुम किसी गिरोह को अनजाने में नुकसान पहुँचा बैठो और फिर अपने किए पर पछताओ।8
8. अधिकतर टीकाकारों का बयान है कि यह आयत वलीद बिन उक़बा बिन अबी मुईत के बारे में उतरी है। इसका क़िस्सा यह है कि क़बीला बनी मुस्तलिक़ जब मुसलमान हो गया तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने वलीद बिन उक़बा को भेजा, ताकि उन लोगों से ज़कात वुसूल कर लाएँ। यह उनके इलाक़े में पहुंचे तो किसी वजह से डर गए और क़बीलेवालों से मिले बिना मदीना वापस जाकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से शिकायत कर दी कि उन्होंने ज़कात देने से इंकार कर दिया है, और वे मुझे क़त्ल करना चाहते थे। नबी (सल्ल०) यह ख़बर सुनकर बहुत नाराज़ हुए और आप (सल्ल०) ने इरादा किया कि उन लोगों को सज़ा देने के लिए एक दस्ता रवाना करें। बनी मुस्तलिक़ के सरदार हारिस बिन ज़रार (उम्मुल मोमिनीन हज़रत जुवैरिया के बाप) इस बीच स्वयं कुछ लोगों को साथ लेकर नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में पहुँच गए और उन्होंने अर्ज़ किया कि ख़ुदा की क़सम! हमने तो वलीद को देखा तक नहीं, कहाँ यह कि ज़कात देने से इंकार और उनके क़त्ल के इरादे का कोई प्रश्न पैदा हो। हम ईमान पर क़ायम हैं और ज़कात अदा करने से हमें कदापि इंकार नहीं है। इसपर यह आयत उतरी। इस नाजुक मौके पर जबकि एक निराधार सूचना पर भरोसा कर लेने की वजह से एक भारी ग़लती होते-होते रह गई, अल्लाह ने मुसलमानों को यह उसूली निर्देश दिया कि जब कोई महत्वपूर्ण ख़बर, जिसका कोई बड़ा नतीजा निकल सकता हो, तुम्हें मिले तो उसको स्वीकार करने से पहले यह देख लो कि ख़बर लानेवाला कैसा आदमी है। अगर वह कोई फ़ासिक (दुराचारी) आदमी हो, यानी जिसकी ज़ाहिरी हालत यह बता रही हो कि उसकी बात भरोसे के लायक नहीं है, तो उसकी दी हुई ख़बर पर अमल करने से पहले जाँच कर लो कि सही बात क्या है।
وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ فِيكُمۡ رَسُولَ ٱللَّهِۚ لَوۡ يُطِيعُكُمۡ فِي كَثِيرٖ مِّنَ ٱلۡأَمۡرِ لَعَنِتُّمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ حَبَّبَ إِلَيۡكُمُ ٱلۡإِيمَٰنَ وَزَيَّنَهُۥ فِي قُلُوبِكُمۡ وَكَرَّهَ إِلَيۡكُمُ ٱلۡكُفۡرَ وَٱلۡفُسُوقَ وَٱلۡعِصۡيَانَۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلرَّٰشِدُونَ ۝ 6
(7-8) ख़ूब जान रखो कि तुम्हारे बीच अल्लाह का रसूल मौजूद है। अगर वह बहुत से मामलों में तुम्हारी बात मान लिया करे तो तुम स्वयं ही कठिनाइयों में पड़ जाओ,9 मगर अल्लाह ने तुम्हें ईमान की मुहब्बत दी और उसको तुम्हारे लिए प्रिय बना दिया, और कुफ़्र (इंकार) व फ़िस्क (उल्लंघन) और नाफरमानी से तुमको विमुख कर दिया। ऐसे ही लोग अल्लाह के अनुग्रह और उपकार से संमार्ग पर हैं।10 और अल्लाह सर्वज्ञ और तत्त्वदर्शी है।11
9. बनी मुस्तलिक़ के मामले में वलीद बिन उक़बा की दी हुई सूचना पर नबी (सल्ल०) उनके विरुद्ध सैनिक कार्रवाई करने में संकोच कर रहे थे, मगर कुछ लोगों ने आग्रह किया कि उनपर तुरन्त चढ़ाई कर दी जाए। इसपर उन लोगों को सचेत किया गया कि तुम इस बात को भूल न जाओ कि तुम्हारे बीच अल्लाह के रसूल (सल्ल०) मौजूद हैं, जो तुम्हारे हितों को तुमसे अधिक जानते हैं। [अगर अहम मामलों में] तुम्हारे कहने पर चला जाने लगे तो बहुत-से मौकों पर ऐसी ग़लतियाँ होंगी जिनकी सज़ा तुम्हें ख़ुद भुगतनी पड़ेगी।
10. मतलब यह है कि ईमानवालों के पूरे गिरोह ने वह ग़लती नहीं की जो उन कुछ लोगों से हुई जो अपनी कमज़ोर राय पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को चलाना चाहते थे। और ईमानवालों की जमाअत के सीधे रास्ते पर कायम रहने की वजह यह है कि अल्लाह ने अपनी कृपा और अपने अनुग्रह से ईमान के रवैये को उनके लिए प्रिय और दिलपसन्द बना दिया है और कुफ़्र व फ़िस्त (इकार व उल्लंघन) और नाफ़रमानी के रवैये से उन्हें विमुख कर दिया है।
فَضۡلٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَنِعۡمَةٗۚ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 7
0
وَإِن طَآئِفَتَانِ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ٱقۡتَتَلُواْ فَأَصۡلِحُواْ بَيۡنَهُمَاۖ فَإِنۢ بَغَتۡ إِحۡدَىٰهُمَا عَلَى ٱلۡأُخۡرَىٰ فَقَٰتِلُواْ ٱلَّتِي تَبۡغِي حَتَّىٰ تَفِيٓءَ إِلَىٰٓ أَمۡرِ ٱللَّهِۚ فَإِن فَآءَتۡ فَأَصۡلِحُواْ بَيۡنَهُمَا بِٱلۡعَدۡلِ وَأَقۡسِطُوٓاْۖ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُقۡسِطِينَ ۝ 8
(9) और अगर ईमानवालों में से दो गिरोह आपस में लड़ जाएँ।12 तो उनके दर्मियान सुलह कराओ।13 फिर अगर उनमें से एक गिरोह दूसरे गिरोह पर ज़्यादती करे तो ज़्यादती करनेवालों से लड़ो,14 यहाँ तक कि वह अल्लाह के आदेश की ओर पलट आए।15 फिर अगर वह पलट आए तो उनके बीच न्याय के साथ सुलह करा दो।16 और न्याय करो कि अल्लाह न्याय करनेवालों को पसन्द करता है।17
12. यह नहीं कहा कि “जब ईमानवालों में से दो गिरोह आपस में लड़ें", बल्कि फ़रमाया यह है कि "अगर ईमानवालों में से दो गिरोह आपस में लड़ जाएँ", इन शब्दों से यह बात अपने आप निकलती है कि आपस में लड़ना मुसलमानों की नीति नहीं है और न होनी चाहिए, न उनसे इसकी आशा है कि वे ईमानवाले होते हुए आपस में लड़ा करेंगे। अलबत्ता अगर कभी ऐसा हो जाए तो इस स्थिति में वह तरीका अपनाना चाहिए जो आगे बयान किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त गिरोह के लिए भी फ़िक़ के बजाय 'ताइफ़ा' का शब्द प्रयुक्त किया गया है। अरबी भाषा में फ़िर्क़ा बड़े गिरोह के लिए और ताइफ़ा छोटे गिरोह के लिए बोला जाता है। इससे भी यह बात मालूम होती है कि अल्लाह की निगाह में यह एक अत्यन्त अप्रिय स्थिति है जिसमें मुसलमानों की बड़ी-बड़ी जमाअतों का ग्रस्त सम्भावित नहीं होनी चाहिए।
13. इस आदेश का सम्बोधन उन तमाम मुसलमानों से है जो इन दोनों गिरोहों में शामिल न हों, और जिनके लिए उनके बीच समझौते का प्रयत्न करना सम्भव हो।
17. यह आयत मुसलमानों की आपसी लड़ाई के बारे में शरीअत के क़ानून का मूलाधार है। एक हदीस के सिवा, जिसका हम आगे उल्लेख करेंगे, इस कानून की कोई व्याख्या अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सुन्नत में नहीं मिलती, क्योंकि नबी (सल्ल०) के ज़माने में मुसलमानों के बीच लड़ाई की कभी नौबत ही नहीं आई कि आप (सल्ल०) के कर्म और कथन से उसके सम्बन्ध में निर्देशों का विवरण मालूम होता। बाद में इस कानून की प्रामाणिक व्याख्या उस वक्त हुई जब हज़रत अली (रजि०) की खिलाफ़त के ज़माने (शासन काल) में स्वयं मुसलमानों के बीच लड़ाइयाँ हुई। उस वक़्त चूँकि बड़ी तादाद में सहाबा किराम (रजि०) मौजूद थे, इसलिए उनके कर्म और उनके बयान किए गए निर्देशों से इस्लामी क़ानून के इस विभाग का विस्तृत विधान बना। मुख्य रूप से हज़रत अली (रज़ि०) का तरीक़ा और अमल इस मामले में तमाम फ़ुक़हा का मूल स्रोत है।
إِنَّمَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ إِخۡوَةٞ فَأَصۡلِحُواْ بَيۡنَ أَخَوَيۡكُمۡۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 9
(10) ईमानवाले तो एक-दूसरे के भाई हैं, इसलिए अपने भाइयों के बीच सम्बन्ध को ठीक करो18 और अल्लाह से डरो, आशा है कि तुमपर दया की जाएगी।
18. यह आयत दुनिया के तमाम मुसलमानों की एक विश्वव्यापी बिरादरी कायम करती है और यह इसी की बरकत है कि किसी दूसरे दीन या मस्लक की पैरवी करनेवालों में वह भाईचारा नहीं पाया गया है जो मुसलमानों के बीच पाया जाता है। इस आदेश का महत्त्व और इसके तक़ाज़ों को अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपने बहुत-से कथनों में बयान किया है, जिनसे उसकी पूरी आत्मा (भावना) समझ में आ सकती है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا يَسۡخَرۡ قَوۡمٞ مِّن قَوۡمٍ عَسَىٰٓ أَن يَكُونُواْ خَيۡرٗا مِّنۡهُمۡ وَلَا نِسَآءٞ مِّن نِّسَآءٍ عَسَىٰٓ أَن يَكُنَّ خَيۡرٗا مِّنۡهُنَّۖ وَلَا تَلۡمِزُوٓاْ أَنفُسَكُمۡ وَلَا تَنَابَزُواْ بِٱلۡأَلۡقَٰبِۖ بِئۡسَ ٱلِٱسۡمُ ٱلۡفُسُوقُ بَعۡدَ ٱلۡإِيمَٰنِۚ وَمَن لَّمۡ يَتُبۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 10
(11) ऐ19 लोगो जो ईमान लाए हो, न मर्द दूसरे मर्दो की हँसी उड़ाएँ, हो सकता है कि वे उनसे बेहतर हों, और न औरतें दूसरी औरतों की हँसी उड़ाएँ, हो सकता है कि वे उनसे बेहतर हों।20 आपस में एक-दूसरे पर तान (व्यंग्य) न करो21 और न एक दूसरे को बुरी उपाधि से याद करो।22 ईमान लाने के बाद फ़िस्क (दुराचार) में नाम पैदा करना बहुत बुरी बात है।23 जो लोग इस रवैये से बाज़ न आएँ वे ज़ालिम हैं।
19. पिछली दो आयतों में मुसलमानों की आपसी लड़ाई के बारे में आवश्यक निर्देश देने के बाद अब आगे की दो आयतों में उन बड़ी-बड़ी बुराइयों को रोकने का आदेश दिया जा रहा है जो आमतौर से एक समाज में लोगों के आपसी सम्बन्धों को खराब करती हैं।
20. हंसी उड़ाने से तात्पर्य केवल ज़बान ही से किसी की हँसी उड़ाना नहीं है, बल्कि किसी की नक़ल उतारना, उसकी ओर इशारे करना, उसकी बात पर या उसके काम या उसके रूप या उसके लिबास पर हँसना या उसकी किसी कमी या दोष की ओर लोगों को इस तरह ध्यान दिलाना कि दूसरे उसपर हँसें, ये सब भी हँसी उड़ाने में दाखिल हैं। असल मनाही जिस चीज़ की है, वह यह है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की किसी न किसी शक्ल में हँसी उड़ाए। मर्दों और औरतों का अलग-अलग उल्लेख जिस कारण किया गया है, वह यह है कि इस्लाम सिरे से (मर्दो-औरतों की) मिली-जुली सोसाइटी ही का कायल नहीं है। एक दूसरे की हँसी आमतौर से उन मजलिसों और प्रोग्रामों में उड़ाई जाती है जिनमें शरीक होनेवाले लोग बेझिझक और निस्संकोच रूप से बात करने के आदी होते हैं, और इस्लाम में यह गुंजाइश रखी ही नहीं गई है कि पराए मर्द और औरतें किसी सभा में जमा होकर आपस में हँसी-मज़ाक करें, इसलिए इस बात की एक मुस्लिम समाज में कल्पना भी नहीं की जा सकती है कि एक सभा में मर्द किसी औरत की हँसी उड़ाएँगे या औरतें किसी मर्द की हँसी उड़ाएँगी।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱجۡتَنِبُواْ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلظَّنِّ إِنَّ بَعۡضَ ٱلظَّنِّ إِثۡمٞۖ وَلَا تَجَسَّسُواْ وَلَا يَغۡتَب بَّعۡضُكُم بَعۡضًاۚ أَيُحِبُّ أَحَدُكُمۡ أَن يَأۡكُلَ لَحۡمَ أَخِيهِ مَيۡتٗا فَكَرِهۡتُمُوهُۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ تَوَّابٞ رَّحِيمٞ ۝ 11
(12) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, बहुत गुमान करने से बचो कि कुछ गुमान गुनाह होते हैं,24 टोह में मत पड़ो25, और तुममें से कोई किसी की ग़ीबत (पीठ पीछे बुराई) न करे।26 क्या तुममें कोई ऐसा है जो अपने मरे हुए भाई का मांस खाना पसन्द करेगा?27 देखो, तुम ख़ुद इससे घिन खाते हो। अल्लाह से डरो, अल्लाह बड़ा तौबा क़बूल करनेवाला और दया करनेवाला है।
24. यहाँ सर्वथा गुमान करने से नहीं रोका गया है, बल्कि बहुत ज़्यादा गुमान से काम लेने और हर प्रकार के गुमान का पालन करने से रोका गया है, और इसका कारण यह बताया गया है कि कुछ गुमान गुनाह होते हैं। वास्तव में जो गुमान गुनाह है, वह यह है कि आदमी किसी व्यक्ति से अकारण बदगुमानी करे या दूसरों के बारे में राय बनाने में सदैव बदगुमानी ही से शुरुआत किया करे या ऐसे लोगों के मामले में बदगुमानी से काम ले जिनका वाह्य रूप यह बता रहा हो कि वे भले और सज्जन हैं। इसी प्रकार यह बात भी गुनाह है कि एक व्यक्ति के किसी कथन या कर्म में बुराई और भलाई को समान रूप से सम्भावना हो और हम सिर्फ़ बदगुमानी से काम लेकर उसको बुराई ही समझें, जैसे कोई भला आदमी किसी सभा से उठते हुए अपने जूते के बजाय किसी और का जूता उठा ले और हम यह राय बना लें कि अवश्य उसने जूता चुराने ही की नीयत से यह हरकत की है। हालाँकि यह काम भूले से भी हो सकता है, और अच्छी सम्भावना को छोड़कर बुरो सम्भावना को अपनाने का कोई कारण बद-गुमानी के सिवा नहीं है।
25. अर्थात् लोगों के भेद और रहस्य न टटोलो। एक-दूसरे के दोष न तलाश करो। दूसरों के हालात और मामलों की टोह न लगाते फिरो। लोगों के निजी पत्रों को पढ़ना, दो आदमियों की बातें कान लगाकर सुनना, पड़ोसियों के घर में झाँकना और विभिन्न तरीकों से दूसरों के घरेलू जीवन या उनके निजी मामलों की टटोल करना, ये सब उस टोह में शामिल हैं जिससे रोका गया है। टोह से रोकने का यह आदेश केवल व्यक्ति ही के लिए नहीं है, बल्कि इस्लामी हुकूमत के लिए भी है। शरीअत ने बुराई से रोकने का जो कर्त्तव्य हुकूमत को सौंपा है, उसका यह तक़ाज़ा नहीं है कि वह जासूसी की एक व्यवस्था स्थापित करके लोगों की छिपी हुई बुराइयाँ ढूंढ-ढूंढकर निकाले और उनपर सज़ा दे, बल्कि उसे केवल उन बुराइयों के विरुद्ध शक्ति का प्रयोग करना चाहिए जो प्रकट हो जाएँ । रहीं छिपी ख़राबियाँ, तो उनके सुधार का रास्ता जासूसी नहीं है, बल्कि शिक्षा, उपदेश, जनता का सामूहिक प्रशिक्षण और एक स्वच्छ सामाजिक वातावरण पैदा करने की कोशिश है। इस आदेश का अपवाद केवल वे विशेष परिस्थितियाँ हैं जिनमें टोह की वास्तव में ज़रूरत हो, जैसे किसी आदमी या गिरोह के व्यवहार में बिगाड़ की कुछ निशानियाँ स्पष्ट दिखाई पड़ रही हैं और उसके बारे में यह आशंका पैदा हो जाए कि वह कोई अपराध करनेवाला है, तो हुकूमत उसके हालात की जाँच कर सकती है। या जैसे किसी आदमी के यहाँ कोई शादी का सन्देश भेजे या उसके साथ कोई कारोबारी मामला करना चाहे, तो वह अपने सन्तोष के लिए उसके हालात की जाँच कर सकता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنَّا خَلَقۡنَٰكُم مِّن ذَكَرٖ وَأُنثَىٰ وَجَعَلۡنَٰكُمۡ شُعُوبٗا وَقَبَآئِلَ لِتَعَارَفُوٓاْۚ إِنَّ أَكۡرَمَكُمۡ عِندَ ٱللَّهِ أَتۡقَىٰكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمٌ خَبِيرٞ ۝ 12
(13) लोगो, हमने तुमको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया और फिर तुम्हारी क़ौमें और बिरादरियाँ बना दी, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। वास्तव में अल्लाह की दृष्टि में तुममें सबसे अधिक इज्जतवाला वह है जो तुममें सबसे ज्यादा परहेज़गार है।28 निश्चय ही अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और ख़बर रखनेवाला है।29
28. पिछली आयतों में ईमानवालों को सम्बोधित करके वे आदेश दिए गए थे जो मुस्लिम समाज को ख़राबियों से बचाए रखने के लिए ज़रूरी हैं। अब इस आयत में पूरी मानव-जाति को सम्बोधित करके उस बड़ी गुमराही का सुधार किया गया है जो दुनिया में सदैव विश्वव्यापी बिगाड़ का कारण बनी रही है। अर्थात् नस्ल, रंग, भाषा, देश और जातीयता (क़ौमियत) का तास्सुब (पक्षपात)। इस छोटी-सी आयत में अल्लाह ने तमाम इंसानों को सम्बोधित करके तीन अति महत्त्वपूर्ण मौलिक तथ्यों का उल्लेख किया है- एक, यह कि तुम सबका मूल एक ही है, एक ही मर्द और एक ही औरत से तुम्हारी पूरी जाति अस्तित्व में आई है। और आज तुम्हारी जितनी नस्लें भी दुनिया में पाई जाती हैं, वे वास्तव में एक आरंभिक नस्ल की शाखाएँ हैं, जो एक माँ और एक बाप से शुरू हुई थी। जन्म के इस क्रम में किसी जगह भी उस भेद-भाव और ऊँच-नीच के लिए कोई आधार मौजूद नहीं है जिसके मिथ्या दंभ में तुम पड़े हुए हो। दूसरे, यह कि अपने मूल की दृष्टि से एक होने के बावजूद तुम्हारा क़ौमों और क़बीलों में बँट जाना एक स्वाभाविक बात थी। मगर इस स्वाभाविक अन्तर और विभेद का तकाज़ा यह हरगिज़ न था कि इसके आधार पर ऊँच-नीच, सज्जन-दुर्जन, श्रेष्ठ-नीच के भेद-भाव कायम किए जाएँ, एक नस्ल दूसरी नस्ल पर अपनी श्रेष्ठता जताए, एक रंग के लोग दूसरे रंग के लोगों को तुच्छ और हीन जानें, एक क़ौम दूसरी क़ौम पर अपनी श्रेष्ठता जमाए और इंसानी हक़ों में एक गिरोह को दूसरे गिरोह पर प्राथमिकता प्राप्त हो। स्रष्टा (पैदा करनेवाले) ने जिस कारण इंसानी गिरोहों को क़ौमों और क़बीलों का रूप दिया था, वह सिर्फ़ यह था कि उनके बीच आपसी परिचय और सहयोग का स्वाभाविक रूप यही था। मगर यह सिर्फ़ शैतानी अज्ञानता थी कि जिस चीज़ को अल्लाह की बनाई हुई प्रकृति ने परिचय का ज़रिया बनाया था उसे गर्व और घृणा का ज़रिया बना लिया गया और फिर नौबत ज़ुल्म और ज्यादती तक पहुंचा दी गई। तीसरे, यह कि इंसान और इंसान के बीच श्रेष्ठता और उच्चता का आधार अगर कोई है और हो सकती है तो वह सिर्फ नैतिक श्रेष्ठता है। जन्म की दृष्टि से तमाम इंसान बराबर हैं। असल चीज़ जिसकी बुनियाद पर एक आदमी को दूसरों पर श्रेष्ठता प्राप्त होती है, वह यह है कि वह दूसरों से बढ़कर ख़ुदा से डरनेवाला, बुराइयों से बचनेवाला और नेकी और पवित्रता की राह पर चलनेवाला हो। यही तथ्य जो क़ुरआन की एक छोटी-सी आयत में बयान किए गए हैं, अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको अपने विभिन्न भाषणों और कथनों में ज्यादा खोलकर बयान फ़रमाया है। [उदाहरण के तौर पर] मक्का की विजय के मौके पर काबा के तवाफ़ के बाद आप (सल्ल०) ने जो उपदेश दिया था, उसमें फ़रमाया, "शुक्र है उस अल्लाह का जिसने तुमसे अज्ञानता का दोष और उसका घमंड दूर कर दिया। लोगो, तमाम इंसान बस दो ही भागों में बँटते हैं। एक, अच्छा (सत्कर्मी) और परहेज़गार, जो अल्लाह की दृष्टि में आदरवाला है। दूसरा, फ़ाजिर (बुरा) और शकी (दुष्ट), जो अल्लाह की दृष्टि में अपमानित है। वरना सारे इंसान आदम की सन्तान हैं और अल्लाह ने आदम को मिट्टी से पैदा किया था।" (तिर्मिज़ी) इस सिलसिले में एक भ्रम को दूर कर देना भी ज़रूरी है। शादी-ब्याह के मामले में इस्लामी क़ानून कुफ़ू (बराबरी) को जो महत्व देता है, उसका कुछ लोग यह अर्थ समझते हैं कि कुछ बिरादरियाँ सज्जन और कुछ नीच हैं और उनके बीच शादी आपत्तिजनक है। लेकिन वास्तव में यह एक ग़लत विचार है। इस्लामी क़ानून के अनुसार हर मुसलमान मर्द की हर मुसलमान औरत से शादी हो सकती है, मगर वैवाहिक जीवन की सफलता इस पर निर्भर करती है कि मियाँ-बीवी (पति-पत्नी) के बीच आदतों, स्वभावों, रहने-सहने के ढंग, पारिवारिक परम्पराओं और आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में ज्यादा से ज्यादा अनुकूलता हो, ताकि वे एक-दूसरे के साथ अच्छी तरह निवाह कर सकें। 'कु' का वास्तविक उद्देश्य यही है। जहाँ मर्द और औरत के बीच इस दृष्टि से बहुत ज्यादा दूरी हो, वहाँ इस बात की आशा कम ही हो सकती है कि जीवन भर वे एक साथ रह सकेंगे। इसलिए इस्लामी क़ानून ऐसे जोड़ लगाने को नापसन्द करता है, इसका कारण यह नहीं है कि दोनों पक्षों में से एक सज्जन और दूसरा नीच है, बल्कि इसका कारण यह है कि स्थितियों में अधिक स्पष्ट अन्तर और विभिन्नता हो तो शादी-ब्याह का ताल्लुक़ बनाने में वैवाहिक जीवन के असफल हो जाने की अधिक संभावना होती है।
29. अर्थात् यह बात अल्लाह ही जानता है कि कौन वास्तव में एक उच्च श्रेणी का मनुष्य है और कौन गुणों की दृष्टि से निचली श्रेणी का है। लोगों ने अपने आप ऊँच या नीच के जो पैमाने बना रखे हैं, वह अल्लाह के यहाँ चलनेवाले नहीं हैं।
۞قَالَتِ ٱلۡأَعۡرَابُ ءَامَنَّاۖ قُل لَّمۡ تُؤۡمِنُواْ وَلَٰكِن قُولُوٓاْ أَسۡلَمۡنَا وَلَمَّا يَدۡخُلِ ٱلۡإِيمَٰنُ فِي قُلُوبِكُمۡۖ وَإِن تُطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ لَا يَلِتۡكُم مِّنۡ أَعۡمَٰلِكُمۡ شَيۡـًٔاۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 13
(14) ये बुद्धू कहते हैं कि “हम ईमान लाए।''30 इनसे कहो, “तुम ईमान नहीं लाए, बल्कि यूं कहो कि हम आज्ञाकारी हो गए।''31 ईमान अभी तुम्हारे दिलों में दाख़िल नहीं हुआ है। अगर तुम अल्लाह और उसके रसूल के आज्ञाकारी हो जाओ तो वह तुम्हारे कर्मों के बदले में कोई कमी न करेगा। निश्चय ही अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और दयावान है ।
30. इससे तात्पर्य सभी बढू नहीं हैं, बल्कि यहाँ उल्लेख कुछ विशेष बद्दू गिरोहों का हो रहा है जो इस्लाम की बढ़ती हुई ताक़त देखकर केवल इस विचार से मुसलमान हो गए थे कि वे मुसलमानों की मार से बचे भी रहेंगे और इस्लामी विजयों के लाभों से फ़ायदा भी उठाएँगे। ये लोग वास्तव में सच्चे दिल से ईमान नहीं लाए थे, सिर्फ़ ज़बान से ईमान का इकरार करके उन्होंने अपने हितों के लिए अपनी गिनती मुसलमानों में करा ली थी। रिवायतों में कई कबाइली गिरोहों के इस रवैये का उल्लेख आया है, जैसे मुजैना, जुहैना, असलम, अशजअ, गिफार आदि। मुख्य रूप से बनी असद बिन ख़ुजैमा के बारे में इब्ने-अब्बास और सईद बिन जुबैर का बयान है कि एक बार अकाल के समय में वे मदीना आए और आर्थिक सहायता की माँग करते हुए बार-बार उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से कहा कि “हम बिना लड़े-भिड़े मुसलमान हुए हैं, हमने आपसे उस तरह लड़ाई नहीं की जिस तरह फ़लों और फलाँ कबीलों ने लड़ाई की है।" इससे उनका साफ़ मतलब यह था कि अल्लाह के रसूल से लड़ाई न करना और इस्लाम स्वीकार कर लेना उनका एक उपकार है, जिसका बदला उन्हें रसूल और ईमानवालों से मिलना चाहिए। मदीना के चारों ओर के बद्दू गिरोहों की यही वह कार्य-नीति है जिसकी इन आयतों में समीक्षा की गई है। इस समीक्षा के साथ सूरा-9 तौबा, आयत 90 से 110 और सूरा-48 फ़त्ह, आयत 11 से 17 को मिलाकर पढ़ा जाए तो बात ज़्यादा अच्छी तरह समझ में आ सकती है।
31. मूल अरबी में 'क़ूलू अस्लमना' के शब्द प्रयुक्त हुए हैं जिनका दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि "कहो, हम मुसलमान हो गए हैं।" इन शब्दों से कुछ लोगों ने यह नतीजा निकाल लिया है कि क़ुरआन मजीद की भाषा में मोमिन' और 'मुस्लिम' दो पारिभाषिक शब्द हैं जिनके परस्पर अलग-अलग अर्थ हैं। मोमिन वह है जो सच्चे दिल से ईमान लाया हो और मुस्लिम वह है जिसने ईमान के बिना केवल ज़ाहिर में इस्लाम स्वीकार कर लिया हो। लेकिन यह विचार बिलकुल ग़लत है। इसमें सन्देह नहीं कि इस जगह ईमान का शब्द दिल से पुष्टि के लिए और इस्लाम का शब्द सिर्फ ज़ाहिरी इताअत (आज्ञापालन) के लिए प्रयुक्त हुआ है। मगर यह समझ लेना सही नहीं है कि ये क़ुरआन के दो स्थाई और परस्पर विरोधी पारिभाषिक शब्द हैं। कुरआन की जिन आयतों में इस्लाम और मुस्लिम के शब्द प्रयुक्त हुए हैं, उनपर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि क़ुरआन की पारिभाषिक शब्दावली में 'इस्लाम' उस सच्चे दीन का नाम है जो अल्लाह ने मानव-जाति के लिए भेजा है। उसके अर्थ में ईमान और इताअत (आज्ञापालन) दोनों शामिल हैं, और 'मुस्लिम' वह है जो सच्चे दिल से माने और व्यावहारिक रूप से आज्ञापालन करे। उदाहरण के रूप में देखिए [सूरा-3 आले-इमरान, आयत 19; सूरा-5 अल-माइदा, आयत 3; सूरा-6 अल-अनआम, आयत 125, आयत 14; सूरा-5 अल-माइदा, आयत 44; इसी तरह 'मुस्लिम' शब्द बार-बार जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है उसके लिए देखिए सूरा-3 आले-इमरान, आयत 102; सूरा-22 अल-हज्ज, आयत 75; सूरा-3 आले-इमरान, आयत 67; सूरा-2 अल-बक़रा, आयत 128 और आयत 132] अर्थ ईमान के बिना आज्ञापालन स्वीकार कर लेना है और मुस्लिम से तात्पर्य वह आदमी है जो दिल से न माने, बस प्रत्यक्ष में इस्लाम स्वीकार कर ले? इसलिए यह दावा करना निश्चित रूप से ग़लत है कि क़ुरआन की पारिभाषिक शब्दावली में इस्लाम से तात्पर्य आज्ञापालन विना ईमान है और मुस्लिम क़ुरआन की भाषा में सिर्फ प्रत्यक्ष रूप में इस्लाम अपना लेनेवाले को कहते हैं। इसी तरह यह दावा करना भी गलत है कि ईमान और मोमिल के शब्द कुरआन मजीद में अनिवार्य रूप से सच्चे दिल से मानने हो के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। निस्सन्देह अधिकतर स्थानों पर ये शब्द इसी अर्थ के लिए आए हैं, लेकिन बहुत-सी जगहें ऐसी भी हैं जहाँ ये शब्द ईमान की प्रत्यक्ष स्वीकृति के लिए भी प्रयुक्त किए गए हैं, और 'ऐ ईमानबालो!' कहकर उन सब लोगों को सम्बोधित किया गया है जो ज़बान से इकरार करके मुसलमानों के गिरोह में शामिल हुए हों, यह देखे बिना कि वे सच्चे मोमिन हों या कमजोर ईमानवाले या सिर्फ मुनाफ़िक (कपटाचारी)। इसकी बहुत-सी मिसालों में से सिर्फ कुछ के लिए देखिए सूरा-3 आले-इमरान, आयत 156; सूरा-4 अन-निसा, आयत 136; सूरा-5 अल-माइदा, आयत 54; सूरा-8 अल-अनफ़ाल, आयत 20 से 27; सूरा-9 अत-तौबा, आयत 38; सूरा-57 अल-हदीद, आयत 28; सूरा-61 अस-सफ़्फ़, आयत 2
إِنَّمَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ ثُمَّ لَمۡ يَرۡتَابُواْ وَجَٰهَدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلصَّٰدِقُونَ ۝ 14
(15) वास्तव में ईमानवाले तो वे हैं जो अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाए, फिर उन्होंने कोई सन्देह न किया और अपनी जानों और मालों से अल्लाह की राह में जिहाद (जान तोड़ प्रयास) किया। वही सच्चे लोग हैं।
قُلۡ أَتُعَلِّمُونَ ٱللَّهَ بِدِينِكُمۡ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 15
(16) ऐ नबी ! इन (ईमान के दावेदारों) से कहो, क्या तुम अल्लाह को अपने दीन की ख़बर दे रहे हो? हालाकि अल्लाह जमीन और आसमानों की हर चीज को जानता है और वह हर चीज़ का ज्ञान रखता है।
يَمُنُّونَ عَلَيۡكَ أَنۡ أَسۡلَمُواْۖ قُل لَّا تَمُنُّواْ عَلَيَّ إِسۡلَٰمَكُمۖ بَلِ ٱللَّهُ يَمُنُّ عَلَيۡكُمۡ أَنۡ هَدَىٰكُمۡ لِلۡإِيمَٰنِ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 16
(17) ये लोग तुमपर एहसान जताते हैं कि इन्होंने इस्लाम क़बूल कर लिया। इनसे कहो, अपने इस्लाम का एहसान मुझपर न रखो, बल्कि अल्लाह तुमपर अपना एहसान रखता है कि उसने तुम्हें ईमान का रास्ता दिखाया अगर तुम वास्तव में (अपने ईमान के दावे) में सच्चे हो।
إِنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ غَيۡبَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 17
(18) अल्लाह ज़मीन और आसमानों की हर छिपी चीज़ का ज्ञान रखता है, और जो कुछ तुम करते हो, वह सब उसकी दृष्टि में है।